पाठ्य पुस्तकें बताती आई हैं कि रासायनिक बंधनों की मज़बूती उन्हें बनाने वाले परमाणुओं के बीच विद्युत-ऋणात्मकता पर निर्भर करती है – दो तत्वों के परमाणुओं के बीच विद्युत-ऋणात्मकता में अंतर जितना अधिक होगा उनके बीच रासायनिक बंधन उतना मज़बूत होगा। लेकिन हाल ही में वैज्ञानिकों ने पाया है कि कुछ मामलों में परमाणु के आकार में अंतर भी बंधन की मज़बूती का निर्धारण करता है।
रैडबौड युनिवर्सिटी और व्रीजे युनिवर्सिटी के मैथियास बिकेलहॉप्ट बताते हैं कि विद्युत-ऋणात्मकता मॉडल का सबसे अनूठा अपवाद है कार्बन-हैलोजन बंधनों की शृंखला, जबकि इन्हीं बंधनों के आधार पर विद्युत-ऋणात्मकता मॉडल की व्याख्या की जाती है।
शोधकर्ताओं ने डेंसिटी फंक्शनल थ्योरी का उपयोग करते हुए आवर्त सारणी के आवर्त 2 और 3 और समूह 14 से 17 के तत्वों के बीच रासायनिक बंधनों का विश्लेषण किया। ये बंधन रसायनों में आम तौर पर पाए जाते हैं।
शोधकर्ताओं ने देखा कि दो परमाणुओं को पास लाने पर उनके बीच की बंधन ऊर्जा किस तरह बदलती है। इलेक्ट्रॉन और नाभिक जब एक-दूसरे के नज़दीक आते हैं तो वहां हो रहे ऊर्जा परिवर्तन के कई घटक होते हैं। शोधकर्ताओं ने विश्लेषण करके देखा कि आबंध ऊर्जा में अलग-अलग अवयवों के तुलनात्मक प्रभाव क्या हैं। इससे उन्हें यह जानने में मदद मिली कि आवर्त और समूहों के हिसाब से ये अवयव और प्रभाव कैसे बदलते हैं।
शोधकर्ताओं ने देखा कि किसी आवर्त में आगे बढ़ने पर, उदाहरण के लिए कार्बन-कार्बन बंध से लेकर कार्बन-फ्लोरीन बंध तक, तत्वों के बीच विद्युत-ऋणात्मकता का अंतर बढ़ने पर आबंध मजबूत होते जाते हैं। लेकिन सारणी में समूह में ऊपर से नीचे जाने पर, उदाहरण के लिए कार्बन-फ्लोरीन से लेकर कार्बन-आयोडीन तक, परमाणु आकार का बढ़ने से आबंध कमज़ोर पड़ने लगते हैं।
किसी अणु की संरचना और अभिक्रियाशीलता रासायनिक आबंधों की स्थिरता और लंबाई पर निर्भर करती है। इसलिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि आवर्त सारणी में भिन्न-भिन्न तत्वों के बीच संयोजनों के लिए ये मापदंड कैसे बदलते हैं। इससे वैज्ञानिकों को नए अणु, जैसे औषधीय यौगिकों और अन्य कामकाजी पदार्थों, के उत्पादन के लिए बेहतर तरीके विकसित करने में मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)
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आज के दौर के सोशल मीडिया ने एक ओर जहां लोगों को जोड़ने का काम किया है, वहीं दूसरी ओर इसके माध्यम से भ्रामक खबरों को साझा करने के चलते ध्रुवीकरण, हिंसक उग्रवाद और नस्लवाद में भी काफी तेज़ी से वृद्धि हुई है। सवाल यह है कि वे कौन लोग हैं जो भ्रामक खबरों को साझा करते हैं? एक विश्लेषण के अनुसार रूढ़िवादी लोग काफी हद तक भ्रामक सूचनाओं के प्रसार के लिए ज़िम्मेदार हैं।
इन भ्रामक सूचनाओं के संकट का समाधान खोजने के लिए एक ऐसे स्पष्ट आकलन की आवश्यकता है जिससे यह पता लगाया जा सके कि झूठ और षडयंत्र के सिद्धांतों को कौन फैला रहा है। इस विषय में ड्यूक युनिवर्सिटी के मैनेजमेंट एंड आर्गेनाइज़ेशन के शोध छात्र अशर लॉसन और इसी युनिवर्सिटी में फुकुआ स्कूल ऑफ बिज़नेस के असिस्टेंट प्रोफेसर हेमंत कक्कड़ ने लोगों के व्यक्तित्व को मुख्य निर्धारक के रूप में जांचने का काम किया।
व्यक्तित्व लक्षणों की पहचान और मापन के लिए उन्होंने प्रचलित फाइव-फैक्टर थ्योरी का इस्तेमाल किया जिसे बिग फाइव भी कहा जाता है। यह थ्योरी व्यक्तित्वों को 5 श्रेणियों में बांटती है: अनुभव के प्रति खुलापन, कर्तव्यनिष्ठा, बहिर्मुखता, सहमत होने की तैयारी और उन्माद। इस ढांचे के अंतर्गत कर्तव्यनिष्ठा पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया जिससे लोगों की सलीकापसंदगी, उत्तेजित होने पर आत्म-नियंत्रण, रूढ़िवादिता और विश्वसनीयता में अंतरों का पता चलता है।
शोधकर्ताओं का अनुमान था कि कम-कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादी लोग (एलसीसी) अन्य रूढ़िवादियों या कम-कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों की तुलना में अधिक भ्रामक समाचार साझा करते हैं। उन्होंने व्यक्तित्व, राजनीति और भ्रामक समाचारों को साझा करने के बीच सम्बंधों का पता लगाने के लिए 8 अध्ययन किए जिनमें 4642 प्रतिभागी शामिल थे।
सबसे पहले शोधकर्ताओं ने विभिन्न आकलनों के माध्यम से लोगों की राजनीतिक विचारधारा और कर्तव्यनिष्ठा को मापा जिसमें प्रतिभागियों से उनके मूल्यों और व्यवहारों के बारे में पूछा गया था। इसके बाद प्रतिभागियों को कोविड से सम्बंधित कुछ सत्य और भ्रामक समाचारों की शृंखला दिखाई गई और इन समाचारों की सटीकता के बारे में सवाल किए गए। यह भी पूछा गया कि वे इन समाचारों को साझा करेंगे या नहीं। उन्होंने पाया कि उदारवादी और रूढ़िवादी, दोनों ही प्रकार के लोग कभी-कभी भ्रामक समाचार को सही मान लेते हैं। शायद उन्होंने इन समाचारों को सटीक इसलिए माना क्योंकि ये उनके विश्वासों से मेल खाते थे।
यह भी देखा गया कि विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं से जुड़े लोगों ने भ्रामक समाचार साझा करने की बात कही लेकिन अन्य सभी प्रतिभागियों की तुलना में एलसीसी के बीच यह व्यवहार काफी अधिक देखा गया। हालांकि, उच्च स्तर के कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों और रूढ़िवादियों के बीच कोई अंतर देखने को नहीं मिला जबकि कम-कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों ने उच्च-कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों की तुलना भ्रामक समाचार ज़्यादा साझा नहीं किए।
दूसरे अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने इन परिणामों को स्पष्ट राजनीतिक रुझान वाले भ्रामक समाचारों के साथ दोहराया और पिछले अध्ययन से भी अधिक प्रभाव देखा। इस बार भी विभिन्न स्तर की कर्तव्यनिष्ठा वाले उदारवादी और उच्च कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादी व्यापक स्तर पर भ्रामक जानकारी फैलाने में शामिल नहीं थे। भ्रामक समाचार फैलाने वालों में कम कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादी (एलसीसी) आगे रहे।
सवाल यह था कि एलसीसी में भ्रामक समाचार को साझा करने की प्रवृत्ति क्यों होती है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने एक ऐसा प्रयोग किया जिसमें प्रतिभागियों की राजनीतिक विचारधारा और व्यक्तित्व के बारे में जानकारी के अलावा उनमें अराजकता की चाहत, सामाजिक और आर्थिक रूप से रूढ़िवादी मुद्दों के समर्थन, मुख्यधारा मीडिया पर भरोसे और सोशल मीडिया पर बिताए गए समय का आकलन किया गया। शोधकर्ताओं के अनुसार एलसीसी ने अराजकता की ज़रूरत ज़ाहिर की, और साथ ही वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक संस्थाओं को बाधित करने और नष्ट करने की इच्छा भी व्यक्त की। इनसे भ्रामक जानकारियों को फैलाने की उनकी प्रवृत्ति की व्याख्या हो जाती है। यह किसी अन्य विचारों और समूहों की तुलना में स्वयं को श्रेष्ठ मानने की इच्छा को भी दर्शाता है जो कम कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादियों में अधिक देखने को मिलती है।
दुर्भाग्य से, शोधकर्ताओं को यह भी पता चला कि समाचारों पर सटीकता का लेबल लगाने से भी भ्रामक जानकारी की समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने एक प्रयोग अंजाम दिया जिसमें सोशल मीडिया पर साझा किए गए सही समाचार के लिए ‘पुष्ट’ और भ्रामक समाचार के लिए ‘विवादित’ टैग का उपयोग किया गया। उन्होंने पाया कि उदारवादियों और रूढ़िवादियों ने ‘पुष्ट’ टैग वाले समाचार को अधिक साझा किया। हालांकि, एलसीसी ने अभी भी जानकारी को गलत या भ्रामक जानते हुए भी साझा करना जारी रखा।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने एक और अध्ययन किया जिसमें प्रतिभागियों को स्पष्ट रूप से बताया गया कि जिस जानकारी को वे साझा करना चाहते हैं वह गलत है। इसके बाद उनको अपने निर्णय को बदलने का मौका भी दिया गया। इसके बाद भी एलसीसी द्वारा भ्रामक समाचार साझा करने की दर काफी उच्च रही और वे समाचार के गलत होने की चेतावनियों को भी अनदेखा करते रहे।
यह परिणाम काफी चिंताजनक है जिसमें एलसीसी भ्रामक समाचारों के प्रसार के प्राथमिक चालक नज़र आते हैं। इसके लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को चेतावनी का लेबल लगाने के बजाय कोई और समाधान खोजना होगा। एक अन्य विकल्प के रूप में सोशल मीडिया कंपनियों को ऐसे समाचारों को अपने प्लेटफॉर्म्स से हटाने के प्रयास करने चाहिए जो किसी व्यक्ति समुदाय को चोट पहुंचाने की क्षमता रखते हैं। कुल मिलाकर मुद्दा सिर्फ इतना है कि जब तक सोशल मीडिया कंपनियां कोई ठोस तरीका खोज नहीं निकालती हैं तब तक यह समस्या बनी रहेगी। (स्रोत फीचर्स)
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यह लेख मूलत: करंट साइंस पत्रिका (अगस्त 2021) में अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ है।
केंद्रीय
मंत्रीमंडल ने फरवरी 2020 में
नए कीटनाशक प्रबंधन विधेयक
को मंज़ूरी दी। इस
विधेयक में उद्योगों को
विनियमित करने के प्रावधान
तो हैं लेकिन इसमें
ऐसे कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों
पर ध्यान नहीं दिया
गया है जो कीटनाशकों
के उपयोग से उत्पन्न
होने वाले जोखिमों को
कम करने के लिहाज़
से अनिवार्य हैं।
यह विधेयक पंजीकरण उपरांत
जोखिम में कमी, कीटनाशक
उपयोगकर्ताओं, समुदाय और
पर्यावरण की सुरक्षा को
संबोधित करने में विफल
रहा है। ऐसे में
सार्वजनिक स्वास्थ्य और
पर्यावरण सुरक्षा के संदर्भ
में इस विधेयक के
परिणाम घटिया हो सकते
हैं; इसलिए इसमें महत्वपूर्ण
संशोधनों की आवश्यकता है।
फरवरी 2020 में केंद्रीय मंत्रीमंडल
द्वारा कीटनाशक प्रबंधन विधेयक
2020 (पीएमबी 2020) को मंज़ूरी
दी गई। जून 2021 में,
विधेयक को जांच के
लिए कृषि मामलों की
स्थायी समिति को भेजा
गया। पारित होने पर
यह नया अधिनियम कीटनाशक
अधिनियम 1968 का स्थान लेगा।
इस विधेयक में उद्योगों
के नियमन के साथ-साथ
कीटनाशक विषाक्तता की
निगरानी और पीड़ितों को
मुआवज़ा देने सम्बंधी प्रावधान
हैं। लेकिन, इसमें
ऐसे कई मुद्दों को
