वायरस से लड़ने मे मददगार गुड़ और अदरक – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हाल ही में मुझे भयानक सर्दी-ज़ुकाम हुआ था। दवाओं (एंटीबायोटिक, विटामिन सी) से कुछ भी आराम नहीं मिल रहा था। तो मेरी पत्नी ने घरेलू नुस्खा – गुड़ और अदरक मिलाकर – दिन में तीन बार लेने की सलाह दी। बस एक-दो दिन में ही सर्दी-खांसी गायब थी! यह कमाल गुड़ का था या अदरक का, यह जानने के लिए मैंने आधुनिक वैज्ञानिक साहित्य खंगाला। मैंने पाया कि सालों से चीन के लोग भी सर्दी-ज़ुकाम तथा कुछ अन्य तकलीफों से राहत पाने के लिए इसी तरह के एक पारंपरिक नुस्खे – जे जेन तांग – का उपयोग करते आए हैं। इसमें अदरक के साथ एक मीठी जड़ी-बूटी (कुद्ज़ु की जड़) का सेवन किया जाता है।

अदरक के औषधीय गुणों से तो सभी वाकिफ है। कई जगहों, खासकर भारत, चीन, पाकिस्तान और ईरान में इसके औषधीय गुणों के अध्ययन भी हुए हैं। ऐसा पाया गया है कि इसमें दर्जन भर औषधीय रसायन मौजूद होते हैं। 1994 में डॉ. सी. वी. डेनियर और उनके साथियों ने अदरक के औषधीय गुणों पर हुए 12 प्रमुख अध्ययनों की समीक्षा नेचुरल प्रोडक्ट्स पत्रिका में की थी। ये अध्ययन अदरक के ऑक्सीकरण-रोधी गुण, शोथ-रोधी गुण, मितली में राहत और वमनरोघी गुणों पर हुए थे। इसके अलावा पश्चिम एशियाई क्षेत्र के एक शोध पत्र के मुताबिक अदरक स्मृति-लोप और अल्ज़ाइमर जैसे रोगों में भी फायदेमंद है। इस्फहान के ईरानी शोधकर्ताओं के एक समूह ने अदरक में स्वास्थ्य और शारीरिक क्रियाकलापों पर असर के अलावा कैंसर-रोघी गुण होने के मौजूदा प्रमाणों की समीक्षा की है।

कैंसररोधी गुण

कई अध्ययनों में अदरक में कैंसर-रोधी गुण होने की बात सामने आई है। औद्योगिक विषविज्ञान अनुसंधान संस्थान (अब भारतीय विषविज्ञान अनुसंधान संस्थान) के डॉ. योगेश्वर शुक्ला और डॉ. एम. सिंह ने साल 2007 में अपने पर्चे में अदरक के कैंसर-रोधी गुण के बारे में बात की थी। उनके अनुसार अदरक में 6-जिंजेरॉल और 6-पेराडोल अवयव सक्रिय होने की संभावना है। साल 2011 में डॉ. ए. एम. बोड़े और डॉ. ज़ेड डोंग ने इस बात की पुन: समीक्षा की। अपनी पुस्तक ‘दी अमेज़िंग एंड माइटी जिंजर हर्बल मेडिसिन’में उन्होंने ताज़ी और सूखी (सौंठ), दोनों तरह की अदरक में मौजूद 115 घटकों के बारे में बताया, जिनमें जिंजेरॉल और उसके यौगिक मुख्य थे। शंघाई में हाल ही में प्रकाशित पर्चे के अनुसार अदरक कैंसर-रोधी 5-फ्लोरोयूरेसिल यौगिक की गठान-रोधक क्रिया को बढ़ाता है।

यानी अदरक औषधियों का खजाना है। मगर वापिस सर्दी-खांसी पर आ जाते हैं। कैसे अदरक सर्दी-खांसी में राहत पहुंचाता है? इसके बारे में कुछ जानकारी साल 2013 में जर्नल ऑफ एथ्नोमोफार्माकोलॉजी में प्रकाशित प्रो. जुंग सान चांग के पेपर से मिलती है। पेपर के अनुसार ताज़े अदरक में वायरस-रोधी गुण होते हैं। आम तौर पर सर्दी-ज़ुकाम वायरल संक्रमण के कारण होता है (इसीलिए एंटीबायोटिक दवाइयां सर्दी-ज़ुकाम में कारगर नहीं होती)। संक्रमण के लिए दो तरह के वायरस ज़िम्मेदार होते हैं। इनमें से एक है ह्यूमन रेस्पीरेटरी सिंशियल वायरस (HRSV)। चांग और उनके साथियों ने HRSV वायरस से संक्रमित कोशिकाओं पर अदरक के प्रभाव का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि अदरक श्लेष्मा कोशिकाओं को वायरस से लड़ने वाले यौगिक का स्राव करने के लिए प्रेरित करता है। यह अनुमान तो पहले से था कि अदरक में विभिन्न वायरस से लड़ने वाले यौगिक मौजूद होते हैं। यह अध्ययन इस बात की पुष्टि करता है कि अदरक कोशिकाओं को वायरस से लड़ने वाले यौगिक का स्राव करने के लिए प्रेरित करता है। इसके पहले डेनियर और उनके साथियों ने बताया था कि अदरक में मौजूद बीटा-सेस्क्वीफिलांड्रीन सर्दी-ज़ुकाम के वायरस से लड़ता है और उसमें राहत पहुंचाता है।

वर्तमान में प्राकृतिक स्रोत से अच्छे एंटीबायोटिक और एंटीबैक्टीरियल पदार्थों की खोज, पारंपरिक औषधियों की तरफ रुझान, आधुनिक विधियों से उनकी कारगरता की जांच और पारंपरिक औषधियों को समझने के क्षेत्र में काफी काम हो रहा है। चीन इस क्षेत्र में अग्रणी है। चीन ने पेकिंग विश्वविद्यालय में पूर्ण विकसित औषधि विज्ञान केंद्र शुरु किया है। भारत भी इस मामले में पीछे नहीं है। भारत फंडिंग और कैरियर प्रोत्साहन के ज़रिए इस क्षेत्र में अनुसंधान को बढ़ावा दे रहा है।

परंपरा और वर्तमान

भारत में भी आयुष मंत्रालय इसी तरह के काम के लिए है। यह मंत्रालय यूनानी, आयुर्वेदिक, प्राकृतिक चिकित्सा, सिद्ध, योग और होम्योपैथी के क्षेत्र में शोध और चिकित्सीय परीक्षण को बढ़ावा देता है। यह एक स्वागत-योग्य शुरुआती कदम है। दरअसल, हमें इस क्षेत्र के (पारंपरिक) चिकित्सकों और शोधकर्ताओं की ज़रूरत है जो आधुनिक तकनीकों और तरीकों से काम करने वाले जीव वैज्ञानिकों और औषधि वैज्ञानिकों के साथ काम कर सकें ताकि इससे अधिक से अधिक लाभ उठाया जा सके। वैसे सलीमुज़्ज़मन सिद्दीकी, टी. आर. शेषाद्री, के. वेंकटरमन, टी.आर. गोविंदाचारी, आसिमा चटर्जी, नित्यानंद जैसे जैव-रसायनज्ञ और औषधि वैज्ञानिक वनस्पति विज्ञानियों और पारंपरिक चिकित्सकों के साथ मिलकर काम करते रहे हैं। यदि आयुष मंत्रालय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय और रसायन और उर्वरक मंत्रालय के सम्बंधित विभागों के साथ मिलकर काम करे तो कम समय में अधिक प्रगति की जा सकती है। भारत में घरेलू उपचार की समृद्ध परंपरा रही है। देश भर में फैली अपनी सुसज्जित प्रयोगशाला के दम पर भारत भी चीन की तरह सफलता हासिल कर सकता है। शुरुआत हम भी चीन की तरह ही प्राकृतिक स्रोतों में एंटी-वायरल तत्व खोजने के कार्यक्रम से कर सकते हैं।

