सामाजिक-आर्थिक बदलाव में दिखी विज्ञान की भूमिका – चक्रेश जैन

साल 2022 की अहम वैज्ञानिक घटनाओं और अनुसंधानों को मिलाकर देखें तो लगता है पूरा साल विज्ञान जगत में अभिनव प्रयोगों, अन्वेषणों और उपलब्धियों का रहा। विज्ञान की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों ने सुर्खियों के लिए अलग-अलग घटनाओं का चयन किया है। अधिकांश विज्ञान पत्र-पत्रिकाओं ने जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप को सुखिर्यों में विशेष स्थान दिया है। विज्ञान की प्रतिष्ठित पत्रिका साइंस ने जहां एक ओर वर्ष की दस प्रमुख उपलब्धियों (ब्रेकथ्रू) में जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप को प्रथम स्थान पर रखा है, वहीं दूसरी ओर इस वर्ष की विफलताओं (ब्रेकडाउन) की सूची में ‘ज़ीरो कोविड नीति’ को प्रमुखता से शामिल किया है।

बीते वर्ष 12 जुलाई को जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप से ली गई ब्रह्मांड की पहली पूर्ण रंगीन तस्वीर जारी की गई। जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप से लिए गए चित्रों से ब्रह्मांड की उत्त्पत्ति की जड़ों को तलाशने में मदद मिलेगी। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इस मौके पर कहा था कि यह टेलीस्कोप मानवता की महान इंजीनियरिंग उपलब्धियों में से एक है। दस अरब डॉलर की लागत से तैयार इस टेलीस्कोप को साल 2021 में क्रिसमस उत्सव के मौके पर लॉन्च किया गया था। इसे हबल टेलीस्कोप का उत्तराधिकारी कहा जा सकता है। इस टेलीस्कोप में लगे विशाल प्रमुख दर्पण की मदद से अंतरिक्ष में किसी भी अन्य टेलीस्कोप की तुलना में अधिक दूरी तक देखा जा सकता है। जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप ने ब्रह्मांड में सबसे दूरस्थ और प्राचीनतम निहारिकाओं के चित्र भेजे हैं। इस नए दमदार टेलीस्कोप से पहली बार ब्रह्मांड के शुरुआत की झलक सामने आई, जिसमें निहारिकाओं के नृत्य और तारों की मृत्यु की तस्वीरें शामिल हैं।

विदा हो चुके साल 2022 में चंद्रमा पर पहुंचने की दौड़ जारी रही। निजी क्षेत्र भी मैदान में सक्रिय दिखाई दिया। अमेरिका, रूस, चीन, जापान, भारत और कोरिया ने पिछले वर्ष ही अपना भावी कार्यक्रम घोषित कर दिया था। 1972 में अपोलो-17 मिशन के साथ ही चंद्रमा पर मानव सहित यान भेजने का अभियान थम गया था। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने पांच दशकों बाद फिर से चंद्रमा पर मानव अवतरण का अभियान शुरू किया है। इसे ‘आर्टेमिस मिशन’ नाम दिया गया है। इसी वर्ष नवंबर में आर्टेमिस-1 के ज़रिए ओरायन अंतरिक्ष यान भेजा गया, जिसने चंद्रमा की सतह से नब्बे किलोमीटर ऊपर विभिन्न प्रयोग किए। इस अभियान की सफलता ने आर्टेमिस-2 और आर्टेमिस-3 को भेजने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। वैज्ञानिकों ने इस दशक के अंत तक चंद्रमा पर मनुष्य को बसाने का दावा भी किया है।

युरोपीय स्पेस एजेंसी ने अपने भावी अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए 22,500 आवेदकों में से 17 व्यक्तियों का चुनाव किया है। इनमें ब्रिटेन के जॉन मैकफाल भी हैं। उन्होंने 2008 में एक पैर नहीं होने के बावजूद पैरालिंपिक में कांस्य पदक जीता था। यह पहला अवसर है, जब किसी विकलांग को अंतरिक्ष यात्री के रूप में चुना गया है।

सितंबर में नासा ने एक नए प्रयोग को अंजाम दिया, जिसका उद्देश्य पृथ्वी से टकरा सकने वाले छोटे ग्रहों से बचाव की तैयारी है। इसका नाम है डबल एस्टेरॉयड रिडायरेक्शन टेस्ट (डार्ट) मिशन। नासा ने नवंबर 2021 में डॉर्ट मिशन अंतरिक्ष में भेजा था। दस महीने के सफर के बाद डार्ट अपने अभीष्ट निशाने के पास तक पहुंचा और अपूर्व कार्य संपन्न किया। इस मिशन के अंतर्गत पृथ्वी के लिए खतरा पैदा करने वाले क्षुद्र ग्रहों अथवा एस्टोरॉयड की दिशा को बदला जा सकेगा। यह प्रक्रिया अंतरिक्ष यान के ज़रिए की जा सकेगी। जानकारों के मुताबिक आने वाले वर्षों में इस दिशा में बहुत से प्रयोग होंगे।

साल 2022 ‘अंतर्राष्ट्रीय मूलभूत विज्ञान वर्ष’ के रूप में मनाया गया। 2017 में माइकल स्पाइरो ने युनेस्को द्वारा आयोजित वैज्ञानिक बोर्ड की बैठक में वर्ष 2022 को अंतर्राष्ट्रीय मूलभूत विज्ञान वर्ष के रूप में मनाने का विचार रखा था। प्राकृतिक और ब्रह्मांडीय घटनाओं की व्याख्या में मूलभूत विज्ञान की महत्वपूर्ण भूमिका है। कोरोना वायरस की संरचना को समझने और उससे फैले संक्रमण का सामना करने के लिए टीकों के निर्माण में मूलभूत विज्ञान का योगदान रहा है। यही नहीं अंतरिक्ष के क्षेत्र में मिली तमाम उपलब्धियों की पृष्ठभूमि में मूलभूत विज्ञान का बहुत बड़ा हाथ है। सच तो यह है कि पृथ्वी ग्रह का सतत और समावेशी विकास मूलभूत विज्ञान में अनुसंधान की अनदेखी करके नहीं हो सकता।

बीते वर्ष जीव विज्ञान के अनुसंधानकर्ताओं ने कैरेबिया के मैन्ग्रोव वनों में एक नया बैक्टीरिया खोजा जिसे देखने के लिए सूक्ष्मदर्शी की ज़रूरत नहीं होती। वैज्ञानिकों ने नए बैक्टीरिया को थियोमार्गरिटा मैग्नीफिका नाम दिया है। यह बैक्टीरिया अपने बड़े आकार के कारण कोशिका विज्ञान के अध्ययनकर्ताओं के बीच चर्चा का विषय रहा। इसमें कई विशेषताएं हैं। इसका जीनोम एक झिल्ली में कैद होता है, जबकि सामान्य बैक्टीरिया की जेनेटिक सामग्री झिल्ली में नहीं होती है। इस बैक्टीरिया के बड़े आकार और झिल्लीयुक्त जीनोम को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह जटिल कोशिकाओं के उद्भव को समझने की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा। साइंस के संपादकों ने दस प्रमुख खोजों की सूची में नए बैक्टीरिया की खोज को स्थान दिया है।

विज्ञान जगत की एक अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका ने इस साल की दस प्रमुख घटनाओं में मंकीपॉक्स वायरस को भी शामिल किया है। मई में युरोप और अमेरिका में इस वायरस के हमले का पता चला। लगभग 100 से अधिक देश इसकी चपेट में आ गए। यह वायरस भी कोरोना वायरस की तरह खतरनाक है, जो जंतुओं से मनुष्यों में फैलता है। इससे संक्रमित व्यक्ति में चेचक जैसे लक्षण दिखते हैं। मंकीपॉक्स वायरस पाक्सविरिडी कुल का सदस्य है। इस वायरस की खोज 1958 में हुई थी। अध्ययनकर्ताओं को बंदरों की कॉलोनी में चेचक जैसा रोग मिला, इसलिए इसका नाम मंकीपॉक्स रख दिया गया। इससे संक्रमित लोग बिना उपचार के अपने आप स्वस्थ हो जाते हैं। वर्तमान में इसके लिए कोई स्वीकृत एंटी वायरस नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसका नाम मंकीपॉक्स से बदल कर ‘एमपॉक्स’ कर दिया है। वैज्ञानिकों को अंदेशा है कि भविष्य में यह वायरस म्युटेशन की चपेट में आ सकता है।

गुज़रे साल वैज्ञानिकों ने ग्रीनलैंड में सबसे प्राचीन डीएनए को खोजने में बड़ी सफलता प्राप्त की। प्राचीन डीएनए बीस लाख साल पुराना है। लगभग चालीस अनुसंधानकर्ता सोलह वर्षों तक प्राचीन डीएनए के रहस्य का पता लगाने में जुटे रहे। इस खोज ने उस इतिहास में झांकने का अवसर प्रदान किया, जिसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था। अमेरिकी एसोसिएशन फॉर दी एडवांसमेंट ऑफ साइन्स के जर्नल ने इसे ‘टॉप टेन इन साइंस’ की सूची में सम्मिलित किया है।

वर्ष 2022 में पूर्वी और मध्य पनामा के वनों में मेंढक की नई प्रजाति मिली। पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग के योगदान को रेखांकित और सम्मानित करने के लिए इसका नाम उन्हीं के नाम पर Pristimantis gretathunbergae रखा गया है।

साल की शुरुआत में 15 जनवरी को दक्षिणी प्रशांत महासागर में टोंगा ज्वालामुखी फट पड़ा। अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि पिछले 100 सालों में यह सबसे भयानक ज्वालामुखी विस्फोट था, जिसने धरती को दो बार हिला दिया।

गुज़रे साल वैज्ञानिकों ने मनुष्य द्वारा मोबाइल फोन, लेपटॉप और अन्य उपकरणों का अधिक और लगातार उपयोग करने से शारीरिक संरचना में होने वाले परिवर्तनों का एक मॉडल तैयार किया है। इस मॉडल से 800 वर्षों में मनुष्य की शारीरिक संरचना में होने वाले परिवर्तनों की झलक मिलती है। वैज्ञानिकों ने थ्री डिज़ायनर से तैयार मॉडल के आधार पर बताया कि वर्ष 3000 तक पीठ में कुबड़ निकल आएगी, गर्दन मोटी हो जाएगी, हाथ के पंजे मुड़े हुए होंगे और आंखों में एक और झिल्ली उग आयेगी।

खगोल विज्ञान के अध्ययनकर्ताओं की टीम ने जीजे-1002 तारे के आसपास पृथ्वी जैसे दो ग्रहों की खोज की। लाल रंग का यह बौना तारा सौर मंडल से अधिक दूर नहीं है (मात्र 16 प्रकाश वर्ष दूर!)। इन दो ग्रहों की खोज के साथ ही अब हम सूर्य के समीप सौर मंडलों में मौजूद सात ऐसे ग्रहों के बारे में जानते हैं, जो पृथ्वी से मिलते-जुलते हैं।

साल 2022 में वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन के कारण विभिन्न प्रजातियों के विलुप्त होने की वास्तविक स्थिति के आकलन के लिए ‘वर्चुअल अर्थ’ का विकास किया। इस मॉडल के अनुसार इस सदी के अंत तक पृथ्वी से जीव-जंतुओं की 27 प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी।

