भारतीय उपमहाद्वीप की आबादी

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

म, भारत के लोग (Indian population), कहां से और कैसे आए? इस सम्बंध में 2009 में हारवर्ड और एमआईटी युनिवर्सिटी (Harvard University, MIT) के डेविड रीच और सीसीएमबी (हैदराबाद – CCMB Hyderabad) के के. थंगराज और लालजी सिंह ने संयुक्त रूप से एक शोध पत्र लिखा था, जिसका शीर्षक था ‘रिकंस्ट्रक्टिंग इंडियन पॉप्युलेशन हिस्ट्री (भारतीय आबादी के इतिहास का पुनर्निर्माण – Reconstructing Indian Population History)’। इसमें भारत में 25 विविध समूहों का आनुवंशिक विश्लेषण (genetic analysis) किया गया था। इसमें पता चला था कि अधिकांश भारतीयों के पूर्वज जेनेटिक रूप से पृथक दो प्राचीन आबादियों के हैं।  

मेरी सलाह है कि आप यह शोधपत्र डाउनलोड करें और पढ़ें। (लिंक यह रही – https://pmc.ncbi.nlm.nih.gov/articles/PMC2842210/.) खासकर इसमें प्रस्तुत चित्र 1 देखें और तालिका 1 पढ़ें।

हम कितने जुदा हैं? उन्होंने हमारे पूर्वजों के मुख्य रूप से दो अलग समूह पाए हैं। ‘उत्तर भारतीय पूर्वज’ (ANI- Ancestral North Indians) समूह, इस समूह के लोग जेनेटिक रूप से पश्चिम एशिया, मध्य एशिया और युरोप के लोगों के नज़दीकी है। अधिकांश ANI वंशज मुख्य रूप से भारत के उत्तरी राज्यों के रहवासी हैं। दूसरा है ‘दक्षिण भारतीय पूर्वज (ASI- Ancestral South Indians)’ समूह, जो स्पष्ट रूप से ANI से अलग है और इनके पूर्वज पूर्वी युरेशियन मूल के हैं।

एक अधिक विस्तृत विश्लेषण में उन्होंने मध्य एशिया और उत्तरी दक्षिण एशिया के 500 से अधिक लोगों के प्राचीन जीनोम-व्यापी डैटा (ancient DNA data) का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि ASI प्रत्यक्ष वंशज हैं जो दक्षिण भारत में जनजातीय समूहों में रहते हैं। और ऐसा लगता है कि ANI और ASI समूह के लोगों का प्रवास (migration) लगभग 3-4 हज़ार साल पहले हुआ था। इस प्रकार देश भर में उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय (जिन्हें द्रविड़ – Dravidian भी कहा जाता है) लोगों का मिश्रण रहता है।

39-71 प्रतिशत तक ANI वंशज समूह देश भर में पारंपरिक (तथाकथित) उच्च जाति (upper caste population) के लोगों में देखे जाते हैं। लेकिन कुछ दक्षिण भारतीय राज्यों में विशिष्ट ASI वंश वाले लोग दिखते हैं। हालांकि, वास्तविक ASI, जिन्हें AASI भी कहा है, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह (Andaman and Nicobar tribes) के आदिवासी हैं जो लगभग 60,000 साल पहले पूर्वी एशियाई-प्रशांत क्षेत्रों से आकर यहां बसे थे, और सामाजिक या जेनेटिक रूप से भारतीय मुख्यभूमि के निवासियों के साथ घुले-मिले नहीं हैं।

सेल (Cell journal) में प्रकाशित एक हालिया शोधपत्र में बताया गया है कि भारतीय मूल के सभी लोगों की जड़ें एक ही बड़े प्रवास से जुड़ी हैं, जिसमें लगभग 50,000 साल पहले अफ्रीका से मनुष्य बाहर निकले (Out of Africa migration) और फैले थे।

ध्यान दें कि हारवर्ड-सीसीएमबी के शोधपत्र में ‘उच्च जाति’ शब्द का उल्लेख है। तो, ‘जाति व्यवस्था’ (caste system in India) कब आई? यह भेदभावपूर्ण व्यवस्था हिंदुओं में 2000 से अधिक वर्षों से है। इस चार-स्तरीय व्यवस्था में, आदिवासी सबसे निचले पायदान पर हैं। अंतर्जातीय विवाह (inter-caste marriage) बहुत कम होते हैं, और यदि होते भी हैं तो वे हिंसा का कारण बन सकते हैं।

जातीयता और हैप्लोटाइप (ethnicity and haplotype)

प्रो. पी. पी. मजूमदार के दल ने ‘हैप्लोग्रुप’ (haplogroup) नामक पद्धति का उपयोग करके जातीयता का अध्ययन किया था। हैप्लोग्रुप किसी सामाजिक समूह में साझा पितृवंश या मातृवंश के जेनेटिक संकेतक होते हैं। इस शोधपत्र में बताया गया है कि भारत भर की विभिन्न आबादियों के हैप्लोग्रुप विवरण भारत की जाति व्यवस्था की जानकारी देते हैं, जिसमें कुछ पूर्वज घटक जनजातियों में सबसे अधिक, निम्न जातियों में थोड़े कम और उच्च जातियों में सबसे कम पाए जाते हैं।