संबोधित नहीं किया गया
है जो प्रभावी कीटनाशक
प्रबंधन के लिए महत्वपूर्ण
हैं। इन मुद्दों पर
यहां चर्चा की गई
है।
विधेयक (पीएमबी 2020) भारत
में कीटनाशकों के
उपयोग के परिदृश्य को
संबोधित करने में विफल
रहा है। केंद्रीय कीटनाशक
बोर्ड और पंजीकरण समिति
(सीआईबी और आरसी) द्वारा
कीटनाशकों को फसल और
कीट के किसी विशिष्ट
संयोजन और/या लक्षित
कीटों के लिए पंजीकृत
और अनुमोदित किया
जाता है। कीटनाशक अवशेष
(रेसिड्यू) सम्बंधी मानक और
अन्य नियम अनुमोदित उपयोग
के आधार पर तैयार
किए जाते हैं। अध्ययनों
से पता चलता है
कि राज्य कृषि विश्वविद्यालयों/विभागों, कमोडिटी बोर्डों
और उद्योगों ने
अनुमोदित उपयोग का ध्यान
रखे बिना कीटनाशकों के
उपयोग की सिफारिश की
थी। किसान कीटनाशकों का
उपयोग कई फसलों के
लिए यह ध्यान दिए
बगैर करते हैं कि
अनुमोदित उपयोग क्या है।
गैर-अनुमोदित कीटनाशकों
के उपयोग की बात
अवशेष की निगरानी में
पता चली है। इसलिए,
पीएमबी 2020 में होना यह
चाहिए था कि कृषि
वि.वि. और विभागों,
कमोडिटी बोर्डों और पेस्टिसाइड
लेबल के दावों द्वारा
की गई सिफारिशों का
तालमेल अनुमोदित उपयोग
से स्थापित करने और
अन्य उपयोगों को अवैध
घोषित करने का प्रावधान
हो।
पीएमबी 2020 में ‘कीट नियंत्रण
संचालक’ और ‘कार्यकर्ता’ की
परिभाषा में देश के
सबसे बड़े कीटनाशक उपयोगकर्ताओं, किसानों और कृषि
श्रमिकों, को शामिल नहीं
किया गया है। इसलिए
विधेयक में आवश्यक रूप
से यह निर्दिष्ट किया
जाना चाहिए कि कौन
लोग कृषि और अन्य
कार्यों में कीटनाशकों का
इस्तेमाल कर सकते हैं।
कीटनाशक पंजीकरण की प्रक्रिया
कीटनाशक के चयन का
अवसर देती है। यह
चयन उपयोग की परिस्थिति
में प्रभाविता, मानव
स्वास्थ्य और पर्यावरण सुरक्षा
सम्बंधी डैटा के मूल्यांकन
के आधार पर किया
जाता है। कीटनाशकों के
जोखिम को कम करने
के तीन महत्वपूर्ण सूत्र
हैं: ‘कीटनाशकों पर
निर्भरता कम करना’, ‘कम
जोखिम वाले कीटनाशकों का
चयन’, और ‘उचित ढंग
से उपयोग सुनिश्चित करना’।
अंतर्राष्ट्रीय कीटनाशक प्रबंधन आचार
संहिता (इंटरनेशनल कोड
ऑफ कंडक्ट ऑन पेस्टिसाइड
मैनेजमेंट, आईसीसीपीएम) के
अनुच्छेद 3.6 और 6.1.1 का
पालन करते हुए, पंजीयन
के लिए निर्णय लेने
और अत्यधिक खतरनाक कीटनाशकों
(जिनको अत्यधिक विषाक्त माना
जाता है) वाले रसायनों
को पंजीकृत न करने
के लिए एफएओ टूलकिट
अधिक फायदेमंद होगा।
इससे भारत में कीटनाशक
सम्बंधी जोखिमों में कमी
लाई जा सकती है।
वर्तमान में, भारत में
62 कीटनाशकों को ‘पंजीकृत माना
गया’ है, जिनकी उपस्थिति
कीटनाशक अधिनियम 1968 से
भी पहले से है।
इनमें से अधिकांश कीटनाशक
मूल्यांकन प्रक्रिया से
परे पंजीकृत माने जाते
रहे हैं। विधेयक में
‘पंजीकृत माना गया’ (अनुच्छेद
23) के प्रावधान को
बनाए रखना अनुचित है।
अनिवार्य पंजीकरण की खोजबीन
और मानक प्रोटोकॉल के
साथ सभी कीटनाशकों की
समीक्षा, विधेयक का हिस्सा
होना चाहिए।
पीएमबी 2020 ने एक सलाहकारी
भूमिका के साथ सेंट्रल
पेस्टिसाइड बोर्ड (सीपीबी)
के गठन का प्रस्ताव
दिया है। इसके अतिरिक्त,
सीपीबी को कीटनाशक पंजीकरण
के मानदंडों को
विकसित और अपडेट करने,
पारदर्शी प्रक्रियाओं को
तैयार करने, अंतर्राष्ट्रीय स्तर
पर स्वीकार्य मानदंडों
का अनुपालन करने और
पंजीकरण के बाद के
निगरानी करने का काम
सौंपा जा सकता है।
इस बोर्ड में मान्यता
प्राप्त कृषि श्रमिक संगठनों
के प्रतिनिधियों को
शामिल किया जा सकता
है।
पीएमबी 2020 में पर्सनल प्रोटेक्शन
इक्विपमेंट (पीपीई) का
उपयोग करने के महत्वपूर्ण
प्रावधान गायब हैं जो
कीटनाशक अधिनियम 1968 और
पीएमबी 2017 के मसौदे में
उपलब्ध थे। महाराष्ट्र में
पीपीई के बिना कीटनाशकों
का छिड़काव कीटनाशक विषाक्तता
के कारणों में से
एक माना गया है।
उद्योग के माध्यम से
आईसीसीपीएम के अनुच्छेद 3.6 का
पालन करने वाले पीपीई
के अनिवार्य रूप
से उपयोग के पर्याप्त
प्रावधान काफी उपयोगी हो
सकते हैं। कीटनाशकों के
उपयोग से अक्सर विषाक्तता
हो जाती है। इस
कारण से, एंटी-डॉट्स
के साथ कीटनाशकों के
पंजीकरण को प्रतिबंधित करना
उचित होगा।
कीटनाशकों का बहाव, छिड़काव
क्षेत्र से परे लोगों
में कीटनाशकों के
संपर्क में आने के
जोखिम और विषाक्तता को
बढ़ा सकता है तथा
पारिस्थितिकी तंत्र को भी
दूषित कर सकता है।
इससे बचने के लिए,
पीएमबी 2020 को कुछ संवेदनशील
क्षेत्र जैसे आंगनवाड़ी, स्कूल,
स्वास्थ्य सेवा केंद्र, सामुदायिक
सभाओं, आवास, आदि के
लिए बफर ज़ोन घोषित
करना चाहिए। कीटनाशक-मुक्त
बफर ज़ोन की घोषणा
करने की शक्ति राज्य
सरकारों या स्थानीय इकाइयों
को दी जानी चाहिए।
पीएमबी 2020 में कीटनाशकों के
उपयोग के जोखिम को
कम करने के प्रावधानों
का अभाव है। कीटनाशकों
के जीवन चक्र का
प्रबंधन जैसे एक्सपायर्ड उत्पादों
और खाली कीटनाशक कंटेनरों
के उचित संग्रह और
निपटान को पीएमबी 2020 में
लाया जाना चाहिए। ऐसे
प्रावधान भी अनिवार्य हैं
जो पारस्थितिकी तंत्रों
(वायु, जल निकायों, मिट्टी,
जंगलों, आदि) के संदूषण
को संबोधित करें और
मनुष्यों तथा अन्य जीवों
को भी इसके संपर्क
में आने से भी
रोकें। ‘प्रदूषक भुगतान करें’
के सिद्धांत का
अनुपालन करने वाले प्रवधानों
को कानून का हिस्सा
होना चाहिए।
इसके अलावा, जवाबदेही
और पारदर्शिता के
प्रावधान मनुष्यों और
पर्यावरण को कीटनाशकों के
नुकसान से बचाने के
उद्देश्य का हिस्सा हैं;
इसलिए इसे विधेयक में
लाया जाना चाहिए। इन
प्रावधानों का उल्लंघन अन्य
अपराधों और सज़ाओं के
समान होना चाहिए। इसके
प्रभावी कार्यान्वयन के
लिए, कुछ निर्धारित कार्यों
के लिए प्रशिक्षित और
जानकार कर्मचारियों की
नियुक्ति की जानी चाहिए।
पीएमबी 2020 के वर्तमान संस्करण में महत्वपूर्ण संशोधन की आवश्यकता है जिसके बिना भारत में कीटनाशक कानून मानव स्वस्थ्य, जीवों और पर्यावरण की रक्षा के लिए पर्याप्त नहीं होगा। एहतियाती सिद्धांतों की रोशनी में और भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा आश्वस्त अधिकारों को सुनिश्चित करते हुए, देश में कीटनाशक कानून को कृषि पारिस्थितिकी तंत्र पर आधारित गैर-रासायनिक कृषि उत्पादन प्रणालियों को बढ़ावा देकर ज़हरीले रासायनिक कीट नियंत्रण उत्पादों पर निर्भरता में कमी की सुविधा प्रदान करनी चाहिए। संधारणीय कृषि, सुरक्षित खाद्य सामग्री उत्पादन और सुरक्षित कार्यस्थल के साथ-साथ प्रदूषण रहित वातावरण प्राप्त करने के लिए पीएमबी 2020 में महत्वपूर्ण संशोधनों की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)
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जियोहेरिटेज
यानी भूवैज्ञानिक धरोहर
एक साधारण लेकिन वर्णात्मकशब्द
है जो महत्वपूर्ण वैज्ञानिक,
शैक्षिक, सांस्कृतिक और
सौंदर्य से भरपूर भूगर्भीय
स्थलों या क्षेत्रों पर
लागू होता है। यह
स्थल उन भूगर्भीय प्रक्रियाओं
के बारे में विचित्र
जानकारियां प्रदान करते हैं
जिसने भूवैज्ञानिक संरचनाओं
को जन्म दिया और
उनको प्रभावित किया
है। यह हमें पृथ्वी
के संरक्षण और विकास
के बारे में शिक्षित
करते हैं। इन मूलभूत
भूवैज्ञानिक विशेषताओं का
सांस्कृतिक और/या विरासती
महत्व भी हो सकता
है। संक्षिप्त में,
जियोहेरिटेज चट्टानों, मिट्टी
और भू-आकृतियों में
संरक्षित भूगर्भीय अतीत
की धरोहर है। धरोहर
का सिद्धांत वास्तव
में एक सांस्कृतिक निर्माण
है जो प्राकृतिक स्थलों
या क्षेत्रों और
उनके ऐतिहासिक उपयोग
से सम्बंधित होता
है। जियोहेरिटेज को
भी जैव विविधता और
सांस्कृतिक स्थलों के समान
संरक्षण मिलना चाहिए। यह
तो ज़ाहिर है कि
सभी भूविज्ञानी इस
बात से सहमत हैं
कि भूविज्ञान एक
दिलचस्प विषय है, लेकिन
पृथ्वी पर भूगर्भीय विशेषताओं
को आम जनता के
लिए आकर्षक बनाना भी
आवश्यक है जो पृथ्वी
की विशेषताओं के
महत्व से अनभिज्ञ हैं।
आम लोगों को यह
समझाना आवश्यक है जो
समय और आयाम के
भूवैज्ञानिक पैमाने के आदी
नहीं हैं।
जियोपार्क या भूवैज्ञानिक उद्यान
का सिद्धांत वर्ष
2000 में युरोप में विकसित
किया गया था। 2004 में,
यूनेस्को ने जियोपार्क्स को
एकीकृत भौगिलिक क्षेत्रों के
रूप में परिभाषित किया
जहां अंतर्राष्ट्रीय स्तर
पर भूवैज्ञानिक महत्व
के कुछ स्थलों और
भूदृश्यों को संरक्षण, शिक्षा
और सतत विकास की
समग्र अवधारणा के साथ
प्रबंधित किया जाता है।
दूसरे शब्दों में, जियोपार्क
स्थानीय लोगों की भागीदारी
के साथ भूवैज्ञानिक धरोहर
की रक्षा के लिए
बनाए गए स्थल होते
हैं। इन स्थलों को
आदर्श पारिस्थितिक पर्यटन
स्थल के रूप में
तैयार किया जाता है
ताकि जियोहेरिटेज का
संरक्षण हो सके और
इस क्षेत्र के समुदाय
को भी लाभ पहुंच
सके। इसलिए, यह
सतत विकास का एक
महत्वपूर्ण तरीका है। नवंबर
2015 में, यूनेस्को ने
इस सिद्धांत को
समर्थन दिया (http://www.globalgeopark.org/News/News/9979.htm)
और ‘यूनेस्को ग्लोबल
जियोपार्क्स नेटवर्क’ को
प्रमाणित करने और आधिकारिक
भागीदार (अर्थ साइंस फॉर
सोसाइटी, यूनेस्को; 7 जनवरी
2020 को पुन:प्राप्त) बनने
का निर्णय लिया। इसका
उद्देश्य प्रकृति के चमत्कारों
के बारे में जागरूकता
पैदा करना और लोगों
को इस पृथ्वी के
मोहक पहलुओं से जोड़ने
में मदद करना है।
वर्ष 2015 में, इंटरनेशनल युनियन
फॉर कंज़र्वेशन ऑफ
नेचर (आईयूसीएन) ने
एक संकल्प लिया जिसमें
भू-विविधता को प्राकृतिक
विविधता और प्राकृतिक धरोहर
के एक अभिन्न अंग
के रूप में स्वीकार
किया गया। इसके तहत
भू-विविधता और भू-संरक्षण
को भी जैव विविधता
और प्राकृतिक संरक्षण
का अभिन्न अंग माना
गया। वर्तमान में 44 देशों
में 169 यूनेस्को ग्लोबल
जियोपार्क हैं, जिसमें से
चीन में 41 जियोपार्क हैं।
वहीं भारत में एक
भी जियोपार्क नहीं
है।
जियोहेरिटेज संरक्षण के एक
अभिन्न अंग के रूप
में, भू-पर्यटन एक
स्थान के विशिष्ट भौगोलिक
विशेषता यानी उसके पर्यावरण,
सौंदर्य, संस्कृति और
स्थानीय लोगों के हितों
को बनाए रखता है
और उसमें वृद्धि भी
करता है। जियोपार्क्स न
सिर्फ पर्यटन को बढ़ावा
देते हैं बल्कि वे
उस राज्य को भी
वित्तीय संसाधन प्रदान करते
हैं जहां वे स्थित
हैं। इन स्थलों को
विकसित करने से इस
क्षेत्र के लोगों को
होटल, परिवहन, स्मारिका,
कलाकृति की दुकानों, आदि
के रूप में आजीविका
प्राप्त होती है। इसके
अलावा, जियोपार्क्स में
जियोहेरिटेज स्थल शोधकर्ताओं सहित