वर्ष 2022 में अमेरिका को नाभिकीय संलयन प्रक्रिया से स्वच्छ ऊर्जा प्राप्त करने में बड़ी सफलता मिली। कैलिर्फोनिया स्थित लारेंस लीवरमोर नेशनल लेबोरेटरी के अनुसंधानकर्ताओं ने पहली बार नाभिकीय संलयन से खर्च से अधिक ऊर्जा प्राप्त की। नाभिकीय संलयन में दो परमाणु जुड़कर एक भारी परमाणु बनाते हैं। सूर्य में भी इसी प्रक्रिया से ऊर्जा उत्पन्न होती है। जानकारों का कहना है कि इस उपलब्धि से जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने में मदद मिलेगी।

विज्ञान जगत की एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने इस साल की 22 अद्भुत अनुसंधानों की चयन सूची में माइक्रोप्लास्टिक को सम्मिलित किया है। वैज्ञानिकों का मानना है कि माइक्रोप्लास्टिक मनुष्य की प्रजनन क्षमता पर असर डालता है। माइक्रोप्लास्टिक का आकार पांच मिलीमीटर से कम होता है। यह खिलौनों, कार के पुराने टायर आदि में पाया जाता है। यह हमारे पास से होते हुए समुद्र में पहुंच रहा है। प्लास्टिक के कण नंगी आंखों से दिखाई नहीं देते। यही कारण है कि आम आदमी को इसके बारे में जानकारी नहीं होती। वैज्ञानिकों ने 2021 में माइक्रोप्लास्टिक के असर पर अनुसंधान में पाया कि मनुष्य प्रतिदिन लगभग सात हज़ार माइक्रोप्लास्टिक के टुकड़े सांस के ज़रिए लेता है।

दिसंबर में मॉन्ट्रियल में संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन कॉप-15 में 190 से अधिक देशों ने प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र में सुधार के लिए ऐतिहासिक जैव विविधता संधि को मंज़ूरी दे दी। ये देश सन 2030 तक पृथ्वी के तीस प्रतिशत हिस्से के संरक्षण पर सहमत हुए हैं। बायोलॉजिकल कंज़र्वेशन में प्रकाशित शोध के अनुसार पिछले डेढ़ सौ वर्षों में कीटों की पांच से दस प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं।

संयुक्त राष्ट्र का दो हफ्ते चला सालाना जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन सीओपी-27 मिस्त्र के शर्म-अल-शेख में आयोजित किया गया, जिसमें दुनिया भर के प्रतिनिधियों ने जलवायु संकट की चुनौतियों से निपटने के लिए अपने विचार साझा किए। सम्मेलन में मुख्य मुद्दे इस बार भी नहीं सुलझे। सम्मेलन में दुनिया के आठ अरब लोगों को भोजन उपलब्ध कराने के लिए कृषि और अनुकूलन के मुद्दों पर मंथन हुआ। अंत में वार्ताकारों के बीच ‘जलवायु आपदा कोश’ बनाने पर सहमति बनी। इसका उपयोग जलवायु आपदा से प्रभावित देशों के लिए किया जाएगा।

चिकित्सा विज्ञान के अनुसंधानकर्ताओं ने सात जनवरी को जेनेटिक रूप से परिवर्तित सुअर का दिल मनुष्य के शरीर में सफलतापूर्वक लगाया। यह प्रत्यारोपण बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य था, जिसने भविष्य में ज़ीनोट्रांसप्लांटेशन की राह खोल दी है। प्रत्यारोपण टीम के मार्दगर्शक सर्जन मोहम्मद मोइउद्दीन हैं, जिन्हें पत्रिका नेचर ने वर्ष 2022 के टॉप टेन व्यक्तियों की सूची में सम्मिलित किया है।

यह वही साल था, जब रोबोट की भूमिका का एक और नया आयाम सामने आया। एआई-डीए नाम के इस रोबोट ने पहली बार ब्रिटेन की संसद को संबोधित किया। ब्रिटिश सांसदों ने रोबोट से कलात्मक कृतियां बनाने के बारे में सवाल भी किए। इस रोबोट का विकास ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने किया है।

साल के उत्तरार्द्ध में चीन ने तिब्बती पठार पर दुनिया की सबसे बड़ी सौर दूरबीन स्थापित की। डीएसआरटी नाम की इस दूरबीन से सौर विस्फोटों को समझने में मदद मिलेगी। इससे प्राप्त जानकारियां अन्य देशों के अनुसंधानकर्ताओं को भी उपलब्ध कराई जाएंगी।

विदा हो चुके साल में दस करोड़ साल पुराना बड़ी आंखों वाला कॉकरोच जीवाश्म मिला। अब यह प्रजाति पृथ्वी पर नहीं है। इसका वैज्ञानिक नाम हुआब्लाटुला हुई (Huablattula hui) है। यह करोड़ों वर्षों से अंबर में कैद है। अंबर में कोई भी वस्तु जीवाश्म के तौर पर करोड़ों साल तक सुरक्षित रहती है।

नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार वैज्ञानिकों ने शिशु चूहों में मनुष्य के दिमाग की कोशिकाओं को सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किया। इस अनुसंधान से मनुष्य में तंत्रिका सम्बंधी विकारों को समझने और इलाज का मार्ग प्रशस्त हो गया है। कुछ विज्ञान पत्रिकाओं ने इस प्रयोग को साल के दस प्रमुख अनुसंधानों में स्थान दिया है।

वैज्ञानिकों के एक अंतर्राष्ट्रीय दल ने कॉकरोच और मशीनों को मिलाकर साइबोर्ग कॉकरोच बनाया है। ये कॉकरोच सौर पैनल से जुड़ी बैटरी से लैस हैं। साइबोर्ग कॉकरोच पर्यावरण की निगरानी और प्राकृतिक आपदा के बाद बचाव मिशन में सहायता करेंगे। इससे पहले वैज्ञानिक रोबोटिक चूहे बना चुके हैं।

इसी वर्ष हिग्ज़ बोसान की खोज के दस साल पूरे हुए। 4 जुलाई 2012 को वैज्ञानिकों ने नए उप-परमाणविक कण के अस्तित्व की विधिवत घोषणा की थी। इस कण को ‘गॉड पार्टिकल’ भी कहा गया है, परंतु सच पूछा जाए तो इस कण का ‘गॉड’ अथवा ‘ईश्वर’ से कोई लेना-देना नहीं है। बीते एक दशक में इस महाप्रयोग के परिणामों ने ब्रह्मांड की उत्पत्ति से सम्बंधी हमारी समझ का विस्तार किया है और इसमें कण भौतिकी की अहम भूमिका सामने आई है। वैज्ञानिकों का विचार है कि हिग्ज़ बोसॉन अनुसंधान से आने वाले दिनों में कम्प्यूटिंग और मेडिकल साइंस के क्षेत्र में नई संभावनाओं की राह खुलेगी।

इस वर्ष ‘ब्रेकथ्रू’ प्राइज़ फाउंडेशन ने साल 2023 के ‘ब्रेकथ्रू’ पुरस्कारों की घोषणा की। यह विज्ञान का अति प्रतिष्ठित और नोबेल पुरस्कार की टक्कर का पुरस्कार है, जिसकी स्थापना मार्क ज़ुकरबर्ग, सर्गेई ब्रिन और कुछ अति धनाढ्य विज्ञानप्रेमी लोगों ने मिलकर की है। इसकी पहचान ‘आस्कर ऑफ साइंस’ के रूप में है। यह पुरस्कार हर साल गणित, मूलभूत भौतिकी और जीव विज्ञान के क्षेत्र में असाधारण योगदान के लिए दिया जाता है। वर्ष 2023 के लिए गणित के क्षेत्र में डेनियल ए. स्पीलमन को सम्मानित किया गया है। मूलभूत भौतिकी के क्षेत्र में इस बार पुरस्कार चार्ल्स एच. बेनेट, गाइल्स ब्रासार्ड, डेविड डॉच और पीटर शोर को दिया गया है। जीव विज्ञान में डेमिस हैसाबिस, जॉन जम्पर, एंथनी ए. हायमन, क्लिफोर्ड ब्रैंगनाइन, इमैनुएल मिग्नाट और मसाशी यानागिसावा को कृत्रिम बुद्धि के उपयोग से प्रोटीन की संरचना की भविष्यवाणी के लिए पुरस्कृत किया गया है।

वर्ष 2022 का गणित का प्रतिष्ठित एबेल पुरस्कार अमेरिकी गणितज्ञ डॉ. डेनस पी. सुलिवान को दिया गया है। एबेल पुरस्कार को गणित का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है। इसकी स्थापना 2002 में की गई थी।

अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में नोबेल पुरस्कारों की घोषणा की गई। इस बार विज्ञान के विभिन्न विषयों के नोबेल पुरस्कार सात वैज्ञानिकों को दिए गए। चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार स्वीडन के आनुवंशिकी वैज्ञानिक स्वांते पाबो को दिया गया है। उन्हें विलुप्त पूर्वजों से आधुनिक युग के मानव का विकास विषय पर शोध के लिए पुरस्कृत किया गया। भौतिकशास्त्र का नोबेल पुरस्कार एलेन ऑस्पेक्ट, जॉन क्लाज़र और एंटोन जेलिंगर को संयुक्त रूप से क्वांटम मेकेनिक्स में विशेष योगदान के लिए दिया गया। रसायन विज्ञान का नोबेल सम्मान कैरोलिन बर्टोजी, मोर्टन मेल्डल और बैरी शार्पलेस को प्रदान किया गया। बैरी और मोर्टन ने ‘क्लिक केमिस्ट्री’ की नींव रखी, जबकि कैरोलिन ने ‘बायोआर्थोगोनल केमिस्ट्री’ को नया आयाम दिया।

यह वही वर्ष है जब जीवाणु वैज्ञानिक डॉ. टेड्रोस अधानोम गेब्रेसियस को दूसरी बार विश्व स्वास्थ्य संगठन का महानिदेशक चुना गया। उन्होंने 2017 में यह पद संभाला था। इसके पहले गेब्रेसियस 2005 से 2012 तक इथोपिया के स्वास्थ्य मंत्री और 2012 से 2016 तक विदेश मंत्री रह चुके हैं।

15 मार्च को विख्यात भौतिकशास्त्री यूजिन पार्कर का 94 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने पचास के दशक में सौर पवन के अस्तित्व का विचार रखा था। उन्हें 2003 में क्योटो और 2020 में क्रॉफोर्ड पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 3 जुलाई को फुलेरीन अणु के खोजकर्ता राबर्ट एफ. कर्ल जूनियर का 88 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। उन्हें 1996 में कार्बन के नए अपररूप फुलेरीन की खोज के लिए रसायन विज्ञान का नोबेल सम्मान मिला था।

साल के अंत में ओमिक्रॉन वायरस के नए सब वेरिएंट बीएफ.7 की चपेट में चीन और कुछ देश आ गए। दरअसल ओमिक्रॉन वायरस बहुरूपिया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि कुछ छोटे-मोटे बदलावों को छोड़कर इसकी मुख्य संरचना ओमिक्रॉन वायरस जैसी ही होती है। नया वायरस इम्युनिटी को चकमा देने में माहिर है।

