ज़ुबैर सिद्दिकी

यह तो हम जानते हैं कि वैश्विक कार्बन उत्सर्जन का ग्राफ लगातार ऊपर चढ़ रहा है। वैज्ञानिक लंबे समय से चेतावनी देते आए हैं कि जब तक हर साल वातावरण में और अधिक कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन जुड़ती जाएंगी, पृथ्वी गर्म (global warming) होती जाएगी।
लेकिन हाल ही में एक अप्रत्याशित संकेत मिला है — बहुत छोटा, लेकिन इतना महत्वपूर्ण कि दुनिया भर के वैज्ञानिकों का ध्यान उस ओर आकर्षित हुआ। उपग्रह और ऊर्जा उत्पादन डैटा की मदद से रीयल-टाइम उत्सर्जन ट्रैक करने वाले अंतर्राष्ट्रीय समूह Climate TRACE ने साल की शुरुआत में वैश्विक उत्सर्जन में हल्की गिरावट (real-time emissions) दर्ज की है। इस वर्ष जनवरी, फरवरी और मार्च में उत्सर्जन पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में थोड़ा कम पाया गया। वैसे तो यह बदलाव मामूली लग सकता है, लेकिन लंबे समय से ऊपर जाते उत्सर्जन ग्राफ में इस तरह की छोटी-सी गिरावट भी किसी बड़े परिवर्तन का संकेत हो सकती है।
वर्षों से यह क्षण दूर की कौड़ी लगता था। वैश्विक उत्सर्जन हर साल औसतन 1 प्रतिशत बढ़ता रहा है, जबकि कई देशों ने बड़े कटौती के वादे (climate targets) किए थे। युरोप और अमेरिका में उत्सर्जन कई दशक पहले ही चरम पर पहुंचकर घटने लगा था, लेकिन दुनिया का कुल उत्सर्जन लगातार बढ़ता रहा, खासकर चीन के कारण।
गौरतलब है कि चीन की विशाल उद्योग व्यवस्था और ऊर्जा ज़रूरतें दुनिया में सबसे अधिक हैं (China emissions)। 2015 के पेरिस समझौते के बाद से वैश्विक उत्सर्जन वृद्धि का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा चीन अकेले जोड़ चुका है। जब तक चीन का उत्सर्जन बढ़ता रहता, तब तक दुनिया के कुल उत्सर्जन की चरम आना संभव ही नहीं था।
लेकिन हाल के वर्षों में चीन के इतिहास का सबसे तेज़ और व्यापक स्वच्छ ऊर्जा (renewable energy China) विस्तार हो रहा है। सिर्फ पिछले साल चीन ने नवीकरणीय ऊर्जा पर 625 अरब डॉलर खर्च किए जो अमेरिका और युरोपीय संघ दोनों के संयुक्त निवेश से भी अधिक है। विशाल सौर ऊर्जा परियोजनाएं रेगिस्तानों में दूर-दूर तक फैली हैं। पवन ऊर्जा संयंत्र, बैटरी कारखाने, इलेक्ट्रिक वाहन बनाने वाले कारखाने और हाई-वोल्टेज बिजली नेटवर्क तेज़ गति से फैल रहे हैं।
चीन में बदलाव इतनी तेज़ी से हो रहा है कि साल की पहली छमाही में सिर्फ सौर ऊर्जा की बढ़ोतरी (solar power growth) ही देश की सारी अतिरिक्त बिजली ज़रूरतें पूरी करने के लिए काफी थी। इसका मतलब है कि बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए चीन को अतिरिक्त कोयला संयंत्र नहीं बनाने पड़े। चीन के लोग भी इस बदलाव को तेज़ी से अपना रहे हैं। दुनिया में बनने वाली इलेक्ट्रिक कारों में से आधी से अधिक अब चीन में खरीदी जाती हैं। हर महीने 10 लाख से अधिक ईवी बिक रही हैं।
अगर शुरुआती आंकड़े सच में एक नए रुझान की शुरुआत दिखा रहे हैं, तो संभव है कि चीन में कार्बन उत्सर्जन का चरम पहले ही आ चुका हो या फिर सिर्फ एक–दो साल दूर (emission peak) हो।
लेकिन ‘चरम कार्बन’ पहचानना आसान नहीं है। ग्रीनहाउस गैसों (GHG measurement) का सही-सही हिसाब रखना एक कठिन काम है। वायुमंडल में मौजूद कार्बन डाईऑक्साइड को मापना तो सरल है — हवाई स्थित मौना लोआ ज्वालामुखी या दक्षिण ध्रुव जैसे दूर-दराज़ स्टेशनों पर लगे सेंसर यह जानकारी दे देते हैं। लेकिन यह पता लगाना मुश्किल है कि हर साल इंसान कुल कितना उत्सर्जन कर रहे हैं।
