क्या व्यायाम की गोली बन सकती है?

हाल ही में साइन्स में प्रकाशित एक शोध पत्र से यह आशा पैदा हुई है कि जो लोग व्यायाम करने में असमर्थ होते हैं, उन्हें व्यायाम के फायदे एक गोली के रूप में दिए जा सकेंगे।

यह बात तो भलीभांति ज्ञात है कि व्यायाम करने से दिमागी स्वास्थ्य में सुधार आता है। देखा गया है कि जो बुज़ुर्ग लोग शारीरिक रूप से सक्रिय रहते हैं, उनमें स्मृतिलोप जैसी समस्याएं कम देखी जाती हैं। चूहों पर किए गए प्रयोगों से भी पता है कि व्यायाम करने वाले चूहों का संज्ञानात्मक प्रदर्शन बेहतर होता है। शोधकर्ता यह भी दर्शा चुके थे किसी युवा चूहे का खून बुज़ुर्ग चूहे को देने पर उसके दिमाग तथा मांसपेशियों की हालत में सुधार आता है।

लेकिन अब कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वृद्धावस्था शोधकर्ता सौल विलेडा ने बताया है कि यदि नियमित व्यायाम करने वाले चूहों का खून निठल्ले चूहों को दे दिया जाए तो उनका दिमाग भी बेहतर काम करने लगता है। यानी बात सिर्फ युवा खून की नहीं है, बल्कि व्यायाम के लाभ की भी है। और अब शोधकर्ताओं ने व्यायाम करने वाले (सक्रिय) चूहों के खून में एक प्रोटीन खोज निकाला है जो इस असर के लिए ज़िम्मेदार है।

प्रयोग के लिए चूहों के दो दड़बे बनाए गए। इनमें से एक में एक पहिया रखा गया था। ऐसा करने पर निष्क्रिय चूहे भी रात भर में कई मील दौड़ लेते थे। शोधकर्ताओं ने उन चूहों (बुज़ुर्ग और अधेड़) का खून लिया जिनके दड़बे में छ: सप्ताह तक पहिया रखा गया था। यह खून उन चूहों को दिया गया जिनके दड़बे में पहिया नहीं था। तीन सप्ताह की अवधि में आठ बार यह खून देने पर ये निठल्ले चूहे सीखने व स्मृति के परीक्षणों में लगभग पहिए वाले चूहों के समकक्ष आ गए। यह भी देखा गया कि सक्रिय चूहों का खून मिलने के बाद निठल्ले चूहों के दिमाग के हिप्पोकैम्पस वाले हिस्से में तंत्रिकाएं भी ज़्यादा बनी थीं। चूहों का एक समूह और भी था जिसे उतनी ही उम्र के निष्क्रिय चूहों का खून दिया गया था लेकिन इनमें कोई परिवर्तन नहीं देखा गया।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने व्यायाम करने वाले चूहों के खून में प्रोटीन्स का विश्लेषण किया। पता चला कि लीवर में बनने वाला एक एंज़ाइम (Gpld1) इनमें ज़्यादा था। जब इस एंज़ाइम का जीन निठल्ले चूहों के लीवर में पहुंचाया गया तो वहां यह एंज़ाइम ज़्यादा बनने लगा और वे लगभग उन चूहों के समकक्ष पहुंच गए जिन्हें तीन सप्ताह तक व्यायाम करने वाले चूहों का खून दिया गया था।

टीम ने यह भी पाया कि नियमित रूप से व्यायाम करने वाले इंसानों में Gpld1 का स्तर ज़्यादा था। इसका मतलब है कि चूहों पर मिले नतीजे शायद मनुष्यों पर लागू हो सकते हैं।

अब विलेडा की टीम का विचार है कि इसके आधार पर एक औषधि तैयार की जाए, जो उन लोगों की मदद कर सकेगी जो उम्र या किसी अन्य कारण से व्यायाम नहीं कर सकते। लेकिन साथ ही वे कहते हैं कि सामान्य नियमित व्यायाम का कोई विकल्प नहीं है क्योंकि औषधि शायद किसी एक घटक पर काम करती है। व्यायाम से मिलने वाला लाभ कई कारकों का मिला-जुला रूप हो सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अपने पुराने सिर को टोपी बनाए कैटरपिलर

क पतंगे का कैटरपिलर है जिसका सिर थोड़ा अजीब सा दिखता है – लगता है कि उसने हैट पहनी है। इसी वजह से इसका नाम पड़ा है पगला हैटरपिलर। और यह हैट बनी होती है उसके पुराने सिरों से।

दरअसल, उरबा लुगेन्स (Urabalugens) की इल्ली यानी कैटरपिलर जब वृद्धि करता है तो अन्य कीटों के समान यह भी अपनी त्वचा का प्रमोचन करता है और साथ में अपने बाह्य कंकाल का भी। ऐसा यह 13 बार तक करता है और अंत में प्यूपा में तबदील हो जाता है। फिर प्यूपा वयस्क कीट में कायांतरित हो जाता है।

चौथी बार के प्रमोचन के बाद यह अपने सिर की त्वचा व कंकाल अलग तो करता है लेकिन उसे छोड़ता नहीं। हर प्रमोचन के बाद पहले वाला सिर वहीं का वहीं बना रहता है और धीरे-धीरे सिरों की एक मीनार बन जाती है।

यह पतंगा मुख्य रूप से ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में पाया जाता है। इसका एक नाम गम लीफ स्केलेटनाइज़र भी है। कारण यह है कि यह कैटरपिलर युकेलिप्टस की पत्तियों को इस तरह कुतरता है कि अंत में उनकी शिराओं का कंकाल ही बच जाता है।

क्वींसलैंड के अकशेरुकी संसाधन केंद्र मिनीबेस्ट वाइल्डलाइफ के एलन हेंडरसन का कहना है कि यह मीनारनुमा रचना सिर्फ सजावट की वस्तु नहीं है। यह मीनार कैटरपिलर की रक्षा भी करती है। कैटरपिलर इसकी मदद से शिकारियों को खदेड़ने का काम करता है।(स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19 का टीका और टीकों का राष्ट्रवाद