विज्ञान जगत के समीक्षकों और विश्लेषणकर्ताओं का कहना है कि अधिकांश देशों में अंतर्राष्ट्रीय मूलभूत विज्ञान वर्ष एक रस्म अदायगी की तरह संपन्न हुआ, कोई बड़ी पहल नहीं हुई। रूस और यूक्रेन युद्ध का असर वैज्ञानिक रिश्तों और वैज्ञानिक परियोजनाओं पर पड़ा। चीन सहित कई देश ‘ज़ीरो कोविड नीति’ का सख्ती से पालन कराने में विफल रहे। वातानुकूलित सभागारों में जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन और जैव विविधता सम्मेलन में अहम मुद्दों को उठाने के साथ विचारोत्तेजक चर्चाएं हुईं। लेकिन कुल मिलाकर देखा जाए तो कोई सार्थक नतीजा सामने नहीं आया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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2022: विज्ञान और प्रौद्योगिकी की महत्वपूर्ण घटनाएं – संकलन : मनीष श्रीवास्तव

र्ष 2022 विज्ञान और प्रौद्योगिकी में उपलब्धियों भरा साल रहा। यहां साल 2022 के ऐसे ही समाचारों का संकलन किया गया है।

सूरज के वायुमंडल में पहुंचा अंतरिक्ष यान

अंतरिक्ष विज्ञान के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि जब कोई यान सूरज के वायुमंडल में प्रवेश कर पाया। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का पार्कर सोलर प्रोब सूरज के ऊपरी वायुमंडल में पहुंचा। यह यान सूरज की सतह से 79 लाख किलोमीटर की दूरी पर रहा। इसने सूरज से उत्सर्जित कणों और चुबंकीय क्षेत्र सम्बंधी महत्वपूर्ण आंकड़े जुटाए।

डायनासौर के पदचिंह

वैज्ञानिकों ने डायनासौर के पदचिंह पोलैंड में खोजे। इन निशानों से 20 करोड़ साल पहले के पारिस्थितिक तंत्र के बारे में नई जानकारी प्राप्त होगी। यह खोज पोलैंड की राजधानी वार्सा से 130 किलोमीटर दक्षिण में स्थित बोर्कोबाइस इलाके के खुले मैदान में की गई है।

शार्क का रसायन लैब में बनाया

शार्क में पाए जाने वाले स्कवेलिन नामक रसायन के लिए हर साल करीब 12 लाख शार्क का शिकार किया जाता है (एक शार्क के लीवर में मात्र 150 मिलीलीटर स्क्वेलिन मिलता है)। इसी स्क्वेलिन को प्रयोगशाला में बनाने में सफलता पाई आईआईटी जोधपुर के वैज्ञानिक राकेश शर्मा ने। उन्होंने जंगली वनस्पतियों और राजस्थानी मिट्टी की प्रोसेसिंग से स्क्वेलिन तैयार किया है।

कृत्रिम बुद्धि राइफल तैयार

आधुनिक हथियारों के निर्माण की दिशा में इस्राइल द्वारा कृत्रिम बुद्धि (एआई) आधारित स्व-चालित राइफल बना ली गई है। इसे अरकास नाम दिया गया है। इसे इस्राइल की रक्षा उत्पाद बनाने वाली कंपनी इल्विट ने बनाया है।

अंतरिक्ष में सैलून

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने हाल ही में अंतरिक्ष यात्रियों के लिए अंतरिक्ष में हेयर कटिंग सैलून खोला है।

चीनी यान ने चांद पर खोजा पानी

चीनी यान चांग-ई-5 द्वारा अंतरिक्ष मिशन के अंतर्गत चंद्रमा पर पानी की खोज की गई। यह भी पता चला कि चंद्रमा पर यान के उतरने के स्थान पर मिट्टी में पानी की मात्रा 120 ग्राम प्रति टन से कम थी।

30 करोड़ वर्ष पुरानी चट्टान

जियोलॉजिकल सोसायटी ऑफ अमेरिका बुलेटिन में प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि भू-गर्भीय दृष्टि से महत्वपूर्ण लद्दाख में सिंधु नदी के उत्तर में श्योक व न्यूब्रा घाटी में 29.9 करोड़ वर्ष पुरानी चट्टान खोजी गई है। इस चट्टान में गोंडवाना के समय के बीजों के जीवाश्म मिले हैं। गौरतलब है कि गोंडवाना पृथ्वी के अतीत में कभी एक महाद्वीप हुआ करता था।

दुनिया का सबसे बड़ा रोबोट

चीन ने चार पैरों पर चलने वाला दुनिया का सबसे बड़ा रोबोट याक बनाया है। यह 160 किलोग्राम तक वज़न उठा सकता है और 1 घंटे में 10 किलोमीटर तक चल सकता है।

प्लास्टिक से हल्का और स्टील से मज़बूत पदार्थ

मैसाच्यूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी ने एक ऐसा पदार्थ विकसित किया है, जो प्लास्टिक से हल्का और स्टील से ज़्यादा मज़बूत है। यह बुलेटप्रुफ कांच की तुलना में 6 गुना शक्तिशाली है। इसका प्रयोग सुरक्षा तकनीकों में किया जाना है।

डार्क मैटर और न्यूट्रिनो के बीच समानता

आईआईटी गुवाहाटी के शोधकर्ताओं ने अंतरिक्ष के डार्क मैटर (अदृश्य पदार्थ) और ब्रह्मांड में सबसे प्रचुर मात्रा में पाए जाने वाले कण न्यूट्रिनो के बीच समानता का पता लगाया है। इस खोज को फिज़िकल रिव्यू लेटर्स में प्रकाशित किया गया है।

मछली की नई प्रजाति

कोच्चि के सेंट्रल मरीन फिशरीज़ रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा आनुवंशिक विश्लेषण की मदद से मछली की एक नई प्रजाति की खोज की गई है। यह मछली क्वीन फिश समूह में है और इसे स्कोम्बेरॉइडस पेलेजिकस (scomberoides pelagicus) नाम दिया गया है। इसे स्थानीय भाषा में पोला वट्टा कहते हैं।

विश्व की सबसे पुरानी चट्टान

अमेरिका की राष्ट्रीय स्पेस एजेंसी ने विश्व की लगभग सबसे पुरानी चट्टान को खोजने का दावा किया है। एजेंसी के अनुसार इस चट्टान पर करीब 3.45 अरब साल पुराने जीवाश्म स्ट्रोमेटोलाइट्स और सायनोबैक्टीरिया की कालोनियां हुआ करती थीं।

टेरासौर का पुराना जीवाश्म

उड़ने वाले रीढ़धारी पुरातन सरिसृप जीव टेरासौर का 17 करोड़ साल पुराना जीवाश्म स्कॉटलैंड के एक द्वीप पर प्राप्त हुआ है। यह टेरासौर की नई प्रजाति है, जिसके बारे में पहले जानकारी नहीं हुआ करती थी।

सूर्य की सबसे करीबी तस्वीर

नासा और युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के साझा सोलर ऑर्बाइटर ने सूर्य की अब तक की सबसे करीबी तस्वीर प्राप्त करने में सफलता पाई है। यह तस्वीर सूर्य से 7.40 करोड़ किलोमीटर की दूरी से ली गई है। इस तस्वीर के अध्ययन से अंतरिक्ष मौसम की भविष्यवाणी करने में मदद मिलने की संभावना है।

रेबीज़ का नया टीका

भारत की दवा कंपनी कैडिला फार्मास्युटिकल ने रेबीज़ के लिए तीन खुराक वाला टीका विकसित किया है। यह नैनोपार्टिकल आधारित प्रोटीन टीका है।

अंतरिक्ष में पहला निजी दल

अंतरिक्ष में शोध करने के लिए पहला निजी दल अप्रैल माह में अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में पहुंचा। ह्यूस्टन की स्टार्टअप कंपनी एग्जि़ओम स्पेस इंक द्वारा 4 यात्रियों के इस दल को 21 घंटे में सफलतापूर्वक भेजा गया।

पहली 3डी फिंगर टिप

ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने एक 3डी फिंगर टिप बनाने में सफलता पाई है जो इंसान की त्वचा जैसी संवेदनशील है। इससे त्वचा की जटिल आंतरिक संरचना और स्पर्श के एहसास को समझने में सहायता मिलेगी।

सबसे दूर के तारे की खोज

युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने बताया है कि शक्तिशाली अंतरिक्ष दूरबीन हबल ने पृथ्वी से अब तक के सबसे दूर स्थित तारे को खोज लिया है। इस तारे के प्रकाश को पृथ्वी तक पहुंचने में 12.9 अरब वर्ष का समय लगता है। इसे एरेन्डेल नाम दिया गया है।

ध्वनि की दो चालें

नासा के वैज्ञानिकों ने बताया है कि पृथ्वी पर ध्वनि 340 मीटर प्रति सेकंड की रफ्तार से चलती है लेकिन मंगल ग्रह पर ध्वनि की गति 240 मीटर प्रति सेकंड ही होती है। इसका कारण है मंगल का अल्प तापमान (औसतन ऋण 60 डिग्री सेल्सियस)

संचार की नई तकनीक

नासा ने अंतरिक्ष संचार के क्षेत्र में बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल की है। नासा के वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष संचार के लिए होलोपोर्टेशन नामक एक नई तकनीक ईजाद की है। इस तकनीक द्वारा नासा के एक वैज्ञानिक ने धरती पर रहते हुए ही अंतर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन के लोगों से स्टेशन पर अपनी एक प्रतिकृति के माध्यम से बातचीत की।

पहला स्वदेशी पॉलीसेंट्रिक घुटना

आईआईटी, मद्रास के शोधकर्ताओं ने भारत का पहला स्वदेशी पॉलीसेंट्रिक घुटना ‘कदम’ नाम से लॉन्च किया है। यह घुटने के ऊपर विकलांग हुए लोगों के लिए बेहद उपयोगी है।

विमान उतारने की नई स्वदेशी तकनीक

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन और एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने मिलकर विमान को लैंड कराने की नई उन्नत स्वदेशी तकनीक विकसित की है है। ऐसा करने वाला भारत विश्व का चौथा देश बन गया है।

रूबिक्स क्यूब हल करने वाला रोबोट

हैदराबाद के 11 साल के कक्षा 6 में अध्ययन करने वाले छात्र एस.पी.शंकर ने एक ऐसा रोबोट बनाया है, जो रूबिक्स क्यूब को स्वयं हल कर देता है। यह सफलता बिना पेशेवर मार्गदर्शन के मिली है।

विटामिन डी का स्रोत बना टमाटर

नेचर प्लांट्स जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक इंग्लैंण्ड के जॉन एनेस सेंटर के वैज्ञानिकों ने जीन संपादन टेक्नॉलॉजी की मदद से टमाटर के जीनोम में बदलाव कर उसे विटामिन डी के बढ़िया स्रोत में बदल दिया है।

चंद्रमा पर खोजे 13 नए स्थान

अमेरिका की अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने अगस्त में बताया कि उसने चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के समीप 13 नए स्थानों की खोज कर ली है जहां अंतरिक्ष यानों को उतारा जा सकता है।

