धरती की सीमाएं: लांघना नहीं था, हमने लांघ दिया

सीमा मुंडोली

में सुरक्षित क्या महसूस कराता है? भरोसेमंद दोस्तों और परिवार का साथ। एक ऐसा जाना-पहचाना माहौल (safe environment) जो हमें निश्चिंत रखता है और जहां हमारे द्वारा तय की गई सीमा रेखाओं/हदों का सम्मान (personal boundaries) होता है।

आखिरी बात हमारे एकमात्र घर (planet Earth) धरती के लिए भी सच है।

धरती पर जीवन लगभग 3.7 अरब साल पहले एक-कोशिकीय जीव के रूप में शुरू हुआ था। लेकिन हमें – होमो सेपियंस को – पृथ्वी पर अस्तित्व में आने में बहुत ज़्यादा समय लगा। हम महज़ 3,00,000 साल पहले ही अफ्रीका में विकसित हुए। उसके बाद मनुष्य अफ्रीका से निकलकर तमाम महाद्वीपों में फैल गए। हिमयुग के बाद, पिछले 12,000 साल – होलोसीन काल (Holocene epoch)– वह समय था जब खेती की शुरुआत, शहरों के बसने और तेज़ी से आबादी बढ़ने के साथ बड़े-बड़े बदलाव हुए। होलोसीन के दौरान स्थिर मौसम (stable climate) ने मनुष्य के जीवन और नैसर्गिक प्रणाली को फलने-फूलने में मदद की।

फिर औद्योगिक क्रांति आई, जिसमें जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल (industrial pollution) बढ़ा और प्रदूषण जैसे बुरे पर्यावरणीय असर भी हुए। एक बार जब हम औद्योगिकीकरण के रास्ते पर चल पड़े तो हमने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1970 के दशक तक, यह स्पष्ट होता गया था कि सालों की औद्योगिक गतिविधियों ने प्राकृतिक पर्यावरण को नुकसान (environmental degradation) पहुंचाया है – नदियां प्रदूषित हुई हैं, हवा ज़हरीली हुई है, जंगल कट गए हैं और समंदरों की हालत खराब हो गई है।

किंतु सवाल बना रहा: कितना नुकसान हद से ज़्यादा है?

2009 में, जोहान रॉकस्ट्रॉम ने अन्य वैज्ञानिकों के साथ मिलकर ग्रह पर मनुष्य के प्रभाव के पैमाने का अंदाज़ा लगाने के लिए प्लेनेटरी बाउंड्रीज़ (Planetary Boundaries) फ्रेमवर्क का प्रस्ताव रखा। उन्होंने नौ सीमा रेखाओं (प्लेनेटरी बाउंड्रीज़- environmental thresholds) की पहचान की, जिन्हें अगर लांघा गया तो पृथ्वी की कार्यप्रणाली डगमगा सकती है। हद में रहने से यह सुनिश्चित होगा कि हम एक सुरक्षित कामकाजी दायरे में रहेंगे। ये नौ सीमा रेखाएं हैं: जलवायु परिवर्तन, जैवमण्डल समग्रता, भू-प्रणाली परिवर्तन, मीठे पानी में बदलाव, जैव भू-रसायन चक्र, समुद्र अम्लीकरण, वायुमंडलीय एरोसोल (निलंबित कणीय पदार्थ) का भार, समतापमंडल में ओज़ोन क्षरण और नवीन कारक।

इनमें से हर सीमा के लिए वैज्ञानिकों ने एक या दो मात्रात्मक परिवर्ती मानक तय किए, जिनके आधार पर हम यह जांच सकते हैं कि पृथ्वी की वह प्रणाली क्या सुरक्षित सीमा के अंदर है। मसलन, जलवायु परिवर्तन की सीमा में परिवर्ती कारकों में से एक है कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता (CO2 concentration), जिसे पार्ट्स पर मिलियन (ppm) में मापा जाता है। इसकी सांद्रता की सीमा 350ppm तय की गई है। और कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता इससे अधिक होने या सीमा पार करने का मतलब है कि ग्रह की प्रणाली पर खतरा बहुत तेज़ी से बढ़ेगा।

