हूबहू जुड़वां के फिंगरप्रिंट अलग-अलग क्यों?

फिंगरप्रिंट, नाम तो सुना ही होगा। मनुष्यों और पेड़ों पर चढ़ने वाले कुछ जंतुओं की उंगलियों के सिरों पर जो धारियां पाई जाती हैं, उन्हीं के विन्यास को फिंगरप्रिंट कहते हैं। ये फिंगरप्रिंट किसी चीज़ पर पकड़ को बेहतर बनाते हैं और चीज़ों के चिकने-खुरदरेपन को भांपने में भी मदद करते हैं।

यह तो आम जानकारी है कि किन्हीं भी दो व्यक्तियों के फिंगरप्रिंट एक समान नहीं होते। लेकिन यह बात शायद बहुत कम लोग जानते हैं कि हूबहू एक-समान जुड़वां व्यक्तियों के फिंगरप्रिंट भी अलग-अलग होते हैं। तो ऐसा क्यों है? सवाल का जवाब इस सवाल में छिपा है कि फिंगरप्रिंट बनते कैसे हैं।

एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि तीन प्रकार के संकेतक अणु और उंगलियों की आकृतियों में और त्वचा की वृद्धि में बारीक अंतर मिलकर इस विशिष्ट पैटर्न को पैदा करते हैं।

फिंगरप्रिंट का निर्माण भ्रूणावस्था में काफी जल्दी (गर्भ ठहरने के करीब तेरहवें हफ्ते में) शुरू हो जाता है। सबसे पहले उंगली के सिरे पर धसानें बनती हैं। ये धसानें ही आगे चलकर तीन मुख्य पैटर्न का रूप ले लेती हैं – चक्र, शंख, और मेहराब।

वैज्ञानिकों ने कई जीन्स की पहचान की है जो पैटर्न निर्माण को प्रभावित करते हैं। लेकिन यह रहस्य ही रहा है कि ये जीन किसी तरह की जैव-रासायनिक क्रियाओं के ज़रिए इस पैटर्न का निर्धारण करते हैं। और अब इसे समझने की कोशिश में एडिनबरा विश्वविद्यालय के डेनिस हेडन ने मनुष्य की भ्रूणीय उंगली के सिरों की कोशिकाओं के केंद्रकों में उपस्थित आरएनए का अनुक्रमण किया है। वे जानना चाहते थे कि विकास के दौरान वहां कौन-से जीन्स अभिव्यक्त होते हैं। इन जीन्स ने तीन संकेत क्रियापथ उजागर किए। संकेत क्रियापथ उन प्रोटीन्स को कहते हैं जो कोशिकाओं के बीच निर्देशों को लाते-ले जाते हैं। ये तीन क्रियापथ उंगली के छोरों पर त्वचा के विकास का निर्धारण करते हैं।

इनमें से दो संकेत क्रियापथों के लिए ज़िम्मेदार जीन्स – WNT और BMP – विकसित हो रहे उंगली के सिरों पर एकांतर पट्टियों में अभिव्यक्त होते हैं। यही पट्टियां अंतत: धसान और उभार में तबदील हो जाती हैं। तीसरा क्रियापथ – EDAR – विकासमान धसानों में बाकी दो के साथ ही अभिव्यक्त होता है।

उपरोक्त जानकारी तो मानव ऊतकों के अध्ययन से मिली थी। गौरतलब है कि ये ऊतक स्वेच्छा से गर्भपात किए गए भ्रूणों से प्राप्त किए गए थे। लेकिन वैज्ञानिक इस जानकारी की पुष्टि किसी जंतु मॉडल पर करना चाहते थे।

चूहों में भी उंगली के छोरों पर धारियों का सरल पैटर्न पाया जाता है। जब वैज्ञानिकों ने संकेत क्रियापथों का कृत्रिम रूप से दमन किया तो पता चला कि WNT और BMP क्रियापथ परस्पर विपरीत ढंग से काम करते हैं। WNT क्रियापथ कोशिका वृद्धि को बढ़ावा देता है जिसके चलते त्वचा की ऊपरी परत में उभार बनते हैं। दूसरी ओर, BMP कोशिका वृद्धि को रोकता है और इसकी वजह से नालियां बन जाती हैं। तो तीसरा क्रियापथ EDAR क्या करता है? यह क्रियापथ उभारों की साइज़ और उनके बीच की दूरी का निर्धारण करता है।

जब शोधकर्ताओं ने WNT क्रियापथ का दमन कर दिया तो उन चूहों की उंगलियों पर उभार बने ही नहीं जबकि BMP क्रियापथ को दबाने से उभार अधिक चौड़े बने। और जब EDAR को ठप कर दिया गया तो उभार व नालियां तो बनी लेकिन पट्टियों के रूप में नहीं बल्कि थेगलों के रूप में।

तो सवाल वहीं का वहीं है। हूबहू समान जुड़वां में तो जीन्स एक जैसे होते हैं। फिर पैटर्न अलग-अलग क्यों। इस संदर्भ में ट्यूरिंग पैटर्न को समझना ज़रूरी है। उक्त शोध के प्रमुख हेडन का कहना है कि परस्पर व्याप्त (ओवरलैपिंग), अलग-अलग रासायनिक क्रियाएं पेचीदा पैटर्न पैदा करती हैं। इन्हें ट्यूरिग पैटर्न कहते हैं – ऐसे पैटर्न प्रकृति में कई जगह देखने को मिलते हैं। जैसे बाघ के फर पर अलग-अलग रंग की पट्टियां, चीतों के शरीर पर धब्बे वगैरह। फिंगरप्रिंट के पैटर्न भी ट्यूरिंग पैटर्न हैं। गौरतलब है कि इन पैटर्न्स के बनने की क्रियाविधि का प्रस्ताव मशहूर कंप्यूटर वैज्ञानिक एलन ट्यूरिंग द्वारा दिया गया था।

लेकिन फिंगरप्रिंट में एक पेंच और है। हेडन की टीम ने पाया कि धारियों के विशिष्ट पैटर्न उंगलियों के आकारों में बारीक अंतरों पर भी निर्भर करते हैं। मानव भ्रूण के उतकों में उन्होंने देखा कि प्राथमिक उभार तीन स्थलों पर बनना शुरू होते हैं। भ्रूणीय उंगली की उभरी हुई मुलायम गद्दी के केंद्र में, उंगली के नाखून के नीचे वाले सिरे पर और उंगली के जोड़ पर। धारियां इन तीन स्थलों से बाहर की ओर तरंगों के रूप में फैलती हैं। हर धारी अपने से अगली धारी की स्थिति निर्धारित कर देती है।

आगे सब कुछ उंगली की रचना पर निर्भर करता है। यदि गद्दियां चौड़ी और सममित हैं और धारियां वहां पहले बनने लगें तो चक्र प्रकट होता है। लेकिन यदि गद्दियां लंबी और असममित हों, तो शंख बनेगा। तीसरी स्थिति यह हो सकती है कि गद्दी पर धारियां न बनें या देर से बनना शुरू हों तो नाखून वाले सिरे और जोड़ के किनारे से धारियां बढ़ते-बढ़ते गद्दी के मध्य में आकर मिलेंगी और मेहराब का निर्माण हो जाएगा।

फिंगरप्रिंट निर्माण का अध्ययन करते-करते शोधकर्ताओं ने पाया कि यही तीन रासायनिक संकेत – WNT, BMP, EDAR – शरीर के शेष भागों की त्वचा पर विभिन्न रचनाएं बनाने के लिए ज़िम्मेदार हैं, जिनमें बाल वगैरह भी शामिल हैं। (स्रोत फीचर्स) (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भ्रूण में जेनेटिक फेरबदल करने वाले वैज्ञानिक का वीज़ा रद्द

मानव भ्रूण के जीन संपादन मामले में चीनी जैव-भौतिकविद ही जियानकुई को वर्ष 2019 में अनैतिक चिकित्सा पद्धति के जुर्म में तीन वर्ष कैद की सज़ा सुनाई गई थी। सज़ा समाप्ति के बाद उन्हें गत माह हांगकांग का वीज़ा दिया गया जिसे केवल 10 दिन बाद रद्द कर दिया गया। जियानकुई को 2-वर्षीय टॉप टैलेंट वीज़ा दिया गया था जिसका उद्देश्य “समृद्ध कार्य अनुभव और अच्छी शैक्षणिक योग्यता वाले” लोगों को आकर्षित करना है। लेकिन हांगकांग के अधिकारियों ने पुनर्विचार करके वीज़ा रद्द कर दिया। अधिकारियों को जियानकुई के आवेदन पत्र में गलत तथ्य देने की आशंका है। अब आवेदन के फॉर्म में संशोधन करके आपराधिक मामले उजागर करने की शर्त जोड़ी जा सकती है।

