एक दुर्लभ ब्लड ग्रुप की जांच संभव हुई – एस. अनंतनारायण

दुर्घटनावश अधिक खून बह जाने पर, सर्जरी के वक्त, किसी बीमारी या अन्य कारणों में मरीज़ को अन्य व्यक्ति का खून चढ़ाने की ज़रूरत पड़ती है। सन 1901 में पता लगा था कि मरीज़ को चढ़ाया जाने वाला खून सही रक्त समूह (मरीज के रक्त समूह) का होना चाहिए। इस खोज के पहले, मरीज़ को अन्य व्यक्ति का खून चढ़ाने पर कभी-कभी तो मरीज़ ठीक हो जाते थे लेकिन अक्सर मरीज़ की मृत्यु हो जाती थी क्योंकि उसका शरीर बाहर से चढ़ाए गए खून को अस्वीकार कर देता था। 1901 में पता यह चला था कि रक्त के चार समूह होते हैं और हर व्यक्ति इनमें से किसी एक रक्त समूह का होता है। इसके बाद मरीज़ों को सही रक्त समूह का खून चढ़ाया जाने लगा और मरीज़ बच सके।

वैसे इन चार रक्त समूहों के अलावा कई अन्य गुणधर्मों का भी मिलान करना पड़ता है मगर ये दुर्लभ रक्त समूह के व्यक्तियों के मामले में ज़्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। ऐसे मामलों में सिर्फ इतने से बात नहीं बनती कि मरीज़ और रक्तदाता का रक्त समूह मेल खाए। और भी कई कारकों का मिलना आवश्यक होता है। अन्यथा मरीज़ को खुद अपना रक्त सर्जरी या आपात स्थिति के लिए भंडार करके रखना पड़ता है।

ऐसे ही एक दुर्लभ रक्त समूह (Vel नेगेटिव) के बारे में 1952 में पता चला था। यह रक्त समूह रक्त-परीक्षण द्वारा पहचान में नहीं आता है और मरीज़ को खुद पता नहीं होता कि उसे इस दुर्लभ रक्त समूह की ज़रूरत है। इसी वजह से इस रक्त समूह के रक्तदाता पहचाने नहीं जाते और ब्लड बैंक में इसका भंडारण नहीं हो पाता। वरमॉन्ट विश्वविद्यालय के ब्राायन बैलिफ और फ्रेंच नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ब्लड ट्रांसफ्यूज़न के लियोनेल अरनॉड और उनके साथियों ने ईएमबीओ मॉलीक्यूलर मेडिसिन पत्रिका में बताया है कि उन्होंने इस दुर्लभ रक्त समूह की पहचान करने का तरीका खोज लिया है। अब इसकी मदद से लोगों में दुर्लभ रक्त समूहों को पहचाना जा सकेगा।

रक्त समूह

रक्त समूह लाल रक्त कोशिकाओं की सतह की बनावट या उन पर उपस्थित एंटीजन से तय होता है। शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली बाहरी तत्वों के खिलाफ एंटीबॉडी बनाकर उन्हें मारती है। एंटीबॉडी का निर्माण एंटीजन को पहचानकर होता है। किंतु प्रतिरक्षा प्रणाली अपनी रक्त कोशिकाओं की सतह की बनावट को पहचानती है और उन्हें नहीं मारती। रक्त कोशिकाओं की इन्हीं बनावट के आधार पर रक्त को चार रक्त समूह (A, B, AB  और O) में बांटा गया है। रक्त समूह A और B की बनावट एकदम भिन्न होती हैं। AB रक्त समूह में A और B दोनों रक्त समूह की बनावट होती है जबकि O रक्त समूह की कोशिकाओं पर कोई एंटीजन नहीं होते। A, B और O रक्त समूह के लोग सिर्फ अपने रक्त समूह का रक्त ले सकते हैं। जबकि AB रक्त समूह के व्यक्ति किसी भी रक्त समूह (A, B और O) का रक्त ले सकते हैं। चूंकि रक्त समूह O की सतह पर कोई एंटीजन नहीं होते इसीलिए किसी भी रक्त समूह के व्यक्ति को O समूह का रक्त चढ़ाया जा सकता है।

रक्त समूह के अलावा एक और फैक्टर होता है – Rh फैक्टर। Rh फैक्टर नेगेटिव या पॉज़ीटिव हो सकता है। जिन लोगों का रक्त समूह Rh पॉज़ीटिव  होता है उन्हें Rh नेगेटिव रक्त चढ़ा सकते हैं लेकिन इसके विपरीत, Rh नेगेटिव वाले व्यक्ति को Rh पॉज़ीटिव  रक्त नहीं चढ़ा सकते। यानी  A नेगेटिव, B नेगेटिव या O नेगेटिव रक्त समूह के व्यक्ति को सिर्फ उन्हीं के समूह का रक्त चढ़ाया जा सकता है। AB पॉज़ीटिव रक्त समूह के व्यक्ति को किसी भी रक्त समूह का खून चढ़ाया जा सकता है। जबकि O नेगेटिव किसी भी रक्त समूह के व्यक्ति को चढ़ाया जा सकता है।

इनके अलावा लगभग 32 अन्य फैक्टर हैं जिन्हें रक्तदान के समय मिलाने की ज़रूरत होती है। हालांकि यह बहुत ही दुर्लभ मामलों में ज़रूरी होता है। यह देखा गया है कि इनमें से कुछ फैक्टर कुछ खास समुदाय के लोगों में ही होते हैं। जैसे U नेगेटिव रक्त समूह सिर्फ अफ्रीकी मूल के लोगों का होता है। जबकि Vel नेगेटिव और Lan नेगेटिव समूह सिर्फ हल्के रंग की त्वचा के लोगों का होता है। तो यदि रक्तदाता के समुदाय के बारे में पता हो तो इन दुर्लभ रक्त समूहों को इमरजेंसी के वक्त ढूंढ़ने में आसानी होगी।

Vel नेगेटिव रक्त समूह

Vel नेगेटिव ऐसा ही एक दुर्लभ रक्त समूह है। इस रक्त समूह का नाम एक 66 वर्षीय मरीज़ के नाम पर रखा गया है जो आंत के कैंसर से पीड़ित थी। 1962 में इस मामले की जानकारी चिकित्सा शोध पत्रिका रेव्यू डी’हिमेटोलॉजी में प्रकाशित हुई थी। पूर्व में कभी खून चढ़ाने के दौरान वेल के शरीर ने एक अज्ञात यौगिक के खिलाफ एक बहुत ही शक्तिशाली एंटीबॉडी बना ली थी। यह यौगिक सामान्यत: लोगों की लाल रक्त कोशिकाओं में पाया जाता है लेकिन वेल की रक्त कोशिकाओं से नदारद था। इसके बाद इस अज्ञात यौगिक की खोज शुरु हुई और एक नए रक्त समूह Vel नेगेटिव के बारे में पता चला। इसके बाद इससे मिलते-जुलते कई मामले सामने आए। युरोप और उत्तरी अमेरिका के लगभग 2500 लोगों में से एक व्यक्ति का रक्त समूह Vel नेगेटिव  है।

