आम तौर पर हकलाने (Stuttering) को एक व्यवहारगत दिक्कत (Behavioral Problem) माना जाता है और डांट-फटकारकर उसे दुरुस्त करने के प्रयास किए जाते हैं या उस व्यक्ति को शांत रहकर अपनी वाणि पर नियंत्रण करने की सलाह दी जाती है। हकलाने की समस्या दुनिया भर में लगभग 1 प्रतिशत लोगों को परेशान करती है। ये 7 करोड़ लोग विभिन्न भाषाएं बोलते हैं और विभिन्न पूर्वज समुदायों के वंशज हैं। यह समस्या आम तौर पर शुरुआती बचपन में शुरू होती है और अधिकांश लोग जल्दी ही इससे उबर जाते हैं लेकिन कुछ लोग बड़प्पन में प्रभावित रहते हैं।
दशकों के अनुसंधान से पता चला है कि हकलाना एक अनैच्छिक दिक्कत है और यह विरासत (Genetic Disorder) में भी मिल सकती है। इसके कारणों पर से कुछ धुंध छंटी है। इसमें एक कंपनी 23andMe के पास उपलब्ध सूचना से मदद मिली है। यह कंपनी डीएनए (DNA Testing) सम्बंधी निजी मदद करती है। लगभग 11 लाख लोगों के डीएनए के 57 खंडों को पहचाना गया है जिनके बारे में अंदाज़ था कि उनका सम्बंध हकलाने से है।
नेचर जेनेटिक्स (Nature Genetics) में प्रकाशित इस अध्ययन में बताया गया है कि इसमें जो जीन्स शामिल हैं उनका सम्बंध दिमाग (Brain Function) के कामकाज और लय-ताल के एहसास से है। अध्ययन से यह भी लगता है कि शायद हकलाने का सम्बंध ऑटिज़्म (Autism) और अवसाद जैसे स्थितियों से भी है। माना जा रहा है कि इस खोज से हमें हकलाने के जैविक कारकों और उसके उपचार (Treatment) के लिए दिशा मिलेगी।
2000 के दशक की शुरुआत में शोधकर्ताओं के पास न तो इतना बड़ा जेनेटिक डैटाबेस (Genetic Database) था और न ही उसके विश्लेषण के लिए सशक्त कंप्यूटर थे कि वे आम आबादी में हकलाने का सम्बंध जीन्स से खोज सकें। लिहाज़ा वे पाकिस्तान और अफ्रीका के एकरूप समुदायों में जेनेटिक पैटर्न पर ध्यान देते थे। उन्होंने कुछ संभावित डीएनए खंड और कुछ उत्परिवर्तन खोजे भी थे। लेकिन उन छोटे-छोटे अध्ययनों को सामान्य आबादी पर लागू करना संभव नहीं था।
ताज़ा अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 23andMe की मदद ली। उन्होंने दो समूहों के लोगों के जेनेटिक पैटर्न (Genetic Pattern) की तुलना की – 99,076 ऐसे लोग जिन्होंने कहा था कि वे हकलाते हैं और 9,81,944 ऐसे लोग थे जिन्होंने ‘ना’ कहा। इस तुलना के परिणामस्वरूप 57 ऐसे जेनेटिक खंड निकले जो थोड़ी हद तक हकलाने की संभावना बढ़ा सकते हैं। यानी हकलाना एक जटिल, बहुजीन आधारित समस्या है, अनिद्रा (Insomnia) और टाइप-2 मधुमेह के समान।
इस अध्ययन में कुछ जीन्स ऐसे भी पहचाने गए हैं जो शायद यह समझने में मदद करें कि हकलाने की समस्या की उत्पत्ति कहां से होती है। ऐसा सबसे सशक्त संकेत VRK2 जीन (VRK2 Gene) में मिला। इस जीन का सम्बंध शुरुआती तंत्रिका विकास से देखा गया है और इसके परिवर्तित रूप शिज़ोफ्रेनिया (Schizophrenia), मिर्गी, और मल्टीपल स्क्लेरोसिस से जुड़े पाए गए हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसका सम्बंध संगीत की ताल के साथ ताली देने में दिक्कत से देखा गया है।
यह शोध का विषय रहा है कि ताल (Rhythm) के साथ कदमताल न कर पाने का सम्बंध हकलाने से हो सकता है और यह अध्ययन इसे बल देता है।
अध्ययन में चिंहित 20 जीन्स एक और सुराग देते हैं। इनका सम्बंध पहले भी ऑटिज़्म, एकाग्रता के अभाव व अति-सक्रियता (ADHD) वगैरह से देखा गया है। यानी संभव है कि इन सबमें एक से विकास पथ शामिल हैं।
अध्ययन से एक बात तो साफ है। हकलाना कोई व्यवहारगत या भावनात्मक समस्या (Emotional Disorder) नहीं है और इसकी बुनियाद में तंत्रिका का कामकाज है। वैसे इस अध्ययन की कई सीमाएं हैं। इसमें पुरुषों की भागीदारी ज़्यादा थी और एशियाई तथा अफ्रीकी लोगों का प्रतिनिधित्व भी कम था। शोधकर्ताओं का कहना है कि वे फिलहाल कोई ‘ऑन-ऑफ’ स्विच नहीं दे सकते। बहरहाल, यह अध्ययन हकलाने के साथ जुड़े सामाजिक पूर्वाग्रहों (Social Stigma) और धारणाओं को दूर करने में ज़रूर मदद कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.z78m5m5/full/_20250728_on_stuttering-1753902911443.jpg
अवसाद (Depression) आज दुनिया की सबसे आम मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health) समस्याओं में से एक है, जो व्यक्ति के सोचने, महसूस करने और जीने के तरीके को प्रभावित करती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दुनिया भर में लगभग 28 करोड़ लोग यानी करीब 5 प्रतिशत वयस्क अवसाद से पीड़ित हैं।
गौरतलब है कि लंबे समय से अवसाद और चिंता (Anxiety) को दिमाग की रासायनिक प्रक्रिया, जीन या जीवन की परिस्थितियों से जोड़ा जाता रहा है। लेकिन अब शोध से यह पता चला है कि हमारी आंतों में मौजूद सूक्ष्मजीव संसार – यानी बैक्टीरिया (Bacteria), फफूंद और अन्य सूक्ष्मजीवों का विशाल संसार – हमारे मूड को नियंत्रित करने में बड़ी भूमिका निभाता है।
शुरुआत में वैज्ञानिकों ने बस एक सह-सम्बंध देखा था: जिन लोगों को अवसाद या चिंता थी, उनके आंतों में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीव स्वस्थ लोगों से अलग थे। फिर 2016 के दो अलग-अलग अध्ययनों में जब अवसाद से पीड़ित मनुष्यों की विष्ठा (Fecal Transplant) चूहों की आंत में डाली गई, तो चूहों में भी अवसाद जैसे लक्षण दिखने लगे। वे आनंद या खुशी का अनुभव करने में रुचि खो बैठे, उनमें चिंता जैसी हरकतें दिखीं और उनके मस्तिष्क की रासायनिक प्रक्रियाएं भी बदल गई।
इस खोज से यह स्पष्ट हुआ कि मानसिक बीमारियां (Mental Illness) सिर्फ जीन या किसी सदमे से नहीं होतीं, बल्कि सूक्ष्मजीवों के ज़रिए भी ‘स्थानांतरित’ हो सकती हैं। इससे एक नया सवाल उठा: अगर अस्वास्थ्यकर सूक्ष्मजीव बीमारी फैला सकते हैं, तो क्या स्वस्थ सूक्ष्मजीव हमें फिर से स्वस्थ बना सकते हैं?