ब कोविड-19 का टीका बनकर तैयार होगा, वैश्विक आवश्यकता की तुलना में इसकी आपूर्ति सीमित होगी। कई स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि टीका सबसे पहले दुनिया भर के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को, फिर गंभीर जोखिम वाले लोगों को, फिर उन क्षेत्रों को जहां बीमारी तेज़ी से फैल रही है, और आखिर में बाकी लोगों को मिलना चाहिए। टीका वितरण की यह रणनीति सबसे अधिक ज़िंदगियां बचाएगी और संक्रमण के प्रसार को रोकेगी। यह बेतुका होगा कि टीका दक्षिण अफ्रीका के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की बजाय अमीर देशों के कम जोखिम वाले लोगों को पहले मिले।

फिर भी पैसा और राष्ट्रीय हित जीत सकते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका और युरोप पहले ही टीका निर्माताओं को करोड़ों खुराक का ऑर्डर दे रहे हैं जिससे शायद दुनिया के गरीब देशों के लिए बहुत कम टीके बचेंगे। इस स्थिति से बचने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने टीके के समतामूलक वितरण का एक तरीका निकाला है: कोविड-19 वैक्सीन ग्लोबल एक्सेस (COVAX) फेसिलिटी। वे अमीर देशों से इस पर हस्ताक्षर करवा कर टीकों पर उनकी अनुचित दावेदारी के खतरे को कम करना चाहते हैं।

वैसे टीका या औषधि वितरण का इतिहास आशाजनक नहीं रहा है। 1996 में एचआईवी संक्रमण के उपचार में एंटीवायरल औषधि ने पश्चिम देशों में कई ज़िंदगियां बचाई, लेकिन इसे व्यापक रूप से अफ्रीका तक पहुंचने में 7 साल लग गए। 2009 में H1N1 इन्फ्लूएंज़ा महामारी के दौरान कई देशों को बहुत कम संख्या में टीके मिले थे वह भी लंबे इंतज़ार के बाद।

इस बार भी अमीर देशों की चिंता अपने नागरिकों तक सीमित है। यूएस ने टीका कंपनियों के साथ 6 अरब डॉलर के समझौते किए हैं और युरोपीय संघ ने एस्ट्राज़ेनेका के साथ 40 करोड़ टीके खरीदने के सौदे पर हस्ताक्षर किए हैं। यूके ने भी यही रणनीति अपनाई है।

COVAX के पीछे विचार यह है कि विभिन्न 12 टीकों में निवेश किया जाए और उन तक आसान पहुंच सुनिश्चित की जाए। 2021 के अंत तक टीकों की 2 अरब खुराक प्राप्त करने का लक्ष्य है: 95 करोड़ उच्च व उच्च-मध्यम आय वाले देशों के लिए, 95 करोड़ निम्न व निम्न-मध्यम आय वाले देशों के लिए और 10 करोड़ आपात उपयोग के लिए।

COVAX के अधिकारी जानते हैं कि COVAX से जुड़ने के बावजूद कई अमीर देश टीका निर्माता कंपनियों के साथ सौदे तो करेंगे। लेकिन COVAX अनुबंध एक प्रकार का बीमा है कि यदि उनके खरीदे टीके असफल रहे तो COVAX के माध्यम से उनकी पहुंच अन्य टीकों तक रहेगी।

टीकों के असफल होने के जोखिम को कम करने के लिए COVAX की योजना विभिन्न प्रकार के टीकों में निवेश करने की है। इसके अलावा COVAX विभिन्न देशों की कंपनियों से टीके लेना चाहता है ताकि कोई भी देश उनका निर्यात रोक ना सके।

अब तक, 70 से अधिक देशों ने COVAX में रुचि दिखाई है। यह बात और है कि वे इस पर हस्ताक्षर करते हैं या नहीं। वहीं युरोपीय संघ के कुछ देश, जो अक्सर वैश्विक एकजुटता के महत्व पर बल देते हैं, COVAX को वित्तीय मदद देने का इरादा रखते हैं लेकिन COVAX के माध्यम से खुद के लिए टीके नहीं लेंगे। डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स एक्सेस अभियान की टीका विशेषज्ञ कैट एल्डर का कहना है कि COVAX समतामूलक वितरण का अच्छा तरीका है लेकिन यह अधिक पारदर्शी होना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

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चातक के अंडों-चूज़ों की परवरिश करते हैं बैब्लर – कालू राम शर्मा

क्षी जगत बड़ी विचित्रताओं से लबरेज है। जहां अधिकतर पक्षी घोंसला बनाने, अंडों को सेने व चूज़ों की परवरिश का ज़िम्मा स्वयं उठाते हैं, वहीं ऐसे भी पक्षी हैं जो यह काम दूसरे पक्षियों को सौंप देते हैं। ऐसे पक्षियों को घोंसला परजीवी कहते हैं। घोंसला परजीवियों में कोयल और पपीहे के अलावा चातक भी हैं।

चातक के बारे में किंवदंती है कि यह मानसून में स्वाति नक्षत्र का ही पानी पीता है। यह किंवदंती क्यों पड़ी होगी? मानसून के दौरान चातक का प्रजनन काल होता है। इस दौरान यह जोड़ा बांधता है। नर चातक मादा को लुभाने के लिए हवा में अठखेलियां करता है। हवा में उड़ते हुए यह पिहु-पिहु की आवाज़ निकालता है। इस दौरान इसकी चोंच आसमान की ओर खुली हुई होती है। ऐसा लगता है मानो यह बरसात की बूंदों को चोंच में ग्रहण कर रहा हो।

परजीवीपन का यह उदाहरण दुनिया भर की लगभग 80 पक्षी प्रजातियों में देखा गया है। इनमें से तीन पक्षी भारत में देखे गए हैं – कोयल, चातक (क्लैमेटर जर्कोबिनस) व पपीहा। चातक कोयल परिवार (cuculinae) का सदस्य है जो जो पेसेराइन (passerine) प्रजातियों के घोंसलों में अंडे देते हैं। चातक बैब्लर पक्षी यानी ‘सात भाई’ (Turdoidesaffinis) के घोंसलों में अंडे देता है। चातक के अंडों का रूप-रंग सात भाई पक्षियों के अंडों से काफी मेल खाता है।

चातक सामान्य मैना के आकार का पक्षी है जबकि पूंछ मैना की पूंछ से लंबी होती है। इसकी पीठ व पंख काले और पेट, छाती व गर्दन वाला हिस्सा सफेद होता है। सिर पर चोटी निकली होती है। काले पंखों में ऊपर की ओर एक अंडाकार सफेद पट्टा-सा होता है जो उड़ते वक्त साफ देखा जा सकता है। नर और मादा एक समान ही होते हैं।

