तिब्बत के पठारों की ऊंचाई पर अधिकतर लोगों को सांस लेने में दिक्कत होती है, सिरदर्द होता है, लेकिन भारी भरकम याक वहां दौड़ भी लगा ले तो उसे कोई परेशानी नहीं होती। अब, शोधकर्ताओं ने याक में एक ऐसी नई कोशिका खोजी है जो इन बैलनुमा प्राणियों को ठंडी और कम ऑक्सीजन वाली जगहों पर भी इतना फुर्तीला रहने में मदद करती है।
काफी समय से वैज्ञानिक यह तो जानते हैं कि याक, कुछ मनुष्यों और कुत्तों में कुछ ऐसे आनुवंशिक अनुकूलन होते हैं जो उन्हें बहुत अधिक ऊंचाई पर मज़े से जीवित रहने में मदद करते हैं। लेकिन नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित हालिया अध्ययन में बताया गया है कि याक के फेफड़ों में कुछ विशेष कोशिकाएं भी होती हैं जो उन्हें अधिक ऊंचाई पर अतिरिक्त फुर्ती देती हैं।
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने याक के डीएनए की तुलना उनके उन करीबी सम्बंधी मवेशियों के डीएनए से की जो कम ऑक्सीजन वाले स्थानों के लिए अनुकूलित नहीं थे। तुलना में उन्हें डीएनए के ऐसे हिस्से मिले जहां से उद्विकास के दौरान ये प्राणि अलग-अलग राह पर निकल गए थे। ये अंतर किसी जीन के कार्य में ऐसे फेरबदल की ओर इशारा करते हैं जिसने याक को उसके अल्प-ऑक्सीजन पर्यावरण के अनुकूल होने में मदद की।
जब शोधकर्ताओं ने याक के फेफड़ों की प्रत्येक कोशिका में जीन के कार्य का अध्ययन किया तो उन्हें रक्त वाहिनियों के अस्तर में एक बिल्कुल ही अलग तरह की कोशिका मिली। फेफड़ों की अन्य कोशिकाओं से तुलना करने पर देखा गया कि इन कोशिकाओं में दो परिवर्तित जीन बहुत अधिक सक्रिय थे। शोधकर्ताओं को लगता है कि याक के फेफड़ों की ये कोशिकाएं उनकी रक्त वाहिनियों को मज़बूत और अधिक तंतुमय बनाती है, जो हवा में अपेक्षाकृत कम ऑक्सीजन में भी सांस लेने को सुगम बनाता है।
शोधकर्ताओं को लगता है कि इसी तरह की विशिष्ट कोशिकाएं ऊंचाई पर पाए जाने वाले एंटीलोप और हिरणों में भी पाई जाएंगी। लेकिन ये कोशिकाएं मनुष्यों में मिलना संभव नहीं है; क्योंकि याक, एंटीलोप और हिरण लाखों वर्षों से अत्यधिक ऊंचाई पर रह रहे हैं और वहीं विकसित हुए हैं, जबकि मनुष्य तो महज़ 30,000 वर्षों की छोटी-सी अवधि से वहां रह रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)
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पिछली एक सदी में मानव जीव विज्ञान पर हमारी समझ काफी बढ़ी है। अलबत्ता, सपनों को समझने में प्रगति काफी धीमी रही है। सपनों की जैविक प्रणाली हमारे लिए अस्पष्ट सी है; एकमात्र निश्चित बात यह है कि अधिकांश मनुष्य सपने देखते हैं।
नींद की जो अवस्था यादगार सपने देखने से जुड़ी है, उसे रैपिड आई मूवमेंट (REM) नींद कहा जाता है। इस चरण में व्यक्ति की आंखें तेज़ी से हरकत करती रहती हैं। नींद के इस चरण में जाग जाएं, तो लोग अक्सर बताते हैं कि वे इस वक्त सपना देख रहे थे। शोधकर्ताओं के लिए REM एक पहेली है क्योंकि इसे मापना मुश्किल है।
साइंस में प्रकाशित एक हालिया रिपोर्ट इस महत्वपूर्ण सवाल को संबोधित करती है: सपने में जो कुछ घटता है क्या REM का उससे कुछ सम्बंध है? क्या आंखों की गति में सपने के बारे में कोई जानकारी होती है जिसका विश्लेषण करके अर्थ निकाला जा सके?
लेकिन उस सवाल में जाने से पहले सपनों के अर्थ निर्धारण पर कुछ बात कर ली जाए। बीसवीं सदी की शुरुआत में सिग्मंड फ्रॉयड के सिद्धांत हावी थे, जो सपनों में दिखने वाली छवियों के प्रतीकात्मक अर्थ निकालने पर केंद्रित थे। 1952 में REM नींद की खोज हुई और इसने सपनों को मनोविश्लेषण से अलग दिशा में आगे बढ़ाया।
REM नींद में मस्तिष्क उतना ही सक्रिय पाया गया जितना कि पूरी तरह से जागृत अवस्था में होता है। लेकिन शरीर निष्क्रिय था, सो रहा था। REM नींद सभी स्तनधारियों और पक्षियों में देखी गई है। मिशेल जौवे ने दर्शाया है कि बिल्ली के ब्रेन स्टेम में क्षति पहुंचाने से वह स्वप्नावस्था की शारीरिक गतिहीनता से मुक्त हो जाती है। सपने में तो वह बिल्ली अन्य बिल्लियों के साथ आवाज़ें निकालते हुए लड़ती-भिड़ती है, लेकिन जागने पर लड़ना बंद कर देती है।
मस्तिष्क तरंगों की रिकॉर्डिंग (ईईजी) से इस बारे में नई समझ मिली है। इन रिकॉर्डिंग ने बताया है कि REM नींद और जागृत अवस्था के बीच बहुत कम अंतर है। एक दिलचस्प प्रयोग में तंत्रिका वैज्ञानिक मैथ्यू विल्सन ने भूलभुलैया से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढते हुए एक जागृत चूहे के मस्तिष्क की गतिविधि को रिकॉर्ड किया। कुछ ही समय बाद जब चूहा REM नींद में था तब उन्हें उसके मस्तिष्क में उसी तरह की मस्तिष्क तंरगें दिखीं – तो क्या वह सपने में भी भूलभुलैया से निकलने का रास्ता खोज रहा था?