अप्रैल 2022 में जेल से रिहा होने के बाद, जियानकुई ने बीजिंग में एक प्रयोगशाला स्थापित की थी और दुर्लभ बीमारियों के लिए जीन थेरपी पर शोध अध्ययन करने का विचार किया था। इसके लिए उन्होंने कई लोगों से शोध में वित्तीय सहायता की भी मांग की है। उन्होंने अभी तक यह खुलासा नहीं किया है कि क्या उन्हें कोई समर्थक मिला है। (स्रोत फीचर्स)

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उपकरण की मदद से बोलने का रिकॉर्ड

एलएस नामक रोग की वजह से एक महिला की बोलने की क्षमता पूरी तरह जा चुकी थी। एएलएस या लाऊ गेरिग रोग व्यक्ति को क्रमश: लकवा ग्रस्त करता जाता है। वह महिला आवाज़ तो पैदा कर सकती थी लेकिन शब्द समझने योग्य नहीं होते थे। अब उसी महिला ने एक मस्तिष्क इम्प्लांट की मदद से बोलने का रिकॉर्ड स्थापित कर दिया है।

यह दावा स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के एक दल ने बायोआर्काइव्स नामक वेबसाइट पर प्रकाशित शोध पत्र में किया है। महिला की पहचान गोपनीय रखने के लिए उसे छद्मनाम T12 से संबोधित किया गया है। रिकॉर्ड यह है कि T12 लगभग 62 शब्द प्रति मिनट की रफ्तार से बोल पा रही है। हम आम तौर पर करीब डेढ़ सौ शब्द प्रति मिनट की गति से बोलते हैं और बोलना संप्रेषण का सचमुच सबसे तेज़ तरीका है।

तो सवाल है कि यह करिश्मा हुआ कैसे और आगे की दिशा क्या होगी।

दरअसल, इससे जुड़े शोधकर्ता कृष्णा शिनॉय पिछले कई वर्षों से मस्तिष्क-कंप्यूटर के संपर्क बिंदु की गति को बढ़ाने के लिए प्रयासरत रहे हैं। इसके लिए वे एक छोटी सी पट्टी पर कई इलेक्ट्रोड लगाकर उसे व्यक्ति के मस्तिष्क के मोटर कॉर्टेक्स में स्थापित कर देते हैं। यह मस्तिष्क का वह हिस्सा है जो गतियों को नियंत्रित करने में भूमिका निभाता है। इस उपकरण की मदद से शोधकर्ता यह रिकॉर्ड कर पाते हैं व्यक्ति की कौन-सी तंत्रिकाएं एक साथ सक्रिय हो रही हैं। इस पैटर्न से यह पता चल जाता है कि वह व्यक्ति क्या क्रिया करने के बारे में सोच रहा है, भले वह व्यक्ति लकवाग्रस्त हो।

इससे पहले जो प्रयोग हुए थे उनमें लकवाग्रस्त व्यक्ति से हाथों की हरकत करने के बारे में सोचने को कहा गया था। ऐसे सोचते वक्त उसकी तंत्रिका गतिविधि को भांपकर वह इम्प्लांट कंप्यूटर के पर्दे पर कर्सर को चलाता था या वे सिर्फ सोचकर वीडियो गेम्स खेल सकते थे या रोबोटिक भुजा पर नियंत्रण कर सकते थे।

इन सफलताओं के बाद स्टैनफोर्ड की टीम यह समझने में लगी थी कि क्या बोलने से जुड़ी क्रियाओं के संदर्भ में मोटर कॉर्टेक्स की तंत्रिकाओं में कुछ उपयोगी जानकारी होती है।

जैसे, यदि T12 बोलने की कोशिश में अपने मुंह, जीभ, स्वर यंत्र को एक खास तरह से चलाने का प्रयास कर रही है तो क्या इस बात को तंत्रिका गतिविधियों में भांपा जा सकता है? ज़ाहिर है बोलते समय मांसपेशियों की बहुत छोटी-छोटी, बारीक हरकतें होती है। लेकिन बड़ी खोज यह हुई कि इन छोटी-छोटी हरकतों के बारे में भी चंद तंत्रिकाओं में ऐसी सूचनाएं होती है जिनकी मदद से कोई कंप्यूटर प्रोग्राम यह अनुमान लगा सकता है कि व्यक्ति क्या शब्द बोलने का प्रयास कर रहा है। और जब यह सूचना कंप्यूटर को दी गई तो उसके पर्दे पर वे शब्द प्रकट हो गए जो T12 बोलना चाहती थी।

देखा जाए, तो बोलते समय हम मांसपेशियों की निहायत पेचीदा हरकतें करते हैं – हम हवा को बाहर धकेलते हैं, उसमें कंपन पैदा करते हैं ताकि वह ध्वनि के रूप में निकले, फिर मुंह, होठों, जीभ की हरकतों से उस ध्वनि को शब्दों का रूप देते हैं।

पहले भी इन हरकतों को शब्दों में ढालने की ऐसी कोशिशें की जाती रही हैं लेकिन स्टैनफोर्ड की टीम ने अधिक सटीकता और गति हासिल कर ली है। इसमें कृत्रिम बुद्धि की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही और आगे यह भूमिका बढ़ने के साथ सटीकता और गति बढ़ने की उम्मीद है। इसमें भाषा के मॉडल्स का उपयोग यह पूर्वानुमान करने में किया जाएगा कि एक शब्द बोलने के बाद क्या अपेक्षा की जाए कि वह व्यक्ति अगला शब्द क्या बोलेगा। (स्रोत फीचर्स)

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सपनों में हरकतें मस्तिष्क रोगों की अग्रदूत हो सकती हैं

ई लोग सपने में देखे गए दृश्यों को वास्तव में अंजाम देते हैं। यह एक समस्या है जो अक्सर नींद के रैपिड आई मूवमेंट (आरईएम) चरण में होती है। इसे आरईएम निद्रा व्यवहार विकार (आरबीडी) कहते हैं और यह लगभग 0.5 से लेकर 1.25 प्रतिशत लोगों, खासकर वयस्क पुरुषों, को प्रभावित करता है। विश्लेषण से पता चला है कि आरबीडी तंत्रिका-क्षति रोगों का पूर्वाभास हो सकता है। खास तौर से सिन्यूक्लीनोपैथी का अंदेशा होता है जिसमें मस्तिष्क में अल्फा-सिन्यूक्लीन नामक प्रोटीन के लोंदे जमा हो जाते हैं।

वैसे सोते हुए किए जाने वाले सारे व्यवहार आरबीडी नहीं होते। जैसे नींद में चलना या बड़बड़ाना गैर-आरईएम निद्रा के दौरान होते हैं और इन्हें आरबीडी की क्षेणी में नहीं रखा जा सकता। इसके अलावा एक तथ्य यह भी है कि सारे आरबीडी का सम्बंध सिन्यूक्लीनोपैथी से नहीं होता। और तो और, यह स्थिति अन्य कारणों से भी बन सकती है।

अलबत्ता, जब आरबीडी के साथ ऐसी कोई अन्य स्थिति न हो तो भविष्य में बीमारी अंदेशा होता है। कुछ अध्ययनों का निष्कर्ष है कि सपनों में हरकतें भविष्य में तंत्रिका-क्षति रोग पैदा होने की 80 प्रतिशत तक भविष्यवाणी कर सकती हैं। हो सकता है कि यह ऐसी बीमारी का प्रथम लक्षण हो।

आरबीडी से जुड़ा सबसे प्रमुख रोग पार्किंसन रोग है। इसमें व्यक्ति क्रमश: अपने मांसपेशीय क्रियाकलापों पर नियंत्रण गंवाता जाता है। एक अन्य रोग है लेवी बॉडी स्मृतिभ्रंश। इसमें मस्तिष्क में लेवी बॉडीज़ जमा होने लगती हैं और व्यक्ति का अपनी हरकतों और संज्ञान पर नियंत्रण नहीं रहता। एक तीसरे प्रकार की सिन्यूक्लीनोपैथी व्यक्ति की ऐच्छिक हरकतों के अलावा अनैच्छिक क्रियाओं (जैसे पाचन) में भी व्यवधान पहुंचाती है। शोधकर्ताओं का मत है कि जीर्ण कब्ज़ और गंध की संवेदना के ह्रास की अपेक्षा आरबीडी सिन्यूक्लीनोपैथी का बेहतर पूर्वानुमान देता है।

वैसे तो सपनों को चेष्टाओं में बदलना और पार्किंसन के आपसी सम्बंध के बारे में काफी समय से लिखा जाता रहा है। स्वयं जेम्स पार्किंसन ने 1817 में इसके बारे में लिखा था। सपनों और पार्किंसन रोग के बारे में कई रिपोर्ट्स के बावजूद इनकी कड़ियों को जोड़ा नहीं जा सका था। लेकिन हाल ही में खुद एक मरीज़, जिसे आरबीडी की शिकायत थी, ने अपने डॉक्टर से आग्रह किया कि उसका ब्रेन स्कैन करके पार्किंसन के बारे में शंका की जांच करें। उस मरीज़ की आशंका सही निकली – उसे पार्किंसन रोग था।

