गुमशुदा मध्ययुगीन साहित्य की तलाश

हाल ही में युनिवर्सिटी ऑफ एंटवर्प के कंप्यूटेशनल टेक्स्ट शोधकर्ता माइक केस्टेमोंट और उनके सहयोगियों ने गुमशुदा मध्ययुगीन रचनाओं का पता लगाने का प्रयास किया। गौरतलब है कि युरोप के मध्ययुग, यानी छठी सदी की शुरुआत से लेकर 15वीं सदी के अंत, के दौरान काफी कथा साहित्य रचा गया था। साहित्याकरों ने राक्षसों से लड़ते शूरवीरों और उनकी विदेश यात्राओं की कहानियां लिखीं जो आजकल की एक्शन फिल्मों जैसी थीं। उदाहरण के लिए, नीदरलैंड में 13वीं सदी में मैडॉक नामक एक पात्र रचा गया था जो संभवतः एक कविता का शीर्षक था लेकिन किसी को उस कविता की विषयवस्तु के बारे में कोई जानकारी नहीं है। 

गुमशुदा रचनाओं का पता ऐसे चलता है कि अन्य लेखक अपनी रचनाओं में उनका ज़िक्र करते हैं। कभी-कभी प्राचीन कैटलॉग पुस्तकों की उपस्थिति दर्शाते हैं। लेकिन इन रचनाओं में से एक अंश ही आज उपलब्ध है। गौरतलब है कि प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार से किसी भी कृति की ढेर सारी प्रतियां नहीं होती थीं। ऐसे में यदि कोई विशेष रचना आग से नष्ट हो जाए या कीड़ों द्वारा खा ली जाए तो वह हमेशा के लिए खो जाएगी।

तो यह अनुमान लगाने के लिए कि वास्तव में कितनी रचनाएं रही होंेगी, इतिहासकार अपूर्ण प्राचीन पुस्तक कैटलॉग की तुलना वर्तमान ग्रंथों और उनके दायरे से करते हैं। इस संदर्भ में अतीत में मौजूद रहे साहित्य का बेहतर अनुमान लगाने के लिए केस्टेमोंट और उनके सहयोगियों ने “अनदेखी प्रजाति” मॉडल नामक तकनीक का उपयोग किया जिसका विकास किसी पारिस्थितिक तंत्र में अनदेखी प्रजातियों का पता लगाने के लिए किया गया था।

इसका विकास नेशनल त्सिंग हुआ युनिवर्सिटी की सांख्यिकीविद एनी चाओ द्वारा किया गया है। इसमें सांख्यिकी तकनीकों का उपयोग करते हुए वास्तविक मैदानी गणना के आंकड़ों के आधार पर उन प्रजातियों का अनुमान लगाया जाता है जो उपस्थित तो हैं लेकिन वैज्ञानिकों की नज़रों में नहीं आईं।

माइक केस्टेमोंट और उनके सहयोगियों ने अपने अध्ययन के लिए 600 से 1450 के दौरान डच, फ्रेंच, आइसलैंडिक, आयरिश, अंग्रेज़ी और जर्मन में लिखी गई वर्तमान में उपलब्ध और संदिग्ध गुमशुदा मध्ययुगीन ग्रंथों की सूची को देखा। कुल रचनाओं की संख्या 3648 थी। साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार अनदेखी प्रजाति मॉडल ने बताया कि मध्ययुगीन ग्रंथों के केवल 9 प्रतिशत ग्रंथ वर्तमान समय में उपलब्ध हैं। यह आंकड़ा 7 प्रतिशत के पारंपरिक अनुमानों के काफी करीब है। अलबत्ता, इस नए अध्ययन ने क्षेत्रीय वितरण उजागर किया। इस मॉडल के अनुसार अंग्रेज़ी के केवल 5 प्रतिशत जबकि आइसलैंडिक और आयरिश के क्रमशः 17 प्रतिशत और 19 प्रतिशत टेक्स्ट आज के समय में उपलब्ध हैं।

इस तकनीक के इस्तेमाल की काफी सराहना की जा रही है। आने वाले समय में इस तकनीक का उपयोग सामाजिक विज्ञान और मानविकी में भी किया जा सकता है।

बहरहाल, हारवर्ड युनिवर्सिटी में मध्ययुगीन सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास का अध्ययन करने वाले डेनियल स्मेल का कहना है कि यह मॉडल सिद्धांतकारों और सांख्यिकीविदों का खेल है। स्मेल के अनुसार लेखकों ने मान लिया है कि सांस्कृतिक रचनाएं सजीव जगत के नियमों का पालन करती हैं। और तो और, इस अध्ययन से कोई अतिरिक्त जानकारी भी नहीं मिल रही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पाकिस्तान का पोलियोवायरस अफ्रीका पहुंचा

लावी सरकार ने सूचना दी है कि पकिस्तान में पाया जाने वाला प्राकृतिक पोलियोवायरस संस्करण अब अफ्रीकी महाद्वीप पहुंच चुका है। 1992 के बाद से देश में प्राकृतिक पोलियोवायरस का यह पहला मामला है जिसने एक तीन वर्षीय बच्ची को लकवाग्रस्त कर दिया है। इस नए मामले ने पोलियो को जड़ से खत्म करने के वैश्विक अभियान को काफी धक्का पहुंचाया है। हालांकि, ग्लोबल पोलियो उन्मूलन अभियान (जीपीईआई) को उम्मीद है कि इस प्रकोप को जल्द से जल्द नियंत्रित किया जा सकेगा।

वर्तमान में पाकिस्तान और अफगानिस्तान ही ऐसे देश हैं जहां वायरस फैलने की घटनाएं निरंतर होती रही हैं। इसका पिछला मामला 2013 में देखने को मिला था जिसमें पाकिस्तान से निकले वायरस ने सीरिया में प्रकोप बरपाया था। गौरतलब है कि अफ्रीका महाद्वीप पहले से ही टीका-जनित पोलियो वायरस के बड़े प्रकोप से जूझ रहा है।

इस तरह का वायरस मुख्य रूप से कम टीकाकरण वाले क्षेत्रों में पाया जाता है जहां ओरल पोलियो टीके में पाया जाने वाला जीवित लेकिन निष्क्रिय वायरस लकवाग्रस्त करने की क्षमता विकसित कर लेता है। हालांकि अफ्रीकी महाद्वीप में प्राकृतिक पोलियो का आखिरी मामला 2016 में पाया गया था और अगस्त 2020 में अफ्रीका को प्राकृतिक पोलियो मुक्त घोषित कर दिया गया था।           

गौरतलब है कि पोलियो संक्रमण खामोशी से फैलता है और 200 संक्रमित बच्चों में से मात्र एक बच्चे को लकवाग्रस्त करता है। ऐसे में यदि वायरस का एक भी मामला सामने आता है तो उसे प्रकोप माना जाता है। वैसे जीपीईआई का इतिहास रहा है कि 6 माह के अंदर इस प्रकार के आयातित प्रकोपों को खत्म किया गया है। मलावी में पाया गया वाइल्ड टाइप 1 पोलियोवायरस का निकट सम्बंधी निकला जो अक्टूबर 2019 में सिंध प्रांत में फैला था। लगता है, वायरस तभी से ही गुप्त रूप से उपस्थित था।