मगर आखिर इस नुस्खे में गुड़ क्या काम करता है। ऐसा लगता है कि तीखे स्वाद के अदरक को खाने के लिए गुड़ की मिठास का सहारा लेते हैं। पर गुड़ में शक्कर की तुलना में 15-35 प्रतिशत कम सुक्रोस होता है और ज़्यादा खनिज तत्व (कैल्शियम, मैग्नीशियम और लौह) होते हैं। साथ ही यह फ्लू के लक्षणों से लड़ने के लिए भी अच्छा माना जाता है। दुर्भाग्य से गुड़ के जैव रासायनिक और औषधीय गुणों पर अधिक अनुसंधान नहीं हुए हैं। तो शोध के लिए एक और रोचक विषय सामने है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मंगल पर मीथेन का रहस्य

नासा द्वारा मंगल पर भेजे गए क्यूरोसिटी रोवर ने मंगल के वायुमंडल में मीथेन की सबसे अधिक मात्रा उत्तरी गोलार्ध की गर्मियों के दौरान दर्ज की है। हाल ही में की गई गणनाओं की मदद से मीथेन की अधिक मात्रा को समझने में मदद मिल सकती है। कनाडा स्थित यॉर्क युनिवर्सिटी के ग्रह वैज्ञानिक जॉन मूर्स ने प्लेनेटरी साइंस की हालिया बैठक में बताया कि जैसे ही मौसम सर्दी से वसंत की ओर जाता है, सूर्य की गर्मी से मिट्टी गर्म होने लगती है, जिससे मीथेन गैस जमीन से निकलकर वायुमंडल में पहुंचने लगती है।

2012 में मंगल की विषुवत रेखा के नज़दीक गेल क्रेटर पर रोवर से प्राप्त जानकारी के अनुसार उत्तरी वसंत में वायुमंडलीय मीथेन की काफी अधिक मात्रा दर्ज की गई। इस साल की शुरुआत में, टीम के वैज्ञानिकों ने बताया कि मौसम में परिवर्तन के साथसाथ मीथेन के स्तर बढ़तेघटते नज़र आए। इसका सबसे अधिक स्तर उत्तरी गोलार्ध की गर्मियों में दर्ज किया गया।

मंगल के वायुमंडल में मीथेन का मिलना एक पहेली है। ग्रह पर हो रही रासायनिक अभिक्रियाओं के चलते लगभग 300 वर्षों में यह गैस नष्ट हो जाना चाहिए थी। लेकिन आज भी इसकी उपस्थिति दर्शाती है कि ग्रह पर आज भी कोई ऐसा स्रोत है जो वायुमंडल में लगातार गैस भेज रहा है। यह स्रोत भूगर्भीय प्रक्रियाएं हो सकती हैं या फिर सतह के नीचे दबे सूक्ष्मजीव या जीवन के कोई अन्य रूप भी हो सकते हैं। पृथ्वी के वायुमंडल में अधिकांश मीथेन सजीवों से आती है।

शोधकर्ताओं ने समयसमय पर दूरबीनों और अंतरिक्ष यानों की मदद से मंगल पर मीथेन के एकएक कतरे पर नज़र रखी है और इसमें उतारचढ़ाव देखे हैं। 2009 में मंगल पर मीथेन के स्तर में ज़बरदस्त उछाल भी देखा गया था। उम्मीद थी कि रोवर इस गुत्थी को सुलझाएगा किंतु उसने तो समस्या को उलझा दिया है। अब, ऐसा प्रतीत होता है कि जवाब मंगल की सतह के नीचे दफन है। मूर्स और उनके सहयोगियों ने अपने विश्लेषण के आधार पर बताया है कि किस तरह सतह के नीचे मीथेन दरारों के माध्यम से ऊपर की ओर बढ़ती है। गणना करने से मालूम चला है कि मिट्टी के गर्म होने से गैस के रिसाव में मदद मिलती है। मंगल पर मौसम पेचीदा होते हैं खासकर विषुवत रेखा के आसपास जहां रोवर स्थित है। अलबत्ता, उच्चतम मीथेन स्तर वर्ष के गर्म समय में दिखाई देता है, जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि नीचे फैलती गर्मी से गैस को अधिक से अधिक बाहर निकलने में मदद मिलती है। लेकिन मीथेन का अंतिम स्रोत अभी भी एक रहस्य है।

इससे पहले भी मैरीलैंड स्थित गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर, ग्रीनबेल्ट के एक ग्रह वैज्ञानिक माइकल मुमा का सुझाव था कि मीथेन मंगल ग्रह पर सूर्य द्वारा गर्म हुई चट्टानों से निकलती है।

इस संदर्भ में अभी और अधिक चौंकाने वाली खबरें आना बाकी है। नासा के अलावा कई अन्य एजेंसियां मीथेन की उपस्थिति की छानबीन कर रही हैं हैं। लिहाज़ा, जल्दी ही इस सवाल को सुलझा लेने की उम्मीद की जा रही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ज़िद से नहीं, जज़्बे से बचेंगे एशियाई शेर -जाहिद खान

गुजरात के गिर अभयारण्य में पिछले दिनों एक के बाद एक 23 शेरों की रहस्यमय ढ़ंग से हुई मौत ने वन्य प्राणियों के चाहने वालों को हिलाकर रख दिया है। समझ में नहीं आ रहा है कि क्यों ये शेर एक के बाद एक मर रहे हैं। मरने वाले ज़्यादातर शेर अमरेली ज़िले के गिर फॉरेस्ट नेशनल पार्क के पूर्वी हिस्से डालखानिया रेंज के हैं।

इन शेरों की मौत पर पहले तो राज्य का वन महकमा चुप्पी साधे रहा। लेकिन जब खबर मीडिया के ज़रिए पूरे देश में फैली, तब वन महकमे के आला अफसर नींद से जागे और उन्होंने स्पष्टीकरण देना ज़रूरी समझा। स्पष्टीकरण भी ऐसा जिस पर शायद ही किसी को यकीन हो। प्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक का दावा है कि डालखानिया रेंज में बाहरी शेरों के घुसने से हुई वर्चस्व की लड़ाई में इन शेरों की मौत हुई है। सवाल उठाया जा सकता है कि इतने बड़े जंगल के केवल एक ही हिस्से में इतने बड़े पैमाने पर लड़ाइयां क्यों हो रही है?

