कैफीन-रहित चाय का पौधा – डॉ. अरविंद गुप्ते

जकल चाय सही अर्थ में आम आदमी का पेय बन गया है। गरीब से गरीब व्यक्ति मेहमाननवाज़ी के लिए चाय ही पिलाता है। चाय का पौधा मूल रूप से चीन का निवासी है। एक दंतकथा के अनुसार 2732 ईसा पूर्व (आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व) चीन का बादशाह शेन नुंग शिकार के लिए जंगल गया था। वहां खाना बनाते समय एक जंगली झाड़ी की कुछ पत्तियां उबलते पानी में गिर गर्इं। बादशाह को उस पानी का स्वाद पसंद आया और इस प्रकार उस पौधे की पत्तियों से चाय बनाने की शुरुआत हुई। उस समय चाय का सेवन प्रमुख रूप से एक दवा के रूप में किया जाता था। किंतु पेय के रूप में चाय का उपयोग वहां लगभग 1500 से 2000 वर्ष पूर्व के बीच होने लगा। 16वीं शताब्दी में पुर्तगाल के पादरी और व्यापारी चाय को युरोप लाए। 17वीं शताब्दी में ब्रिाटेन में चाय पीने का फैशन चल पड़ा और अंग्रेज़ों ने भारत में चाय के बागान लगा कर इसका उत्पादन शुरू किया।

चाय पीने से ताज़गी क्यों आती है? इसका कारण यह है कि चाय में कैफीन होता है जो तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित कर देता है। कैफीन के अलावा चाय में थियोब्रोमीन और थियोफायलीन जैसे तंत्रिका उत्तेजक पदार्थ होते हैं जो कैफीन की तुलना में कम मात्रा में होते हैं। चाय और कॉफी के पौधों में कैफीन की उपस्थिति उन्हें कीटों से बचाती है क्योंकि यह एक कीटनाशक भी होता है। कैफीन के विषैले होने के कारण इसके अत्यधिक सेवन से मृत्यु तक हो सकती है।   

चाय या कॉफी पीने का एक नकारात्मक पहलू यह होता है कि तंत्रिका तंत्र के उत्तेजित हो जाने से नींद नहीं आती। जब नींद नहीं आती तब अकारण चिंता बढ़ती है। इसलिए कई लोग बिना कैफीन वाली कॉफी पीते हैं। कॉफी के समान चाय से भी कैफीन को हटाया जा सकता है किंतु इसके लिए चाय की पत्तियों को खौलते पानी में काफी देर तक रखना पड़ता है। इस प्रक्रिया से कैफीन के साथ चाय में मौजूद लाभदायक रसायन भी निकल जाते हैं। बिना कैफीन की कॉफी या चाय अगर तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित न करे तो ताज़गी महसूस नहीं होगी। फिर उन्हें पीने से क्या फायदा? इसके अलावा, कैफीन और अन्य रसायन हट जाने से इनका स्वाद भी बदल जाता है।

यदि चाय का ऐसा पौधा मिल जाए जिसमें कैफीन बिलकुल न हो या बहुत कम हो तो सोने में सुहागा वाली स्थिति बन जाएगी – चाय का स्वाद बना रहेगा और इससे होने वाले हानिकारक परिणामों से भी बचा जा सकेगा। 2011 में चीन के गुआंगडांग प्रांत में चाय का एक ऐसा पौधा मिला था जिसमें कैफीन नहीं था। इस पौधे की खोज के बाद चीनी वनस्पतिशास्त्रियों ने ऐसे ही अन्य चाय के पौधों की तलाश शुरू की। परिणामस्वरूप उन्हें दक्षिण चीन के फुजियान प्रांत में भी चाय का कैफीन-रहित पौधा मिला है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि कैफीन की अनुपस्थिति का कारण इन पौधों के कैफीन का निर्माण करने वाले जीन में परिवर्तन था। सन 2003 में कॉफी के भी दो ऐसे पौधे पाए गए थे जिनमें कैफीन प्राकृतिक रूप से अनुपस्थित था, किंतु इन्हें बड़े क्षेत्र में लगाना संभव नहीं हो पाया। संभव है कि बिना कैफीन वाले चाय के पौधों के साथ भी ऐसा ही हो। फिलहाल यह पहेली बनी हुई है कि यदि कैफीन कीटनाशक के रूप में पौधों की कीटों से रक्षा करता है तो इन पौधों ने ऐसे लाभदायक रसायन को क्यों त्याग दिया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या विश्व सतत विकास लक्ष्य प्राप्त कर सकेगा? – भारत डोगरा

न दिनों विश्व स्तर पर सतत विकास लक्ष्य (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स या एस.डी.जी) विमर्श के केंद्र में हैं। विकास, पर्यावरण रक्षा व समाज कल्याण की विभिन्न प्राथमिकताओं के सम्बंध में व्यापक विमर्श के बाद समयबद्ध लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं कि विभिन्न देशों को निर्धारित समय पर यहां तक अवश्य पहुंचना चाहिए। सतत विकास लक्ष्यों की सार्थकता यह बताई गई है कि इनके निर्धारित होने से उचित प्राथमिकताओं को अपनाने में विश्व स्तर पर बहुत मदद मिलेगी।

ये लक्ष्य तो बहुत ज़रूरी हैं और यदि विश्व इन समयबद्ध लक्ष्यों को पूरा कर सके तो निश्चय ही यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। विकास के महत्वपूर्ण मानकों के आधार पर अभी तक की सबसे बड़ी उपलब्धियां प्राप्त होंगी। पर बड़ा सवाल यह है कि यह सतत विकास लक्ष्य वास्तव में कहां तक प्राप्त हो सकेंगे।

चिंता की एक बड़ी वजह यह है कि जिस दौर में विकास के सबसे बड़े लक्ष्य प्राप्त करने की बात कही जा रही है उसी दौर में अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक व विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि इस दौर में अति गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं के कारण व अति विनाशक हथियारों के कारण धरती की जीवनदायिनी क्षमताएं ही खतरे में पड़ सकती हैं। सवाल यह है कि ऐसे गंभीर संकट के दौर में विकास की सबसे बड़ी उपलब्धियां कैसे प्राप्त की जा सकती हैं।

जहां एक ओर इतनी गंभीर चुनौतियां हैं, उसी दौर में सतत विकास के निर्धारित लक्ष्य कैसे प्राप्त होंगे? यह प्रश्न इस कारण और पेचीदा हो जाता है कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता को संकट में पड़ने से बचाने के प्रयास हाल के समय में सफलता से बहुत दूर रहे हैं और विश्व के सबसे शक्तिशाली देश इस संदर्भ में अपनी बड़ी ज़िम्मेदारियों से दूर हटते नज़र आए हैं।

अत: इस समय यह बहुत ज़रूरी है कि विध्वंसक हथियारों को न्यूनतम करने, युद्ध व गृह युद्ध की संभावना कम से कम करने तथा अमन-शांति के लिए विश्व में एक व्यापक व सशक्त जन-अभियान निरंतरता से चले। इसी तरह धरती की जीवनदायिनी क्षमता से जुड़े पर्यावरण के मुद्दों पर भी ऐसा ही अभियान चले। इन जन-अभियानों द्वारा इन समस्याओं की गंभीरता की जानकारी करोड़ों लोगों तक भलीभांति पहुंचाई जाए व इन समस्याओं के समाधान के अनुकूल जीवन-मूल्यों का प्रसार किया जाए। इस तरह अति महत्वपूर्ण मुद्दों पर एक ज़बरदस्त जन-उभार आ सकता है व इस उभार के कारण सरकारें भी इन मुद्दों पर अधिक ध्यान देने के लिए बाध्य होंगी। इस तरह जो अनुकूल माहौल तैयार होगा, उससे सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने की संभावना बहुत बढ़ जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

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कितनी स्वच्छ थी मेरी दिवाली – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

गभग 80 साल पहले रिचर्ड लेवलीन ने एक किताब लिखी थी, हाऊ ग्रीन वॉस माय वैली (कितनी हरी-भरी थी मेरी घाटी)। इस उपन्यास में बताया गया था कि कैसे वेल्स देश के खदान क्षेत्र, लगातार और गहरे खनन के कारण धीरे-धीरे प्रदूषित इलाकों में तब्दील हो गए। हमारे यहां भी हाल ही में हुए घटनाक्रम रिचर्ड लेवलीन की इस किताब की याद दिलाते हैं – दिवाली के समय पटाखों का इस्तेमाल, उनके कारण उत्पन्न ध्वनि और पर्यावरण प्रदूषण (जो भारत के कई स्थानों की पहले से प्रदूषित हवा को और भी प्रदूषित कर रहे हैं) और पटाखों के इस्तेमाल पर सुप्रीम कोर्ट का निर्देश कि पटाखे, वह भी मात्र ग्रीन (पर्यावरण हितैषी) पटाखे, रात में सिर्फ दो घंटे ही चलाए जाएं (जिसका पालन नहीं हुआ)। 

ग्रीन पटाखे क्या हैं? ग्रीन पटाखों में पर्यावरण और स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाले लीथियम, एंटीमनी, लेड, मर्करी जैसे तत्व नहीं होते। इसके अलावा इन पटाखों में परक्लोरेट, परआयोडेट और बेरियम जैसे अति-शक्तिशाली विस्फोटक भी नहीं होते। कोर्ट द्वारा पटाखों के इस्तेमाल से सम्बंधित ये दिशानिर्देश भारत के पेट्रोलियम एंड एक्सप्लोसिव सेफ्टी ऑर्गेनाइज़ेशन (PESO) के सुझाव के आधार पर दिए गए थे। लेकिन वर्तमान में ये ग्रीन पटाखे बाज़ार में उपलब्ध ही नहीं है। तमिलनाडु फायरवर्क्स एंड एमोर्सेस मेन्यूफैक्चरर एसोसिएशन (TANFAMA) की 850 पटाखा फैक्टरी में तकरीबन दस लाख लोग काम करते हैं। उनका सालाना टर्नओवर 5 हज़ार करोड़ का है। एसोसिएशन ने घोषणा की है कि वे परक्लोरेट व उपरोक्त हानिकारक धातुओं का पटाखे बनाने में इस्तेमाल नहीं करते हैं (जिनका उपयोग चीन की पटाखा फैक्टरियों में किया जाता है और उन्हें भारत में निर्यात किया जाता है)। एसोसिएशन का कहना है कि पटाखे बनाने में वे पोटेशियम नाइट्रेट, सल्फर, एल्यूमिनियम पावडर और बेरियम नाइट्रेट का उपयोग करते हैं। आतिशबाज़ी में लाल रंग के लिए स्ट्रॉन्शियम नाइट्रेट का उपयोग किया जाता है और फुलझड़ी की चिंगारियों के लिए एल्यूमिनियम का उपयोग किया जाता है और धमाकेदार आवाज़ के लिए एल्यूमिनियम के साथ सल्फर का उपयोग किया जाता है। हरे रंग के लिए बेरियम का उपयोग किया जाता है। पटाखों में लाल सीसा और बिस्मथ ऑक्साइड का भी उपयोग होता है। एसोसिएशन अपनी वेबसाइट पर दावा करता है कि उनके पटाखों का ध्वनि का स्तर 125 डेसीबल है जो युरोप के मानक ध्वनि स्तर (131 डेसीबल) से भी कम है।

