शायद भारत में सुपरनोवा का अवलोकन किया गया था – प्रदीप

बात 4 जुलाई 1054 की है जब चीन और जापान के शाही ज्योतिषियों ने रात्रि आकाश के एक कोने में वृषभ राशि के अंदर अचानक एक प्रकाशपुंज को उभरते हुए देखा था जबकि कुछ ही देर पहले वहां कुछ नहीं था। अचानक ही वहां तारे जैसा कुछ चमकने लगा। इसके बाद वह इस कदर चमकीला होता गया कि उसकी चमक शुक्र ग्रह की चमक से पांच गुना ज़्यादा हो गई। पूरे 23 दिनों तक वह तारा दिन के उजाले में भी चमकता रहा! ज्योतिषी इसे देखकर हैरान हो गए होंगे; उन्हें बिलकुल भी समझ में नहीं आया होगा कि आखिर वह चीज़ थी क्या और अचानक कहां से प्रकट हुई थी? चीनी ज्योतिषियों ने एकाएक प्रकट होने वाले इस तारे को ‘काई ज़िंग’ या ‘मेहमान तारा’ नाम दिया। वह मेहमान तारा तकरीबन दो साल बाद आकाश से ओझल हो गया!

वृषभ राशि के ठीक उसी स्थान पर युरोपीय खगोलविदों ने 700 वर्ष बाद सन 1731 में दूरबीन से एक तारा देखा। फिर 1758 में खगोलविद शार्ल मेसिए ने बताया कि वह कोई तारा नहीं है, बल्कि एक निहारिका (नेबुला) है। चीनियों द्वारा देखे गए ‘मेहमान तारे’ के विस्फोट के अवशेष कर्क निहारिका (क्रैब नेबुला) के रूप में आज भी मौजूद हैं। ऐसे ही विस्फोटित तारों को अब वैज्ञानिक नोवा या सुपरनोवा नाम देते हैं। जब कोई तारा बतौर सुपरनोवा विस्फोटित होता है तब उसकी चमक कुछ देर के लिए समूची मंदाकिनी को भी फीका कर देती है। यही नहीं, इस दौरान इतनी अधिक मात्रा में ऊर्जा निकलती है कि उतनी ऊर्जा हमारा सूर्य अपने पूरे जीवनकाल में नहीं उत्सर्जित कर सकता!

एक सहस्राब्दी में कोरी आंखों से चंद सुपरनोवा विस्फोट ही दिखाई देते हैं। इस लिहाज़ से सुपरनोवा का दिखाई देना एक दुर्लभ खगोलीय घटना है। क्रैब सुपरनोवा के बाद खगोलविद टायको ब्रााहे ने 1572 में और जोहांस केपलर ने 1604 में हमारी आकाशगंगा में  प्रकट हुए सुपरनोवा देखे थे।

खगोलविदों का मानना है कि 1054 के सुपरनोवा को चीन और जापान के अलावा दुनिया में और भी जगहों पर (मसलन भारत, यूरोप, मध्यपूर्व और अमेरिका) में भी लोगों ने देखा होगा। आश्चर्य की बात यह है इस अद्भुत खगोलीय घटना को भारत में देखे जाने का कोई भी उल्लेख या रिकॉर्ड अभी तक नहीं मिला था, जबकि उस समय भारत में सैद्धांतिक खगोल विज्ञान का स्वर्णयुग चल रहा था। यह युग पांचवी शताब्दी में आर्यभट से लेकर बारहवीं शताब्दी में भास्कर द्वितीय तक चला। प्रसिद्ध खगोल शास्त्री जयंत नार्लीकर और संस्कृत और प्राकृत भाषा की विद्वान सरोजा भाटे ने उस काल में रचित साहित्य, अभिलेखों आदि की जांच-पड़ताल की जिस काल में क्रैब सुपरनोवा की घटना घटी थी, तो उन्हें भारतीयों द्वारा सुपरनोवा देखने का कोई भी साक्ष्य या उल्लेख नहीं मिला।

अब जवाहरलाल नेहरू प्लेनेटेरियम, बैंगलुरु की भूतपूर्व निदेशक डॉ. बी.एस. शैलजा ने इंडिया साइंस वायर में प्रकाशित एक फीचर आलेख में यह जानकारी दी है कि हाल में किए गए अध्ययनों में कुछ शिलालेखों में भारतीयों द्वारा उक्त सुपरनोवा को देखने के साक्ष्य मिले हैं। आगे डॉ. शैलजा को ही उद्धरित कर रहा हूं।

दक्षिण भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया में पत्थरों पर लिखने की परंपरा रही है। इन शिलालेखों में प्रयुक्त भाषा संस्कृत थी, जिसका अभिप्राय समझना सरल था। इन शिलालेखों में ग्रहणों और ग्रहों की युतियों से सम्बंधित खगोलीय विवरण मिलते हैं।

कंबोडिया में एक ऐसा शिलालेख मिला है, जिसमें किसी साधु द्वारा शिवलिंग की स्थापना के समय शिव के लिए ‘शुक्रतारा प्रभावाय’ विशेषण प्रयुक्त हुआ है, अर्थात वह जो शुक्र जैसी तीव्र कांति उत्पन्न कर सकता है। शिलालेख शुक्र जैसे चमकीले किसी तारे के प्रेक्षण की ओर संकेत करता है और शायद वह सुपरनोवा देखने की घटना थी।

एक और ऐसा शिलालेख मिला है जो अजिला साम्राज्य के समय का है। इसमें कर्नाटक के वेनुरु नामक कस्बे में बाहुबली की विशाल प्रतिमा की स्थापना के बारे में लिखा है। एक समय में कर्नाटक जैन धर्म का प्रमुख केंद्र था। यद्यपि यह शिलालेख कन्नड़ लिपि में लिखा गया है, पर इसकी भाषा संस्कृत है। शिलालेख में उस समय की पूरी तारीख लिखी है; दिन, महीना और वर्ष सहित। इस शिलालेख में 1604 के सुपरनोवा का ज़िक्र है।

शिलालेख में इस स्तंभ को ‘क्षीरामबुधि में निशापति’ की संज्ञा दी गई है। निशापति चंद्रमा को कहते हैं। यह शब्द कपूर के लिए भी प्रयुक्त होता है। क्षीरामबुधि के दो अर्थ संभव हैं, कर्नाटक का बेलागोला (कन्नड़ में जिसका अर्थ सफेद झील है) कस्बा, और दूसरा आकाशगंगा। वर्ष 1604 का सुपरनोवा धनु राशि के क्षेत्र में देखा गया था, जो आकाशगंगा में स्थित है।

एस्ट्रोलेब नामक प्राचीन खगोलीय यंत्र का उपयोग पुराने समय में समुद्री यात्राओं में दिशाज्ञान के लिए किया जाता था। एस्ट्रोलेब दरअसल तारों-नक्षत्रों की क्षितिज से ऊंचाई बताता है। एक इतिहासकार प्रोफेसर एस.आर. शर्मा ने जब विश्व भर के संग्रहालयों में विभिन्न एस्ट्रोलेब यंत्रों का अध्ययन किया तो उन्हें 25 दिसंबर 1605 का बना एक एस्ट्रोलेब मिला। इसमें धनुषाग्र और धनुकोटि नाम के दो तारे अंकित मिले। तारा धनुकोटि तो लगभग सभी एस्ट्रोलेब में मिलता है और उसका पाश्चात्य नाम है ‘अल्फा ओफियुकी’ या अरबी नाम ‘रासअलहाइग’ है पर तारा धनुषाग्र केवल इसी एस्ट्रोलेब में मिला और इसकी स्थिति वर्ष 1604 के सुपरनोवा के स्थान पर मिली। इस प्रकार हमें दो ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में इस सुपरनोवा का उल्लेख मिलता है।

इसी प्रकार, हमें 1572 के सुपरनोवा का उल्लेख संस्कृत व्याकरण की एक पुस्तक में मिलता है, जिसे संस्कृत के एक विद्वान अप्पया दीक्षित (1520-1593) ने लिखा था। उनकी रचना ‘कुवाल्यानंदा’ में लिखा है – “व्योमगंगा (आकाशगंगा) में यह क्या है? कमल जैसा है। चंद्रमा भी नहीं है। सूर्य भी नहीं, क्योंकि समय रात का है।” इन उल्लेखों को देखते हुए लगता है कि अन्य भारतीय भाषाओं में ऐसे संदर्भों में इन खगोलीय घटनाओं को खोजना उपयोगी हो सकता है।