इस बीच मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच गया है। शीर्ष अदालत ने हाल ही में सुनवाई करते हुए गुजरात सरकार को इस पूरे मामले की जांच करने का आदेश दिया है। 

जिस तरह से इन शेरों की मौत हुई है, उससे यह शंका जताई जा रही है कि कहीं इन शेरों की मौत केनाइन डिस्टेंपर वायरस (सीडीवी) और विनेशिया प्रोटोज़ोआ वायरस से तो नहीं हुई है। सीडीवी वायरस वही खतरनाक वायरस है जिससे प्रभावित होकर तंजानिया (अफ्रीका) के सेरेंगेटी रिज़र्व फॉरेस्ट में साल 1994 के दौरान एक हज़ार शेर मर गए थे। इस बारे में तमाम वन्य जीव विशेषज्ञ 2011 से लगातार गुजरात के वन महकमे को आगाह कर रहे हैं। पर राज्य के वन महकमे ने इससे निपटने के लिए कोई माकूल बंदोबस्त नहीं किए। यदि वायरस फैला तो गिर में और भी शेरों को नुकसान पहुंच सकता है; सिंहों की यह दुर्लभ प्रजाति विलुप्त तक हो सकती है।

दुनिया भर में एशियाई शेरों का अंतिम रहवास माने जाने वाले गिर के जंगलों में फिलहाल शेरों की संख्या तकरीबन 600 होगी। साल 2015 में हुई पांच वर्षीय सिंहगणना के मुताबिक यहां शेरों की कुल संख्या 523 थी। सौराष्ट्र क्षेत्र के चार ज़िलों गिर सोमनाथ, भावनगर, जूनागढ़ और अमरेली के 1800 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में फैले गिर के जंगलों की आबोहवा एशियाई शेरों को खूब रास आती है। एक समय एशियाई शेर पूरे भारत और एशिया के दीगर देशों में भी पाए जाते थे, लेकिन धीरेधीरे इनकी आबादी घटती गई। आज ये सिर्फ गुजरात के पांच वन स्थलों गिर राष्ट्रीय उद्यान, गिर वन्यजीव अभयारण्य, गिरनार वन्यजीव अभयारण्य, मटियाला अभयारण्य और पनिया अभयारण्य में सीमित रह गए हैं। इस बात को भारत सरकार ने गंभीरता से लिया और साल 1965 में गिर वन क्षेत्र को संरक्षित घोषित कर दिया। इन जंगलों का 259 वर्ग कि.मी. क्षेत्र राष्ट्रीय उद्यान घोषित है जबकि बाकी क्षेत्र संरक्षित अभयारण्य है।

डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ. की एक रिपोर्ट के मुताबिक बीसवीं सदी बाघों के लिए अति खतरनाक रही। वही हालात अब भी जारी हैं। संगठन का कहना है कि बीती सदी में इंडोनेशिया में बाघों की तीन उप प्रजातियां (बाली, कैस्पेन और जावा) पूरी तरह लुप्त हो गर्इं।

वन्य जीवों के लिए खतरे के मामले में पूरी दुनिया में हालात एक समान हैं। दक्षिणी चीनी बाघ प्रजाति भी तेज़ी से विलुप्त होने की ओर बढ़ रही है। संगठन का कहना है कि सरकारी और गैरसरकारी संरक्षण प्रयासों के बावजूद विपरीत परिस्थितियां निरीह प्राणियों की जान ले रही हैं। बाघों और शेरों की जान कई बार अभयारण्यों में बाढ़ का पानी भर जाने से चली जाती है, तो कई बार सुरक्षित स्थानों की ओर भागने के प्रयास में वे वाहनों से कुचले जाते हैं या शिकारियों का निशाना बन जाते हैं।

भारतीय वन्यजीव संस्थान ने आज से तीस साल पहले एक अध्ययन में बताया था कि एशियाई शेरों में अंत:जननके चलते आनुवंशिक बीमारी हो सकती है। अगर ऐसा हुआ, तो इन शेरों की मौत हो जाएगी और उसके चलते एशिया से शेरों का अस्तित्व भी खत्म हो सकता है। बीमारी से आहिस्ताआहिस्ता लेकिन कम समय में ये सभी शेर मारे जा सकते हैं। इसी आशंका के चलते वन्यजीव संस्थान ने सरकार को इन शेरों में से कुछ शेरों को किसी दूसरे जंगल में स्थानांतरित करने की योजना बनाकर दी थी। संस्थान का मानना था कि अंत:जनन के चलते अगर एक जगह किसी बीमारी से शेरों की नस्ल नष्ट हो जाती है, तो दूसरी जगह के शेर अपनी नस्ल और अस्तित्व को बचा लेंगे। गुजरात के एक जीव विज्ञानी रवि चेल्लम ने भी 1993 में कहा था कि दुर्लभ प्रजाति के इन शेरों को सुरक्षित रखने के लिए उन्हें किसी और जगह पर भी बसाना ज़रूरी है।

बहरहाल डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ. की सलाह और एशियाई शेरों पर हुए शोधों के आधार पर भारतीय वन्यजीव संस्थान ने साल 1993-94 में पूरे देश में सर्वेक्षण के बाद कुछ शेरों को मध्य प्रदेश के कूनोपालपुर अभयारण्य में शिफ्ट करने की योजना बनाई। इन शेरों के पुनर्वास के लिए तत्कालीन केंद्र सरकार और भारतीय वन्यजीव संस्थान के सहयोग से मध्य प्रदेश में 1996-97 से एक कार्य योजना प्रारंभ की गई। लेकिन गुजरात सरकार अपने शेर ना देने पर अड़ गई। गुजरात सरकार की दलील है कि कूनोपालपुर का पारिस्थितिकी तंत्र एशियाई शेर के अनुकूल नहीं है और यदि वहां शेर स्थानांतरित किए गए, तो मर जाएंगे। यह आशंका पूरी तरह से निराधार है। कूनोपालपुर अभयारण्य में शेरों की इस प्रजाति के लिए हर तरह का माकूल माहौल है। साल 1981 में स्थापित कूनोपालपुर वनमंडल 1245 वर्ग कि.मी. में फैला हुआ है। इसमें से 344 वर्ग कि.मी. अभयारण्य का क्षेत्र है। इसके अलावा 900 वर्ग कि.मी. क्षेत्र अभयारण्य के बफर ज़ोन में आता है।

गुजरात सरकार की हठधर्मिता का ही नतीजा था कि मध्य प्रदेश सरकार को आखिरकार अदालत का रुख करना पड़ा। इस मामले में राज्य सरकार ने साल 2009 में एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की। जिसमें उसने एशियाई शेरों को कूनोपालपुर अभयारण्य लाने की मांग की। उच्चतम न्यायालय में चली लंबी सुनवाई के बाद फैसला आखिरकार मध्य प्रदेश सरकार के हक में हुआ। अप्रैल, 2013 में अदालत ने गुजरात सरकार की तमाम दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि इस प्रजाति के अस्तित्व पर खतरा है और इनके लिए दूसरे घर की ज़रूरत है। लिहाज़ा एशियाई शेरों को गुजरात से मध्य प्रदेश लाकर बसाया जाए। अदालत ने इस काम के लिए सम्बंधित वन्यजीव अधिकारियों को छह महीने का समय दिया था। लेकिन अफसोस, सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद भी गुजरात सरकार ने अपनी जिद नहीं छोड़ी और मध्य प्रदेश को शेर देने से साफ इंकार कर दिया। इस मामले में गुजरात सरकार ने शीर्ष अदालत में पुनरीक्षण याचिका दायर कर रखी है। दूसरी ओर, हकीकत यह है कि पिछले ढाई साल में 200 से ज़्यादा शेरों की मौत हो चुकी है। इनमें कई मौतें अप्राकृतिक हैं। सरकार का यह दावा पूरी तरह से खोखला निकला है कि गिर के जंगलों में शेर पूरी तरह से महफूज़ है। दुर्लभ एशियाई शेर भारत और दुनिया भर में बचे रहें, इसके लिए समन्वित प्रयास बेहद ज़रूरी हैं। एशियाई शेर ज़िद से नहीं, बल्कि जज़्बे से बचेंगे। जज़्बा यह होना चाहिए कि किसी भी हाल में हमें जंगल के इस बादशाह को बचाना है। गुजरात सरकार अपनी ज़िद छोड़े और इन शेरों में से कुछ शेर तुरंत कूनोपालपुर को स्थानांतरित करे, तभी जाकर शेरों की यह दुर्लभ प्रजाति हमारे देश में बची रहेगी।(स्रोत फीचर्स)