पिछले दो वर्षों में कोविड महामारी के कारण जीपीईआई के विश्लेषकों के पास वायरस के आगमन और फैलाव के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। मलावी से मोज़ांबिक, ज़ाम्बिया और तंज़ानिया में लोगों की अत्यधिक आवाजाही के कारण अन्य देशों में वायरस के फैलने के जोखिम का आकलन और व्यापक टीकाकरण रणनीति पर भी विचार किया जा रहा है।

पोलियो के इस नए मामले से इतना तो स्पष्ट है कि इस वायरस का खतरा अभी भी बच्चों पर मंडरा रहा है। विशेषज्ञों के अनुसार पाकिस्तान और अफगानिस्तान में पोलियो संचरण को स्थायी रूप से बाधित करने पर ध्यान केंद्रित करते हुए दुनिया भर में टीकाकरण को प्राथमिकता देने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत के जंगली संतरे – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

नींबू और संतरा हमारे भोजन को स्वाद देने वाले और पोषण बढ़ाने वाले अवयव हैं। ऐसा अनुमान है कि पृथ्वी पर नींबू (साइट्रस) वंश के लगभग एक अरब पेड़ हैं। वर्तमान में दुनिया में नींबू वंश के 60 से अधिक अलग-अलग फल लोकप्रिय हैं। ये सभी निम्नलिखित तीन फल प्रजातियों के संकर हैं या संकर के संकर हैं या संकर के संकर के संकर… हैं: (1) बड़ा, मीठा और स्पंजी (मोटे) छिलके वाला चकोतरा (साइट्रस मैक्सिमा; अंग्रेज़ी पोमेलो, तमिल बम्बलिमा); (2) स्वादहीन साइट्रॉन, जिसका उपयोग पारंपरिक चिकित्सा में किया जाता है (साइट्रस मेडिका; गलगल, मटुलंकम या कोमाट्टी-मटुलै), और (3) ढीले-पतले छिलके वाला और मीठे स्वाद का मैंडरिन ऑरेंज (साइट्रस रेटिकुलेटा, संतरा, कमला संतरा) जिसका सम्बंध हम नागपुर के साथ जोड़ते हैं।

नींबू वंश के हर फल की कुछ खासियत होती है: उदाहरण के लिए, दुर्लभ ताहिती संतरा, जो भारतीय रंगपुर नींबू का वंशज है, नारंगी रंग के नींबू जैसा दिखता है और स्वाद में अनानास जैसा होता है।

संतरे की उत्पत्ति                               

साइट्रस (नींबू) वंश की उत्पत्ति कहां से हुई? नींबू वंश के भारतीय मूल का होने की बात सबसे पहले चीनी वनस्पति शास्त्री चोज़ाबुरो तनाका ने कही थी। वर्ष 2018 में नेचर पत्रिका में गुओहांग अल्बर्ट वू और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित नींबू वंश की कई किस्मों के जीनोम के एक विस्तृत अध्ययन का निष्कर्ष है कि आज हम इसकी जितनी भी किस्में देखते हैं, उनके अंतिम साझे पूर्वज लगभग अस्सी लाख वर्ष पूर्व उस इलाके में उगते थे जो वर्तमान में पूर्वोत्तर भारत के मेघालय, असम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड और मणिपुर और उससे सटे हुए म्यांमार और दक्षिण पश्चिमी चीन में है। गौरतलब है कि यह क्षेत्र दुनिया के सबसे समृद्ध जैव विविधता हॉटस्पॉट में से एक है। जैव विविधता हॉटस्पॉट ऐसे क्षेत्र को कहते हैं जहां स्थानिक वनस्पति की कम से कम 1500 प्रजातियां पाई जाती हों, और वह क्षेत्र अपनी कम से कम 70 प्रतिशत वनस्पति गंवा चुका हो। पूर्वोत्तर में भारत के 25 प्रतिशत जंगल हैं और जैव विविधता का एक बड़ा हिस्सा है। यहां आपको खासी और गारो जैसी जनजातियां और बोली जाने वाली लगभग 200 भाषाएं मिलेंगी। यह क्षेत्र नींबू वंश के जीनोम का एक समृद्ध भंडार भी है। वर्तमान में यहां 68 किस्म के जंगली और संवर्धित साइट्रस पाए जाते हैं।

प्रेतों का फल

जंगली भारतीय संतरा विशेष दिलचस्पी का केंद्र है। यह पूर्वोत्तर भारत के देशज साइट्रस (साइट्रस इंडिका तनाका) की पूर्वज प्रजाति है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह इस समूह का आदिम पूर्वज भी हो सकता है। कलकम मोमिन और उनके साथियों ने मेघालय की गारो पहाड़ियों में हमारे अपने जंगली संतरे का अध्ययन किया था, जहां ये अब सिर्फ बहुत छोटे हिस्सों में ही बचे हैं। यह अध्ययन वर्ष 2016 में  इंटरनेशनल जर्नल ऑफ माइनर फ्रूट्स, मेडिसिनल एंड एरोमैटिक प्लांट्स में प्रकाशित हुआ था।

विस्तृत आणविक तुलनाओं वाली हालिया खोज में मणिपुर के तमेंगलांग ज़िले में जंगली भारतीय संतरा पुन: खोजा गया है; इलाके का जनसंख्या घनत्व बहुत कम है जंगल अत्यंत घना। यह अध्ययन हुइद्रोम सुनीतिबाला और उनके साथियों द्वारा इस वर्ष जेनेटिक रिसोर्स एंड क्रॉप इवॉल्यूशन में प्रकाशित हुआ है। मणिपुर के इस शोध दल को यहां साइट्रस इंडिका के तीन अलग-अलग झुंड मिले हैं, जिनमें से सबसे बड़े झुंड में 20 पेड़ हैं। यह भारी वर्षा और उच्च आर्द्रता वाला क्षेत्र है, जहां वार्षिक तापमान 4 और 31 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है।

मणिपुरी जनजाति इसे गरौन-थाई (केन फ्रूट) कहती है, लेकिन ऐसा लगता है कि उन्होंने इस फल की न तो खेती की और न ही इसे सांस्कृतिक रूप से अपनाया, जैसा कि खासी और गारो लोगों ने किया है। गारो भाषा में इस फल का नाम मेमंग नारंग (प्रेतों का फल) है, क्योंकि इसका उपयोग वे अपने मृत्यु अनुष्ठानों में करते हैं। पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों में इसे पाचन सम्बंधी समस्याओं और सामान्य सर्दी के लिए उपयोग किया जाता है। गांव अपने मेमंग पेड़ों की देखभाल काफी लगन से करता है।