उपरोक्त आधार पर हम कह सकते हैं कि शायद विद्वानों का यह मत सही नहीं है कि भारतीय लेखन में सुपरनोवा जैसी महत्वपूर्ण आकाशीय घटनाओं का उल्लेख नहीं मिलता। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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फ्रोज़न वृषण से शुक्राणु लेकर बंदर शिशु का जन्म

ह तो एक जानी-मानी टेक्नॉलॉजी बन चुकी है कि किसी स्त्री के अंडाशय को अत्यंत कम तापमान पर संरक्षित रख लिया जाए और बाद में उसे सक्रिय करके अंडाणु उत्पादन करवाया जाए। यह तकनीक उन मामलों में उपयोगी पाई गई है जब किसी स्त्री को कैंसर का उपचार करवाते हुए अंडाशय को क्षति पहुंचने की आशंका होती है। मगर पुरुषों के वृषण को इस तरह संरक्षित करके शुक्राणु उत्पादन की तकनीक का दूसरा सफल प्रयोग हाल ही में पिटसबर्ग विश्वविद्यालय में संपन्न हुआ। यह प्रयोग साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

इस प्रयोग में 5 रीसस बंदरों के वृषण के ऊतक निकालकर कम तापमान पर सहेज लिए गए। जब वृषण निकाले गए थे तब ये सभी बंदर बच्चे थे और इनके वृषण ने शुक्राणु निर्माण शुरू नहीं किया था। इसके बाद इन बंदरों को वंध्या कर दिया गया। इसके बाद जब ये बंदर किशोरावस्था में पहुंचे तब बर्फ में रखे वृषण-ऊतक निकालकर उन्हीं बंदरों के वृषणकोश में प्रत्यारोपित कर दिए गए, जिनसे ये निकाले गए थे।

आठ से बारह महीने बाद इन प्रत्यारोपित ऊतकों की जांच करने पर पता चला कि इनमें शुक्राणु का उत्पादन होने लगा है। इन शुक्राणुओं की मदद से 138 अंडों को निषेचित किया गया। इनमें से मात्र 16 ही ऐसे भ्रूण बने जिनका प्रत्यारोपण मादा बंदरों में किया जा सकता था। इनमें से भी मात्र एक ही गर्भावस्था तक पहुंचा और जीवित जन्म हुआ।

यह सही है कि 138 निषेचित अंडों से शुरू करके मात्र एक शिशु का जन्म होना बहुत कम प्रतिशत है लेकिन यह बहुत आशाजनक है कि अविकसित वृषण की स्टेम कोशिकाओं को सहेजकर रखा जा सकता है और वे बाद में विभेदित होकर शुक्राणु का उत्पादन कर सकती हैं। अब अगला कदम मनुष्यों के लिए इस तकनीक की उपयोगिता की जांच का होगा। (स्रोत फीचर्स)

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परमाणु विखंडन का एक दुर्लभ ढंग देखा गया

टली के एक पर्वत के अंदर बैठकर वैज्ञानिकों का एक दल डार्क मैटर की खोज में जुटा है। उन्हें अभी तक डार्क मैटर यानी अदृश्य पदार्थ के ‘दर्शन’ तो नहीं हुए हैं लेकिन एक दुर्लभ किस्म के परमाणु विखंडन की प्रक्रिया को देखने और अध्ययन करने का मौका ज़रूर मिल गया।

यह प्रयोग ज़ीनॉन सहयोग है। इसमें एक बड़-सी टंकी में 3200 किलोग्राम ज़ीनॉन गैस भरी है। ज़ीनॉन एक अक्रिय गैस है और विकिरण से सुरक्षित है। इसलिए ऐसा माना जाता है कि यदि ब्राहृांड में कणों की कोई अत्यंत दुर्लभ अंतर्क्रिया हुई तो ज़ीनॉन की इस टंकी में उसे कैद करना और उसका अध्ययन करना सबसे बढ़िया ढंग से हो सकेगा।

अलबत्ता, ऐसी कोई अंतर्क्रिया तो देखी नहीं गई है जो अदृश्य पदार्थ का सुराग दे सके लेकिन ज़ीनॉन के परमाणु का विखंडन ज़रूर देख लिया गया है जो अपने-आप में एक दुर्लभ घटना है।  इस घटना की दुर्लभता को समझने के लिए यह आंकड़ा पर्याप्त होगा कि ज़ीनॉन-124 की अर्ध-आयु 1.8×1022 वर्ष है। यह ब्राहृांड की वर्तमान उम्र से लगभग 1 खरब गुना है। अर्ध-आयु का मतलब होता है कि किसी पदार्थ के जितने परमाणु हैं उनमें से आधे के विखंडन में लगने वाला समय।

ज़ीनॉन का परमाणु भार 124 है और इसके केंद्रक में 54 प्रोटॉन होते हैं। इसके परमाणु का विखंडन होता है तो एक अन्य तत्व टेलुरियम-124 बनता है। यह विखंडन सामान्य विखंडन नहीं है बल्कि थोड़ा असाधारण है। ज़ीनॉन-124 के विखंडन में होता यह है कि उसके केंद्रक के इर्द-गिर्द घूम रहे 54 इलेक्ट्रॉन में से 2 केंद्रक में प्रवेश कर जाते हैं। केंद्रक में पहुंचकर ये दोनों एक-एक प्रोटॉन से जुड़कर उन्हें न्यूट्रॉन में बदल देते हैं। इस प्रक्रिया में न्यूट्रिनो नामक कण मुक्त होते हैं। न्यूट्रिनो एक रहस्यमय कण है जिस पर कोई आवेश नहीं होता और जिसका द्रव्यमान भी नगण्य होता है। इसलिए यह कण अन्य कणों से कोई अंतर्क्रिया करे तो भी पता नहीं चलता।

बहरहाल, विखंडन की इस प्रक्रिया में ऊर्जा मुक्त होती है जो एक्स-रे के रूप में निकलती है। ज़ीनॉन सहयोग के दल ने इसी एक्स-रे के आधार पर पता लगाया है कि ज़ीनॉन की टंकी में यह दुर्लभ विखंडन हुआ है। इसकी मदद से उन्होंने इस क्रिया के समय का मापन भी किया है। इसके आधार पर वे ज़ीनॉन-124 की अर्ध-आयु निकालने में सफल रहे हैं। यह प्रयोग द्वारा निकाली गई सबसे लंबी अर्ध-आयु है। वैसे इससे अधिक अर्ध-आयु टेलुरियम-128 की है किंतु उसे प्रयोग द्वारा नहीं निकाला गया है बल्कि उसकी गणना ही की गई है। (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी धुरी पर क्यों घूमती है?

पृथ्वी के अस्तित्व में आने से लेकर अभी तक वह लगातार अपनी धुरी पर घूम रही है। इसके घूमने से ही हम रोज़ सूर्योदय और सूर्यास्त देखते हैं। और जब तक सूरज एक लाल दैत्य में परिवर्तित होकर पृथ्वी को निगल नहीं जाता तब तक ऐसे ही घूमती रहेगी।  लेकिन सवाल यह है कि पृथ्वी घूमती क्यों है?