पिछले 60 सालों में यह पता नहीं चल पाया था कि Vel नेगेटिव रक्त समूह के लिए कौन-सा रासायनिक अणु ज़िम्मेदार है। इस वजह से इस रक्त समूह के लोगों की पहचान का भी कोई तरीका नहीं था। इस रक्त समूह के बारे में तभी पता चलता है जब किसी व्यक्ति का शरीर बार-बार बाहरी रक्त को अस्वीकार कर रहा हो। एक तो Vel नेगेटिव रक्त समूह बिरले ही किसी का होता है, ऊपर से इसकी पहचान करना भी मुश्किल है। इस कारण इमर्जेंसी में अघिकांश मरीज़ सही रक्त ना मिल पाने की वजह से मर जाते हैं। यदि रक्त समूह पता हो तो भी इस समूह का रक्तदाता मिलना मुश्किल होता है।

Vel नेगेटिव रक्त समूह की पहचान की मुश्किल हल करने में बैलिफ, अरनॉड और उनके साथियों का योगदान महत्वपूर्ण है। सबसे पहले अरनॉड और उनके साथियों ने Vel नेगेटिव रक्त समूह की एंटीबॉडी काफी मात्रा में इकठ्ठा की। उसके बाद जैव-रासायनिक विधि से लाल रक्त कोशिकाओं की सतह से रहस्यमय प्रोटीन (एंटीबॉडी) को अलग किया। इसके बाद वरमॉन्ट विश्वविद्यालय में बैलिफ के नेतृत्व में कार्य आगे बढ़ा। बैलिफ ने उच्च आवर्धक क्षमता वाले उपकरणों, जो आवेशित आणविक हिस्सों को भी अलग-अलग कर देते हैं, की मदद से छिपकर बैठे प्रोटीन की पहचान की। बैलिफ ने बताया,  “हमें हज़ारों प्रोटीन में से एक को पहचानना था। जो प्रोटीन हमें मिला, वह प्रोटीन के मान से बहुत छोटा था, जिसे SIMM 1 नाम दिया गया।” इसके बाद अरनॉड की टीम ने 70 ऐसे लोगों का परीक्षण किया जिनका रक्त समूह Vel नेगेटिव था। उन्होंने पाया कि हरेक व्यक्ति के जीन में डीएनए का एक हिस्सा गायब था, जो कोशिका को SIMM 1  बनाने का निर्देश देता है। यह इस बात का प्रमाण था कि किसी व्यक्ति की लाल रक्त कोशिका में SIMM 1 प्रोटीन की अनुपस्थिति या कमी की वजह से ही Vel नेगेटिव रक्त समूह बनता है।

इस खोज के बाद किसी व्यक्ति का डीएनए परीक्षण करके इस रक्त समूह की पहचान की जा सकती है। Vel नेगेटिव जैसे दुर्लभ रक्त समूह की पहचान और उसकी आसान उपलब्धता सबके लिए चिकित्साके लक्ष्य की ओर एक कदम है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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माइक्रोवेव में रखे अंगूर से चिंगारियां

माइक्रोवेव ओवन में रखे जाने पर अंगूर से चिंगारियां निकलते हुए दिखाने वाले कई वीडियो इंटरनेट पर मौजूद हैं। इन वीडियो में एक अंगूर को दो हिस्सों में इस तरह काटते हैं कि अंगूर का छिलका दोनों टुकड़ों से जुड़ा रहे। फिर इसे माइक्रोवेव में रख दिया जाता है। ये टुकड़े आपस में जहां से जुड़े रहते हैं कुछ देर बाद वहां से चमक पैदा करती गैस निकलती है। ऐसा होने का कारण यह बताया जाता है कि अंगूर के दो टुकड़े माइक्रोवेव विकिरण के लिए एंटिना का काम करते हैं और अंगूर के छिलके की नमी इन दोनों टुकड़ों के बीच चालक का। दोनो एंटिना के बीच अंगूर के छिलके से होते हुए विद्युत बहती है और चमक पैदा होती है।

कनाडा स्थित ट्रेन्ट विश्वविद्यालय के आरोन स्लेपकोव का कहना है कि इंटरनेट पर बताया जा रहा यह कारण सही नहीं है। आरोन के अनुसार वास्तव में होता यह है कि अंगूर के दो टुकड़े दर्पणनुमा केविटी (गड्ढा) बनाते हैं जिनका केन्द्र दोनों टुकड़ों का जुड़ा हुआ हिस्सा (छिलका) होता है। ये केविटी माइक्रोवेव विकिरण को अवशोषित करती हैं और केंद्र पर फोकस कर देती हैं। इसके कारण केन्द्र बहुत गर्म हो जाता है। तब अंगूर के छिलके में मौजूद सोडियम और पोटेशियम के परमाणु आवेशित हो जाते हैं और आवेशित गैस (प्लाज़्मा) का निर्माण करते हैं। जिससे चमक पैदा होती है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए आरोन और उनके साथियों ने थर्मल इमेजिंग और कंप्यूटर सिमुलेशन की मदद ली। उन्होंने साबूत अंगूर, अंगूर के टुकड़ों और हाइड्रोजेल मोतियों को माइक्रोवेव में अलग-अलग स्थितियों में रखकर विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र की थर्मल इमेजिंग की। देखा गया कि प्लाज़्मा पैदा करने के पीछे दो टुकड़ों के बीच का छिलका मुख्य कारण नहीं है। वास्तव में अंगूर का साइज़ और पर्याप्त नमी विकिरण को अवशोषित करने में भूमिका निभाते हैं। अंगूर के अलावा ब्लैकबेरी, गूज़बेरी और हाइड्रोजेल मोती को माइक्रोवेव में आपस में सटाकर रखने पर भी यही प्रभाव होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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तीसरी पास कृषि वैज्ञानिक दादाजी खोब्रागड़े – गायत्री क्षीरसागर

तीसरी पास और कृषि वैज्ञानिक? बात कुछ अजीब लगती है। किंतु शोध कार्य करने के लिए केवल तीन बातें ज़रूरी होती हैं – इच्छा शक्ति, जिज्ञासा और कुछ नया सीखने की मानसिकता। इन्हीं तीन खूबियों के चलते नांदेड़, महाराष्ट्र के तीसरी पास दादाजी रामाजी खोब्रागड़े ने धान की नौ किस्में विकसित कीं।

दादाजी को स्कूल में भर्ती होने और सीखने की तीव्र इच्छा थी, किंतु परिवार की गरीबी के कारण वे तीसरी कक्षा तक ही पढ़ पाए। बचपन से ही उन्होंने अपने पिता के साथ खेती करके कृषि का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया। सन 1983 में धान के खेत में काम करते समय उनका ध्यान कुछ ऐसी बालियों की ओर गया जो सामान्य बालियों से अलग थीं। दादाजी ने इस धान को सहेज कर उगाया तब उनके ज़ेहन में आया कि धान की इस किस्म की भरपूर फसल मिल सकती है। उन्होंने चार एकड़ में इस धान को लगाया और उन्हें 90 बोरी धान प्राप्त हुआ। सन 1989 में जब वे इस धान को बेचने के लिए कृषि उपज मंडी में ले गए तब इस किस्म का कोई नाम न होने के कारण उन्हें कुछ दिक्कतें आर्इं। उस समय एचएमटी की घड़ियां बहुत लोकप्रिय होने के कारण इस बढ़िया और खुशबूदार चावल की किस्म का नाम एचएमटी रखा गया। उदारमना दादाजी ने इस धान का बीज अपने गांव के अन्य किसानों को दे दिया जिससे उन किसानों को बहुत आर्थिक लाभ हुआ। इस तरह दादाजी का गांव एचएमटी धान के लिए मशहूर हो गया।