चातक हमारे यहां का बारहमासी पक्षी नहीं है। यह अफ्रीका से भारत में मई के अंत में या जून के पहले सप्ताह में प्रवास करके आता है। इस दौरान यह यहां पर प्रजनन करता है।

चातक का जीव वैज्ञानिक नाम क्लैमेटर जर्कोबिनस है। प्रजनन विस्तार के अनुसार इसकी तीन उप प्रजातियां देखी गई है: क्लैमेटर जर्कोबिनस सेरेटस दक्षिण अफ्रिका व दक्षिणी ज़ांबिया में, क्लैमेटेर जर्कोबिनस पाइका सहारा के दक्षिण में उत्तर ज़ांबिया और मलावी, उत्तर-पश्चिम भारत से नेपाल और म्यांमार तक तथा क्लैमेटर जर्कोबिनस जैकोबिनस दक्षिण भारत, श्रीलंका, दक्षिण म्यांमार में प्रजनन करती हैं। चातक पक्षी की दो उप-प्रजातियां भारत में मिलती हैं। हमारे यहां जो चातक मानसून में दिखाई देता है वह क्लैमेटर जर्कोबिनस सेरेटस है। यह उप-प्रजाति मानसून में अफ्रीका से भारत में प्रजनन के लिए आती है। दूसरी छोटे आकार की जैकोबिनस श्रीलंका व दक्षिण भारत की स्थानीय उप-प्रजाति है।

चातक संपूर्ण भारत समेत पाकिस्तान, बांग्लादेश श्रीलंका तथा बर्मा में पाया जाता है। हिमालय में 8000 फीट की ऊंचाई तक देखा गया है। चातक अधिकतर घने वृक्षों व खुले जंगलों, कस्बों व गांवों की सीमा के भीतर बाग-बगीचों में दिखता है। इसे शहरों में पेड़ों पर भी देखा गया है। इनकी मौजूदगी एक से दूसरे पेड़ पर नर और मादा के बीच पकड़ा-पकड़ी के रूप में देखने को मिलती है। इस दौरान ये पिहू, पिहू… की आवाज़ करते हैं। इनकी आवाज़ को मैंने रात में भी सुना है। ये पूरी तरह से वृक्षवासी हैं जो झाड़ियों व ज़मीन पर कीड़ों को चुगने के लिए चंद पल के लिए उतरते हैं और फिर से उड़कर वृक्ष पर चले जाते हैं। चातक आम तौर पर कीटों व इल्लियों व बेरी फलों को खाते हैं।

चातक का प्रजनन काल जून से अगस्त के दौरान होता है। यह दिलचस्प है कि परजीवी चातक ने अपने अंडों-चूज़ों की परवरिश का ज़िम्मा बैब्लर पक्षी को सौंप दिया है। बैब्लर को हिंदी में सात भाई व अंग्रेज़ी में सेवन सिस्टर्स के नाम से जाना जाता है। आपने अपने आसपास सात भाई पक्षी को ज़रूर देखा होगा। सात भाई छह या अधिक के झुंड में रहते हैं। बैब्लर असम को छोड़कर पूरे भारत में पाए जाते हैं। ये सूखे खुले देहाती क्षेत्रों और कंटीले झाड़-झंखाड़ वाली जगहों में रहना पसंद करते हैं। ये झाड़ियों, बाग-बगीचों में भी देखने को मिलते हैं। आम तौर पर सात भाई ज़मीन पर ही फुदकते दिखते हैं। खतरा होने पर ही ये अपने झुंड के साथ थोड़ी दूरी की उड़ान भरते हैं। इनकी आवाज व्हिच, व्हिच, व्हिक, रि-रि-रि जैसी होती है। सात भाई झाड़ियों में घास-फूस का प्यालेनुमा घोंेसला बनाते हैं। इनके घोंसलों में चातक के अलावा भारतीय मूल का स्थाई निवासी पपीहा भी अंडे देता है।

घोंसला परजीविता प्रजनन की एक रणनीति है। घोंसला परजीवी पक्षी दूसरे के घोंसले में अंडे देकर परवरिश के झंझट से मुक्त हो जाते हैं। घोंसला बनाने, अंडों को सेहने व चूज़ों की देखभाल में काफी ऊर्जा खर्च होती है। चातक ने यह ज़िम्मेदारी बैब्लर को सौंप दी। ऐसा नहीं है कि परजीवी प्रजाति का पक्षी किसी भी पक्षी का घोंसला देखे और उसमें अंडे दे दे।

मादा बैब्लर घोंसला बनाकर अंडे देती है। इसी दौरान मादा चातक ताक में होती है और मौका देखकर उसके घोंसले में अंडे दे देती है। रोचक बात यह है कि परजीवी पक्षियों के अंडों का रंग-रूप मेज़बान पक्षी के अंडों से काफी मिलता-जुलता होता है। इतना ही नहीं परजीवी पक्षी का अपने मेज़बान पक्षी के घोंसला बनाने व अंडे देने के वक्त के साथ भी तालमेल दिखता है। जब मेज़बान पक्षी अंडे देगा उसी दौरान परजीवी पक्षी भी अंडे देगा। यह तालमेल जैव विकास की प्रक्रिया में कई पीढ़ियों में पनपा होगा।

मेज़बान पक्षी परजीवी पक्षी के चूज़ों के साथ किस प्रकार का बर्ताव करते हैं, यह शोध का विषय रहा है। चातक के अंडों से चूज़े निकलते हैं तो मेज़बान पक्षी का रवैया सौतेला नहीं होता। उल्टे मेज़बान पक्षी इन पराए चूज़ों का खासा ख्याल रखते हैं। चातक व बैब्लर के अंडों से निकले चूज़ों के अवलोकन से पता चला है कि बैब्लर चातक के चूज़ों की अधिक देखभाल करते हैं।