सपनों का डैटाबेस
सपनों का अध्ययन करने का एक अन्य तरीका रहा सपनों का वृहत डैटाबेस संकलित करना। सपनों के संग्राहक केल्विन हॉल ने 50,000 सपनों के विश्लेषण से निष्कर्ष निकाला था कि अधिकांश सपने सरिएलिस्ट (असंगत-यथार्थवादी) पेंटिंग जैसे नहीं होते, और उनका काफी हद तक पूर्वानुमान किया जा सकता है। हो सकता है कि सपने देखते समय बच्चे मुस्कराएं क्योंकि बच्चों के सपनों में जानवरों को देखने की अधिक संभावना होती है, लेकिन वयस्कों के सपने बहुत सुखद नहीं होते और अक्सर उनमें चिंता के क्षण होते हैं।
हम महत्वपूर्ण चीज़ों के बारे में चिंतित होते हैं; ऐसी चीज़ें जिन्हें सुलझाना है। फ्रांसिस क्रिक और ग्रेम मिचिसन द्वारा प्रस्तावित एक सिद्धांत के अनुसार सपने देखना घर की साफ-सफाई-व्यवस्थित करने जैसा काम है – दिन भर की घटनाओं की छंटाई। छंटाई करते समय कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं (चिंता के संभावित स्रोत) को यादों के रूप में सहेजा जाता है, और बाकी को रद्दी मानकर छोड़ दिया जाता है।
क्या चलते हुए सपनों से कुछ आउटपुट मिल सकता है जिसे रिकॉर्ड किया जा सके? जवाब परस्पर विरोधी हैं। कुछ अध्ययनों से संकेत मिलते हैं कि आंखों की गति या दिशा या आवृत्ति सपने में दोहराई गई मानसिक प्रक्रिया से मेल खाती है। इलेक्ट्रोऑक्युलोग्राफ की मदद से सोते हुए प्रतिभागियों की आंखों की गतिविधियों को रिकॉर्ड किया गया, जिसमें यह दर्ज किया गया कि आंखों की गति मुख्य रूप से या तो खड़ी (ऊपर-नीचे) या आड़ी (दाएं-बाएं) होती है। जिन प्रतिभागियों ने बताया कि वे अपने सपने में ऊपर की ओर देख रहे थे उनकी आंखों की गति ऊपर-नीचे वाली देखी गई। दूसरी ओर, अन्य अध्ययनों ने REM का श्रेय मस्तिष्क की बेतरतीब गतिविधियों को दिया है।
अभ्यास रणनीतियां
जागते समय आंखों की गति आवश्यक है। खुले मैदान में चूहा अक्सर अपनी आंखों को ऊपर की ओर घुमाता है, और आसमान से शिकारी पक्षियों के खतरे को भांपता है। पैदल चलने वाले लोग आने-जाने वाली गाड़ियों को देखने के लिए दाएं-बाएं देखते हैं। इन दोनों स्थितियों में आंखें उसी दिशा में घूमती हैं जिसमें सिर घूमता है। मस्तिष्क निगरानी रखता है कि आपका सिर किस दिशा की ओर है। इसके लिए वह हेड डायरेक्शन (HD) तंत्रिका कोशिकाओं का उपयोग करता है। चूहों की हेड डायरेक्शन कोशिका में इलेक्ट्रोड लगाकर यह दर्शाया गया है कि जब सिर गति कर रहा होता है तो ये कोशिकाएं सक्रिय होती हैं।
मैसिमो स्कैनज़िएनी ने सोते हुए चूहों में REM और HD कोशिका गतिविधि दोनों को रिकॉर्ड किया। उल्लेखनीय रूप से, उन्होंने दिखाया कि REM नींद में चूहों की आंखों की गति दिन में आसमान पर नज़र रखने के समान ऊपर-नीचे थी। HD कोशिकाओं ने भी इसी गति के संकेत दिए, हालांकि सोते समय सिर नहीं हिल रहे थे। ऐसा लगता है कि सपना किसी शिकारी पक्षी से बचने के बारे में था। क्या इन अध्ययनों का उपयोग मनुष्यों के लाभ के लिए किया जा सकता है? जिन लोगों ने अचानक, तीव्र आघात का अनुभव किया हो वे पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD) से पीड़ित होते हैं। कोई सैनिक जो अपने पीछे हथगोला फटने से दहल गया हो, भले ही उस विस्फोट से वह चोटिल न हुआ हो, उसे बार-बार ऐसे ही बुरे सपने आ सकते हैं और वर्षों तक चिंता सता सकती है। वह हर रात सपने में क्या ‘देखता’ है, इसकी बेहतर समझ उसे इससे उबारने की बेहतर रणनीतियां दे सकती है। (स्रोत फीचर्स)
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हॉलीवुड की एनिमेशन फिल्मों में नाचते, गाते, शरारत करते लीमर ज़रूर दिखेंगे। ये सिर्फ मैडागास्कर द्वीप पर ही पाए जाते हैं जो प्रकृतिविदों के लिए हमेशा से दिलचस्प जंतुओं का आवास स्थल रहा है।
मैडागास्कर में पाए जाने वाले कई जंतुओं का सम्बंध दूरस्थ भारत (दूरी 3800 कि.मी.) में पाए जाने वाले वंशों से दिखता है, बनिस्बत अफ्रीका के जंतुओं से जबकि अफ्रीका यहां से महज 413 कि.मी. दूर है। यह प्रकृतिविदों के लिए एक ‘अबूझ पहेली’ रही है।
प्राणि वैज्ञानिक फिलिप स्क्लेटर हैरान थे कि लीमर और सम्बंधित जंतु व उनके जीवाश्म मैडागास्कर और भारत में तो पाए जाते हैं लेकिन मैडागास्कर के निकट स्थित अफ्रीका या मध्य पूर्व में अनुपस्थित हैं। 1860 के दशक में उन्होंने प्रस्तावित किया था कि किसी समय भारत और मैडागास्कर के बीच एक बड़ा द्वीप या महाद्वीप मौजूद रहा होगा, जो दोनों स्थानों के बीच सेतु का कार्य करता था। समय के साथ यह द्वीप डूब गया। इस प्रस्तावित जलमग्न द्वीप को उन्होंने लेमुरिया नाम दिया था।
स्क्लेटर की इस परिकल्पना ने हेलेना ब्लावात्स्की जैसे तांत्रिकों को आकर्षित किया, जिनका यह मानना था कि यही वह स्थान होना चाहिए जहां मनुष्यों की उत्पत्ति हुई थी।
देवनेया पवनर जैसे तमिल धार्मिक पुनरुत्थानवादियों ने भी इस विचार को अपनाया और इसे एक तमिल सभ्यता की संज्ञा दी। साहित्य और पांडियन दंतकथाओं में यह समुद्र में जलगग्न सभ्यता के रूप में वर्णित है। वे इस जलमग्न महाद्वीप को कुमारी कंदम कहते थे।
महाद्वीपों का खिसकना
स्क्लेटर के विचारों ने तब समर्थन खो दिया जब एक अन्य ‘हैरतअंगेज़’ सिद्धांत – महाद्वीपीय खिसकाव या विस्थापन – ने स्वीकृति प्राप्त करना शुरू किया। प्लेट टेक्टोनिक्स नामक इस सिद्धांत के अनुसार बड़ी-बड़ी प्लेट्स – जिन पर हम खड़े हुए हैं (या चलते-फिरते हैं, रहते हैं) – पिघली हुई भूमिगत चट्टानों पर तैरती हैं और एक-दूसरे के सापेक्ष ये प्रति वर्ष 2-15 से.मी. खिसकती हैं। तकरीबन 16.5 करोड़ वर्ष पहले गोंडवाना नामक विशाल भूखंड दो हिस्सों में बंट गया था – इसके एक टुकड़े में वर्तमान के अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका थे और दूसरे टुकड़े में भारत, मैडागास्कर, ऑस्ट्रेलिया और अंटार्कटिका थे।
