जंतु बोलने लगे थे, जब कोई सुनने वाला न था

जीव जगत में बातूनी जीवों की बात करें तो मनुष्यों के अलावा तोता-मैना, डॉल्फिन का ख्याल उभरता है। कछुओं का ख्याल नहीं आता। लेकिन कछुए भी खट-खट, घुरघुराने और खिखियाने जैसी ध्वनि की मदद से संवाद करते हैं। और अब, कछुओं और अन्य शांत माने जाने वाले जानवरों की ‘आवाज़’ रिकॉर्ड करके वैज्ञानिकों ने पाया है कि भूमि पर विचरने वाले सभी कशेरुकी जीवों में आवाज़ विकसित होने का 40 करोड़ साल पुराना साझा इतिहास है।

ये नतीजे दर्शाते हैं कि जानवरों ने अपने विकास के दौरान बहुत पहले से ही आवाज़ निकालना शुरू कर दिया था – शायद तब से जब उनके कान ठीक तरह से विकसित भी नहीं हुए थे। और इससे लगता है कि कानों का विकास इन ध्वनियों को सुनने के लिए हुआ होगा।

कई साल पहले एरिज़ोना विश्वविद्यालय के वैकासिक पारिस्थितिकीविद जॉन वियन्स और उनके साथी झुओ चेन ने ध्वनि सम्बंधी (एकूस्टिक) संचार के विकास की शुरुआत पता करने का काम किया था – मूल रूप से उन ध्वनियों के बारे में जो जानवर फेफड़ों का उपयोग करके मुंह से निकालते हैं। वैज्ञानिक साहित्य खंगाल कर उन्होंने उस समय तक ज्ञात सभी ध्वनिक जानवरों का एक वंश वृक्ष तैयार किया था। उनका निष्कर्ष था कि इस तरह की ध्वनि निकालने की क्षमता कशेरुकी जीवों में 10 से 20 करोड़ वर्ष पूर्व कई बार स्वतंत्र रूप से उभरी थी।

लेकिन ज्यूरिख विश्वविद्यालय के वैकासिक जीवविज्ञानी गेब्रियल जोर्गेविच-कोहेन का ध्यान कछुए पर गया। हालांकि वियन्स और चेन ने पाया था कि कछुओं के 14 कुल में से केवल दो ही आवाज़ें निकालते हैं, लेकिन जोर्गेविच-कोहेन कछुओं के बारे में अधिक जानना चाह रहे थे। उन्होंने दो साल में 50 कछुआ प्रजातियों की ‘वाणि‌’ को रिकॉर्ड किया।

कछुओं की आवाज़ रिकॉर्ड करने के दौरान उन्हें तीन अन्य जीवों में भी ध्वनि के बारे में पता चला, जिनके बारे में माना जाता था कि वे आवाज़ नहीं निकालते: सिसीलियन नामक एक टांगविहीन उभयचर; तुआतारा नामक एक छिपकली जैसा सरीसृप; और लंगफिश, जिसे थलचर जानवरों का निकटतम जीवित रिश्तेदार माना जाता है।

53 कछुआ प्रजातियों में से मुट्ठी की साइज़ का दक्षिण अमेरिकी वुड कछुआ (राइनोक्लेमीस पंक्टुलेरिया) आवाज़ के लिहाज़ से सेलेब्रिटी साबित हुआ। इस कछुए ने 30 से अधिक आवाज़ें निकाली, जिसमें चरमराते दरवाज़े जैसी आवाज़ शामिल है जिसका उपयोग नर कछुए मादा को बुलाने/रिझाने के लिए करते हैं। सिर्फ युवा कछुओं में चीखने, रोने की आवाज़ें भी सुनी गईं। सामान्य तौर पर, कुछ ध्वनियां आक्रामक व्यवहार से सम्बंधित थीं (जैसे काटने की ध्वनि) जबकि अन्य ध्वनियां नए कछुओं (या जीवों) से मिलने पर अभिवादन जैसी प्रतीत हो रहा थीं। इनके साथ अक्सर सिर हिलाना भी देखा गया।

ध्वनि संचार पर मौजूदा डैटा में इस नए डैटा को जोड़ने पर लगभग 1800 प्रजातियों का एक व्यापक वैकासिक वृक्ष तैयार किया गया। नेचर कम्यूनिकेशंस में शोधकर्ता बताते हैं कि इस इस वैकासिक वृक्ष की प्रत्येक शाखा पर ऐसे जानवर मौजूद थे जो ध्वनियां निकालते थे। इससे लगता है कि ध्वनिक संचार तकरीबन 40 करोड़ साल पूर्व भूमि पर रहने वाले जानवरों और लंगफिश के साझा पूर्वज में सिर्फ एक बार विकसित हुआ था।

वैज्ञानिकों का कहना है कि यह काम मनुष्यों में संचार का विकास का पता लगाने में मदद कर सकता है। लेकिन ये निष्कर्ष बहस भी छेड़ सकते हैं। जैसे शोधकर्ताओं ने मान लिया है कि कई शांत प्रजातियों में सुनी गईं आवाज़ें अन्य जानवर सुनते हैं व उन पर प्रतिक्रिया देते हैं। लेकिन यह भी हो सकता है कि इन पर कोई ध्यान तक न देता हो।

शोधकर्ता इस दिशा में काम कर रहे हैं। वे रिकॉर्ड कर रहे हैं कि कैसे कछुए और अन्य शांत प्रजातियां इन ध्वनियों का उपयोग करती हैं। वे अन्य मछलियों की ध्वनियों के साथ भूमि पर पाए जाने वाले कशेरुकी जीवों और लंगफिश की आवाज़ की तुलना भी करना चाहते हैं और देखना चाहते हैं कि क्या ध्वनि विकास का वृक्ष और भी प्राचीन हो सकता है। क्या आवाज़ निकालने की हमारी क्षमता मछलियों के साथ साझा होती है? यदि हां, तो ध्वनिक संचार हमारे अनुमान से भी कहीं पहले विकसित हो गया होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adf4906/abs/_20221024_on_turtles.jpg

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