दादाजी केवल इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने अपने काम को बढ़ावा देते हुए अपनी चार एकड़ ज़मीन को प्रयोगशाला बनाया। किसी आधुनिक तकनीक की सहायता के बिना अगले 10 वर्षों में उन्होंने धान की नौ नई किस्में विकसित कीं जिन्हें उन्होंने अपने नाती-पोतों और गांव के नाम दिए – एचएमटी, विजय, नांदेड़, नांदेड़-92, नांदेड हीरा, डीआरके, नांदेड़ दीपक, काटे एचएमटी और डीआरके-2।

आज कई प्रदेशों के किसान धान की इन नई किस्मों का उत्पादन करके अच्छी कमाई कर रहे हैं। ये नई किस्में लोगों को भी पसंद आ रही हैं। किंतु तीसरी तक पढ़े दादाजी को यह ज्ञान नहीं था कि अपने द्वारा विकसित नई किस्मों का पेटेंट कैसे करवाएं। इसका कई लोगों ने फायदा उठाया और नतीजा यह हुआ कि दादाजी को उनके शोधकार्य के लिए उचित मेहनाताना कभी भी नहीं मिला। किंतु कई प्रकार की आर्थिक समस्याओं से जूझते हुए दादाजी ने अपना शोध कार्य जारी रखा। कुछ दिनों बाद बेटे की बीमारी के कारण दादाजी को अपनी प्रयोगशाला यानी ज़मीन गिरवी रखनी पड़ी और हालत अधिक खराब होने पर उसे बेचना ही पड़ा।

अब ऐसा लगने लगा था कि दादाजी का शोध कार्य हमेशा के लिए रुक जाएगा, किंतु उनके एक रिश्तेदार ने उन्हें डेढ़ एकड़ ज़मीन दे दी। पहले की प्रयोगशाला की तुलना में यह ज़मीन छोटी होते हुए भी दादाजी अपनी ज़बरदस्त इच्छाशक्ति और ध्येय तक पहुंचने की ज़िद के आधार पर नए-नए प्रयोग करते रहे। उनके ज्ञान और शोध कार्य को समाज ने लगातार नज़रअंदाज़ किया किंतु विकट आर्थिक स्थिति में भी दादाजी ने किसी भी प्रकार के मान-सम्मान की उम्मीद नहीं रखी।

छोटे गांव में रह कर लगातार शोध कार्य करने के लिए उन्हें सन 2005 में नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन का पुरस्कार दिया गया। इसी प्रकार, तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम के हाथों उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया। इसके बाद दादाजी का नाम पूरे देश में जाना जाने लगा। सन 2006 में महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें कृषिभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया। इस अवसर पर उन्हें केवल 25 हज़ार रुपए नकद और सोने का मेडल दिया गया। कुछ समय बाद दादाजी की आर्थिक हालत और भी खराब हो गई और उन्होंने अपना सोने का मेडल बेचने का विचार किया। किंतु उन्हें गहरा धक्का तब लगा जब यह पता चला कि वह मेडल खालिस सोने का नहीं था। जब इस मुद्दे को मीडिया ने और जनप्रतिनिधियों ने उठाया तब उन्हें उचित न्याय मिला।

सन 2010 में अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका फोर्ब्स ने दुनिया के सबसे उत्तम ग्रामीण उद्यमियों की सूची में दादाजी को शामिल किया, तब हमारे प्रशासन की नींद खुली। इसके बाद सारी मशीनरी इस या उस बहाने से दादाजी को सम्मानित करने के आयोजनों में जुट गई। उन्हें सौ से अधिक पुरस्कार दिए गए, अनगिनत शालें, हार और तोहफे दिए गए किंतु उनके शोध कार्य को आगे बढ़ाने के लिए जिस प्रकार की आर्थिक सहायता की आवश्यकता थी, वह नहीं मिली। उन्हें अपनी ज़िंदगी का अंतिम पड़ाव गरीबी और अभाव में बिताना पड़ा। 3 जून 2018 को उनका निधन हो गया।

आज भारत में ही नहीं, अपितु सारी दुनिया में कई शोधकर्ताओं का नाम होता है, किंतु कई शोधकर्ताओं को उनके शोध कार्य का उचित आर्थिक मुआवज़ा और समाज में सम्मान नहीं मिल पाता। हमारे देश में कई किसान फसलों के साथ नए-नए प्रयोग कर रहे हैं किंतु जानकारी के अभाव में उनके द्वारा विकसित फसलों को पहचान नहीं मिल पाती और उनका ज्ञान उन्हीं तक सिमट कर रह जाता है। यह आवश्यक है कि अनुभवों से उपजे उनके ज्ञान को सहेजा जाए। दादाजी खोब्रागडे के समान ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो अनपढ़ होते हुए भी अपनी शोध प्रवृत्ति और जिज्ञासा के चलते समाज के विकास के लिए प्रयास कर रहे हैं। ऐसे व्यक्तियों को सभी स्तरों से सहायता प्राप्त होने पर नई खोजें करने के लिए प्रोत्साहन मिल सकेगा।

यदि भारत को सही अर्थों में एक विकसित देश बनाना है तो यह ज़रूरी है कि बिलकुल निचले स्तर के व्यक्ति के मन में भी शोध कार्य के प्रति रुचि जागृत हो। इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि गांवों और छोटे-बड़े शहरों में शोध कार्य के प्रति रुचि रखने वाले और खोजी प्रवृत्ति के ऐसे व्यक्तियों को यथोचित सम्मान और उचित पारिश्रमिक देकर उनके साथ न्याय किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

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सौर मंडल के दूरस्थ पिंड की खोज

धिकांश लोगों के लिए ठंड का समय काफी अनुत्पादक होता है। लेकिन कुछ लोग इस मौसम का इस्तेमाल सौर मंडल में दूरस्थ पिंडों की खोज के लिए करते हैं। कार्नेगी इंस्टीट्यूशन फॉर साइंस के खगोलशास्त्री स्कॉट शेपर्ड ने शहर में हो रही भारी बर्फबारी के चलते इस मौके का फायदा उठाया। खराब मौसम के चलते एक सार्वजनिक व्याख्यान कुछ देर स्थगित होने के कारण उन्होंने दूरबीन से प्राप्त सौर मंडल के सीमांत दृश्यों को देखना शुरू किया। उनकी टीम पहले से ही परिकल्पित नौवें विशालकाय ग्रह की खोज में लगी थी।

