कीड़े-मकोड़े भी आम खाद्य हो सकते हैं

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

विश्व की आबादी के लिए खाद्य उत्पादन (food production) में कीट कई तरह से मदद करते हैं। कीट हमारे फसली पौधों का परागण करते हैं, सड़ते-गलते पौधों और जानवरों के अवशेषों को विघटित करते हैं, और प्राकृतिक कीट नियंत्रक (natural pest control) भी हैं। और तो और, हम मधुमक्खियों से प्राप्त शहद खाते हैं।

कीट हमारे चारों ओर मौजूद हैं। लेकिन यदि हम कीटभक्षण (entomophagy), यानी कीटों या उनके लार्वा को खाने की बात करेंगे तो हममें से कई लोग इन्हें खाने के नाम से कतराएंगे। इसका एक कारण शायद निओफोबिया (neophobia) है, यानी कुछ नया आज़माने का डर या हिचक।

साथ ही, आज हम पृथ्वी के अत्यधिक दोहन (overexploitation) को लेकर भी चिंतित हैं। हमें ऐसे खाद्य पदार्थों की ज़रूरत है जो प्राकृतिक संसाधनों का बेतहाशा दोहन/उपभोग किए बिना उच्च-गुणवत्ता की कैलोरी (nutrition) दें सकें। कीट इस अपेक्षा पर खरे उतरते हैं। शुष्क भार के हिसाब से उनमें 40 प्रतिशत प्रोटीन, 20-30 प्रतिशत वसा और पोटेशियम-आयरन जैसे खनिज (minerals) भी होते हैं।

दुनिया की लगभग एक-चौथाई आबादी पहले से ही खाने योग्य कीट (edible insects) खा रही है। कुछ कीटों को स्वादिष्ट माना जाता है। मैक्सिकन एस्कैमोल (Mexican escamoles) का स्वाद मक्खन लगे बेबीकॉर्न जैसा होता है। मैक्सिकन एस्कैमोल को ‘रेगिस्तान का पकवान’ कहा जाता है, जो वास्तव में पेड़ों पर बिल बनाने वाली मखमली चींटी (Liometopum occidentale) के तले हुए प्यूपा और लार्वा होते हैं। शेफ शेरिल किर्शेनबाम (Cheryl Kirshenbaum) ने वर्ष 2023 में पीबीएस पर ‘सर्विंग अप साइंस’ के एक एपिसोड में स्वादिष्ट कीट मेनू के बारे में बताया था।

भारत में, पूर्वोत्तर राज्यों, ओडिशा और पश्चिमी घाट के स्थानीय समुदाय के लोग खाद्य कीट (insect diet in India) खाते हैं। इन्हें खाने के चलन की जड़ उनकी पोषण सम्बंधी आवश्यकताओं (nutrition needs), सांस्कृतिक आदतों और लोक चिकित्सा तरीकों में निहित है। पूर्वोत्तर में आदिवासी और ग्रामीण आबादी कथित तौर पर प्रोटीन पूर्ति के लिए 100 से अधिक खाद्य कीट प्रजातियां खाती हैं। इन कीटों को स्थानीय बाज़ारों में बेचा भी जाता है। तले, भुने या पके हुए गुबरैले, पतंगे, हॉर्नेट और जलकीट (water bugs) चाव से खाए जाते हैं – जबकि मक्खियां नहीं खाई जातीं।

चूंकि कीटों की आबादी घट रही है, ऐसे में प्रकृति में मौजूद कीटों को पकड़ना और उन्हें खाना, टिकाऊ विचार नहीं हो सकता। इसलिए कुछ समूहों ने अर्ध-पालतूकरण (semi-domestication) का तरीका अपनाया है, जिसमें कीटों और उनके लार्वा का पालन-पोषण (insect farming) और वृद्धि मनुष्यों द्वारा की जाती है। लुमामी स्थित नागालैंड विश्वविद्यालय (Nagaland University) के नृवंशविज्ञानी इस पर अध्ययन कर रहे हैं कि कीट पालन के पारंपरिक तरीकों और नई प्रजातियों की खेती के लिए कैसे इन तरीकों को अनुकूलित किया जा सकता है।