परक्लोरेट और बेरियम

पटाखों में परक्लोरेट का उपयोग एक विस्फोटक की तरह किया जाता है किंतु वह बहुत ही असुरक्षित है। यह थॉयरॉइड ग्रंथि के कार्य को प्रभावित करता है (यह आयोडीन अवशोषण की प्रक्रिया में बाधा डालता है)। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एन्वायर्मेंटल रिसर्च एंड पब्लिक हेल्थ में आशा श्रीनिवासन और टी. वीरराघवन के शोध पत्र के अनुसार परक्लोरेट कैंसरकारक भी हो सकता है। एन्वायर्मेंट मॉनीटरिंग में अक्टूबर 2012 में प्रकाशित आईसोब की टीम के एक पेपर के अनुसार दक्षिण भारत में पटाखों की फैक्टरी वाले इलाकों के भूजल और नल के पानी में परक्लोरेट सुरक्षित सीमा से अधिक पाया गया था। शुक्र है कि भारत की पटाखा फैक्टरियां अब परक्लोरेट का उपयोग नहीं करती हैं। लेकिन परक्लोरेट से निर्मित पटाखों के आयात पर भी रोक लगनी चाहिए।

भारत में, पटाखों के निर्माण में अभी भी बेरियम का उपयोग किया जाता है। बेरियम भी ग्रीन नहीं बल्कि ज़हरीला भी है। एक आबादी आधारित अध्ययन में पाया गया है कि सुरक्षित सीमा से अधिक बेरियम युक्त पेयजल वाले इलाकों में, 65 वर्ष से अधिक उम्र के व्यक्तियों में ह्मदय सम्बंधी रोगों से मृत्यु होने की आशंका काफी बढ़ जाती है। चूहों पर हुए एक अध्ययन में देखा गया है कि बेरियम का सेवन किडनी को प्रभावित करता है जिसके कारण तंत्रिका सम्बंधी समस्या हो सकती है। यह देखना बाकी है कि यह मनुष्यों को कैसे प्रभावित करता है। बिस्मथ भी समस्यामूलक है। हालांकि लेड और एंटीमनी की तुलना में बिस्मथ कम विषैला है, लेकिन यह किडनी, लीवर और मूत्राशय को प्रभावित करता है। इसका विषाक्तता स्तर निर्धारित करना ज़रूरी है।

दिल्ली और उसके पड़ोसी राज्य वायु प्रदूषण (हवा में निलंबित कण, वाहनों से निकलने वाले प्रदूषक, धुआं और स्मॉग) से जूझ रहे हैं। जिससे वहां के लोगों का रहना दूभर हो रहा है। देश के कई अन्य शहर भी अब दिल्ली की तरह प्रदूषित होते जा रहे हैं। त्यौहारों के अलावा शादी, सामाजिक उत्सवों में पटाखे चलाना प्रदूषण को और भी बढ़ा देता है। हम भारतीय शोर-शराबा करने और पर्यावरण को प्रदूषित करने के आदी हैं। रोक चाहे किसी भी स्तर (स्थानीय, सरकार या सुप्रीम कोर्ट के स्तर) पर लगे किंतु हम लोग उनका पालन नहीं करते। व्यक्तिगत रूप से, परिवार के स्तर पर, समाज के स्तर पर नियमों का पालन करने पर ही बदलाव आएगा। हम भारतीयों के लिए जश्न मनाने का मतलब बस शोर-शराबा करना ही हो गया है।

अन्य देश

मगर ऐसा क्यों है कि भारतीय लोग सिर्फ भारत में ऐसा करते हैं? विदेशों में रह रहे भारतीय वहां ऐसा क्यों नहीं करते? सप्तऋषि दत्ता ने पिछले साल swachhindia.ndtv.com में एक लेख लिखा था: पटाखों पर नियंत्रण और प्रतिबंध: भारत इन देशों से क्या सीख सकता है। ज़्यादातर युरोपीय देश, वियतनाम, सिंगापुर, यूके, आइसलैंड जैसे देश सिर्फ त्यौहारों के आसपास ही पटाखे खरीदने की इज़ाजत देते हैं। यूएसए के 50 से अधिक प्रांतों में कई प्रकार के पटाखों पर प्रतिबंध है। साथ ही वहां व्यक्तिगत स्तर पर पटाखे चलाने की जगह सामाजिक, शहर, राज्य स्तर पर चलाने की अनुमति है। ऑस्ट्रेलिया में भी ऊपर आकाश में जाकर फूटने वाले और तेज़ धमाकेदार आवाज़ करने वाले पटाखों पर प्रतिबंध लगा है। और न्यूज़ीलैंड में साल में सिर्फ चार बार ही पटाखे चलाने की अनुमति है।

यदि भारतीय लोग विदेशों में नियमों का पालन कर सकते हैं तो वे भारत में रहते हुए क्यों नहीं करते? चाहे कितने भी नियम बन जाएं, जब तक सोच नहीं बदलेगी, हम स्वच्छ भारत नहीं बना पाएंगे। इस तर्क में कोई दम नहीं है कि परंपराओं और आस्थाओं का संरक्षण ज़रूरी है। इस संदर्भ में विदेशी और भारतीय दोनों ही सरकारों ने पटाखों को चलाने के लिए कुछ छूट दी है। यदि पटाखे चलाना धार्मिक अनुष्ठान के लिए ज़रूरी है (है क्या?) तो क्यों ना निश्चित समय के लिए और सांकेतिक रूप से चलाए जाएं, जिससे पर्यावरण को भी नुकसान ना पहुंचे।

जैसे कि हम गणेश विसर्जन में मूर्तियों को झील, तालाब या नदियों में इस बात की परवाह किए बिना विसर्जित कर देते हैं कि क्या ऐसा करना पर्यावरण हितैषी हैं। पहले मूर्तियां मिट्टी की बनाई जाती थी, मगर आज बड़ी, पर्यावरण विरोधी, और भड़कीली मूर्तियां बनाई जाती हैं। दी हिंदू में कीर्तिक शशिधरन लिखते हैं, नदी ऐसी जगह बन गई है जहां धार्मिक और प्रदूषणकारी लोग एक साथ देखने को मिलते है। धर्म को लेकर जो हमारी मान्यताएं हैं वह हमारे स्वचछता के विचार से कहीं मेल नहीं खाती। कैसे कोई भक्त नदी को दूषित छोड़ सकता है। और क्या प्रदूषण नदी की पवित्रता कम नहीं करता। हम पटाखे चलाते हैं तो क्या हम प्रदूषण के बारे में सोचते हैं? क्या हवा पवित्र या धार्मिक नहीं है? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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4000 वर्ष पूर्व भी बोर्ड गेम खेला जाता था

हाल ही में पुरातत्ववोत्ताओं को अज़रबैजान स्थित एक शैलाश्रय (रॉक शेल्टर) के फर्श पर छोटे-छोटे छेदों के पैटर्न दिखाई दिए। अनुमान है कि यह प्राचीन बोर्ड खेलों में सबसे पुराना खेल था जिसे आज से लगभग 4 हज़ार साल पहले खानाबदोश चरवाहे खेला करते थे।

अमेरिकन म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री के शोधकर्ता वाल्टर क्राइस्ट ने एक प्राचीन खेल 58 होल्स की तलाश में अज़रबैजान स्थित नेशनल पार्क की प्राचीन गुफाओं का दौरा किया। यह खेल हाउंड्स और जैकाल के नाम से भी जाना जाता है।

ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता हॉवर्ड कार्टर ने भी ईसा पूर्व 18वीं सदी के मिस्र के फरोआ अमेनेमहाट के मकबरे में जानवरों आकृति के टुकड़ों के साथ एक गेम सेट पाया। लाइव साइंस की रिपोर्ट के अनुसार अज़रबैजान के शैलाश्रय में पाए गए गोलाकार गड्ढों का विशिष्ट पैटर्न भी इसी खेल से मिलता जुलता है। हालांकि अज़रबैजान में मिले पैटर्न फरोआ के मकबरे से भी पुराने हैं।  

आसपास चट्टानों पर बने चित्रों को देखते हुए अनुमान है कि यह शैलाश्रय 4000 वर्ष पुराना है जब अज़रबैजान के इस इलाके में खानाबदोश चरवाहे रहा करते थे। इसी समय यह खेल मध्य पूर्व के इलाकों के साथ-साथ मिस्र और मेसोपोटेमिया में भी काफी प्रचलित था।        

पुरातत्ववेत्ता को इन गड्ढों के बारे में जानकारी तो थी लेकिन वे यह नहीं जानते थे कि इसे बोर्ड गेम के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। क्राइस्ट के अनुसार प्रत्येक गड्ढे को एक विशिष्ट पैटर्न में काटा गया था जो उसके उपयोग को दर्शाता है। उनका ऐसा भी मानना है कि यह खेल लगभग 1500 वर्षों तक ठीक उसी अंदाज़ में खेला जाता रहा जैसा शुरुआत में खेला जाता था।

हालांकि 58 होल्स के नियम के बारे में जानकारी तो नहीं है लेकिन आधुनिक समय के बैकगैमन की तरह खेला जाता होगा जिसमे कुछ बीज या पत्थरों का उपयोग किया जाता है जो एक निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचने के लिए बोर्ड के चारों ओर चक्कर लगाते हैं।

इस खेल में बीच में दो पंक्तियां होती हैं और चारों ओर आर्क के आकार में गड्ढे बने रहते हैं। इसमें 5वें, 10वें, 15वें और 20वें गड्ढे को किसी तरह से चिन्हित किया होता है। आखिर में शीर्ष पर बना गड्ढा दूसरे गड्ढों की तुलना में थोड़ा बड़ा होता है जिसको आम तौर पर खेल का लक्ष्य या अंत समझा जाता है।

संभावना है कि बोर्ड में गोटियों की चाल को नियंत्रित करने के लिए पांसों का उपयोग किया जाता होगा, लेकिन पूरे सेट में किसी तरह का कोई पांसा नहीं मिला है।

इस खेल को आधुनिक बैकगैमन के समान बताने के विचार को क्राइस्ट ने खारिज करते हुए कहा कि बैकगैमन बाद के रोमन गेम टैबुला से लिया गया है। 58 होल्स का खेल काफी पुराना है, लेकिन इसको सबसे पुराना खेल कहना सही नहीं है।

क्राइस्ट के अनुसार इतने व्यापक स्तर पर इस खेल का खेला जाना सांस्कृतिक बाधाओं को पार करने की क्षमता दर्शाता है। यह परस्पर संवाद में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता होगा। इस खेल ने एक भाषा का भी काम किया होगा जिसमें खेल के ज़रिए आपस में संवाद होता होगा। (स्रोत फीचर्स)

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मलेरिया परजीवी को जल्दी पकड़ने की कोशिश

हाल ही में सैन डिएगो स्थित युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की शोधकर्ता एलिज़ाबेथ विनज़ेलर और उनकी टीम ने ऐसे रसायनों की पहचान कर ली है जो मलेरिया परजीवी का लीवर में ही सफाया कर देंगे।