यह जाति व्यवस्था समय के साथ, विशेष रूप से शिक्षित वर्गों में, लोकतंत्र और देश के आधुनिकीकरण (modernization of India) के साथ धीरे-धीरे बदल रही है। जैसे-जैसे लोग स्कूल-कॉलेज जाने लगे, अधिक भाषाएं सीखने लगे और नौकरियों व अन्य अवसरों के लिए अपने मूल स्थानों से बाहर जाने लगे, अंतर्जातीय और अंतर्क्षेत्रीय विवाह बढ़े। 2011 की जनगणना के अनुसार, अंतर्जातीय विवाह लगभग 6 प्रतिशत और अंतर्धार्मिक विवाह (inter-religious marriage) लगभग एक प्रतिशत हुए थे। यह संभावना है कि आगामी 2027 की जनगणना तक ये संख्याएं, विशेष रूप से शहरी समूहों में, उल्लेखनीय रूप से बढ़ चुकी होंगी। (स्रोत फीचर्स)

लेखक इस लेख पर डॉ. थंगराज की सलाह और टिप्पणियों के लिए आभारी हैं।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मलेरिया रोकथाम के दो नए प्रयास

लेरिया रोकथाम (malaria prevention) के दो नए उपाय सामने आए हैं। एक उपाय में इंसानी खून को मच्छरों के लिए ज़हरीला बनाने का प्रयास किया गया है ताकि काटते ही मच्छर मर जाएं। दूसरे उपाय में कोशिश यह है कि मच्छरों को मलेरिया परजीवी (malaria parasite) के लिए अनुपयुक्त बना दिया जाए।

पहले उपाय में आइवरमेक्टिन (ivermectin drug) नामक एक दवा का उपयोग शामिल है। यह दवा न केवल कृमियों को मारती है बल्कि जूं (lice) जैसे कीटों का भी खात्मा करती है। इसके अलावा जब कोई व्यक्ति इसे गोली के रूप में लेता है, तो उसका खून पीने वाले कीट भी मर जाते हैं।

विचार यह आया कि यदि मच्छर ऐसे व्यक्ति को काटें जिसने हाल ही में आइवरमेक्टिन ली हो, तो क्या वे भी मर जाएंगे? और अगर एक साथ पूरा समुदाय यह दवा ले ले, तो क्या मच्छरों की संख्या घट सकती है?

प्रयोगशाला परीक्षण (laboratory trials) के नतीजे काफी उत्साहजनक रहे। एक दिन पहले आइवरमेक्टिन लेने वाले लोगों के खून पर पले 73 प्रतिशत मच्छर दो दिन में मर गए, जबकि नियंत्रण समूह में केवल 31 प्रतिशत। लेकिन असली चुनौती वास्तविक दुनिया में इसके असर को साबित करना था।

अक्टूबर 2023 में दक्षिण केन्या के क्वाले काउंटी में एक बड़ा परीक्षण बरसात के मौसम की शुरुआत में हुआ, जब मच्छरों की संख्या तेज़ी से बढ़ती है। अध्ययन में 84 बस्तियों को शामिल किया गया था। आधी बस्तियों के लोगों को तीन महीने तक, हर महीने आइवरमेक्टिन दी गई। और बाकी आधों को परजीवी नाशी दवा अल्बेंडेज़ोल (albendazole) दी गई, जो मच्छरों पर कोई असर नहीं करती। अगले छह महीनों में आइवरमेक्टिनसमूह में बच्चों में मलेरिया के नए मामलों में 26 प्रतिशत की कमी आई।

हालांकि कई वैज्ञानिक इस नतीजे से सहमत नहीं है। एक तो, 26 प्रतिशत की कमी व्यापक इस्तेमाल के लिए पर्याप्त नहीं है। दूसरा, यह दवा गर्भवती महिलाओं (pregnant women) और शिशुओं को नहीं दी जा सकती। इसके अलावा बुर्किना फासो के दो परीक्षणों और गिनी-बिसाऊ (Guinea-Bissau trial 2024) के एक परीक्षण में कोई खास फायदा नहीं दिखा था।

हालांकि, केन्या परीक्षण थोड़ा अलग था – दवा बरसात की शुरुआत में ही दे दी गई थी, जब मच्छर तेज़ी से बढ़ते हैं, और कई बार दी गई। एक अतिरिक्त फायदा यह हुआ कि खुजली और जुओं का भी सफाया हो गया।

