ऊर्जा संकट के 40 साल बाद विश्व ऊर्जा का दृश्य – डॉ. बी.जी. देसाई

1973 के ऊर्जा संकट ने ऊर्जा आपूर्ति और कीमतों को लेकर व्याप्त खुशफहमी को एक झटके में दूर कर दिया था। विश्व ने इसका जवाब ऊर्जा दक्षता में सुधार और तेल के विकल्पों के रूप में दिया। ग्लोबल वार्मिंग की चिंता ऊर्जा दक्षता और नवीकरणीय ऊर्जा के विकास की ओर प्रोत्साहित कर रही है। इस लेख में ऊर्जा संकट के पहले और उसके बाद पूरे विश्व और भारत के परिदृश्य की चर्चा की गई है। उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर आगे की कार्रवाई के लिए कुछ टिप्पणियां की गई हैं।

1973 के अरब-इज़राइल युद्ध ने ऊर्जा संकट को जन्म दिया। इस ऊर्जा संकट ने विश्व को ऊर्जा, विशेष रूप से तेल, की सीमित उपलब्धता और बढ़ते मूल्य के प्रति आगाह किया। विकसित दुनिया ने सुरक्षित ऊर्जा आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए 1974 में अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) का गठन किया। 1973 और ऊर्जा संकट के 40 साल बाद 2014 के विश्व ऊर्जा परिदृश्य को देखना लाभदायक होगा। IEA ने अपना वार्षिक प्रतिवेदन “वल्र्ड एनर्जी स्टेटिस्टिक्स 2016” (विश्व ऊर्जा सांख्यिकी) प्रकाशित कर दिया है। यह सारांश रूप में भी उपलब्ध है। ये प्रकाशन 1973 में (ऊर्जा संकट से पहले) और 2014 में (ऊर्जा संकट के बाद) विश्व ऊर्जा आपूर्ति और खपत के दिलचस्प ऊर्जा रुझान प्रस्तुत करते हैं। यह लेख ऊर्जा संकट के पहले और बाद दुनिया में ऊर्जा आपूर्ति और उपयोग की कुछ विशेषताओं का विश्लेषण करता है। इसमें भारत के लिए भी इसी प्रकार की तुलना की गई है।

प्राथमिक ऊर्जा आपूर्ति

1973 में, विश्व ऊर्जा आपूर्ति 6101 एमटीओई थी। (एमटीओई यानी मिलियन टन तेल के समतुल्य, यह गणना एक कि.ग्रा. तेल = 10000 किलो कैलोरी पर आधारित है।) 2014 में यह 13,099 एमओटीआई हो गई थी। अर्थात 1973 की तुलना में 2014 में ऊर्जा आपूर्ति बढ़कर 2.25 गुना हो गई। तालिका 1 में विभिन्न र्इंधनों का योगदान दर्शाया गया है।

तालिका 1
प्राथमिक ऊर्जा आपूर्ति में विभिन्न ईंधनों की भागीदारी (प्रतिशत में)
ईंधन1973 2014
तेल 46.2 31.3
कोयला 24.5 28.6
प्राकृतिक गैस 16.0 21.2
जैव ईंधन और कचरा 10.5 10.3
पनबिजली 1.8 2.4
नाभिकीय 0.9 4.8
अन्य (सौर, पवन, आदि) 0.1 1.4

तेल की कीमतों में तेज़ी से वृद्धि के चलते इसके विकल्पों की खोज और कुशल उपयोग का मार्ग प्रशस्त हुआ है। 1973 में कुल ऊर्जा आपूर्ति में तेल का हिस्सा 46 प्रतिशत था जबकि 2014 में केवल 31.3 प्रतिशत ऊर्जा आपूर्ति तेल से हुई। कोयले और गैस का उपयोग थोड़ा बढ़ा। जलाऊ लकड़ी और कंडे जैसे जैव र्इंधन, जिनका उपयोग मुख्यत: भारत जैसे विकासशील देशों में होता है, की ऊर्जा आपूर्ति में अभी भी 10 प्रतिशत भागीदारी है। जहां नाभिकीय ऊर्जा के हिस्से में तेज़ वृद्धि देखी गई, वहीं पनबिजली में काफी कम वृद्धि हुई। विभिन्न इलाकों की हिस्सेदारी में भी नाटकीय परिवर्तन हुए हैं। ऊर्जा आपूर्ति में विभिन्न इलाकों की हिस्सेदारी तालिका 2 में दिखाई गई है।

तालिका 2
ऊर्जा आपूर्ति में क्षेत्रीय भागीदारी (प्रतिशत में)
क्षेत्र 1973 2014
ओईसीडी 61.3 38.40
गैर-ओईसीडी, यूरोप (रूस एवं अन्य) 15.5 8.2
चीन 7 22.4
मध्य पूर्व 0.8 5.3
एशिया और अन्य 5.5 12.7
कुल 100 100

ओईसीडी में युरोप, यूएसए, जापान और अन्य शामिल हैं। गैर गैर-ओईसीडी युरोप में रूस और इसके पूर्व सहयोगी युक्रेन, तुर्कमेनिस्तान आदि शामिल हैं। एशिया में भारत, इंडोनेशिया, श्रीलंका और अन्य शामिल हैं। तालिका से पता चलता है कि चीन और मध्य पूर्व में ऊर्जा उत्पादन में प्रभावशाली वृद्धि हुई है और संयुक्त राज्य अमेरिका तथा युरोप में ऊर्जा आपूर्ति में गिरावट आई है। ऊर्जा आपूर्ति में एशिया की भागीदारी भी बढ़ी है।

तालिका 3 में 2014 और 1973 में ऊर्जा के मूल्यों को वास्तविक इकाइयों में दर्शाया गया है और 2014 व 1973 में उनका अनुपात दिया गया है। तालिका से स्पष्ट है कि इस अवधि में तेल में अपेक्षाकृत कमी आई है, जबकि गैस और कोयले के साथ-साथ नाभिकीय बिजली और पनबिजली में भी वृद्धि हुई है। गौरतलब है कि पनबिजली का उत्पादन (3833/2535) नाभिकीय से 31 प्रतिशत अधिक है, लेकिन IEA जिस तरीके से गणना करता है उसके आधार पर पनबिजली (2.4 प्रतिशत) की तुलना में नाभिकीय ऊर्जा का योगदान अधिक है (4.8 प्रतिशत) है।

तालिका 3
ईंधनवार ऊर्जा की आपूर्ति (वास्तविक यूनिट)
ईंधन 1973 2014 2014/1973
कच्चा तेल (दस लाख टन, एमटी) 2869 4331 1.509
प्राकृतिक गैस (1 करोड़ घन मीटर-बीसीएम 1224 3590 2.933
कोयला(एमटी) 3074 7709 2.507
नाभिकीय (टेरावॉट घंटा, टीडबल्यूएच) 203 2535 12.48
पनबिजली(टीडबल्यूएच) 1296 3983 3.078
कुलप्राथमिकऊर्जा(एमटीओई) 6106 13,699 2.245
कुल बिजली (टीडबल्यूएच) 6131 23,816 3.88