जवाबों की ओर पहला कदम
इससे प्रेरित होकर, युनिवर्सिटी ऑफ कैलगरी की मनोचिकित्सक वैलेरी टेलर ने मनुष्यों पर परीक्षण शुरू किए। उन्होंने बाइपोलर डिसऑर्डर (Bipolar Disorder) जैसी बीमारियों से शुरुआत की जिन्हें ठीक करना सबसे मुश्किल माना जाता है। उनका सोचना था कि अगर उस मामले में विष्ठा सूक्ष्मजीव प्रत्यारोपण (फीकल माइक्रोबायोटा ट्रांसप्लांट, FMT) कारगर साबित होता है, तो यह अन्य बीमारियों में भी मदद कर सकता है।
शुरुआती अध्ययनों में दिखा कि आंतों के सूक्ष्मजीव संसार में बदलाव से मूड बेहतर हो सकता है। हालांकि FMT हर व्यक्ति पर एक जैसा असर नहीं करता, लेकिन कुछ मरीज़ों के लिए यह ज़िंदगी बदल देने वाला साबित हुआ। लेकिन एक समस्या है: FMT से यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि कौन-से विशेष सूक्ष्मजीव इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। यह किसी खास बैक्टीरिया को नहीं बल्कि पूरे सूक्ष्मजीव संसार का पुनर्गठन करता है। शुरुआत के लिए तो ठीक है, लेकिन बहुत सटीक नहीं।
इसी कमी को दूर करने के लिए वैज्ञानिक अब साइकोबायोटिक्स (Psychobiotics) पर काम कर रहे हैं – यानी ऐसे फायदेमंद बैक्टीरिया (Probiotics – प्रोबायोटिक्स के रूप में) जो मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर करते हैं। कुछ छोटे मानव परीक्षण बताते हैं कि इलाज के लिए अपने आप में इनकी क्षमता सीमित है, लेकिन साइकोबायोटिक्स अवसादरोधी दवाइयों का असर बढ़ा सकते हैं।
इस सम्बंध में वैज्ञानिकों का ध्यान आहार (Diet) पर भी रहा है। हमारा आहार हमारी आंत के सूक्ष्मजीव संसार को गहराई से प्रभावित करता है। 2017 में ऑस्ट्रेलिया में हुए एक मशहूर अध्ययन में पाया गया था कि मेडिटेरेनियन डाइट (जिसमें फल, सब्ज़ियां, दालें, मछली और साबुत अनाज अधिक हों) (Mediterranean Diet) अपनाने से प्रतिभागियों में अवसाद के लक्षण काफी कम हुए। भोजन से शरीर को प्रोबायोटिक्स मिलते हैं। ये ऐसे तत्व हैं जिन पर अच्छे बैक्टीरिया पनपते हैं और इस तरह एक स्वस्थ सूक्ष्मजीव समुदाय विकसित होता है।
शुरुआती नतीजे उत्साहजनक हैं, लेकिन यह क्षेत्र अभी नया है और इसमें कई सवाल बाकी हैं। जैसे, मानसिक स्वास्थ्य के लिए कौन-से खास सूक्ष्मजीव सबसे ज़्यादा ज़रूरी हैं? फायदा सूक्ष्मजीवों की विविधता से होता है या कुछ खास सूक्ष्मजीवों की उपस्थिति या अनुपस्थिति से? कितने समय तक सूक्ष्मजीव संसार में बदलाव बने रहने चाहिए ताकि लक्षणों में सुधार दिखे? प्रोबायोटिक्स का असर इसलिए है कि वे अवसादरोधियों (Antidepressants) की क्षमता बढ़ाते हैं या वे एक बिल्कुल अलग प्रक्रिया से काम करते हैं?
वैज्ञानिक भविष्य में मानसिक स्वास्थ्य की ऐसी चिकित्सा (Treatment) की कल्पना कर रहे हैं, जिसमें इलाज का तौर-तरीका मरीज़ की आंतों के सूक्ष्मजीवों के अनुसार तय किया जाएगा। इसके लिए बड़े पैमाने पर नैदानिक परीक्षण; जीन, प्रोटीन, मेटाबोलाइट्स वगैरह का अध्ययन (‘मल्टीओमिक्स’); और मस्तिष्क इमेजिंग (Brain Imaging) को सूक्ष्मजीव संसार के आंकड़ों के साथ जोड़कर देखने की ज़रूरत होगी। ये प्रयोग महंगे हैं, लेकिन अब लागत धीरे-धीरे कम हो रही है।
सबसे बड़ी रुकावट तो यह है कि कंपनियां इसमें भारी निवेश नहीं करना चाहतीं क्योंकि दवा कंपनियां दवाइयों पर तो पेटेंट ले सकती हैं, उन्हें आसानी से बेच सकती हैं और मुनाफा कमा सकती हैं। लेकिन प्रोबायोटिक्स या डाइट प्लान को इस तरह बेचना मुश्किल है।
अवसाद या मानसिक समस्याओं से पीड़ित लोगों के सूक्ष्मजीव संसार पर आधारित इलाज (Gut Microbiome Therapy) एक नया नज़रिया है। यह मानसिक बीमारियों को देखने की धारणाओं को भी बदल सकता है। अब मानसिक रोगों को सिर्फ दिमाग की गड़बड़ी नहीं, बल्कि शरीर, सूक्ष्मजीवों और मन के बीच जटिल संवाद का नतीजा माना जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)
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अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN, conservation) ने हाल ही में इस बात की पुष्टि की है कि जिराफ (giraffe) की एक नहीं चार प्रजातियां हैं। यह रिपोर्ट जिराफ के संरक्षण (wildlife protection) के लिहाज़ से महत्वपूर्ण मानी जा रही है।
दरअसल कुछ साल पहले तक समस्त जिराफ को बस एक ही प्रजाति, जिराफा कैमिलोपार्डेलिस (Giraffa camelopardalis), और उनकी नौ उप-प्रजातियों के रूप में वर्गीकृत किया गया था। लेकिन 2016 में, नामीबिया स्थित जिराफ संरक्षण फाउंडेशन (Giraffe Conservation Foundation) के शोधकर्ताओं ने संपूर्ण अफ्रीका (Africa) के जिराफों का जेनेटिक अनुक्रमण (genetics) किया था। इसमें उन्हें विभिन्न जिराफ आबादियों के बीच बहुत अंतर मिला था।
विश्लेषण में उन्हें चार अलग-अलग प्रजातियां समझ आई थीं जिन्हें उन्होंने मसाई (Giraffa tippelskirchi), उत्तरी (Giraffa camelopardalis), जालीदार (Giraffa reticulata) और दक्षिणी जिराफ (Giraffa giraffa) के रूप में वर्गीकृत किया था।
