हाल ही में नासा ने 3800 करोड़ रुपए के वाइपर मिशन (वोलेटाइल्स इन्वेस्टिगेटिंग पोलर एक्सप्लोरेशन रोवर) को रद्द कर दिया है। इस मिशन का उद्देश्य चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर बर्फ का मानचित्र तैयार करना और कुछ क्षेत्रों में बर्फ में ड्रिल करना था। मिशन को रद्द करने का कारण बजट की कमी, रोवर और उसके लैंडर के निर्माण में देरी व इसके चलते रोवर की बढ़ती लागत, और अतिरिक्त परीक्षण व्यय बताए गए हैं।
गौरतलब है कि वाइपर मिशन नासा के व्यावसायिक लूनर पेलोड सर्विसेज़ (सीएलपीएस) कार्यक्रम का हिस्सा था, जो चंद्रमा पर वैज्ञानिक उपकरण भेजने के लिए निजी एयरोस्पेस कंपनियों के साथ मिल-जुलकर काम कर रहा था। इसके लिए 3640 करोड़ रुपए का आवंटन हुआ था और 2023 में प्रक्षेपित करने की योजना थी। वाइपर को एक कंपनी एस्ट्रोबोटिक टेक्नॉलॉजी के ग्रिफिन यान की मदद से भेजा जाना था। उद्देश्य चंद्रमा की बर्फ में दबी रासायनिक जानकारी को उजागर करने व सौर मंडल की उत्पत्ति को समझने के अलावा भविष्य के चंद्रमा मिशनों के लिए संसाधनों की व्यवस्था के लिए चंद्रमा के ठंडे, अंधेरे क्षेत्रों से बर्फ का नमूना प्राप्त करना था।
अलबत्ता, निर्माण में देरी ने प्रक्षेपण को 2025 के अंत तक धकेल दिया, जिससे मिशन की लागत करीब 1500 करोड़ रुपए तक बढ़ गई। लागत में वृद्धि की आंतरिक समीक्षा के बाद मिशन को रद्द कर दिया गया।
एक कारण यह भी बताया जा रहा है कि 50 वर्षों के अंतराल के बाद पहले अमेरिकी चंद्रमा लैंडर वाइपर का निर्माण एस्ट्रोबोटिक टेक्नॉलॉजी नामक कंपनी को करना था। इस कंपनी का पेरेग्रीन अंतरिक्ष यान प्रोपेलर लीक होने के कारण अनियंत्रित हो गया था और चंद्रमा की धरती तक पहुंचने में विफल रहा था। इससे वाइपर को सुरक्षित रूप से चांद पर पहुंचाने की एस्ट्रोबोटिक की क्षमता पर संदेह पैदा हुआ।
इन असफलताओं के बावजूद, एस्ट्रोबोटिक अगले साल अपने ग्रिफिन चंद्रमा लैंडर को लॉन्च करने की तैयारी कर रहा है और वह कोशिश कर रहा है कि उसे चंद्रमा पर पहुंचाने हेतु अन्य उपकरण मिल जाएं। इसके लिए वह अन्य अन्वेषकों से प्रस्ताव आमंत्रित कर रहा है।
गौरतलब है कि मिशन रद्द करने की घोषणा ऐसे समय पर हुई जब वाइपर ने अंतरिक्ष की कठोर परिस्थितियों का सामना करने के लिए परीक्षण शुरू ही किया था। फिलहाल, नासा भविष्य के मिशनों के लिए रोवर या उसके पुर्ज़ों का उपयोग करने में रुचि रखने वाले भागीदारों की तलाश में है। यदि कोई उपयुक्त प्रस्ताव प्राप्त नहीं होता है तो रोवर को खोलकर उसके पुर्ज़ों का फिर से इस्तेमाल किया जाएगा। हालांकि, कई विशेषज्ञ रोवर को नष्ट करने के बजाय इसे सहेजने का सुझाव देते हैं।
वाइपर मिशन के रद्द होने के बावजूद, नासा चंद्रमा पर पानी और बर्फ की खोज के लिए प्रतिबद्ध है। पोलर रिसोर्सेज़ आइस माइनिंग एक्सपेरीमेंट-1 (प्राइम-1) को इस साल के अंत में इंट्यूटिव मशीन द्वारा निर्मित एक व्यावसायिक लैंडर पर चंद्रमा मिशन के लिए निर्धारित किया गया है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.nature.com/lw1200/magazine-assets/d41586-024-02361-1/d41586-024-02361-1_27361032.jpg
प्रयोगशाला में विकसित मांस काफी समय से चर्चा में है। लेकिन पर्यावरण और नैतिक लाभों के बावजूद यह मांस पारंपरिक बीफ जैसा स्वाद हासिल करने के लिए जूझता रहा है। हाल ही में शोधकर्ताओं ने संवर्धित मांस में कुछ परिवर्तन किए हैं जिससे इस मांस को उच्च तापमान पर पकाए जाने पर पारंपरिक बीफ का स्वाद मिलता है। इस सफलता से प्रयोगशाला में विकसित मांस की मांग में वृद्धि की संभावना है।
नेचरकम्युनिकेशंस में प्रकाशित इस अध्ययन में, वैज्ञानिकों ने मैलार्ड अभिक्रिया से उत्पन्न यौगिकों का उपयोग किया है – मैलार्ड अभिक्रिया अमीनो अम्लों और अवकारक शर्कराओं के बीच होती है और इससे मेलेनॉइडिन नामक यौगिक बनते हैं। ये पदार्थ गहरा रंग व जायका पैदा करते हैं।
शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में विकसित पशु कोशिकाओं को इन यौगिकों से समृद्ध किया। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप प्रयोगशाला निर्मित मांस में सही रंग और महक पैदा हुए।
गौरतलब है कि पारंपरिक मांस उत्पादन की तुलना में प्रयोगशाला में निर्मित मांस के कई लाभ हैं। यह जीव हत्या को रोकता है और पशुपालन से होने वाले कार्बन पदचिह्न को कम कर सकता है।
पिछले शोध में मांस उत्पादों की बनावट को दोहराने पर ध्यान केंद्रित किया जाता था, लेकिन वर्तमान अध्ययन में यह देखा गया कि पारंपरिक मांस उच्च तापमान पर मैलार्ड अभिक्रिया से गुज़रता है, जिससे परिचित स्वाद और सुगंध पैदा होती है।
इसके मद्देनज़र, सिओल विश्वविद्यालय के मिले ली की टीम ने फरफ्यूरिल मर्कैप्टन युक्त एक यौगिक विकसित किया, जो एक मैलार्ड अभिक्रिया उत्पाद है और पसंदीदा जायके के लिए जाना जाता है। उन्होंने इस यौगिक को मांस के साथ उपयोग करने और 150 डिग्री सेल्सियस तक गर्म होने तक स्थिर रहने के लिए विकसित किया है। यह जायका तभी मुक्त होता है जब संवर्धित मांस को 150 डिग्री सेल्सियस पर तपाया जाता है।
शोधकर्ताओं ने इस यौगिक को हाइड्रोजेल में डाला, जो स्टेम कोशिकाओं को मांसपेशियों के ऊतकों में विकसित करने के लिए एक ढांचे के रूप में कार्य करता है। एक इलेक्ट्रॉनिक नाक की मदद से टीम ने पाया कि कमरे के तापमान पर मांस का स्वाद थोड़ा कम था लेकिन इसे 150 डिग्री सेल्सियस तक गर्म करने पर मांस की सुगंध पैदा हुई।
आगे के अध्ययनों से पता चला है कि तीन अलग-अलग मैलार्ड उत्पाद मिलाने से स्वाद पारंपरिक बीफ के और भी करीब पहुंच गया। फिलहाल टीम अन्य स्वाद मिश्रणों का पता लगाने और प्रक्रिया की धीमी गति और श्रम-गहनता को कम करने का प्रयास कर रही है।
