धरती की सीमाएं: लांघना नहीं था, हमने लांघ दिया

सीमा मुंडोली

में सुरक्षित क्या महसूस कराता है? भरोसेमंद दोस्तों और परिवार का साथ। एक ऐसा जाना-पहचाना माहौल (safe environment) जो हमें निश्चिंत रखता है और जहां हमारे द्वारा तय की गई सीमा रेखाओं/हदों का सम्मान (personal boundaries) होता है।

आखिरी बात हमारे एकमात्र घर (planet Earth) धरती के लिए भी सच है।

धरती पर जीवन लगभग 3.7 अरब साल पहले एक-कोशिकीय जीव के रूप में शुरू हुआ था। लेकिन हमें – होमो सेपियंस को – पृथ्वी पर अस्तित्व में आने में बहुत ज़्यादा समय लगा। हम महज़ 3,00,000 साल पहले ही अफ्रीका में विकसित हुए। उसके बाद मनुष्य अफ्रीका से निकलकर तमाम महाद्वीपों में फैल गए। हिमयुग के बाद, पिछले 12,000 साल – होलोसीन काल (Holocene epoch)– वह समय था जब खेती की शुरुआत, शहरों के बसने और तेज़ी से आबादी बढ़ने के साथ बड़े-बड़े बदलाव हुए। होलोसीन के दौरान स्थिर मौसम (stable climate) ने मनुष्य के जीवन और नैसर्गिक प्रणाली को फलने-फूलने में मदद की।

फिर औद्योगिक क्रांति आई, जिसमें जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल (industrial pollution) बढ़ा और प्रदूषण जैसे बुरे पर्यावरणीय असर भी हुए। एक बार जब हम औद्योगिकीकरण के रास्ते पर चल पड़े तो हमने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1970 के दशक तक, यह स्पष्ट होता गया था कि सालों की औद्योगिक गतिविधियों ने प्राकृतिक पर्यावरण को नुकसान (environmental degradation) पहुंचाया है – नदियां प्रदूषित हुई हैं, हवा ज़हरीली हुई है, जंगल कट गए हैं और समंदरों की हालत खराब हो गई है।

किंतु सवाल बना रहा: कितना नुकसान हद से ज़्यादा है?

2009 में, जोहान रॉकस्ट्रॉम ने अन्य वैज्ञानिकों के साथ मिलकर ग्रह पर मनुष्य के प्रभाव के पैमाने का अंदाज़ा लगाने के लिए प्लेनेटरी बाउंड्रीज़ (Planetary Boundaries) फ्रेमवर्क का प्रस्ताव रखा। उन्होंने नौ सीमा रेखाओं (प्लेनेटरी बाउंड्रीज़- environmental thresholds) की पहचान की, जिन्हें अगर लांघा गया तो पृथ्वी की कार्यप्रणाली डगमगा सकती है। हद में रहने से यह सुनिश्चित होगा कि हम एक सुरक्षित कामकाजी दायरे में रहेंगे। ये नौ सीमा रेखाएं हैं: जलवायु परिवर्तन, जैवमण्डल समग्रता, भू-प्रणाली परिवर्तन, मीठे पानी में बदलाव, जैव भू-रसायन चक्र, समुद्र अम्लीकरण, वायुमंडलीय एरोसोल (निलंबित कणीय पदार्थ) का भार, समतापमंडल में ओज़ोन क्षरण और नवीन कारक।

इनमें से हर सीमा के लिए वैज्ञानिकों ने एक या दो मात्रात्मक परिवर्ती मानक तय किए, जिनके आधार पर हम यह जांच सकते हैं कि पृथ्वी की वह प्रणाली क्या सुरक्षित सीमा के अंदर है। मसलन, जलवायु परिवर्तन की सीमा में परिवर्ती कारकों में से एक है कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता (CO2 concentration), जिसे पार्ट्स पर मिलियन (ppm) में मापा जाता है। इसकी सांद्रता की सीमा 350ppm तय की गई है। और कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता इससे अधिक होने या सीमा पार करने का मतलब है कि ग्रह की प्रणाली पर खतरा बहुत तेज़ी से बढ़ेगा।