होता यह है कि जब एक संक्रमित मच्छर मनुष्य को काटता है, तो मलेरिया के लिए ज़िम्मेदार प्लाज़्मोडियम परजीवी स्पोरोज़ाइट अवस्था में शरीर में प्रवेश करते हैं। लीवर में पहुंच कर ये अपनी प्रतियां बनाते और वृद्धि करते हैं। इसके बाद ये रक्तप्रवाह में प्रवेश करते हैं। मलेरिया के लक्षण तब ही दिखाई पड़ते हैं जब ये परजीवी रक्त प्रवाह में प्रवेश कर जाते है और संख्या में वृद्धि करने लगते हैं। आम तौर पर मलेरिया के लक्षणों से निपटने के लिए ही दवाएं दीं जाती हैं।

लेकिन शोधकर्ता चाहते थे कि मलेरिया के परजीवी को लीवर में ही खत्म कर दिया जाए। इसके लिए शोधकर्ताओं ने लगभग 5 लाख मच्छरों से स्पोरोज़ाइट अवस्था में प्लाज़्मोडियम परजीवी को अलग किया। हरेक परजीवी पर उन्होंने लुसीफरेज़ एंज़ाइम जोड़ा, जो जुगनू में चमक पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार होता है, ताकि परजीवी पर नज़र रखी जा सके। इसके बाद हरेक परजीवी पर एक प्रकार का रसायन डाला। और फिर उन्हें लीवर कोशिकाओं के साथ कल्चर किया। इस तरह उन्होंने लगभग 5 लाख रसायनों का अलग-अलग अध्ययन किया।

उन्होंने पाया कि लगभग 6,000 रसायनों ने परजीवियों की वृद्धि को कुशलतापूर्वक रोक कर दिया। जिसमें से ज़्यादातर रसायनों ने लीवर कोशिकाओं को कोई गंभीर क्षति नहीं पहुंचाई। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इनमें से कितने रसायन दवा के रूप में काम आ सकते हैं। शोधकर्ताओं ने इन रसायनों का कोई पेटेंट नहीं लिया है ताकि अन्य लोग भी इन पर काम कर सकें। (स्रोत फीचर्स)

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प्रकृति की तकनीकी की नकल यानी बायोनिक्स – डॉ. दीपक कोहली

प्रकृति में पाई जाने वाली प्रणालियों एवं जैव वैज्ञानिक विधियों का अध्ययन करके एवं इनका उपयोग करके इंजीनियरी तंत्रों को डिजाइन एवं विकसित करना बायोनिक्स कहलाता है।

जब हम बायोनिक्स के बारे में सोचते हैं तो साधारणत: ऐसी कृत्रिम बांह व टांग के बारे में सोचते हैं जो मानव शरीर में बाहर से लगाई जा सके। बायोनिक्स पद्धति के तहत जीवन की अनिवार्य जीवन प्रक्रियाओं को संवेदनशील उपकरणों से शक्ति मिलती है। ये मानव के क्षतिग्रस्त अंगों से कुछ संदेश मस्तिष्क को भेजते हैं ताकि मनुष्य अपने कार्य कुछ हद तक स्वयं कर सके।

दुर्भाग्यवश जब किसी व्यक्ति के शरीर का कोई हिस्सा क्षतिग्रस्त हो जाए अथवा पूरी तरह से निष्क्रिय हो जाए तो उसके पास क्या उपाय रह जाएगा? हमारे पास छिपकली या स्टार फिश जैसी क्षमताएं तो हैं नहीं कि हम दोबारा बांह, टांग आदि विकसित कर सकें तथा उसे पुराने रूप में ला सकें। स्टेम सेल के क्षेत्र में किया जा रहा अनुसंधान इसका उपाय हो सकता है। पर अभी इस पद्धति का पर्याप्त विकास नहीं हुआ है। तब सिर्फ कृत्रिम अंग ही आशा की किरण हो सकते हैं और यहीं पर बायोनिक्स का पदार्पण होता है।

बायोनिक्स का इतिहास प्राचीन है। मिस्र की पौराणिक कथाओं में उल्लेख है कि सिपाही अपने क्षतिग्रस्त अंगों के बदले लोहे के अंग लगा कर रणभूमि में युद्ध करने चले जाया करते थे। परंतु आज के परिप्रेक्ष्य में बहुत सारी विधाओं और तकनीकों का संयोजन हो गया है; जैसे कि रोबोटिक्स, बायो-इंजीनियरिंग व गणित जिससे कृत्रिम अंगों की रचना में छोटी-छोटी बातों को ध्यान में रखा जा सकता है तथा वह मानव कोशिकाओं के साथ अपना कार्य कर सकता है।

चिकित्सा और इलेक्ट्रॉनिकी दोनों ही क्षेत्रों में लघु रूप विद्युत अंगों, परिष्कृत सूक्ष्म चिप्स और विकसित कंप्यूटर योजनाओं के रूप में भी निर्बल मानव शरीर को सबल मानव शरीर में परिवर्तित करने में वैज्ञानिकों ने सफलता प्राप्त की है। इसे ‘बायोनिक शरीर’ कह सकते हैं और इसने शारीरिक अक्षमताओं वाले इंसानों के लिए कृत्रिम अंगों, कृत्रिम मांसपेशियों और दूसरे कृत्रिम अंगों द्वारा एक बेहतर ज़िंदगी जीने की संभावना उत्पन्न की है।

हारवर्ड विश्वविद्यालय, अमेरिका के शोधकर्ता जॉन पेजारी ने आर्गस 2 रेटिनल प्रोस्थेसिस सिस्टम नाम से बायोनिक आंख विकसित की है, जो प्रकाश के मूवमेंट और उसके आकार को समझने में मदद करेगी। आर्गस 2 में इलेक्ट्रोड लगे होते हैं। यह उन लोगों के लिए मददगार साबित होगा, जो पहले देख सकते थे, लेकिन बाद में किन्हीं कारणों से उनकी आंख की रोशनी चली गई।

मस्तिष्क के किसी हिस्से को बदलना शरीर के किसी अंग को बदलने की तरह आसान नहीं है, लेकिन भविष्य में मस्तिष्क के किसी हिस्से को बदलना मुश्किल नहीं होगा। दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर थियोडोर बर्जर ने एक ऐसी चिप तैयार की है जो दिमाग के एक खास हिस्से (हिप्पोकैंपस) का स्थान लेगी। हिप्पोकैंपस दिमाग का वह हिस्सा होता है, जो कि अल्प समय की यादों और उनको पहचानने की समझ को नियंत्रित करता है। यह कृत्रिम दिमाग अल्ज़ाइमर और पक्षाघात से ग्रसित लोगों के लिए वरदान होगा। इसे कुछ वैज्ञानिकों द्वारा ‘सुपर ब्रेन’ की संज्ञा दी गई है।

किडनी फेल होने के बाद उस समस्या से निपटने के लिए सामान्यत: दो ही विकल्प अपनाए जाते हैं। एक तो किसी अन्य व्यक्ति से किडनी ली जाए या लंबे समय तक डायलिसिस पर रखा जाए। दोनों ही प्रक्रियाएं खासी जटिल हैं। जहां किडनी मिलना आसान नहीं होता, वहां डायलिसिस प्रक्रिया भी जटिल होती है। शोधकर्ताओं ने इस समस्या का हल ढूंढ लिया है। मार्टिन रॉबर्टस और डेविड ली ने ऐसी किडनी डिज़ाइन की है जो डायलिसिस से काफी बेहतर होगी, क्योंकि इसे 24 घंटे, सातों दिन इस्तेमाल किया जा सकेगा। यह असली किडनी की तरह काम करेगी। यह किडनी पोर्टेबल होगी और हल्की इतनी कि आपके बेल्ट में आराम से फिट हो जाए। इसे बदला भी जा सकेगा। इसके छोटे आकार और ऑटोमेटिक होने के कारण इसे ‘ऑटोमेटेड वेयरेबल आर्टिफिशियल किडनी’ नाम दिया गया है।

कई कारणों से लोगों को घुटने बदलने की सलाह दी जाती है। लेकिन यह आसान काम नहीं है। वर्तमान में बायोनिक शोधकर्ताओं हैरी और वाइकेनफेल्ड ने ऐसे घुटने बनाए हैं, जो बिल्कुल असली घुटनों की तरह काम करेंगे। इन घुटनों में लगे सेंसर इस बात की जांच करेंगे और सीखेंगे कि इन्हें इस्तेमाल करने वाला कैसे चलता है और चलते वक्त वह अपने शरीर का इस्तेमाल कैसे करता है जिससे इन कृत्रिम घुटनों के सहारे चलना बेहद आसान होगा।

बांह रहित लोग अपनी कृत्रिम बांह का इस्तेमाल बिल्कुल असली बांह की तरह अपने विचारों की शक्ति द्वारा कर सकेंगे। रिहेबिलिटेशन इंस्टीट्यूट ऑफ शिकागो के डॉ. टॉड कुकिन ने यह कारनामा संभव कर दिखाया है। उन्होंने बायोनिक बांह को दिमाग से स्वस्थ मोटर कोशिकाओं द्वारा जोड़ दिया, जिनका इस्तेमाल रोगी के बेकार हो चुके अंग के लिए किया जाता था।

कुछ वैज्ञानिक कृत्रिम पैंक्रियाज़ बनाने में लगे हैं। कुछ ही वर्षों में ऐसे पैंक्रियाज़ तैयार हो जाएंगे, जो व्यक्ति के खून की मात्रा को नापने और साथ ही उसके शरीर के अनुरूप इंसुलिन की मात्रा में बदलाव करने में सक्षम होंगे। जुवेनाइल डाइबिटीज़ रिसर्च फांउडेशन के स्टे्रटेजिक रिसर्च प्रोजेक्ट के निदेशक ऑरीन कोवालस्की ने ऐसी डिवाइस तैयार की है जो वर्तमान में तकनीकों का मिश्रण है। इसमें एक इंसुलिन पंप और एक ग्लूकोज़ मीटर है। इसकी सहायता से डायबिटीज़ को नियंत्रण में लाया जा सकेगा और ब्लड शुगर के साइड इफेक्ट कम किए जा सकेंगे।

अक्सर ऐसा होता है कि आपके शरीर के जिस हिस्से में दर्द हो रहा होता है, उसे सही करने के लिए उस पूरे हिस्से के लिए दवाई दी जाती है। लेकिन कभी-कभी वह उस हिस्से के इंफेक्शन को पूर्ण तौर से सही कर पाने में सक्षम नहीं होती है। पेनसिलवेनिया विश्वविद्यालय, अमेरिका के बायोइंजीनियरिंग प्रोफेसर डेनियल हैमर ने इसके लिए बेहतर तरीका खोज निकाला है। पॉलीमर से बनी कृत्रिम कोशिकाओं को सफेद रक्त कोशिकाओं से मिला दिया जाएगा। इन कृत्रिम कोशिकाओं को ‘सी’ नाम दिया गया है। ये कृत्रिम कोशिकाएं दवाई को सीधे उस हिस्से में ले जाएंगी, जहां उसकी आवश्यकता है। यह बेहद आसान और सुरिक्षत तरीका होगा। इससे कैंसर सहित कई भयावह बीमारियों का मुकाबला किया जा सकेगा। दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में शोधकर्ता  डॉ. जेराल्ड लीएब अपनी टीम के साथ बायोन नामक एक ऐसी तकनीक पर कार्य कर रहे हैं, जिसका उद्देश्य लकवाग्रस्त मांसपेशियों में जान फूंकना है। बायोन ऐसे विद्युत उपकरण हैं जिन्हें मानव शरीर में उसी जगह एक सुई की मदद से इंजेक्ट किया जा सकता है जहां पर इसकी ज़रूरत हो। इसकी शक्ति का स्रोत रेडियो तरंगें हैं।