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दक्षिण अफ्रीका में घुसपैठी प्रजातियों का आतंक

क्षिण अफ्रीका के राष्ट्रीय जैव विविधता संस्थान द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक घुसपैठी जैव प्रजातियों की वजह से देश की अर्थ व्यवस्था पर 45 करोड़ डॉलर का वार्षिक बोझ पड़ रहा है और ये जैव विविधता के ह्यास का एक बड़ा कारण बन गई हैं। इन घुसपैठी प्रजातियों में वनस्पतियों के अलावा कीट और मछलियां भी शामिल हैं। यह अपने किस्म की पहली रिपोर्ट है।

दरअसल, 2014 में दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने यह अनिवार्य कर दिया था कि हर तीन साल में घुसपैठी प्रजातियों की समीक्षा की जाएगी। गौरतलब है कि घुसपैठी प्रजातियां ऐसी प्रजातियों को कहते हैं जिन्हें अपने कुदरती आवास के बाहर किसी इकोसिस्टम में प्रविष्ट कराया जाता है या जो स्वयं ही दूरदूर तक फैलकर अन्य इकोसिस्टम्स में घुसने लगती हैं। यह रिपोर्ट उपरोक्त नियम के तहत ही तैयार की गई है और इसके लिए देश भर की प्रयोगशालाओं तथा विभिन्न केंद्रों पर संग्रहित जानकारी का सहारा लिया गया है। रिपोर्ट में घुसपैठी प्रजातियों के प्रभाव,उनसे निपटने के उपायों तथा उनके प्रवेश के रास्तों की भी समीक्षा की गई है।

2015 में 14 राष्ट्रीय संगठनों के 37 शोधकर्ताओं ने राष्ट्रीय जैव विविधता संस्थान तथा स्टेलेनबॉश विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर एक्सलेंस फॉर इन्वेज़न बायोलॉजी के नेतृत्व में इस रिपोर्ट को तैयार किया है।

रिपोर्ट में बताया गया है कि दक्षिण अफ्रीका में प्रति वर्ष 7 नई प्रजातियां प्रविष्ट होती हैं। आज तक कुल 775 घुसपैठी प्रजातियों की पहचान की गई है। इनमें से अधिकांश तो पेड़पौधे हैं। रिपोर्ट के लेखकों का अनुमान है कि इनमें से 107 प्रजातियां देश की जैव विविधता और मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं। उदाहरण के तौर पर, प्रोसोपिस ग्लेंडुलोस (हनी मेस्क्वाइट) है जिसे पूरे अफ्रीका में पशुओं के चारे के रूप में लाया गया था। आज यह चारागाहों को तबाह कर रही है और स्थानीय वनस्पति को बढ़ने से रोकती है। एक रिपोर्ट के मुताबिक यह मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों के फैलने में मददगार है।

इसी तरह से एक कीट सायरेक्स नॉक्टिलो वानिकी को प्रभावित करता है तो एक चींटी लाइनेपिथिमा ह्रूमाइल स्थानीय वनस्पतियों के बीजों के बिखराव को तहसनहस करती है जबकि जलकुंभी ने देश के बांधों और नहरों को पाट दिया है। रिपोर्ट का यह भी कहना है कि कई घुसपैठी प्रजातियां बहुत पानी का उपभोग करती हैं।

इस रिपोर्ट को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर घुसपैठी प्रजातियों के बारे में एक समग्र रिपोर्ट बताया गया है जबकि रिपोर्ट के लेखकों का कहना है कि जानकारी के अभाव के चलते यह रिपोर्ट उतनी विश्वसनीय नहीं बन पाई है। लेकिन इस प्रयास की काफी सराहना की जा रही है। (स्रोत फीचर्स)

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खतरे में है ओरांगुटान की नई प्रजाति – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

रांगुटान हमारे करीबी रिश्तेदार हैं क्योंकि इनका जीनोम और मानव जीनोम 96.4 प्रतिशत समान है। ये अपने खास लाल फर के लिए पहचाने जाते हैं तथा पेड़ों पर रहने वाले सबसे बड़े स्तनधारी हैं। ये लंबी तथा शक्तिशाली भुजाओं से एक से दूसरे पेड़ पर छलांग लगाते हैं और इस दौरान हाथ और पैरों से मज़बूत पकड़ बनाए रखते हैं।

ब्रुनेई, इंडोनेशिया, मलेशिया तथा सिंगापुर में बोली जाने वाली मलय भाषा में ओरांगुटान का मतलब होता है जंगल का मानव। ये निचले भूभाग के जंगलों में अकेले रहना पसंद करते हैं। लीची, मैंगोस और अंजीर जैसे जंगली फल इनकी खुराक हैं। रात होने के पूर्व ये वृक्ष की शाखाओं का घोंसला बनाकर सोते हैं। 90 कि.ग्रा. के भारी भरकम नर ओरांगुटान को उनके गालों के गद्दे (फ्लेंज) तथा ज़ोरदार लंबी आवाज लगाने के लिए गले की थैली से आसानी से पहचाना जा सकता है।

ब्रुनेई तथा सुमात्रा में पाए जाने वाले ओरांगुटान व्यवहार तथा दिखने में कुछ भिन्न होते हैं। सुमात्रा के ओरांगुटान के परिवार में सदस्यों का एकदूसरे से जुड़ाव ज़्यादा होता है तथा चेहरे के बाल लंबे होते हैं। ब्रुनेई के ओरांगुटान पेड़ों को छोड़कर बेझिझक ज़मीन पर भी आ जाते हैं। हाल ही के वर्षों में दोनों प्रजातियों की आबादी में बेहद ज़्यादा गिरावट देखी गई है। एक शताब्दी पूर्व ही ब्रुनेई तथा सुमात्रा में इनकी संख्या 2,30,000 थी। अब ब्रुनेई में कुल जमा 1,04,700 तथा सुमात्रा में लगभग 7500 ओरांगुटान बचे हैं और इन्हें क्रमश: संकटग्रस्त व लुप्तप्राय श्रेणियों में रखा गया है। 2017 में तपानुली ओरांगुटान के नाम की नई प्रजाति उत्तरी सुमात्रा से खोजी गई है जिनकी संख्या केवल 800 है। यह वनमानुषों में सबसे कम है। नई प्रजाति सुमात्रा के बटांग तोरू के परिस्थितिक तंत्र में 1225 वर्ग कि.मी. के ऊंचाई पर स्थित घने जंगलों में पेड़ों पर मिलती है। ऐसा अनुमान है कि लगभग 10-20 हज़ार साल पहले ही बाकी ओरांगुटान प्रजातियों से अलग होकर तपानुली ओरांगुटान प्रजाति अस्तित्व में आई है। इनके आवास का क्षेत्रफल छोटा, बिखरा हुआ तथा संरक्षण से वंचित रहा है। इनके आवास क्षेत्र के अधिकांश हिस्से कृषि, सड़क या रेल मार्ग, शिकार, पनबिजली परियोजनाओं तथा बाढ़ के कारण सिकुड़ गए हैं।

