सर्दियों में गर्म रखती नाक की हड्डियां

र्दियों का मौसम चल रहा है। ठंड से राहत के लिए हम तरह-तरह की व्यवस्थाएं करते हैं, जैसे चाय-कॉफी, गर्म कपड़े, अलाव वगैरह। लेकिन ठंडे क्षेत्रों में रहने वाले जीवों के लिए तो इस तरह के उपाय अपनाना संभव नहीं है। लेकिन बायोफिज़िकल जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन आर्कटिक में रहने वाली सील की ठंड से राहत पाने की एक नायाब व्यवस्था का उल्लेख करता है – सील की नाक की अनोखी हड्डियां तुलनात्मक रूप से उनके शरीर में अधिक गर्मी संरक्षित रखती हैं।

जब आर्कटिक की सील तेज़-तेज़ सांस खींचती-छोड़ती हैं तो फेफड़ों में पहुंचने के पहले बर्फीली नम हवा नासिका से घुसकर उनकी नाक की हड्डियों (मैक्सिलोटर्बिनेट्स) से गुज़रती है। इन सर्पिलाकार छिद्रमय हड्डियों पर श्लेष्मा ऊतकों का अस्तर होता है, जो सील के सांस लेने पर गर्मी को कैद कर लेता है और हवा से नमी सोख लेता है।

सील की नाक की इस क्षमता को परखने के लिए शोधकर्ताओं ने आर्कटिक क्षेत्र की रहवासी दाढ़ीधारी सील (Erignathus barbatus) और उपोष्णकटिबंधीय भूमध्यसागरीय क्षेत्रों की रहवासी बैरागी सील (Monachus monachus) की नाकों का सीटी स्कैन किया और उनके मैक्सिलोटर्बिनेट का त्रिआयामी मॉडल बनाया। फिर इसे उन्होंने भीषण ठंड (शून्य से 30 डिग्री सेल्सियस नीचे) और हल्की ठंड (10 डिग्री सेल्सियस) की स्थितियों में परखा। पता चला कि आर्कटिक सील की नाक दोनों परिस्थितियों में अधिक गर्मी और नमी को संरक्षित रखती है।

दाढ़ीवाली सील की नाक का सीटी स्कैन

उपोष्णकटिबंधीय सील की तुलना में आर्कटिक सील हर सांस पर 23 प्रतिशत कम ऊर्जा खर्चती है, जिससे वे शरीर में अधिक गर्मी बरकरार रख पाती हैं। और वे सांस के साथ खींची गई नमी का 94 प्रतिशत हिस्सा भी शरीर में रोक लेती हैं। कई अन्य समुद्री स्तनधारियों की तरह सील भी अधिकांश पानी भोजन से हासिल करती हैं। शरीर की नमी का संरक्षण करके वे बेहतर हाइड्रेटेड रहती हैं।

शोधकर्ताओं के अनुसार आर्कटिक सील में यह नैसर्गिक नमीकरण व्यवस्था नाक की हड्डियों की दांतेदार बनावट के चलते बढ़ी हुई सतह के कारण है। जब भी सील सांस छोड़ती हैं तो उनकी वक्राकार हड्डियां अपनी ऊबड़-खाबड़ संरचना में अधिकाधिक नमी कैद कर लेती हैं और उसे सोख लेती हैं। नतीजतन सील ठंड में चैन से सांस ले पाती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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छोटी नदियों को बचाने के सार्थक प्रयास – भारत डोगरा

विभिन्न कारणों से कई छोटी नदियों में पानी बहुत कम हो गया है और यदि उनकी स्थिति ऐसे ही बिगड़ती रही तो वे लुप्त हो जाएंगी। अत: समय रहते उन्हें नया जीवन देने का प्रयास करना चाहिए। ऐसा ही एक प्रयास हाल ही में झांसी जिले में कनेरा नदी के मामले में किया गया। यह प्रशासन, पंचायतों व सामाजिक कार्यकर्ताओं का परस्पर सहयोगी प्रयास था जिसमें परमार्थ संस्था ने उल्लेखनीय योगदान दिया। यह संस्था बबीना ब्लाक के सरवा, भारदा, खरदा बुज़ुर्ग, पथरवाड़ा, दरपालपुर आदि गांवों में जल संरक्षण के लिए जागरूकता बढ़ाती रही है और विशेषकर महिलाओं ने ‘जल-सखी’ के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

यहां कनेरा नदी लगभग 19 कि.मी. तक बहती है जो आगे चलकर घुरारी नदी में मिलती है, और घुरारी आगे बेतवा में मिलती है। लगभग 20 वर्ष पहले कनेरा नदी में भरपूर पानी था, लेकिन धीरे-धीरे यह कम होता गया। हाल ही में इतना कम हो गया कि गांवों के भूजल-स्तर, सिंचाई, फसलों के उत्पादन आदि पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ा।

इस स्थिति में पिस्ता देवी, पुष्पा देवी आदि जल-सखियों ने व परमार्थ संस्था के कार्यकर्ताओं ने लोगों को नदी को नया जीवन के प्रयासों के लिए जागृत किया। साथ ही में प्रशासन से व विशेषकर ज़िलाधिकारी से उत्साहवर्धक प्रोत्साहन भी प्राप्त हुआ। परिणामस्वरूप, नदी के बड़े क्षेत्र में गाद-मिट्टी हटाने का कार्य किया गया जिससे नदी की जल ग्रहण क्षमता बढ़ी। इस पर दो चेक डैम बनाए गए व आसपास बड़े स्तर पर वृक्षारोपण हुआ है। सरवा गांव के प्रधान ने बताया कि यदि पिचिंग का कार्य तथा एक और चेक डैम का कार्य हो जाए तो नदी की स्थिति बेहतर हो सकती है। वैसे अभी तक किए गए कार्य की बदौलत पहले की अपेक्षा कहीं अधिक किसान नदी से सिंचाई प्राप्त कर रहे हैं; नदियों में मछलियों के पनपने की स्थिति पहले से कहीं बेहतर हो गई है; नदी में पानी अधिक होने से लगभग पांच गांवों के जल-स्तर में सुधार हुआ है; कुंओं में भी अब अधिक जल उपलब्ध है और पशुओं को अब वर्ष भर नदी के पानी से अपनी प्यास बुझाने का अवसर मिलता है। इसके अतिरिक्त आगे बहने वाली घुरारी नदी से अतिरिक्त मिट्टी-गाद हटा कर सफाई की गई है।