जब 2009 में यह फ्रेमवर्क पहली बार पेश किया गया था, तब ग्रह की तीन हदों – जलवायु परिवर्तन, जैवमंडल समग्रता और भू-जैवरसायन चक्र – का उल्लंघन हो भी चुका था। यह एक चेतावनी थी कि ग्रह स्तर पर हम मुश्किल में थे। 2015 तक, भू-प्रणाली बदलाव का उल्लंघन हो चुका था। 2023 में दो और सीमाएं उल्लंघन की सूची में जुड़ गई थीं – नए कारक और मीठा पानी परिवर्तन (freshwater change)। और अब, सितंबर 2025 में हमने एक और सीमा को लांघ दिया है – समुद्र अम्लीकरण (तालिका देखें) (ocean acidification) ये सीमाएं 15 साल पूर्व पहली बार इस उम्मीद के साथ प्रस्तावित की गई थीं कि हमें यह समझने में मदद मिले कि मनुष्य की गतिविधियों का पृथ्वी पर क्या असर पड़ रहा है, और हमें तुरंत सुधार के लिए कदम उठाने का तकाज़ा मिले। तब से हम नौ में से सात सीमाओं का उल्लंघन कर चुके हैं।

इसका क्या मतलब है? सीधे शब्दों में: हमारी पृथ्वी अब स्वस्थ नहीं रही (planetary health)

फिलहाल वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता 423ppm है, जो 350ppm की सुरक्षित सीमा से बहुत अधिक है। नतीजतन पृथ्वी तेज़ी से गर्म हो रही है, बर्फ की चादरें पिघल रही हैं, समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है और तटवर्ती इलाके खतरे में हैं।

जैवमंडल समग्रता (biosphere integrity) सीमा भी बहुत ज़्यादा खतरे में है। सजीवों के विलुप्त होने की दर पहले से दस गुना अधिक है, और दुनिया भर के कई पारिस्थितिकी तंत्र बहुत ज़्यादा खतरे में हैं। संभव है कि हमारे द्वारा खोजे जाने से पहले ही कई प्रजातियां विलुप्त हो जाएं। अकेले 2024 में, पक्षियों की कई प्रजातियां (जैसे स्लेंडर-बिल्ड कर्ल्यू और ओउ), मछलियों की प्रजातियां (जैसे थ्रेसियन शैड और चीम व्हाइटफिश), और अकशेरुकी जीव (जैसे कैप्टन कुक्स बीन स्नेल) विलुप्त घोषित कर दिए गए। 2024 की लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 50 सालों में जंगली जानवरों की आबादी में 73 प्रतिशत की भारी गिरावट (biodiversity loss) आई है – इस मामले में समुद्री, थलीय और मीठे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र समान रूप से प्रभावित हैं। दुखद तथ्य यह है कि विलुप्ति निश्चित है और इसे पलटा नहीं जा सकता। विलुप्त होने से जेनेटिक विविधता खत्म हो जाती है और पारिस्थितिकी तंत्र बाधित होता है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र की कार्यात्मक क्षमता कम हो जाती है। कितना दुखद है कि हम उन प्रजातियों को फिर कभी नहीं देख पाएंगे जो कभी इस ग्रह पर हमारे साथ रहती थी।