यद्यपि इक्कीसवीं सदी में वनमानुष की नई प्रजाति खोजना उत्साहजनक है परंतु इनको संरक्षित करने की कार्रवाई तुरंत की जानी चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि नई खोजी गई प्रजाति हमारे सामने ही विलुप्त हो जाए। (स्रोत फीचर्स)

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विलुप्त होने की कगार पर गिद्ध – डॉ. दीपक कोहली

गिद्धों का हमारे पारिस्थतिकी तंत्र में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। कई धर्मों में भी इसे महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। गिद्ध एक अपमार्जक (सफाई करने वाला) पक्षी है। इनकी कुल 22 प्रजातियां होती हैं। भारत में गिद्ध की पांच प्रजातियां पाई जाती हैं भारतीय गिद्ध (Gyps indicus), लंबी चोंच का गिद्ध (Gyps tenuirostris), लाल सिर वाला गिद्ध (Sarcogyps calvus), बंगाल का गिद्ध (Gyps bengalensis), सफेद गिद्ध (Neophron percnopterus)

गिद्ध की चोंच लंबी एवं अंकुश नुमा होती है जिससे वे मृत जानवर के शव को नोचकर खाने के बाद भी स्वच्छ रहते हैं। गिद्ध भोजन करने के पश्चात तुरंत स्नान करना पसंद करते हैं जिससे भोजन के दौरान शरीर पर लगे रक्त को पानी से धो सकें और ऐसा करके वे कई बीमारियों से अपना बचाव करते हैं।

गिद्ध बड़े कद के पांच से दस किलो वज़न के पक्षी हैं जो गर्म हवा के स्तम्भों पर विसर्पण द्वारा सकुशल उड़ान भरने में दक्ष होते हैं। आसमान की ऊंचाई से उनकी तीक्ष्ण दृष्टि भोजन हेतु जानवरों के शव ढूंढ लेती है। हमारे देश में गिद्ध विशेष रूप से बहुत अधिक संख्या में पाए जाते थे क्योंकि कृषि प्रधान देश में मवेशियों के पर्याप्त शवों की उपलब्धता के कारण गिद्धों के लिए प्रचुर मात्रा में भोजन उपलब्ध रहता था। गिद्धों के सिर व गर्दन पंख विहीन होते हैं। गिद्ध चार से छ: वर्ष की आयु में प्रजनन योग्य वयस्क पक्षी बन जाते हैं एवं 37-40 वर्ष की दीर्घ आयु प्राप्त करते हैं। पक्षीविदों के अनुसार पृथ्वी के सभी भागों में गिद्धों की संख्या स्थिर बनी हुई थी किंतु लगभग 10-15 वर्ष पूर्व से दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में इनकी संख्या में तीव्र गिरावट आनी शुरू हुई। इस पक्षी की कई प्रजातियां आज लुप्त होने की कगार पर  हैं। एक अनुमान के मुताबिक 1952 से आज तक इस पक्षी की संख्या में 99 प्रतिशत कमी हुई है।

कुछ वर्षों पहले तक प्राय: हर स्थान पर, जहां किसी पशु का मृत शरीर पड़ा रहता था, वहां शव भक्षण करते गिद्ध हम सभी ने देखे हैं किंतु अब यह दृश्य दुर्लभ हो गए हैं। पशुओं के मृत शरीर कई दिनों तक लावारिस पड़े रहकर वायुमंडल में दुर्गंध व प्रदूषण फैलाते रहते हैं। इसका मुख्य कारण दिन प्रतिदिन गिद्धों की घटती संख्या है।

सुप्रसिद्ध पक्षीविद डॉक्टर सालिम अली ने अपनी पुस्तक इंडियन बर्ड्स में गिद्धों का वर्णन सफाई की एक कुदरती मशीन के रूप में किया है। गिद्धों का एक समूह एक मृत सांड को मात्र 30 मिनट में साफ कर सकता है। अगर गिद्ध हमारी प्रकृति का हिस्सा न होते तो हमारी धरती हड्डियों और सड़े मांस का ढेर बन जाती। गिद्ध मृत शरीरों का भक्षण कर हमें कई तरह की बीमारियों से बचाते हैं। गिद्धों की तेज़ी से घटती संख्या के साथ हम अपने पर्यावरण की खाद्य कड़ी के एक महत्वपूर्ण जीव को खोते जा रहे हैं, जो हमारी खाद्य शृंखला के लिए घातक है। 

गिद्धों की घटती संख्या के कारण जहां मृत शरीरों के निस्तारण की समस्या जटिल हो गई है वहीं अन्य अपमार्जकों की संख्या में वृद्धि हुई है। आवारा कुत्तों तथा चूहों की संख्या बढ़ी है लेकिन ये गिद्ध जितने कुशल नहीं है। इनकी बढ़ती संख्या के कारण रेबीज़ आदि रोगों के फैलने की समस्या बनी रहती है। कुत्तों की बढ़ती संख्या से वन्य प्राणियों को क्षति पहुंचने की भी आशंका रहती है।

गिद्धों की घटती संख्या का कारण ज्ञात करने के निरंतर प्रयास किए गए हैं। 1950 और 60 के दशक में धारणा थी कि पशुओं के मृत शरीर में डीडीटी का अंश बढ़ने के कारण डीडीटी गिद्धों के शरीर में भी पहुंच रहा है तथा इसके कारण उनके अधिकांश अंडे परिपक्व होने से पूर्व ही टूट जा रहे हैं। यह धारणा कालांतर में त्याग दी गई क्योंकि अन्य पक्षियों में इस तरह का कोई असर नहीं देखा गया। कुछ विशेषज्ञों का मत था कि गिद्धों पर किसी विषाणु का आक्रमण हो गया है जिस कारण वे सुस्त हो जाते हैं। गिद्ध अपने शरीर का तापमान कम करने के लिए ऊंची उड़ान भरते हैं, ऊंचाई में वायुमंडल में ऊपर तापमान कम होता है तथा वहां जाकर गिद्ध ठंडक प्राप्त करते हैं। विषाणु से उत्पन्न सुस्ती के कारण ये उड़ान नहीं भर पाते हैं तथा बढ़ते तापमान के कारण शरीर में पानी की कमी हो जाती है इससे यूरिक एसिड के सफेद कण इनके ह्रदय, लीवर, किडनी में जम जाते हैं और अंतत: इनकी मृत्यु हो जाती है।

आधुनिक व सघन अनुसंधान के उपरांत अकाट्य प्रमाण मिला है कि पशु चिकित्सा में बुखार, सूजन एवं दर्द आदि के लिए उपयोग की जाने वाली डायक्लोफेनेक औषधि गिद्धों की संख्या में कमी के लिए उत्तरदायी है। किसी पालतू पशु का उपचार डायक्लोफेनेक द्वारा करने पर उस पशु के शव गिद्ध द्वारा खाए जाने पर उसके मांस के माध्यम से डायक्लोफेनेक औषधि गिद्ध के शरीर में प्रवेश कर विषैला प्रभाव डालती है। डायक्लोफेनेक गिद्ध के गुर्दे में गाउट नामक रोग उत्पन्न करता है, जो गिद्धों के लिए प्राण घातक होता है।

कारण चाहे जो भी हो, गिद्धों की संख्या कम होना वास्तव में गंभीर चिंता का विषय है और यदि यह क्रम जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब गिद्ध भी डोडो की तरह केवल पुस्तकों में ही सीमित होकर रह जाएंगे।