शिक्षार्थियों के लिए अत्यधिक
शिक्षाप्रद महत्व रखते हैं।
भू-पर्यटन में हम
क्षेत्र के भूवैज्ञानिक महत्व
पर ध्यान देते हैं
जिसमें भूविज्ञानियों और
पर्यटकों की वैज्ञानिक रूचि
को आकर्षण के मुख्य
विषय के रूप में
प्रस्तुत किया जाता है।
हम स्थानीय या राष्ट्रीय
स्तर पर प्रशासन का
भी ध्यान आकर्षित करते
हैं जिसमें भूविज्ञानियों की
सहमति से संरक्षित स्थलों
को परिभाषित करने,
बढ़ावा देने, व्यवस्थित करने
और रखरखाव के खर्चों
में सहायता देने के
लिए पर्याप्त कानूनी
ढांचा निर्धारित किया
जा सके।
जुलाई 2019 में, इंडियन नेशनल
ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड
कल्चर हेरिटेज (आईएनटीएसीएच) ने आंध्र प्रदेश
पर्यटन विभाग, पुरातत्व
और संग्रहालय विभाग
और विशाखापटनम मेट्रोपोलिटन
रीजन डेवलपमेंट अथॉरिटी
के साथ मिलकर लोगों
के बीच जियोहेरिटेज स्थलों
पर जागरूकता पैदा
करने के लिए अभियान
चलाया और उस क्षेत्र
में विभिन्न जियोपार्क्स को
विकसित करने का प्रस्ताव
रखा। आईएनटीएसीएच ने
भूगर्भीय रूप से महत्वपूर्ण
ऐसे कई स्थलों को
चिन्हित और उनका दस्तावेज़ीकरण
किया है जिन पर
संरक्षण अधिकारियों को
तत्काल ध्यान देने की
आवश्यकता है। यह भारतीय
भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई)
द्वारा तैयार और प्रकाशित
की गई बड़ी सूची
के अतिरिक्त हैं
जिसमें देशभर के 32 स्थलों
का दस्तावेज़ीकारण किया
गया है। हालांकि, 36वीं
अंतर्राष्ट्रीय भूवैज्ञानिक कांग्रेस
2020 (जो स्थगित हो गई
है) के लिए तैयार
किए गए स्टेटस पेपर
में यह संख्या 40 हो
गई है। जीएसआई ने
26 भूवैज्ञानिक स्थलों की पहचान
राष्ट्रीय भूवैज्ञानिक स्मारकों
(एनजीएम) के रूप में
की है। एक राष्ट्रीय
संरक्षक के रूप में,
यह जीएसआई का बाध्य
कर्तव्य है कि वो
भारत के जियोहेरिटेज स्थलों
को या तो स्वयं
या राज्य सरकार के
उन अधिकारियों के
सहयोग से निरूपण और
रखरखाव का ध्यान रखें
जो इसके वास्तविक मूल्य
और भू-पर्यटन क्षमता
से आश्वस्त हैं। हालांकि,
जीएसआई इस कार्य के
लिए राष्ट्रीय संरक्षक
तो है ही लेकिन
ऐसे स्थलों की सुरक्षा
के लिए कानून की
अनुपस्थिति में एजेंसी खुद
को असहाय पाती है,
विशेष रूप से जब
इन स्थलों को स्थानीय
लोगों या फिर विकास
कार्य करने वाले आधिकारिक
ठेकेदारों द्वारा नष्ट कर
दिया जाता है। इनमें
से अधिकांश स्थल राजस्थान,
ओडिशा, कर्नाटक, आंध्र
प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु,
महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, झारखंड
और उत्तर प्रदेश में
स्थित हैं। भारत में
संरक्षित पहली भूवैज्ञानिक वस्तु
1951 में पाई गई जब
तमिलनाडु स्थित पेराम्बुर ज़िले
की जीवाश्मित लकड़ी
को एनजीएम घोषित किया
गया। तेलंगाना स्थित
आदिलाबाद ज़िले के प्राणहिता-गोदावरी
घाटी में जीवाश्मित अंडे,
अंडे के छिलके, कंकाल
के अवशेष और मल
(230 Ma) के रूप में भारतीय
डायनासौर के बेहतरीन अवशेष
सुरक्षित पाए गए। इसी
तरह कोटा में पाए
गए यह अवशेष 190 Ma पुराने
जबकि गुजरात के जबलपुर,
बाघ और खेरा ज़िलों
के संग्रह 65 Ma पुराने
हैं। विश्व प्रसिद्ध मांसाहारी
राजसौरस नर्मडेनसिस नामक
टायरानोसौरस
रेक्स, मध्य
भारत के नर्मदा क्षेत्र
से सम्बंधित है।
भारतीय उपमहाद्वीप को
समृद्ध भूवैज्ञानिक धरोहर
से नवाज़ा गया है।
इन स्थलों को भूवैज्ञानिक
स्मारकों और भूवैज्ञानिक उद्यानों
के रूप में विकसित
करके हम पूरे विश्व
में भूवैज्ञानिक संपदा
को प्रदर्शित करने
में सबसे आगे हो
सकते हैं। दुर्भाग्य से,
इन स्थलों को भूवैज्ञानिक
स्मारकों के रूप में
घोषित किया जाना तो
दूर, प्रकृति के इन
चमत्कारों की सुरक्षा पर
भी बहुत कम ध्यान
दिया जा रहा है।
अधिकांश स्थल तो बिना
किसी सुरक्षा के उजाड़
पड़े हैं और ‘विकास’
कार्यों या फिर क्षति
पहुंचने के कारण यह
समय के साथ पूरी
तरह खत्म हो जाएंगी।
भारत के परिदृश्य के
संरक्षण में जियोहेरिटेज को
हमेशा से ही उपेक्षित
किया गया है।
सांस्कृतिक भवनों और जैव
विविधता को संरक्षित करने
के लिए पुरातात्विक एवं
ऐतिहासिक संरचना संरक्षण कानून
1958 और जैव विविधता कानून
2002 मौजूद हैं। लेकिन भूवैज्ञानिक
संरचनाओं के संरक्षण के
लिए ऐसा कोई कानून
नहीं है जो राष्ट्र
के प्राकृतिक धरोहर
को स्थापित कर सके।
यह स्थिति जीएसआई, भूवैज्ञानिक
अध्ययनों में भाग लेने
वाले अनुसंधान संस्थान
और एक सदी से
भी अधिक समय से
भूविज्ञान पढ़ाने वाले विश्वविद्यालयों जैसे बड़े संस्थाओं
के अस्तित्व में
रहने के बावजूद है।
भूवैज्ञानिक रूप से महत्वपूर्ण
जियोपार्क्स या जियोसाइट्स को
संरक्षित करने के प्रस्ताव
को विशुद्ध रूप से
अकादमिक कहकर खारिज कर
दिया जाता है। लोगों
को उनके जीवन और
उनके आसपास की चट्टानों,
जीवाश्मों और संसाधनों के
बीच घनिष्ठ सम्बंधों का
एहसास कराना आसान नहीं
है। यह एहसास कराना
तभी संभव हो सकता
है जब हम अपने
बच्चों को प्राथमिक कक्षाओं
तथा भूगर्भीय रूप
से मनोहर स्थलों के
आसपास रहने वाले ग्रामीणों
को ऐसी विशेषताओं के
महत्व से अवगत कराएंगे।
अब तक, जियोहेरिटेज संरक्षण
कानून लाने के सभी
प्रयास विफल रहे हैं।
2007 में, दो उत्साही भूविज्ञानियों
ने भारत के तत्कालीन
राष्ट्रपति को जियोहेरिटेज संरक्षण
की खेदजनक स्थिति से
काफी प्रभावित किया।
राष्ट्रपति की पहल पर,
भारत सरकार के पृथ्वी
विज्ञान मंत्रालय (एमओईएस)
के सचिव को इस
मामले पर वैज्ञानिक चर्चा
शुरू करने के लिए
कहा। 26 फरवरी 2009 को
भारत सरकार ने राष्ट्रीय
विरासत स्थल आयोग विधेयक
प्रस्तुत किया। इस विधेयक
का मसौदा भारत सरकार
के पर्यटन, परिवहन
और संस्कृति मंत्रालय
को भेजा गया। बिना
किसी ठोस नतीजे के,
14 मार्च 2016 को पत्र सूचना
कार्यालय (पीआईबी) ने
ऑन-रिकॉर्ड बताया कि
2009 का विधेयक एक बार
फिर उच्च-स्तरीय समिति
को भेजा गया जहां
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण,
राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण, शहरी
विकास बोर्ड और पर्यावरण,
वन और जलवायु परिवर्तन
मंत्रालय, भारत सरकार से
परामर्श के बाद इस
विधेयक को खारिज करने
का निर्णय लिया गया
और 31 जुलाई 2015 को
इसे वापस ले लिए
गया। यहां यह बताना
आवश्यक है कि यह
पूरा मामला पृथ्वी विज्ञान
से सम्बंधित किसी
भी मंत्रालय को
नहीं भेजा गया जो
भूवैज्ञानिक धरोहरों के प्राकृतिक
संरक्षक हैं।
इंडियन सोसाइटी ऑफ अर्थ
साइंटिस्ट्स, लखनऊ ने भारतीय
राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (आईएनएसए)
के तत्वावधान में
इंटरनेशनल युनियन ऑफ जियोलाजिकल
साइंसेज़ (आईयूजीएस) की
राष्ट्रीय समिति के साथ
संयोजन में नई दिल्ली
स्थित अकादमी के परिसर
में 6 और 7 अगस्त 2019 को
विचार मंथन सत्र का
आयोजन किया। जानकार और
सक्रीय भूविज्ञानियों की
टीम ने ‘कंज़रवेशन ऑफ
जियोहेरिटेज साइट्स एंड डेवलपमेंट
ऑफ जियोपार्क्स एक्ट-
2020’ नामक एक विस्तृत दस्तावेज़
तैयार किया। इस दस्तावेज़
में निम्नलिखित अध्याय
रखे गए: जियोहेरिटेज स्थलों
का संरक्षण, रखरखाव
और पहुंच, राष्ट्रीय
जियोहेरिटेज प्राधिकरण, प्राधिकरण
की वार्षिक योजना, बजट,
लेखा और ऑडिट, राज्य
जियोहेरिटेज बोर्ड्स, और
दंड एवं अपराध। इस
व्यापक दस्तावेज़ को
प्रधानमंत्री कार्यालय, सरकार
के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार
(पीएसए) और कई मंत्रालयों
को भेजा गया।
इस संदर्भ में विज्ञान
और प्रौद्योगिकी मंत्री
की ओर से जवाब
में बताया गया कि
एमओईएस, भारत सरकार के
सचिव जियोहेरिटेज से
सम्बंधित बैठकों का आयोजन
कर सकते हैं। इस
बैठक में खान मंत्रालय
(एमओएम), भारत सरकार के
प्रतिनिधि ने दावा किया
कि यह विषय एमओएम
के कार्यक्षेत्र में
आता है। 1 अप्रैल 2020 को
एमओएम के सचिव ने
एक आंतरिक टास्क ग्रुप
का गठन किया। इस
ग्रुप के सदस्यों की
वर्चुअल बैठक में विधेयक
के मूल मसौदे के
कुछ खंडों में संशोधन
किया गया जिसे पूर्व
में आईएनएसए की बैठक
में तैयार किया गया
था। इस नए विधेयक
को जियोहेरिटेज कंज़र्वेशन
और जियोपार्क्स डेवलपमेंट
बिल 2020 का नाम दिया
गया। पुनर्रीक्षण करने
वाली टास्क फोर्स को
सख्ती से आंतरिक रखा
गया। तभी से बिल
को अंतिम रूप देने
में कोई प्रगति नहीं
हुई है।
यह इंतज़ार काफी लंबा होता जा रहा है और विकास के नाम पर देश के कई भागों में जियोहेरिटेज स्थलों को नष्ट किया जा रहा है। पीएसए की अध्यक्षता में विश्वस्तरीय जीवाश्म भंडार/संग्रहालय स्थापित करने की महत्वकांक्षी योजना को एक साल से भी अधिक समय बीत चुका है लेकिन उसमें अभी तक कोई प्रगति नहीं हुई है। आईएनएसए में आयोजित आईयूजीएस राष्ट्रीय समिति द्वारा दिए गए सुझाव में जियोहेरिटेज स्थलों के संरक्षण और रखरखाव को संग्रहालय से सम्बंधित अभ्यास का अंश बनाया जाना चाहिए। अभी तक यह ज्ञात नहीं है कि इस सुझाव को संग्रहालय परियोजना की प्रस्तावित अधूरी विस्तृत परियोजना रिपोर्ट में शामिल किया गया है या नहीं। इन मुद्दों पर देश में भू-आकृतियों और भूविज्ञान शिक्षा को बढ़ावा देने सहित भूवैज्ञानिक विशेषताओं की सुरक्षा और संरक्षण के हितों को ध्यान देना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : http://3.bp.blogspot.com/-7NxwEpUaqRU/VWQXp5DsY4I/AAAAAAAAB9w/n8JVC_k2A2I/s1600/geo%2Bmonuments%2Bindia.jpg
मुख्य
रूप से अफ्रीका में
पाए जाने वाले अफ्रीकी
बाओबाब या गोरखचिंच वृक्ष
पृथ्वी पर पाए जाने
वाले विचित्र वृक्षों में
से हैं। इनका तना
बोतल या किसी मर्तबान
की तरह होता है
– अंदर से खोखला। अब
वैज्ञानिकों ने जिम्बाब्वे के
विक्टोरिया फॉल्स स्थित प्रसिद्ध
बाओबाब वृक्ष बिग ट्री
की उम्र पता कर
ली है।
बिग ट्री ज़मीन के
ऊपर लगभग 25 मीटर ऊंचा
है। इसमें पांच मुख्य
तने, तीन युवा तने
और एक जाली तना
है, जो मिलकर इसे
एक छल्ले जैसा आकार
देते हैं। दरअसल, अन्य
वृक्षों की तुलना में
बाओबाब वृक्ष की उम्र
पता करना थोड़ा पेचीदा
काम है। सामान्यत: वृक्षों
के वार्षिक वलयों की
गिनती के आधार पर
उनकी उम्र निर्धारित की
जाती है। लेकिन बाओबाब
के वृक्ष कुछ वर्ष
तो कोई वलय नहीं
बनाते और कुछ वर्ष
एक से अधिक वलय
बनाते हैं इसलिए सिर्फ
वलय गिनकर इनकी उम्र
पता नहीं लगती।
इसलिए शोधकर्ताओं ने
रेडियोकार्बन डेटिंग विधि की