हाल ही में समुद्र के अम्लीकरण की सीमा का उल्लंघन खास चिंता की बात है। समुद्र हमारे ग्रह के 70 प्रतिशत हिस्से पर मौजूद हैं, और कुल कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन का लगभग एक चौथाई हिस्सा सोख (carbon sink) लेते हैं। वे लंबे समय से हमारे लिए उत्सर्जन के सोख्ता की तरह काम करते रहे हैं। साथ ही ये अपने अंदर बहुत अधिक जैव विविधता को बनाए हुए हैं और लाखों लोगों को भोजन देते हैं। लेकिन जैसे-जैसे समुद्र ज़्यादा कार्बन डाईऑक्साइड सोखते हैं, वे अधिक अम्लीय होते जाते हैं। इससे कोरल का क्षरण (कोरल ब्लीचिंग) होता है – अनगिनत समुद्री प्रजातियों का प्राकृतवास खत्म (marine ecosystem decline) हो जाता है। और समुद्री जीवों के खोल और कंकाल कमज़ोर हो जाते हैं, जिससे उन्हें ‘ऑस्टियोपोरोसिस’ हो जाता है। समुद्र के अम्लीकरण की सीमा पार करने का मतलब है बड़े-बड़े बदलाव। ऐसी घटनाएं शुरू हो गई हैं जिनके असर का हम अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते।

हर लांघी गई सीमा अन्य स्थितियों/सीमाओं को और बदतर करती है, जिससे एक दुष्चक्र (vicious cycle) बनता है जो पृथ्वी को अस्थिरता के और करीब ले जाता है। हमें यह भी याद रखना होगा कि ग्रह की सीमा रेखाएं एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। जैसे भू-प्रणाली में परिवर्तन, जिसमें खेती या जानवर पालने के लिए जंगल कटाई से जैवविविधता की क्षति होगी और कार्बन का अवशोषण कम होगा, जिससे जलवायु परिवर्तन और तेज़ होगा (deforestation impact)। पानी में बढ़े हुए नाइट्रोजन और फॉस्फोरस के साथ बदले हुए भू-जैव-रासायनिक मृत क्षेत्र बनते हैं जो बदले में ताज़े पानी की उपलब्धता और जैवविविधता पर असर डालते हैं। हर सीमा दूसरी सीमा से जुड़ी है जिससे खतरा बढ़ जाता है।

ग्रहों की सीमा रेखाओं के उल्लंघन की विशिष्ट जवाबदेही तय नहीं हो पाई है, खासकर इसलिए क्योंकि पश्चिम के कुछ अमीर देशों के उपभोग ने ऐतिहासिक रूप से सीमाओं के उल्लंघन में अधिक योगदान दिया है – और यह जारी है। लेकिन ग्रह-स्तरीय सीमा की अवधारणा ने हमें पृथ्वी पर मनुष्य की गतिविधियों (human impact) के असर का वैज्ञानिक और मात्रात्मक तरीके से आकलन करने के लिए एक फ्रेमवर्क ज़रूर दिया है। हमें 2009 में ही सावधान हो जाना चाहिए था, जब सिर्फ तीन सीमाएं पार हुई थीं, और समझ जाना चाहिए था कि धरती पर मनुष्यों के क्रियाकलापों के कैसे-कैसे बुरे प्रभाव पड़ेंगे।

लेकिन तब हमने अनसुना-अनदेखा कर दिया। अधिकांश दुनिया वैसे ही काम करती रही, बीच-बीच में कुछ मामूली सुधार होते रहे। अब, 2025 में जब नौ में से सात सीमा रेखाएं पार हो चुकी हैं, तो हम सुरक्षित नहीं हैं (climate emergency)।

लेकिन सब कुछ खत्म नहीं हुआ है, अगर हम याद रखें कि हम इस मुश्किल में एक साथ हैं। उस तरह, जिस तरह हम लांघी गई एक सीमा रेखा – ओज़ोन परत के क्षरण (ozone depletion) – को पलटने के लिए एकजुट हुए थे। 1985 में वैज्ञानिकों ने बताया था कि रेफ्रिजरेटर, एयर कंडीशनर वगैरह में इस्तेमाल होने वाले रसायनों की वजह से ओज़ोन परत में छेद हो गया था। ओज़ोन परत में छेद का मतलब था कि अब हमारे पास सूरज की पराबैंगनी किरणों से कोई सुरक्षा नहीं थी, जिससे हम त्वचा कैंसर के शिकार हो सकते थे और कई पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में पड़ सकते थे। तब सरकारें मॉन्ट्रियल संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए साथ आईं (global cooperation), जिसमें ओज़ोन में छेद करने वाले रसायनों का इस्तेमाल धीरे-धीरे खत्म करने का वादा किया गया था। प्रयास सफल रहे।