दूरबीन के दृश्यों को देखते हुए उन्होंने 140 खगोलीय इकाई की दूरी पर एक धुंधला पिंड देखा। गौरतलब है कि खगोलीय इकाई पृथ्वी से सूर्य की दूरी के बराबर होती है। यह पिंड हमारे सौर मंडल का अभी तक ज्ञात सबसे दूरस्थ पिंड है जो प्लूटो से लगभग 3.5 गुना अधिक दूर है। शेपर्ड ने 21 फरवरी को बताया कि यदि इस पिंड की पुष्टि हो जाती है, तो यह दिसंबर में खोजे गए 120 खगोलीय इकाई दूर स्थित बौने ग्रह की खोज का रिकॉर्ड तोड़ देगा। उस बौने ग्रह को ‘फारआउट’ (अत्यंत दूर) नाम दिया गया था तो हो सकता है इसे ‘फारफारआउट’ (अत्यंत-अत्यंत दूर) कहा जाए।

पिछले एक दशक में शेपर्ड और उनके सहयोगियों – नॉर्थ एरिज़ोना विश्वविद्यालय के चाड टØज़िलो और हवाई विश्वविद्यालय के डेव थोलेन ने दुनिया के कुछ सबसे शक्तिशाली और विस्तृत परास वाली दूरबीनों की मदद से रात के आकाश को व्यवस्थित रूप से छाना है। उनके प्रयासों से सूर्य से 9 अरब किलोमीटर से अधिक दूरी पर स्थित पिंडों में से 80 प्रतिशत को ताड़ लिया गया है।

यह सिर्फ सूची को बढ़ाते जाने की बात नहीं है। इनकी मदद से नौवे ग्रह के प्रभाव को जाना जा सकता है। फारआउट की तरह, फारफारआउट की कक्षा भी अभी तक ज्ञात नहीं है। जब तक इसकी कक्षा के बारे में जानकारी नहीं मिलती तब तक यह बता पाना मुश्किल है कि ये पिंड कब तक सौर मंडल में दूर रहकर अन्य विशाल ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण बल से मुक्त रहेंगे। यदि ऐसा होता है, तो ये दोनों शेपर्ड की हालिया खोजों में से एक गोबलिन के समकक्ष हो सकते हैं।

फारआउट और फारफारआउट की कक्षाओं को निर्धारित करने में कई साल लगेंगे। तब तक शेपर्ड अपनी पसंदीदा दूरबीनों से लगभग हर अमावस्या की रात को खोज करने के लिए जुटे रहेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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बिल्ली की सफाई का रहस्य – अरविंद गुप्ते

बिल्ली परिवार में घरेलू बिल्ली से ले कर बाघ, तेंदुए और सिंह जैसे जंतु शामिल हैं। ये सभी जंतु अपने शरीर को लगातार चाट कर साफ रखते हैं। इस प्रक्रिया के सबसे विस्तृत अध्ययन घरेलू बिल्ली पर किए गए हैं। बिल्ली एक दिन में औसतन 10 घंटे तक जागी रहती है और इस समय का लगभग एक-चौथाई भाग वह अपने शरीर को चाटने में गुज़ार देती है। चाटने की इस प्रक्रिया से उसके शरीर से पिस्सू जैसे परजीवी, धूल के कण, रक्त के थक्के आदि हट जाते हैं। इसके अलावा, लार में कुछ एंटीबायोटिक गुण होते हैं जिनके कारण घाव जल्दी भर जाते हैं।

यह जानकारी तो थी कि बिल्ली की जीभ पर नुकीले उभार होते हैं जिनकी नोकें पीछे की ओर मुड़ी होती हैं। किंतु ये उभार किस प्रकार काम करते हैं इसकी ठीक-ठीक जानकारी नहीं थी। अमेरिका के एटलांटा स्थित जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में कार्यरत दो इंजीनियर्स डेविड हू और एलेक्सिस नोएल ने बिल्ली परिवार की छह प्रजातियों की जीभों का अध्ययन करके यह पता लगाने का प्रयास किया कि चाटने की प्रक्रिया में क्या होता है। उन्होंने मृत जंतुओं की जीभें प्राप्त कीं और उनका सीटी स्कैन से अध्ययन किया। घरेलू बिल्ली द्वारा खुद को चाटे जाने की प्रक्रिया का अध्ययन उन्होंने उच्च गति के कैमरों की सहायता से किया। उन्होंने पाया कि इन सभी जंतुओं की जीभ पर उपस्थित उभार ठोस नहीं होते (जैसा माना जाता था), किंतु उनमें एक खांच होती है जिसके कारण उभार का आकार चम्मच के समान हो जाता है। किंतु यह चम्मच इस बात में अनोखा है कि वह केशिका क्रिया से मुंह में उपस्थित लार को अपने अंदर खींच लेती है और इस प्रकार सफाई के लिए अधिक लार प्राप्त हो जाती है जो बिल्ली के बालों के नरम स्तर तक पहुंच जाती है। बिल्ली की त्वचा पर दो प्रकार के बाल होते हैं – त्वचा के ठीक ऊपर नरम बालों का एक स्तर होता है और इसके बाहर कड़े बालों का स्तर। चम्मच के समान आकार का एक और फायदा यह होता है कि बाहर आते समय उसमें गंदगी आसानी से भर जाती है और उसे बाहर निकालना आसान होता है। इस प्रकार, जीभ के उभार लार को बालों के अंदर तक पहुंचाने और गंदगी को बाहर निकालने का दोहरा काम सफलतापूर्वक करते हैं।

त्वचा के ऊपर लार के पहुंचने का एक और फायदा यह होता है कि लार के भाप बन कर उड़ जाने से बिल्ली की त्वचा का तापमान काफी कम हो जाता है और उसे गर्मी से राहत मिलती है। हू और नोएल का अनुमान है कि बिल्ली की त्वचा और बालों के बाहरी आवरण के बीच 17 डिग्री सेल्सियस तक का अंतर हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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सबके लिए शीतलता – आदित्य चुनेकर और श्वेता कुलकर्णी

भारत का शीतलता प्लान एक सकारात्मक कदम है किंतु इसे कारगर बनाने के लिए काफी काम करने की ज़रूरत है।

पिछली एक सदी में भारत 1 डिग्री सेल्सियस गर्म हुआ है और इसमें भी गर्मी बढ़ने की रफ्तार पिछले दो दशकों में सबसे तेज़ रही है। अध्ययन दर्शाते हैं कि भविष्य में इंतहाई ग्रीष्म लहरों की आवृत्ति में कई गुना की वृद्धि होगी। ग्रीष्म-आधारित मौतों पर गंभीरता से ध्यान देने की ज़रूरत है। शहरीकरण की वजह से गर्मी का असर और भी बुरा हो जाता है क्योंकि इमारतों, सड़कों और प्रदूषण की वजह से गर्मी कैद हो जाती है। इसके अलावा, गर्मी भोजन, दवाइयों और टीकों को बरबाद करती है क्योंकि इनका प्रभावी जीवनकाल गर्मी के कारण सिकुड़ जाता है।