जनसंख्या, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और ऊर्जा उपयोग की तीव्रता को देखना काफी दिलचस्प हो सकता है (जीडीपी और जनसंख्या के आंकड़े विश्व बैंक की वेबसाइट से लिए गए हैं)। यह देखा जा सकता है कि ऊर्जा आपूर्ति की तुलना में जीडीपी काफी तेज़ी से बढ़ रहा है जिसका श्रेय ऊर्जा दक्षता में वृद्धि और अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन को जाता है।

तालिका 4  
क्षेत्र अनुसार विश्व और ओईसीडी की अंतिम ऊर्जा खपत  
क्षेत्र विश्व 1973
एमटीओई(%)
विश्व2014
एमटीओई(%)
ओईसीडी 1973
एमटीओई(%)
ओईसीडी 1973
एमटीओई(%)
उद्योग 1534.49(32.9) 2751.17(29.19) 958.18(34) 808.49(22.28)
परिवहन 1081.26(23.19) 2627.02(27.87) 695.32(24.6) 1215.16(33.49)
घरेलू और व्यवसायिक सेवाएं, अन्य 1758.88(37.73) 3218.98(34.15) 942.43(33.4) 1262.19(34.78)
गैर-ऊर्जा उपयोग 286.50(6.14) 827.52(8.78) 220.63(7.8) 343.03(9.45)
कुल खपत (एमटीओई) 4661.19 9424.69 2815.6 3828.16

इसके परिणामस्वरूप औद्योगिक ऊर्जा खपत में कमी आती है और परिवहन, आवासीय एवं वाणिज्यिक सेवाओं में ऊर्जा की खपत में वृद्धि होती है। तालिका 4 में 1973 और 2014 में विभिन्न क्षेत्रों द्वारा अंतिम ऊर्जा खपत को दर्शाया गया है। विशेष रूप से ओईसीडी देशों में औद्योगिक ऊर्जा खपत में गिरावट के रुझान तथा परिवहन और आवासीय ऊर्जा खपत में वृद्धि नज़र आती है। मैन्यूफेक्चरिंग ओईसीडी से एशिया की ओर चला गया है। 1973 और 2014 में अंतिम ऊर्जा खपत और कुल ऊर्जा आपूर्ति के अनुपात की ओर ध्यान देना उपयोगी होगा।

1973 में, अंतिम ऊर्जा खपत/ कुल ऊर्जा आपूर्ति = 4661/6101 यानी 76 प्रतिशत थी। 2014 में, अंतिम ऊर्जा खपत/कुल ऊर्जा आपूर्ति = 9424/13,699 यानी 68 प्रतिशत थी।

यह ऊर्जा उपयोग में बिजली के अधिक इस्तेमाल का संकेत देता है। इसके चलते बिजली के उत्पादन के दौरान अधिक नुकसान होता है जिसका परिणाम यह होता है कि आपूर्ति की तुलना में अंतिम उपयोग कम हो जाता है। यह ध्यान देने वाली बात है कि जहां 1973 की तुलना में 2014 में विश्व ऊर्जा की खपत दोगुनी से भी अधिक हो गई, वहीं ओईसीडी की ऊर्जा खपत में केवल 28 प्रतिशत की वृद्धि हुई । भारत में 1973 और 2014 ऊर्जा परिदृश्य पर नज़र डालना भी उपयोगी हो सकता है। देखा जा सकता है कि ऊर्जा आपूर्ति में नाटकीय वृद्धि हुई है और ऊर्जा दक्षता में सुधार हुआ है।

सारांश और टिप्पणियां

विश्व ऊर्जा आपूर्ति 1973 से 2014 के बीच दोगुनी से भी अधिक हो गई है। तेल उत्पादन केवल 50 प्रतिशत बढ़ा है। यह र्इंधन दक्षता और तेल की जगह अन्य र्इंधन के उपयोग में उल्लेखनीय वृद्धि को दर्शाता है। बिजली उत्पादन एवं अन्य उपयोगों के लिए तेल की जगह कोयले और गैस का उपयोग किया जाने लगा है। तेल का उपयोग मुख्य रूप से परिवहन क्षेत्र द्वारा किया जा रहा है।

  • भारत में तेल की मांग में 800 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि विश्व में यह वृद्धि 50 प्रतिशत है।
  • ऊर्जा आपूर्ति दुगनी होने के साथ बिजली उत्पादन में लगभग 4 गुना वृद्धि हुई है। यह एक विद्युत-आधारित विश्व के प्रति रुझान को दर्शाता है। 65 प्रतिशत बिजली का उत्पादन कोयला और गैस द्वारा किया जाता है।
  • ऊर्जा की उत्पादकता (दक्षता) में नाटकीय सुधार हुआ है। विश्व जीडीपी में 17 गुना और ऊर्जा आपूर्ति में मात्र 2.25 गुना वृद्धि हुई है। मुद्रास्फीति को ध्यान में रखें तो जीडीपी में वास्तविक वृद्धि इससे 10 गुना अधिक होगी।
  • भारत ने भी ऊर्जा के सभी रूपों – कोयला, गैस, और बिजली उत्पादन – में प्रभावशाली प्रगति की है। भारत ने ऊर्जा के कुशल उपयोग और संरचनात्मक परिवर्तन की बदौलत ऊर्जा उत्पादकता में काफी सुधार किया है। सेवा क्षेत्र अब जीडीपी का 50 प्रतिशत से अधिक प्रदान कर रहा है जबकि उद्योगों की भागीदारी 70 प्रतिशत से घटकर 25 प्रतिशत हो गई है।
  • भारत में ऊर्जा परिदृश्य की दो प्रमुख समस्याएं हैं तेल की बढ़ती मांग और बायोमास के उपयोग की कमतर दक्षता। कच्चे तेल का उपयोग आठ गुना बढ़ गया है। उचित नीतियों से इसे टाला जा सकता था।
  •  तेल की बढ़ती मांग पर अंकुश लगाने के लिए सड़क की जगह रेल परिवहन को तथा निजी वाहनों की जगह सार्वजनिक वाहनों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इन दोनों उपायों की तत्काल आवश्यकता है।
  • पारंपरिक बायोमास र्इंधन 40 साल पहले 50 प्रतिशत ऊर्जा की आपूर्ति करता था, उसकी तुलना में अभी भी 25 प्रतिशत ऊर्जा इसी से मिलती है। इन र्इंधनों का उपयोग मुख्य रूप से खाना पकाने के लिए किया जाता है। उन्नत चूल्हे उपलब्ध होने के बाद भी खाना पकाने के चूल्हों की दक्षता 8-10 प्रतिशत ही है। एलईडी लैंप और नवीकरणीय ऊर्जा की तर्ज़ पर खाना पकाने के कुशल चूल्हों और सोलर कुकर को बढ़ावा देने के लिए बड़े कार्यक्रमों की आवश्यकता है। ठीक उसी तरह जैसे एक कार्यक्रम के तहत जनवरी 2018 तक 28 करोड़ एलईडी बल्ब वितरित किए जा चुके थे।
  • कोयला बिजली उत्पादन के लिए मुख्य ऊर्जा रुाोत बने रहना चाहिए।
  • हाल में सरकारी कार्यक्रम द्वारा नवीकरणीय ऊर्जा को प्रोत्साहन सही दिशा में एक कदम है। ऊर्जा दक्षता के लिए भी इसी तरह के कार्यक्रमों की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)
    नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
    Photo Credit : https://mpng.pngfly.com/20180821/plp/kisspng-non-renewable-resource-renewable-energy-fossil-fue-free-press-wv-5b7c3057bd1c11.0485077115348654957746.jpg