नागालैंड और मणिपुर (Northeast India) की चाखेसांग और अंगामी जनजातियां एशियाई जायंट हॉर्नेट (Asian giant hornet) को एक स्वादिष्ट व्यंजन मानती हैं; वे इनके वयस्क जायंट हार्नेट को भूनकर और इनके लार्वा को तलकर खाते हैं। इन हॉर्नेट का अब अर्ध-पालतूकरण किया जा रहा है। इनकी खेती इनका खाली छत्ता/बिल खोजने से शुरू होती है। मिलने पर इनके छत्ते/बिल को एक मीटर गहरे पालन गड्ढे (rearing pit) में लाया जाता है, जो मिट्टी से थोड़ा भरा होता है। खाली छत्ते/बिल को गड्ढे के ठीक ऊपर एक खंभे से बांध दिया जाता है और पोली मिट्टी से ढंक दिया जाता है। जल्द ही एक रानी हॉर्नेट (queen hornet) के साथ श्रमिक हॉर्नेट इसमें आ जाते हैं, जो ज़मीन के नीचे छत्ते/बिल को विस्तार देना शुरू कर देते हैं। परिणामस्वरूप एक उल्टे पिरामिड जैसी एक बड़ी बहुस्तरीय संरचना बनती है। दोहन के लिए, वयस्क हॉर्नेट को धुआं दिखाया जाता है और लार्वा निकाल लिए जाते हैं।

तमिलनाडु में अन्नामलाई पहाड़ियों के आसपास के आदिवासी समूह बुनकर चींटियों (weaver ants) का उपयोग भोजन और औषधीय संसाधन (medicinal use) के रूप में करते हैं। अंडों, लार्वा और वयस्कों की मौजूदगी वाले पत्तों के घोंसलों को भूनकर और फिर सिल-बट्टे पर पीसकर मसालेदार सूप बनाया जाता है। ततैया और दीमक के छत्तों का भी ऐसा ही उपयोग किया जाता है और मधुमक्खियों को श्वसन (respiratory diseases) और जठरांत्र सम्बंधी बीमारियों (digestive health) को कम करने के लिए स्वास्थ्य पूरक के रूप में खाया जाता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) का मानना है कि आहार में कीटों को शामिल करना (insect-based diet) स्थायी खाद्य उत्पादन (sustainable food production) की कुंजी हो सकती है। कीट प्रसंस्करण (insect processing) की रणनीतियां उन्हें अधिक स्वीकार्य बना सकती हैं। झींगुर (crickets), भंभीरी (beetles) और टिड्डे (locusts) के पाउडर (या आटे) का उपयोग अब मट्ठा पाउडर की तरह ही प्रोटीन पूरक (protein supplement) के रूप में किया जाता है।

जैसे-जैसे आहार सम्बंधी रुझान (food trends) विकसित हो रहे हैं, वैसे-वैसे हम मोटे अनाज (millets) अपना रहे हैं, और प्रयोगशाला में तैयार किए गए मांस (lab-grown meat) को आज़माना चाह रहे हैं; हो सकता है कि जल्द ही हमारी थाली में कीट (insect cuisine) भी परोसे जाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/society/vti2nf/article65406963.ece/alternates/FREE_1200/15LR_weevil.jpg

दर्द निवारण के दुष्प्रभावों से मुक्ति की राह

डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

चोट लगने अथवा संक्रमण (infection) की स्थिति में शरीर स्वयं उसका उपचार (healing process) करता है। चोट लगने या संक्रमण होने पर शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र (immune system) सक्रिय हो जाता है। प्रभावित स्थान पर तमाम प्रतिरक्षा कोशिकाएं पहुंचने लगती हैं। उस स्थान की रक्त नलिकाएं थोड़ी ज़्यादा पारगम्य हो जाती हैं। वहां उनसे रिसकर द्रव भरने लगता है और साथ में श्वेत रक्त कोशिकाएं भी। इसे इन्फ्लेमेशन या शोथ कहते हैं। सूजन इसका एक गोचर असर होता है। कुल मिलाकर शोथ और उसके साथ आई सूजन शरीर की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है।

