मानसून की हरित ऊर्जा क्षमता

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

जैसे-जैसे गर्मी बढ़ने लगती है और तपन अपने चरम पर पहुंचने लगती है, तो विचार आता है कि बारिश कब आएगी। 100 से अधिक सालों से मौसम केंद्रों और वर्षामापी यंत्रों द्वारा एकत्रित डैटा से पता चलता है कि भारत में बारिश का मौसम 1 जून को केरल में दक्षिण-पश्चिम मानसून (southwest monsoon in India) के आगमन के साथ शुरू होता है; अलबत्ता, मानसून आने का समय एक हफ्ते आगे-पीछे भी खिसक सकता है। पिछले कुछ वर्षों में मौसम विभाग की भविष्यवाणियां (Indian monsoon forecast accuracy) ज़्यादा सटीक हुई हैं।

हिंद महासागर के ऊपर से बहकर आने वाली दक्षिण-पश्चिमी हवाएं, साथ ही अरब सागर के ऊपर से बहकर पूर्वी अफ्रीका से आने वाली तेज़ हवाएं (सोमाली जेट स्ट्रीम) (Somali Jet Stream and monsoon) हमारे यहां बारिश लाती हैं, और हमें ठंडक का एहसास देकर तरोताज़ा करती हैं, हमारा मूड अच्छा करती हैं।

वर्तमान संदर्भ मे देखें तो ये हवाएं अपने साथ नवीकरणीय ऊर्जा दोहन (renewable energy potential in India) की संभावना भी लेकर आती हैं। जलवायु परिवर्तन पर जागरूकता ने जीवाश्म ईंधन से प्राप्त ऊर्जा पर हमारी निर्भरता को कम करने की तत्काल आवश्यकता को स्पष्ट कर दिया है (climate change and fossil fuel dependency in India)। यहां भारत की स्थिति बहुत विकट है। वर्तमान में हमारी लगभग 75 प्रतिशत बिजली कोयले से बनती है। और हमारी महत्वाकांक्षा है कि हम कम कार्बन उत्सर्जन करने वाली (हरित) ऊर्जा (green energy goals India) को अपनाएंगे। इस महत्वाकांक्षी सोच के एक हिस्से के तहत केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण का लक्ष्य 2032 तक 121 गीगावाट क्षमता के अतिरिक्त पवन ऊर्जा संयंत्र स्थापित करना (wind energy target 2032 India) है। वर्तमान में हम 45 गीगावाट पवन ऊर्जा बना पाते हैं।

जीवाश्म ईंधन चालित बिजली संयंत्रों से हम कभी भी बिजली बना सकते हैं; न दिन-रात के बारे में सोचना पड़ता है, न मौसम के बारे में। लेकिन नवीकरणीय स्रोतों (जैसे पवन ऊर्जा) (wind power vs fossil fuel India) के मामले में ऐसा नहीं है, और इसीलिए इनका क्षमता से कम उपयोग होता है। इसलिए इस मामले में यह पूर्वानुमान लगाना और भी महत्वपूर्ण होता है कि हवाएं कब चलेंगी ताकि तब पवन ऊर्जा संयंत्रों का सर्वोत्तम उपयोग किया जा सके।

नवीकरणीय ऊर्जा संयत्रों का लक्ष्य है कि कम से कम जीवाश्म ईंधन जलाकर स्थापित ग्रिड से अधिकतम बिजली पैदा (maximize renewable energy grid India) की जाए। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए मौसम सम्बंधी पूर्वानुमान, खासकर क्षेत्रवार पूर्वानुमान आवश्यक हैं। उदाहरण के लिए, राजस्थान राज्य में अक्टूबर से दिसंबर तक बहुत कम हवाएं चलती हैं।

मानसूनी हवाएं जलवायु की मज़बूत चालक (monsoon winds climate driver India) हैं। जिस तरह बारिश का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है, उसी तरह इसका भी पूर्वानुमान किया जा सकता है कि ठंडी तेज़ मानसूनी हवाएं कब चलेंगी, और इनका मॉडल तैयार किया जा सकता है।