गोमांस के अलावा अन्य तरह के मांस में स्वाद यौगिकों की जांच भी की जाएगी। इससे संवर्धित मांस की विविधता बढ़ सकती है और उपभोक्ताओं के लिए इसे अधिक आकर्षक बनाया जा सकता है। इससे अधिक टिकाऊ खाद्य उत्पादन को बढ़ावा मिल सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw767/magazine-assets/d41586-024-02273-0/d41586-024-02273-0_27324984.jpg?as=webp
फायब्रोडिसप्लेसिया ओसिफिकेन्स प्रोग्रेसिवा या संक्षेप में FOP का नाम आपने शायद ही सुना हो। सुनेंगे भी कैसे। यह बीमारी दुनिया भर में महज 8000 लोगों को पीड़ित करती है। लेकिन जिन्हें भी डसती है, बहुत तकलीफ पहुंचाती है और अंतत: जान ले लेती है।
FOP नामक इस दुर्लभ बीमारी में शरीर में हड्डियां कहीं भी उग आती हैं, जहां उन्हें नहीं होना चाहिए। जैसे स्नायु में, कंडराओं में और यहां तक कंकाल की मांसपेशियों में भी। दरअसल, होता यह है कि कंकाल की मांसपेशियों और मुलायम संयोजी ऊतकों में कायांतरण होने लगता है और वे हड्डियों में परिवर्तित होने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि हड्डियों के जोड़ सख्त हो जाते हैं और कोई भी हरकत नामुमकिन हो जाती है।
FOP के मरीज़ों में जन्मजात बड़े पंजे होते हैं और बाकी की विकृतियां धीरे-धीरे सामने आती हैं। इसके चलते उनके लिए गर्दन, कंधों, कोहनी, कूल्हों, घुटनों, कलाइयों और जबड़ों की गति असंभव हो जाती है।
यह एक जेनेटिक रोग है जिसमें अस्थि निर्माण में शामिल एक जीन (ACVR1 जिसे ALK2 भी कहते हैं) के नए संस्करण बन जाते हैं। यह जीन एक प्रोटीन (BMP) बनाता है जो भ्रूण में कंकाल के निर्माण तथा जन्म के उपरांत कंकाल की मरम्मत में भूमिका निभाता है।
ज़ाहिर है इतनी दुर्लभ बीमारी का इलाज खोजने में किसी की दिलचस्पी नहीं होगी क्योंकि इस इलाज के ग्राहक ही नहीं होंगे। लेकिन आश्चर्य की बात है कि कम से कम 13 कंपनियां इस काम में लगी हुई हैं। और उनके प्रयास रंग लाने लगे हैं। पिछले वर्ष यूएस खाद्य व औषधि प्रशासन ने FOP के लिए पहली दवा – पैलोवैरोटीन – को मंज़ूरी दी थी। चार अन्य दवाइयां परीक्षण से गुज़र रही हैं।
लेकिन…एक लेकिन और है। आशंका है कि ये दवाइयां निहायत महंगी होंगी। जैसे पैलोवैरोटीन की सालाना लागत छ: लाख चौबीस हज़ार डॉलर है। एक संभावना यह है कि यह औषधि बीमारी को आगे बढ़ने से रोक देगी और सर्जन यहां-वहां उगी हड्डियों को हटा देंगे।
इस बीमारी पर अध्ययन अनुसंधान का एक कारण तो यही है कि यह इतनी क्रूर बीमारी है। साथ ही शोधकर्ताओं को लगता है कि इसके गहन अध्ययन से हड्डियों के विकास सम्बंधी अन्य विकारों को भी समझ पाएंगे। जैसे पहले तो यह भी पता नहीं था कि यह रोग जेनेटिक है। फिर 2006 में वह जीन पहचाना गया जिसमें उत्परिवर्तन की वजह से यह रोग पैदा होता है: ALK2 नामक प्रोटीन के जीन में उत्परिवर्तन। यह प्रोटीन कई कोशिकाओं की सतह पर पाया जाता है। यह पता चल चुका है कि असामान्य ALK2 अति-सक्रिय हो जाता है और इसके द्वारा भेजे गए संदेश से मांसपेशियों की स्टेम कोशिकाएं हड्डियों में बदलने लगती हैं।
बहरहाल, शोधकर्ताओं ने सीधे-सीधे ALK2 पर निशाना न साधते हुए उस अणु को सक्रिय करने का मार्ग चुना जो उपास्थि के निर्माण को रोकता है। उपास्थि हड्डी के निर्माण में पूर्ववर्ती होती है। अंतत: पैलोवैरोटीन हाथ लगी। परीक्षण के दौरान पैलोवैरोटीन लेने वाले मरीज़ों में नई हड्डियों का निर्माण 60 प्रतिशत कम देखा गया। अलबत्ता, इसकी कीमत के अलावा कुछ अन्य समस्याएं भी हैं। एक तो यही है कि पैलोवैरोटीन बीमारी को रोकती नहीं – सिर्फ टालती है। दूसरी समस्या यह है कि यह दवा बच्चों को देने में परेशानी होगी क्योंकि शायद यह उनमें सामान्य हड्डी निर्माण को भी बाधित कर देगी।
रीजेनेरॉन नामक कंपनी ने एक मोनोक्लोनल एंटीबॉडी (गैरेटोस्मैब) तैयार की है। इसके परीक्षण के नतीजे तो ठीक-ठाक रहे हैं लेकिन परीक्षण के दौरान 5 मरीज़ों की मृत्यु हो गई थी। जापान के एक समूह ने भी पाया था कि ALK2 जीन का दोषपूर्ण संस्करण एक्टिविन-ए नामक प्रोटीन के असर से अति-सक्रिय हो जाता है। दरअसल, गैरेटोस्मैब एक्टिविन-ए को निष्क्रिय कर देता है। कुछ शोध समूह सीधे-सीधे ALK2 जीन को लक्षित कर रहे हैं। अन्य विकल्पों पर काम चल रहा है लेकिन उनकी अपनी-अपनी दिक्कतें हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.semanticscholar.org/paper/Insights-into-the-biology-of-fibrodysplasia-using-Nakajima-Ikeya/9b0f31108afe844a4f8c5dfd57a02e08e3563a37/figure/0
सिकल सेल रोग से दुनिया भर के लाखों लोग प्रभावित हैं। एक अनुमान के मुताबिक प्रति वर्ष लगभग पौने चार लाख लोग इसकी वजह से जान गंवाते हैं और लाखों लोग दर्दनाक तकलीफें झेलते हैं। यू.एस. खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) ने पिछले वर्ष इसके उपचार के लिए दो जीन थेरेपी प्रक्रियाओं को मंज़ूरी दी थी। लेकिन ये उपचार काफी महंगे हैं – इनका खर्च प्रति व्यक्ति करीब 17 करोड़ रुपए बैठता है। साथ ही इनमें जोखिमभरी कीमोथेरेपी शामिल होती है।
हाल ही में औषधि शोधकर्ताओं ने मुंह से दी जाने वाली एक दवा की खोज की है। इस औषधि ने सिकल सेल रोग से ग्रसित जंतुओं में स्वस्थ रक्त कोशिकाओं को पुनर्स्थापित किया है। देखा जाए तो जीन थेरेपी एक बार करनी होती है और वह लंबे समय तक लाभ प्रदान कर सकती है। इसके विपरीत इस नई दवा को समय-समय पर जीवन भर लेने की आवश्यकता हो सकती है।
यह दवा मनुष्यों में अभी सुरक्षा परीक्षण से नहीं गुज़री लेकिन साइंसजर्नल में वर्णित इस प्रायोगिक दवा ने व्यापक रूप से सुलभ और किफायती उपचार की एक उम्मीद जगाई है।