3-डी प्रिंटेड कॉर्निया बनाया

हैदराबाद स्थित एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी (हैदराबाद), व सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलिक्यूलर बॉयोलॉजी के शोधकर्ताओं ने 3-डी प्रिंटेड कॉर्निया बनाने में सफलता पाई है। पूरी तरह स्वदेशी तकनीक से विकसित इस कॉर्निया में कोई भी सिंथेटिक घटक नहीं है।

लैब में सूर्य के समान ऊर्जा

दक्षिण कोरिया के भौतिक वैज्ञानिकों ने एक फ्यूज़न रिएक्टर में चुंबकीय क्षेत्र का प्रयोग कर सूर्य के समान ऊर्जा उत्सर्जित करने में सफलता पाई है। इस प्रयोग में 30 सेकंड तक करीब 10 करोड़ डिग्री सेल्सियस का तापमान विकसित करने में सफलता मिली।

पहला हिमस्खलन रडार केंद्र

भारतीय सेना और रक्षा भू-सूचना विज्ञान और अनुसंधान प्रतिष्ठान ने संयुक्त रूप से सितंबर माह में सिक्किम राज्य में देश का पहला हिमस्खलन रडार केंद्र स्थापित किया है। यह रडार 3 सेकंड के भीतर हिमस्खलन का पता लगा सकता है।

अमेज़न का सबसे ऊंचा पेड़

वैज्ञानिकों ने अमेज़न के जंगलों में सबसे ऊंचा पेड़ खोजा है। इसकी लंबाई 88.5 मीटर है। वैज्ञानिकों ने इसकी उम्र करीब 600 वर्ष आंकी है।

प्राकृतिक आपदा और रोबोट चूहा

चीन के वैज्ञानिकों ने ऐसा रोबोटिक चूहा बनाया है जो असली चूहे की तरह खड़ा हो सकता है, मुड़ सकता है, बैठ सकता है। यह रोबोटिक चूहा अपने वज़न का 91 फीसदी भार लेकर चल भी सकता है। इसे प्राकृतिक आपदा या युद्ध क्षेत्र में मदद के लिए बनाया गया है।

3-डी प्रिंटेड कान बना

दुनिया में पहली बार 3-डी प्रिंटेड कान बनाकर एक महिला को लगाया गया है। माइक्रोटिया रोग से ग्रसित लोगों के लिए यह बेहद फायदेमंद है।

सबसे पुराना पेड़ मिला

दक्षिण चिली के एक पार्क में दुनिया का सबसे पुराना पेड़ मिला है। पेरिस स्थित क्लाइमेट एंड एनवायरमेंटल साइंसेज़ लेबोरेट्री के पारिस्थितिकीविद जोनाथन बैरीचिविच के अनुसार पेड़ की उम्र 5484 साल है।

शून्य कार्बन उत्सर्जन कार

नीदरलैंड के आइंडहोवन प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने शून्य कार्बन उत्सर्जन करने वाली कार का प्रोटोटाइप बनाने में सफलता प्राप्त की है। इसके अधिकांश हिस्सों को 3-डी प्रिंटिंग टेक्नॉलॉजी की मदद से तैयार किया गया है।

माउंट एवरेस्ट से बड़ी चट्टान

वैज्ञानिकों ने भूपर्पटी और पृथ्वी के कोर के बीच (पश्चिमी अफ्रीका और प्रशांत महासागर के मध्य) चट्टान की एक गर्म मोटी परत खोजी है, जो माउंट एवरेस्ट से 100 गुना बड़ी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://solarsystem.nasa.gov/news/522/10-things-to-know-about-parker-solar-probe/

मनुष्यों और जानवरों के संघर्ष दर्शाती नक्काशियां

गभग 11,000 साल पहले वर्तमान के दक्षिणी तुर्की में शिकारी-संग्रहकर्ताओं ने अपनी घूमंतू जीवन शैली त्यागकर एक जगह बसना शुरू किया था। खेती शुरू होने के सदियों पहले वहां उन्होंने पत्थर के टिकाऊ घर और स्मारक बनाए थे। अब, हाल ही में खोजी गई नक्काशी इन नवपाषाण युगीन अनातोलियन लोगों की मान्यताओं, डरों और कहानियों की एक झलक पेश करती है।

सायबुर्क गांव के नीचे दफन 3.7 मीटर लंबे पत्थर के पटल पर एक जंगली सांड, गुर्राते तेंदुए और अपने शिश्न की नुमाइश करते दो मनुष्य उकेरे गए हैं। पूर्व में इसके आसपास के अन्य खुदाई स्थलों पर पुरातत्वविदों को उग्र शिकारियों और लिंग की आकृतियां मिली थीं, लेकिन ऐसा लगता नहीं था कि इनमें उकेरे गए पात्र एक-दूसरे को देख रहे हों। अधिकांश पात्र मूर्तियों की तरह सीधे अकेले खड़े थे, नज़रें अलग-अलग कहीं देख रही थीं, इनमें आपसी संवाद जैसी कोई भंगिमा नहीं थी, न ही संवाद या संपर्क के अन्य कोई संकेत थे। लेकिन एंटीक्विटी नामक शोध पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि सायबुर्क में मिली ताज़ा नक्काशी के दो दृश्यों में पात्रों के बीच कुछ संवाद दिखता है। यह संभवत: इस क्षेत्र की सबसे प्राचीन कला अभिव्यक्ति है।

दक्षिण-पूर्वी अनातोलिया में लगभग 12,000 से 9000 साल पहले जीवन शैली तेज़ी से बदली थी – खानाबदोश शिकारी-संग्रहकर्ता धीरे-धीरे एक स्थान पर टिकने लगे थे, और कालांतर में खेती करने लगे थे। इस परिवर्तन के समय, शुरुआती ग्रामीणों ने 10 मीटर से अधिक व्यास वाली चट्टान की शानदार गोल इमारतों का निर्माण किया था। इन इमारतों के एकल प्रस्तर खंभों पर शेर, सांप और अन्य हिंसक जानवरों की तस्वीरें हैं जो अपने सबसे घातक अंगों का प्रदर्शन कर रहे हैं – जैसे नुकीले दांत, नाखून, सींग वगैरह। इन पर सिर्फ शिश्न या शिश्न दिखाती पुरुष आकृतियां भी हैं।

इन नवपाषाण भवनों की खोज पुरातत्वविदों ने फरात नदी से लगभग 90 किलोमीटर पूर्व गोबेकली टेपे में 1990 के दशक में की थी। ये स्थल अब युनेस्को विश्व धरोहर स्थल में शामिल हैं। शुरुआत में शोधकर्ताओं को लगा था कि नवपाषाण काल के लोगों ने बड़े अनुष्ठान स्थल के रूप मे इन भवनों को बनाया होगा। लेकिन उसके बाद से तुर्की के सान्लीउर्फा में इसी तरह की नक्काशी और वास्तुशिल्प वाले एक दर्जन से अधिक भवन मिले हैं। इससे यह स्पष्ट होता लगता है कि तत्कालीन तुर्की में भवन निर्माण का यह मानक या आम तरीका था।

साल 2021 में, इस्तांबुल विश्वविद्यालय के पुरातत्वविद आइलम ओज़ोगेन और उनके साथियों ने सायबुर्क में खुदाई शुरू की थी। खुदाई में उन्हें लगभग 9000 ईसा पूर्व (आज से लगभग 11 हज़ार साल पहले) के कुछ अवशेष और गोबेकली टेपे जैसी गोलाकार इमारत भी मिलीं। वे केवल आधी इमारत को खोदकर उजागर कर सके क्योंकि बाकी आधे हिस्से के ऊपर आधुनिक बस्ती बस चुकी है। उजागर पुरातन इमारत में उन्हें एक पत्थर की बेंच के पास के पटल पर शिकारियों और शिश्न की नक्काशियां मिलीं।

एक दृश्य में एक छह-उंगली वाला, पालथी मारकर बैठा मनुष्य सांप या झुनझुने जैसी कोई चीज़ एक पैने सींग वाले सांड की ओर लहराता दिख रहा है। शोधकर्ताओं के अनुसार यह दो जीवों के बीच लड़ाई जैसा दृश्य लगता है। दूसरे दृश्य में एक व्यक्ति शिश्न पकड़े सामने की ओर मुंह करके खड़ा है और इसके दोनों ओर दो तेंदुए इस व्यक्ति की ओर मुंह करके खड़े हैं। इसे शोधकर्ता खतरे के सामने ‘एक लापरवाह रवैया’ बताते हैं। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि दीवार पर बनी आकृतियां एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं या किसी क्रम में है, लेकिन शोधकर्ताओं को लगता है कि ये नक्काशियां खानाबदोश समुदाय के एक जगह बसने के साथ उनके प्रकृति के प्रति बदलते दृष्टिकोण को व्यक्त करती हैं। सांड के साथ संघर्ष और तेंदुओं के प्रति उदासीनता संभवत: जंगली जीवों को वश में करना सीखने वाले लोगों की कहानी बताती होगी।

वैसे, अन्य वैज्ञानिक इन नक्काशियों को देखकर इनकी अलग व्याख्या प्रस्तुत कर सकते हैं। जर्मन आर्कियोलॉजिकल इंस्टीट्यूट के पुरातत्वविद मुलर-न्यूहोफ को लगता है कि सांड और उसके साथ एक-दूसरे की ओर मुंह किए तेंदुए मिलकर कोई कहानी कहते हैं। और शिश्न पकड़े खड़ा व्यक्ति आगंतुकों का अभिवादन कर रहा है या अनचाहे मेहमानों को डरा रहा है। युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के एडवर्ड बैनिंग को सांड वाले दृश्य के लिए ऐसा लगता है कि यह आदमी किसी झुनझुने से डराने के बजाय जानवर को काबू करने के लिए फंदा डालने की तैयारी में है।

इन नक्काशियों के अर्थ समझने के लिए शोधकर्ताओं को इस बारे में और समझना पड़ेगा जिससे मिलकर पूरा समुदाय बनता है। अन्य शोधकर्ता चेताते हैं कि नक्काशियों का अर्थ स्वतंत्र रूप से सिर्फ नक्काशी देखकर निकालने के बजाए उनके साथ मिले भोजन अवशेष, मानव कंकाल और अन्य कलाकृतियों के साथ जोड़ते हुए निकालना अधिक सार्थक होगा।

बहरहाल, ये पुरातात्विक साक्ष्य जल्द उजागर होने की उम्मीद है। तुर्की सरकार इन प्राचीन इमारत के ऊपर रह रहे लोगों को अन्यत्र नए घर बनाकर दे रही है ताकि पूरी इमारत खोद कर बाहर निकाली जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कैंसर कोशिकाएं गाढ़े द्रव में तेज़ चलती हैं

कैंसर फैलने में अहम मोड़ मेटास्टेसिस चरण में आता है, जब कोशिकाएं प्रारंभिक ट्यूमर से अलग होकर शरीर में फैलने लगती हैं और नए ट्यूमर बनाने लगती हैं। लेकिन कैंसर कोशिकाओं को आगे बढ़ने के लिए शरीर में मौजूद तरल माध्यम से गुज़रते हुए उसके प्रतिरोध का सामना पड़ता है। पूर्व में हुए प्रयोगशाला अध्ययनों में पता चला था कि (सहज बोध के विपरीत) ये कोशिकाएं गाढ़े द्रव में अधिक तेज़ी से आगे बढ़ती हैं।