इसका फल छोटा होता है, जिसका वजन 25-30 ग्राम होता है और यह गहरे नारंगी से लेकर लाल रंग का होता है। जनजातियां पके फल को उसके तीखे खट्टेपन के साथ बहुत पसंद करती हैं। इसका स्वाद फीनॉलिक यौगिकों (जो सशक्त एंटी-ऑक्सीडेंट होते हैं) और फ्लेवोनॉइड्स से आता है। ये फीनॉलिक्स और फ्लेवोनॉइड्स प्रचलित एंटी-एजिंग (बुढ़ापा-रोधी) स्किन लोशन्स में पाए जाते हैं।

ऐसा लगता है मानव जाति मीठा पसंद करती है, और संतरा प्रजनकों ने इसी बात का ख्याल रखा है। हालांकि हम भारतीय खट्टे स्वाद के खिलाफ नहीं हैं! हम नींबू (साइट्रस औरेंटिफोलिया स्विंगल) के बहुत शौकीन हैं। दुनिया में भारत इनका अग्रणी उत्पादक है। हमारे प्रजनकों ने इसमें बहुत अच्छा काम किया है। परभणी और अकोला के कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा विकसित नई किस्में (विक्रम, प्रेमलिनी वगैरह) अर्ध-शुष्क इलाके में भी अच्छी पैदावार दे रही हैं।

इस चक्कर में, साइट्रस इंडिका उपेक्षित पड़ी हुई है। यह गंभीर जोखिम में है, इसकी खेती केवल कुछ ही गांवों में की जाती है। और इसका जीनोम अनुक्रमण भी नहीं किया गया है।

ज़रूरी नहीं कि नींबू वंश के (खट्टे) फलों में फीनॉलिक और फ्लेवोनॉइड यौगिकों को कम करना अच्छा ही साबित हो क्योंकि ये पौधों को रोगजनकों से बचाने का काम करते हैं। पूर्वोत्तर में साइट्रस की बची हुई जंगली किस्मों की सावधानीपूर्वक पहचान करने, उनका संरक्षण करने और उनका विस्तार से अध्ययन करने से केवल ज्ञान ही नहीं मिलेगा। बल्कि यह वर्तमान में उगाए जा रहे संतरों और नींबू को भविष्य के लिए सुरक्षित रखने में मदद करेगा। इनसे रोग प्रतिरोधक क्षमता में सुधार होगा और साथ ही साथ इन अद्भुत फलों से मिलने वाले स्वास्थ्य लाभ भी मिलेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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आंत के सूक्ष्मजीव अवसाद का कारण हैं

हमारे शरीर में भीतर और बाहर अरबों-खरबों बैक्टीरिया पलते हैं और ये हमें स्वस्थ रखने और बीमार करने दोनों में भूमिका निभाते हैं। अब, फिनलैंड में हज़ारों लोगों पर किए गए अध्ययन से लगता है कि अवसाद (डिप्रेशन) के कुछ मामलों के लिए ज़िम्मेदार सूक्ष्मजीवों की पहचान हुई है।

वैज्ञानिक दिमागी स्वास्थ्य और आंत के सूक्ष्मजीवों के बीच सम्बंधों की छानबीन करते रहे हैं और बढ़ते क्रम में ऐसे सम्बंध देखे गए हैं। जैसे ऑटिज़्म और मूड की गड़बड़ी वाले लोगों की आंत में कुछ प्रमुख बैक्टीरिया की कमी दिखती है। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि आंत में इन सूक्ष्मजीवों की कमी क्या वास्तव में विकार पैदा करती है, लेकिन इन निष्कर्षों के आधार पर आंत के सूक्ष्मजीवों और उनके द्वारा उत्पादित पदार्थों का उपयोग विभिन्न तरह के मस्तिष्क विकारों के संभावित उपचार के रूप में करने की भागमभाग शुरू भी हो गई है।

हाल ही में शोधकर्ताओं ने फ्रंटियर्स इन साइकिएट्री में बताया है कि मल प्रत्यारोपण से दो अवसाद ग्रस्त रोगियों के लक्षणों में सुधार दिखा है।

बेकर हार्ट एंड डायबिटीज़ इंस्टीट्यूट के सूक्ष्मजीव जैव-सूचनाविद गिलौम मेरिक वास्तव में अवसाद के लिए ज़िम्मेदार सूक्ष्मजीव खोजने की दिशा में काम नहीं कर रहे थे। उनकी टीम तो फिनलैंड में किए गए स्वास्थ्य और जीवन शैली के एक बड़े अध्ययन के डैटा का विश्लेषण कर रही थी। यह अध्ययन 6000 प्रतिभागियों पर किया गया था जिसमें उनकी आनुवंशिक बनावट का आकलन किया गया, प्रतिभागियो की आंत में पल रहे सूक्ष्मजीव पता लगाए गए, और उनके आहार, जीवन शैली, ली गई औषधियों और स्वास्थ्य सम्बंधी व्यापक डैटा संकलित किया गया था। यह अध्ययन फिनिश लोगों में जीर्ण रोगों के अंतर्निहित कारणों को पहचानने के लिए 40 वर्षों से किए जा रहे प्रयास का हिस्सा था।

शोधकर्ता यह जानने का प्रयास कर रहे थे कि किसी व्यक्ति की आंतों के सूक्ष्मजीव संसार पर आहार और आनुवंशिकी का क्या प्रभाव होता है। नेचर जेनेटिक्स में शोधकर्ताओं ने बताया है कि मानव जीनोम के दो हिस्से इस बात को काफी प्रभावित करते हैं कि आंत में कौन से सूक्ष्मजीव मौजूद हैं। इनमें से एक हिस्से में दुग्ध शर्करा लैक्टोज़ को पचाने वाला जीन मौजूद है, और दूसरा हिस्सा रक्त समूह का निर्धारण करता है। (नेचर जेनेटिक्स में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में भी नीदरलैंड के 7700 लोगों के जीनोम और आंत के सूक्ष्मजीवों के बीच सम्बंधों के विश्लेषण किया गया था और उसमें भी इन्हीं आनुवंशिक हिस्सों की पहचान हुई थी।)

मेरिक की टीम ने यह भी पता लगाया कि कौन से आनुवंशिक संस्करण कुछ सूक्ष्म जीवों की संख्या को प्रभावित कर सकते हैं – और उनमें से कौन से संस्करण 46 सामान्य बीमारियों से जुड़े हैं। दो बैक्टीरिया, मोर्गनेला और क्लेबसिएला, अवसाद में भूमिका निभाते हैं। और एक सूक्ष्मजीवी सर्वेक्षण में 181 लोगों में मोर्गनेला बैक्टीरिया की काफी वृद्धि देखी गई थी, आगे जाकर ये लोग अवसाद से ग्रसित हुए थे।