गौरतलब है कि सिकल सेल रोग वयस्क हीमोग्लोबीन के उत्पादन के लिए ज़िम्मेदार जीन में उत्परिवर्तन के कारण होता है। यह उत्परिवर्तन लाल रक्त कोशिकाओं को हंसिए (सिकल) आकार का बना देता है, जिससे रक्त कोशिकाएं आपस में चिपक जाती हैं। इसके चलते रक्त वाहिकाएं अवरुद्ध होती हैं, और तेज़ दर्द के साथ ऊतकों को नुकसान पहुंचाती हैं।
रोचक तथ्य यह है कि इस जीन में उत्परिवर्तन से पीड़ित व्यक्तियों में भी भ्रूणावस्था में सामान्य लाल रक्त कोशिकाएं बनती हैं। उपचारों में कोशिश यह की जाती है कि वयस्क व्यक्ति में वयस्क जीन को बाधित करके भ्रूण के लाल रक्त कोशिका जीन को सक्रिय कर दिया जाए ताकि सामान्य लाल रक्त कोशिकाएं बनने लगें।
सिकल सेल रोग उस जीन में उत्परिवर्तन के कारण होता है जो वयस्क में हीमोग्लोबीन बनाने के लिए ज़िम्मेदार होता है। वर्तमान में स्वीकृत एक जीन थेरेपी में किया यह जाता है कि एक वायरस की मदद से वयस्क हीमोग्लोबीन का संशोधित जीन व्यक्ति की स्टेम कोशिकाओं में प्रविष्ट करा दिया जाता है। फिर इन संशोधित कोशिकाओं को वापिस उस व्यक्ति के शरीर में डाला जाता है। लेकिन उससे पहले उसके शरीर में पहले से मौजूद रक्त स्टेम कोशिकाओं को नष्ट कर दिया जाता है।
दूसरी जीन थेरेपी में भी मरीज़ की रक्त स्टेम कोशिकाओं में संशोधन किया जाता है लेकिन इसके लिए क्रिस्पर नामक तकनीक की मदद ली जाती है। क्रिस्पर की मदद से BCL11A नामक एक प्रोटीन को बाधित कर दिया जाता है। यह वह प्रोटीन है जो वयस्कों में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का उत्पादन रोक देता है। तो जब BCL11A जीन को ठप कर दिया जाता है तो रक्त स्टेम कोशिकाओं में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन फिर बनने लगता है और मरीज़ को मदद मिलती है।
लेकिन जीन थेरेपी के भारी खर्च और जटिलता के चलते हर व्यक्ति तक इसकी पहुंच सीमित हो जाती है, खासकर अफ्रीका जैसे क्षेत्रों में जहां सिकल सेल रोगी अधिक पाए जाते हैं।
अलबत्ता, वयस्कों में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन जीन को सक्रिय करने वाली औषधियां विकसित करने के प्रयास लंबे समय से चल रहे हैं लेकिन उतने कारगर नहीं रहे हैं।
जैसे नोवार्टिस की पामेला टिंग और जे ब्रैडनर एक ऐसा यौगिक खोज रहे थे जो BCL11A द्वारा बनाए गए प्रोटीन से जुड़ सके और उसे कोशिका की प्रोटीन विध्वंस मशीनरी में पहुंचा सके ताकि वह भ्रूणीय हीमोग्लोबीन के जीन को शांत न कर सके। टीम ने एक यौगिक (dWIZ-1) की पहचान की है जो कोशिका में डाले जाने पर भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का उत्पादन बढ़ा देता है। लेकिन यह BCL11A को लक्षित नहीं करता।
इस यौगिक में संशोधन कर dWIZ-2 का निर्माण किया गया, जिसने लाल रक्त कोशिकाओं में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का स्तर 17-45 प्रतिशत तक बढ़ा दिया। यह स्तर मनुष्यों में लाल रक्त कोशिकाओं के कार्यात्मक उत्पादन करने के लिए पर्याप्त है।
dWIZ-2 ने चूहों और तीन में से दो साइनोमोल्गस बंदरों में प्रभावशीलता दिखाई है और कोई दुष्प्रभाव भी नज़र नहीं आए हैं। यह ऐसा पहला छोटा अणु है जो स्टेम कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाए बिना भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का उत्पादन बढ़ाता देता है।
दिक्कत यह है कि dWIZ प्रोटीन कई कोशिकाओं में बनता है और यह कई जीनों को नियंत्रित करता है। यानी इसकी नियामक भूमिका काफी व्यापक हो सकती है और इसका दमन करना शायद सुरक्षित न हो। बहरहाल, ब्रैडनर का मत है कि भ्रूणीय हीमोग्लोबन को बढ़ाने की dWIZ-2 की क्षमता बहुत अधिक है और यह आगे के विकास का रास्ता तो खोलता ही है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.genengnews.com/wp-content/uploads/2019/08/Aug16_2016_Getty_481945753_SickleCellRedCells.jpg
कुछ वर्षों से कई देशों में जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छर यह कहकर रिलीज़ किए गए हैं कि इससे मच्छरों द्वारा फैलाई गई डेंगू जैसी बीमारियां की रोकथाम होती हैं। पर कई वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों ने इन प्रयासों की यह कहकर आलोचना की है कि प्राकृतिक जीवन-चक्र से किए जा रहे इस खिलवाड़ से ऐसी बीमारियां और विकट भी हो सकती हैं। इस वर्ष के आरंभ में ब्राज़ील के संदर्भ में आलोचकों का पक्ष अधिक मज़बूत हो गया है। जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों को सबसे अधिक ब्राज़ील में ही छोड़ा गया था, और अब वर्ष 2024 के आरंभ में यहां डेंगू की बीमारी में बहुत तेज़ी से वृद्धि हुई। यहां तक कि कुछ स्थानों पर आपात स्थिति बन गई। यहां यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि अनेक देशों में ऐसे परीक्षण पहले ही इनसे जुड़े तमाम खतरों के कारण काफी विवादास्पद रहे हैं। ये परीक्षण डेंगू, चिकनगुनिया, मलेरिया जैसी मच्छर-वाहित बीमारियों के नियंत्रण के नाम पर किए जाते हैं, परंतु इस बारे में बार-बार चिंता प्रकट की गई है कि वास्तव में जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों को छोड़ने पर व इससे जुड़े प्रयोगों से कई बीमारियों की संभावनाएं बढ़ सकती हैं। ज़ीका के प्रकोप के संदर्भ में कुछ विशेषज्ञों ने यह चिंता व्यक्त की थी कि जिस तरह सेे जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों पर प्रयोग किए गए हैं, ऐसी गंभीर स्वास्थ्य समस्या उत्पन्न करने में उन प्रयोगों की भूमिका हो सकती है। भारत में सबसे पहले जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों के प्रयोग 1970 के दशक में जेनेटिक कंट्रोल ऑफ मास्कीटोस (मच्छरों के आनुवंशिक नियंत्रण) परियोजना