हाल के वर्षों में आरबीडी और सिन्यूक्लीनोपैथी के बीच कार्यकारी सम्बंध की समझ बढ़ी है। आम तौर पर आरईएम निद्रा के दौरान कुछ क्रियाविधि होती है जो ऐसी चेष्टाओं पर रोक लगाकर रखती है। लेकिन आरबीडी पीड़ित व्यक्ति में यह क्रियाविधि काम नहीं करती और वे शारीरिक चेष्टाएं करते रहते हैं। 1950 व 1960 के दशक में किए गए प्रयोगों से पता चला था कि आरईएम निद्रा के दौरान ऐसी हरकतें कितनी ऊटपटांग हो सकती हैं। जैसे कुछ बिल्लियों पर प्रयोग के दौरान उनके ब्रेन स्टेम के कुछ हिस्सों को काटकर निकाल दिया गया। ऐसा करने पर आरईएम निद्रा के दौरान मांसपेशियों की हरकतों पर जो रुकावट लगी थी वह समाप्त हो गई और आरईएम निद्रा के दौरान वे बिल्लियां ऐसे हाथ-पैर मारती रहीं जैसे सपने देखकर उसके अनुसार हरकतें कर रही हों।

फिर 1980 के दशक में एक मनोचिकित्सक कार्लोस शेंक और उनके साथियों ने आरबीडी को लेकर पहले केस अध्ययन प्रकाशित किए। ये मरीज़ वैसे तो शांत स्वभाव के थे किंतु उनका कहना था कि वे हिंसक सपने देखते हैं और आक्रामक व्यवहार करने लगते हैं। शेंक की टीम ने 29 आरबीडी मरीज़ों का अध्ययन किया। सभी 50 वर्ष से अधिक उम्र के थे। शेंक की टीम ने रिपोर्ट किया है कि इनमें से 11 में आरबीडी की शुरुआत के औसतन 13 वर्षों बाद तंत्रिका-क्षति रोग उभरे। आगे चलकर, कुल 21 मरीज़ों में ऐसे रोग प्रकट हुए।

इन परिणामों की पुष्टि एक ज़्यादा व्यापक अध्ययन से भी हुई है। दुनिया भर के 21 केंद्रों के 1280 आरबीडी मरीज़ों में से 74 प्रतिशत में 12 वर्षों के अंदर तंत्रिका-क्षति रोग का निदान किया गया। धीरे-धीरे आरबीडी और तंत्रिका-क्षति रोगों के बीच की कड़ियों को स्वीकार कर लिया गया है। लेकिन अभी स्पष्ट नहीं है कि इन कड़ियों का कार्यिकीय आधार क्या है।

कई वैज्ञानिकों का मत है कि आरबीडी इस वजह से होता है क्योंकि सिन्यूक्लीन ब्रेन स्टेम के उस हिस्से में जमा होने लगता है जो हमें आरईएम निद्रा के दौरान निष्क्रिय करके रखता है। अपने सामान्य रूप में यह प्रोटीन तंत्रिकाओं के कामकाज में भूमिका निभाता है। लेकिन जब यह असामान्य ढंग से तह हो जाता है तो यह विषैले लोंदे बना सकता है। ऑटोप्सी परीक्षणों से पता चला है कि आरबीडी से पीड़ित 90 प्रतिशत मरीज़ों की मृत्यु मस्तिष्क में सिन्यूक्लीन जमाव के लक्षणों के साथ होती है। अभी तक ऐसी कोई तकनीक उपलब्ध नहीं है जिससे जीवित व्यक्ति के मस्तिष्क में सिन्यूक्लीन के थक्कों की जांच की जा सके। अलबत्ता, वैज्ञानिक कोशिश कर रहे हैं कि शरीर के अन्य हिस्सों (खासकर सेरेब्रो-स्पायनल द्रव) में गलत तरह से तह हुए सिन्यूक्लीन का पता लगाया जा सके। ऐसे एक अध्ययन में आरबीडी पीड़ित 90 प्रतिशत व्यक्तियों में गलत ढंग से तह हुआ सिन्यूक्लीन मिला है।

इतना तो सभी मान रहे हैं कि आरबीडी पार्किंसन तथा अन्य तंत्रिका-क्षति रोगों का प्रारंभिक लक्षण है। इस समझ के साथ वैज्ञानिक यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि ऐसा हानिकारक सिन्यूक्लीन शरीर में किस तरह फैलता है। इस बात के काफी प्रमाण मिले हैं कि यह विकार आंतों में शुरू होता है और वहां से मस्तिष्क तक पहुंचता है। उदाहरण के लिए चूहों पर किए गए प्रयोगों से पता चला है कि आंतों से मस्तिष्क तक यह वैगस तंत्रिका के ज़रिए पहुंचता है। मनुष्यों में भी देखा गया है कि वैगस तंत्रिका को काट दें (जो जीर्ण आमाशय अल्सर के इलाज के लिए किया जाता है), तो पार्किंसन होने का जोखिम कम हो जाता है।

कुछ शोधकर्ताओं का मत है कि पार्किंसन दो प्रकार का होता है। कुछ में यह आंतों में पहले शुरू होता है और कुछ में पहले मस्तिष्क में। जैसे डेनमार्क के आर्हुस विश्वविद्यालय के पर बोर्गहैमर का कहना है कि आरबीडी मस्तिष्क-प्रथम पार्किंसन का एक शुरुआती लक्षण हो सकता है लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि आरबीडी के हर मरीज़ को अंतत: पार्किंसन रोग होगा ही। मात्र एक-तिहाई मरीज़ों में ऐसा होता है।

इस संदर्भ में एक और अवलोकन महत्वपूर्ण है। सॉरबोन विश्वविद्यालय की इसाबेल आर्नल्फ ने पार्किंसन के मरीज़ों के स्वप्न के समय के व्यवहार में कुछ अजीब बात देखी। ये मरीज़ जागृत अवस्था में तो शारीरिक क्रियाओं में दिक्कत महसूस करते थे, लेकिन सोते समय इन्हें हिलने-डुलने में कोई परेशानी नहीं होती थी। इस तरह के व्यवहार के रिकॉर्डिग की मदद से आर्नल्फ की टीम को आरबीडी मरीज़ों के सपनों की कुछ विशेषताएं देखने को मिलीं जिनके आधार पर शायद यह समझने में मदद मिलेगी कि हमें सपने कैसे और क्यों आते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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भोजन और हमजोली के बीच चुनाव

हावत है कि भूखे पेट भजन न होए गोपाला! लेकिन हालिया अध्ययन में देखा गया है कि चूहों को ‘उल्लू’ बनाया जा सकता है कि वे हल्की-फुल्की भूख होने पर भी भोजन की बजाय विपरीत लिंग के साथ मेलजोल को प्राथमिकता देने लगें।

यह तो मालूम था कि लेप्टिन नामक हार्मोन मस्तिष्क में तंत्रिकाओं के एक समूह को सक्रिय कर भूख के एहसास को दबाता है। कोलोन विश्वविद्यालय की न्यूरोसाइंटिस्ट ऐनी पेटज़ोल्ड और उनके साथी यह देखना चाह रहे थे कि भोजन या साथी के बीच चुनाव करने में लेप्टिन की क्या भूमिका है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने कुछ नर चूहों को लेप्टिन दिया और उनका अवलोकन किया। अध्ययन के दौरान, पूरे दिन के भूखे चूहे भी खाने से भरे कटोरे की ओर नहीं गए (जैसी कि अपेक्षा थी) लेकिन साथ ही वे चुहियाओं के साथ मेलजोल बढ़ाते भी दिखे।

सेल मेटाबॉलिज़्म में प्रकाशित ये नतीजे सामाजिक व्यवहार में लेप्टिन की एक नई व आश्चर्यजनक भूमिका दर्शाते हैं और वैज्ञानिकों को तंत्रिका विज्ञान के एक अहम सवाल के जवाब की ओर एक कदम आगे बढ़ाते हैं – कि कैसे जीव अपनी मौजूदा ज़रूरतों के सामने विभिन्न व्यवहारों को प्राथमिकता देते हैं।

शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क के तथाकथित भूख केंद्र (पार्श्व हाइपोथैलेमस) की तंत्रिकाओं की जांच की। टीम ने देखा कि लेप्टिन के प्रति संवेदी तंत्रिकाएं तब सक्रिय हुईं जब चूहे विपरीत लिंग के चूहों से मिले। ऑप्टोजेनेटिक्स नामक तकनीक की मदद से इन तंत्रिकाओं को सक्रिय करने से भी इस बात की संभावना बढ़ गई कि चूहे विपरीत लिंग के चूहों के पास जाएंगे। ये दोनों परिणाम बताते हैं कि लेप्टिन नामक हार्मोन सामाजिक व्यवहार को बढ़ावा देने में भी भूमिका निभाता है।