बरूआ नदी तालबेहट प्रखंड (ललितपुर जिला, उत्तर प्रदेश) में 16 कि.मी. तक बहती है और आगे जामनी नदी में मिलती है। इस पर पहले बना चेक डैम टूट-फूट गया था व खनन माफिया ने अधिक बालू निकालकर भी इस नदी की बहुत क्षति की थी। इस स्थिति में इसकी रक्षा हेतु समिति का गठन हुआ। नया चेक डैम बनाने के पर्याप्त संसाधन न होने के कारण यहां रेत भरी बोरियों का चेक डैम बनाने का निर्णय लिया गया।

लगभग 5000 बोरियां परमार्थ ने उपलब्ध करवाई। इन्हें गांववासियों, विशेषकर विजयपुरा की महिलाओं, ने रेत से भरा व नदी तक ले गए और वहां विशेष तरह से जमाया। इस तरह बिना किसी मज़दूरी या बड़े बजट के अपनी मेहनत के बल पर बोरियों का चेकडैम बनाया गया। इससे सैकड़ों किसानों को बेहतर सिंचाई प्राप्त हुई। जल-स्तर भी बढ़ा। गांववासियों व विशेषकर महिलाओं ने खनन माफिया के विरुद्ध कार्यवाही के लिए प्रशासन से संपर्क किया व प्रशासन ने इस बारे में कार्यवाही भी की। आपसी सहयोग से नदी के आसपास हज़ारों पेड़ लगाए गए। नदी में गंदगी या कूड़ा डालने के विरुद्ध अभियान चलाया गया। नदी पर एक घाट भी बनाया गया।

हाल के जल-संरक्षण कार्यों से टीकमगढ़ ज़िले (मध्य प्रदेश) के मोहनगढ़ ब्लॉक की बरगी नदी को नया जीवन मिला है। इन्हें आगे ले जाने में परमार्थ संस्था व उससे जुड़ी जल-सहेलियों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। ऐसे कुछ जल-संरक्षण कार्य नाबार्ड की एक वाटरशेड परियोजना के अंतर्गत किए गए जिससे यहां नदी-नालों के बेहतर बहाव में भी सहायता मिली। इसके लिए नए निर्माण कार्य भी हुए व पुराने क्षतिग्रस्त कार्यों (जैसे चैक डैम आदि) की मरम्मत भी की गई।

इसी प्रकार से छतरपुर ज़िले (मध्य प्रदेश) में बछेड़ी नदी के पुनर्जीवन के भी कुछ उल्लेखनीय प्रयास हाल के समय में हुए हैं जिनमें स्थानीय प्रशासन, परमार्थ संस्था और पंचायत का सहयोग देखा गया। चेक डैमों की मरम्मत हुई, नए चेक डैम बनाए गए व वृक्षारोपण भी किया गया।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आंखों का संक्रमण: दृष्टि की सुरक्षा कैसे करें – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

दुनिया भर के लगभग साढ़े तेरह करोड़ लोगों की नज़र कमज़ोर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का कहना है कि इसमें से 80 प्रतिशत मामलों को या तो थामा जा सकता है या ठीक किया जा सकता है। इसलिए WHO ने इंटरनेशनल एजेंसी फॉर प्रिवेंशन ऑफ ब्लाइंडनेस (IAPB) के साथ ‘विज़न 2020: दृष्टि का अधिकार’ नामक कार्यक्रम चलाया है।

भारत में 13 लाख लोग जन्मांध हैं और 76 लाख लोग ऐसे दृष्टि दोषों से पीड़ित हैं जिनका आसानी से इलाज किया जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों और कस्बों में दृष्टि केंद्र स्थापित कर, सक्षम नेत्र रोग विशेषज्ञों और साधन-सुविधाओं से लैस नेत्र चिकित्सालय खोलकर इन पीड़ितों को दृष्टि का अधिकार मिल सकता है। और वास्तव में, पूरे देश में दृष्टि केंद्र और नेत्र चिकित्सालय खोले भी जा रहे हैं। इसके अलावा, कुछ विश्व स्तरीय अत्याधुनिक नेत्र संस्थान सक्रिय रूप से विज़न 2020 पर काम कर रहे हैं, और ऐसा लगता है कि यह हासिल हो सकता है – पश्यंतु सर्वेजना: यानी सभी देख सकें।

हैदराबाद स्थित एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट (LVPEI), जहां मैं काम करता हूं, प्रतिदिन औसतन लगभग 1200 रोगियों को देखता है। इनमें से लगभग 100 रोगियों की आंखें बैक्टीरिया, फफूंद या वायरस से संक्रमित होती हैं। मेरी सहकर्मी डॉ. सावित्री शर्मा ने पूर्व में भारत में इस तरह के संक्रमणों की समीक्षा की थी। डॉ. शर्मा विश्व स्तर पर ऑक्यूलर माइक्रोबायोम (नेत्र सूक्ष्मजीव संसार) की विशेषज्ञ के तौर पर मशहूर हैं।

माइक्रोबायोम क्या है?

