क्या दुनिया चरम कार्बन उत्सर्जन के करीब है?

ज़ुबैर सिद्दिकी

ह तो हम जानते हैं कि वैश्विक कार्बन उत्सर्जन का ग्राफ लगातार ऊपर चढ़ रहा है। वैज्ञानिक लंबे समय से चेतावनी देते आए हैं कि जब तक हर साल वातावरण में और अधिक कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन जुड़ती जाएंगी, पृथ्वी गर्म (global warming) होती जाएगी।

लेकिन हाल ही में एक अप्रत्याशित संकेत मिला है — बहुत छोटा, लेकिन इतना महत्वपूर्ण कि दुनिया भर के वैज्ञानिकों का ध्यान उस ओर आकर्षित हुआ। उपग्रह और ऊर्जा उत्पादन डैटा की मदद से रीयल-टाइम उत्सर्जन ट्रैक करने वाले अंतर्राष्ट्रीय समूह Climate TRACE ने साल की शुरुआत में वैश्विक उत्सर्जन में हल्की गिरावट (real-time emissions) दर्ज की है। इस वर्ष जनवरी, फरवरी और मार्च में उत्सर्जन पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में थोड़ा कम पाया गया। वैसे तो यह बदलाव मामूली लग सकता है, लेकिन लंबे समय से ऊपर जाते उत्सर्जन ग्राफ में इस तरह की छोटी-सी गिरावट भी किसी बड़े परिवर्तन का संकेत हो सकती है।

वर्षों से यह क्षण दूर की कौड़ी लगता था। वैश्विक उत्सर्जन हर साल औसतन 1 प्रतिशत बढ़ता रहा है, जबकि कई देशों ने बड़े कटौती के वादे (climate targets) किए थे। युरोप और अमेरिका में उत्सर्जन कई दशक पहले ही चरम पर पहुंचकर घटने लगा था, लेकिन दुनिया का कुल उत्सर्जन लगातार बढ़ता रहा, खासकर चीन के कारण।

गौरतलब है कि चीन की विशाल उद्योग व्यवस्था और ऊर्जा ज़रूरतें दुनिया में सबसे अधिक हैं (China emissions)। 2015 के पेरिस समझौते के बाद से वैश्विक उत्सर्जन वृद्धि का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा चीन अकेले जोड़ चुका है। जब तक चीन का उत्सर्जन बढ़ता रहता, तब तक दुनिया के कुल उत्सर्जन की चरम आना संभव ही नहीं था।

लेकिन हाल के वर्षों में चीन के इतिहास का सबसे तेज़ और व्यापक स्वच्छ ऊर्जा (renewable energy China) विस्तार हो रहा है। सिर्फ पिछले साल चीन ने नवीकरणीय ऊर्जा पर 625 अरब डॉलर खर्च किए जो अमेरिका और युरोपीय संघ दोनों के संयुक्त निवेश से भी अधिक है। विशाल सौर ऊर्जा परियोजनाएं रेगिस्तानों में दूर-दूर तक फैली हैं। पवन ऊर्जा संयंत्र, बैटरी कारखाने, इलेक्ट्रिक वाहन बनाने वाले कारखाने और हाई-वोल्टेज बिजली नेटवर्क तेज़ गति से फैल रहे हैं।

चीन में बदलाव इतनी तेज़ी से हो रहा है कि साल की पहली छमाही में सिर्फ सौर ऊर्जा की बढ़ोतरी (solar power growth) ही देश की सारी अतिरिक्त बिजली ज़रूरतें पूरी करने के लिए काफी थी। इसका मतलब है कि बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए चीन को अतिरिक्त कोयला संयंत्र नहीं बनाने पड़े। चीन के लोग भी इस बदलाव को तेज़ी से अपना रहे हैं। दुनिया में बनने वाली इलेक्ट्रिक कारों में से आधी से अधिक अब चीन में खरीदी जाती हैं। हर महीने 10 लाख से अधिक ईवी बिक रही हैं।

अगर शुरुआती आंकड़े सच में एक नए रुझान की शुरुआत दिखा रहे हैं, तो संभव है कि चीन में कार्बन उत्सर्जन का चरम पहले ही आ चुका हो या फिर सिर्फ एक–दो साल दूर (emission peak) हो।

लेकिन ‘चरम कार्बन’ पहचानना आसान नहीं है। ग्रीनहाउस गैसों (GHG measurement) का सही-सही हिसाब रखना एक कठिन काम है। वायुमंडल में मौजूद कार्बन डाईऑक्साइड को मापना तो सरल है — हवाई स्थित मौना लोआ ज्वालामुखी या दक्षिण ध्रुव जैसे दूर-दराज़ स्टेशनों पर लगे सेंसर यह जानकारी दे देते हैं। लेकिन यह पता लगाना मुश्किल है कि हर साल इंसान कुल कितना उत्सर्जन कर रहे हैं।

कार्बन उत्सर्जन कई बिखरे हुए स्रोतों से आता है — बिजलीघर, फैक्टरियां, कारें, ट्रक, हवाई जहाज़, जहाज़, खेती, पशुपालन, जंगल, कचरा-घाट, निर्माण कार्य, भारी उद्योग और प्राकृतिक प्रक्रियाएं जैसे जंगल की आग या बर्फीली जमीन (पर्माफ्रॉस्ट) का पिघलना (carbon sources)। इनमें से कई स्रोत बहुत छोटे होते हैं, कुछ इतने बिखरे होते हैं कि पकड़ में नहीं आते, और कुछ तो देशों द्वारा जानबूझकर कम दिखाए जाते हैं।

कई दशकों तक वैज्ञानिक उत्सर्जन का अनुमान लगाने के लिए मुख्य रूप से ऊर्जा खपत के राष्ट्रीय आंकड़ों, जीवाश्म ईंधन के उपयोग, औद्योगिक उत्पादन और आर्थिक मॉडलों पर निर्भर रहे हैं (fossil fuel data)। इस पद्धति की शुरुआत वैज्ञानिक चार्ल्स कीलिंग ने की थी, जिन्होंने प्रसिद्ध ‘कीलिंग कर्व’ बनाया जो वायुमंडलीय कार्बन डाईऑक्साइड की लगातार वृद्धि दर्शाता है। यह तरीका उपयोगी था, लेकिन पूर्ण नहीं।

1970 और 1980 के दशक में राल्फ रॉटी और ग्रेग मारलैंड जैसे शोधकर्ताओं ने वैश्विक उत्सर्जन के शुरुआती डैटाबेस (emission database) बनाए, जो लंबे समय तक मानक माने गए। लेकिन इन आंकड़ों में बड़े अंतर हो सकते थे और इन्हें अद्यतन करने में कई साल लग जाते थे, क्योंकि देशों को सही ऊर्जा आंकड़े भेजने में बहुत समय लगता था।

2017 में, अमेरिका के ऊर्जा विभाग ने अचानक कार्बन डाईऑक्साइड इन्फर्मेशन एनालिसिस सेंटर को बंद कर दिया, जो एक बड़ा और भरोसेमंद स्रोत था। इसके बंद होते ही एक बड़ा खालीपन (climate data loss) पैदा हो गया। तब से स्वतंत्र शोधकर्ता इस कमी को भरने की कोशिश कर रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में उत्सर्जन निगरानी में एक तरह की क्रांति आई है।

झू लियू द्वारा स्थापित कार्बन मॉनिटर में एक नया तरीका अपनाया गया, जिसमें रियल टाइम डैटा को लिया जाता है; जैसे हर घंटे की बिजली-ग्रिड जानकारी, GPS से ट्रैफिक का स्तर, हवाई यात्रा का डैटा, और औद्योगिक गतिविधि के संकेत। इन सभी के आधार पर लगभग हर महीने वैश्विक उत्सर्जन का अनुमान लगाया (real-time climate data) जाता है।

इसी दौरान Climate TRACE नाम का एक और प्रोजेक्ट सामने आया, जिसने उत्सर्जन मापने का बिल्कुल अलग लेकिन पूरक तरीका अपनाया। यह उपग्रह तस्वीरों, तापीय डैटा, एआई मॉडल और मशीन लर्निंग का उपयोग (AI emissions tracking) करता है। हज़ारों ज्ञात प्रदूषण स्रोतों के आधार पर प्रशिक्षित यह प्रणाली बिजली संयंत्रों, स्टील फैक्ट्रियों, कचरा भूमि, पशुपालन, जंगल कटाई, यहां तक कि धान के खेतों से होने वाले उत्सर्जन तक को पहचानने की कोशिश करती है। यह अब तक का सबसे महत्वाकांक्षी वैश्विक उत्सर्जन-निगरानी प्रोजेक्ट माना जाता है।

हालांकि Climate TRACE की तकनीक शक्तिशाली है, लेकिन यह सटीक नहीं है। कभी-कभी इसमें गलतियां (satellite errors) भी होती हैं। जैसे नॉर्वे के एक तेल प्लेटफॉर्म को गलती से प्रदूषण स्रोत मान लेना, जबकि वह उत्सर्जन करता ही नहीं; या ओस्लो के पास उस लैंडफिल में मीथेन दिखा देना जहां जैविक कचरा डालना पहले ही बंद है। इस तकनीक में लगातार सुधार हो रहा है।

बहरहाल, गिरावट के आंकड़ों को लेकर वैज्ञानिक सावधान (climate uncertainty) रहना चाहते हैं। पहले भी कई बार ऐसी अस्थायी गिरावटों ने भ्रम पैदा किया है। पिछले दशक की शुरुआत में, जब कोयले की खपत थोड़े समय के लिए घटी थी, कुछ लोगों को लगा था कि चरम उत्सर्जन आ गया है। लेकिन जल्द ही एशिया में आर्थिक वृद्धि के चलते कोयले की खपत फिर बढ़ गई।

लेकिन इस बार स्थिति अलग लग रही है। अब न सिर्फ कुछ बड़े क्षेत्रों में उत्सर्जन स्थिर होने लगा है, बल्कि दुनिया की ऊर्जा व्यवस्था में एक गहरा और टिकाऊ बदलाव (energy transition) दिख रहा है – खासकर चीन की तेज़ स्वच्छ ऊर्जा क्रांति के कारण। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि चीन का रियल-एस्टेट सेक्टर अब धीमा पड़ गया है जो पहले स्टील और सीमेंट का सबसे बड़ा उपभोक्ता था और कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन का बड़ा कारण भी था।

उधर भारत भी धीरे-धीरे ही सही लेकिन स्थिर बदलाव की ओर बढ़ रहा है। सौर तथा पवन ऊर्जा की बढ़ती क्षमता (renewable energy India) की वजह से इस साल की पहली छमाही में भारत के बिजली क्षेत्र में कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन नहीं बढ़ा है। आज देश की लगभग एक-तिहाई बिजली नवीकरणीय और परमाणु ऊर्जा से आती है।

वहीं, अमेरिका में राजनीतिक नीतियों में बदलाव के चलते उत्सर्जन में उतार–चढ़ाव देखने को मिला है। हाल ही में वहां जीवाश्म ईंधनों का उत्पादन बढ़ा है, मीथेन उत्सर्जन के नियम ढीले किए गए हैं और तेल–गैस निर्यात के ढांचे का विस्तार हुआ है। नतीजतन, अनुमान है कि इस वर्ष अमेरिकी उत्सर्जन लगभग 2.7 प्रतिशत बढ़ (US emissions rise) गया है।

इन सब जटिलताओं के बावजूद वैज्ञानिक मानते हैं कि दुनिया एक ऐतिहासिक मोड़ (global turning point) के बिल्कुल करीब है। अगर चीन का उत्सर्जन सचमुच 2024 या 2025 में अपने चरम पर पहुंचकर घटने लगे तो वैश्विक उत्सर्जन भी जल्द ही स्थिर हो सकता है। यही कारण है कि ब्राज़ील में हुए हालिया संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में चीन की ऊर्जा नीति पर विशेष ध्यान रहा।

फिर भी मानव-जनित उत्सर्जन अपने चरम पर पहुंचने के बाद भी यह ज़रूरी नहीं है कि वातावरण में मौजूद कार्बन डाईऑक्साइड (CO2 persistence) तुरंत स्थिर हो जाए। जलवायु परिवर्तन की वजह से ग्रीनहाउस गैसों के ‘प्राकृतिक’ स्रोतों से उत्सर्जन में और तेज़ी आ रही है। जंगल अब पहले से ज़्यादा बार और ज़्यादा तीव्रता से जल रहे हैं, जिससे भारी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है। साइबेरिया और आर्कटिक में जब परमाफ्रॉस्ट पिघलती है, तो उसमें फंसी हुई मीथेन हवा में पहुंच जाती है। उष्णकटिबंधीय आर्द्रभूमियां गर्म होती हैं तो वे भी अधिक मीथेन छोड़ने लगती हैं। समुद्र अब तक दुनिया की कार्बन डाईऑक्साइड का बड़ा हिस्सा सोखते थे, लेकिन गर्म होने और प्रवाह पैटर्न बदलने के कारण पहले जितना कार्बन नहीं सोख पा रहे हैं।

