आंत के सूक्ष्मजीव अवसाद का कारण हैं

हमारे शरीर में भीतर और बाहर अरबों-खरबों बैक्टीरिया पलते हैं और ये हमें स्वस्थ रखने और बीमार करने दोनों में भूमिका निभाते हैं। अब, फिनलैंड में हज़ारों लोगों पर किए गए अध्ययन से लगता है कि अवसाद (डिप्रेशन) के कुछ मामलों के लिए ज़िम्मेदार सूक्ष्मजीवों की पहचान हुई है।

वैज्ञानिक दिमागी स्वास्थ्य और आंत के सूक्ष्मजीवों के बीच सम्बंधों की छानबीन करते रहे हैं और बढ़ते क्रम में ऐसे सम्बंध देखे गए हैं। जैसे ऑटिज़्म और मूड की गड़बड़ी वाले लोगों की आंत में कुछ प्रमुख बैक्टीरिया की कमी दिखती है। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि आंत में इन सूक्ष्मजीवों की कमी क्या वास्तव में विकार पैदा करती है, लेकिन इन निष्कर्षों के आधार पर आंत के सूक्ष्मजीवों और उनके द्वारा उत्पादित पदार्थों का उपयोग विभिन्न तरह के मस्तिष्क विकारों के संभावित उपचार के रूप में करने की भागमभाग शुरू भी हो गई है।

हाल ही में शोधकर्ताओं ने फ्रंटियर्स इन साइकिएट्री में बताया है कि मल प्रत्यारोपण से दो अवसाद ग्रस्त रोगियों के लक्षणों में सुधार दिखा है।

बेकर हार्ट एंड डायबिटीज़ इंस्टीट्यूट के सूक्ष्मजीव जैव-सूचनाविद गिलौम मेरिक वास्तव में अवसाद के लिए ज़िम्मेदार सूक्ष्मजीव खोजने की दिशा में काम नहीं कर रहे थे। उनकी टीम तो फिनलैंड में किए गए स्वास्थ्य और जीवन शैली के एक बड़े अध्ययन के डैटा का विश्लेषण कर रही थी। यह अध्ययन 6000 प्रतिभागियों पर किया गया था जिसमें उनकी आनुवंशिक बनावट का आकलन किया गया, प्रतिभागियो की आंत में पल रहे सूक्ष्मजीव पता लगाए गए, और उनके आहार, जीवन शैली, ली गई औषधियों और स्वास्थ्य सम्बंधी व्यापक डैटा संकलित किया गया था। यह अध्ययन फिनिश लोगों में जीर्ण रोगों के अंतर्निहित कारणों को पहचानने के लिए 40 वर्षों से किए जा रहे प्रयास का हिस्सा था।

शोधकर्ता यह जानने का प्रयास कर रहे थे कि किसी व्यक्ति की आंतों के सूक्ष्मजीव संसार पर आहार और आनुवंशिकी का क्या प्रभाव होता है। नेचर जेनेटिक्स में शोधकर्ताओं ने बताया है कि मानव जीनोम के दो हिस्से इस बात को काफी प्रभावित करते हैं कि आंत में कौन से सूक्ष्मजीव मौजूद हैं। इनमें से एक हिस्से में दुग्ध शर्करा लैक्टोज़ को पचाने वाला जीन मौजूद है, और दूसरा हिस्सा रक्त समूह का निर्धारण करता है। (नेचर जेनेटिक्स में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में भी नीदरलैंड के 7700 लोगों के जीनोम और आंत के सूक्ष्मजीवों के बीच सम्बंधों के विश्लेषण किया गया था और उसमें भी इन्हीं आनुवंशिक हिस्सों की पहचान हुई थी।)

मेरिक की टीम ने यह भी पता लगाया कि कौन से आनुवंशिक संस्करण कुछ सूक्ष्म जीवों की संख्या को प्रभावित कर सकते हैं – और उनमें से कौन से संस्करण 46 सामान्य बीमारियों से जुड़े हैं। दो बैक्टीरिया, मोर्गनेला और क्लेबसिएला, अवसाद में भूमिका निभाते हैं। और एक सूक्ष्मजीवी सर्वेक्षण में 181 लोगों में मोर्गनेला बैक्टीरिया की काफी वृद्धि देखी गई थी, आगे जाकर ये लोग अवसाद से ग्रसित हुए थे।

पूर्व के अध्ययनों में भी अवसाद में मोर्गनेला की भूमिका पहचानी गई है। वर्ष 2008 में हुए अध्ययन में शोधकर्ता अवसाद और शोथ के बीच एक कड़ी तलाश रहे थे, इसमें उन्होंने अवसाद से ग्रसित लोगों में मोर्गनेला और आंत में मौजूद अन्य ग्राम-ऋणात्मक बैक्टीरिया द्वारा उत्पादित रसायनों के प्रति मज़बूत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया देखी थी। अब, यह नवीनतम अध्ययन पूर्व के इन निष्कर्षों को मज़बूती प्रदान करता है कि आंत के रोगाणुओं के कारण होने वाली शोथ मूड को प्रभावित कर सकती है।

बहरहाल, इस क्षेत्र के अध्ययन अभी प्रारंभिक अवस्था में है; अवसाद कई तरह के होते हैं और सूक्ष्मजीव कई तरीकों से इसे प्रभावित कर सकते हैं। कुछ लोग इसके आधार पर चिकित्सकीय हस्तक्षेप की बात कह रहे हैं लेकिन इन निष्कर्षों को चिकित्सा में लागू करना अभी दूर की कौड़ी ही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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फफूंद से सुरक्षित है जीन-संपादित गेहूं

पावडरी माइल्ड्यू नामक फफूंद गेहूं की खेती करने वाले किसानों के लिए एक बड़ी समस्या है। यह फसलों को संक्रमित करती है, पत्तियों का रंग पीला पड़ जाता है और वृद्धि धीमी पड़ जाती है। यह फसल को 40 प्रतिशत तक नष्ट कर सकती है।

हाल ही में शोधकर्ताओं ने एक ऐसा जीन-संपादित गेहूं विकसित किया है जो दाने के विकास को बाधित किए बिना फफूंद से सुरक्षा प्रदान करता है। शोधकर्ताओं के अनुसार यह तकनीक स्ट्रॉबेरी और खीरे जैसी अन्य फसलों में भी अपनाई जा सकती है।

फसलों में रसायनों का उपयोग कम करना पर्यावरण के लिए अच्छा होगा और साथ ही रोग प्रतिरोधी पौधे ऐसे देशों के लिए बेहतर साबित होंगे जिनकी कीटनाशकों तक पहुंच नहीं है।     

गौरतलब है कि कुछ पौधे प्राकृतिक रूप से पावडरी माइल्ड्यू से अपना बचाव कर सकते हैं। 1940 के दशक में इथोपिया की यात्राओं के दौरान वैज्ञानिकों ने जौं की ऐसी किस्में देखी थी जिन पर फफूंद का बहुत कम प्रभाव था। लेकिन ये पौधे और इनके आधार पर पौध संवर्धकों द्वारा बनाए गए पौधे ठीक से विकसित नहीं हो पाते थे और अनाज की उपज भी कम थी। फिर भी संवर्धकों के प्रयासों से जौं के ऐसे संस्करण तैयार हो सके जो कवकों से सुरक्षित रहते थे और पर्याप्त रूप से विकसित होने में सक्षम थे। इस तरह से विकसित जौं काफी सफल रही।