में किए गए थे। उस समय मीडिया में व संसद में इसकी बहुत आलोचना हुई थी। आलोचना इससे जुड़े स्वास्थ्य सम्बंधी खतरों के कारण और उससे भी अधिक इस कारण हुई थी कि इससे विदेशी ताकतों को भारत पर जैविक हमलों के हथियार की तैयारी करने में सहायता मिल सकती है। इस आलोचना को भारतीय संसद की पब्लिक अकाउंट्स समिति की 167 वीं रिपोर्ट से भी बल मिला। इस पृष्ठभूमि में यह उम्मीद थी कि भविष्य में इस तरह के प्रयोगों की अनुमति नहीं दी जाएगी पर कुछ समय पहले यह सिलसिला फिर आरंभ हो गया है। इस बीच विश्व के कई देशों में किए गए ऐसे प्रयोगों की भरपूर आलोचना पहले ही हो चुकी है। ऐसे अनेक प्रयोग ब्रिटेन की ऑक्सीटेक कंपनी द्वारा किए गए हैं जिसकी इस क्षेत्र में अग्रणी भूमिका रही है। विभिन्न देशों में इस बारे में चिंता व्यक्त की गई है कि ऐसे प्रयोगों में पारदर्शिता नहीं बरती गई है व सही जानकारी को छुपाया गया है। जीन वाॅच, फ्रेण्ड्स ऑफ दी अर्थ जैसी विभिन्न संस्थाओं ने इस तरह की आलोचना कई बार की है। जीन वाॅच की निदेशक डॉ. हेलेन वैलेस ने इस सम्बंध में अपने अनुसंधान में बताया है कि जिन बीमारियों की रोकथाम की संभावना इस तकनीक द्वारा बताई जा रही है, वास्तव में इस तकनीक के उपयोग से इन बीमारियों की वृद्धि की संभावना है और बीमारी व स्वास्थ्य सम्बंधी समस्या पहले से अधिक गंभीर रूप में प्रकट हो सकती है। भारत में वेक्टर कंट्रोल रिसर्च सेंटर के पूर्व निदेशक पी. के. राजगोपालन ने कुछ समय पहले इस विषय पर अपना विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया था कि इस तकनीक के संदर्भ में विश्व स्तर पर स्थिति क्या है। उनका स्पष्ट निष्कर्ष है कि इस तकनीक के द्वारा बीमारी नियंत्रण के जो दावे किए जा रहे हैं वे असरदार नहीं हैं तथा दूसरी ओर इस तकनीक के खतरे बहुत हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि मलेरिया की जांच से जुड़े जो ब्लड-सैंपल विदेश भेजे जा रहे हैं, वह भी उचित नहीं है। इस सम्बंध में उपलब्ध विश्व स्तरीय जानकारी को देखते हुए भारत में जेनेटिक रूप से संवर्धित जीवों के प्रयोगों पर पूरी तरह रोक लगनी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://img.thedailybeast.com/image/upload/c_crop,d_placeholder_euli9k,h_1439,w_2560,x_0,y_0/dpr_1.5/c_limit,w_1044/fl_lossy,q_auto/v1492111443/articles/2016/07/07/genetically-modified-mosquitoes-could-stop-zika/160706-Haglage-Super-Mosquitoes-Kill-Zika-tease_rytcfx
एक कंपनी है कोलोसल जिसका उद्देश्य है विलुप्त हो चुके जंतुओं को फिर से साकार करना। इस बार यह कंपनी कोशिश कर रही है कि वुली मैमथ नाम के विशाल प्राणि को पुन: प्रकट किया जाए।
अपने इस प्रयास में कंपनी के वैज्ञानिक आजकल के हाथियों की त्वचा कोशिकाओं को स्टेम कोशिकाओं में परिवर्तित करने में सफल हो गए हैं। स्टेम कोशिकाएं वे कोशिकाएं होती हैं जो किसी खास अंग की कोशिका में विभेदित नहीं हो चुकी होती हैं और सही परिवेश मिलने पर शरीर की कोई भी कोशिश बनाने में समर्थ होती हैं। योजना यह है कि इन स्टेम कोशिकाओं में जेनेटिक इंजीनियरिंग की तकनीकों की मदद से मैमथ के जीन्स रोपे जाएंगे और उम्मीद है कि यह कोशिका विकसित होकर एक मैमथ का रूप ले लेगी।
कोलोसल का उद्देश्य है कि एशियाई हाथियों (Elephas maximus) का ऐसा कुनबा तैयार किया जाए जिसके शरीर पर वुली मैमथ (Mammuthus primigenius) जैसे लंबे-लंबे बाल हों, अतिरिक्त चर्बी हो और मैमथ के अन्य गुणधर्म हों।
देखने में तो बात सीधी-सी लगती है क्योंकि सामान्य कोशिकाओं को बहुसक्षम स्टेम कोशिकाओं में बदलने में पहले भी सफलता मिल चुकी है और जेनेटिक इंजीनियरिंग भी अब कोई अजूबा नहीं है। जैसे एक शोधकर्ता दल ने 2011 में श्वेत राइनोसिरस (Ceratotherium simum cottoni) और ड्रिल नामक एक बंदर (Mandrillus leucophaeus) से स्टेम कोशिकाएं तैयार कर ली थीं। इसके बाद कई अन्य जोखिमग्रस्त प्रजातियों के साथ भी ऐसा किया जा चुका है। जैसे, तेंदुए (Panthera uncia), सुमात्रा का ओरांगुटान (Pongo abelii) वगैरह। लेकिन पूरे काम में कई अगर-मगर हैं।
अव्वल तो कई दल हाथी की स्टेम कोशिकाएं तैयार करने में असफल रह चुके हैं। जैसे कोलोसल की ही एक टीम एशियाई हाथी की कोशिकाओं को स्टेम कोशिकाओं में तबदील करने में असफल रही थी। उन्होंने शिन्या यामानाका द्वारा वर्णित रीप्रोग्रामिंग कारकों का उपयोग किया था। अधिकांश स्टेम कोशिकाएं तैयार करने के लिए इसी विधि का इस्तेमाल किया जाता है।
इस असफलता के बाद एरिओना ह्योसोली की टीम ने उस रासायनिक मिश्रण का उपयोग किया जिसके उपयोग से मानव व मूषक कोशिकाओं को स्टेम कोशिकाओं का रूप देने में सफलता मिल चुकी थी। लेकिन इस उपचार के बाद हाथियों की अधिकांश कोशिकाएं या तो मर गईं, या उनमें विभाजन रुक गया या कई मामलों में वे इस उपचार से अप्राभावित रहीं। लेकिन चंद कोशिकाओं ने गोल आकार हासिल कर लिया जो स्टेम कोशिका जैसा था। अब टीम ने इन कोशिकाओं को यामानाका कारकों से उपचारित किया। लेकिन सफलता तो तब हाथ लगी जब उन्होंने एक कैंसर-रोधी जीन TP53 की अभिव्यक्ति को ठप कर दिया। इस तरह से शोधकर्ताओं ने एक हाथी से चार कोशिका वंश तैयार किए हैं।
अब अगला कदम होगा हाथी की कोशिकाओं में जेनेटिक संपादन करके मैमथ जैसे गुणधर्म जोड़ना। इसके लिए उन्हें यह पहचानना होगा कि वे कौन-से जेनेटिक परिवर्तन हैं जो हाथी को मैमथनुमा बना देंगे। यह काम पहले तो सामान्य कोशिकाओं में किया जाएगा और फिर स्टेम कोशिकाओं में। पहले संपादित स्टेम कोशिकाएं तैयार की जाएगी और फिर उन्हें ऊतकों (जैसे बाल या रक्त) में विकसित करने का काम करना होगा।