अब, नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में पता चला है कि कैंसर कोशिकाएं शारीरिक द्रव के गाढ़ेपन को भांप लेती हैं और उसके मुताबिक प्रतिक्रिया देती हैं। सिरप जैसे द्रव में रखे जाने पर देखा गया कि कोशिकाएं अपनी बनावट में ऐसे परिवर्तन करती हैं जो उन्हें बाहरी प्रतिरोध में अधिक कुशलता से आगे बढ़ने में मदद करते हैं। यहां तक कि वे द्रव के गाढ़ेपन की स्मृति को सहेजकर रखती हैं और अपेक्षाकृत पतले द्रव में लौटने पर भी तेज़ी से आगे बढ़ना जारी रखती हैं।

यह जानने के लिए कि कोशिकाएं गाढ़े माध्यम में कैसे आगे बढ़ती हैं, पोम्पे फेबरा युनिवर्सिटी के आणविक जीव विज्ञानी मिगुएल वेल्वरडे और उनके साथियों ने कोशिकाओं की चाल पता करने के लिए उपयोग किए गए अपने गणितीय मॉडल को थोड़ा बदलकर इसे गाढ़े द्रव के लिए अनुकूलित किया।

संशोधित मॉडल ने बताया कि बाहरी प्रतिरोध कोशिकाओं को उनके अग्रभाग की ओर एक्टिन को पुनर्गठित करने के लिए उकसाता है – एक्टिन एक प्रोटीन है जो कोशिका का आंतरिक कंकाल बनाता है। इसके बाद NHE1 नामक परिवहन प्रोटीन झिल्ली पर इकट्ठा होने लगता है और पानी के अवशोषण में मदद करता है। इससे कोशिका फूल जाती है, जिसकी वजह से झिल्ली में तनाव पैदा हो जाता है। इस तनाव के परिणामस्वरूप TRPV4 आयन चैनल खुल जाता है। इससे कैल्शियम आयन कोशिका में भर जाते हैं जो इसे सिकुड़ने के लिए उकसाते हैं। इससे एक बल उत्पन्न होता है जो कोशिका को अधिक गाढ़े द्रव के प्रतिरोध का सामना करके आगे बढ़ने में मदद करता है।

पुष्टि के लिए शोधकर्ताओं ने मानव स्तन कैंसर कोशिकाओं को अत्यधिक आवर्धन क्षमता वाले सूक्ष्मदर्शी से देखा। पाया गया कि जब कोशिकाएं गाढ़े माध्यम में होती हैं तो उनके अग्रभाग पर एक्टिन जमा होता है। फिर शोधकर्ताओं ने व्यवस्थित रूप से प्रत्येक घटक की जांच करके घटनाओं के क्रम की पुष्टि की। उदाहरण के लिए, NHE1 रहित कोशिकाओं में जब TRPV4 को सक्रिय किया गया तो कोशिकाओं में तेज़ी से चलने की क्षमता बहाल हो गई, जिससे पता चलता है कि TRPV4 चैनल तरल के बहाव की विपरीत दिशा में कार्य करता है। ये नतीजे इस मान्यता को चुनौती देते हैं कि बाहरी चीज़ों के प्रति प्रतिक्रिया देने की शुरुआत आयन चैनल करती हैं।

यह भी देखा गया कि गाढ़े द्रव की परिस्थितियों की स्मृति कोशिकाएं बरकरार रखती है: मानव स्तन कैंसर कोशिकाओं को गाढ़े द्रव में छह दिनों तक रखकर फिर पानी जितनी सांद्रता वाले में माध्यम में स्थानांतरित करने पर पाया गया कि इन कोशिकाओं ने अपनी गति बरकरार रखी। इसी तरह, लसलसे तरल में कोशिकाओं को पनपाने के बाद जब इन्हें चूहों के शरीर में डाला गया तो इन कोशिकाओं ने कम लसलसे तरल में पनपाई गई कोशिकाओं की तुलना में अधिक व्यापक मेटास्टेसिस किया। इसी तरह के नतीजे ज़ेब्राफिश और भ्रूण-चूज़े में भी देखे गए।

ऐसा लगता है कि इस स्मृति का विकास TRPV4 पर निर्भर करता है। कोशिकाओं को एक लसलसे घोल में छह दिन तक रखने के बाद पानी के समान द्रव में स्थानांतरित किया गया तो पता चला कि जिन कोशिकाओं में आयन चैनल व्यक्त नहीं हुआ था उन्होंने चूहों में तुलनात्मक रूप से कम ट्यूमर बनाए। इससे पता चलता है कि आयन चैनल के अभाव में गाढ़ापन गति को प्रभावित नहीं करता।

शोधकर्ताओं का कहना है कि कैंसर के मेटास्टेसिस को अवरुद्ध करने के लिए TRPV4 एक संभावित लक्ष्य हो सकता है। लेकिन अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि पहले सामान्य कोशिकाओं में TRPV4 की भूमिका को पूरी तरह समझना ज़रूरी है। यदि यह कोई खास भूमिका निभाता होगा तो इसे अवरुद्ध करने के घाटे भी हो सकते हैं। इसके अलावा, निष्कर्षों की सावधानीपूर्वक व्याख्या की जानी चाहिए। कोशिकाएं गाढ़े घोल में तेज़ चलती हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि वे अधिक कैंसर गठानें (द्वितियक कैंसर) बनाएंगी; ट्यूमर मेटास्टेसिस एक बहुत ही जटिल घटना है जिसके कई चरण होते हैं, इनमें से कुछ चरण कोशिका के विचरण से स्वतंत्र हैं।

बहरहाल, भले ही ये नतीजे सीधे तौर पर कैंसर चिकित्सा में मदद न करें लेकिन ये कोशिका-आधारित कैंसर अनुसंधान में बदलाव ला सकते हैं। फिलहाल अधिकांश अध्ययन पानी जैसी सांद्रता वाले द्रवों में किए जाते हैं। शरीर के तरल जैसी सांद्रता वाले द्रव का उपयोग मेटास्टेसिस-अवरुद्ध करने वाले लक्ष्य पहचानने में अधिक मदद कर सकते हैं। कृत्रिम वातावरण जितना अधिक शरीर के वातावरण के समान होगा उतने सटीक परिणाम मिलने की उम्मीद की जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नोबेल विजेता के शोध पत्रों पर सवाल

नोबेल विजेता आनुवंशिकीविद ग्रेग सेमेंज़ा के कई शोध पत्रों के चित्रों पर उठे सवालों के बाद शोध पत्रिकाओं ने जांच शुरू कर दी है। शोध पत्रिकाओं ने उनके 17 शोध पत्रों को या तो वापस ले लिया है, या उन्हें सुधारा गया है या उन पर चिंता व्यक्त की गई है। कई शोध पत्रों की जांच जारी है।

जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय में कार्यरत सेमेंज़ा को 2019 में कार्यिकी या चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार मिला था। उन्हें यह पुरस्कार 1990 के दशक में किए गए काम – कोशिकाएं शरीर में ऑक्सीजन की उपलब्धता को भांपकर कैसे उसके प्रति अनुकूलन करती हैं – के लिए मिला था। हालिया चिंताएं उसके बाद इस विषय में प्रकाशित शोधकार्यों पर केंद्रित हैं।

हाल के वर्षों में, डिजिटल उपकरणों द्वारा परिणामों में हेरफेर करने में आसानी होने के कारण, वैज्ञानिक शोध पत्रों में चित्रों की सत्यता जांच के दायरे में अधिक आई है। वैसे, चित्रों में हेरफेर करने या बदलाव करने के कुछ वाजिब कारण भी हो सकते हैं – जैसे रंग संतुलन या विभेद बढ़ाकर परिणामों को स्पष्ट करना। यह भी हो सकता है कि शोध पत्र तैयार करते समय आंकड़े या लेबल लगाने में गड़बड़ी हो जाए या चित्र विकृत भी हो सकते हैं। लेकिन यह संभावना भी रहती है कि इमेज-एडिटिंग टूल का इस्तेमाल जान-बूझकर जाली परिणाम बनाने में किया गया हो।

चित्र-प्रामाणिकता की प्रमुख सलाहकार और सेमेंज़ा के काम में अनियमितताओं को पहचानने वाली एलिज़ाबेथ बिक का कहना है कि 20 सालों के शोध कार्य के दौरान भूल-चूक की संख्या ठीक ही लगती है, और कई सवाल संभवत: ‘लापरवाही’ के दायरे में आते हैं। लेकिन चित्र हेर-फेर की वजह से 5 शोध पत्रों को वापस लिया जाना गड़बड़ी की ओर इशारा करता है।

PubPeer नामक वेबसाइट पर टिप्पणीकर्ताओं ने सेमेंज़ा द्वारा वर्ष 2000 से 2021 के बीच प्रकाशित 52 शोध पत्रों के चित्रों पर सवाल उठाए हैं। 2011 के बाद से, इनमें से 17 शोध पत्रों को या तो वापस ले लिया गया है, या उनमें सुधार किया गया है या ‘चिंता व्यक्त’ की गई है। इन शोध पत्रों में परिणाम दर्शाने वाले चित्रों में संभावित परिवर्तन, पुन: उपयोग या गलत लेबलिंग देखी गई थी।

जिन 32 शोध पत्रों पर जांच चल रही है उनमें सेमेंज़ा के साथ सह-लेखक अलग-अलग वैज्ञानिक हैं। 14 शोध पत्रों के प्रमुख लेखक सेमेंज़ा हैं। और ये 14 शोध पत्र विभिन्न तरह के कैंसर में ऑक्सीजन सेंसिंग के आणविक तंत्र से सम्बंधित शोध, और रक्त वाहिनियों के कार्य और गड़बड़ियों पर हैं। किसी भी मामले में शरारत सिद्ध नहीं हुई है। लेकिन चित्रों में हेरफेर की वजह से कई शोध पत्रों का वापिस लिया जाना इरादतन गड़बड़ी की शंका पैदा करता है। वैसे यह स्पष्ट नहीं है कि किस वैज्ञानिक ने क्या योगदान दिया है, इसलिए चित्रों में त्रुटि या समस्या के लिए ज़िम्मेदार किसे ठहराएं यह स्पष्ट नहीं है।

सेमेंज़ा के काम के बारे में पहली पोस्ट 2015 में PubPeer पर छपी थी, और अधिकांश पोस्ट 2020 और 2021 की हैं। जर्नल्स ने 2011 में सेमेंज़ा का एक शोध पत्र वापस लिया था, और 2013 में दो शोध पत्रों में सुधार किया था। लेकिन बाकी शोध पत्रों पर संपादकीय दलों ने पिछले दो सालों में ही कदम उठाए हैं।