पिछला साल इसका साफ उदाहरण था जिसमें मानव-उत्सर्जन में हल्की-सी बढ़ोतरी हुई, लेकिन वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड रिकॉर्ड स्तर तक बढ़ गई। इसका मतलब है कि धरती की प्राकृतिक सुरक्षा व्यवस्था यानी जंगल, मिट्टी और समुद्र जो अब तक कार्बन को सोख कर हमें बचाते रहे हैं, अब जलवायु परिवर्तन के दबाव में कमज़ोर पड़ रहे हैं।

इसलिए दुनिया को उत्सर्जन को बहुत तेज़ी से और वर्तमान रफ्तार से कहीं अधिक गति से घटाना (net zero path) होगा ताकि कमज़ोर हो रहे प्राकृतिक कार्बन-सिंक की भरपाई की जा सके।

सही मायनों में असली चुनौती चरम के बाद शुरू होती है। उत्सर्जन को धीरे-धीरे शून्य की ओर ले जाना है। इसके लिए सिर्फ पवन और सौर ऊर्जा बढ़ाना ही काफी नहीं होगा, बल्कि हर क्षेत्र में भारी बदलाव (decarbonization) करने होंगे, जैसे:

  • परिवहन को पूरी तरह बिजली आधारित बनाना होगा,
  • सीमेंट और स्टील जैसे भारी उद्योगों को कम-कार्बन तकनीक अपनानी होगी,
  • इमारतों को अधिक ऊर्जा-कुशल बनाना होगा,
  • कृषि क्षेत्र का मीथेन उत्सर्जन घटाना होगा,
  • जंगलों को संरक्षित करना और उनका क्षेत्र बढ़ाना होगा।

इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, बड़े निवेश, राजनीतिक स्थिरता और नई तकनीकों (climate action) की ज़रूरत पड़ेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.theenergymix.com/wp-content/uploads/2023/11/China-solar-Dumhuang-%E6%9D%8E%E5%A4%A7%E6%AF%9B-%E6%B2%A1%E6%9C%89%E7%8C%AB-Unsplash-sized-down.jpeg

लीथियम, पर्यावरणऔर राष्ट्रों के बीच संघर्ष

र्ष 2015 में, सभी देशों ने पेरिस समझौते (Paris agreement ) को स्वीकारा था, जिसका लक्ष्य कार्बन उत्सर्जन (carbon emission) कम करना, नवीकरणीय ऊर्जा (renewable energy) बढ़ाना, इलेक्ट्रिक परिवहन को अपनाना और तकनीक के ज़रिए संसाधनों की खपत घटाना था। यह समाधान लगता आसान था, लेकिन इसे लागू करना उतना आसान साबित नहीं हुआ।

इस संदर्भ में राजनीति वैज्ञानिक थीआ रियोफ्रांकोस ने अपनी किताब एक्सट्रैक्शन (Extraction) में इस बदलाव के एक अहम पहलू लीथियम (lithium mining) पर ध्यान दिया है। बैटरियों और कई नवीकरणीय तकनीकों के लिए ज़रूरी लीथियम ग्रीन अर्थव्यवस्था (green economy) का केंद्र है। रियोफ्रांकोस के अनुसार इस धातु की वैश्विक होड़़ ने नैतिक और सामाजिक समस्याएं पैदा की हैं। केवल उत्सर्जन घटाने पर ध्यान देने से देशों और कंपनियों ने खनन से जुड़ी मानव और पर्यावरणीय लागत को नज़रअंदाज़ कर दिया है, जिससे ‘कार्बन रहित पूंजीवाद’ की भ्रामक धारणा बनी।

रियोफ्रांकोस ने व्यापक फील्डवर्क में स्थानीय समुदायों और पर्यावरण पर लीथियम खनन के प्रभावों को देखा है। उदाहरण के तौर पर चिली का अटाकामा रेगिस्तान (Atacama desert) लीथियम से भरपूर है और 12,000 साल से लोग यहां रहते आए हैं। सदियों तक यहां के लोग समृद्ध व्यापार नेटवर्क बनाए रखते थे, लेकिन उपनिवेशीकरण और बाद में औद्योगिक कंपनियों ने इसे बंजर ज़मीन दिखाकर खनन को सही ठहराया। आज भी बहुराष्ट्रीय कंपनियां स्थानीय अधिकारों और पर्यावरण संरक्षण (Environmental protection) के नियमों को चुनौती देती हैं।

रियोफ्रांकोस की खोजों से पता चलता है कि केवल कार्बन उत्सर्जन घटाने पर ध्यान देना खतरनाक हो सकता है। रियोफ्रांकोस का मानना है कि ‘नेट-ज़ीरो’ (net zero goals) पर सिर्फ एक तरह से काम करने के बजाय कई उपाय अपनाए जाएं – जैसे बेहतर सार्वजनिक परिवहन (public transport), पैदल और साइकिल से चलने वालों के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर, अधिक घनी आबादी वाले शहर, कम कारें और अधिक रिसायक्लिंग (recycling)। इन उपायों से जलवायु लक्ष्यों के साथ सामाजिक समता और पर्यावरण संरक्षण का संतुलन बनाए रखा जा सकता है।

वैश्विक स्तर पर, लीथियम की दौड़ भू-राजनीति को भी प्रभावित करती है। इलेक्ट्रिक वाहनों (EV market) और नवीकरणीय ऊर्जा में चीन (china supply chain) की तेज़ बढ़त ने अमेरिका और युरोप को अपनी सप्लाई चेन को बदलने पर मजबूर किया है, ताकि वे ज़रूरी खनिजों पर नियंत्रण पा सकें। इस प्रतिस्पर्धा से तनाव बढ़ता है, वैश्विक सहयोग प्रभावित होता है, और संसाधन-समृद्ध क्षेत्र नए शोषण (resource exploitation) के केंद्र बन सकते हैं।

रियोफ्रांकोस चेतावनी देती हैं कि हरित ऊर्जा की ओर बदलाव अपने आप में न्यायसंगत नहीं है। कार्बन उत्सर्जन घटाना (Carbon Reduction) केवल एक हिस्सा है; न्याय सुनिश्चित करना, आदिवासी अधिकारों (indigenous rights) की रक्षा करना और पारिस्थितिकी की सुरक्षा (ecology protection) करना भी उतना ही ज़रूरी है। इन बातों को नज़रअंदाज़ करते हुए, जीवाश्म ईंधन से नवीकरणीय ऊर्जा की ओर जाना असमानता और पर्यावरणीय नुकसान को दोहरा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/w1248/magazine-assets/d41586-025-03224-z/d41586-025-03224-z_51529568.jpg?as=webp

क्या सूरज की ऊर्जा से उड़ान संभव है?

ल्पना कीजिए एक धातु की चादर (metal sheet) की जो मात्र प्रकाश की शक्ति (light energy) से उड़ती जा रही है। कल्पना की उड़ान थोड़ी ज़्यादा ही लगती है लेकिन वैज्ञानिकों ने हथेली की साइज़ की एक छिद्रमय झिल्ली बनाई है जो ऊपरी वायुमंडल (upper atmosphere) में लगातार उड़ती रह सकती है। इसकी उड़ान का राज़ है इसकी दोनों सतहों पर तापमान का अंतर। इसका खुलासा नेचर के हालिया अंक में किया गया है।

दरअसल, हारवर्ड विश्वविद्यालय (Harvard University) के मटेरियल्स इंजीनियर बेन शेफर ऐसे उपकरण की तलाश में थे जो पृथ्वी के वायुमंडल के 50 से 80 किलोमीटर ऊंचाई वाले हिस्से की तहकीकात कर सके। इस परत को मीसोस्फीयर (मध्यमंडल – (mesosphere)) कहते हैं। मीसोस्फीयर में वायुमंडल इतना घना है कि वहां कृत्रिम उपग्रह (artificial satellites) नहीं रह सकते लेकिन इतना घना भी नहीं है कि हवाई जहाज़ उड़ सकें।

कुछ साल पहले पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय (Pennsylvania University) के इंजीनियर आइगॉर बार्गेटिन के दल ने इस समस्या के समाधान के लिए एक विचार प्रस्तुत किया था। इसमें फोटोफोरेसिस (photophoresis) नामक एक भौतिक प्रभाव के उपयोग की बात थी। पोटोफोरेसिस का मतलब होता है प्रकाश-प्रेरित गति (light induced motion)। इसका सबसे बढ़िया प्रदर्शन क्रुक्स रेडियोमीटर (Crookes radiometer) में दिखता है (देखने के लिए: https://en.wikipedia.org/wiki/Crookes_radiometer#/media/File:Radiometer_9965_Nevit.gif)। कांच के एक खोखले गोले में लगभग निर्वात की स्थिति पैदा की जाती है और अंदर एक चकरी लगी होती है, जिसकी चारों भुजाओं पर एक पतली चादर लगी होती है। इनके आसपास प्रकाश के ज़रिए तापमान में फर्क पैदा करने पर चकरी को घुमाने के लिए पर्याप्त बल मिल जाता है। बार्गेटिन ने बताया था कि उन्होंने ऐसे फोटोफोरेटिक उड़ान में समर्थ एक छोटा-सा यंत्र बना लिया है। लेकिन वह बहुत ही छोटा था।

शेफर की टीम ने जो यंत्र (device) बनाया है उसमें एल्युमिनियम ऑक्साइड (aluminium oxide) की दो छिद्रित चादरों को बीच में खूंटे लगाकर आपस में जोड़ दिया गया है। ये दोहरी चादरें एक ओर प्रकाश अवशोषित करती हैं जबकि दूसरी सतह से उसे उत्सर्जित कर देती हैं। इसके चलते तापमान में जो अंतर पैदा होता है वह ऊपरी वायुमंडल में विरल हवा में धाराएं उत्पन्न कर सकता है और यंत्र तैरता रहता है। लगता है कि मीसोस्फीयर इसकी उड़ान (flight experiment) के लिए अनुकूल है; वहां सूर्य की रोशनी पर्याप्त होती है तथा हवा भी एकदम सही मात्रा में है।

अभी तो टीम ने इसे प्रयोगशाला (laboratory test) में मीसोस्फीयर जैसा वातावरण तैयार करके आज़माया है। अभी उनके यंत्र का व्यास करीब 6 से.मी. है। टीम का कहना है कि उनका यंत्र ध्रुवीय अक्षांशों पर तो दिन-रात काम कर सकता है लेकिन भूमध्य रेखा के आसपास सिर्फ दिन में। फिलहाल यह यंत्र मात्र 10 मिलीग्राम का वज़न ढो सकता है। फिर भी बताते हैं कि यह लघु दूरसंचार व्यवस्था (telecommunication system), जलवायु संवेदी यंत्रों और छोटे सौर पैनल (solar panel) के लिए पर्याप्त होगा। हज़ारों ऐसे यंत्र उड़ाए जाएं तो मौसम भविष्यवाणी (weather prediction) में सहायक हो सकते हैं। विचार तो इन्हें मंगल (Mars mission) के अवलोकन के लिए भेजने का भी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://res.cloudinary.com/tbmg/c_scale,w_700,f_auto,q_auto/v1756224739/sites/tb/articles/2025/blog/082725-TB-blog_photophoresis.jpg

मानसून की हरित ऊर्जा क्षमता

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

जैसे-जैसे गर्मी बढ़ने लगती है और तपन अपने चरम पर पहुंचने लगती है, तो विचार आता है कि बारिश कब आएगी। 100 से अधिक सालों से मौसम केंद्रों और वर्षामापी यंत्रों द्वारा एकत्रित डैटा से पता चलता है कि भारत में बारिश का मौसम 1 जून को केरल में दक्षिण-पश्चिम मानसून (southwest monsoon in India) के आगमन के साथ शुरू होता है; अलबत्ता, मानसून आने का समय एक हफ्ते आगे-पीछे भी खिसक सकता है। पिछले कुछ वर्षों में मौसम विभाग की भविष्यवाणियां (Indian monsoon forecast accuracy) ज़्यादा सटीक हुई हैं।

हिंद महासागर के ऊपर से बहकर आने वाली दक्षिण-पश्चिमी हवाएं, साथ ही अरब सागर के ऊपर से बहकर पूर्वी अफ्रीका से आने वाली तेज़ हवाएं (सोमाली जेट स्ट्रीम) (Somali Jet Stream and monsoon) हमारे यहां बारिश लाती हैं, और हमें ठंडक का एहसास देकर तरोताज़ा करती हैं, हमारा मूड अच्छा करती हैं।