IUCN की हालिया रिपोर्ट (IUCN Red List) ने इसी अध्ययन को आगे बढ़ाया है। हालिया अध्ययन में विशेषज्ञों ने जिराफ का जेनेटिक डैटा (DNA) तो देखा ही, साथ ही उन्होंने विभिन्न जिराफ आबादियों की अस्थि संरचना भी देखी और उनके भौगोलिक वितरण पर हुए अध्ययनों की समीक्षा भी की। उनके निष्कर्ष भी जिराफ की चार प्रजातियां होने की ओर इशारा करते हैं।
ये निष्कर्ष जिराफ संरक्षण (endangered species) के लिहाज़ से महत्वपूर्ण हैं। दरअसल जिराफ की हर प्रजाति के सामने अलग-अलग खतरे होंगे। यदि हमें उनकी विशिष्ट आवश्यकताएं पता होंगी तो उसी के अनुरूप हम संरक्षण रणनीतियां (conservation strategy) बना सकते हैं।
मसलन, मध्य अफ्रीकी गणराज्य और दक्षिण सूडान (South Sudan, Central African Republic) के बीच चल रहे सशस्त्र संघर्ष के चलते उत्तरी जिराफों की संख्या में 1995 के बाद से 70 प्रतिशत की कमी आई है और आज महज 7037 रह गई है। वहीं, उम्दा संरक्षण कार्यक्रमों (conservation programs) की बदौलत दक्षिणी जिराफ की आबादी इसी अवधि में दुगनी होकर 68,837 पर पहुंच गई है।
यदि समस्त जिराफ को एक ही प्रजाति (species) के रूप में देखा जाए तो किसी एक स्थान के जिराफ की तादाद में कमी इतनी चिंताजनक नहीं लगेगी क्योंकि अन्य स्थान पर तो वे फलते-फूलते दिखेंगे। लेकिन अब जब हमें पता है कि उत्तरी और दक्षिणी जिराफ दो अलग-अलग प्रजातियां हैं तो उत्तरी जिराफ की संख्या में कमी चिंता (population decline) जगाती है, उनके संरक्षण के प्रयासों (protection efforts) को तेज़ करने की ज़रूरत को रेखांकित करती है।(स्रोत फीचर्स)
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आपको कैसा लगेगा यदि अचानक आपको पता चले कि आप जिस व्यक्ति को अपना पिता मानते आए हैं, वह जैविक रूप से आपका पिता (biological father) नहीं है। छोटे समय की बात छोड़िए, लेकिन यदि आपको अपनी कई पीढ़ियों की वंशावली में यह देखने को मिले कि उसमें किसी पीढ़ी में किसी संतान का पिता वह नहीं था, जिसे सामाजिक या कानूनी रूप (family history, genetic ancestry) से पिता माना गया था। इसी के साथ यह बात भी जुड़ जाती है कि कोई भाई-भाई, बहन-बहन या भाई-बहन (siblings DNA test) वास्तव में सहोदर हैं या नहीं।
पितृत्व (जैविक तथा सामाजिक) का यह सवाल कई संस्कृतियों-समाजों में बहुत अहमियत रखता है। तो बेल्जियम स्थित केयू ल्यूवेन विश्वविद्यालय के जेनेटिक विज्ञानी मार्टेन लारमूसौ (Maarten Larmuseau) ने इस विषय की जांच-पड़ताल करने का विचार किया। सवाल था: कितने मामलों में महिला उन पुरुषों के साथ बच्चे पैदा करती हैं, जिनकी वे संगिनी (infidelity, paternity) नहीं हैं?
अधिकांश समाजों में सहोदर सम्बंध काफी हद तक सामाजिक रूप (kinship, social) से निर्मित होते हैं। इनमें दत्तक संतान या सौतेले परिवार भी शामिल होते हैं। लेकिन जैविक पिता के सवाल सहस्राब्दियों से परिवारों को तहस-नहस करते रहे हैं और सांस्कृतिक चिंताओं का कारण बनते रहे हैं। पारिवारिक-सामाजिक मुद्दों के अलावा बच्चे के जैविक पिता के बारे में जानना कभी-कभी अपराध विज्ञान (forensic science) या चिकित्सा (medical science) दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हो जाता है।
यह संभव है कि किसी बच्चे के पिता को लेकर संशय महिला द्वारा इरादतन किसी अन्य पुरुष से सम्बंध का परिणाम हो, लेकिन इस संदर्भ में यौन हिंसा अथवा दबाव के तहत यौन सम्बंधों को भी नकारा नहीं जा सकता। कभी-कभी ऐसा भी देखा गया है कि कानूनी पिता को मालूम होता है कि वह जैविक पिता नहीं है। ऐसे सारे प्रकरणों के लिए लारमूसौ जिस शब्द का इस्तेमाल करते हैं, वह है दम्पती-इतर पितृत्व (extra-pair paternity)। इसमें वे दत्तक अथवा विवाहेतर जन्मों को शामिल नहीं करते हैं, जहां पिता की जैविक पहचान ज्ञात होती है। उन्होंने यह जानने के लिए एक तकनीक विकसित की है कि दम्पती-इतर पितृत्व कितना सामान्य है।
सामाजिक रूप से संवेदनशील होने के कारण आम तौर पर जीव वैज्ञानिक मनुष्यों के संदर्भ में इस विषय को टाल देते हैं, हालांकि पशु-पक्षियों में यह अनुसंधान का एक प्रमुख विषय रहा है।
तो लारमूसौ ने क्या विधि अपनाई थी दम्पती-इतर पितृत्व के आकलन के लिए? इस खोजबीन का एक मज़ेदार अध्याय मशहूर पाश्चात्य संगीतकार बीथोवन से जुड़ गया था।
दरअसल, पीएचडी छात्र के रूप में लारमूसौ ने बाल्टिक और भूमध्यसागर में पाई जाने वाली एक मछली प्रजाति पर शोध किया था – सैण्ड गोबी (Pomatoschistus minutus)। गोबी के नर संतानोत्पत्ति में काफी योगदान देते हैं – वे घोंसला बनाते हैं और निषेचित अंडों की देखभाल करते हैं। दूसरी ओर, मादा तो अंडे देकर निकल जाती है। हां, यह ज़रूर है कि नर गोबी कभी-कभार अन्य नरों द्वारा बनाए गए घोसलों में घुसकर अंडों को निषेचित करके नौ-दो-ग्यारह हो जाता है। नतीजतन उस घोंसले का निर्माता नर किसी अन्य की संतानों की परवरिश करता है। इसके चलते सैण्ड गोबी दम्पती-इतर पितृत्व के अध्ययन के लिए उम्दा जंतु माना जाता है।