मानव मस्तिष्क एक बहुत ही जटिल यंत्र है जिसे समझने के लिए शोध चल रहे हैं। अगर किसी अपंग व्यक्ति के कुछ अंग कार्य करना बंद कर दें, परन्तु दिमाग कार्यशील रहे तो यह यंत्र उस मनुष्य को तंत्रिका संकेतों द्वारा मदद कर सकता है। ब्रेनगेट एक ऐसी तकनीक है जिसके द्वारा एक लघु चिप दिमाग में लगा दी जाती है जो मनुष्य के विचार एक कंप्यूटर पर भेज देती है और उन्हीं वैचारिक संकेतों द्वारा कंप्यूटर पर ई-मेल भेजा जा सकता है और कंप्यूटर पर गेम भी खेले जा सकते हैं, सिर्फ सोचने मात्र से ही।

शोधकर्ताओं ने सौर ऊर्जा को तरल र्इंधन में परिवर्तित करने के क्रम में सूरज की रोशनी का उपयोग करने वाली बायोनिक पत्ती का आविष्कार किया है। जीवाणु रैल्सटोनिया यूट्रोफा इस काम को अंजाम देता है और कार्बन डाईऑक्साइड के साथ-साथ हाइड्रोजन का रूपांतरण सीधे उपयोग में आने वाले तरल र्इंधन (आइसोप्रोपेनॉल) में कर देता है। शोधकर्ताओं का यह कदम ऊर्जा से भरपूर दुनिया बनाने की दिशा में मील का पत्थर है।

बायोनिक्स पर काम करने वाले लोग जीव विज्ञानियों, इंजीनियरों, आर्किटेक्ट्स, रसायन शास्त्रियों, भौतिक विज्ञानियों से लेकर धातु विज्ञानियों के साथ मिलकर काम करते हैं। जर्मन वैज्ञानिक इस समय बीटल नाम के कीड़े के पंखों से प्रेरणा लेकर बेहद हल्की निर्माण सामग्री बना रहे हैं। प्रकृति अभी भी सबसे अच्छी इंजीनियर है। वह हड्डियों और सींग जैसी हल्की लेकिन ठोस संरचना बनाती है और भौंरे के जैसे हल्के पंख भी।

बायोनिक वैज्ञानिक प्रकृति से प्रेरणा लेकर हल्के विमान बनाने की तैयारी में लगे हैं। विक्टोरिया वॉटर लिली की पत्ती जितनी नाज़ुक दिखती है उतनी ही मज़बूत भी होती है। उदाहरण के तौर पर, विक्टोरिया वॉटल लिली की पत्ती बड़ी आसानी से एक छोटे बच्चे का भार उठा सकती है। इससे बड़े आकार की पत्ती व्यस्क का भार भी उठा सकती है। एरोस्पेस इंजीनियरों ने पहले त्रि-आयामी स्कैनर की सहायता से इस पत्ती की नाज़ुक संरचना को स्कैन किया। फिर इस डाटा को कंप्यूटर प्रोग्राम में डाला। कंप्यूटर इसका आकलन करता है कि भार को संभालने के लिए संरचना कैसी होनी चाहिए। वॉटर लिली की पत्तियों की निचली सतह पर तना मोटा और सघन होता है। यह वह हिस्सा है जहां वाटर लिली पर ज़्यादा दबाव पड़ता है। जिन हिस्सों पर कम दबाव होता है वहां तनों के बीच ज़्यादा दूरी होती है और तने पतले भी होते हैं। इस सिद्धांत से प्रेरणा लेकर हल्के विमान का एयरप्लेन स्पॉयलर तैयार किया गया है। यह बेहद हल्की लेकिन बड़े काम की संरचना है जिसे किसी और तरीके से बनाना शायद संभव न होता। बायोनिक्स की तकनीक अपनाकर वैज्ञानिकों ने इसे संभव कर दिखाया है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि बायोनिक्स प्रकृति की तकनीक को आम जिंदगी में अमल में लाने की विधा है। जिसके उपयोग से मानव ज़िंदगी को और बेहतर एवं सुविधाजनक बनाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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स्कूल में भूत का नज़ारा – संतोष शर्मा

स्कूल के शौचालय में जाने के बाद 10वीं कक्षा की छात्रा शम्पा कुंडू दौड़ती हुई क्लास रूम में लौटी और भूत-भूत कहती हुई बेहोश होकर फर्श पर गिर गई। शम्पा की ऐसी डरी हुई हरकत देख क्लास की अन्य छात्राएं भी डर गर्इं। यह बात तुरंत क्लास टीचर को बताई गई। टीचर क्लास रूम में पहुंचा। एक छात्रा ने शम्पा के चेहरे पर पानी के छींटे मारे और पंखे से हवा दी। कुछ देर बाद शम्पा होश में आई और खामोश बड़ी-बड़ी आंखें कर देखने लगी।

टीचर ने पूछा, “शम्पा तुम यूं भूत-भूत क्यों चीख रही थी?”

एक बोतल से दो घूंट पानी पीने के बाद डरी-सहमी सी शम्पा ने धीमी आवाज में कहा, “स्कूल के शौचालय में भूत है! एक लड़के का भूत है। मैंने अपनी आंखों से भूत देखा। वो मुझे घूर रहा था! ”

“देखो, भूत-प्रेत कुछ नहीं होता। तुम्हें वहम हुआ होगा। शायद तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है। तुम अभी घर जाकर आराम करो।” टीचर ने शम्पा को घर भेज दिया।

शम्पा को स्कूल से जल्दी घर लौटते देख मां ने पूछा, “स्कूल की इतनी जल्दी छुट्टी हो गई?” जवाब दिए बिना ही शम्पा अपने कमरे में चली गई। काफी देर बाद भी वह कमरे से बाहर नही निकली तो मां उसके कमरे में गई। देखा शम्पा बिस्तर पर लेटी हुई थी।

बेटी के सिर पर प्यार भरे हाथ रखकर मां ने पूछा, “क्या हुआ, तू इतनी थकी हुई क्यों लग रही है? तेरी तबियत अचानक बिगड़ी हुई क्यों लग रही है? स्कूल में कुछ गड़बड़ी हुई है क्या?”

इतने सारे सवालों का उत्तर देने के बजाय शम्पा मां से लिपट कर रोने लगी। यह देख मां ने पूछा, “अरे क्या हुआ, तू रो क्यों रही है?” आंखों के आंसू पोछते हुए शम्पा ने कहा, “मैंने स्कूल के शौचालय में एक लड़के का भूत देखा। वो मुझे घूर रहा था और अपनी ओर बुला रहा था। मै डर गई, मुझे अब भी डर लग रहा है।”

यह सुनकर मां बहुत घबरा गई। मां ने कहा, “डरने की बात नहीं है बेटी। चल, तुझे ओझा के पास ले जाती हूं। वह झाड़-फूंक कर देगा।”

मां बेटी को इलाज के लिए अस्पताल या किसी डॉक्टर पास ले जाने की बजाय वासुदेवपुर गांव में रहने वाले ओझा दंपत्ति शीतल बाग और शिखा बाग के घर पर ले गई। ओझा दंपति ने शम्पा की कुछ देर तक झाड़-फूंक की। इसके बाद शीतल ओझा ने कहा, “मुझे पहले से ही जिस बात का डर था वही हुआ। तुम्हारी किस्मत अच्छी थी। नहीं तो वह आज तुम्हारी जान ज़रूर ले लेता।”

घबराई हुई शम्पा की मां ने पूछा, “कौन मेरी बेटी की जान ले लेता? आपको किस बात का डर था? ”

“संजय सांतरा की अतृप्त आत्मा स्कूल में भटक रही है”, ओझा ने कहा, “संजय एक होनहार छात्र था। न जाने क्यों उसने आत्महत्या कर ली। उसका स्कूल से बहुत लगाव था। मरने के बाद भी उसकी आत्मा को मुक्ति नहीं मिली। नतीजा, संजय की अतृप्त आत्मा स्कूल में आज भी भटक रही है।”

शीतल ने आगे और कहा, “अरूप मंडल नामक एक अन्य युवक की हादसे में मौत हो गई थी। संजय और अरूप इन दोनों की अतृप्त आत्माएं स्कूल में अब भी भटक रही हैं। इन दोनों के अलावा भी और कई अतृप्त आत्माएं भूत के रूप में स्कूल के आसपास, शौचालय आदि में दिखती हैं। ये भटकती आत्माएं स्कूल की किसी न किसी छात्रा को अपने वश में लाने की पूरी कोशिश कर रही हैं। और यही हुआ है। एक अतृप्त आत्मा ने शम्पा को काबू कर लिया था। किन्तु किस्मत अच्छी थी कि वह तुम्हें क्षति नहीं पहुंचा पाया।”

ओझा ने कहा, “मैंने शम्पा पर सवार भूत को भगा दिया है लेकिन चिंता तो स्कूल के अन्य छात्रों को लेकर हो रही है क्योंकि ये अतृप्त आत्माएं आज नहीं तो कल किसी-न-किसी को अपना शिकार ज़रूर बनाएंगी।”

शम्पा की मां ने पूछा, “क्या इससे मुक्ति का कोई उपाय नहीं है? ”

शिखा ओझा ने कहा, “ऐसी आत्माओं से मुक्त करने के लिए मैंने स्कूल में तंत्र-मंत्र व झाड़-फूंक करने की बात कही थी लेकिन किसी ने मेरी एक नहीं सुनी और आज इसका खमियाजा स्कूली छात्राओं को भुगतना पड़ रहा है।”

“मुझे डर है कि ये आत्माएं किसी की जान न ले लें!” यह कहते हुए ओझा ने माथे का पसीना पोंछा।

शम्पा की बार्इं बांह पर लाल धागे में पिरोकर एक तावीज बांधते हुए शिखा ओझा ने कहा, “यह तावीज अपने से दूर नहीं करना। भूत तुम्हारा अब कुछ भी बिगाड़ नहीं पाएगा।”

शम्पा को कुछ जड़ी बूटियां दीं और ओझा दंपत्ति ने सुझाव दिया, “इसे गंगा जल के साथ पीसकर पी लेना। तू ठीक हो जाएगी।”

दूसरे दिन शम्पा स्कूल गई तो क्लास की सहपाठी पूछने लगी, “शम्पा, कल तुम्हें क्या हुआ था? तुम्हारी तबियत अभी ठीक है न?”

इस पर शम्पा ने बाग ओझा दंपत्ति के यहां जाने की बात बताई और कहा, “स्कूल के शौचालय में भूतों का डेरा बना हुआ है। स्कूल में एक नहीं, कई अतृप्त आत्माएं मंडरा रही हैं। ये भूत हमें शिकार बनाना चाहते हैं। एक भूत मुझ पर सवार हो गया था। ओझा ने झाड़-फूंक कर उसे भगा दिया।”

कुछ ही देर में यह बात पूरे स्कूल में लगभग सभी छात्र-छात्राओं के कानों में पहुंच गई कि स्कूल के शौचालय में भूत है!

