यह
काफी हैरत की बात है कि जब आप किसी मीठे खाद्य पदार्थ में नमक डालते हैं तो उसकी
मिठास और बढ़ जाती है। और अब हाल ही में वैज्ञानिकों ने मिठास में इस वृद्धि का
कारण खोज निकाला है।
भोजन
के स्वाद की पहचान हमारी जीभ की स्वाद-कलिकाओं में उपस्थित ग्राही कोशिकाओं से होती है। इनमें टी1आर समूह के ग्राही
दोनों प्रकार के मीठे, प्राकृतिक या
कृत्रिम शर्करा, के प्रति संवेदनशील
होते हैं। शुरू में वैज्ञानिकों का मानना था कि टी1आर को निष्क्रिय कर दिया जाए तो मीठे के
प्रति संवेदना खत्म हो जाएगी। लेकिन 2003 में देखा गया कि चूहों में टी1आर के जीन को ठप करने पर भी उनमें ग्लूकोज़
के प्रति संवेदना में कोई कमी नहीं आई। इस खोज से पता चला कि चूहों और संभवत: मनुष्यों में मिठास
की संवेदना का कोई अन्य रास्ता भी है।
इस
मीठे रास्ते का पता लगाने के लिए टोकियो डेंटल जूनियर कॉलेज के कीको यासुमत्सु और
उनके सहयोगियों ने सोडियम-ग्लूकोज़
कोट्रांसपोर्टर-1 (एसजीएलटी1) नामक प्रोटीन पर
ध्यान दिया। एसजीएलटी1 शरीर
के अन्य हिस्सों में ग्लूकोज़ के साथ काम करता है। गुर्दों और आंत में, एसजीएलटी1 ग्लूकोज़ को कोशिकाओं तक पहुंचाने के लिए
सोडियम का उपयोग करता है। यह काफी दिलचस्प है कि यही प्रोटीन मीठे के प्रति
संवेदनशील स्वाद-कोशिकाओं
में भी पाया जाता है।
इसके
बाद शोधकर्ताओं ने स्वाद कोशिकाओं से जुड़ी तंत्रिकाओं की प्रक्रिया का पता लगाने
के लिए ग्लूकोज़ और नमक के घोल को बेहोश टी1आर-युक्त चूहों की जीभ पर रगड़ा। यानी इस घोल
में एसजीएलटी1 की
क्रिया के लिए ज़रूरी सोडियम था। पता चला कि नमक की उपस्थिति होने से चूहों की
तंत्रिकाओं ने अधिक तेज़ी से संकेत प्रेषित किए बजाय उन चूहों के जिनके टी1आर ग्राही ठप कर दिए
गए थे और सिर्फ ग्लूकोज़ दिया गया था। गौरतलब है कि सामान्य चूहों ने भी चीनी-नमक को ज़्यादा तरजीह
दी लेकिन ऐसा केवल ग्लूकोज़ के साथ ही हुआ,
सैकरीन जैसी कृत्रिम मिठास के साथ नहीं।
यह
भी पता चला है कि जो पदार्थ एसजीएलटी1 की क्रिया को बाधित करते हैं,
वे टी1आर विहीन चूहों में ग्लूकोज़ संवेदना को खत्म कर देते हैं।
इससे यह पता लगता है कि एसजीएलटी1 ग्लूकोज़ की छिपी हुई संवेदना का कारण हो सकता है। संभावना
है कि इससे टी1आर
विहीन चूहों में ग्लूकोज़ की संवेदना बनी रही और सामान्य चूहों में मीठे के प्रति
संवेदना और बढ़ गई। एक्टा फिज़ियोलॉजिका में शोधकर्ताओं ने संभावना व्यक्त की
है कि शायद यह निष्कर्ष मनुष्यों के लिए भी सही है।
शोधकर्ताओं ने मीठे के प्रति संवेदनशील तीन प्रकार की कोशिकाओं के बारे में बताया है। पहली दो या तो टी1आर या एसजीएलटी1 का उपयोग करती हैं जो शरीर को प्राकृतिक और कृत्रिम शर्करा में अंतर करने में मदद करते हैं। एक अंतिम प्रकार टी1आर और एसजीएलटी1 दोनों का उपयोग करती हैं और वसीय अम्ल तथा उमामी स्वादों को पकड़ती हैं। लगता है, इनकी सहायता से कैलोरी युक्त खाद्य पदार्थों का पता चलता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/salt_1280p.jpg?itok=KMVjR1sp
दवाओं के विपरीत, लगभग सभी तरह के टीकों को उनके परिवहन से
लेकर उपयोग के ठीक पहले तक कम तापमान (सामान्यत: 2 से 8 डिग्री सेल्सियस के बीच)
पर रखने की आवश्यकता होती है। अधिक तापमान मिलने पर अधिकतर टीके असरदार नहीं रह
जाते। एक बार अधिक तापमान के संपर्क में आने के बाद इन्हें पुन: ठंडा करने से कोई
फायदा नहीं होता। इसलिए निर्माण से लेकर उपयोग से ठीक पहले तक इनके रख-रखाव और
परिवहन के लिए कोल्ड चैन (शीतलन शृंखला) बनाना ज़रूरी होता है। यदि हम सामान्य
तापमान पर रखे जा सकने और परिवहन किए जा सकने वाले टीके बना पाएं, जिनके
लिए कोल्ड चैन बनाने की ज़रूरत ना पड़े, तो यह बहुत फायदेमंद होगा।
बैंगलुरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) के राघवन वरदराजन के नेतृत्व में एक भारतीय समूह ने ऐसे
ही ‘वार्म वैक्सीन’ पर काम किया है। इसमें उनके सहयोगी संस्थान हैं त्रिवेंदम
स्थित भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (IISER), फरीदाबाद स्थित ट्रांसलेशनल स्वास्थ्य विज्ञान एवं
प्रौद्योगिकी संस्थान (THSTI) और IISc प्रायोजित स्टार्टअप Mynvax। Biorxive प्रीप्रिंट में प्रकाशित उनके शोधपत्र का शीर्षक है सार्स-कोव-2 के स्पाइक
के ताप-सहिष्णु, प्रतिरक्षाजनक खंड का डिज़ाइन। यहhttps://doi.org/10.1101/2020.08.18.25.237 पर उपलब्ध है।
कोविड वायरस की सतह पर एक प्रोटीन रहता है
जिसे स्पाइक कहते हैं। यह लगभग 1300 एमिनो एसिड लंबा होता है। इस स्पाइक में 250
एमीनो एसिड लंबा अनुक्रम – रिसेप्टर बाइंडिंग डोमेन (RBD) – होता है। यह RBD मेज़बान कोशिका से जाकर जुड़ जाता है और संक्रमण की शुरुआत करता है। शोधकर्ताओं
ने प्रयोगशाला में पूरे स्पाइक प्रोटीन की बजाय RBD की 200 एमीनो एसिड
की शृंखला को संश्लेषित किया। फिर इस खंड की
संरचना (इसकी त्रि-आयामी बनावट या वह आकार जो इसे मेज़बान कोशिका की सतह पर ठीक ताला-चाबी
की तरह आसानी से फिट होने की गुंजाइश देता है) का अध्ययन किया। इसके अलावा इसकी
तापीय स्थिरता भी देखी गई कि क्या यह प्रयोगशाला की सामान्य परिस्थितियों के
तापमान से अधिक तापमान पर काम कर सकता है?