जब 2009 में यह फ्रेमवर्क पहली बार पेश किया गया था, तब ग्रह की तीन हदों – जलवायु परिवर्तन, जैवमंडल समग्रता और भू-जैवरसायन चक्र – का उल्लंघन हो भी चुका था। यह एक चेतावनी थी कि ग्रह स्तर पर हम मुश्किल में थे। 2015 तक, भू-प्रणाली बदलाव का उल्लंघन हो चुका था। 2023 में दो और सीमाएं उल्लंघन की सूची में जुड़ गई थीं – नए कारक और मीठा पानी परिवर्तन (freshwater change)। और अब, सितंबर 2025 में हमने एक और सीमा को लांघ दिया है – समुद्र अम्लीकरण (तालिका देखें) (ocean acidification) ये सीमाएं 15 साल पूर्व पहली बार इस उम्मीद के साथ प्रस्तावित की गई थीं कि हमें यह समझने में मदद मिले कि मनुष्य की गतिविधियों का पृथ्वी पर क्या असर पड़ रहा है, और हमें तुरंत सुधार के लिए कदम उठाने का तकाज़ा मिले। तब से हम नौ में से सात सीमाओं का उल्लंघन कर चुके हैं।

इसका क्या मतलब है? सीधे शब्दों में: हमारी पृथ्वी अब स्वस्थ नहीं रही (planetary health)

फिलहाल वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता 423ppm है, जो 350ppm की सुरक्षित सीमा से बहुत अधिक है। नतीजतन पृथ्वी तेज़ी से गर्म हो रही है, बर्फ की चादरें पिघल रही हैं, समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है और तटवर्ती इलाके खतरे में हैं।

जैवमंडल समग्रता (biosphere integrity) सीमा भी बहुत ज़्यादा खतरे में है। सजीवों के विलुप्त होने की दर पहले से दस गुना अधिक है, और दुनिया भर के कई पारिस्थितिकी तंत्र बहुत ज़्यादा खतरे में हैं। संभव है कि हमारे द्वारा खोजे जाने से पहले ही कई प्रजातियां विलुप्त हो जाएं। अकेले 2024 में, पक्षियों की कई प्रजातियां (जैसे स्लेंडर-बिल्ड कर्ल्यू और ओउ), मछलियों की प्रजातियां (जैसे थ्रेसियन शैड और चीम व्हाइटफिश), और अकशेरुकी जीव (जैसे कैप्टन कुक्स बीन स्नेल) विलुप्त घोषित कर दिए गए। 2024 की लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 50 सालों में जंगली जानवरों की आबादी में 73 प्रतिशत की भारी गिरावट (biodiversity loss) आई है – इस मामले में समुद्री, थलीय और मीठे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र समान रूप से प्रभावित हैं। दुखद तथ्य यह है कि विलुप्ति निश्चित है और इसे पलटा नहीं जा सकता। विलुप्त होने से जेनेटिक विविधता खत्म हो जाती है और पारिस्थितिकी तंत्र बाधित होता है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र की कार्यात्मक क्षमता कम हो जाती है। कितना दुखद है कि हम उन प्रजातियों को फिर कभी नहीं देख पाएंगे जो कभी इस ग्रह पर हमारे साथ रहती थी।

हाल ही में समुद्र के अम्लीकरण की सीमा का उल्लंघन खास चिंता की बात है। समुद्र हमारे ग्रह के 70 प्रतिशत हिस्से पर मौजूद हैं, और कुल कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन का लगभग एक चौथाई हिस्सा सोख (carbon sink) लेते हैं। वे लंबे समय से हमारे लिए उत्सर्जन के सोख्ता की तरह काम करते रहे हैं। साथ ही ये अपने अंदर बहुत अधिक जैव विविधता को बनाए हुए हैं और लाखों लोगों को भोजन देते हैं। लेकिन जैसे-जैसे समुद्र ज़्यादा कार्बन डाईऑक्साइड सोखते हैं, वे अधिक अम्लीय होते जाते हैं। इससे कोरल का क्षरण (कोरल ब्लीचिंग) होता है – अनगिनत समुद्री प्रजातियों का प्राकृतवास खत्म (marine ecosystem decline) हो जाता है। और समुद्री जीवों के खोल और कंकाल कमज़ोर हो जाते हैं, जिससे उन्हें ‘ऑस्टियोपोरोसिस’ हो जाता है। समुद्र के अम्लीकरण की सीमा पार करने का मतलब है बड़े-बड़े बदलाव। ऐसी घटनाएं शुरू हो गई हैं जिनके असर का हम अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते।