पूर्व के अध्ययनों में भी अवसाद में मोर्गनेला की भूमिका पहचानी गई है। वर्ष 2008 में हुए अध्ययन में शोधकर्ता अवसाद और शोथ के बीच एक कड़ी तलाश रहे थे, इसमें उन्होंने अवसाद से ग्रसित लोगों में मोर्गनेला और आंत में मौजूद अन्य ग्राम-ऋणात्मक बैक्टीरिया द्वारा उत्पादित रसायनों के प्रति मज़बूत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया देखी थी। अब, यह नवीनतम अध्ययन पूर्व के इन निष्कर्षों को मज़बूती प्रदान करता है कि आंत के रोगाणुओं के कारण होने वाली शोथ मूड को प्रभावित कर सकती है।

बहरहाल, इस क्षेत्र के अध्ययन अभी प्रारंभिक अवस्था में है; अवसाद कई तरह के होते हैं और सूक्ष्मजीव कई तरीकों से इसे प्रभावित कर सकते हैं। कुछ लोग इसके आधार पर चिकित्सकीय हस्तक्षेप की बात कह रहे हैं लेकिन इन निष्कर्षों को चिकित्सा में लागू करना अभी दूर की कौड़ी ही है। (स्रोत फीचर्स)

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फफूंद से सुरक्षित है जीन-संपादित गेहूं

पावडरी माइल्ड्यू नामक फफूंद गेहूं की खेती करने वाले किसानों के लिए एक बड़ी समस्या है। यह फसलों को संक्रमित करती है, पत्तियों का रंग पीला पड़ जाता है और वृद्धि धीमी पड़ जाती है। यह फसल को 40 प्रतिशत तक नष्ट कर सकती है।

हाल ही में शोधकर्ताओं ने एक ऐसा जीन-संपादित गेहूं विकसित किया है जो दाने के विकास को बाधित किए बिना फफूंद से सुरक्षा प्रदान करता है। शोधकर्ताओं के अनुसार यह तकनीक स्ट्रॉबेरी और खीरे जैसी अन्य फसलों में भी अपनाई जा सकती है।

फसलों में रसायनों का उपयोग कम करना पर्यावरण के लिए अच्छा होगा और साथ ही रोग प्रतिरोधी पौधे ऐसे देशों के लिए बेहतर साबित होंगे जिनकी कीटनाशकों तक पहुंच नहीं है।     

गौरतलब है कि कुछ पौधे प्राकृतिक रूप से पावडरी माइल्ड्यू से अपना बचाव कर सकते हैं। 1940 के दशक में इथोपिया की यात्राओं के दौरान वैज्ञानिकों ने जौं की ऐसी किस्में देखी थी जिन पर फफूंद का बहुत कम प्रभाव था। लेकिन ये पौधे और इनके आधार पर पौध संवर्धकों द्वारा बनाए गए पौधे ठीक से विकसित नहीं हो पाते थे और अनाज की उपज भी कम थी। फिर भी संवर्धकों के प्रयासों से जौं के ऐसे संस्करण तैयार हो सके जो कवकों से सुरक्षित रहते थे और पर्याप्त रूप से विकसित होने में सक्षम थे। इस तरह से विकसित जौं काफी सफल रही।

कई रोगजनक जीव पौधों की रोग प्रतिरोधक क्षमता को चकमा देने के तरीके विकसित कर लेते हैं लेकिन इन नई किस्मों में पाउडरी माइल्ड्यू से दशकों तक सुरक्षा मिलती रही। इसका कारण MLO नामक जीन है जो उत्परिवर्तित होने पर फफूंद का संक्रमण रोकता है। यह जीन फफूंद हमले के दौरान कोशिका भित्ति को मोटा करके पौधे को सुरक्षा प्रदान करता है।

गेहूं में यह तकनीक सफल नहीं रही। गेहूं में MLO में उत्परिवर्तन से पौधों का विकास रुक गया और पैदावार में 5 प्रतिशत की कमी आई। किसानों को फफूंदनाशी का इस्तेमाल करना ही बेहतर लगा। समस्या के समाधान के लिए कुछ वर्ष पूर्व चीन के इंस्टीट्यूट ऑफ जेनेटिक्स एंड डेवलपमेंटल बायोलॉजी के पादप विज्ञानी गाओ कैक्सिया और उनके सहयोगियों ने क्रिस्पर सहित विभिन्न जीन-संपादन तकनीकों का उपयोग करते हुए गेहूं में MLO जीन की छह प्रतियों में सुरक्षा देने वाले उत्परिवर्तन तैयार किए।        

वैसे ऐसे परिवर्तन पारंपरिक तरीकों से हासिल किए जा सकते हैं लेकिन उसमें कई वर्षों का समय लग जाता है। वैसे भी अब कई देशों की सरकारों ने हाल ही में जीन संपादन तकनीक से बनाए गए पौधों के अध्ययन और व्यवसायीकरण को आसान बना दिया है।

नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार टीम ने कुछ सीमित मैदानी परीक्षणों में जीन-संपादित गेहूं और अन्य गेहूं की वृद्धि में कोई उल्लेखनीय अंतर नहीं पाया। लेकिन सिर्फ एक-एक पौधे को माप कर उपज का विश्वसनीय अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इसके लिए बड़े प्लॉट में परीक्षण की आवश्यकता होगी। 

जीन-संशोधित पौधों की वृद्धि सामान्य रहना अचरज की बात थी। गाओ और उनके सहयोगियों ने पाया कि जीन संपादन से MLO जीन का एक भाग ही नहीं हटा बल्कि गुणसूत्र का एक बड़ा हिस्सा भी हट गया था। नतीजतन TMT3 नामक एक नज़दीकी जीन अधिक सक्रिय हो गया जिसने पौधे की वृद्धि को सामान्य रखा। TMT3 जीन एक ऐसे प्रोटीन का निर्माण करता है जो शर्करा के अणुओं के परिवहन में मदद करता है लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि MLO उत्परिवर्तन के कारण उपज में होने वाली हानि की क्षतिपूर्ति कैसे हुई है।

गाओ और उनके सहयोगी स्ट्रॉबेरी, मिर्च और खीरे में भी जीन संपादन का प्रयास कर रहे हैं जो पाउडरी माइल्ड्यू के प्रति अति संवेदनशील हैं। इसी दौरान उन्होंने गेहूं की चार किस्मों का जीन-संपादन किया है जिनको चीन के किसानों ने काफी पसंद किया और बड़े मैदानी परीक्षणों में अच्छे परिणाम दिए हैं। बहरहाल, चीन में जीन-संपादित गेहूं को किसानों को बेचने से पहले कृषि मंत्रालय की मंज़ूरी की आवश्यकता होगी। (स्रोत फीचर्स)

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हृदय पर कोविड-19 के गंभीर प्रभाव

महामारी की शुरुआत से ही संकेत मिलने लगे थे कि सार्स-कोव-2 से संक्रमित गंभीर रोगियों में हृदय और रक्त वाहिनियों में क्षति होती है। मुख्य रूप से खून के थक्के बनना, हृदय में सूजन, धड़कन की लय बिगड़ना, दिल का दौरा जैसी समस्याएं देखी गई थीं। हाल ही में किए गए एक व्यापक अध्ययन में पता चला है कि वायरस के ऐसे प्रभाव काफी लंबे समय तक बने रह सकते हैं।