फिर भी इसकी कई चुनौतियां हैं। गर्भवती महिलाओं और छोटे बच्चों के लिए यह दवा सुरक्षित नहीं है। हर खुराक के बाद दवा खून में कुछ ही दिनों तक प्रभावी रहती है। लंबे समय तक असर करने वाले संस्करणों पर फिलहाल शोध चल रहा है। मलेरिया के मामलों में महज़ 26 प्रतिशत कमी लागत और मेहनत के हिसाब से पर्याप्त नहीं है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का नियम है कि जब तक कम से कम दो बड़े और उच्च-गुणवत्ता वाले परीक्षणों में मज़बूत सुरक्षा न दिखे, किसी तरीके को बड़े पैमाने पर अपनाने की सिफारिश नहीं की जा सकती। शोधकर्ता भी उपरोक्त शंकाओं को दूर करने की दिशा में और शोध कार्य करने की योजना बना रहे हैं।

दूसरा तरीका मच्छरों को ही मलेरिया के खिलाफ हथियार बनाने का है। नेचर पत्रिका (Nature journal) में प्रकाशित एक नए अध्ययन में मच्छरों के जीन में बदलाव (mosquito gene editing) करके उन्हें मलेरिया परजीवी (प्लाज़्मोडियम – Plasmodium parasite) का वाहक बनने से रोकने का प्रयास किया गया है। आगे, जीन ड्राइव नामक तकनीक (gene drive technology) से इस गुण को तेज़ी से मच्छरों की आबादी में फैलाया जा सकता है।

आम तौर पर मच्छर अपने जीन का आधा हिस्सा ही अगली पीढ़ी को देते हैं। लेकिन जीन ड्राइव एक खास आनुवंशिक तकनीक है, जो इस नियम को बदल देती है। यह चुने हुए जीन को लगभग सभी संतानों में पहुंचाती है, जिससे वह तेज़ी से पूरी आबादी में फैल जाता है।

यह तरीका कारगर तो है, लेकिन विवादास्पद (controversial genetic modification) भी है, क्योंकि इससे किसी प्रजाति में स्थायी और बड़े पैमाने पर बदलाव हो सकते हैं, जिनके पर्यावरण पर अनजाने असर पड़ सकते हैं।

इसलिए नए शोध में वैज्ञानिकों ने कृत्रिम जीन बनाने की बजाय, मच्छरों में पहले से प्राकृतिक रूप से मौजूद एक उत्परिवर्तन (mutation) का सहारा लिया। इस उत्परिवर्तन के चलते कुछ एनॉफिलीज़ गैंबिया (Anopheles gambiae) मच्छरों में एक प्रोटीन का थोड़ा बदला हुआ रूप पाया जाता है। यह बदला हुआ प्रोटीन मलेरिया परजीवी को मच्छर के शरीर में अपना जीवन-चक्र पूरा करने में मुश्किल पैदा करता है।

पहले, FREP1 नामक परजीवी-रोधी जीन को एनॉफिलीज़ स्टीफेन्सी मच्छरों में डाला गया।

परिवर्तित मच्छरों ने सामान्य मच्छरों के साथ भोजन और संभोग-साथी पाने के लिए बराबरी से प्रतिस्पर्धा की। यानी यह बदलाव मच्छरों को कमज़ोर तो नहीं बनाता।

जब इन मच्छरों ने सबसे घातक मलेरिया परजीवी प्लाज़्मोडियम फाल्सीपेरम युक्त वाला मानव रक्त पीया, तो उनके शरीर और लार ग्रंथियों में सामान्य मच्छरों की तुलना में बहुत कम परजीवी पाए गए।

दूसरे चरण में, परिवर्तित जीन तेज़ी से फैलाने के लिए वैज्ञानिकों ने मच्छरों में सामान्य जीन को काटकर उसकी जगह प्रतिरोधी संस्करण (resistant gene variant) डाल दिया। नियंत्रित माहौल (controlled environment) में, केवल 10 पीढ़ियों में यह जीन 94 प्रतिशत से अधिक मच्छरों में फैल गया।

वैज्ञानिक उक्त तकनीकों को लेकर उत्साहित हैं, लेकिन सतर्क भी हैं। ये सफल रहे तो भी इनका उपयोग मच्छरदानी (mosquito nets), दवाइयों और कीटनाशकों (insecticides) जैसी अन्य रोकथाम विधियों के साथ मिलाकर ही करना होगा।

और, कुछ सवाल अभी अनुत्तरित हैं। जैसे, क्या मच्छर या मलेरिया परजीवी इस तरह की सुरक्षा के प्रतिरोधी हो जाएंगे? ऐसे मच्छर प्रकृति में छोड़े गए, तो पर्यावरण व पारिस्थितिकी पर दीर्घकालिक (environmental impact) असर क्या होंगे? अनचाहे परिणामों से बचाव कैसे किया जाएगा? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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घड़ियाल संरक्षण के पचास साल: क्या हम सफल हुए?