फिर लगभग 11.5 करोड़ साल पूर्व मैडागास्कर और भारत एक साथ इससे टूटकर अलग हो गए थे। लगभग 8.8 करोड़ साल पहले, भारत उत्तर की ओर बढ़ने लगा और इसने रास्ते में कुछ छोटे-छोटे भू-भाग (द्वीप) छोड़ दिए जिससे सेशेल्स बना। यह टूटा हुआ हिस्सा लगभग 5 करोड़ साल पहले युरेशियन भू-भाग से टकराया जिससे हिमालय और दक्षिण एशिया बने।
लगभग 11.5 करोड़ साल पहले डायनासौर का राज था। इस समय तक कई जीव रूपों का विकास भी नहीं हुआ था। भारत और मैडागास्कर में पाए जाने वाले डायनासौर के जीवाश्म काफी एक जैसे हैं, और ये अफ्रीका और एशिया में पाई जाने वाली डायनासौर प्रजातियों के समान नहीं हैं जो गोंडवाना के टूटने का समर्थन करता है। भारत और मैडागास्कर दोनों जगहों पर लैप्लेटोसॉरस मेडागास्करेन्सिस के अवशेष पाए गए हैं।
आणविक घड़ियां
आणविक घड़ी एक शक्तिशाली तकनीक है जिसका उपयोग यह पता लगाने के लिए किया जाता है कि जैव विकास के दौरान कोई दो जीव एक-दूसरे से कब अलग हुए थे। यह तकनीक इस अवलोकन पर आधारित है कि आरएनए या प्रोटीन अणु की शृंखला में वैकासिक परिवर्तन काफी निश्चित दर पर होते हैं। जैसे दो जीवों के हीमोग्लोबिन जैसे प्रोटीन में अमीनो एसिड में अंतर आपको यह बता सकता है कि उनके पूर्वज कितने वर्ष पहले अलग हो गए थे। आणविक घड़ियां अन्य साक्ष्यों (जैसे जीवाश्म रिकॉर्ड) से काफी मेल खाती हैं।
दक्षिण भारत और श्रीलंका में मीठे पानी और खारे पानी की मछलियों के सिक्लिड परिवार के केवल दो वंश हैं – एट्रोप्लस (जो केरल की एक खाद्य मछली है, जहां इसे पल्लती कहा जाता है) और स्यूडेट्रोप्लस। आणविक तुलना से पता चलता है कि एट्रोप्लस के निकटतम सम्बंधी मैडागास्कर में पाए जाते हैं, और इनके साझा पूर्वज 16 करोड़ वर्ष पहले अफ्रीकी सिक्लिड्स से अलग हो गए थे। चौथे तरह के सिक्लिड दक्षिण अमेरिका में पाए जाते हैं, इस प्रकार ये गोंडवाना के छिन्न-भिन्न होने का समर्थन करते हैं।
एशिया, मैडागास्कर और अफ्रीका में जीवों के वितरण में भारत एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। गोंडवाना के जीव भारत से निकलकर फैले। कुछ अन्य जीव यहां आकर बस गए। उदाहरण के लिए, मीठे पानी के एशियाई केंकड़े (जेकार्सिन्यूसिडी कुल)अब समूचे दक्षिण पूर्व एशिया में पाए जाते हैं लेकिन उनके सबसे हालिया साझा पूर्वज भारत में विकसित हुए थे। सूग्लोसिडे नामक मेंढक कुल सिर्फ भारत और सेशेल्स में पाया जाता है।
गढ़वाल के एचएनबी विश्वविद्यालय, पंजाब विश्वविद्यालय और जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने गुजरात की वस्तान लिग्नाइट खदान से प्राप्त जीवाश्म में प्रारंभिक भारतीय स्तनधारी – चमगादड़ की एक प्रजाति, और प्रारंभिक युप्राइमेट – एक आदिम लीमर की पहचान की है। ये लगभग 5.3 करोड़ वर्ष पूर्व के जीवाश्म हैं, जो भारत-युरेशियन प्लेट्स के टकराने (या उससे ठीक पहले) का समय है।
लीमर्स के बारे में क्या? मैडागास्कर बहुत बड़ा द्वीप है, यहां विविध तरह की जलवायु परिस्थितियां हैं। साक्ष्य बताते हैं कि अफ्रीका से समुद्र पार करके एक पूर्वज प्राइमेट यहां आया था। कोई बंदर, वानर या बड़े शिकारी इसे पार नहीं कर सके थे, इसलिए यहां दर्जनों लीमर प्रजातियां फली-फूलीं।
भारत में लोरिस पाए जाते हैं, जो लीमर के निकटतम सम्बंधी हैं। ये शर्मीले, बड़ी और आकर्षक आंखों वाले निशाचर वनवासी हैं। माना जाता है कि ये भी समुद्री रास्ते से अफ्रीका से यहां की यात्रा में जीवित बच गए। सुस्त लोरिस ज़्यादातर पूर्वोत्तर राज्यों में पाए जाते हैं, और छरहरे लोरिस कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के सीमावर्ती क्षेत्र में पाए जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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भूमि पर तो परागण का काम मधुमक्खियां और पक्षी करते हैं। लेकिन समुद्र के अंदर परागण की यह महत्वपूर्ण क्रिया कौन सम्पन्न करता है? आम तौर पर समुद्र में पौधों में परागण जीवों की मदद के बगैर होता है। नर और मादा पौधे अपने शुक्राणु और अंडाणु पानी में छोड़ देते हैं और पानी की हिलोरों से अंडाणु और शुक्राणु संयोग से मिल जाते हैं।
अपवादस्वरूप, पूर्व में छोटे जलीय कृमि और क्रस्टेशियन को समुद्री घास के परागणकर्ता के रूप में पहचाना गया था। और अब एक नया परागणकर्ता मिला है: लाल शैवाल के बीच तैरने वाला लगभग 4 से.मी. लंबा क्रस्टेशियन जिसे आइसोपॉड कहते हैं। लाल शैवाल के शुक्राणु आइसोपॉड के शरीर पर चिपक जाते हैं। यह जब भोजन के लिए किसी अन्य पौधे पर जाता है तो निषेचन भी हो जाता है।
दरअसल फ्रांस की राष्ट्रीय शोध एजेंसी में मिरियम वेलेरो युरोप में लहरों के पानी से बने पोखरों में पनपने वाली लाल शैवाल ग्रेसिलेरिया ग्रैसिलिस की आनुवंशिकी का अध्ययन कर रही हैं। ग्रेसिलेरिया में मादा शैवाल अपने अंडाणु पानी में नहीं छोड़ती, बल्कि उन्हें कीप के आकार के तंतुओं के अंदर रखती है। और नर शुक्राणु किसी तरह उन तक पहुंचते हैं जबकि शुक्राणुओं में तैरने में सहायक पूंछ भी नहीं पाई जाती।
वेलेरो ने देखा कि शैवाल पर अक्सर आइसोपोड्स (इडोटिया बाल्थिका) रेंगते रहते हैं। उनका अनुमान था कि ये ही लाल शैवाल का परागण करते होंगे। सूक्ष्मदर्शी से देखने पर आइसोपॉड के शरीर पर शुक्राणु चिपके भी दिखे।