हर लांघी गई सीमा अन्य स्थितियों/सीमाओं को और बदतर करती है, जिससे एक दुष्चक्र (vicious cycle) बनता है जो पृथ्वी को अस्थिरता के और करीब ले जाता है। हमें यह भी याद रखना होगा कि ग्रह की सीमा रेखाएं एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। जैसे भू-प्रणाली में परिवर्तन, जिसमें खेती या जानवर पालने के लिए जंगल कटाई से जैवविविधता की क्षति होगी और कार्बन का अवशोषण कम होगा, जिससे जलवायु परिवर्तन और तेज़ होगा (deforestation impact)। पानी में बढ़े हुए नाइट्रोजन और फॉस्फोरस के साथ बदले हुए भू-जैव-रासायनिक मृत क्षेत्र बनते हैं जो बदले में ताज़े पानी की उपलब्धता और जैवविविधता पर असर डालते हैं। हर सीमा दूसरी सीमा से जुड़ी है जिससे खतरा बढ़ जाता है।

ग्रहों की सीमा रेखाओं के उल्लंघन की विशिष्ट जवाबदेही तय नहीं हो पाई है, खासकर इसलिए क्योंकि पश्चिम के कुछ अमीर देशों के उपभोग ने ऐतिहासिक रूप से सीमाओं के उल्लंघन में अधिक योगदान दिया है – और यह जारी है। लेकिन ग्रह-स्तरीय सीमा की अवधारणा ने हमें पृथ्वी पर मनुष्य की गतिविधियों (human impact) के असर का वैज्ञानिक और मात्रात्मक तरीके से आकलन करने के लिए एक फ्रेमवर्क ज़रूर दिया है। हमें 2009 में ही सावधान हो जाना चाहिए था, जब सिर्फ तीन सीमाएं पार हुई थीं, और समझ जाना चाहिए था कि धरती पर मनुष्यों के क्रियाकलापों के कैसे-कैसे बुरे प्रभाव पड़ेंगे।

लेकिन तब हमने अनसुना-अनदेखा कर दिया। अधिकांश दुनिया वैसे ही काम करती रही, बीच-बीच में कुछ मामूली सुधार होते रहे। अब, 2025 में जब नौ में से सात सीमा रेखाएं पार हो चुकी हैं, तो हम सुरक्षित नहीं हैं (climate emergency)।

लेकिन सब कुछ खत्म नहीं हुआ है, अगर हम याद रखें कि हम इस मुश्किल में एक साथ हैं। उस तरह, जिस तरह हम लांघी गई एक सीमा रेखा – ओज़ोन परत के क्षरण (ozone depletion) – को पलटने के लिए एकजुट हुए थे। 1985 में वैज्ञानिकों ने बताया था कि रेफ्रिजरेटर, एयर कंडीशनर वगैरह में इस्तेमाल होने वाले रसायनों की वजह से ओज़ोन परत में छेद हो गया था। ओज़ोन परत में छेद का मतलब था कि अब हमारे पास सूरज की पराबैंगनी किरणों से कोई सुरक्षा नहीं थी, जिससे हम त्वचा कैंसर के शिकार हो सकते थे और कई पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में पड़ सकते थे। तब सरकारें मॉन्ट्रियल संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए साथ आईं (global cooperation), जिसमें ओज़ोन में छेद करने वाले रसायनों का इस्तेमाल धीरे-धीरे खत्म करने का वादा किया गया था। प्रयास सफल रहे।

यह सफलता हमें याद दिलाती है: अगर एक सीमा रेखा (planetary boundary) के उल्लंघन को पलट सकते हैं, तो हम ऐसा फिर से कर सकते हैं। हमारा – और पृथ्वी पर जीवित हर प्राणी का – भविष्य इस पर निर्भर करता है। (स्रोत फीचर्स)  

