आखिर कब कम होगा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 

नगिनत जलवायु सम्मेलनों और चर्चाओं के बाद भी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन (greenhouse gas emission) निरंतर बढ़ रहा है। इस साल भी जीवाश्म ईंधन से होने वाला प्रदूषण (fossil fuel pollution) एक नया रिकॉर्ड बना सकता है। यह जानकारी ब्राज़ील के बेलेम शहर में आयोजित COP30 जलवायु सम्मेलन (COP30 climate summit) से मिली है। लेकिन इस बुरी खबर के बीच वैज्ञानिकों को कुछ सकारात्मक संकेत भी दिख रहे हैं। शायद दुनिया अब उस मोड़ के करीब है जहां उत्सर्जन चरम पर पहुंचकर नीचे आना शुरू हो सकता है।

ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट के अनुसार, जीवाश्म ईंधनों और सीमेंट उत्पादन से होने वाला कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन लगभग 1.1 प्रतिशत बढ़कर इस वर्ष 38.1 अरब टन पहुंचने की आशंका है जो अब तक का सबसे अधिक होगा (CO2 emission record)। अगर वनों की कटाई और भूमि-उपयोग में परिवर्तन में कमी को ध्यान में रखें, तो कुल वैश्विक उत्सर्जन पिछले साल जैसा ही रह सकता है या थोड़ा कम भी हो सकता है। लेकिन वैज्ञानिकों के अनुसार इस छोटे से बदलाव यह नहीं कहा जा सकता कि दुनिया सचमुच जीवाश्म ईंधनों से मुक्त होने की शुरुआत कर चुकी है।

पेरिस जलवायु समझौते (Paris Agreement) के लगभग दस साल बाद भी वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 2015 की तुलना में करीब 10 प्रतिशत ज़्यादा है। पिछले दो दशकों में अनेक विकसित देशों ने अपने उत्सर्जन कम किए हैं, लेकिन अधिकांश विकासशील देशों में प्रदूषण (developing countries emissions) लगातार बढ़ रहा है। भारत और चीन पर अक्सर सबसे ज़्यादा ध्यान जाता है क्योंकि उनकी आबादी अधिक है और अर्थव्यवस्था तेज़ी से बढ़ रही है। लेकिन सच यह है कि ऊर्जा की ज़रूरतों और आर्थिक विकास को पूरा करने की कोशिश में कई निम्न और मध्यम आय वाले देशों में भी उत्सर्जन बढ़ रहा है।

पिछले बीस वर्षों से चीन अकेले ही वैश्विक उत्सर्जन वृद्धि (China emissions)  का सबसे बड़ा कारण रहा है। दुनिया के कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का लगभग एक-तिहाई चीन से आता है। इसका मुख्य कारण है वहां स्थापित विशाल कोयला-आधारित बिजली संयंत्र, जिनमें 2023 में करीब 2.3 अरब टन कोयला जलाया गया।

इसके बावजूद, चीन दुनिया में सबसे तेज़ी से स्वच्छ ऊर्जा (clean energy transition)अपनाने वाले देशों में भी शामिल है। वह इलेक्ट्रिक वाहन, सोलर पैनल और पवन ऊर्जा उत्पादन में दुनिया का अग्रणी देश बन चुका है। चीन का संकल्प है कि वह 2035 तक अपने उत्सर्जन को अधिकतम स्तर से कम से कम 7 प्रतिशत घटाएगा। कई वैज्ञानिकों का मानना है कि जब चीन का उत्सर्जन चरम पर पहुंचकर कम होना शुरू होगा तब विश्व के कुल उत्सर्जन में भी गिरावट होगी।

कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि चीन में कार्बन उत्सर्जन पहले ही कम होना शुरू हो गया है (carbon reduction trend)। कार्बन मॉनीटर नामक संस्था के मुताबिक चीन का कार्बन उत्सर्जन 2024 में अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच चुका था, और इस साल यह लगभग 1.2 प्रतिशत कम हो सकता है। स्वच्छ ऊर्जा पर काम करने वाला समूह CREA भी इसी तरह के घटते रुझान की ओर इशारा करता है।

हालांकि, इस गिरावट का एक बड़ा कारण चीन के रियल-एस्टेट क्षेत्र में मंदी (real estate slowdown) है। मकान-बनाने की गति कम होने से स्टील और सीमेंट की मांग घट गई है और इन्हीं दोनों से बहुत बड़ी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन होता है।

फिर भी, कई शोधकर्ताओं का मानना है कि चीन का उत्सर्जन अपने चरम पर पहुंच चुका है, क्योंकि वहां स्वच्छ ऊर्जा बहुत तेज़ी से बढ़ रही है और चीन ने अपने जलवायु लक्ष्य (climate targets) भी तय किए हुए हैं। अब बड़ा सवाल यह है कि यदि कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन कम होना शुरू हो गया है, तो क्या अन्य ग्रीनहाउस गैसें — जैसे मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और अन्य औद्योगिक गैसें (methane emissions) — भी जल्द ही घटने लगेंगी?

अभी के लिए दुनिया का उत्सर्जन-ग्राफ ‘ऊपर चढ़ती’ हुई स्थिति में है। लेकिन उत्सर्जन में लंबे समय से जिस टर्निंग पॉइंट का इंतज़ार था उसके शुरूआती संकेत (global emission trends) दिखने लगे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://bsmedia.business-standard.com/_media/bs/img/article/2023-12/05/full/1701741101-698.jpg?im=FeatureCrop,size=(826,465)

ईरान में गहराता जल संकट

रान इस समय अपने इतिहास के सबसे गंभीर जल संकट (Iran water crisis) से गुज़र रहा है। हालात निरंतर खराब हो रहे हैं। तेहरान शहर की जल आपूर्ति वाले बांध लगभग खाली हो चुके हैं (water shortage) और सरकार देश के लिए पीने का पानी जुटाने के लिए जूझ रही है। लंबे सूखे, तेज़ गर्मी, कुप्रबंधन, बढ़ती आबादी, आर्थिक मुश्किलों, पुरानी कृषि प्रणालियों और जलवायु परिवर्तन (climate change) के मिले-जुले कारणों से देश बेहद कठिन स्थिति में पहुंच गया है।

गौरतलब है कि करीब 1 करोड़ आबादी वाले तेहरान की जल आपूर्ति पांच बड़े बांधों से होती है, लेकिन इन बांधों में अब अपनी सामान्य क्षमता से सिर्फ 10 प्रतिशत (dam depletion) पानी है। देश में 19 बांध सूखने की कगार पर हैं। करज जैसे भरोसेमंद जलाशय भी इतनी तेज़ी से सिकुड़ रहे हैं कि लोग यहां चहल-कदमी कर रहे हैं।

राष्ट्रपति मसूद पेज़ेश्कियन ने चेतावनी दी है कि अगर जल्द बारिश नहीं हुई, तो तेहरान में सख्त पानी राशन (water rationing) या सबसे बुरी स्थिति में कुछ इलाकों को खाली कराने तक की नौबत आ सकती है। विशेषज्ञ मानते हैं कि पूरा शहर खाली होना मुश्किल है, लेकिन यह चेतावनी हालात की गंभीरता दिखाती है।

ईरान पिछले छह वर्षों से लगातार सूखे (drought conditions) का सामना कर रहा है। पिछले साल गर्मियों का तापमान 50 डिग्री सेल्सियस से अधिक दर्ज किया गया था जिससे पानी तेज़ी से वाष्पित हुआ और पहले से कमज़ोर जल–प्रणालियों पर दबाव और बढ़ गया। पिछला जल-वर्ष सबसे सूखे वर्षों में से एक रिकॉर्ड किया गया था, और इस साल की स्थिति उससे भी खराब है। नवंबर की शुरुआत तक ईरान में सिर्फ 2.3 मि.मी.बारिश हुई – जो सामान्य औसत से 81 प्रतिशत कम है। बारिश और बर्फबारी न होने की वजह से बांध, नदियां और जलाशय तेज़ी से सिमट़ गए हैं।

जलवायु परिवर्तन और बढ़ती गर्मी इस संकट को और गंभीर बना रहे हैं, लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि इस स्थिति के लिए दशकों का खराब प्रबंधन (water mismanagement) भी उतना ही ज़िम्मेदार है। ईरान ने कृषि और उद्योग को बढ़ाने की कोशिश तो की, लेकिन पानी की सीमाओं को ध्यान में नहीं रखा। सरकार लगातार नए बांध बनाती रही, गहरे कुएं खोदती रही और दूर-दराज़ के इलाकों से पानी खींचती रही – जैसे पानी की आपूर्ति कभी खत्म ही नहीं होगी।

यू.एन. विश्वविद्यालय के कावेह मदानी कहते हैं कि ईरान ने दशकों तक ऐसे व्यवहार किया जैसे उसके पास पानी अनंत मात्रा (unlimited water myth) में हो। आज पानी ही नहीं, बल्कि ऊर्जा और गैस प्रणालियां भी दबाव में हैं, जो संसाधन प्रबंधन की व्यापक विफलता दिखाता है।