इसके बाद तो स्कूल में शौचालय जाने वाली छात्राएं एक के बाद एक अजीबो-गरीब हरकत करने लगी, भूत-भूत कहकर छात्राएं बेहोश होने लगीं। देखते ही देखते लगभग दो दर्जन छात्राओं की तबियत काफी बिगड़ गई। स्कूल में अफरा-तफरी फैल गई। शौचालय में भूत होने की अफवाह स्कूल के आसपास के इलाकों में भी जंगल की आग की तरह फैल गई। छात्राओं के परिजन भागते हुए स्कूल पहुंचने लगे। इलाज के लिए कई छात्राओं को स्थानीय अस्पताल में भर्ती भी करवाना पड़ा।

यह भुतही घटना पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा ज़िले के कोतुलपुर थाना अंतर्गत मिर्ज़ापुर हाईस्कूल की है। स्कूल के कार्यवाहक प्रधान शिक्षक महानंद कुंडू ने कहा, “शौचालय से लौटने के बाद कई छात्राओं की तबियत अचानक बिगड़ गई। दस-बारह छात्राएं बेहोश भी हो गर्इं। किसी के सीने में तो किसी के सिर में दर्द की भी शिकायत थी।”

घटना की सूचना मिलने पर कोतुलपुर ग्रामीण अस्पताल से एक मेडिकल टीम स्कूल पहुंची। कोतुलपुर ब्लॉक स्वास्थ्य केंद्र के चिकित्सक पलाश दास और मनोरोग विशेषज्ञ पृथा मुखोपाध्याय भी स्कूल पर पहुंचे। भुतही अफवाह के चलते अस्वस्थ हुई छात्राओं का प्राथमिक उपचार किया गया जबकि चिंताजनक हालत में कई छात्राओं को इलाज के लिए कोतुलपुर ग्रामीण अस्पताल में भर्ती कराया गया।

मनोरोग विशेषज्ञ पृथा मुखोपाध्याय ने कहा, “ज़्यादातर छात्राएं खाली पेट या थोड़ा-सा कुछ खाकर स्कूल आती हैं। जिसके कारण वे शारीरिक रूप से कमजोर होती हैं। ऐसी ही छात्राएं भूत की अफवाह के कारण मानसिक रूप से अस्वस्थ हुर्इं।”

इस स्कूल में छात्र-संख्या लगभग 800 है। अधिकांश छात्र-छात्राएं स्कूल के आसपास रायबागिनी, झोड़ा मुराहाट, हजारपुकुर, जलजला, हरिहरचाका, हेयाबनी गांवों के गरीब परिवारों से हैं। ज़्यादातर अपने घरों से सुबह चूड़ा व मूड़ी खाकर आते हैं और दोपहर को मध्यान्ह भोजन योजना में मिलने वाले भोजन से किसी तरह से पेट भरा करते हैं। स्कूल में ऐसी कई छात्राएं हैं जो शारीरिक रूप से अस्वस्थ भी हैं, जिनका विभिन्न अस्पतालों में नियमित रूप से इलाज भी चल रहा है।

मिर्ज़ापुर हाईस्कूल के शौचालय में भूत की अफवाह के चलते इलाके में भुतहा आतंक सामूहिक हिस्टीरिया की तरह फैल गया। अभिभावकों ने अपने बच्चों को स्कूल जाने से रोक दिया। स्कूल में पढ़ाई-लिखाई खटाई में पड़ गई। शाम ढलने के बाद स्कूल से अजीबो-गरीब डरावनी आवाज़ आने की भी बात सुनाई पड़ने लगी।

आसपास गांव में रहने वाले लोग कहने लगे, “जब ओझा ने पहले ही कहा था कि स्कूल में भूत है, अतृप्त आत्माएं भटक रही हैं, तब स्कूल में तंत्र-मंत्र या झाड़-फूंक करने में क्या दिक्कत है। अगर वक्त रहते अतृप्त आत्माओं को स्कूल से मुक्त नहीं किया गया तो बड़ी आफत आने का डर है।”

भूत की अफवाह से उत्पन्न हालात से स्कूल प्रशासन चिंता में पड़ गया। इस समस्या से शीघ्र स्कूल को मुक्त करने के लिए स्कूल के कार्यवाहक प्रधान शिक्षक महानंद कुंडू और स्थानीय प्रशासन ने शिक्षकों और प्रशासनिक अधिकारियों के साथ आपात बैठक की। बैठक में काफी विचार-विमर्श के बाद फैसला लिया गया कि स्कूल में पैदा हुई भुतही समस्या के समाधान के लिए भारतीय विज्ञान व युक्तिवादी समिति के कार्यकर्ताओं को स्कूल में बुलाया जाए। तब स्कूल की ओर से युक्तिवादी समिति के अध्यक्ष प्रबीर घोष से संपर्क किया गया। एक पत्रकार के रूप में मैंने प्रबीर जी से संपर्क किया और उन्हें स्कूल में फैली भुतही अफवाह के समाधान को लेकर विस्तार से बात की। प्रबीर जी ने कहा, “युक्तिवादी समिति की बांकुड़ा जिला शाखा के रामकृष्ण चंद्र समेत कई कार्यकर्ताओं को मिर्ज़ापुर हाईस्कूल का दौरा करने का निर्देश दिया गया है।”

बांकुड़ा से युक्तिवादी समिति की ओर से एक टीम हाईस्कूल पहुंची। टीम में शामिल कार्यकर्ताओं ने स्कूल के शौचालय समेत पूरे स्कूल का निरीक्षण किया। साथ ही भूत देखने वाली छात्राओं, उनके अभिभावकों, स्कूल के शिक्षकों और आसपास गांव के लोगों से बातें की। इसके बाद समिति की ओर से स्कूल परिसर में एक मंच बनाकर अंधविश्वास विरोधी “अलौकिक नहीं, लौकिक” कार्यक्रम का आयोजन किया गया।

कार्यक्रम में स्कूल के शिक्षक, कोतुलपुर थाना प्रभारी, कोतुलपुर के बीडीओ गौतम बाग, मिर्ज़ापुर ग्राम पंचायत की प्रधान नमिता पाल और सर्व शिक्षा मिशन के अधिकारी, स्कूली छात्र-छात्राएं और आसपास के गांवों के अनेक लोग भी उपस्थित हुए।

कार्यक्रम मंच पर एक टेबल पर दूध से भरा हुआ कांच का एक गिलास और एक इंसानी खोपड़ी रखते हुए एक तर्कवादी कार्यकर्ता ने कहा, “हमें सुनने को मिला है कि यह स्कूल भूतों का डेरा बन गया है। यदि यहां वाकई में भूत है तो हम किसी एक भूत को इस मंच पर बुला कर उसे दूध पिलाएंगे।” अपने बाएं हाथ में इंसानी खोपड़ी को लेकर कुछ देर तक तंत्र-मंत्र नुमा कोई मंत्र पढ़ा। इसके बाद दूध से भरा हुआ गिलास खोपड़ी के सामने लाया गया। आश्चर्य! गिलास का दूध धीरे-धीरे कम होता गया। देखने से ऐसा लगा कि खोपड़ी में घुसे भूत ने दूध पी लिया हो!

इसके बाद एक कार्यकर्ता ने कपूर का एक छोटा सा टुकड़ा टेबल पर रखा। उसे माचिस की एक तीली से जला दिया। फिर जलते हुए टुकड़े को अपनी हथेली पर रख लिया। इसके बाद उसे अपनी जीभ पर रखा और आग को खा गया। एक कार्यकर्ता ने मुंह से एक घड़ा उठा कर दिखाया। इसी क्रम में बिना माचिस के ही एक यज्ञ कुंड में आग लगा कर दिखाई गई।

एक के बाद एक ‘चमत्कारी’ कारनामे देख उपस्थित छात्र-छात्राएं और लोग तालियां बजाने लगे। दर्शकों से पूछा गया, “आप में से कोई यह बता सकता है कि गिलास का दूध कौन पी गया?” भीड़ में बैठे एक छात्र ने कहा, “शौचालय में छिपा हुआ भूत आकर दूध पी गया! ”

एक छात्रा ने कहा, “शायद आप लोग कोई जादूगर हो। आप लोगों के पास तंत्र-मंत्र या भूत-प्रेत की शक्ति है।”

इस पर चंद्र ने कहा, “हम तर्कवादी हैं। हम तो चमत्कारी शक्ति का दावा करने वालों की पोल खोला करते हैं। हमने ये कारनामे सिर्फ जादुई तरकीब से दिखाए हैं। हमारे पास कोई तंत्र-मंत्र या भूत-प्रेत की शक्ति नही हैं। भूत-प्रेत सिर्फ, और सिर्फ, कल्पना और अंधविश्वास हैं।”

कार्यक्रम देख रही एक छात्रा ने कहा, “स्कूल के शौचालय में भूत है। शौचालय में उस भूत को देखकर सबसे पहले शम्पा और फिर कई छात्राएं अस्वस्थ हो गई थीं। गांव के ओझा दंपत्ति ने भी स्कूल में भूत होने की बात कही है।”

इस पर स्कूल के शौचालय में भूत देखने वाली छात्रा शम्पा को कार्यक्रम मंच पर बुलाकर तर्कवादियों ने पूछा, “आपने अपनी आंखों से भूत देखा था? क्या आपको लगता है कि वाकई में भूत-प्रेत होते हैं? ”

छात्रा ने कहा, “हां, मैंने अपनी आंखों से भूत को देखा था।”

“तब तो उस भूत की स्मार्ट फोन से फोटो खींची जा सकती है?”

यह सुन वह इधर-उधर देखने लगी और अन्य छात्राएं मुस्कराने लगीं। तर्कवादी ने समझाया, “धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आत्मा का अर्थ चिन्ता, चेतना, चैतन्य या मन है। आज आधुनिक विज्ञान ने साबित किया है कि मस्तिष्क की स्नायु कोशिकाओं की क्रिया-प्रतिक्रिया का फल ही मन या चिंता है। मस्तिष्क की कोशिकाओं के बिना चिंता, मन या आत्मा का अस्तित्व असंभव है।”

“शरीर की मौत के साथ ही मस्तिष्क की कोशिकाओं का भी अंत हो जाता है। ऐसे में इन कोशिकाओं की क्रिया-प्रतिक्रिया भी बंद हो जाती है। यानी मन रूपी आत्मा की भी मृत्यु हो जाती है। कुल मिलाकर शरीर की तरह आत्मा नष्ट हो जाती है। इसलिए अतृप्त आत्माओं या भूतप्रेत का वजूद ही नहीं होता है।”

एक छात्रा ने पूछा, “यदि भूत-प्रेत नहीं है तो शम्पा या अन्य छात्राओं को भूत क्यों दिखाई दिया?”