शोधकर्ताओं ने श्रीलंका में बैब्लर व चातक के चूज़ों के कुछ अवलोकन लिए। ज़मीन पर चातक पक्षी के चूज़े को बैब्लर के झुंड द्वारा चुगाते हुए देखा गया। वहां बैब्लर के चूज़े भी थे। यह भी देखा गया कि चातक का चूज़ा ज़्यादा उड़ भी नहीं पा रहा था। बैब्लर के चूज़े अधिक सक्रिय थे। प्रतीत हो रहा था कि चातक के चूज़ों की तुलना में उनकी अधिक वृद्धि हुई है। दिलचस्प अवलोकन यह भी था कि जंगली बैब्लर का झुंड चातक के चूज़े का खतरों से बचाव भी कर रहा था। कुल दस मिनट के अवलोकन में जंगली बैब्लर ने चातक के चूज़े को दो बार चुगाया।

इसी प्रकार का एक और अवलोकन किया गया। यह अवलोकन शाम के वक्त का है। नारियल के बगीचे में वयस्क जंगली बैब्लर के साथ अवयस्क चूज़े देखे गए। इस समूह में दो चूज़े चातक के भी थे। जंगली बैब्लर को उड़ते हुए देख चातक के चूज़े कुलांचे भरने लगे और उड़ने लगे। वे लगातार चुग्गे (भोजन) की मांग कर रहे थे। वे लंबी उड़ान भरकर शाखा पर बैठ नहीं पा रहे थे। इस दौरान भी जंगली बैब्लर्स चातक के चूज़ों का अधिक ख्याल रख रहे थे।(स्रोत फीचर्स)

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युवाओं से ज़्यादा एंटीबॉडी बुज़ुर्गों में

शंघाई के एक अस्पताल से फरवरी में डिस्चार्ज हुए कोरोना के हल्के संक्रमण वाले 175 लोगों की जांच में बुज़ुर्गों में युवाओं के मुकाबले वायरस निष्क्रिय करने वाली एंटीबॉडी ज़्यादा पाई गई हैं।

शोधकर्ताओं का कहना है कि अधेड़ उम्र से लेकर बुज़ुर्ग मरीज़ों के प्लाज़्मा में निष्क्रियकारी और स्पाइक से जुड़ने वाली एंटीबॉडी का स्तर तुलनात्मक रूप से ज़्यादा था। 30 फीसदी युवाओं में तो उम्मीद के उलट एंटीबॉडी का स्तर मानक से कम पाया गया। 10 में तो इनका स्तर इतना कम था कि ये पकड़ में ही नहीं आ पार्इं। वहीं, सिर्फ 2 मरीज़ों में एंटीबॉडी का स्तर बहुत अधिक था।

वैज्ञानिकों को मरीज़ों के नमूनों से वायरल डीएनए का पता न लग पाने के कारण इनमें संक्रमण के स्तर का सही आकलन नहीं हो पाया। इसलिए यह भी स्पष्ट नहीं हो पाया है कि क्या युवाओं में संक्रमण हल्का होने के कारण ही एंटीबॉडी कम बनी थीं।

इस परिणाम से वैज्ञानिक भी चकित हैं। दरअसल, अधिक एंटीबॉडी होने के बाद भी बुज़ुर्ग जल्दी ठीक नहीं हो पाए थे। यानी बुज़ुर्ग और युवा मरीज़ों को ठीक होने में एक समान समय लगा। ठीक हुए इन लोगों की बीमारी की औसत अवधि 21 दिन, अस्पताल में भर्ती रहने का औसत समय 16 दिन और औसत आयु 50 साल थी।

वैज्ञानिकों का कहना है कि बुज़ुर्गों में एंटीबॉडी का अधिक स्तर उनके मज़बूत प्रतिरक्षा तंत्र के कारण भी हो सकता है। हालांकि, सिर्फ एंटीबॉडी की अधिक उपस्थिति के कारण उनमें गंभीर संक्रमण से बचाव के पुख्ता प्रमाण नहीं मिले हैं। दुनिया भर में तो देखा गया है कि कोरोना के प्रति बुज़ुर्ग ज़्यादा कमज़ोर हैं।

शोधकर्ताओं ने मरीज़ों में संक्रमण के 10-15 दिन में ही कोरोना वायरस के लिए बनने वाली निष्क्रियकारी एंटीबॉडी ढूंढ ली थी, जिनका स्तर बाद तक भी स्थिर ही रहा। युवाओं में कम एंटीबॉडी के चलते उनके दोबारा संक्रमित होने की आशंका पर शोधकर्ताओं ने गहन अध्ययन की ज़रूरत बताई है।(स्रोत फीचर्स)

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कहां से लाई गईं थी स्टोनहेंज की शिलाएं

हीरा तराश रॉबर्ट फिलिप्स ने 2018 में अपने 90वें जन्मदिन पर इतिहास की एक अनमोल धरोहर युनाइटेड किंगडम को लौटाने का फैसला लिया था। यह धरोहर प्रसिद्ध समारक स्टोनहेंज के केंद्र में स्थित एक शिला का 91 सेंटीमीटर लंबा बेलनाकार हिस्सा है। और अब इस हिस्से का विश्लेषण कर पुरातत्वविदों ने इस बात की पुष्टि की है कि स्मारक की सबसे बड़ी शिला का पत्थर लगभग 25 किलोमीटर दूर स्थित जंगल मार्लबोरो डाउंस से लाया गया था।

स्टोनहेंज का निर्माण अनुष्ठान स्थल के रूप में लगभग 3000 ईसा पूर्व शुरू हुआ था। यह बड़ी और छोटी शिलाओं को एक वृत्त में जमा कर बना है। इस स्मारक में 25 टन वजनी, 52 विशाल सिलिका शिलाएं हैं जिन्हें सारसेन्स कहा जाता है। शोधकर्ताओं का मानना था कि सारसेन्स शिलाएं मार्लबोरो डाउंस से लाई गईं थी। जबकि स्टोनहेंज के केंद्र में स्थित अन्य छोटी शिलाएं, जिन्हें ब्लूस्टोन्स कहा जाता है, लगभग 150 किलोमीटर दूर वेल्स के विभिन्न स्थलों से लाईं गई थीं।

दरअसल 1958 में फिलिप्स एक ऐसे दल का हिस्सा थे जो स्टोनहेंज की तीन सारसेन्स शिलाओं को फिर से खड़ा करने का काम कर रहा था। जब शिला क्रमांक 58 को उठाया गया तो पता चला कि वह टूट चुकी थी। इसे जोड़ने के लिए उन्होंने शिला के बीच में एक सुराख किया और धातु के बोल्ट की मदद से कस दिया। सुराख से जो टुकड़ा निकला था उसे फिलिप्स ने अपने पास रख लिया था।