जीनोम से आशय होता है किसी कोशिका में उपस्थित डीएनए सूचनाओं का समूचा समुच्चय। मनुष्य की कोशिकाओं में यह 23 जोड़ी गुणसूत्रों के रूप में होता है। बायोम (जैव संसार) किसी स्थान पर मौजूद प्रजातियों का जगत होता है। ऑक्यूलर माइक्रोबायोम (या नेत्र सूक्ष्मजीव संसार) से तात्पर्य आंख में रहने या बसने वाले सूक्ष्मजीवों (बैक्टीरिया, फफूंद और वायरस) से है। एक स्वस्थ नेत्र के सूक्ष्मजीव संसार में सूक्ष्मजीव एक सुरक्षा दीवार की तरह काम करते हैं जो हानिकारक रोगजनकों के हमले से आंखों को महफूज़ रखते हैं।

स्वस्थ नेत्रों से तुलना करें तो फंगल केराटाइटिस जैसे संक्रामक रोगों से संक्रमित नेत्रों के कंजंक्टाइवा और कॉर्निया में नेत्र सूक्ष्मजीव संसार काफी अलग होता है। कंजंक्टाइवा आंख की सुरक्षा करने वाली पतली, पारदर्शी झिल्ली को कहते हैं, और कॉर्निया आंख की सबसे बाहरी पारदर्शी परत होती है जो प्रकाश को फोकस करने और अपवर्तन में मदद करती है।

भारत में स्थिति

वर्ष 2005 में भारत की जनसंख्या 115 करोड़ थी और वर्तमान में यह 140 करोड़ है। जनसंख्या में इतनी वृद्धि के बावजूद, भारत के ग्रामीण इलाकों में स्थापित नेत्र देखभाल केंद्रों, कस्बों और शहरों में अधिक नेत्र रोग विशेषज्ञों और शहरों में नेत्र अनुसंधान संस्थानों ने भारत को विज़न 2020: दृष्टि का अधिकार का समर्थक बनाने में मदद की है। लेकिन, देश भर में अत्यधिक धूलयुक्त वायु प्रदूषण के मौजूदा स्तर ने कई लोगों को ‘आंख आना’ (कंजंक्टिवाइटिस), आंख में खुजली और सूजन, और लेंस प्रभावित होने पर नज़र के धुंधलेपन से पीड़ित कर दिया है, और कई लोग तेज़ रोशनी के प्रति संवेदनशील हो गए हैं।

इससे कैसे निपटा जाए? अमेरिका में क्लीवलैंड क्लीनिक ने इससे निपटने के कई तरीके सुझाए हैं – आंखों को राहत देने के लिए उन पर भीगा, गर्म या ठंडा रुमाल रखें; सुरक्षात्मक चश्मा पहनें; यदि आप कॉन्टैक्ट लेंस लगाते हैं, तो उन्हें साफ रखें; अपने नेत्र चिकित्सक से संपर्क करें और उनसे उचित मलहम या दवा की सलाह लें। (स्रोत फीचर्स)

इस लेख पर सलाह और सहयोग के लिए मैं डॉ. शिवाजी को धन्यवाद देता हूं।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गर्माती धरती पर पक्षियों के पैर लंबे होने की संभावना

क्षियों के रोएंदार पंख उनके शरीर की ऊष्मा बिखरने नहीं देते और उन्हें गर्म बनाए रखते हैं। दूसरी ओर, चोंच उन्हें ठंडा रखती है, जब शरीर बहुत अधिक गर्म हो जाता है तो चोंच से ही ऊष्मा बाहर निकालती है। लेकिन जब ज़्यादा संवेदी ताप नियंत्रक (thermostat) की ज़रूरत होती है, तो वे अपनी टांगों से काम लेते हैं।

ऑस्ट्रेलिया में चौदह पक्षी प्रजातियों पर किए गए अध्ययन में पता चला है कि पक्षी अपने पैरों में रक्त प्रवाह को कम-ज़्यादा करके शरीर की गर्मी को कम-ज़्यादा बिखेर सकते हैं।

पक्षियों के शीतलक यानी उनकी चोंच और पैर में बेशुमार रक्तवाहिकाएं होती हैं और ये कुचालक पंखों से ढंकी नहीं होती हैं। इससे उन्हें गर्मी बढ़ने पर शरीर का तापमान कम करने में मदद मिलती है। इसलिए तोतों और उष्णकटिबंधीय जलवायु में रहने वाले अन्य पक्षियों की चोंच बड़ी और टांगें लंबी होती हैं।

लेकिन पक्षियों में ताप नियंत्रण से जुड़ी अधिकतर जानकारी प्रयोगशाला अध्ययनों पर आधारित थीं। सवाल था कि क्या प्राकृतिक परिस्थिति में यही बात लागू होती है? इसे जानने के लिए डीकिन विश्वविद्यालय की वैकासिक पारिस्थितिकीविद एलेक्ज़ेंड्रा मैकक्वीन ने प्राकृतिक आवासों में पक्षियों की ऊष्मीय तस्वीरें लीं।

ऊष्मा (अवरक्त) कैमरे की मदद से उन्होंने ऑस्ट्रेलियाई वुड डक (Chenonetta jubata), बनफ्शी कीचमुर्गी (Porphyrio porphyrio), और बेमिसाल परी-पिद्दी (Malurus cyaneus) सहित कई पक्षी प्रजातियों की तस्वीरें लीं। तुलना के लिए उन्होंने हवा की गति, तापमान, आर्द्रता और सौर विकिरण भी मापा ताकि पक्षियों के शरीर की बाहरी सतह के तापमान की गणना कर सकें।

गर्मियों में, जब बाहर का तापमान 40 डिग्री सेल्सियस तक होता है तो पक्षी शरीर की अतिरिक्त गर्मी को निकालने के लिए अपनी चोंच और टांगों दोनों का उपयोग करते हैं। सर्दियों में, जब बाहर का तापमान कम होता है, कभी-कभी 2.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, तो पक्षियों की चोंच तो गर्मी छोड़ती रहती है लेकिन उनकी टांगें ऊष्मा बिखेरना बंद कर देती हैं – उनके पैर ठंडे थे यानी उन्होंने पैरों में रक्त प्रवाह रोक (या बहुत कम कर) दिया था ताकि ऊष्मा का ह्रास कम रहे।

बायोलॉजी लैटर्स में प्रकाशित ये निष्कर्ष ठीक ही लगते हैं, क्योंकि पक्षियों का अपनी चोंच की रक्त वाहिकाओं पर नियंत्रण कम होता है क्योंकि चोंच उनके मस्तिष्क के करीब होती है जहां निरंतर रक्त प्रवाह ज़रूरी है।