इस मामले में भारत दोहरी चुनौती का सामना कर रहा है। एक ओर तो देश को यह सुनिश्चित करना होगा कि जोखिम से घिरे व्यक्तियों को ऐसे साधन किफायती ढंग से और पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हों जो उन्हें गर्मी से राहत प्रदान करें। दूसरी ओर, यह भी सुनिश्चित करना होगा कि मशीनीकृत शीतलन उपकरणों और प्रक्रियाओं में जो ऊर्जा व रेफ्रिजरेंट रसायन इस्तेमाल होते हैं उनकी वजह से नुकसान कम से कम हो।

इस चुनौती से निपटने के लिए पर्यावरण, वन तथा जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने हाल ही में इंडिया कूलिंग एक्शन प्लान (ICAP) का मसौदा जारी किया है। प्लान में अनुमान लगाया गया है कि 2017-18 के मुकाबले 2037-38 तक देश में कूलिंग की मांग आठ गुना बढ़ जाएगी। प्लान में 2037-38 तक कूलिंग मांग में अनुमानित वृद्धि को 20-25 प्रतिशत कम करने के लिए लघु, मध्यम व दीर्घ अवधि के लिए सिफारिशों की सूची भी शामिल की गई है। इन सिफारिशों का प्रमुख लक्ष्य समाज के लिए पर्यावरणीय तथा सामाजिक-आर्थिक लाभ सुरक्षित रखते हुए सबके लिए शीतलन व उष्मीय सहूलियत प्रदान करना है। यह योजना मंत्रालय की वेबसाइट पर लोगों की टिप्पणियों के लिए उपलब्ध है। यह प्लान घोषित लक्ष्य की ओर एक सकारात्मक कदम है किंतु इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अभी काफी काम करना होगा।

सबसे पहले, रणनीति के स्तर पर, प्लान में 2037-38 तक रेफ्रिजरेंट रसायनों की मांग में 20-25 प्रतिशत कमी लाने, कूलिंग के लिए ऊर्जा की ज़रूरत में 25-40 प्रतिशत की कमी लाने वगैरह के लिए समय सीमाओं सहित लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं। अलबत्ता, प्लान में इन लक्ष्यों की दिशा में प्रगति को आंकने के लिए निगरानी व सत्यापन की ज़रूरत को कम करके आंका गया है। इसके अंतर्गत भविष्य में कूलिंग, ऊर्जा तथा रेफ्रिजरेंट रसायनों की मांग में कमी की गणना करने के लिए विधियां निर्र्धारित की जा सकती हैं और यह भी स्पष्ट किया जा सकता है कि मांग में कमी के सत्यापन के लिए समय-समय पर किस तरह के आंकड़े एकत्रित करने होंगे। योजना में उसके घोषित उद्देश्यों के विभिन्न पहलुओं पर बराबर ज़ोर दिए जाने की आवश्यकता है।

हाल की एक वैश्विक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की सबसे अधिक आबादी कूलिंग सम्बंधी जोखिम का सामना कर रही है। ICAP में शहर व गांव दोनों जगह के सबसे जोखिमग्रस्त लोगों को किफायती व पर्याप्त कूलिंग साधन मुहैया कराने के लिए बहुत कम हस्तक्षेपों की सिफारिश की गई है। प्लान की सिफारिशों में कई सारे नीतिगत व नियामक हस्तक्षेप सुझाए गए हैं किंतु उन्हें क्रियांवित करने के लिए ज़रूरी संसाधनों को मात्रात्मक रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया है। प्लान की सफलता के लिए ज़रूरी है कि वित्तीय खाई को पहचाना जाए और उसकी पूर्ति की योजना बनाई जाए।

दूसरा, कामकाजी स्तर पर, प्लान में विभिन्न वर्तमान नीतियों से सीखे गए सबकों को शामिल करके सिफारिशों को सशक्त बनाया जा सकता है। मसलन, इस प्लान की एक सिफारिश है कि छत के पंखों के लिए एक अनिवार्य मानक व लेबलिंग कार्यक्रम होना चाहिए और एयर कंडीशनर्स तथा रेफ्रिजरेटर्स के लिए कार्य कुशलता के मानक उच्चतर  स्तर के बनाए जाने चाहिए। इस कार्यक्रम के तहत 1-स्टार (सबसे कम कार्यकुशल) से लेकर 5-स्टार (सर्वाधिक कार्यकुशल) तक की रेटिंग होती है। ऊर्जा-दक्षता के प्रति जागरूकता बढ़ाने में यह कार्यक्रम सफल रहा है किंतु इसकी सीमाएं भी हैं। छत के पंखों के मामले में कुल निर्मित पंखों में से मात्र 10 प्रतिशत पर स्टार लेबल होते हैं। अधिकांश निर्माताओं ने 2010 के बाद से दक्षता मानक को बेहतर बनाने का विरोध किया है। हालांकि ये मानक हर 2-3 साल में अधुनातन किए जाते हैं किंतु यह प्रक्रिया कमोबेश अनुपयोगी ही रही है। दूसरी ओर, रेफ्रिजरेटर्स के मामले में, मानक नियमित रूप से अधुनातन किए गए हैं। आज ये मानक दुनिया के सर्वश्रेष्ठ मानकों में से हैं। इस मामले में निर्माताओं ने इसका जवाब कम स्टार रेटिंग वाले मॉडल्स बेचकर दिया है। वर्ष 2017-18 में निर्मित कुल 25 लाख उपकरणों में से मात्र 2000 ही 5-स्टार रेटिंग वाले थे। लिहाज़ा, प्लान की सिफारिशों के क्रियांवयन को ठोस रूप देना होगा ताकि ऐसे लक्ष्यों की व्यावहारिक धरातल पर पूर्ति की जा सके।

तीसरा, प्लान में लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु मुख्य रूप से टेक्नॉलॉजी, नियमन और प्रलोभन-प्रोत्साहन स्कीमों पर ध्यान दिया गया है। कूलिंग की चुनौती का एक निर्णायक आयाम मानव व्यवहार है, जिसे प्लान में अनदेखा किया गया है। उदाहरण के लिए, मानव व्यवहार को समझने से एयर कंडीशंड जगहों के लिए थोड़ा ऊंचा डिफॉल्ट तापमान निर्धारित करने में मदद मिलेगी। यह एक ऐसा तापमान होगा जिस पर लोग सुकून महसूस करेंगे। इससे बिजली के उपयोग में काफी बचत की जा सकेगी। ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी द्वारा जारी किए गए ताज़ा दिशानिर्देश इसी बात का अनुमोदन करते हैं। साथ ही मानव व्यवहार को समझकर यह जानने में भी मदद मिलेगी कि यदि ऊर्जा-दक्षता बढ़ाकर एयर कंडीशनिंग संयंत्रों को चलाना सस्ता हो जाता है, तो क्या लोग उन्हें ज़्यादा देर तक चलाने लगेंगे? इसे रिबाउंडिंग प्रभाव कहते हैं और इसकी वजह से ऊर्जा दक्षता बढ़ाने से अर्जित लाभ काफी हद तक निरस्त हो जाते हैं।