चूंकि अब जब स्टोनहेंज के अवशेषों को किसी भी तरह की क्षति पहुंचाना प्रतिबंधित है, तो जब फिलिप्स ने यह टुकड़ा लौटाया तो ब्राइटन युनिवर्सिटी के पुरातत्वविद और भूगोलविद डेविड नैश और उनके साथियों को सारसेन्स शिलाओं के मूल स्थान के बारे में पता लगाने का महत्वपूर्ण साधन मिल गया।

शोधकर्ताओं ने पोर्टेबल एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर की मदद से सभी 52 सारसेन्स शिलाओं की रासायनिक संरचना पता की, उन्हें नुकसान पहुंचाए बगैर। शिलाओं में 99 प्रतिशत से अधिक सिलिका के अलावा एल्यूमीनियम, कार्बन, लोहा, पोटेशियम और मैग्नीशियम सहित अन्य तत्व मौजूद थे। सभी 52 में से 50 शिलाओं की रासायनिक रचना एकदम समान थी, जिससे लगता है कि सभी शिलाएं एक ही जगह से लाई गईं थी।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने एक्स-रे स्पेक्ट्रोमेट्री से भी अधिक बारीकी से रासायनिक पहचान के लिए फिलिप्स द्वारा लौटाए टुकड़े के आधे हिस्से को चूर-चूर किया और इसका रासायनिक विश्लेषण किया। इसकी तुलना उन्होंने दक्षिणी और पूर्वी इंग्लैंड के 20 विभिन्न क्षेत्रों से लिए गए चट्टान के नमूनों से की। उन्होंने पाया कि सारसेन्स शिला का वह टुकड़ा वेस्ट वुड चट्टानी क्षेत्र के नमूने से पूरी तरह से मेल खाता है। यह क्षेत्र मार्लबोरो डाउंस के दक्षिण पूर्व में स्थित है। शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन के नतीजे साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित किए हैं।

कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि तुलना के लिए अधिक इलाकों के नमूने लिए जाने चाहिए थे। लेकिन यह खुशी की बात है कि लंबे समय से शोध का केंद्र बने ब्लूस्टोन शिलाओं के इतर सारसेन्स शिलाओं का अध्ययन किया गया। शोध के मामले में सारसेन्स शिलाएं लंबे समय से उपेक्षित थीं।(स्रोत फीचर्स)

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क्या उत्परिवर्तित कोरोनावायरस अधिक खतरनाक है?

हामारी की शुरुआत में ही सार्स-कोव-2 जीनोम के 30 हज़ार क्षारों में से एक एडीनोसिन (A) से गुवानीन (G) में परिवर्तित हो गया था। जीनोम के 23,403वें स्थान पर यह उत्परिवर्तित वायरस दुनिया भर में फैल गया है। ऐसे में वैज्ञानिक जगत में यह सवाल उठा है कि क्या यह परिवर्तन इसलिए व्यापक हो गया है क्योंकि इससे वायरस को तेज़ी से फैलने में मदद मिलती है या फिर यह सिर्फ एक संयोग है?  

अभी तक स्पष्ट नहीं है कि यह वायरस भविष्य में और अधिक भयानक होने वाला है या फिर समय के साथ कमज़ोर हो जाएगा। कुछ वायरस विज्ञानियों का मत है कि पूर्व में तो मनुष्य सार्स-कोव-2 से अच्छी तरह से अनुकूलित थे लेकिन 2019 के अंत में इसका ऐसा रूप सामने आया जिसने कई लोगों को संक्रमित कर दिया। अध्ययन से पता चला है कि औसतन इस वायरस के जीनोम में प्रति माह 2 उत्परिवर्तन होते हैं। अधिकांश परिवर्तन वायरस के व्यवहार को प्रभावित नहीं करते हैं जबकि कुछ परिवर्तन रोग की गंभीरता को ज़रूर बदल देते हैं। 

परिवर्तन का एक मामला ओआरएफ-8 नामक जीन की 382 क्षार जोड़ियों के विलोपन के साथ हुआ। साल 2003 में कोरोनावायरस के करीबी सार्स के जीन में भी इसी तरह का विलोपन हुआ था। बाद में प्रयोगशाला में किए गए अध्ययन से पता चला था कि यह संस्करण कम कुशलता से प्रतिकृतियां बनाता था। लगता है कि सार्स महामारी को धीमा करने में इसका हाथ था। लेकिन सेल कल्चर प्रयोगों से पता चलता है कि सार्स-कोव-2 के प्रसार पर उत्परिवर्तन का कोई गंभीर प्रभाव नहीं पड़ा है। इससे रोग के कम गंभीर होने के संकेत मिले हैं। 

सार्स-कोव-2 में 23,403वें स्थान पर उत्परिवर्तन ने मानव कोशिकाओं से जुड़ने वाले वायरस की सतह पर उपस्थित प्रोटीन स्पाइक में परिवर्तन किया है। इस उत्परिवर्तन को G614 नाम दिया गया है। सेल में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चला है कि वायरस का  G614 संस्करण अब सभी देशों में सामान्य रूप से पाया जाने लगा है जबकि मूल संस्करण लगभग सभी जगह से खत्म हो गया है। प्रयोगों से पता चलता है कि G614 मूल वायरस की तुलना में 1.2 गुना ज़्यादा तेज़ी से फैलता है। सेल कल्चर प्रयोगों से यह भी पता चला है कि G614 संस्करण वाले स्पाइक प्रोटीन कोशिकाओं में प्रवेश करने में अधिक सक्षम हैं। G614 के स्पाइक में मामूली परिवर्तन से प्रोटीन में संरचनात्मक बदलाव हुए हैं जिससे वायरस की झिल्ली और मनुष्य की कोशिकाओं का जुड़ना आसान हो गया है। पता चला है कि यह वायरस तीन से दस गुना अधिक संक्रामक हो गया है। लेकिन कई वैज्ञानिकों का कहना है कि कल्चर में वायरस के व्यवहार के आधार पर वास्तविक परिस्थिति के बारे में सीधे-सीधे निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। इसके लिए गंधबिलाव जैसे जंतुओं पर प्रयोग ज़रूरी हैं।