कार्बन उत्सर्जन कई बिखरे हुए स्रोतों से आता है — बिजलीघर, फैक्टरियां, कारें, ट्रक, हवाई जहाज़, जहाज़, खेती, पशुपालन, जंगल, कचरा-घाट, निर्माण कार्य, भारी उद्योग और प्राकृतिक प्रक्रियाएं जैसे जंगल की आग या बर्फीली जमीन (पर्माफ्रॉस्ट) का पिघलना (carbon sources)। इनमें से कई स्रोत बहुत छोटे होते हैं, कुछ इतने बिखरे होते हैं कि पकड़ में नहीं आते, और कुछ तो देशों द्वारा जानबूझकर कम दिखाए जाते हैं।
कई दशकों तक वैज्ञानिक उत्सर्जन का अनुमान लगाने के लिए मुख्य रूप से ऊर्जा खपत के राष्ट्रीय आंकड़ों, जीवाश्म ईंधन के उपयोग, औद्योगिक उत्पादन और आर्थिक मॉडलों पर निर्भर रहे हैं (fossil fuel data)। इस पद्धति की शुरुआत वैज्ञानिक चार्ल्स कीलिंग ने की थी, जिन्होंने प्रसिद्ध ‘कीलिंग कर्व’ बनाया जो वायुमंडलीय कार्बन डाईऑक्साइड की लगातार वृद्धि दर्शाता है। यह तरीका उपयोगी था, लेकिन पूर्ण नहीं।
1970 और 1980 के दशक में राल्फ रॉटी और ग्रेग मारलैंड जैसे शोधकर्ताओं ने वैश्विक उत्सर्जन के शुरुआती डैटाबेस (emission database) बनाए, जो लंबे समय तक मानक माने गए। लेकिन इन आंकड़ों में बड़े अंतर हो सकते थे और इन्हें अद्यतन करने में कई साल लग जाते थे, क्योंकि देशों को सही ऊर्जा आंकड़े भेजने में बहुत समय लगता था।
2017 में, अमेरिका के ऊर्जा विभाग ने अचानक कार्बन डाईऑक्साइड इन्फर्मेशन एनालिसिस सेंटर को बंद कर दिया, जो एक बड़ा और भरोसेमंद स्रोत था। इसके बंद होते ही एक बड़ा खालीपन (climate data loss) पैदा हो गया। तब से स्वतंत्र शोधकर्ता इस कमी को भरने की कोशिश कर रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में उत्सर्जन निगरानी में एक तरह की क्रांति आई है।
झू लियू द्वारा स्थापित कार्बन मॉनिटर में एक नया तरीका अपनाया गया, जिसमें रियल टाइम डैटा को लिया जाता है; जैसे हर घंटे की बिजली-ग्रिड जानकारी, GPS से ट्रैफिक का स्तर, हवाई यात्रा का डैटा, और औद्योगिक गतिविधि के संकेत। इन सभी के आधार पर लगभग हर महीने वैश्विक उत्सर्जन का अनुमान लगाया (real-time climate data) जाता है।
इसी दौरान Climate TRACE नाम का एक और प्रोजेक्ट सामने आया, जिसने उत्सर्जन मापने का बिल्कुल अलग लेकिन पूरक तरीका अपनाया। यह उपग्रह तस्वीरों, तापीय डैटा, एआई मॉडल और मशीन लर्निंग का उपयोग (AI emissions tracking) करता है। हज़ारों ज्ञात प्रदूषण स्रोतों के आधार पर प्रशिक्षित यह प्रणाली बिजली संयंत्रों, स्टील फैक्ट्रियों, कचरा भूमि, पशुपालन, जंगल कटाई, यहां तक कि धान के खेतों से होने वाले उत्सर्जन तक को पहचानने की कोशिश करती है। यह अब तक का सबसे महत्वाकांक्षी वैश्विक उत्सर्जन-निगरानी प्रोजेक्ट माना जाता है।
हालांकि Climate TRACE की तकनीक शक्तिशाली है, लेकिन यह सटीक नहीं है। कभी-कभी इसमें गलतियां (satellite errors) भी होती हैं। जैसे नॉर्वे के एक तेल प्लेटफॉर्म को गलती से प्रदूषण स्रोत मान लेना, जबकि वह उत्सर्जन करता ही नहीं; या ओस्लो के पास उस लैंडफिल में मीथेन दिखा देना जहां जैविक कचरा डालना पहले ही बंद है। इस तकनीक में लगातार सुधार हो रहा है।
बहरहाल, गिरावट के आंकड़ों को लेकर वैज्ञानिक सावधान (climate uncertainty) रहना चाहते हैं। पहले भी कई बार ऐसी अस्थायी गिरावटों ने भ्रम पैदा किया है। पिछले दशक की शुरुआत में, जब कोयले की खपत थोड़े समय के लिए घटी थी, कुछ लोगों को लगा था कि चरम उत्सर्जन आ गया है। लेकिन जल्द ही एशिया में आर्थिक वृद्धि के चलते कोयले की खपत फिर बढ़ गई।
लेकिन इस बार स्थिति अलग लग रही है। अब न सिर्फ कुछ बड़े क्षेत्रों में उत्सर्जन स्थिर होने लगा है, बल्कि दुनिया की ऊर्जा व्यवस्था में एक गहरा और टिकाऊ बदलाव (energy transition) दिख रहा है – खासकर चीन की तेज़ स्वच्छ ऊर्जा क्रांति के कारण। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि चीन का रियल-एस्टेट सेक्टर अब धीमा पड़ गया है जो पहले स्टील और सीमेंट का सबसे बड़ा उपभोक्ता था और कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन का बड़ा कारण भी था।