ओर रुख किया। उन्होंने
बिग ट्री से लिए
गए नमूनों में कार्बन
के दो समस्थानिकों का
अनुपात पता किया। इनमें
से एक समस्थानिक (कार्बन-14)
अस्थिर होता है जबकि
दूसरा (कार्बन-12) टिकाऊ
होता है। विधि का
आधार यह है कि
वायुममडल में जो कार्बन
डाईऑक्साइड पाई जाती है
उसमें कार्बन-14 का
एक निश्चित अनुपात होता
है। इसी कार्बन डाईऑक्साइड
का उपयोग पेड़-पौधे
प्रकाश संश्लेषण में
करते हैं। इसलिए जब
तक वे जीवित हैं
उनमें कार्बन-14 का
वही स्तर मिलता है।
मृत हो जाने पर
कार्बन-14 का एक निश्चित
गति से विघटन होता
रहता है, इसलिए उसका
अनुपात कम होता जाता
है। तो कार्बन-14 और
कार्बन-12 के अनुपात से
बताया जा सकता है
कि कोई ऊतक कब
मृत हो गया था।
पाया गया कि बाओबाब
के तने तीन अलग-अलग
समय के हैं: 1000-1100 वर्ष,
600-700 वर्ष, और 200-250 वर्ष
पुराने। डेंड्रोक्रोनोलॉजिया में
शोधकर्ता ने बताया है
कि सबसे प्राचीन तना
लगभग 1150 साल पुराना है।
बाओबाब की यह उम्र
पूर्व में बाओबाब के
आकार के आधार निर्धारित
की गई उम्र से
अधिक है। शोधकर्ताओं का
अनुमान है कि इस
वृक्ष की अपेक्षाकृत धीमी
वृद्धि का कारण इस
क्षेत्र में लगातार आने
वाले तूफान हैं।
शोधकर्ताओं का सुझाव है कि रेडियोकार्बन तकनीक का उपयोग जटिल वृद्धि वाले पेड़ों की उम्र पता करने के लिए किया जा सकता है। इस तरह के वृक्षों की उम्र निर्धारित करना इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि इससे पता चलता है कि इन्होंने अतीत में जलवायु परिवर्तन को किस तरह झेला है – हाल के वर्षों में संभवत: जलवायु परिवर्तन के चलते हर छह में से पांच विशाल अफ्रीकी बाओबाब की मृत्यु हुई है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.acx9629/full/_20211110_on_zimbabwebigtree-finally-gets-an-age.jpg
यह लेख “क्या है बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरेंसी-1” (https://bit.ly/3EQACFn) का दूसरा भाग है। यदि आपने लेख का पहला भाग नहीं पढ़ा है और/या क्रिप्टोकरेंसी के काम करने की प्रणाली को नहीं समझते हैं तो आप पहला भाग ज़रूर पढ़ें।
हाल ही में, चीन सरकार ने क्रिप्टोकरेंसी
को अवैध घोषित करते हुए इसके क्रय-विक्रय, माइनिंग
(खनन),
मिंटिंग और व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया। अमेरिका के कुछ
नीति निर्माताओं ने भी क्रिप्टोकरेंसी की वैधता और खरेपन पर सवाल उठाया है। कई
सीनेटरों ने तो इसे “असली पैसे का घटिया विकल्प” कहा है।
ऐसा प्रतीत होता है कि रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) और भारत सरकार ने भी
क्रिप्टोकरेंसी के खिलाफ सख्त रवैया अपनाने की ठान ली है। ऐसी अफवाह है कि निजी
क्रिप्टोकरेंसी के विरुद्ध एक विधेयक पर काम किया जा रहा है और इस वर्ष के अंत तक
इसे संसद में प्रस्तुत किया जाएगा। सवाल यह उठता है कि सरकारों और नीति निर्माताओं
को क्रिप्टोकरेंसी इतनी नापसंद क्यों है? आइए इसके कारणों पर एक
नज़र डालते हैं।
1. नियंत्रण खो देने का डर
सरकारों द्वारा क्रिप्टोकरेंसियों को नापसंद करने का कारण क्रिप्टोकरेंसियों
का दोहरा उद्देश्य है। क्रिप्टोकरेंसी का उपयोग निवेश के साधन के साथ-साथ खरीद के साधन
के रूप में भी किया जा सकता है। चूंकि इसे क्रय-विक्रय के साधन के रूप में
इस्तेमाल किया जा सकता है, सरकार के स्वामित्व वाले
केंद्रीय बैंकों द्वारा जारी की गई अधिकारिक मुद्रा के साथ प्रतिस्पर्धा का खतरा
है।
वास्तव में सरकारें नियंत्रण चाहती हैं और क्रिप्टोकरेंसियां इस नियंत्रण को
चुनौती देती हैं। हमारी पारंपरिक मुद्रा प्रणाली में लेन-देन की वैधता प्रमाणित
करने और सत्यापन पर बैंकों का एकाधिकार होता है जिससे सरकारों को यह पता करना आसान
हो जाता है कि किसके पास कितनी धनराशि है जो कर-निर्धारण के लिए ज़रूरी है।
विकेंद्रीकरण से भी नियंत्रण में कमी आती है, अधिदिश्ट
(यानी सरकारी आदेश से प्रचलित) मुद्रा से सरकारें आसानी से चीज़ों को नियंत्रण में
रख सकती हैं। उदाहरण के लिए, सरकारें प्रचलित मुद्रा को
नोटबंदी के माध्यम से समाप्त कर सकती हैं और नई मुद्रा छाप सकती हैं। अर्थव्यवस्था
को नियंत्रित करने के लिए सरकारें मौद्रिक नीति में बदलाव भी कर सकती हैं। दूसरी
ओर,
क्रिप्टोकरेंसियां केंद्रीय प्राधिकरण को नियंत्रण की कोई
गुंजाइश नहीं देतीं और इसलिए क्रिप्टोकरेंसियों को कानूनी वैधता मिलने से सरकारों
के लिए मौद्रिक नीतियों का नियमन कर पाना संभव नहीं होगा।
2. क्रिप्टो-अपराध की संभावना
क्रिप्टोकरेंसी का विकेंद्रीकृत स्वरूप इसका सबसे बड़ा गुण होने के साथ-साथ
सबसे बड़ी कमज़ोरी भी है। एक ओर, जहां निजता एक मौलिक अधिकार है, वहीं दूसरी ओर, क्रिप्टोकरेंसियों से हासिल गुमनामी से
लोगों को जासूसी,
हत्या, ड्रग व्यापार, आतंकी फंडिंग, साइबर-अपराध जैसी गतिविधियों में लिप्त
होने का मौका भी मिलता है। क्रिप्टोकरेंसियों की गुमनाम प्रकृति के चलते कानून का
उल्लंघन करने वालों पर नकेल कसना काफी कठिन हो जाता है।
क्रिप्टोकरेंसियां कितनी भी सुरक्षित क्यों न हों, धोखाधड़ी
और अनाधिकृत लेनदेन की घटनाएं सुर्खियों में रही हैं। ऐसे में प्रभावित लोगों को
न्याय दिलाना सरकार की ज़िम्मेदारी बन जाती है जबकि उसका इन मुद्राओं पर कोई
नियंत्रण नहीं होता।
3. केंद्रीय बैंकों पर खतरा
एक ऐसे परिदृश्य की कल्पना कीजिए जिसमें क्रिप्टोकरेंसी किसी देश की एकमात्र
वैध मुद्रा बन जाती है। इस स्थिति में, मुद्रा की विकेंद्रीकृत
प्रकृति के कारण,
केंद्रीय बैंक की कोई आवश्यकता नहीं रह जाएगी क्योंकि तब
किसी भी लेन-देन को मान्य या सत्यापित करने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।
सरकारें केंद्रीय बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों की मदद से देश के वित्त और
अर्थव्यवस्था का प्रबंधन करती हैं। बिटकॉइन और अन्य विकेंद्रीकृत
क्रिप्टोकरेंसियों की बढ़ती लोकप्रियता से विश्व भर के कई केंद्रीय बैंकों ने अपना
व्यवसाय खो दिया है और सम्बंधित सरकारों को भी नुकसान हुआ है।
4. अस्थिरता
एक और परिदृश्य की कल्पना कीजिए जब आप एक रबड़ खरीदने के लिए एक रुपया खर्च
करते हैं और अगले ही दिन आपको पता चलता है कि यदि एक दिन इंतज़ार करते तो इसी एक
रुपए से 10 ग्राम सोना खरीद सकते थे। अच्छी बात है कि रुपए की क्रय शक्ति में
प्रतिदिन इतना उतार-चढ़ाव नहीं होता है।
क्रिप्टोकरेंसी के अत्यधिक अस्थिर मूल्य की समस्या का यह एक उदाहरण है। इसी
समस्या का दूसरा पहलू शायद नीति निर्माताओं के लिए और भी गंभीर है। क्रय शक्ति के
आधार पर यह पता लगाना कठिन हो जाता है कि कोई व्यक्ति कितना अमीर या गरीब है। एक
दिन आपके पास इतनी संपत्ति होगी जिससे आप अपना शेष जीवन आराम से व्यतीत कर सकते
हैं और अगले ही दिन आपकी सारी संपत्ति एक माचिस की डिबिया के मूल्य के बराबर होगी।
इस स्थिति में नीति निर्माताओं को मौद्रिक और कराधान नीतियों को लागू करना अत्यंत
कठिन हो जाएगा।
यदि रुपया क्रय शक्ति के मामले में इतना अस्थिर रहता है तो हमें एक ऐसी लचीली
कराधान दर की आवश्यकता होगी जो हर घंटे परिवर्तित होती रहे।
क्रिप्टोकरेंसी बाज़ार अपनी अस्थिर प्रकृति, उच्च
जोखिम और उच्च लाभ के लिए जाना जाता है। इसी कारण क्रिप्टोकरेंसी को खरीद के साधन
या मुद्रा के रूप में उपयोग करना कठिन हो जाता है। यह पारंपरिक कागज़ी मुद्रा की
तुलना में काफी नई है तथा इसे उपयोग में लाए काफी समय भी नहीं हुआ है। ऐसे में
मुद्रा के रूप में इसकी उपयोगिता भी कमज़ोर दिख रही है।
5. मुद्रा आपूर्ति में धन का अभाव
क्रिप्टोकरेंसियां विकेंद्रीकृत होती हैं और इसलिए यह कोई भी नहीं जानता कि
अधिदिश्ट मुद्रा के बदले क्रिप्टोकरेंसी खरीदने पर निवेशक के बैंक से पैसा जाता
कहां है। क्रिप्टोकरेंसी को खरीदने वाला व्यक्ति दुनिया में कहीं का भी हो सकता है
और बेचने वाला व्यक्ति भी दुनिया के किसी भी कोने का हो सकता है। इससे नीति
निर्माताओं को काफी समस्या होती है।
यदि आरबीआई अर्थव्यवस्था में प्रचलन के लिए 100 रुपए जारी करे और कोई निवेशक
इनमें से 10 रुपए क्रिप्टोकरेंसी में निवेश कर दे तो अर्थ व्यवस्था में केवल 90
रुपए ही बचेंगे। क्रिप्टोकरेंसियां अर्थव्यवस्था में उपलब्ध धन राशि को कम कर सकती
हैं और एक बार इन वित्तीय साधनों में निवेश होने पर कोई भी नीति निर्माता इस पैसे
को ट्रैक नहीं कर सकता है। यह एक और समस्या है जिसके कारण नीति निर्माता
क्रिप्टोकरेंसियों को नापसंद करते हैं।
अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
अनुमान है कि 2021 तक, भारत में लगभग 1 करोड़ खुदरा
क्रिप्टोकरेंसी निवेशक थे। और क्रिप्टोकरेंसी बाज़ार में लगातार वृद्धि हो रही है।
भले ही भारतीय निवेशकों में क्रिप्टोकरेंसियों के प्रति उत्साह दिख रहा हो, लेकिन अवैध गतिविधियों के लिए उपयोग होने की आशंका के कारण लाखों निवेशक
क्रिप्टोकरेंसी को अपनाने से कतरा भी रहे हैं। अनियंत्रित प्रकृति के चलते
क्रिप्टोकरेंसियों को गैर-कानूनी मुद्रा मान लिया जाता है।
आने वाले बजट सत्र में क्रिप्टोकरेंसी और डिजिटल मुद्रा विधेयक 2021 को
प्रस्तुत करने की घोषणा ने निवेशकों के विश्वास को डगमगा दिया है। अनुमान है कि
विधेयक क्रिप्टोकरेंसी के प्रतिकूल होगा।
यदि भारत क्रिप्टोकरेंसी और ब्लॉकचेन तकनीक का ठीक से नियमन करना सीख जाए और
क्रिप्टोकरेंसी से उत्पन्न आय पर कर लगाने की प्रणाली विकसित कर ले तो भारतीय
अर्थव्यवस्था को काफी फायदा हो सकता है। ब्लॉकचेन तकनीक को पारंपरिक बैंकिंग
प्रणाली में भी अपनाया जा सकता है।
वित्त मंत्री के अनुसार सरकार की योजना क्रिप्टोकरेंसी के लिए नपा-तुला
दृष्टिकोण अपनाने की है। हालांकि, सरकार द्वारा ‘नपे-तुले’
दृष्टिकोण में अस्पष्टता से भारतीय क्रिप्टोकरेंसी निवेशकों और प्लेटफॉर्म्स के
बीच पूर्ण प्रतिबंध का डर बना हुआ है।
इतिहास पर नज़र डालें तो इस प्रकार के प्रतिबंध अक्सर अप्रभावी रहे हैं।
प्रतिबंध भविष्य में होने वाले नवाचारों को खत्म कर देगा। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि निवेशकों के हितों की रक्षा के लिए नियामक ढांचा
आवश्यक नहीं है। यहां कुछ महत्वपूर्ण कानूनी और नियामक जोखिमों पर चर्चा की गई है