वर्तमान संदर्भ मे देखें तो ये हवाएं अपने साथ नवीकरणीय ऊर्जा दोहन (renewable energy potential in India) की संभावना भी लेकर आती हैं। जलवायु परिवर्तन पर जागरूकता ने जीवाश्म ईंधन से प्राप्त ऊर्जा पर हमारी निर्भरता को कम करने की तत्काल आवश्यकता को स्पष्ट कर दिया है (climate change and fossil fuel dependency in India)। यहां भारत की स्थिति बहुत विकट है। वर्तमान में हमारी लगभग 75 प्रतिशत बिजली कोयले से बनती है। और हमारी महत्वाकांक्षा है कि हम कम कार्बन उत्सर्जन करने वाली (हरित) ऊर्जा (green energy goals India) को अपनाएंगे। इस महत्वाकांक्षी सोच के एक हिस्से के तहत केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण का लक्ष्य 2032 तक 121 गीगावाट क्षमता के अतिरिक्त पवन ऊर्जा संयंत्र स्थापित करना (wind energy target 2032 India) है। वर्तमान में हम 45 गीगावाट पवन ऊर्जा बना पाते हैं।

जीवाश्म ईंधन चालित बिजली संयंत्रों से हम कभी भी बिजली बना सकते हैं; न दिन-रात के बारे में सोचना पड़ता है, न मौसम के बारे में। लेकिन नवीकरणीय स्रोतों (जैसे पवन ऊर्जा) (wind power vs fossil fuel India) के मामले में ऐसा नहीं है, और इसीलिए इनका क्षमता से कम उपयोग होता है। इसलिए इस मामले में यह पूर्वानुमान लगाना और भी महत्वपूर्ण होता है कि हवाएं कब चलेंगी ताकि तब पवन ऊर्जा संयंत्रों का सर्वोत्तम उपयोग किया जा सके।

नवीकरणीय ऊर्जा संयत्रों का लक्ष्य है कि कम से कम जीवाश्म ईंधन जलाकर स्थापित ग्रिड से अधिकतम बिजली पैदा (maximize renewable energy grid India) की जाए। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए मौसम सम्बंधी पूर्वानुमान, खासकर क्षेत्रवार पूर्वानुमान आवश्यक हैं। उदाहरण के लिए, राजस्थान राज्य में अक्टूबर से दिसंबर तक बहुत कम हवाएं चलती हैं।

मानसूनी हवाएं जलवायु की मज़बूत चालक (monsoon winds climate driver India) हैं। जिस तरह बारिश का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है, उसी तरह इसका भी पूर्वानुमान किया जा सकता है कि ठंडी तेज़ मानसूनी हवाएं कब चलेंगी, और इनका मॉडल तैयार किया जा सकता है।

शहरों में गर्मियों के दौरान अधिक बिजली की आवश्यकता होती है, जबकि इस समय कृषि के लिए बिजली की मांग कम होती है। मानसून के समय बनाई गई बिजली कृषि के लिए वरदान है, क्योंकि खरीफ की फसलों (जो जून में बोयी जाती हैं और अक्टूबर में काटी जाती हैं) में बिजली खपत ज़्यादा होती है, बनिस्बत जाड़ों में बोयी जाने वाली रबी की फसलों में। पश्चिमी घाट जैसे हवादार स्थानों पर एक पवन टर्बाइन जून से सितंबर के बीच अपनी वार्षिक बिजली उत्पादन क्षमता का 70 प्रतिशत उत्पादन (wind turbine electricity generation India) करता है।

हालांकि, इस मौसम में सतही हवाओं की गति काफी बदलती रहती है। और बिजली उत्पादन में कमी-बेशी करने में इस बदलाव का अनुमान लगाना बहुत उपयोगी है। इससे संख्यात्मक मौसम पूर्वानुमान मॉडल (सूक्ष्म स्तर पर) और सटीक हुए हैं; ये मॉडल चंद सैकड़ा मीटर, एक किलोमीटर से लेकर बड़े इलाके तक के लिए मौसम का पूर्वानुमान (numerical weather prediction India) देते हैं। ऐसे मॉडलों का उपयोग करके चेन्नई स्थित राष्ट्रीय पवन ऊर्जा संस्थान ने भारत का पवन एटलस (India Wind Atlas) विकसित किया है, जो भविष्य में पवन फार्म स्थापित करने की योजना बनाने के लिए एक बहुत ही उपयोगी साधन है।

इसमें एआई क्या मदद कर सकता है? रडार और उपग्रह तस्वीरों से प्राप्त हाई-डेंसिटी डैटा की मात्रा (और गुणवत्ता)तेज़ी से बढ़ी एवं सुधरी (AI in weather forecasting India) है। गूगल के MetNet3 (Google MetNet3 India use case) जैसी तकनीक का उपयोग अपेक्षाकृत कम संख्या में मौजूद मौसम स्टेशनों से प्राप्त पवन गति, तापमान आदि के डैटा के साथ रडार और उपग्रह से प्राप्त डैटा को एकीकृत करने के लिए किया जा रहा है। ऐसा करने से मॉडल दो मौसम स्टेशनों के बीच के क्षेत्रों में हवा की गति का पूर्वानुमान दे पाते हैं; प्रत्यक्ष मापित थोड़े से डैटा से सटीक सूचना देने वाला पवन गति नक्शा मिल जाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/incoming/tlo1c4/article69425768.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/IMG_FILES-INDIA-ENERGY-E_2_1_D2E033RE.jpg

टिकाऊ भविष्य के लिए ऊर्जा

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कोयला बिजली संयंत्रों (coal power plants) से बहुत अधिक वायु प्रदूषण (air pollution) होता है, जो मनुष्यों और जीव-जंतुओं के स्वास्थ्य (human health) को प्रभावित करता है। हाल ही में, स्टैनफोर्ड डोएर स्कूल ऑफ सस्टेनेबिलिटी के डॉ. कीरत सिंह और उनके साथियों ने बताया है कि भारत में कोयला बिजली संयंत्रों से होने वाले नाइट्रोजन डाईऑक्साइड (Nitrogen Dioxide (NO2)) और ओज़ोन उत्सर्जन (ozone emissions) के कारण गेहूं और धान जैसी प्रमुख फसलों की पैदावार (crop yield) में कमी आती है। नाप-जोख कर उन्होंने अनुमान लगाया है कि भारत के कुछ हिस्सों में पैदावार का वार्षिक नुकसान (crop loss) 10 प्रतिशत से अधिक है। यह नुकसान पिछले छह वर्षों में उपज में हुई औसत वृद्धि के लगभग बराबर है। उन्नत किस्मों, बेहतर सिंचाई (irrigation) और मशीनीकरण (mechanization) के कारण हमारी फसलों की उत्पादकता बढ़ी है, और प्रदूषण (pollution) के कारण उपज में आ रही यह कमी चिंता का विषय है। 

गेहूं मुख्यत: भारत के मध्यवर्ती और उत्तरी राज्यों में उगाया जाता है, जबकि धान मुख्यत: दक्षिणी और पूर्वी राज्यों में। 

कोयला मंत्रालय (Ministry of Coal) का अनुमान है कि इन क्षेत्रों की खदानों में बचा हुआ कोयला अगले 120 सालों तक चलेगा। भारत में कोयले से बिजली आपूर्ति (coal-based electricity) की शुरुआत 1920 में निज़ाम शासन के दौरान हैदराबाद के हुसैन सागर में हुई थी, जिसे बनाने के लिए ब्रिटिश उपकरणों का इस्तेमाल किया गया था। तब से लेकर अब तक भारत में कोयले से बिजली बनाई जा रही है, हालांकि पिछले कुछ सालों में इसके तरीकों में थोड़ा सुधार हुआ है। लेकिन ज़रूरत है कि हम बिजली बनाने के अन्य तरीकों के बारे में सोचें। 

स्वच्छ ऊर्जा विकल्प (Clean Energy Alternatives) 

1. पवन ऊर्जा (Wind Energy) 

बिजली बनाने का एक विकल्प है पवन ऊर्जा। इसमें पवन चक्कियां लगाकर पवन ऊर्जा से बिजली (wind power generation) पैदा की जाती है। भारत के नौ पवन समृद्ध राज्य 50 गीगावाट बिजली पैदा करते हैं। भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा पवन ऊर्जा उत्पादक (wind energy producer) है। कई निजी कंपनियों ने पवन चक्कियां लगाई हैं जो शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए बिजली बनाती हैं। 

2. सौर ऊर्जा (Solar Energy) 

दूसरी विधि है सौर ऊर्जा, जिसमें बिजली बनाने के लिए सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें घरों और इमारतों पर, या बड़े पैमाने पर सौर खेतों (solar farms) में सौर पैनल (solar panels) लगाए जाते हैं। ये पैनल सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करते हैं और इसे बिजली में बदल देते हैं। ये सौर छतें पहले से ही काफी प्रचलित हैं, और केंद्र और राज्य सरकारें सौर पैनल लगाने वालों को सब्सिडी देती हैं। 

3. जलविद्युत (Hydropower) 

तीसरी विधि है नदी बांधकर बिजली बनाना। इसमें नदी के एक हिस्से को रोककर बिजली बनाई जाती है। साथ ही नदी के बहाव वाले इलाकों में नहरों के ज़रिए खेती के लिए पानी दिया जाता है। जब नदी के पानी को बांध (dam) बनाकर रोका जाता है और फिर छोड़ा जाता है, तो इस ऊर्जा का इस्तेमाल बिजली पैदा करने (hydroelectricity generation) में किया जाता है। भारत में मौजूद शीर्ष पांच बांध मिलकर 50 गीगावाट तक पनबिजली (hydropower electricity) पैदा करते हैं। 

4. परासरण दाब से बिजली (Osmotic Power) 

बिजली बनाने का चौथा तरीका हो सकता है जब नदी समुद्र में मिलती है। नैनो रिसर्च एनर्जी में प्रकाशित एक पेपर बताता है कि जब नदी का पानी समुद्र के खारे पानी (saline water) में मिलता है, तब उससे बिजली (osmotic energy) कैसे पैदा की जा सकती है। ऑस्ट्रेलिया के सिडनी विश्वविद्यालय के स्वच्छ इंजीनियरिंग प्रौद्योगिकी केंद्र में डॉ. जावेद सेफई ने बिजली बनाने के लिए परासरण दाब (osmotic pressure) में इस अंतर का इस्तेमाल किया है। परासरण दाब पानी (या विलायक) में विभिन्न सांद्रता पर घुले अणुओं, खासकर लवण, के कारण लगने वाला दाब होता है।

इसी तरह, पेन स्टेट यूनिवर्सिटी, अमेरिका के इंजीनियरों ने परासरण दाब में अंतर से बिजली पैदा की है। भारत की तटरेखा 7500 किलोमीटर लंबी है, जहां पश्चिम, दक्षिण और पूर्व से नदियां आकर समुद्र में मिलती हैं। भारत में यह तकनीक प्रभावी रूप से बिजली पैदा कर सकती है। भारतीय वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों (scientists and technologists) के लिए यह चुनौती स्वीकार करने का अवसर है। 

5. परमाणु ऊर्जा (Nuclear Energy) 

और पांचवा तरीका है परमाणु ऊर्जा का शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए उपयोग करना। परमाणु ऊर्जा संयंत्र (nuclear power plants) में बिजली बनाने के लिए परमाणु विखंडन (nuclear fission) से उत्पन्न ऊष्मा का उपयोग पानी को गर्म करके भाप बनाने और उससे टर्बाइनों को घुमाने के लिए किया जाता है। भारत में आठ परमाणु ऊर्जा संयंत्र मिलकर 3.5 गीगावाट बिजली पैदा करते हैं। 

समय की ज़रूरत है कि हम प्रदूषणकारी कोयले (polluting coal) को त्याग बिजली उत्पादन (electricity generation) के स्वच्छ विकल्प अपनाएं।  (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/incoming/smv735/article69247478.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/IMG_17MP_Layers_of_sedim_2_1_0J89I8BS.jpg

भूतापीय ऊर्जा: स्वच्छ ऊर्जा का नया दावेदार

लंबे समय तक नज़रअंदाज़ की गई भूतापीय ऊर्जा (geothermal energy) इन दिनों स्वच्छ ऊर्जा (clean energy) का एक आशाजनक विकल्प बनकर उभर रही है। जहां अमेज़ॉन (Amazon), माइक्रोसॉफ्ट (Microsoft) और गूगल (Google) जैसी टेक्नो-कंपनियां हाल ही में परमाणु ऊर्जा समझौतों (nuclear energy deals) के लिए सुर्खियां बटोर रही हैं, वहीं मेटा (Meta) और गूगल जैसी कंपनियां नई पीढ़ी की भूतापीय तकनीक (enhanced geothermal systems, EGS) में भारी निवेश कर रही हैं।