तालिका: ग्रह की नौ सीमा रेखाएं और उनकी स्थिति

सीमाव्याख्यास्थिति
जलवायु परिवर्तनजीवाश्म ईंधन जलाने से ग्रीनहाउस गैसों और एरोसोल का उत्सर्जन होता है, जिससे जलवायु गर्माती है। नतीजतन बर्फ की चादरें पिघलती हैं, समुद्र का स्तर बढ़ता है।उल्लंघन हो चुका
जैवमण्डल की समग्रता में परिवर्तनप्राकृतिक संसाधनों का दोहन, आक्रामक प्रजातियों का आना और ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव। इससे जेनेटिक विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत में गिरावट आती है।उल्लंघन हो चुका
भू-प्रणाली में परिवर्तनशहरीकरण, पशुपालन और खेती के लिए जंगल काटकर ज़मीन बनाना। इससे कार्बन सोखने की क्षमता और अन्य पारिस्थिकीय कार्यों में कमी आती है।उल्लंघन हो चुका
मीठे पानी में परिवर्तनखेती, उद्योगों और घरेलू इस्तेमाल के लिए पानी की बढ़ती खपत। ब्लू वॉटर (जैसे नदियां और झीलें) और ग्रीन वॉटर (मिट्टी की नमी) का खराब होना, कार्बन भंडारण और जैव विविधता पर असर डालता है।उल्लंघन हो चुका
भू-जैव-रसायन में परिवर्तनफॉस्फोरस व नाइट्रोजन वाले औद्योंगिक उर्वरकों के ज़्यादा इस्तेमाल से समुद्री और मीठे पानी तंत्र में मृत क्षेत्र बनते हैं।उल्लंघन हो चुका
समुद्र अम्लीकरणजीवाश्म ईंधन के जलने से कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है जिसे समुद्र सोख लेता है और अम्लीय हो जाता है। समुद्री जीवों के खोल को नुकसान होता है और पारिस्थितिकी तंत्र नष्ट हो जाता है।उल्लंघन हो चुका
नए कारकउद्योगों, खेती और उपभोक्ता सामान से निकलने वाले कृत्रिम रसायन प्राकृतिक चक्र को बाधित करते हैं। और मनुष्य और जैव विविधता को हमेशा की क्षति का खतरा पैदा करते हैं।उल्लंघन हो चुका
वायुमण्डलीय एरोसोल में बढ़ोतरीजीवाश्म ईंधन के जलने और औद्योगिक गतिविधियों से हवा में मौजूद कणीय पदार्थ बढ़ते हैं, जिससे मौसम के पैटर्न में बदलाव आता है, खासकर तापमान और बारिश में।सुरक्षित सीमा में
ओज़ोन में क्षरणसिंथेटिक क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFCs) और नाइट्रस ऑक्साइड के उत्पादन और उत्सर्जन से ओज़ोन परत पतली होती है और नुकसानदायक पराबैंगनी किरणें धरती तक पहुंचती हैं।सुरक्षित सीमा में

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.pik-potsdam.de/en/news/latest-news/earth-exceed-safe-limits-first-planetary-health-check-issues-red-alert/@@images/image.png

ईरान में गहराता जल संकट

रान इस समय अपने इतिहास के सबसे गंभीर जल संकट (Iran water crisis) से गुज़र रहा है। हालात निरंतर खराब हो रहे हैं। तेहरान शहर की जल आपूर्ति वाले बांध लगभग खाली हो चुके हैं (water shortage) और सरकार देश के लिए पीने का पानी जुटाने के लिए जूझ रही है। लंबे सूखे, तेज़ गर्मी, कुप्रबंधन, बढ़ती आबादी, आर्थिक मुश्किलों, पुरानी कृषि प्रणालियों और जलवायु परिवर्तन (climate change) के मिले-जुले कारणों से देश बेहद कठिन स्थिति में पहुंच गया है।

गौरतलब है कि करीब 1 करोड़ आबादी वाले तेहरान की जल आपूर्ति पांच बड़े बांधों से होती है, लेकिन इन बांधों में अब अपनी सामान्य क्षमता से सिर्फ 10 प्रतिशत (dam depletion) पानी है। देश में 19 बांध सूखने की कगार पर हैं। करज जैसे भरोसेमंद जलाशय भी इतनी तेज़ी से सिकुड़ रहे हैं कि लोग यहां चहल-कदमी कर रहे हैं।