घरेलू ऊर्जा उपभोग: विहंगावलोकन – आदित्य चुनेकर, श्वेता कुलकर्णी

प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000 घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019 में एक सर्वेक्षण किया था। पिछले आलेखों में सर्वेक्षण के आधार पर विभिन्न कार्यों में ऊर्जा खपत की अलग-अलग चर्चा की गई थी। इस आलेख में ऊर्जा के घरेलू उपयोग के मुद्दों को समग्र रूप में प्रस्तुत किया गया है।

र्थिक सर्वेक्षण (2018-19) के अनुसार भारत की वार्षिक प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत 0.6 टन तेल के तुल्य है, जो वैश्विक औसत का लगभग एक तिहाई है। इस सर्वेक्षण में आगे बताया गया है कि यदि भारत को मानव विकास सूचकांक (HDI) को 0.8 तक पहुंचाना है, जो काफी अधिक माना जाता है, तो ऊर्जा खपत को चार गुना बढ़ाना होगा।

आय में वृद्धि, शहरीकरण और टेक्नॉलॉजी में तेज़ी से विकास के चलते आवासीय ऊर्जा उपभोग के स्तर और पैटर्न में काफी बदलाव आने की उम्मीद है। इसलिए इन उभरते हुए पैटर्न का अध्ययन करना काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि ये न सिर्फ मांग को प्रभावित करेंगे बल्कि बढ़ती मांग की आपूर्ति हेतु संसाधनों के नियोजन को भी प्रभावित करेंगे। फिलहाल, इस बात को लेकर जानकारी बहुत कम है कि भारतीय परिवार ऊर्जा का उपयोग कैसे करते हैं।

भारत में राष्ट्रीय स्तर पर आवासीय ऊर्जा खपत सर्वेक्षण (आरईसीएस) नहीं किया जाता है। ऐसे सर्वेक्षणों से कई देशों को अपने परिवारों, घरों की विशेषताओं और खपत के पैटर्न को समझने में काफी मदद मिली है। हमारे यहां जनगणना और उपभोक्ता वस्तुओं से सम्बंधित नमूना सर्वेक्षण जैसे राष्ट्रीय स्तर के सर्वेक्षणों के माध्यम से विभिन्न उपकरणों के स्वामित्व और अलग-अलग कामों के लिए र्इंधन के अंतिम उपयोग का डैटा इकट्ठा किया जाता है। अलबत्ता, इनमें उपकरणों की दक्षता, प्रकार, आयु और उपयोग की विस्तृत जानकारी एकत्र नहीं की जाती है और न ही यह पता किया जाता है कि इस मामले में सम्बंधित नीतियों के प्रति जागरूकता कितनी है और उनका प्रभाव क्या है। यह जानकारी विभिन्न अंतिम उपयोगों के उपकरणों के स्वामित्व और उनके उपयोग के पैटर्न का आकलन करने और सरकारी नीतियों/कार्यक्रमों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करने लिए ज़रूरी है।  

प्रयास (ऊर्जा समूह) द्वारा उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के 3000 अद्र्ध शहरी और ग्रामीण परिवारों में विस्तृत आवासीय ऊर्जा खपत सर्वेक्षण के निष्कर्ष कुछ जानकारी व समझ प्रदान करते हैं जो नीतिगत निर्णयों में सहायक हो सकती है। कुल मिलाकर, सर्वेक्षण के निष्कर्षों से पता चलता है कि बुनियादी ज़रूरतों के लिए उपयोग की जाने वाली ऊर्जा की मात्रा परिवार की आय, भौगोलिक स्थिति और आवास के स्थान के आधार पर अलग-अलग होती है। बुनियादी ज़रूरतों में प्रकाश व्यवस्था, घर को ठंडा रखना, रेफ्रिजरेशन और खाना पकाना शामिल हैं। यह भी देखा गया कि घरों में ऊर्जा की खपत बिजली आपूर्ति की विश्वसनीयता, उपकरण की दक्षता और खाना पकाने के लिए स्वच्छ र्इंधन की उपलब्धता से तय होती है।  

प्रकाश व्यवस्था बिजली का सबसे बुनियादी उपयोग है और इस संदर्भ में सकारात्मक बात यह सामने आई है कि उत्तर प्रदेश में 80 प्रतिशत से अधिक और महाराष्ट्र में 60 प्रतिशत घरों में कार्यक्षम एलईडी का उपयोग किया जाता है। उजाला कार्यक्रम ने प्रकाश उपकरण के बाज़ार में एलईडी के प्रति जागरूकता बढ़ाकर और इसके बाज़ार मूल्य को नीचे लाकर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हमारे सर्वेक्षण में अधिकतर परिवारों ने एलईडी खरीदने का प्राथमिक कारण उनकी गुणवत्ता को बताया। इसलिए बाज़ार के इस बदलाव को बनाए रखने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले एलईडी बल्ब की उपलब्धता सुनिश्चित करने पर ध्यान देने की ज़रूरत है।

घर को ठंडा रखने के लिए छत के पंखे सबसे अधिक उपयोग किए जाने वाले उपकरण हैं। वैसे, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में मध्यम और उच्च आय वाले घरों में एयर कूलर और एयर कंडीशनर की उपस्थिति भी देखी गई है। यह मानकर कि जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती जाएगी, घरों में माहौल को अनुकूल बनाने के उपकरणों की आवश्यकता बढ़ेगी। चूंकि छत के पंखे और एयर कूलर स्थानीय स्तर पर बनाए और बेचे जाते हैं, इनके प्रदर्शन का मूल्यांकन और सुधार करने के लिए विशिष्ट प्रयासों की आवश्यकता होगी।

हालांकि रेफ्रिजरेटर का स्वामित्व काफी अधिक है, उनका उपयोग खाना पकाने के तरीकों से निर्धारित होता है। हमारे सर्वेक्षण से पता चलता है कि रेफ्रिजरेटर की उपस्थिति तो काफी अधिक है लेकिन उनका उपयोग सीमित ही है।