लेकिन उससे पहले और भी कई काम होंगे। जैसे संपादित स्टेम कोशिकाओं को किसी प्रकार से शुक्राणुओं व अंडाणुओं में बदलना ताकि उनके निषेचन से भ्रूण बन सके। यह काम चूहों में किया जा चुका है। इसका दूसरा रास्ता भी है – इन स्टेम कोशिकाओं को ‘संश्लेषित’ भ्रूण में तबदील कर देना।
एक समस्या यह भी आएगी कि भ्रूण तैयार हो जाने के बाद उनके विकास के लिए कोख का इंतज़ाम करना। इसके लिए टीम को कृत्रिम कोख का इस्तेमाल करना ज़्यादा मुफीद लग रहा है क्योंकि हाथी की कोख में विकसित होने के दौरान मैमथ भ्रूण का विकास प्रभावित हो सकता है। लिहाज़ा स्टेम कोशिकाओं से ही कोख तैयार करने की योजना है।
दरअसल, शोधकर्ताओं के लिए यह प्रयास जोखिमग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण की दिशा में कदम है। और इससे जीव वैज्ञानिक शोध में मदद मिलने की भी उम्मीद है। जैसे वैकासिक जीव वैज्ञानिक विंसेंट लिंच का विचार है कि हाथियों की स्टेम कोशिकाओं पर प्रयोग यह समझा सकते हैं कि हाथियों को कैंसर इतना कम क्यों होता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/9/9c/Woolly_mammoth_model_Royal_BC_Museum_in_Victoria.jpg/1200px-Woolly_mammoth_model_Royal_BC_Museum_in_Victoria.jpg
भारत में आम चुनाव का आगाज़ हो चुका है। हालिया चुनावी घोषणाओं से वैज्ञानिक समुदाय को प्रयुक्त विज्ञान में निवेश बढ़ने की उम्मीद है लेकिन इसके साथ ही कुछ चिंताएं भी हैं। अनुसंधान और विकास (R&D) के लिए वित्त पोषण में वृद्धि भारत की तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ कदम मिलाकर नहीं चल रही है। विज्ञान वित्तपोषण में शीर्ष से (टॉप-डाउन) नियंत्रण के चलते पैसे के आवंटन में शोधकर्ताओं की राय का महत्व नगण्य रह गया है।
गौरतलब है कि 2014 में प्रधान मंत्री मोदी के प्रथम कार्यकाल के बाद से अनुसंधान एवं विकास के बजट में वृद्धि देखी गई है। लेकिन देश के जीडीपी के प्रतिशत के रूप में यह बजट निरंतर कम होता गया है। 2014-15 में यह जीडीपी का 0.71 प्रतिशत था जबकि 2020-21 में गिरकर 0.64 प्रतिशत पर आ गया। यह प्रतिशत चीन (2.4 प्रतिशत), ब्राज़ील (1.3 प्रतिशत) और रूस (1.1 प्रतिशत) जैसे देशों की तुलना में काफी कम है। गौरतलब है कि भारत में अनुसंधान सरकारी आवंटन पर अधिक निर्भर है। भारत में अनुसंधान एवं विकास के लिए 60 प्रतिशत खर्च सरकार से आता है, जबकि अमेरिका में सरकार का योगदान मात्र 20 प्रतिशत है।
अलबत्ता, इन वित्तीय अड़चनों के बावजूद, भारत ने असाधारण वैज्ञानिक उपलब्धियां हासिल की हैं। 2023 में, भारत चंद्रमा पर सफलतापूर्वक अंतरिक्ष यान उतारने वाला दुनिया का चौथा देश बन गया। बहुत ही मामूली बजट पर इस उपलब्धि को हासिल करने के लिए इसरो की काफी सराहना भी की गई। औषधि व टीकों के विकास के क्षेत्र में भी उपलब्धियां उल्लेखनीय रही हैं। फिर भी, कई अनुसंधान क्षेत्रों को अपर्याप्त धन के कारण असफलताओं का सामना करना पड़ा है।
पिछले वर्ष सरकार द्वारा वैज्ञानिक अनुसंधान को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से नेशनल रिसर्च फाउंडेशन (एनआरएफ) की स्थापना की घोषणा की गई थी। इसके लिए सरकार ने पांच वर्षों में 500 अरब रुपए की व्यवस्था का वादा किया था। इसमें से 140 अरब रुपए सरकार द्वारा और बाकी की राशि निजी स्रोतों से मिलने की बात कही गई थी। लेकिन वित्तीय वर्ष 2023-24 में सरकार ने इसके लिए मात्र 2.6 अरब रुपए और वर्तमान वित्त वर्ष में 20 अरब रुपए आवंटित किए हैं; निजी स्रोतों के बारे में अभी तक कोई जानकारी नहीं है।
वर्तमान स्थिति देखी जाए तो भारत का दृष्टिकोण विज्ञान को त्वरित विकास के एक साधन के रूप में देखने का है। लेकिन इसमें पूरा ध्यान आधारभूत विज्ञान की बजाय उपयोगी अनुसंधान पर केंद्रित रहता है। जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च के भौतिक विज्ञानी उमेश वाघमारे का अनुमान है कि आगामी चुनाव में भाजपा की जीत इस प्रवृत्ति को और तेज़ कर सकती है।
गौरतलब है कि शोधकर्ता और विशेषज्ञ काफी समय से निर्णय प्रक्रिया और धन आवंटन में अधिक स्वायत्तता की मांग करते रहे हैं। वाघमारे का सुझाव है कि उच्च अधिकारियों को सलाहकार की हैसियत से काम करना चाहिए जबकि वैज्ञानिक समितियों को अधिक नियंत्रण मिलना चाहिए। वर्तमान में, प्रधानमंत्री एनआरएफ के अध्यक्ष हैं और अधिकांश संचालन मंत्रियों और सचिवों द्वारा किया जाता है; वैज्ञानिक समुदाय की भागीदारी काफी कम है।
इसके अलावा, जटिल प्रशासनिक और वित्तीय नियमों के चलते शोधकर्ता आवंटित राशि का पूरी तरह से उपयोग भी नहीं कर पाते। भारत सरकार की पूर्व सलाहकार शैलजा वैद्य गुप्ता दशकों की प्रशासनिक स्वायत्तता की बदौलत इसरो को मिली उपलब्धियों का हवाला देते हुए, विश्वास और लचीलेपन की आवश्यकता पर ज़ोर देती हैं।
यह काफी हैरानी की बात है कि 2024 के चुनाव अभियान में भी हमेशा की तरह विज्ञान प्रमुख विषय नहीं रहा है। इंडियन रिसर्च वॉचडॉग के संस्थापक अचल अग्रवाल राजनीतिक विमर्श से विज्ञान की अनुपस्थिति पर अफसोस जताते हैं और कहते हैं कि चाहे कोई भी पार्टी जीते भारतीय विज्ञान का भविष्य तो बदलने वाला नहीं है।
बहरहाल, हम हर तरफ भारत की अर्थव्यवस्था के लगातार फलने-फूलने की बात तो सुनते हैं लेकिन एक सत्य यह भी है कि वैज्ञानिक समुदाय वित्तपोषण और स्वायत्तता सम्बंधी चुनौतियों से जूझता रहा है। ये मुद्दे अनुसंधान और विकास के क्षेत्र में भारत के भविष्य और वैश्विक वैज्ञानिक नेता के रूप में अपनी स्थिति बनाए रखने की क्षमता के बारे में चिंताएं बढ़ाते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.vox-cdn.com/thumbor/TBsdzpb3_vkWgDL0zN6k-2ZbQAk=/0x0:2250×1688/1200×675/filters:focal(0x0:2250×1688)/cdn.vox-cdn.com/uploads/chorus_image/image/50119035/FixingScienceLead.0.png