पृथ्वी का निर्माण सूर्य के चारों ओर घूमने वाली गैस और धूल की एक डिस्क से हुआ। इस डिस्क में धूल और चट्टान के टुकड़े आपस में चिपक गए और पृथ्वी का निर्माण हुआ। जैसे-जैसे इसका आकार बढ़ता गया, अंतरिक्ष की चट्टानें इस नए-नवेले ग्रह से टकराती रहीं और इन टक्करों की शक्ति से पृथ्वी घूमने लगी। चूंकि प्रारंभिक सौर मंडल में सारा मलबा सूर्य के चारों ओर एक ही दिशा में घूम रहा था, टकराव ने पृथ्वी और सौर मंडल की सभी चीज़ों को उसी दिशा में घुमाना शुरू कर दिया।

लेकिन सवाल यह उठता है सौर मंडल क्यों घूम रहा था? धूल और गैस के बादल का अपने ही वज़न से सिकुड़ने के कारण सूर्य और सौर मंडल का निर्माण हुआ था। अधिकांश गैस संघनित होकर सूर्य में परिवर्तित हो गई, जबकि शेष पदार्थ ग्रह बनाने वाली तश्तरी के रूप में बना रहा। इसके संकुचन से पहले, गैस के अणु और धूल के कण हर दिशा में गति कर रहे थे किंतु किसी समय पर कुछ कण एक विशेष दिशा में गति करने लगे। जिससे इनका घूर्णन शुरू हो गया। जब गैस बादल पिचक गया तब बादल का घूमना और तेज़ हो गया। जैसे जब कोई स्केटर अपने हाथों को समेट लेता है तो उसकी घूमने की गति बढ़ जाती है। अब अंतरिक्ष में चीज़ों को धीमा करने के लिए तो कुछ है नहीं, इसलिए, एक बार जब कोई चीज़ घूमने लगती है, तो घूमती रहती है। ऐसा लगता है कि शैशवावस्था में सौर मंडल के सारे पिंड एक ही दिशा में घूर्णन कर रहे थे।

अलबत्ता, बाद में कुछ ग्रहों ने अपने स्वयं का घूर्णन को निर्धारित किया है। शुक्र पृथ्वी के विपरीत दिशा में घूमता है, और यूरेनस की घूर्णन धुरी 90 डिग्री झुकी हुई है। वैज्ञानिकों के पास इसका कोई ठोस उत्तर तो नहीं है किंतु कुछ अनुमान ज़रूर हैं। जैसे, हो सकता है कि किसी पिंड से टक्कर के कारण शुक्र उल्टी दिशा में घूमने लगा हो। या यह भी हो सकता है कि शुक्र के घने बादलों पर सूर्य के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव और शुक्र के अपने कोर व मेंटल के बीच घर्षण की वजह से ऐसा हुआ हो। यूरेनस के मामले में वैज्ञानिकों ने सुझाया है कि या तो एक पिंड से ज़ोरदार टक्कर या दो पिंडों से टक्कर ने उसे पटखनी दी है।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ ग्रह ही अपनी धुरी पर घूमते हैं। सौर मंडल में मौजूद सभी चीज़ें (क्षुद्रग्रह, तारे, और यहां तक कि आकाश गंगा भी) घूमती हैं।

चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण से पृथ्वी की गति में भी कमी आती है। 2016 में प्रोसिडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी के अनुसार एक सदी में पृथ्वी का एक चक्कर 1.78 मिलीसेकंड धीमा हो गया है। (स्रोत फीचर्स)

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क्या सीखते हैं हम जंतुओं पर प्रयोग करके – डॉ. सुशील जोशी

किसी ने एक सवाल पूछा था कि चूहों पर इतने प्रयोग क्यों किए जाते हैं। परंतु उस सवाल में उलझने से पहले यह देखना दिलचस्प होगा कि जंतुओं पर प्रयोग किए ही क्यों जाते हैं। वैसे इस संदर्भ में आम लोगों के मन में यह धारणा है कि जंतुओं पर प्रयोग इंसानों की बीमारियों के इलाज खोजने के लिए किए जाते हैं। यह धारणा कुछ हद तक सही है किंतु पूरी तरह सही नहीं है। तो चलिए देखते हैं कि मनुष्यों ने जंतुओं पर प्रयोग करना कब शुरू किया था, किस मकसद से ये प्रयोग किए जाते हैं और किन जंतुओं पर किए जाते हैं।

कुछ आंकड़े

सबसे पहले यह देखते हैं कि आजकल प्रयोगों में कितने जंतुओं का उपयोग होता है। कई कारणों से इस सम्बंध में कोई पक्का या विश्वसनीय आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। एक कारण तो यह है कि जंतुओं पर प्रयोग करने को लेकर अलग-अलग देशों में अलग-अलग कानून और व्यवस्थाएं हैं। कुछ देशों में सारे जंतु प्रयोगों की रिपोर्ट देनी होती है तो कुछ देशों में कोई रिपोर्ट देना ज़रूरी नहीं है। कुछ देशों में जंतु कल्याण कानून लागू है और इन देशों में सिर्फ उन जंतुओं के बारे में रिपोर्ट देनी पड़ती है जो इस कानूनी में शामिल हैं। फिर ‘प्रयोग में जंतु का उपयोग’ की परिभाषाएं भी अलग-अलग हैं – जैसे किसी देश में प्रयोग के लिए जंतुओं को प्रयोगशाला में रखना भी प्रयोग माना जाता है, तो किसी देश में प्रयोग होने का सम्बंध जंतु की चीरफाड़ से माना जाता है।

बहरहाल, ब्यूटी विदाउट क्रुएल्टी नामक संस्था के मुताबिक हर साल दुनिया भर में 11.5 करोड़ जंतु प्रयोगशालाओं में मारे जाते हैं। अमरीकी कृषि विभाग के एनिमल एंड प्लांट हेल्थ इंस्पेक्शन सर्विस (जंतु एवं वनस्पति स्वास्थ्य निरीक्षण सेवा) की एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2016 में अमरीका में सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाओं में लगभग 8,20,000 जंतुओं पर प्रयोग किए गए थे। किंतु इनमें सिर्फ वही जंतु शामिल हैं जो अमरीका के एनिमल वेलफेयर कानून में शामिल हैं। माइस, चूहे, मछलियां वगैरह इस कानून में कवर नहीं होते। इसके अलावा इस आंकड़े में उन 1,37,000 से अधिक जंतुओं को भी शामिल नहीं किया गया है जिन्हें प्रयोगशालाओं में रखा गया था किंतु वे किसी प्रयोग का हिस्सा नहीं थे। एक अनुमान के मुताबिक, यदि अन्य जंतुओं को भी जोड़ा जाए, तो अकेले अमरीका में प्रयोगों में इस्तेमाल किए गए जंतुओं की संख्या 1.2-2.7 करोड़ तक हो सकती है। एक शोध पत्र के मुताबिक दुनिया भर में प्रयोगों में प्रति वर्ष करीब 11 करोड़ जंतुओं का इस्तेमाल किया जाता है। भारत के बारे में अलग से कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।

मकसद

यह तो सही है कि आजकल जंतु प्रयोग दवाइयों के विकास या सौंदर्य प्रसाधनों की जांच के लिए किए जाते हैं। किंतु ऐसा भी नहीं है कि सारे जंतु प्रयोग मात्र इन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किए जाते हैं। कई जंतु प्रयोग मूलभूत जीव वैज्ञानिक प्रक्रियाओं को समझने के लिए भी किए जाते हैं।

ऐतिहासिक रूप से जंतु प्रयोगों का मूल मकसद जीव विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में समझ बढ़ाने का रहा है। प्रयोगों में जंतुओं का उपयोग मूलत: इस समझ पर टिका है कि सारे जीव-जंतु विकास के माध्यम से परस्पर सम्बंधित हैं। विकास की दृष्टि से देखें तो कुछ जंतु परस्पर ज़्यादा निकट हैं जबकि कुछ अपेक्षाकृत अधिक भिन्न हैं। जैसे यदि हम आनुवंशिकी का अध्ययन करना चाहते हैं तो कोई भी जीव इसमें सहायक हो सकता है क्योंकि विकास की लंबी अवधि में पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुणों के हस्तांतरण की विधि एक-सी रही है। किसी प्रक्रिया या परिघटना के अध्ययन के लिए जिस जीव को चुना जाता है उसे ‘मॉडल’ कहते हैं। कभी-कभी कोई जीव किसी रोग विशेष या परिघटना विशेष का मॉडल भी होता है।

‘मॉडल’ जीवों का चयन उनके साथ काम करने तथा उनमें फेरबदल करने की सरलता पर निर्भर है। आणविक जीव विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे सर्वप्रथम ‘मॉडल’ जीव एक किस्म के वायरस थे जिन्हें बैक्टीरिया-भक्षी वायरस (बैक्टीरियोफेज) कहते हैं। ये वायरस बैक्टीरिया को संक्रमित करते हैं। ये काफी रफ्तार से संख्यावृद्धि करते हैं। इसलिए इनके साथ काम करना सुविधाजनक है। बैक्टीरियाभक्षी वायरस भी प्रजनन करते हैं और मनुष्य भी। यह सही है कि प्रजनन की प्रक्रिया की बारीकियों में अंतर होते हैं किंतु जीवन के सबसे ‘निचले’ से लेकर सबसे ‘ऊपरी’ स्तर तक सिद्धांत वही रहता है। बैक्टीरिया-भक्षियों ने हमें यह खोज करने में मदद दी कि आनुवंशिक पदार्थ प्रोटीन नहीं बल्कि डीएनए है।