खाना पकाने के लिए ऊर्जा घरों की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकताओं में से एक है और इस ज़रूरत की आपूर्ति विभिन्न र्इंधनों से हो रही है। सर्वेक्षण के मुताबिक दोनों राज्यों में 90 प्रतिशत से अधिक सर्वेक्षित घरों में एलपीजी कनेक्शन हैं। लेकिन विशेष रूप से उत्तर प्रदेश के कई घरों में खाना बनाने के लिए आंशिक रूप से या पूर्णत: ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता है। उत्तर प्रदेश के लगभग 45 प्रतिशत और महाराष्ट्र के लगभग 12 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में खाना पकाने के लिए आंशिक रूप से या पूरी तरह ठोस ईंधन का उपयोग किया जाता है। अधिकांश परिवारों को लगता है कि पूरा खाना पकाने की दृष्टि से एलपीजी काफी महंगा है। कई परिवारों ने बताया कि उन्हें चूल्हे पर पका खाना पसंद है। खाना पकाने के लिए ठोस र्इंधन के उपयोग को खत्म करके उनकी जगह एलपीजी या अन्य स्वच्छ र्इंधनों के उपयोग को बढ़ावा देने और उन्हें एकमात्र र्इंधन बनाने हेतु आर्थिक और व्यवहारगत दोनों तरह के हस्तक्षेपों की आवश्यकता है।

इसके साथ ही, इन घरों में पानी गर्म करने के लिए आम तौर पर ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता है जो अंदरूनी या स्थानीय (गांव स्तर के) वायु प्रदूषण का कारण बनता है। उत्तर प्रदेश के लगभग 37 प्रतिशत और महाराष्ट्र के लगभग 91 प्रतिशत घरों में पानी गर्म करने के लिए ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता है जबकि इन घरों में खाना पकाने के लिए एलपीजी का उपयोग किया जाता है। बिजली, एलपीजी या सौर वाटर हीटर जैसे विकल्पों को बढ़ावा देने के लिए हस्तक्षेप करने से पहले सावधानीपूर्वक इनका मूल्यांकन करने की आवश्यकता है।

इस तरह की सूझबूझ से विस्तृत आवासीय ऊर्जा खपत सर्वेक्षण का महत्व स्पष्ट है। समय-समय पर राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी प्रतिनिधिमूलक जानकारी एकत्र करना भारत में तेज़ी से बदलती ऊर्जा की घरेलू मांग के प्रबंधन के लिए नीतियों के निर्माण और उनका मूल्यांकन करने के लिए महत्वपूर्ण है। नवगठित राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय, जिसमें राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन शामिल है, समय-समय पर इस तरह के व्यापक सर्वेक्षण कर सकता है, जैसे वह पारिवारिक खर्च, आवास की स्थिति, स्वास्थ्य और अन्य मामलों में करता है।

प्रथम दृष्टि में इस सर्वेक्षण से पता चलता है कि दोनों राज्यों के घरों में लगभग 60 प्रतिशत ऊर्जा खपत खाना पकाने, लगभग 16 प्रतिशत पानी गर्म करने और 9 प्रतिशत घर को ठंडा रखने के लिए खर्च की जाती है। इस बात का विश्लेषण आगे किसी लेख में करेंगे कि ऊर्जा की यह मांग र्इंधन के प्रकार, परिवार की आमदनी और उसके ग्रामीण या शहरी होने के साथ कैसी नज़र आती है।  (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSeHAQJ58EFuqQBirqPWm9p8MmUVmIXD_x6Afq8xFU63g3kX_-s

पानी गर्म करने में खर्च ऊर्जा की अनदेखी – आदित्य चुनेकर, श्वेता कुलकर्णी

प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019में एक सर्वेक्षण किया था। यहां उस सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाश व्यवस्था के बदलते परिदृश्य की चर्चा की गई है। इस शृंखला में आगे बिजली के अन्य उपयोगों पर चर्चा की जाएगी।

भारत में वर्तमान ऊर्जा नीति में नहाने के लिए पानी गर्म करने में खर्च होने वाली ऊर्जा को अनदेखा किया गया है। ठोस र्इंधन के उपयोग को खत्म करने के उद्देश्य से किए जाने वाले हस्तक्षेपों का ध्यान मूलत: खाना पकाने पर केंद्रित रहा है। अतीत की नीतियों में सौर वॉटर हीटरों पर काफी ध्यान दिया गया था, लेकिन 2014 में सौर वॉटर हीटरों पर सब्सिडी देने वाले एक राष्ट्रीय कार्यक्रम को भी बंद कर दिया गया। दूसरी ओर, ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी (बीईई) के पास स्टोरेज इलेक्ट्रिक वॉटर हीटर के लिए अनिवार्य मानक और लेबलिंग (एस-एंड-एल) कार्यक्रम ज़रूर है। इस आलेख में, हम सर्वेक्षित घरों में पानी गर्म करने के पैटर्न की चर्चा करेंगे और यह देखेंगे कि इनका नीतिगत हस्तक्षेपों के लिए क्या निहितार्थ हो सकता है।

आम तौर पर, महाराष्ट्र की तुलना में उत्तर प्रदेश में सर्दियां अधिक ठंडी होती हैं। लेकिन सर्वेक्षित परिवारों में उत्तर प्रदेश में 34 प्रतिशत जबकि महाराष्ट्र में 92 प्रतिशत घरों में नहाने के लिए गर्म पानी का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा, उत्तर प्रदेश में नहाने के लिए गर्म पानी का उपयोग औसतन साल में केवल 2 महीने किया जाता है जबकि महाराष्ट्र में ऐसा 6 महीने किया जाता है। उत्तर प्रदेश में नहाने के लिए गर्म पानी के कम उपयोग के कई कारक हो सकते हैं। संभवत: आमदनी एक कारण हो सकता है – जहां निम्न आय वाले 25 प्रतिशत घरों में नहाने के लिए गर्म पानी का उपयोग किया जाता है वहीं उच्च आय वाले घरों में यह आंकड़ा 50 प्रतिशत है। इसमें कुछ सामाजिक प्रथाओं का भी योगदान है। एक बात यह कही जाती है कि लोग सर्दियों में नहाने के लिए गुनगुने भूजल का उपयोग करते हैं। हालांकि, यह संभावना हो सकती है कि जैसे-जैसे आय में वृद्धि होगी और सामाजिक प्रथाओं में बदलाव आएगा, वैसे-वैसे पानी गर्म करने के लिए ऊर्जा के उपयोग में भी वृद्धि होगी। इसकी और जांच करने की आवश्यकता है।

जो परिवार नहाने के लिए पहले से ही गर्म पानी का उपयोग कर रहे हैं वे अलग-अलग र्इंधन का इस्तेमाल करते हैं। उत्तर प्रदेश के लगभग 35 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 52 प्रतिशत सर्वेक्षित परिवारों में पानी गर्म करने के लिए ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता है। दिलचस्प बात तो यह है कि इनमें से उत्तर प्रदेश के लगभग 37 प्रतिशत और महाराष्ट्र के लगभग 91 प्रतिशत घरों में पानी गर्म करने के लिए तो ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता है लेकिन खाना बनाने के लिए एलपीजी का इस्तेमाल होता है। इससे लगता है कि पानी गर्म करने के लिए ठोस र्इंधन का उपयोग समाप्त करने के लिए सावधानीपूर्वक विकसित कार्यक्रमों की आवश्यकता है। आंगन में रखे ठोस र्इंधन बायलर या खुली हवा में चूल्हे का उपयोग महाराष्ट्र के घरों में काफी आम है। इससे अंदरूनी घरेलू प्रदूषण तो नहीं होगा लेकिन यह स्थानीय प्रदूषण में योगदान अवश्य दे सकता है।