जो भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकते हैं।
1. सुपरिभाषित कानूनों का अभाव
किसी भी तकनीक को बड़े पैमाने पर अपनाने के लिए अनिवार्य है कि मानकों का
निर्धारण कर लिया जाए। क्योंकि डिस्ट्रिब्यूटेड लेजर तकनीक (जिसे ब्लॉकचेन कहा
जाता है) अभी भी विकसित हो रही है, दुनिया भर के नियामक और नीति
निर्माता इस तरह की तकनीक के निहितार्थ का अध्ययन कर रहे हैं। हालांकि अमेरिका और
जापान जैसे देश नियामक ढांचा विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन अभी तक ऐसा कोई ढांचा सामने नहीं आया है।
2. स्वामित्व और न्याय-क्षेत्र में अस्पष्टता
एक डिस्ट्रीब्यूटेड लेजर तकनीक का मूल सिद्धांत यह है कि इसके नेटवर्क से जुड़े
सभी लोगों के पास लेजर की एक प्रति होती है जिसके चलते लेजर का वास्तविक स्थान
जानने का कोई तरीका नहीं है। इसलिए, ब्लॉकचेन पर किए गए लेनदेन
पारंपरिक बैंकिंग की तुलना में उच्चतर गोपनीयता प्रदान करते हैं। हालांकि, यह एक अच्छी खबर नहीं है क्योंकि इससे न्यायिक क्षेत्राधिकार का मुद्दा भी
उठता है – यदि कोई इस विशेषता का लाभ उठाना चाहे तो निपटना मुश्किल होगा।
हो सकता है कि क्रिप्टोकरेंसियों का उपयोग करके किए गए विभिन्न लेनदेन ऐसे
अलग-अलग कानूनी ढांचों के अंतर्गत आते हों जो एक दूसरे के विपरीत हों। जैसे मैं
जापान में किसी के साथ लेनदेन करता हूं और वहां की सरकार और मेरी सरकार की नीतियां
परस्पर विरोधी हों। इसी क्रम में एक और मुद्दा बहीखाते का कोई भौतिक स्थान न होना
है जिसके कारण क्रिप्टोकरेंसियों का ‘मूल देश’ निर्धारित नहीं किया जा सकता। इसके
अतिरिक्त,
चूंकि ब्लॉकचेंस राष्ट्र-पारी हो सकते हैं, इसलिए अंतर्राष्ट्रीय विवादों की स्थिति में सम्बंधित देशों के नीति
निर्माताओं के लिए प्रासंगिक कानून और न्याय-क्षेत्र का निर्धारण करना एक बड़ा
सिरदर्द हो सकता है। नीति-निर्माताओं के लिए एक कठिन काम होगा कि वे विभिन्न
उपयोगकर्ताओं,
विनिमयों और परियोजनाओं के बीच कानून को कैसे लागू
करेंगे।
3. अनिश्चित वर्गीकरण
जहां तक कराधान का सवाल है, विभिन्न देशों के बीच
क्रिप्टोकरेंसी के बारे में कोई स्पष्ट सहमति नहीं है कि यह है क्या।
क्रिप्टोकरेंसी को परिसंपत्ति, मुद्रा, कमोडिटी जैसी विभिन्न श्रेणियों में रखने पर विचार चल ही रहा है।
अपुष्ट रिपोर्टों के अनुसार ऐसी संभावना है कि भारत सरकार क्रिप्टोकरेंसी को
परिसंपत्ति श्रेणी में रख सकती है। भारत सरकार की ओर से अभी तक कोई स्पष्ट संकेत
नहीं मिले हैं। यह केवल क्रिप्टोकरेंसी के कराधान के मुद्दे को और उलझाएगा।
4. हवाला के मुद्दे
क्रिप्टोकरेंसी के विरोध का प्रमुख कारण यह रहा है कि इनका उपयोग धोखाधड़ी, मनी लॉन्ड्रिंग और अन्य अपराधों के
लिए किया जा सकता है। क्रिप्टोकरेंसियों का गुमनाम स्वरूप इनके दुरुपयोग की
संभावना का प्रमुख कारण माना जाता है। क्रिप्टोकरेंसियों का उपयोग डीप-वेब की अवैध
वेबसाइटों पर किया जाता है जहां अपराधी अवैध सामग्री (जैसे बंदूक, गोला-बारूद,
विस्फोटक, ड्रग्स, रेडियोधर्मी पदार्थ) का लेनदेन कर सकते हैं या अवैध निगरानी, जासूसी और हत्या जैसी ‘सेवाएं’ खरीद सकते हैं।
5. डैटा चोरी की संभावना
क्रिप्टोकरेंसियां कितनी भी सुरक्षित क्यों न हों, किसी
भी अन्य वित्तीय साधन के समान इसमें भी डैटा चोरी और वित्तीय धोखाधड़ी के जोखिम तो
हैं ही। इनकी ब्लॉकचेन के कोड में खामियां रह जाएं तो अपराधी इसका फायदा उठा सकते
हैं और गुमनामी के गुण के चलते ऐसे अपराधियों को ट्रैक करना काफी कठिन होगा।
कॉर्नेल युनिवर्सिटी के एक शोध में पिछले वर्ष एथेरियम (एक क्रिप्टोकरेंसी) के
ब्लॉकचेन में एक गंभीर सुरक्षा खामी का पता चला था। इस शोध रिपोर्ट में बताया गया
था कि यदि इस खामी का फायदा उठा लिया जाता तो एथेरियम उपयोगकर्ताओं और निवेशकों को
25 करोड़ डॉलर की चपत लग सकती थी। इसी तरह, क्रिप्टोकरेंसी
वॉलेट निर्माता ‘लेजर’ के डैटा में सेंध के कारण 10 लाख ग्राहकों के नाम, पते और फोन नंबर सहित ईमेल भी उजागर हो गए थे। अभी यह देखना बाकी है कि मौजूदा
डैटा प्रोटोकॉल की मदद से क्रिप्टोकरेंसी से जुड़े डैटा चोरी और वित्तीय धोखाधड़ी के
मुद्दे को संबोधित किया जा सकता है या नहीं।
6. निवेशकों की चिंताएं
युनाइटेड किंगडम, जापान, कनाडा
और संयुक्त राज्य अमेरिका सहित कई देशों द्वारा बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरेंसियों को
वैध घोषित करने के बावजूद विभिन्न देशों के बीच लेनदेन की कानूनी वैधता का सवाल
अभी भी बना हुआ है।
सोने और चांदी के मूल्यों के विपरीत, क्रिप्टोकरेंसी विशुद्ध
रूप से एक काल्पनिक धन है जो बिना किसी केंद्रीकृत प्राधिकरण की आवश्यकता के गणित
और अर्थशास्त्र पर काम करता है और किसी भी भौतिक संपत्ति द्वारा समर्थित नहीं है।
केंद्रीकृत नियमों के अभाव में, निवेशकों के क्रिप्टोकरेंसी
सम्बंधित विवादों को सुलझाने के तरीके का सवाल अभी भी अनुत्तरित है।
भारत का रुख
लगभग 5 वर्षों से, भारत में क्रिप्टोकरेंसियों के विषय पर
उहापोह जारी है। जब पता चला कि देश में क्रिप्टोकरेंसियों के माध्यम से धोखाधड़ी
की जा रही हैं,
तो अप्रैल 2018 में, आरबीआई
ने बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों को क्रिप्टोकरेंसी में लेनदेन करने से
प्रतिबंधित कर दिया। इसके निम्नलिखित कारण बताए गए:
1. क्रिप्टोकरेंसी की प्रकृति अत्यधिक अटकल-आधारित है जो उन्हें एक अत्यंत
अस्थिर निवेश बनती है।
2. क्रिप्टोकरेंसी की गुमनाम प्रकृति इसे अवैध गतिविधियों, हवाला और कर चोरी के माध्यम के रूप में उपयोग करने के लिए उपयुक्त बनाती है।
3. क्रिप्टोकरेंसी माइनिंग बहुत अधिक ऊर्जा खाता है जो देश की ऊर्जा सुरक्षा
पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।
4. आरबीआई अर्थव्यवस्था में क्रिप्टोकरेंसियों की आपूर्ति को नियंत्रित नहीं
कर सकता है।
आरबीआई द्वारा उठाए गए ये बिंदु वास्तव में उचित और सशक्त हैं। सरकार ने
क्रिप्टकरेंसी पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास तो किया लेकिन फरवरी 2019 में सर्वोच्च
न्यायालय ने इसको प्रतिबंधित करने के बजाय विनियमित करने का सुझाव दिया। सुझाव में
कहा गया कि क्रिप्टोकरेंसियों को माल और सेवाओं की खरीद के लिए भुगतान के वैध
तरीके के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, ज़रूरत
सिर्फ इतनी है कि आरबीआई इसका नियमन करे।
प्रतिबंध लगाने का शायद कोई फायदा न हो क्योंकि लोग इससे निपटने के तरीके खोज
सकते हैं। लोग भारत के बाहर स्थित एक्सचेंजों के ज़रिए व्यापार कर सकते हैं जो
आरबीआई को इस समीकरण से पूरी तरह बाहर कर देगा। भारत के कई स्टार्ट-अप्स ने ठीक
वैसा ही किया है।
प्रतिबंध अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों को नकारात्मक संदेश भेजेगा और निवेश के एक
आकर्षक गंतव्य के रूप में भारत की प्रतिष्ठा को धूमिल करेगा।
आखिरकार,
मार्च 2020 में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिबंध को
असंवैधानिक करार दिया। अपने फैसले में न्यायालय ने एक कारण यह भी बताया कि भले ही
भारत में क्रिप्टोकरेंसी का नियमन नहीं किया जा रहा है लेकिन वे निहित रूप से अवैध
नहीं है।
विभिन्न मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, भारत में क्रिप्टोकरेंसी
में अनुमानित 10,000 करोड़ रुपए का निवेश किया गया है। क्रिप्टोकरेंसी के माध्यम से
होने वाली आय का उचित कराधान सुनिश्चित करने के लिए सरकारी विनियमन पर काम किया जा
रहा है। आरबीआई द्वारा खुद की क्रिप्टोकरेंसी शुरू करने की भी योजना है। आरबीआई के
गवर्नर शक्तिकांत दास ने एक बयान में कहा कि ‘सेंट्रल बैंक की डिजिटल करेंसी पर
काम जारी है। आरबीआई की टीम इसके तकनीकी और प्रक्रियात्मक पक्षों पर काम कर रही है
ताकि जनता के बीच इसकी शुरुआत हो सके।’
कुछ ही दिनों पहले, नाइजीरिया के राष्ट्रपति मुहम्मद बुहारी ने
गर्व के साथ यह घोषणा की कि ‘नाइजीरिया अफ्रीका का ऐसा पहला और विश्व के पहले
देशों में से है जिसने अपने नागरिकों के लिए डिजिटल मुद्रा की शुरुआत की है।’
सेंट्रल बैंक की डिजिटल मुद्रा ई-नाइरा को शुरू करने का उद्देश्य कागज़ी नाइरा को
पूरी तरह से बदलने की बजाय उसे पूरक के तौर पर उपयोग करना है। इस तरह नाइजीरिया उन
7 देशों में शामिल हो गया है जिन्होंने आधिकारिक तौर पर अपने केंद्रीय बैंक की
डिजिटल मुद्रा की शुरुआत की है। एटलांटिक काउंसिल की सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसी
ट्रैकिंग वेबसाइट के अनुसार चीन जैसे 16 अन्य देश अभी भी इसके प्रायोगिक चरण में
हैं।
अन्य प्रमुख चिंताएं
नेशनल ब्यूरो ऑफ इकॉनॉमिक रिसर्च द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि
बिटकॉइन और अन्य लोकप्रिय मुद्राएं पहले से कहीं आसानी से उपलब्ध हैं लेकिन अभी भी
मुट्ठीभर लोग ही अधिकांश क्रिप्टोकरेंसी बाज़ार को नियंत्रित कर रहे हैं। इस अध्ययन
में पता चला है कि फिलहाल शीर्ष 10,000 बिटकॉइन निवेशक सभी क्रिप्टोकरेंसियों के
लगभग 33% बाज़ार को नियंत्रित करते हैं।
यह भी पता चल पाया कि 2020 में शीर्ष 10,000 बिटकॉइन मालिकों के पास लगभग 85
लाख बिटकॉइन थे जबकि शीर्ष समूहों के पास इसी अवधि में लगभग 50 लाख बिटकॉइन थे। यह
भी स्पष्ट हुआ कि इन शीर्ष 10,000 निवेशकों में से शीर्ष 1000 निवेशक लगभग 30 लाख
बिटकॉइन के मालिक हैं।
माइनिंग (यदि आप माइनिंग के बारे में नहीं जानते हैं या आपको 51% अटैक के बारे
में कोई जानकारी नहीं है तो इस लेख का पहला भाग देखें) की ओर ध्यान दिया जाए तो
चीज़ें और अधिक स्पष्ट हो जाती हैं। ब्यूरो ने पाया कि शीर्ष 10% माइनर्स लगभग 90%
माइनिंग कार्यों को नियंत्रित करते हैं और इससे भी अधिक आश्चर्यजनक बात तो यह है
कि लगभग आधे माइनिंग आउटपुट शीर्ष 0.1% माइनर्स के नियंत्रण में हैं। इस परिस्थिित
से एक भयावह विचार सामने आता है: यदि किसी समूह के पास क्रिप्टोकरेंसी नेटवर्क की
कम्प्यूटेशनल शक्ति के 51% से अधिक का स्वामित्व हो तो वे अधिकांश नेटवर्क को अपने
नियंत्रण में ले सकते हैं।
डिजिटल मुद्रा विधेयक 2021
अनुमान है कि ‘आधिकारिक डिजिटल मुद्रा विधेयक 2021’ में सभी निजी