2021 में, पांच शोध पत्रिकाओं ने गलत लेबल किए गए डैटा और चित्रों के दोबारा उपयोग जैसी त्रुटियों के कारण पांच शोध पत्रों में भूल-सुधार जारी किए थे। मार्च में, कैंसर रिसर्च पत्रिका ने एक शोध पत्र में सुधार किया था और जांच के बाद एक अन्य शोध पत्र पर चिंता व्यक्त की थी, जिसमें पाया गया था कि शोधकर्ताओं ने एक ही डैटा को अलग-अलग प्रयोगों के परिणामों के रूप में प्रस्तुत किया था।

पिछले महीने, प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ ने सेमेंज़ा के कोशिका जीव विज्ञान के चार शोध पत्र वापस लिए और अन्य तीन में सुधार किया। इन शोध पत्रों में डैटा का दोहराव और‘स्प्लायसिंग’ (चित्र के किसी हिस्से को काट कर कहीं और लगाना) जैसी समस्याएं थीं। तकरीबन दर्जन भर शोध पत्र जांच की प्रक्रिया में हैं।

सेमेंज़ा के 20 शोध पत्र प्रकाशित करने वाली सात शोध पत्रिकाओं ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। कुछ पत्रिकाएं विवादित शोध पत्रों की जांच नहीं कर रही हैं। कई वैज्ञानिक भी इस मामले में टिप्पणी करने से बच रहे हैं। खुद सेमेंजा ने भी पूरे मामले पर कोई टिप्पणी नहीं की है।

इस क्षेत्र के एक शोधकर्ता का कहना है कि ऑक्सीजन-सेंसिंग पर सेमेंज़ा के शोध का काफी प्रभाव रहा है। अन्य वैज्ञानिकों द्वारा दोहराए जाने पर ऐसे ही नतीजे प्राप्त हुए हैं। बहरहाल, देखा यह जाना है कि चित्रों में समस्याएं शोध पत्रों के निष्कर्षों को प्रभावित करती हैं या नहीं। (स्रोत फीचर्स)

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क्या ट्यूमर में छिपी फफूंद कैंसर को गति देती हैं?

र्षों से इस बात के प्रमाण मिलते रहे हैं कि बैक्टीरिया का सम्बंध कैंसर से है, और कभी-कभी बैक्टीरिया कैंसर की प्रगति में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते हैं। अब, शोधकर्ताओं को कैंसर में एक अन्य प्रकार के सूक्ष्मजीव – फफूंद – की भूमिका दिखी है।

सेल पत्रिका में प्रकाशित दो अध्ययनों के मुताबिक अलग-अलग तरह की कैंसर गठानों में अलग-अलग प्रजाति की एक-कोशिकीय फफूंद पाई जाती हैं, और इन प्रजातियों का अध्ययन कैंसर के निदान या इसके विकास का अनुमान लगाने में मददगार हो सकता है।

बैक्टीरिया की तरह सूक्ष्मजीवी फफूंद भी मनुष्य के शरीर में मौजूद सूक्ष्मजीव संसार का एक महत्वपूर्ण अंग हैं। कैंसर पीड़ित लोगों में इनकी उपस्थिति कैसे भिन्न होती है इसे समझने के लिए इस्राइल के वाइज़मैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस की कैंसर जीवविज्ञानी लियान नारुंस्की हज़िज़ा और उनके साथियों ने 35 तरह के कैंसर के 17,000 से अधिक ऊतक और रक्त के नमूनों में फफूंद आबादी पर गौर किया।

जैसा कि अपेक्षित था, यीस्ट (खमीर) समेत कई प्रकार की फफूंद सभी तरह के कैंसर में मौजूद मिली, लेकिन कुछ प्रजातियों का सम्बंध कैंसर के कुछ अलग परिणामों से देखा गया। जैसे, मेलेसेज़िया ग्लोबोसा फफूंद, जो पूर्व में अग्न्याशय के कैंसर से सम्बद्ध पाई गई थी, स्तन कैंसर में व्यक्ति के जीवित रहने की दर को काफी कम कर देती है। यह भी देखा गया कि अधिकांश प्रकार की फफूंद कतिपय बैक्टीरिया के साथ-साथ पाई जाती हैं; अर्थात ट्यूमर फफूंद और बैक्टीरिया दोनों के विकास को बढ़ावा दे सकते हैं – जबकि सामान्य परिस्थितियों में फफूंद और बैक्टीरिया एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी होते हैं।

दूसरे अध्ययन में, वैल कॉर्नेल मेडिसिन के प्रतिरक्षा विज्ञानी इलियन इलीव और उनके साथियों ने आंत, फेफड़े और स्तन कैंसर के ट्यूमर पर अध्ययन किया और पाया कि उनमें क्रमशः कैंडिडा, ब्लास्टोमाइसेस और मेलेसेज़िया फफूंद उपस्थित थीं। आंत की ट्यूमर कोशिकाओं में कैंडिडा का उच्च स्तर शोथ बढ़ाने वाले जीन की अधिक सक्रियता, कैंसर के अन्य स्थानों पर फैलने (मेटास्टेसिस) की उच्च दर और जीवित रहने की निम्न दर से जुड़ा था।

देखा जाए तो ट्यूमर में फफूंद कोशिकाओं को पहचानना घास के ढेर में सुई खोजने जैसा है। आम तौर पर प्रत्येक 10,000 ट्यूमर कोशिकाओं पर केवल एक फफूंद कोशिका होती है। इसके अलावा, ये फफूंद काफी व्यापक रूप से पाई जाती हैं और इसलिए नमूनों में संदूषण की संभावना रहती है।

इसके अलावा, उक्त अध्ययन केवल यह बताते हैं कि फफूंद की कुछ प्रजातियों और कैंसर के कतिपय प्रकारों बीच कोई सम्बंध है – इससे कार्य-कारण सम्बंध का निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। यह समझने के लिए और अध्ययन की ज़रूरत है कि क्या फफूंद शोथ पैदा करके कैंसर की प्रगति में योगदान देती है, या ट्यूमर फफूंद को अनुकूल वातावरण देते हैं और फफूंद हावी हो जाती हैं।

इसके लिए अलग-अलग कैंसर कोशिका कल्चर पर प्रयोग ज़रूरी होंगे। (स्रोत फीचर्स)

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भारत का पहला तरल दर्पण टेलीस्कोप

हाल ही में भारत में एक अनोखा टेलीस्कोप तैयार किया गया है जिसमें ठोस दर्पण के बजाय घूर्णन करता तरल पारा उपयोग किया गया है। हालांकि इस तरह के टेलीस्कोप पहले भी बनाए जा चुके हैं लेकिन खगोल विज्ञान को समर्पित 4-मीटर चौड़ा इंटरनेशनल लिक्विड मिरर टेलीस्कोप (आईएलएमटी) पहली बार तैयार किया गया है। इसे हिमालय में 2450-मीटर ऊंचाई पर नैनीताल के समीप स्थित देवस्थल वेधशाला में स्थापित किया गया है।

गौरतलब है कि लगभग 15 करोड़ रुपए की लागत का यह टेलीस्कोप बेल्जियम, कनाडा और भारत द्वारा संयुक्त रूप से तैयार किया गया है। यह कांच वाले टेलीस्कोप की तुलना में बहुत सस्ता है। इसी टेलीस्कोप के नज़दीक बेल्जियम की एक कंपनी द्वारा 3.6 मीटर चौड़ा स्टीयरेबल देवस्थल ऑप्टिकल टेलीस्कोप (डीओटी) भी स्थापित किया गया है जिसकी लागत लगभग 140 करोड़ रुपए है। खगोलविदों के अनुसार तरल दर्पण चंद्रमा पर एक विशाल टेलीस्कोप स्थापित करने के लिए सबसे बेहतरीन तकनीक है जिससे दूरस्थ ब्रह्मांड को देखा जा सकेगा।        

इस प्रकार के टेलीस्कोप में एक कटोरे के आकार के उपकरण में पारे को घुमाया जाता है। इस प्रक्रिया में गुरुत्वाकर्षण और अपकेंद्री बल का मिला-जुला असर तरल को एक पारंपरिक टेलीस्कोप दर्पण के समान आदर्श परावलय आकार में परिवर्तित कर देता है। इसमें कांच का दर्पण बनाने, उसकी सतह को घिसकर परावलय आकार देने और एल्युमिनियम की परावर्तक परत बनाने का खर्च भी नहीं होता है।

आईएलएमटी की कल्पना 1990 के दशक के अंत में की गई थी। हालांकि भारत में इस टेलीस्कोप के पुर्जे 2012 में लाए गए थे लेकिन निर्माण में काफी विलंब हुआ। इस दौरान शोधकर्ताओं ने पाया कि उनके पास पर्याप्त पारा भी नहीं है। फिर कोविड-19 महामारी ने यात्रा करना मुश्किल कर दिया। आखिरकार इस वर्ष अप्रैल में टीम ने 50 लीटर पारे को सेट करके 3.5 मि.मी. परावलय परत का निर्माण किया।

सीधे ऊपर की ओर देखने पर यह घूमता आईना लगभग चंद्रमा जितने चौड़े आकाश का दर्शन कराएगा और पृथ्वी के घूर्णन के चलते सुबह से शाम तक पूरे आकाश पर बारीकी से नज़र रखी जा सकेगी। इसके द्वारा बनाई गई छवियां लंबी धारियों के रूप में दिखाई देंगी जिनके अलग-अलग पिक्सेल को जोड़कर एक लंबे एक्सपोज़र से प्राप्त छवि का निर्माण किया जा सकेगा।

यह टेलीस्कोप रात-दर-रात आकाश की एक ही पट्टी को दिखाएगा, ऐसे में कई रातों के एक्सपोज़र को एक साथ जोड़कर धुंधली वस्तुओं की स्पष्ट छवियां प्राप्त की जा सकती हैं।

वैकल्पिक रूप से, रात-दर-रात हो रहे परिवर्तनों को भी देखा जा सकता है। इसमें सुपरनोवा, क्वाज़र और दूरस्थ निहारिकाओं में उपस्थित ब्लैक होल वगैरह पर भी नज़र रखी जा सकेगी। हालांकि खगोल शास्त्रियों की अधिक रुचि गुरुत्वाकर्षण लेंस की खोज करना है जिसमें गुरुत्वाकर्षण के कारण एक या अनेक निहारिका समूह प्रकाश को विकृत कर देते हैं। आईएलएमटी की मदद से किसी खगोलीय वस्तु की चमक के आधार पर निहारिका-लेंसों के द्रव्यमान और ब्रह्मांड के फैलाव की दर पता लगाई जा सकती है। एक अनुमान के अनुसार आईएलएमटी की आकाशीय पट्टी में 50 ऐसे गुरुत्व लेंस दिखाई दे सकते हैं।         

वैसे तो कई और पारंपरिक सर्वेक्षण टेलीस्कोप आकाश का अध्ययन कर रहे हैं लेकिन परिवर्तनों को देखने के लिए प्रत्येक रात एक ही पैच पर लौटना उनके लिए संभव नहीं है। ऐसे में डीओटी और आईएलएमटी की समन्वित शक्ति से किसी भी खगोलीय वस्तु की जांच करना अब मुश्किल नहीं है।

यदि आईएलएमटी तकनीक सफल होती है तो इसे और अधिक विकसित कर चंद्रमा पर स्थापित किया जा सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार चंद्रमा पर पृथ्वी की तुलना में गुरुत्वाकर्षण बल कम है और वहां वातावरण भी नहीं है इसलिए भविष्य के टेलीस्कोप स्थापित करने के लिए वह उचित स्थान है।