अर्थात शोथ और सूजन चोट को ठीक करने का स्वाभाविक इलाज है। हम इस चोट का इलाज करने के लिए प्रायः आइबुप्रोफेन (Ibuprofen) या अन्य दर्द निवारक गोलियां लेते हैं। ये गोलियां दर्द निवारण तो करती हैं किंतु साथ ही शोथ भी खत्म कर देती हैं। लेकिन शोथ तो शरीर में इलाज की अपनी व्यवस्था है। यानी शोथ को  खत्म करना इलाज में हस्तक्षेप माना जाएगा। अतः अब वैज्ञानिकों ने शरीर के स्वाभाविक उपचार के साथ छेड़छाड़ न करते हुए (अर्थात शोथ को कम किए बगैर) दर्द निवारण (pain management) का एक तरीका खोज लिया है।

हाल ही में प्रकाशित एक नए शोध (scientific study) ने कोशिकाओं की सतह पर एक ऐसे रिसेप्टर (ग्राही) (receptor discovery) की पहचान की है जो शोथ में हस्तक्षेप किए बिना केवल दर्द को समाप्त कर चोट को शीघ्र ठीक होने में अधिक मदद करता है। इसे ‘दर्द स्विच’ (pain switch) कह सकते हैं। 

वेदना की अनुभूति

हमारे शरीर में चोट ग्रस्त कोशिकाओं से निकले प्रोस्टाग्लैंडिन (prostaglandin) नामक रसायन से हमें वेदना की अनुभूति होती है। न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय (New York University Pain Research Center) पेन रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिकों ने दर्द के मुख्य कारक प्रोस्टाग्लैंडिन से जुड़ने वाले ऐसे रिसेप्टर की पहचान की है जो दर्द के प्रति संवेदनशील है लेकिन शोथ के प्रति नहीं। वर्तमान में आम तौर पर माना जाता रहा है कि शोथ और दर्द साथ-साथ चलते हैं। लेकिन नेचर कम्युनिकेशंस (Nature Communications study) में प्रकाशित शोध निष्कर्ष बताते हैं कि इन दो प्रक्रियाओं को अलग-अलग संभाला जा सकता है और केवल दर्द को रोककर और शोथ को बढ़ने देने से उपचार में मदद मिल सकती है।

दर्द निवारक दवाएं

गैर-स्टेरॉइड दर्द निवारक तथा शोथरोधी दवाएं (Non-Steroid Anti-inflammatory Drugs – NSAID), दुनिया में सबसे अधिक ली जाने वाली दवाओं में से हैं, जिनकी अनुमानित 30 अरब खुराकें अकेले अमेरिका में ली जाती हैं। भारत के बारे में निश्चित आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। इनमें से कई दवाइयां बिना डॉक्टरी पर्चे के भी उपलब्ध होती हैं। इनका उपयोग लंबे समय तक होता है। इससे शरीर को गंभीर समस्याएं होती हैं, जिनमें पेट के अस्तर (stomach damage) को नुकसान, रक्तस्राव में वृद्धि और हृदय, गुर्दे और यकृत से जुड़ी समस्याएं शामिल हैं।

हमारे शरीर के लगभग सभी ऊतक प्रोस्टाग्लैंडिन्स (prostaglandins function) उत्पन्न करते हैं जो दर्द और बुखार का कारण बनते हैं। प्रोस्टाग्लैंडिन हार्मोन के समान यौगिकों (hormone-like compounds) का एक समूह है। यह समूह शोथ, दर्द और गर्भाशय संकुचन सहित कई शारीरिक क्रियाओं को प्रभावित करता है। प्रोस्टाग्लैंडिन के ज़रिए दर्द की अनुभूति के रासायनिक संकेत मस्तिष्क (brain signaling) तक पहुंचते हैं और तदनुसार मस्तिष्क कार्य करता है। प्रोस्टाग्लैंडिन प्रभावित क्षेत्र में रक्त वाहिकाओं को फैलाते हैं, जिससे रक्त प्रवाह बढ़ता है और सूजन आती है। वे दर्द पैदा करने वाले रासायनिक संकेतों को भी सक्रिय करते हैं।

सूजन

शोथ का एक प्रकट लक्षण सूजन है, जिसे चिकित्सा की भाषा में एडिमा (edema) कहते हैं। यह शरीर के ऊतकों या किसी अंग में तरल पदार्थ का जमाव (fluid retention) है। तरल के इस जमाव से वह हिस्सा फूल जाता है। यह तरल चोटग्रस्त क्षेत्र में फैली हुई रक्त वाहिकाओं से रिसकर बाहर निकलता है और जमा हो जाता है। इसमें श्वेत रक्त कोशिकाएं (white blood cells), विशेषतः न्यूट्रोफिल्स तथा इम्युनोग्लोबुलिन (अर्थात एंटीबाडीज़ – (antibodies)) भरपूर मात्रा में होती हैं जो घाव की मरम्मत करने में सहायक होती हैं। 