खुशी की बात है कि
शोधकर्ताओं ने पाया कि इस तरह ठंडा करके सुखाने (फ्रीज़-ड्राइड करने) पर यह काफी
स्थिर होता है। यह बहुत थोड़े समय के लिए 100 डिग्री सेल्सियस से अधिक तक का तापमान
झेल सकता है, और 37 डिग्री सेल्सियस पर एक महीने तक भंडारित किया जा सकता
है। इससे लगता है कि इस अणु को सुरक्षित रखने के लिए कोल्ड चैन की ज़रूरत नहीं
पड़ेगी।
प्रसंगवश बता दें कि पिछले 70 सालों से
भारत किसी प्रोटीन की संरचना या बनावट से उसके कार्यों के बारे में पता करने के
क्षेत्र में अग्रणी रहा है। और आज भी है। उदाहरण के लिए,
कैसे कोलेजन की तिहरी
कुंडली संरचना, जिसे दिवंगत जी. एन. रामचंद्रन ने 1954 में खोजा था,से पता चल जाता है कि
यह त्वचा और कंडराओं में क्यों पाया जाता है। यह त्वचा और कंडराओं को रस्सी जैसी
मज़बूती प्रदान करता है। प्रो. रामचंद्रन ने यह भी बताया था कि किसी प्रोटीन के
एमीनो एसिड अनुक्रम के आधार पर हम किस तरह यह अनुमान लगा सकते हैं कि वह कैसी
त्रि-आयामी संरचना बनाएगा। इस समझ के आधार पर जैव रसायनज्ञ प्रोटीन के एमीनो एसिड
अनुक्रम में बदलाव करके प्रोटीन से मनचाहा कार्य करवाने की दिशा में बढ़े।
उपरोक्त अध्ययन में भी शोधकर्ताओं ने यही
किया है। उन्होंने अभिव्यक्ति के लिए RBD के खंड को ध्यानपूर्वक चुना, और
दर्शाया कि परिणामी प्रोटीन ताप सहन कर सकता है। यह प्रोटीन संरचना के विश्लेषण और
जेनेटिक इंजीनियरिंग की क्षमता की मिसाल है।
RBD प्रोटीन को काफी मात्रा में स्तनधारियों की कोशिकाओं में भी बनाया गया और पिचिया
पैस्टोरिस (Pichia pastoris) नामक एक यीस्ट में भी। यह यीस्ट बहुत किफायती और सस्ता
मेज़बान है। जब उन्होंने दोनों प्रोटीन की तुलना की तो पाया कि यीस्ट में बने
प्रोटीन में बहुत अधिक विविधता थी, और जंतु परीक्षण में देखा गया यह वांछित
एंटीबॉडी भी नहीं बनाता। उन्होंने RBD प्रोटीन को बैक्टीरिया मॉडल ई.कोली
में भी बनाकर देखा, लेकिन इसमें बना प्रोटीन भी कारगर नहीं रहा।
बहरहाल,
अब हमारे पास
ताप-सहिष्णु RBD है, तो क्या इससे टीका बनाने की कोशिश की जा सकती है? एक
ऐसा टीका जो एंटीबॉडी बनाकर वायरस के स्पाइक प्रोटीन को मेज़बान कोशिका के ग्राही
से न जुड़ने दे और संक्रमण की प्रक्रिया को रोक दे?
आम तौर पर प्रतिरक्षा
विज्ञानी टीके (कोशिका या अणु) के साथ एक सहायक भी जोड़ते हैं। जब यह टीके के साथ
शरीर में जाता है तो प्रतिरक्षा प्रणाली को उकसाता है और टीके की कार्य क्षमता
बढ़ाता है। आम तौर पर इसके लिए एल्यूमीनियम लवण उपयोग किए जाते हैं।
शोधकर्ताओं ने अपने प्रारंभिक टीकाकरण के
लिए गिनी पिग को चुना, क्योंकि माइस की तुलना में गिनी पिग सांस की बीमारियों के
लिए बेहतर मॉडल माने जाते हैं। सहायक के रूप में उन्होंने MF59
के एक जेनेरिक संस्करण का उपयोग किया। MF59 मनुष्यों के लिए सुरक्षित पाया गया है।
फिर गिनी पिग में RBD नुस्खा प्रविष्ट कराया। दो खुराक के बाद गिनी पिग में
वांछित ग्राहियों को अवरुद्ध करने वाली एंटीबॉडी की पर्याप्त मात्रा दिखी। तो, यह
काम कर गया।
वे बताते हैं कि कई अन्य समूहों ने RBD, या संपूर्ण स्पाइक प्रोटीन, या
एंटीजन बनाने वाले नए आरएनए-आधारित तरीकों का उपयोग किया है। कोविड-19 के इन सारे
टीकों (जो परीक्षण के विभिन्न चरणों में हैं) के लिए कोल्ड चैन की ज़रूरत पड़ती है, लेकिन
इस विशिष्ट ताप-सहिष्णु RBD खंड (और शायद अन्य RBD खंड भी) को कुछ समय के लिए सामान्य तापमान पर रखा जा सकता है।
शोधकर्ता अब जंतुओं में इसकी वायरस से संक्रमण के विरुद्ध सुरक्षा क्षमता की जांच कर रहे हैं और साथ ही साथ मनुष्यों पर नैदानिक परीक्षण करने के पहले इसकी सुरक्षा और विषाक्तता का आकलन कर रहे हैं। हम कामना करते हैं कि टीम को इसमें सफलता मिले।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/sites/btmt/images/stories/vaccine_660_040920115131.jpg
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी पहली नज़र में हास्यापद लगने वाली लेकिन महत्वपूर्ण खोजें इगनोबेल पुरस्कार से नवाज़ी गईं। फर्क इतना था कि कोरोना संक्रमण के चलते इस वर्ष समारोह ऑनलाइन सम्पन्न हुआ, जिसकी मेज़बानी विज्ञान की हास्य पत्रिका एनल्स ऑफ इंप्रॉबेबल रिसर्च ने की। इस वर्ष समारोह की थीम थी इंसेक्ट (कीट)। समारोह में पहले से रिकॉर्ड किए गए भाषण, संगीत और द्रुत व्याख्यान प्रस्तुत किए।
इस वर्ष कीट विज्ञान में इगनोबेल पुरस्कार
उस अध्ययन को दिया गया जिसमें इस बात का पता लगाया गया था कि क्यों कई कीट
विज्ञानी भी मकड़ियों से डरते हैं। यह अध्ययन 2013 में अमेरिकन एंटोमोलॉजिस्ट
पत्रिका में प्रकाशित हुआ था, शीर्षक था सर्वे ऑफ एरेक्नोफोबिक
एंटोमोलॉजिस्ट्स। शोधकर्ता जानना चाहते थे कि क्यों तिलचट्टा और भुनगा जैसे
जीवों के साथ काम करने वाले कुछ कीट विज्ञानी स्वयं मकड़ियों से डरते हैं। उन्होंने
पाया कि मकड़ियों का फुर्तीला होना, उनकी अप्रत्याशित चाल और पैरों की अधिक
संख्या कुछ कीट विज्ञानियों को अधिक विचलित करती है।
श्रवण विज्ञान यानी एकूस्टिक्स में
पुरस्कार उन शोधकर्ताओं को दिया गया जिन्होंने मगरमच्छों की आवाज़ों का अध्ययन किया
था। मगरमच्छ की चिंघाड़ काफी तेज़ होती है, प्रजनन काल में यह और भी तीव्र हो जाती है।
शोधकर्ताओं ने मगरमच्छों के ध्वनि मार्ग में अनुनाद के बारे में पता करने के लिए
दो भिन्न माध्यम (साधारण हवा, और हीलियम-ऑक्सीजन मिश्रण) में उनकी चिंघाड़
की तुलना की। हीलियम की उपस्थिति में ध्वनि की तीव्रता बढ़ जाती है और श्वसन
सामान्य रहता है। इसके लिए उन्होंने पहले मगरमच्छ को एक एयरटाइट चैंबर में रखा।
चैंबर में पहले सामान्य हवा और फिर हीलियम और ऑक्सीजन का मिश्रण (हीलिऑक्स) भरा
गया। दोनों माध्यम में ध्वनि की गति की गणना की और उनके सिर की लंबाई के हिसाब से
ध्वनि मार्ग की लंबाई का अनुमान लगाया। 2015 में जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंटल
बायोलॉजी में शोधकर्ताओं ने बताया कि हीलिऑक्स माध्यम में मगरमच्छ की ध्वनि की
तीव्रता बढ़ गई थी जो यह दर्शाता है कि गैर-पक्षी सरीसृपों में आवाज़ ध्वनि मार्ग
में कंपन के अनुनाद से उत्पन्न होती है।
मनोविज्ञान में पुरस्कार उन अमरीकी
शोधकर्ताओं की जोड़ी को दिया गया जिन्होंने 2018 में जर्नल ऑफ पर्सनैलिटी
में प्रकाशित अपने अध्ययन के ज़रिए बताया था कि लोग विशेष तरह की भौंहों को ‘घोर
आत्ममुग्धता’ का संकेत मानते हैं। इस निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए शोधकर्ताओं ने
कुछ फोटो लिए और लोगों को दिखाए। फोटो इस तरह दिखाए गए थे कि चेहरे के अलग-अलग