इस वर्ष फरवरी के महीने से ही कर्नाटक के एक बड़े क्षेत्र से गंभीर जल संकट के समाचार मिलने आरंभ हो गए थे। दूसरी ओर, पिछले वर्ष बरसात के मौसम में हिमाचल प्रदेश जैसे कई राज्यों में बाढ़ से भयंकर तबाही हुई थी। जलवायु बदलाव के इस दौर में विभिन्न स्तरों पर बाढ़ और सूखे दोनों के संकट अधिक गंभीर हो सकते हैं।
देखने में तो बाढ़ और सूखे की बाहरी पहचान उतनी ही अलग है जितनी पर्वत और खाई की – एक ओर वेग से बहते पानी की अपार लहरें तो दूसरी ओर बूंद-बूंद पानी को तरसती सूखी प्यासी धरती। इसके बावजूद प्राय: देखा गया है कि बाढ़ और सूखे दोनों के मूल में एक ही कारण है और वह है उचित जल प्रबंधन का अभाव।
जल संरक्षण की उचित व्यवस्था न होने के कारण जो स्थिति उत्पन्न होती है उसमें हमें आज बाढ़ झेलनी पड़ती है तो कल सूखे का सामना करना पड़ सकता है। दूसरी ओर, यदि हम जल संरक्षण की समुचित व्यवस्था कर लें तो न केवल बाढ़ पर नियंत्रण पा सकेंगे अपितु सूखे की स्थिति से भी बहुत हद तक राहत मिल सकेगी।
भारत में वर्षा और जल संरक्षण का विशेष अध्ययन करने वाले मौसम विज्ञानी पी. आर. पिशारोटी ने बताया है कि युरोप और भारत में वर्षा के लक्षणों में कई महत्वपूर्ण अंतर हैं। युरोप में वर्षा पूरे साल धीरे-धीरे होती रहती है। इसके विपरीत, भारत के अधिकतर भागों में वर्ष के 8760 घंटों में से मात्र लगभग 100 घंटे ही वर्षा होती है। इसमें से कुछ समय मूसलाधार वर्षा होती है। इस कारण आधी वर्षा मात्र 20 घंटों में ही हो जाती है। अत: स्पष्ट है कि जल संग्रहण और संरक्षण युरोप के देशों की अपेक्षा भारत जैसे देशों में कहीं अधिक आवश्यक है। इसके अलावा, भारत की वर्षा की तुलना में युरोप में वर्षा की औसत बूंद काफी छोटी होती है। इस कारण उसकी मिट्टी काटने की क्षमता भी कम होती है। युरोप में बहुत सी वर्षा बर्फ के रूप में गिरती है जो धीरे-धीरे धरती में समाती रहती है। भारत में बहुत सी वर्षा मूसलाधार वर्षा के रूप में गिरती है जिसमें मिट्टी को काटने और बहाने की बहुत क्षमता होती है।
दूसरे शब्दों में, हमारे यहां की वर्षा की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि यदि उसके पानी के संग्रहण और संरक्षण की उचित व्यवस्था नहीं की गई तो यह जल बहुत सारी मिट्टी बहाकर निकट की नदी की ओर वेग से दौड़ेगा और नदी में बाढ़ आ जाएगी। चूंकि अधिकतर जल न एकत्र होगा न धरती में रिसेगा, अत: कुछ समय बाद जल संकट उत्पन्न होना भी स्वाभाविक ही है। इन दोनों विपदाओं को कम करने के लिए या दूर करने के लिए जीवनदायी जल का अधिकतम संरक्षण और संग्रहण आवश्यक है।
इसके लिए पहली आवश्यकता है वन, वृक्ष व हर तरह की हरियाली जो वर्षा के पहले वेग को अपने ऊपर झेलकर उसे धरती पर धीरे से उतारे ताकि यह वर्षा मिट्टी को काटे नहीं अपितु काफी हद तक स्वयं मिट्टी में ही समा जाए या रिस जाए और पृथ्वी के नीचे जल के भंडार को बढ़ाने का अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य संपन्न करे।
दूसरा महत्वपूर्ण कदम यह है कि वर्षा का जो शेष पानी नदी की ओर बह रहा है उसके अधिकतम संभव हिस्से को तालाबों या पोखरों में एकत्र कर लिया जाए। वैसे इस पानी को मोड़कर सीधे खेतों में भी लाया जा सकता है। खेतों में पड़ने वाली वर्षा का अधिकतर जल खेतों में ही रहे, इसकी व्यवस्था भू-संरक्षण के विभिन्न उपायों जैसे खेत-तालाब, मेड़बंदी, पहाड़ों में सीढ़ीदार खेत आदि से की जा सकती है। तालाबों में जो पानी एकत्र किया गया है वह उसमें अधिक समय तक बना रहे इसके लिए तालाबों के आसपास वृक्षारोपण हो सकता है व वाष्पीकरण कम करने वाला तालाब का विशेष डिज़ाइन बनाया जा सकता है। तालाब से होने वाले सीपेज का भी उपयोग हो सके, इसकी व्यवस्था हो सकती है। एक तालाब का अतिरिक्त पानी स्वयं दूसरे में पहुंच सके और इस तरह तालाबों की एक शृंखला बन जाए, यह भी कुशलतापूर्वक करना संभव है।
वास्तव में जल संरक्षण के ये सब उपाय हमारे देश की ज़रूरतों के अनुसार बहुत समय से किसी न किसी रूप में अपनाए जाते रहे हैं। चाहे राजस्थान व बुंदेलखंड के तालाब हों या बिहार की अहर पईन व्यवस्था, नर्मदा घाटी की हवेली हो या हिमालय की गूलें, महाराष्ट्र की बंधारा विधि हो या तमिलनाडु की एरी व्यवस्था, इन सब माध्यमों से अपने-अपने क्षेत्र की विशेषताओं के अनुसार स्थानीय लोगों ने वर्षा के जल के अधिकतम और बढ़िया उपयोग की तकनीकें विकसित कीं। औपनिवेशिक शासन के दिनों में विभिन्न कारणों से हमारी तमाम परंपरागत व्यवस्थाओं का ढांचा चरमराने लगा। जल प्रबंधन पर भी नए शासकों और उनकी नीतियों की मार पड़ी। किसानों और ग्रामीणों की आत्मनिर्भरता तो अंग्रेज़ सरकार चाहती ही नहीं थी, उपाय क्या करती। फिर भी तरह-तरह के शोषण का बोझ सहते हुए लोग जहां-तहां अपनी व्यवस्था को जितना सहेज सकते थे, उन्होंने इसका प्रयास किया।
दुख की बात यह है कि स्वतंत्रता के बाद भी जल प्रबंधन के इन आत्म-निर्भर, सस्ते और स्थानीय भौगोलिक विशेषताओं का पूरा ध्यान रखने वाले परंपरागत तौर-तरीकों पर ध्यान नहीं दिया गया। औपनिवेशिक शासकों ने जल प्रबंधन की जो नीतियां अपनाई थीं, उसमें उनके अपने स्वार्थों के साथ-साथ युरोप में वर्षा के पैटर्न पर आधारित सोच हावी थी। इस सोच के आधार पर स्थानीय स्तर के जल संरक्षण को अधिक महत्व नहीं दिया गया। बाद में धीरे-धीरे इस क्षेत्र के साथ बड़ी निर्माण कंपनियों, ठेकेदारों व उनसे लाभ उठाने वाले अधिकारियों व नेताओं के स्वार्थ भी जुड़ गए। निहित स्वार्थ जब नीति पर हावी हो गए तो गांवों के सस्ते और आत्म-निर्भर तौर तरीकों की बात भला कौन सुनता, समझता?