बहरहाल इस अध्ययन से यह समझने में मदद मिलती है कि ठंडी जलवायु में रहने वाले पक्षियों की चोंच छोटी क्यों होती है। साथ ही अनुमान है कि जैसे-जैसे वैश्विक तापमान बढ़ता जाएगा और पृथ्वी गर्म होती जाएगी तो संभव है कि वर्ष में बहुत अलग-अलग तापमान झेल रही पक्षी प्रजातियों की टांगें लंबी होती जाएंगी, जिनके रक्त प्रवाह और ऊष्मा के संतुलन पर पक्षी का अधिक नियंत्रण होता है।

फिलहाल उम्मीद है कि इस तरह के और भी अध्ययनों से यह बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलेगी कि दुनिया भर के पक्षी जलवायु परिवर्तन से कैसे निपटेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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गार्टर सांप दोस्तियां करते हैं

सांपों के बारे में प्राय: माना जाता है कि वे समूह में नहीं रहते वरन अकेले यहां-वहां सरसराते रहते हैं। लेकिन हाल ही में बिहेवियोरल इकॉलॉजी में प्रकाशित अध्ययन इस मान्यता का खण्डन करता है और बताता है कि गार्टर सांप (Thamnophis butleri) समूह बनाते हैं। इस समूह में वे ‘लोग’ शामिल होते हैं जिनके साथ उनकी मित्रता होती है या जिनका साहचर्य वे पसंद करते हैं। समूह की मुखिया कोई बुज़ुर्ग मादा होती है जो उस समूह के युवा सांपों का मार्गदर्शन करती है।

आम लोगों के अलावा पारिस्थितिकी विज्ञानियों को भी काफी समय तक यही लगता था कि सांप असामाजिक और एकाकी जंतु होते हैं और केवल संभोग और शीतनिद्रा के समय ही साथ आते हैं। इसका एक कारण यह हो सकता है कि उन पर अध्ययन ही बहुत कम हुए हैं क्योंकि वे बिलों में या छिपे हुए रहते हैं और उन्हें ढूंढना मुश्किल होता है। लेकिन वर्ष 2020 में, विल्फ्रिड लॉरियर विश्वविद्यालय के व्यवहार पारिस्थितिकीविद मॉर्गन स्किनर और उनके दल ने प्रयोगशाला अध्ययनों में देखा कि कृत्रिम आवासों में रखे गए गार्टर सांप ‘मित्र’ बनाते हैं – उनके ऐसे साथी होते हैं जिनका साहचर्य वे अन्य की तुलना में अधिक पसंद करते हैं।

इसके पहले 2009 में, कनाडा के ओंटारियो परिवहन मंत्रालय ने गार्टर सांपों की सुरक्षा के लिए एक अध्ययन करवाया था। इसमें वैज्ञानिकों ने उनके बिलों पर नज़र रखी और उन्हें सड़क निर्माण से सुरक्षित रखने के लिए अन्यत्र स्थानांतरित किया। उन्होंने 250 हैक्टर में फैले अध्ययन क्षेत्र में सांपों को पकड़ा, उन पर पहचान चिह्न लगाए और 3000 से अधिक सांपों पर 12 साल तक नज़र रखी। सांप की पूरी उम्र लगभग इतनी ही होती है। लेकिन निगरानी का मुख्य फोकस यह सुनिश्चित करना था कि स्थानांतरण के बाद गार्टर सांप ठीक से फल-फूल रहे हैं या नहीं।

हालिया अध्ययन में स्किनर इन वैज्ञानिकों के साथ जुड़े और 12 वर्षों में उनके द्वारा जुटाए गए डैटा से सांपों की सामाजिक संरचना या जुड़ाव समझने की कोशिश की। सामाजिक जुड़ाव उन्होंने मनुष्यों की नज़र से ही देखा। उन्होंने प्रत्येक सांप को एक बिन्दु या नोड कहा। और जब दो सांपों को एक ही दिन, एक ही स्थान पर देखा गया तो उन्होंने उन दो बिंदुओं को एक रेखा से जोड़ दिया। डैटा का निष्कर्ष है कि सांप स्वतंत्र रूप से और बेतरतीब ढंग से यहां-वहां भटकने की बजाय ‘समूह’ बनाते हैं। इस समूह में वे सदस्य होते हैं जिनका साथ वे पसंद करते हैं और इस तरह के एक समूह में औसतन तीन से चार सांप होते हैं। लेकिन कुछ मामलों में सदस्यों की संख्या 46 तक भी हो सकती है।

यह भी देखा गया कि मादा सांप नर की तुलना में अधिक मिलनसार होती हैं, और सबसे अधिक बुज़ुर्ग मादा सांप दोस्तों के साथ दिखती हैं। इसके अलावा वे ही समूह की मुखिया भी होती हैं, और समूह के युवा सदस्य उनका अनुसरण करते हैं। यह भी देखा गया कि उम्र बढ़ने के साथ नर सांप अधिक असामाजिक होते जाते हैं।

यह भी पता चला है कि सांप समान लिंग और हम-उम्र सांपों के साथ भी मेल-जोल रखते हैं। यानी यह मेलजोल सिर्फ संभोग के उद्देश्य से नहीं होता। इसके अलावा, नर और मादा दोनों में ही यह देखा गया है कि जो भी सांप अधिक सामाजिक था वह अधिक स्वस्थ था; लगता है कि दोस्तियां करने से उन्हें फायदा होता है।

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि समूह में होने से शिकारियों से बचा जा सकता है, या भोजन और शीतनिद्रा के लिए अच्छे स्थान ढूंढने में मदद मिल सकती है। या यह भी हो सकता है कि दोस्तों के करीब घूमने से उन्हें गर्माहट मिलती हो।

अब तक सांप-समाजों में मादाओं का महत्व उपेक्षित था। माना जाता है कि नर संभोग के लिए मादाओं की तलाश में रहते हैं, लेकिन मादाएं बच्चे पैदा करने के अलावा कुछ नहीं करतीं। अध्ययन इसे स्पष्ट रूप से गलत सिद्ध करता है, और बच्चों और युवा सांपों के मार्गदर्शन और सुरक्षा में मादाओं की भूमिका उजागर करता है।