अमेरिका के 1.1 करोड़ वृद्ध लोगों के स्वास्थ्य रिकॉर्ड के विश्लेषण में शोधकर्ताओं ने पाया कि 1 वर्ष पहले कोविड-19 से ग्रसित लोगों में 20 विभिन्न हृदय और रक्त वाहिनी सम्बंधी विकारों का जोखिम सामान्य की तुलना में काफी बढ़ गया है। यह जोखिम प्रारंभिक रोग की गंभीरता के साथ-साथ बढ़ता पाया गया।

इस अध्ययन से प्राप्त डैटा से स्पष्ट हो जाता है कि सार्स-कोव-2 संक्रमण सामान्य फ्लू से कहीं अधिक खतरनाक है। हालांकि, विशेषज्ञ इस अध्ययन को दोहराने का सुझाव देते हैं क्योंकि इसमें दोषपूर्ण निदान जैसी त्रुटियों की संभावना है।

फिलहाल तो शोधकर्ताओं को वायरस द्वारा दीर्घकालिक क्षति की प्रक्रिया के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। लेकिन उनका मानना है कि हृदय सम्बंधी जोखिम और लॉन्ग कोविड लक्षणों के समूह (ब्रेन फॉग, थकान, कमज़ोरी और गंध संवेदना का ह्रास) का मूल कारण एक ही हो सकता है।

इसके लिए शोधकर्ताओं ने अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ वेटरन्स अफेयर्स (वीए) के इलेक्ट्रॉनिक स्वास्थ्य रिकॉर्ड में लगभग डेढ़ लाख लोगों के डैटा का विश्लेषण किया जो मार्च 2020 से जनवरी 2021 के बीच कोविड से संक्रमित हुए और संक्रमित होने के कम से कम 30 दिन तक जीवित रहे। उन्होंने दो तुलना समूहों की भी पहचान की। एक समूह 56 लाख ऐसे लोगों का था जिन्होंने महामारी के दौरान देखभाल की मांग तो की थी लेकिन जांच में कोविड नहीं पाया गया था; दूसरा समूह ऐसे 59 लाख लोगों का था जिन्होंने 2017 में देखभाल चाही थी।

अध्ययन में टीके के व्यापक रूप से उपलब्ध होने से पहले का ही डैटा शामिल किया गया था। इस तरह से 99.7 प्रतिशत लोग संक्रमित होने के समय टीकाकृत नहीं थे। इसलिए इस अध्ययन में यह स्पष्ट नहीं है कि टीकाकृत लोगों में ब्रेकथ्रू संक्रमण के बाद दीर्घकालिक हृदय सम्बंधी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं या नहीं। इसके अलावा, इस अध्ययन का झुकाव वृद्ध, श्वेत और पुरुष आबादी की ओर अधिक दिखाई देता है। तीनों समूहों में 90 प्रतिशत पुरुष और 71-76 प्रतिशत श्वेत रोगी थे और सभी की औसत उम्र 60 और 70 के बीच थी।

शोधकर्ताओं ने पाया कि कोविड-19 के बाद हृदय रोग होने की संभावना में वृद्धि लगभग सभी लोगों – वृद्ध और युवा, मधुमेह और बिना मधुमेह, मोटापे और बिना मोटापे, धूम्रपान करने वाले और धूम्रपान न करने वाले – में एक जैसी थी।

कोविड-19 ने 20 तरह के हृदय रोगों के जोखिम को बढ़ा दिया है। जैसे कोविड से पीड़ित वृद्ध लोगों में संक्रमित होने के 12 महीने बाद नियंत्रण समूह की तुलना में 72 प्रतिशत अधिक हृदयाघात की संभावना देखी गई। 1000-1000 संक्रमित व असंक्रमित लोगों को लें तो किसी ना किसी हृदय सम्बंधी दिक्कत की संभावना असंक्रमित लोगों की अपेक्षा 45 अतिरिक्त संक्रमित लोगों में है।

फिलहाल वायरस द्वारा हृदय और रक्त वाहिनियों पर दीर्घकालिक असर शोध का विषय है। एक संभावित प्रक्रिया एंडोथेलियल कोशिकाओं की सूजन है जो हृदय और रक्त वाहिनियों का अंदरूनी अस्तर बनाती हैं। वैसे कई अन्य संभावनाएं भी हैं। जैसे वायरल आक्रमण से हृदय की मांसपेशियों की क्षति, साइटोकाइंस नामक सूजन बढ़ाने वाले रसायनों का उच्च स्तर जो हृदय पर सख्त धब्बे बनाता हो और वायरस का ऐसे स्थानों छिपे रहना जहां प्रतिरक्षा प्रणाली प्रभावी ढंग से निपट न सके।

शोधकर्ताओं का मानना है कि आने वाले समय में कोविड-19 से संक्रमित हो चुके लाखों लोगों को कोविड के दीर्घकालिक परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं जिससे स्वास्थ्य प्रणालियों पर एक बार फिर दबाव बन सकता है। इसके लिए विश्व भर की सरकारों और स्वास्थ्य सेवाओं को हृदय सम्बंधी रोगों से निपटने के लिए ज़रूरी कदम उठाने होंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महामारी से उपजता मेडिकल कचरा – अली खान

कोरोना महामारी का खतरा लगातार कम हो रहा है, मगर इससे पैदा हुआ मेडिकल कचरा पूरी दुनिया के लिए एक बड़ी समस्या बन चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने चेतावनी दी है कि कोरोना महामारी से निपटने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले चिकित्सा उपकरणों से इंसान और पर्यावरण दोनों के लिए खतरा पैदा हो रहा है। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, वैश्विक कोविड महामारी के दौरान जमा हुए हज़ारों टन अतिरिक्त कचरे ने कचरा प्रबंधन प्रणाली पर गंभीर दबाव डाला है। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि मौजूदा अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों में सुधार की सख्त ज़रूरत है।

डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, कोरोना महामारी के परिणामस्वरूप 2 लाख टन से भी अधिक मेडिकल कचरा जमा हो गया है। इसमें से अधिकांश प्लास्टिक के रूप में है। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि मार्च 2020 से नवंबर 2021 के बीच चिकित्सा कर्मियों की सुरक्षा के लिए लगभग 1.5 अरब पीपीई किट का निर्माण व वितरण किया गया था। इनका वजन लगभग 87,000 टन है। गौर करने वाली बात यह है कि यह मात्रा केवल संयुक्त राष्ट्र की एक प्रणाली के तहत वितरित उपकरणों की है; वास्तविक संख्या और मात्रा इससे कहीं अधिक है।‌ डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, इन उपकरणों और सुरक्षा किटों का अधिकांश भाग कचरे का हिस्सा बन गया। और तो और, निजी इस्तेमाल के लिए फेस मास्क इन अनुमानों में शामिल नहीं हैं।