अंत में, अध्ययनों ने यह भी दर्शाया है कि खरीदार के व्यवहार में छोटे-छोटे किंतु उपयुक्त बदलाव करने से लागत और उपभोक्ता द्वारा खरीदी के निर्णय पर काफी प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, जब उपभोक्ता के सामने विकल्पों की सूची रखी जाती है तो वे प्राय: समझौता करके मध्यम विकल्प को चुनने की प्रवृत्ति दर्शाते हैं। क्या इसका परिणाम यह होता है कि उपभोक्ता 3-स्टार रेटिंग वाला विकल्प चुनेंगे और क्या इससे निपटने के लिए मात्र 4 व 5-रेटिंग वाले विकल्प पेश करना ठीक रहेगा? इस तरह के सवालों के जवाब से कम लागत हस्तक्षेपों को इस तरह से विकसित करने में मदद मिलेगी ताकि उनसे अधिकतम लाभ मिल सके।

कूलिंग एक्शन प्लान भारत के सामने उपस्थित एक गंभीर समस्या से निपटने का अच्छा अवसर प्रदान करता है। एक समग्र व संतुलित नज़रिया और साथ में रणनीतिक प्राथमिकताओं का निर्धारण तथा उन्हें संदर्भ-अनुकूल बनाना भारत की कूलिंग चुनौती का सामना करने की कुंजी हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कैंसर के उपचार के दावे पर शंकाएं

स्राइल की एक कंपनी एक्सलरेटेड इवॉल्यूशन बायोटेक्नॉलॉजीस लिमिटेड (एईबीआई) के वैज्ञानिकों ने हाल ही में दावा किया है कि वे एक साल के अंदर हर किस्म के कैंसर का एक इलाज पेश करेंगे। खास बात यह है कि उन्होंने चूहों पर किए गए जिन प्रयोगों के आधार पर यह दावा किया है, उनके परिणाम कहीं प्रकाशित नहीं किए गए हैं। उनका यह दावा अखबार के एक लेख में घोषित किया गया है। वैज्ञानिक समुदाय के बीच इस दावे के लेकर शंका का माहौल बन गया है।

एईबीआई के वैज्ञानिकों ने कहा है कि उन्होंने एक नए तरीके का इस्तेमाल किया है जो रामबाण साबित होगा। इस नए तरीके को बहुलक्षित विष (मल्टी-टारगेटेड टॉक्सिन यानी मूटोटो) नाम दिया गया है। यह एक ऐसा पेप्टाइड अणु है जो कैंसर कोशिका की सतह पर मौजूद कई सारे अणुओं से एक साथ जुड़ जाता है। इस वजह से कैंसर कोशिका में परिवर्तन की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती और फिर एक विषैला अणु उस कोशिका को मार डालता है।

शोधकर्ताओं का मत है कि उन्होंने एक इकलौते अध्ययन में चूहों पर इस तरीके को आज़माया जिसमें अप्रत्याशित सफलता मिली है और वे जल्दी ही इसे इंसानों पर भी आज़माने जा रहे हैं।

इस विषय पर काम कर रहे अन्य वैज्ञानिकों को लगता है कि चूंकि उक्त प्रयोग के आंकड़े प्रकाशित नहीं किए गए हैं, इसलिए दावे की जांच करना असंभव है। वैसे भी चूहों पर प्रयोग के आधार पर इंसानों के बारे में दावा करना तर्कसंगत नहीं है क्योंकि अनुभव बताता है कि ज़रूरी नहीं है कि चूहों पर मिले परिणाम इंसानों में मिलें। कुछ वैज्ञानिक तो एईबीआई के दावे को विज्ञान की परंपराओं के विपरीत व गैर-ज़िम्मेदाराना मान रहे हैं। अलबत्ता, इन सारी आशंकाओं के बारे में एईबीआई ने कहा है कि एक साल के अंदर वे पहले इंसान के कैंसर का इलाज करके दिखा देंगे। उनके मुताबिक कैंसर का यह नया उपचार सस्ता होगा और इसके कोई साइड प्रभाव भी नहीं होंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कीटों की घटती आबादी और प्रकृति पर संकट

हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक कीटों की जनसंख्या में तेज़ी से गिरावट आ रही है और यह गिरावट किसी भी इकोसिस्टम के लिए खतरे की चेतावनी है। सिडनी विश्वविद्यालय के फ्रांसिस्को सांचेज़-बायो और बेजिंग स्थित चायना एकडमी ऑफ एग्रिकल्चरल साइन्सेज़ के क्रिस वायचुइस द्वारा बॉयोलॉजिकल कंज़र्वेशन पत्रिका में प्रकाशित इस रिपोर्ट के मुताबिक 40 प्रतिशत से ज़्यादा कीटों की संख्या घट रही है और एक-तिहाई कीट तो विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुके हैं। कीट का कुल द्रव्यमान सालाना 2.5 प्रतिशत की दर से कम हो रहा है, जिसका मतलब है कि एक सदी में ये गायब हो जाएंगे।

रिपोर्ट में तो यहां तक कहा गया है कि धरती छठे व्यापक विलुप्तिकरण की दहलीज़ पर खड़ी है। कीट पारिस्थितिक तंत्रों के सुचारु कामकाज के लिए अनिवार्य हैं। वे पक्षियों, सरिसृपों तथा उभयचर जीवों का भोजन हैं। इस भोजन के अभाव में ये प्राणि जीवित नहीं रह पाएंगे। कीट वनस्पतियों के लिए परागण की महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते हैं। इसके अलावा वे पोषक तत्वों का पुनर्चक्रण भी करते हैं।

शोधकर्ताओं का कहना है कि कीटों की आबादी में गिरावट का सबसे बड़ा कारण सघन खेती है। इसमें खेतों के आसपास से सारे पेड़-पौधे साफ कर दिए जाते हैं और फिर नंगे खेतों पर उर्वरकों और कीटनाशकों का बेतहाशा इस्तेमाल किया जाता है। आबादी में गिरावट का दूसरा प्रमुख कारण जलवायु परिवर्तन है। कई कीट तेज़ी से बदलती जलवायु के साथ अनुकूलित नहीं हो पा रहे हैं।

सांचेज़-बायो का कहना है कि पिछले 25-30 वर्षों में कीटों के कुल द्रव्यमान में से 80 प्रतिशत गायब हो चुका है।

इस रिपोर्ट को तैयार करने में कीटों में गिरावट के 73 अलग-अलग अध्ययनों का विश्लेषण किया गया। तितलियां और पतंगे सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं। जैसे, 2000 से 2009 के बीच इंगलैंड में तितली की एक प्रजाति की संख्या में 58 प्रतिशत की कमी आई है। इसी प्रकार से मधुमक्खियों की संख्या में ज़बरदस्त कमी देखी गई है। ओक्लाहामा (यूएस) में 1949 में बंबलबी की जितनी प्रजातियां थीं, उनमें से 2013 में मात्र आधी बची थीं। 1947 में यूएस में मधुमक्खियों के 60 लाख छत्ते थे और उनमें से 35 लाख खत्म हो चुके हैं।

वैसे रिपोर्ट को तैयार करने में जिन अध्ययनों का विश्लेषण किया गया वे ज़्यादातर पश्चिमी युरोप और यूएस से सम्बंधित हैं और कुछ अध्ययन ऑस्ट्रेलिया से चीन तथा ब्रााज़ील से दक्षिण अफ्रीका के बीच के भी हैं। मगर शोधकर्ताओं का मत है कि अन्यत्र भी स्थिति बेहतर नहीं होगी। (स्रोत फीचर्स)