शोथ चोट या संक्रमण के विरुद्ध प्रतिरक्षा प्रणाली (immune response) की प्रतिक्रिया में वृद्धि करती है। यह चोटग्रस्त ऊतकों की मरम्मत के द्वारा सामान्य कार्यप्रणाली को दुरुस्त करती है और उसे बहाल करती है। इसके विपरीत, गैर-स्टेरॉइड दर्द निवारक दवाएं दर्द के साथ-साथ शोथ भी दूर करती हैं जिससे उपचार में देरी हो सकती है और दर्द से उबरने में भी देरी हो सकती है। अत: प्रोस्टाग्लैंडिन से उत्पन्न दर्द के इलाज के लिए एक बेहतर रणनीति यह होगी कि शोथ से मिलने वाली सुरक्षा (healing protection) को प्रभावित किए बिना केवल दर्द को चुनिंदा रूप से खत्म किया जाए।

एस्पिरिन (Aspirin) और अन्य गैर-स्टेरॉइड शोथ-रोधी दवाइयां प्रोस्टाग्लैंडिन बनाने वाले एंज़ाइमों को अवरुद्ध (enzyme inhibition) करके इसके निर्माण को रोक देती हैं, जिससे सूजन और दर्द कम हो जाता है।

श्वान कोशिकाएं

श्वान (Schwann) कोशिकाएं मस्तिष्क के बाहर परिधीय तंत्रिका तंत्र (peripheral nervous system) में पाई जाती हैं और माइग्रेन (migraine pain) तथा अन्य प्रकार के दर्द का कारण होती हैं। फ्लोरेंस विश्वविद्यालय (University of Florence) के पियरेंजेलो गेपेटी ने श्वान कोशिकाओं में एक किस्म के प्रोस्टाग्लैंडिन (PGE2) पर ध्यान केंद्रित किया, जिसे शोथ सम्बंधी दर्द (inflammatory pain) का एक मुख्य मध्यस्थ माना जाता है।

कोशिका झिल्लियों पर PGE2 (PGE2 receptors) के लिए चार अलग-अलग रिसेप्टर्स होते हैं। गेपेटी के पूर्व अध्ययनों ने PGE2 के लिए EP4 रिसेप्टर (EP4 receptor) को शोथ सम्बंधी दर्द उत्पन्न करने वाले मुख्य रिसेप्टर के रूप में इंगित किया है। हालांकि, नेचर कम्युनिकेशंस (Nature Communications research) में, शोधकर्ताओं ने एकाधिक लक्ष्य आधारित दृष्टिकोण अपनाया और पाया कि एक अलग रिसेप्टर (EP2) दर्द के लिए काफी हद तक ज़िम्मेदार था। श्वान कोशिकाओं में केवल EP2 रिसेप्टर को शांत करने के लिए स्थानीय रूप से दवाइयां देने पर चूहों में शोथ को प्रभावित किए बिना दर्द प्रतिक्रियाएं दूर हो गईं। इस प्रकार शोथ को दर्द से प्रभावी रूप से अलग कर दिया गया। यह शोध दर्द निवारण (pain relief research) के क्षेत्र में एक नई दिशा देता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://penntoday.upenn.edu/sites/default/files/styles/2880px_wide_with_focal_crop/public/2025-10/Betley-Main.png?h=8ddab598&itok=GJ3YoWfi

खून की जांच से अल्ज़ाइमर की पहचान संभव है?