क्रिप्टोकरेंसियों को प्रतिबंधित किया जाएगा और आरबीआई द्वारा संचालित‘आधिकारिक
डिजिटल मुद्रा’ के लिए एक नियामक ढांचा तैयार किया जाएगा जो वर्तमान बैंकिंग
प्रणाली के साथ काम करेगा। अभी के लिए हम सिर्फ इतना जानते हैं कि विधेयक को इस
वर्ष के केंद्रीय बजट सत्र 2021-22 पेश किया गया था और फिर चर्चा और योजना पर काम
किया जा रहा है।
ऐसी भी संभावना है कि सरकार द्वारा निवेशकों को ट्रेडिंग, माइनिंग और क्रिप्टोकरेंसी जारी करने के लिए 3 से 6 महीने लंबी निकासी अवधि
प्रदान की जाएगी। एक उच्च-स्तरीय अंतर-मंत्रालयी समिति ने अपनी सिफारिशों में कहा
है कि सरकार को सभी निजी क्रिप्टोकरेंसियों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।
आरबीआई का विचार
आरबीआई ने कहा है कि उसकी टीम बाज़ार संरचना में सुधार के लिए डिस्ट्रिब्यूटेड
लेजर टेक्नॉलॉजी के संभावित अनुप्रयोगों की खोज कर रही है। केंद्रीय बैंक की वैध
डिजिटल मुद्रा की शुरुआत पर भी विचार चल रहा है। लगता है कि सरकार भी आरबीआई की
डिजिटल मुद्रा के पक्ष में है जो निजी क्रिप्टोकरेंसी से प्रतिस्पर्धा कर सके।
बैंक ऑफ इंटरनेशनल सेटलमेंट्स द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 80%
केंद्रीय बैंकों ने यह दावा किया है कि उन्होंने पहले से ही सेंट्रल बैंक की डिजिटल
मुद्राओं के संभावित लाभों को समाविष्ट करना या डिजिटल मुद्राओं के उपयोग की खोज
शुरू कर दी है।
क्रिप्टोकरेंसी स्टार्ट-अप्स
वर्तमान में भारत में 200 से अधिक ब्लॉकचेन स्टार्ट-अप काम कर रहे हैं जिनमें
से अधिकांश क्रिप्टोकरेंसी स्पेस के डीलर हैं।
अप्रैल 2018 में आरबीआई ने सभी बैंकों को अधिसूचित किया कि वे भारत में
क्रिप्टोकरेंसी से सम्बंधित सभी सौदों को प्रतिबंधित और रिपोर्ट करें। इन
स्टार्ट-अप्स को अप्रैल 2019 में राहत मिली जब भारत के सर्वोच्च न्यायलय ने आरबीआई
और सरकार के द्वारा लिए गए निर्णय को असंवैधानिक बताते हुए क्रिप्टोकरेंसियों पर
लगा प्रतिबंध हटा दिया। लेकिन अनुमानित
‘आधिकारिक डिजिटल मुद्रा विधेयक 2021’ के ज़रिए यदि निजी क्रिप्टोकरेंसियों पर
पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाता है तो हालात बदल सकते हैं।
निष्कर्ष
क्रिप्टोकरेंसियों के मामले में प्रतिबंध केवल सरकार, केंद्रीय
बैंकों और कर एजेंसियों को उन लाभों को प्राप्त करने से वंचित कर देगा जो
क्रिप्टोकरेंसी प्रणाली की कमियों के बाद भी उन्हें प्राप्त हो सकते हैं। अर्थात
प्रतिबंध लगाना तो खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा
इन मुद्राओं के नियमन की आवश्यकता है ताकि निवेशकों पर उचित रूप से कर लगाया
जा सके और अन्य देशों के साथ चर्चा करके वैधता सम्बंधी मुद्दों को भी संबोधित किया
जा सके। हम उन देशों की अर्थव्यवस्था का भी अध्ययन कर सकते हैं जिन्होंने अपनी
अर्थव्यवस्था में क्रिप्टोकरेंसी को एकीकृत किया है। प्रतिबंध तो आलस का द्योतक
है। यह लगभग वैसा ही है जैसे हम मुद्रा पर इसलिए प्रतिबंध लगाना चाहते हैं क्योंकि
इस प्रणाली को स्वीकार करने के लिए बहुत परिश्रम की आवश्यकता है ताकि
क्रिप्टोकरेंसी टेक्नॉलॉजी अर्थ व्यवस्था की पूरक बन जाए।
क्रिप्टोकरेंसी के पीछे की तकनीक नई है और भारतीय अर्थव्यवस्था को इससे फायदा भी हो सकता है। विशेष रूप से ब्लॉकचेन तकनीक को पारंपरिक बैंकिंग प्रणाली में शामिल करके काफी फायदा मिल सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://kryptomoney.com/wp-content/uploads/2018/06/KryptoMoney.com-Indian-Cryptocurrency-Exchanges-Crypto-to-Crypto-Trading-RBI-Crypto-Ban.jpeg
हाल ही में फ्रांस की पॉल सेबेटियर युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं
द्वारा नेचर पत्रिका में एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई है। इसके अनुसार, लुडोविक ऑर्लेन्डो और उनके समूह ने ऐसे क्षेत्रों से 2,000 से अधिक घोड़ों की
हड्डियों और दांतों के प्राचीन नमूने एकत्रित किए है जहां पालतू घोड़ों की
उत्पत्ति की संभावना है। पालतू घोड़ों की उत्पत्ति के संभावित क्षेत्र युरोप के
दक्षिण-पश्चिमी कोने का आइबेरियन प्रायद्वीप, युरेशिया
की सुदूर पश्चिमी सीमा, एनाटोलिया (आधुनिक समय का तुर्की), और पश्चिमी युरेशिया और मध्य एशिया के घास के मैदानों को माना जाता है। टोसिन
थॉम्पसन ने नेचर पत्रिका के 28 अक्टूबर 2021 के अंक में एक टिप्पणी में लिखा है, डॉ. ऑर्लेन्डो के दल ने इन क्षेत्रों से प्राप्त लगभग 270 नमूनों के संपूर्ण
जीनोम अनुक्रम का विश्लेषण कर लिया है, और साथ में पुरातात्विक
जानकारी भी एकत्र कर ली है। इसके अलावा उन्होंने रेडियोधर्मी कार्बन-14 की मदद से
घोड़ों के इन नमूनों की उम्र निर्धारित कर ली है (रेडियोधर्मी कार्बन-14 एक
निश्चित दर से विघटित होता है)। इन मिले-जुले आंकड़ों की मदद से वे यह तय कर पाए
कि लगभग 4200 ईसा पूर्व तक कई अलग-अलग तरह के घोड़ों की आबादियां युरेशिया के
अलग-अलग क्षेत्रों में निवास करती थी।
घोड़े के पदचिन्ह
इसी तरह के एक अन्य आनुवंशिक विश्लेषण में यह भी पाया गया है कि आधुनिक पालतू
डीएनए प्रोफाइल वाले घोड़े पश्चिमी युरेशियन स्टेपीज़, विशेष
रूप से वोल्गा-डॉन नदी क्षेत्र में रहते थे।
लगभग 2200-2000 ईसा पूर्व आते-आते ये घोड़े बोहेमिया (वर्तमान के चेक गणराज्य
और युक्रेन),
और मध्य एशिया (कजाकिस्तान, किर्जिस्तान, तजाकिस्तान,
तुर्कमेनिस्तान और उजबेकिस्तान, ईरान
तथा अफगानिस्तान) और मंगोलिया में फैल गए थे। इन देशों के प्रजनक इन घोड़ों को उन
देशों को बेचने के लिए तैयार करते थे जहां इनकी मांग थी। इन देशों में लगभग 3300
ईसा पूर्व तक घुड़सवारी लोकप्रिय हो गई थी, और सेनाओं
का गठन इनके आधार पर किया जाने लगा था – जैसे, मेसोपोटामिया, ईरान,
कुवैत और “फर्टाइल क्रिसेंट” या फिलिस्तीन की सेनाओं में।
थॉम्पसन ध्यान दिलाते हैं कि पहला स्पोक युक्त पहिए वाला रथ 2000-1800 ईसा पूर्व
के आसपास बना था।
भारतीय कहानी
अब सवाल है कि भारत में घोड़े कब आए, और वे देशी थे या विदेशी? क्या घोड़े भारत के मूल निवासी थे? इसका उत्तर तो ‘ना’
लगता है। “वर्ल्ड एटलस” के अनुसार, भारत
के मूल निवासी जानवर सिर्फ एशियाई हाथी, हिम तेंदुआ, गैंडा,
बंगाल टाइगर, रीछ, हिमालयी
भेड़िया,
गौर बाइसन, लाल
पांडा,
मगरमच्छ और मोर व राजहंस हैं। वेबसाइट थॉटको (ThoughtCo) ने अपने लेख एशिया में पैदा हुए 11 घरेलू जानवरों में मृग, नीलगिरि तहर,
हाथी, लंगूर, मकाक
बंदर,
गैंडा, डॉल्फिन, गेरियल मगरमच्छ, तेंदुआ, भालू, बाघ,
बस्टर्ड (उड़ने वाला सबसे भारी पक्षी), गिलहरी,
कोबरा और मोर को सूचीबद्ध किया है। इस तरह इन स्रोतों से
साफ झलकता है कि घोड़ा भारत का मूल निवासी नहीं है। यह भारत में देशों के बीच
अंतर-क्षेत्रीय व्यापार के माध्यम से आया होगा। भारतीयों ने अपने पड़ोसी देशों के
साथ अपने हाथियों, बाघों, बंदरों, पक्षियों का व्यापार किया होगा और अपने उपयोग के लिए घोड़ों का आयात किया
होगा।
तो,
भारत को अपने घोड़े कब मिले? विकिपीडिया
बताता है कि उत्तर हड़प्पा सभ्यता स्थलों (1900 से 1300 ईसा पूर्व) से घोड़ों से
सम्बंधित अवशेष और वस्तुएं मिली हैं, और इनसे ऐसा नहीं लगता
कि हड़प्पा सभ्यता में घोड़ों ने कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसके थोड़े समय
बाद वैदिक काल (1500-500 ईसा पूर्व) में स्थिति अलग दिखती है। (घोड़े के लिए
संस्कृत शब्द अश्व है, जिसका उल्लेख वेदों और हिंदू ग्रंथों में
मिलता है)। ये मोटे तौर पर उत्तर-कांस्य युग के अंत के समय के है।
साहित्यिक बहस
इस संदर्भ में दो हालिया किताबें भी काफी उल्लेखनीय हैं – इनमें से एक पुस्तक
टोनी जोसेफ की है जिसका शीर्षक है प्रारंभिक भारतीय : हमारे पूर्वजों की कहानी
और हम कहां से आए (Early Indians: The Story of our Ancestors
and Where We Came From) है, और
दूसरी पुस्तक यशस्विनी चंद्रा की है जिसका शीर्षक है घोड़े की कहानी (The Tale
of the Horse) है। दिसंबर 2018 में फर्स्टपोस्ट
में प्रकाशित डॉ. जोसेफ का हालिया लेख भारत में “आर्यो” के प्रवास के प्रमाण की
पड़ताल करता है। यह बताता है कि भारत में पाए जाने वाले घोड़े ऊपर बताए गए
“स्तानों” से ही आए हैं। इसके अलावा, दी प्रिंट के 17 जनवरी 2021 के अंक में प्रकाशित डॉ. चंद्रा का लेख बताता है कि भारतीय
मूल के घोड़े 8000 ईसा पूर्व तक लुप्त हो चुके थे।
बहस का सबसे स्पष्ट विश्लेषण आईआईटी गांधीनगर के इतिहासकार मिशेल डैनिनो के एक
लेख में मिलता है। उन्होंने जर्नल ऑफ हिस्ट्री एंड कल्चर (सितंबर 2006) में
दी हॉर्स एंड आर्यन डिबेट शीर्षक के अपने शोध पत्र में और पुस्तक हिस्ट्री
ऑफ एंश्यंट इंडिया (2014) में लिखा है कि पुरावेत्ता सैंडोर बोकोनी ने घोड़ों
के दांतों के नमूनों का अध्ययन किया था। ये नमूने हड़प्पा-पूर्व काल के बलूचिस्तान, इलाहाबाद (2265-1480 ईसा पूर्व)) और चंबल घाटी (2450-2000 ईसा पूर्व) से थे।
इनके अलावा उन्होंने कालीबंगन से प्राप्त ऊपरी दाढ़ों का भी अध्ययन किया था। उनका
निष्कर्ष था कि ये पालतू घोड़ों के अवशेष थे। प्रोफेसर डैनिनो के इन शोध पत्रों ने
भारत में पालतू घोड़ों के लेकर किए जा रहे परस्पर विरोधी दावों को विराम दे दिया
है और हमें उनका शुक्रगुज़ार होना चाहिए।
हड़प्पा के अवशेष
इस पृष्ठभूमि को देखते हुए यह जांचना दिलचस्प होगा कि क्या हड़प्पा स्थलों में घोड़ों के कोई अवशेष, हड्डियां, दांत या खोपड़ियां हैं जिनका डीएनए अनुक्रमण किया जा सके, जैसा कि ऑरलैंडो के समूह ने युरेशियन नमूनों के लिए किया। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/y84h4c/article37725221.ece/ALTERNATES/LANDSCAPE_1200/28TH-SCIHORSEjpg
ग्लासगो में आयोजित जलवायु सम्मेलन में कई देशों ने ग्रीनहाउस
गैसों के उत्सर्जन में कटौती की घोषणा की है। यदि यह सभी देश इन घोषणाओं पर अमल
करते हैं तो 2015 के पेरिस जलवायु समझौते के प्रमुख लक्ष्यों को पूरा किया जा सकता
है। एक नए विश्लेषण से पता चला है कि भारत,
चीन और अन्य देशों की
संशोधित प्रतिबद्धताएं इस सदी में तापमान की वृद्धि को 1.9 डिग्री सेल्सियस तक
सीमित कर सकती हैं। लेकिन मेलबोर्न युनिवर्सिटी के जलवायु वैज्ञानिक माल्टे