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कॉफी पर संकट: जंगली प्रजातियां विलुप्त होने को हैं

ई लोगों का प्रिय पेय पदार्थ कॉफी अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहा है। वैसे तो दुनिया भर में कॉफी की 124 प्रजातियां पाई जाती हैं किंतु जो कॉफी हमारे घरों में पहुंचती है, वह मात्र दो प्रजातियों से प्राप्त होती है। इनमें से एक है कॉफी अरेबिका जिसका बाज़ार में बोलबाला है और यह कुल कॉफी उत्पादन में लगभग 70 प्रतिशत का आधार है। दूसरी प्रजाति कॉफी केनीफोरा शेष उत्पादन का आधार है। इसे रोबस्टा भी कहते हैं।

कॉफी की शेष समस्त प्रजातियां जंगली हैं और इनके फल बहुत रोमिल होते हैं, बीज बड़े-बड़े होते हैं और इनमें कैफीन नहीं होता। मगर इन जंगली प्रजातियों में ऐसे जेनेटिक गुण पाए जाते हैं जो इन्हें विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों का सामना करने में मदद करते हैं। और आज जब कृष्य कॉफी पर संकट मंडरा रहा है तो शायद ये जंगली प्रजातियां हमारी मदद कर सकती हैं।

तो जंगली कॉफी के भौगोलिक विस्तार और उनकी सेहत का आकलन करना एक महत्वपूर्ण काम है। इसी दृष्टि से क्यू स्थित रॉयल बॉटेनिकल गार्डन के आरोन डेविड और उनके साथियों ने कॉफी का एक विश्वव्यापी आकलन किया। सबसे पहले उन्होंने जंगली प्रजातियों के 5000 उपलब्ध रिकॉर्डस को खंगाला। इसके बाद इन शोधकर्ताओं ने अफ्रीका, मेडागास्कर और हिंद महासागर के टापुओं में जा-जाकर आंकड़े एकत्रित किए।

प्रत्येक प्रजाति का भौगोलिक स्थान चिंहित करने के बाद उन्होंने अंदाज़ लगाया कि कौन-सी प्रजातियां जोखिम में हैं। इसके लिए उनका आधार यह था कि उस प्रजाति के पौधों की आबादी कितनी है और उसके प्राकृतवास की हालत क्या है। साइंस एडवांसेस में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में उन्होंने बताया है कि कम से कम 60 प्रतिशत प्रजातियां जोखिम में है और कुछ तो शायद विलुप्त भी हो चुकी हैं। तुलना के लिए यह देख सकते हैं कि सारी पादप प्रजातियों में से मात्र 22 प्रतिशत जोखिम में हैं।

एक अन्य अध्ययन में डेविस ने अरेबिका प्रजाति का अध्ययन किया, जिसे वैश्विक विश्लेषण में सामान्यत: कम जोखिमग्रस्त माना जाता है। डेविस की टीम ने दूर-संवेदन से प्राप्त जलवायु परिवर्तन के आंकड़ों को जोड़कर कंप्यूटर पर विश्लेषण किया तो पता चला कि शायद 2080 तक जलवायु परिवर्तन इस प्रजाति को आधा समाप्त कर देगा। यह अध्ययन ग्लोबल चेंज बायोलॉजी में प्रकाशित हुआ है।

अब विचार चल रहा है कि कॉफी को इस संकट से कैसे बचाया जाए। एक सुझाव यह है कि कॉफी की विभिन्न प्रजातियों के बीजों को बीज संग्रह में रखा जाए। लेकिन दिक्कत यह है कि शीतलीकरण के बाद कॉफी के बीज उगते नहीं हैं। तो एक ही तरीका रह जाता है कि कॉफी के बीजों के हर साल उगाया जाए और अगले साल के लिए बीज एकत्रित करके रखे जाएं। मगर वह बहुत महंगा है। (स्रोत फीचर्स)

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खेती के लिए सौर फीडर से बिजली – अश्विन गंभीर और शांतनु दीक्षित

भारत में कुल सींचित क्षेत्र में से दो तिहाई भूजल के पंपिंग पर आश्रित है। इसके लिए 2 करोड़ पंप को बिजली से तथा 75 लाख पंप को डीज़ल से ऊर्जा मिलती है। भूजल की उपलब्धता मूलत: विश्वसनीय और किफायती बिजली आपूर्ति पर निर्भर होती है। यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है क्योंकि इसका सम्बंध ग्रामीण गरीबों की आजीविका और खाद्य सुरक्षा से है। कृषि क्षेत्र बिजली का एक प्रमुख उपभोक्ता है। कई राज्यों में कुल बिजली खपत में से एक-चौथाई से लेकर एक-तिहाई तक कृषि में जाती है।

1970 के दशक से कई राज्यों में खेती के लिए बिजली या तो निशुल्क या बहुत कम कीमत पर मिल रही है। अधिकांश कृषि सप्लाई का मीटरिंग नहीं किया जाता। कम कीमत और राजस्व वसूली की खस्ता हालत के चलते कृषि को दी गई बिजली को वितरण कंपनियों के वित्तीय घाटे का प्रमुख कारण माना जाता है। इस घाटे की कुछ भरपाई तो अन्य उपभोक्ताओं (जैसे औद्योगिक व व्यावसायिक) पर अधिक शुल्क लगाकर की जाती है। इसे क्रॉस सबसिडी कहते हैं। शेष घाटे की पूर्ति सरकार द्वारा सीधे सबसिडी देकर की जाती है।

चूंकि कृषि को बिजली सप्लाई की दृष्टि से घाटे का क्षेत्र माना जाता है, इसलिए खेती को अक्सर घटिया गुणवत्ता की सप्लाई मिलती है। इसकी वजह से पंप का बार-बार जलना और बिजली न मिलने जैसे समस्याएं पैदा होती हैं। सप्लाई को बहाल करने में बहुत समय लगता है। इसके अलावा नए कनेक्शन मिलने में काफी समय लगता है। और तो और, सप्लाई अविश्वसनीय होती है और प्राय: देर रात में ही मिल पाती है। इन सब कारणों से किसानों में वितरण कंपनियों को लेकर अविश्वास पनपा है।

अगले 10 वर्षों में खेती में बिजली की मांग दुगनी होने की संभावना है। सप्लाई की लागत बढ़ने के साथ-साथ कृषि सबसिडी की समस्या भी विकराल होती जाएगी। यदि इस मामले में नए विचार नहीं आज़माए गए तो खेती में बिजली सप्लाई की स्थिति बिगड़ती जाएगी। समाधान कुछ भी हो किंतु उसमें सबसे पहले किसानों को दिन के समय पर्याप्त बिजली की विश्वसनीय सप्लाई उचित दरों पर सुनिश्चित करनी होगी। इससे किसानों और वितरण कंपनियों के बीच परस्पर विश्वास बढ़ेगा। यदि ऐसे किसी समाधान को राष्ट्र के स्तर पर कारगर बनाना है तो इसमें सबसिडी की मात्रा भी कम की जानी चाहिए।