जवाब में तर्कवादी ने कहा, “हमारी दादी-नानी हमें बचपन में भूत-प्रेत की कहानियां सुनाया करती हैं। ये कहानियां हमारे बचपन के कच्चे मन-मस्तिष्क में इस कदर बैठ जाती हैं कि जब हम पढ़-लिख कर बड़े हो जाते हैं तो भी बचपन में सुनी हुर्इं भूत-प्रेत की काल्पनिक कहानियां सच लगने लगती हैं। इसके अलावा, आजकल विभिन्न टीवी चैनलों पर भूत-प्रेत पर आधारित धारावाहिकों का प्रसारण किया जाता है। इन धारावाहिकों का बच्चों के मन-मस्तिष्क पर अंधविश्वासपूर्ण प्रभाव पड़ता है।”

चंद्र ने कहा, “भूत-प्रेत पर विश्वास करने के कारण शम्पा जब शौचालय में गई तो उसे भूत जैसी किसी चीज का भ्रम हुआ। भ्रम के कारण उसे भूत जैसा कुछ दिखाई दिया होगा लेकिन जब उसे ओझा के पास ले जाया गया तो ओझा ने भूत होने का दावा किया और इलाज के नाम पर झाड़-फूंक की। ओझा के कहने पर शम्पा ने जब स्कूल के शौचालय में भूत होने की बात कही तो वह अफवाह की तरह अन्य छात्राओं में फैल गई। इसके बाद से जब भी कोई छात्रा शौचालय से लौटती है तो वह भूत-भूत कहकर बेहोश हो जाती है। नतीजा, स्कूल में भूत होने की अफवाह सामूहिक हिस्टीरिया की तरह फैल गयी। हिस्टीरिया का काउंसलिंग द्वारा इलाज संभव है। भूत-प्रेत देखना सिर्फ व्यक्तिगत अनुभव या इंद्रिय जनित भ्रम के अलावा कुछ नहीं है। जब हमारी इंद्रियां भ्रम की अवस्था में होती है तब ऐसी घटनाएं व्यक्ति महसूस करता है। भूत शौचालय में नहीं बल्कि मन में अंधविशावास के रूप में बसा हुआ है।”

तर्कवादी ने आगे कहा, “स्कूल में भूत की अफवाह के कारण अस्वस्थ हुई अधिकांश छात्राएं ग्रामीण इलाकों की हैं। ये छात्राएं ज़्यादातर गरीब, किसान परिवार से हैं। कुछ लड़कियां शारीरिक कमज़ोरी, कुपोषण की शिकार भी होती हैं। उनमें स्वास्थ्य आदि की जागरूकता की भी कमी होती है। ये लोग भूत-प्रेत, झाड़-फूंक, ओझा आदि पर विश्वास करते हैं। ऐसी स्थिति में जब कोई लड़की ऐसी कोई हरकत करती है जिसका वैज्ञानिक कारण पता नहीं होने के कारण उनके माता-पिता उन्हें इलाज के लिए ओझा के पास ले जाते हैं। मानसिक तनाव, दिमागी दबाव आदि कारणों से लोग अक्सर मानसिक बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं जिन्हें वे भूत-प्रेत अथवा जादू-टोने का असर समझ बैठते हैं। मनोरोग को भूत-प्रेत का साया मानकर झाड़-फूंक के चक्कर में पड़ जाते हैं। मनोरोग भी अन्य बीमारियों की तरह ही होता है, जिसका उचित काउंसलिंग और दवा के ज़रिए आसानी से इलाज किया जा सकता है।”

युक्तिवादी समिति के कार्यकर्ताओं ने कहा, “अब यदि कोई दावा करता है कि स्कूल में भूत है तो भूत दिखाने वालों को 50 लाख रुपए की चुनौती देता हूं।”

अंधविश्वास से मुक्त होने के लिए वैज्ञानिक सोच को अपनाने की सलाह देते हुए तर्कवादी कार्यकताओं ने कहा, “किसी भी बीमारी का इलाज सरकारी अस्पताल में, डॉक्टर के हाथों करवाना चाहिए। यदि किसी पर भूत बाधा होने जैसी समस्या हो तो ओझा के हाथों झाड़-फूंक करवाने की बजाय उसे मनोचिकित्सक के पास ले जाएं। मनोचिकित्सा से आप पूर्ण रूप से स्वस्थ हो जाएंगे।” आगे यह भी बताया गया, “भारतीय कानून में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तावीज, कवच, ग्रह रत्न, तंत्र-मंत्र, झाड़-फूंक, चमत्कार, दैवी औषधि आदि द्वारा किसी भी समस्या या बीमारी से छुटकारा दिलवाने का दावा तक करना जुर्म है। तंत्र-मंत्र, चमत्कार के नाम पर आम जनता को लूटने वाले ओझा, तांत्रिक जैसे पाखंडियों को कानून की मदद से जेल की हवा तक खिलाई जा सकती है। ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट, 1940 के तहत किसी भी बीमारी से छुटकारा दिलवाने के नाम पर दिए जाने वाले तावीज, कवच, झाड़-फूंक, मंत्र युक्त जल, तंत्र-मंत्र आदि को औषधि के रूप में स्वीकार होगा। बिना लाइसेंस के तावीज, कवच इत्यादि द्वारा बीमारी से छुटकारा नहीं मिलने पर या मरीज़ की मृत्यु होने पर भारतीय दंड संहिता की धारा 320 के तहत दोषी को सज़ा होगी। इस कानून का उल्लंघन करने वाले को 10 वर्ष से लेकर आजीवन कारावास और 10 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है। इसके अलावा, ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज़ (आबजक्शनेबल एडवर्टाइज़मेंट) एक्ट, 1954 के तहत तंत्र-मंत्र, गंडे, तावीज आदि तरीकों से चमत्कारिक रूप से बीमारियों के उपचार या निदान आदि दण्डनीय अपराध हैं।”

अंधविश्वास विरोधी कार्यक्रम देखने के बाद छात्राओं ने कहा, “ओझा दंपति के कहने पर हमारे में मन में भूत-प्रेत को लेकर जो डर पैदा हुआ था वह दूर हो गया है। अब आगे यदि ऐसी भुतही घटना होती है तो हम उस पर ध्यान ही नहीं देंगे। यदि कोई छात्र या छात्रा भूत के नाम पर अस्वस्थ हो जाता है तो उसे इलाज के लिए डॉक्टर के पास ले जाएंगे। भूत-प्रेत के नाम पर किसी भी अफवाह पर अब ध्यान नहीं देंगे।”

बीडीओ गौतम बाग ने कहा, “विज्ञान के इस युग में आज जहां लड़कियां भी चांद पर पहुंच रही हैं, शर्म की बात यह है कि ऐसी स्थिति में एक स्कूल में भुतही अफवाह को दूर करने के लिए अंधविश्वास विरोधी कार्यक्रम भी करना पड़ रहा है। आप सभी को भूत-प्रेत जैसी किसी भी अफवाह पर कान नहीं देना चाहिए। यदि ऐसी अफवाह फैलती है तो उसके पीछे तर्कपूर्ण कारण का पता लगाना होगा आप लोगों को। तभी जाकर समस्या का समाधान करना संभव होगा।”

प्रधान शिक्षक महानंद कुंडू ने कहा, “युक्तिवादी समिति के कार्यकर्ताओं ने स्कूल में कार्यक्रम कर छात्राओं के मन से भूत का डर दूर किया है, इसके लिए उन्हें धन्यवाद देना चाहूंगा।”

बता दें, तर्कवादी कार्यकर्ताओं ने स्कूल पहुंचने से पहले जब ओझा बाग दंपत्ति से मुलाकात की थी तो ओझा ने बल देते हुए कहा था कि उसने ही छात्रा पर से भूत भगाने के लिए झाड़-फूंक की। स्कूल में भुतही अफवाह फैलाने के पीछे ओझा का धंधा जुड़ा हुआ था। ओझा चाहता था कि स्कूल में यदि भूत की अफवाह के कारण छात्र अस्वस्थ हो जाते हैं, तो उन्हें इलाज के लिए उसके पास ले जाया जाएगा। उन्हें झाड़-फूंक करने और तावीज़-कवच देने के बदले में उनके परिजनों से पैसा भी लूटा जाएगा। लेकिन युक्तिवादी समिति के कार्यकर्ताओं ने स्कूल परिसर में अंधविश्वास विरोधी कार्यक्रम कर ओझा दंपत्ति की सारी पोल खोल कर रख दी।

युक्तिवादी समिति की ओर से प्रधान शिक्षक महानंद कुंडू को सुझाव दिया गया, “ऐसी डरावनी अफवाह फैलाने वाले ओझा और अन्य लोगों के खिलाफ थाने में शिकायत दर्ज करें।”

तर्कवादियों के सुझाव के बाद स्कूल प्रबंधन ने जिला प्रशासन को ओझा द्वारा फैलाई गई भूत की अफवाह के बारे में अवगत कराया गया और कोतुलपुर थाने में ओझा शिखा बाग और शीतल बाग के खिलाफ लिखित शिकायत दर्ज की गई। पुलिस ने आरोपी ओझा दंपति को उनके घर से गिरफ्तार कर लिया। उन्हें विष्णुपुर महकमा अदालत में पेश किया गया। न्यायाधीश ने उन्हें हिरासत में भेजने का निर्देश दे दिया। अभियुक्त ओझा दंपत्ति के खिलाफ धारा 420 के तहत धोखाधड़ी और ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज़ (आबजेक्शनेबल एडवर्टाइज़मेंट) एक्ट, 1954 की धारा 7 के तहत मामला दायर किया गया। पुलिस को जांच में पता चला कि स्कूल में भूत होने की अफवाह फैलाने के पीछे ओझा बाग दंपति ही मुख्य आरोप है।

प्रधान शिक्षक महानंद कुंडू ने बताया, “स्कूल के शौचालय में भूत की अफवाह फैलाने वाले ओझा दंपति की गिरफ्तारी के बाद स्कूल में शिक्षण कार्य सामान्य हो गया है। भूत के डर से मुक्त होकर छात्र-छात्राओं का स्कूल में आना भी शुरू हो गया है।”(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जंतु प्रजातियां अभूतपूर्व खतरे के दौर में – भरत डोगरा

विश्व में रीढ़धारी जीवों की संख्या में वर्ष 1970 और 2014 के बीच के 44 वर्षों में 60 प्रतिशत की कमी हो गई। यह जानकारी देते हुए हाल ही में जारी लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट (2018) में बताया गया है कि कई शताब्दी पहले की दुनिया से तुलना करें तो विभिन्न जीवों की प्रजातियों के लुप्त होने की दर 100 से 1000 गुना बढ़ गई है।

हारवर्ड के जीव वैज्ञानिक एडवर्ड विल्सन ने कुछ समय पहले विभिन्न अध्ययनों के निचोड़ के आधार पर बताया था कि मनुष्य के आगमन से पहले की स्थिति से तुलना करें तो विश्व में ज़मीन पर रहने वाले जीवों के लुप्त होने की गति 100 गुना बढ़ गई है। इस तरह अनेक वैज्ञानिकों के अलगअलग अध्ययनों का परिणाम यही है कि विभिन्न प्रजातियों के लुप्त होने की गति बहुत बढ़ गई है और यह काफी हद तक मानवनिर्मित कारणों से हुआ है।

जीवन का आधार खिसकने की चेतावनी देने वाले अनुसंधान केंद्रों में स्टाकहोम रेसिलिएंस सेंटर का नाम बहुत चर्चित है। यहां के निदेशक जोहन रॉकस्ट्रॉम की टीम ने एक अनुसंधान पत्र लिखा है जिसमें धरती के लिए सुरक्षित सीमा रेखाएं निर्धारित करने का प्रयास किया गया है। इसके अनुसार धरती की 25 प्रतिशत प्रजातियों पर लुप्त होने का संकट है। कुछ वर्ष पहले तक अधिकतर प्रजातियां केवल समुद्रों के बीच के टापुओं पर लुप्त हो रही थीं, पर बीसतीस वर्ष पहले से मुख्य भूमि पर बहुत प्रजातियां लुप्त हो रही हैं। इसका मुख्य कारण है जलवायु बदलाव, भूमि उपयोग में बड़े बदलाव (जैसे वन कटान) तथा बाहरी या नई प्रजातियों का प्रवेश। अनुसंधान पत्र में यह बताया गया है कि विभिन्न प्रजातियों के लुप्त होने का प्रतिकूल असर धरती की अन्य जीवनदायी प्रक्रियाओं पर भी पड़ता है।