शहरों में गर्मियों के दौरान अधिक बिजली की आवश्यकता होती है, जबकि इस समय कृषि के लिए बिजली की मांग कम होती है। मानसून के समय बनाई गई बिजली कृषि के लिए वरदान है, क्योंकि खरीफ की फसलों (जो जून में बोयी जाती हैं और अक्टूबर में काटी जाती हैं) में बिजली खपत ज़्यादा होती है, बनिस्बत जाड़ों में बोयी जाने वाली रबी की फसलों में। पश्चिमी घाट जैसे हवादार स्थानों पर एक पवन टर्बाइन जून से सितंबर के बीच अपनी वार्षिक बिजली उत्पादन क्षमता का 70 प्रतिशत उत्पादन (wind turbine electricity generation India) करता है।

हालांकि, इस मौसम में सतही हवाओं की गति काफी बदलती रहती है। और बिजली उत्पादन में कमी-बेशी करने में इस बदलाव का अनुमान लगाना बहुत उपयोगी है। इससे संख्यात्मक मौसम पूर्वानुमान मॉडल (सूक्ष्म स्तर पर) और सटीक हुए हैं; ये मॉडल चंद सैकड़ा मीटर, एक किलोमीटर से लेकर बड़े इलाके तक के लिए मौसम का पूर्वानुमान (numerical weather prediction India) देते हैं। ऐसे मॉडलों का उपयोग करके चेन्नई स्थित राष्ट्रीय पवन ऊर्जा संस्थान ने भारत का पवन एटलस (India Wind Atlas) विकसित किया है, जो भविष्य में पवन फार्म स्थापित करने की योजना बनाने के लिए एक बहुत ही उपयोगी साधन है।

इसमें एआई क्या मदद कर सकता है? रडार और उपग्रह तस्वीरों से प्राप्त हाई-डेंसिटी डैटा की मात्रा (और गुणवत्ता)तेज़ी से बढ़ी एवं सुधरी (AI in weather forecasting India) है। गूगल के MetNet3 (Google MetNet3 India use case) जैसी तकनीक का उपयोग अपेक्षाकृत कम संख्या में मौजूद मौसम स्टेशनों से प्राप्त पवन गति, तापमान आदि के डैटा के साथ रडार और उपग्रह से प्राप्त डैटा को एकीकृत करने के लिए किया जा रहा है। ऐसा करने से मॉडल दो मौसम स्टेशनों के बीच के क्षेत्रों में हवा की गति का पूर्वानुमान दे पाते हैं; प्रत्यक्ष मापित थोड़े से डैटा से सटीक सूचना देने वाला पवन गति नक्शा मिल जाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारतीय परमाणु ऊर्जा के शिल्पी: डॉ. एम. श्रीनिवासन

डॉ. नवनीत कुमार गुप्ता

डॉ. मलूर रामस्वामी श्रीनिवासन (malur ramasamy srinivasan) भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम (India’s Nuclear Energy Program) के प्रमुख स्तंभ, वैज्ञानिक (Nuclear Scientist) और नीति निर्माता थे। उन्होंने न केवल देश के वैज्ञानिक आधार को सुदृढ़ किया बल्कि भारत को आत्मनिर्भरता और ऊर्जा सुरक्षा (Energy Security in India) की राह पर अग्रसर किया।

डॉ. श्रीनिवासन का जन्म 5 जनवरी 1930 को मैसूर, कर्नाटक में हुआ था। उनके पिता एक शिक्षक थे और उनका परिवार शिक्षा में दृढ़ विश्वास रखता था। बचपन से ही श्रीनिवासन गणित और विज्ञान में गहरी रुचि रखते थे। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मैसूर से प्राप्त की और आगे की पढ़ाई कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, बैंगलुरू (अब विश्वेश्वरैया कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग) से की। इसके बाद वे उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका चले गए। वहां उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले (University of California, Berkeley) से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।

वैज्ञानिक जीवन यात्रा

डॉ. श्रीनिवासन ने 1956 में भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (Bhabha Atomic Research Centre – BARC) में अपने वैज्ञानिक जीवन की शुरुआत की। उस समय भारत में परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम अपने आरंभिक चरण में था और डॉ. होमी जहांगीर भाभा (Homi J. Bhabha) के नेतृत्व में आकार ले रहा था। डॉ. श्रीनिवासन ने भारत के परमाणु रिएक्टरों (Nuclear Reactors in India) के स्वदेशी डिज़ाइन और निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने देश की पहली दाबयुक्त भारी पानी (पीएचडब्ल्यूआर) (Pressurized Heavy Water Reactor – PHWR) तकनीक को विकसित करने में अग्रणी भूमिका निभाई, जो आज भी भारत की परमाणु ऊर्जा उत्पादन प्रणाली की रीढ़ है।