यह अध्ययन यह समझने कि दिशा में एक महत्वपूर्ण पहला कदम है कि प्राकृतिक परिस्थितियों में सांपों का समूह कैसे बनता है। स्किनर का मत है कि यदि पारिस्थितिकीविद अपने पूर्व फील्ड नोट्स या अध्ययनों पर दोबारा गौर करेंगे तो सांपों पर ऐसे और भी अध्ययन संभव हो सकेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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शनि के चंद्रमा पर जीवन की संभावना के प्रमाण

हाल ही में शनि के बर्फीले उपग्रह एन्सेलेडस के बारे में वैज्ञानिकों ने जीवन की उपस्थिति के संकेत दिए हैं। नेचर एस्ट्रोनॉमी में प्रकाशित एक अभूतपूर्व अध्ययन में एन्सेलेडस पर उपस्थित ऐसे रसायनों की उपस्थित का खुलासा किया गया है जो जीवन के लिए आवश्यक हैं। 

गौरतलब है कि बर्फीली परत से घिरे इस उपग्रह की सतह पर उपस्थित दरारों से पानी के फव्वारे छूटते रहते हैं। इसलिए लंबे समय से यह वैज्ञानिक आकर्षण का केंद्र रहा है। उपग्रह का अध्ययन करने के लिए भेजे गए अंतरिक्ष यान कैसिनी ने 2000 के दशक के मध्य में इन फव्वारों के पानी में कार्बन डाईऑक्साइड तथा अमोनिया जैसे अणुओं की पहचान की जो पृथ्वी पर जीवन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।

इस दिशा में बढ़ते हुए हारवर्ड विश्वविद्यालय और नासा की जेट प्रपल्शन प्रयोगशाला के जोनाह पीटर के नेतृत्व में एक टीम ने कैसिनी के डैटा का गहन विश्लेषण शुरू किया। जटिल सांख्यिकीय तरीकों की मदद से उन्होंने एन्सेलेडस से निकलने वाले फव्वारों के भीतर कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, अमोनिया और आणविक हाइड्रोजन के अलावा हाइड्रोजन सायनाइड, ईथेन तथा मिथेनॉल जैसे आंशिक रूप से ऑक्सीकृत पदार्थ पाए। और इन सबकी खोज सांख्यिकीय विधियों से हो पाई है। कैसिनी मिशन में शामिल ग्रह वैज्ञानिक मिशेल ब्लैंक ने इस खोज को अभूतपूर्व बताया है और शनि के छोटे उपग्रहों की रासायनिक गतिविधियों का अधिक अध्ययन करने का सुझाव दिया है।

गौरतलब है कि नए खोजे गए यौगिक सूक्ष्मजीवी जीवन के बिल्डिंग ब्लॉक्स और संभावित जीवन की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण हैं। विशेष रूप से हाइड्रोजन सायनाइड है, जो नाभिकीय क्षारों और अमीनो एसिड का एक महत्वपूर्ण घटक है। शोधकर्ताओं की विशेष रुचि जीवन-क्षम अणुओं के निर्माण की दृष्टि से एन्सेलेडस के पर्यावरण को समझने की है। सिमुलेशन से पता चला है कि जीवन की उत्पत्ति के लिए महत्वपूर्ण कई अणु एन्सेलेडस पर बन सकते थे और आज भी बन रहे होंगे।

इसके अलावा, एन्सेलेडस से निकलते फव्वारों का विविध रासायनिक संघटन ऑक्सीकरण-अवकरण अभिक्रिया की संभावना दर्शाता है जो जीवन के बुनियादी घटकों के संश्लेषण की एक निर्णायक प्रक्रिया है। यह पृथ्वी पर ऑक्सी-श्वसन और प्रकाश संश्लेषण जैसी प्रक्रियाओं को बनाए रखने का काम करती है।

अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या वास्तव में ऐसा होता होगा, लेकिन इसके निहितार्थ काफी महत्वपूर्ण हैं। बहरहाल यह खोज न केवल एन्सेलेडस के बारे में जिज्ञासा उत्पन्न करती है, बल्कि बृहस्पति ग्रह के चंद्रमा युरोपा जैसे समान समुद्री दुनिया की छानबीन के लिए भी प्रेरित करती है। आगामी युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी का जूपिटर आइसी मून्स एक्सप्लोरर (जूस) मिशन यही करने जा रहा है।

बड़े अणुओं का अध्ययन करने में सक्षम उपकरणों से लैस वैज्ञानिक एन्सेलेडस की रासायनिक विविधता को उजागर करके देख पाएंगे कि वहां जीवन के योग्य परिस्थितियां हैं या नहीं। (स्रोत फीचर्स)

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ओज़ोन-अनुकूल शीतलक इतने भी सुरक्षित नहीं

र्यावरण अनुकूल रेफ्रिजरेंट की खोज में हाइड्रोफ्लोरोओलीफिन्स (एचएफओ) एक बेहतरीन विकल्प माना जाता है। इसे ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को कम करने तथा ओज़ोन परत ह्रास के समाधान के रूप में भी काफी प्रोत्साहन मिला था। लेकिन अब, अध्ययनों में इस विकल्प के कुछ चिंताजनक पहलू सामने आए हैं।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित अध्ययन में शोधकर्ताओं ने एचएफओ के कुछ प्रकारों को फ्लोरोफॉर्म गैस बनाने का दोषी पाया है। यह गैस ग्लोबल वार्मिंग के लिहाज़ से कार्बन डाईऑक्साइड से 14,800 गुना अधिक खतरनाक है। गौरतलब है कि एचएफओ को वायुमंडल में तेज़ी से नष्ट होने और पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिए बनाया गया था।

शोधकर्ताओं ने नियंत्रित वातावरण में पांच अलग-अलग एचएफओ का परीक्षण किया। चैम्बर में दो दिनों तक ओज़ोन से इनकी क्रिया कराने के बाद टीम ने परिणामी गैसों का विश्लेषण किया। मालूम हुआ कि ओज़ोन से क्रिया करके पांच में से तीन एचएफओ ने अल्प मात्रा में फ्लोरोफॉर्म बनाया था।