लेकिन जब चूहों को पांच दिन तक सीमित भोजन दिया गया तब उन्होंने साथी की बजाय भोजन को प्राथमिकता दी। अर्थात लंबी भूख ने अन्य प्रणालियों को सक्रिय कर दिया और भोजन को वरीयता मिलने लगी। लेप्टिन आम तौर पर तब पैदा होता है जब जंतु की ऊर्जा ज़रूरतों की पूर्ति हो गई हो। तब वह अपनी अन्य ज़रूरतों पर ध्यान दे सकता है, अपने व्यवहार की प्राथमिकताएं बदल सकता है।

शोधकर्ताओं ने उन तंत्रिकाओं का भी अध्ययन किया जो न्यूरोटेंसिन नामक हार्मोन बनाती हैं – यह हार्मोन प्यास से सम्बंधित है। देखा गया कि इन तंत्रिकाओं की सक्रियता ने भोजन या सामाजिक व्यवहार की बजाय प्यास बुझाने को तवज्जो दी।

चूहों में लेप्टिन और सामाजिक व्यवहारों के बीच सम्बंध समझकर इस बारे में समझा जा सकता है कि क्यों ऑटिज़्म से ग्रस्त कुछ लोग खाने की विचित्र प्रकृति दर्शाते हैं, या बुलीमिया से ग्रस्त कुछ लोगों में सामाजिक भय (सोशल फोबिया) दिखता है। (स्रोत फीचर्स)

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शोधपत्र में जालसाज़ी, फिर भी वापसी से इन्कार

प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका दी प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी बी: बायोलॉजिकल साइंसेज़ का कहना है कि वह एनीमोन मछली के व्यवहार पर प्रकाशित एक शोध पत्र वापस नहीं लेगा, जबकि विश्वविद्यालय की एक लंबी जांच में यह पाया गया है कि यह मनगढ़ंत है।

डेलावेयर विश्वविद्यालय के एक स्वतंत्र खोजी पैनल ने पिछले साल एक मसौदा रिपोर्ट में कहा था कि 2016 के इस अध्ययन में विसंगतियां और दिक्कतें पाई गईं थीं। लेकिन पत्रिका ने अपने 1 फरवरी के संपादकीय नोट में कहा है कि उनकी अपनी जांच में इस अध्ययन में धोखाधड़ी के पर्याप्त सबूत नहीं मिले हैं, और कुछ जगहों पर लेखकों द्वारा किए गए सुधार ने शोध पत्र की प्रमुख समस्या हल कर दी है।

डीकिन युनिवर्सिटी के मत्स्य शरीर-क्रिया विज्ञानी टिमोथी क्लार्क का कहना है कि पत्रिका का यह निर्णय तकलीफदेह है। क्लार्क उस अंतर्राष्ट्रीय समूह का हिस्सा हैं जिन्होंने इस शोध पत्र में समस्याएं पाई थीं और उसके खिलाफ आवाज़ उठाई थी।

डेलावेयर विश्वविद्यालय के समुद्री पारिस्थितिकीविद डेनिएल डिक्सन और सदर्न क्रॉस युनिवर्सिटी की अन्ना स्कॉट द्वारा लिखित यह शोध पत्र वर्ष 2008 से 2018 के बीच प्रकाशित उन 22 अध्ययनों में से एक है जिन्हें क्लार्क और उनके साथियों ने फर्ज़ी बताया है। आरोप विशेषकर डिक्सन और उनके साथी फिलिप मुंडे पर हैं। लेकिन दोनों ने इस आरोप को गलत बताया है।

डेलावेयर विश्वविद्यालय के एक स्वतंत्र पैनल ने डिक्सन के काम की जांच में पाया था कि डिक्सन के कई शोध पत्रों में लगातार लापरवाही बरतने, रिकॉर्ड ठीक से न रखने, डैटा शीट में दोहराव (कॉपी-पेस्ट) करने और त्रुटियां करने का पैटर्न दिखता है। यह भी निष्कर्ष निकला था कि कई शोध पत्र में शोध कदाचार भी दिखता है। इसलिए डेलावेयर विश्वविद्यालय ने पत्रिकाओं से उनके तीन शोध पत्र वापस लेने को कहा था।

उनमें से एक 2016 में साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ था, जिसमें अध्ययन में लगा समय शोध पत्र में वर्णित प्रयोगों की बड़ी संख्या को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं लगता और उनके द्वारा साझा की गई एक्सेल डैटा शीट में 100 से अधिक आंकड़ों का दोहराव मिला था। इससे पता चलता है कि यह डैटा वास्तविक नहीं हो सकता। साइंस पत्रिका ने अगस्त 2022 में यह शोध पत्र वापस ले लिया था।

जांच समिति के अनुसार प्रोसीडिंग्स बी में प्रकाशित शोध पत्र भी इसी तरह की समस्याओं से ग्रस्त था। इस पेपर का निष्कर्ष है कि एनीमोन मछलियां “सूंघकर” भांप सकती हैं कि प्रवाल भित्तियां (कोरल रीफ) बदरंग हैं या स्वस्थ। उनका यह निष्कर्ष प्रयोगों की एक शृंखला पर आधारित था जिसमें मछलियों को एक प्रयोगशाला उपकरण (जिसे चॉइस फ्लूम कहा जाता है) में रखा गया था, जिसमें वे तय कर सकती थीं कि उन्हें किस दिशा में तैरना है।

ड्राफ्ट रिपोर्ट के अनुसार, डिक्सन ने 9-9 मिनट लंबे 1800 परीक्षणों से अध्ययन का डैटा एकत्रित किया था। जांच समिति का कहना है कि यदि डिक्सन ने एक ही फ्लूम इस्तेमाल किया है तो इतने परीक्षणों को पूरा करने के लिए उन्हें अविराम 12 घंटे काम करते हुए 22 दिन लगेंगे, जिसमें बीच में किसी तरह की तैयारी, उपकरणों को जमाना, सफाई, मछलियों को बाल्टी से उपकरण में स्थानांतरित करने आदि का समय शामिल नहीं है। (और इसी दौरान, डिक्सन को प्रयोग कक्ष के अंदर-बाहर 1800 लीटर समुद्री जल भी लाना ले जाना होगा।) लेकिन डिक्सन के शोध पत्र के अनुसार यह प्रयोग 12 से 24 अक्टूबर 2014 तक चला, यानी केवल 13 दिन में यह परीक्षण पूरा हो गया।

इस संदर्भ में प्रोसीडिंग्स बी के प्रधान संपादक स्पेंसर बैरेट का कहना है कि विश्वविद्यालय ने पिछले साल शोध पत्र वापसी का अनुरोध किया था लेकिन उन्होंने हमारे साथ समिति की जांच रिपोर्ट यह कहते हुए साझा नहीं की थी कि वह गोपनीय है। मैं जानना चाहता हूं कि उनके उक्त अनुरोध के पीछे सबूत क्या थे।

बैरेट आगे कहते हैं कि पत्रिका के तीन संपादकों ने स्वतंत्र विशेषज्ञों की मदद से 6 महीने में मामले की जांच की, जिसके परिणामस्वरूप 59 पन्नों की जांच रिपोर्ट तैयार हुई है। इसी बीच, स्कॉट और डिक्सन ने जुलाई 2022 में पेपर में एक सुधार किया, जिसमें उन्होंने कहा कि प्रयोग वास्तव में 5 अक्टूबर से 7 नवंबर 2014 के बीच यानी 33 दिन चला, और उन्होंने एक साथ दो फ्लूम का इस्तेमाल किया था। (डिक्सन ने अन्य अध्ययनों में भी दो फ्लूम उपयोग करने के बारे में बताया है। हालांकि विश्वविद्यालय की जांच समिति यह समझ नहीं पा रही है कि वे हर 5 सेकंड में एक साथ दो फ्लूम में मछली के व्यवहार को किस तरह देख और दर्ज कर सकते हैं।)

प्रोसीडिंग्स बी पत्रिका इन सुधारों पर विश्वास करती लग रही है। लेकिन सवाल है कि कोई 33 दिनों तक एक प्रयोग को चलाएगा और गलती से इस तरह क्यों लिख देगा कि यह 12 दिन में किया गया है।

इस पर बैरेट का कहना है कि प्रोसीडिंग्स बी के जांचकर्ताओं ने नई समयावधि की सत्यता की जांच नहीं की है। “मैं मानता हूं कि समयावधि में परिवर्तन और उपयोग किए गए फ्लूम की संख्या विचित्र है, लेकिन हमने इसे सुधार के तौर पर स्वीकार किया है।”

सुधार के आलवा डिक्सन और स्कॉट ने अध्ययन का डैटा भी अपलोड किया है, जो पहले नदारद था जबकि शोध पत्र में कहा गया था कि यह ऑनलाइन उपलब्ध है। लेकिन इस डैटा ने एक नई समस्या उठाई है। डैटा के विश्लेषण से पता चलता है कि साइंस पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र की तरह इसमें भी डैटा का दोहराव हुआ है।