दरअसल, पारंपरिक भूतापीय प्रणालियां (traditional geothermal systems) धरती के गर्भ में मौजूद प्राकृतिक गर्म पानी के चश्मों पर निर्भर हैं। दूसरी ओर, नई पीढ़ी की भूतापीय प्रणाली, जिन्हें एन्हांस्ड जियोथर्मल सिस्टम्स (enhanced geothermal systems) कहा जाता है, में ज़मीन में कई किलोमीटर गहरी बोरिंग (deep drilling) करके पानी और रेत को उच्च दबाव पर डालकर चट्टानों में दरारें बनाई जाती हैं। इन दरारों से पानी गुज़रते हुए चट्टानों की गर्मी से तपता है और भाप के रूप में सतह पर लौटता है। इस भाप का उपयोग बिजली बनाने (electricity generation) में किया जाता है।

वास्तव में, नई पीढ़ी की भूतापीय तकनीक को बढ़ावा देने में कंपनियां महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। ह्यूस्टन स्थित फेर्वो एनर्जी कंपनी ऊटा में 2000 मेगावॉट क्षमता का भूतापीय संयंत्र (geothermal plant) बना रही है। यह क्षमता दो बड़े परमाणु रिएक्टरों (nuclear reactors) के बराबर है। 2028 तक यह संयंत्र गूगल जैसे ग्राहकों को 400 मेगावॉट बिजली की आपूर्ति करेगा। मेटा के साथ साझेदारी में सेज जियोसिस्टम्स, 2027 तक मेटा के डैटा सेंटर्स (data centers) को 150 मेगावॉट तक भूतापीय ऊर्जा प्रदान करने वाली है। कनाडाई कंपनी एवर फ्रैंकिंग (चट्टान तोड़े) बगैर क्लोज़्ड-लूप प्रणाली बनाएगी, जिसमें पानी भूमिगत सील्ड पाइपों में घूमता है। एवर का पहला व्यावसायिक संयंत्र जर्मनी में अगले वर्ष से शुरू होगा, जो स्थानीय कस्बों को ऊष्मा और बिजली की आपूर्ति करेगा।  

चुनौतियां और समाधान

  • भूकंप का खतरा: EGS में मुख्य चिंता हाइड्रोलिक फ्रैक्चरिंग (hydraulic fracturing) से होने वाले भूकंपों (earthquakes) की है। स्विट्जरलैंड और दक्षिण कोरिया में ऐसे प्रोजेक्ट्स को भूकंपीय गतिविधियों (seismic activities) के कारण बंद करना पड़ा था। इस समस्या से निपटने के लिए फेर्वो जैसी कंपनियां अमेरिकी ऊर्जा विभाग (DoE) के सख्त दिशानिर्देशों का पालन कर रही हैं। वे लगातार भूकंपीय गतिविधियों की निगरानी करती हैं और अगर झटके सुरक्षित सीमा से अधिक होते हैं, तो संचालन बंद कर देती हैं।
  • लागत की चुनौती: बोरहोल ड्रिलिंग (borehole drilling) की लागत बहुत अधिक होती है। हालांकि, ड्रिलिंग तकनीकों (drilling technologies) में तेल और गैस उद्योग से प्रेरित हुए सुधार ने इसे अधिक दक्ष और किफायती बना दिया है। साथ ही, भूतापीय ऊर्जा की एक बड़ी खासियत है कि यह दिन-रात लगातार बिजली बनाती है। यह स्थिरता इसे सौर और पवन जैसे अनियमित नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का महत्वपूर्ण पूरक बनाती है।

बाज़ार और संभावनाएं
भूतापीय ऊर्जा की सफलता काफी हद तक भौगोलिक स्थिति (geographical location) पर निर्भर करती है। जिन क्षेत्रों में ज्वालामुखीय गतिविधि (volcanic activity) अधिक हैं या जहां पृथ्वी की पर्पटी पतली है (जैसे पश्चिमी अमेरिका), वहां ऊर्जा उत्पादन आसान और किफायती हो जाता है। अध्ययन बताते हैं कि अगर ऊर्जा संयंत्रों (power plants) को बदलती ऊर्जा मांगों (energy demands) के अनुसार अनुकूल बनाया जाए, तो पश्चिमी अमेरिका (Western USA) में भूतापीय ऊर्जा (geothermal energy) परमाणु ऊर्जा (nuclear energy) की तुलना में अधिक किफायती हो सकती है।

बहरहाल, भूतापीय ऊर्जा के सामने अभी कई चुनौतियां हैं, लेकिन यह सतत (sustainable) और स्वच्छ ऊर्जा (clean energy) प्रदान करने की क्षमता रखती है, जो इसे भविष्य के लिए एक आकर्षक विकल्प (viable energy option) बनाती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/w1248/magazine-assets/d41586-024-03621-w/d41586-024-03621-w_27715894.jpg?as=webp

भारत में कार्बन बाज़ार: संतुलित दृष्टिकोण की ज़रूरत

अशोक श्रीनिवास, आदित्य चुनेकर

ह सही है कि भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन और अतीत में किया गया उत्सर्जन दोनों वैश्विक औसत से काफी कम हैं, लेकिन फिर भी भारत जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देने वाली ग्रीनहाउस गैसों (जीएचजी) का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है। इसके जवाब में, भारत ने अपने जीएचजी उत्सर्जन को सीमित करने के लिए कई सक्रिय कदम उठाए हैं। जैसे, औद्योगिक ऊर्जा दक्षता में सुधार के लिए परफॉर्म, अचीव एंड ट्रेड (पीएटी) योजना शुरू की गई है और साथ ही नवीकरणीय खरीद अनिवार्यता (आरपीओ) भी लागू की गई है। प्रस्तावित कार्बन बाज़ार भी इसी तरह का एक उपाय है। पिछले कुछ वर्षों में, भारत ने घरेलू कोटा-अनुपालन कार्बन बाज़ार की स्थापना के लिए रूपरेखा तैयार की है। इसके अंतर्गत ऊर्जा संरक्षण अधिनियम में संशोधन और कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग योजना (CCTS) की अधिसूचना शामिल हैं। उम्मीद है कि प्रस्तावित योजना के बारे में और अधिक विवरण जल्द ही पेश किए जाएंगे और संभवत: प्रारंभ में चार क्षेत्रों – लोहा और इस्पात, सीमेंट, पेट्रोकेमिकल्स और पल्प एंड पेपर – पर केंद्रित होंगे। इस लेख में, हम भारत के लिए प्रस्तावित कार्बन बाज़ार योजना का विश्लेषण करेंगे। साथ ही, हम उन चुनौतियों पर भी चर्चा करेंगे जिन्हें संबोधित करना ज़रूरी है ताकि कार्बन बाज़ार भारत के कार्बन-मुक्तिकरण में लागतक्षम ढंग से असरदार हो सकें।

वैश्विक कार्बन बाज़ार

कार्बन बाज़ार काफी समय से अस्तित्व में हैं। कार्बन बाज़ार दो प्रकार के होते हैं: स्वैच्छिक और अनिवार्य। स्वैच्छिक कार्बन बाज़ार या ऑफसेट बाज़ार में परियोजना चलाने वाले ऐसे तरीके अपनाते हैं जिससे उत्सर्जन कम हो सके। ऊर्जा दक्षता बढ़ाकर, नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग करके या ईंधन परिवर्तन के माध्यम से कम किए गए कार्बन उत्सर्जन को ऑफसेट कहते हैं। इसके अलावा कार्बन कैप्चर, युटिलाइज़ेशन एंड स्टोरेज (सीसीयूएस) परियोजनाओं या वनीकरण परियोजनाओं के ज़रिए वायुमंडल से कार्बन हटाकर भी ऑफसेट उत्पन्न किए जा सकते हैं। इन ऑफसेट को स्वतंत्र एजेंसियां विभिन्न वैश्विक मानकों के आधार पर सत्यापित करती हैं। कई कंपनियां ये ऑफसेट खरीदकर अपने स्वयं के कार्बन उत्सर्जन को कम करने का लक्ष्य पूरा करती हैं। इस खरीद के लिए कई रजिस्ट्रियां व व्यापार मंच हैं।

अनिवार्य कार्बन बाज़ार एक निर्धारित नियम कैप-एंड-ट्रेड प्रणाली के तहत काम करता है। इन्हें एमिशन ट्रेडिंग स्कीम (ईटीएस) भी कहा जाता है। इन बाज़ारों में सरकारों या अन्य प्राधिकरणों द्वारा कंपनियों को एक निश्चित सीमा तक ही कार्बन उत्सर्जित करने की अनुमति मिलती है। जो कंपनियां अपनी निर्धारित सीमा से कम कार्बन उत्सर्जित करती हैं, वे अपने बचे हुए कार्बन क्रेडिट उन कंपनियों को बेच सकती हैं जो अपने लक्ष्य से अधिक उत्सर्जन करती हैं। इसका उद्देश्य कंपनियों को यह अनुमति देना है कि या तो वे कार्बन क्रेडिट खरीदें या अपनी तकनीक में सुधार करके कार्बन उत्सर्जन को कम करें। कुछ अनिवार्य बाज़ार, एक निश्चित प्रतिशत को स्वैच्छिक बाज़ार से पूरा करने की भी अनुमति देते हैं।

इस समय दुनिया भर में लगभग 37 उत्सर्जन ट्रेडिंग योजनाएं (ईटीएस) लागू हैं – 1 क्षेत्रीय स्तर पर, 13 राष्ट्रीय स्तर पर और बाकी उप-राष्ट्रीय स्तर पर हैं। लगभग 24 अन्य योजनाएं विभिन्न स्तरों पर विचाराधीन या विकासाधीन हैं। तीन सबसे बड़े ईटीएस युरोपीय संघ (ईयू), कैलिफोर्निया और चीन में हैं। इन योजनाओं के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें जानने योग्य हैं।

पहली, इन तीनों योजनाओं को स्थिर होने में काफी समय लगा है। युरोपीय संघ ईटीएस को 2005 में शुरू किया गया था और तब से लेकर अब तक इसमें चार चरणों में कई सुधार हुए हैं। कैलिफोर्निया की कैप एंड ट्रेड (CaT) योजना 2013 में शुरू हुई थी और इसके बाद से इसमें भी कई सुधार हुए हैं। चीन का ईटीएस लगभग 9 साल के उप-राष्ट्रीय पायलट कार्यक्रमों के बाद शुरू हुआ था।

दूसरी, युरोपीय संघ ईटीएस और कैलिफोर्निया CaT के लक्ष्य पूर्ण उत्सर्जन (absolute emissions) पर आधारित हैं जबकि चीन का ईटीएस उत्सर्जन तीव्रता (emission intensity) पर आधारित है। युरोपीय संघ ईटीएस का लक्ष्य निर्धारित सेक्टर्स में उत्सर्जन को 2005 की तुलना में 2030 तक 62 प्रतिशत कम करना है। यह लक्ष्य 2030 तक उत्सर्जन में 55 प्रतिशत की कमी के युरोपीय संघ के समग्र लक्ष्य के साथ मेल खाता है। इस योजना में, हर साल निर्धारित क्षेत्रों के लिए उत्सर्जन की कुल मात्रा एक निश्चित दर से लगभग 5.1 प्रतिशत, से घटाई जाती है। इसी प्रकार, कैलिफोर्निया की योजना में भी 2030 तक हर साल उत्सर्जन की कुल मात्रा लगभग 4 प्रतिशत घटाई जाएगी ताकि 1990 की तुलना में 2030 तक 40 प्रतिशत कमी का लक्ष्य पूरा हो सके। दूसरी ओर, चीन की योजना उत्सर्जन तीव्रता (यानी प्रति इकाई उत्पादन पर प्रति टन उत्सर्जित कार्बन) के लक्ष्यों पर आधारित है, जिसमें कुल उत्सर्जन पर कोई सीमा नहीं है। इसकी हर दो साल में समीक्षा की जाती है।

तीसरी, समय के साथ और तीनों ईटीएस के कार्बन की कीमत में काफी भिन्नता रही है। कार्बन क्रेडिट की कीमत निर्धारित करने में लक्ष्य की महत्वाकांक्षा के स्तर, दीर्घकालिक निश्चितता और प्रवर्तन तंत्र की प्रभावशीलता के साथ-साथ देश-विशिष्ट के तकनीकी और आर्थिक कारकों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।