डॉ. गैरार्डो सेबेलोस, डॉ. पॉल एहलरिच व अन्य शीर्ष वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन में कहा गया है कि यदि 100 वर्ष में प्रति 10,000 प्रजातियों में से दो प्रजातियां लुप्त हो जाएं तो इसे सामान्य स्थिति माना जा सकता है। पर यदि वर्ष 1900 के बाद की वास्तविक स्थिति को देखें तो इस दौरान सामान्य स्थिति की अपेक्षा रीढ़धारी प्रजातियों के लुप्त होने की गति 100 गुना तक बढ़ गई। इस तरह जलवायु बदलाव, वन विनाश व प्रदूषण बहुत बढ़ जाने से प्रजातियों का लुप्त होना असहनीय हद तक बढ़ गया है।

अध्ययन में बताया गया है कि यह अनुमान वास्तविकता से कम ही हो सकता है। दूसरे शब्दों में, वास्तविक स्थिति इससे भी अधिक गंभीर हो सकती है। मात्र एक प्रजाति के लुप्त होने से ऐसी द्यांृखलाबद्ध प्रक्रियाएं शुरू हो सकती हैं जिससे आगे कई प्रजातियां खतरे में पड़ जाएं। कई प्रजातियां लुप्त होने से मनुष्य के अपने जीवन की तमाम कठिनाइयां अप्रत्याशित ढंग से बढ़ सकती हैं क्योंकि सब तरह के जीवन एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।

जीवजंतुओं की रक्षा के लिए अधिक व्यापक स्तर पर पर्यावरण की रक्षा बहुत ज़रूरी है। नदियों व वनों की रक्षा होगी तभी यहां रहने वाले जीव भी बचेंगे। समुद्रों के जीवन की रक्षा के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अधिक व्यापक प्रयास ज़रूरी हैं। हमारे देश में समुद्रों और तटीय क्षेत्रों के पर्यावरण पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है, जबकि इनकी रक्षा बहुत ज़रूरी है। विभिन्न जीवजंतुओं की रक्षा के लिए स्कूल व परिवार के स्तर पर संवेदनाओं को मजबूत करना भी ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कैंसर को चुनौती के नए आयाम – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कैंसर, आनुवंशिक या किसी बाहरी कारक (जैसे धूम्रपान, हानिकारक विकिरण वगैरह) के कारण क्षतिग्रस्त हुई कोशिकाओं की अनियंत्रित वृद्धि और विभाजन है। समान्यतः कोशिकाएं एक निश्चित संख्या तक विभाजित होती हैं और वृद्धि करती हैं। किंतु कैंसर कोशिकाएं, जिनका डीएनए किन्हीं कारणों से क्षतिग्रस्त होकर परिवर्तित हो गया है, वे लगातार वृद्धि करती रहती हैं। जिसके कारण गठान (ट्यूमर) बन जाती है, जो शरीर कमज़ोर करती है और मौत तक हो सकती है।

कैंसर का उपचार और उसे ठीक करना एक बड़ी चुनौती रही है। कैंसर चिकित्सा विज्ञानी और लेखक सिद्धार्थ मुखर्जी ने इसे एकदम सही उपमा दी है बिमारियों का शहंशाह।

बीमारियों के शहंशाह कैंसर पर विजय पाने के कई तरीके रहे हैं। एक तरीका है कैंसर गठानों को सर्जरी करके निकाल देना। मगर इस तरीके में कैंसर के दोबारा होने की सम्भावना रहती है क्योंकि सर्जरी में इस बात की गारंटी नहीं रहती कि सभी कैंसर कोशिकाएं निकाल दी गई हैं। यदि चंद कैंसर कोशिकाएं भी छूट जाएं तो कैंसर दोबारा सिर उठा सकता है। यदि कैंसर होने के असल कारण से नहीं निपटा जाए, तो भी कैंसर दोबारा उभर सकता है। इसके अलावा अति शक्तिशाली गामा किरणों की रेडिएशन थेरपी से भी उपचार में सीमित सफलता ही मिली है।

सिसप्लेटिन या कार्बोप्लेटिन,5-फ्लोरोयूरेसिल, डॉक्सीरोबिसिन जैसी कई कैंसररोधी दवाएं भी उपयोग की गई हैं। कई चिकित्सकों ने दवा के साथ गामा रेडिएशन से उपचार का तरीका भी अपनाया, मगर इस उपचार के साथ मुश्किल यह है कि इसे लंबे समय तक जारी रखना होता है।

प्रतिरक्षा का तरीका

इसी संदर्भ में कुछ तरह के कैंसर का उपचार प्रतिरक्षा के तरीके से करने की कोशिश हुई है। इसमें शरीर प्रतिरक्षा तंत्र की मदद ली जाती है। इस तरीके में मुख्य भूमिका श्वेत रक्त कोशिकाओं की होती है। श्वेत रक्त कोशिकाओं का एक प्रकार होता है बीकोशिकाएं। ये बीकोशिकाएं हमलावर कोशिकाओं (चाहे वह किसी सूक्ष्मजीव की कोशिका हो या कैंसर कोशिका) की बाहरी सतह पर उपस्थित कुछ उभारों की आकृति (जिन्हें बॉयोमैट्रिक आईडी कह सकते हैं) की पहचान करती हैं, और इम्यूनोग्लोबुलिन नामक प्रोटीन संश्लेषित करती हैं जो हमलावर कोशिकाओं की सतह पर फिट हो जाता है और इस तरह हमलावर कोशिकाओं को हटाती हैं। खास बात यह है कि हमलावरों की आकृति को पहचान कर यादरखा जाता है ताकि यदि वही हमलावर दोबारा हमला करे तो बीकोशिकाएं उससे निपटने के लिए तैयार रहें। आत्मरक्षा का यही तरीका बचपन में किए जाने वाले टीकाकरण का आधार भी है।

सतह की पहचान से सम्बंधित टैगएंटीजन कहलाता है और उससे लड़ने वाला प्रोटीन एंटीबॉडी। कैंसर कोशिकाओं की भी बॉयोमैट्रिक आईडी (पहचान) होती है, जिसे नियोएंटीजन कहते हैं। कैंसररोधी वैक्सीन इन नियोएंटीजन के खिलाफ तैयार की गई एंटीबॉडीज़ के सिद्धांत पर आधारित है। कैंसर के खिलाफ कुछ जानीमानी दवाएं जैसे बिवेसिज़ुमेब और रिटक्सीमेब व अन्य एंटीबॉडीज़ काफी इस्तेमाल की जाती हैं। (इन दवाओं के नाम के अंत में मेब का मतलब है मोनोक्लोनल एंटीबॉडी।)

कैंसर उपचार के एक और नए तरीके में, कैंसर चिकित्सक रोगी के शरीर से कैंसर ऊतक को अलग करके आणविक जैव विश्लेषकों की मदद से कैंसर कोशिका के नियोएंटीजन की पहचान करते हैं। फिर प्रतिरक्षा विज्ञानियों की मदद से इन नियोएंटीजन के लिए एंटीबॉडी तैयार करते हैं, जिसे रोगी के शरीर में प्रवेश कराया जाता है ताकि कैंसर दोबारा ना उभर सके। इस मायने में यह वैक्सीन उपचार के लिए है, ना कि अन्य वैक्सीन (हैपेटाइटिस या खसरा वगैरह) की तरह रोकथाम के लिए। इस तरह के कुछ कैंसर वैक्सीन बाज़ार में उपलब्ध भी हो चुके हैं। जैसे ब्रोस्ट कैंसर के लिए HER-2, कैंसर के लिए रेवेंज और मेलोनेमा के लिए T-VEC

कैंसर उपचार में नोबेल

इस साल का चिकित्सा नोबेल पुरस्कार कैंसर उपचार के लिए मिला है। इस उपचार में जो तरीका अपनाया है वो इन तरीकों से अलग है। इसमें शोधकर्ताओं ने बीलिम्फोसाइट पर ध्यान देने की बजाय टीकोशिकाओं पर ध्यान दिया। टीकोशिकाएं ऐसे रसायन छोड़ती हैं जो हमलावर कोशिकाओं को खुदकुशी के लिए मजबूर करते हैं। इस प्रक्रिया को एपोप्टोसिस कहते हैं। प्रत्येक टीकोशिका की सतह पर पंजानुमा ग्राही होते हैं जो बाहरी या असामान्य एंटीजन के साथ जुड़ जाते हैं। मगर इसके लिए इन्हें एक प्रोटीन द्वारा सक्रिय करने की ज़रूरत होती है। साथ ही कुछ अन्य प्रोटीन भी होते हैं जो टीकोशिकाओं द्वारा सर्वनाश मचाने पर अंकुश रखते हैं। इन प्रोटीन को ब्रेकया चेक पाइंट प्रोटीनकहते हैं।

टेक्सास युनिवर्सिटी के एंडरसन कैंसर सेंटर के एमडी डॉ. जेम्स एलिसन ऐसे एक ब्रोक या चेक पॉइंट, CTLA-4, प्रोटीन पर साल 1990 से काम कर रहे थे। CTLA-4 प्रोटीन टीकोशिकाओं की प्रतिरक्षा प्रक्रिया को नियंत्रित करने का काम करता है। वे ऐसे प्रोटीन का पता लगाना चाहते थे जो CTLA-4 के इस अंकुश को हटा सके। 1994-95 तक उनके साथियों ने antiCTLA4 नामक एक ऐसे रसायन का पता लगा लिया जो कैंसर ग्रस्त चूहों को देने पर  ट्यूमर रोधी गतिविधी शुरू कर देता था और चूहों के कैंसर का इलाज कर देता था। नोबेल समिति के मुताबिक दवा कंपनियों की अनिच्छा के बावजूद, एलिसन ने इस तरीके पर काम जारी रखा। साल 2010 में उम्मीद के मुताबिक नतीजे मिले, जिसमें एक तरह के त्वचा कैंसर, मेलानोमा में रोगी में काफी सुधार दिखा। कई रोगियो में बचेखुचे कैंसर के संकेत भी गायब हो गए। ऐसे रोगियों में इससे पहले कभी इतना सुधार नहीं देखा गया था।

यहीं दूसरे नोबेल विजेता तासुकु होन्जो के काम का पदार्पण होता है। तासुकु होन्जो वर्तमान में क्योतो युनिवर्सिटी जापान में काम कर रहे हैं। उन्होंने एलिसन से भी पहले 1992 में यह पता लगा लिया था कि प्रोटीन पीडी-1, टीकोशिकाओं की सतह पर अभिव्यक्त होता है। लगातार इस पर काम करते रहने पर उन्होंने पाया कि पीडी-1 एक चेकपॉइंट प्रोटीन भी है। यदि हम इसे प्रविष्ट कराएं, तो टीकोशिकाएं ट्यूमररोधी गतिविधी शुरु कर देती हैं। इससे उन्होंने एंटीबॉडी anti-PD1 बनाई जिसे किसी भी तरह के कैंसर से ग्रस्त रोगी के शरीर में देने पर नतीजे काफी नाटकीय मिले। एलिसन और होन्जो, दोनों के ही तरीकों में उन्होंने ऐसे रसायन पहचाने जो ब्रोक या चेकपॉइंट को हटा देते हैं, और कैंसर रोधी गतिविधि को अंजाम देते हैं। उम्मीद के मुताबिक चेकपॉइंट अवरोधकों पर अब कई शोध किए जा रहे हैं। लगभग 1100 से ज़्यादा PD1से सम्बंधित ट्रायल किए जा रहे हैं। ट्यूमर के इलाज में आज इम्यूनोथेरपी काफी चर्चित और लोकप्रिय है। अगले 5 से 10 सालों में इससे कैंसर उपचार किए जाएंगे। एलिसन और होन्जो के काम से लगता है कि बीमारियों के शहंशाह का अंत नज़दीक है। (स्रोत फीचर्स)