एक अपराध विज्ञान प्रयोगशाला में काम करते हुए लारमूसौ के मन में विचार आया कि मनुष्यों में इसी तरह का व्यवहार हो तो उसके चलते डीएनए विश्लेषण की मदद से लाशों की पहचान तथा अपराधों के अन्वेषण में मुश्किलें पैदा हो सकती हैं। लेकिन उस विषय में बात करना बहुत कठिन था। पशु-पक्षियों के बारे में तो दम्पती-इतर पितृत्व को लेकर काफी साहित्य उपलब्ध है, लेकिन इन्सानों के बारे में हम ज़्यादा नहीं जानते।
प्रामाणिक आंकड़ों के अभाव में वैज्ञानिक अटकलों का सहारा लेते थे। जैसे जीव वैज्ञानिक जेरेड डायमंड ने अपनी पुस्तक दी थर्ड चिम्पैंज़ी: दी इवॉल्यूशन एंड फ्यूचर ऑफ ह्युमैन एनिमल में दावा किया था कि इन्सानों में सामाजिक रूप से मान्य सम्बंधों के बाहर यौन सम्बंध लगभग 5 से 30 प्रतिशत होते हैं। इसी प्रकार से, रीडिंग विश्वविद्यालय के जीव वैज्ञानिक मार्क पेजल ने कहा था कि जन्म के समय मानव शिशुओं के बीच भेद करने में मुश्किल जैव विकास के दौरान विकसित हुई है ताकि उनकी वास्तविक वल्दियत उजागर न हो।
अंतत: एक आम सहमति उभरी जो मूलत: जेनेटिक पितृत्व निर्धारण के शुरुआती प्रयासों पर आधारित थी। दी लैंसेट में प्रकाशित एक लेख में सैली मैकिन्टायर और एनी सूमैन ने बताया था कि लगभग 10 प्रतिशत बच्चे विवाहेतर सम्बंधों के परिणाम होते हैं। हालांकि इस आंकड़े के सत्यापन अथवा खंडन के लिए ठोस आंकड़े नहीं थे लेकिन पत्रकार और शोधकर्ता इसे बार-बार दोहराते रहे और यह स्थापित ‘तथ्य’ बन गया।
लेकिन यदि 10 प्रतिशत विवाहेतर संतानों का आंकड़ा सही है, तो कई वंशावलियां बेकार हो जाएंगी। रोचक बात यह रही कि स्वयं लारमूसौ के पर-काका अपने परिवार का इतिहास जानने को उत्सुक थे लेकिन 10 प्रतिशत की बात सुनकर उनका उत्साह जाता रहा था। अलबत्ता, लारमूसौ लगे रहे। पहले उन्होंने अपने ही परिवार का इतिहास खंगाला। अंतत: उन्होंने अपनी सोलह से अधिक पीढ़ियों के हज़ारों पूर्वजों का एक चार्ट बना लिया। वे सोचने लगे कि कहीं जेरेड डायमंड और अन्य शोधकर्ता सही तो नहीं हैं? और इनमें से कितने सामाजिक व कानूनी पूर्वज उनके जैविक पूर्वज भी हैं।
इस संदर्भ में मौजूदा प्रमाण विवादास्पद हैं। पितृत्व जांच पर आधारित अनुमान पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं, क्योंकि जो लोग पैसा खर्च करके ऐसे परीक्षण करवाते हैं, उनके मन में पहले से ही दम्पती-इतर संतान होने की शंका रहती है। अस्थि मज्जा दानदाताओं के सैम्पल्स तथा अन्य स्रोतों से पता चलता था कि आधुनिक आबादियों में दम्पती-इतर संतानोत्पत्ति की दर कम है, लेकिन वह शायद यौन-सम्बंधों को लेकर व्यवहार में परिवर्तन की वजह से नहीं बल्कि आधुनिक गर्भनिरोधकों की उपलब्धता के कारण भी हो सकता है। और सड़क चलते लोगों से उनके यौन व्यवहार के बारे में पूछना ‘आ बैल सींग मार’ जैसी स्थिति पैदा कर सकता है। यानी वर्तमान का अध्ययन करना कठिन है और लारमुसौ ने अतीत का रुख किया।
उन्होंने 2009 में स्थानीय स्तर पर 1400 के दशक से शुरू करके वंशावलियां एकत्रित कीं। इसमें उन्हें बेल्जियन व डच वंशावली तथा विरासत को लेकर उत्साहित लोगों की मदद मिली। फिर उन्होंने स्वतंत्र रूप से इन वंशावलियों का सत्यापन किया। जब शौकिया लोगों के पास जानकारी नहीं थी, तो उन्होंने जनगणना के आर्काइव्स को खंगाला और फ्लेमिश व डच गिरजाघरों में विवाह तथा बप्तिज़्मा के रिकॉर्डों को खंगाला।
पुराने दस्तावेज़ों से शुरू करके लारमूसौ ने आज जीवित ऐसे हज़ारों पुरुषों को ढूंढ निकाला जो वंशावली रिकॉर्ड के मुताबिक अपने पिता की ओर से दूर के रिश्तेदार होना चाहिए। अगला कदम यह था कि उनके डीएनए प्राप्त करके इस अधिकारिक विरासत की जांच की जाए।
इसके लिए ज़रूरी था कि उन व्यक्तियों से संपर्क हो पाए। इस काम में स्थानीय इतिहास समितियों ने उनकी मदद की। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि लारमूसौ ने उन व्यक्तियों को फोन कर दिया या सीधे उनके घर का दरवाज़ा खटखटाया। साथ में वे डीएनए सैम्पल लेने के लिए ज़रूरी सामान और सम्मति पत्र भी लेकर पहुंचे। कभी-कभी तो गांव में एक ही सरनेम वाले व्यक्तियों से कहा कि वे अपने डीएनए परीक्षण करवा लें। एक ही सरनेम से वे मानकर चले थे कि वे सारे व्यक्ति पिता की ओर से पारिवारिक सम्बंधी होंगे। एक साल में उन्होंने 300 परिवारों से संपर्क किया और पुरुषों को बता दिया कि वे उनके पूर्वजों में दम्पती-इतर सम्बंधों की तलाश कर रहे हैं। यदि थोड़ी भी हिचक दिखी तो उस परिवार को अध्ययन में शामिल नहीं किया।