हाल ही में अल्ज़ाइमर रोग (Alzheimer test) के लिए एक नए रक्त परीक्षण (blood test) को मंज़ूरी मिली है। अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन द्वारा स्वीकृति प्राप्त इस जांच को बीमारी की पहचान में एक बड़ा कदम माना जा रहा है। Elecsys pTau181 नामक यह परीक्षण दो दवा कंपनियों (रोश और एली लिली) ने मिलकर विकसित किया है। इस जांच से डॉक्टर यह बता पाएंगे कि किसी मरीज़ की याददाश्त कम होना या भ्रम अल्ज़ाइमर (Alzheimer diagnosis) की वजह से है या इसका कोई और कारण है।

गौरतलब है कि अल्ज़ाइमर का कारण (Alzheimer cause) दो हानिकारक प्रोटीन, एमिइलॉइड-बीटा (amyloid-β) और टाउ (tau), का मस्तिष्क में जमाव है। यह जांच रक्त में टाउ प्रोटीन के एक विशेष – pTau181) – को मापता है: इस प्रोटीन का अधिक स्तर यानी अल्ज़ाइमर रोग।

यह जांच 97.9 प्रतिशत मामलों (312 लोग) में ठीक-ठीक बता पाई कि व्यक्ति को अल्ज़ाइमर नहीं है। अर्थात अगर टेस्ट का परिणाम नकारात्मक आता है, तो लगभग निश्चित है कि व्यक्ति को अल्ज़ाइमर नहीं है। इस वजह से यह टेस्ट प्राथमिक स्वास्थ्य चिकित्सकों (primary care doctors) के लिए जांच का बेहतरीन तरीका है। ज़ाहिर है, यह परीक्षण अल्ज़ाइमर की पुष्टि करने के लिए नहीं, बल्कि इसे खारिज (screening test) करने के लिए बनाया गया है।

गौरतलब है कि अल्ज़ाइमर की जांच के लिए एकमात्र Elecsys टेस्ट नहीं है। मई में Lumipulse (blood biomarker test) नाम का एक और रक्त परीक्षण आया है जो दो प्रोटीन, pTau217 (protein marker) और amyloid-β (1–42) के अनुपात को मापता है। इसके ज़रिए अल्ज़ाइमर की पुष्टि और खारिज दोनों किए जा सकते हैं।

वैज्ञानिक ने चेताया देते हैं कि रक्त आधारित अल्ज़ाइमर परीक्षण (Alzheimer blood tests) पूरी तरह सटीक नहीं हैं। कई लोगों के परिणाम ‘ग्रे ज़ोन’ में आते हैं, यानी उन्हें ब्रेन स्कैन (brain scan) या स्पाइनल फ्लूइड टेस्ट (spinal fluid test) की ज़रूरत पड़ती है। उदाहरण के लिए, Quanterix कंपनी के एक अन्य pTau217 आधारित टेस्ट (diagnostic accuracy) में लगभग 30 प्रतिशत व्यक्ति ऐसे थे जिनके नतीजे अनिश्चित रहे।

विशेषज्ञों के अनुसार परीक्षणों के परिणाम उत्साहजनक तो हैं और अल्ज़ाइमर के पारंपरिक (Alzheimer detection) और अधिक जटिल परीक्षणों से मेल खाते हैं। लेकिन जब तक ट्रायल के सभी आंकड़े (clinical data) उपलब्ध नहीं होते, तब तक टेस्ट की सटीकता को पूरी तरह स्पष्ट मानना मुश्किल है।

लेकिन इन परीक्षणों का फायदा तो तभी होगा जब बीमारी का इलाज (Alzheimer treatment) मौजूद हो। इसलिए इलाज खोजने की दिशा में प्रयास भी ज़रूरी हैं। बहरहाल, इन परीक्षणों से इतना तो किया जा सकता है कि अल्ज़ाइमर की संभावना (risk detection) पता कर ऐहतियात बरती जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://healthmatters.nyp.org/wp-content/uploads/2024/08/Alzheimers_blood_test_hero.jpg

मलभक्षी गुबरैले ने मांस खाना कैसे शुरू किया

गभग 3.7 करोड़ साल पूर्व अर्जेंटीना के पेटागोनिया क्षेत्र (Patagonia region) के घास के मैदान जीवन से समृद्ध थे। यहां मैदानों में घोड़े (prehistoric horses) और टेपर जैसे बड़े-बड़े शाकाहारी से लेकर नुकीले दांतों वाले मार्सुपियल प्राणि (marsupial animals) और पक्षी विचरते थे। लेकिन पैरों के नीचे एक अलग कहानी चल रही थी। गोबर (विष्ठा) खाने वाले छोटे गुबरैले धीरे-धीरे सड़े हुए मांस (rotting meat) का रुख कर रहे थे। क्यों?