मायनसुआज़ेन को लगता है कि इन घोषणाओं को पूरा करने के लिए काफी काम करना होगा।
ब्रेकथ्रू इंस्टीट्यूट के जलवायु वैज्ञानिक
ज़ेके हौसफादर के अनुसार जलवायु के नए अनुमान हालिया अनुमानों से नीचे नहीं हैं।
अक्टूबर में जारी यू.एन. की रिपोर्ट में हालिया और पिछली प्रतिज्ञाओं को शामिल
किया गया है जिसमें लगभग 2 डिग्री सेल्सियस की अनुमानित वार्मिंग को ध्यान में
रखते हुए कार्बन स्थिरीकरण के साथ उत्सर्जन को संतुलित करते हुए नेट-ज़ीरो प्राप्त
करने की दीर्घकालिक प्रतिबद्धताओं को भी शामिल किया गया है। इसी तरह, इंटरनेशनल
एनर्जी एजेंसी (आईईए) की रिपोर्ट का अनुमान है कि वर्तमान प्रतिबद्धताएं वार्मिंग
को 1.8 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर देंगी। भारत और चीन की प्रतिबद्धताएं कुछ बड़े
बदलाव कर सकती हैं।
मायनसुआज़ेन और उनके सहयोगियों ने सम्मेलन
के शुरू होते ही राष्ट्रों द्वारा प्रस्तुत प्रतिज्ञाओं का संकलन किया। इनमें 2050
से 2070 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन की दीर्घकालिक प्रतिबद्धताओं को भी शामिल किया गया
है। इनमें से कुछ लक्ष्य वित्तीय सहायता पर निर्भर हैं जबकि अन्य बिना किसी शर्त
के निर्धारित किए गए हैं। इन उत्सर्जन अनुमानों को जलवायु मॉडल में डालने पर
वार्मिंग के संभावित परिणाम पता चले हैं।
सम्मेलन के पहले की प्रतिज्ञाओं के आधार पर
इस सदी की वार्मिंग 1.5-3.2 डिग्री सेल्सियस के बीच अनुमानित थी। लेकिन नई
प्रतिज्ञाओं के आधार पर काफी संभावना 1.9 डिग्री सेल्सियस से कम वृद्धि की है। इन
में भारत का 2070 तक नेट-ज़ीरो का लक्ष्य प्राप्त करने,
चीन की नई जलवायु
प्रतिज्ञाएं और 2030 तक उत्सर्जन को कम करने के लिए 11 अन्य राष्ट्रीय प्रतिज्ञाएं
भी शामिल हैं।
इम्पीरियल कॉलेज लंदन के एक जलवायु
वैज्ञानिक जोएरी रोगेली के अनुसार यदि देश अपने वादों का पूरी तरह से पालन करते
हैं तब भी तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ने की काफी संभावना होगी क्योंकि कई
मामलों में स्पष्टता की कमी है। उदाहरण के लिए भारत ने यह स्पष्ट नहीं किया कि
नेट-ज़ीरो की प्रतिबद्धता केवल कार्बन डाईऑक्साइड के लिए है या सभी ग्रीनहाउस गैसों
पर लागू होती है।
इसके अलावा, कई घोषणाएं महज दिखावा भी हो सकती हैं। जैसे, ऑस्ट्रेलिया में जलवायु लक्ष्यों का दिखावा करने के साथ-साथ जीवाश्म ईंधन के उपयोग में विस्तार किया जा रहा है। इसके अलावा, विकासशील देशों को कई योजनाओं हेतु वित्तीय सहायता की आवश्यकता होगी। फिर भी प्रतिज्ञाएं एक महत्वपूर्ण सुधार की द्योतक हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://ukcop26.org/wp-content/uploads/2021/11/WLS_960x640.jpg
भरतपुर अभयारण्य के नाम से मशहूर कीलादू घाना राष्ट्रीय
उद्यान, भरतपुर, राजस्थान के क्षेत्र में काम करने वाले
पारिस्थितिकीविदों ने 1970 के दशक में स्थानीय निवासियों द्वारा मवेशियों को
अनियंत्रित तरीके से चराने पर आपत्ति ज़ाहिर की थी। पारिस्थितिकीविदों का मानना था
कि मवेशियों के चरने से अभयारण्य में जल राशियों के आसपास के क्षेत्र की घास से
ढकी जगह भी नष्ट हो जाएगी। तब हज़ारों प्रवासी पक्षियों के लिए यह स्थान रहने
योग्य नहीं रहेगा जिनके लिए यह अभयारण्य विश्व प्रसिद्ध है। मवेशियों के चरने के
विरुद्ध पर्यावरण कार्यकर्ताओं के निरंतर विरोध और पर्यावरण विशेषज्ञों तथा वन
प्रबंधकों की लगातार बयानबाज़ी ने राजस्थान सरकार को 1982 में मवेशियों के चरने पर
औपचारिक रूप से प्रतिबंध लगाने पर मजबूर किया। सरकार के इस निर्णय को एक बड़ी सफलता
के रूप में देखा गया जिसमें कार्यकर्ताओं और वैज्ञानिकों ने मिलकर एक पर्यावरणीय
मुद्दे पर काम किया। हालांकि, इससे पहले कि इस कामयाबी के जश्न का शोर
थमता, चराई पर इस प्रतिबंध ने एक और अप्रत्याशित आपदा को जन्म दे
दिया।
चराई पर प्रतिबंध लगने से उस क्षेत्र की
घास इतनी लंबी हो गई कि प्रवासी पक्षियों को जल राशियों के किनारों पर उतरने और
पोषण के लिए भोजन तलाश करने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इसके
परिणामस्वरूप, पारिस्थितिकीविदों की अपेक्षा के विपरीत, अभयारण्य
में प्रवासी पक्षियों की संख्या निरंतर घटती गई। तो क्या यह कहना उचित होगा कि इस
मामले में विज्ञान असफल हुआ? शायद नहीं। जैसा कि माइकल लेविस ने कहा है
(कंज़रवेशन सोसाइटी, 2003,
1, 1-21), भरतपुर
अभयारण्य आपदा ‘अपर्याप्त रूप से जांचे-परखे सिद्धांतों पर आधारित मान्यताओं’ का
मामला था। इसके अलावा, यह वैज्ञानिकों और वन प्रबंधकों के उतावलेपन का भी नतीजा था
जो पर्याप्त तथ्य उपलब्ध न होने के बावजूद चेतावनी देने पर आमादा रहे।
वनों और जैव विविधता का ह्रास, प्रजातियों
की विलुप्ति, जलवायु परिवर्तन, पारिस्थितिकी तंत्र का विनाश, जेनेटिक
पूल का क्षरण, प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों का अनिर्वहनीय उपयोग जैसे
मुद्दे विशेष रूप से मीडिया और कार्यकर्ताओं के आकर्षण का केंद्र बन गए हैं। वैज्ञानिकों
एवं विशेषज्ञ समितियों द्वारा दिया गया कोई भी बयान यदि सही ढंग से और उपयुक्त
डैटा के साथ व्यक्त नहीं किया जाता, तो पूरी संभावना होती है कि मीडिया इसे
तोड़-मरोड़ कर और सनसनीखेज़ बनाकर पेश कर देगा। इस प्रक्रिया में, मूल
संदेश का अर्थ आंशिक या पूर्ण रूप से विकृत कर दिया दिया जाता है या कोई सर्वथा
नया संदेश ही बना दिया जाता है। इसका एक बेहतरीन उदाहरण नेचर पत्रिका (2004, 427, 145-148)
में जलवायु परिवर्तन पर प्रकाशित एक रिपोर्ट के आधार पर मानव-निर्मित आपदा की एक
बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई तस्वीर में दिखा। इस रिपोर्ट में 1103 प्रजातियों के
विश्लेषण के आधार पर दावा किया गया था कि जलवायु परिवर्तन के कारण अगले 50 वर्षों
में इनमें से कुछ प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं। लेकिन यूके के मीडिया ने इस
चेतावनी को बहुत गलत तरीके से प्रस्तुत करते हुए बताया कि: ‘पूरे विश्व की एक-तिहाई
प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी’ या ‘2050 तक दस लाख प्रजातियां’ विलुप्त हो सकती
हैं। इस गलत रिपोर्टिंग की उत्पत्ति पता लगाने के लिए की गई एक समीक्षा से पता चला
कि समस्या वास्तव में वैज्ञानिकों द्वारा प्रेस को जारी की गई सामग्री में उपयोग
की गई भाषा में थी। इस घटना से पता चलता है कि यदि किसी वैज्ञानिक दावे को जनता या
मीडिया तक ठीक तरह से सूचित न किया जाए तो विज्ञान और वैज्ञानिकों की विश्वसनीयता
दांव पर लग सकती है।
वैज्ञानिक और विशेष रूप से जैव विविधता, प्राकृतिक
पारिस्थितिक तंत्र के संरक्षण, जलवायु परिवर्तन आदि के क्षेत्र में काम कर
रहे वैज्ञानिक अक्सर अपने निष्कर्षों के ग्रह के भविष्य और मनुष्यों के अस्तित्व
पर निहितार्थ को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं। उनके द्वारा दिए गए बयानों से लोगों
में डर पैदा हो सकता है। वे ऐसा अनजाने में या जानबूझकर करते हैं ताकि नीति
निर्माताओं और प्रशासन तंत्रो का ध्यान आकर्षित कर सकें और उन्हें तत्काल कार्रवाई
के लिए प्रेरित कर सकें। लेकिन कई बार ऐसे बयानों की गुणवत्ता की जांच उस सख्ती से
नहीं की जाती है जितनी विज्ञान की मांग होती है। यह अत्यंत आवश्यक है कि वैज्ञानिक
सार्वजनिक बयानों पर गंभीरता से विचार करें ताकि उन पर सनसनी फैलाने का दोष न लगे।
प्रजातियों के विलुप्त होने के दावे इसका एक अच्छा उदाहरण हो सकते हैं।
1980 के दशक के बाद से, कुछ
प्रमुख वैज्ञानिकों द्वारा हर दशक में हज़ारों प्रजातियों के विलुप्त होने सम्बंधी
बयान आते रहे हैं। उदाहरण के लिए, प्रसिद्ध अमेरिकी जीवविज्ञानी ई. ओ. विल्सन
ने जैव विविधता संरक्षण का आव्हान करते हुए कहा था: ‘मानव गतिविधियों के कारण
प्रजातियों के विलुप्त होने की प्रक्रिया तेज़ी से जारी है,
यदि ऐसा चलता रहा तो
इस सदी के अंत तक आधी से अधिक प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी’ (न्यू यॉर्क
टाइम्स सन्डे रिव्यू, 4 मार्च 2018;
https://eowilsonfoundation.org/the-8-millionspecies-wedont-know/)। मानवजनित गतिविधियों के कारण प्रजातियों
के विलुप्त होने की ऐसी उच्च दर की बात विश्वभर के प्रसिद्ध जीवविज्ञानी दोहराते
रहे हैं ताकि जैव-विविधता संरक्षण के प्रयासों को गति मिल सके। हाल ही में
अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण दिवस के संदर्भ में भारत में प्रकाशित हुए एक लेख में कहा
गया था: ‘वर्ष 2000 के बाद से हमने विश्व स्तर पर 7 प्रतिशत अछूते वनों को खो दिया
है, और हाल ही के आकलनों से संकेत मिलता है कि आने वाले दशकों
में 10 लाख से अधिक प्रजातियां हमेशा के लिए विलुप्त हो जाएंगी। हमारा देश भी इन
रुझानों का अपवाद नहीं है।’ (दी हिंदू,
5 जून 2021)। हालांकि
प्रजातियों के विलुप्त होने की दर में संभावित वृद्धि से इन्कार तो नहीं किया जा
सकता है लेकिन यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसी उच्च दरों के दावों के समर्थन में
शायद ही कोई डैटा उपलब्ध है। यदि वास्तव में प्रजातियां इतनी उच्च दर से विलुप्त
हो रही हैं, तो पिछले कुछ दशकों के दौरान लाखों प्रजातियों को हमेशा के
लिए विलुप्त हो जाना चाहिए था। और यदि इनमें से एक अंश को ही सूचीबद्ध किया जाए तो
भी विलुप्त प्रजातियों की संख्या चंद हज़ार से अधिक तो होनी चाहिए थी। लेकिन हमारे
पास विश्व भर की ऐसी एक हज़ार प्रजातियों की सूची भी नहीं है जिन्हें पिछले कुछ
दशकों में निश्चित रूप से विलुप्त प्रजातियों की सूची में रखा जा सके। आईयूसीएन की
रेड लिस्ट वेबसाइट (https://www.iucn.org/sites/dev/files/import/downloads/species_extinction_05_2007.pdf),
के अनुसार ‘पिछले 500
वर्षों में मानव गतिविधियों ने 869 प्रजातियों को विलुप्त (या प्राकृतिक स्थिति
में गायब) होने के लिए मजबूर किया है।‘ ज़ाहिर है,
पिछले 50 वर्षों में
यह संख्या बहुत ही कम रही होगी! यानी हमारे दावों का समर्थन करने के लिए हमारे पास
डैटा ही नहीं है। यदि जनता के द्वारा इस मुद्दे को उठाया जाता है, तो
वस्तुनिष्ठ वैज्ञानिकों के रूप में हम खुद को कहां पर खड़ा पाते हैं?