इसके अलावा दुनिया भर में 14 करोड़ जांच किट प्रदान किए गए हैं, जिनमें 2600 टन प्लास्टिक और 7,31,000 लीटर केमिकल अपशिष्ट जमा होने का जोखिम है।

ध्यान दें कि कोरोना महामारी के शुरुआती दौर में देश और दुनिया के कोने-कोने से स्वास्थ्य विभाग की गंभीर लापरवाहियां भी सामने आई थीं। देश में स्वास्थ्य विभाग की सबसे बड़ी लापरवाही कोरोना सैंपल लेने के बाद वीटीएम के वेस्टेज के निस्तारण की बजाय इसे प्रयोगशालाओं के बाहर खुले में फेंकने के रूप में सामने आई थी। यह सचमुच चिंताजनक थी। स्वास्थ्य विभाग द्वारा कोविड-19 की जांच में करोड़ों की संख्या में नमूने लिए गए। इन नमूनों में इस्तेमाल होने वाली वीटीएम का निस्तारण नहीं किया गया या इसे खुले में फेंका गया या कूड़े के ढेर में डाल दिया गया। इसका उचित निस्तारण बेहद ज़रूरी था। बता दें कि कोरोना के सैंपल आम तौर पर वायरल ट्रांसपोर्ट मीडियम यानी वीटीएम नामक लिक्विड में रखे जाते हैं। रिसाव से बचने के लिए इसे अच्छी तरह से पैक किया जाता है। इसके उपयोग के बाद मजबूत प्लास्टिक बैग के साथ निस्तारण किया जाना ज़रूरी होता है। दरअसल, वीटीएम का निस्तारण जैविक कचरे के हिसाब से करना होता है, लेकिन उदासीनता के चलते ऐसा नहीं हो पाया।

दरअसल, महामारी से पहले भी डब्ल्यूएचओ ने चेताया था कि एक-तिहाई स्वास्थ्य देखभाल केंद्र अपने कचरे का निपटान करने में सक्षम नहीं हैं। डब्ल्यूएचओ ने पीपीई के सोच-समझकर उपयोग, कम पैकेजिंग, इनके निर्माण में जैव-विघटनशील सामग्री के इस्तेमाल सहित कई उपायों का आह्वान किया है जो कचरे की मात्रा को कम करेंगे।

हज़ारों टन अतिरिक्त चिकित्सा कचरे ने अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों को प्रभावित किया है और यह स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिए खतरा है। इस संदर्भ में डब्ल्यूएचओ ने लोगों की जागरूकता पर भी बल दिया है। डबल्यूएचओ की जल, स्वच्छता और स्वास्थ्य इकाई की तकनीकी अधिकारी डॉ. मार्गरेट मोंटगोमरी ने कहा है कि जनता को जागरूक उपभोक्ता भी बनना चाहिए। उन्होंने पीपीई किट के संदर्भ में कहा कि लोग ज़रूरत से ज़्यादा पीपीई किट पहन रहे हैं। डबल्यूएचओ का कहना है कि इस तरह के लगभग 87,000 टन मेडिकल किट बेकार हो गए हैं। दुनिया भर में संक्रमण की रोकथाम के लिए मास्क, पोशाकों, टीकों, जांच उपकरणों, सेनिटाइज़र आदि का अभूतपूर्व मात्रा में उत्पादन हुआ है। डबल्यूएचओ की रिपोर्ट में कहा गया है कि कोविड से सम्बंधित अतिरिक्त कचरा चिकित्साकर्मियों और लैंडफिल के आसपास रहने वाले लोगों के लिए स्वास्थ्य और पर्यावरणीय जोखिम पैदा करता है। लिहाज़ा, दुनिया भर में मेडिकल कचरे के सुरक्षित निपटारे और पुनर्चक्रण के लिए नई तकनीकों एवं संसाधनों में निवेश की आवश्यकता है। अस्पतालों और प्रशासन के स्तर पर सक्रियता के साथ नागरिकों को जागरूक करने पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि मेडिकल कचरे में हो रहे लगातार इजाफे पर अंकुश लगाया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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तेज़ी से पिघलने लगे हैं ग्लेशियर – सुदर्शन सोलंकी

पृथ्वी पर करीब 2 लाख ग्लेशियर (हिमनद) हैं। किंतु अब ग्लोबल वार्मिंग एवं बढ़ते प्रदूषण के कारण दुनिया भर के ग्लेशियरों का पिघलना तेज़ी से बढ़ रहा है। पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट चेंज इंपैक्ट में जलवायु प्रोफेसर एंडर्स लेवरमान का कहना है कि पिछले 100 सालों में दुनिया के समुद्र तल में 35 फीसदी इजाफा ग्लेशियरों के पिघलने की वजह से हुआ है।

जर्नल दी क्रायोस्फियर में प्रकाशित शोध के अनुसार बर्फ अब 65 प्रतिशत ज़्यादा तेज़ी से पिघल रही है। 1994 से 2017 के बीच 28 लाख करोड़ टन बर्फ पिघल चुकी है। किलिमंजारो पहाड़ों की बर्फ 1912 के बाद से 80 प्रतिशत से अधिक पिघल गई है। भारत में गढ़वाल हिमालय में ग्लेशियर के तेज़ी से पिघलने के आधार पर वैज्ञानिकों का मानना है कि अधिकांश मध्य और पूर्वी हिमालय के ग्लेशियर 2035 तक गायब हो सकते हैं।

कुछ समय पूर्व ही अंटार्कटिका में दुनिया का सबसे बड़ा हिमखंड ‘ए-76′ टूट कर अलग हुआ है। इसका कुल क्षेत्रफल 4320 वर्ग किलोमीटर है। यह हिमखंड अंटार्कटिका में मौजूद ग्लेशियर रोने आइस शेल्फ के पश्चिमी हिस्से से टूटकर वेडेल सागर में गिरा है।

शोधकर्ताओं के अनुसार तेज़ी से बर्फ पिघलने के कारण समुद्र का जल स्तर तेज़ी से बढ़ रहा है, जिसके कारण पूरी दुनिया पर बड़ा संकट आ रहा है। ग्लेशियरों के पिघलने से दुनिया के उन लोगों पर असर पड़ेगा जिनके लिए ग्लेशियर ही पानी का प्रमुख स्रोत हैं। इससे अकेले दक्षिण-पूर्व एशिया में ही 70 करोड़ लोगों के जीवन पर असर पड़ेगा। हिमालय के ग्लेशियर आस-पास रहने वाले 25 करोड़ लोगों और ऐसी नदियों को पानी देते हैं जो करीब 1.65 अरब लोगों के लिए भोजन, ऊर्जा और कमाई का साधन है।