मुंह से लिए गए स्वाब में वाय गुणसूत्र मिला। गौरतलब है कि वाय गुणसूत्र पिता से पुत्र को मिलता है। और यह प्रक्रिया पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। एक पीढ़ी से अगली को हस्तांतरित होते समय इस वाय गुणसूत्र में कोई परिवर्तन नहीं आता। नतीजतन, यदि दो व्यक्ति ऐसे मिलते हैं, जिनके वाय गुणसूत्र मेल खाते हैं तो उनका कोई दादा, पर-दादा, पर-पर-दादा एक ही होगा, भले ही उन दोनों व्यक्तियों को इसकी भनक तक न लगी हो।
लेकिन इसका उलट भी होता था। किन्हीं दो व्यक्तियों की वंशावली तो बताती थी कि उनमें वाय गुणसूत्र का मिलान होना चाहिए लेकिन होता नहीं था। यदि वाय गुणसूत्र मेल नहीं खाते थे, तो इसका मतलब है कि बीच में कभी तो कोई ‘अन्य’ पुरुष शामिल था। लारमूसौ के लिए यह इस बात का प्रमाण होता था कि उस वंशवृक्ष में कम से कम एक मामला दम्पती-इतर पितृत्व का रहा होगा। फिर उन्होंने सांख्यिकीय मॉडल की मदद से यह निर्धारण करने का प्रयास किया कि यह घटना कितनी पीढ़ियों पूर्व हुई होगी। 2013 में एक प्रारंभिक अनुमान प्रकाशित करने के बाद भी वे आंकड़े एकत्रित करते रहे। 2019 में उन्होंने करंट बायोलॉजी (current biology) में एक शोध पत्र प्रकाशित किया। यह शोधपत्र दूर के रिश्तेदार 513 पुरुष जोड़ियों के वाय गुणसूत्र (chromosome, DNA) की जांच पर आधारित था। इसमें लारमूसौ ने अनुमान व्यक्त किया था कि बेल्जियम और नेदरलैंड में पिछले 500 वर्षों में दम्पती-इतर पितृत्व की दर लगभग 1.5 प्रतिशत रही।
युरोप में अन्यत्र किए गए अध्ययनों के आधार पर लारमूसौ और अन्य शोधकर्ताओं ने लगभग ऐसे ही नतीजे प्राप्त किए हैं: मध्य युगीन युरोप में किसी बच्चे के रिकॉर्डेड पिता जेनेटिक पिता न हों, इसकी संभावना 1 प्रतिशत या उससे भी कम (medieval records) है।
अब बात लौटती है मशहूर संगीतज्ञ लुडविग बीथोवन (1770-1827) (Beethoven) पर। एक सेलेब्रिटी होने के नाते यह प्रकरण काफी सनसनीखेज था। अलबत्ता, लारमूसौ और उनके शौकिया वंशावलीविद साथी वाल्टर स्लूइट्स का मकसद थोड़ा अलग था (celebrity, heritage)। जो बीथोवन जीवित थे, उनके वाय गुणसूत्र का मिलान मशहूर संगीतकार लुडविग बीथोवन के संरक्षित रखे बालों से मिले डीएनए से करके देखना। बालों का यह गुच्छा लुडविग बीथोवन के मित्रों ने स्मृति के रूप में सहेजकर रखा था।
2019 में शोधकर्ताओं ने वर्नर बीथोवन और उनके कुछ दूर के रिश्तेदारों से संपर्क करके पूछा कि क्या वे अपना डीएनए देंगे। इसके चार साल बाद लारमूसौ ने वर्नर तथा चार अन्य जीवित बीथोवन्स को नतीजे सुनाए: मशहूर संगीतकार (लुडविग बीथोवन) का वाय गुणसूत्र चार जीवित बीथोवन के किसी साझा पूर्वज से नहीं आया था, बल्कि किसी अज्ञात पुरुष से आया था। हो सकता है कि यह विषमता लुडविग के जन्म से पहले किसी पीढ़ी में विवाहेतर सम्बंध का परिणाम थी। वर्नर बीथोवन का तो दिल ही टूट गया – सबसे मशहूर बीथोवन तो बीथोवन ही नहीं था!
इसी खोजबीन से एक और मज़ेदार व आश्चर्यजनक बात पता चली थी – जब मातृवंश का विश्लेषण माइटोकॉण्ड्रिया के आधार पर किया गया तो लुडविग बीथोवन का जेनेटिक सम्बंध जेम्स वॉटसन के साथ दिखा; वही जेम्स वॉटसन जिन्हें डीएनए की संरचना का खुलासा करने के लिए संयुक्त रूप से नोबेल पुरस्कार मिला था। गौरतलब है कि सारी संतानों को माइटोकॉण्ड्रिया मां से मिलता है, और इसमें पिता का कोई योगदान नहीं होता।
लेकिन ज़रूरी नहीं है कि लुडविग के पितृत्व में यह पेंच इरादतन बेवफाई या दगाबाज़ी का नतीजा हो। मसलन, साहित्य में इस बात का ज़िक्र कई मर्तबा आता है कि वंध्या पुरुष संतान प्राप्ति के लिए अपनी पत्नी को किसी अन्य पुरुष के साथ सम्बंध बनाने को प्रोत्साहित करते हैं। कुछ मामले यौन हिंसा अथवा दबाव के कारण भी हो सकते हैं।
इसके रूबरू गैर-युरोपीय समाजों के आंकड़ों में जैविक पितृत्व और सांस्कृतिक मर्यादाओं के प्रति ज़्यादा जुनून नज़र आता है। जैसे 2012 में मिशिगन विश्वविद्यालय के वैकासिक मानव वैज्ञानिक बेवरली स्ट्रासमैन ने माली के डोगन समाज में दम्पती-इतर पितृत्व का विश्लेषण किया था। पारंपरिक डोगन धर्म के अनुयायियों में गर्भनिरोध अपनाना बहुत कम होता है और परिणामस्वरूप महिलाएं अधिकांश समय या तो गर्भवती होती हैं या स्तनपान कराती होती हैं। बीच-बीच में जो छोटा-सा अंतराल होता है, जब महिलाएं माहवारी से होती हैं, उस दौरान वे घर के बाहर एक झोंप़ड़ी में रहती हैं। माहवारी झोंपड़ी (menstrual hut) में जाने का मतलब होता है कि वह जल्दी ही गर्भवती हो सकेगी। इस प्रथा के चलते पिता की पहचान छिपाना मुश्किल होता है और दम्पती-इतर पितृत्व की दर कम हो जाती है।
स्ट्रासमैन के मुताबिक इस तरह से स्त्री की यौनिकता की निगरानी और उस पर नियंत्रण कई समाजों (gender norms) में देखा जाता है। यह इस सोच का परिणाम है कि पुरुष पालनहार है (male parenting) और वह क्यों किसी अन्य के बच्चों की परवरिश करे। वाय गुणसूत्र डैटा के आधार पर स्ट्रासमैन का अनुमान है कि डोगन समुदाय (African statistics) में दम्पती-इतर पितृत्व की दर करीब 2 प्रतिशत है। वैसे डोगन-ईसाई माहवारी झोंपड़ी प्रथा का पालन नहीं करते उनमें यह दर पारंपरिक धर्मावलंबियों से लगभग दुगनी है।