राष्ट्रपति मसूद पेज़ेश्कियन ने चेतावनी दी है कि अगर जल्द बारिश नहीं हुई, तो तेहरान में सख्त पानी राशन (water rationing) या सबसे बुरी स्थिति में कुछ इलाकों को खाली कराने तक की नौबत आ सकती है। विशेषज्ञ मानते हैं कि पूरा शहर खाली होना मुश्किल है, लेकिन यह चेतावनी हालात की गंभीरता दिखाती है।

ईरान पिछले छह वर्षों से लगातार सूखे (drought conditions) का सामना कर रहा है। पिछले साल गर्मियों का तापमान 50 डिग्री सेल्सियस से अधिक दर्ज किया गया था जिससे पानी तेज़ी से वाष्पित हुआ और पहले से कमज़ोर जल–प्रणालियों पर दबाव और बढ़ गया। पिछला जल-वर्ष सबसे सूखे वर्षों में से एक रिकॉर्ड किया गया था, और इस साल की स्थिति उससे भी खराब है। नवंबर की शुरुआत तक ईरान में सिर्फ 2.3 मि.मी.बारिश हुई – जो सामान्य औसत से 81 प्रतिशत कम है। बारिश और बर्फबारी न होने की वजह से बांध, नदियां और जलाशय तेज़ी से सिमट़ गए हैं।

जलवायु परिवर्तन और बढ़ती गर्मी इस संकट को और गंभीर बना रहे हैं, लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि इस स्थिति के लिए दशकों का खराब प्रबंधन (water mismanagement) भी उतना ही ज़िम्मेदार है। ईरान ने कृषि और उद्योग को बढ़ाने की कोशिश तो की, लेकिन पानी की सीमाओं को ध्यान में नहीं रखा। सरकार लगातार नए बांध बनाती रही, गहरे कुएं खोदती रही और दूर-दराज़ के इलाकों से पानी खींचती रही – जैसे पानी की आपूर्ति कभी खत्म ही नहीं होगी।

यू.एन. विश्वविद्यालय के कावेह मदानी कहते हैं कि ईरान ने दशकों तक ऐसे व्यवहार किया जैसे उसके पास पानी अनंत मात्रा (unlimited water myth) में हो। आज पानी ही नहीं, बल्कि ऊर्जा और गैस प्रणालियां भी दबाव में हैं, जो संसाधन प्रबंधन की व्यापक विफलता दिखाता है।

सरकार ने चेतावनी दी है कि जल्द ही रात में पानी की सप्लाई बंद की जा सकती है, या पूरे देश में पानी की सख्त राशनिंग हो सकती (national water cuts) है। कई लोगों ने गर्मियों में अचानक पानी बंद होने का सामना किया था, जिससे जनता की नाराज़गी बढ़ी है।

अब पानी की कमी कई जगह तनाव और विरोध (water protest) का कारण बन रही है, खासकर गरीब इलाकों में। लंबे समय से चल रहे प्रतिबंधों, बेरोज़गारी, महंगाई और आर्थिक संकट ने लोगों की हालत पहले ही कमज़ोर कर दी है, इसलिए वे नए मुश्किल हालात झेल नहीं पा रहे।

सरकार ने लोगों से पानी कम इस्तेमाल करने और घरों में पानी स्टोरेज टैंक लगाने की अपील की है। लेकिन इस उपाय में एक बड़ी समस्या है – घरेलू उपभोग कुल पानी का सिर्फ 8 प्रतिशत है, जबकि 90 प्रतिशत से ज़्यादा पानी कृषि (agriculture water use) में जाता है। इसलिए अगर हर घर 20 प्रतिशत पानी कम भी इस्तेमाल करे, तो भी कुल मिलाकर इसका असर बहुत कम होगा।