सरकार ने चेतावनी दी है कि जल्द ही रात में पानी की सप्लाई बंद की जा सकती है, या पूरे देश में पानी की सख्त राशनिंग हो सकती (national water cuts) है। कई लोगों ने गर्मियों में अचानक पानी बंद होने का सामना किया था, जिससे जनता की नाराज़गी बढ़ी है।

अब पानी की कमी कई जगह तनाव और विरोध (water protest) का कारण बन रही है, खासकर गरीब इलाकों में। लंबे समय से चल रहे प्रतिबंधों, बेरोज़गारी, महंगाई और आर्थिक संकट ने लोगों की हालत पहले ही कमज़ोर कर दी है, इसलिए वे नए मुश्किल हालात झेल नहीं पा रहे।

सरकार ने लोगों से पानी कम इस्तेमाल करने और घरों में पानी स्टोरेज टैंक लगाने की अपील की है। लेकिन इस उपाय में एक बड़ी समस्या है – घरेलू उपभोग कुल पानी का सिर्फ 8 प्रतिशत है, जबकि 90 प्रतिशत से ज़्यादा पानी कृषि (agriculture water use) में जाता है। इसलिए अगर हर घर 20 प्रतिशत पानी कम भी इस्तेमाल करे, तो भी कुल मिलाकर इसका असर बहुत कम होगा।

ईरान के कानून के अनुसार, देश का 85 प्रतिशत भोजन घरेलू स्तर पर ही उगाया (food security policy) जाना चाहिए। इसका उद्देश्य तो खाद्य सुरक्षा है, लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि इससे जल सुरक्षा पर भारी असर पड़ा है। ईरान के पास इतना पानी और उपजाऊ ज़मीन ही नहीं है कि वह इतनी बड़ी मात्रा में खेती जारी रख सके। उधर, भूजल को इतनी तेज़ी से उलीचा जा रहा है कि इस्फहान जैसे मध्य क्षेत्रों में जमीन धंसने (land subsidence) लगी है। सिस्तान और बलूचिस्तान जैसे इलाकों में तो पूरे के पूरे पारिस्थितिकी तंत्र ध्वस्त होने की कगार पर हैं।

ईरान में सुधार की राह में एक बड़ा रोड़ा अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध (international sanctions) हैं। इन प्रतिबंधों की वजह से विदेशी निवेश देश में नहीं आ पाता। असर यह है कि न तो आधुनिक जल प्रबंधन प्रणाली विकसित हो पाती है, न खेती की उन्नत तकनीकें अपनाई जा सकती हैं, और न ही असरदार पानी-रीसाइक्लिंग तकनीकें लगाई जा सकती हैं।

ग्रामीण इलाकों में ज़्यादातर लोग खेती पर निर्भर (rural agriculture dependence) हैं। प्रतिबंधों के चलते नए रोज़गार निर्मित करना मुश्किल है। इसी कारण सरकार कृषि क्षेत्र को पानी देती है। इससे लंबे समय में जल संकट बढ़ सकता है लेकिन सामाजिक अशांति और विरोध से बचने के लिए सरकार इसे अपना रही है।

विशेषज्ञों का मत है कि पानी के संकट से उबरने के लिए बड़े और लंबे समय के सुधार करने होंगे, जैसे:

  • भूजल का पुनर्भरण;
  • भूजल भंडार की मरम्मत;
  • पानी से जुड़ा स्पष्ट और पारदर्शी डैटा (water data transparency);
  • पानी, ऊर्जा व कृषि पर बराबर ध्यान देकर योजना बनाना;
  • स्थानीय समुदायों की भागीदारी;
  • लंबी अवधि वाली पर्यावरणीय नीतियां;
  • आधुनिक, कम पानी-खर्ची कृषि तकनीकें;
  • क्षेत्रों के बीच पानी के न्यायपूर्ण बंटवारे को प्राथमिकता।

यदि ये सुधार नहीं किए गए, तो पानी की कमी देश में सामाजिक व आर्थिक असमानता (water inequality) को और बढ़ा सकती है और अस्थिरता पैदा हो सकती है। असली सुधारों के लिए नीति-निर्माताओं को कठिन फैसले लेने की हिम्मत दिखाना होगा।

फिलहाल निगाहें सर्दियों की बारिश पर टिकी हैं। लेकिन विशेषज्ञ चेताते हैं कि चाहे बारिश अच्छी भी हो जाए, जब तक गंभीर सुधार नहीं किए जाते, ईरान को पानी की कमी का सामना करना पड़ेगा (water scarcity future)। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i.iranintl.com/images/rdk9umy0/production/2ca6107ef94a12b57b7951efd7096dcfbf622ecf-1200×799.jpg?rect=0,85,1200,630&w=1200&h=630&fit=max&auto=format

धरती की सीमाएं: लांघना नहीं था, हमने लांघ दिया

सीमा मुंडोली

में सुरक्षित क्या महसूस कराता है? भरोसेमंद दोस्तों और परिवार का साथ। एक ऐसा जाना-पहचाना माहौल (safe environment) जो हमें निश्चिंत रखता है और जहां हमारे द्वारा तय की गई सीमा रेखाओं/हदों का सम्मान (personal boundaries) होता है।

आखिरी बात हमारे एकमात्र घर (planet Earth) धरती के लिए भी सच है।

धरती पर जीवन लगभग 3.7 अरब साल पहले एक-कोशिकीय जीव के रूप में शुरू हुआ था। लेकिन हमें – होमो सेपियंस को – पृथ्वी पर अस्तित्व में आने में बहुत ज़्यादा समय लगा। हम महज़ 3,00,000 साल पहले ही अफ्रीका में विकसित हुए। उसके बाद मनुष्य अफ्रीका से निकलकर तमाम महाद्वीपों में फैल गए। हिमयुग के बाद, पिछले 12,000 साल – होलोसीन काल (Holocene epoch)– वह समय था जब खेती की शुरुआत, शहरों के बसने और तेज़ी से आबादी बढ़ने के साथ बड़े-बड़े बदलाव हुए। होलोसीन के दौरान स्थिर मौसम (stable climate) ने मनुष्य के जीवन और नैसर्गिक प्रणाली को फलने-फूलने में मदद की।

फिर औद्योगिक क्रांति आई, जिसमें जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल (industrial pollution) बढ़ा और प्रदूषण जैसे बुरे पर्यावरणीय असर भी हुए। एक बार जब हम औद्योगिकीकरण के रास्ते पर चल पड़े तो हमने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1970 के दशक तक, यह स्पष्ट होता गया था कि सालों की औद्योगिक गतिविधियों ने प्राकृतिक पर्यावरण को नुकसान (environmental degradation) पहुंचाया है – नदियां प्रदूषित हुई हैं, हवा ज़हरीली हुई है, जंगल कट गए हैं और समंदरों की हालत खराब हो गई है।

किंतु सवाल बना रहा: कितना नुकसान हद से ज़्यादा है?

2009 में, जोहान रॉकस्ट्रॉम ने अन्य वैज्ञानिकों के साथ मिलकर ग्रह पर मनुष्य के प्रभाव के पैमाने का अंदाज़ा लगाने के लिए प्लेनेटरी बाउंड्रीज़ (Planetary Boundaries) फ्रेमवर्क का प्रस्ताव रखा। उन्होंने नौ सीमा रेखाओं (प्लेनेटरी बाउंड्रीज़- environmental thresholds) की पहचान की, जिन्हें अगर लांघा गया तो पृथ्वी की कार्यप्रणाली डगमगा सकती है। हद में रहने से यह सुनिश्चित होगा कि हम एक सुरक्षित कामकाजी दायरे में रहेंगे। ये नौ सीमा रेखाएं हैं: जलवायु परिवर्तन, जैवमण्डल समग्रता, भू-प्रणाली परिवर्तन, मीठे पानी में बदलाव, जैव भू-रसायन चक्र, समुद्र अम्लीकरण, वायुमंडलीय एरोसोल (निलंबित कणीय पदार्थ) का भार, समतापमंडल में ओज़ोन क्षरण और नवीन कारक।

इनमें से हर सीमा के लिए वैज्ञानिकों ने एक या दो मात्रात्मक परिवर्ती मानक तय किए, जिनके आधार पर हम यह जांच सकते हैं कि पृथ्वी की वह प्रणाली क्या सुरक्षित सीमा के अंदर है। मसलन, जलवायु परिवर्तन की सीमा में परिवर्ती कारकों में से एक है कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता (CO2 concentration), जिसे पार्ट्स पर मिलियन (ppm) में मापा जाता है। इसकी सांद्रता की सीमा 350ppm तय की गई है। और कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता इससे अधिक होने या सीमा पार करने का मतलब है कि ग्रह की प्रणाली पर खतरा बहुत तेज़ी से बढ़ेगा।