पानी को गर्म करने के लिए एलपीजी दूसरे नंबर का मुख्य र्इंधन है, खास तौर पर अर्ध-शहरी क्षेत्रों में। उत्तर प्रदेश में लगभग 39 प्रतिशत और महाराष्ट्र में लगभग 33 प्रतिशत अर्ध-शहरी सर्वेक्षित परिवारों में पानी गर्म करने के लिए एलपीजी का उपयोग किया जाता है। जिन घरों में पानी गर्म करने के लिए एलपीजी का उपयोग किया जाता है वहां सिलेंडर की खपत अन्य परिवारों की तुलना में थोड़ी अधिक होती है। इसके लिए उत्तर प्रदेश में औसतन 2 सिलेंडर और महाराष्ट्र में 0.7 सिलेंडर अधिक उपयोग किए जाते हैं। उत्तर प्रदेश में लगभग 19 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 7 प्रतिशत परिवार एलपीजी इंस्टेंट वॉटर हीटर का उपयोग करते हैं। अन्य परिवार पानी गर्म करने के लिए एलपीजी स्टोव का उपयोग करते हैं जिसका उपयोग वे खाना पकाने के लिए भी करते हैं।

कुछ घरों में पानी गर्म करने के लिए बिजली का उपयोग भी किया जाता है – उत्तर प्रदेश में लगभग 19 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 8 प्रतिशत घरों में पानी गर्म करने के लिए बिजली का उपयोग होता है। उत्तर प्रदेश के 92 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 82 प्रतिशत ऐसे घरों में पानी गर्म करने के लिए इमर्शन रॉड का उपयोग किया जाता है। इसकी वजह से बिजली के झटके और आग जैसी दुर्घटनाओं का खतरा बना रहता है।

सौर वॉटर हीटर का उपयोग दोनों ही राज्यों में न के बराबर है। पानी गर्म करने के लिए एक ही घर में अलग-अलग र्इंधनों का उपयोग नहीं किया जाता जैसे खाना पकाने के लिए किया जाता है।

यदि पानी गर्म करके उपयोग किया जाता है तो कुल घरेलू ऊर्जा खपत में इसका काफी योगदान रहता है। ठोस र्इंधन के आम उपयोग के परिणामस्वरूप अंदरूनी और स्थानीय वायु प्रदूषण होता है जिससे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। खाना पकाने के लिए ठोस र्इंधन के उपयोग को खत्म करने के लिए जिस ढंग के हस्तक्षेप किए गए हैं, वे शायद इस मामले में कारगर न रहें। बिजली, एलपीजी और सौर वॉटर हीटर जैसे विकल्पों को अपनाने का आग्रह करने से पहले उनका सावधानीपूर्वक मूल्यांकन करना होगा।

अगले आलेख में हम अपने सर्वेक्षण के नतीजों और प्रत्येक कार्य में कुल उर्जा खपत के योगदान का आकलन करके इस शृंखला का समापन करेंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn%3AANd9GcQmpOPc1HEOFfUuVYtP9p08wclX-whISg_HKjwMDdWHp2KB1O1T

खाना पकाने में ठोस ईंधन बनाम एलपीजी – आदित्य चुनेकर, श्वेता कुलकर्णी

प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019में एक सर्वेक्षण किया था। यहां उस सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाश व्यवस्था के बदलते परिदृश्य की चर्चा की गई है। इस शृंखला में आगे बिजली के अन्य उपयोगों पर चर्चा की जाएगी।

भारत खाना पकाना घर की सबसे बुनियादी उर्जा ज़रूरतों में से एक है। वर्ष 2011 में, भारत में लगभग 70 प्रतिशत घरों में खाना पकाने के लिए ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता था। एक अनुमान के मुताबिक 2015 में ठोस ईंधन के उपयोग से घरों में अंदरूनी वायु प्रदूषण के कारण लगभग 1 लाख लोगों की मृत्यु हुई जिसमें अधिकतर महिलाएं और बच्चे थे।

ठोस ईंधन के उपयोग को कम करने के लिए सब्सिडी वाले निर्धूम चूल्हों से लेकर एलपीजी कनेक्शन देने तक कई कदम उठाए गए हैं। सबसे हालिया कार्यक्रम प्रधानमंत्री उज्जवला योजना के तहत 2016 से 2019 के बीच गरीब परिवारों को 8 करोड़ मुफ्त एलपीजी कनेक्शन प्रदान किए जा चुके हैं।

हमारे सर्वेक्षण के निष्कर्षों से पता चलता है कि दोनों राज्यों में एलपीजी का स्वामित्व काफी अधिक है। उत्तर प्रदेश में लगभग 91 प्रतिशत और महाराष्ट्र में लगभग 96 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में  एलपीजी कनेक्शन मौजूद हैं। उत्तर प्रदेश की तुलना में महाराष्ट्र के घरों में काफी लंबे समय से एलपीजी का उपयोग किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश के लगभग 19 प्रतिशत और महाराष्ट्र के मात्र 2 प्रतिशत सर्वेक्षित परिवारों ने 2016 में उज्ज्वला कार्यक्रम शुरू होने के बाद एलपीजी कनेक्शन लिए हैं। इसलिए, हमारे सर्वेक्षण में उज्ज्वला लाभार्थियों का हिस्सा काफी कम है।

दोनों राज्यों में खाना पकाने के लिए एलपीजी का वास्तविक उपयोग भी काफी अधिक दिखा। उत्तर प्रदेश में लगभग 67 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 95 प्रतिशत परिवार अधिकांश खाना पकाने के लिए एलपीजी का उपयोग करते हैं। यह विशेष रूप से उत्तर प्रदेश के लिए काफी सराहनीय परिवर्तन है जहां एलपीजी कनेक्शन अपेक्षाकृत हाल ही में लगे हैं।