ऐसा भी नहीं है कि जैविक पितृत्व का जुनून पूरे विश्व में एक समान हो। दक्षिण अमरीकी कबीलों (जैसे यानोमामी) में धारणा है कि एक ही महिला के साथ यौन सम्बंध बनाकर कई पुरुष बच्चों के पितृत्व में योगदान दे सकते हैं। नेपाल के न्यिम्बा समुदाय में एक महिला के एकाधिक पति हो सकते हैं। ये सभी उस महिला के बच्चों के पिता की भूमिका निभाते हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां पत्नी की बेवफाई की धारणा को मान्यता नहीं दी जाती है।
इसका सबसे अच्छा दस्तावेज़ीकरण नामीबिया के हिम्बा समुदाय का हुआ है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, लॉस एंजेल्स की ब्रुक स्केल्ज़ा यह देखकर चकित रह गई थीं कि हिम्बा गांवों में महिलाएं विवाहेतर साथियों द्वारा पैदा बच्चों के बारे में कितना खुलकर बात करती हैं। चकित होकर स्केल्ज़ा ने हिम्बा समुदाय में पितृत्व जांच का फैसला किया; पता चला कि इस समुदाय में दम्पती-इतर पितृत्व की दर 48 प्रतिशत है। और तो और, पिताओं को प्राय: पता होता था कि वे उनमें से किन बच्चों के जैविक पिता है लेकिन वे स्वयं को अपनी पत्नी के सारे बच्चों का कानूनी व सामाजिक पिता ही मानते थे। बेवफाई या धोखाधड़ी जैसी कोई बात नहीं है।
दम्पती-इतर पितृत्व की दर पर सामाजिक हालात का असर पड़ता है। इतिहासकारों के साथ काम करके, लारमूसौ ने बेल्जियम और नेदरलैंड्स में इन दरों का सम्बंध आमदनी, धर्म, सामाजिक वर्ग जैसे सामाजिक-आर्थिक कारकों के अलावा पिछले 500 वर्षों में हुए शहरीकरण से भी करके देखा। पाया गया कि दम्पती-इतर पितृत्व की दर में सबसे ज़्यादा वृद्धि उन्नीसवीं सदी में हुई थी, जब पूरे युरोप में शहर विकसित हो रहे थे और लोग कारखानों में नौकरी के लिए गांव छोड़-छोड़कर शहरों में बस रहे थे। लारमूसौ का अनुमान है कि बेल्जियम व नेदरलैंड्स के शहरों में दम्पती-इतर पितृत्व की दर 6 गुना बढ़कर 6 प्रतिशत हो गई थी। गांवों में तो हर स्त्री-पुरुष संपर्क पर निगाह होती है, जिसके चलते पति के अलावा किसी अन्य पुरुष के पिता होने की संभावना बहुत कम होती है।
लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि दम्पती-इतर पितृत्व दर में वृद्धि का कारण यह था कि शहरों में महिलाओं को विवाहेतर साथी ढूंढने की ज़्यादा छूट मिल गई थी। लारमूसौ का मत है कि इसे ज़ोर-ज़बर्दस्ती और हिंसा के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए, जो सामाजिक उथल-पुथल के दौरान बढ़ रहे थे।
युरोप में भी सौतेले बच्चों, दत्तक संतानों की देखभाल करना वगैरह फैसले सोच-समझकर लिए जाते हैं और वे ऐसे बच्चों पर संसाधन निवेश करने को तैयार होते हैं, जो जैविक रूप से उनसे सम्बंधित नहीं हैं। तो कई वैज्ञानिकों का मत है कि गोबी मछली तथा अन्य जंतुओं की तरह मनुष्यों पर वही सिद्धांत लागू करना उचित नहीं होगा।
एक तथ्य यह है कि दुनिया भर में लोग अपनी वंशावली की छानबीन करने और दस्तावेज़ीकरण पर सालाना 5 अरब डॉलर खर्च करते हैं। लारमूसौ के मुताबिक बेल्जियम में 10 में से 7 लोगों की रुचि अपने पारिवारिक इतिहास में है। और तो और, वहां की सरकार भी ऐसे कामों के लिए फंड देती है।
किस्से में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब लारमूसौ ने वाय गुणसूत्र को छोड़कर माइटोकॉण्ड्रिया पर ध्यान केंद्रित किया। माइटोकॉण्ड्रिया के मिलान से मातृ-पूर्वज का वंशवृक्ष बनाया जा सकता है। दरअसल, माइटोकॉण्ड्रिया विश्लेषण की मदद से यह पता लगाने की कोशिश थी कि अज्ञात पिता होने की वजह यह तो नहीं कि दो मांओं के बीच बच्चों की अदला-बदली हो गई है। यानी यदि मातृ-वंश में कोई गड़बड़ी नज़र आती है, तो यह पता चल जाएगा पितृ-वंश में दिख रही गड़बड़ी दम्पती-इतर पितृत्व का मामला नहीं है।
लेकिन मातृवंश का निर्धारण आसान काम नहीं है – शादी के बाद प्राय: महिलाओं के सरनेम बदल जाते हैं और महिलाएं मायका छोड़कर ससुराल चली जाती हैं। इस पृष्ठभूमि में लारमूसौ ने वर्ष 2020 में वालंटियर्स को आव्हान किया और हज़ारों लोग आगे आए। महामारी के दौरान कई लोगों ने डिजिटल पैरिश जन्म व विवाह पंजीयन, नोटरी दस्तावेज़ों और संपत्ति के कागज़ातों के आधार पर अपनी मातृ-वंशावलियों का निर्माण किया। वाय गुणसूत्र के काम की तर्ज़ पर लारमूसौ और साथियों ने दूर-दूर की रिश्तेदार महिलाओं, जिनके साझा मातृ-पूर्वज होने चाहिए थे, के डीएनए सैम्पल लिए और देखा कि क्या उनकी कानूनी वंशावली जैविक वंशावली से मेल खाती है।
सैकड़ों लोगों की वंशावलियों की तुलना जब उनके माइटोकॉण्ड्रिया डीएनए से की गई तो कोई आश्चर्यजनक बात सामने नहीं आई। इससे लारमूसौ को यकीन हो गया कि पिता-आधारित वंशावलियों में जो दिक्कतें थी वे दम्पती-इतर पितृत्व की वजह से ही थीं, शिशुओं की अदला-बदली या गुपचुप दत्तक लेने के कारण नहीं।