नेदरलैंड्स की डेल्फ्ट युनिवर्सिटी ऑफ टेक्नॉलॉजी के हैरी जोकोलारी के अनुसार ज़्यादातर लोग इस बात का महत्व नहीं समझते कि बर्फ की विशाल संरचनाएं कितनी ज़रूरी हैं। एक स्वस्थ ग्लेशियर गर्मी में थोड़ा पिघलता है और सर्दियों में और बड़ा बन जाता है। इसका मतलब है कि लोगों को जब पानी की ज़्यादा ज़रूरत होती है तो उन्हें ग्लेशियर से पानी मिलता है।

प्रमुख शोधकर्ता व लीड्स विश्वविद्यालय के प्रो. थॉमस स्लेटर का अनुमान है कि समुद्री जल स्तर में हर एक सेंटीमीटर की वृद्धि से करीब एक लाख लोग विस्थापित होंगे। इसके साथ ही प्राकृतवासों व वन्य जीवों पर भी खतरा है।

हाल ही में विश्व मौसम विज्ञान संगठन की स्टेट ऑफ ग्लोबल क्लाइमेट रिपोर्ट 2020 से पता चला है कि 2020 इतिहास का सबसे गर्म वर्ष था। नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) के नेशनल सेंटर फॉर एनवायर्नमेंटल इंफॉर्मेशन (एनसीईआई) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2021 इतिहास का छठा सबसे गर्म वर्ष था। रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष तापमान 20वीं सदी के औसत तापमान से 0.84 डिग्री सेल्सियस ज़्यादा दर्ज किया गया था। स्पष्ट है पृथ्वी अब तेज़ी से गर्म होती जा रही है जिसका असर ग्लेशियरों पर हो रहा है।

आईपीसीसी की रिपोर्ट में बताया गया है कि यदि हम ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने में सफल हो जाएं और दुनिया के तापमान में बढ़त को उद्योग-पूर्व स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक पर सीमित कर दिया जाए तब भी एशिया के ऊंचे पर्वतों के ग्लेशियर अपनी एक तिहाई बर्फ खो सकते हैं।

पहाड़ों के ऊपर उड़ने वाली धूल तेज़ी से बर्फ को पिघला रही है, क्योंकि धूल में सूरज की रोशनी अवशोषित हो जाती है जिसकी वजह से बढ़ी गर्मी के कारण बर्फ पिघलने लगती है। ग्लेशियरों का कम होना बढ़ते वैश्विक तापमान के सबसे भयावह परिणामों में से एक है।

ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र तल में वृद्धि होती है जिससे तटीय क्षरण बढ़ता है। इसके साथ ही साथ उग्र तटीय तूफान पैदा होते रहते हैं क्योंकि समुद्री तापमान में वृद्धि होती है और गर्म हवाएं बहुत तेज़ रफ्तार से चलती हैं, जिससे समुद्री बर्फ और ग्लेशियर पिघलते हैं और महासागर गर्म होते हैं।

समुद्र की धाराएं दुनिया भर में मौसम व समुद्री जीव-जंतुओं को प्रभावित करती हैं। ग्लेशियरों के पिघलने से जैव विविधता को नुकसान पहुंचता है और जीव-जंतुओं की दुर्लभ प्रजातियां खत्म होने लगती हैं। इसके अलावा ग्लेशियरों के पिघलने से दीर्घावधि में ताज़े पानी की मात्रा में कमी आ सकती है। साथ ही समुद्र के किनारे बसे शहरों के जलमग्न होने का खतरा भी है।

इस संकट को देखते हुए पर्यावरण व विकास सम्बंधी नीतिगत परिवर्तनों की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है। (स्रोत फीचर्स)

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मनुष्यों में खट्टा स्वाद क्यों विकसित हुआ

ट्टा पांच मुख्य स्वाद में से एक है। अन्य चार मीठा, कड़वा, नमकीन और उमामी हैं। खट्टा खाएं तो मज़ा तो आता है लेकिन वैज्ञानिकों को इस बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी कि हममें खट्टे (अम्लीय) स्वाद की अनुभूति कैसे विकसित हुई।

इस सवाल के जवाब की तलाश में नॉर्थ कैरोलिना स्टेट युनिवर्सिटी के पारिस्थितिकीविद रॉब डन और उनके साथियों ने वैज्ञानिक साहित्य खंगाला और इस अध्ययन के नतीज़े प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी बी में प्रकाशित किए गए हैं। साइंस पत्रिका ने उनके साथ इस विषय पर बातचीत की। वह साक्षात्कार यहां प्रस्तुत है।

प्रश्न: क्या जानवरों को भी खट्टा खाना पसंद है?

जवाब: विकासक्रम में जानवरों ने बाकी अन्य स्वादों को लगभग खो दिया है। जैसे डॉल्फिन में नमकीन के अलावा कोई स्वाद ग्राही नहीं होते। और बिल्लियों में मीठे स्वाद के ग्राही नहीं होते। लेकिन उम्मीद के विपरीत जितनी भी प्रजातियों (लगभग 60) के साथ परीक्षण किया गया है वे सभी भोजन में अम्लीयता की पहचान करने में सक्षम हैं। सूअर और प्राइमेट प्राणि तो वास्तव में अम्लीय (खट्टे) खाद्य पदार्थ पसंद करते हैं। जंगली सूअर को खमीरी मकई और गोरिल्ला को अदरक कुल के अम्लीय फल भाते हैं।

प्रश्न: मीठे पदार्थ हमें ऊर्जा देते हैं, और कड़वा स्वाद हमें विषैलेपन के प्रति चेताता है। तो खट्टा स्वाद हममें क्यों विकसित हुआ होगा?

जवाब: खट्टे की पहचान संभवत: प्राचीन मछलियों में मौजूद थी। मछलियों में खट्टे स्वाद की अनुभूति की उत्पत्ति संभवतः भोजन का स्वाद लेने के लिए नहीं हुई थी, बल्कि समुद्र में अम्लीयता के स्तर को भांपने के लिए हुई थी। यानी वे अपने शरीर की सतह से खट्टा ‘चखती’ थीं। पानी में कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर में बदलाव से पानी की अम्लीयता में भी उतार-चढ़ाव होता है, जो मछली के लिए खतरनाक हो सकती है। इसलिए अम्लीयता को महसूस या पहचान करने में सक्षम होना महत्वपूर्ण है।

प्रश्न: तो खान-पान में खट्टे की पहचान कैसे विकसित हुई?

जवाब: असल में हमने विटामिन सी (एस्कॉर्बिक एसिड) का निर्माण करने की क्षमता खो दी है। तो एक मत यह है कि अम्लीय खाद्य पदार्थ विटामिन सी लेने का एक तरीका हो सकता है। एक अन्य तर्क यह दिया जाता है कि प्राचीन प्राइमेट हमारे अनुमान से कहीं अधिक किण्वित खाद्य पदार्थ खाते थे। ऐसा माना जा सकता है कि सड़ रहे फल यदि खट्टे हैं तो सुरक्षित हैं क्योंकि उन्हें लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया और एसिटिक एसिड बैक्टीरिया खट्टा बनाते हैं और ये अम्ल हानिकारक बैक्टीरिया को मारते हैं। इसलिए ऐसे फल खाना लगभग सुरक्षित होगा।

प्रश्न: किण्वन से अल्कोहल भी बनता है, तो प्राणि इन फलों को अम्लीयता के लिए खाते थे या नशे के लिए?