कई दशकों तक वैज्ञानिकों का मानना था कि गुबरैलों ने लगभग 1,30,000 से 12,000 साल पहले ही मांस खाना शुरू किया था। यह भी माना जाता था कि जब दक्षिण अमेरिका के बड़े जीव जलवायु परिवर्तन (climate change) और मानव शिकार (human hunting) के कारण विलुप्त हो गए, तो विष्ठा की कमी से गुबरैलों को मजबूरन लाशों पर निर्भर होना पड़ा।

लेकिन कई वैज्ञानिकों का मानना था कि ऐसा बड़ा बदलाव इतनी जल्दी संभव नहीं है, क्योंकि इसके लिए कई एंज़ाइम (enzymes) और नई संवेदी क्षमताओं (sensory adaptations) की ज़रूरत होती है, जिन्हें विकसित होने में बहुत समय लगता है। हालिया अध्ययन (scientific study) ने कुछ नए तथ्य उजागर किए हैं जिनसे लगता है कि गुबरैलों ने मांस खाना तभी शुरू कर दिया था जब बड़े जंतु और उनकी विष्ठा प्रचुरता से उपलब्ध थी।

समस्या यह है कि गुबरैलों के जीवाश्म (fossils) बहुत कम मिलते हैं, इसलिए उनके अतीत के बारे में जानकारी सीमित थी। लेकिन उनकी एक चीज़ ज़रूर बची रही – ‘ब्रूड बॉल्स’, यानी मिट्टी के वे गोले जिन्हें वे अपने अंडों की सुरक्षा और नवजातों के भोजन के लिए बनाते हैं। यही अब उनके विकास की कहानी समझने की अहम कड़ी (evolutionary link) बन गए हैं।

अर्जेंटीना स्थित बर्नार्डिनो रिवादाविया नेचुरल साइंसेज़ म्यूज़ियम (Bernardino Rivadavia Natural Sciences Museum) की डॉ. लिलियाना कैंटिल के नेतृत्व में टीम ने अर्जेंटीना, चिली, उरुग्वे और इक्वाडोर से मिले लगभग 5 करोड़ साल पुराने 5000 से ज़्यादा अश्मीभूत ब्रूड बॉल्स का अध्ययन किया। पाया कि इनमें से कुछ ब्रूड बॉल्स की बनावट में एक खास तरह की संरचना थी। इनके अंदर एक छोटी-सी बाहर निकली मचान-सी (पर्च) (perch-like structure) थी। आज के गुबरैलों में यह संरचना सिर्फ उन्हीं प्रजातियों में पाई जाती है जो सड़े हुए मांस (carrion-feeding beetles) पर निर्भर रहते हैं। इनके लार्वा इस मचान पर बैठकर पास पड़े सड़े मांस को खाते हैं, न कि सीधे गोबर को।

पैलियोंटोलॉजी (paleontology study) में प्रकाशित नतीजों के अनुसार ये विशेष संरचनाएं लगभग 3.77 करोड़ वर्ष पुराने जीवाश्मों में मिलीं। इसका मतलब है कि कुछ गुबरैलों ने बड़े जीवों के विलुप्त होने से बहुत पहले ही मांस खाना शुरू कर दिया था: गुबरैलों के भोजन में बदलाव तभी हो गया था जब घास के मैदान और बड़े शाकाहारी जीव खूब फल-फूल रहे थे। शोध दल के अनुसार यह परिवर्तन प्रतिस्पर्धा (ecological competition) के कारण हुआ। जब बहुत-सी प्रजातियां गोबर पर निर्भर थीं, तो कुछ प्रजातियों ने मांसाहार का रास्ता अपना लिया।

यह खोज 2020 के एक जेनेटिक अध्ययन (genetic study) से मेल खाती है, जिसमें पाया गया था कि मांस खाने वाले गुबरैले लगभग 3.5 से 4 करोड़ साल पहले दक्षिण अमेरिका (South America evolution) में विकसित हुए थे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zmw7ail/card-type9/_20251017_on_necro_beetle-1760738052193.jpg