ईरान के कानून के अनुसार, देश का 85 प्रतिशत भोजन घरेलू स्तर पर ही उगाया (food security policy) जाना चाहिए। इसका उद्देश्य तो खाद्य सुरक्षा है, लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि इससे जल सुरक्षा पर भारी असर पड़ा है। ईरान के पास इतना पानी और उपजाऊ ज़मीन ही नहीं है कि वह इतनी बड़ी मात्रा में खेती जारी रख सके। उधर, भूजल को इतनी तेज़ी से उलीचा जा रहा है कि इस्फहान जैसे मध्य क्षेत्रों में जमीन धंसने (land subsidence) लगी है। सिस्तान और बलूचिस्तान जैसे इलाकों में तो पूरे के पूरे पारिस्थितिकी तंत्र ध्वस्त होने की कगार पर हैं।

ईरान में सुधार की राह में एक बड़ा रोड़ा अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध (international sanctions) हैं। इन प्रतिबंधों की वजह से विदेशी निवेश देश में नहीं आ पाता। असर यह है कि न तो आधुनिक जल प्रबंधन प्रणाली विकसित हो पाती है, न खेती की उन्नत तकनीकें अपनाई जा सकती हैं, और न ही असरदार पानी-रीसाइक्लिंग तकनीकें लगाई जा सकती हैं।

ग्रामीण इलाकों में ज़्यादातर लोग खेती पर निर्भर (rural agriculture dependence) हैं। प्रतिबंधों के चलते नए रोज़गार निर्मित करना मुश्किल है। इसी कारण सरकार कृषि क्षेत्र को पानी देती है। इससे लंबे समय में जल संकट बढ़ सकता है लेकिन सामाजिक अशांति और विरोध से बचने के लिए सरकार इसे अपना रही है।

विशेषज्ञों का मत है कि पानी के संकट से उबरने के लिए बड़े और लंबे समय के सुधार करने होंगे, जैसे:

  • भूजल का पुनर्भरण;
  • भूजल भंडार की मरम्मत;
  • पानी से जुड़ा स्पष्ट और पारदर्शी डैटा (water data transparency);
  • पानी, ऊर्जा व कृषि पर बराबर ध्यान देकर योजना बनाना;
  • स्थानीय समुदायों की भागीदारी;
  • लंबी अवधि वाली पर्यावरणीय नीतियां;
  • आधुनिक, कम पानी-खर्ची कृषि तकनीकें;
  • क्षेत्रों के बीच पानी के न्यायपूर्ण बंटवारे को प्राथमिकता।

यदि ये सुधार नहीं किए गए, तो पानी की कमी देश में सामाजिक व आर्थिक असमानता (water inequality) को और बढ़ा सकती है और अस्थिरता पैदा हो सकती है। असली सुधारों के लिए नीति-निर्माताओं को कठिन फैसले लेने की हिम्मत दिखाना होगा।

फिलहाल निगाहें सर्दियों की बारिश पर टिकी हैं। लेकिन विशेषज्ञ चेताते हैं कि चाहे बारिश अच्छी भी हो जाए, जब तक गंभीर सुधार नहीं किए जाते, ईरान को पानी की कमी का सामना करना पड़ेगा (water scarcity future)। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आखिर कब कम होगा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 

नगिनत जलवायु सम्मेलनों और चर्चाओं के बाद भी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन (greenhouse gas emission) निरंतर बढ़ रहा है। इस साल भी जीवाश्म ईंधन से होने वाला प्रदूषण (fossil fuel pollution) एक नया रिकॉर्ड बना सकता है। यह जानकारी ब्राज़ील के बेलेम शहर में आयोजित COP30 जलवायु सम्मेलन (COP30 climate summit) से मिली है। लेकिन इस बुरी खबर के बीच वैज्ञानिकों को कुछ सकारात्मक संकेत भी दिख रहे हैं। शायद दुनिया अब उस मोड़ के करीब है जहां उत्सर्जन चरम पर पहुंचकर नीचे आना शुरू हो सकता है।

ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट के अनुसार, जीवाश्म ईंधनों और सीमेंट उत्पादन से होने वाला कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन लगभग 1.1 प्रतिशत बढ़कर इस वर्ष 38.1 अरब टन पहुंचने की आशंका है जो अब तक का सबसे अधिक होगा (CO2 emission record)। अगर वनों की कटाई और भूमि-उपयोग में परिवर्तन में कमी को ध्यान में रखें, तो कुल वैश्विक उत्सर्जन पिछले साल जैसा ही रह सकता है या थोड़ा कम भी हो सकता है। लेकिन वैज्ञानिकों के अनुसार इस छोटे से बदलाव यह नहीं कहा जा सकता कि दुनिया सचमुच जीवाश्म ईंधनों से मुक्त होने की शुरुआत कर चुकी है।

पेरिस जलवायु समझौते (Paris Agreement) के लगभग दस साल बाद भी वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 2015 की तुलना में करीब 10 प्रतिशत ज़्यादा है। पिछले दो दशकों में अनेक विकसित देशों ने अपने उत्सर्जन कम किए हैं, लेकिन अधिकांश विकासशील देशों में प्रदूषण (developing countries emissions) लगातार बढ़ रहा है। भारत और चीन पर अक्सर सबसे ज़्यादा ध्यान जाता है क्योंकि उनकी आबादी अधिक है और अर्थव्यवस्था तेज़ी से बढ़ रही है। लेकिन सच यह है कि ऊर्जा की ज़रूरतों और आर्थिक विकास को पूरा करने की कोशिश में कई निम्न और मध्यम आय वाले देशों में भी उत्सर्जन बढ़ रहा है।

पिछले बीस वर्षों से चीन अकेले ही वैश्विक उत्सर्जन वृद्धि (China emissions)  का सबसे बड़ा कारण रहा है। दुनिया के कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का लगभग एक-तिहाई चीन से आता है। इसका मुख्य कारण है वहां स्थापित विशाल कोयला-आधारित बिजली संयंत्र, जिनमें 2023 में करीब 2.3 अरब टन कोयला जलाया गया।

इसके बावजूद, चीन दुनिया में सबसे तेज़ी से स्वच्छ ऊर्जा (clean energy transition)अपनाने वाले देशों में भी शामिल है। वह इलेक्ट्रिक वाहन, सोलर पैनल और पवन ऊर्जा उत्पादन में दुनिया का अग्रणी देश बन चुका है। चीन का संकल्प है कि वह 2035 तक अपने उत्सर्जन को अधिकतम स्तर से कम से कम 7 प्रतिशत घटाएगा। कई वैज्ञानिकों का मानना है कि जब चीन का उत्सर्जन चरम पर पहुंचकर कम होना शुरू होगा तब विश्व के कुल उत्सर्जन में भी गिरावट होगी।

कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि चीन में कार्बन उत्सर्जन पहले ही कम होना शुरू हो गया है (carbon reduction trend)। कार्बन मॉनीटर नामक संस्था के मुताबिक चीन का कार्बन उत्सर्जन 2024 में अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच चुका था, और इस साल यह लगभग 1.2 प्रतिशत कम हो सकता है। स्वच्छ ऊर्जा पर काम करने वाला समूह CREA भी इसी तरह के घटते रुझान की ओर इशारा करता है।

हालांकि, इस गिरावट का एक बड़ा कारण चीन के रियल-एस्टेट क्षेत्र में मंदी (real estate slowdown) है। मकान-बनाने की गति कम होने से स्टील और सीमेंट की मांग घट गई है और इन्हीं दोनों से बहुत बड़ी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन होता है।

फिर भी, कई शोधकर्ताओं का मानना है कि चीन का उत्सर्जन अपने चरम पर पहुंच चुका है, क्योंकि वहां स्वच्छ ऊर्जा बहुत तेज़ी से बढ़ रही है और चीन ने अपने जलवायु लक्ष्य (climate targets) भी तय किए हुए हैं। अब बड़ा सवाल यह है कि यदि कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन कम होना शुरू हो गया है, तो क्या अन्य ग्रीनहाउस गैसें — जैसे मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और अन्य औद्योगिक गैसें (methane emissions) — भी जल्द ही घटने लगेंगी?

अभी के लिए दुनिया का उत्सर्जन-ग्राफ ‘ऊपर चढ़ती’ हुई स्थिति में है। लेकिन उत्सर्जन में लंबे समय से जिस टर्निंग पॉइंट का इंतज़ार था उसके शुरूआती संकेत (global emission trends) दिखने लगे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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