हिस्से ओझल कर दिए गए थे। प्रतिभागियों के जवाबों का विश्लेषण करने पर पता चला कि
जो लोग अपनी भौंहे लंबी व घनी रखते हैं उन्हें प्रतिभागियों ने प्राय: आत्ममुग्ध
माना। प्रतिभागियों का मानना था ये लोग अपनी भौंहे खास तरह से इसलिए रखते हैं
क्योंकि वे सबकी नज़रों में आना चाहते हैं और सबसे जुदा दिखना चाहते हैं।
चिकित्सा का इगनोबेल पुरस्कार एक मनोविकार, मिसोफोनिया, के
लिए नए नैदानिक मानदंड बताने वाले शोधकर्ताओं को दिया गया। मिसोफोनिया से पीड़ित
लोगों को कुछ आवाज़ों, जैसे सांस की, चबाने की,
गटकने आदि की आवाज़ से
चिढ़ होती है। मिसोफोनिया को अब तक मनोविकार की तरह नहीं देखा जाता था और इसकी
पर्याप्त व्याख्या नहीं की गई थी। इसका ठीक तरह से उपचार हो सके इसलिए साल 2013
में शोधकर्ताओं ने मिसोफोनिया से पीड़ित 42 लोगों पर अध्ययन कर इसके कुछ नैदानिक
मानदंड बताए थे। प्लॉस वन पत्रिका में प्रकाशित उनके मानदंडों के अनुसार
मिसोफोनिया से पीड़ित व्यक्ति सिर्फ मानव जनित आवाज़ों और उससे सम्बंधित दृश्य के
प्रति गुस्सा, चिढ़ और आक्रामता व्यक्त करता है। इससे पीड़ित व्यक्ति
सार्वजनिक स्थलों पर जाने से बचकर, कानों को बंद कर,
या किसी अन्य तरह की
आवाज़ पैदा कर इस स्थिति से बचने की कोशिश में वे अन्य लोगों से कटने लगते हैं।
अर्थशास्त्र की श्रेणी का पुरस्कार उस
अध्ययन को मिला जो बताता है कि जिन देशों में आर्थिक असमानता अधिक है वहां प्रेमी
युगल चुंबन (फ्रेंच किस, जिसमें जीभों का संपर्क होता है) अधिक लेते
हैं। नेचर पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 13 देशों के
2988 प्रतिभागियों पर एक सर्वे किया। जिसमें उनसे प्रश्नपत्र के माध्यम से कुछ
सवाल पूछे गए थे। जैसे कि वे कब और कितनी बार अपने साथी का चुंबन लेते हैं।
उन्होंने पाया कि जिन देशों में आर्थिक असमानता अधिक होती है वहां लोग अपने साथी
का अधिक चुंबन लेते हैं। अध्ययन के अनुसार उन माहौल में अधिक फ्रेंच किस होते हैं
जहां लोगों के पास सहारे कम होते हैं और चुंबन रिश्ते में प्रतिबद्धता दर्शाता है।
इसके अलावा यह व्यवहार सिर्फ चुंबन के मामले में दिखा,
प्रेम के किसी अन्य
प्रदर्शन में नहीं। उन्होंने यह भी पाया कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं ‘अच्छा’
चुंबन चाहती है।
पदार्थ विज्ञान में पुरस्कार से उस अध्ययन
को नवाज़ा गया जिसने इस दावे की सत्यता की जांच की जो कहता था कि एक एस्किमो पुरुष
ने कुत्ते को मारने-काटने के लिए अपने जमे हुए (फ्रोज़न) मल से चाकू बनाया था।
शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में फ्रोज़न विष्ठा से चाकू बनाया और नियंत्रित
परिस्थिति में इसकी कारगरता जांची। उन्होंने पाया कि फ्रोज़न मानव विष्ठा से कारगर
चाकू बनाना संभव नहीं है।
इगनोबेल पुरस्कार विजेताओं को 10 ट्रिलियन जिम्बाब्वे मुद्रा दी गई (जो मात्र 50 पैसे के बराबर है)। ट्रॉफी के तौर उन्हें 6 पन्नों की पीडीएफ फाइल मेल की गई, जिसका प्रिंट लेकर विजेता उससे अपने लिए एक घनाकार ट्रॉफी बना सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Ignoble_ChineseAlligator_1280x720.jpg?itok=4BFTk7gk
जिन दिनों मैं स्कूल में पढ़ा करता था उन दिनों कंप्यूटर एक
गैराज के बराबर जगह घेरने वाली मशीन थे, जिनका उपयोग सिर्फ इंजीनियर करते थे। और अब
50 वर्षों बाद, मैं और 50 करोड़ अन्य भारतीय मोबाइल स्मार्ट फोन के रूप में
इसे अपनी जेब में रख सकते हैं! यह क्रांति कैसे हुई?
क्या आप जानते हैं कि सूचना एवं संचार
टेक्नॉलॉजी (या आईसीटी) के ये महत्वपूर्ण आविष्कार किसने किए? हाल
ही में वी. राजारामन द्वारा लिखी गई एक उल्लेखनीय सूचनाप्रद और शिक्षाप्रद पुस्तक
का विषय यही है। राजारामन बैंगलुरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान के सुपरकंप्यूटर
एजुकेशन एंड रिसर्च सेंटर में पढ़ाते थे। उनकी यह किताब पीएचआई लर्निंग, दिल्ली
द्वारा प्रकाशित की गई है।
इस किताब में प्रो. राजारामन ने 15 उन
महत्वपूर्ण आविष्कारों और आविष्कारकों का इतिहास बताया है,
जिनसे छोटे, द्रुत, बहु-उपयोगी
कंप्यूटर बनाना संभव हुआ। मुझे लगता है कि अब जब कंप्यूटर आधारित शिक्षा नई शिक्षा
नीति (एनईपी) का हिस्सा बन गई है, तो यह महत्वपूर्ण है कि छात्र और शिक्षक इन
15 आविष्कारों और आविष्कारकों की कहानी ना केवल इन आविष्कारों के इतिहास और विकास
के रूप में पढ़ें बल्कि इन्हें प्रेरणा के रूप में भी देखें।
प्रो. राजारमन के अनुसार किसी भी आविष्कार
में कुछ ज़रूरी गुण होने चाहिए:
1. आइडिया नया होना चाहिए;
2. वह किसी ज़रूरत को पूरा करे;
3. उत्पादकता में सुधार हो;
4. कंप्यूटिंग के तरीके और कंप्यूटर के
उपयोग में बदलाव आए;
5. इससे नवाचार हो;
6. आविष्कार लंबे समय के लिए हो, निरंतर
उपयोग किया जाए और क्षणिक न हो;
7. इसे ऐसे नए उद्योगों को जन्म देना चाहिए
जो आगे चलकर नवाचार करें और इस प्रक्रिया में कुछ पुराने उद्योग में शायद ठप हों;
8. इनसे हमारी जीवन शैली में बदलाव होना
चाहिए, परिणामस्वरूप सामाजिक परिवर्तन होना चाहिए।
यह ज़रूरी नहीं है कि एक बेहतरीन आविष्कार
इन सभी बिंदुओं को पूरा करे, इनमें से अधिकांश बिंदुओं को पूरा करना
पर्याप्त होगा।
दिलचस्प बात यह है कि इनमें से कई आविष्कार
पिछले 55 वर्षों के दौरान हुए हैं – 1957 में बनी कंप्यूटर भाषा FORTRAN से लेकर 2011 की डीप लर्निंग तक। इस किताब
में आविष्कारों का संक्षिप्त इतिहास, उनका विवरण और आविष्कारकों के बारे में
बताया गया है। इस लेख में हम इन नवाचारों में से पहले सात नवाचार देखेंगे, और
बाकी सात अगले लेख में।
इनमें पहला नवाचार है कंप्यूटर भाषा FORTRAN या फॉर्मूला ट्रांसलेशन, जो वर्ष 1957 में जॉन बैकस और उनकी टीम
द्वारा विकसित की गई थी। यह डिजिटल कंप्यूटरों की बाइनरी भाषा (दो अंकों – 0 और 1
– पर आधारित भाषा) को हमारे द्वारा समझी और उपयोग की जाने वाली भाषा में बदलती है।
शुरुआत में इसका उपयोग आईबीएम कंप्यूटर और बाद में अन्य कंप्यूटर में भी किया गया।
मुझे याद है, आईआईटी कानपुर में प्रो. राजारामन ने किस तरह हम सभी
छात्रों और शिक्षकों (और अन्य कई लाख लोगों को अपने व्याख्यानों और पुस्तकों के
माध्यम से) FORTRAN सिखाई थी। FORTRAN ने गैर-पेशेवर लोगों के लिए भी कंप्यूटर का उपयोग संभव बनाया – प्रोग्रामिंग
करने और समस्या-समाधान करने में। अन्य लोगों ने विशेष उपयोग के लिए इसी तरह की
अन्य प्रोग्रामिंग भाषाएं बनार्इं लेकिन वैज्ञानिक आज भी FORTRAN उपयोग करते हैं।
दूसरा है,
एकीकृत परिपथ
(इंटीग्रटेड सर्किट या आईसी)। जब आईसी का आविष्कार नहीं हुआ था तब वैक्यूम ट्यूब