अलबत्ता, वायरस स्वतंत्र जीव नहीं होते और उन्हें अपना कामकाज चलाने के लिए किसी अधिक विकसित जीव के सहारे की ज़रूरत होती है। इसलिए मशहूर एशरीशिया कोली (E. coli) नामक बैक्टीरिया जीवन का बेहतर मॉडल बन गया। इस बैक्टीरिया ने न सिर्फ प्रजनन के मूल रूप को समझने में मदद की बल्कि यह समझने में भी मदद की कि आम तौर पर शरीर की बुनियादी क्रियाएं यानी चयापचय कैसे चलती हैं और कोशिका नामक सजीव कारखाना कैसे जीवनदायी रसायनों के उपभोग व उत्पादन का नियमन करता है।

लेकिन ई. कोली व अन्य बैक्टीरिया मनुष्य से बहुत भिन्न होते हैं। इनकी कोशिकाओं में केंद्रक तथा अन्य कोशिकांग नहीं होते। इसलिए खमीर कोशिकाओं जैसी ज़्यादा पेचीदा केंद्रक-युक्त कोशिकाएं मनुष्य की कोशिकीय प्रक्रियाओं को समझने का बेहतर मॉडल बनकर उभरीं। अलबत्ता, खमीर यानी यीस्ट एक-कोशिकीय जीव होते हैं जबकि मनुष्य बहु-कोशिकीय हैं। किसी बहु-कोशिकीय जीव का जीवन कहीं अधिक पेचीदा होता है। बहु-कोशिकीय जीवों में अलग-अलग कोशिकाएं अलग-अलग काम करने लगती हैं, उनके बीच परस्पर संवाद और सहयोग की ज़रूरत होती है। लिहाज़ा, बहु-कोशिकीय मगर काम करने में आसान फ्रूट फ्लाई (फल-मक्खी) और अन्य कृमि मनुष्य के जीव विज्ञान के अध्ययन के बेहतर मॉडल बन गए।

यहां यह कहना ज़रूरी है कि कई वैज्ञानिकों ने मनुष्य की शरीर क्रियाओं के अध्ययन के लिए स्वयं पर भी प्रयोग किए हैं। ऐसे वैज्ञानिकों में ब्रिटिश वैज्ञानिक (जिन्होंने आगे चलकर भारत की नागरिकता ले ली थी) जे.बी.एस. हाल्डेन का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। हाल्डेन ने कई खतरनाक प्रयोग स्वयं पर किए थे।

इसके बाद आती है बीमारियों को समझने और उनका उपचार करने की ज़रूरत। इसके लिए ऐसे जीवों का चयन करना होता है जिनमें वह बीमारी या तो कुदरती रूप से होती हो या कृत्रिम रूप से पैदा की जा सके। इसके लिए हमें चूहों, खरगोशों और बंदरों का उपयोग करना होता है। कई बार हमें इनके जेनेटिक रूप से परिवर्तित रूपों का भी उपयोग करना पड़ता है। इन अध्ययनों के चलते न सिर्फ कई महत्वपूर्ण खोजें हुर्इं बल्कि इन्होंने जंतु अधिकार सम्बंधी कई विवादों को भी जन्म दिया।

बड़े जंतुओं पर प्रयोग

बड़े जंतुओं पर प्रयोग कई मायनों में महत्वपूर्ण हैं। छोटे जंतुओं (जैसे वायरस, बैक्टीरिया, फल-मक्खी, कृमि वगैरह) पर प्रयोग बुनियादी जीवन क्रियाओं के संदर्भ में उपयोगी होते हैं क्योंकि बुनियादी स्तर पर ये क्रियाएं लगभग एक समान होती हैं। किंतु यदि विशेष रूप से किसी बीमारी या ऐसे गुणधर्म का अध्ययन करना हो जो मनुष्यों के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है तो ऐसे जंतु का चयन करना होता है जिसे वह बीमारी होती हो या उस गुणधर्म विशेष के मामले में कुछ समानता हो। जैसे यदि आप दर्द की प्रक्रिया को समझना चाहते हैं तो जंतु ऐसा होना चाहिए जिसे दर्द होता हो। इस दृष्टि से बड़े जंतुओं पर प्रयोग महत्वपूर्ण हो जाते हैं।

उदाहरण के लिए एंतोन लेवॉज़िए ने गिनी पिग (एक किस्म का चूहा) पर प्रयोगों की मदद से ही यह स्पष्ट किया था कि श्वसन एक किस्म का नियंत्रित दहन ही है। इसी प्रकार से भेड़ों में एंथ्रेक्स का संक्रमण करके लुई पाश्चर ने रोगों का कीटाणु सिद्धांत विकसित किया था जो आधुनिक चिकित्सा की एक अहम बुनियाद है। जंतुओं पर प्रयोगों से ही पाचन क्रिया की समझ विकसित हुई थी और यह स्पष्ट हुआ था कि पाचन एक भौतिक नहीं बल्कि रासायनिक प्रक्रिया है।

जंतुओं पर प्रयोगों ने हमें मनुष्य की शरीर क्रियाओं को समझने में बहुत मदद की है। इसके अलावा संक्रामक रोगों को समझने व उनका उपचार करने की दिशा में भी जंतु प्रयोगों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जैसे 1940 में जोनास साल्क ने रीसस बंदरों पर प्रयोग किए थे और पोलियो के सबसे संक्रामक वायरस को अलग किया था जिसके आधार पर पहला पोलियो का टीका बनाया गया था। इसके बाद अल्बर्ट सेबिन ने विभिन्न जंतुओं पर प्रयोग करके इस टीके में सुधार किया और इसने दुनिया से पोलियो का सफाया करने में मदद की। इसी प्रकार से थॉमस हंट मॉर्गन ने फल-मक्खी ड्रोसोफिला पर प्रयोगों के माध्यम से यह स्पष्ट किया था कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुणों का हस्तांतरण करने वाले जीन्स गुणसूत्रों के माध्यम से फैलते हैं। आज भी फल-मक्खी भ्रूणीय विकास और आनुवंशिकी को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण मॉडल जंतु है।

माउस (Mus musculus) एक प्रकार का चूहा होता है और इस पर ढेरों प्रयोग किए जाते हैं। दरअसल विलियम कासल और एबी लेथ्रॉप ने माउस की एक विशेष किस्म विकसित की थी। तब से ही माउस कई जीव वैज्ञानिक खोजों के लिए मॉडल जंतु रहा है।

गिनी पिग (Cavia porcellus) एक और चूहा है जिसने वैज्ञानिक खोजों में योगदान दिया है। जैसे, उन्नीसवीं सदी के अंत में डिप्थेरिया विष को पृथक करके गिनी पिग में उसके असर को देखा गया था। इसी आधार पर प्रतिविष बनाया गया था। यह टीकाकरण की आधुनिक विधि के विकास का पहला कदम था।

कुत्तों पर किए गए शोध से पता चला था कि अग्न्याशय के स्राव का उपयोग करके कुत्तों में मधुमेह पर नियंत्रण किया जा सकता है। इसके आधार पर 1922 में इंसुलिन की खोज हुई और इसका उपयोग मनुष्यों में मधुमेह के उपचार में शुरू हुआ। गिनी पिग्स पर अनुसंधान से पता चला था कि लीथियम के लवण मिर्गी जैसे दौरे में असरकारक हैं। इसके परिणामस्वरूप बाईपोलर गड़बड़ी के इलाज में बिजली के झटकों का उपयोग बंद हुआ। निश्चेतकों का आविष्कार भी जंतुओं पर किए गए प्रयोगों से ही संभव हुआ है और अंग प्रत्यारोपण की तकनीकों का विकास भी हुआ है।