जब 2009 में यह फ्रेमवर्क पहली बार पेश किया गया था, तब ग्रह की तीन हदों – जलवायु परिवर्तन, जैवमंडल समग्रता और भू-जैवरसायन चक्र – का उल्लंघन हो भी चुका था। यह एक चेतावनी थी कि ग्रह स्तर पर हम मुश्किल में थे। 2015 तक, भू-प्रणाली बदलाव का उल्लंघन हो चुका था। 2023 में दो और सीमाएं उल्लंघन की सूची में जुड़ गई थीं – नए कारक और मीठा पानी परिवर्तन (freshwater change)। और अब, सितंबर 2025 में हमने एक और सीमा को लांघ दिया है – समुद्र अम्लीकरण (तालिका देखें) (ocean acidification) ये सीमाएं 15 साल पूर्व पहली बार इस उम्मीद के साथ प्रस्तावित की गई थीं कि हमें यह समझने में मदद मिले कि मनुष्य की गतिविधियों का पृथ्वी पर क्या असर पड़ रहा है, और हमें तुरंत सुधार के लिए कदम उठाने का तकाज़ा मिले। तब से हम नौ में से सात सीमाओं का उल्लंघन कर चुके हैं।

इसका क्या मतलब है? सीधे शब्दों में: हमारी पृथ्वी अब स्वस्थ नहीं रही (planetary health)

फिलहाल वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता 423ppm है, जो 350ppm की सुरक्षित सीमा से बहुत अधिक है। नतीजतन पृथ्वी तेज़ी से गर्म हो रही है, बर्फ की चादरें पिघल रही हैं, समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है और तटवर्ती इलाके खतरे में हैं।

जैवमंडल समग्रता (biosphere integrity) सीमा भी बहुत ज़्यादा खतरे में है। सजीवों के विलुप्त होने की दर पहले से दस गुना अधिक है, और दुनिया भर के कई पारिस्थितिकी तंत्र बहुत ज़्यादा खतरे में हैं। संभव है कि हमारे द्वारा खोजे जाने से पहले ही कई प्रजातियां विलुप्त हो जाएं। अकेले 2024 में, पक्षियों की कई प्रजातियां (जैसे स्लेंडर-बिल्ड कर्ल्यू और ओउ), मछलियों की प्रजातियां (जैसे थ्रेसियन शैड और चीम व्हाइटफिश), और अकशेरुकी जीव (जैसे कैप्टन कुक्स बीन स्नेल) विलुप्त घोषित कर दिए गए। 2024 की लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 50 सालों में जंगली जानवरों की आबादी में 73 प्रतिशत की भारी गिरावट (biodiversity loss) आई है – इस मामले में समुद्री, थलीय और मीठे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र समान रूप से प्रभावित हैं। दुखद तथ्य यह है कि विलुप्ति निश्चित है और इसे पलटा नहीं जा सकता। विलुप्त होने से जेनेटिक विविधता खत्म हो जाती है और पारिस्थितिकी तंत्र बाधित होता है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र की कार्यात्मक क्षमता कम हो जाती है। कितना दुखद है कि हम उन प्रजातियों को फिर कभी नहीं देख पाएंगे जो कभी इस ग्रह पर हमारे साथ रहती थी।

हाल ही में समुद्र के अम्लीकरण की सीमा का उल्लंघन खास चिंता की बात है। समुद्र हमारे ग्रह के 70 प्रतिशत हिस्से पर मौजूद हैं, और कुल कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन का लगभग एक चौथाई हिस्सा सोख (carbon sink) लेते हैं। वे लंबे समय से हमारे लिए उत्सर्जन के सोख्ता की तरह काम करते रहे हैं। साथ ही ये अपने अंदर बहुत अधिक जैव विविधता को बनाए हुए हैं और लाखों लोगों को भोजन देते हैं। लेकिन जैसे-जैसे समुद्र ज़्यादा कार्बन डाईऑक्साइड सोखते हैं, वे अधिक अम्लीय होते जाते हैं। इससे कोरल का क्षरण (कोरल ब्लीचिंग) होता है – अनगिनत समुद्री प्रजातियों का प्राकृतवास खत्म (marine ecosystem decline) हो जाता है। और समुद्री जीवों के खोल और कंकाल कमज़ोर हो जाते हैं, जिससे उन्हें ‘ऑस्टियोपोरोसिस’ हो जाता है। समुद्र के अम्लीकरण की सीमा पार करने का मतलब है बड़े-बड़े बदलाव। ऐसी घटनाएं शुरू हो गई हैं जिनके असर का हम अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते।

हर लांघी गई सीमा अन्य स्थितियों/सीमाओं को और बदतर करती है, जिससे एक दुष्चक्र (vicious cycle) बनता है जो पृथ्वी को अस्थिरता के और करीब ले जाता है। हमें यह भी याद रखना होगा कि ग्रह की सीमा रेखाएं एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। जैसे भू-प्रणाली में परिवर्तन, जिसमें खेती या जानवर पालने के लिए जंगल कटाई से जैवविविधता की क्षति होगी और कार्बन का अवशोषण कम होगा, जिससे जलवायु परिवर्तन और तेज़ होगा (deforestation impact)। पानी में बढ़े हुए नाइट्रोजन और फॉस्फोरस के साथ बदले हुए भू-जैव-रासायनिक मृत क्षेत्र बनते हैं जो बदले में ताज़े पानी की उपलब्धता और जैवविविधता पर असर डालते हैं। हर सीमा दूसरी सीमा से जुड़ी है जिससे खतरा बढ़ जाता है।

ग्रहों की सीमा रेखाओं के उल्लंघन की विशिष्ट जवाबदेही तय नहीं हो पाई है, खासकर इसलिए क्योंकि पश्चिम के कुछ अमीर देशों के उपभोग ने ऐतिहासिक रूप से सीमाओं के उल्लंघन में अधिक योगदान दिया है – और यह जारी है। लेकिन ग्रह-स्तरीय सीमा की अवधारणा ने हमें पृथ्वी पर मनुष्य की गतिविधियों (human impact) के असर का वैज्ञानिक और मात्रात्मक तरीके से आकलन करने के लिए एक फ्रेमवर्क ज़रूर दिया है। हमें 2009 में ही सावधान हो जाना चाहिए था, जब सिर्फ तीन सीमाएं पार हुई थीं, और समझ जाना चाहिए था कि धरती पर मनुष्यों के क्रियाकलापों के कैसे-कैसे बुरे प्रभाव पड़ेंगे।

लेकिन तब हमने अनसुना-अनदेखा कर दिया। अधिकांश दुनिया वैसे ही काम करती रही, बीच-बीच में कुछ मामूली सुधार होते रहे। अब, 2025 में जब नौ में से सात सीमा रेखाएं पार हो चुकी हैं, तो हम सुरक्षित नहीं हैं (climate emergency)।

लेकिन सब कुछ खत्म नहीं हुआ है, अगर हम याद रखें कि हम इस मुश्किल में एक साथ हैं। उस तरह, जिस तरह हम लांघी गई एक सीमा रेखा – ओज़ोन परत के क्षरण (ozone depletion) – को पलटने के लिए एकजुट हुए थे। 1985 में वैज्ञानिकों ने बताया था कि रेफ्रिजरेटर, एयर कंडीशनर वगैरह में इस्तेमाल होने वाले रसायनों की वजह से ओज़ोन परत में छेद हो गया था। ओज़ोन परत में छेद का मतलब था कि अब हमारे पास सूरज की पराबैंगनी किरणों से कोई सुरक्षा नहीं थी, जिससे हम त्वचा कैंसर के शिकार हो सकते थे और कई पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में पड़ सकते थे। तब सरकारें मॉन्ट्रियल संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए साथ आईं (global cooperation), जिसमें ओज़ोन में छेद करने वाले रसायनों का इस्तेमाल धीरे-धीरे खत्म करने का वादा किया गया था। प्रयास सफल रहे।

यह सफलता हमें याद दिलाती है: अगर एक सीमा रेखा (planetary boundary) के उल्लंघन को पलट सकते हैं, तो हम ऐसा फिर से कर सकते हैं। हमारा – और पृथ्वी पर जीवित हर प्राणी का – भविष्य इस पर निर्भर करता है। (स्रोत फीचर्स)  