की मदद से संकेतों की तीव्रता बढ़ाई जाती थी यानी उन्हें परिवर्धित किया जाता था।
ये वैक्यूम ट्यूब बड़े होते थे और उपयोग करने पर गर्म हो जाते थे। 1947 में जब जॉन
बार्डीन और उनके साथियों ने ट्रांज़िस्टर का आविष्कार किया तो ये परिवर्धक छोटे हो
गए और इनकी बिजली खपत कम हो गई।
इस कार्य ने सूचना प्रौद्योगिकी में क्रांति
ला दी। इनकी मदद से जैक किल्बी (और कुछ महीनों बाद रॉबर्ट नॉयस) ने एक सिलिकॉन चिप
पर पूर्णत: एकीकृत जटिल इलेक्ट्रॉनिक परिपथ बनाकर दिखा दिया।
किताब में उल्लेखित तीसरा नवाचार है, डैटाबेस
और उसका व्यवस्थित रूप में प्रबंधन। उदाहरण के लिए,
हमारे आधार कार्ड में
कई तरह का डैटा (उम्र, लिंग, पता,
फिंगरप्रिंट वगैरह)
होता है, जिसे एक साथ संक्षिप्त रूप में रखा जाता है। इस तरह की
डैटाबेस प्रणाली को रिलेशनल डैटाबेस मैनेजमेंट सिस्टम या RDBMS कहते हैं। पहले इन
फाइलों को मैग्नेटिक टेप में संग्रहित किया जाता था,
फिर फ्लॉपी डिस्क
आर्इं, और अब सीडी और पेन ड्राइव हैं।
चौथा नवाचार है,
लोकल एरिया नेटवर्क
(या LAN)। इससे पहला परिचय हवाई के नॉर्मन अब्रेमसन समूह ने करवाया था। उन्होंने पूरे द्वीप के कंप्यूटर्स को आपस में जोड़ने
के लिए ALOHA net नामक बेतार प्रसारण प्रणाली (वायरलेस ब्रॉडकास्ट सिस्टम) का उपयोग किया था।
बाद में रॉबर्ट मेटकाफ और डेविड बोग्स ने इस प्रोटोकॉल में कुछ तब्दीलियां कीं और
इसे ईथरनेट कहा गया। इससे केबल कनेक्शन के माध्यम से कंप्यूटर्स के बीच संदेश और
फाइलों को साझा करना और उनका आदान-प्रदान संभव हुआ। अब हम,
कार्यालयों में LAN का उपयोग हार्ड-कॉपी को ई-फाइल में बदलने के लिए,
और विश्वविद्यालय में
विभिन्न विभागों के कंप्यूटर्स को आपस में जोड़ने जैसे कामों के लिए करते हैं।
पांचवां नवाचार है,
निजी या पर्सनल
कंप्यूटर (पीसी) का विकास। इसने घर से काम करना और पढ़ना संभव बनाया है। पीसी
डिज़ाइन करने वाले पहले व्यक्ति थे स्टीव वोज़नियाक जिन्होंने 1970 के दशक में इसे
बनाया था, और स्टीव जॉब्स ने इसका शानदार बाज़ारीकरण किया था। 1981 तक
पीसी समोसे-कचोड़ियों की तरह बज़ार में बिकने लगे और 1980 के दशक के अंत तक, ऐपल, आईबीएम
और अन्य कंपनियां माइक्रोसॉफ्ट ऑपरेटिंग सिस्टम के साथ बाज़ार पर छा गर्इं।
हमें अपना फोन या कंप्यूटर खोलने के लिए एक
पासकोड चाहिए होता है, जो सुरक्षित होता है और सिर्फ हमें पता होता है। जब कोई
प्रेषक या बैंक हमें गोपनीय संदेश भेजते हैं तो वे एक सुरक्षित पासकोड (जैसे, ओटीपी)
भी भेजते हैं। यह कूटलेखन प्रेषक और रिसीवर के संदेशों की गोपनीयता बनाए रखता है।
यह सार्वजनिक कुंजी कूटलेखन छठा नवाचार है।
हमारे कंप्यूटर में अब एक बिल्ट-इन प्रोग्राम है जिससे आप तस्वीरें, वीडियो ले सकते हैं और व्हाट्सएप, फेसटाइम या इसी तरह की अन्य ऐप्लिकेशन के ज़रिए इन्हें भेज सकते हैं। यह कंप्यूटर ग्राफिक्स नामक सातवें नवाचार से संभव हो सका है। प्रो. राजारामन ने इसके बारे में विस्तार से बताया है। इसके अलावा, उन्होंने मल्टीमीडिया डैटा के संक्षेपण के बारे में भी बताया है जिसने इंटरनेट पर ऑडियो-वीडियो का आदान-प्रदान संभव किया। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://img.etimg.com/thumb/msid-78088614,width-1200,height-900,imgsize-120503,overlay-economictimes/photo.jpg
सेहतमंद तो सभी रहना चाहते हैं। खासकर चाहते हैं कि
वृद्धावस्था बिना किसी शारीरिक तकलीफ के गुज़र जाए। ऐसे में हर कोई अपने उत्पादों
के ज़रिए आपको अच्छी सेहत देने की पेशकश कर रहा है। कोई अपने एनर्जी ड्रिंक से आपको चुस्त-दुरुस्त बनाने की बात कहता
है तो कोई इम्यूनिटी बढ़ाने की बात करता है। फिटनेस क्लब,
योगा, मेडिटेशन
सेंटर ये सब आपसे दिन के कुछ वक्त कुछ अभ्यास करवा कर आपको स्वस्थ रखने की बात
कहते हैं। वे आपको इस बात का पूरा यकीन दिलाते हैं कि उनके उत्पाद अपनाकर या उनके
सुझाए कुछ अभ्यास कर आप तंदुरुस्त रह सकते हैं।
स्वस्थ रहने की तो बात समझ आती है लेकिन
मुश्किल तब शुरू होती है जब ये सभी वैज्ञानिक तथ्यों,
प्रमाणों का सहारा
लेते हुए स्वयं को सत्य साबित करने की कोशिश करते हैं। अपने मतलब सिद्धि के लिए
तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर या बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं या पूरा-पूरा सच बताते नहीं है।
इसका एक उदाहरण भावातीत ध्यान का प्रचार-प्रसार करने वाली एक साइट द्वारा एक शोध
पत्र को लेकर की गई रिपोर्टिंग (https://tmhome.com/benefits/study-tm-meditation-increase-telomerase/) में देखते हैं।
दरअसल साल 2015 में हावर्ड युनिवर्सिटी
मेडिकल सेंटर के शोधकर्ताओं ने प्लॉस वन पत्रिका में एक अध्ययन प्रकाशित
किया था (https://journals.plos.org/plosone/article%3Fid=10.1371/journal.pone.0142689)। इस अध्ययन में वे देखना चाहते थे कि
जीवन शैली में बदलाव रक्तचाप की स्थिति और टेलोमरेज़ जीन की अभिव्यक्ति को कैसे
प्रभावित करते हैं ।
टेलोमरेज़ एक एंज़ाइम है जिसकी भूमिका
टेलोमेयर के पुनर्निर्माण में होती है। टेलोमेयर गुणसूत्र के अंतिम छोर पर होता है
और कोशिका विभाजन के समय सुनिश्चित करता है कि गुणसूत्र को किसी तरह की क्षति ना
पहुंचे या उसमें कोई गड़बड़ी ना हो। हर बार कोशिका विभाजन के समय टेलोमेयर थोड़ा छोटा
होता जाता है और जब टेलोमेयर बहुत छोटा हो जाता है तो कोशिका का विभाजन रुक जाता
है।
यह देखा गया है कि तनाव, जीवन
शैली और टेलोमेयर में गड़बड़ी उच्च रक्तचाप और ह्रदय रोग जैसी समस्याओं से जुड़े हैं।
इसलिए शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में स्तर-1 के उच्च रक्तचाप से पीड़ित लोगों की
जीवन शैली में बदलाव कर उसके प्रभावों की जांच की। उन्होंने प्रतिभागियों को दो
समूह में बांटा। एक समूह के प्रतिभागियों को 16 हफ्तों तक भावातीत ध्यान करवाया
गया और इसके साथ-साथ तनाव कम करने के लिए बुनियादी स्वास्थ्य शिक्षा कोर्स कराया
गया (SR)।
और दूसरे समूह को विस्तृत स्वास्थ्य शिक्षा कोर्स (EHE) कराया गया जिसमें
प्रतिभागियों ने खान-पान पर नियंत्रण रखा,
शारीरिक व्यायाम किया
और कुछ प्रेरक ऑडियो-वीडियो देखे। अध्ययन में दोनों ही समूहों, SR और EHE, के प्रतिभागियों
के रक्तचाप में लगभग समान कमी दिखी और टेलोमरेज़ बनाने वाले दो जीन (hTERT और hTR) की अभिव्यक्ति में एक-समान अधिकता देखी गई थी।
लेकिन इस साइट (tmhome.com), जो
कि भावातीत ध्यान के प्रचार के उद्देश्य से ध्यान पर केंद्रित सामग्री प्रकाशित
करती है, ने इस शोध की रिपोर्टिंग इस तरह पेश की ताकि लगे कि ध्यान
करने से लोगों को फायदा हुआ, उनका रक्तचाप कम हुआ और उनमें टेलोमरेज़