इन अध्ययनों से जो निष्कर्ष मिले हैं, उनका ऐतिहासिक महत्व (history research) तो है ही, लेकिन अन्य कई प्रकरणों में भी ये उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। जैसे किसी दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा के मृतकों की पहचान के लिए डीएनए विश्लेषण का सहारा (disaster analysis) लिया जाता है। इसी प्रकार से दुर्लभ बीमारियों, जेनेटिक परामर्श और खानदानी रोगों के संदर्भ में भी सटीक वंशावली काम आती हैं (disease counseling)। लेकिन यदि दम्पती-इतर पितृत्व की दर 30 प्रतिशत या 10 प्रतिशत भी हो तो ये सारी कवायदें फिज़ूल साबित होंगी। यह सुखद समाचार है कि अधिकांश समाजों में यह दर 1 प्रतिशत से कम है। लेकिन संख्या के रूप में देखें तो यह काफी बड़ी संख्या है – दुनिया की आबादी 8 अरब मानें तो दम्पती-इतर संतानों की संख्या 8 करोड़ होगी। बताते हैं कि हर वर्ष करीब 3 करोड़ लोग घर बैठे डीएनए परीक्षण करवाते हैं। लारमूसौ कहेंगे कि इनमें से करीब 3 लाख लोग परिणाम देखकर भौंचक्के रह गए होंगे। हालांकि हो सकता है कि जो गड़बड़ी नज़र आ रही है वह सैकड़ों साल पहले हुई हो। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.ytimg.com/vi/zLRjMcw_zcM/maxresdefault.jpg
चाहे सुंदर दिखने के लिए या सफाई और सहूलियत के लिए हम कभी-कभी नाखून काटते हैं (nail growth), लेकिन थोड़े दिनों बाद ही वे वापस बढ़ जाते हैं। किरेटिन नामक प्रोटीन (keratin protein) से बने नाखून हमें क्षति से सुरक्षित रखते हैं। यदि किसी नवजात शिशु की उंगली के ऊपरी पोर वाला हिस्सा (जोड़ के पहले तक की किसी जगह से) (finger regeneration) कट या टूट जाता है तो उंगली अपनी मूल आकृति में पुन: बन जाती है।
वर्ष 2013 में नेचर पत्रिका में मकोतो टेकिओ और उनके साथियों ने बताया था कि नाखूनों की तली में स्टेम कोशिकाएं (stem cells) होती हैं, जो न सिर्फ निरंतर सख्त और किरेटिनयुक्त नाखून बनाने वाली कोशिकाओं में बदलती रहती हैं, बल्कि वे ऐसे संकेत भी भेजती हैं जो उंगली के पुनर्जनन (finger healing) को गति देते हैं। गौरतलब है कि स्टेम कोशिकाएं कई प्रकार की कोशिकाओं में तब्दील और विकसित (cell regeneration) हो सकती हैं। ये कोशिकाएं Wnt संकेत मार्ग को सक्रिय करती हैं; यह प्रक्रिया पुनर्जनन के लिए आवश्यक तंत्रिकाओं को आकर्षित करती है।
छिपकली हमारे घरों में एक अनचाहा मेहमान है। हम अक्सर इसे मारने की कोशिश करते हैं, लेकिन अक्सर हाथ केवल इसकी पूंछ ही आती है। भगोड़ी छिपकली (lizard tail regeneration) अपनी पूंछ छोड़कर भाग निकलती है और उसे फिर से बना लेती है, ठीक नवजात शिशु की घायल उंगली की तरह।
इस प्रक्रिया की आणविक जैविकी का सार एलिज़ाबेथ हचिन्स और उनके साथियों ने 2014 में प्लॉसवन पत्रिका में प्रस्तुत किया था। इस प्रक्रिया को अंजाम देने में 300 से अधिक जीन शामिल होते हैं। और इस दौरान घाव को भरने और पूंछ वापस उगाने के लिए कई विकासात्मक और घाव-प्रतिक्रिया पथ सक्रिय होते हैं।
हालांकि जंतुओं और वनस्पतियों दोनों में घाव की मरम्मत सम्बंधी शोध पारंपरिक रूप से जीन-नियंत्रित क्रियापथों पर केंद्रित रहा है। लेकिन हालिया शोध विकासात्मक पादप विज्ञान (plant regeneration) में भौतिक संकेतों की महत्वपूर्ण भूमिका (mechanical signals in biology) पर प्रकाश डालता हैं। भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं शोध संस्थान (IISER, पुणे) की मेबेल मारिया मैथ्यू और कालिका प्रसाद ने हाल ही में करंट बायोलॉजी में प्रकाशित अपने एक अध्ययन में विकास और पुनर्जनन पर एक कम अध्ययन किए गए लेकिन महत्वपूर्ण कारक पर प्रकाश डाला है: कोशिकीय ज्यामिति(cell geometry)।
शोधकर्ताओं ने अध्ययन में देखा की कि कैसे शंक्वाकार आकृति का मूलाग्र कट जाने के बाद पुन: अपने आकार में पनप जाता है। उन्होंने पाया कि मौजूदा कोशिकाओं ने अपनी ज्यामिति को बदलकर नई बनी कोशिकाओं की कतार को एक तिरछे, झुके पथ पर संरेखित किया। अंतत: कोशिकाओं की इन तिरछी पंक्तियों ने जड़ की शंक्वाकार आकृति का पुनर्निर्माण किया। तकनीकी शब्दों में, इस प्रक्रिया को आकृति-जनन (morphogenesis process) कहा जाता है। आकृति-जनन वह जैविक प्रक्रिया (biological development) है जो किसी जीव को उसका आकार और संरचना विकसित करने में मदद करती है। इसमें कोशिकाओं की समन्वित वृद्धि, विभाजन, विभेदन और व्यवस्थापन शामिल होता है जिससे ऊतक, अंग और यहां तक कि एक संपूर्ण जीव का निर्माण होता है।
मूलाग्र पुनर्जनन की प्रणाली का अध्ययन सरसों परिवार के एरेबिडोप्सिस थैलिआना (Arabidopsis thaliana) पौधे पर किया गया था। इसमें यह समझा गया था कि कोशिका ज्यामिति में परिवर्तन आकृति-जनन में कैसे योगदान देते हैं और उसे सुगम बनाते हैं।