कुमार सिद्धार्थ

18 जून को विश्व मगरमच्छ दिवस (World Crocodile Day) पर मगरमच्छ संरक्षण परियोजना (crocodile conservation project) की शुरुआत की स्वर्ण जयंती मनाई गई। भारत सरकार ने 1975 में जब घड़ियालों के संरक्षण (Gharial conservation) के लिए व्यापक राष्ट्रीय कार्यक्रम की शुरुआत की थी, तब यह उम्मीद थी कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सरकारी संसाधनों के साथ यह मछलीभक्षी मगरमच्छ — जिसे वैज्ञानिक भाषा में गैवियालिस गैंजेटिकस कहा जाता है — फिर से भारतीय नदियों में आबाद हो सकेगा। लेकिन आज, इस प्रयास के 50 साल बाद, हमें खुद से यह कठिन सवाल पूछना होगा: क्या हम वाकई घड़ियाल को बचा पाए हैं?

जब घड़ियाल की बात होती है, तो अक्सर उसे एक विलुप्तप्राय जलचर (endangered species) के रूप में देखते हैं – एक ऐसा जीव, जो अपने अस्तित्व की अंतिम लड़ाई लड़ रहा है। लेकिन घड़ियाल सिर्फ एक प्रजाति का नाम नहीं है। उसकी उपस्थिति खुद में एक संकेत है, नदी की सेहत(river health), पारिस्थितिकी संतुलन(ecological balance) और जैव विविधता (biodiversity) के प्रति हमारी संवेदनशीलता का।

घड़ियाल, अपनी पतली लंबी थूथन और मछलियों पर निर्भरता के कारण नदी पारिस्थितिकी river ecosystem) का एक अनूठा जीव है। 20वीं सदी के आरंभ तक यह प्रजाति सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी और इरावदी जैसे विशाल नदी तंत्रों में व्यापक रूप से पाई जाती थी। लेकिन 1940 के दशक में इसकी संख्या मात्र 5-10 हज़ार के बीच रह गई और 1970 के दशक तक यह 98 फीसदी से अधिक क्षेत्र से गायब हो चुकी थी।

इसी संकट को देखते हुए, 1975 में भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO – Food and Agriculture Organization) और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP – United Nations Development Programme) के सहयोग से क्रोकोडाइल कंज़र्वेशन प्रोजेक्ट (Crocodile Conservation Project) की शुरुआत की थी। इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य देश की तीन दुर्लभ घड़ियाल (मगरमच्छ) (Gharial) प्रजातियों, मगर (Mugger crocodile) और खारे पानी के मगरमच्छ (Saltwater crocodile) को संरक्षित करना था। यह परियोजना ‘पालन और पुनःप्रक्षेपण’ विधि का उपयोग करके, बंदी अवस्था में मगरमच्छों को पालने और फिर उन्हें प्राकृतिक आवासों में छोड़ने पर केंद्रित थी। इसके अंतर्गत देश भर में 16 मगरमच्‍छ पुनर्वास केंद्र (crocodile rehabilitation centres) और 11 मगरमच्छ अभयारण्यों की स्थापना की गई। इनमें नेशनल चंबल सैंक्चुरी, कटर्नियाघाट, सतकोसिया, सोन घड़ियाल अभयारण्य और केन घड़ियाल अभयारण्य मुख्‍य है।

हाल की वार्षिक गणनाओं के अनुसार, आज भारत में वयस्क घड़ियालों की संख्या मात्र 650 के आसपास है, जिनमें से 550 नेशनल चंबल सैंक्चुरी में ही सीमित हैं। सवाल उठता है कि आधी सदी चले इस विशाल संरक्षण कार्यक्रम का परिणाम इतना सीमित क्यों है?

इसका जवाब संरक्षण की मूल रणनीति में निहित है — हमने बार-बार बंदी प्रजनन (captive breeding) और पुनःप्रक्षेपण पर बल दिया, लेकिन उनकी प्राकृतिक निवास (natural habitat) — नदियां — निरंतर संकट में रहीं।

घड़ियाल की मौजूदगी यह भी दर्शाती है कि वह नदी अब भी जीवित है, उसमें प्रदूषण नहीं फैला है, उसमें प्रवाह बचा है, और उसमें जीवन पल रहा है। इसलिए वैज्ञानिक घड़ियाल को एक ‘जैव संकेतक’ मानते हैं – एक ऐसा जीव जो हमें बिना कुछ कहे यह बता देता है कि नदी कितनी स्वस्थ है।

घड़ियालों के जीवित रहने का पूरा दारोमदार नदियों पर है। वे खुले, बहावयुक्त नदी प्रवाह(free-flowing rivers), रेत के टीलों (sandbanks) और मछलियों की पर्याप्त उपलब्धता वाले वातावरण में ही पनप सकते हैं। लेकिन इन पांच दशकों में भारतीय नदियां बेतहाशा रेत खनन(illegal sand mining), बांधों(dams), बैराजों(barrages), प्रदूषण और अवैध मछली पकड़ने (illegal fishing) के कारण क्षतिग्रस्त हुई हैं।