बनाने वाले जीन्स की अधिक अभिव्यक्ति देखी गई। ज़ाहिर है,
साइट के संचालकों को
उम्मीद थी लोग भावातीत ध्यान को अपनाएंगे।
अलबत्ता,
रिपोर्टिंग में दूसरे
समूह (जिसने ध्यान नहीं किया था) के लोगों को हुए समान फायदों की बात नज़रअंदाज कर
दी गई, शायद जानबूझकर।
यदि शोध को ध्यानपूर्वक पढ़ें तो पाते हैं
कि इस शोध में शोधकर्ता यह संभावना जताते हैं कि टेलोमरेज़ जीन की अभिव्यक्ति या तो
रक्तचाप कम होने का सूचक हो सकती है या इसे कम करने का कारण। लेकिन रिपोर्टिंग में
इसे भी तोड़-मरोड़ कर पेश करते हुए टेलोमरेज़ जीन की अभिव्यक्ति में वृद्धि को
रक्तचाप में कमी के कारण के रूप में प्रस्तुत किया गया।
शोधकर्ताओं की एक यह परिकल्पना भी थी कि
जीवन शैली में बदलाव से टेलोमेयर की लंबाई पर प्रभाव पड़ेगा। लेकिन उन्हें टेलोमेयर
की लंबाई में कोई फर्क नहीं दिखा। इसके स्पष्टीकरण में वे कहते हैं कि थोड़े समय
(सिर्फ 16 हफ्ते) के बदलाव टेलोमेयर की लंबाई में फर्क देखने के लिए पर्याप्त नहीं
हैं; इस तरह का फर्क देखने के लिए साल भर से अधिक समय तक अध्ययन
की ज़रूरत है। लेकिन इस तरह की बातों का रिपोर्टिंग में उल्लेख नहीं है। अलबत्ता, रिपोर्ट
उन पूर्व में हुए इसी तरह के अध्ययनों का ज़िक्र करती है जिनमें स्वास्थ्य पर ध्यान
के प्रभाव जांचे गए थे ताकि ध्यान के फायदे और भी पुख्ता मान लिए जाएं।
ऐसा नहीं था कि ध्यान से कोई प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन समस्या उसकी प्रस्तुति के अर्ध-सत्य में है जो यह यकीन दिलाने की कोशिश करती है कि स्वास्थ्य सम्बंधी फायदे सिर्फ ध्यान को अपनाकर मिल सकते हैं। यह सही है कि अध्ययन के दौरान ध्यान करने वाले लोगों को फायदा मिला लेकिन पूरा सत्य यह है कि अन्य तरह से नियंत्रण करने वाले लोगों को भी उतना ही फायदा मिला था। और दोनों समूहों के बीच टेलोमेयर जीन की अभिव्यक्ति में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं देखा गया। अनुसंधान की ऐसी गलतबयानी!(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://tmhome.com/wp-content/uploads/2015/12/telomeres-telomerase-increase-meditation.jpg
काफी समय से इकॉलॉजीविदों को आशंका रही है कि मनुष्यों द्वारा
जंगल काटे जाने और सड़कों आदि के निर्माण से जैव विविधता में आई कमी के चलते
कोविड-19 जैसी महामारियों का जोखिम बढ़ जाता है। हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि
जैसे-जैसे कुछ प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं,
जीवित रहने वाली
प्रजातियों, जैसे चमगादड़ और चूहे,
में ऐसे घातक
रोगजनकों की मेज़बानी करने की संभावना बढ़ रही है जो मनुष्यों में छलांग लगा सकते
हैं। गौरतलब है कि 6 महाद्वीपों पर लगभग 6800 पारिस्थितिक समुदायों पर किए गए
विश्लेषण से सबूत मिले हैं कि जैव विविधता में ह्रास और बीमारियों के प्रकोप में
सम्बंध है लेकिन आने वाली महामारियों के बारे में कुछ नहीं कहा गया है।
युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के इकोलॉजिकल मॉडलर
केट जोन्स और उनके सहयोगी काफी समय से जैव विविधता,
भूमि उपयोग और उभरते
हुए संक्रामक रोगों के बीच सम्बंधों पर काम कर रहे हैं और ऐसे खतरों की चेतावनी भी
दे रहे हैं लेकिन हालिया कोविड-19 प्रकोप के बाद से उनके अध्ययन को महत्व मिल पाया
है। अब इसकी मदद से विश्व भर के समुदायों में महामारी के जोखिम और ऐसे क्षेत्रों
का पता लगाया जा रहा है जहां भविष्य में महामारी उभरने की संभावना हो सकती है।
इंटरगवर्मेंटल साइंस-पॉलिसी प्लेटफॉर्म ऑन
बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज़ (आईपीबीईएस) ने इस विषय पर एक ऑनलाइन
कार्यशाला आयोजित की है ताकि निष्कर्ष सितंबर में होने वाले संयुक्त राष्ट्र शिखर
सम्मलेन में प्रस्तुत किए जा सकें। कुछ वैज्ञानिकों,
अर्थशास्त्रियों, वायरस
विज्ञानियों और पारिस्थितिक विज्ञानियों के समूह भी सरकारों से वनों की कटाई तथा
वन्य जीवों के व्यापार पर नियंत्रण की मांग कर रहे हैं ताकि महामारियों के जोखिम
को कम किया जा सके। उनका कहना है कि मात्र इस व्यापार पर प्रतिबंध लगाने से काम
नहीं बनेगा बल्कि उन परिस्थितियों को भी बदलना होगा जो लोगों को जंगल काटने व वन्य
जीवों का शिकार करने पर मजबूर करती हैं।
जोन्स और अन्य लोगों द्वारा किए गए अध्ययन
कई मामलों में इस बात की पुष्टि करते हैं कि जैव विविधता में कमी के परिणामस्वरूप
कुछ प्रजातियों ने बड़े पैमाने पर अन्य प्रजातियों का स्थान ले लिया है। ये वे
प्रजातियां हैं जो ऐसे रोगजनकों की मेज़बानी करती हैं जो मनुष्यों में फैल सकते
हैं। नवीनतम विश्लेषण में जंगलों से लेकर शहरों तक फैले 32 लाख से अधिक
पारिस्थितिक अध्ययनों के विश्लेषण से उन्होंने पाया कि वन क्षेत्र के शहरी क्षेत्र
में परिवर्तित होने तथा जैव विविधता में कमी होने से मनुष्यों में रोग प्रसारित
करने वाले 143 स्तनधारी जीवों की तादाद बढ़ी है।
इसके साथ ही जोन्स की टीम मानव आबादी में रोग संचरण की संभावना पर भी काम कर रही है। उन्होंने पहले भी अफ्रीका में एबोला वायरस के प्रकोप के लिए इस प्रकार का मूल्यांकन किया है। इसके लिए विकास के रुझानों, संभावित रोग फैलाने वाली प्रजातियों की उपस्थिति और सामाजिक-आर्थिक कारकों के आधार पर कुछ रिस्क मैप तैयार किए हैं जो किसी क्षेत्र में वायरस के फैलने की गति को निर्धारित करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में टीम ने कांगो के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले प्रकोपों का सटीक अनुमान लगाया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि भूमि उपयोग, पारिस्थितिकी, जलवायु, और जैव विविधता जैसे कारकों के बीच सम्बंध स्थापित कर भविष्य के खतरों का पता लगाया जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-020-02341-1/d41586-020-02341-1_18254012.jpg
‘सिर में भूसा भरा
है क्या?’ ऐसे ताने अक्सर यह जताने वाले
होते हैं कि मस्तिष्क नहीं है। सही भी है अगर मस्तिष्क नहीं है तो शरीर मुर्दे के समान
बिस्तर पर पड़ा रहता है जैसा अक्सर ब्रोन डेथ के मामले में होता है। मस्तिष्क हमारी
चेतना, विचार, स्मृति, बोलचाल, हाथ-पैरों की गति
और हमारे शरीर के भीतर अनेक अंगों के कार्य को नियंत्रित करता है। कुछ लोगों को लगता
है कि उनका मस्तिष्क जानकारियों से ठूंस-ठूंस कर भरा है और उसका इंच भर हिस्सा भी निकालकर
अलग कर दिया जाए तो मस्तिष्क कार्य नहीं कर सकेगा। तो ऐसे व्यक्ति की कल्पना कीजिए
जिसके पास आधा मस्तिष्क हो। तो क्या वह सामान्य क्रियाकलाप कर सकेगा या ज़िंदा भी बचेगा?