जांच समिति को शिकायत है कि पत्रिका की जांच ने पेपर को स्वतंत्र ईकाई के रूप में जांचा है, जबकि साइंस पत्रिका द्वारा वापस लिए शोधपत्र में भी ऐसी ही समस्याएं थीं। इस पर बैरेट का कहना है कि पत्रिका की प्रक्रिया उन अध्ययनों की जांच करना है जिन्हें स्वयं उसने प्रकाशित किया है, अन्य पत्रिकाओं द्वारा प्रकाशित अध्ययन की जांच करना नहीं। प्रत्येक अध्ययन को स्वतंत्र मानकर काम किया जाता है।

डिक्सन ने इस संदर्भ में अभी कुछ नहीं कहा है।

समिति की मसौदा रिपोर्ट बताती है कि तीसरा समस्याग्रस्त शोध पत्र वर्ष 2014 में नेचर क्लाइमेट चेंज में मुंडे, डिक्सन और साथियों द्वारा प्रकाशित एक शोध पत्र है। जिसमें इसी तरह की समस्याएं दिखती हैं। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि वर्तमान में नेचर क्लाइमेट चेंज इस पेपर की जांच कर रहा है या नहीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पुरातात्विक अपराध विज्ञान

गभग 5000 साल पहले स्पेन के टैरागोना की एक गुफा में किसी ने चुपके से एक वृद्ध व्यक्ति के सिर पर पीछे से एक भोथरे हथियार से वार किया था, संभवतः उसकी मृत्यु वहीं हो गई थी। पुरातात्विक रिकॉर्ड में ऐसे कई हमले दर्ज हैं, फिर भी शोधकर्ताओं को यह पता करने में मशक्कत करनी पड़ती है कि वास्तव में क्या हुआ था। अब एक नए अध्ययन की बदौलत शोधकर्ता यह सब जानने के बहुत करीब पहुंच गए हैं।

नवीन अध्ययन में वैज्ञानिकों ने अनेक नकली खोपड़ियां पर अलग-अलग हथियारों से वार किया और उनका अवलोकन किया। शुरुआत उन्होंने पुराने समय के दो औज़ारों, कुल्हाड़ी और बसूला, से की। बसूला हथौड़ा और कुल्हाड़ी का मिला-जुला सा औज़ार है। दोनों नवपाषाण युग (10,000 से 4500 ईसा पूर्व तक) के लोकप्रिय औज़ार थे, इसी समय मानव संपर्क बढ़ा था और हिंसा भी। शोधकर्ताओं ने पॉलीयुरेथेन और रबर ‘त्वचा’ से कृत्रिम खोपड़ी बनाई और मस्तिष्क के नरम ऊतक के एहसास के लिए उसमें जिलेटिन से भर दिया। फिर, उन पर जानलेवा वार करने के काम को अंजाम दिया!

जर्नल ऑफ आर्कियोलॉजिकल साइंस में प्रकाशित इस रिपोर्ट के खूनी परिणाम दर्शाते हैं कि दोनों हथियारों ने अलग-अलग तरह के फ्रैक्चर पैटर्न दिए। उदाहरण के लिए, कुल्हाड़ी के वार ने बसूले की तुलना में अधिक सममित, अंडाकार फ्रैक्चर बनाया। फ्रैक्चर ने हमलावर और पीड़ित के बीच डील-डौल के अंतर के भी संकेत दिए; उदाहरण के लिए ‘मस्तिष्क’ तक भेदने वाला वार संकेत देता है कि हमलावर कद में मृतक से ऊंचा था। तो इससे लगता है कि वैज्ञानिकों ने इस प्राचीन स्पेनिश व्यक्ति की मृत्यु के रहस्य को सुलझा लिया है: ऐसा लगता है कि उसे किसी बसूले से मारा गया था। (स्रोत फीचर्स)

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मस्तिष्क में मातृभाषा की खास हैसियत है

धिकांश लोग अपने जीवन में एक या दो भाषाएं सीख लेते हैं। लेकिन कई लोग 5 से अधिक भाषाएं बोल लेते हैं। ये लोग बहुभाषी या पॉलीग्लॉट कहलाते हैं। और जो 10 से अधिक भाषाएं बोलते हैं ऐसे दुर्लभ लोगों को हायपरपॉलीग्लॉट कहते हैं। वाशिंगटन डी. सी. में रहने वाले वॉग स्मिथ एक हायपरपॉलीग्लॉट हैं जो 24 भाषाएं बोल लेते हैं।

हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने ऐसे ही बहुभाषियों के मस्तिष्क में झांका और देखा कि उनके मस्तिष्क का भाषा-सम्बंधी क्षेत्र अलग-अलग भाषाओं के सुनने पर कैसी प्रतिक्रिया देता है। देखा गया कि परिचित भाषाओं ने अपरिचित भाषाओं की तुलना में सशक्त प्रतिक्रिया दी, लेकिन अपवाद के रूप में देखा गया कि मातृभाषा को सुनने पर मस्तिष्क में अपेक्षाकृत कम हलचल दिखी। इससे शोधकर्ताओं को लगता है कि वे भाषाएं मस्तिष्क में कुछ विशिष्ट स्थान रखती हैं जिन्हें हम बचपन में सीख लेते हैं।

दरअसल उम्दा भाषा कौशल वाले लोगों (पॉलीग्लॉट्स) के मस्तिष्क में क्या हो रहा होता है इसे समझने पर बहुत ही कम अध्ययन हुए हैं। इसका एक कारण यह भी है कि दुनिया भर में पॉलीग्लॉट्स की संख्या बहुत ही कम है; महज एक प्रतिशत। तो शोध के लिए प्रतिभागी मिलना मुश्किल हो जाता है। लेकिन पॉलीग्लॉट्स पर अध्ययन मनुष्यों के ‘भाषा तंत्र’ को समझने में मदद कर सकता है।

मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के संज्ञान तंत्रिकाविज्ञानी ईव फेडोरेंको और उनका दल यह जानना चाहता था कि मस्तिष्क पांच से अधिक भाषाओं को कैसे प्रोसेस करता है। इसके लिए उन्होंने 25 पॉलीग्लॉट्स के मस्तिष्क का स्कैन किया, जिनमें से 16 हायपरपॉलीग्लॉट्स थे और एक प्रतिभागी तो ऐसा था जो 50 से अधिक भाषाएं बोल सकता था। मस्तिष्क के भाषा नेटवर्क को चित्रित करने के लिए उन्होंने fMRI तकनीक का उपयोग किया, जो मस्तिष्क में रक्त प्रवाह को मापती है।

जब प्रतिभागी fMRI मशीन के अंदर थे तो उन्हें आठ अलग-अलग भाषाओं में 16-16 सेकंड लंबी रिकॉर्डिंग सुनाई गईं। हर रिकॉर्डिंग या तो बाइबल या फिर ऐलिसेज़ एडवेंचर्स इन वंडरलैंड के गद्यांश के क्रमश: 25 और 46 भाषाओं में अनुवाद की रिकॉर्डिंग थी। प्रतिभागियों के लिए रिकॉर्डिंग का चुनाव बेतरतीब तरीके से किया गया था। आठ भाषाओं की रिकॉर्डिंग में से एक उनकी मातृभाषा में थी, तीन उन भाषाओं में थीं जो उन्होंने अपेक्षाकृत देर से सीखी थीं, और चार अपरिचित भाषाओं में थीं। दो अपरिचित भाषाएं ऐसी थीं जो उनकी परिचित भाषा की निकट सम्बंधी थी जैसे इतालवी मातृभाषा के लोगों को स्पेनिश सुनाई गई। और अन्य दो अपरिचित भाषाएं उनकी परिचित भाषाओं से कोई सम्बंध नहीं रखती थीं।

शोधकर्ताओं ने पाया कि किसी भी भाषा के लिए मस्तिष्क में रक्त हमेशा एक-जैसे क्षेत्रों की ओर प्रवाहित हुआ। अर्थात सभी भाषाओं के लिए मस्तिष्क ने अलग-अलग नहीं बल्कि एक ही बुनियादी नेटवर्क का उपयोग किया, जो एकभाषी व्यक्ति द्वारा ध्वनि को सुनकर उसे प्रोसेस करने में किया जाता है।

इसके अलावा, प्रतिभागी कितनी अच्छी तरह भाषा को जानते थे उस आधार पर मस्तिष्क के भाषा नेटवर्क की गतिविधि में उतार-चढ़ाव आया। भाषा जितनी अधिक परिचित थी, प्रतिक्रिया उतनी ही अधिक सशक्त थी। मस्तिष्क की गतिविधि विशेष रूप से तब बढ़ गई जब प्रतिभागियों ने उन अपरिचित भाषाओं को सुना जो उनकी भली-भांति परिचित भाषा से मिलती-जुलती थीं। ऐसा इसलिए हुआ होगा क्योंकि मस्तिष्क ने भाषाओं की बीच समानता के आधार पर अर्थ समझने के लिए अतिरिक्त काम किया होगा।