तालिका: ग्रह की नौ सीमा रेखाएं और उनकी स्थिति

सीमाव्याख्यास्थिति
जलवायु परिवर्तनजीवाश्म ईंधन जलाने से ग्रीनहाउस गैसों और एरोसोल का उत्सर्जन होता है, जिससे जलवायु गर्माती है। नतीजतन बर्फ की चादरें पिघलती हैं, समुद्र का स्तर बढ़ता है।उल्लंघन हो चुका
जैवमण्डल की समग्रता में परिवर्तनप्राकृतिक संसाधनों का दोहन, आक्रामक प्रजातियों का आना और ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव। इससे जेनेटिक विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत में गिरावट आती है।उल्लंघन हो चुका
भू-प्रणाली में परिवर्तनशहरीकरण, पशुपालन और खेती के लिए जंगल काटकर ज़मीन बनाना। इससे कार्बन सोखने की क्षमता और अन्य पारिस्थिकीय कार्यों में कमी आती है।उल्लंघन हो चुका
मीठे पानी में परिवर्तनखेती, उद्योगों और घरेलू इस्तेमाल के लिए पानी की बढ़ती खपत। ब्लू वॉटर (जैसे नदियां और झीलें) और ग्रीन वॉटर (मिट्टी की नमी) का खराब होना, कार्बन भंडारण और जैव विविधता पर असर डालता है।उल्लंघन हो चुका
भू-जैव-रसायन में परिवर्तनफॉस्फोरस व नाइट्रोजन वाले औद्योंगिक उर्वरकों के ज़्यादा इस्तेमाल से समुद्री और मीठे पानी तंत्र में मृत क्षेत्र बनते हैं।उल्लंघन हो चुका
समुद्र अम्लीकरणजीवाश्म ईंधन के जलने से कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है जिसे समुद्र सोख लेता है और अम्लीय हो जाता है। समुद्री जीवों के खोल को नुकसान होता है और पारिस्थितिकी तंत्र नष्ट हो जाता है।उल्लंघन हो चुका
नए कारकउद्योगों, खेती और उपभोक्ता सामान से निकलने वाले कृत्रिम रसायन प्राकृतिक चक्र को बाधित करते हैं। और मनुष्य और जैव विविधता को हमेशा की क्षति का खतरा पैदा करते हैं।उल्लंघन हो चुका
वायुमण्डलीय एरोसोल में बढ़ोतरीजीवाश्म ईंधन के जलने और औद्योगिक गतिविधियों से हवा में मौजूद कणीय पदार्थ बढ़ते हैं, जिससे मौसम के पैटर्न में बदलाव आता है, खासकर तापमान और बारिश में।सुरक्षित सीमा में
ओज़ोन में क्षरणसिंथेटिक क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFCs) और नाइट्रस ऑक्साइड के उत्पादन और उत्सर्जन से ओज़ोन परत पतली होती है और नुकसानदायक पराबैंगनी किरणें धरती तक पहुंचती हैं।सुरक्षित सीमा में

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.pik-potsdam.de/en/news/latest-news/earth-exceed-safe-limits-first-planetary-health-check-issues-red-alert/@@images/image.png

बदलता मौसम और ऊंचाइयों की ओर बढ़ते जंगल

रती के बदलते हालात का एक नया और चौंकाने वाला संकेत सामने आया है — दुनिया भर के जंगल अब धीरे-धीरे पहाड़ों पर ऊंचाइयों की ओर बढ़ रहे हैं। वैज्ञानिकों ने पहले ही अनुमान लगाया था कि जैसे-जैसे वैश्विक तापमान (global warming) बढ़ेगा, पेड़ ठंडे इलाकों की ओर खिसकेंगे। लेकिन अब साफ दिख रहा है कि यह परिवर्तन सिर्फ ध्रुवों की दिशा में नहीं, बल्कि पहाड़ों के ऊपरी हिस्सों की ओर (tree-line shift) भी हो रहा है।

बायोजियोसाइंसेज़ पत्रिका में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन में 1984 से 2017 तक के पश्चिमी कनाडा से लेकर पनामा तक 115 पर्वत-शिखरों के उपग्रह डैटा (satellite data) का विश्लेषण किया गया है। वैज्ञानिकों को आश्चर्य हुआ कि जंगलों का सबसे तेज़ ऊर्ध्वगामी (ऊपर की ओर) विस्तार ठंडे उत्तरी क्षेत्रों में नहीं, बल्कि मेक्सिको और मध्य अमेरिका के उष्णकटिबंधीय पहाड़ों में दिखा। यहां पेड़ों की ऊपरी सीमा, जिसे ट्री-लाइन कहा जाता है, हर साल कई मीटर ऊपर जा रही है।

यह खोज इस आम धारणा को चुनौती देती है कि वैश्विक ऊष्मीकरण (climate change impact) का असर सबसे ज़्यादा ध्रुवीय इलाकों में होता है। जबकि जैव विविधता और नाज़ुक पारिस्थितिक तंत्रों से भरपूर उष्णकटिबंधीय क्षेत्र अब इस परिवर्तन की सबसे तेज़ गति दिखा रहे हैं। हालांकि वैज्ञानिकों का कहना है कि हर बदलाव को सीधे जलवायु परिवर्तन से जोड़ना उचित नहीं है। अध्ययन में उन पहाड़ों को शामिल नहीं किया गया था जहां मानव गतिविधियां जैसे खेती, चराई या वृक्ष कटाई का असर था।

एक समस्या ट्री-लाइन की परिभाषा को लेकर है। कुछ वैज्ञानिक इसे तापमान आधारित सीमा (temperature threshold) मानते हैं यानी जहां तापमान 6 डिग्री सेल्सियस से नीचे जाने पर पेड़ नहीं उग पाते। वहीं, कुछ इसे भौतिक सीमा के रूप में देखते हैं यानी वह ऊंचाई जहां पेड़ों की वृद्धि रुक जाती है।

अब तक ज़्यादातर ऐसे अध्ययन उत्तरी अमेरिका और युरोप तक सीमित थे। उदाहरण के लिए, आल्प्स पर्वत में शोध से पता चला था कि औद्योगिक युग से अब तक तापमान में लगभग 3 डिग्री सेल्सियस वृद्धि के कारण ट्री-लाइन ऊपर खिसकी है। लेकिन दुनिया के अन्य हिस्सों में यह रुझान स्पष्ट नहीं था। इसी कारण मैक्सिको के वैज्ञानिक डैनियल जिमेनेज़-गार्सिया और टाउनसेंड पीटरसन ने 15 ज्वालामुखी पर्वतों पर पुन: अध्ययन किया और पाया कि वहां सिर्फ तीन दशकों में ट्री-लाइन लगभग 500 मीटर ऊपर चली गई है। यही खोज आगे चलकर पूरे अमेरिका महाद्वीप में व्यापक अध्ययन का आधार बनी।

इस अध्ययन के लिए वैज्ञानिकों ने लैंडसैट उपग्रहों (Landsat images) से प्राप्त 40 वर्षों की तस्वीरों का विश्लेषण किया। और तो और पीटरसन ने खुद घूम-घूमकर ट्री-लाइन की सीमाएं चिन्हित कीं। इस लंबी मेहनत से अब तक का सबसे व्यापक वैश्विक डैटा रिकॉर्ड तैयार हुआ।

विशेषज्ञ मानते हैं कि यह तरीका पूर्णत: त्रुटिहीन तो नहीं है, परंतु बड़े पैमाने के रुझान समझने में बेहद कारगर है। कुछ मामलों में तो पेड़ पुराने चारागाहों या छोड़े गए इलाकों पर फिर से लौट रहे हैं, पर कुल मिलाकर जंगलों के ऊपर बढ़ने का रुझान स्पष्ट और व्यापक (forest expansion) है।

एक सवाल है कि उष्णकटिबंधीय जंगल इतनी तेज़ी से ऊपर क्यों बढ़ रहे हैं? वैज्ञानिकों के अनुसार, इसका एक कारण पानी की उपलब्धता है। ध्रुवों के ऊंचे इलाके अपेक्षाकृत सूखे रहते हैं जबकि भूमध्य रेखा के आसपास ऊंचे पहाड़ी इलाके आम तौर पर अधिक वर्षा और नमी वाले होते हैं। इसलिए तापमान में थोड़ी-सी भी वृद्धि हो तो यहां पेड़ अधिक ऊंचाई तक जीवित रह पाते हैं।

अब शोधकर्ता 1870 के दशक की पुरानी तस्वीरों की तुलना आधुनिक उपग्रह चित्रों (historical vs modern images) से कर रहे हैं, ताकि पता चल सके कि यह बदलाव कितनी तेज़ी और कितनी दूर-दूर तक हुआ है। शुरुआती नतीजे दिखाते हैं कि पुराने और नए डैटा में समानता है यानी जंगलों का ऊपर की ओर बढ़ना लगातार तेज़ हो रहा है।

भविष्य में टीम की कोशिश है कि कृत्रिम बुद्धि की मदद से दुनिया भर में इन परिवर्तनों को स्वचालित रूप से पहचाना जा सके (AI monitoring)। यह बदलाव समझना बेहद ज़रूरी है, क्योंकि जैसे-जैसे जंगल ऊपर बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे पहाड़ों की ऊंचाइयों पर रहने वाले नाज़ुक और ठंड पसंद पौधों व अन्य जीवों के लिए जगह कम होती जा रही है, इकोसिस्टम बदल (ecosystem change) रही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/content/article/forests-are-migrating-mountain-peaks

दुनिया की सबसे महंगी बिल्ली-विष्ठा कॉफी का राज़

कोपी लुवाक (Kopi Luwak) नामक कॉफी (specialty coffee) का एक कप भी किसी आलीशान डिनर जितना महंगा हो सकता है। यह कॉफी अपने कड़क और अनोखे स्वाद के लिए जानी जाती है, जिसमें गिरियों, मिट्टी, चॉकलेट और कभी-कभी मछली की हल्की महक आती है (coffee flavor profile)।

इस कॉफी को स्वाद तब मिलता है जब एक एशियाई बिल्ली – पाम सिवेट (Paradoxurus hermaphroditus) – पकी हुई कॉफी बेरी (लाल गूदेदार फल) खाती है। सिवेट के पेट के एंज़ाइम इन बेरी (coffee cherry) की बाहरी परत को थोड़ा पचा देते हैं, लेकिन अंदर के बीज (बीन्स) साबुत ही रहते हैं। इन्हें सिवेट की विष्ठा से निकाल लिया जाता है, फिर उन्हें साफ करके भूना जाता है और इसी से बनती है कॉफी ‘कोपी लुवाक’।

इतनी लंबी श्रमसाध्य प्रक्रिया और इसकी कम उपलब्धता के कारण इसका एक प्याला जेब से 75 डॉलर (लगभग 6600 रुपए) खर्च करवाता (expensive coffee) है। लेकिन ऐसा स्वाद आता कैसे है?