इस अध्ययन के आधार पर शोधकर्ताओं ने एक वायुमंडलीय मॉडल निर्मित किया। संभवत: अधिकांश एचएफओ अणु ऑक्सीडेंट यौगिकों के साथ प्रतिक्रिया करके नष्ट हो जाएंगे। अलबत्ता, इनका कुछ हिस्सा ओज़ोन के साथ जुड़ जाता है (लगभग 0.13 से 2.96 प्रतिशत)जिसके अवांछित पर्यावरणीय परिणाम होंगे। इतनी कम अभिक्रिया का कारण यह है कि समताप मंडल में ओज़ोन की सांद्रता ही कम है।

यह शोध बताता है कि पर्यावरण में किसी भी पदार्थ को छोड़ने से पहले व्यापक आकलन की आवश्यकता है।

इसके अलावा, कुछ एचएफओ वातावरण में ट्राइफ्लोरोएसिटिक एसिड जैसे हानिकारक पदार्थों में परिवर्तित हो सकते हैं। इसके चलते जल प्रदूषण की चिंता पैदा होती है। वैसे भी आने वाले दशक में युरोपीय संघ ने अधिकांश एचएफओ को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की योजना बनाई है। देखा जाए तो तकनीकी प्रगति और पारिस्थितिक संरक्षण के बीच एक नाज़ुक संतुलन बनाने के लिए सावधानीपूर्वक जांच और सक्रिय उपायों की आवश्यकता होगी। ‘ओज़ोन-हितैषी’ रेफ्रिजरेंट की खोज नवाचार और पर्यावरणीय प्रबंधन के बीच पर्याप्त संतुलन की मांग करता है। (स्रोत फीचर्स)

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बिल्लियों के चेहरे पर लगभग 300 भाव होते हैं

सा माना जाता है कि बिल्लियां सामाजिक जंतु नहीं हैं। लेकिन हाल ही में हुए अध्ययन में बिल्लियों में दोस्ती से लेकर गुस्से तक के 276 चेहरे के भाव देखे गए हैं। बिहेवियरल प्रोसेसेस में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार बिल्लियों में इन भावों के विकसित होने में 10,000 सालों से मनुष्य की संगत का हाथ है।

हो सकता है कि बिल्लियां एकान्तप्रिय और एकाकी प्राणि हों, लेकिन वे अक्सर घरों में या सड़क पर अन्य बिल्लियों के साथ खेलते भी देखी जाती हैं। कुछ जंगली बिल्लियां तो बड़ी-बड़ी कॉलोनियों में रहती हैं जिनकी आबादी हज़ारों में होती है।

बिल्लियों पर हुए अधिकतर अध्ययन उनके बीच के झगड़ों पर केंद्रित रहे हैं, लेकिन बिल्ली प्रेमी लॉरेन स्कॉट का ऐसा विचार था कि बिल्लियों में आक्रामकता के अलावा प्रेम और कूटनीति जैसे और भी भाव होंगे। वे जानना चाहती थीं कि बिल्लियां आपस में संवाद कैसे करती हैं।

तो, स्कॉट ने एक कैटकैफे का रुख किया। उन्होंने कैफे बंद होने के बाद बिल्लियों के चेहरे के भावों को वीडियो रिकॉर्ड किया; खास कर जब बिल्लियां अन्य बिल्लियों से किसी रूप में जुड़ रही होती थीं। फिर उन्होंने वैकासिक मनोवैज्ञानिक ब्रिटनी फ्लोर्कीविक्ज़ के साथ मिलकर बिल्लियों के चेहरे की मांसपेशियों की सभी हरकतों को कोड किया। कोडिंग में उन्होंने सांस लेने, चबाने, जम्हाई और ऐसी ही अन्य हरकतों को छोड़ दिया।

इस तरह उन्होंने बिल्लियों द्वारा प्रस्तुत चेहरे के कुल 276 अलग-अलग भावों को पहचाना। अब तक चेहरे के सर्वाधिक भाव (357) चिम्पैंज़ी में देखे गए हैं। देखा गया कि बिल्लियों का प्रत्येक भाव उनके चेहरे पर देखी गई 26 अद्वितीय हरकतों में से चार हरकतों का संयोजन था, ये हरकतें हैं – खुले होंठ, चौड़े या फैले जबड़े, फैली या संकुचित पुतलियां, पूरी या आधी झुकी पलकें, होंठों के कोने चढ़े (मंद मुस्कान जैसे), नाक चाटना, तनी हुईं या पीछे की ओर मुड़ी हुई मूंछें, और/या कानों की विभिन्न स्थितियां। तुलना के लिए देखें तो मनुष्यों के चेहरे की ऐसी 44 अद्वितीय हरकतें होती हैं, और कुत्तों के चेहरे की 27। वैसे ये अध्ययन जारी हैं कि हम भाव प्रदर्शन में कितनी अलग-अलग हरकतों का एक साथ इस्तेमाल करते हैं।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया है कि बिल्लियों की अधिकांश अभिव्यक्तियां स्पष्टत: या तो मैत्रीपूर्ण (45 प्रतिशत) थीं या आक्रामक (37 प्रतिशत)। शेष 18 प्रतिशत इतनी अस्पष्ट थीं कि वे दोनों श्रेणियों में आ सकती थीं।

यह अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि इन भंगिमाओं के ज़रिए बिल्लियां वास्तव में एक-दूसरे से क्या ‘कह’ रही थीं। इतना ज़रूर समझ आया कि दोस्ताना संवाद के दौरान बिल्लियां अपने कान और मूंछें दूसरी बिल्ली की ओर ले जाती हैं, और अमैत्रीपूर्ण संवाद के दौरान उन्हें उनसे दूर ले जाती हैं। सिकुड़ी हुई पुतलियां और होठों को चाटना भी मुकाबले  का संकेत है।