कई रोगजनक जीव पौधों की रोग प्रतिरोधक क्षमता को चकमा देने के तरीके विकसित कर लेते हैं लेकिन इन नई किस्मों में पाउडरी माइल्ड्यू से दशकों तक सुरक्षा मिलती रही। इसका कारण MLO नामक जीन है जो उत्परिवर्तित होने पर फफूंद का संक्रमण रोकता है। यह जीन फफूंद हमले के दौरान कोशिका भित्ति को मोटा करके पौधे को सुरक्षा प्रदान करता है।

गेहूं में यह तकनीक सफल नहीं रही। गेहूं में MLO में उत्परिवर्तन से पौधों का विकास रुक गया और पैदावार में 5 प्रतिशत की कमी आई। किसानों को फफूंदनाशी का इस्तेमाल करना ही बेहतर लगा। समस्या के समाधान के लिए कुछ वर्ष पूर्व चीन के इंस्टीट्यूट ऑफ जेनेटिक्स एंड डेवलपमेंटल बायोलॉजी के पादप विज्ञानी गाओ कैक्सिया और उनके सहयोगियों ने क्रिस्पर सहित विभिन्न जीन-संपादन तकनीकों का उपयोग करते हुए गेहूं में MLO जीन की छह प्रतियों में सुरक्षा देने वाले उत्परिवर्तन तैयार किए।        

वैसे ऐसे परिवर्तन पारंपरिक तरीकों से हासिल किए जा सकते हैं लेकिन उसमें कई वर्षों का समय लग जाता है। वैसे भी अब कई देशों की सरकारों ने हाल ही में जीन संपादन तकनीक से बनाए गए पौधों के अध्ययन और व्यवसायीकरण को आसान बना दिया है।

नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार टीम ने कुछ सीमित मैदानी परीक्षणों में जीन-संपादित गेहूं और अन्य गेहूं की वृद्धि में कोई उल्लेखनीय अंतर नहीं पाया। लेकिन सिर्फ एक-एक पौधे को माप कर उपज का विश्वसनीय अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इसके लिए बड़े प्लॉट में परीक्षण की आवश्यकता होगी। 

जीन-संशोधित पौधों की वृद्धि सामान्य रहना अचरज की बात थी। गाओ और उनके सहयोगियों ने पाया कि जीन संपादन से MLO जीन का एक भाग ही नहीं हटा बल्कि गुणसूत्र का एक बड़ा हिस्सा भी हट गया था। नतीजतन TMT3 नामक एक नज़दीकी जीन अधिक सक्रिय हो गया जिसने पौधे की वृद्धि को सामान्य रखा। TMT3 जीन एक ऐसे प्रोटीन का निर्माण करता है जो शर्करा के अणुओं के परिवहन में मदद करता है लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि MLO उत्परिवर्तन के कारण उपज में होने वाली हानि की क्षतिपूर्ति कैसे हुई है।

गाओ और उनके सहयोगी स्ट्रॉबेरी, मिर्च और खीरे में भी जीन संपादन का प्रयास कर रहे हैं जो पाउडरी माइल्ड्यू के प्रति अति संवेदनशील हैं। इसी दौरान उन्होंने गेहूं की चार किस्मों का जीन-संपादन किया है जिनको चीन के किसानों ने काफी पसंद किया और बड़े मैदानी परीक्षणों में अच्छे परिणाम दिए हैं। बहरहाल, चीन में जीन-संपादित गेहूं को किसानों को बेचने से पहले कृषि मंत्रालय की मंज़ूरी की आवश्यकता होगी। (स्रोत फीचर्स)

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हृदय पर कोविड-19 के गंभीर प्रभाव

महामारी की शुरुआत से ही संकेत मिलने लगे थे कि सार्स-कोव-2 से संक्रमित गंभीर रोगियों में हृदय और रक्त वाहिनियों में क्षति होती है। मुख्य रूप से खून के थक्के बनना, हृदय में सूजन, धड़कन की लय बिगड़ना, दिल का दौरा जैसी समस्याएं देखी गई थीं। हाल ही में किए गए एक व्यापक अध्ययन में पता चला है कि वायरस के ऐसे प्रभाव काफी लंबे समय तक बने रह सकते हैं।

अमेरिका के 1.1 करोड़ वृद्ध लोगों के स्वास्थ्य रिकॉर्ड के विश्लेषण में शोधकर्ताओं ने पाया कि 1 वर्ष पहले कोविड-19 से ग्रसित लोगों में 20 विभिन्न हृदय और रक्त वाहिनी सम्बंधी विकारों का जोखिम सामान्य की तुलना में काफी बढ़ गया है। यह जोखिम प्रारंभिक रोग की गंभीरता के साथ-साथ बढ़ता पाया गया।

इस अध्ययन से प्राप्त डैटा से स्पष्ट हो जाता है कि सार्स-कोव-2 संक्रमण सामान्य फ्लू से कहीं अधिक खतरनाक है। हालांकि, विशेषज्ञ इस अध्ययन को दोहराने का सुझाव देते हैं क्योंकि इसमें दोषपूर्ण निदान जैसी त्रुटियों की संभावना है।

फिलहाल तो शोधकर्ताओं को वायरस द्वारा दीर्घकालिक क्षति की प्रक्रिया के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। लेकिन उनका मानना है कि हृदय सम्बंधी जोखिम और लॉन्ग कोविड लक्षणों के समूह (ब्रेन फॉग, थकान, कमज़ोरी और गंध संवेदना का ह्रास) का मूल कारण एक ही हो सकता है।

इसके लिए शोधकर्ताओं ने अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ वेटरन्स अफेयर्स (वीए) के इलेक्ट्रॉनिक स्वास्थ्य रिकॉर्ड में लगभग डेढ़ लाख लोगों के डैटा का विश्लेषण किया जो मार्च 2020 से जनवरी 2021 के बीच कोविड से संक्रमित हुए और संक्रमित होने के कम से कम 30 दिन तक जीवित रहे। उन्होंने दो तुलना समूहों की भी पहचान की। एक समूह 56 लाख ऐसे लोगों का था जिन्होंने महामारी के दौरान देखभाल की मांग तो की थी लेकिन जांच में कोविड नहीं पाया गया था; दूसरा समूह ऐसे 59 लाख लोगों का था जिन्होंने 2017 में देखभाल चाही थी।

अध्ययन में टीके के व्यापक रूप से उपलब्ध होने से पहले का ही डैटा शामिल किया गया था। इस तरह से 99.7 प्रतिशत लोग संक्रमित होने के समय टीकाकृत नहीं थे। इसलिए इस अध्ययन में यह स्पष्ट नहीं है कि टीकाकृत लोगों में ब्रेकथ्रू संक्रमण के बाद दीर्घकालिक हृदय सम्बंधी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं या नहीं। इसके अलावा, इस अध्ययन का झुकाव वृद्ध, श्वेत और पुरुष आबादी की ओर अधिक दिखाई देता है। तीनों समूहों में 90 प्रतिशत पुरुष और 71-76 प्रतिशत श्वेत रोगी थे और सभी की औसत उम्र 60 और 70 के बीच थी।