यह पता लगाया है भारतीय वैज्ञानिकों की एक टीम ने। केरल स्थित सेंट्रल युनिवर्सिटी के प्राणी विज्ञानी पालट्टी अलेश सीनू और उनकी टीम ने कर्नाटक के कोडगु जिले में पाए जाने वाले जंगली सिवेट के मल से कॉफी बीन्स इकट्ठे किए और उनकी तुलना सीधे पौधों से तोड़े गए कॉफी बीन्स से की (wild civet coffee)।

गैस क्रोमैटोग्राफी-मास स्पेक्ट्रोमेट्री तकनीक (GC–MS analysis) का इस्तेमाल करके वैज्ञानिकों ने सिवेट के पाचन तंत्र से गुज़रे बीन्स में कैप्रिलिक एसिड और कैप्रिक एसिड की मात्रा सामान्य बीन्स की तुलना में कहीं अधिक पाई। ये वही फैटी एसिड हैं जो डेयरी उत्पादों को स्वादिष्ट बनाने के काम आते हैं। सिवेट के पेट में मौजूद ग्लूकोनोबैक्टर नामक बैक्टीरिया और एंज़ाइम इन यौगिकों को बनाते या बढ़ाते हैं, जिससे कॉफी के स्वाद और खुशबू में परिवर्तन आता है।

पूर्व में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि सिवेट के पाचन तंत्र से गुज़रे कॉफी बीन्स सामान्य बीन्स की तुलना में ज़्यादा भुरभुरे होते हैं, उनमें प्रोटीन की मात्रा कम लेकिन वसा की मात्रा अधिक होती है (coffee bean chemistry)। इसके अलावा, यह भी देखा गया कि जंगली सिवेट हमेशा पकी और बड़ी कॉफी बेरी ही चुनते हैं।

फिलहाल यह अध्ययन भारत में मौजूद रोबस्टा कॉफी पर किया गया था लेकिन वाणिज्यिक तौर पर कोपी लुवाक अधिकतर अरेबिका (Arabica coffee) से बनती है। इसलिए वैज्ञानिक इसे अरेबिका बीन्स पर दोहराने का सुझाव देते हैं। इसके साथ ही, वे यह भी समझना चाहते हैं कि भूनने की प्रक्रिया के दौरान ये फैटी एसिड कैसे बदलते हैं और अंतिम स्वाद को कैसे प्रभावित करते हैं।

बेशक यह कॉफी स्वादिष्ट है जिसके मंहगे दाम चुकाकर हम इसे पी सकते हैं, लेकिन इस स्वाद का खामियाजा सिवेट को चुकाना (animal cruelty) पड़ता है। बीन्स के लिए सिवेट को छोटे पिंजरों में बंद कर जबरन कॉफी बेरी खिलाई जाती हैं। उम्मीद है सिवेट के पेट में होने वाली पाचन और किण्वन प्रक्रिया को समझकर सिवेट को इस अत्याचार से बचाया जा सकेगा और हमें स्वाद भी मिलेगा (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/dam/m/43d6729d2e075d6/original/GettyImages-2208450062_resized.jpeg?m=1761598008.346

कौन कर रहा है अमेज़न को तबाह?

कुमार सिद्धार्थ

दुनिया के सबसे विशाल वर्षावन अमेज़न (Amazon rainforest)  पर खतरा अब कोई दूर की आशंका नहीं, बल्कि एक आसन्न सच्चाई है। वनों की अंधाधुंध कटाई (deforestation), तेल और गैस के खनन तथा जलवायु परिवर्तन ने इसे उस बिंदु तक पहुंचा रहे हैं, जहां से लौटना शायद संभव नहीं रहेगा। वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि अमेज़न अब ‘कार्बन सोखने वाले’ वन से ‘कार्बन छोड़ने वाले’ क्षेत्र (carbon emitter) में बदलने की कगार पर है।

ऐसे समय में एक नई रिपोर्ट ने अमेज़न के विनाश के लिए ज़िम्मेदार वित्तीय ढांचे (financial systems) को बेनकाब किया है। पर्यावरण संगठन ‘स्टैंड.अर्थ’ की रिपोर्ट ‘बैंक्स वर्सेस दी अमेज़न स्कोरकार्ड’ बताती है कि 2016 में पेरिस समझौते के बाद से अमेज़न क्षेत्र में तेल और गैस परियोजनाओं को मिलने वाले वित्त का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा सिर्फ दस बैंकों से आता रहा है। इनमें जेपी मॉर्गन चेज़, सिटी बैंक ऑफ अमेरिका, इताउ युनिबैंको (ब्राज़ील) और एचएसबीसी जैसे बड़े नाम शामिल हैं। इन बैंकों ने अमेज़न के भीतर जीवाश्म ईंधन से जुड़ी परियोजनाओं में 15 अरब डॉलर से अधिक झोंक दिए हैं (fossil fuel financing)।

युरोप पीछे हटा, अमेरिका आगे बढ़ा

पिछले कुछ वर्षों में युरोप के कई बैंकों ने अपने कदम पीछे खींचे हैं। फ्रांस का बीएनपी परिबा और ब्रिटेन का एचएसबीसी अब अमेज़न से जुड़ी कंपनियों को ऋण देना बंद कर चुके हैं (banking policy change)। उन्होंने ऐसी नीतियां अपनाई हैं जो अमेज़न में तेल और गैस खनन कंपनियों को वित्त नहीं देतीं।

लेकिन जहां युरोपीय बैंक पीछे हटे, वहीं अमेरिका और लैटिन अमेरिका के बैंक उस खाली जगह को भरने में लगे हैं। ब्राज़ील का इताउ युनिबैंको अब शीर्ष पर पहुंच गया है – पिछले 18 महीनों में उसने 37.8 करोड़ डॉलर की नई फंडिंग दी है। जेपी मॉर्गन चेज़ और बैंक ऑफ अमेरिका उससे थोड़ा पीछे हैं। इसी अवधि में पेरू के क्रेडिकॉर्प और कनाडा के स्कोटियाबैंक ने भी अपने निवेश को लगभग तीन गुना बढ़ा दिया है (Amazon oil projects)।

रिपोर्ट की प्रमुख शोधकर्ता डॉ. देवयानी सिंह का कहना है, “युरोपीय बैंकों ने अपेक्षाकृत सख्त नीतियां लागू की हैं, लेकिन कोई भी बैंक अब तक अपने वित्तपोषण को शून्य नहीं कर पाया है। हर बैंक को लूपहोल बंद करने होंगे और बिना देरी अमेज़न से बाहर निकलना होगा।”

तेल के धब्बे और बीमारियां

दी इकॉलॉजिस्ट में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, अमेज़न में तेल और गैस की खुदाई (oil drilling impact) सिर्फ पर्यावरण को ही नहीं, बल्कि स्थानीय जीवन को भी गहराई से प्रभावित कर रही है। ब्राज़ील, इक्वाडोर, पेरू और कोलंबिया में 6000 से अधिक तेल-संदूषित स्थल दर्ज किए गए हैं। खनन क्षेत्रों के आसपास रहने वाले समुदायों में कैंसर, गर्भपात व श्वसन रोगों के मामले लगातार बढ़ रहे हैं (health impact)।

इसके बावजूद, सरकारें पीछे हटने को तैयार नहीं। ब्राज़ील ने इस साल की शुरुआत में 68 नए तेल ब्लॉक की नीलामी की। इक्वाडोर में 2023 में यासुनी नेशनल पार्क में ड्रिलिंग रोकने के पक्ष में हुए जनमत-संग्रह के बाद भी काम जारी है। पेरू में 31 नए तेल ब्लॉक आवंटित किए गए हैं, जिनमें से कई 400 से अधिक देशज समुदायों की भूमि से ओवरलैप करते हैं।