दिलचस्प बात यह है कि बिल्लियों की कुछ मित्रतापूर्ण भंगिमाएं मनुष्यों, कुत्तों, बंदरों और अन्य जानवरों की तरह होती हैं। यह इस बात का संकेत है कि शायद ये प्रजातियां ‘एक उभयनिष्ठ भावयुक्त चेहरा’ साझा कर रही हों।

बहरहाल शोधकर्ता जंगली बिल्ली कुल के अन्य सदस्यों के साथ अपने परिणामों की तुलना नहीं कर पाए हैं लेकिन वे जानते हैं कि घरेलू बिल्ली के सभी करीबी रिश्तेदार आक्रामक एकाकी जानवर हैं। इसलिए अनुमान तो यही है कि घरेलू बिल्लियों ने इस आक्रामक व्यवहार में से कुछ तो बरकरार रखा है, लेकिन मनुष्यों के बचे-खुचे खाने के इंतज़ार में मित्रवत अभिव्यक्ति शुरू की है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नेपाल में आंखों की रहस्यमयी बीमारी

नेपाल में, मानसून के मौसम की समाप्ति अक्सर नेत्र चिकित्सकों के लिए परेशानी का सबब बन जाती है। इस दौरान एक विचित्र नेत्र संक्रमण – सीज़नल हाइपरएक्यूट पैनुवाइटिस (शापू) – की शुरुआत होती है। यह मुख्य रूप से बच्चों को प्रभावित करती है। इसमें आम तौर पर बिना किसी दर्द के एक आंख लाल हो जाती है और नेत्रगोलक में दबाव कम हो जाता है। 24-48 घंटों के भीतर इलाज न किया जाए तो दृष्टि जा सकती है।

नेपाली शोधकर्ता इस रहस्यमय रोग की उत्पत्ति को समझने के प्रयास कर रहे हैं। इसके लिए पर्यावरण सर्वेक्षण, जीनोमिक अनुक्रमण और विशिष्ट रिपोर्टिंग प्रणाली स्थापित की गई है। लेकिन फंडिंग एक चुनौती बनी हुई है। और इस वर्ष शापू नए क्षेत्रों में सामने आई है। और लक्षणों की गंभीरता का पूर्वानुमान भी मुश्किल हो गया है।

शापू की जानकारी सबसे पहले 1979 में मिली थी और नेत्र रोग विशेषज्ञ मदन पी. उपाध्याय ने इसे यह नाम दिया था। उपाध्याय के अनुसार इस समस्या के मामले हर दो साल में ज़्यादा होते हैं। इसमें अक्सर नेत्रगोलक सिकुड़ जाता है और दृष्टि क्षीण हो जाती है। इसके इलाज में एंटीबायोटिक्स, स्टेरॉयड और अन्य औषधियों की नाकामी के चलते चिकित्सक एक प्रभावी समाधान खोजने में भिड़े हैं।

वर्ष 2021 तक हर साल शापू के केवल कुछ ही मामले दर्ज होते थे। लेकिन 2021 में 150 से अधिक मामले सामने आने से 2023 में बेहतर तैयारी की गई। एक समर्पित रिपोर्टिंग तंत्र ने देश भर में शापू के प्रसार को ट्रैक करने में मदद की। पता चला कि शापू काफी विस्तृत क्षेत्र में फैल चुकी है।

प्रयोगशाला में कल्चर के माध्यम से संक्रमण को पहचानने के परिणाम अनिर्णायक रहे हैं। कई रोगियों ने लक्षणों का अनुभव करने से पहले ‘सफेद पतंगे’ से संपर्क में आने का उल्लेख किया। पूर्व में किए गए एक सर्वेक्षण में भी शापू और तितलियों/सफेद पतंगों के संपर्क के बीच उल्लेखनीय सम्बंध पाया गया था।

इसके मद्देनज़र कीटविज्ञानी शापूग्रस्त ज़िलों का सर्वेक्षण कर रहे हैं और उन क्षेत्रों से डैटा एकत्र कर रहे हैं जहां पतंगों की विशेष उपस्थिति दर्ज की गई है। इन क्षेत्रों के तापमान, आर्द्रता, वनस्पति और ऊंचाई जैसे कारकों का भी अध्ययन किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त, जैव रासायनिक विश्लेषण की योजना है ताकि यह पता चल सके कि क्या कोई विशिष्ट कीट-विष आंख में समस्या पैदा कर रहा है।

शोधकर्ता संदिग्ध सूक्ष्मजीव की पहचान के लिए बैक्टीरिया और वायरस से आनुवंशिक सामग्री की जांच करने की योजना बना रहे हैं। इसमें प्रभावित और अप्रभावित आंखों के साथ-साथ परिवार के सदस्यों से नमूने एकत्र किए जा रहे हैं। इन प्रयासों से शापू को समझने में प्रगति तो हुई है लेकिन धन की कमी एक बड़ी चुनौती है।

चिंताजनक बात यह भी है इस वर्ष कुछ ऐसे रोगी भी सामने आए हैं जिनका सफेद पतंगों से कोई संपर्क नहीं रहा है। उम्मीद है कि जल्द ही रहस्यमयी बीमारी के स्रोत का पता लगाकर बच्चों की आंखों की रोशनी की रक्षा की जा सकेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शहदखोजी पक्षी स्थानीय लोगों की पुकार पहचानते हैं – अर्पिता व्यास

ब अफ्रीका के उत्तरी मोज़ाम्बिक के नियासा स्पेशल रिज़र्व में रहने वाले लोग मीठा खाने के लिए लालायित होते हैं तो वे स्विगी या ज़ोमाटो को नहीं बल्कि एक को पक्षी बुलाते हैं। ये शहद-मार्गदर्शक पक्षी उन्हें मधुमक्खी के छत्ते तक लेकर जाते हैं जहां से उन्हें शहद मिल जाता है और लगे हाथ पक्षी की भी दावत हो जाती है – स्वादिष्ट मोम और मधुमक्खी की इल्लियों की।