एक सवाल यह भी है कि इतना फैल जाने के बाद भी उत्परिवर्तन इसके व्यवहार को प्रभावित क्यों नहीं कर पाए हैं? वैज्ञानिकों का मानना है कि अभी शायद वायरस पर कोई चयन दबाव नहीं है क्योंकि इतने सारे असंक्रमित व्यक्ति प्रसार के लिए मौजूद हैं। हो सकता है कि टीका या नए उपचारों के आगमन के साथ स्थिति बदल जाए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गरीबों को महामारी के खिलाफ तैयार करना – भाग 2 – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

दीहिंदू के 19 जुलाई के अंक में प्रकाशित मेरे लेख गरीबों को महामारी के खिलाफ तैयार करना पर मिले सुझावों और समालोचना से प्रेरित होकर इस लेख का दूसरा परिवर्धित भाग लिखा गया है।

पहला अपडेट है फ्रंटियर्स इन एंडोक्रायनोलॉजी पत्रिका के 9 अगस्त 2019 के अंक में प्रकाशित सी.वी. हरिनारायण और एच. अखिला का एक विस्तृत और प्रमाणिक पेपर (आधुनिक भारत और जुड़वां पोषक तत्व कैल्शियम और विटामिन डी की कमी की कहानी पिछले 50 वर्षों का पोषण सम्बंधी डैटा जांच, आत्मनिरीक्षण और संभावना)। डॉ. हरिनारायण इस क्षेत्र में दशकों से काम कर रहे हैं, परीक्षण कर रहे हैं और तिरुपति और अन्य जगहों पर कैल्शियम और विटामिन डी के स्तर की तुलना ग्रामीण, शहरी, गरीब, थोड़ी बेहतर आर्थिक स्थिति वाले लोगों और सम्पन्न लोगों में कर रहे हैं। इस पेपर के संभावना वाले हिस्से में लेखकों ने कुछ आवश्यक कदम सुझाए हैं कि कैसे विशेषज्ञों की मदद और बड़े पैमाने पर पूरक पोषण के माध्यम से पोषण सम्बंधी कमियों को दूर किया जा सकता है, जिन्हें स्कूलों और कॉलेजों, और फोन, टीवी और रेडियो जैसे सोशल मीडिया के माध्यम से प्रचारित करना चाहिए। (मेरा सुझाव है कि सभी को यह महत्वपूर्ण पेपर पढ़ना चाहिए – https://doi.org/10.3389/fen-do.2019.00493)। हालांकि इनमें से कई सुझावों का पहले से ही क्रियान्वयन जा रहा है, लेकिन इससे अधिक करने की आवश्यकता है।

विटामिन डी की कमी

यह दिलचस्प है कि एक तरफ जब इस पेपर में लेखक (और 2017 के पेपर में सेल्वाराजन भी) यह सवाल पूछते हैं कि सूर्य के प्रकाश से भरपूर देश में अभी भी विटामिन डी की कमी क्यों दिखती है, अन्य रिपोर्ट इस ओर ध्यान दिलाती हैं कि ग्रेट ब्रिटेन में बसे भारतीय मूल के लोगों में भी इसी तरह की कमी दिखती है (इंटरनेशनल जर्नल ऑफ कार्डियोलॉजी में 2013 में पटेल द्वारा प्रकाशित पेपर, doi: 10.1016 / j.ijcard.2012.05.081)। इससे एक सवाल पैदा होता है कि क्या इस कमी के लिए कोई जेनेटिक कारक ज़िम्मेदार हैं। (त्वचा पर पड़ने वाला प्रकाश एक पूर्ववर्ती अणु बनाता है जिसे अंगों की कोशिकाओं में परिवर्तित कर विटामिन डी बनाया जाता है। यदि किसी आनुवंशिक या चयापचय त्रुटि के कारण यह विकृत हो जाता है, तो शरीर में विटामिन डी की कमी हो जाती है)। रोजर बूलोन नेचर रिव्यू एंडोक्रायनोलॉजी पत्रिका में लिखते हैं कि इस संदर्भ में कम से कम चार तरह की आनुवंशिक गड़बड़ियां हो सकती हैं। भारतीय आनुवांशिक विशेषज्ञों द्वारा देश के विटामिन डी की कमी वाले लोगों में इस संभावना की जांच-पड़ताल करना फायदेमंद होगा।

हरिनारायण और अखिला बताते हैं कि कैल्शियम की कमी ना केवल भारत के गरीबों लोगों में है बल्कि सम्पन्न लोगों में भी है। राष्ट्रीय पोषण निगरानी समिति (NNMB) के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले 50 वर्षों में औसत भारतीय आबादी में कैल्शियम का स्तर 700 युनिट प्रतिदिन से 300-400 युनिट प्रतिदिन तक गिर गया है जो कि सामान्य व आवश्यक स्तर (800-1000 युनिट प्रतिदिन) से काफी कम है। यह फिर एक सवाल पैदा करता है कि प्रतिदिन अधिकतम दूध उत्पादन करने वाले दुनिया के शीर्ष देश में यह स्थिति कैसे? दुग्ध उत्पाद कैल्शियम के समृद्ध रुाोत हैं। कैल्शियम की कमी से हड्डियां कमज़ोर होती हैं और रिकेट्स जैसी बीमारियां होती हैं। कैल्शियम विटामिन डी के कार्य के लिए भी आवश्यक है। कैल्शियम और विटामिन डी दोनों की कमी दोहरी बाधा है! इसलिए हरिनारायण और अखिला के पेपर में संभावना वाले हिस्से में सुझाव दिया गया है कि स्वस्थ भारत के लिए इन दोनों की पूरक खुराक आवश्यक है, साथ ही यह भी ज़रूरी है कि सभी स्कूल अपने छात्रों को प्रतिदिन 20-30 मिनट धूप में खड़ा करें, और एक घंटा शारीरिक व्यायाम और खेल करवाएं। इससे जो लाभ होगा वह सभी छात्रों (और शिक्षकों) को दिए जाने वाले दैनिक मध्यांह भोजन के अतिरिक्त होगा।