गांव की बढ़ती आबादी के साथ मनुष्य व पशुओं के पीने के लिए, सिंचाई व निस्तार के लिए पानी की आवश्यकता बढ़ती जा रही थी, अत: परंपरागत तौर-तरीकों को और दुरूस्त करने की, उन्हें बेहतर बनाने की आवश्यकता थी। यह नहीं हुआ और इसके स्थान पर अपेक्षाकृत बड़ी नदियों पर बड़े व मझोले बांध बनाने पर ज़ोर दिया गया। पानी के गिरने की जगह पर ही उसके संरक्षण के सस्ते तौर तरीकों के स्थान पर यह तय किया गया कि उसे बड़ी नदियों तक पहुंचने दो, फिर उन पर बांध बनाकर कृत्रिम जलाशय में एकत्र कर नहरों का जाल बिछाकर इस पानी के कुछ हिस्से को वापिस गांवों में पहुंचाया जाएगा। निश्चय ही यह दूसरा तरीका अधिक मंहगा था और गांववासियों की बाहरी निर्भरता भी बढ़ाता था।
इस तरीके पर अधिक निर्भर होने से हम अपनी वर्षा के इस प्रमुख गुण को भी भूल गए कि विशेषकर वनस्पति आवरण कम होने पर उसमें अत्यधिक मिट्टी बहा ले जाने की क्षमता होगी। यह मिट्टी कृत्रिम जलाशयों की क्षमता और आयु को बहुत कम कर सकती है। मूसलाधार वर्षा के वेग को संभालने की इन कृत्रिम जलाशयों की क्षमता इस कारण और भी सिमट गई है। आज हालत यह है कि वर्षा के दिनों में प्रलयंकारी बाढ़ के अनेक समाचार ऐसे मिलते हैं जिनके साथ यह लिखा रहता है – अमुक बांध से पानी अचानक छोड़े जाने पर यह विनाशकारी बाढ़ आई। इस तरह अरबों रुपए के निर्माण कार्य जो बाढ़ से सुरक्षा के नाम पर किए गए थे, वे ही विनाशकारी बाढ़ का स्रोत बने हुए हैं। दूसरी ओर, नहरों की सूखी धरती और प्यासे गांव तक पानी पहुंचाने की वास्तविक क्षमता उन सुहावने सपनों से बहुत कम है, जो इन परियोजनाओं को तैयार करने के समय दिखाए गए थे। इन बड़ी और महत्वाकांक्षी परियोजनाओं के अनेकानेक प्रतिकूल पर्यावरणीय और सामाजिक परिणाम भी स्पष्ट रूप से सामने आ चुके हैं।
जो लोग विकास कार्यों में केवल विशालता और चमक-दमक से प्रभावित हो जाते हैं उन्हें यह स्वीकार करने में वास्तव में कठिनाई हो सकती है कि सैकड़ों वर्षों से हमारे गांवों में स्थानीय ज्ञान और स्थानीय ज़रूरतों के आधार पर जो छोटे स्तर की आत्म-निर्भर व्यवस्थाएं जनसाधारण की सेवा करती रही हैं, वे आज भी बाढ़ और सूखे का संकट हल करने में अरबों रुपयों की लागत से बनी, अति आधुनिक इंजीनियरिंग का नमूना बनी नदी-घाटी परियोजनाओं से अधिक सक्षम हैं। वास्तव में इस हकीकत को पहचानने के लिए सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अपनी विरासत को पहचानने और पूर्वजों के संचित ज्ञान के विनम्र मूल्यांकन की आवश्यकता है।
यह सच है कि इस परंपरा में अनेक कमियां भी मिलेंगी। हमारे पुराने समाज में भी अनेक विषमताएं थीं और ये विषमताएं कई बार तकनीक में भी खोट पैदा करती थीं। जिस समाज में कुछ गरीब लोगों की अवहेलना होती हो, वहां पर अन्याय भी ज़रूर रहा होगा कि उनको पानी के हकों से भी वंचित किया जाए या उनसे भेदभाव हो। एक ओर हमें इन पारंपरिक विकृतियों से लड़ना है और उन्हें दूर करना है। लेकिन दूसरी ओर यह नहीं भूलना चाहिए कि विशेषकर जल प्रबंधन की हमारी विरासत में गरीब लोगों का बहुत बड़ा हाथ है क्योंकि इस बुनियादी ज़रूरत को पूरा करने में सबसे ज़्यादा पसीना तो इन मेहनतकशों ने ही बहाया था। आज भी जल प्रबंधन का परंपरागत ज्ञान जिन जातियों या समुदायों के पास सबसे अधिक है उनमें से अधिकांश गरीब ही हैं। जैसे केवट, मल्लाह, कहार, ढीमर, मछुआरे आदि। ज़रूरत इस बात की है कि स्थानीय जल प्रबंधन का जो ज्ञान और जानकारी गांव में पहले से मौजूद है उसका भरपूर उपयोग आत्म-निर्भर और सस्ते जल संग्रहण और संरक्षण के लिए किया जाए और इसका लाभ सब गांववासियों को समान रूप से दिया जाए।
महाराष्ट्र में पुणे ज़िले में पानी पंचायतों के सहयोग से ग्राम गौरव प्रतिष्ठान ने दर्शाया है कि कैसे भूमिहीनों को भी पानी का हिस्सा मिलना चाहिए और पानी का उपयोग बराबर होना चाहिए। परंपरागत तरीकों को इस तरह सुधारने के प्रयास निरंतर होने चाहिए, पर परंपराओं की सही समझ बनाने के बाद। यदि सरकार बजट का एक बड़ा हिस्सा जल संग्रहण और संरक्षण के इन उपायों के लिए दे और निष्ठा तथा सावधानी से कार्य हो तो बाढ़ व सूखे का स्थायी समाधान प्राप्त करने में बहुत सहायता मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://gca.org/how-ancient-water-conservation-methods-are-reviving-in-india/
अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण प्रयास करते हुए नासा के वैज्ञानिकों ने रोटेटिंग डेटोनेशन इंजन (आरडीई) नामक एक अभूतपूर्व तकनीक का इजाद किया है। इस नवीन तकनीक को रॉकेट प्रणोदन के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी परिवर्तन के रूप में देखा जा रहा है।
नियंत्रित दहन प्रक्रिया पर निर्भर पारंपरिक तरल ईंधन आधारित इंजनों के विपरीत आरडीई विस्फोटन तकनीक पर काम करते हैं। इसमें एक तेज़, विस्फोटक दहन को अंजाम दिया जाता है जिससे अधिकतम ईंधन दक्षता प्राप्त होती है। गौरतलब है कि पारंपरिक रॉकेट इंजनों में ईंधन को धीरे-धीरे जलाया जाता है और नियंत्रित दहन से उत्पन्न गैसें नोज़ल में से बाहर निकलती हैं और रॉकेट आगे बढ़ता है। दूसरी ओर आरडीई में, संपीड़न और सुपरसॉनिक शॉकवेव की मदद से विस्फोट कराया जाता है जिससे ईंधन का पूर्ण व तत्काल दहन होता है। देखा गया कि इस तरह से करने पर ईंधन का ऊर्जा घनत्व ज़्यादा होता है।