जंतु का चयन

यह तो सही है कि विकास के ज़रिए सभी जंतु परस्पर सम्बंधित हैं और कई गुणधर्म साझा करते हैं। मगर कुछ जंतु मनुष्य के ज़्यादा करीब हैं। मनुष्य की शरीर क्रिया या रोगों को समझने के लिए ऐसे ही जंतुओं के साथ प्रयोग करने की ज़रूरत होती है। अध्ययनों से पता चला है कि हमारे सबसे करीबी जीव चिम्पैंज़ी हैं। मनुष्य और चिम्पैंज़ी के जीनोम में 98.4 प्रतिशत समानता है। शरीर क्रिया की दृष्टि से देखें तो चूहे जैसे कृंतक (कुतरने वाले जीव) भी हमसे बहुत अलग नहीं हैं। चिम्पैंज़ी पर प्रयोग करना काफी मुश्किल काम है। एक तो इनकी आबादी बहुत कम है, और ऊपर से इनका प्रजनन भी काफी धीमी गति से होता है और इन्हें पालना आसान नहीं है। और सबसे बड़ी बात है कि अधिकांश देशों में चिम्पैंज़ी तथा अन्य वानर प्रजातियों को सख्त कानूनी संरक्षण प्राप्त है। इसलिए चूहे, माउस, गिनी पिग वगैरह सबसे सुलभ मॉडल जीव बन गए हैं।

विकल्प

कई शोधकर्ताओं ने जंतु प्रयोगों की समीक्षाओं में बताया है कि पिछले कई वर्षों में नई-नई औषधियां खोजने के मसकद से किए गए जंतु प्रयोग निष्फल रहे हैं। जंतुओं पर प्रयोगों से प्राप्त जानकारी प्राय: मनुष्यों के संदर्भ में लागू नहीं हो पाती है। विकल्प के तौर पर कई सुझाव आए हैं और कई प्रयोगशालाओं में जंतु प्रयोगों को कम से कम करने के प्रयास भी किए जा रहे हैं। जैसे आजकल कंप्यूटरों की मदद से कई रसायनों के प्रभावों के बारे में काफी कुछ जाना जा सकता है। कोशिकाओं और प्रयोगशाला में निर्मित ऊतकों पर अध्ययन ने भी नए-नए मॉडल उपलब्ध कराएं। और इनके अलावा आजकल प्रयोगशालाओं में विकसित कृत्रिम अंगों का उपयोग भी किया जा रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नए जलवायु मॉडल की भविष्यवाणी

गभग पिछले 40 वर्षों से कंप्यूटर मॉडल कार्बन उत्सर्जन के कारण धरती के तेज़ी से गर्म होने के संकेत दे रहे हैं। लेकिन 2021 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा ग्लोबल वार्मिंग का आकलन करने के लिए जो नए मॉडल विकसित किए गए हैं, वे अजीब लेकिन निश्चित रुझान दिखा रहे हैं। इन मॉडल्स के अनुसार, धरती का तापमान पूर्व के अनुमानों की अपेक्षा कहीं अधिक होगा।

पहले के मॉडल्स के अनुसार, उद्योग-पूर्व युग के मुकाबले यदि वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) दुगनी हो जाए, तो संतुलन स्थापित होने तक पृथ्वी के तापमान में 2 से 4.5 डिग्री के बीच वृद्धि का अनुमान लगाया था। लेकिन यूएस, यूके, कनाडा और फ्रांस के केंद्रों द्वारा निर्मित अगली पीढ़ी के मॉडलों ने “संतुलित परिस्थिति” में 5 डिग्री सेल्सियस या अधिक वृद्धि का अनुमान लगाया है। इन मॉडलों को बनाने वाले यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि वह क्या चीज़ है जो उनके मॉडल्स द्वारा व्यक्त इस अतिरिक्त वृद्धि की व्याख्या कर सकती है।

अलबत्ता, यदि इन परिणामों पर विश्वास किया जाए, तो हमारे पास ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस या 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए पहले की तुलना में काफी कम समय है। वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड पहले ही 408 पीपीएम हो चुकी है। इसके आधार पर पहले के मॉडल्स ने भी आगामी चंद दशकों में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि का अनुमान लगाया था। एक विशेषज्ञ के मुताबिक इन नए मॉडलों के परिणामों पर अभी चर्चा की जा रही है। ऐसे में परेशान होने की ज़रूरत नहीं है किंतु यह पक्की बात है कि हमारे सामने जो संभावनाएं हैं वे काफी निराशाजनक हैं।

कई वैज्ञानिकों को इस पर काफी संदेह है। उनके मुताबिक पूर्व में दर्ज किए गए जलवायु परिवर्तन के आंकड़े इस उच्च जलवायु संवेदनशीलता या तापमान वृद्धि की तेज़तर गति का समर्थन नहीं करते। मॉडल बनाने वाले लोग भी इस बात से सहमत हैं और मॉडलों में सुधार का काम कर रहे हैं। लेकिन मॉडल में इन सुधारों के साथ भी पृथ्वी तेज़ी से गर्म होती मालूम हो रही है।

कुल मिलाकर, मॉडल के परिणाम निराशाजनक हैं, ग्रह पहले से ही तेज़ी से गर्म हो रहा है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यह मॉडल सही भी हो सकता है। अगर ऐसा रहा तो यह काफी विनाशकारी होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत में घरेलू ऊर्जा की चुनौती का प्रबंधन – आदित्य चुनेकर, श्वेता कुलकर्णी, अशोक श्रीनिवास

लेखक प्रयास (ऊर्जा समूह) से जुड़े हैं। यह लेख भारतीय ऊर्जा क्षेत्र के समक्ष महत्वपूर्ण चुनौतियों पर तीन लेखों में से दूसरा है।

बिजली क्षेत्र की विभिन्न परियोजनाओं और प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना (पीएमयूवाई) के परिणामस्वरूप भारत के लगभग हर घर में बिजली और एलपीजी कनेक्शन है। निसंदेह यह स्वागत-योग्य है, लेकिन फिर भी भारत की प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत वैश्विक औसत की लगभग एक तिहाई ही है जो भारत में मानव विकास के मार्ग में एक बाधा माना जाता है। इस लेख में कुछ ऐसे विचार सुझाए गए हैं जिनसे परिवार खाना पकाने के लिए साफ र्इंधन के विकल्पों की ओर कदम उठाएंगे। और इसके परिमामस्वरूप घरेलू ऊर्जा की मांग में जो वृद्धि होगी उसके लिए प्रभावी नियोजन और प्रबंधन को सुनिश्चित करने के लिए भी सुझाव दिए गए हैं। बिजली से जुड़ी कुछ समस्याओं की बात इस शृंखला के पिछले लेख ‘शत प्रतिशत ग्रामीण विद्युतीकरण पर्याप्त नहीं है’ में की जा चुकी है।

खाना पकाने के लिए ऊर्जा

पीएमयूवाई के तहत गरीब परिवारों में सात करोड़ से अधिक नए एलपीजी कनेक्शन दिए गए हैं। लेकिन यह सुनिश्चित करना एक मुश्किल काम है कि परिवार खाना पकाने के लिए रसोई गैस या अन्य साफ र्इंधन का उपयोग लगातार जारी रखें। इसके लिए चार-आयामी रणनीति की आवश्यकता है।

पहला, पीएमयूवाई जैसी आपूर्ति-आधारित योजना को सुदृढ़ करना होगा ताकि परिवारों की ओर से मांग भी बढ़े। इसके लिए पारंपरिक चूल्हे पर खाना पकाने वाली महिलाओं एवं बच्चों पर होने वाली गंभीर स्वास्थ्य-सम्बंधी प्रभावों के प्रति जागरूकता पैदा करनी होगी और इससे सम्बंधित जेंडर, व्यवहार और सांस्कृतिक बाधाओं को दूर करने के प्रयास करने होंगे।

दूसरा, आपूर्ति पक्ष में बिजली, बायोगैस और पाइप द्वारा प्राकृतिक गैस जैसे अन्य स्वच्छ र्इंधन भी शामिल करने चाहिए क्योंकि यह ज़रूरी नहीं कि एलपीजी सभी घरों के लिए पसंदीदा या उपयुक्त विकल्प हो।