भारत की स्थिति

ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बीईई) ने अक्टूबर 2022 में भारतीय कार्बन बाज़ार (आईसीएम) पर एक मसौदा नीति पत्र जारी किया था। इसके बाद, दिसंबर 2022 में ऊर्जा संरक्षण अधिनियम, 2001 में संशोधन करके बीईई को कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग स्कीम (CCTS) लागू करने का अधिकार दिया गया। इस योजना को जून 2023 में अधिसूचित किया गया और अक्टूबर 2023 में बीईई ने अनिवार्य प्रणाली और कार्बन सत्यापन एजेंसियों की मान्यता की पात्रता और प्रक्रिया के ड्राफ्ट विवरण जारी किए। इसके बाद दिसंबर 2023 में, CCTS में एक संशोधन किया गया ताकि स्वैच्छिक ऑफसेट बाज़ार की अनुमति दी जा सके।

ड्राफ्ट नीति पत्र ने भारतीय कार्बन बाज़ार के लिए चरणबद्ध दृष्टिकोण का प्रस्ताव दिया, जिसमें पायलट चरण को 1 जनवरी, 2023 तक लागू करने की योजना थी। हाल ही में बीईई ने सूचित किया है कि इस योजना का पहला चरण 2024 में चार प्रमुख क्षेत्रों के लिए शुरू किया जाएगा। यहां भारत में प्रस्तावित CCTS की मुख्य बातें साझा कर रहे हैं।

CCTS का कानूनी आधार पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (ईपीए), 1986 और ऊर्जा संरक्षण अधिनियम (ईसीए), 2001 (2022 में संशोधित) से आता है। इस योजना के नोडल मंत्रालय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) तथा विद्युत मंत्रालय (MoP) होंगे, और इसका प्रबंधन बीईई द्वारा किया जाएगा। आईसीएम का संचालन एक राष्ट्रीय संचालन समिति द्वारा किया जाएगा। भारत का ग्रिड नियंत्रक कार्बन क्रेडिट का पंजीयक होगा और केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग (CERC) ट्रेडिंग गतिविधियों का नियमन करेगा। वर्तमान में मौजूद तीन पॉवर एक्सचेंज कार्बन क्रेडिट के लिए खरीद-फरोख्त प्लेटफॉर्म होंगे। आईसीएम की संस्थागत संरचना मौजूदा परफॉर्म, अचीव एंड ट्रेड (पीएटी) योजना के समान रहेगी जिसका विलय अंतत: CCTS में कर दिया जाएगा।

जून 2023 में अधिसूचित CCTS में केवल उन्हीं संस्थाओं पर ध्यान केंद्रित किया गया था, जिन्हें उत्सर्जन के लक्ष्य दे दिए जाएंगे। इस तरह से यह एक अनिवार्यता बाज़ार था। लेकिन, दिसंबर 2023 की अधिसूचना ने आईसीएम के दायरे को स्वैच्छिक ऑफसेट कार्बन बाज़ार तक बढ़ा दिया, जिसकी रूपरेखा और कार्यप्रणाली जल्द ही जारी होगी।

यहां हम प्रस्तावित योजना के तीन प्रमुख पहलुओं पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं जो इसकी प्रभाविता के लिए महत्वपूर्ण होंगे: CCTS की निगरानी के लिए संस्थागत तंत्र, लक्ष्य निर्धारण की प्रक्रिया और योजना की प्रवर्तन सम्बंधी प्रक्रिया।

संस्थान और संचालन

बीईई भारतीय कार्बन बाज़ार के लिए CCTS का प्रबंधन करेगा जबकि देख-रेख एवं निगरानी का काम राष्ट्रीय संचालन समिति (एनएससी) द्वारा किया जाएगा। एनएससी में विभिन्न मंत्रालयों (बिजली मंत्रालय, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, नवीन व नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय, इस्पात मंत्रालय, कोयला मंत्रालय, रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय आदि) के संयुक्त सचिव और पांच बाहरी विशेषज्ञ शामिल होंगे। एनएससी का काम CCTS के लक्ष्य निर्धारित करना (बीईई की सिफारिशों के आधार पर) और प्रक्रियाएं बनाना होगा। वह विशिष्ट विशेषज्ञता वाले तकनीकी विशेषज्ञों के समूह भी बना सकता है। हर तीन माह में एक बैठक का आयोजन किया जाएगा। लेकिन एनएससी में नियुक्त उच्च अधिकारियों की व्यस्तता को देखते हुए, यह संभव है कि एनएससी मात्र एक औपचारिक निकाय रहे और सिर्फ बीईई या कामकाजी समूहों की सिफारिशों को मान ले। इससे एनएससी द्वारा बीईई की निगरानी करने का उद्देश्य कमज़ोर हो सकता है। इसके अलावा, बीईई विद्युत मंत्रालय के अधीन है, जो बिजली उत्पादन के लिए ज़िम्मेदार है और बिजली उत्पादन उत्सर्जन के बड़े स्रोतों में से एक है। बेहतर होता कि यह किसी ‘तटस्थ’ एजेंसी के अधीन होता।

हालांकि, बीईई के पास ऊर्जा दक्षता और संरक्षण तथा पीएटी स्कीम के प्रबंधन का लंबा अनुभव है, लेकिन कार्बन बाज़ार की देख-रेख अलग तरह की चुनौती है। चूंकि उत्सर्जन कई स्रोतों से हो सकता है और इसकी निगरानी ऊर्जा दक्षता की निगरानी से अलग है, इसलिए बीईई को इस नई ज़िम्मेदारी के लिए अधिक तैयारी करना होगी। अर्थ व्यवस्था पर इसके व्यापक प्रभाव को ध्यान में रखते हुए CCTS के प्रबंधन के लिए पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय या प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन कोई एजेंसी अधिक उपयुक्त होगी। अन्य देशों में, इस तरह के कार्य पर्यावरण एजेंसियों द्वारा किए जाते हैं।

इस योजना की देख-रेख दो बड़े मंत्रालयों – पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन (MoEFCC) और बिजली मंत्रालय MoP – द्वारा की जाने से प्रक्रिया अधिक जटिल हो जाती है। इसके अलावा उत्सर्जन लक्ष्य निर्धारण की प्रक्रिया बहुत लंबी है और कई चरणों में बंटी हुई है। इसमें तकनीकी समिति से शुरू होकर, बीईई, एनएससी, MoP और अंत में MoEFCC की सिफारिशें शामिल होंगी। इसके चलते यह प्रक्रिया बहुत जटिल और धीमी होने की आशंका है। अभी तो यह भी स्पष्ट नहीं है कि यदि एक एजेंसी की सिफारिशें अगली एजेंसी को पूरी तरह स्वीकार्य नहीं हुईं तो क्या होगा। इसे सरल और पारदर्शी बनाना चाहिए, ताकि इसमें शामिल सभी एजेंसियों की भूमिकाएं और ज़िम्मेदारियां स्पष्ट रहें।

उत्सर्जन लक्ष्यों का निर्धारण

CCTS को प्रभावी बनाने के लिए बाज़ार के प्रतिभागियों के लिए उत्सर्जन कोटा तय करना सबसे महत्वपूर्ण है। इसी कोटे पर निर्भर करेगा कि कोई प्रतिभागी नई तकनीक में निवेश करे या क्रेडिट खरीदने का निर्णय करे।

यदि इन लक्ष्यों को बहुत ढीला रखा जाता है यानी उत्सर्जन कोटा बहुत अधिक है तो इसके दो परिणाम होंगे। पहला, यह डीकार्बोनाइज़ेशन के उद्देश्य को आगे नहीं बढ़ाएगा तथा प्रतिभागियों के पास उत्सर्जन को कम करने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं होगा। दूसरा, चूंकि प्रतिभागियों के लिए निर्धारित कोटा हासिल करना आसान होगा, बाज़ार में कार्बन क्रेडिट की अधिकता हो जाएगी। इस स्थिति में कार्बन क्रेडिट की कीमतें भी नीचे आ जाएंगी।

दूसरी ओर, अगर लक्ष्यों को बहुत सख्त रखा जाता है यानी उत्सर्जन कोटा बहुत कम है तो लक्ष्य को पूरा करने के लिए निवेश की आवश्यकता अधिक होगी। इससे बाज़ार में क्रेडिट की कमी हो जाएगी और कीमतें बहुत अधिक बढ़ जाएंगी, उन्हें खरीदना मुश्किल हो जाएगा। इससे भारतीय उद्योग वैश्विक प्रतिस्पर्धियों के मुकाबले कमज़ोर हो सकते हैं। इसका सबसे अधिक प्रभाव उन उद्योगों पर होगा जो अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का सामना करते हैं। नतीजतन वस्तुओं की कीमतें बढ़ भी सकती हैं। इसलिए, उत्सर्जन कोटा या लक्ष्य सही स्तर पर निर्धारित करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

बीईई द्वारा संचालित पीएटी योजना ने उद्योगों की ऊर्जा दक्षता सुधारने के लिए ऊर्जा तीव्रता लक्ष्य दिए थे। प्रस्तावित CCTS भी मुख्य रूप से पीएटी योजना पर आधारित है, जिसमें उद्योगों को उत्सर्जन तीव्रता लक्ष्य देने का प्रस्ताव है। पीएटी योजना के अनुभव से पता चलता है कि इसके लक्ष्य शिथिल थे, जिससे बाज़ार में एनर्जी सेविंग सर्टिफिकेट (ESCerts) की अधिकता हुई और उनकी कीमतें काफी कम हो गईं। इसके अलावा, उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि इन शिथिल लक्ष्यों को भी ठीक से लागू नहीं किया गया यानी उन सभी भागीदारों ने ESCerts नहीं खरीदे, जो ऐसा करने के लिए बाध्य थे। इस अनुभव और अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं के आधार पर हम भारत में उत्सर्जन तीव्रता लक्ष्य विकसित करते समय ध्यान देने योग्य कुछ मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं।

लक्ष्य तय करने की पद्धति: उत्सर्जन लक्ष्य तय करने के लिए एक पारदर्शी और स्पष्ट पद्धति होना चाहिए, जो विभिन्न सेक्टर्स के अनुसार निर्धारित की जा सके। इससे बाज़ार के प्रतिभागी अधिक स्पष्टता और विश्वास के साथ योजनाएं बना सकेंगे।

लक्ष्यों की स्पष्टता: कंपनियों को योजना में सही तरीके से भाग लेने के लिए दीर्घकालिक और स्पष्ट लक्ष्य चाहिए। इससे उन्हें अपनी निवेश योजनाएं बनाने में मदद मिलेगी। पीएटी योजना में केवल 3 साल के लक्ष्य होते हैं, जो निवेश की योजना के लिए बहुत कम समय है। इसकी बजाय, ईयू में 2030 तक के वार्षिक लक्ष्य तय किए गए हैं। भारतीय CCTS में भी 2030 तक के लक्ष्य रखे जा सकते हैं और 2026 या 2027 में 2035 तक के लक्ष्य घोषित किए जा सकते हैं।

सेक्टरआधारित लक्ष्य: पीएटी योजना में हर कंपनी को अलग-अलग ऊर्जा लक्ष्य दिए जाते थे, जिससे योजना काफी जटिल हो जाती है क्योंकि लक्ष्य निर्धारित करने का प्रमुख आधार बेसलाइन होता है। इससे मौजूदा अक्षमताओं को नज़रअंदाज़ किया जाता है और उन लोगों को प्रोत्साहन नहीं मिलता जिन्होंने पहले ही सुधार कर लिए हैं। इसलिए, पूरे सेक्टर के लिए एक ही उत्सर्जन लक्ष्य रखना बेहतर होगा, जैसे पूरे लोहा और इस्पात क्षेत्र के लिए एक ही लक्ष्य निर्धारित करना अधिक बेहतर विकल्प है। ईयू ईटीएस और CaT में यही होता है। यह लक्ष्य क्षेत्र के सर्वोत्तम प्रदर्शनकर्ताओं के आधार पर हो सकता है। यदि छोटे और मध्यम उद्योगों (SMEs) को विशेष मदद की ज़रूरत है, तो बड़े उद्योगों और SMEs के लिए अलग-अलग लक्ष्य रखे जा सकते हैं।