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डेढ़ सौ साल जी सकते हैं मनुष्य – संध्या राय चौधरी

लंबी उम्र सभी चाहते हैं। महात्मा गांधी ने 125 साल तक जीने की कामना की थी। उनकी इस कामना के पीछे उनके अनगिनत उद्देश्य थे, जिन्हें वे जीते जी पूरा करना चाहते थे। अब औसत आयु लगातार बढ़ रही है और वैज्ञानिक भी उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को धीमा करने के प्रयास में जुटे हैं। विज्ञान की एक नई शाखा के तौर पर उभरा है जरा विज्ञान यानी जेरोंटोलॉजी। इसके तहत करोड़ों डॉलर खर्च कर ऐसे जीन तलाशे जा रहे हैं, जो उम्र को नियंत्रित करते हैं।

वैज्ञानिकों ने एज-1, एज-2, क्लोफ-2 जैसे जींस का पता भी लगा लिया है। वैज्ञानिकों ने युवा और अधेड़ लोगों के लाखों जीनोम को स्कैन कर पता लगाने की कोशिश की है कि शरीर पर कब उम्र का असर दिखने लगता है। सेल्फिश जीन किताब के लेखक ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रिचर्ड डॉकिंस कहते हैं कि 2050 तक उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को धीमा करने का सूत्र हमारे पास होगा। स्टेम सेल, दी ह्यूमन बॉडी शॉप और जीन थेरपी के ज़रिए इंसान की उम्र को 150 साल से भी अधिक बढ़ाना संभव होगा। एस्टेलास ग्लोबल रीजनरेटिव मेडिसिन के अमेरिकी वैज्ञानिक रॉबर्ट लेंज़ा भी ऐसा मानने वालों में से हैं।        

अपना देश आयुष्मान भव, चिरंजीवी भव, जीते रहो जैसे आशीर्वादों से भरा पड़ा है। पता नहीं ऐसे आशीर्वादों के कारण या किसी और कारण से औसत आयु लगातार बढ़ रही है। 1990 में दुनिया की औसत आयु 65.33 साल थी जो आज बढ़कर 71.5 साल हो गई है। इस दौरान पुरुषों की औसत आयु 5.8 जबकि महिलाओं की 6.6 साल बढ़ी। जब औसत आयु बढ़ रही है तो  100 पार लोगों की संख्या भी बढ़ रही है। शतायु होना अब अपवाद नहीं है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट की मानें तो भारत में 12 हज़ार से अधिक ऐसे लोग हैं जिनकी उम्र 100 के पार है और 2050 तक ऐसे लोगों की तादाद छह लाख तक हो जाएगी। जापान इस मोर्चे पर दुनिया का सबसे अव्वल देश है। वहां के गांवों में दोचार शतायु लोगों का मिलना आम बात है। जापान के सरकारी स्वास्थ्य विभाग के मुताबिक 2014 में 58,820 लोग 100 से अधिक उम्र वाले थे। ऐसा नहीं कि जापान पहले से ही ऐसे बूढ़ों का देश रहा है। 1963 में जब वहां इस तरह की गणना शुरू हुई थी, केवल 153 लोग ही ऐसे मिले थे।

दुनिया भर में बढ़ रही औसत आयु और 100 पार के बूढ़ों की तादाद साफसाफ इशारा करती है कि जीवन प्रत्याशा के मोर्चे पर हम आगे बढ़ रहे हैं। इसका सर्वाधिक श्रेय जाता है स्वास्थ्य़ सुविधाओं में बढ़ोतरी और सेहत के प्रति लोगों की बढ़ती जागरूकता को। अभी अपने देश में पुरुषों की औसत उम्र 64 और महिलाओं की 68 वर्ष है। पिछले 40 सालों में पुरुषों और महिलाओं की औसत उम्र क्रमश: 15 18 साल बढ़ी है। जीवन प्रत्याशा को लेकर गौरतलब बात है कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं ज़्यादा साल तक जीती हैं। यह रुझान बना रहा तो 2050 तक 100 के पार जीने वालों में महिलापुरुष अनुपात 54:46 का होगा। यकीनन जीने के मोर्चे पर महिलाओं की जैविक क्षमता पुरुषों से अधिक है।

ढलती उम्र में सक्रियता

रिटायरमेंट की उम्र के बाद ज़्यादातर लोगों की शारीरिक क्षमता का ग्राफ तेज़ी से नीचे गिरता है। वैसे अब देखने को मिल रहा है कि रिटायरमेंट के बाद लोगों ने नए सिरे से खुद को किसी काम से जोड़ा। दरअसल रिटायर होने के बाद भी करीब 20-25 साल का जीवन लोगों के पास होता है। इस दौरान खुद को काम से जोड़े रखना जीवन के प्रति न्याय ही है। ऑस्ट्रेलिया जैसे देश ने तो बढ़ती उम्र की सक्रियता को समझकर मई 2014 में एक कानून पारित कर दिया जिसके मुताबिक 2035 से रिटायरमेंट की उम्र 70 साल हो जाएगी। वहां की सरकार बुज़ुर्गों को काम पर रखने के लिए प्रोत्साहन और आर्थिक लाभ देती है। भारत और चीन जैसे देश को अभी से इस दिशा में सोचना होगा, क्योंकि आज ये युवाओं के देश हैं, लेकिन 20-25 साल के बाद ये बूढ़ों के देश होंगे।

कुछ अनुमानित नुस्खे

उम्र को बढ़ाने वाले खाद्य पदार्थ पर अगर सबसे ज्यादा गंभीरता से रिसर्च हो रहा है तो वह है गेटो नामक पौधा। जापान के ओकिनावा क्षेत्र में सबसे ज़्यादा शतकवीर रहते हैं। यही इस रिसर्च का आधार बना है। ओकिनावा के रियूक्यूस विश्वविद्यालय में कृषि विज्ञान के प्रोफेसर शिंकिची तवाडा ने दक्षिणी जापान के लोगों की अधिक उम्र का राज़ एक खास पौधे गेटो (AlphiniaZerumbet) को बताया है। गहरे पीलेभूरे रंग के इस पौधे के अर्क से इंसान की उम्र 20 प्रतिशत तक बढ़ सकती है। तवाडा पिछले 20 साल से अदरक वंश के इस पौधे पर अध्ययन कर रहे हैं। तवाडा ने कीड़ों पर एक प्रयोग में पाया कि गेटो के अर्क की खुराक से उनकी उम्र 22 प्रतिशत बढ़ गई। बड़ी हरी पत्तियों, लाल फलों और सफेद फूलों वाला गेटो का पौधा सदियों से ओकिनावा के लोगों के भोजन का आधार रहा है। अन्य एंटी ऑक्सीडेंट की तुलना में गेटो ज़्यादा प्रभावी पाया गया। अब यह जानने की कोशिश की जा रही है कि क्या गेटो का प्रयोग दुनिया के अन्य हिस्सों के भिन्न परिस्थितियों के लोगों पर करने पर भी इसका परिणाम पहले जैसा रहेगा।

कहां सबसे अधिक बुज़ुर्ग

चीन के हैनान प्रांत के चेंगमाई गांव में दुनिया के सबसे ज्यादा बुज़ुर्ग रहते हैं। यहां 200 लोग ऐसे हैं जो उम्र का शतक लगा चुके हैं। यहां संतरों की खेती खूब होती है। गांव सामान्य गांवों से बड़ा है। यहां की 5,60,00 की आबादी में 200 लोगों ने पूरी सदी देखी है। यहां तीन सुपर बुज़ुर्ग भी हैं। सुपर बुज़ुर्ग यानी 110 वर्ष से अधिक उम्र वाले। दुनिया भर में ऐसे सिर्फ 400 लोग हैं। ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय मूल के पतिपत्नी ने अपनी शादी की 90वीं सालगिरह मनाई है। उनके आठ बच्चे, 27 पोतेपोतियां और 23 परपोतेपोतियां हैं। यह बुज़ुर्ग जोड़ा अपने सबसे छोटे बेटे पाल व उसकी पत्नी के साथ रहता है। पाल की मानें तो उनकी इतनी लंबी उम्र का प्रमुख राज़ तनाव मुक्त रहना है। वे कहते हैं कि मैंने उन्हें कभी बहस करते हुए नहीं देखा है। गौर करने वाली बात है कि वे दोनों खानेपीने की बंदिशों पर ज़्यादा ध्यान नहीं देते। वे हर चीज खाते हैं। बस मात्रा थोड़ी कम होती है। रेड वाइन पतिपत्नी ज़रूर रोज़ाना पीते हैं।

औसत उम्र के मामले में सबसे अव्वल देश के तौर पर जेहन में जापान का नाम आता है। लेकिन इससे भी आगे है मोनैको। यहां की औसत आयु 89.63 साल है। यहां के लोगों की सबसे खास बात यह है कि वे खानपान के प्रति लापरवाह नहीं होते और तनाव बिलकुल नहीं पालते। हरी सब्ज़ी, सूखे मेवे और रेड वाइन का सेवन यहां सबसे ज़्यादा होता है।

जापान में युवा से अधिक बुज़ुर्ग हैं। यहां की औसत आयु 85 के आसपास है। यहां मछली और खास तरह के कंद का सेवन बहुत ही आम है। तेल का प्रयोग बहुत कम है। स्टीम्ड फूड प्रचलन में है। ग्रीन टी के बिना जापानियों की सुबह नहीं होती। रेड मीट, मक्खन, डेयरी उत्पाद के सेवन से बचते हैं।

सिंगापुर दुनिया के सबसे बड़े पर्यटन स्थलों में से है। पर्यटक वहां की चमक दमक देख दंग रह जाते हैं। वहां का खानपान और ज़िंदादिली और पर्यावरणीय चिंता भी ध्यान देने लायक है। वहां के लोग स्वच्छ और स्वस्थ रहने में विश्वास करते हैं। तनावमुक्त जीवन और अच्छे खानपान के कारण ही यहां के लोगों की औसत आयु 84.07 साल है।

फ्रांस के लोग बहुत तंदुरुस्त होते हैं, औसत आयु 81.56 साल है। यहां के लोग कम मात्रा में रेड वाइन का सेवन करते हैं जो कथित रूप से दिल के लिए अच्छी होती है। साथ ही यहां के लोग नियमित रूप से पैदल चलते हैं और तनाव से दूर रहते हैं। इस फैशनपरस्त देश के लोगों की ज़िंदादिली भी मशहूर है। इटली की तरह यहां के आहार में भी ऑलिव ऑयल का भरपूर प्रयोग होता है। (स्रोत फीचर्स)

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