अपने अनुमान की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने अपरागित मादा शैवाल लीं और इन्हें पानी से भरी टंकियों में नर शैवाल के साथ रखा। फिर कुछ टंकियों में आइसोपॉड छोड़े। पाया गया कि आइसोपॉड्स वाले लाल शैवाल प्रजनन में लगभग 20 गुना अधिक सफल रहे। ये नतीजे साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।
वेलेरो का अनुमान है कि इससे दोनों को ही लाभ पहुंचता होगा। अधिकांश इडोटिया रंग में लाल शैवाल जैसे होते हैं। तो आइसोपोड्स को शिकारियों से छिपने में मदद मिलती होगी। दूसरी ओर आइसोपॉड्स शैवाल पर उगने वाले एक-कोशिकीय शैवाल को खाते हैं। देखा गया है कि आइसोपॉड्स द्वारा ऐसे एक-कोशिकीय शैवाल के भक्षण से लाल शैवाल स्वच्छ रहती है और तेज़ी से वृद्धि करती है।
लेकिन सवाल है कि समुद्र में जीवों द्वारा परागण इतना दुर्लभ क्यों है? संभवत: यह पानी की भौतिकी के कारण है – पानी हवा से बहुत अधिक सघन है। ज़ाहिर है, मकरंद से जो ऊर्जा मिलेगी, वह एक फूल से दूसरे फूल तक यात्रा करने में लगने वाली ऊर्जा से अधिक नहीं होगी।
अन्य शोधकर्ता चेताते हैं कि उक्त अध्ययन सिर्फ यह बताता है कि आइसोपोड प्रयोगशाला में शैवाल को परागित कर सकते हैं; इससे यह नहीं कहा जा सकता कि प्रकृति में भी वे इसे इतनी ही कुशलता से कर पाते हैं। हो सकता है शैवाल के शुक्राणु को फैलाने में लहरें ही अधिक प्रभावी हों। (स्रोत फीचर्स)
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मधुमक्खियों के डंक से बचने के लिए हम कई बार उन्हें मारने-भगाने की कोशिश करते हैं। लेकिन क्या ऐसा करने पर उनको दर्द महसूस होता है? जब हमारे शरीर पर कहीं चोट लगती है तो शरीर की तंत्रिका कोशिकाएं हमारे मस्तिष्क को संदेश भेजती हैं जिससे हमारा मस्तिष्क हमें दर्द का एहसास कराता है। कीटों में इस तरह का कोई जटिल तंत्र नहीं है जिससे उनको दर्द का एहसास हो सके। लेकिन एक हालिया अध्ययन से मधुमक्खियों और अन्य कीटों में भावनाओं के प्रति चेतना के साक्ष्य मिले हैं।
पूर्व में किए गए अध्ययन बताते हैं कि मधुमक्खियां और भौंरे काफी बुद्धिमान एवं चतुर प्राणी हैं। वे शून्य की अवधारणा को समझते हैं, सरल हिसाब-किताब कर सकते हैं और अलग-अलग मनुष्यों (और शायद मधुमक्खियों) के बीच अंतर भी कर सकते हैं।
ये प्राणी भोजन की तलाश के मामले में आम तौर पर काफी आशावादी होते हैं लेकिन किसी शिकारी मकड़ी के जाल में ज़रा भी फंसने पर ये परेशान हो जाते हैं। यहां तक कि बच निकलने के बाद भी कई दिनों तक उनका व्यवहार बदला-बदला रहता है और वे फूलों के पास जाने से डरते हैं। क्वींस मैरी युनिवर्सिटी के वैज्ञानिक और इस अध्ययन के प्रमुख लार्स चिटका के अनुसार मधुमक्खियां भी भावनात्मक अवस्था का अनुभव करती हैं।
मधुमक्खियों में दर्द संवेदना का पता लगाने के लिए चिटका ने जाना-माना तरीका अपनाया – लाभ-हानि के बीच संतुलन का तरीका। जैसे दांतों को लंबे समय तक स्वस्थ रखने के लिए लोग दंत चिकित्सक की ड्रिल के दर्द को सहन करने को तैयार हो जाते हैं। इसी तरह हर्मिट केंकड़े बिजली के ज़ोरदार झटकों से बचने के लिए अपनी पसंदीदा खोल को त्याग देते हैं लेकिन तभी जब झटका ज़ोरदार हो।
इसी तरीके को आधार बनाकर चिटका और उनके सहयोगियों ने 41 भवरों (बॉम्बस टेरेस्ट्रिस) को 40 प्रतिशत चीनी के घोल वाले दो फीडर और कम चीनी वाले दो फीडर का विकल्प दिया। इसके बाद शोधकर्ताओं ने इन फीडरों को गुलाबी और पीले हीटिंग पैड पर रखा। शुरुआत में तो सभी हीटिंग पैड्स को सामान्य तापमान पर रखा गया और मधुमक्खियों को अपना पसंदीदा फीडर चुनने का मौका दिया गया। अपेक्षा के अनुरूप सभी मधुमक्खियों ने अधिक चीनी वाले फीडर को चुना।
इसके बाद वैज्ञानिकों ने अधिक चीनी वाले फीडरों के नीचे वाले पीले पैड्स को 55 डिग्री सेल्सियस तक गर्म किया जबकि गुलाबी पैड्स को सामान्य तापमान पर ही रखा। यानी पीले पैड्स पर उतरना किसी गर्म तवे को छूने जैसा था लेकिन इसके बदले अधिक मीठा शरबत भी मिल रहा था। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जब चीनी से भरपूर गर्म फीडर और कम चीनी वाले ठंडे फीडरों के बीच विकल्प दिया गया तो मधुमक्खियों ने गर्म और अधिक मात्रा में चीनी वाले फीडर को ही चुना।
चीनी की मात्रा बढ़ा दिए जाने पर मधुमक्खियां और अधिक दर्द सहने को तैयार थीं। इससे लगता है कि अधिक चीनी उनके लिए एक बड़ा प्रलोभन था। फिर जब वैज्ञानिकों ने गर्म और ठंडे दोनों पैड्स वाले फीडरों में समान मात्रा में चीनी वाला शरबत रखा तो मधुमक्खियों ने पीले पैड्स पर जाने से परहेज़ किया, जिसके गर्म होने की आशंका थी। इससे स्पष्ट होता है कि वे पूर्व अनुभवों को याद रखती हैं और उनके आधार पर निर्णय भी करती हैं।
अध्ययन दर्शाता है कि क्रस्टेशियंस के अलावा कीटों और मकड़ियों में भी इस तरह की संवेदना होती है। इस अध्ययन को मानव उपभोग के लिए कीटों की खेती में बढ़ती रुचि और शोध अध्ययनों में कीटों की खैरियत के मामले में काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि मधुमक्खियां भी वैसा ही दर्द महसूस करती हैं जैसा मनुष्य करते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार यह अध्ययन इस क्षमता का कोई औपचारिक प्रमाण प्रदान नहीं करता है। दरअसल, कीटों में दर्द संवेदना का पता लगाना थोड़ा मुश्किल काम है। पूर्व में हुए अध्ययन फल मक्खियों के तंत्रिका तंत्र में जीर्ण दर्द के अनुभव के संकेत देते हैं लेकिन कीटों में दर्द सम्बंधी तंत्रिका तंत्र होने को लेकर संदेह है।