गौरतलब है कि पृथ्वी पर कोरियोलिस प्रभाव के कारण 8 मीटर से बड़े दर्पणों में पारे की गति प्रभावित हो सकती है जबकि चंद्रमा के घूर्णन की गति कम होती है जिससे अधिक बड़े दर्पणों को स्थापित करने में कोई समस्या नहीं होगी। लेकिन इतना वज़न चंद्रमा पर ले जाना मुश्किल है। और वहां रात के समय पारा जम जाएगा और दिन में वाष्पित होता रहेगा। लेकिन हलके पिघले हुए लवण का हिमांक बिंदु कम होता है जो चंद्रमा के वातावरण में भी काम कर सकता है। इसे चांदी के वर्क की मदद से परावर्तक बनाया जा सकता है।    

2000 के दशक में नासा और कैनेडियन स्पेस एजेंसी ने लूनर तरल दर्पण का अध्ययन शुरू किया था जो किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सका। लेकिन हाल ही में चंद्रमा में बढ़ती रुचि के चलते इस तकनीक पर फिर से अध्ययन किया जा सकता है। 2020 में 100-मीटर तरल दर्पण का प्रस्ताव रखा गया था जो चंद्रमा के किसी एक ध्रुव से आकाश के एक टुकड़े पर कई वर्षों तक नज़र रखेगा और निहारिकाओं के बारे में उपयोग जानकारी उपलब्ध कराएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गाजर घास के लाभकारी नवाचारी उपयोग – डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित

पिछले दिनों इंदौर के प्राध्यापक डॉ. मुकेश कुमार पाटीदार ने गाजर घास से बायोप्लास्टिक बनाने में सफलता प्राप्त की है। 

इंदौर के महाराजा रणजीत सिंह कॉलेज ऑफ प्रोफेशनल साइंसेज़ के बायोसाइंस विभाग के प्राध्यापक डॉ. मुकेश कुमार पाटीदार ने जुलाई 2020 में गाजर घास से बायोप्लास्टिक बनाने की कार्ययोजना पर काम शुरू किया था। इस कार्य में उन्हें भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान इंदौर की प्राध्यापक अपूर्वा दास और शोधार्थी शाश्वत निगम का भी सहयोग मिला। गाजर घास के रेशों से बायोप्लास्टिक बनाया गया, जो सामान्य प्लास्टिक जैसा ही मज़बूत हैं। डॉ. पाटीदार के अनुसार पर्यावरण पर इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं होगा और 45 दिनों में यह 80 प्रतिशत तक नष्ट भी हो जाएगा। बाज़ार में वर्तमान में उपलब्ध बायोप्लास्टिक से इसका मूल्य भी कम होगा।  

बरसात का मौसम शुरू होते ही गाजर जैसी पत्तियों वाली एक वनस्पति काफी तेज़ी से फैलने लगती है। सम्पूर्ण संसार में पांव पसारने वाला कम्पोज़िटी कुल का यह सदस्य वनस्पति विज्ञान में पार्थेनियम हिस्ट्रोफोरस के नाम से जाना जाता है और वास्तव में घास नहीं है। इसकी बीस प्रजातियां पूरे विश्व में पाई जाती हैं। यह वर्तमान में विश्व के सात सर्वाधिक हानिकारक पौधों में से एक है, जो मानव, कृषि एवं पालतू जानवरों के स्वास्थ्य के साथ-साथ सम्पूर्ण पर्यावरण के लिये अत्यधिक हानिकारक है।

कहा जाता है कि अर्जेन्टीना, ब्राज़ील, मेक्सिको एवं अमरीका में बहुतायत से पाए जाने वाले इस पौधे का भारत में 1950 के पूर्व कोई अस्तित्व नहीं था। ऐसा माना जाता है कि इस ‘घास’ के बीज 1950 में पी.एल.480 योजना के तहत अमरीकी संकर गेहूं के साथ भारत आए। आज यह ‘घास’ देश में लगभग सभी क्षेत्रों में फैलती जा रही है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा, म.प्र. एवं महाराष्ट्र जैसे महत्वपूर्ण कृषि उत्पादक राज्यों के विशाल क्षेत्र में यह ‘घास’ फैल चुकी है।

तीन से चार फुट तक लंबी इस गाजर घास का तना धारदार तथा पत्तियां बड़ी और कटावदार होती है। इस पर फूल जल्दी आ जाते हैं तथा 6 से 8 महीने तक रहते हैं। इसके छोटे-छोटे सफेद फूल होते हैं, जिनके अंदर काले रंग के वज़न में हल्के बीज होते हैं। इसकी पत्तियों के काले छोटे-छोटे रोमों में पाया जाने वाला रासायनिक पदार्थ पार्थेनिन मनुष्यों में एलर्जी का मुख्य कारण है। दमा, खांसी, बुखार व त्वचा के रोगों का कारण भी मुख्य रूप से यही पदार्थ है। गाजर घास के परागकण का सांस की बीमारी से भी सम्बंध हैं।

पशुओं के लिए भी यह घास अत्यन्त हानिकारक है। इसकी हरियाली के प्रति लालायित होकर खाने के लिए पशु इसके करीब तो आते हैं, लेकिन इसकी तीव्र गंध से निराश होकर लौट जाते हैं।

गाजर घास के पौधों में प्रजनन क्षमता अत्यधिक होती है। जब यह एक स्थान पर जम जाती है, तो अपने आस-पास किसी अन्य पौधे को विकसित नहीं होने देती है। वनस्पति जगत में यह ‘घास’ एक शोषक के रूप में उभर रही है। गाजर घास के परागकण वायु को दूषित करते हैं तथा जड़ो से स्रावित रासायनिक पदार्थ इक्यूडेर मिट्टी को दूषित करता है। भूमि-प्रदूषण फैलाने वाला यह पौधा स्वयं तो मिट्टी को बांधता नहीं है, दूसरा इसकी उपस्थिति में अन्य प्रजाति के पौधे भी शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।

गाजर घास का उपयोग अनेक प्रकार के कीटनाशक, जीवाणुनाशक और खरपतवार नाशक दवाइयों के निर्माण में किया जाता है। इसकी लुगदी से विभिन्न प्रकार के कागज़ तैयार किए जाते हैं। बायोगैस उत्पादन में भी इसको गोबर के साथ मिलाया जाता है। पलवार के रूप में इसका ज़मीन पर आवरण बनाकर प्रयोग करने से दूसरे खरपतवार की वृद्धि में कमी आती है, साथ ही मिट्टी में अपरदन एवं पोषक तत्व खत्म होने को भी नियंत्रित किया जा सकता है।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जैव-रसायन  विभाग के डॉ. के. पांडे ने इस पर अध्ययन के बाद बताया कि गाजर घास में औषधीय गुण भी हैं। इससे बनी दवाइयां बैक्टीरिया और वायरस से होने वाले विभिन्न रोगों के इलाज में कारगर हो सकती हैं।

पिछले वर्षों में गाजर घास का एक अन्य उपयोग वैज्ञानिकों ने खोजा है जिससे अब गाजर घास का उपयोग खेती के लिए विशिष्ट कम्पोस्ट खाद निर्माण में किया जा रहा है। इससे एक ओर, गाजर घास का उपयोग हो सकेगा वहीं दूसरी ओर किसानों को प्राकृतिक

पोषक तत्व (प्रतिशत में)गाजर घास खादकेंचुआ खादगोबर खाद
नाइट्रोजन1.051.610.45
फॉस्फोरस10.840.680.30
पोटेशियम1.111.310.54
कैल्शियम0.900.650.59
मैग्नीशियम0.550.430.28

और सस्ती खाद उपलब्ध हो सकेगी। उदयपुर के सहायक प्राध्यापक डॉ. सतीश कुमार आमेटा ने गाजर घास से विशिष्ट कम्पोस्ट खाद का निर्माण किया है। इस तकनीक से बनी खाद में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटेशियम की मात्रा साधारण खाद से तीन गुना अधिक होती है, जो कृषि के लिए एक वरदान है। मेवाड़ युनिवर्सिटी गंगरार चित्तौड़गढ़ में कार्यरत डॉ. आमेटा के अनुसार इस नवाचार से गाजर घास के उन्मूलन में सहायता मिलेगी और किसानों को जैविक खाद की प्राप्ति सुगम हो सकेगी।

जैविक खाद बनाने की इस तकनीक में व्यर्थ कार्बनिक पदार्थों, जैसे गोबर, सूखी पत्तियां, फसलों के अवशेष, राख, लकड़ी का बुरादा आदि का एक भाग एवं चार भाग गाजर घास को मिलाकर बड़ी टंकी या टांके में भरा जाता है। इसके चारों ओर छेद किए जाते हैं, ताकि हवा का प्रवाह समुचित बना रहे और गाजर घास का खाद के रूप में अपघटन शीघ्रता से हो सके। इसमें रॉक फॉस्फेट एवं ट्राइकोडर्मा कवक का उपयोग करके खाद में पोषक तत्वों की मात्रा को बढ़ाया जा सकता है। निरंतर पानी का छिडकाव कर एवं मिश्रण को निश्चित अंतराल में पलट कर हवा उपलब्ध कराने पर मात्र 2 महीने में जैविक खाद का निर्माण किया जा सकता है।

गाजर घास से बनी कम्पोस्ट में मुख्य पोषक तत्वों की मात्रा गोबर खाद से दुगनी होती है। गाजर घास की खाद, केंचुआ खाद और गोबर खाद की तुलना तालिका में देखें। स्पष्ट है कि तत्वों की मात्रा गाजर घास से बने खाद में अधिक होती है। गाजर घास कम्पोस्ट एक ऐसी जैविक खाद है, जिसके उपयोग से फसलों, मनुष्यों व पशुओं पर कोई भी विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आनुवंशिक रूप से परिवर्तित मच्छरों का परीक्षण

हाल ही जिनेटिक रूप से परिवर्तित (जिरूप) मच्छरों को खुले में छोड़ने के परिणाम प्रकाशित हुए हैं। उद्देश्य इन मच्छरों की मदद से वायरस-वाहक जंगली मच्छरों की आबादी को कम करना है। प्रारंभिक परिणाम तो सकारात्मक हैं लेकिन व्यापक अध्ययन की आवश्यकता है।

प्रयोग फ्लोरिडा के दक्षिणी हिस्से के उष्णकटिबंधीय द्वीपों पर किया गया। इन मच्छरों को तैयार करने वाली कंपनी ऑक्सीटेक द्वारा सात महीनों के दौरान लगभग 50 लाख जिरूप एडीज़ एजिप्टी मच्छर इन स्थलों पर छोड़े गए और लगातार निगरानी की गई। ऑक्सीटेक ने 6 अप्रैल को आयोजित एक वेबिनार में ये परिणाम साझा किए हैं लेकिन अभी तक कोई डैटा प्रकाशित नहीं किया है।             