बहरहाल, ठोस ईंधन का उपयोग पूरी तरह से बंद नहीं हुआ है। कई अध्ययनों से पता चला है कि ज़्यादातर घरों में कई तरह के ईंधन का उपयोग किया जा रहा है। कारण यह है कि एलपीजी सिलेंडर महंगे हैं और आसानी से उपलब्ध नहीं होते। यह हमारे सर्वेक्षण में भी देखा गया है। उत्तर प्रदेश के 45 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 12 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में अभी भी खाना पकाने या उसके कुछ भाग के लिए ठोस ईंधन का उपयोग किया जाता है। उत्तर प्रदेश में ठोस ईंधन का उपयोग करने वाले लगभग 82 प्रतिशत घरों में एलपीजी कनेक्शन मौजूद हैं। कम आय वाले घरों में 41 प्रतिशत ऐसे परिवार हैं जहां एलपीजी कनेक्शन होने के बाद भी खाना पकाने के लिए अधिकतर ठोस ईंधन का उपयोग किया जाता है। शेष 24 प्रतिशत खाना पकाने के लिए केवल ठोस र्इंधन का उपयोग करते हैं। उत्तर प्रदेश के अन्य आय वर्ग के परिवार एलपीजी का उच्च उपयोग करने लगे हैं। अर्ध-शहरी क्षेत्रों के मध्य और उच्च आय वर्ग के 80-90 प्रतिशत परिवार अधिकांश खाना एलपीजी पर पकाते हैं। महाराष्ट्र में भी स्थिति लगभग ऐसी ही है जहां सभी आय वर्गों और अर्ध-शहरी/ग्रामीण क्षेत्रों के 90 प्रतिशत से अधिक परिवार अधिकांश खाना पकाने के लिए एलपीजी का उपयोग करते हैं।

एलपीजी सिलेंडर रीफिल करवाने की संख्या खाना पकाने के लिए एलपीजी के उपयोग का एक और संकेतक है। उत्तर प्रदेश में, यह संख्या इस बात पर निर्भर करती है कि परिवार सिर्फ एलपीजी का उपयोग करता है या एलपीजी और किसी अन्य ईंधन का मिला-जुला उपयोग करता है और इस बात पर भी निर्भर करती है कि परिवार ग्रामीण है या अर्ध-शहरी। खाना पकाने के लिए मात्र एलपीजी का उपयोग करने वाले परिवार औसतन साल भर में 9 बार सिलेंडर रीफिल कराते हैं। रीफिल करने की यह संख्या उन परिवारों की तुलना में दोगुनी है जो एलपीजी कनेक्शन होने के बाद भी अधिकांश खाना ठोस ईंधन पर पकाते हैं। अर्ध-शहरी क्षेत्रों के परिवार ग्रामीण परिवारों की तुलना में सालाना एक सिलेंडर अधिक उपयोग करते हैं। यह संख्या महाराष्ट्र में भी लगभग ऐसी ही है जहां ग्रामीण और अर्ध-शहरी दोनों तरह के परिवार औसतन हर साल 9 बार सिलेंडर रीफिल करवाते हैं (रेंज 7 से 9.5 के बीच है)।

यहां दो बिंदुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है। पहला, उत्तर प्रदेश के परिवार (प्रति परिवार 6.9 व्यक्ति) महाराष्ट्र के परिवारों (प्रति परिवार 4.7 व्यक्ति) की तुलना में काफी बड़े हैं। दूसरा, जहां महाराष्ट्र में 31 प्रतिशत परिवार नहाने का पानी गर्म करने के लिए एलपीजी का उपयोग करते हैं वहीं उत्तर प्रदेश में यह संख्या 13 प्रतिशत है। अगली कड़ी में हम पानी गर्म करने से सम्बंधित मुद्दों पर चर्चा करेंगे। एलपीजी की वास्तविक आवश्यकता और खाना पकाने के लिए इसके उपयोग पर इन कारकों के असर की जांच ज़रूरी है।

हमने परिवारों से यह भी पूछा कि वे ठोस ईंधन का उपयोग जारी क्यों रखे हुए हैं। दोनों राज्यों में बिना एलपीजी कनेक्शन वाले परिवारों की संख्या 10 प्रतिशत से कम है। ये मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों के निम्न आय वाले परिवार हैं। इनमें से आधे परिवारों ने एलपीजी के महंगे होने का कारण बताया तो शेष आधों ने एलपीजी गैस की अनुपलब्धता की बात कही। उत्तर प्रदेश के 70 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 67 प्रतिशत बिना एलपीजी कनेक्शन वाले परिवारों ने उज्ज्वला कार्यक्रम के बारे में सुना है।

एलपीजी कनेक्शन वाले ऐसे परिवार जो खाना पकाने के लिए इसका अधिक उपयोग नहीं करते उनका कारण कुछ अलग ही है। इनमें से अधिकतर परिवार उत्तर प्रदेश के हैं। इनमें से लगभग 55 प्रतिशत परिवारों को खाना पकाने के लिए एलपीजी का उपयोग काफी महंगा लगता है। एलपीजी के उपयोग को महंगा बताने वाले लगभग 60 प्रतिशत परिवारों को सब्सिडी कभी नहीं या कभी-कभार मिली है। कुल मिलाकर, उत्तर प्रदेश के 54 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 85 प्रतिशत सर्वेक्षित परिवारों को नियमित रूप से सब्सिडी प्राप्त हो रही है। इसके अलावा एलपीजी महंगा बताने वाले 60 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जिन्हें ठोस ईंधन मुफ्त में प्राप्त हो जाता है। इससे एलपीजी के महंगे होने की धारणा और मज़बूत होती है। इसके अलावा, एलपीजी कनेक्शन वाले 20 प्रतिशत परिवारों, जो ठोस र्इंधन का भी उपयोग करते हैं, ने महंगेपन और उपलब्धता के अलावा अन्य कारण बताए। सबसे आम कारण चूल्हे पर पके खाने का स्वाद पसंद होना है।

दोनों राज्यों में एलपीजी कनेक्शन का उच्च स्वामित्व खाना पकाने के लिए ठोस ईंधन के उपयोग को खत्म करने की क्षमता रखता है, जिसके परिणामस्वरूप ठोस र्इंधन से स्वास्थ्य पर होने वाले प्रतिकूल प्रभाव भी कम होंगे। यह काफी उत्साहजनक है कि भले ही उत्तर प्रदेश के 60 प्रतिशत से अधिक परिवारों को 2010 के बाद एलपीजी कनेक्शन मिला हो, लेकिन ग्रामीण निम्न आय परिवारों को छोड़कर इन घरों में एलपीजी का उपयोग काफी अधिक है। फिर भी, इन घरों में एलपीजी के निरंतर उपयोग और उसे एकमात्र र्इंधन बनाने के लिए हस्तक्षेप की आवश्यकता है। चूंकि अधिकांश परिवारों में महंगा होने के कारण एलपीजी का उपयोग नहीं किया जा रहा है, इसलिए सब्सिडी की राशि और उसके वितरण को और अधिक प्रभावी बनाने की ज़रूरत है। एलपीजी को अपनाने में जेंडर, व्यवहार और सांस्कृतिक बाधाओं को संबोधित करने की भी आवश्यकता है। हो सकता है कि एलपीजी सभी घरों के लिए पसंदीदा या उपयुक्त विकल्प न हो, ऐसे में बिजली, बायोगैस और प्राकृतिक गैस जैसे अन्य स्वच्छ र्इंधनों का उपयोग किया जा सकता है। इनका उपयोग न के बराबर देखा गया। इनको अपनाने के लिए कार्यक्रम विकसित किए जा सकते हैं। हालांकि, महाराष्ट्र में अधिकांश घरों में खाना पकाने के लिए एलपीजी अपनाया गया है, फिर भी पानी गर्म करने के लिए ठोस ईंधन का उपयोग जारी है जिससे स्थानीय स्तर पर वायु प्रदूषण हो रहा है। अगले लेख में इस पर और चर्चा की जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i2.wp.com/eguruchela.com/chemistry/images/sfule.jpg
https://1.imimg.com/data/K/X/MY-1098653/domestic-cylinder_10526803_250x250.jpg