उधर भारत भी धीरे-धीरे ही सही लेकिन स्थिर बदलाव की ओर बढ़ रहा है। सौर तथा पवन ऊर्जा की बढ़ती क्षमता (renewable energy India) की वजह से इस साल की पहली छमाही में भारत के बिजली क्षेत्र में कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन नहीं बढ़ा है। आज देश की लगभग एक-तिहाई बिजली नवीकरणीय और परमाणु ऊर्जा से आती है।
वहीं, अमेरिका में राजनीतिक नीतियों में बदलाव के चलते उत्सर्जन में उतार–चढ़ाव देखने को मिला है। हाल ही में वहां जीवाश्म ईंधनों का उत्पादन बढ़ा है, मीथेन उत्सर्जन के नियम ढीले किए गए हैं और तेल–गैस निर्यात के ढांचे का विस्तार हुआ है। नतीजतन, अनुमान है कि इस वर्ष अमेरिकी उत्सर्जन लगभग 2.7 प्रतिशत बढ़ (US emissions rise) गया है।
इन सब जटिलताओं के बावजूद वैज्ञानिक मानते हैं कि दुनिया एक ऐतिहासिक मोड़ (global turning point) के बिल्कुल करीब है। अगर चीन का उत्सर्जन सचमुच 2024 या 2025 में अपने चरम पर पहुंचकर घटने लगे तो वैश्विक उत्सर्जन भी जल्द ही स्थिर हो सकता है। यही कारण है कि ब्राज़ील में हुए हालिया संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में चीन की ऊर्जा नीति पर विशेष ध्यान रहा।
फिर भी मानव-जनित उत्सर्जन अपने चरम पर पहुंचने के बाद भी यह ज़रूरी नहीं है कि वातावरण में मौजूद कार्बन डाईऑक्साइड (CO2 persistence) तुरंत स्थिर हो जाए। जलवायु परिवर्तन की वजह से ग्रीनहाउस गैसों के ‘प्राकृतिक’ स्रोतों से उत्सर्जन में और तेज़ी आ रही है। जंगल अब पहले से ज़्यादा बार और ज़्यादा तीव्रता से जल रहे हैं, जिससे भारी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है। साइबेरिया और आर्कटिक में जब परमाफ्रॉस्ट पिघलती है, तो उसमें फंसी हुई मीथेन हवा में पहुंच जाती है। उष्णकटिबंधीय आर्द्रभूमियां गर्म होती हैं तो वे भी अधिक मीथेन छोड़ने लगती हैं। समुद्र अब तक दुनिया की कार्बन डाईऑक्साइड का बड़ा हिस्सा सोखते थे, लेकिन गर्म होने और प्रवाह पैटर्न बदलने के कारण पहले जितना कार्बन नहीं सोख पा रहे हैं।
पिछला साल इसका साफ उदाहरण था जिसमें मानव-उत्सर्जन में हल्की-सी बढ़ोतरी हुई, लेकिन वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड रिकॉर्ड स्तर तक बढ़ गई। इसका मतलब है कि धरती की प्राकृतिक सुरक्षा व्यवस्था यानी जंगल, मिट्टी और समुद्र जो अब तक कार्बन को सोख कर हमें बचाते रहे हैं, अब जलवायु परिवर्तन के दबाव में कमज़ोर पड़ रहे हैं।
इसलिए दुनिया को उत्सर्जन को बहुत तेज़ी से और वर्तमान रफ्तार से कहीं अधिक गति से घटाना (net zero path) होगा ताकि कमज़ोर हो रहे प्राकृतिक कार्बन-सिंक की भरपाई की जा सके।
सही मायनों में असली चुनौती चरम के बाद शुरू होती है। उत्सर्जन को धीरे-धीरे शून्य की ओर ले जाना है। इसके लिए सिर्फ पवन और सौर ऊर्जा बढ़ाना ही काफी नहीं होगा, बल्कि हर क्षेत्र में भारी बदलाव (decarbonization) करने होंगे, जैसे:
- परिवहन को पूरी तरह बिजली आधारित बनाना होगा,
- सीमेंट और स्टील जैसे भारी उद्योगों को कम-कार्बन तकनीक अपनानी होगी,
- इमारतों को अधिक ऊर्जा-कुशल बनाना होगा,
- कृषि क्षेत्र का मीथेन उत्सर्जन घटाना होगा,
- जंगलों को संरक्षित करना और उनका क्षेत्र बढ़ाना होगा।
इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, बड़े निवेश, राजनीतिक स्थिरता और नई तकनीकों (climate action) की ज़रूरत पड़ेगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.theenergymix.com/wp-content/uploads/2023/11/China-solar-Dumhuang-%E6%9D%8E%E5%A4%A7%E6%AF%9B-%E6%B2%A1%E6%9C%89%E7%8C%AB-Unsplash-sized-down.jpeg