गिद्धों का संरक्षण व उनकी संख्या में वृद्धि के प्रयासों में जीवित गिद्धों का वृहद स्तर पर सर्वे, बाड़ों में रखकर प्रजनन व उसकी सहायता से गिद्धों का पुनर्वास एवं सबसे महत्वपूर्ण कदमडायक्लोफेनेक औषधि पर पूर्ण प्रतिबंध जैसे प्रयास शामिल हैं। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी जैसे कुछ संगठनों के अथक प्रयासों से इस दिशा में उल्लेखनीय सफलता भी हासिल हुई है। भारतीय औषधि महानियंत्रक ने सभी राज्यों में पशुचिकित्सा में डायक्लोफेनेक औषधि पर प्रतिबंध के निर्देश दिए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि प्राकृतिक सफाईकर्मी को विलुप्त होने से बचाया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कार्बन डाईऑक्साइड से र्इंधन बनाने की जुगत – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पिछले कुछ दशकों में कच्चे तेल और कोयले जैसे जीवाश्म र्इंधनों के अत्यधिक उपयोग के चलते वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर बहुत बढ़ गया है। जिसके परिणाम स्वरूप ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएं पैदा हो रही हैं।

इस स्थिति में, क्यों न वातावरण में मौजूद कार्बन डाईऑक्साइड को एकत्रित कर ऐसा स्थिर रूप दे दिया जाए कि वह हवा में घुलमिल न सके? जैसे उसे ठोस कार्बोनेट में परिवर्तित कर दिया जाए? स्विटज़रलैंड स्थित एक कम्पनी, क्लाइमवक्र्स, यही काम कर रही है। वह र्इंधनों के जलने के परिणामस्वरूप बनी गैस को जैवमंडल से लेती है और इसे चट्टानों या खनिज जैसे मृदामंडलीय पदार्थों में परिवर्तित करती है। इस तरह वातावरण की हवा से सीधे गैस को कैद करने की प्रक्रिया को डाइरेक्टएयरकैप्चर (डीएसी) कहते हैं। क्लाइमवक्र्स कम्पनी का यह संयंत्र आइसलैंड में स्थित है। इस संयंत्र में कार्बन डाईऑक्साइड को ठोस कैल्सियम कार्बोनेट की चट्टानों में स्थिर कर दिया जाता है, ठीक बैसाल्ट की तरह। वे कार्बन डाईऑक्साइड को सॉफ्ट ड्रिंक्स निर्माताओं और ग्रीनहाउस संचालकों को बेचते भी हैं।

इससे भी बेहतर होगा यदि कार्बन डाईऑक्साइड को एक उल्टी प्रक्रिया के ज़रिए पुन: हाइड्रोकार्बन र्इंधन में परिवर्तित कर दिया जाए। यह प्रक्रिया एयरटूफ्यूल (एटूएफ, हवा से र्इंधन) कहलाती है। हारवर्ड के डॉ. डेविड कीथ और उनके समूह ने कार्बन इंजीनियरिंग नामक कम्पनी बनाई है जहां वे सीधे हवा से कार्बन डाईऑक्साइड लेकर उसे र्इंधन में परिवर्तित करेंगे (यानि डीएसी को एटूएफ में तबदील कर देंगे)। उन्होंने अपना शोध कार्य जूल नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित किया है जिसका शीर्षक है वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड कैद करने की प्रक्रिया। यहां यह बताया जा सकता है कि इस पत्रिका का नाम इस शोध के प्रकाशन के लिए उपयुक्त है क्योंकि उर्जा की मानक इकाई भी जूल है। (इस पर्चे को यहां देखा जा सकता है: DOI: 10.1016/j.joule.2018.05.006)

टीम इस समस्या पर पिछले कुछ सालों से काम कर रही है। इस प्रक्रिया में अवांछित पदार्थ कार्बन डाईऑक्साइड को वातावरण से एकत्रित करके एक रिएक्टर से गुज़ारते हैं। फिर इसकी क्रिया हाइड्रोजन से करवाई जाती है, जिसमें हाइड्रोकार्बन र्इंधन बनता है। क्रिया के लिए ज़रूरी हाइड्रोजन पानी के विद्युतविच्छेदन से प्राप्त की जाती है। शोधकर्ताओं ने इस पूरी प्रक्रिया को कार्बनउदासीनर्इंधनउत्पादन का नाम दिया है।

वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड कैप्चर करने का विचार नया नहीं है। लेखकों के अनुसार 1950 के दशक में वायु को शुद्ध करने के लिए इस तकनीक के इस्तेमाल की कोशिश हुई थी। और 1960 के दशक में, मोबाइल परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में हाइड्रोकार्बन र्इंधन के उत्पादन के लिए कार्बन डाईऑक्साइड का उपयोग फीडस्टॉक के रूप में करने का प्रयास किया गया था।

कार्बन इंजीनियरिंग कम्पनी का योगदान यह है कि उन्होंने इसकी तकनीकी बारीकियों, अभियांत्रिकी और लागतलाभ विश्लेषण का वर्णन किया है। उनका दावा है कि डीएसी के माध्यम से कार्बन डाईऑक्साइड कैप्चर करना व्यावहारिक रूप से संभव है। इस प्रक्रिया से प्रति टन कार्बन डाईऑक्साइड एकत्रित करने का खर्चा 50-100 डॉलर आता है।

ट्रेसी स्टेटर ने जून 2018 के अपने इनसाइंस कॉलम में इस प्रक्रिया का सारांश प्रस्तुत किया है: वातावरण से हवा खींची जाती है, जिसे प्लास्टिक की पतली सतह के ऊपर से गुज़ारा जाता है। प्लास्टिक की सतह पर पोटेशियम हाइड्रॉक्साइड का घोल होता है। इस प्रक्रिया में पोटेशियम कार्बोनेट बनता है। इस प्रक्रिया में बने पोटेशियम कार्बोनेट को कैल्सियम हाइड्रॉक्साइड युक्त रिएक्टर में भेजा जाता है जहां कैल्शियम कार्बोनेट और पोटेशियम हाइड्राक्साइड बनते हैं। इस पोटेशियम हाइड्रॉक्साइड को पुन: उपयोग के लिए भेज दिया जाता है और कैल्शियम कार्बोनेट को गर्म किया जाता है जिसमें कार्बन डाईऑक्साइड मुक्त हो जाती है। इसे स्थिर करके उपयोग किया जा सकता है (जैसा कि क्लाइमवक्र्स कम्पनी करती है) या पानी के विद्युतविच्छेदन से बनी हाइड्रोजन के साथ क्रिया करवाकर हाइड्रोकार्बन र्इंधन प्राप्त किया जा सकता है। इस तकनीक से वाहनों के लिए र्इंधन बनाना संभव होना चाहिए।

डॉ. डेविड रॉबर्ट्स ने अपनी वेबसाइट vox.com पर एटूएफ तकनीक के विश्लेषण में दावा किया है कि आने वाले सालों में कार्बन इंजीनियरिंग की यह तकनीक व्यावहारिक हो जाएगी। डॉ. जेफ टॉलेफसन नेचर पत्रिका के 7 जून 2018 के अंक में लिखते हैं कि डीएसी तकनीक वैज्ञानिकों के अनुमान से भी सस्ती है। ऐसा माना जाता था कि इसमें प्रति टन कार्बन डाईऑक्साइड कैप्चर की लागत 50-1000 डॉलर के बीच होगी, लेकिन यह 94-234 डॉलर के बीच है। दस लाख टन कार्बन डाईऑक्साइड को 3 करोड़ गैलन जेट र्इंधन, डीज़ल या गैस में परिवर्तित किया जा सकता है।