स्थिर विद्युत का चौंकाने वाला रहस्य

चपन में आपने अपने सिर पर गुब्बारा रगड़कर बाल खड़े करने या उसे दीवार पर चिपकाने वाला खेल ज़रूर खेला या देखा होगा। ये करतब स्थिर विद्युत की वजह से होते हैं। हालांकि, स्थिर विद्युत से मनुष्य काफी प्राचीन समय से ही परिचित थे, फिर भी आज तक वैज्ञानिक यह नहीं समझ पाए थे कि कुछ सामग्रियों को रगड़ने से कैसे विद्युत आवेश उत्पन्न होता है।

किसी बिजली के तार में विद्युत धारा प्रवाहित होने के विपरीत, स्थिर विद्युत एक जगह पर स्थिर रहती है। इस प्रकार की बिजली को ट्राइबोइलेक्ट्रिसिटी कहा जाता है। यह आम तौर पर उन रबड़ या प्लास्टिक जैसी सामग्रियों में टिकी रह जाती है जो विद्युत के चालक नहीं हैं। ऐसे कुचालक पदार्थ आपस में रगड़े जाने पर स्थिर आवेश जमा कर लेते हैं। यह आवेश दो प्रकार का होता है। समान आवेश वाली वस्तुएं एक-दूसरे को परे धकेलती है जबकि असमान आवेश होने पर वस्तुएं एक-दूसरे को आकर्षित करती हैं।       

ताज़ा अध्ययन में शोधकर्ता दरअसल एक अन्य विद्युत परिघटना फ्लेक्सोइलेक्ट्रिसिटी को समझने की कोशिश कर रहे थे। फ्लेक्सोइलेक्ट्रिसिटी एक ऐसी परिघटना है जिसमें किसी सामग्री को नैनोस्तर पर निरंतर लेकिन बेतरतीब ढंग मोड़ने या झुकाने पर विद्युत क्षेत्र उत्पन्न होता है। जैसे आप प्लास्टिक के कंघे के दांतों पर अपनी उंगली चलाएं। शोधकर्ताओं को लगा कि शायद इस आधार पर स्थिर विद्युत की व्याख्या हो सकती है।    

बहुत सूक्ष्म स्तर पर देखें, तो चिकनी नज़र आने वाली वस्तुएं भी खुरदरी होती हैं। फिजिकल रिव्यू लेटर्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार शोधकर्ताओं ने पाया कि दो वस्तुओं को आपस में रगड़ने से उनकी सतह पर उपस्थित छोटे-छोटे उभार मुड़ते या झुकते हैं। तब फ्लेक्सोइलेक्ट्रिक प्रभाव के कारण स्थिर विद्युत जमा होने लगती है। इस व्याख्या से यह भी मालूम चला कि एक ही पदार्थ से बनी दो कुचालक को आपस में रगड़ने से भी वोल्टेज क्यों उत्पन्न होता है। इससे पहले वैज्ञानिकों का ऐसा मानना था कि स्थिर विद्युत जमा होने के लिए दोनों पदार्थों में कुछ कुदरती अंतर होना चाहिए। इसलिए एक ही पदार्थ की वस्तुओं को आपस में रगड़ने पर स्थित विद्युत पैदा होने की बात चक्कर में डालने वाली लगती थी।    

इससे यह भी मालूम चला कि प्लास्टिक स्थिर विद्युत उत्पन्न करने में विशेष रूप से अच्छा काम करते हैं। इस व्याख्या से इंजीनियरों को ऐसी सामग्री तैयार करने में मदद मिल सकती है जिससे स्थिर विद्युत का अधिक उत्पादन करके उन उपकरणों में उपयोग किया जा सकेगा जिन्हें पहना जाता है। रिफाइनरी जैसी जगहों में भी सुरक्षा में सुधार करने में भी यह मददगार सिद्ध हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images2.minutemediacdn.com/image/upload/c_crop,h_1473,w_2616,x_0,y_36/f_auto,q_auto,w_1100/v1554734170/shape/mentalfloss/567462-istock-168614253.jpg

रेफ्रिजरेटर एवं अन्य उपकरण: स्वामित्व और उपयोग – आदित्य चुनेकर, श्वेता कुलकर्णी

प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019में एक सर्वेक्षण किया था। यहां उस सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाश व्यवस्था के बदलते परिदृश्य की चर्चा की गई है। इस शृंखला में आगे बिजली के अन्य उपयोगों पर चर्चा की जाएगी।

प्रकाश और वातानुकूलन के बुनियादी उपयोगों के अलावा, लोग परिश्रम से बचने और जीवन शैली में सुधार के लिए बिजली का उपयोग कई अन्य उपकरणों के लिए भी करते हैं। परिवारों की आय बढ़ने के साथ उपकरणों का उपयोग भी बढ़ता है जिससे बिजली की खपत में काफी वृद्धि होती है। यहां हम कुछ सर्वेक्षित घरों में इन उपकरणों के उपयोग के तरीकों पर चर्चा करेंगे।

रसोई उपकरण

रेफ्रिजरेटर रसोई का सबसे आम उपकरण है। रेफ्रिजरेटर दो प्रकार के होते हैं: फ्रॉस्ट-फ्री और डायरेक्ट-कूल। डायरेक्ट-कूल रेफ्रिजरेटरों की तुलना में फ्रॉस्ट-फ्री रेफ्रिजरेटर आम तौर पर आकार में बड़े व महंगे होते हैं तथा बिजली की खपत भी अधिक करते हैं और इनमें मैनुअल डीफ्रॉस्टिंग की आवश्यकता नहीं होती है। भारत में सालाना 1 करोड़ रेफ्रिजरेटर बेचे जाते हैं जिनमें एक बड़ी संख्या डायरेक्ट-कूल रेफ्रिजरेटर की होती है। दोनों प्रकार के रेफ्रिजरेटर के लिए मानक और लेबलिंग (एस-एंड-एल) कार्यक्रम अनिवार्य है। अर्थात कोई भी रेफ्रिजरेटर स्टार लेबल के बिना बाज़ार में बेचा नहीं जा सकता है।

उत्तर प्रदेश के 51 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 55 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में रेफ्रिजरेटर हैं। दोनों राज्यों में उच्च आय वाले घरों में 90 प्रतिशत से अधिक और निम्न आय वाले घरों में लगभग 10 प्रतिशत परिवारों के पास रेफ्रिजरेटर हैं। इनमें से उत्तर प्रदेश के लगभग 96 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 89 प्रतिशत घरों में रेफ्रिजरेटर डायरेक्ट-कूल किस्म के हैं। इससे पता चलता है कि फ्रॉस्ट-फ्री रेफ्रिजरेटर केवल शहरी और बड़े मेट्रो शहरों तक ही सीमित है।