अमेज़न की ओलीविया बिसा कहती हैं, “जब जंगल खुद संकट में है, तब बैंक ऑफ अमेरिका, स्कोटियाबैंक और इताउ जैसे बैंक इन परियोजनाओं को बढ़ावा दे रहे हैं। दशकों से हमारे देशज समुदाय इस विनाश का सबसे बड़ा भार उठा रहे हैं। अब समय आ गया है कि बैंक अमेज़न को तेल की लत से मुक्त करें।”

भ्रष्टाचार और चुप्पी

रिपोर्ट में बताया गया है कि 2024 से अब तक अमेज़न क्षेत्र में 2 अरब डॉलर से अधिक की नई फंडिंग केवल छह कंपनियों को मिली है – पेट्रोब्रास, एनेवा, गनवोर, ग्रैन टिएरा, प्लसपेट्रोल कैमिसेआ एवं हंट ऑयल पेरू। इन सभी पर भ्रष्टाचार (corruption cases), पर्यावरणीय क्षति और देशज अधिकारों के उल्लंघन के आरोप हैं।

ब्राज़ील की कंपनी एनेवा को हाल ही में संघीय अदालत ने अपनी गतिविधियां रोकने का आदेश दिया था क्योंकि उसने देशज समुदायों के अधिकारों और पर्यावरण कानूनों का उल्लंघन किया था। फिर भी, उसे इताउ यूनिबैंको, बैंको डो ब्रासिल, सैंटेंडर और अन्य बैंकों से वित्त पोषण मिलता रहा।

इसी तरह, स्विस कंपनी गनवोर को 2013 से 2020 के बीच इक्वाडोर में अधिकारियों को रिश्वत देकर तेल अनुबंध हासिल करने का दोषी पाया गया था, लेकिन इसके बावजूद उसे आईएनजी बैंक से वित्तीय सहायता मिलती रही (oil corruption scandal)। इससे यह साफ होता है कि आंशिक प्रतिबंध और ‘परियोजना-स्तर’ की नीतियां अक्सर औपचारिकता से ज़्यादा कुछ नहीं होतीं।

वित्तीय नीतियों की ज़िम्मेदारी

रिपोर्ट में सभी बैंकों से अपील की गई है कि वे 2030 तक अमेज़न में तेल और गैस परियोजनाओं के वित्तपोषण को पूरी तरह समाप्त करें (fossil finance exit) – चाहे वह ऋण के रूप में हो, बॉन्ड में निवेश के रूप में हो या परामर्श सेवाओं के रूप में। साथ ही, संयुक्त राष्ट्र की देशज लोगों के अधिकारों पर घोषणा (UNDRIP rights) के अनुरूप नीतियां अपनाने की सिफारिश की गई है।

अमेज़न वह सांस है जिससे पृथ्वी जीवित है। पर यदि यह सांस रुक गई, तो इसका असर पूरे ग्रह पर पड़ेगा। आने वाला दशक तय करेगा कि यह महान वन जीवित रहेगा या इतिहास बन जाएगा? यह सवाल सिर्फ सरकारों या पर्यावरणविदों के लिए नहीं, बल्कि उन बैंकों के लिए भी है जिनके धन से यह विनाश चल रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://gumlet.assettype.com/down-to-earth%2Fimport%2Flibrary%2Flarge%2F2022-11-17%2F0.19095600_1668668600_amazon.jpg?w=768&auto=format%2Ccompress&fit=max

क्या हम समय रहते हिमालय को बचा पाएंगे?

कविता भारद्वाज

यह लेख मूलत: रेवेलेटर एन्वायरमेंटल न्यूज़ एंड कमेंटरी में प्रकाशित हुआ था। मूल अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए लिंक: https://therevelator.org/himalayas-climate-change/

हिमालय पर्वत (Himalayan Mountains) शृंखला दुनिया की सबसे नवीन और नाज़ुक पर्वत शृंखलाओं में से एक है लेकिन हम उसके साथ ऐसे बर्ताव करते हैं जैसे कि उसमें असीम लचीलापन और सहिष्णुता है। विकास (development projects) के नाम पर धमाके कर-करके पहाड़ों को चोटी-दर-चोटी उड़ाया जा रहा है, सुरंगें खोद-खोदकर सड़कें बनाई जा रही हैं, एक के बाद एक पनबिजली परियोजनाओं और पर्यटन स्थलों (hydropower and tourism) का निर्माण हो रहा है।

लेकिन हम यह भूल रहे हैं कि हिमालय केवल हमारी महत्वाकांक्षाओं के लिए धरातल नहीं बल्कि एक जीवित तंत्र (living ecosystem) है। किसी भी प्रकार का विस्फोट, ढलान को समतल करने का हर प्रयास, हर कटा हुआ पेड़ इन पहाड़ों को कमज़ोर कर रहा है और धीरे-धीरे उन्हें बिखरने की कगार पर ला रहा है।

जो लोग इन पहाड़ों में पले-बढ़े हैं, उनके लिए ये केवल पत्थरों के ढेर नहीं, बल्कि घर और इतिहास है। यही पर्वत अनगिनत पक्षियों, जीवों और नाज़ुक पारिस्थितिक तंत्रों (Himalayan biodiversity) का आश्रय है। जब हम जंगल काटते हैं या नदियों को बांधते हैं, तो हम केवल संसाधनों को नहीं खोते, बल्कि अपने घर, अपनी सुरक्षा और अपनी भावनाओं का एक हिस्सा भी खो देते हैं।

अव्यवस्था और विनाश

जब जंगल साफ किए जाते हैं, झीलें या दलदली ज़मीन सुखा दी जाती हैं, और पहाड़ी ढलानों को अस्त-व्यस्त कर दिया जाता है, तो समूचे पारिस्थितिक तंत्र अपना संतुलन (ecosystem destruction) खो देते हैं। इसके बाद आने वाली बाढ़, भूस्खलन (landslides) और भू-क्षरण इंसानों और जानवरों दोनों को प्रभावित करते हैं।

अगस्त 2025 में उत्तरकाशी के धराली गांव का एक बड़ा हिस्सा मिट्टी और मलबे के सैलाब (flash flood) में दब गया। इसी साल हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में भी कई ऐसे हादसे हुए जिन्होंने, कुछ समय के लिए ही सही, पूरी दुनिया का ध्यान खींचा। आज, महीनों बाद भी वहां के लोग अपने घर और ज़िंदगी दोबारा बसाने के लिए जूझ रहे हैं।

ये आपदाएं हमें तीन परस्पर सम्बंधित बातों का संकेत देती हैं: पहाड़ बहुत नाज़ुक हैं, मौसम का मिज़ाज अब पहले से ज़्यादा उग्र व इन्तहाई हो गया है, और इंसान हालात को बदतर कर रहे हैं।

अचानक आने वाली विशाल बाढ़ें (cloudburst disaster) अक्सर बादल फटने (बारिश बम) (cloudburst) के कारण होती हैं  – जब ऊंचे पहाड़ मानसूनी बादलों को सारा पानी एकसाथ बरसाने पर मजबूर कर देते हैं। चूंकि अब हवा पहले से ज़्यादा गर्म है, इसलिए उसमें नमी धारण करने की क्षमता ज़्यादा है (जो जलवायु विज्ञान का एक अहम सिद्धांत है), जिससे ऐसी बादल फटने की घटनाएं ज़्यादा मर्तबा होती हैं और पहले से अधिक उग्र हो गई हैं।

इसी के साथ बढ़ती गर्मी हिमनदों को तेज़ी से पिघला (glacier melting) रही है, जिससे ग्लेशियर-जनित झीलें अस्थिर होकर फूट जाती हैं और पानी, बर्फ और चट्टानें नीचे की ओर बह निकलते हैं।

इंसानी दखल से यह प्राकृतिक खतरा और भी बढ़ जाता है। जंगलों की कटाई (deforestation), बिना सोचे-समझे सड़कों और बांधों का निर्माण पहाड़ों की ढलान को कमज़ोर कर देता है, जिससे भारी बारिश एक निश्चित आपदा में बदल जाती है।

जलवायु जोखिम का केंद्र

जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (IPCC report) की छठी रिपोर्ट उस बात की पुष्टि करती है जिसकी आशंका पहाड़ी समुदायों को पहले से थी। मानव-जनित जलवायु परिवर्तन (human-induced climate change) के कारण भारी बारिश और बाढ़ की घटनाएं अब पहले से कहीं अधिक हो रही हैं।

1980 के दशक से उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में बाढ़ (flood risk) की घटनाएं चार गुना और उत्तरी मध्य अक्षांश इलाकों में ढाई गुना बढ़ी हैं। अगर तापमान 3–4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ता है, तो नदियों की बाढ़ों से प्रभावित लोगों की संख्या दुगनी हो सकती है, और कुल नुकसान (1.5 डिग्री सेल्सियस वृद्धि की तुलना में) चार से पांच गुना तक बढ़ सकता है। यानी डिग्री का एक-एक अंश भी बहुत मायने रखता है।