हेनरी के जन्म के
कुछ ही घंटों के पश्चात मां मोनिका जोन्स यह समझ गई थी कि उनका नवजात बेटा एक दुर्लभ
और गंभीर न्यूरोलॉजिकल समस्या से पीड़ित है। हेनरी के मस्तिष्क का एक तरफ का हिस्सा
असामान्य रूप से बड़ा था और उसे प्रतिदिन सैकड़ों मिर्गी जैसे दौरे पड़ते थे। दवाएं भी
बेअसर लग रही थी। फिर डॉक्टरों के सुझाव से अनेक ऑपरेशन का दौर साढ़े तीन माह की उम्र
में प्रारंभ हुआ और 3 साल का होते-होते
हेनरी आधा मस्तिष्क विहीन हो गया।
मस्तिष्क के ऑपरेशन
की प्रक्रिया कोई नई नहीं है। 1920 में पहली बार मस्तिष्क
का ऑपरेशन किया गया था जिसमें मस्तिष्क का कैंसर युक्त हिस्सा निकालकर अलग कर दिया
गया था। उसके बाद कई ऑपरेशन किए जा चुके हैं। यह ज्ञात है कि यदि किसी बच्चे का आधा
मस्तिष्क बीमारियों के कारण ठीक से कार्य नहीं कर पाता है तो ऑपरेशन करके निकाल देने
पर भी वह भला चंगा होकर पढ़ना-लिखना, खेलना-कूदना जैसे सामान्य कार्य कर लेता है। आधे मस्तिष्क को सही तरीके से कार्य
करता देखकर वैज्ञानिक भी आश्चर्य चकित हैं।
मोटे तौर पर आधे मस्तिष्क
वाले ऐसे मरीज़ों में से 20 प्रतिशत तो वयस्क
होकर सामान्य रोज़गार भी प्राप्त कर लेते हैं। शोध पत्रिका सेल रिपोट्र्स में प्रकाशित
एक हालिया शोध से पता चलता है कि आधे मस्तिष्क में पुनर्गठन के कारण कुछ व्यक्ति पहले
की तरह ठीक हो जाते हैं।
कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट
ऑफ टेक्नोलॉजी में कार्यरत संज्ञान वैज्ञानिक डॉरिट किलमैन कहते हैं कि मस्तिष्क बहुत
ही लचीला यानी अपने कार्य को पुनर्गठित करने में सक्षम होता है। यह मस्तिष्क की संरचना
में अचानक उत्पन्न हुए नुकसान की भरपाई भी कर सकता है। कुछ मामलों में नेटवर्क खो चुके
हिस्से के कार्य को शेष मस्तिष्क पूरी तरह अपना लेता है।
उपरोक्त अध्ययन को
आंशिक रूप से एक गैर-लाभकारी संगठन द्वारा वित्त पोषित किया गया। श्रीमती जोन्स और
उनके पति ने यह संगठन ऐसे मरीज़ों की मदद के लिए बनाया था जो मिर्गी जैसे दौरे रोकने
के लिए ऑपरेशन कराने के इच्छुक थे। अध्ययन के निष्कर्ष बड़े बच्चों में भी आधा मस्तिष्क
निकालने के संदर्भ में उत्साहवर्धक हैं।
सेरेब्राम मस्तिष्क
का सबसे बड़ा भाग है। यह वाणि, विचार, भावनाएं, पढ़ने, लिखने और सीखने तथा
मांसपेशियों के कार्यों को नियंत्रित करता है। इसका दायां भाग शरीर के बार्इं ओर की
मांसपेशियों और बायां भाग शरीर के दार्इं ओर की मांसपेशियों को नियंत्रित करता है।
यद्यपि सेरेब्राम के दोनों भाग (हेमीस्फीयर) दिखने में एक जैसे दिखते हैं किन्तु कार्य
में एक-से नहीं होते। इसका बायां भाग उन कार्यों को भी करता है जिनमें तर्क लगते हैं
जैसे विज्ञान और गणित की समझ। जबकि दायां भाग अन्य कार्यों के अलावा रचनात्मक और कला
से सम्बंधित कार्यों को नियंत्रित करता है। सेरेब्राम के दोनों आधे भाग कार्पस केलोसम
से जुड़े हुए होते हैं। मस्तिष्क का यह भाग ऊपर से सपाट न होकर कई दरारों एवं उभारों
से मिलकर बनता है और अखरोट जैसी संरचना वाला होता है। राइट हेंडेड व्यक्तियों में सेरेब्राम
का बायां भाग प्रभावी होता है तथा मुख्य रूप से भाषा की समझ, बोलने को नियंत्रण करता है।
ऐसे लोग जिनका हेमिस्फेरोक्टोमी
(सेरेब्राम का आधा हिस्सा निकाल देने का ऑपरेशन) हुआ हो, सामान्य व्यक्ति की तरह ही दिखते और व्यवहार करते हैं। पर मेग्नेटिक
रेसोनेन्स इमेजिंग (एम.आर.आई.) की रिपोर्ट बताती है कि उनके मस्तिष्क का आधा भाग बचपन
में ही निकाल दिया गया था। यह ज्ञात होते ही ऐसा लगता है कि ऐसे व्यक्तियों का सामान्य
कार्य करना असंभव है। खास कर जब इसकी तुलना ह्मदय जैसे किसी अंग से की जाए।
क्या ह्मदय को दो
बराबर हिस्सों में बांटने पर वह कार्य कर पाएगा? बिलकुल नहीं। आप अपने मोबाइल को अगर दो हिस्सों में बांट दे
तो यह काम नहीं करेगा। इस प्रकार मस्तिष्क के बहुत से कार्य ऐसे हैं जहां सेरेब्राम
के दोनों भाग मिलकर कार्य करते हैं जैसे चेहरे की पहचान। परंतु हाथ हिलाने जैसे कार्य
मस्तिष्क के एक भाग से होते हैं। एक मधुर संगीत के लिए गायक और अनेक वाद्य यंत्रों
की जुगलबंदी ज़रूरी है। लगभग ऐसा ही मस्तिष्क के भागों का कार्य है। इस सबकी बजाय शोधकर्ताओं
ने पाया कि सामान्य कनेक्शन की तुलना में आधे बचे मस्तिष्क ने बचे हुए कनेक्शन को मज़बूत
किया और तंत्रिकाओं के बीच बेहतर तालमेल एवं संवाद बैठाया। यह बिल्कुल उस परिस्थिति
के जैसा था जहां युगल गीत के कार्यक्रम में जोड़ीदार की अनुपस्थिति में एक ही गायक ने
महिला एवं पुरुष दोनों की आवाज निकालकर गाना गाया हो। वैसे ही मस्तिष्क के भाग भी मल्टीटाÏस्कग यानी बहु-कार्य करने लगे थे।
शोधकर्ताओं के लिए
ये परिणाम उत्साहजनक हैं और वे अभी भी इस प्रक्रिया को समझने की कोशिश कर रहे हैं।
लगभग 200 बच्चों में मस्तिष्क के ऑपरेशन
करने वाले बाल न्यूरोलाजिस्ट डॉ. अजय गुप्ता कहते हैं कि मस्तिष्क परिस्थितियों के
अनुसार अपने को ढालने में बेहद कामयाब रहता है। अक्सर हेमिस्फेरेक्टोमी के ऑपरेशन्स
4 या 5 वर्ष की आयु के बच्चों में बेहद सफल रहे हैं क्योंकि
बड़े होने से पहले उनका मस्तिष्क कमियों की पूर्ति कर लेता है। यद्यपि दौरे पड़ने वाले
वयस्क मरीज़ों में मस्तिष्क का ऑपरेशन अंतिम उपाय ही माना जाता है।