यह सफलता हमें याद दिलाती है: अगर एक सीमा रेखा (planetary boundary) के उल्लंघन को पलट सकते हैं, तो हम ऐसा फिर से कर सकते हैं। हमारा – और पृथ्वी पर जीवित हर प्राणी का – भविष्य इस पर निर्भर करता है। (स्रोत फीचर्स)  

तालिका: ग्रह की नौ सीमा रेखाएं और उनकी स्थिति

सीमाव्याख्यास्थिति
जलवायु परिवर्तनजीवाश्म ईंधन जलाने से ग्रीनहाउस गैसों और एरोसोल का उत्सर्जन होता है, जिससे जलवायु गर्माती है। नतीजतन बर्फ की चादरें पिघलती हैं, समुद्र का स्तर बढ़ता है।उल्लंघन हो चुका
जैवमण्डल की समग्रता में परिवर्तनप्राकृतिक संसाधनों का दोहन, आक्रामक प्रजातियों का आना और ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव। इससे जेनेटिक विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत में गिरावट आती है।उल्लंघन हो चुका
भू-प्रणाली में परिवर्तनशहरीकरण, पशुपालन और खेती के लिए जंगल काटकर ज़मीन बनाना। इससे कार्बन सोखने की क्षमता और अन्य पारिस्थिकीय कार्यों में कमी आती है।उल्लंघन हो चुका
मीठे पानी में परिवर्तनखेती, उद्योगों और घरेलू इस्तेमाल के लिए पानी की बढ़ती खपत। ब्लू वॉटर (जैसे नदियां और झीलें) और ग्रीन वॉटर (मिट्टी की नमी) का खराब होना, कार्बन भंडारण और जैव विविधता पर असर डालता है।उल्लंघन हो चुका
भू-जैव-रसायन में परिवर्तनफॉस्फोरस व नाइट्रोजन वाले औद्योंगिक उर्वरकों के ज़्यादा इस्तेमाल से समुद्री और मीठे पानी तंत्र में मृत क्षेत्र बनते हैं।उल्लंघन हो चुका
समुद्र अम्लीकरणजीवाश्म ईंधन के जलने से कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है जिसे समुद्र सोख लेता है और अम्लीय हो जाता है। समुद्री जीवों के खोल को नुकसान होता है और पारिस्थितिकी तंत्र नष्ट हो जाता है।उल्लंघन हो चुका
नए कारकउद्योगों, खेती और उपभोक्ता सामान से निकलने वाले कृत्रिम रसायन प्राकृतिक चक्र को बाधित करते हैं। और मनुष्य और जैव विविधता को हमेशा की क्षति का खतरा पैदा करते हैं।उल्लंघन हो चुका
वायुमण्डलीय एरोसोल में बढ़ोतरीजीवाश्म ईंधन के जलने और औद्योगिक गतिविधियों से हवा में मौजूद कणीय पदार्थ बढ़ते हैं, जिससे मौसम के पैटर्न में बदलाव आता है, खासकर तापमान और बारिश में।सुरक्षित सीमा में
ओज़ोन में क्षरणसिंथेटिक क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFCs) और नाइट्रस ऑक्साइड के उत्पादन और उत्सर्जन से ओज़ोन परत पतली होती है और नुकसानदायक पराबैंगनी किरणें धरती तक पहुंचती हैं।सुरक्षित सीमा में

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.pik-potsdam.de/en/news/latest-news/earth-exceed-safe-limits-first-planetary-health-check-issues-red-alert/@@images/image.png

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