विशेषज्ञों के अनुसार, चंबल जैसे क्षेत्रों में अत्यधिक और अवैध रेत खनन ने घड़ियालों के घोंसले (nesting sites) बनने वाली रेत पट्टियों को नष्ट कर दिया है। कई क्षेत्रों में तो घोंसले लगभग समाप्त हो चुके हैं। घड़ियालों की 90 फीसदी से अधिक मौतें मॉनसून के बाद पहले तीन महीनों में होती हैं — यह दिखाता है कि केवल अंडे देना और बच्चे निकलना पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनका जीवित रहना ही असली चुनौती है। घड़ियाल का संरक्षण अपने आप में रेत खनन पर नियंत्रण की मांग को जन्म देता है, जो बाढ़ नियंत्रण से लेकर जलप्रवाह की गुणवत्ता तक, कई प्राकृतिक संतुलनों को बनाए रखने में सहायक होता है।

मद्रास क्रोकोडाइल बैंक ट्रस्ट (Madras Crocodile Bank Trust) द्वारा 2008 में शुरू किए गए घड़ियाल इकॉलॉजी प्रोजेक्ट (Gharial Ecology Project) के प्रमुख अन्वेषक प्रो. जेफरी लैंग के अनुसार “अब ज़रूरत है कि हम नदी पारिस्थितिकी की संपूर्णता पर ध्यान दें। घड़ियाल संरक्षण के प्रयास तब तक सार्थक नहीं होंगे जब तक कि नदियां अपने प्राकृतिक रूप में मुक्त बहने वाली न हों, उनमें बांध/बैराज न्यूनतम हों और रेत खनन नियंत्रित हो।”

इसी तरह, नेचर कंज़र्वेशन सोसाइटी के सचिव राजीव चौहान कहते हैं, “बंदी प्रजनन और पुनर्वास केवल एक ‘बैंड-ऐड’ उपाय है। जब तक हम प्रवाह, मत्स्य पालन और रेत खनन पर सख्त नियंत्रण नहीं रखते, तब तक मगरमच्छों के पुनर्वास के प्रयास व्यर्थ है।”

ओडिशा ही एकमात्र राज्य है, जहां तीनों मगरमच्छ प्रजातियां – खारे पानी के मगर (भितरकनिका – Saltwater crocodile – Bhitarkanika), घड़ियाल (सतकोसिया – Gharial – Satkosia) और मगरी (सिमलीपाल – Mugger – Simlipal) – पाई जाती हैं। पश्चिम बंगाल में सुंदरबन के बाद भितरकनिका भारत का दूसरा सबसे बड़ा मैंग्रोव वन (mangrove forest) है। दोनों क्षेत्र भारत में खारे पानी के मगरमच्छों के तीन गढ़ों में से हैं; तीसरा अंडमान और निकोबार द्वीप समूह है। वर्ष 2025 की जनगणना में 1826 खारे पानी के मगर, 16 घड़ियाल और लगभग 300 मगरी गिने गए। हालांकि यह संरक्षण की सफलता (wildlife conservation success) दर्शाता है, लेकिन हाल ही में भितरकनिका और उसके आसपास के इलाकों में इंसानों और मगरमच्छों के बीच संघर्ष (human-crocodile conflict) बहुत बढ़ गया है। पिछले साल जून और अगस्त के बीच पार्क और उसके आसपास मगरमच्छों के हमलों में एक 10 वर्षीय लड़के सहित छह लोगों की मौत हो गई थी। वहां अब इन इलाकों में बाड़बंदी और चेतावनी प्रणाली जैसे उपाय लागू किए जा रहे हैं।

एक ताज़ा अध्ययन (climate change impact on gharial habitat) में पाया गया है कि आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन से घड़ियालों के लिए उपयुक्त क्षेत्र 36 फीसदी से 145 फीसदी तक बढ़ सकता है – विशेषत: उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, असम, उत्तराखंड जैसे राज्यों में। वहीं ओडिशा और राजस्थान जैसे राज्य शायद अपनी उपयुक्तता खो बैठेंगे।

अध्ययनकर्ताओं ने सिफारिश की है कि ब्रह्मपुत्र और महानदी घाटियों में संभावित क्षेत्रों का मैदानी सर्वेक्षण किया जाए, उन्हें संरक्षित क्षेत्र घोषित किया जाए, और स्थानीय समुदायों को संरक्षण प्रक्रिया में सहभागी बनाया जाए।

घड़ियाल संरक्षण के 50 वर्षों का अनुभव हमें यही सिखाता है कि सिर्फ प्रजाति पर केंद्रित नीतियां नाकाफी है। जब तक हम नदियों को, उनके प्रवाह को, उनकी जैव विविधता को, उनके किनारे के समुदायों को संरक्षण नीति का हिस्सा नहीं बनाएंगे, तब तक घड़ियाल जैसे जीव केवल सरकारी आंकड़ों में ही जीवित रहेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टमाटर – एक सेहतमंद सब्ज़ी