तीसरा, महज़ कनेक्शन से आगे जाकर आधुनिक र्इंधन का निरंतर उपयोग सुनिश्चित करने के लिए, पर्याप्त और अच्छी तरह से निर्देशित सब्सिडी प्रदान करने, देशव्यापी आपूर्ति शृंखला स्थापित करने और ग्रामीण वितरण के लिए कामकाजी व्यावसायिक मॉडल विकसित करने के लिए नीतिगत उपायों की आवश्यकता है।

चौथा, आधुनिक र्इंधन के निरंतर उपयोग और घरेलू वायु प्रदूषण में कमी को लेकर सुपरिभाषित लक्ष्य होने चाहिए।

चूंकि यह मुख्य रूप से स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौती है, इसलिए इन चारों आयामों के समन्वय और प्रबंधन के लिए एक बहु-मंत्रालयीय कार्यक्रम की आवश्यकता होगी जो स्वास्थ्य मंत्रालय में अवस्थित हो और प्रधानमंत्री कार्यालय से संचालित किया जाए।

बढ़ती आय, विद्युतीकरण में वृद्धि और परिवारों में खाना पकाने के आधुनिक र्इंधन की खपत में वृद्धि के चलते घरेलू ऊर्जा खपत में वृद्धि होगी। इस परिवर्तन के कारकों और पैटर्न को समझने की आवश्यकता है।

घरों में ऊर्जा उपयोग से सम्बंधित बेहतर जानकारी से ऊर्जा की मांग पर आय और कीमतों के असर, उपकरण खरीद, र्इंधन में परिवर्तन आदि के कारकों की बेहतर समझ मिल सकती है। इसके आधार पर ऊर्जा मांग का बेहतर अनुमान लगाया जा सकेगा और ऊर्जा दक्षता कार्यक्रमों में मदद मिलेगी।

मकानों के गुणधर्मों, उपकरणों के स्वामित्व, उपकरणों के उपयोग और घरेलू ऊर्जा उपयोग से सम्बंधित अन्य कारकों के बारे में राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय स्तर पर जानकारी एकत्र करने के लिए समय-समय पर सर्वेक्षण किए जाने चाहिए। कई देश इस तरह के सर्वेक्षण करते हैं, और वर्तमान भारतीय सर्वेक्षण में ऐसी कोई सूचना नहीं मिलती है। इसलिए, भारत को भी इस तरह के सर्वेक्षण करने के लिए एक संस्थान बनाना चाहिए, जिसको राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय द्वारा संचालित किया जा सकता है।

दक्षता में सुधार

भविष्य में घरेलू ऊर्जा मांग के प्रबंधन में ऊर्जा दक्षता सम्बंधी उपायों की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। भारत में रेफ्रिजरेटर और एयर-कंडीशनर (एसी) जैसे बड़े उपकरणों की संख्या फिलहाल बहुत कम है जो आने वाले समय में तेज़ी से बढ़ेगी और इनके लिए ऊर्जा दक्षता उपाय बहुत महत्वपूर्ण होंगे।

ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बीईई), ऊर्जा कुशल उपकरणों को बढ़ावा देने के लिए एक ‘स्टार रेटिंग कार्यक्रम’ चलाता है। तीन कदम इस कार्यक्रम को और मज़बूत बनाने में मदद कर सकते हैं। सबसे पहला, बीईई को नियमित रूप से सभी उपकरणों के लिए दक्षता रेटिंग को उन्नत करना चाहिए। उदाहरण के लिए, रेफ्रिजरेटर और एसी के लिए स्टार रेटिंग में संशोधन के ज़रिए 2019 में 5-स्टार उपकरण की ऊर्जा खपत 2009 की तुलना में कम हुई है लेकिन वहीं छत के पंखों के लिए 2010 के बाद से कोई संशोधन नहीं किया गया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि भारत में सालाना बिकने वाले तीन से चार करोड़ सीलिंग फैन में से 80-90 प्रतिशत बहुत घटिया दक्षता वाले हैं।

दूसरा, बीईई को विभिन्न उपकरणों के स्टार लेबल के लिए राष्ट्रीय स्तर पर जागरूकता अभियान चलाना चाहिए।  इसमें उनके पूरे जीवनकाल में संभावित पैसे की बचत भी शामिल होना चाहिए जो उच्च शुरुआती लागत की भरपाई कर देती है।

तीसरा, बीईई को बाज़ार में स्टार-रेटेड मॉडल के बेतरतीबी से लिए गए नमूनों के प्रदर्शन का आकलन करना चाहिए और परिणामों को सार्वजनिक करना चाहिए। इससे स्टार लेबल में उपभोक्ताओं का विश्वास बढ़ेगा और परिणामस्वरूप कुशल उपकरणों को अपनाने में वृद्धि होगी।

भारत घरेलू ऊर्जा खपत में तेज़ी से वृद्धि की ओर बढ़ रहा है। इसे उपयुक्त नीति और संस्थागत डिज़ाइन द्वारा सुगम बनाने की आवश्यकता है, जिसका नियोजन घरेलू ऊर्जा मांग के संभावित कारकों और पैटर्न की बेहतर समझ के आधार पर हो तथा कुशलता से प्रबंधन किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वायु प्रदूषण से आंखें न चुराएं

मोटर गाड़ियों, उद्योगों आदि से निकलने वाले बारीक कण स्वास्थ के लिए हानिकारक हैं। पिछले पच्चीस सालों में वैज्ञानिकों ने यह सम्बंध स्थापित किया है और उनकी कोशिशों से वायु प्रदूषण को रोकने के कानून सख्त हुए हैं। विश्व स्वास्थ संगठन (डब्ल्यूएचओ) का अनुमान है कि हर साल बाह्र वायु प्रदूषण से 42 लाख लोगों की मृत्यु होती है। लेकिन हाल ही में कई देशों में वायु प्रदूषण को असमय मौतों से जोड़ने वाले अध्ययन हमले की चपेट में हैं।

जैसे अमेरिका में प्रशासन द्वारा विभिन्न पर्यावरणीय और स्वास्थ्य सम्बंधी नियमों को खत्म किया जा रहा है। वायु-गुणवत्ता मानकों पर अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी को सलाह देने वाले एक विज्ञान पैनल में भी वायु गुणवत्ता के मानकों और बारीक कणों के असमय मृत्यु से सम्बंध को लेकर मतभेद हो गए। यह कहा गया कि बारीक कणों का असमय मृत्यु से सम्बंध संदिग्ध है।

फ्रांस, पोलैंड और भारत सहित अन्य देशों में भी वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य पर प्रभाव की बात पर संदेह व्यक्त किए जा रहे हैं। जर्मनी में 140 फेफड़ा विशेषज्ञों ने एक वक्तव्य में वाहनों से निकलने वाले नाइट्रोजन ऑक्साइड्स तथा बारीक कणों के स्वास्थ्य पर असर को लेकर शंका ज़ाहिर की है। वक्तव्य में इस बात से तो सहमति जताई गई है कि उच्च  प्रदूषण वाले इलाकों में लोग दमा वगैरह से ज़्यादा मरते हैं किंतु साथ ही यह भी कहा गया है कि ज़रूरी नहीं कि इनके बीच कार्य-कारण सम्बंध हो।

अलबत्ता, पिछले महीने जर्मन राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी ने स्पष्ट कहा है कि नाइट्रोजन के ऑक्साइड्स बीमारियों की दर में तो वृद्धि करते ही हैं, बारीक कणों के निर्माण में भी योगदान देते हैं। ये कण सांस और ह्मदय सम्बंधी रोगों और फेफड़ों के कैंसर के कारण असमय मौत का कारण बनते हैं।

ये निष्कर्ष दशकों में एकत्र किए गए साक्ष्य के आधार पर निकाले गए हैं। 1993 में हारवर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के शोधकर्ताओं ने छह अमेरिकी शहरों में प्रदूषण के प्रभावों के संदर्भ में पाया था कि साफ वायु में रहने वाले लोगों की तुलना में प्रदूषित वायु वाले शहरों के लोगों के मरने की दर अधिक होती है जिसका मुख्य कारण वायु में बारीक कण की उपस्थिति है। 2017 में 6.1 करोड़ लोगों पर किए गए एक अध्ययन तथा बाद के कई अध्ययनों ने भी यही दर्शाया है।

अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी को सलाह देने वाले एक विज्ञान पैनल के अध्यक्ष टॉनी कॉक्स और अन्य संशयवादी अक्सर तर्क देते हैं कि महामारी विज्ञान के प्रमाण यह साबित नहीं कर सकते कि वायु प्रदूषण असमय मौत का कारण है। लेकिन वे यह नहीं देख पा रहे हैं कि इन सबूतों को अन्य प्रमाणों के साथ देखने की ज़रूरत है।

वैज्ञानिकों ने उन प्रक्रियाओं की पहचान की है जिनके ज़रिए सूक्ष्म कण स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं, और साथ ही उन्होंने प्रयोगशाला विधियों, चूहों और मानव अध्ययनों में इन प्रभावों का विश्लेषण भी किया है। नए-नए प्रमाणों के साथ कई देशों ने अपने प्रदूषण नियंत्रण कानूनों में सुधार भी किए हैं।

आज दुनिया की 90 प्रतिशत से अधिक आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है जो डब्ल्यूएचओ द्वारा निर्धारित वायु-गुणवत्ता के दिशानिर्देश सीमाओं को तोड़ते हैं। प्रदूषण अभी भी भारत और चीन जैसे देशों में प्रमुख शहरों का दम घोंट रहा है। यह समय हवा को साफ करने के प्रयासों को कम करने का या प्रदूषण से जुड़े निष्कर्षों पर सवाल उठाने का नहीं बल्कि इनको मज़बूत करने का है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शारीरिक संतुलन से जुड़े कुछ तथ्य

रोज़ाना उठते-बैठते-चलते वक्त हम अपने संतुलन के बारे में ज़्यादा सोचते नहीं हैं, लेकिन संतुलन बनाने में हमारे मस्तिष्क को काफी मशक्कत करनी पड़ती है। शरीर के कई जटिल तंत्रों से सूचनाएं मस्तिष्क तक पहुंचती हैं, जो मिलकर शरीर का संतुलन बनाती हैं। इन तंत्रों में ज़रा-सी भी गड़बड़ी असंतुलन की स्थिति पैदा करती है। संतुलन बनाने में मददगार ऐसे कुछ तथ्यों की यहां चर्चा की जा रही है।

संतुलन में कान की भूमिका

कान सिर्फ सुनने में ही नहीं, शरीर का संतुलन बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। आंतरिक कान में मौजूद कई संरचनाएं स्थान और संतुलन सम्बंधी संकेत मस्तिष्क तक पहुंचाती हैं। सिर की सीधी गति (ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं) और गुरुत्वाकर्षण सम्बंधी संदेश के लिए दो संरचनाएं युट्रिकल और सैक्युल ज़िम्मेदार होती हैं। अन्य कुंडलीनुमा संरचनाएं, जिनमें तरल भरा होता है, सिर की घुमावदार गति से सम्बंधित संदेश मस्तिष्क तक पहुंचाती हैं।

यदि आंतरिक कान में कोई क्षति होती है तो शरीर का संतुलन बिगड़ने लगता है। उदाहरण के लिए आंतरिक कान में कैल्शियम क्रिस्टल्स गलत स्थान पर पहुंचने पर मस्तिष्क को संकेत मिलता है कि सिर हिल रहा है जबकि वास्तव में सिर स्थिर होता है, जिसके कारण चक्कर आते हैं।

मांसपेशी, जोड़ और त्वचा

वेस्टिब्युलर डिस्ऑर्डर एसोसिएशन के मुताबिक मांसपेशियों, जोड़ों, अस्थिबंध (कंडराओं) और त्वचा में मौजूद संवेदना ग्राही भी स्थान सम्बंधी सूचनाएं मस्तिष्क तक पहुंचाती हैं। पैर के तलवों या पीठ के संवेदना ग्राही दबाव या खिंचाव के प्रति संवेदनशील होते हैं।

गर्दन में मौजूद ग्राही मस्तिष्क को सिर की स्थिति व दिशा के बारे में संदेश पहुंचाते हैं जबकि ऐड़ी में मौजूद ग्राही जमीन के सापेक्ष शरीर की गति के बारे में बताते हैं। चूंकि नशे में मस्तिष्क को अंगों की स्थिति पता करने में दिक्कत महसूस होती है इसलिए अक्सर यह जांचने के लिए कि गाड़ी-चालक नशे में हैं या नहीं पुलिसवाले परीक्षण में चालक को अपनी नाक छूने को कहते हैं।

बढ़ती उम्र में संतुलन

संतुलन बनाने में नज़र, वेस्टीबुलर तंत्र और स्थान सम्बंधी संवेदी तंत्र भी अहम होते हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है शरीर के अंगों के साथ ये तंत्र भी कमज़ोर होने लगते हैं और गिरने के संभावना बढ़ती है।

चलने का अहसास होना

यदि आप ट्रेन में बैठे हैं और खिड़की से बाहर देख रहे हैं, तभी अचानक आपको महसूस होने लगता है कि आपकी ट्रेन चलने लगी है जबकि वह स्थिर होती है। इस स्थिति को वेक्शन कहते हैं। वेक्शन की स्थिति तब बनती है जब मस्तिष्क को प्राप्त होने वाली सूचनाएं आपस में मेल नहीं खातीं। उदाहरण के लिए ट्रेन के मामले में आंखें खिड़की से दृश्य पीछे जाते देखती हैं, और मस्तिष्क को गति होने का संदेश भेजती हैं, लेकिन मस्तिष्क को शरीर में मौजूद अन्य संवेदना ग्राहियों से गति से सम्बंधित कोई संकेत नहीं मिलते और भ्रम की स्थिति बनती है। हालांकि दूसरी ओर देखने पर यह भ्रम खत्म हो जाता है।

माइग्रेन और संतुलन

माइग्रेन से पीड़ित लोगों में से लगभग 40 प्रतिशत लोग संतुलन बिगड़ने या चक्कर आने की समस्या का भी सामना करते हैं। इस समस्या को माइग्रेन-सम्बंधी वर्टिगो कहते हैं। समस्या का असल कारण तो फिलहाल नहीं पता, लेकिन एक संभावित यह कारण है कि माइग्रेन मस्तिष्क की संकेत प्रणाली को प्रभावित करता है। जिसके कारण मस्तिष्क की आंख, कान और पेशियों से आने वाले संवेदी संकेतों को समझने की गति धीमी हो जाती है, और फलस्वरूप चक्कर आते हैं। इसका एक अन्य संभावित कारण यह दिया जाता है कि मस्तिष्क में किसी रसायन का स्राव वेस्टीबुलर तंत्र को प्रभावित करता है जिसके फलस्वरूप चक्कर आते हैं।

सफर का अहसास होना

कई लोगों को जहाज़ या ट्रेन से उतरने के बाद भी यह महसूस होता रहता है कि वे अब भी ज़हाज या ट्रेन में बैठे हैं। सामान्य तौर पर यह अहसास कुछ ही घंटे या एक दिन में चला जाता है लेकिन कुछ लोगों में यह एहसास कई दिनों, महीनों या सालों तक बना रहता है। इसका एक कारण यह माना जाता है कि इससे पीड़ित लोगों के मस्तिष्क के मेटाबोलिज़्म और मस्तिष्क गतिविधि में ऐसे बदलाव होते हैं जो शरीर को हिलती-डुलती परिस्थिति से तालमेल बनाने में मददगार होते हैं। लेकिन सामान्य स्थिती में लौटने पर बहाल नहीं होते। (स्रोत फीचर्स)

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ऊर्जा क्षेत्र में अपरिहार्य परिवर्तन – अश्विन गंभीर, श्रीहरि दुक्कीपति, अश्विनी चिटनिस

अक्षय उर्जा में वृद्धि का असर डिस्कॉम्स की वित्तीय हालत पर होगा। यदि ठीक तरह से प्रबंधन न किया गया, तो छोटे और ग्रामीण उपभोक्ताओं को कष्ट उठाना पड़ सकता है। लेखक प्रयास (ऊर्जा समूह) से जुड़े हैं। यह भारतीय ऊर्जा क्षेत्र की चुनौतियों पर तीन लेखों में से अंतिम है