शोधकर्ताओं ने पाया कि कोविड-19 के बाद हृदय रोग होने की संभावना में वृद्धि लगभग सभी लोगों – वृद्ध और युवा, मधुमेह और बिना मधुमेह, मोटापे और बिना मोटापे, धूम्रपान करने वाले और धूम्रपान न करने वाले – में एक जैसी थी।

कोविड-19 ने 20 तरह के हृदय रोगों के जोखिम को बढ़ा दिया है। जैसे कोविड से पीड़ित वृद्ध लोगों में संक्रमित होने के 12 महीने बाद नियंत्रण समूह की तुलना में 72 प्रतिशत अधिक हृदयाघात की संभावना देखी गई। 1000-1000 संक्रमित व असंक्रमित लोगों को लें तो किसी ना किसी हृदय सम्बंधी दिक्कत की संभावना असंक्रमित लोगों की अपेक्षा 45 अतिरिक्त संक्रमित लोगों में है।

फिलहाल वायरस द्वारा हृदय और रक्त वाहिनियों पर दीर्घकालिक असर शोध का विषय है। एक संभावित प्रक्रिया एंडोथेलियल कोशिकाओं की सूजन है जो हृदय और रक्त वाहिनियों का अंदरूनी अस्तर बनाती हैं। वैसे कई अन्य संभावनाएं भी हैं। जैसे वायरल आक्रमण से हृदय की मांसपेशियों की क्षति, साइटोकाइंस नामक सूजन बढ़ाने वाले रसायनों का उच्च स्तर जो हृदय पर सख्त धब्बे बनाता हो और वायरस का ऐसे स्थानों छिपे रहना जहां प्रतिरक्षा प्रणाली प्रभावी ढंग से निपट न सके।

शोधकर्ताओं का मानना है कि आने वाले समय में कोविड-19 से संक्रमित हो चुके लाखों लोगों को कोविड के दीर्घकालिक परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं जिससे स्वास्थ्य प्रणालियों पर एक बार फिर दबाव बन सकता है। इसके लिए विश्व भर की सरकारों और स्वास्थ्य सेवाओं को हृदय सम्बंधी रोगों से निपटने के लिए ज़रूरी कदम उठाने होंगे। (स्रोत फीचर्स)

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महामारी से उपजता मेडिकल कचरा – अली खान

कोरोना महामारी का खतरा लगातार कम हो रहा है, मगर इससे पैदा हुआ मेडिकल कचरा पूरी दुनिया के लिए एक बड़ी समस्या बन चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने चेतावनी दी है कि कोरोना महामारी से निपटने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले चिकित्सा उपकरणों से इंसान और पर्यावरण दोनों के लिए खतरा पैदा हो रहा है। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, वैश्विक कोविड महामारी के दौरान जमा हुए हज़ारों टन अतिरिक्त कचरे ने कचरा प्रबंधन प्रणाली पर गंभीर दबाव डाला है। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि मौजूदा अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों में सुधार की सख्त ज़रूरत है।

डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, कोरोना महामारी के परिणामस्वरूप 2 लाख टन से भी अधिक मेडिकल कचरा जमा हो गया है। इसमें से अधिकांश प्लास्टिक के रूप में है। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि मार्च 2020 से नवंबर 2021 के बीच चिकित्सा कर्मियों की सुरक्षा के लिए लगभग 1.5 अरब पीपीई किट का निर्माण व वितरण किया गया था। इनका वजन लगभग 87,000 टन है। गौर करने वाली बात यह है कि यह मात्रा केवल संयुक्त राष्ट्र की एक प्रणाली के तहत वितरित उपकरणों की है; वास्तविक संख्या और मात्रा इससे कहीं अधिक है।‌ डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, इन उपकरणों और सुरक्षा किटों का अधिकांश भाग कचरे का हिस्सा बन गया। और तो और, निजी इस्तेमाल के लिए फेस मास्क इन अनुमानों में शामिल नहीं हैं।

इसके अलावा दुनिया भर में 14 करोड़ जांच किट प्रदान किए गए हैं, जिनमें 2600 टन प्लास्टिक और 7,31,000 लीटर केमिकल अपशिष्ट जमा होने का जोखिम है।

ध्यान दें कि कोरोना महामारी के शुरुआती दौर में देश और दुनिया के कोने-कोने से स्वास्थ्य विभाग की गंभीर लापरवाहियां भी सामने आई थीं। देश में स्वास्थ्य विभाग की सबसे बड़ी लापरवाही कोरोना सैंपल लेने के बाद वीटीएम के वेस्टेज के निस्तारण की बजाय इसे प्रयोगशालाओं के बाहर खुले में फेंकने के रूप में सामने आई थी। यह सचमुच चिंताजनक थी। स्वास्थ्य विभाग द्वारा कोविड-19 की जांच में करोड़ों की संख्या में नमूने लिए गए। इन नमूनों में इस्तेमाल होने वाली वीटीएम का निस्तारण नहीं किया गया या इसे खुले में फेंका गया या कूड़े के ढेर में डाल दिया गया। इसका उचित निस्तारण बेहद ज़रूरी था। बता दें कि कोरोना के सैंपल आम तौर पर वायरल ट्रांसपोर्ट मीडियम यानी वीटीएम नामक लिक्विड में रखे जाते हैं। रिसाव से बचने के लिए इसे अच्छी तरह से पैक किया जाता है। इसके उपयोग के बाद मजबूत प्लास्टिक बैग के साथ निस्तारण किया जाना ज़रूरी होता है। दरअसल, वीटीएम का निस्तारण जैविक कचरे के हिसाब से करना होता है, लेकिन उदासीनता के चलते ऐसा नहीं हो पाया।

दरअसल, महामारी से पहले भी डब्ल्यूएचओ ने चेताया था कि एक-तिहाई स्वास्थ्य देखभाल केंद्र अपने कचरे का निपटान करने में सक्षम नहीं हैं। डब्ल्यूएचओ ने पीपीई के सोच-समझकर उपयोग, कम पैकेजिंग, इनके निर्माण में जैव-विघटनशील सामग्री के इस्तेमाल सहित कई उपायों का आह्वान किया है जो कचरे की मात्रा को कम करेंगे।

हज़ारों टन अतिरिक्त चिकित्सा कचरे ने अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों को प्रभावित किया है और यह स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिए खतरा है। इस संदर्भ में डब्ल्यूएचओ ने लोगों की जागरूकता पर भी बल दिया है। डबल्यूएचओ की जल, स्वच्छता और स्वास्थ्य इकाई की तकनीकी अधिकारी डॉ. मार्गरेट मोंटगोमरी ने कहा है कि जनता को जागरूक उपभोक्ता भी बनना चाहिए। उन्होंने पीपीई किट के संदर्भ में कहा कि लोग ज़रूरत से ज़्यादा पीपीई किट पहन रहे हैं। डबल्यूएचओ का कहना है कि इस तरह के लगभग 87,000 टन मेडिकल किट बेकार हो गए हैं। दुनिया भर में संक्रमण की रोकथाम के लिए मास्क, पोशाकों, टीकों, जांच उपकरणों, सेनिटाइज़र आदि का अभूतपूर्व मात्रा में उत्पादन हुआ है। डबल्यूएचओ की रिपोर्ट में कहा गया है कि कोविड से सम्बंधित अतिरिक्त कचरा चिकित्साकर्मियों और लैंडफिल के आसपास रहने वाले लोगों के लिए स्वास्थ्य और पर्यावरणीय जोखिम पैदा करता है। लिहाज़ा, दुनिया भर में मेडिकल कचरे के सुरक्षित निपटारे और पुनर्चक्रण के लिए नई तकनीकों एवं संसाधनों में निवेश की आवश्यकता है। अस्पतालों और प्रशासन के स्तर पर सक्रियता के साथ नागरिकों को जागरूक करने पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि मेडिकल कचरे में हो रहे लगातार इजाफे पर अंकुश लगाया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