बच्चों में भी ये ऑपरेशन बेहद गंभीर होते हैं। मस्तिष्क के निकले हुए हिस्से में तरल भरने से लगातार सिर दुखने जैसी अवस्था बनी रहती है। ऑपरेशन के बाद बच्चे कमज़ोर हो जाते हैं और एक तरफ के हाथ-पैर पर नियंत्रण नहीं रह पाता है। इसके अलावा एक तरफ का दिखना बंद हो सकता है तथा आवाज़ किस दिशा से आ रही है यह बोध भी नहीं हो पाता है। बच्चे की शिक्षा के दौरान पढ़ने, लिखने और गणित पर ज़्यादा ध्यान देना होता है। वयस्क होते-होते ऐसे बच्चे मस्तिष्क के द्वारा मल्टी टास्किंग अपनाने के कारण सामान्य हो जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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तेज़ी
से फैल रहे कोविड-19 संक्रमण को रोकने के लिए वैज्ञानिक उपाय
खोजने में लगे हैं। हाल ही में भारत की शीर्ष संस्था आईसीएमआर ने कोविड-19 मरीज़ों के इलाज के लिए प्लाज़्मा उपचार के ट्रायल की अनुमति
दी है। चीन में कोविड-19 संक्रमण से ठीक हुए
रोगियों के रक्त में कोविड-19 के विरुद्ध
एंटीबॉडीज़ से रोगियों का इलाज करने की संभावना देखी जा रही है। भारत में आईसीएमआर
द्वारा विभिन्न संस्थाओं को क्लीनिकल ट्रायल्स प्रारंभ करने का आमंत्रण देने का
कारण यह जानना है कि कोविड-19 संक्रमण के विरुद्ध
बनी एंटीबॉडी रोगग्रस्त व्यक्तियों के इलाज में कितनी असरदार साबित होती हैं।
बैक्टीरिया, फफूंद, वायरस जैसे रोगाणुओं
के लिए हमारा शरीर एक आदर्श आवास है। सर्दी या फ्लू के वायरस पर तो हमारा शरीर
ज़्यादा ही मेहरबान प्रतीत होता है। जब रोगाणु हमारे शरीर में प्रवेश करते हैं तो
बी तथा टी प्रतिरक्षा कोशिकाएं उन्हें नष्ट करने में लग जाती हैं।
बी-प्रतिरक्षा कोशिकाएं रोगाणुओं पर उपस्थित एंटीजन से जुड़कर
प्लाज़्मा कोशिकाओं का निर्माण करती है। प्लाज़्मा कोशिकाएं विभाजित होकर असंख्य
प्लाज़्मा कोशिकाएं बनाती हैं जो तेज़ी से एंटीबॉडीज़ का निर्माण करने लगती है। चूंकि
ये एंटीबॉडी खास रोगाणुओं के विरुद्ध बनती हैं इसलिए दूसरी बीमारी के रोगाणुओं के
विरुद्ध कार्यवाही नहीं कर सकती है। जब शरीर में प्रतिरक्षा कोशिकाओं को एक
अपरिचित एंटीजन का पता लगता है तो प्लाज़्मा कोशिकाओं को पर्याप्त रूप में एंटीबॉडी
उत्पन्न करने में दो सप्ताह तक का समय लग सकता है। अत्यधिक मात्रा में निर्मित
एंटीबॉडीज़ को रक्त रोगाणुओं के आगमन स्थानों पर पहुंचाता है जहां एंटीबॉडीज़
रोगाणुओं को बांधकर उन्हें अक्रिय कर देती हैं जिन्हें भक्षी कोशिकाएं खा जाती
हैं।
एंटीबॉडीज़
एकत्रित के लिए पूरी तरह ठीक हो चुके व्यक्ति के शरीर से लगभग 800 मिलीलीटर रक्त निकाला जाता है और रक्त से प्लाज़्मा को अलग
किया जाता है। प्लाज़्मा अलग होने के बाद लाल रक्त कोशिकाओं को सलाइन में मिलाकर
वापस दानदाता के शरीर में डाल दिया जाता है। प्लाज़्मा में से खून का थक्का जमाने
वाले प्रोटीन फाइब्रिनोजन को अलग कर सिरम प्राप्त किया जाता है। सिरम में केवल
एंटीबॉडीज़ पाई जाती हैं। सिरम को अल्पकाल के लिए 40 डिग्री
सेल्सियस पर तथा ज़्यादा समय तक संग्रहित करने के लिए कुछ रसायन मिलाकर -60 डिग्री सेल्सियस पर रखा जाता है। एक व्यक्ति से प्राप्त
प्लाज़्मा में इतनी एंटीबॉडीज़ होती हैं कि 4 मरीज़ों का इलाज हो
सकता है।
गंभीर
संक्रमण से ग्रस्त रोगियों के प्लाज़्मा में अनेक प्रकार के सूजन पैदा करने वाले
रसायन भी पाए जाते हैं जो फेफड़ों को गंभीर क्षति पहुंचा सकते हैं। ऐसी अवस्था में
उनके प्लाज़्मा से अवांछित रसायनों को पृथक कर निकाल दिया जाता है। प्लाज़्मा उपचार
का उपयोग केवल मध्यम या गंभीर संक्रमण वाले रोगियों पर किया जाता है।
कारगर टीके या इलाज के अभाव में कोविड-19 रोगियों के लिए प्लाज़्मा उपचार तकनीक लड़ाई में आशा की किरण है। चीन, दक्षिण कोरिया, अमेरिका और ब्रिटेन जैसे कई देशों में प्लाज़्मा उपचार पर प्रयोग चल रहे हैं और भारत भी इस दौड़ में पीछे नहीं रहना चाहता।(स्रोत फीचर्स)
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दुनिया
भर में प्लास्टिक रिसाइक्लिंग एक बड़ी समस्या है। नेचर पत्रिका में प्रकाशित
शोध के मुताबिक इस समस्या के समाधान में शोधकर्ताओं ने हाल ही में एक ऐसा एंज़ाइम
तैयार किया है जो प्लास्टिक को 90 प्रतिशत तक रिसाइकल कर सकता है।
पॉलीएथिलीन
टेरेथेलेट (PET) दुनिया में सर्वाधिक
इस्तेमाल होने वाला प्लास्टिक है। इसका सालाना उत्पादन लगभग 7 करोड़ टन है। वैसे तो अभी भी PET का पुनर्चक्रण किया जाता है लेकिन इसमें समस्या यह है कि
पुनर्चक्रण के लिए कई रंग के प्लास्टिक जमा होते हैं। जब इनका पुनर्चक्रण किया
जाता है तो अंत में भूरे या काले रंग का प्लास्टिक मिलता है। यह पेकेजिंग के लिए आकर्षक
नहीं होता इसलिए इसे या तो चादर के रूप में या अन्य निम्न-श्रेणी के फाइबर प्लास्टिक में बदल दिया
जाता है। और अंतत: इसे
या तो जला दिया जाता है या लैंडफिल में फेंक दिया जाता है जिसे पुनर्चक्रण तो नहीं
कहा जा सकता।
इसी
समस्या के समाधान में वैज्ञानिक एक ऐसे एंज़ाइम की खोज में थे जो PET और अन्य प्लास्टिक का पुनर्चक्रण कर सके। 2012 में ओसाका विश्वविद्यालय
के शोधकर्ताओं को कम्पोस्ट के ढेर में LLC
नामक एक एंज़ाइम मिला था जो PET के
दो बिल्डिंग ब्लॉक, टेरेथेलेट और एथिलीन
ग्लायकॉल, के बीच के बंध को
तोड़ सकता है। प्रकृति में इस एंज़ाइम का काम है कि यह कई पत्तियों पर मौजूद मोमी
आवरण का विघटन करता है। LLC सिर्फ पीईटी बंधों को तोड़ सकता है और वह
भी धीमी गति से। लेकिन यदि तापमान 65 डिग्री सेल्सियस हो तो कुछ समय काम करने के बाद यह नष्ट हो