लक्ष्य का स्तर: उत्सर्जन लक्ष्यों को सही स्तर पर रखना बहुत महत्वपूर्ण है ताकि डीकार्बोनाइज़ेशन में मदद मिले और उद्योग प्रतिस्पर्धी बने रहें। भारत के पास पहले से ही कई घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय लक्ष्य हैं। जैसे, राष्ट्रीय रूप से निर्धारित योगदान कि उत्सर्जन को 2005 के स्तर से 45 प्रतिशत कम किया जाएगा और सभी बिजली उपभोक्ताओं के लिए नवीकरणीय ऊर्जा खरीदना अनिवार्य किया जाएगा। नए लक्ष्य इन्हीं को ध्यान में रखते हुए निर्धारित करने चाहिए। हालिया रुझानों से पता चलता है कि 2005 और 2019 के बीच भारत अपनी उत्सर्जन तीव्रता में 33 प्रतिशत की कमी कर चुका है।

अन्य बाजारों के साथ सम्बंध: CCTS कार्बन क्रेडिट्स का एकमात्र बाज़ार नहीं है। अन्य प्रस्तावों में स्वैच्छिक ऑफसेट बाज़ार और ‘ग्रीन क्रेडिट्स’ योजना को शामिल किया गया है। फिलहाल, यह स्पष्ट नहीं है कि ये बाज़ार कैसे एक साथ काम करेंगे। अलग-अलग बाज़ारों में कार्बन क्रेडिट्स की कीमत अलग-अलग हो सकती है। बीईई के पास वनीकरण जैसी गतिविधियों से कार्बन क्रेडिट्स का मूल्यांकन करने की विशेषज्ञता नहीं है। इसलिए शुरुआत में, अनिवार्य कार्बन बाज़ार को अलग रखना बेहतर होगा। बाद में, जैसे-जैसे बाज़ार मज़बूत होंगे, कुछ अनिवार्य बाज़ार को ऑफसेट बाज़ार के माध्यम से पूरा करने की अनुमति दी जा सकती है।

लक्ष्यों को लागू करवाना

कंपनियों के लिए उचित लक्ष्य निर्धारित करना महत्वपूर्ण है, लेकिन पूरी प्रक्रिया इस बात पर निर्भर करती है कि लक्ष्यों को पूरा नहीं कर पाने वाली कंपनियों को कार्बन क्रेडिट खरीदवाने की सामर्थ्य कितनी है। यदि वे ऐसा नहीं करतीं, तो उन पर सख्त दंडात्मक कार्रवाई होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो उद्योगों के लिए निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करने का कोई प्रोत्साहन/कारण नहीं रह जाएगा।

प्रस्तावित CCTS की मॉडल योजना – पीएटी – ने इसके पर्याप्त साक्ष्य प्रदान किए हैं। पीएट के पहले चरण में केवल 8 प्रतिशत गैर-अनुपालन देखा गया यानी आवश्यक ESCerts में से 92 प्रतिशत ही खरीदे गए। शायद इसलिए कि इस गैर-अनुपालन पर कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं की गई। और तो और, पीएटी के दूसरे चरण में कई बार समय सीमा बढ़ाने के बाद भी अनुपालन दर 50 प्रतिशत तक गिर गई।

पीएटी के तहत दोषी कंपनियों के विरुद्ध दंडात्मक प्रावधान लागू किए जाने का कोई सार्वजनिक डैटा उपलब्ध नहीं हैं। वास्तव में, पीएटी में दोषी कंपनियों पर दंड लगाने की प्रक्रिया बहुत जटिल है। इसमें बीईई को सम्बंधित राज्य की प्राधिकृत एजेंसी को सूचित करना पड़ता है। प्राधिकृत एजेंसी इस बात का सत्यापन करती है कि सम्बंधित कंपनी ने लक्ष्य पूरा नहीं किया है और उसके बाद राज्य विद्युत नियामक आयोग (SERC) के समक्ष याचिका दायर करना पड़ती है जो ज़ुर्माना लगाने का काम करता है। यह प्रक्रिया इतनी जटिल है कि इसे सफलतापूर्वक लागू करना मुश्किल हो जाता है, खास तौर से तब जब अधिकांश प्राधिकृत एजेंसियों की क्षमताएं सीमित हैं।

प्रस्तावित कार्बन बाज़ार के तहत दंड के प्रावधान में एक कानूनी अनिश्चितता भी है। इस योजना की उत्पत्ति ईपीए और ईसीए दोनों में हो सकती है, इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि किस कानून के तहत दंड लगाया जाएगा और उसकी प्रक्रिया क्या होगी। इस संदर्भ में स्पष्टता आवश्यक है ताकि एक सरल, सीधी प्रक्रिया बनाई जा सके और दंडात्मक कार्रवाई का एक विश्वसनीय संकेत दिया जा सके। संभव है कि CCTS की परिभाषा स्पष्ट कर सकती है कि क्या बीईई सीधे दोषी इकाई पर दंड लगा सकती है।

स्वाभाविक रूप से, किसी भी प्रमाणपत्र का उपयोग उत्सर्जन तीव्रता लक्ष्य को पूरा करने के बाद तुरंत समाप्त कर दिया जाना चाहिए और वह आगे खरीद-फरोख्त के लिए उपलब्ध नहीं होना चाहिए। इसके अलावा, दोषी फर्मों के लेखा परीक्षकों द्वारा इसे एक कानूनी उल्लंघन के रूप में चिन्हित किया जाना चाहिए, ताकि इसे शेयरधारकों के ध्यान में लाया जा सके।

इसके अतिरिक्त, बीईई को बाज़ार निगरानी और दंड रिपोर्ट नियमित रूप से प्रकाशित करनी चाहिए ताकि इस बात पर विश्वास बने कि बाज़ार ठीक ढंग से काम कर रहा है। इसमें तमाम जानकारी शामिल हो; जैसे कितनी इकाइयों ने उत्सर्जन तीव्रता लक्ष्य हासिल किए, कितने कार्बन क्रेडिट प्रमाणपत्र जारी किए गए, कितनी इकाइयों ने लक्ष्य हासिल नहीं किए, कितने कार्बन क्रेडिट प्रमाणपत्र खरीदने थे, और वास्तव में कितने खरीदे गए, लगाए गए दंड, वसूले गए दंड और दोषी इकाइयों के नाम वगैरह। अन्य जानकारी जैसे खरीद-फरोख्त किए गए प्रमाणपत्रों की मात्रा, कीमतें, और निरस्त किए गए प्रमाणपत्रों की संख्या इत्यादि भी प्रकाशित की जानी चाहिए ताकि भारतीय कार्बन बाज़ारों की स्थिति के बारे में विस्तृत जानकारी सार्वजनिक तौर पर मिल सके।

निष्कर्ष

भारत अपने निरंकुश उद्योगों के डीकार्बोनाइज़ेशन के लिए एक कार्बन बाज़ार की महत्वपूर्ण योजना बना रहा है। इसे हासिल करने के लिए CCTS को सावधानी से डिज़ाइन करने और उसके कार्यान्वयन में महत्वपूर्ण व्यवस्थाओं की आवश्यकता है। संस्थागत संरचना को सुगम और मज़बूत बनाने के लिए उसे पर्याप्त संसाधनों के माध्यम से संभालने की आवश्यकता है। इसे एक सरल, प्रभावी और पारदर्शी प्रवर्तन प्रणाली का समर्थन मिलना चाहिए जो कंपनियों को योजना में भाग लेने और अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए प्रोत्साहित करे। उत्सर्जन लक्ष्य निर्धारित करने में भी सतर्कता की ज़रूरत है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि ये न तो बहुत ही ढीले हों और न ही बहुत ही कठोर, तथा कंपनियों को डीकार्बोनाइज़ेशन प्रौद्योगिकियों में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करने में भूमिका निभाएं। इसके बिना, संभावना है कि भारत के पास एक कार्बन मार्केट तो होगा, लेकिन यह न तो भारतीय उद्योगों के प्रभावी डीकार्बोनाइज़ेशन में मदद करेगा, और न ही भारतीय उद्योग उत्सर्जन कम करने के वैश्विक दबावों के चलते वैश्विक उद्योगों से मुकाबला कर पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://businessindia.co/media/general/carboncreditmarket_3.large.jpg

शॉपिंग वेबसाइट्स पर पंखों और एसी का बाज़ार सर्वेक्षण

आदित्य चुनेकर, अभिराम सहस्रबुद्धे

भारत में भीषण गर्मी पड़ी है। लोग गर्मी से राहत पाने के लिए अपने घरों, दुकानों और दफ्तरों के लिए पंखे, एयर कंडीशनर (एसी) और कूलर खरीदते हैं। ये उपकरण बिजली की मांग को बढ़ा देते हैं। भारतीय घरों की कुल वार्षिक बिजली खपत में कूलिंग (शीतलन) उपकरणों का योगदान लगभग 50 प्रतिशत है। आजकल काफी खरीदी ई-शॉपिंग के ज़रिए हो रही है।

कम ऊर्जा कुशल कूलिंग उपकरणों की तुलना में ऊर्जा कुशल कूलिंग उपकरणों की बिजली खपत आधी से भी कम हो सकती है। इससे बिजली के बिल में भारी कमी आ सकती है और साथ ही अत्यधिक भार झेल रही बिजली व्यवस्था को भी राहत मिल सकती है।

ऐसा अनुमान है कि कंज़्यूमर ड्यूरेबल (टिकाऊ उपभोग) वस्तुओं के बाज़ार में लगभग 60 प्रतिशत बिक्री पर ‘डिजिटल प्रभाव’ होता है। इसमें सीधे ऑनलाइन बिक्री के साथ-साथ वह बिक्री भी शामिल है जिसमें खरीदार वस्तु तो दुकान से खरीदते हैं लेकिन खरीदने से पहले इंटरनेट पर छानबीन कर लेते हैं।

इस संदर्भ में, हमने भारत के दो प्रमुख ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पर 224 एसी सूचियों और 153 सीलिंग-पंखा सूचियों में दी गई जानकारी एवं विवरण का सर्वेक्षण किया। सर्वेक्षण नमूनों में शामिल एसी 1.5 टन और स्प्लिट प्रकार के थे और पंखे 1200 मिमी स्वीप साइज़ (पंखुड़ी की लंबाई) वाले थे; दोनों सर्वाधिक खरीदे जाने वाले प्रकार हैं। हम यह देखना चाहते थे कि क्या इन वेबसाइटों से खरीदारों को ऊर्जा दक्षता पर स्पष्ट और प्रासंगिक जानकारी मिलती है। हमने ऊर्जा दक्षता वाले मॉडलों की कीमतों में फर्क की भी जांच की। यह सर्वेक्षण अप्रैल 2024 में किया गया था।

ऊर्जा दक्षता के लिए केंद्र सरकार की नोडल एजेंसी ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (BEE) का पंखे और एसी सहित कई उपकरणों के लिए एक अनिवार्य मानक एवं लेबलिंग (Standards and Labeling – S&L) कार्यक्रम है। हमारे सर्वेक्षण में कूलर को शामिल नहीं किया गया क्योंकि वर्तमान में मानक एवं लेबलिंग कार्यक्रम में ये शामिल नहीं हैं। मानक एवं लेबलिंग कार्यक्रम के तहत, सभी उपकरणों को 1-स्टार से 5-स्टार तक की रेटिंग दी जाती है, जिसमें 5-स्टार रेटिंग वाला उपकरण सबसे अधिक ऊर्जा कुशल होता है। अनिवार्य कार्यक्रम के तहत, उपकरणों को स्टार लेबल के बिना बाज़ार में बेचने की अनुमति नहीं है। ब्यूरो की लेबलिंग का एक विशिष्ट प्रारूप है, और उत्पाद और उनके पैकेजिंग पर लेबलिंग को लगाने के लिए स्पष्ट निर्देश हैं ताकि लेबलिंग संभावित उपभोक्ताओं को प्रमुखता से दिखाई दे। अलबत्ता, ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पर इन्हें दर्शाने के कोई विशेष नियम-शर्तें नहीं हैं, जिसके कारण उपभोक्ताओं को यहां बिखरी-बिखरी और अधूरी जानकारी मिलती है।

लेबल का प्रदर्शन

हमने पाया कि एसी उत्पादों की सूची में सभी उत्पादों के नाम वाली लाइन में स्टार-रेटिंग की जानकारी है। उत्पाद की अन्य तस्वीरों के साथ-साथ वास्तविक लेबल की तस्वीरें भी हैं, हालांकि लेबल की तस्वीर सबसे अंत में ही दी जाती है।

ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर उपलब्ध मॉडलों को छांटने के लिए फिल्टर में स्टार रेटिंग का भी फिल्टर है। अलबत्ता विशेष निर्देशों के अभाव में, स्टार रेटिंग के लेबल का स्थान सदैव एक-सा नहीं होता है और उत्पाद सूची में अथवा विवरण में हमेशा प्रमुखता से दिखाई नहीं देता है।