एक अपवाद भी मिला: अपनी मातृभाषा सुनने पर प्रतिभागियों का भाषा नेटवर्क अन्य परिचित भाषाओं की तुलना में शांत दिखा; ऐसा तब भी दिखा जब प्रतिभागी अन्य परिचित भाषाओं पर अच्छी पकड़ रखते थे। बायोआर्काइव्स नामक प्रीप्रिंट में शोधकर्ता बताते हैं कि इससे लगता है कि शुरुआती जीवन (बचपन) में सीखी गई भाषाओं को प्रोसेस करने में मस्तिष्क को कम मेहनत करनी पड़ती है।

यह देखा गया है कि किसी कार्य में महारत हासिल होने पर उसे करने में दिमाग को कम मशक्कत करनी पड़ती है। तो संभावना है कि भाषा के मामले में भी ऐसा हो। इस बात की भी संभावना दिखती है कि कम उम्र में सीखने पर संज्ञानात्मक दक्षता चरम तक पहुंच सकती है। चूंकि ये परिणाम विशुद्ध रूप से वर्णनात्मक हैं, इसलिए निष्कर्ष अभी भी अस्थायी हैं।

हालांकि कई पॉलीग्लॉट्स और हायपरपॉलीग्लॉट्स भाषा सीखने में किसी विशेष प्रतिभा के धनी होने से इन्कार करते हैं। लेकिन फिर भी शोधकर्ता देखना चाहते हैं कि पॉलीग्लॉट्स कैसे इतनी भाषाएं सीख लेते हैं, जो अन्य लोगों को मुश्किल लगता है। क्या यह जन्मजात है, या सिर्फ दिलचस्पी या मौका मिलने की बात है। भाषा सीखने की क्रिया को समझने से स्ट्रोक या मस्तिष्क क्षति के बाद लोगों को फिर से भाषा सीखने में बेहतर मदद दी जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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पिघलता, आकार बदलता रोबोट

छोटे आकार का एक ऐसा रोबोट बनाया गया है जो अपना आकार बदलने में माहिर है। यह दुर्गम स्थानों तक पहुंचकर काम कर सकता है और पिंजरों से बाहर भी निकल सकता है। ऐसी संभावना है कि इसका उपयोग हैंड्स-फ्री सोल्डरिंग मशीन या फिर निगली गई ज़हरीली वस्तुओं को निकालने वाले उपकरण के रूप में किया जा सकेगा।

मानव शरीर में पाए जाने वाले संकीर्ण और नाज़ुक स्थानों पर काम करने के किए नर्म और लचीले रोबोट तो पहले से ही मौजूद हैं लेकिन वे दबाव नहीं झेल पाते और अधिक भार भी नहीं उठा पाते। इस समस्या से निपटने के लिए पेनसिल्वेनिया स्थित कार्नेजी मेलन युनिवर्सिटी के कार्मल मजीदी और उनके सहयोगियों ने एक ऐसा रोबोट तैयार किया है जो न सिर्फ अपना आकार बदल सकता है बल्कि तरल और ठोस अवस्था में परिवर्तन के ज़रिए शक्तिशाली या दुर्बल भी बन सकता है।

मिलीमीटर साइज़ के रोबोट को तैयार करने के लिए तरल धातु गैलियम के साथ नीयोडिमियम, लोहे तथा बोरोन से बने चुम्बकीय पदार्थों के सूक्ष्म टुकड़ों का उपयोग किया गया है। ठोस अवस्था में यह रोबोट अपने वज़न से 30 गुना अधिक वज़न उठा सकता है। चुम्बकों की मदद से इसे लचीला, नर्म बनाया जा सकता है, गति करवाई जा सकती है और तरल में बदला जा सकता है। रोबोट में मौजूद चुम्बकीय टुकड़े इसे अलग-अलग दिशाओं में विकृत कर सकते हैं।   

शोधकर्ताओं ने रोबोट को छलांग लगवाने के लिए अधिक मज़बूत चुम्बकीय क्षेत्र का उपयोग किया। इसके अलावा, परिवर्तनशील चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न करने पर रोबोट की तरल धातुओं में विद्युत धारा उत्पन्न हुई जिसने रोबोट को गर्म किया और अंतत: पिघला दिया। इस लचीलेपन का फायदा उठाते हुए टीम ने दो रोबोट तैयार किए जो एक सर्किट बोर्ड में छोटे प्रकाश बल्ब को सोल्डर करने के लिए बनाए गए थे। अपने लक्ष्य पर पहुंचने पर ये रोबोट बल्ब के किनारों के चारों ओर पिघल गए और बल्ब सर्किट बोर्ड में जुड़ गया।

एक प्रयोग में कृत्रिम आमाशय के अंदर शोधकर्ताओं ने अलग तरह से चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न किया ताकि रोबोट एक वस्तु तक पहुंचकर पिघलकर चिपक जाए और वस्तु को खींचकर बाहर निकाला जा सके।

इसी क्रम में उन्होंने रोबोट को एक छोटे से लेगो का आकार दिया और उसे एक पिंजरे में कैद कर दिया। पिघलने पर यह रोबोट पिंजरे की सलाखों के बीच से बहकर बाहर आ गया। जब यह पिघला हुआ रोबोट पुन: एक सांचे में गिरा तो वह अपनी मूल, ठोस अवस्था में वापस आ गया।

इन पिघलने वाले रोबोट्स का उपयोग आपातकालीन स्थिति में किया जा सकता है जहां मानव या पारंपरिक रोबोटिक हाथ अव्यवहारिक हो जाते हैं। जैसे यह रोबोट अंतरिक्ष यान के खोए हुए पेंच के स्थान पर पहुंचकर स्वयं को पिघलाकर उस स्थान पर जम सकता है। अलबत्ता मनुष्यों या किसी जीव के शरीर में इसका उपयोग करने के लिए. सुरक्षा की दृष्टि से, ज़रूरी होगा कि हर कदम पर इसकी स्थिति पता लगाने का कोई तरीका हो (स्रोत फीचर्स)

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प्रकाशन और पेटेंट में आगे बढ़े भारतीय वैज्ञानिक – चक्रेश जैन

साल 2022 में भारतीय विज्ञान लगातार नई सफलताओं और उपलब्धियों की ओर अग्रसर रहा। वैज्ञानिकों और अनुसंधानकर्ताओं ने अंतरिक्ष विज्ञान से लेकर टीका निर्माण में आत्मनिर्भरता का परिचय दिया।

भारत में पिछले वर्ष अंतरिक्ष को निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया, जिसकी झलक 2022 में दिखाई दी। गुज़रे साल नवंबर में देश का पहला प्राइवेट रॉकेट लॉन्च किया गया। इस रॉकेट का नाम महान वैज्ञानिक विक्रम साराभाई के नाम पर ‘विक्रम एस’ रखा गया है। यह दुनिया का पहला ऑल कम्पोज़िट रॉकेट है। इसका निर्माण हैदराबाद की स्टार्ट अप कंपनी स्कायरूट एयरोस्पेस ने किया ने किया है।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के चंद्रयान-2 ऑर्बाइटर ने चंद्रमा पर पहली बार प्रचुर मात्रा में सोडियम का पता लगाया। यह काम ऑर्बाइटर में लगे एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर ने कर दिखाया। इससे चंद्रमा पर सोडियम की सटीक मात्रा का पता लगाने का मार्ग प्रशस्त हो गया है। चंद्रयान-2 श्रीहरिकोटा से 22 जुलाई 2019 में लॉन्च किया गया था।

देश के वैज्ञानिकों ने पहली बार मंगल ग्रह पर भवन निर्माण के लिए अंतरिक्ष ईंट बनाई। इसरो और भारतीय विज्ञान संस्थान बेंगलूरू के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष ईंटें बनाने के लिए मंगल की प्रतिकृति मिट्टी, यूरिया और एक बैक्टीरिया (स्पोरोसारसीना पाश्चुरी) का उपयोग किया। 

इसरो ने 23 अक्टूबर को जीएसएलवी-एमके-3 के ज़रिए 36 व्यावसायिक उपग्रहों का एक साथ सफल प्रक्षेपण कर नया इतिहास रचा। इसी वर्ष 26 नवंबर को ‘ओशनसेट’ उपग्रह का सफल प्रक्षेपण किया गया और जम्मू में उत्तर भारत का पहला अंतरिक्ष केंद्र शुरु हुआ। राज्य सभा में बताया गया कि इसरो अंतरिक्ष में पर्यटन क्षमताओं का विकास कर रहा है।

फरवरी में ‘विज्ञान सर्वत्र पूज्यते’ उत्सव भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों का गवाह बना। इसका आयोजन 22 से 28 फरवरी के दौरान देश के 75 स्थानों पर किया गया था। इस उत्सव की थीम थी: ‘दीर्घकालीन भविष्य के लिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में एकीकृत दृष्टिकोण की ज़रूरत’।