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तेज़ी से पिघलने लगे हैं ग्लेशियर – सुदर्शन सोलंकी

पृथ्वी पर करीब 2 लाख ग्लेशियर (हिमनद) हैं। किंतु अब ग्लोबल वार्मिंग एवं बढ़ते प्रदूषण के कारण दुनिया भर के ग्लेशियरों का पिघलना तेज़ी से बढ़ रहा है। पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट चेंज इंपैक्ट में जलवायु प्रोफेसर एंडर्स लेवरमान का कहना है कि पिछले 100 सालों में दुनिया के समुद्र तल में 35 फीसदी इजाफा ग्लेशियरों के पिघलने की वजह से हुआ है।

जर्नल दी क्रायोस्फियर में प्रकाशित शोध के अनुसार बर्फ अब 65 प्रतिशत ज़्यादा तेज़ी से पिघल रही है। 1994 से 2017 के बीच 28 लाख करोड़ टन बर्फ पिघल चुकी है। किलिमंजारो पहाड़ों की बर्फ 1912 के बाद से 80 प्रतिशत से अधिक पिघल गई है। भारत में गढ़वाल हिमालय में ग्लेशियर के तेज़ी से पिघलने के आधार पर वैज्ञानिकों का मानना है कि अधिकांश मध्य और पूर्वी हिमालय के ग्लेशियर 2035 तक गायब हो सकते हैं।

कुछ समय पूर्व ही अंटार्कटिका में दुनिया का सबसे बड़ा हिमखंड ‘ए-76′ टूट कर अलग हुआ है। इसका कुल क्षेत्रफल 4320 वर्ग किलोमीटर है। यह हिमखंड अंटार्कटिका में मौजूद ग्लेशियर रोने आइस शेल्फ के पश्चिमी हिस्से से टूटकर वेडेल सागर में गिरा है।

शोधकर्ताओं के अनुसार तेज़ी से बर्फ पिघलने के कारण समुद्र का जल स्तर तेज़ी से बढ़ रहा है, जिसके कारण पूरी दुनिया पर बड़ा संकट आ रहा है। ग्लेशियरों के पिघलने से दुनिया के उन लोगों पर असर पड़ेगा जिनके लिए ग्लेशियर ही पानी का प्रमुख स्रोत हैं। इससे अकेले दक्षिण-पूर्व एशिया में ही 70 करोड़ लोगों के जीवन पर असर पड़ेगा। हिमालय के ग्लेशियर आस-पास रहने वाले 25 करोड़ लोगों और ऐसी नदियों को पानी देते हैं जो करीब 1.65 अरब लोगों के लिए भोजन, ऊर्जा और कमाई का साधन है।

नेदरलैंड्स की डेल्फ्ट युनिवर्सिटी ऑफ टेक्नॉलॉजी के हैरी जोकोलारी के अनुसार ज़्यादातर लोग इस बात का महत्व नहीं समझते कि बर्फ की विशाल संरचनाएं कितनी ज़रूरी हैं। एक स्वस्थ ग्लेशियर गर्मी में थोड़ा पिघलता है और सर्दियों में और बड़ा बन जाता है। इसका मतलब है कि लोगों को जब पानी की ज़्यादा ज़रूरत होती है तो उन्हें ग्लेशियर से पानी मिलता है।

प्रमुख शोधकर्ता व लीड्स विश्वविद्यालय के प्रो. थॉमस स्लेटर का अनुमान है कि समुद्री जल स्तर में हर एक सेंटीमीटर की वृद्धि से करीब एक लाख लोग विस्थापित होंगे। इसके साथ ही प्राकृतवासों व वन्य जीवों पर भी खतरा है।

हाल ही में विश्व मौसम विज्ञान संगठन की स्टेट ऑफ ग्लोबल क्लाइमेट रिपोर्ट 2020 से पता चला है कि 2020 इतिहास का सबसे गर्म वर्ष था। नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) के नेशनल सेंटर फॉर एनवायर्नमेंटल इंफॉर्मेशन (एनसीईआई) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2021 इतिहास का छठा सबसे गर्म वर्ष था। रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष तापमान 20वीं सदी के औसत तापमान से 0.84 डिग्री सेल्सियस ज़्यादा दर्ज किया गया था। स्पष्ट है पृथ्वी अब तेज़ी से गर्म होती जा रही है जिसका असर ग्लेशियरों पर हो रहा है।

आईपीसीसी की रिपोर्ट में बताया गया है कि यदि हम ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने में सफल हो जाएं और दुनिया के तापमान में बढ़त को उद्योग-पूर्व स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक पर सीमित कर दिया जाए तब भी एशिया के ऊंचे पर्वतों के ग्लेशियर अपनी एक तिहाई बर्फ खो सकते हैं।

पहाड़ों के ऊपर उड़ने वाली धूल तेज़ी से बर्फ को पिघला रही है, क्योंकि धूल में सूरज की रोशनी अवशोषित हो जाती है जिसकी वजह से बढ़ी गर्मी के कारण बर्फ पिघलने लगती है। ग्लेशियरों का कम होना बढ़ते वैश्विक तापमान के सबसे भयावह परिणामों में से एक है।

ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र तल में वृद्धि होती है जिससे तटीय क्षरण बढ़ता है। इसके साथ ही साथ उग्र तटीय तूफान पैदा होते रहते हैं क्योंकि समुद्री तापमान में वृद्धि होती है और गर्म हवाएं बहुत तेज़ रफ्तार से चलती हैं, जिससे समुद्री बर्फ और ग्लेशियर पिघलते हैं और महासागर गर्म होते हैं।

समुद्र की धाराएं दुनिया भर में मौसम व समुद्री जीव-जंतुओं को प्रभावित करती हैं। ग्लेशियरों के पिघलने से जैव विविधता को नुकसान पहुंचता है और जीव-जंतुओं की दुर्लभ प्रजातियां खत्म होने लगती हैं। इसके अलावा ग्लेशियरों के पिघलने से दीर्घावधि में ताज़े पानी की मात्रा में कमी आ सकती है। साथ ही समुद्र के किनारे बसे शहरों के जलमग्न होने का खतरा भी है।

इस संकट को देखते हुए पर्यावरण व विकास सम्बंधी नीतिगत परिवर्तनों की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है। (स्रोत फीचर्स)

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मनुष्यों में खट्टा स्वाद क्यों विकसित हुआ

ट्टा पांच मुख्य स्वाद में से एक है। अन्य चार मीठा, कड़वा, नमकीन और उमामी हैं। खट्टा खाएं तो मज़ा तो आता है लेकिन वैज्ञानिकों को इस बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी कि हममें खट्टे (अम्लीय) स्वाद की अनुभूति कैसे विकसित हुई।

इस सवाल के जवाब की तलाश में नॉर्थ कैरोलिना स्टेट युनिवर्सिटी के पारिस्थितिकीविद रॉब डन और उनके साथियों ने वैज्ञानिक साहित्य खंगाला और इस अध्ययन के नतीज़े प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी बी में प्रकाशित किए गए हैं। साइंस पत्रिका ने उनके साथ इस विषय पर बातचीत की। वह साक्षात्कार यहां प्रस्तुत है।

प्रश्न: क्या जानवरों को भी खट्टा खाना पसंद है?