कुल जीवों में से कम से कम 60 प्रतिशत कीट हैं। ऐसे में इन्हें अनदेखा करना उचित नहीं है। आधुनिक विज्ञान मूलत: मानव-केंद्रित है जो अकशेरुकी जीवों को अनदेखा करता आया है। उम्मीद है कि इस अध्ययन से रवैया बदलेगा। (स्रोत फीचर्स)
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नियततापी (एंडोथर्म) जीव उन्हें कहते हैं जो अपने शरीर का तापमान आंतरिक प्रक्रियाओं के द्वारा नियंत्रित करते हैं। यह स्तनधारियों, पक्षियों के अलावा कुछ विलुप्त डायनासौर की खासियत है। इस तरह तापमान का नियमन करने के लिए उन्हें अधिक ऊर्जा लगती है, लेकिन यह विशेषता उन्हें जाड़ों और रात के समय भी सक्रिय रहने में मदद करती है। इसके विपरीत, एक्सोथर्मिक (बाह्यतापीय) जीव ऐसा नहीं कर सकते; इनके शरीर का तापमान वातावरण के तापमान के अनुसार बदलता रहता है। जीवाश्म विज्ञानी इस बात से तो सहमत हैं कि प्रारंभिक कशेरुकी जीव बाह्यतापीय थे। लेकिन संशय इस बात पर है कि जीवों में तापमान नियमन की क्षमता कब विकसित हुई।
आम तौर पर देखा गया है कि नियततापी जीवों में हड्डियां तेज़ी से बढ़ती हैं और उनके शरीर पर बाल या पिच्छ (फेदर) पाए जाते हैं। इसलिए नियततापिता का निर्धारण करने के लिए जीव वैज्ञानिक इन्हीं गुणधर्मों का अध्ययन करते आए हैं। लेकिन ये गुणधर्म नियततापिता के सटीक संकेतक नहीं हैं और संभवत: इनका प्रादुर्भाव अन्य कारणों से हुआ था।
अब शोधकर्ताओं के एक दल ने इसी काम के लिए एक सर्वथा नई विधि का उपयोग किया है। यह है आंतरिक कान में पाई जाने वाली अर्धवृत्ताकार नलिकाएं (सेमीसर्कुलर कैनाल्स)। ये तीन नलिकाएं होती हैं जो जीव को अपनी स्थिति भांपने तथा संतुलन बनाए रखने में मदद करती हैं। जीवाश्म वैज्ञानिक इनकी मदद से प्राचीन जीवों में विचरण के पैटर्न का अनुमान लगाते आए हैं।
नेशनल म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री के जीवाश्म विज्ञानी रोमन डेविड के दल ने इनकी मदद से नियततापिता के निर्धारण का प्रयास किया है। जीवाश्म नमूनों के अध्ययन के दौरान डेविड का ध्यान अर्धवृत्ताकार नलिकाओं की साइज़ और संरचना में विविधता पर पड़ा। खास तौर से उनका ध्यान इस बात पर गया कि शरीर के आकार के हिसाब से अन्य कशेरुकियों की तुलना में स्तनधारियों की अर्धवृत्ताकार नलिकाएं छोटी होती हैं। जैसे, व्हेल (एक स्तनधारी) आकार में व्हेल-शार्क (एक मछली) से बड़ी होती है लेकिन अर्धवृत्ताकार नलिकाओं के मामले में व्हेल-शार्क बाज़ी मार लेती है। दरअसल जीव जगत में सबसे बड़ी अर्धवृत्ताकार नलिकाएं व्हेल-शार्क की होती हैं।
इसके अलावा उनका ध्यान नलिकाओं के अंदर भरे तरल (एंडोलिम्फ) पर भी गया। एंडोलिम्फ का गाढ़ापन तापमान के साथ बदलता है। जैसे तेल गरम होने पर पतला और ठंडा होने पर गाढ़ा हो जाता है। डेविड का अनुमान था कि एंडोलिम्फ के गाढ़ेपन और अर्धवृत्ताकार नलिका के आकार के बीच कोई सम्बंध है, और दोनों नियततापिता का संकेत दे सकते हैं।
इस परिकल्पना को जांचने के लिए डेविड और उनकी टीम ने अल्पाका, टर्की और छिपकली समेत 277 जीवित प्रजातियों की कान की अर्धवृत्ताकार नलिकाओं का अध्ययन किया। देखा गया कि नियततापी जीवों का एंडोलिम्फ पतला था और उनकी अर्धवृत्ताकार नलिकाएं छोटी और पतली थी। दूसरी ओर, बाह्यतापीय जीवों का एंडोलिम्फ गाढ़ा था और अर्धवृत्ताकार नलिकाएं बड़ी और मोटी थी।
नियततापिता कब विकसित हुई यह जानने के लिए उन्होंने इस जानकारी को जीवाश्मित नमूनों पर लागू किया। चूंकि ये नलिकाएं नरम ऊतकों से बनी होती हैं, इसलिए अक्सर ये जीवाश्मित नहीं हो पाती; लेकिन ये जिस खोखली हड्डी के अंदर होती हैं वे जीवाश्मित हो जाती हैं। और इन खोखली हड्डियों की मदद से नलिकाओं के आकार-आकृति का अनुमान लगाया जा सकता है। शोधकर्ताओं ने 64 विलुप्त प्रजातियों की जांच की। इनमें स्तनधारी, 23 करोड़ वर्ष पूर्व के स्तनधारी-समान पूर्वज और उसके भी पूर्व के गैर-स्तनधारी पूर्वज शामिल थे।
नेचर में प्रकाशित नतीजों के अनुसार ट्राएसिक काल के अंत में, लगभग 23 करोड़ वर्ष पूर्व, छोटी और पतली अर्धवृत्ताकार नलिकाओं वाले जीव अस्तित्व में आए थे, इसी समय गैर-स्तनधारी पूर्वज से स्तनधारी-समान पूर्वज विकसित हुए थे। और यह परिवर्तन अपेक्षाकृत रूप से अचानक, 10 लाख से भी कम वर्षों में, हुआ था। अर्थात यदि छोटी व पतली अर्धवृत्ताकार नलिकाओं को नियततापिता का लक्षण माना जाए तो यह सबसे पहले स्तनधारी जीवों में लगभग 23 करोड़ वर्ष नज़र आई होगी। यह पूर्व में लगाए गए अनुमान से 2 करोड़ वर्ष बाद का समय है। वैसे एक बात पर ध्यान देना ज़रूरी है – यह नहीं कहा जा रहा है कि अर्धवृत्ताकार नलिकाएं नियततापिता या तापमान नियंत्रण में कोई भूमिका निभाती हैं। आशय सिर्फ यह है कि ये पतली-छोटी नलिकाएं और नियततापिता साथ-साथ प्रकट होते हैं और छोटी नलिकाओं को नियततापी जीवों का द्योतक माना जा सकता है।
अन्य शोधकर्ताओं के मुताबिक क्रमिक विकास की बजाय ऐसे अचानक परिवर्तन की बात को साबित करने के लिए अधिक अध्ययन की आवश्यकता है। बहरहाल नियततापिता के भावी अध्ययनों में अर्धवृत्ताकर नलिका का अध्ययन महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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यहवैसे ही दुख की बात है कि आने वाले समय में पृथ्वी से हर वर्ष हज़ारों प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी। लेकिन उससे भी ज़्यादा दुख की बात है कि हाल ही में किए गए दो स्वतंत्र अध्ययनों से पता चला है कि विलुप्ति का सबसे अधिक खतरा उन पक्षियों पर है जो अपने पारिस्थितिकी तंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जिनका स्थान शायद कोई और नहीं ले सकता।