हिमालय के लिए इसका क्या अर्थ है? एयर कंडीशनर, गाड़ियों और जीवाश्म ईंधनों (fossil fuels) के इस्तेमाल के नतीजे में बढ़ता तापमान हिमनदों को तेज़ी से पिघला रहा है, अस्थिर झीलें बन रही हैं, और बादल फटने व अचानक होने वाली तेज़ बरसातों (extreme rainfall) को बढ़ावा मिल रहा है। विश्व मौसमविज्ञान संगठन (WMO) के अनुसार वाहनों से निकलने वाला धुआं और शहरों की गर्मी हिमालयी कस्बों में स्थानीय तापमान को बढ़ाते हैं, जिससे हिमनदों (ग्लोशियर) के पिघलने की रफ्तार और तेज़ होती है।

इसके साथ ही, विकास के नाम पर लगातार पेड़ों की कटाई ने उन प्राकृतिक सोख्ताओं (‘स्पंज’) को नष्ट कर दिया है जो कभी बारिश का पानी सोखकर मिट्टी को थामे रखते थे। अब जब जंगल, आर्द्रभूमि और उपजाऊ मिट्टी (soil erosion) नष्ट हो रही हैं, तो हर मानसूनी लहर पहाड़ों से तेज़ी से नीचे उतरती है और तबाही मचा देती है।

जलवायु परिवर्तन का तनाव बढ़ने के साथ हिमालय का पारिस्थितिक तंत्र अपना प्राकृतिक सुरक्षा कवच खो रहा है। आज बादल फटने की कोई भी घटना तुरंत विनाशकारी बाढ़ में बदल सकती है; तेज़ बारिश भूस्खलन को जन्म दे सकती है; यहां तक कि मामूली तूफान भी अब भारी तबाही ला सकते हैं।

मानव-जनित तबाही इन समस्याओं को और बढ़ा रही है। नाज़ुक ढलानों पर विस्फोट करके सड़कों का निर्माण, बिना जलवायु जोखिम आकलन के पनबिजली परियोजनाओं और अनियंत्रित पर्यटन ने पहाड़ों को बेहद असुरक्षित बना दिया है। हर निर्माण कार्य हिमालय की उस स्वाभाविक मज़बूती को कम करता है जिस पर वह हज़ारों सालों से टिका रहा है।

हिमाचल प्रदेश का बेकर गांव ऐसे ही एक तूफान में सिर्फ बह नहीं गया था बल्कि एक चेतावनी बन गया: अगर हम खोखले पहाड़ों को और खोखला करते रहेंगे, तो वे हमें बचा नहीं पाएंगे। हमारे पास दो ही विकल्प हैं: या तो हम इन पहाड़ों को विकास के बोझ से ढहा दें, या समझदारी से उनका सम्मान करते हुए पुनर्निर्माण करें।

तीन आवश्यक कदम

हिमालयी इलाकों और वहां के लोगों को बचाने के लिए तीन फौरी कदम उठाने की ज़रूरत है। ये केवल सैद्धांतिक नीतिगत सुझाव नहीं हैं। ये वास्तविक अनुभवों पर आधारित अनिवार्यताएं हैं जो हमने सालों तक इस भूमि पर रहकर और इसके तेज़ी से बिगड़ते हालात को देखकर समझी हैं।

1. ऊंचाई वाले इलाकों में विस्फोट और निर्माण पर सीमा लगाएं: नाज़ुक पर्वतीय क्षेत्रों में विकास कार्य जलवायु जोखिम और पारिस्थितिक मूल्यांकन (ecological assessment) की कसौटी पर खरे उतरने पर ही हाथ में लिए जाएं। अगर सड़कें, बांध या इमारतें पहाड़ों की स्थिरता को नुकसान पहुंचा रहे हैं, तो उन्हें दोबारा डिज़ाइन किया जाए या किसी सुरक्षित जगह पर स्थानांतरित किया जाए।

इसके लिए भारत सरकार और राज्य सरकारों को बिना किसी अपवाद के पर्यावरणीय कानूनों का सख्ती से पालन करना होगा। किसी भी ढलान को समतल करने या उसमें सुरंग बनाने का निर्णय लेते समय इंसानी और पर्यावरणीय सुरक्षा दोनों का ध्यान रखना अनिवार्य होना चाहिए।

2. प्राकृतिक अवरोधों की बहाली: हमें अपने प्राकृतिक सुरक्षा कवच को फिर से मज़बूत करना होगा। इसका मतलब है नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों में फिर से जंगल लगाना (reforestation), आर्द्रभूमियों और ऊंचाई वाले घास के मैदानों (alpine meadows) की रक्षा करना, और मिट्टी को स्वस्थ बनाए रखना। ये प्राकृतिक तंत्र बारिश का पानी सोखते हैं, बाढ़ का प्रभाव कम करते हैं और पहाड़ों की ढलानों को थामते हैं; यह सुरक्षा व्यवस्था किसी भी कॉन्क्रीट की दीवार से ज़्यादा प्रभावी होती है।

हर पेड़ लगाना, हर घास के मैदान को बचाना, हमारे भविष्य को सुरक्षित करने की दिशा में एक कदम है। इसके लिए स्थानीय समुदायों और सरकार, दोनों को मिलकर काम करना होगा। स्थानीय लोग अपनी भूमि को सबसे अच्छी तरह जानते हैं, और सरकार को इन महत्वपूर्ण प्रयासों को आर्थिक और नीतिगत समर्थन देना चाहिए।

3. पनबिजली और ऊर्जा योजनाएं जलवायु के अनुरूप बनें: पनबिजली परियोजनाओं का आकलन केवल लाभ के आधार पर नहीं, बल्कि जलवायु सुरक्षा (climate resilience) के दृष्टिकोण से होना चाहिए — जैसे वे हिमनद झील फटने या बादल को कैसे प्रभावित करती हैं।

साथ ही, वाहन प्रदूषण को कम करना, अत्यधिक ऊर्जा खर्च करने वाली ठंडक प्रणालियों (energy efficiency) को नियंत्रित करना, और टिकाऊ ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना ज़रूरी है। इससे ग्लेशियरों का पिघलना धीमा होगा और अचानक भारी वर्षा की घटनाएं कम होंगी।

वैश्विक जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने की ज़िम्मेदारी वैसे तो पूरे विश्व समुदाय की है, लेकिन भारत को इसमें अग्रणी भूमिका निभानी होगी; खासकर हिमालय जैसे सबसे ऊंचे और नाज़ुक क्षेत्र में हरित ऊर्जा और पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता देकर।

अगर इन कदमों को न अपनाया गया, तो हिमालयी पर्वत जवानी (Himalayas conservation) में ही मर जाएंगे। लेकिन अगर हम आज से ही टिकाऊ बदलाव (sustainable change) को अपनाएं, तो ये पर्वत, यहां का वन्य जीवन और यहां के लोग आने वाली कई सदियों तक सुरक्षित जीवन जी सकते हैं। आइए, हम सब मिलकर ऐसा हरित भविष्य बनाएं, जहां हर छोटा कदम और हर महत्वाकांक्षा प्रकृति के प्रति सम्मान पर आधारित हो। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://therevelator.org/wp-content/uploads/2025/11/james-chou-60tWv_X-avM-unsplash.jpg

समुद्र की आवाज़ बताएगी अम्लीयता का स्तर

मुद्र (ocean)  तरह-तरह की आवाज़ों से गुंजायमान (sound waves)  है – मनुष्य के जहाज़ों की धीमी गड़गड़ाहट से लेकर उसके नैसर्गिक रहवासियों जैसे व्हेल(whales), डॉल्फिन और झींगों की धीमी-तेज़ आवाज़ों तक से। और अब, शोधकर्ताओं ने पाया है कि समुद्र की ये नैसर्गिक आवाज़ें यह बताने में मदद कर सकती हैं कि पानी कितना अम्लीय है: ये आवाज़ें समुद्री अम्लीयकरण (ocean acidification)  जैसे गंभीर पर्यावरणीय खतरे को समझने का नया तरीका बन सकती हैं।

जर्नल ऑफ जियोफिज़िकल रिसर्च: ओशियन (Journal of Geophysical Research: Oceans) में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार लहरों, हवा और बारिश की आवाज़ें पानी की अम्लीयता को दूर तक और गहराई तक मापने में मददगार हो सकती हैं।

गौरतलब है कि समुद्र हर वर्ष मानव गतिविधियों (carbon emissions) से उत्सर्जित कार्बन डाईऑक्साइड का लगभग एक-तिहाई भाग सोख लेता है। इससे ग्लोबल वार्मिंग (global warming) में कुछ हद तक कमी तो होती है, लेकिन परिणामस्वरूप समुद्र के पानी की pH घटती है और वह अधिक अम्लीय हो जाता है। 1985 से अब तक समुद्र की सतह का pH 8.11 से घटकर 8.04 हो गई है। यह मामूली फर्क भी कोरल रीफ(coral reefs), समुद्री जीवों की खोल और पूरे समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के लिए खतरा है।