जवाब: विकासक्रम में जानवरों ने बाकी अन्य स्वादों को लगभग खो दिया है। जैसे डॉल्फिन में नमकीन के अलावा कोई स्वाद ग्राही नहीं होते। और बिल्लियों में मीठे स्वाद के ग्राही नहीं होते। लेकिन उम्मीद के विपरीत जितनी भी प्रजातियों (लगभग 60) के साथ परीक्षण किया गया है वे सभी भोजन में अम्लीयता की पहचान करने में सक्षम हैं। सूअर और प्राइमेट प्राणि तो वास्तव में अम्लीय (खट्टे) खाद्य पदार्थ पसंद करते हैं। जंगली सूअर को खमीरी मकई और गोरिल्ला को अदरक कुल के अम्लीय फल भाते हैं।

प्रश्न: मीठे पदार्थ हमें ऊर्जा देते हैं, और कड़वा स्वाद हमें विषैलेपन के प्रति चेताता है। तो खट्टा स्वाद हममें क्यों विकसित हुआ होगा?

जवाब: खट्टे की पहचान संभवत: प्राचीन मछलियों में मौजूद थी। मछलियों में खट्टे स्वाद की अनुभूति की उत्पत्ति संभवतः भोजन का स्वाद लेने के लिए नहीं हुई थी, बल्कि समुद्र में अम्लीयता के स्तर को भांपने के लिए हुई थी। यानी वे अपने शरीर की सतह से खट्टा ‘चखती’ थीं। पानी में कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर में बदलाव से पानी की अम्लीयता में भी उतार-चढ़ाव होता है, जो मछली के लिए खतरनाक हो सकती है। इसलिए अम्लीयता को महसूस या पहचान करने में सक्षम होना महत्वपूर्ण है।

प्रश्न: तो खान-पान में खट्टे की पहचान कैसे विकसित हुई?

जवाब: असल में हमने विटामिन सी (एस्कॉर्बिक एसिड) का निर्माण करने की क्षमता खो दी है। तो एक मत यह है कि अम्लीय खाद्य पदार्थ विटामिन सी लेने का एक तरीका हो सकता है। एक अन्य तर्क यह दिया जाता है कि प्राचीन प्राइमेट हमारे अनुमान से कहीं अधिक किण्वित खाद्य पदार्थ खाते थे। ऐसा माना जा सकता है कि सड़ रहे फल यदि खट्टे हैं तो सुरक्षित हैं क्योंकि उन्हें लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया और एसिटिक एसिड बैक्टीरिया खट्टा बनाते हैं और ये अम्ल हानिकारक बैक्टीरिया को मारते हैं। इसलिए ऐसे फल खाना लगभग सुरक्षित होगा।

प्रश्न: किण्वन से अल्कोहल भी बनता है, तो प्राणि इन फलों को अम्लीयता के लिए खाते थे या नशे के लिए?

जवाब: ऐसा है कि 70 लाख से 2.1 करोड़ वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजों में अल्कोहल डिहाइड्रोजिनेज़ नामक एंज़ाइम का एक शक्तिशाली संस्करण विकसित हुआ जो अल्कोहल का चयापचय करता है। मनुष्य में इसका तेज़ संस्करण पाया जाता है जो अल्कोहल से ऊर्जा प्राप्त करना 40 गुना आसान बनाता है। वहीं, लगभग इसी दौरान विकसित जीन्स के नए संस्करण लैक्टिक एसिड को पहचानने में भूमिका निभाते हैं।

हमारे पूर्वजों में ये दो बुनियादी वैकासिक परिवर्तन दिखाई देते हैं जो अम्लीयता और अल्कोहल दोनों से सम्बंधित हैं। उपलब्ध जानकारी के आधार पर संभावना है कि पहले खट्टा स्वाद लेने की क्षमता आई, लेकिन पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता।

प्रश्न: शराब की बात करें तो कुछ लोगों को खट्टी बीयर पसंद होती है जबकि अन्य लोग इस विचार पर हंस पड़ते हैं। वैज्ञानिक इस अंतर को कैसे देखते हैं?

जवाब: इस बात के कई सारे शुरुआती प्रमाण हैं कि ‘खट्टा स्वाद पहचानने’ वालों के अलग-अलग समूह हैं। यहां गंध भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, और गंध की पहचान काफी हद तक सीखी जाती है। मेरे विचार में जब कोई खट्टी बीयर पसंद करना सीख रहा होता है तब असल में उसकी महक आनंद दे रही होती है और स्वाद उस आनंद से जुड़ जाता है। लेकिन अभी स्पष्ट नहीं है कि ये अंतर जीन से कैसे सम्बंधित हैं।

प्रश्न: क्या यह संभव है कि खट्टे स्वाद से सम्बंध मात्र एक संयोग है?

जवाब: खट्टे स्वाद ग्राहियों से सम्बंधित एकमात्र जीन है OTOP1 जो आंतरिक कान के कार्यों से भी जुड़ा हुआ है। यह जीन शरीर का संतुलन बनाए रखने में मदद करता है, और इस जीन में उत्परिवर्तन संतुलन सम्बंधी विकारों को जन्म देते हैं। खट्टे स्वाद से जुड़ा जीन इन अन्य कामों में भी भूमिका निभाता है, और यह संभव है कि इसे खो देने के अन्य परिणाम भी होंगे। देखा जाए तो खट्टे स्वाद की अनुभूति अब भी रहस्य ही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मस्तिष्क बड़ा होने में मांसाहार की भूमिका

ब मांसाहार की बात आती है, तो हमारे सबसे करीबी सम्बंधी चिम्पैंज़ी हमारी तुलना में बहुत ही कम मांस खाते हैं।

पुरातात्विक स्थलों पर पाए गए बूचड़खानों के निशानों की संख्या के आधार पर लंबे समय से कहा जाता रहा है कि हमारी मांस खाने की उत्कट इच्छा लगभग 20 लाख साल पहले बढ़ना शुरू हुई थी। मांस से मिलने वाली अधिक कैलोरी ने हमारे एक पूर्वज – होमो इरेक्टस – में बड़ा शरीर और मस्तिष्क विकसित करने की शुरुआत की थी।

लेकिन एक ताज़ा अध्ययन का तर्क है कि इस परिकल्पना के प्रमाण सांख्यिकीय रूप से कमज़ोर हैं क्योंकि शोधकर्ताओं ने बाद के समय के खुदाई स्थलों पर अधिक ध्यान दिया है। इसलिए यह जानना असंभव है कि मानव विकास में मांसाहार की भूमिका कितनी अहम है।