यकीनन इस असहज स्थिति से बच निकलने का एक
रास्ता तो हमेशा रहता है। कहा जा सकता है कि ‘जब हमारे पास इस बात की पूरी जानकारी
नहीं है कि हमारे पास क्या है, तो हम यह कैसे बता सकते हैं कि हम क्या खो
रहे हैं?’ चलिए इसे सही मान लेते हैं। लेकिन विलुप्त होने की दर इतनी
अधिक बताई जा रही है कि पिछले कुछ दशकों के दौरान ‘ज्ञात और वर्णित प्रजातियों में
से कुछ सैकड़ा को तो विलुप्त हो ही जाना चाहिए था।’ लेकिन तथ्य यह है कि जैव
विविधता पर काम शुरू होने के पिछले चार दशकों के दौरान हमारे पास निश्चित रूप से
विलुप्त हो चुकी 100 प्रजातियों की भी सत्यापित सूची नहीं है। हालांकि, मीडिया
में अक्सर ऐसे सनसनीखेज़ दावे किए जाते रहे हैं कि आईयूसीएन के अनुसार, पिछले
दशक में, 160 प्रजातियां विलुप्त हुई हैं,
और इसके तुरंत बाद ही
एक पुछल्ला जोड़ दिया जाता है: हालांकि ‘अधिकांश प्रजातियां काफी लंबे समय से
विलुप्त हैं’ (https://www.lifegate.com/extinct-specieslist-decade-2010-2019)। दूसरे शब्दों में, विलुप्त
प्रजातियों के दावों का समर्थन करने के लिए हमारे पास कोई डैटा भी मौजूद नहीं है, और
यदि है भी तो जिन प्रजातियों को ‘संभवत: विलुप्त प्रजाति माना जा रहा था’ उनमें से
कई प्रजातियों के बारे में पता चल रहा है कि वे अभी मौजूद या जीवित हैं!!
इसके अतिरिक्त,
संरक्षण
जीवविज्ञानियों द्वारा प्रजातियों को लाल सूची में डलवाकर डर का माहौल भी बनाया
जाता है ताकि प्रजातियों के संरक्षण की ओर ध्यान आकर्षित किया जा सके। हालांकि इस
कवायद के पीछे की भावना काफी प्रशंसनीय है लेकिन इसकी कार्य प्रणाली की जांच-परख
आवश्यक है। प्रजातियों की लाल सूची तैयार करने का कार्य आईयूसीएन और कई अन्य
एजेंसियों को सौंपा गया है जिन्होंने ऐसे कई मानदंड तैयार किए हैं जिनके आधार पर
प्रजातियों को खतरे की विभिन्न श्रेणियों (जैसे विलुप्त,
प्राकृतिक स्थिति में
विलुप्त, लुप्तप्राय, जोखिमग्रस्त आदि) में वर्गीकृत किया जा
सकता है (https://www.iucnredlist.org/resources/categories-and-criteria)। अलबत्ता,
खतरे के आकलन के लिए
आवश्यक डैटा प्राप्त करने के कष्टदायी कार्य के कारण सभी मानदंडों को पूरी तरह
लागू नहीं किया जाता है। इस प्रकार, ठोस डैटा की अनुपस्थिति में, ‘एहतियाती
सिद्धांत’ का सहारा लेते हुए, सख्त मानकों का पालन नहीं किया जाता और
प्रजातियों को लाल सूची या अन्य श्रेणियों में व्यक्तिपरक मूल्यांकन के आधार पर सूचीबद्ध
किया जाता है। कुछ वर्ष पहले, दक्षिण भारत के लाल-सूचिबद्ध औषधीय पौधों
की प्रजातियों के डैटा का उपयोग करते हुए हमने यह जानने का प्रयास किया कि क्या ये
पौधे वास्तव में लाल सूची से बाहर की प्रजातियों की तुलना में दुर्लभ (फैलाव में)
हैं और कम प्रजनन करते हैं (करंट साइंस,
2005, 88, 258-265)।
खोज के परिणाम आश्चर्यजनक थे: सांख्यिकीय दृष्टि से लाल-सूचीबद्ध प्रजातियां इस
सूची के बाहर की प्रजातियों की तुलना में दुर्लभ नहीं हैं और न ही वे अपनी
जनसंख्या संरचना में किसी प्रकार से कम हैं। हालांकि,
औषधीय पौधों की प्रजातियों
पर मंडराते खतरों को कम न आंकते हुए और यह मानते हुए कि संरक्षण प्रयासों के लिए
आमतौर पर अत्यधिक मेहनत और धन की आवश्यकता होती है,
क्या यह बेहतर नहीं
होगा कि उन प्रजातियों की सूची तैयार करने में सावधानी बरती जा जाए जिन्हें
‘वास्तव में’ संरक्षण की आवश्यकता है?
आइए अब हम ऐसे दावों के खतरों पर चर्चा करते हैं। ऐसे अपुष्ट दावों का इस्तेमाल नीति निर्माताओं और शासन तंत्र पर दबाव बनाने के लिए किया जाता है ताकि वे जैव विविधता पर ध्यान दें। वे इसके लिए अपने लक्षित पाठकों/श्रोताओं के बीच भय की स्थिति (यह शब्द माइकल क्रेटन द्वारा जलवायु परिवर्तन सम्बंधी इसी नाम के एक उपन्यास से लिया गया है) बनाते हैं। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि चूंकि हमारे पास अपने दावे के समर्थन में ठोस डैटा नहीं है इसलिए भय की इस स्थिति का निर्वाह नहीं किया जा सकता! इस तरह की रणनीति उस उद्देश्य को ही परास्त कर सकती है जिसके लिए ये दावे किए (या रचे!!) जा रहे हैं। वास्तव में, एक असमर्थित और अस्थिर ‘भय की स्थिति’ बनाना लंबे समय में काफी खतरनाक है; और इस विषय में उन वैज्ञानिकों को गंभीर रूप से विचार-विमर्श करना चाहिए जो निर्वाह-योग्य भविष्य का ढोल आए दिन पीटते रहते हैं। ध्यान आकर्षित करने, धन जुटाने, नीति और शासन को प्रभावित करने के उत्साह में हम एक जवाबदेह मूल्यांकन और रिपोर्टिंग की परंपरा की बजाय जनता और मीडिया के बीच एक अस्थिर भय पैदा करने की जल्दबाज़ी में हैं। ऐसे समय में हम वैज्ञानिकों को एक वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि वैज्ञानिक समुदाय अपनी विश्वसनीयता ही खो दे। (स्रोत फीचर्स)
यह लेख पूर्व में करंट साइंस (अंक 121, क्रमांक 1, 10 जुलाई 2021) में प्रकाशित हुआ था।
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://timesofindia.indiatimes.com/img/68307032/Master.jpg
पश्चिम अफ्रीका के चिम्पैंज़ी ताड़ के फल से गिरी निकालने के
लिए एक युक्ति इस्तेमाल करते हैं – फल को एक सपाट पत्थर पर रखकर दूसरे पत्थर का
हथौड़े की तरह इस्तेमाल करते हुए फल पर मारते हैं,
ताकि उसकी बाहरी सख्त
खोल चटक जाए।
अब तक वैज्ञानिकों को चिम्पैंज़ी के इस
औज़ार के बारे में अधिक जानने के लिए चिम्पैंजियों की घंटों लंबी रिकॉर्डिंग को
निहारना पड़ता जिसमें हफ्तों लग जाते थे। अब इस काम में कृत्रिम बुद्धि मदद कर
सकती है, जो चिम्पैंजि़यों के वीडियो फुटेज में से सही क्लिप को ढूंढ
सकती है।
युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड की प्राइमेटोलॉजिस्ट
सुज़ाना कार्वाल्हो और उनके साथियों ने चिम्पैंज़ी के दो व्यवहारों का अध्ययन
किया: फल से गिरी निकालना और नगाड़ेबाज़ी (चिम्पैंज़ी द्वारा हाथों या पैरों से
पेड़ की सहारा जड़ों को पीटना।) वैज्ञानिकों के अनुसार ये दोनों व्यवहार
प्राइमेट्स में सीखने की प्रक्रिया और संवाद को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण
हैं। इसके अलावा इन हरकतों के दौरान आवाज़ भी उत्पन्न होती है, यानी
शोधकर्ता दृश्य के साथ-साथ ध्वनि से भी कंप्यूटर मॉडल को प्रशिक्षित कर सकते हैं।
उक्त मॉडल को गिरी निकालने का व्यवहार
समझाने के लिए शोधकर्ताओं ने लगभग 40 घंटे की और ड्रमिंग के लिए लगभग 10 घंटे लंबी
वीडियो रिकॉर्डिंग का इस्तेमाल किया। ड्रमिंग की क्लिप खास तौर से उग्र व्यवहार की
थी जिसे “बट्रेस ड्रमिंग” कहा जाता है। शोधकर्ताओं का मानना है कि अलग-अलग
चिम्पैंज़ी-समूहों में ड्रमिंग का तरीका अलग-अलग हो सकता है।
पहले तो शोधकर्ताओं ने ऑडियो और वीडियो की
कोडिंग के ज़रिए कंप्यूटर को प्रशिक्षित किया। वीडियो में जहां-जहां चिम्पैंज़ी थे
उनके आसपास चौकोर दायरा खींचा और उनमें वे क्या गतिविधि कर रहे हैं उसे लिखा। इस
तरह उन्होंने कंप्यूटर को सिखाया कि क्या देखना है और क्या अनदेखा करना है।
कभी-कभी चिम्पैंज़ी नज़र नहीं आते थे। इसलिए शोधकर्ताओं ने ध्वनि से पहचानने के
लिए भी प्रशिक्षित किया।
जब कंप्यूटर का प्रशिक्षण पूरा हो गया तो
शोधकर्ताओं ने उसका परीक्षण किया। उन्होंने उसे दोनों व्यवहारों के ऐसे वीडियो
दिखाए जो उसने पहले कभी नहीं देखे थे। साइंस एडवांसेस में प्रकाशित शोध
पत्र के अनुसार कंप्यूटर ने गिरी निकालने के व्यवहार 77 प्रतिशत और नगाड़ेबाज़ी का
व्यवहार 86 प्रतिशत बार सही-सही पहचाना।
शोधकर्ताओं ने इस कंप्यूटर के ज़रिए पता किया कि चिम्पैंज़ी गिरी निकालने और नगाड़ेबाज़ी जैसे व्यवहार में कितना वक्त बिताते हैं, और नर और मादा में कोई अंतर है क्या। उम्मीद है कि नए मॉडल को अन्य प्रजातियों और अन्य व्यवहारों की निगरानी के लिए भी प्रशिक्षित किया जा सकेगा। यह भी देखा जा सकता है कि कोई एक चिम्पैंज़ी कौशल कैसे विकसित करता है। फुटेज का विश्लेषण यह समझने में मदद कर सकता है कि जलवायु परिवर्तन और आवास की क्षति प्राइमेट्स के व्यवहार को कैसे प्रभावित कर रहे हैं। संभावनाएं तो अपार हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://im.indiatimes.in/media/content/2017/Oct/chim_1506840084_725x725.jpg