एक नए अध्ययन से पता चला है कि यह साझेदारी वैज्ञानिकों की सोच से कहीं अधिक जटिल है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि स्थानीय लोग इन पक्षियों को बुलाने के लिए अनोखी आवाज़ें निकालते हैं जो हर क्षेत्र में अलग-अलग होती हैं, और पक्षी अपने क्षेत्र की आवाज़ पहचान कर प्रतिक्रिया देते हैं। इस अध्ययन के आधार पर शोधकर्ताओं का मत है कि पक्षी और ये जनजातीय लोग एक-दूसरे की सांस्कृतिक परंपराओं को आकार देते हैं।

न्यू जर्सी टेक्नॉलॉजी की इथॉलॉजिस्ट जूलिया हाइलैंड ब्रुनो का कहना है कि यह अध्ययन बहुत सुंदर है, परिणाम स्पष्ट हैं और प्रयोग की डिज़ाइन भी सरल है। ऐसे केवल कुछ ही मामले दर्ज हैं जिनमें मनुष्य जंगली जीवों के साथ सहयोग करते हैं। उदाहरण के लिए भारत, म्यांमार और ब्राज़ील में लोग डॉल्फिन्स के साथ मिलकर मछली पकड़ते हैं। लेकिन अफ्रीका में शहद निकालने वाले लोगों और शहदखोजी पक्षियों के बीच यह रिश्ता उच्च स्तर का लगता है। यह छोटी चिड़िया (Indicator) मधुमक्खी के छत्ते ढूंढने और जगहों को पहचानने में माहिर है। कैंब्रिज विश्वविद्यालय के व्यवहार पारिस्थितिकी वैज्ञानिक क्लाइर स्पॉटिसवुड और उनके सहलेखकों का कहना है कि ये पक्षी छत्तों की जगह पहचानते हैं। मनुष्य पेड़ों के उन हिस्सों को काटकर खोल देते हैं और वहां धुआं कर देते है जिसके परिणामस्वरूप मधुमक्खियां छत्ता छोड़कर भाग जाती हैं। कई बार लोग पक्षियों के साथ छल करते हुए छत्ते के मोम को नष्ट कर देते हैं ताकि पक्षी नया घोंसला ढूंढने निकल पड़ें। ये पक्षी भी कभी-कभी लोगों को छत्ता ढूंढने के लिए उनका पीछा करने का आग्रह करते है और कभी-कभी लोग इन पक्षियों को छत्ता ढूंढने को उकसाते हैं। उदाहरण के लिए नियासा स्पेशल रिज़र्व में रहने वाले याओ लोग एक विशेष आवाज़ निकालते हैं।

इन पक्षियों को बुलाने के लिए जो आवाज़ निकाली जाती है, वह अलग-अलग स्थानों पर अलग होती है। सवाल यह था कि क्या पक्षी ये अंतर पहचान पाते हैं? यह जानने के लिए स्पॉटिसवुड और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के मानवविज्ञानी ब्रायन वुड ने मिलकर प्रयास किया। ब्रायन वुड उत्तरी तंज़ानिया के हदजा समुदाय का 20 सालों से अध्ययन कर रहे हैं। वुड के अनुसार हदजा समुदाय के लोग जटिल प्रकार से सीटियों की आवाज़ निकालते हैं – ऑर्केस्ट्रा की धुन जैसी। इससे वे पक्षियों को यह बताते हैं कि वे शहद ढूंढने के लिए तैयार हैं।

तंज़ानिया और मोज़ाम्बिक की कई जगहों पर शोधकर्ताओं ने हदजा लोगों की सीटियों और याओ लोगों की पुकार की रिकॉर्डिंग्स बजाई, तुलना के तौर पर उन्होंने मनुष्य की चीख-पुकार की रिकॉर्डिग भी बजाई। तंज़ानिया में हदजा सीटियों की अपेक्षा याओ पुकारों पर पक्षी तीन गुना ज़्यादा आए। दूसरी ओर मोज़ाम्बिक में याओ पुकारें दो गुना ज़्यादा प्रभावी थीं। शोधकर्ताओं ने इस बात का ख्याल रखा था कि सभी आवाज़ें बराबर दूरी तक और बराबर समय तक सुनाई दें। यह जानी-मानी बात है कि इतने कम फासले पर रहने वाले पक्षियों के डीएनए अलग-अलग नहीं हो सकते। अर्थात आवाज़ों को लेकर पसंद आनुवंशिक नहीं है। स्पॉटिसवुड के अनुसार एक संभावित व्याख्या यह हो सकती है कि पक्षी अपने स्थानीय मनुष्य सहयोगियों की आवाज़ पर प्रतिक्रिया करना सीखते हैं।

मनुष्यों की तरह ही पक्षियों की भी संस्कृति हो सकती है जो वे पक्षी-गीतों के माध्यम से एक-दूसरे को सौंपते हैं। इससे लगता है कि शहदखोजी पक्षी और मनुष्य एक दूसरे की परम्पराओं को सुदृढ़ करते हैं। याओ और हदजा शहद निकालने वालों ने बताया कि वे पक्षियों को बुलाने के लिए अपने पूर्वजों द्वारा बताई हुई पुकारों का ही इस्तेमाल करते हैं क्योंकि पुकार बदलने से पक्षियों के आने की संभावना कम हो जाती है। पक्षियों को स्पष्ट रूप से पता होता है कि उनके क्षेत्र की पुकार मतलब खाना मिलने की संभावना है और वे इस पुकार से चले आते हैं। हालांकि यह जानना बाकी है कि पक्षी एक-दूसरे से इन पुकारों का अर्थ सीखते हैं या खुद ही निष्कर्ष निकालते हैं।

ओरेगॉन स्टेट विश्वविद्यालय के पारिस्थितिकीविद मौरिसियो कैन्टर कहते हैं कि शहदखोजी पक्षियों द्वारा सीखने की संभावना नज़र आती है। ड्यूक विश्वविद्यालय के व्यवहार पारिस्थितिक वैज्ञानिक स्टीफन नौविकी कहते हैं कि मनुष्य हमेशा पालतू जानवरों के साथ सहयोग और संवाद करते देखे गए हैं, लेकिन यह अध्ययन जंगली जीवों से सम्बंधित है। (स्रोत फीचर्स) (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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