संसद में परिपाटी से दूर डिजिटल बजट पेश किया गया। सौर ऊर्जा और रसायन मुक्त खेती को विशेष प्राथमिकता दी गई। विज्ञान से जुड़े विभागों – डीएसटी, डीबीटी और डीएसआईआर के बजट में दो हज़ार करोड़ रुपए की बढ़ोतरी की गई। इन तीनों मंत्रालयों ने कोविड-19 महामारी से निपटने में अहम भूमिका निभाई है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय को 2653.51 करोड़ रुपए आवंटित किए गए। महासागरीय मिशन को बढ़ावा देने के लिए 650 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया। देश के गगन यान सहित चंद्रयान और आदित्य एल-1 जैसे बड़े अभियानों को ध्यान में रखते हुए इसरो को 13,700 करोड़ रुपए आवंटित किए गए। स्टार्ट अप को प्रोत्साहित करने के लिए विज्ञान बजट में धनराशि बढ़ाई गई।

इसी साल भारत ने महिलाओं को गर्भाशय-ग्रीवा (सरवाइकल) कैंसर से बचाने के लिए क्वाड्रिवेलेंट एचपीवी वैक्सीन लॉन्च की। इस स्वदेशी वैक्सीन को सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और जैव प्रौद्योगिकी विभाग ने मिलकर बनाया है। भारत ने 18 महीनों के में दो सौ करोड़ कोविड टीके लगाए और ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल की।

गुज़रे साल आज़ादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर 5 जुलाई से 17 सितंबर के बीच 75 दिवसीय ‘स्वच्छ सागर, सुरक्षित सागर’ महाअभियान आयोजित किया गया। इसका उद्देश्य महासागरों के बारे में जागरूकता पैदा करना था।

इसी साल जैव प्रौद्योगिकी उद्योग अनुसंधान सहायता परिषद (बाइरैक) की स्थापना का एक दशक पूरा हुआ। इस सिलसिले में 09-10 जून के दौरान नई दिल्ली के प्रगति मैदान में बायोटेक स्टार्टअप एक्सपो का आयोजन किया गया था। यहां जैव प्रौद्योगिकी के अब तक के सफर और नवीनतम उपलब्धियों की झलक दिखाई दी।

जम्मू की ‘पल्ली’ देश की पहली कार्बन उदासीन पंचायत बन गई। गुज़रे साल देश की पहली स्वदेशी हाइड्रोजन ईंधन सेल आधारित बस लॉन्च की गई। इसी साल मध्यप्रदेश हिंदी में चिकित्सा विज्ञान (एमबीबीएस) पाठ्यक्रम शुरु करने वाला देश का पहला राज्य बन गया। 16 अक्टूबर को एमबीबीएस प्रथम वर्ष के लिए हिंदी में प्रकाशित तीन पुस्तकों का विमोचन हुआ।

भारत की पहली नाइट स्काई सेंक्चूरी लद्दाख में बनाई जाएगी। गुजरात में देश का पहला सेमीकंडक्टर संयंत्र स्थापित किया जा रहा है। सेमीकंडक्टर का उपयोग कारों से लेकर मोबाइल फोन और एटीएम कार्ड के निर्माण में किया जाता है। अनुमान है कि 2026 तक भारत का सेमीकंडक्टर बाज़ार 64 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा।

17 सितंबर को नामीबिया से लाए गए आठ चीतों को मध्यप्रदेश के कुनो राष्ट्रीय उद्यान में छोड़ा गया। बड़े मांसाहारी जंगली जानवरों के अंतर महाद्वीपीय स्थानांतरण की यह विश्व की पहली परियोजना है। इसी साल चीतों को भारत लाने के लिए एक एमओयू पर हस्ताक्षर किए गए थे।

जनवरी, 2022 में हैदराबाद में देश के प्रथम ओपन रॉक म्यूज़ियम का शुभारंभ हुआ। इस म्यूज़ियम में भारत के विभिन्न भागों से एकत्रित की गई 35 अलग-अलग प्रकार की चट्टानें प्रदर्शित की गई हैं। म्यूज़ियम का उद्देश्य जन सामान्य को रोचक भू-वैज्ञानिक जानकारियों से परिचित कराना है।

साइंस सिटी अहमदाबाद में पहली बार देश के सभी राज्यों के विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रियों का सम्मेलन हुआ, जिसमें वर्ष 2047 का वैज्ञानिक रोडमैप तैयार करने पर विमर्श हुआ।

अक्टूबर में वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की शोध प्रयोगशालाओं के प्रमुखों की बैठक में अनाज और बाजरे की नई किस्मों में पौष्टिकता बढ़ाने के लिए तकनीकी समाधान पर विचार किया गया। संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2023 को ‘इंटरनेशनल ईयर ऑफ मिलेट्स’ (आईवाईएम) घोषित किया है। भारत मोटे अनाज पैदा करने वाले अग्रणी देशों में शामिल है। विश्व पैदावार में भारत का अनुमानित योगदान लगभग 41 फीसदी है।

इसी वर्ष भारत की पहली तरल दर्पण दूरबीन उत्तराखंड में आर्यभट रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ आब्ज़र्वेशनल साइंसेज़ की देवस्थल वेधशाला परिसर में स्थापित की गई। इसे भारत सहित तीन देशों के वैज्ञानिकों के सहयोग से स्थापित किया गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि तरल दर्पण दूरबीन खगोलीय दृश्यों के अवलोकन के साथ ही अंतरिक्ष मलबे, क्षुद्रग्रह आदि परिवर्तनशील वस्तुओं की पहचान में भी मददगार होगी।

9 अक्टूबर को गुजरात का मोढेरा गांव देश का पहला ऐसा गांव बन गया, जो पूरी तरह सौर ऊर्जा से चलेगा। दिन में सोलर पैनल से और रात को बैटरी से बिजली की आपूर्ति की जाएगी।

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग की मेज़बानी में दूसरी संयुक्त राष्ट्र भू-स्थानिक सूचना कांग्रेस 10-14 अक्टूबर के दौरान हैदराबाद में संपन्न हुई, जिसमें 120 देशों के लगभग 700 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस आयोजन में विचार मंथन का मुख्य विषय ‘जियो इनेबलिंग दी ग्लोबल विलेज, नो वन शुड बी लेफ्ट बिहाइंड’ चुना गया था। भू-स्थानिक यानी जियो स्पेशियल डैटा सभी क्षेत्रों में विकास रणनीतियों और जनहित योजनाओं को तैयार करने में बेहद उपयोगी है। यही नहीं पिछड़े क्षेत्रों की पहचान करके उनके आर्थिक और सामाजिक विकास में इसकी अहम भूमिका सामने आई है। सटीक भू-स्थानिक सूचनाओं ने कोविड-19 महामारी से कारगर ढंग से निपटने में बहुत सहायता की थी।

साल 2022 में जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (जीईएसी) ने जेनेटिक रूप से परिवर्तित (जीएम) सरसों को मंज़ूरी दे दी। हमारे यहां जीएम फसलों का पर्यावरण पर पड़ने वाले कुप्रभावों को लेकर विरोध हो रहा है। देश में पिछले दो दशकों से जीएम फसलों की खेती की अनुमति को लेकर विभिन्न मंचों पर बहस जारी है।

इसी वर्ष रुड़की स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के 175 वर्ष पूरे हुए। यह 1847 में स्थापित देश का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज था। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रुड़की का विश्व स्तरीय शिक्षा देने के साथ शोधकार्यों में भी अहम योगदान रहा है। यह वही संस्थान है, जिसने देश को सिविल इंजीनियरिंग के क्षेत्र में विभिन्न नवाचार दिए हैं।

इसी वर्ष होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम (एचएसटीपी) के 50 वर्ष पूरे हुए। यह कार्यक्रम 1972 में किशोर भारती और फ्रेंड्स रूरल सेंटर ने मिलकर शुरू किया था, जिसका उद्देश्य ग्रामीण इलाकों के स्कूली बच्चों के विज्ञान शिक्षण में नवाचारों को बढ़ावा देना था। विज्ञान शिक्षण के इस अभिनव कार्यक्रम में मध्यप्रदेश के 14 ज़िलों की लगभग 600 माध्यमिक शालाओं के बच्चों के बच्चे शामिल थे।

मौलिक चिंतक और वैज्ञानिक डॉ. अनिल सद्गोपाल और उनके सहयोगियों ने इस कार्यक्रम से टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च और उच्च विज्ञान शिक्षण संस्थाओं को जोड़ने में सफलता प्राप्त की। बाद में मध्यप्रदेश सरकार ने इस कार्यक्रम से प्रभावित होकर होशंगाबाद जिले की सभी सरकारी/निजी माध्यमिक शालाओं को इससे जोड़ दिया। वर्ष 1982 में एकलव्य की स्थापना के साथ एचएसटीपी ने नए दौर में प्रवेश किया।