1979 में डॉ. श्रीनिवासन को परमाणु ऊर्जा आयोग (Atomic Energy Commission of India) का सदस्य बनाया गया। इस पद पर रहते हुए उन्होंने भारत के परमाणु ऊर्जा उत्पादन में वृद्धि, वैज्ञानिक अनुसंधान (Scientific Research in India)  और मानव संसाधन विकास को प्राथमिकता दी। 1987 से 1990 तक वे परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष रहे। उनके कार्यकाल में कई परमाणु बिजलीघरों (Nuclear Power Plants)  की स्थापना हुई।

उन्होंने न केवल तकनीकी मामलों को देखा बल्कि परमाणु नीति निर्धारण (Nuclear Policy of India) में भी निर्णायक भूमिका निभाई। उनकी रणनीतियों के कारण भारत ने विदेशी दबावों के बावजूद अपने परमाणु कार्यक्रम को निर्बाध रूप से आगे बढ़ाया।

डॉ. श्रीनिवासन मानते थे कि ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता (Energy Independence) राष्ट्रीय संप्रभुता की कुंजी है। इसके लिए उन्होंने स्थानीय उद्योगों को परमाणु क्षेत्र में जोड़ने के लिए कई योजनाएं बनाईं। भारतीय कंपनियों को परमाणु संयंत्रों के लिए उपकरण निर्माण में शामिल करने की उनकी नीति से घरेलू विनिर्माण क्षमता में अभूतपूर्व वृद्धि हुई।

अंतर्राष्ट्रीय मंच पर मौजूदगी

डॉ. श्रीनिवासन ने भारत का प्रतिनिधित्व कई वैश्विक मंचों पर किया, जिनमें अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (International Atomic Energy Agency – IAEA)  और अन्य तकनीकी निकाय शामिल हैं। उन्होंने परमाणु सुरक्षा (Nuclear Safety), विकिरण नियंत्रण और परमाणु अप्रसार (Nuclear Non-Proliferation) जैसे विषयों पर भारत की नीतियों को स्पष्ट और प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया। उनके तर्क और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विश्व समुदाय में व्यापक सराहना मिली।

पुरस्कार और सम्मान

डॉ. श्रीनिवासन के अभूतपूर्व योगदान को मान्यता देते हुए भारत सरकार ने उन्हें कई प्रतिष्ठित सम्मानों से सम्मानित किया। इनमें प्रमुख हैं: पद्म भूषण (1990), पद्म विभूषण (2015), एनर्जी ग्लोब अवॉर्ड (Energy Globe Award), डॉ. होमी भाभा विज्ञान पुरस्कार एवं भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (Indian National Science Academy)  की सदस्यता।

साहित्यिक योगदान

डॉ. श्रीनिवासन न केवल वैज्ञानिक थे, बल्कि एक कुशल लेखक और विचारक भी थे। उन्होंने लेखों और व्याख्यानों के माध्यम से आम जनमानस को परमाणु ऊर्जा की उपयोगिता और सुरक्षा (Uses of Nuclear Energy) के बारे में जागरूक किया। उन्होंने फ्रॉम फिज़न टू फ्यूज़न: दी स्टोरी ऑफ इंडियाज़ न्यूक्लियर पॉवर प्रोग्राम (From Fission to Fusion: The Story of India’s Nuclear Power Program) नामक पुस्तक लिखी, जो भारत की परमाणु यात्रा (India’s Nuclear Journey)  के बारे में बात करती है।

जातेजाते डॉ. श्रीनिवासन ने 20 मई 2025 को बेंगलुरु में अंतिम सांस लीं। लेकिन वे जीवन के अंतिम दिनों तक सक्रिय रहे। वे नीति सलाहकार, व्याख्याता और लेखक के रूप में निरंतर योगदान देते रहे। वे हमेशा कहते थे, “भारत का भविष्य उसकी प्रयोगशालाओं और कक्षाओं (Science Education in India) में पल रहा है।” (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अंतरिक्ष अन्वेषक, विज्ञान साधक: जयंत नार्लीकर