बीसवीं शताब्दी में नियोजन का प्रमुख मकसद था भविष्य में बिजली की मांग का अनुमान लगाना, अधिक से अधिक पारंपरिक बिजली उत्पादन क्षमता स्थापित करना और इसे ट्रांसमिशन लाइनों के माध्यम से लोड केंद्रों से जोड़ना।

उपभोक्ताओं को बिजली की आपूर्ति किसी एकाधिकार प्राप्त संस्था द्वारा की जाती थी जिसमें आपूर्ति शृंखला के सभी स्तरों का एक ही मालिक होता था। मूल्य निर्धारण क्रॉस सब्सिडी के सिद्धांत पर आधारित होता था, जिसमें बड़े औद्योगिक और वाणिज्यिक उपभोक्ता ऊंचे शुल्क का भुगतान करते थे ताकि कृषि और घरों के लिए सस्ता शुल्क सुनिश्चित किया जा सके। लेकिन इसमें तेज़ी से परिवर्तन आ रहा है, मुख्यत: राष्ट्रीय नीतिगत पहल और वैश्विक तकनीकी-आर्थिक परिवर्तनों के कारण।

एक तरफ अक्षय उर्जा सस्ती हो रही है तथा बैटरी भंडारण की लागत भी कम हो रही हैं तथा दूसरी ओर कोयला आधारित बिजली की लागत बढ़ रही है। इनका मिला-जुला परिणाम होगा कि बिजली आपूर्ति में अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ेगी। लंबे समय में, इससे परिवहन, खाना पकाने और उद्योगों जैसे कई अन्य क्षेत्रों में विद्युतीकरण बढ़ने की संभावना है। इससे स्थानीय वायु प्रदूषण, ऊर्जा सुरक्षा और बढ़ते ऊर्जा आयात बिल जैसी समस्याओं को आंशिक रूप से संबोधित किया जा सकता है। ये रुझान ऊर्जा क्षेत्र में आमूल बदलाव ला सकते हैं।

सबके लिए बिजली की सस्ती और भरोसेमंद पहुंच के साथ–साथ खाना पकाने के आधुनिक और स्वच्छ र्इंधन के के प्रति सभी दलों ने व्यापक प्रतिबद्धता दिखाई है जो स्वागत योग्य है। अलबत्ता, इसे टिकाऊ वास्तविकता में बदलने के लिए बहुत काम करना होगा।

वर्तमान में, सरकार के भीतर ज़रूरतों के आकलन और प्राथमिकताएं तय करने, तथा परिवर्तन और जोखिमों का अंदाज़ा लगाकर उनके लिए तैयारी करने को लेकर एक सीमित गंभीरता है। इसके चलते संसाधनों के फंस जाने और पुराने रास्ते पर निर्भरता की समस्या हो सकती है क्योंकि निवेश लंबे समय के लिए होते हैं और पूंजी पर निर्भर होते हैं।

इस तरह की दिक्कत से बचने के लिए दो कदम महत्वपूर्ण हैं। सबसे पहले, महत्वपूर्ण डैटा की सार्वजनिक उपलब्धता की खामियों और विसंगतियों को संबोधित किया जाना चाहिए। दूसरा, सरकार के भीतर विश्लेषणात्मक क्षमता को बढ़ाया जाना चाहिए।

ऊर्जा विश्लेषण कार्यालय

नीति और निर्णय में सरकार की मदद करने के लिए, एक विश्लेषणात्मक एजेंसी की स्थापना करने की आवश्यकता है जिसे डैटा एकत्र करने और तालमेल बैठाने, रुझानों का विश्लेषण करने, रिपोर्ट प्रकाशित करने और नीतिगत हस्तक्षेपों का सुझाव देने का अधिकार हो। यह एजेंसी मौजूदा तकनीकी एजेंसियों जैसे केंद्रीय विद्युत अभिकरण (सीईए), पेट्रोलियम नियोजन व विश्लेषण प्रकोष्ठ (पीपीएसी) और सीसीओ से अधिक से अधिक लाभ उठाएगी।

इस एजेंसी को ऊर्जा विश्लेषण कार्यालय (ईएओ) कह सकते हैं। इसमें कई मंत्रालयों को शामिल किया जाना चाहिए। ऐसे कार्यालय के प्रभावी होने के लिए दो प्रमुख शर्तें हैं: नीतिगत प्रासंगिकता और राजनीतिक प्रभाव से स्वतंत्रता।

यह संतुलन बनाने के लिए ईएओ को कार्यपालिका के प्रशासनिक नियंत्रण में रखा जा सकता है किंतु इसके बजट की स्वीकृति तथा कार्य की समीक्षा संसद द्वारा की जाए। ईएओ को ऊर्जा क्षेत्र की चुनौतियों के प्रति दीर्घकालिक दृष्टिकोण रखना चाहिए और कार्यपालिका को नीति सम्बंधी इनपुट प्रदान करना चाहिए। जन भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

छोटे पर ध्यान

ऊर्जा के क्षेत्र में, अक्षय ऊर्जा और उसके भंडारण में विकास के चलते बड़े उपभोक्ताओं के लिए वैकल्पिक व सस्ते स्रोत खोजने के कई अवसर पैदा हो रहे हैं। लेकिन, यही उपभोक्ता ऊंचा भुगतान करते हैं। येहाथ से निकल जाने पर राजस्व की जो हानि होगी, वह बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) के वर्तमान व्यापार मॉडल के अंत का संकेत है।

डिस्कॉम के भविष्य को लेकर दो गंभीर निहितार्थ हैं। आपूर्ति की लागत में से 70 प्रतिशत से अधिक का हिस्सा तो बिजली खरीद का होता है। जब मांग अनिश्चित हो जाएगी तो बिजली की खरीद अधिक जटिल और जोखिम भरा काम हो जाएगा। इसके साथ ही, क्रॉस सब्सिडी देने वाले उपभोगताओं के कम होने से या तो छोटे, ग्रामीण और कृषि उपभोगताओं से वसूला जाने वाला शुल्क बढ़ेगा या राज्य द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी की राशि में तेज़ी से वृद्धि ज़रूरी हो जाएगी।

यदि ठीक तरह से प्रबंधन नहीं किया गया, तो इन परिवर्तनों के कारण डिस्कॉम के लिए गंभीर वित्तीय संकट पैदा हो जाएगा, छोटे उपभोक्ताओं के लिए आपूर्ति की गुणवत्ता में कमी आएगी, परिसंपत्तियां बेकार पड़ी रहेंगी और कंपनियों को वित्तीय संकट से निकालने के लिए बेल-आउट की व्यवस्था करनी होगी जिसका असर बेंकिंग क्षेत्र पर भी पड़े बिना नहीं रहेगा।

इस तरह की समस्याओं से बचने के लिए ज़रूरी है कि डिस्कॉम्स के नियोजन और संचालन के तरीकों में मूलभूत परिवर्तन लाए जाएं। बाज़ार और प्रतिस्पर्धा बढ़ते क्रम में अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। बड़े उपभोक्ताओं को अपने लिए आपूर्तिकर्ता चुनने की अनुमति देने से उन्हें लागत कम करने में मदद मिलती है, और इससे उत्पादन क्षमता में वृद्धि को भी युक्तिसंगत बनाया जा सकता है। डिस्कॉम्स को गहन मांग-आपूर्ति विश्लेषण के बिना नई बेसलोड क्षमता जोड़ने से बचना होगा।

कृषि फीडर को सौर-संयंत्रों से जोड़ने से सब्सिडी को कम करने में मदद मिलेगी और किसानों को दिन के वक्त भरोसेमंद आपूर्ति दी जा सकेगी। इन उपायों से डिस्कॉम्स को छोटे और ग्रामीण उपभोक्ताओं को आपूर्ति और सेवा में सुधार पर ध्यान केंद्रित करने की गुंजाइश मिलेगी। ऊर्जा परिवर्तन एक अवसर प्रदान करता है जिसमें संसाधनों को अकार्यक्षम ढंग से उलझने से बचाया जा सकेगा और साथ में काफी पर्यावरणीय व आर्थिक लाभ भी मिलेगे। लेकिन यदि इस परिवर्तन का प्रबंधन ठीक से नहीं किया गया तो अफरा-तफरी मच जाएगी जिसका खामियाज़ा शायद छोटे व ग्रामीण व छोटे उपभोक्ता भरेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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