पूरी प्रक्रिया में खास बात यह है कि यह ना सिर्फ कार्बनउदासीन है बल्कि अकार्बनिकरसायनउदासीन भी है: पहले चरण में भेजी गई कार्बन डाईऑक्साइड तीसरे चरण में मुक्त होती है, जिसे अन्य रिएक्टर में भेजा जाता है जहां यह हाइड्रोजन के साथ क्रिया करके र्इंधन बनाती है। दूसरे चरण में प्राप्त उत्पाद (पानी) को चौथे चरण में अभिकर्मक के रूप में उपयोग किया जाता है। और चौथे चरण में प्राप्त उत्पाद कैल्शियम हाइड्रॉक्साइड को दूसरे चरण में अभिकर्मक के रूप में उपयोग कर लिया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://news.nationalgeographic.com/2018/06/carbon-engineering-liquid-fuel-carbon-capture-neutral-science/#/01_co2_liquid.jpg

पेंगुइंस की घटती आबादी – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

पृथ्वी के दक्षिणी हिस्से में बर्फ से आच्छादित भाग में बहुत कम प्राणी जीवित रह पाते हैं। किंतु दो पैरों पर डोलते हुए चलने वाले, बर्फीले वातावरण के अनुकूल व उड़ने में असमर्थ पक्षी पेंगुइन के लिए यह स्वर्ग है। पेंगुइन का नाम सुनते ही हम कालेसफेद रंग के शरीर वाले छोटे आकार के जंतु की कल्पना करने लगते हैं। वास्तव में ये पक्षी अनेक आकार और रंग वाले भी होते हैं। कलगीदार (क्रेस्टेड) पेंगुइन को ही लीजिए जिनके सर पर नीले रंग के पंख मुकुट जैसे दिखते हैं। एंपरर और किंग पेंगुइन के चेहरे की पार्श्व सतह पर नारंगी और पीले रंग की आभा, काले चेहरे तथा सफेद छाती इन्हें बेहद सुंदर बना देती है। फिओर्डलैंड, स्नेयर, रॉयल तथा रॉकहॉपर पेंगुइंस की सफेद और पीले रंग के लंबे रेशों वाली भौहें इन्हें बाकी पेंगुइंस से अधिक आकर्षक बना देती है। येलो आइड पेंगुइन की आंखें पीले रंग से घिरी रहती है। कुल मिलाकर पेंगुइन की 17 प्रजातियां हैं।

सबसे छोटे आकार की पेंगुइन प्रजाति लिटिल ब्लू लगभग 12 इंच की होती है तथा सबसे लंबी प्रजाति एंपरर पेंगुइन 44 इंच लंबी होती है।

कहां रहते हैं पेंगुइंस?

पेंगुइंस उड़ तो नहीं सकते परंतु चप्पू जैसे रूपांतारित हाथ इन्हें बेहद माहिर तैराक बनाते हैं। ये अपने जीवन का 80 प्रतिशत समय समुद्र में तैरते हुए ही बिताते हैं। सभी पेंगुइन दक्षिणी गोलार्ध में रहते हैं हालांकि यह एक आम मिथक है कि वे सभी अंटार्कटिका में ही रहते हैं। वास्तव में दक्षिणी गोलार्ध में हर महाद्वीप पर पेंगुइन पाए जा सकते है। यह भी एक मिथक है कि पेंगुइन केवल ठंडे इलाकों में पाए जाते हैं। गैलापगोस द्वीपसमूह में पाए जाने वाले पेंगुइन भूमध्य रेखा के उष्णकटिबंधीय समुद्री किनारों पर रहते हैं।

क्या खाते हैं पेंगुइन?

पेंगुइन मांसाहारी हैं। उनका आहार समुद्र में पाए जाने वाले छोटे क्रस्टेशियन जीव, स्क्विड और मछलियां हैं। पेंगुइन बहुत पेटू भी होते हैं। कई बार तो इनके समूह इतना खाते हैं कि इनकी आबादी के आसपास का क्षेत्र भोजन रहित हो जाता है। प्रत्येक दिन कुछ पेंगुइन तो औसत 200 बार गोता लगाकर समुद्र में 120 फीट नीचे तक भोजन की तलाश में चले जाते हैं।

पेंगुइन के बच्चे

पेंगुइन के समूह को कॉलोनी कहते हैं। प्रजनन ऋतु में पेंगुइन समुद्र के किनारों पर आकर बड़े समूहों में एकत्रित हो जाते हैं। इन समूहों को रूकरी कहते हैं। अधिकाश पेंगुइंस मोनोगेमस होते हैं अर्थात प्रत्येक प्रजनन ऋतु में एक नर और एक मादा का जोड़ा बनता है और पूरे जीवनकाल तक साथसाथ रहकर प्रजनन करता है।

लगभग पांच साल की उम्र में मादा पेंगुइन प्रजनन के लिए परिपक्व हो जाती है। ज़्यादातर प्रजातियां वसंत और ग्रीष्म के दौरान प्रजनन करती हैं। आम तौर पर नर पेंगुइन प्रजनन में पहल करते हैं। मादा पेंगुइन को प्रजनन के लिए मनाने के पूर्व ही नर घोंसले के लिए एक अच्छी जगह का चयन कर लेते हैं।

प्रजनन के बाद मादा एंपरर तथा किंग पेंगुइन केवल एक ही अंडा देती है। पेंगुइन की सभी अन्य प्रजातियां दो अंडे देती हैं। एंपरर पेंगुइन को छोड़कर अन्य सभी प्रजातियों में अंडों को सेने का कार्य मातापिता दोनों बारीबारी से करते हैं। इसके लिए वे घोंसले में अंडे को पैरों के बीच रखकर बैठते हैं। एंपरर पेंगुइन में अंडा नर के ज़िम्मे सौंपकर मादा कई सप्ताह के लिए भोजन की तलाश में दूर निकल जाती है। पेंगुइन के बच्चे बड़े होकर जब अंडे से निकलने की तैयारी में होते हैं तो वे अपनी चोंच की सहायता से अंडे को तोड़कर बाहर आते हैं। बच्चों को भोजन देने का कार्य नर एवं मादा दोनों करते हैं। भोजन को चबाकर पुन: मुंह से निकालकर बच्चों को दिया जाता है। बच्चों की आवाज़ से मातापिता उन्हें खोज लेते हैं।

खतरे में पेंगुइन

पेंगुइन की अधिकांश प्रजातियां खतरे में है। अंटार्कटिक साइंस में प्रकाशित हाल ही में किए गए शोध के अनुसार अफ्रीका और अंटार्कटिका के बीच दक्षिणी हिंद महासागर के पिग द्वीप पर पेंगुइंस के बड़े समूह में से 88 प्रतिशत तक पेंगुइन घट गए हैं। विश्व के किंग पेंगुइंस की एक तिहाई जनसंख्या यहीं पाई जाती है। पिछले पांच दशकों से वैज्ञानिकों का एक दल हवाई और उपग्रह तस्वीरों से पेंगुइन की कालोनी के आकार में परिवर्तन पर निगाहें जमाए हुए था। 1980 में विश्व की सबसे अधिक जनसंख्या वाले किंग पेंगुइन के पांच लाख प्रजनन जोड़े घटकर 2018 में केवल 60,000 जोड़े तक सीमित हो गए हैं। वैज्ञानिक शोध से पता चला है कि किंग पेंगुइन की जनसंख्या 1990 से गिरना प्रारंभ हुई थी। यह वही समय था जब अलनीनो प्रभाव हुआ था। भूमध्य रेखा के आसपास के क्षेत्र में प्रशांत महासागर के वातावरण में अलनीनो एक अस्थायी परिवर्तन है। इसके कारण पेंगुइन का भोजन, जैसे मछली तथा अन्य प्राणी उनकी कालोनी से दूर दक्षिण में चले जाते हैं। आसानी से मिलने वाला भोजन अलनीनो प्रभाव के कारण दूभर हो जाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मतदान से निर्धारित हुई मंगल पर उतरने की जगह