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

दुनिया भर के दैनिक आहार में टमाटर (tomato) का एक ज़रूरी घटक बन जाना एक दिलचस्प कहानी है। योलांडा इवांस ने नेशनल जियोग्राफिक (National Geographic) पत्रिका के 5 जून, 2025 के अंक में मिथकों (tomato myths) और लोककथाओं के माध्यम से टमाटर के बढ़ते चलन के बारे में लिखा है, और बताया है कि कैसे टमाटर हमेशा से एक लोकप्रिय सब्ज़ी नहीं था।

एक समय था जब इन्हें दुष्ट, बदबूदार और ‘ज़हरीले सेब’ (poisonous apples) माना जाता था। इन्हें अंधविश्वास और बीमारी से जोड़कर देखने का प्रमुख कारण यह था कि तांबे के बर्तनों में रखने पर इनकी अभिक्रिया लेड से होती थी। न्यू जर्सी के सलेम के किसानों द्वारा टमाटर पकाने के लिए एक अधिक उपयुक्त बर्तन के इस्तेमाल ने अमेरिका (tomato history in America) में लोगों की राय बदल दी।

टमाटर भारत (tomato in India) की देशज वनस्पति नहीं थी, बल्कि ये 15वीं शताब्दी में पुर्तगाली व्यापारियों के साथ यहां आए थे। फिर 16वीं शताब्दी में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने इन्हें अपनाया, और पूरे देश में इनकी खेती शुरू की और इन्हें अपने भोजन में शामिल किया। लेकिन लोग तब भी टमाटर को लेकर एहतियात बरतते थे। जैसा कि स्वतंत्र पत्रकार सुश्री सोहेल सरकार ने लिखा है, 1938 में चिकित्सक डॉ. तारा चितले और उनके सहयोगियों ने लोगों को सर्दी-ज़ुकाम, स्कर्वी और आयरन की कमी के इलाज में टमाटर (tomato for vitamin C & iron) के फायदों के बारे में समझाने की कोशिश की थी, लेकिन लोगों की प्रतिक्रिया ठंडी ही रही।

बदलाव आखिरकार तब आया जब ज़्यादा से ज़्यादा यात्रियों ने हमारे आहार में टमाटर शामिल करने की सिफारिश की, और भारत में राष्ट्रीय पोषण संस्थान (National Institute of Nutrition) के विशेषज्ञों ने हमारे दैनिक आहार में विटामिन और खनिजों के महत्व और टमाटर में इनकी प्रचुरता के बारे में बताया।

स्वास्थ्य लाभ

वनस्पति विज्ञान में टमाटर को एक फल (tomato as fruit) माना जाता है। कैलिफोर्निया की आहार और जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ (diet & public health expert) सुश्री सिंथिया सास ने भी सेहत के लिए टमाटर के फायदे बताए हैं। इनमें से कुछ फायदे हैं – टमाटर एंटीऑक्सीडेंट (antioxidants in tomato) से समृद्ध फल है, एंटीऑक्सीडेंट हृदय और मस्तिष्क को स्वस्थ रखते हैं। टमाटर में ऐसे पोषक तत्व होते हैं जो हृदय रोग के जोखिम को काफी कम कर देते हैं। टमाटर का अधिक सेवन उच्च रक्तचाप (tomato for blood pressure) को कम करता है (वरिष्ठ नागरिक ध्यान दें)। टमाटर में मौजूद सेल्यूलोज़ रेशेदार पदार्थ कब्ज़ की दिकक्त को दूर रखते हैं। टमाटर में लाइकोपीन (lycopene benefits) नामक लाल कैरोटीनॉयड वर्णक 70 वर्ष से अधिक आयु के लोगों को अल्ज़ाइमर की समस्या से बचने में मदद कर सकता है। सुश्री सास की सलाह है कि टमाटर पकाने से पहले यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि वे अच्छी तरह से धुले हुए हों और धूल-जनित कीटाणुओं से मुक्त हों।

टमाटर की खेती (tomato cultivation) पूरे भारत में की जाती है, और प्रति एकड़ 5,000 से 10,000 पौधे लगाए जाते हैं। तेलंगाना कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जयशंकर का अनुमान है कि भारत में वर्ष 2022-2023 में 210 लाख टन टमाटर का उत्पादन हुआ था, जो चीन (680 लाख टन) (China tomato production) के बाद दूसरे नंबर पर था। टमाटर की खेती करने वाले शीर्ष सात राज्य हैं: मध्य प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, गुजरात और तमिलनाडु। बैंगलुरु स्थित भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान (Indian Institute of Horticultural Research) टमाटर की विभिन्न किस्मों पर शोध कर रहा है। इनमें से एक है ‘अर्क रक्षक’ (Ark Rakshak tomato variety) नामक किस्म, जो कि एक रोग-प्रतिरोधी संकर किस्म है। दूसरी है ‘अर्क श्रेष्ठ’ (Ark Shreshta tomato variety) किस्म जो लंबे समय तक खराब न होने वाले टमाटर की पैदावार के लिए तैयार की जा रही है, ताकि इनका परिवहन (निर्यात – tomato export) आसान हो सके।