पर्ड्यू विश्वविद्यालय के इंजीनियर स्टीव हेस्टर ने आरडीई के अंदर होने वाले दहन को ‘दोजख की आग’ नाम दिया है जिसमें इंजन के भीतर का तापमान 1200 डिग्री सेल्सियस हो जाता है। यह तकनीक न केवल बेहतर प्रदर्शन प्रदान करती है, बल्कि अंतरिक्ष यान को अधिक दूरी तय करने, उच्च गति प्राप्त करने और बड़े पेलोड ले जाने में सक्षम भी बनाती है।
यह तकनीक ब्रह्मांड की खोज के लिए अधिक कुशल और लागत प्रभावी तरीका प्रदान करती है। जैसे-जैसे वैज्ञानिक इस अत्याधुनिक तकनीक को परिष्कृत और विकसित करते जाएंगे, भविष्य के अंतरिक्ष अभियानों की संभावनाएं पहले से कहीं अधिक उज्जवल होती जाएंगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/dam/m/2be5a63367b8e8f/original/2022-08-fulltest_WEB.jpg?w=1200
टीकों के विज्ञान में एक दिलचस्प रहस्य छिपा है जिसे एडजुवेंट (सहायक पदार्थ) कहते हैं। 1920 के दशक में फ्रांसीसी पशुचिकित्सक गैस्टन रेमन ने पाया था कि टीकों में ब्रेड का चूरा, कसावा या ऐसा ही कोई योजक मिलाने से टीके बेहतर काम करते हैं। सहायक पदार्थों की इस भूमिका को देखते हुए कुछ टीकों में इनका उपयोग किया जा रहा है। साथ ही नए टीके तैयार करने के लिए एडजुवेंट पर शोध जारी है ताकि लंबे समय तक कारगर टीके विकसित किए जा सकें।
टीके का मतलब है कि रोगजनक का मृत या दुर्बल रूप या उसके द्वारा बनाया जाने वाला विष शरीर में प्रविष्ट कराया जाता है। शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र इसे एंटीजन के रूप में पहचान लेता है और जन्मजात प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया पैदा होती है जिसके फलस्वरूप सूजन पैदा होती है। इसके साथ ही, प्रतिरक्षा कोशिकाएं एंटीजन को लिम्फ नोड्स तक पहुंचाती हैं, जहां अनुकूली प्रतिरक्षा तंत्र सक्रिय हो जाता है। प्रतिरक्षा तंत्र मूलत: सूजन के ज़रिए ही काम करता है और कोशिश यही रहती है कि यह सूजन यथेष्ट मात्रा में पैदा हो।
एडजुवेंट प्रतिरक्षा तंत्र की प्रतिक्रिया में सुधार करते हैं। वे सुनिश्चित करते हैं कि टीकों से सूजन ठीक मात्रा में उत्पन्न हो – न बहुत ज़्यादा, न बहुत कम।
हालांकि, कुछ टीके प्रतिरक्षा उत्पन्न करने का अच्छा काम करते हैं, लेकिन प्रतिरक्षा प्रणाली को चकमा देने की क्षमता वाले जटिल रोगजनकों, जैसे एचआईवी, इन्फ्लूएंज़ा और मलेरिया, के लिए टीके विकसित करना काफी चुनौतीपूर्ण है। इसके लिए वैज्ञानिकों ने प्रतिरक्षा प्रणाली की जटिलताओं में गहराई से उतरकर ऐसे टीके बनाने का प्रयास किया जो व्यापक सुरक्षा प्रदान करते हैं। एडजुवेंट इस प्रयास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। रेमन ने देखा था कि जब घोड़ों में टीके के स्थान के आसपास संक्रमण विकसित होता है तो उनमें अधिक शक्तिशाली एंटी-डिप्थीरिया सीरम बनता है। जल्द ही वे उसी प्रतिक्रिया को बढ़ाने और प्रतिरक्षा में सहायता करने के लिए टीकों में ब्रेड का चूरा वगैरह चीज़ें मिलाने लगे।
इसे आगे बढ़ाते हुए एल्युमीनियम लवण जैसे एडजुवेंट्स का विकास हुआ। एडजुवेंट पर काम कर रहे एमआईटी के डेरेल इरविन का विचार है कि एमआरएनए टीकों में संयोगवश चुने गए लिपिड नैनोकण शायद एडजुवेंट के समान कार्य करते हैं। कुछ टीकों में सहायक पदार्थ इस आधार पर चुने जाते हैं कि उनमें संक्रामक बैक्टीरिया के कुछ घटक होते हैं। ऐसे अणुओं के खिलाफ प्रतिक्रिया के ज़रिए एडजुवेंट सूजन बढ़ाते हैं और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया मज़बूत होती है।
अंतत: एडजुवेंट प्रतिरक्षा कोशिकाओं की जीन गतिविधि को पुन: प्रोग्राम कर पाएंगे, जिससे एक साथ कई बीमारियों से सुरक्षा मिल सकेगी। चूहों पर हुए अध्ययनों से पता चला है कि एडजुवेंट युक्त तपेदिक का बीसीजी टीका विभिन्न संक्रमणों के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है। इस शोध के आधार पर वैज्ञानिकों का लक्ष्य ऐसे एडजुवेंट विकसित करना है जो दीर्घकालिक एंटीवायरल प्रतिरक्षा प्रेरित कर सकें और विभिन्न रोगजनकों के खिलाफ व्यापक सुरक्षा प्रदान करें।
इरविन का मानना है कि एडजुवेंट पर अधिक अनुसंधान से कैंसर जैसी लाइलाज बीमारियों के विरुद्ध टीकों के निर्माण में मदद मिल सकती है। ट्यूमर द्वारा बनाए जाने वाले प्रोटीन और एडजुवेंट के मिश्रण के परीक्षण मेलेनोमा और अग्न्याशय के कैंसर के विरुद्ध प्रतिरक्षा को उत्तेजित करने में प्रभावी रहे हैं।
विशेषज्ञों का मत है कि भविष्य में एडजुवेंट सूजन पर हमारी समझ विकसित होने पर एचआईवी, मलेरिया, कैंसर, इन्फ्लूएंज़ा और सार्स-कोव-2 के नए स्ट्रेन जैसे संक्रामक खतरों सहित कई बीमारियों से एक साथ निपटने के लिए समाधान मिल सकेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.natgeofe.com/n/2341016f-79a8-46e2-8d2b-076591129c73/ScienceSourceImages_2464093_HighRes_16x9.jpg