विद्युत आवेश से निशाना साधते कृमि

वैसे तो यह पता ही है कि कई मामलों में स्थिर विद्युत (static electricity) पेड़-पौधों और जंतुओं की मदद करती है। जैसे यह देखा जा चुका है कि स्थिर विद्युत परागकणों (pollen transfer) को कीटों पर चिपकने में मदद करती है, कीटों को मकड़ी के जालों (spider web) में फंसाने में काम आती है और मकड़ियों को समुद्र पार करने में मददगार होती है।

अब इसी स्थिर विद्युत का एक और करिश्मा (scientific discovery) उजागर हुआ है। वैसे स्थिर विद्युत काफी जानी-पहचानी चीज़ है। जब कंघी को सूखे बालों पर रगड़ते हैं या मोरपंख को कागज़ में से घसीटते हैं तो उनमें आसपास पड़े कागज़ के टुकड़ों को आकर्षित करके चिपकाने का गुण आ जाता है। आजकल प्लास्टिक की कुर्सियों को किसी ऊनी कपड़े से रगड़कर चिंगारियां (electric sparks) पैदा करना बच्चों का पसंदीदा खेल बन गया है। और चिंगारियां इसलिए पैदा होती हैं क्योंकि कुर्सी पर स्थिर विद्युत आवेश पैदा हो जाता है।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस (यूएस) (PNAS study) में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि आधा मिलीमीटर साइज़ का एक गोल कृमि (Steinernema carpocapsae) भी इससे लाभान्वित होता है। यह कृमि अपनी साइज़ से 20 गुना तक ऊंची छलांग लगाकर उड़ते कीटों (flying insects) को निशाना बना लेता है और उनके शरीर में जानलेवा बैक्टीरिया डालकर उन्हें मार देता है।

दरअसल इल्लियों और अन्य नुकसानदेह कीटों को मारने के लिए किसान अपने खेतों में गोल कृमि (nematode parasite) छोड़ते हैं। ये जीव खेत में विचरती इल्लियों और कीटों (जैसे फलमक्खियों) को मारने के लिए इनकी ओर हवा में लंबी छलांग लगाते हैं, और अपने मेज़बानों के शरीर में घातक बैक्टीरिया (pathogenic bacteria) छोड़ देते हैं।

अलबत्ता, निशाना थोड़ा भी चूका तो जानलेवा हो सकता है क्योंकि वहां पहुंचकर भोजन नहीं मिलेगा और सूखने की नौबत आ सकती है। शोधकर्ता यह समझना चाहते थे कि निशाना चूकने की वारदात क्यों नहीं होती।

जांच करने के लिए शोधकर्ताओं ने जीवित फलमक्खी (fruit fly) को लिया और उसे तांबे के तारों से जोड़ दिया। यह फलमक्खी गोल कृमि का आम शिकार है। तांबे का तार फलमक्खी के स्थिर विद्युत आवेश का नियंत्रण करता था। इसके बाद उन्होंने इस मक्खी को Steinernema carpocapsae की एक बस्ती से करीब 6 मिलीमीटर ऊपर लटका दिया। आगे की वारदात स्लो मोशन कैमरा (slow motion camera) पर रिकॉर्ड की गई। देखा गया कि जब मक्खी पर आवेश एक सामान्य उड़ते हुए कीट के आवेश के स्तर का था, तब सारे के सारे 18 गोल कृमि अपने शिकार पर पहुंच गए थे। दूसरी ओर स्थिर विद्युत की अनुपस्थिति में सफलता की दर बहुत कम रही। पूरी वारदात का वीडियो देखने के लिए: https://phys.org/news/2025-10-fatal-electric-worm-aerial-prey.html (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.newscientist.com/wp-content/uploads/2023/03/14151427/SEI_147558179.jpg?width=900

पश्चिमी देशों में बच्चों में मूंगफली एलर्जी घटी

लर्जी (allergy) कई तरह की चीज़ों से हो सकती है। जैसे धूल से, कुछ फूलों के पराग से, दवाइयों से, या किसी खाद्य पदार्थ से। एलर्जी यानी हमारे प्रतिरक्षा तंत्र (immune system) का उन चीज़ों के प्रति अतिसक्रिय सुरक्षात्मक व्यवहार जिन्हें हमारा शरीर खतरे की तरह भांपता है; हो सकता है कि वे चीज़ें वास्तव में हानिकारक न हों। ऐसी ही एक चीज़ है मूंगफली। पश्चिमी देशों में मूंगफली से एलर्जी (peanut allergy) के सर्वाधिक मामले सामने आते हैं जबकि भारत जैसे देशों में इसका प्रकोप काफी कम है।