डॉ. नवनीत कुमार गुप्ता

भारतीय खगोलशास्त्री (Indian astrophysicist) प्रो. जयंत विष्णु नार्लीकर (Jayant Vishnu Narlikar) ने अंतरिक्ष और ब्रह्मांड के रहस्यों (universe mysteries) को समझने में अहम योगदान दिया, भारत में वैज्ञानिक चेतना को मज़बूत किया, और जीवनपर्यंत विज्ञान को जन-जन तक पहुंचाने (science popularization) का कार्य किया।

जयंत नार्लीकर का जन्म 19 जुलाई 1938 को कोल्हापुर के एक शिक्षित और विद्वान परिवार में हुआ था। उनके पिता विष्णु वासुदेव नार्लीकर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में गणित के प्राध्यापक थे, और उनकी माता सुमती नार्लीकर संस्कृत की विदुषी थीं। घर का शैक्षणिक माहौल जयंत जी को बचपन से ही विद्या और अनुसंधान (motivation for science) की ओर प्रेरित करता रहा।

उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा बनारस से प्राप्त की। आगे की पढ़ाई के लिए वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय (Cambridge university) गए। वहीं उन्होंने मशहूर वैज्ञानिक सर फ्रेड हॉयल (Fred Hoyle) के मार्गदर्शन में शोध कार्य किया। डॉ. नार्लीकर की खगोल भौतिकी में रुचि और प्रतिभा ने उन्हें जल्द ही अंतर्राष्ट्रीय ख्याति (international recognition in astrophysics) दिला दी।

खगोल भौतिकी में योगदान

जयंत नार्लीकर का प्रमुख वैज्ञानिक योगदान स्थिर अवस्था सिद्धांत (steady state theory) के क्षेत्र में रहा। यह सिद्धांत बिग-बैंग सिद्धांत (big-bang theory) के विपरीत ब्रह्मांड के अस्तित्व और विस्तार को निरंतर और शाश्वत (alternative cosmology models) मानता है। इस विचार पर उन्होंने फ्रेड हॉयल और थॉमस गोल्ड के साथ मिलकर काम किया।

हालांकि बिग-बैंग थ्योरी को व्यापक समर्थन मिला, लेकिन जयंत नार्लीकर ने अपने वैकल्पिक सिद्धांतों के माध्यम से हमेशा खगोल भौतिकी में विमर्श और नवाचार को प्रोत्साहित किया। उन्होंने ब्रह्मांड में पदार्थ की उत्पत्ति और उसकी संरचना (origin of matter in universe) पर कई शोधपत्र लिखे।

कुछ समय विदेश में काम करने के बाद वे भारत लौट आए। 1972 में वे टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) से जुड़ गए। 1988 में उन्होंने  पुणे में इंटर-युनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिज़िक्स (IUCAA, astronomy research center) की स्थापना की। IUCAA आज भारत के खगोल वैज्ञानिकों के लिए एक प्रमुख केंद्र है और इसका श्रेय पूरी तरह नार्लीकर की दूरदृष्टि को जाता है।

भारत में खगोल भौतिकी को लोकप्रिय (science outreach) बनाने के लिए उन्होंने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार (international seminars) आयोजित किए, शोधकर्ताओं को प्रोत्साहित किया और विद्यार्थियों को विज्ञान की ओर आकर्षित किया। उनकी अगुवाई में भारत में ब्रह्मांड विज्ञान पर उच्च स्तरीय अनुसंधान हुआ।

विज्ञान संचार और लेखन

डॉ. नार्लीकर न केवल एक महान वैज्ञानिक थे बल्कि एक संवेदनशील लेखक और विज्ञान संप्रेषक (science communicator) भी थे। उन्होंने कई वैज्ञानिक विषयों पर आम जनता के लिए सरल भाषा में पुस्तकें और लेख लिखे। उनकी लेखनी में जटिल सिद्धांत (complex theories) भी सहज रूप से प्रस्तुत होते थे।