वैसे, एक अधिक गंभीर मुद्दा रेटिंग लेबल की वैधता की तारीख से सम्बंधित है। ब्यूरो समय-समय पर मानकों को संशोधित करता रहता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि स्टार-रेटिंग्स ऊर्जा दक्षता प्रौद्योगिकी में प्रगति का समुचित रूप से प्रतिनिधित्व कर रही है। संशोधन के बाद, मॉडल की रेटिंग आम तौर पर 1 या 2 स्टार कम हो जाती है। इसलिए, संशोधन के बाद 5-स्टार मॉडल 3-स्टार या 4-स्टार रेटिंग वाला बन सकता है, और नया 5-स्टार मॉडल और अधिक ऊर्जा कुशल होगा। ब्यूरो आम तौर पर पुराने स्टार लेबल वाले किसी भी अनबिके उत्पाद को बेचने के लिए 6 महीने का समय देता है। एसी के मानकों को अंतिम बार जुलाई 2022 में संशोधित किया गया था।

सर्वेक्षण में हमने पाया कि सभी एसी उत्पाद सूची में से लगभग 36 प्रतिशत ऐसी स्टार रेटिंग दर्शा रही थीं जो पुरानी थी और केवल जुलाई 2022 तक ही वैध थी। इनमें से अधिकांश मॉडलों की जो रेटिंग दर्शाई जा रही थी वह संशोधित मानक के बाद लागू होने वाली रेटिंग से 1 स्टार अधिक दर्शाई गई थी। यह ब्यूरो के अनिवार्य लेबलिंग कार्यक्रम का उल्लंघन है और उपभोक्ताओं को कम कुशल मॉडल खरीदने की ओर ले जा सकता है।

पंखों के मामले में, अधिकांश सूचियों में उत्पाद के नाम वाली लाइन में स्टार रेटिंग लिखी है। यह हमारे पिछले सर्वेक्षण की तुलना में एक स्वागत योग्य बदलाव है; पिछले सर्वेक्षण में किसी भी सूची (विवरण) में स्टार रेटिंग की जानकारी शामिल नहीं थी। हालांकि इनकी स्टार रेटिंग मात्र 1 है। यानी अन्य स्टार-रेटिंग की तुलना में ये सबसे कम ऊर्जा कुशल हैं, फिर भी कुछ सूची में ‘ऊर्जा कुशल 1-स्टार रेटिंग’ जैसे दावे किए गए हैं। लगभग किसी भी उत्पाद सूची (या विवरण) में वास्तविक स्टार लेबल की तस्वीर नहीं थी। यह ब्यूरो के नियमों का उल्लंघन है, जिसके अनुसार उत्पाद को ऑनलाइन बेचे जाने पर भी स्टार रेटिंग लेबल प्रदर्शित करना आवश्यक है।

इसके अलावा, हमें कुछ ऐसे विवरण भी मिले जिनमें पंखे ‘गैर-BEE’ श्रेणी के तहत लेबल किए गए थे, जिसकी कानूनी रूप से अनुमति नहीं है क्योंकि इनकी ऊर्जा दक्षता 1-स्टार से भी कम हो सकती है। दोनों में से किसी भी प्लेटफॉर्म पर स्टार रेटिंग के आधार पर उत्पादों को छांटने के लिए फिल्टर नहीं हैं।

उपभोक्ता को इन ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स पर उपकरणों की ऊर्जा दक्षता के बारे में स्पष्ट और सही जानकारी मिलना ज़रूरी है ताकि वे जानकारी के आधार पर निर्णय ले सकें। ब्यूरो सभी ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स के लिए एक निर्देश जारी कर सकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अनिवार्य श्रेणी के तहत आने वाले सभी उपकरण ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर सही लेबल प्रदर्शित करें। यह भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (FSSAI) द्वारा हाल ही में सभी ई-कॉमर्स खाद्य व्यापार संचालकों को जारी की गई सलाह के समान हो सकता है, जिसमें कहा गया था कि कुछ मामलों में एनर्जी ड्रिंक/स्वास्थ्यकर पेय का टैग हटा दिया जाए क्योंकि यह उपभोक्ताओं को गुमराह कर रहा था। ब्यूरो यह सुनिश्चित करने के लिए निर्देश भी जारी कर सकता है कि ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर स्टार-रेटिंग लेबल हमेशा और प्रमुखता से दर्शाए जाएं।

उपलब्धता और कीमत

ब्यूरो अपनी वेबसाइट पर सभी स्वीकृत मॉडलों की एक सूची प्रकाशित करता है। उपभोक्ता इस डैटा का उपयोग उत्पाद पैकेजिंग पर लगे लेबल की प्रामाणिकता को सत्यापित करने के लिए कर सकते हैं। इस डैटा के अनुसार 1.5 टन के स्प्लिट एसी के 1258 विभिन्न मॉडल हैं, और 1200 मिमी स्वीप साइज़ सीलिंग पंखों के 2668 मॉडल हैं।

पंजीकृत एसी मॉडल में से लगभग 50 प्रतिशत 3-स्टार रेटिंग के हैं जबकि 21 प्रतिशत 5-स्टार रेटिंग के हैं। पंखों के मामले में, लगभग 60 प्रतिशत मॉडल 1-स्टार रेटिंग के हैं जबकि 28 प्रतिशत 5-स्टार रेटिंग के हैं। हमारे बाज़ार सर्वेक्षण के लिए हमने केवल उन्हीं मॉडलों को चुना है जो ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स पर स्टॉक में उपलब्ध थे और जिनकी उपभोक्ता रेटिंग 100 से अधिक थी ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि हमने लोकप्रिय मॉडलों को शामिल किया है।

224 एसी मॉडलों की कीमतों के हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि एक औसत 5-स्टार एसी मॉडल की कीमत एक औसत 3-स्टार एसी से लगभग 7000 रुपए अधिक है, लेकिन 4-स्टार और 5-स्टार रेटिंग के मॉडलों की औसत कीमतों के बीच अंतर मात्र 500 रुपए का है। वैसे, समान स्टार रेटिंग के भीतर भी मॉडलों की कीमत में काफी अंतर दिखता है। उत्पाद सूची में ज़्यादातर वास्तविक कीमत और छूट वाली कीमत दिखाई जाती है। हमने छूट वाली कीमत को शामिल किया है क्योंकि खरीदार इसी कीमत पर खरीदारी करते हैं। कुछ स्टोर्स पर इन कीमतों को जांचने पर पता चला कि ये कीमतें खुदरा दुकानों की कीमतों के बराबर हैं। हमने 1-स्टार और 2-स्टार रेटिंग वाले मॉडलों का विश्लेषण नहीं किया है क्योंकि इस श्रेणी में बहुत कम मॉडल हैं।

एसी की ऊर्जा दक्षता को भारतीय मौसमी ऊर्जा दक्षता अनुपात (Indian Seasonal Energy Efficiency Ratio – ISEER) के सापेक्ष मापा जाता है। ISEER जितना अधिक होगा, दक्षता उतनी ही बेहतर होगी। हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि हालांकि एसी की कीमत को प्रभावित करने में ISEER महत्वपूर्ण कारक है, लेकिन इसके चलते कीमत में 9.5 प्रतिशत ही अंतर आता है। इसका मतलब है कि कीमत में अंतर के लिए कई अन्य कारक ज़िम्मेदार हैं, जैसे ब्रांड और अतिरिक्त फीचर्स। कुछ 5-स्टार मॉडल ऐसे हैं जिनकी कीमत औसत 3-स्टार एसी की कीमत के बराबर है। यह एक ऐसे चलन को दर्शाता है जिसमें कंपनियां 5-स्टार एसी की ब्रांडिग प्रीमियम मॉडल के रूप में करती हैं और फिर अतिरिक्त फीचर्स देती हैं जिससे इनकी कीमत बढ़ जाती है। एक साधारण बिना ताम-झाम वाला 5-स्टार एसी उपभोक्ताओं के लिए अधिक फायदेमंद हो सकता है। हालांकि इस पर आगे और जांच-पड़ताल की ज़रूरत है। इसी के साथ, उपकरण के ISEER अंक को उपभोक्ता देख सकते हैं और किसी स्टार रेटिंग में उच्च ऊर्जा दक्षता का फायदा उठाने के लिए उच्च ISEER अंक वाले मॉडल चुन सकते हैं।

153 पंखा मॉडल की कीमतों के हमारे विश्लेषण में भी इसी तरह के रुझान दिखाई देते हैं। एक औसत 5-स्टार मॉडल की कीमत 1-स्टार मॉडल से औसतन 1370 रुपए अधिक है। हालांकि, स्टार-रेटिंग के भीतर कीमत में काफी फर्क दिखता है। हमने 2-स्टार, 3-स्टार और 4-स्टार वाले मॉडलों को शामिल नहीं किया क्योंकि इन श्रेणी में बहुत कम मॉडल हैं।

पंखे की ऊर्जा दक्षता को सेवा मूल्य (Service Value – SV) के रूप में मापा जाता है। SV जितना अधिक होगा, पंखे की ऊर्जा दक्षता उतनी ही बेहतर होगी। हमारा विश्लेषण दर्शाता है कि हालांकि कीमत में बढ़ोतरी के लिए SV एक महत्वपूर्ण कारक है, लेकिन इसके चलते कुल कीमत में 12 प्रतिशत का ही अंतर पड़ता है। एसी की ही तरह, इसमें भी ब्रांड और अतिरिक्त फीचर्स सहित अन्य कारक पंखे की कीमत में वृद्धि कर सकते हैं। ऐसे कई 5-स्टार पंखे हैं जिनकी कीमत 1-स्टार पंखे की औसत कीमत के बराबर है। एसी की तरह ही, पंखों के मामले में भी ऐसा लगता है कि कंपनियां 5-स्टार मॉडल का ब्रांडिंग प्रीमियम मॉडल के रूप में कर रही हैं।

निष्कर्ष के तौर पर, हमारा बाज़ार सर्वेक्षण दर्शाता है कि ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर पंखे और एसी की ऊर्जा दक्षता सम्बंधी जानकारी को स्पष्ट, सुसंगत, प्रधानता से और नियामक अपेक्षा के अनुसार दिखाने के लिए सुधार करने की आवश्यकता है। वर्तमान में ऐसे पोर्टल पर प्रदर्शित जानकारी को सही करने की आवश्यकता है क्योंकि अधिकांश उपभोक्ता उपकरणों के बारे में छानबीन करने और खरीदी के लिए इंटरनेट का उपयोग करते हैं। ब्यूरो ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स को एक सलाह जारी कर सकता है जिसमें उन्हें S&L कार्यक्रम के तहत प्रदर्शन आवश्यकताओं का अनुपालन करना पड़े।

हालांकि पंखे और एसी दोनों के 5-स्टार मॉडल्स की औसत कीमत 3-स्टार मॉडल से अधिक है, फिर भी हमने एक निश्चित स्टार रेटिंग के भीतर कीमत में काफी भिन्नता पाई है। ऐसा लगता है कि कंपनियां 5-स्टार मॉडल का प्रीमियम मॉडल के रूप में ब्रांडिंग कर रही हैं, इसके लिए वे इसमें अन्य फीचर्स जोड़ रही हैं और इनकी कीमत बढ़ा रही हैं। लेकिन वास्तव में एक बुनियादी ऊर्जा कुशल मॉडल उपभोक्ताओं के लिए अधिक फायदेमंद और महत्वपूर्ण हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://energy.prayaspune.org/images/Power_Perspectives_Portal/Central_Others/18-Market%20survey%20fans%20AC/Fig%201.png

कोयले की कमी और आयात पर चर्चा ज़रूरी – अशोक श्रीनिवास, मारिया चिरायिल, रोहित पटवर्धन और प्रयास (ऊर्जा समूह)

र्मी का मौसम आते ही बिजली संकट मंडराने लगा है। हाल के वर्षों में, अप्रत्याशित मौसम पैटर्न और तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था से बिजली की मांग में वृद्धि हुई है, जिसको पूरा करना एक चुनौती बन गया है। इस संदर्भ में कुछ मुद्दे विचारणीय हैं।

पहला मुद्दा घरेलू थर्मल कोयले की कमी का है जिसका उपयोग बिजली उत्पादन में किया जाता है। इसकी कमी को बिजली संकट का मुख्य ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। उदाहरण के लिए, पिछले वर्ष अगस्त के महीने पर विचार करते हैं जो बिजली की अत्यधिक कमी वाला महीना रहा। वैसे गर्मियों के अन्य महीनों की कहानी कुछ अलग नहीं है। अगस्त 2023 में लगभग 84 करोड़ युनिट बिजली का अभाव रहा। इसका कारण मुख्य रूप से खराब मानसून के कारण मांग में वृद्धि और कुछ स्रोतों से बिजली आपूर्ति में कमी था। यहां यह ज़िक्र करना लाज़मी है कि यह कमी उस महीने की मांग का सिर्फ 0.55 प्रतिशत थी। इस कमी की पूर्ति 6 लाख टन घरेलू कोयले से आसानी से की जा सकती थी, चूंकि अगस्त और सितंबर के दौरान कोयला खदानों में 3 करोड़ टन से अधिक कोयला उपलब्ध था।