मूंगफली से एलर्जी बच्चों में, खासकर शिशुओं (children allergy) में, अधिक होती है। यूं तो जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं और हमारा पाचन तंत्र (digestive system) परिपक्व होने लगता है, वैसे-वैसे यह एलर्जी खत्म हो जाती है। लेकिन इससे ग्रसित 80 प्रतिशत लोगों में यह वयस्क अवस्था में बनी रहती है और एक बार जाने के बाद दोबारा भी उभर सकती है।

पिछले कुछ दशकों में देखा गया था कि मूंगफली से एलर्जी के मामले बढ़ रहे थे। लेकिन वैज्ञानिक पूरी तरह से समझ नहीं पाए हैं कि खाद्य एलर्जी (food hypersensitivity) का कारण क्या है। कुछ का मानना है कि सी-सेक्शन प्रसूतियों की बढ़ती दर, बचपन में एंटीबायोटिक दवाइयों का सेवन (antibiotics use) और बढ़ता हुआ स्वच्छ वातावरण शायद इसके लिए ज़िम्मेदार है।

मूंगफली से एलर्जी में शरीर पर लाल चकत्ते (skin rash), छींकें, मुंह और गले के आसपास खुजली और सूजन, उल्टी-दस्त के अलावा रक्तचाप गिरना, दमा के दौरे (asthma attack), बेहोशी, कार्डिएक अरेस्ट जैसी समस्याएं हो सकती हैं और जान भी जा सकती है। फिर, एलर्जी ऐसी बला है कि इससे निजात भी नहीं पाई जा सकती, क्योंकि अब तक इसका इलाज उपलब्ध नहीं है। हालांकि इसके लक्षणों से निपटने और जान बचाने के लिए कुछ दवाएं ज़रूर मौजूद हैं।

इसलिए जैसे-जैसे खाद्य एलर्जी (food allergy prevention) के मामले बढ़ने लगे, विशेषज्ञों ने सलाह दी कि शिशुओं को मूंगफली जैसी आम एलर्जिक चीज़ों से दूर ही रखें। लेकिन फिर, 2015 में हुए एक परीक्षण (clinical trial) में पाया गया था कि शिशुओं को मूंगफली खिलाने से उनमें एलर्जी विकसित होने की संभावना लगभग 80 प्रतिशत घट जाती है। तब 2017 में, अमेरिका के राष्ट्रीय एलर्जी और संक्रामक रोग संस्थान (National Institute of Allergy and Infectious Diseases) ने औपचारिक रूप से शिशुओं को शुरुआती सालों में मूंगफली खिलाने की सिफारिश कर दी।

हाल ही में पीडियाट्रिक्स (Pediatrics study) में प्रकाशित अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इन दिशानिर्देशों की प्रभाविता जांची। उन्होंने पाया कि 2012-15 की अवधि में 3 साल से कम उम्र के बच्चों में खाद्य एलर्जी की दर 1.43 प्रतिशत थी जो 2017-2020 की अवधि में घटकर 0.93 प्रतिशत रह गई यानी (36 प्रतिशत की कमी हुई)। इस गिरावट का प्रमुख कारण मूंगफली जनित एलर्जी (peanut allergy decline) में 43 प्रतिशत की कमी लगता है। इसके अलावा यह भी देखा गया कि पहले छोटे बच्चों में मूंगफली की एलर्जी सबसे ऊपर थी लेकिन अब अंडे से होने वाली एलर्जी पहले पायदान पर पहुंच गई है।

अलबत्ता, अध्ययन में इस बात पर नज़र नहीं रखी गई थी कि शिशुओं ने क्या खाया था, इसलिए कहना मुश्किल है कि कमी दिशानिर्देशों के कारण ही आई है। फिर भी, आंकड़े (research findings) आशाजनक हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.ctfassets.net/6m9bd13t776q/2byB8Dz9gGHpFcBY8V5C0K/81b2ef90a13f91f7b13c6c8af754db8d/news-australia-launches-peanut-immunitherapy-program-hero-shutterstock_1850231455.png?fm=webp&q=90