इसी समस्या को समझने के लिए कनाडा के वैज्ञानिक डेविड बार्कले और उनकी टीम ने एक नया तरीका खोजा। उन्होंने हाइड्रोफोन (hydrophone technology)  से लैस ‘डीप साउंड’ नामक उपकरण को 5000 मीटर गहराई तक भेजा और पाया कि इतनी गहराई में भी सतह की लहरों की आवाज़ें सुनी जा सकती है। शोध में पता चला कि समुद्र में मौजूद बोरिक एसिड और मैग्नीशियम सल्फेट जैसे रसायन अलग-अलग आवृत्तियों की ध्वनि (sound frequency) सोखते हैं। और अम्लीयता बढ़ने पर दोनों पर अलग-अलग असर होते हैं – जहां बोरिक एसिड घटता जाता है (और उसके द्वारा सोखी गई ध्वनि भी), वहीं मैग्नीशियम सल्फेट अप्रभावित रहता है। जैसे-जैसे समुद्र अम्लीय होता है, यह संतुलन बदलता है और ध्वनि की आवृत्ति की मदद से वैज्ञानिक समुद्र की pH माप सकते हैं। इस खोज (scientific discovery)  को मुकम्मल करने में टीम को लगभग 15 साल लगे। लेकिन अब उनका नया उपकरण 10,000 मीटर की गहराई (मैरियाना ट्रेंच के चैलेंजर डीप) (Mariana Trench)  तक काम कर सकता है। यह तकनीक बड़े पैमाने पर pH मॉनीटरिंग (pH monitoring)  को संभव बनाती है।

हालांकि कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह तरीका अभी पारंपरिक रासायनिक मापों जितना सटीक नहीं है। अलबत्ता, मौजूदा रोबोटिक सेंसर आधारित BGC-Argo तकनीकें फंडिंग और सप्लाई की दिक्कतों से जूझ रही हैं, ऐसे में यह ध्वनि-आधारित तकनीक एक महत्वपूर्ण विकल्प (alternative technology)  बन सकती है।

बहरहाल, योजना इन उपकरणों को महीनों तक समुद्र तल पर छोड़कर दीर्घकालिक डैटा (long-term data) जुटाने की है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.z5vgjj5/abs/_20251023_on_ph.jpg

हीटवेव के लिए ज़िम्मेदार प्रमुख कंपनियां

ई वर्षों से वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि इंसानी गतिविधियां तूफान (Storms), सूखा (Drought)  और ग्रीष्म लहर (Heatwave) जैसी चरम घटनाओं को बढ़ा रही हैं। नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में वर्ष 2000 से 2023 के बीच दुनिया भर में दर्ज हुई कई ग्रीष्म लहरों का सीधा सम्बंध बड़ी जीवाश्म ईंधन कंपनियों से पाया गया है।

शोध के अनुसार, इस अवधि की लगभग एक-चौथाई ग्रीष्म लहरें कोयला (Coal), तेल (Oil) और गैस उत्पादन करने वाली बड़ी ऊर्जा कंपनियों के उत्सर्जन से जुड़ी हैं। वैज्ञानिक यान क्विलकाइल का मानना है कि ये बड़े कार्बन उत्सर्जक (Carbon Emitters) न केवल ग्रीष्म लहर की घटनाओं को बढ़ा रहे हैं बल्कि उन्हें और अधिक खतरनाक बना रहे हैं।

अध्ययन में पाया गया है कि 2000 से 2023 के बीच दर्ज की गई 213 ग्रीष्म लहरों में से एक-चौथाई से ज़्यादा होती ही नहीं यदि मानव-जनित ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming)  न हुआ होता। और भी चौंकाने वाली बात यह है कि इन कंपनियों के उत्सर्जन ने 53 ग्रीष्म लहरों की संभावना को 10,000 गुना तक बढ़ा दिया।

इस अध्ययन की खासियत यह है कि इसने जलवायु आपदाओं (Global Warming)  को सीधे कुछ बड़ी कंपनियों से जोड़ा है, जैसे सऊदी अरामको (Saudi Aramco), गज़प्रोम (Gazprom) और भारत-चीन के बड़े कोयला व सीमेंट उत्पादक। ऐसी कुल 180 ‘कार्बन मेजर’ कंपनियों (Carbon Major Companies) को अब तक के लगभग 57 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार पाया गया है। अन्य बड़े प्रदूषकों में सोवियत संघ के पुराने उद्योग, एक्सॉन मोबिल (ExxonMobil), शेवरॉन (Chevron), ईरान की राष्ट्रीय तेल कंपनी, ब्रिटिश पेट्रोलियम (BP) और शेल (Shell) शामिल हैं।

शोधकर्ताओं ने जलवायु मॉडल (Climate Model)  का उपयोग करके यह भी बताया है कि दुनिया ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के साथ और बिना कैसी दिखती। इसके बाद उन्होंने कंपनियों के उत्सर्जन को दर्ज ग्रीष्म लहर की घटनाओं से जोड़ा।

कानूनी विशेषज्ञों (Legal Experts) का मानना है कि यह अध्ययन अदालतों में सबूत के तौर पर इस्तेमाल हो सकता है। मसलन, अमेरिका के ओरेगन राज्य (Oregon State) ने 2021 की ग्रीष्म लहर के लिए जीवाश्म ईंधन कंपनियों पर 52 अरब डॉलर का मुकदमा दायर किया है जहां इस तरह के अध्ययन साक्ष्य बन सकते हैं। ऐसे अध्ययन यह दिखाते हैं कि ज़िम्मेदारी को महज ‘सामूहिक दोष’ मानने की बजाय कंपनियों को दोषी (Corporate Accountability) ठहराया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.rinnovabili.net/wp-content/uploads/2025/09/Heat-waves-1280×698.jpg

धरती की कार्बन भंडारण की क्षमता असीमित नहीं है

क हालिया अध्ययन के अनुसार, पृथ्वी की कार्बन डाईऑक्साइड (carbon dioxide) को सुरक्षित रूप से भूमिगत भंडारण (carbon storage) की करने क्षमता पूर्व अनुमानों से कहीं कम है और यह साल 2200 तक खत्म भी हो सकती है। इसका मतलब है कि जलवायु परिवर्तन (climate change) से निपटने के लिए कार्बन कैप्चर और स्टोरेज जैसी तकनीकों को लंबी अवधि का हल मानना मुश्किल है।

पेरिस समझौते (Paris Agreement) के तहत धरती के तापमान को औद्योगिक-पूर्व स्तर से डेढ़ से दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए वातावरण से काफी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड को हटाना (CO2 removal) होगा। इसका एक तरीका है उद्योगों से निकलने वाली गैस को कैद करके गहराई में चट्टानों के बीच संग्रहित करना। पहले माना गया था कि धरती 10 से 40 हज़ार गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड संभाल सकती है, लेकिन ऑस्ट्रिया के वैज्ञानिकों का नया अध्ययन बताता है कि सुरक्षित क्षमता सिर्फ 1460 गीगाटन है।

इस अनुमान में भूकंप (earthquake risk) से होने वाले रिसाव, तकनीकी दिक्कतों और ज़मीन के उपयोग पर राजनीतिक पाबंदियों (land use restrictions) जैसे कारकों को भी शामिल किया गया है। अध्ययन में स्थिर तलछटी चट्टानों (sedimentary rocks) पर ही गौर किया गया है, जहां फिलहाल अधिकांश कार्बन भंडारण की योजनाएं बनाई जा रही हैं।

फिलहाल, कार्बन कैप्चर और स्टोरेज (CCS technology) तकनीक हर साल लगभग 4.9 करोड़ टन कार्बन डाईऑक्साइड हटाती है। योजना है कि इसे बढ़ाकर 41.6 करोड़ टन सालाना किया जाए। लेकिन पेरिस समझौते का लक्ष्य हासिल करने के लिए 2050 तक प्रति वर्ष 8.7 गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड हटाना होगा – यानी अगले 30 सालों में 175 गुना बढ़ोतरी (emission reduction target)।

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अगर धरती की सारी सुरक्षित क्षमता भी उपयोग कर ली जाए, तो भी तापमान केवल 0.7 डिग्री सेल्सियस ही घटेगा। जबकि इस सदी में तापमान 3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने का अंदेशा है। इसलिए सिर्फ कार्बन कैप्चर के भरोसे नहीं रहा जा सकता। ग्रीनहाउस गैस (greenhouse gases) उत्सर्जन को तेज़ी से घटाना होगा, नवीकरणीय ऊर्जा (renewable energy) को बढ़ाना होगा और टिकाऊ तरीकों को अपनाना होगा।

अध्ययन यह भी बताता है कि ज़मीन में दफन कार्बन डाईऑक्साइड (CO2 leakage) का रिसाव ज़मीन के पानी में घुलकर कार्बोनिक एसिड बना सकता है। इस तरह बढ़ी हुई अम्लीयता से खनिज घुल सकते हैं और ज़हरीली धातुएं निकल सकती हैं, जो पर्यावरण (environmental risk) और मानव स्वास्थ्य दोनों के लिए खतरनाक है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/w1248/magazine-assets/d41586-025-02790-6/d41586-025-02790-6_51417220.jpg?as=webp