आज, देश का लगभग हर घर अपने भोजन में टमाटर का उपयोग करता है। वर्तमान भारतीय व्यंजनों (Indian cuisine with tomato) में टमाटर किसी न किसी रूप में शामिल है – चाहे टमाटर का सूप हो, चटनी हो, सालन हो या रसम, सैंडविच, बर्गर, पिज़्ज़ा हो या फिर सॉस (tomato sauce) के रूप में।

टमाटर का स्वाद चखने के बाद और यह जानने के बाद कि यह दुष्ट नहीं है, बल्कि इसके कई स्वास्थ्य लाभ हैं, चलिए टमाटर डालकर कुछ पकाएं और मज़े से खाएं! (स्रोत फीचर्स)

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शार्क हमलों से एक द्वीप बना अनुसंधान केंद्र

भी सर्फिंग (surfing destination) और पर्यटन (island tourism) के लिए मशहूर हिंद महासागर का फ्रांसीसी रीयूनियन द्वीप (Reunion Island) आज एक अलग ही वजह से वैज्ञानिकों का ध्यान खींच रहा है – शार्क हमलों (shark attacks) का खतरा।

हमलों का सिलसिला फरवरी 2011 में शुरू हुआ था; अगले आठ सालों में इस द्वीप के आसपास शार्क ने 30 लोगों पर हमला किया, जिनमें से 11 की मौत हो गई। इन हमलों के चलते इस द्वीप को ‘शार्क द्वीप’ या ‘शार्क संकट’ (shark crisis) कहा जाने लगा।

हमलों के चलते समुद्र तट बंद कर दिए गए, सर्फिंग और तैराकी पर रोक लगा दी गई। पर्यटन बुरी तरह प्रभावित हुआ। लेकिन इसी संकट ने वैज्ञानिक शोध (shark research) का एक मौका भी दिया। फ्रांस सरकार ने शार्क के व्यवहार को समझने, तटों की सुरक्षा बढ़ाने और नई तकनीकें विकसित करने के लिए करोड़ों यूरो का निवेश किया। रीयूनियन द्वीप शार्क अनुसंधान का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया।

शार्क हमलों को समझना

शार्क की संख्या और उनकी गतिविधियों को लेकर ज़्यादा जानकारी नहीं थी, इसलिए इन हमलों का कोई कारण समझ नहीं आ रहा था। तब फ्रांस सरकार ने CHARC नामक एक रिसर्च प्रोग्राम (CHARC shark research program) शुरू किया। यह कार्यक्रम दो प्रमुख शार्क प्रजातियों – बुल शार्क (Carcharhinus leucas) एवं टाइगर शार्क (Galeocerdo cuvier) – पर केंद्रित था, जो ज़्यादातर हमलों के लिए ज़िम्मेदार मानी गई थीं। मकसद था इनके व्यवहार, प्राकृतवास और आवाजाही को समझना, ताकि भविष्य में ऐसे टकरावों को रोका जा सके।

CHARC प्रोजेक्ट से कई अहम जानकारियां मिलीं। वैज्ञानिकों ने पाया कि टाइगर शार्क एक तय मौसम में ही आती थीं और उन्हें गहरा पानी पसंद है। दूसरी ओर, बुल शार्क साल भर मौजूद रहती थीं और अक्सर तट के बेहद करीब तक आ जाती थीं।

हमलों का कारण

इन हमलों में बढ़ोतरी के पीछे कई कारण थे। सबसे बड़ा कारण इंसानों की बढ़ती गतिविधियां (human-shark interaction) थीं। 1980 से 2016 के बीच रीयूनियन द्वीप की आबादी 67 प्रतिशत बढ़ गई थी और साथ ही तैराकी और सर्फिंग भी, जिससे शार्क से सामना होने की संभावना भी बढ़ी।

इसके अलावा, ज़मीन के इस्तेमाल और नई निर्माण परियोजनाओं का भी प्रभाव पड़ा। 2000 के दशक में एक बड़ा सिंचाई प्रोजेक्ट (irrigation project) शुरू हुआ, जिससे द्वीप के पूर्वी हिस्से का पानी पश्चिमी हिस्से की ओर मोड़ा गया। इससे खेतों से निकला पानी समुद्र में बहने लगा और तटीय पानी की लवणीयता घट गई। बुल शार्क को कम लवण वाला पानी पसंद है। नतीजतन, वे पश्चिमी तटों पर ज़्यादा आने लगीं। यही तट सर्फरों के बीच भी सबसे लोकप्रिय थे।