जनवरी में रॉकेट विज्ञान के विशेषज्ञ डॉ. एस. सोमनाथ को इसरो का चेयरमैन नियुक्त किया गया। उन्होंने स्वदेशी क्रॉयोजेनिक इंजन और पीएसएलवी के ग्यारह सफल प्रक्षेपणों में अहम भूमिका निभाई है। इसी वर्ष वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. एन. कलैसेल्वी को सीएसआईआर का महानिदेशक नियुक्त किया गया। वे इस पद पर पहुंचने वाली पहली महिला वैज्ञानिक हैं। विज्ञान जगत की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर ने वर्ष 2023 के लिए चुने गए पांच विषिष्ट व्यक्तियों की सूची में डॉ. एन. कलैसेल्वी को भी शामिल किया है। केंद्रीय विद्युत रासायनिक अनुसंधान संस्थान कराईकुडी में निदेशक और वरिष्ठ वैज्ञानिक रह चुकी डॉ. कलैसेल्वी ने लीथियम आयन बैटरी के क्षेत्र में शोध कार्य के लिए ख्याति प्राप्त की है।

नेशनल साइंस फाउंडेशन की रिपोर्ट के एक अनुसार भारत वैज्ञानिक प्रकाशनों की ग्लोबल रैंकिंग में सातवें पायदान से तीसरे पायदान पर पहुंच गया है। एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीन वर्षों में भारतीय वैज्ञानिक पेटेंट दुगने हो गए।

जुलाई में डोंगरी भाषा में विज्ञान लोकप्रियकरण की प्रथम पत्रिका का प्रकाशन विज्ञान प्रसार, नई दिल्ली, के सहयोग से आरंभ हुआ। गुज़रे साल एक पायलट प्रोजेक्ट के तहत जयपुर से दैनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण समाचार पत्र का ऑनलाइन संस्करण प्रकाशित किया गया।

सितंबर में सूरत में आयोजित एक कार्यक्रम में देश की सबसे लोकप्रिय विज्ञान पत्रिका विज्ञान प्रगति को राष्ट्रीय राजभाषा कीर्ति पुरस्कार प्रदान किया गया। इसका प्रकाशन 1952 में सीएसआईआर के प्रकाशन निदेशालय ने आरंभ किया था। यह पत्रिका देश भर के विज्ञानप्रेमी पाठकों द्वारा पढ़ी जाती है, जिनमें विद्यार्थियों से लेकर अनुसंधानकर्ता और वैज्ञानिक तक सम्मिलित हैं।

राष्ट्रीय विज्ञान दिवस पर पिछले साल विज्ञान संचार और विज्ञान लोकप्रियकरण के क्षेत्र में विशेष योगदान करने वाली दो संस्थाओं और नौ लोगों को पुरस्कृत किया गया। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार में विशेष योगदान के लिए केरल की पी. एन. पणिक्कर फाउंडेशन को राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया गया। नवाचारों और परंपरागत तरीकों से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार में विशेष योगदान के लिए उत्तरप्रदेश के नेशनल एसोसिएशन फॉर वालंटरी इनिशिएटिव एंड कोऑपरेशन को पुरस्कृत किया गया।

इस वर्ष पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री पुरस्कारों से सम्मानित व्यक्तियों में आठ वैज्ञानिक भी शामिल हैं। भारतीय मूल के खाद्य वैज्ञानिक डॉ. संजय राजाराम ने गेहूं की 480 से ज़्यादा किस्में विकसित की हैं, जिन्हें लगभग 51 देशों में उगाया जा रहा है। उन्हें यह सम्मान मरणोपरांत दिया गया है। उन्हें सन 2001 में पद्मश्री और 2014 में विश्व खाद्य पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।

कर्नाटक के पर्यावरण वैज्ञानिक डॉ. सुब्बन्ना अय्यप्पन, भारतीय सांख्यिकी संस्थान, कोलकाता की प्रो. संघमित्रा बंद्योपाध्याय, एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ, भुवनेश्वर के कुलपति प्रो. आदित्य प्रसाद दास, राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान, करनाल के पूर्व निदेशक (रिसर्च), निम्बकर कृषि अनुसंधान संस्थान, फलटण, महाराष्ट्र के डॉ. अनिल कुमार राजवंशी, स्वतंत्र शोधकर्ता, प्रयागराज उत्तरप्रदेश के डॉ. अजय कुमार सोनकर और राष्ट्रीय फॉरेंसिक विज्ञान विश्वविद्यालय, गुजरात के कुलपति डॉ. जयंत कुमार मगनलाल व्यास को पद्मश्री से सम्मानित किया गया। मध्यप्रदेश के चिकित्सक डॉ. नरेन्द्र प्रसाद मिश्रा को भोपाल गैस पीड़ितों और कोविड-19 के लिए उपचार प्रोटोकॉल विकसित करने में विशेष योगदान के लिए मरणोपरांत पद्मश्री से सम्मानित किया गया।

हिंदी दिवस पर आयोजित विशेष समारोह में मध्यप्रदेश शासन द्वारा स्थापित गुणाकर मुले सम्मान ‘इलेट्रॉनिकी आपके लिए’ पत्रिका के संपादक संतोष चौबे को प्रदान किया गया। उन्हें यह सम्मान हिंदी में विज्ञान लेखन को बढ़ावा देने के लिए दिया गया है।

23 मई को वरिष्ठ विज्ञान लेखक शुकदेव प्रसाद का देहांत हो गया। इलाहाबाद में जन्मे शुकदेव प्रसाद ने स्वतंत्र विज्ञान पत्रकारिता के क्षेत्र में विशेष पहचान बनाई। उन्होंने समाचार पत्रों, संवाद एजेंसियों और विज्ञान पत्रिकाओं में लगभग तीन हज़ार आलेख लिखे। विज्ञान भारती और विज्ञान वैचारिकी पत्रिकाओं का संपादन भी किया। शुकदेव प्रसाद ने विज्ञान कथाओं पर केंद्रित छह खंडों में प्रकाशित विज्ञान कथा कोश का संपादन किया। उन्हें कई प्रतिष्ठित सम्मान मिले, जिनमें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, डॉ. आत्माराम और मेघनाथ साहा पुरस्कार उल्लेखनीय हैं।

वर्ष 2022 के दौरान छह भारतीय वैज्ञानिकों की जन्मशती मनाई गई। शुरुआत नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. हरगोविन्द खुराना की जन्मशती से हुई। 9 जनवरी 1922 को जन्मे डॉ. खुराना को कोशिकाओं में प्रोटीन संश्लेषण में जेनेटिक कोड की भूमिका पर मौलिक अनुसंधान के लिए 1968 में चिकित्सा विज्ञान के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। आज विश्व भर में प्रयुक्त हो रही जीनोम सीक्वेंसिंग तकनीक के पुरोधा डॉ. हरगोविन्द खुराना थे।

जनवरी में ही राजेश्वरी चटर्जी की जन्मशती मनाई गई। 24 जनवरी 1922 को जन्मी राजेश्वरी चटर्जी को कर्नाटक से पहली महिला इंजीनियर होने का विशेष सम्मान प्राप्त है। उन्होंने माइक्रोवेव और एंटीना इंजीनियरिंग में विशेष योगदान किया। राजेश्वरी चटर्जी के शोधकार्य का उपयोग अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में किया गया।

30 जनवरी को विख्यात न्यूरोसर्जन प्रो. बी. रामामूर्ति की जन्मशती पर विभिन्न आयोजन हुए और उन्हें याद किया गया। भारत में उन्हें न्यूरो सर्जरी के पितृ पुरुष का सम्मान प्राप्त है। उन्हें भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान एकेडमी (इन्सा) का मानद सदस्य नियुक्त किया गया था।

प्रो. जी. एस. लड्ढा का जन्मशती के मौके पर स्मरण किया गया। 26 अगस्त 1922 को जन्मे केमिकल इंजीनियर जी. एस. लड्ढा ने आज़ादी के पहले देश में अनेक रासायनिक उद्योगों की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान किया था। प्रो. लड्ढा ने भौतिकी में क्रिस्टल ग्रोथ में विशेष शोधकार्य किया था।

वर्ष 2022 में वैज्ञानिक येलावर्ती नायुडम्मा की जन्मशती पर सीएसआईआर की मद्रास स्थित केंद्रीय चमड़ा अनुसंधान प्रयोगशाला में विचार गोष्ठियों का आयोजन हुआ। नायुडम्मा का जन्म 10 सितंबर 1922 के दिन हुआ था। उन्होंने केंद्रीय चमड़ा अनुसंधान प्रयोगशाला में एक छोटे से पद से अपना करियर शुरू किया और आगे चलकर इसी संस्थान के निदेशक और बाद में सीएसआईआर के महानिदेशक पद तक पहुंचे। उन्हें पद्मश्री सहित अनेक राष्ट्रीय सम्मान मिले।

इसी साल अक्टूबर में डॉ. जी. एन. रामचंद्रन की जन्मशती मनाई गई। वे उन कुछ चुनिंदा भारतीय वैज्ञानिकों में शामिल थे, जिन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था। वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने कोलेजन की ट्रिपल हेलिकल संरचना का विचार प्रस्तुत किया था। इस महत्त्वपूर्ण खोज ने उन्हें विश्व भर में प्रसिद्धि दिलाई थी। उन्हें 1961 में शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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