जवाब: ऐसा है कि 70 लाख से 2.1 करोड़ वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजों में अल्कोहल डिहाइड्रोजिनेज़ नामक एंज़ाइम का एक शक्तिशाली संस्करण विकसित हुआ जो अल्कोहल का चयापचय करता है। मनुष्य में इसका तेज़ संस्करण पाया जाता है जो अल्कोहल से ऊर्जा प्राप्त करना 40 गुना आसान बनाता है। वहीं, लगभग इसी दौरान विकसित जीन्स के नए संस्करण लैक्टिक एसिड को पहचानने में भूमिका निभाते हैं।

हमारे पूर्वजों में ये दो बुनियादी वैकासिक परिवर्तन दिखाई देते हैं जो अम्लीयता और अल्कोहल दोनों से सम्बंधित हैं। उपलब्ध जानकारी के आधार पर संभावना है कि पहले खट्टा स्वाद लेने की क्षमता आई, लेकिन पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता।

प्रश्न: शराब की बात करें तो कुछ लोगों को खट्टी बीयर पसंद होती है जबकि अन्य लोग इस विचार पर हंस पड़ते हैं। वैज्ञानिक इस अंतर को कैसे देखते हैं?

जवाब: इस बात के कई सारे शुरुआती प्रमाण हैं कि ‘खट्टा स्वाद पहचानने’ वालों के अलग-अलग समूह हैं। यहां गंध भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, और गंध की पहचान काफी हद तक सीखी जाती है। मेरे विचार में जब कोई खट्टी बीयर पसंद करना सीख रहा होता है तब असल में उसकी महक आनंद दे रही होती है और स्वाद उस आनंद से जुड़ जाता है। लेकिन अभी स्पष्ट नहीं है कि ये अंतर जीन से कैसे सम्बंधित हैं।

प्रश्न: क्या यह संभव है कि खट्टे स्वाद से सम्बंध मात्र एक संयोग है?

जवाब: खट्टे स्वाद ग्राहियों से सम्बंधित एकमात्र जीन है OTOP1 जो आंतरिक कान के कार्यों से भी जुड़ा हुआ है। यह जीन शरीर का संतुलन बनाए रखने में मदद करता है, और इस जीन में उत्परिवर्तन संतुलन सम्बंधी विकारों को जन्म देते हैं। खट्टे स्वाद से जुड़ा जीन इन अन्य कामों में भी भूमिका निभाता है, और यह संभव है कि इसे खो देने के अन्य परिणाम भी होंगे। देखा जाए तो खट्टे स्वाद की अनुभूति अब भी रहस्य ही है। (स्रोत फीचर्स)

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मस्तिष्क बड़ा होने में मांसाहार की भूमिका

ब मांसाहार की बात आती है, तो हमारे सबसे करीबी सम्बंधी चिम्पैंज़ी हमारी तुलना में बहुत ही कम मांस खाते हैं।

पुरातात्विक स्थलों पर पाए गए बूचड़खानों के निशानों की संख्या के आधार पर लंबे समय से कहा जाता रहा है कि हमारी मांस खाने की उत्कट इच्छा लगभग 20 लाख साल पहले बढ़ना शुरू हुई थी। मांस से मिलने वाली अधिक कैलोरी ने हमारे एक पूर्वज – होमो इरेक्टस – में बड़ा शरीर और मस्तिष्क विकसित करने की शुरुआत की थी।

लेकिन एक ताज़ा अध्ययन का तर्क है कि इस परिकल्पना के प्रमाण सांख्यिकीय रूप से कमज़ोर हैं क्योंकि शोधकर्ताओं ने बाद के समय के खुदाई स्थलों पर अधिक ध्यान दिया है। इसलिए यह जानना असंभव है कि मानव विकास में मांसाहार की भूमिका कितनी अहम है।

नए अध्ययन में जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय के जीवाश्म विज्ञानी डब्ल्यू. एंड्र्यू बार और उनके साथियों ने बूचड़खानों पर पूर्व में किए गए अध्ययनों के डैटा की समीक्षा की। ये डैटा 26 लाख से 12 लाख साल पूर्व के कालखंड के पूर्वी अफ्रीका में प्रारंभिक मानव गतिविधि वाले नौ पुरातात्विक स्थलों से थे। जैसी कि उम्मीद थी जानवरों की हड्डियों पर वध के निशान वाले साक्ष्य मिलने में वृद्धि लगभग 20 लाख वर्ष पूर्व से दिखना शुरू हुई। लेकिन, शोधकर्ताओं ने पाया कि पुरातत्वविदों को पशु वध के साक्ष्य उन स्थलों पर अधिक मिले जहां अधिक शोध किया गया था। दूसरे शब्दों में, जिस स्थल पर जितना अधिक ध्यान दिया गया, वहां मांसाहार के साक्ष्य मिलने की संभावना उतनी अधिक रही।

प्रत्येक पुरातात्विक स्थल में तलछट की कई परतें होती हैं; जितनी परत नीचे जाते जाएंगे उनमें उतनी अधिक प्राचीन वस्तुएं मिलेंगी। साफ है कि 25 लाख से 20 लाख साल पुरानी परतों को उतना नहीं खोदा गया है या उनमें दफन चीज़ों को बाहर नहीं निकाला गया है जितना कि उनके बाद वाली परतों को खोदा गया है, और इसी कारण प्राचीनतर परतों का अध्ययन कम किया गया है। पुरातत्वविद किसी खुदाई स्थल पर जितना अधिक समय और ऊर्जा लगाते हैं, वहां से उतनी ही अधिक वस्तुएं मिलती हैं। तो विभिन्न स्थलों से मिले साक्ष्यों – जैसे हड्डियों पर वध के निशान – की तुलना एक पेचीदा सांख्यिकीय मसला बन जाता है।

इससे निपटने के लिए, बार और उनकी टीम ने इन स्थलों के आंकड़ों को समायोजित किया और पाया कि वास्तव में 26 लाख वर्ष पूर्व से 12 लाख वर्ष पूर्व तक मांस खाने के साक्ष्य की संख्या स्थिर ही रही। ये नतीजे प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित हुए हैं। बार का तर्क है कि मांसाहार में वृद्धि पर ध्यान देने के बजाय अन्य परिकल्पनाओं पर ध्यान देना चाहिए। जैसे खाना पकाने की शुरुआत, जिससे भोजन का पाचन आसान हुआ होगा और अधिक कैलोरी मिलने लगी होगी, और मस्तिष्क बड़ा होने लगा होगा। सामाजिक विकास ने भी मदद की होगी। (स्रोत फीचर्स)

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