शार्क हमलों में बढ़ोतरी के पीछे कुछ अन्य कारण भी हैं। जैसे, 2007 में समुद्री जीवन की रक्षा के लिए एक समुद्री संरक्षण क्षेत्र (marine protected area) बनाया गया था। इससे मछलियों की संख्या बढ़ी जो शार्क का भोजन हैं। साथ ही, 1990 के दशक के मध्य में मेडागास्कर द्वीप में विषैला संक्रमण फैलने से शार्क का मांस बेचना बंद कर दिया गया। इससे शार्क पकड़ने में कमी आई, और उनकी संख्या बढ़ने लगी।

यानी शार्क संकट पर्यावरणीय बदलाव, इंसानी गतिविधियों, और शार्क की स्थानीय स्थिति को ठीक से न समझने का मिला-जुला परिणाम था।

बचाव के नए प्रयास

जनता के बढ़ते दबाव को देखते हुए सरकार ने 2016 में शार्क सुरक्षा केंद्र (shark security center) की स्थापना की थी। इसका उद्देश्य एक ऐसा रास्ता निकालना था जिससे शार्क हमले कम हों, लेकिन समुद्री पर्यावरण भी सुरक्षित रहे।

इस दिशा में एक बड़ा कदम इलेक्ट्रिक डेटरेंट्स (electric shark deterrents) था। ये पहनने योग्य उपकरण होते हैं जो बिजली के हल्के झटके छोड़ते हैं जिससे शार्क दूर रहती है।

उपकरणों की जांच में नतीजे मिले-जुले रहे – एक उपकरण 43 प्रतिशत मामलों में कारगर रहा, बाकी उससे भी कम मामलों में। फिर आशंका इस बात की भी थी कि समय के साथ शार्क इन झटकों की आदी हो गईं तो? फिर भी इन निष्कर्षों के आधार पर नियम सख्त कर दिए गए हैं। अब रीयूनियन में कुछ क्षेत्रों में सर्फिंग करने वालों को इलेक्ट्रिक डेटरेंट पहनना अनिवार्य है।

इसके अलावा, ड्रोन (drone surveillance for sharks) का उपयोग भी शार्क की निगरानी के लिए किया गया, लेकिन यहां की गंदी और गहरे रंग की रेत के चलते ड्रोन से शार्क को पहचानना मुश्किल था। विकल्प के रूप में पानी के अंदर एआई तकनीक से लैस कैमरे (AI underwater cameras), गोताखोर और समुद्री जाल जैसी रक्षात्मक व्यवस्थाएं भी आज़माई गईं।

दुनिया भर में जो एक तकनीक सबसे खास रही, वह थी SMART ड्रमलाइन (Shark Management Alert in Real Time)। इसमें चारा लगे हुक होते हैं जो शार्क को पकड़ते हैं, लेकिन जैसे ही कोई जीव फंसता है, यह उपकरण सैटेलाइट से तुरंत अलर्ट भेज देता है। फिर अधिकारी तुरंत मौके पर पहुंचकर देखते हैं, यदि कोई अन्य जीव फंसा हो तो उसे छोड़ दिया जात है, और अगर शार्क खतरनाक हो तो स्थिति अनुसार उसे मार भी देते हैं।

शार्क सिक्यूरिटी सेंटर के निदेशक माइकल होरॉ मानते हैं कि सुरक्षा और समुद्री जीवन संरक्षण के बीच संतुलन बनाना आसान नहीं है। अब रीयूनियन प्रशासन का रुख थोड़ा नरम हुआ है। अब वे छोटी टाइगर शार्क को छोड़ देते हैं, और उन्हें टैग कर ट्रैक करने की योजना बना रहे हैं।

बहरहाल, 2019 के हमले के बाद से अब तक रीयूनियन द्वीप पर कोई जानलेवा शार्क हमला नहीं हुआ है। द्वीप का समुद्री पर्यटन धीरे-धीरे बहाल हो रहा है। तैराकी पर लगे प्रतिबंधों में भी ढील दी गई है। और दुनिया भर से वैज्ञानिक रीयूनियन आ रहे हैं ताकि इस द्वीप से पूरी दुनिया के लिए कुछ सबक ले सकें।

एक सबक

समुद्र जीवविज्ञानी (marine biologist) अर्नो गॉथियर कहते हैं कि लोग शार्क को अक्सर दो नज़रियों देखते हैं – या तो बेचारी के रूप में, या फिर हमलावर (shark predator perception) के रूप में। लेकिन सच्चाई इन दोनों के बीच कहीं है। वे समुद्र में स्वतंत्र रूप से विचरने वाले जीव हैं, शायद खतरनाक भी हो सकते हैं, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वे हर इंसान को मारने की फिराक में रहते हैं।

ज़रूरत तो इस बात की है कि हम न सिर्फ शार्क के व्यवहार को समझें बल्कि प्रकृति के कामकाज (marine ecosystem balance) में टांग अड़ाने के अपने व्यवहार पर भी थोड़ा नियंत्रण करें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.thesun.co.uk/wp-content/uploads/2021/05/KH-COMPOSITE-SHARK-REUNION-ISLAND-v2.jpg?w=620