इस संदर्भ में तीन ऐसे विकास हुए हैं जो सर्वथा नई उत्साहवर्धक संभावनाएं प्रस्तुत करते हैं। पहला, सौर ऊर्जा से सस्ती दरों पर बिजली की उपलब्धता – चूंकि इसमें र्इंधन की कोई लागत नहीं है इसलिए यह बिजली स्थिर कीमत के अनुबंध के आधार पर अगले 25 वर्षों तक 2.75 से लेकर 3.00 रुपए प्रति युनिट की दर से मिल सकती है। दूसरा, सौर ऊर्जा के उपयोग में वृद्धि का राष्ट्रीय लक्ष्य पूरा करने के लिए राज्यों को सौर ऊर्जा की खरीद में तेज़ी से वृद्धि करनी होगी। तीसरा और अंतिम, कि भारत में ग्रिड हर गांव में पहुंच चुकी है तथा कृषि फीडर्स को अलग करने का काम भी काफी तेज़ी से आगे बढ़ा है। फीडर पृथक्करण के ज़रिए पंप को मिलने वाली बिजली और गांव को मिलने वाली बिजली को भौतिक रूप से अलग कर दिया जाता है। फीडर पृथक्करण का दो-तिहाई लक्ष्य हासिल कर लिया गया है।

इन तीन चीज़ों का फायदा उठाते हुए महाराष्ट्र में मुख्य मंत्री सौर कृषि फीडर कार्यक्रम के तत्वाधान में एक नवाचारी कार्यक्रम शुरू किया गया है। सौर कृषि फीडर मूलत: 1-10 मेगावॉट का समुदाय स्तर का सौर फोटो-वोल्टेइक संयंत्र होता है जिसे 33/11 केवी सबस्टेशन से जोड़ा जाता है। एक मेगावॉट क्षमता का सौर संयंत्र 5-5 हॉर्स पॉवर के करीब 350 पंप को संभाल सकता है और इसे लगाने के लिए लगभग 5 एकड़ ज़मीन की ज़रूरत होती है। संयंत्र को लगाने में कुछ महीने लगते हैं और किसानों को अपने छोर पर कोई परिवर्तन नहीं करने पड़ते। उन्हें इसकी स्थापना और संचालन की ज़िम्मेदारी भी नहीं उठानी पड़ती। पृथक्कृत कृषि फीडर से जुड़े सारे पंप्स को दिन के समय (सुबह 8 से शाम 6 बजे तक) 8-10 घंटे विश्वसनीय बिजली मिलेगी। जब सौर बिजली का उत्पादन कम होगा तब शेष बिजली वितरण कंपनी से ली जा सकती है। दूसरी ओर, जब पंपिंग की मांग कम है (जैसे बरसात के मौसम में) तब अतिरिक्त बिजली वितरण कंपनी को दी जा सकती है। इसके चलते संयंत्र का यथेष्ट आकार निर्धारित किया जा सकता है। प्रोजेक्ट डेवलपर्स का चयन प्रतिस्पर्धी नीलामी के द्वारा होता है और संयंत्र से बनने वाली सारी बिजली को वितरण कंपनी 25 साल के अनुबंध के ज़रिए खरीद लेगी। इसके एवज में वितरण कंपनी सम्बंधित फीडर से जुड़े किसानों को बिजली देती रहेगी।

किसानों को दिन के समय विश्वसनीय बिजली मिलने के अलावा इस तरीके का एक फायदा यह है कि इसके लिए सरकार की ओर से किसी पूंजीगत सबसिडी की ज़रूरत नहीं होगी। दरअसल यह तरीका लागत-क्षम है और इससे सबसिडी में कमी आएगी। एक फायदा यह भी है कि इसके लिए कोई नई ट्रांसमिशन लाइन डालने की ज़रूरत नहीं है। नई ट्रांसमिशन लाइन डालने का काम कई बड़े पैमाने के पवन व सौर ऊर्जा की निविदाओं के संदर्भ में प्रमुख अवरोध बन गया है। ऐसे सौर फीडर स्थापित करना वर्तमान नियामक व्यवस्था के तहत संभव है और यह बिजली उत्पादन कंपनियों के नवीकरणीय ऊर्जा खरीद दायित्व (आरपीओ) की पात्रता रखता है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस तरीके में स्थानीय युवाओं को संयंत्र के निर्माण, संचालन व रख-रखाव के कार्य में स्थानीय स्तर पर रोज़गार के रास्ते भी खुलेंगे। इस तरीके के लाभों का प्रदर्शन करने के बाद ऐसे सौर फीडर्स को आपस में जोड़ा सकता है। इससे अनाधिकृत उपयोग/कनेक्शंस कम किए जा सकेंगे, मीटरिंग व शुल्क वसूली को बेहतर बनाया जा सकेगा। ऊर्जा-क्षम पंप तथा पानी की बचत के कार्यक्रम लागू किए जा सकेंगे।

फिलहाल महाराष्ट्र में इस योजना के तहत कुल लगभग 2-3 हज़ार मेगावॉट के सौर संयंत्र निविदा और क्रियांवयन के विभिन्न चरणों में हैं। यह करीब 7.5 लाख पंप यानी महाराष्ट्र के कुल पंप्स में 20 प्रतिशत को सौर बिजली सप्लाई करने के बराबर है। दिसंबर 2018 तक लगभग 10 हज़ार किसानों को इस योजना के तहत दिन के समय विश्वसनीय बिजली सप्लाई मिलने भी लगी है। और तो और, वितरण कंपनी अगले तीन से पांच सालों में इसे 7.5 लाख पंप के शुरुआती लक्ष्य से आगे ले जाने पर विचार कर रही है। राज्य वितरण कंपनी द्वारा बिजली सप्लाई की लागत करीब 5 रुपए प्रति युनिट है (और बढ़ती जा रही है), वहीं सौर बिजली की कीमत अगले 25 वर्षों के लिए 3 रुपए प्रति युनिट पर स्थिर रहेगी। 2 रुपए प्रति युनिट की यह बचत 5 हॉर्स पॉवर के एक पंप के लिए सालाना 10,000 रुपए होती है। किसी फीडर पर 500 पंप हों तो अगले 20 वर्षों में यह बचत 4.5 करोड़ रुपए होगी। भारत सरकार ने इसी तरह की एक योजना राष्ट्रीय स्तर पर भी घोषित की है। कुसुम नामक इस योजना का लक्ष्य 10,000 मेगावॉट है।

देश के हर गांव में बिजली ग्रिड की उपस्थिति तथा साथ में राष्ट्रीय फीडर पृथक्करण कार्यक्रम मिलकर इस लागत-क्षम व आसानी से बड़े पैमाने पर लागू किए जा सकने वाले इस तरीके को समूचे राष्ट्र में व्यावहारिक बना देते हैं। कृषि क्षेत्र के लिए दिन के समय किफायती व विश्वसनीय बिजली उपलब्ध कराने का लक्ष्य इस तरीके को अनिवार्य बना देता है। यह किसान, सरकार व वितरण कंपनियों तीनों के लिए लाभ का सौदा है और यह बिजली क्षेत्र के लिए किसान-केंद्रित रास्ता खोलता है। (स्रोत फीचर्स)

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