एक अध्ययन के मुताबिक आकर्षक चोंच वाले टूकन पक्षी दक्षिण अमेरिका के वर्षा वनों में उन बड़े-बड़े बीजों और फलों को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जो अन्य पक्षियों के लिए संभव नहीं है। दुर्भाग्यवश, टूकन के साथ-साथ गिद्ध, आईबेसिस और अन्य अनोखी प्रजातियों की विलुप्ति की आशंका सबसे अधिक है। ऐसा हुआ तो आबादियां अधिक एकरूप होने लगेंगी।
एक अन्य अध्ययन का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन के कारण कई प्रजातियां ठंडे क्षेत्रों की ओर प्रवास करेंगी जिसके चलते एक जैसी प्रजातियों की संख्या में वृद्धि होने की संभावना बढ़ सकती है। युनिवर्सिटी ऑफ मोंटाना के पारिस्थितिकीविद जेडेडिया ब्रॉडी इस संकट के लिए मानव क्रियाकलापों को ज़िम्मेदार मानते हैं।
प्रत्येक पारिस्थितिकी तंत्र विभिन्न भूमिकाएं निभाने वाले अनेकों जीवों पर निर्भर होता है। पक्षियों का उदाहरण लिया जाए तो हम देखेंगे कि कुछ पक्षी बीजों को फैलाने में मददगार होते हैं तो कुछ मृत जीवों को खाकर पुनर्चक्रण में सहायक होते हैं। पक्षियों में लंबी और नुकीली चोंच, लंबे पैर आदि विशेषताएं विभिन्न प्रकार की भूमिकाओं को अंजाम देने में सहायक होती हैं। ऐसे में एक पारिस्थितिकी तंत्र में यदि एक ही तरह की प्रजातियां हों तो वे विभिन्न भूमिकाओं को अंजाम नहीं दे पाएंगी।
कुछ पक्षियों में प्रमुख विशेषताओं के गायब होने का पता लगाने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ शेफील्ड की एमा ह्यूजेस ने कई वर्षों तक लगभग 8500 पक्षियों की चोंच के आकार, निचले पंजों और पंख की लंबाई, और संग्रहालय में रखे शरीर के नमूनों के आकार का मापन किया और प्रजातियों के बीच समानताओं और अंतरों को समझने के लिए सांख्यिकी तकनीकों का उपयोग किया। इस अध्ययन में सॉन्गबर्ड जैसे पक्षी आकार के आधार पर एक ही समूह में आ गए। दूसरी ओर एल्बेट्रास जैसे विशाल पक्षी, छोटे हमिंगबर्ड और आईबेसिस अपनी लंबी गर्दन तथा घुमावदार चोंच के चलते थोड़े अलग से दिखे।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने उन प्रजातियों को अपनी सूची में से अलग किया जिनके विलुप्त होने की संभावना इंटरनेशनल युनियन फॉर कंज़रवेशन की रेड लिस्ट के अनुसार ज़्यादा थी। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सबसे जोखिमग्रस्त प्रजातियां वे हैं जो शरीर के आकार और पारिस्थितिकी भूमिका में अनोखी हैं। जब शोधकर्ताओं ने सबसे अधिक से सबसे कम जोखिमग्रस्त प्रजातियों को सूचीबद्ध करना शुरू किया तो सबसे पहले टूकन, हॉर्नबिल, हमिंगबर्ड और अन्य अनोखी प्रजातियां बाहर हुईं जबकि एक जैसे पक्षी (फिंचेस, स्टारलिंग्स वगैरह) लिस्ट में बने रहे।
इस संदर्भ में कौन-से क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित होंगे, इसका पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने 14 प्रमुख प्राकृतवासों या बायोम (जैसे उष्णकटिबंधीय क्षेत्र) में रहने वाले पक्षियों का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि प्रजातियों का एकरूपीकरण 14 में से 12 क्षेत्रों को प्रभावित करेगा और इसका सबसे अधिक प्रभाव जलमग्न घास के मैदानों और उष्णकटिबंधीय जंगलों में होगा। सबसे अधिक संकटग्रस्त क्षेत्रों में वियतनाम, कंबोडिया और हिमालय की तराई के साथ-साथ हवाई जैसे द्वीप भी शामिल हैं। ब्रॉडी के अनुसार कुछ मामलों में इन प्रजातियों द्वारा निभाई जाने वाली अद्वितीय पारिस्थितिक भूमिकाओं को निभाने में सक्षम कोई और नहीं है।
सेन्केनबर्ग बायोडाइवर्सिटी एंड क्लाइमेट रिसर्च सेंटर की पारिस्थितिकीविद एल्के वोस्केम्प द्वारा किए गए एक अन्य अध्ययन में एकरूपीकरण के एक और चालक की पहचान की गई है: जलवायु परिवर्तन के कारण पक्षियों के इलाकों में परिवर्तन। वोस्केम्प और उनकी टीम ने 9882 पक्षियों के वर्तमान इलाकों का पता लगाया। इसके बाद उन्होंने जलवायु मॉडल का उपयोग करते हुए यह अनुमान लगाया कि वर्ष 2080 तक इन प्रजातियों का मुख्य आवास कहां होगा। अंत में टीम ने यह पता लगाया कि यह परिवर्तित वितरण पक्षियों के समुदायों को कैसे बदलेगा।
जैसा कि शोधकताओं का अनुमान था, उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्र में सबसे अधिक प्रजातियों के गायब होने की संभावना है – वे या तो विलुप्त हो जाएंगी या अन्य इलाकों में चली जाएंगी। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी बी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इन इलाकों में कुछ बाहरी पक्षियों का आगमन भी अवश्य होगा लेकिन अधिक संभावना यही है कि अधिकांश पक्षी निकटता से सम्बंधित होंगे और उनमें उस इलाके में रहने के लिए ज़रूरी गुण पाए जाएंगे।
उत्तरी अमेरिका और युरेशिया में पक्षी प्रजातियों में वृद्धि होगी क्योंकि पक्षी गर्म से ठंडे इलाकों की तरफ प्रवास करेंगे। लेकिन इन इलाकों में भी नए पक्षी मौजूदा प्रजातियों से निकटता से सम्बंधित होंगे।
उपरोक्त दोनों ही अध्ययन संकेत देते हैं कि विश्व में पक्षियों में एकरूपता आएगी जो पारिस्थितिकी तंत्र के लिए एक बड़ा झटका होगा। पूर्व में किए गए कुछ अध्ययनों से यह भी पता चला है ऐसा समरूपीकरण उभयचरों और स्तनधारियों में भी हो रहा है। (स्रोत फीचर्स)