नए अध्ययन में जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय के जीवाश्म विज्ञानी डब्ल्यू. एंड्र्यू बार और उनके साथियों ने बूचड़खानों पर पूर्व में किए गए अध्ययनों के डैटा की समीक्षा की। ये डैटा 26 लाख से 12 लाख साल पूर्व के कालखंड के पूर्वी अफ्रीका में प्रारंभिक मानव गतिविधि वाले नौ पुरातात्विक स्थलों से थे। जैसी कि उम्मीद थी जानवरों की हड्डियों पर वध के निशान वाले साक्ष्य मिलने में वृद्धि लगभग 20 लाख वर्ष पूर्व से दिखना शुरू हुई। लेकिन, शोधकर्ताओं ने पाया कि पुरातत्वविदों को पशु वध के साक्ष्य उन स्थलों पर अधिक मिले जहां अधिक शोध किया गया था। दूसरे शब्दों में, जिस स्थल पर जितना अधिक ध्यान दिया गया, वहां मांसाहार के साक्ष्य मिलने की संभावना उतनी अधिक रही।

प्रत्येक पुरातात्विक स्थल में तलछट की कई परतें होती हैं; जितनी परत नीचे जाते जाएंगे उनमें उतनी अधिक प्राचीन वस्तुएं मिलेंगी। साफ है कि 25 लाख से 20 लाख साल पुरानी परतों को उतना नहीं खोदा गया है या उनमें दफन चीज़ों को बाहर नहीं निकाला गया है जितना कि उनके बाद वाली परतों को खोदा गया है, और इसी कारण प्राचीनतर परतों का अध्ययन कम किया गया है। पुरातत्वविद किसी खुदाई स्थल पर जितना अधिक समय और ऊर्जा लगाते हैं, वहां से उतनी ही अधिक वस्तुएं मिलती हैं। तो विभिन्न स्थलों से मिले साक्ष्यों – जैसे हड्डियों पर वध के निशान – की तुलना एक पेचीदा सांख्यिकीय मसला बन जाता है।

इससे निपटने के लिए, बार और उनकी टीम ने इन स्थलों के आंकड़ों को समायोजित किया और पाया कि वास्तव में 26 लाख वर्ष पूर्व से 12 लाख वर्ष पूर्व तक मांस खाने के साक्ष्य की संख्या स्थिर ही रही। ये नतीजे प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित हुए हैं। बार का तर्क है कि मांसाहार में वृद्धि पर ध्यान देने के बजाय अन्य परिकल्पनाओं पर ध्यान देना चाहिए। जैसे खाना पकाने की शुरुआत, जिससे भोजन का पाचन आसान हुआ होगा और अधिक कैलोरी मिलने लगी होगी, और मस्तिष्क बड़ा होने लगा होगा। सामाजिक विकास ने भी मदद की होगी। (स्रोत फीचर्स)

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शिशु जानते हैं जूठा खा लेने वाला अपना है

जिनके साथ हमारे आत्मीय या अंतरंग सम्बंध होते हैं, आम तौर पर उनका जूठा खाने में हमें कोई हिचक नहीं होती। अब एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि 8 महीने के शिशु भी इस बात को समझते हैं। जब शिशुओं को कठपुतली या कार्टून चरित्र को जूठा खिलाते दिखाया गया तो वे यह अनुमान लगाने में सक्षम थे कि इन चरित्रों के बीच करीबी नाता है।

मनुष्य विविध तरह के रिश्ते बनाते हैं। जीवित रहने और पलने-बढ़ने के लिए शिशुओं को इन रिश्तों में से ‘सबसे प्रगाढ़’ रिश्ते को पहचानने की ज़रूरत होती है – ऐसे रिश्ते जो खुद से बढ़कर उनके पालन-पोषण और सुरक्षा पर ध्यान दें। लंबे समय से वैज्ञानिक इस बात को लेकर हैरत में हैं कि बच्चे कब यह समझ विकसित कर लेते हैं।

मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की मनोवैज्ञानिक एशले थॉमस ने सोचा कि इसका पता शायद नृविज्ञान अनुसंधान में मिले। दुनिया भर की संस्कृतियों के अध्ययन में देखा गया है कि सबसे अंतरंग सम्बंध वाले लोगों को एक-दूसरे की लार (जूठा खाने, चुंबन वगैरह के माध्यम से) और अन्य शारीरिक तरल से हिचक नहीं लगती। उन्हें यकीन था कि छोटे बच्चे भी इस बात को समझते होंगे। इसके लिए उनके दल ने कॉन्फ्रेंसिंग प्लेटफॉर्म पर लगभग 400 बच्चों के साथ कुछ अध्ययन किए।

पहले अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 5 से 7 साल के बच्चों को कुछ कार्टून दृश्य दिखाए। एक तरह के दृश्य में मैदान में खड़ी एक बच्ची या तो स्ट्रॉ से जूस पी रही थी या आइसक्रीम खा रही थी; दूसरे में, वह कूदने की रस्सी या कोई खिलौना पकड़े हुए थी। अगले दृश्य में कोई परिजन और एक शिक्षक या मित्र शामिल हो जाता है। ये तस्वीरें दिखाने के बाद बच्चों से पूछा गया कि कार्टून चरित्र को किसके साथ अपनी जूठी आइसक्रीम या जूस साझा करना चाहिए तो बच्चों ने 74 प्रतिशत मामलों में रिश्तेदार को चुना; गैर-जूठी चीज़ों के मामले में रिश्तेदार और अन्य को बराबर तरजीह दी। ये निष्कर्ष साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।

दूसरे अध्ययन में शोधकर्ताओं ने और भी छोटे बच्चों (8-19 माह) को शामिल किया। बच्चों को एक वीडियो दिखाया गया जिसमें एक गुड़िया किसी व्यक्ति के साथ संतरे की एक फांक बांट कर खा रही थी और दूसरे व्यक्ति के साथ गेंद खेल रही थी। फिर गुड़िया अचानक परेशानी भरे स्वर में चीख उठती है। गुड़िया के चीखने पर लगभग 80 प्रतिशत शिशुओं ने उस व्यक्ति की ओर देखा जिसके साथ गुड़िया ने जूठा साझा किया था – संभवतः इस उम्मीद में कि वह व्यक्ति उसे मुसीबत से बचाएगा। यही प्रतिक्रिया लार साझा करने के अन्य मामलों में भी दिखी, जैसे जब व्यक्ति ने गुड़िया के मुंह में अपनी उंगली डाली।

युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के एलन फिस्क का कहना है कि यह अध्ययन यह समझने की ओर एक कदम है कि शिशु बोलना शुरू करने से पहले सामाजिकता के बारे में क्या-क्या जानते हैं। हालांकि, जूठा खाने के अलावा अन्य व्यवहारों से भी शिशुओं को गाढ़े रिश्तों का अनुमान मिल सकता है। जैसे एक ही बिस्तर पर सोना, गले लगाना और अंतरंग स्पर्श। (स्रोत फीचर्स)

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जलकुंभी: कचरे से कंचन तक की यात्रा – डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