जाता है। इसी तापमान पर तो PET नरम होना शुरू होता है और तभी एंज़ाइम
आसानी से प्लास्टिक के बंध तक पहुंचकर उन्हें तोड़ सकेगा।
हालिया
शोध में प्लास्टिक कंपनी कारबायोस के एलैन मार्टी और उनके साथियों ने इस एंज़ाइम
में कुछ फेरबदल किए। उन्होंने उन अमिनो अम्लों का पता किया जिनकी मदद से यह एंज़ाइम
टेरेथेलेट और एथिलीन ग्लाइकॉल समूहों के रासायनिक बंध से जुड़ता है। उन्होंने इस
एंज़ाइम को उच्च तापमान पर काम करवाने के तरीके भी खोजे।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने ऐसे सैकड़ों परिवर्तित एंज़ाइम्स की मदद से PET प्लास्टिक का पुनर्चक्रण करके देखा। कई प्रयास के बाद उन्हें एक ऐसा परिवर्तित एंज़ाइम मिला जो मूल LLC की तुलना में 10,000 गुना अधिक कुशलता से PET बंध तोड़ सकता है। यह एंज़ाइम 72 डिग्री सेल्सियस पर भी काम करता है। प्रायोगिक तौर पर इस एंज़ाइम ने 10 घंटों में 90 प्रतिशत 200 ग्राम PET का पुनर्चक्रण किया। इस प्रक्रिया से प्राप्त टेरेथेलेट और एथिलीन ग्लायकॉल से PET और प्लास्टिक बोतल तैयार किए गए जो नए प्लास्टिक जितने मज़बूत थे। हालांकि अभी स्पष्ट नहीं है कि यह आर्थिक दृष्टि से कितना वहनीय होगा लेकिन इसकी खासियत यह है कि इससे जो प्लास्टिक मिलता है वह नए जैसा टिकाऊ और आकर्षक होता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.fastcompany.net/image/upload/w_937,ar_16:9,c_fill,g_auto,f_auto,q_auto,fl_lossy/wp-cms/uploads/2019/10/p-1-90412215-hitachi-wants-to-use-a-plastic-eating-enzyme-to-clean-up-plastic-pollution-1.jpg
कोविड-19 के लिए दो मलेरिया
रोधी दवाओं, क्लोरोक्वीन और
हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन, के उपयोग को लेकर
काफी राजनैतिक बहस हो रही है। राजनेताओं के दावों के परिणामस्वरूप,
फ्रांसीसी चिकित्सकों पर कोविड-19 के गंभीर रोगियों पर
हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन का उपयोग करने का दबाव बनाया जा रहा है। 4.6 लाख लोग एक याचिका
पर हस्ताक्षर भी कर चुके हैं कि इसे व्यापक रूप से उपलब्ध करवाया जाए। इसकी वकालत
की अगुआई करने वाले डिडिएर राउल्ट एक विवादास्पद और राजनीति से जुड़े सूक्ष्मजीव
विज्ञानी हैं।
हाल
ही में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों से राउल्ट की मुलाकात ने मामले को
हवा दी है। फ्रांसीसी जनमत संग्रह संस्थान के अनुसार फ्रांस की 59 प्रतिशत जनता
क्लोरोक्वीन को कोरोनावायरस के खिलाफ प्रभावी मानती है। यहां तक कि मैक्रों की
आर्थिक नीति का विरोध करने वाले समूह ‘येलो वेस्ट’ के 80 प्रतिशत लोग भी इसके समर्थन में हैं।
फ्रांस
के कई चिकित्सकों और विशेषज्ञों द्वारा इस दवा को नुस्खे में न लिखने पर निरंतर
धमकियां मिल रही हैं और इसे हासिल करने के लिए झूठी डॉक्टरी दवा पर्चियों का भी
उपयोग किया जा रहा है।
जहां
तक हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन का सवाल है, कोविड-19 के खिलाफ इसकी
प्रभाविता के कई अध्ययनों ने नकारात्मक या अस्पष्ट परिणाम दिए हैं। इसके सेवन से
ह्मदय गति में गड़बड़ सहित कई अन्य दुष्प्रभाव हो सकते हैं। राउल्ट के अध्ययनों में
सकारात्मक परिणामों को लेकर उनके अध्ययनों की सीमाओं और पद्धति सम्बंधी समस्याओं
की व्यापक रूप से आलोचना की जा रही है। इसमें उन्होंने केवल 42 रोगियों को शामिल किया और उसमें से भी
उन्होंने खुद चुना कि किसको दवा देनी है किसका प्लेसिबो से काम चलाना है। ऐसे
अध्ययन का नैदानिक शोध में कोई महत्व नहीं है। इंटरनेशनल सोसायटी फॉर माइक्रोबियल
कीमोथेरपी की शोध पत्रिका इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एंटीमाइक्रोबियल एजेंट्स में
प्रकशित इस पेपर से स्वयं सोसायटी ने असहमति जताई है। उनका दूसरा पेपर बिना समकक्ष
समीक्षा के प्रकाशित हुआ था।
राउल्ट
के अनुसार अस्पताल में सभी कोविड-19 रोगियों को हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन और एज़िथ्रोमाइसिन का
मिश्रण दिया गया और मृत्यु दर में काफी कमी आई थी।
ऐसे
में यह बात तो तय है कि राउल्ट को अपने राजनीतिक सम्बंधों से काफी फायदा मिला है।
फ्रांस के पूर्व उद्योग मंत्री ने भी एक टीवी साक्षात्कार में राउल्ट का समर्थन
किया है। इसके अलवा उनको चिकित्सा जगत में भी उच्च-स्तरीय समर्थन मिला है। उनके द्वारा चलाई
गई ऑनलाइन याचिका में चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोगों,
चिकित्सा अकादमियों के प्रमुख चिकित्सकों और यहां तक कि
फ्रांस के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री के हस्ताक्षर भी शामिल हैं।
लेकिन फ्रांस के कई वैज्ञानिक इस हानिकारक दवा की प्रभाविता के अल्प प्रमाण के बावजूद उपयोग को लेकर चिंतित हैं। 7 युरोपीय देशों में हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन और कई अन्य उपचारों की प्रभाविता का अध्ययन करने के लिए एक रैंडम परीक्षण शुरू किया गया है। पेरिस स्थित सेंट लुइस अस्पताल में संक्रामक रोग विभाग के पूर्व अध्यक्ष बर्गमन के अनुसार इस परीक्षण के लिए उनको लोग नहीं मिल रहे हैं चूंकि वे हायड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन के अलावा कोई और उपचार लेना ही नहीं चाहते। बर्गमन का मानना है कि यह ‘चिकित्सा भीड़तंत्र’ है जो सत्य की खोज को मुश्किल कर रहा है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Macron_Raoult_1280x720.jpg?itok=MI0tCp9V