छिपी भूख से लड़ना

केंद्र और राज्य सरकारें, कई एनजीओ और सह्मदय लोग मुफ्त गेहूं/चावल और दाल देकर गरीबों की मदद कर रहे हैं। इसके अलावा वे चीनी, दूध और सब्ज़ियों जैसे अत्यधिक सब्सिडी वाले खाद्य पदार्थ भी दे रहे हैं। लेकिन पका हुआ भोजन नहीं देते। भारत के पोषण विशेषज्ञ इस बात पर ज़ोर देते हैं कि विटामिन डी और कैल्शियम के अलावा सूक्ष्म पोषक तत्वों (जैसे, बी कॉम्प्लेक्स विटामिन, कैल्शियम प्लस, आयरन, ज़िंक, आयोडीन, सेलेनियम) से युक्त भोजन भी दिया जाना चाहिए, ताकि किसी भी संक्रमण के खिलाफ प्रतिरक्षा हासिल की जा सके। ये पूरक पोषण, पोषक तत्वों की कमी वाले लोगों की ‘छिपी भूख’ को भी शांत करेंगे। जिन कई राज्यों की आंगनवाड़ियों और स्कूलों में पका हुआ भोजन दिया जाता है, वहां वे चीज़ें भी शामिल होना चाहिए जो सब्ज़ियों के तत्वों या घटकों का बेहतर संयोजन देते हों। कई पोषण विशेषज्ञ सुझाव देते हैं कि दाल (या सांबर) के अलावा भोजन में पालक और अन्य हरी पत्तेदार सब्ज़ियां, फलियां, मटर, गाजर, टमाटर, आलू, दूध या दही और केले जैसे फल के अलावा ओमेगा 3 और 6 फैटी एसिड (और अंडा) शामिल होना चाहिए। इसी तरह वे यह भी बताते हैं कि संतुलित मांसाहारी भोजन कैसा हो सकता हो, जो पौष्टिक और किफायती हो।

किफायती क्या है? MSSRF की मधुरा स्वामीनाथन के अनुसार, एफएओ की खाद्य सुरक्षा और पोषण की स्थिति रिपोर्ट के अनुसार पर्याप्त पोषण से युक्त भोजन की कीमत 25 रुपए प्रति व्यक्ति प्रति भोजन पड़ती है या दो वक्त के लिए 50 रुपए प्रति व्यक्ति पड़ती है। और एक ‘तंदुरुस्त आहार’ की कीमत 100 रुपए प्रति व्यक्ति प्रतिदिन पड़ती है। 37 करोड़ से अधिक गरीब लोगों वाले भारत देश के लिए यह एक बड़ा आंकड़ा है! यह स्पष्ट है कि केंद्र और राज्य सरकारों के सराहनीय प्रयासों के अलावा निजी संस्थाओं (भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय), बड़े उद्योगों और व्यक्तिगत दाताओं से योगदान मिलना चाहिए, ताकि हम 100 रुपए प्रतिदिन भोजन का खर्च वहन कर सकें। यह किया जा सकता है।

समुद्री शैवाल से पोषण

दैनिक भोजन के पोषण में समुद्री शैवाल शामिल कर सकते हैं। भारत के मुख्य भू-भाग की समुद्री तटरेखा 7500 किलोमीटर लंबी है, और इसके द्वीपों की समुद्री तटरेखा 5500 किलोमीटर लंबी है। जहां भोजन सहित अन्य उपयोग के लिए समुद्री शैवाल उगाई जाती हैं। जापान, कोरिया, चीन और अधिकांश दक्षिण-पूर्वी एशियाई देश इन्हें खाते हैं। ये शाकाहारी हैं। और विटामिन, खनिज, आयोडीन और ओमेगा 3 फैटी एसिड से भरपूर हैं। भावनगर स्थित केंद्रीय नमक और समुद्री रसायन अनुसंधान संस्थान के डी.सी. दीक्षित द्वारा जर्नल ऑफ एक्वेटिक फूड प्रोडक्ट टेक्नॉलॉजी में एक पेपर प्रकाशित किया गया है जिसका शीर्षक है मानव भोजन के रूप में कच्छ तट के पास उगने वाली आठ उष्णकटिबंधीय मैक्रो शैवाल के पोषक, जैव रासायनिक, एंटीऑक्सिडेंट और जीवाणुरोधी क्षमता का आकलन। अब समय है कि हम भारतीय भी अपने भोजन में समुद्री शैवाल शामिल करें।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक छोटी-सी चिड़िया जानती है संख्याएं

छोटी से बादामी रंग की फुर्तीली हमिंगबर्ड लंबे प्रवास के लिए जानी जाती है। लेकिन हाल ही में इनकी एक और विशेषता का पता चला है। वे रसदार फूलों को क्रम अनुसार याद रखने की क्षमता भी रखती हैं। यानी वे यह पता लगा सकती हैं कि किस स्थान पर पहले फूल खिलने वाले हैं और कहां उसके बाद। वैसे तो संख्या क्रम की ऐसी समझ काफी सरल लगती है लेकिन यह एक जटिल कौशल है जिसकी मदद से हमिंगबर्ड को भरपूर मकरंद वाले फूलों के बीच आसान रास्ता याद करने में मदद मिलती है। शोधकर्ताओं को पहली बार किसी जंगली कशेरुकी जीव में इस क्षमता का पता चला है।  

प्रयोगशाला में प्रशिक्षित कई जीव, जैसे चूहे, गप्पी और बंदर चीज़ें गिन सकते हैं और यह भी समझ सकते हैं कि किसी क्रम में कोई चीज़ कहां फिट होती है। लेकिन प्राकृतिक स्थिति में इस क्षमता तथा इसके उपयोग के बारे में ज़्यादा कुछ मालूम नहीं था।

इसके लिए युनिवर्सिटी ऑफ सेंट एंड्रयूज़ की जीव विज्ञानी सुज़न हीली और उनके सहयोगियों ने हमिंगबर्ड (Selasphorusrufus) के नर को अध्ययन के लिए चुना। ये सिर्फ 8 सेंटीमीटर लंबे होते हैं और इनके भोजन के क्षेत्र अच्छी तरह से परिभाषित होते हैं और उन्हें अपने इलाके के भूगोल का भी अच्छा ज्ञान होता है। इसके अलावा ये पक्षी एक रसीले फूल से दूसरे तक जाने के लिए कार्यक्षम मार्ग का उपयोग करते हैं।