लकुंभी गर्म देशों में पाई जाने वाली एक जलीय खरपतवार है। ब्राज़ील मूल का यह पौधा युरोप को छोड़कर सारी दुनिया में पाया जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम आइकॉर्निया क्रेसिपस है। खूबसूरत फूलों और पत्तियों के कारण जलकुंभी को सन 1890 में एक ब्रिटिश महिला ने ब्राज़ील से लाकर कलकत्ता के वनस्पति उद्यान में लगाया था। इसका उल्लेख उद्यान की डायरी में है।  भारत की जलवायु इस पौधे के विकास में सहायक सिद्ध हुई।

जलकुंभी पानी में तैरने वाला एवं तेज़ी से बढ़ने वाला पौधा है। यह पौधा भारत में लगभग 4 लाख हैक्टर जल स्रोतों में फैला हुआ है और जलीय खरपतवारों की सूची में इसका स्थान सबसे ऊपर है। इसके उपयोग से जैविक खाद बनाई जा सकती है। जलकुंभी में नाइट्रोजन 2.5 फीसदी, फास्फोरस 0.5 फीसदी, पोटेशियम 5.5 फीसदी और कैल्शियम ऑक्साइड 3 फीसदी होते हैं। इसमें लगभग 42 फीसदी कार्बन होता है, जिसकी वजह से जलकुंभी का इस्तेमाल करने पर मिट्टी के भौतिक गुणों पर अच्छा असर पड़ता है। नाइट्रोजन और पोटेशियम की अच्छी उपस्थिति के कारण जलकुंभी का महत्व और भी ज़्यादा हो जाता है।

भारत में जलकुंभी के कारण जल स्रोतों को होने वाले संकट के कारण इसे ‘बंगाल का आतंक’ भी कहा जाता है। यह एकबीजपत्री, जलीय पौधा है, जो ठहरे हुए पानी में काफी तेज़ी से फैलता है और पानी से ऑक्सीजन को खींच लेता है। इससे जलीय जीवों के लिए संकट पैदा हो जाता है। जल की सतह पर तैरने वाले इस पौधे की पत्तियों के डंठल फूले हुए एवं स्पंजी होते हैं। इसकी गठानों से झुंड में रेशेदार जड़ें निकलती हैं। इसका तना खोखला और छिद्रमय होता है। यह दुनिया के सबसे तेज़ बढ़ने वाले पौधों में से एक है – यह अपनी संख्या को दो सप्ताह में ही दुगना करने की क्षमता रखता है।

जलकुंभी बड़े बांधों में बिजली उत्पादन को प्रभावित करती है। जलकुंभी की उपस्थिति के कारण पानी के वाष्पोत्सर्जन की गति 3 से 8 प्रतिशत तक अधिक हो जाती है, जिससे जल स्तर तेज़ी से कम होने लगता है।

जलकुंभी मुख्यत: बाढ़ के पानी, नदियों और नहरों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर फैलती है। मुख्य पौधे से कई तने निकल आते हैं जो छोटे-छोटे पौधों को जन्म देते हैं तथा बड़े होने पर मुख्य पौधे से टूटकर अलग हो जाते हैं। इसमें प्रजनन की इतनी अधिक क्षमता होती है कि एक पौधा 9-10 महीनों में एक एकड़ पानी के क्षेत्र में फैल जाता है। बीजों द्वारा भी इसका फैलाव होता है। एक-एक पौधे में 5000 तक बीज होते हैं और इसके बीजों में अंकुरण की क्षमता 30 वर्षो तक बनी रहती है।

तालाबों और नहरों की जलकुंभी को श्रमिकों द्वारा निकलवाया जाता है परंतु यह विधि बहुत महंगी है। झीलों और बड़ी नदियों की जलकुंभी को मशीनों द्वारा निकलवाना सस्ता पड़ता है पर थोड़े समय बाद यह फिर से जमने लगती है। कुछ रसायनो द्वारा जलकुंभी का नियंत्रण होता है। महंगी होने के कारण भारत जैसे देश में रासायनिक विधियां कारगर नहीं हो पा रही है। जैविक नियंत्रण विधि में कीट, सूतकृमि, फफूंद, मछली, घोंघे, मकड़ी आदि का उपयोग किया जाता है। यह बहुत सस्ती और कारगर विधि है। इस विधि में पर्यावरण एवं अन्य जीवों एवं वनस्पतियों पर कोई विपरीत प्रभाव भी नहीं पड़ता।

जैविक विधि में जलकुंभी के नियंत्रण में एक बार कीटों द्वारा जलकुंभी नष्ट कर दिए जाने के बाद कीटों की संख्या भी कम हो जाती है। जलकुंभी का घनत्व फिर से बढ़ने लगता है और साथ ही कीटों की संख्या भी। सामान्य तौर पर जलकुंभी को पहली बार नष्ट करने में कीटों द्वारा 2 से 4 साल तक लग जाते हैं, जो कीटों की संख्या पर निर्भर करता है। ऐसे 7-8 चक्रों के बाद जलकुंभी पूरी तरह से नष्ट हो जाती है। पिछले वर्षों में जबलपुर, मणिपुर, बैंगलुरु तथा हैदराबाद समेत कुछ शहरों में जलकुंभी के जैविक नियंत्रण में सफलता मिली है।

जलकुंभी के मूल उत्पत्ति क्षेत्र ब्राज़ील आदि देशों में 70 से भी अधिक प्रजातियों के जीव जलकुंभी का भक्षण करते देखे गए हैं, परंतु मात्र 5-6 प्रजातियों को ही जैविक नियंत्रण के लिए उपयुक्त माना गया है। ऐसी कुछ प्रजातियों ने ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, सूडान आदि देशों में जलकुंभी को नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभाई है। दूसरे देशों में इन कीटों की सफलता से प्रभावित होकर भारत में भी 3-4 कीटों और एक चिचड़ी की प्रजाति को सन 1982 में फ्लोरिडा और ऑस्ट्रेलिया से बैंगलुरु में आयात किया गया था। भारत सरकार ने नियोकोटीना आइकोर्नीए एवं नियोकोटीना ब्रुकी को वर्ष 1983 एवं ऑर्थोगेलुम्ना टेरेब्रांटिस को वर्ष 1985 में पर्यावरण में छोड़ने की अनुमति दे दी। आज ये कीट भारत में हर प्रदेश में फैल चुके हैं, जहां ये जलकुंभी के जैविक नियंत्रण में मदद कर रहे हैं।

औषधीय गुणों से भरपूर होने और रोग प्रतिरोधी क्षमता पर प्रभाव के चलते कई देशों में जलकुंभी का उपयोग औषधियों में किया जाता है। असाध्य रोगों से बचने के लिए लोग इसका सूप बनाकर सेवन करते हैं। दवाइयों में अपने देश में इसका उपयोग बहुत कम हो रहा है, क्योंकि इस पौधे की विशेषता से अधिकतर लोग अनभिज्ञ हैं। कहा जाता है कि श्वांस, ज्वर, रक्त विकार, मूत्र तथा उदर रोगों में यह बेहद लाभकारी है।

हमारे देश में लोग इसे बेकार समझकर उखाड़ कर फेंक देते हैं। इसमें विटामिन ए, विटामिन बी, प्रोटीन, मैग्नीशियम जैसे कई पोषक तत्व होते हैं और यह रक्तचाप, हृदय रोग और मधुमेह से लेकर कैंसर तक के उपचार में उपयोगी हो सकती है।