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किसी को इस बात का बिलकुल भी अंदाजा नहीं था कि कैलिफोर्निया में कपास के खेतों को माहू (एफिड्स) के हमले से बचाने का एक प्रयास स्वजातिभक्षण विस्फोट का रूप ले लेगा। दरअसल हरे रंग के भुक्खड़ छोटे माहू पौधों से रस चूसकर उन पर फफूंदयुक्त अपशिष्ट और घातक विषाणु छोड़ जाते हैं। इससे फसल तबाह हो जाती है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के कीट विज्ञानी जे रोसेनहाइम की टीम ने कपास की फसल को इनके प्रकोप से बचाने के लिए उन पर स्थानीय माहू छोड़े जिन्हें बिग आइड एफिड्स कहते हैं।
कुछ समय के लिए तो सब ठीक-ठाक चला, हरे माहू पर नियंत्रण भी हुआ। लेकिन फिर, जैसे ही पौधों पर जगह कम पड़ने लगी तब कुछ अप्रत्याशित घटा: बिग आइड माहुओं ने हरे माहुओं पर हमला करना बंद कर दिया और एक-दूसरे का शिकार करने लगे, यहां तक कि वे अपने ही अंडों को भी खा गए।
इकॉलॉजी में प्रकाशित अपनी समीक्षा में शोधकर्ता बताते हैं कि जीव जगत में, एक-कोशिकीय अमीबा से लेकर सैलेमेण्डर तक में, स्वजाति भक्षण यानी अपने जैसे जीवों का भक्षण देखा जाता है। लेकिन यह इतना भी आम नहीं है; शोधकर्ताओं ने इसका कारण भी स्पष्ट किया है।
पहला तो स्वजाति भक्षण जोखिम भरा है। यदि किसी जानवर के पास पैने पंजे और दांत हैं, तो ज़ाहिर है कि उसके बंधुओं और साथियों के पास भी पैने पंजे और दांत होंगे। उदाहरण के लिए, मादा मेंटिस संभोग के दौरान अपने से छोटे कद-काठी के नर का सरकलम करने के लिए कुख्यात है, लेकिन कभी-कभी प्रतिस्पर्धा समान कद-काठी वाली अन्य मादा के साथ हो जाती है। जब एक मादा दूसरी की टांग को चबा डालती है तो दूसरी किसी भी तरह अपनी प्रतिद्वंद्वी मादा को मार डालती है।
रोगों की दृष्टि से भी स्वजाति भक्षण जोखिम पूर्ण लगता है। कई रोगजनक मेजबान विशिष्ट होते हैं, इसलिए यदि कोई स्वजाति भक्षी अपने किसी संक्रमित साथी को खाता है तो उस साथी का संक्रमण मिलने की भी संभावना होती है। कुछ मानव समुदायों या समूहों को इसके कारण मुश्किलों का सामना करना पड़ा है। इसका सबसे प्रसिद्ध उदाहरण है कुरु नामक दुर्लभ और घातक मस्तिष्क रोग का प्रसार। इसने 1950 के दशक में न्यू गिनी के फोर लोगों को तबाह कर दिया था। कुरु रोग समुदाय के एक अंत्येष्टि अनुष्ठान के माध्यम से पूरे फोर समुदाय में फैला था। इसमें मृतक का परिवार मृतक का मांस (मस्तिष्क सहित) पका कर खाते हैं। जब फोर समुदाय ने इस अनुष्ठान को बंद कर दिया तो उनमें कुरु का प्रसार रुक गया था।
अंत में स्वजाति भक्षण किसी जीन को हस्तांतरित करने का सबसे बुरा तरीका है। जैव विकास के दृष्टिकोण से अंतिम चीज़ है अपनी संतान को खाना। यही एक कारण है कि बड़ी आंखों वाले एफिड अपनी संतानों को खाकर अपनी आबादी को सीमित रखते हैं। यदि वे संख्या में बहुत अधिक हो जाते हैं – जैसा कि एफिड प्रयोग के मामले में हुआ – तो सभी जगह उनके अंडे होते हैं। और चूंकि वे अपने अंडों को नहीं पहचान पाते तो वे स्वयं के अंडे भी खा जाते हैं।
हालांकि स्वजातिभक्षण कोई वांछनीय चीज़ नहीं है, लेकिन कुछ परिस्थितियां इस जोखिम पूर्ण व्यवहार को उपयुक्त बना देती हैं। यदि कोई जीव भूख से मरने वाला है तो अपने किसी सगे या वारिस को खाकर वह अपना अस्तित्व तो बचा ही रहा है। देखा गया है कि भूख कभी-कभी सैलेमेण्डर के लार्वा को अपने साथी को कुतरने या खाने के लिए उकसाती है।
अपनी समीक्षा में शोधकर्ता बताते हैं कि विशिष्ट हार्मोन – अकशेरुकियों में ऑक्टोपामाइन और कशेरुकी जीवों में एपिनेफ्रिन – स्वजाति भक्षण में वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार हैं। जैसे-जैसे प्रजाति की आबादी अधिक होने लगती है और भोजन मिलना मुश्किल हो जाता है तो इन हार्मोन की मात्रा बढ़ने लगती है। और भूख से त्रस्त जीव जो भी सामने आता है उसे झपटने लगते हैं।
अध्ययन यह भी बताता है कि कैसे कुछ परिस्थितियां कुछ युवा उभयचरों जैसे टाइगर सेलेमैण्डर और कुदाल जैसे पैर वाले मेंढक को महास्वजातिभक्षी बना देते हैं। जब किसी तालाब में बहुत सारे लार्वा होते हैं तो कुछ टैडपोल स्वजातिभक्षी रूप धारण कर लेते हैं। इनमें जबड़े बड़े हो जाते हैं और नकली दांत निकल आते हैं। इसी तरह का स्वजाति भक्षण घुन, मछली और यहां तक कि फल मक्खियों में भी पनपता है। फल मक्खियों में तो ऐसे जीव अपने साथियों की तुलना में 20 प्रतिशत अधिक दांतों से लैस हो जाते हैं।
अन्य जीव जैसे खूंखार केन टोड इसका विपरीत तरीका अपनाते हैं। यदि भूखे स्वजाति भक्षी केन टोड आसपास होते हैं तो अन्य टैडपोल का विकास तेज़ हो जाता है और वे इतने बड़े हो जाते हैं कि उन्हें निगलना असंभव हो जाता है।
रोसेनहाइम के मुताबिक स्वजाति भक्षण का परिणाम सकारात्मक होता है: इसके चलते कम संख्या वाली, स्वस्थ आबादी विकसित होती है। इसी कारण वे इसे बर्बर कहने से कतराते हैं। उनके मुताबिक मनुष्यों की बात हो तो अच्छी नहीं लगती लेकिन प्रकृति में संतुलन लाने में स्वजातिभक्षण का काफी योगदान है। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में वैज्ञानिकों ने नारंगी-काले पंखों वाली मोनार्क तितली की तेज़ी से घटती संख्या के मद्देनज़र संकटग्रस्त प्रजाति की सूची में डाल दिया है। अनुमान है कि उत्तरी अमेरिका में मोनार्क तितलियों की आबादी 10 वर्षों में 22-72 प्रतिशत के बीच घटी है।
अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ ने पहली बार प्रवासी मोनार्क तितली को संकटग्रस्त प्रजातियों की ‘रेड लिस्ट’ में शामिल किया है और यह ‘विलुप्ति’ से बस दो कदम दूर है।