गौरतलब है कि जंगली एडीज़ एजिप्टी मच्छर चिकनगुनिया, डेंगू, ज़ीका और पीतज्वर जैसे वायरसों का वाहक है। इसलिए वैज्ञानिक उनकी आबादी को कम करने के तरीकों की तलाश में हैं। ऑक्सीटेक द्वारा तैयार किए गए नर मच्छरों में एक ऐसा जीन डाला गया है जो उनकी मादा संतानों के लिए घातक होता है। इन्हें खुले में छोड़ने पर ये आम मादा मच्छरों के साथ संभोग करेंगे और नतीजे में पैदा होने वाली मादा संतानें प्रजनन करने से पहले ही मर जाएंगी। नर संतानों में यह जीन रहेगा और वे आने वाली लगभग आधी पीढ़ी में इसे पहुंचा देंगे। पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह जीन मादा मच्छरों की जान लेता रहेगा। यह तो हुई सिद्धांत की बात।

इस सैद्धांतिक योजना की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने जिरूप मच्छरों के अंडों को कुछ बक्सों में रखा और उनके आसपास कुछ ट्रैप्स तैयार किए जो 400 मीटर से अधिक दायरे को कवर करते थे। कुछ ट्रैप्स मुख्य रूप से अंडे देने की जगह के रूप में काम करते थे और अन्य वयस्क मच्छरों को पकड़ने में मदद करते थे। शोधकर्ताओं ने पाया कि बक्सों में पैदा होकर निकलने वाले नर मच्छर, जो काटते नहीं हैं, चारों ओर एक हैक्टर के क्षेत्र में फैल गए जो जंगली एडीज़ एजिप्टी की सामान्य सीमा है।

इसके बाद इन नर मच्छरों ने उस क्षेत्र की जंगली आबादी के साथ संभोग किया और मादा मच्छरों ने इन ट्रैप्स के अलावा गमलों, कूड़ेदानों और सॉफ्ट-ड्रिंक के कैन में भी अंडे दिए।         

शोधकर्ताओं द्वारा इन ट्रैप्स से 22,000 से अधिक अंडे एकत्रित किए गए और उनसे निकलने वाली संतानों का अध्ययन किया गया। वे सभी मादा मच्छर वयस्क होने से पहले ही मर गई जिनमें घातक जीन था। इसके अलावा, यह घातक जीन जंगली आबादी में दो से तीन महीने यानी मच्छरों की लगभग तीन पीढ़ियों तक बने रहने के बाद स्वत: गायब हो गया। टीम ने यह भी पाया कि मच्छरों को छोड़ने के स्थान से 400 मीटर से अधिक दूर घातक जीन युक्त कोई मच्छर नहीं मिला।

फिलहाल ऑक्सीटेक कंपनी इस अध्ययन को और अधिक विस्तृत करने की योजना बना रही है। इसके लिए राज्य नियामकों से अनुमोदन की आवश्यकता होगी। कैलिफोर्निया के विसालिया क्षेत्र में भी इस तरह का अध्ययन करने की योजना बनाई जा रही है।    

ये अध्ययन इस बात का आकलन नहीं कर पाएंगे कि यह विधि एडीज़ एजिप्टी द्वारा संचारित वायरस को किस हद तक कम करती है। जन स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों का भी आकलन नहीं हो सकेगा क्योंकि जिस क्षेत्र में अध्ययन किया गया है वहां एडीज़-संचारित वायरल संक्रमण काफी कम है। इसके लिए कंपनी को किसी दूसरे क्षेत्र में नियंत्रित परीक्षण करना होगा। वैसे ज़रूरी नहीं कि एडीज़ एजिप्टी की आबादी को कम करके बीमारी के प्रकोप को रोका जा सकेगा। फ्लोरिडा के इस क्षेत्र में एडीज़ एजिप्टी की आबादी मच्छरों की आबादी का मात्र 4 प्रतिशत है जबकि 80 प्रतिशत ऐसी प्रजातियां हैं जो रोग वाहक तो नहीं हैं लेकिन अधिक परेशान करती हैं।

गौरतलब है कि 2017 में भी एडीज़ एजिप्टी मच्छरों की आबादी को कम करने के लिए नर मच्छरों को एक बैक्टीरिया से संक्रमित किया गया था। प्रयोगशाला में तैयार किए गए इन नर मच्छरों से संभोग करने पर मादा मच्छरों के अंडों से लार्वा नहीं निकलते। ऑक्सीटेक ने इसी काम के लिए जिनेटिक परिवर्तन का सहारा लिया है। प्रयोग के वास्तविक असर तो काफी अध्ययनों के बाद ही स्पष्ट होंगे। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विलुप्त प्रजातियों को पुनर्जीवन

जुरासिक पार्क फिल्म में दर्शाया गया था कि करोड़ों वर्ष पूर्व विलुप्त हो चुके डायनासौर के जीवाश्म से प्राप्त डीएनए की मदद से पूरे जीव को पुनर्जीवित कर लिया गया था। संभावना रोमांचक है किंतु सवाल है कि क्या ऐसा वाकई संभव है।

हाल के वर्षों में कई वैज्ञानिकों ने विलुप्त प्रजातियों को फिर से अस्तित्व में लाने (प्रति-विलुप्तिकरण) पर हाथ आज़माए हैं और लगता है कि ऐसा करना शायद संभव न हो। कम से कम आज तो यह संभव नहीं हुआ है। लेकिन वैज्ञानिक आसानी से हार मानने वाले नहीं हैं।

उदाहरण के लिए, एक कंपनी कोलोसल लेबोरेटरीज़ एंड बायोसाइन्सेज़ का लक्ष्य है कि आजकल के हाथियों को मैमथ में तबदील कर दिया जाए या कम से कम मैमथनुमा प्राणि तो बना ही लिया जाए।

किसी विलुप्त प्रजाति को वापिस अस्तित्व में लाने के कदम क्या होंगे? सबसे पहले तो उस विलुप्त प्रजाति के जीवाश्म का जीनोम प्राप्त करके उसमें क्षारों के क्रम का अनुक्रमण करना होगा। फिर किसी मिलती-जुलती वर्तमान प्रजाति के डीएनए में इस तरह संसोधन करने होंगे कि वह विलुप्त प्रजाति के डीएनए से मेल खाने लगे। अगला कदम यह होगा संशोधित डीएनए से भ्रूण तैयार किए जाएं और उन्हें वर्तमान प्रजाति की किसी मादा के गर्भाशय में विकसित करके जंतु पैदा किए जाएं।

पहले कदम को देखें तो आज तक वैज्ञानिकों ने मात्र 20 विलुप्त प्रजातियों के जीनोम्स का अनुक्रमण किया है। इनमें एक भालू, एक कबूतर और कुछ किस्म के मैमथ तथा मोआ शामिल हैं। लेकिन अब तक किसी जीवित सम्बंधी में विलुप्त जीनोम का पुनर्निर्माण नहीं किया है।

हाल ही में कोपनहेगन विश्वविद्यालय के टॉम गिलबर्ट, शांताऊ विश्वविद्यालय के जियांग-किंग लिन और उनके साथियों ने मैमथ जैसे विशाल प्राणि का मोह छोड़कर एक छोटे प्राणि पर ध्यान केंद्रित करने का निर्णय लिया – ऑस्ट्रेलिया से करीब 1200 कि.मी. दूर स्थित क्रिसमस द्वीप पर 1908 में विलुप्त हुआ एक चूहा रैटस मैकलीरी (Rattus macleari)। यह चूहा एक अन्य चूहे नॉर्वे चूहे (वर्तमान में जीवित) का निकट सम्बंधी है।

गिलबर्ट और लिन की टीम ने क्रिसमस द्वीप के चूहे के संरक्षित नमूनों की त्वचा में से जीनोम का यथासंभव अधिक से अधिक हिस्सा प्राप्त करके इसकी प्रतिलिपियां बनाईं। इसमें एक दिक्कत यह आती है कि प्राचीन डीएनए टुकड़ों में संरक्षित रहता है। इससे निपटने के लिए टीम ने नॉर्वे चूहे के जीनोम से तुलना के आधार पर विलुप्त चूहे का अधिक से अधिक जीनोम तैयार कर लिया। करंट बायोलॉजी में बताया गया है कि इन दो जीनोम की तुलना करने पर पता चला कि क्रिसमस द्वीप के विलुप्त चूहे के जीनोम का लगभग 5 प्रतिशत गुम है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि गुमशुदा हिस्से में चूहे के अनुमानित 34,000 में 2500 जीन शामिल हैं। जैसे, प्रतिरक्षा तंत्र और गंध संवेदना से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण जीन्स नदारद पाए गए।

कुल मिलाकर इस प्रयास ने प्रति-विलुप्तिकरण के काम की मुश्किलों को रेखांकित कर दिया। 5 प्रतिशत का फर्क बहुत कम लग सकता है लेकिन लंदन के नेचुरल हिस्ट्री म्यूज़ियम की विक्टोरिया हेरिज का कहना है कि कई सारे गुमशुदा जीन्स वे होंगे जो किसी प्रजाति को अनूठा बनाते हैं। उदाहरण के लिए मनुष्यों और चिम्पैंज़ी या बोनोबो के बीच अंतर तो मात्र 1 प्रतिशत का है।

यह भी देखा गया है कि वर्तमान जीवित प्रजाति और विलुप्त प्रजाति के बीच जेनेटिक अंतर समय पर भी निर्भर करता है। अतीत में जितने पहले ये दो जीव विकास की अलग-अलग राह पर चल पड़े थे, उतना ही अधिक अंतर मिलने की उम्मीद की जा सकती है। मसलन, क्रिसमस चूहा और नॉर्वे चूहा एक-दूसरे से करीब 26 लाख साल पहले अलग-अलग हुए थे। और तो और, एशियाई हाथी और मैमथ को जुदा हुए तो पूरे 60 लाख साल बीत चुके हैं।

तो सवाल उठता है कि इन प्रयासों का तुक क्या है। क्रिसमस चूहा तो लौटेगा नहीं। गिलबर्ट अब मानने लगे हैं कि पैसेंजर कबूतर या मैमथ को पुनर्जीवित करना तो शायद असंभव ही हो लेकिन इसका मकसद ऐसी संकर प्रजाति का निर्माण करना हो सकता है जो पारिस्थितिक तंत्र में वही भूमिका निभा सके जो विलुप्त प्रजाति निभाती थी। इसी क्रम में मेलबोर्न विश्वविद्यालय के एंड्र्यू पास्क थायलेसीन नामक एक विलुप्त मार्सुपियल चूहे को इस तकनीक से बहाल करने का प्रयास कर रहे हैं।

इसके अलावा, जीनोम अनुक्रमण का काम निरंतर बेहतर होता जा रहा है। हो सकता है, कुछ वर्षों बाद हमें 100 प्रतिशत जीनोम मिल जाएं।

अलबत्ता, कई वैज्ञानिकों का मत है विलुप्त प्रजातियों को पुनर्जीवित करने के प्रयासों के चलते काफी सारे संसाधन जीवित प्राणियों के संरक्षण से दूर जा रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक एक विलुप्त प्रजाति को पुनर्जीवित करने में जितना धन लगता है, उतने में 6 जीवित प्रजातियों को बचाया जा सकता है। इस गणित के बावजूद, यह जानने का रोमांच कम नहीं हो जाएगा कि विलुप्त पक्षी डोडो कैसा दिखता होगा, क्या करता होगा। (स्रोत फीचर्स)

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