उन्नत सूक्ष्मदर्शी और उपकरणों (advanced microscopy) की मदद से टीम ने देखा कि जड़ों की सामान्य घनाकार कोशिकाओं की आकृति बदलकर समचतुर्भुज (rhomboid) हो गई। फिर ये परिवर्तित कोशिकाएं विकर्ण रेखा पर विभाजित हुईं जिससे त्रिकोणीय प्रिज़्म आकृति की कोशिकाएं बनीं। विकर्ण रेखा से विभाजन ने आस-पड़ोस की कोशिकाओं की वृद्धि (cell division) को एक तिरछे पथ पर मोड़ा, जिन्होंने मिलकर कटा हुआ पतला सिरा फिर से बनाया।
गणितीय और भौतिक विश्लेषण करने पर पता चला कि इन बदलावों के पीछे जो वास्तविक बल काम करता है वह है आंतरिक यांत्रिक तनाव (mechanical stress)। यह एक प्रकार का तनाव है जो कोशिकाओं को आकार बदलने और निर्धारित रूप से विभाजित होने (cell growth patterns) के लिए उकसाता है।
आकृति-जनन को समझने में जहां लंबे समय से स्टेम कोशिकाएं (stem cell research) और जेनेटिक क्रियापथ (genetic studies) अध्ययन का केंद्र रहे हैं, वहां यह अध्ययन एक अनदेखे महत्वपूर्ण पहलू पर प्रकाश डालता है: कोशिकाएं तनाव में अपनी आकृति को कैसे ढालती हैं। यह दर्शाता है कि कोशिका की आकृति और ज्यामिति ऊतक पुनर्जनन (tissue regeneration) के दौरान आकृति-जनन में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं।
ये निष्कर्ष अन्य जैविक प्रणालियों पर भी लागू हो सकते हैं। ये जीवन को आकार देने में भौतिक संकेतों, विशेष रूप से कोशिकीय ज्यामिति की भूमिका दर्शाते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/sci-tech/science/64u8pd/article69958870.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/root-tip-regen.png
लगभग 40 करोड़ साल पूर्व सबसे पहले कशेरुकी (vertebrates) जीव समुद्र (ancient ocean) में रहते थे। उस समय मछलियां ही समुद्र की सबसे बड़ी जीव थीं, लेकिन उनमें ज़मीन पर चलने के लिए मज़बूत टांगें (strong limbs) विकसित नहीं हुई थीं। वैज्ञानिकों का मानना था कि विकास की प्रक्रिया में काफी समय लगा जिसके बाद मछलियां ज़मीन पर आईं। लेकिन पोलैंड में हुई एक खोज से पता चला है कि कुछ मछलियों ने हमारी सोच से कहीं पहले ही ज़मीन पर जीने की कोशिश की थी।
2021 में वैज्ञानिकों को पोलैंड स्थित होली क्रॉस पर्वतों में अजीब से जीवाश्म (fossil evidence) निशान मिले। ये पत्थर कभी समुद्र तट (ancient seashore) का हिस्सा थे। इनमें 240 से ज़्यादा गड्ढे और खरोंचें मिलीं। जांच से पता चला कि ये निशान शायद मछलियों के ज़मीन या बहुत उथले पानी (shallow water habitat) पर रेंगते हुए बने थे। ये जीवाश्म 41 से 39.3 करोड़ साल पुराने हैं — यानी पहले मिले सबूतों से करीब 1 करोड़ साल पहले।
ये निशान आज की लंगफिश (lungfish evolution) से बहुत मिलते-जुलते हैं। लंगफिश ऐसी मछली है जो हवा में सांस ले सकती है और अपने मीनपक्षों (पंखों) का इस्तेमाल करके ज़मीन पर रेंग सकती है। माना जाता है कि लंगफिश थलचर चौपाया जीवों (early tetrapods) के शुरुआती पूर्वजों की करीबी रिश्तेदार है। चलने के लिए यह मछली अपना मुंह ज़मीन पर टिकाकर लीवर की तरह दबाती है और फिर मीनपक्ष और पूंछ की मदद से शरीर को आगे खींचती है। यही अजीब तरीका पोलैंड में मिले जीवाश्मों के निशानों से मेल खाता है।
अध्ययन के मुख्य लेखक और पोलिश जियोलॉजिकल इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक पिओत्र श्रेक बताते हैं कि ऐसा तभी संभव था जब वे पूरी तरह पानी के उछाल (buoyancy) पर निर्भर नहीं रह गई हों।
वैज्ञानिकों की टीम ने इन जीवाश्मों के निशानों को बारीकी से समझने के लिए 3-डी स्कैनिंग (3D fossil scanning) की। फिर उन्होंने इनकी तुलना आज की पश्चिम अफ्रीकी लंगफिश (Protopterus annectens) द्वारा बनाए गए निशानों (trace fossils) से की। नतीजा यह रहा कि नाक, पंख, पूंछ और शरीर के हिस्सों से बने दबाव के निशान लगभग वैसे ही मिले। इससे साफ हुआ कि प्राचीन समय की कुछ मछलियां लंगफिश जैसी ही रही होंगी।
एक और दिलचस्प बात यह सामने आई: वैज्ञानिकों को ‘हैंडेडनेस’ यानी शरीर के एक ओर की वरीयता (lateral preference) के सबूत भी मिले। 240 निशानों में से 36 में सिर झुकाने के संकेत थे, जिनमें से 35 बाईं ओर झुके थे। इसका मतलब यह हो सकता है कि वे मछलियां ज़्यादातर बाईं ओर झुककर चलती थीं (movement patterns), ठीक वैसे ही जैसे इंसानों में कोई दाएं या बाएं हाथ का ज़्यादा इस्तेमाल करता है। यह जानवरों में ‘हैंडेडनेस’ का अब तक का सबसे पुराना (ancient behavior) प्रमाण हो सकता है।
अलबत्ता, एक तर्क यह है कि आज की लंगफिश 40 करोड़ साल पुरानी मछलियों से बहुत अलग हैं, इसलिए सीधे-सीधे तुलना मुश्किल है। चीन और ऑस्ट्रेलिया (fossil discoveries) में मिले ऐसे ही जीवाश्मों पर अधिक शोध इन निष्कर्षों की पुष्टि करने में सहायक हो सकते हैं। बहरहाल, यह खोज हमें याद दिलाती है कि विकास (evolution process) कभी सीधी रेखा में नहीं होता।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.z3bb3qq/full/_20250814_on_fish_land_lede-1755294760050.jpg