मिशिगन स्टेट युनिवर्सिटी के संरक्षण जीवविज्ञानी निक हद्दाद कहते हैं कि इनकी गिरावट की दर चिंतनीय है। कल्पना की जा सकती है कि जल्द ही यह तितली और भी बुरी स्थिति में होगी। पूर्वी यू.एस.ए. की मोनार्क तितलियों पर किए गए अध्ययन के आधार पर हद्दाद का अनुमान है कि 1990 के दशक के बाद से तितलियों की आबादी में 85 से 95 प्रतिशत तक की गिरावट आई है।
ज्ञात कीट प्रजातियों में उत्तरी अमेरिका की मोनार्क तितलियां सबसे लंबा प्रवास करती हैं। मध्य मेक्सिको में जाड़ा बिताने के बाद ये तितलियां उत्तर की ओर प्रवास करती हैं। हज़ारों किलोमीटर लंबे सफर में ये कई पीढ़ियां पैदा करती हैं। दक्षिणी कनाडा पहुंचने वाली संतानें गर्मियों के अंत में वापस मैक्सिको की यात्रा शुरू कर देती हैं।
मोनार्क तितलियों का एक छोटा समूह तटीय कैलिफोर्निया में जाड़ा बिताता है, फिर वसंत और गर्मियों में रॉकी माउंटेन्स के पश्चिम में कई राज्यों में फैल जाता है। इस आबादी में पूर्वी मोनार्क की तुलना में और भी अधिक गिरावट देखी गई है। हालांकि पिछले जाड़ों में इनकी संख्या में थोड़ी वृद्धि दिखी थी।
मध्य और दक्षिण अमेरिका की गैर-प्रवासी मोनार्क तितलियों को लुप्तप्राय की श्रेणि में शामिल नहीं किया है।
पश्चिमी तितलियों की निगरानी करने वाली और गैर-मुनाफा संस्था ज़ेर्सेस सोसाइटी की एम्मा पेल्टन का कहना है कि तितलियां उनके घटते आवास स्थलों और खरपतवार-नाशकों व कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के कारण खतरे में हैं।
इन तितलियों की इल्लियां मिल्कवीड के पौधे पर पलती हैं। ऐसे पौधे लगाकर इन तितलियों को बचाया जा सकता है।
संयुक्त राज्य अमेरिका ने मोनार्क तितली को जोखिमग्रस्त प्रजाति अधिनियम के तहत अधिसूचित नहीं किया है, लेकिन कई पर्यावरण समूहों का मानना है कि इसे सूचीबद्ध किया जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
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यह तो सब जानते हैं कि कठफोड़वा ज़ोरदार प्रहार करके पेड़ों में कोटर बनाता है। इस प्रहार के दौरान उसका दिमाग महफूज़ कैसे रहता है?
लंबे समय से वैज्ञानिक मानते आए हैं कि पेड़ पर चोंच से प्रहार करते समय कठफोड़वा की खोपड़ी की स्पंजी हड्डी उसके मस्तिष्क की सुरक्षा करती है। इसी से प्रेरणा लेकर इंजीनियरों ने सुरक्षा हेलमेट और शॉक-एब्सॉर्बिंग इलेक्ट्रॉनिक उपकरण डिज़ाइन किए हैं। लेकिन हालिया विश्लेषण से पता चला है कि कठफोड़वा का ध्यान अपने मस्तिष्क की सुरक्षा के बजाय प्रहार की ताकत पर अधिक होता है।
चाहे भोजन की तलाश हो, पेड़ में घर बनाना हो या अपने साथियों को लुभाना, कठफोड़वा प्रति सेकंड लगभग 20 बार अपनी चोंच से प्रहार करता है। और फिर अपने रोज़मर्रा के काम पर निकल जाता है।
यदि फुटबॉल मैच के दौरान विपरीत दिशा से आ रहे दो प्रतिद्वंदी आपस में टकराते हैं, तो टक्कर के बाद शरीर और सिर तो स्थिर हो जाते हैं लेकिन मस्तिष्क आगे गति करता रहता है। सामने वाला भाग दबाव और पिछला भाग खिंचाव महसूस करता है जिसके कारण कभी-कभी मस्तिष्क को गंभीर क्षति पहुंचती है।
इस विषय में युनिवर्सिटी ऑफ एंटवर्प के बायोमेकेनिस्ट और इस अध्ययन के प्रमुख लेखक सैम वान वासेनबर्ग बताते हैं कि कठफोड़वा मानव मस्तिष्काघात सीमा से तीन गुना अधिक त्वरण से चोंच मारने के बावजूद बिना किसी नुकसान के बच निकलता है। इस लचीलेपन ने पूर्व में शोधकर्ताओं को पक्षियों की रक्षा करने वाली विशेष संरचना की खोज करने के लिए प्रेरित किया था। कुछ विशेषज्ञों का अनुमान था कि इसकी खोपड़ी की स्पंजी हड्डी एयरबैग के रूप में कार्य करती है जबकि कुछ अन्य के अनुसार इसकी लंबी जीभ मस्तिष्क के लिए सीटबेल्ट का काम करती है।
वैन वासेनबर्ग और उनके सहयोगियों ने एक नया तरीका अपनाया। उन्होंने चोंच मारने वाले पक्षियों में प्रशामक प्रभाव का पता लगाने का प्रयास किया। इसके लिए शोधकर्ताओं ने तीन प्रजातियों के छह कठफोड़वों के 109 हाई-स्पीड विडियो रिकॉर्ड किए। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार लकड़ी पर प्रहार करते कठफोड़वा की चोंच और सिर के विशेष बिंदुओं को ट्रैक करते हुए वैज्ञानिकों ने पाया कि कठफोड़वे की खोपड़ी सख्त बनी रही यानी उसका सिर चोंच की तुलना में जल्दी स्थिर नहीं हुआ।
रिकॉर्डिंग के आधार पर एक सिमुलेशन मॉडल भी तैयार किया गया। इस मॉडल में शॉक-एब्सॉर्बर जोड़ने के बाद एक बार फिर से परीक्षण किया गया जिससे यह स्पष्ट हुआ कि इन पक्षियों के मस्तिष्क की रक्षा करने में शॉक-एब्सार्बर की कोई भूमिका नहीं है। यदि सिर इस टकराव के प्रभाव को अवशोषित कर ले तो यह पक्षी इतना अधिक बल नहीं लगा पाएगा। यानी कठफोड़वा अपनी चोंच से कम गहराई तक लकड़ी खोद पाएगा। यानी शॉक एब्सॉर्बर हो तो उतनी ही लकड़ी खोदने के लिए उसे ज़्यादा ज़ोरदार प्रहार करना होगा। यह वैसा ही होगा जैसे दीवार पर कील ठोकना है और हथौड़े और कील के बीच तकिया रख दिया जाए।
लेकिन सवाल तो यह है कि कठफोड़वा खुद को चोट लगने से कैसे बचाता है? इस अध्ययन के लेखक के अनुसार मस्तिष्क का आकार और अभिविन्यास उसकी रक्षा करते हैं। यहां तक कि सबसे मज़बूत प्रहार भी उसके मस्तिष्क पर बहुत कम प्रभाव डालता है। इसके अलावा, संभवत: कठफोड़वा में मस्तिष्क को होने वाली मामूली क्षति को रोकने और मरम्मत करने के लिए विशेष प्रणालियां होती हैं।
अलबत्ता, कुछ वैज्ञानिकों ने अभी भी पक्षी के भीतर शॉक-एब्सार्बर के विचार को खारिज नहीं किया है। फिर भी यह अध्ययन काफी महत्वपूर्ण है जो कठफोड़वा को बेहतर ढंग से समझने में मदद कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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