उन्होंने मराठी, हिंदी और अंग्रेज़ी में विज्ञान कथाएं और निबंध लिखे, जो आज भी विद्यार्थियों और युवाओं में वैज्ञानिक सोच विकसित करने में सहायक हैं। उनकी कुछ प्रसिद्ध पुस्तकें हैं — ब्रह्मांड की यात्रा, ब्लैक होल्स, साइंस एंड मैथेमेटिक्स: फ्रॉम प्रिमिटिव टू मॉडर्न साइंस और दी रिटर्न ऑफ वामन (उपन्यास) (Indian science fiction)। उनकी कुछ रोमांचक विज्ञान कथाएं हैं – विस्फोट, यक्षोपहार और कृष्ण विवर (Jayant Narlikar books)।

डॉ. नार्लीकर का मानना था कि वैज्ञानिक सोच केवल प्रयोगशालाओं तक सीमित नहीं होनी चाहिए। वे हमेशा वैज्ञानिक दृष्टिकोण को व्यापक सामाजिक सोच का हिस्सा बनाने के पक्षधर (scientific temper in society) रहे। उन्होंने छुआछूत, अंधविश्वास, और रूढ़ियों के खिलाफ खुलकर बोला और लिखा।

उन्होंने शिक्षा प्रणाली में सुधार और वैज्ञानिक शोध को प्रोत्साहन देने की मांग की। वे विज्ञान और अध्यात्म (rational thinking) के संतुलन को भी मान्यता देते थे, परंतु अंधविश्वास के विरोधी (against superstition) थे।

पुरस्कार और सम्मान

डॉ. नार्लीकर को उनके योगदान के लिए अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। इनमें प्रमुख हैं:  पद्म भूषण (1965) (Padma Vibhushan awardee), शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार (1973), पद्म विभूषण (2004), युनेस्को कलिंग पुरस्कार (UNESCO Kalinga Prize), महर्षि व्यास सम्मान, रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी (यूके) की फैलोशिप (Royal astronomical society fellow)। वे कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के सदस्य और अतिथि प्रोफेसर भी रहे।

जातेजाते

20 मई 2025 को डॉ. नार्लीकर इस कौतूहलभरी दुनिया से विदा (Jayant Narlikar death 2025) हो गए। जीवन के अंतिम दिनों में आयुजन्य कारणों से सार्वजनिक कार्यक्रमों में भले ही उनकी उपस्थिति सीमित हो गई थी लेकिन इस दौरान वे सक्रिय रूप से विज्ञान लेखन करते रहे। आज वे हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके स्थापित संस्थान, शोधकार्य, किताबें और विद्यार्थियों को हस्तांतरित उनका ज्ञान और अनुभव धरोहरस्वरूप सदैव हमारे साथ रहेंगे (legacy of Jayant Narlikar, inspirational scientists) । (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पंजों के जीवाश्म से जैव विकास पर नई रोशनी

हाल ही में ऑस्ट्रेलिया में मिले प्राचीन पंजों (Australia fossil discovery) के निशानों ने वैज्ञानिकों को हैरान कर दिया है। इन निशानों से पता चलता है कि सरीसृप (जैसे छिपकली) (ancient reptile footprints) और उनके निकट सम्बंधी शायद हमारे अनुमान से करोड़ों साल पहले ही धरती पर आ गए थे। नेचर पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, ये निशान एम्नीओट्स (early amniotes) प्राणियों ने बनाए होंगे। इस समूह में सरीसृप, पक्षी और स्तनधारी आते हैं।

एम्नीओट्स की खास बात यह है कि ये ज़मीन पर अंडे (land egg-laying animals) देते हैं या भ्रूण को गर्भ में पालते हैं। इन अंडों के चारों ओर एक झिल्ली (amniotic egg evolution) होती है जो उसे सूखने से बचाती है। इन जीवों का अब तक का सबसे प्राचीन जीवाश्म कनाडा से मिला था, जो करीब 31.9 करोड़ साल पुराना था। लेकिन अब ऑस्ट्रेलिया में मिले इन निशानों से पता चलता है कि ये प्राणी इससे भी कम से कम 35 लाख साल पहले (Carboniferous period) से, यानी 35.5 करोड़ साल पहले से मौजूद थे। यह वही समय है जब कार्बोनिफेरस युग (उभयचर जीवों और सरीसृपों के उद्भव के दौर) की शुरुआत हुई थी।