इस तरह से मार्ग बनाने की क्षमता ने शोधकर्ताओं को काफी प्रभावित किया। क्या वे यूं ही एक लक्ष्य से दूसरे लक्ष्य की ओर जाते हैं या फिर वे यह काम एक क्रम में करते हैं? इसका पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने उत्तरी अमेरिका के पथरीले पहाड़ों में फीडर्स (भोजन के पात्र) रखे जिनमें मकरंद जैसा रस था। यह प्रयोग मई के महीने में किया गया जब हमिंगबर्ड्स उस क्षेत्र में आना शुरू करते हैं। शोधकर्ताओं ने देखा कि भोजन के लिए पक्षी एक विशेष फीडर का ही उपयोग करता है और अन्य पक्षियों से अपने इलाके की रक्षा भी करता है। ऐसे पक्षियों को पकड़कर चिंहित कर दिया गया। ऐसे 9 चिंहित पक्षियों को कृत्रिम फूल से भोजन प्राप्त करने का प्रशिक्षण दिया। कृत्रिम फूल और कुछ नहीं पीले फोम की एक चकती थी जिसके बीच में एक नली में मकरंद भरा था।

पक्षियों में संख्या क्रम की समझ को देखने के लिए शोधकर्ताओं ने 10 एक जैसे कृत्रिम फूलों को पंक्तिबद्ध किया। उन्होंने पहले फूल में रस डाला और देखा कि हमिंगबर्ड किस फूल की ओर जाते हैं। सभी पक्षी समान रूप से पहले फूल की तरफ ही गए। कभी-कभार वे अन्य फूलों को भी देख लेते थे कि कहीं उनमें रस तो नहीं है।

इसके बाद टीम ने फूलों को पुन:व्यवस्थित करना शुरू किया ताकि पक्षियों को न पता लग सके कि किस फूल में रस है। इसके बाद भी पक्षियों ने पंक्ति में पहला फूल चुना जिससे पता चलता है कि उनमें ‘पहले’ की समझ है। इसके बाद जब टीम ने पूरे प्रयोग को फिर से दोहराया और पंक्ति में, उदाहरण के लिए तीसरे फूल, में रस डाला। तब उन्होंने पाया कि सभी पक्षी सीधे तीसरे फूल की ओर जा रहे हैं। इससे पता चलता है कि वे पंक्ति में तीसरे फूल को पहचानते थे।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी बी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस अध्ययन से पता चलता है कि हमिंगबर्ड्स में संख्या क्रम की समझ होती है और वे इसे कुशलता से भोजन की तलाश के लिए उपयोग करते हैं। वैसे यह प्रयोग इस संभावना को निरस्त नहीं करता कि भोजन की तलाश के लिए विभिन्न पक्षी विभिन्न रणनीतियों का उपयोग करते हों।(स्रोत फीचर्स)

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रंग बदलती स्याही बताएगी आपकी थकान

जकल स्मार्ट वॉच या इलेक्ट्रॉनिक पैच जैसे पहने जा सकने वाले इलेक्ट्रॉनिक संवेदी उपकरण की मदद से रक्तचाप, रक्त शर्करा की मात्रा वगैरह की निगरानी करना संभव है। और अब एडवांस्ड मटेरियल में प्रकाशित एक ताज़ा अध्ययन कहता है कि रंग बदलने वाली स्याही स्वास्थ्य जांच और पर्यावरण निगरानी में सहायक हो सकती है।

टफ्ट्स युनिवर्सिटी की सिल्कलैब के बायोमेडिकल इंजीनियर फियोरेन्ज़ो ओमेनेटो और उनके साथियों द्वारा तैयार यह नई रेशम-आधारित स्याही आसपास मौजूद रसायनों की उपस्थिति और मात्रा के बारे में बता सकती है। इस स्याही से रंगे कपड़ों का रंग पसीने के संपर्क में आने पर बदल जाता है, या कमरे में कार्बन मोनोऑक्साइड के प्रवेश करने पर कपड़ों पर बने चित्रों या डिज़ाइन का रंग बदल जाता है। इस स्याही को टी-शर्ट से लेकर तम्बू तक, किसी भी चीज़ पर इस्तेमाल किया जा सकता है।

वैसे तो शोधकर्ता इसके पहले दस्तानों या पैबंद पर इंकजेट प्रिंटर की मदद से स्प्रे करके छोटे सेंसर उपकरण बना चुके थे। लेकिन अब वे स्याही को कई तत्वों के साथ बड़ी चीज़ों पर प्रिंट करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने स्याही को सोडियम एल्जिनेट की मदद से गाढ़ा किया और उसमें विभिन्न अभिक्रियाशील पदार्थ मिलाए। रेशम-आधारित स्याही बनाने के लिए उन्होंने रेशम को उसके घटक प्रोटीन्स में तोड़ा, और फिर उन्हें पानी में निलंबित किया। इसके बाद उन्होंने इसमें अभिक्रियाशील रसायनों (जैसे पीएच-संवेदी सूचक और लैक्टेट ऑक्सीडेज़) मिलाए और देखा कि आसपास के वातावरण में परिवर्तन होने पर इसका परिणामी रंग कैसे बदलता है? इस स्याही से रंगे कपड़ों को पहनने पर इसमें मौजूद पीएच सूचक त्वचा के स्वास्थ्य या निर्जलीकरण के बारे में बता सकते हैं; लैक्टेट ऑक्सीडेज़ व्यक्ति की थकान के स्तर को माप सकता है। कपड़ों पर इन परिवर्तनों को आंखों से देखा जा सकता है, लेकिन विविध रंग में बदलाव को देखने और उनका डैटाबेस तैयार करने के लिए शोधकर्ताओं ने इसमें एक कैमरा-इमेजिंग विश्लेषण तकनीक का भी उपयोग किया है।

हुवाई विश्वविद्यालय के मैकेनिकल इंजीनियर टायलर रे कहते हैं कि आजकल उपलब्ध अधिकांश पहनने योग्य मॉनीटर कठोर, तार वाले और अपेक्षाकृत भारी होते हैं। वे आगे कहते हैं कि इस नई स्याही तकनीक में उपभोक्ता द्वारा शौकिया तौर पर पहनी जाने वाली वस्तुओं को नैदानिक उपकरणों में बदलने की क्षमता है जो चिकित्सकों को कार्रवाई-योग्य जानकारी दे सकती है। लेकिन किसी भी वर्णमापक तकनीक के साथ एक समस्या यह होती है कि विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियां इसकी सटीकता को प्रभावित करती हैं, जैसे प्रकाश या कैमरा। अध्ययनों में इन मुद्दों पर ध्यान देने की ज़रूरत है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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