नासा 2020 तक अपना अगला रोवर यान मंगल पर उतारने की तैयारी में है। लेकिन मंगल पर यह रोवर किस जगह उतरेगा इसे लेकर दुविधा रही है।

नासा ने मंगल पर रोवर उतारने के लिए तीन स्थान (जेज़ेरो, पूर्वोत्तर सिर्टिस और कोलंबिया हिल्स) प्रस्तावित किए थे। बाद में एक चौथा स्थान, मिडवे, भी जोड़ा गया। जेज़ेरो एक सूख चुका डेल्टा है जो मंगल की धरती पर किसी उल्का की टक्कर से बने गड्ढे में गिरता था। सिर्टिस एक प्राचीन पपड़ी है जो शायद एक भूमिगत खनिज झरने से बनी है। कोलंबिया हिल्स सुदूर अतीत में शायद गर्म पानी का चश्मा था। मिडवे नामक स्थान सिर्टिस जैसा ही है और यहां फायदा यह है कि रोवर मिडवे और सिर्टिस दोनों जगह जा सकता है।

ग्लैंडेल, कैलिफोर्निया में आयोजित तीन दिवसीय मीटिंग में नासा द्वारा प्रस्तावित स्थानों पर ग्रह वैज्ञानिकों की राय मांगी गई थी। वैज्ञानिकों को अपनी राय कई मापदंडों के आधार पर देनी थी। सबसे पहले तो रोवर यहां सफलतापूर्वक उतर सके और अपने शुरुआती दो वर्ष के बाद भी छानबीन जारी रख सके। दूसरी, कि उस स्थान पर रोवर अपने सारे वैज्ञानिक उपकरणों के तामझाम को लेकर घूमफिर सके और तीसरी यह कि घरती पर लाने के लिए नमूनों की गुणवत्ता बढ़िया हो।  

रोवर की सफलतापूर्वक लैंडिंग स्थान के लिए जेज़ेरो और पूर्वोत्तर सिर्टिस को 158 वोट मिले। तकरीबन इतने ही वोट मिडवे को मिले। सिर्फ कोलंबिया हिल्स के पक्ष में ज़्यादा मत नहीं आए। हालांकि तीन दिन चली इस बहस में कोई स्पष्ट सुझाव नहीं मिले हैं। लेकिन पहली लैंडिंग और दूसरे विचरण स्थल के लिए मिडवेजेज़ेरो की जोड़ी को समर्थन मिला है। शायद रोवर को जेज़ेरोमिडवे जोड़ी पर उतारा जाएगा मगर  अंतिम फैसला मिशन टीम और अंतत: नासा प्रमुख थॉमस जरिबिचेन का होगा। (स्रोत फीचर्स)

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व्हेल में भक्षण की छन्ना विधि कैसे विकसित हुई

ब्लू व्हेल और उसके नज़दीकी रिश्तेदार ही चंद ऐसे जीव हैं जो भोजन प्राप्त करने के लिए बेलीन का उपयोग करते हैं। बेलीन केरेटीन नामक पदार्थ की कंघीनुमा रचनाएं है जिनकी मदद से व्हेल अपना सूक्ष्मजीव भोजन हासिल करती है। ये व्हेल करती यह हैं कि पानी में मुंह खोलकर ढेर सारा पानी मुंह में भर लेती हैं और फिर बेलीन को बंद करके पानी को बाहर फेंकती हैं। पानी तो निकल जाता है लेकिन छोटेछोटे जीव अंदर रह जाते हैं जो व्हेल का भोजन बन जाते हैं। एक तरह से बेलीन छानकर भोजन प्राप्त करने का एक तरीका है।

वैसे व्हेल के शुरुआती पूर्वजों में आज की किलर व्हेल की तरह दांत होते थे। वैज्ञानिक इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश कर रहे थे कि व्हेल में बेलीन कैसे विकसित हुए। एक परिकल्पना यह है कि बेलीन का विकास दांतों से ही क्रमिक रूप से हुआ है। जैसे कि वाशिंगटन में मिले 3 करोड़ वर्ष पुराने व्हेल के एक जीवाश्म के अध्ययन के मुताबिक इनमें पैने, बागड़नुमा दांत थे। इनके बीच में थोड़ी जगह खाली होती थी, जिससे वे भोजन अलग करती होंगी। एक अन्य परिकल्पना के अनुसार व्हेल कुछ समय तक भोजन प्राप्त करने के लिए दांतों और बेलीन दोनों का उपयोग करती रही होंगी।

मगर हाल ही में कशेरुकी जीवाश्म विज्ञान की वार्षिक बैठक में प्रस्तुत व्हेल की एक लगभग समूची खोपड़ी के जीवाश्म का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया जो इन दोनों परिकल्पनाओं को झुठला देता है।

जॉर्ज मेसन विश्वविद्यालय के पुराजीव वैज्ञानिक कार्लोस पेरेडो और उनके साथी मार्क उहेन कहना है कि ओरेगन में 1970 के दशक में मिले व्हेल के जीवाश्म के अध्ययन से पता चलता है कि पहले व्हेल ने अपने दांत गंवा दिए थे और बाद में स्वतंत्र रूप से उनमें बेलीन विकसित हुए। ये दो संरचनाएं कभी साथसाथ नहीं रहीं।

शोधकर्ताओं ने 3 करोड़ साल पुरानी व्हेल की खोपड़ी के अंदर वाले हिस्से का सीटी स्कैन किया। इसमें ना तो उन्हें दांत मिले और ना ही बेलीन को सहारा देने वाली हड्डी। मगर और बारीकी से अध्ययन करने पर पाया कि इसमें भोजन हासिल करने का अलग ही तंत्र मौजूद था: चूषण तंत्र।

पहले तो उन्हें इस बात पर यकीन नहीं हुआ किंतु खोपड़ी के आकार ने बात साफ कर दी। खोपड़ी का यह आकार शक्तिशाली मांसपेशियों को सहारा देता होगा जो चूसने में मददगार रही होंगी। पूरी बात की पुष्टि इस आधार पर हुई कि यह जीवाश्म दांत वाली व्हेल और बेलीन वाली व्हेल के बीच के समय का है। अर्थात बेलीन के विकास से पहले व्हेल अपने दांत गंवा चुकी थी।

मोनाश यूनिवर्सिटी के वैकासिक जीवाश्म विज्ञानी एलिस्टेयर इवांस का कहना है कि वे भी ऐसे ही निष्कर्ष पर पहुंचे थे। उन्होंने 2016 में दांत वाली बेलीन व्हेल पर अध्ययन किया था। इस अध्ययन के अनुसार व्हेल अपने दांतों की जगह चूसकर भोजन ग्रहण करती थी। उनका कहना है कि ओरेगन में मिला व्हेल का जीवाश्म हमारे अनुमान को पुख्ता करता है। और बेलीन के विकास की कड़ी जोड़ता है। उनके अनुसार बेलीन का विकास अधिक भोजन हासिल करने के लिए हुआ है। पेरेडो का कहना है कि यह लगभग 2.3 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ होगा। (स्रोत फीचर्स)

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