इसका फूल काफी सुंदर होता है, जिसे सजावट के लिए उपयोग में लिया जाता है। जलकुंभी से डस्टबिन, बॉक्स, टोकरी, पेन होल्डर और बैग जैसे कई इको फ्रेंडली सामान बनाए जाते हैं और यह स्थानीय स्तर पर लोगों के लिए आमदनी का अच्छा साधन हो सकता है।

पिछले कुछ वर्षों से जलकुंभी से खाद बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई है; जब जलकुंभी से बड़ी मात्रा में जैविक खाद तैयार होने लगेगी तो इसका लाभ नदियों, नहरों और तालाबों के आसपास रहने वाले किसानों को मिलेगा। (स्रोत फीचर्स)

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राजेश्वरी चटर्जी: एक प्रेरक व्यक्तित्व – नवनीत कुमार गुप्ता

स्वतंत्रता पूर्व उच्च शिक्षा के लिए महिलाओं का आगे आना एक चुनौती से कम नहीं था। ऐसे विषम समय में भी अनेक भारतीय महिलाओं ने विज्ञान के क्षेत्र में अहम योगदान दिया। ऐसी ही महिलाओं में राजेश्वरी चटर्जी का नाम उल्लेखनीय है जिनका जन्म 24 जनवरी 1922 को कर्नाटक में हुआ था। राजेश्वरी चटर्जी कर्नाटक से पहली महिला इंजीनियर थी।

उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा विशेष अंग्रेज़ी स्कूल में ली। विद्यालय स्तर की शिक्षा के बाद उनका मन इतिहास का अध्ययन करने का था लेकिन आखिरकार उन्होंने भौतिकी और गणित को चुना। उन्होंने सेंट्रल कॉलेज ऑफ बैंगलोर से गणित में बीएससी (ऑनर्स) और एमएससी की डिग्री प्राप्त की। वे मैसूर युनिवर्सिटी में प्रथम स्थान पर रहीं। बीएससी और एमएससी परीक्षाओं में उम्दा प्रदर्शन के लिए उन्हें क्रमशः मम्मदी कृष्णराज वोडेयार पुरस्कार और एम. टी. नारायण अयंगर पुरस्कार और वाल्टर्स मेमोरियल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

एमएससी की डिग्री प्राप्त करने के बाद राजेश्वरी चटर्जी ने 1943 में भारतीय विज्ञान संस्थान में शोध कार्य आरंभ किया। वे भारतीय विज्ञान संस्थान में सर सी. वी. रमन के साथ कार्य करना चाहती थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, ब्रिटिशों से भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित करने के लिए भारत में एक अंतरिम सरकार स्थापित की गई, जिसने प्रतिभाशाली भारतीयों को छात्रवृत्ति की पेशकश की ताकि ऐसे वैज्ञानिक उच्च अध्ययन के लिए विदेश जा सकें। राजेश्वरी चटर्जी को 1946 में इलेक्ट्रॉनिक्स और इसके अनुप्रयोगों के क्षेत्र में चुना गया और मिशिगन विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति प्रदान की गई।

1950 के दशक में भारतीय महिलाओं के लिए उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए विदेश जाना बहुत मुश्किल था। 1947 में वे मिशिगन विश्वविद्यालय में दाखिल हुईं और इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग विभाग से मास्टर डिग्री प्राप्त की। फिर भारत सरकार के साथ अनुबंध का पालन करते हुए, उन्होंने वाशिंगटन डीसी में राष्ट्रीय मानक ब्यूरो में रेडियो फ्रीक्वेंसी मापन विभाग में आठ महीने का प्रायोगिक प्रशिक्षण लिया। 1953 की शुरुआत में उन्होंने प्रोफेसर विलियम गोल्ड डॉव के मार्गदर्शन में पीएचडी की डिग्री हासिल की।

1953 में भारत लौटकर उन्होंने भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलुरु में प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। बाद में यहीं पर वे इलेक्ट्रिकल कम्युनिकेशन इंजीनियरिंग विभाग की अध्यक्ष बनीं। इस क्षेत्र में विशेषज्ञता के चलते उन्हें विद्युत चुंबकीय सिद्धांत, इलेक्ट्रॉन ट्यूब सर्किट और माइक्रोवेव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्य करने का मौका मिला था। उनका प्रमुख योगदान विशेष उद्देश्यों के लिए एंटेना के क्षेत्र में मुख्य रूप से विमान और अंतरिक्ष यान में रहा है। अपने जीवनकाल में, उन्होंने 20 पीएचडी छात्रों का मार्गदर्शन किया। राजेश्वरी चटर्जी ने 100 से अधिक शोध पत्र लिखे और उनकी सात पुस्तकें प्रकाशित हुईं। 1982 में भारतीय विज्ञान संस्थान से सेवानिवृत्ति के बाद, उन्होंने इंडियन एसोसिएशन फॉर वुमेन स्टडीज़ सहित कई सामाजिक कार्यक्रमों में काम किया।

यदि उनके व्यक्तिगत जीवन की बात करें तो उनके पिता नानजंगुद में एक वकील थे। उनकी दादी कमलम्मा दासप्पा, तत्कालीन मैसूर राज्य में पहली महिला स्नातकों में से एक थीं। उनकी दादी शिक्षा के क्षेत्र में, विशेष रूप से विधवाओं और परित्यक्त पत्नियों के लिए, बहुत सक्रिय थीं। राजेश्वरी चटर्जी ने 1953 में भारतीय विज्ञान संस्थान के डॉ. शिशिर कुमार चटर्जी से शादी की। उन्होंने अपने पति के साथ माइक्रोवेव अनुसंधान प्रयोगशाला का निर्माण किया और माइक्रोवेव इंजीनियरिंग के क्षेत्र में शोध शुरू किया, जो भारत में इस तरह का पहला शोध था।

1994 में पति के निधन के बाद भी राजेश्वरी चटर्जी ने सक्रिय जीवन जीना जारी रखा। उनकी बेटी इंद्रा चटर्जी युनिवर्सिटी ऑफ नेवादा में इलेक्ट्रिकल और बायोमेडिकल इंजीनियरिंग में प्रोफेसर और सहायक संकाय अध्यक्ष हैं।

राजेश्वरी चटर्जी को अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया जिनमें इंस्टीट्यूट ऑफ इलेक्ट्रिकल एंड रेडियो इंजीनियरिंग, यूके से सर्वश्रेष्ठ शोध पत्र के लिए माउंटबैटन पुरस्कार, इंस्टीट्यूशन ऑफ इंजीनियर्स से सर्वश्रेष्ठ शोध के लिए जेसी बोस मेमोरियल पुरस्कार और इलेक्ट्रॉनिक एंड टेलीकम्यूनिकेशन्स संस्थान द्वारा सर्वश्रेष्ठ शोध और शिक्षण कार्य के लिए रामलाल वाधवा पुरस्कार शामिल हैं।

राजेश्वरी चटर्जी जैसे वैज्ञानिक एवं शिक्षक लाखों लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं जो विषम परिस्थितियों में भी विज्ञान के द्वारा समाज की सेवा के लिए लगे रहते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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