ये निशान ऑस्ट्रेलिया स्थित विक्टोरिया (paleontology site Victoria) इलाके में ब्रोकन नदी (broken river fossil) के किनारे बलुआ पत्थर की एक चट्टान में मिले हैं। वहां के स्थानीय ताउंगुरंग आदिवासी इस जगह को ‘बेरेपिट’ (Indigenous heritage site) कहते हैं। उसी चट्टान में कुछ पुराने जलीय जीवों के अवशेष भी मिले हैं, जो बताते हैं कि ये निशान वाकई उस दौर के हो सकते हैं।

इस प्रकार के नुकीले और मुड़े हुए पंजे सिर्फ सरीसृपों (distinct claw fossil) में पाए जाते हैं, जबकि उभयचरों (जैसे मेंढकों) के ऐसे पंजे नहीं होते हैं। साथ ही पेट या पूंछ घसीटने के कोई निशान नहीं मिले, जिससे लगता है कि ये जानवर चलने (reptilian locomotion) में अपने शरीर को ऊपर उठा सकते थे। हालांकि, कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि शायद ये जीव उथले पानी (shallow water) में चलते होंगे, न कि पूरी तरह सूखी ज़मीन पर।

बहरहाल, यह खोज जीवन के कालक्रम की समझ को बदलती है और बताती है कि ज़मीन पर अंडे देने वाले प्राणी (land animals origin) हमारी सोच से कहीं पहले अस्तित्व में आ चुके थे। (स्रोत फीचर्स)

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एम्बर में छिपे सुनामी के सुराग

म्बर (amber)(राल) पेड़ों से रिसने वाला एक तरह का तरल (resin) पदार्थ है जो रिसने के बाद ठोस हो जाता है। इसमें प्राय: कीट, पेड़-पौधों के अवशेष, फूल-पत्तियां आदि फंसकर अश्मीभूत (fossilized) हो जाते हैं। और एक हालिया अध्ययन बताता है कि यह अपने में न सिर्फ सजीवों की जानकारी बल्कि अतीत में आई सुनामियों (tsunami records in amber) की निशानियां भी कैद कर सकता है।

जापान के होक्काइडो के पास समुद्र की प्राचीन चट्टानों (ancient rocks) में एक एम्बर मिला है। ऐसा लगता है कि यह पानी के अंदर ही सख्त होता गया (amber formation under sea) और अपने भीतर लाखों साल का इतिहास दर्ज करता गया।

भूमि पर तो एम्बर हवा के संपर्क की वजह से जल्दी सख्त (resin hardening) हो जाता है। लेकिन पानी में अधिक समय तक नरम-लचीला बना रहता है। इसी वजह से पानी के तेज़ थपेड़ों के निशान (underwater fossilization) इसमें दर्ज हो जाते हैं। वैज्ञानिकों ने जब इस एम्बर को पराबैंगनी रोशनी (UV Analysis) में देखा, तो इसके अंदर ऐसी आकृतियां दिखाई दीं (wave pattern in fossils) जो आग की लपटों और गेंद व तकिया जैसी थीं, और तेज़ लहरों का संकेत होती हैं।

चट्टानों के पास अश्मीभूत वनस्पतियों के टुकड़े और बहकर आई लकड़ियों के टुकड़े भी मिले हैं, जिससे लगता है कि लौटती सुनामी की ज़ोरदार लहरों के कारण तटवर्ती जंगल का मलबा(tsunami debris) बहकर समुद्र (costal forest fossil) में आ गया था। पास की तलछट की जांच करने पर मालूम हुआ कि ऐसा कई बार हुआ था और करीब 20 लाख वर्षों की अवधि में इस इलाके में कई बार सुनामी (paleotsunami evidence) आई थी।

यह खोज इसलिए खास है क्योंकि तटों पर अतीत में आई सुनामी के सबूत मिलना(ancient disaster records) मुश्किल होते हैं। हवा और लहरें उनके निशान मिटा देती हैं, और सुनामी से हुई क्षति आम तूफानों (tsunami vs storm) जैसी ही लगती है। लेकिन अब लगता है कि एम्बर इनका गवाह (amber as historical archive) बन सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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