स्पष्ट है कि समस्या वास्तव में घरेलू थर्मल कोयले की अनुपलब्धता की नहीं बल्कि इसे बिजली संयंत्रों तक पहुंचाने के लिए अपर्याप्त परिवहन व्यवस्था की थी। ऊर्जा मंत्रालय का एक हालिया परामर्श (एडवाइज़री) इसकी पुष्टि करता है, जिसमें कहा गया था, “रेलवे नेटवर्क से जुड़े विभिन्न परिचालन (लॉजिस्टिक) मुद्दों के कारण घरेलू कोयले की आपूर्ति बाधित रहेगी।”

बहरहाल, परिवहन सम्बंधी चुनौतियों से निपटने में कुछ समय लगेगा। इस दौरान बिजली की कमी से कैसे निपटा जाए? चूंकि इस कमी को पूरा करने के लिए फिलहाल कोयला सबसे अच्छा विकल्प है, इसलिए इसका उचित जवाब है कि कोयले के वैकल्पिक स्रोत खोजे जाएं। इससे दूसरा भ्रम जुड़ा है कि एकमात्र वैकल्पिक स्रोत तो कोयले का आयात है।

वर्तमान स्थिति देखें तो कोल इंडिया लिमिटेड अपने उत्पादन का लगभग 10 प्रतिशत यानी प्रति वर्ष 7-8 करोड़ टन स्पॉट नीलामी के माध्यम से बेचता है। हालांकि ऐसे कोयले की कीमत कई संयंत्रों को मिलने वाले कोयले से कहीं अधिक है फिर भी यह आयातित कोयले की कीमत से बहुत कम है। हालांकि, कुछ संयंत्रों के पास नीलामी स्थलों से कोयला प्राप्त करने के लिए परिवहन सम्बंधी बाधाएं तो नहीं हैं लेकिन फिर भी ऐसे संयंत्र नीलामी को एक विकल्प के रूप में नहीं देखते हैं।

भले ही नीलामी का सहारा लिया जाए, तब भी घरेलू कोयले के साथ मिश्रण करने के लिए कुछ थर्मल कोयले के आयात की आवश्यकता बनी रह सकती है। सवाल यह है कि किस संयंत्र के लिए कितना आयात पर्याप्त है। ऊर्जा मंत्रालय ने बिजली उत्पादकों को जून 2024 तक अपने कोयला स्टॉक की निगरानी जारी रखने और आवश्यकतानुसार (वज़न के हिसाब से 6 प्रतिशत तक) कोयला आयात करने के लिए परामर्श जारी किया है। लेकिन कई लोगों ने इस परामर्श की व्याख्या की है यह 6 प्रतिशत कोयला आयात का फरमान है। यह व्याख्या कोयला-आधारित बिजली उत्पादकों के लिए काफी सुविधाजनक हो सकती है क्योंकि वे आयातित कोयले की बढ़ी हुई लागत को उपभोक्ताओं पर डाल सकते हैं। इस स्थिति में बिजली लागत को कम रखने के लिए ज़िम्मेदार बिजली नियामकों को इस परामर्श को आदेश के रूप में देखने को निरुत्साहित करना चाहिए। ऊर्जा मंत्रालय के परामर्श में स्पष्ट कहा गया है कि यह मात्र एक सलाह है और बार-बार कहा गया है कि “आवश्यकता अनुसार” आयातित कोयले का मिश्रण किया जाए। इसके अलावा, प्रारंभिक विश्लेषण से पता चलता है कि मात्र 0.3 प्रतिशत अतिरिक्त आयातित कोयले का मिश्रण करके कमियों को पूरा किया जा सकता था। इस प्रकार, तीसरा भ्रम 6 प्रतिशत कोयला आयात को अनिवार्य बताना है।

मंत्रालय के परामर्श को एक आदेश के रूप में देखने से लागत पर उल्लेखनीय प्रभाव पड़ सकते हैं। चूंकि कोयला अभी भी भारत की 70 प्रतिशत से अधिक बिजली की आपूर्ति करता है इसलिए सभी कोयला-आधारित उत्पादन में 6 प्रतिशत आयातित कोयले का अनिवार्य सम्मिश्रण, कोयला-आधारित बिजली की परिवर्तनीय (variable) लागत को 4.5-7.5 प्रतिशत तक बढ़ा सकता है। एनुअल रेटिंग ऑफ पॉवर डिस्ट्रीब्यूशन की रिपोर्ट के अनुसार बिजली की मांग में वृद्धि, कोयले के आयात और आयातित कोयले की कीमतों में वृद्धि के कारण वित्त वर्ष 2023 में बिजली खरीद लागत में 15 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। ऐसे में जब वितरण कंपनियों की सलाह के बिना आयातित कोयले का सम्मिश्रण किया जाता है, तो आवश्यकता से अधिक लंबे समय तक उच्च लागत की स्वीकृति मिलने का खतरा है।

दरअसल, सभी बिजली संयंत्र एक जैसे नहीं होते। आम तौर पर सबसे अधिक उत्पादन करने वाले तथाकथित पिट-हेड संयंत्र खदानों के करीब और बंदरगाहों से दूर होते हैं। इसलिए उन्हें कोयले की कमी का सामना नहीं करना पड़ता। उच्च मांग की अवधि में खदानों से दूर स्थित संयंत्रों में कोयले की कमी की संभावना अधिक होती है, लेकिन वे आमतौर पर उतना उत्पादन नहीं करते हैं। इस प्रकार, देश के सभी संयंत्रों के लिए 6 प्रतिशत कोयला आयात करने की सलाह को आदेश के रूप में देखने का कोई औचित्य नहीं है।

इन सबसे इतना तो स्पष्ट है कि देश में कोयले की कमी को लेकर चल रहे विमर्श में सुधार की आवश्यकता है। ऐसा कहना उचित नहीं है कि कोयले का आयात इस कमी को दूर करने का एकमात्र तरीका है। इसमें बुनियादी चुनौती कोयले को ज़रूरतमंद बिजली घरों तक पहुंचाने में बाधक परिवहन दिक्कतों को दूर करना है। इसके साथ ही नियामक आयोगों और वितरण कंपनियों को यह सुनिश्चित करना होगा कि सभी कोयला-आधारित संयंत्र कोयले की कमी की संभावना के प्रति सतर्क रहें और अंतर को पाटने के लिए सबसे सस्ते वैकल्पिक स्रोतों की पहचान करें। ज़ाहिर है, यह विकल्प कोयले का आयात तो नहीं है। यदि ऐसा होता है तो असहाय उपभोक्ता को अनुचित कोयला खरीद का खामियाजा भुगतना पड़ेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://bsmedia.business-standard.com/_media/bs/img/article/2024-01/23/full/1706028879-3503.jpg?im=FeatureCrop,size=(826,465)

बारिश और नमी से ऊर्जा का उत्पादन

हाल ही वैज्ञानिकों ने वर्षा बूंदों और नमी की मदद से ऊर्जा उत्पादन की एक अभूतपूर्व हरित तकनीक विकसित की है। मैसाचुसेट्स एमहर्स्ट विश्वविद्यालय के भौतिक विज्ञानी जून याओ और उनकी टीम ने एक ऐसी सरंध्र फिल्म विकसित की है जो जलवाष्प में प्राकृतिक रूप से मौजूद आवेशों को विद्युत धारा में परिवर्तित कर सकती है।
वर्तमान में ये फिल्में डाक टिकटों के आकार की हैं और अल्प मात्रा में ही विद्युत उत्पन्न करती हैं, लेकिन उम्मीद है कि भविष्य में इन्हें बड़ा करके सौर पैनलों की तरह लगाया जा सकेगा। इस तकनीक को हाइड्रोवोल्टेइक कहते हैं। और दुनियाभर के कई समूह नवीन हाइड्रोवोल्टेइक उपकरणों पर काम कर रहे हैं जिससे वाष्पीकरण, वर्षा और मामूली जलप्रवाह की ऊर्जा को विद्युत में बदल जा सकता है।
नमी की निरंतर उपलब्धता हाइड्रवोल्टेइक को खास तौर से उपयोगी बनाती है। रुक-रुक कर मिलने वाली पवन और सौर ऊर्जा के विपरीत, वातावरण में नमी की निरंतर उपस्थिति एक सतत ऊर्जा स्रोत प्रदान करती है। वैसे तो मनुष्य प्राचीन समय से पनचक्कियों से लेकर आधुनिक जलविद्युत बांधों तक, ऊर्जा के लिए बहते पानी का उपयोग करते आए हैं। लेकिन हाइड्रोवोल्टेइक्स पदार्थों के साथ पानी की अंतर्क्रिया पर आधारित है।
शोधकर्ताओं ने देखा था कि आवेशित सतहों से टकराने वाली बूंदों या बहते पानी से छोटे-छोटे वोल्टेज स्पाइक्स उत्पन्न होते हैं। इस तकनीक की मदद से हाल ही में, थोड़े समय के लिए ही सही लेकिन बूंदों की बौछारों से 1200 वोल्ट तक बिजली उत्पन्न की गई जो एलईडी डायोड के टिमटिमाने लिए पर्याप्त थी।
इसके अलावा वाष्पीकरण में भी बिजली उत्पादन की क्षमता होती है। हांगकांग पॉलिटेक्निक युनिवर्सिटी के मेकेनिकल इंजीनियर ज़ुआंकाई वांग ने ड्रिंकिंग बर्ड नामक खिलौने से इसका प्रदर्शन किया। यह खिलौना एक झूलती चिड़िया होती है। इसकी अवशोषक ‘चोंच’ को पानी में डुबोया जाता है तो यह डोलने लगती है। इसके वापस सीधा होने के बाद, पानी वाष्पित होता है और इसके सिर को ठंडा कर देता है। दबाव में आई कमी के कारण एक अन्य द्रव सिर में पहुंच जाता है और दोलन फिर शुरू हो जाता है। इस गति का उपयोग ‘ट्राइबोइलेक्ट्रिक’ जनरेटर की मदद से बिजली उत्पन्न करने के लिए किया जाता है।
इससे पहले याओ ने पिछले वर्ष हवा में उपस्थित पानी के अणुओं से विद्युत आवेशों को पकड़ने के लिए एक वायु जनरेटर भी तैयार किया था। इस जनरेटर में नैनो-रंध्रों वाली एक पतली चादर का उपयोग किया गया था। वर्तमान में इस जनरेटर से उत्पादन चंद माइक्रोवॉट प्रति वर्ग सेंटीमीटर के आसपास ही है, लेकिन याओ का विचार है कि कई परतों का उपयोग करके इस जनरेटर को एक 3डी डिवाइस में बदल सकते हैं जो हवा से निरंतर बिजली कैप्चर करने में सक्षम हो सकता है।
इसके अलावा जटिल नैनो संरचना आधारित लकड़ी का उपयोग एक अन्य हाइड्रोवोल्टेइक प्रणाली विकसित करने के लिए किया गया है। शोधकर्ताओं के अनुसार इस लकड़ी के टुकड़े को पानी पर रखकर और उसकी ऊपरी सतह को हवा के संपर्क में लाकर बिजली पैदा की जा सकती है। ऊपर की ओर से वाष्पीकरण लकड़ी के चैनलों के माध्यम से अधिक पानी और आयन खींचता है, जिससे एक छोटी लेकिन स्थिर विद्युत धारा उत्पन्न होती है। शोधकर्ताओं ने लकड़ी में सोडियम हाइड्रॉक्साइड का उपयोग किया जिससे उत्पादन दस गुना तक बढ़ा। आयरन ऑक्साइड नैनोकणों को शामिल करने से, बिजली उत्पादन 52 माइक्रोवॉट प्रति वर्ग मीटर तक पहुंच गया जो प्राकृतिक लकड़ी की तुलना में बेहतर है।
फिलहाल इन उपकरणों की ऊर्जा उत्पादन दरें काफी कम हैं। तुलना के लिए सिलिकॉन सौर पैनल की क्षमता 200 से 300 वॉट प्रति वर्ग मीटर होती है। लेकिन हाइड्रोवोल्टेइक्स अभी शुरुआती दौर में है। और अधिक अध्ययन होगा तो हरित ऊर्जा के क्षेत्र में हाइड्रोवोल्टेइक्स एक आशाजनक प्रणाली साबित हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/3/3a/Sipping_Bird.jpg