रेफ्रिजरेटर वाले लगभग 50 प्रतिशत परिवारों को या तो स्टार रेटिंग के बारे में कोई जानकारी नहीं है या वे बिना स्टार रेटेड रेफ्रिजरेटर का उपयोग कर रहे हैं। डायरेक्ट-कूल रेफ्रिजरेटर के लिए एस-एंड-एल कार्यक्रम चार साल पहले, वर्ष 2015 में ही अनिवार्य किया गया था। सर्वेक्षण में पाया गया कि दोनों राज्यों में रेफ्रिजरेटर की औसत आयु लगभग 7 वर्ष है। इससे इस बात की व्याख्या हो जाती है कि इतनी बड़ी संख्या में उपकरण गैर स्टार रेटेड क्यों हैं। ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी (बीईई) एस-एंड-एल कार्यक्रम को शुरू करने के बाद समय-समय पर स्टार रेटिंग का संशोधन करता रहा है लेकिन कंपनियां नए 4-स्टार और 5-स्टार मॉडल पेश करने में काफी धीमी रही हैं। यह बात सर्वेक्षण के नतीजों में भी झलकती है – उत्तर प्रदेश के लगभग 31 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 37 प्रतिशत घरों में ही ऊर्जा-कुशल चार और पांच स्टार मॉडल उपयोग किए जा रहे हैं।

हमने यह भी देखा कि उत्तर प्रदेश में सभी आय श्रेणियों के 80 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में रेफ्रिजरेटर को सर्दियों के मौसम में बंद कर दिया जाता है। यह आंकड़ा महाराष्ट्र में 24 प्रतिशत है। इसके अलावा, उत्तर प्रदेश में लगभग 30 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 26 प्रतिशत घरों में हर दिन कुछ घंटों के लिए रेफ्रिजरेटर बंद किए जाते हैं। हो सकता है रेफ्रिजरेटर के उपयोग को सीमित करके परिवार अपना बिजली का बिल कम करने की कोशिश कर रहे हैं। एक अन्य कारण खाना पकाने की सामाजिक प्रथाएं भी हो सकती हैं, जैसे ताज़ा चीज़ें खरीदना और भोजन के समय से ठीक पहले खाना पकाना। यह रेफ्रिजरेटर को निरर्थक बना देता है। उत्तर प्रदेश में कुछ सुनी-सुनाई बातों से पता चलता है कि अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में रेफ्रिजरेटर का उपयोग मात्र ग्रीष्मकाल में पानी/पेय पदार्थों को ठंडा करने के लिए किया जाता है। भारत की आवासीय बिजली खपत और एस-एंड-एल कार्यक्रम से बचत का अनुमान लगाते समय इस व्यवहार को भी ध्यान में रखना आवश्यक है अन्यथा यह हो सकता है कि ज़रूरत से अधिक खपत या बचत का अनुमान लगा लिया जाए।

मिक्सर-ब्लेंडर एक और रसोई उपकरण है जो, खासकर महाराष्ट्र में, काफी अधिक घरों में होता है। महाराष्ट्र के लगभग 60 प्रतिशत परिवार सप्ताह में कम से कम एक बार मिक्सर ब्लेंडर का उपयोग करते हैं जबकि उत्तर प्रदेश में मात्र 20 प्रतिशत परिवार सप्ताह में एक बार इसका उपयोग करते हैं। हालांकि घर की कुल बिजली खपत में इसका योगदान काफी कम है, क्योंकि इसका उपयोग प्रति दिन केवल कुछ मिनटों के लिए किया जाता है, लेकिन यह हाथ से पीसने के कठोर परिश्रम को कम करता है। मिक्सर-ब्लेंडर का स्वामित्व और उपयोग रेफ्रिजरेटर के समान पकाने की प्रथाओं पर निर्भर कर सकता है।

टेलीविज़न व अन्य उपकरण

भारत एक बड़ा टेलीविज़न बाज़ार है जहां वर्ष 2018 में लगभग 1 करोड़ टीवी की बिक्री हुई। इसमें एक बड़ा हिस्सा एलसीडी/एलईडी टीवी का था। उत्तर प्रदेश में लगभग 82 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 95 प्रतिशत सर्वेक्षित परिवारों के पास टीवी है। दिलचस्प बात यह है कि दोनों राज्यों में लगभग 65 प्रतिशत टेलीविज़न कैथोड रे ट्यूब (सीआरटी) प्रकार के हैं। इससे पता चलता है कि या तो ये टीवी पुराने हैं और एलईडी टीवी की कीमतों में गिरावट से पहले खरीदे गए थे या फिर एक ऐसा सेकंड-हैंड बाज़ार मौजूद है जहां सीआरटी टीवी एलईडी की तुलना में काफी कम कीमत पर बेचे जाते हैं। एलईडी टीवी सीआरटी की तुलना में अधिक ऊर्जा-क्षम हैं। इसलिए सीआरटी टीवी की मौजूदगी का असर कुल ऊर्जा-दक्षता पर हो सकता है। टीवी के लिए अनिवार्य एस-एंड-एल कार्यक्रम है। हालांकि, उत्तर प्रदेश के लगभग 86 प्रतिशत और महाराष्ट्र के लगभग 81 प्रतिशत परिवारों को स्टार रेटिंग कार्यक्रम के बारे में कोई जानकारी नहीं है। बीईई के अनुसार, अगर रोज़ाना 6 घंटे टीवी देखें तो 5-स्टार रेटिंग वाला 29 इंच का टीवी 1-स्टार रेटिंग टीवी की तुलना में 30 प्रतिशत कम बिजली खर्च करता है। उत्तर प्रदेश में रोज़ 5 घंटे और महाराष्ट्र में 4 घंटे टीवी देखा जाता है।

दोनों राज्यों में स्मार्ट फ़ोन का स्वामित्व काफी अधिक है: उत्तर प्रदेश में 64 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 98 प्रतिशत। दोनों राज्यों में प्रति परिवार लगभग 2 स्मार्टफोन हैं। दिलचस्प बात यह है कि उत्तर प्रदेश में लगभग 47 प्रतिशत परिवारों ने बताया कि वे विभिन्न किस्म के मीडिया (जैसे टीवी, समाचार या फिल्में) देखने के लिए स्मार्टफोन का उपयोग करते हैं, जबकि महाराष्ट्र में यह संख्या केवल 2 प्रतिशत थी। हालांकि, स्मार्ट फोन का परिवार की बिजली खपत पर सीधा प्रभाव तो कम है लेकिन यह बिजली और ऊर्जा के उपयोग को अलग-अलग तरह से प्रभावित करता है। मीडिया के लिए स्मार्ट फोन का बढ़ता उपयोग भविष्य में टीवी के उपयोग को प्रभावित कर सकता है। स्मार्टफोन का उच्च स्वामित्व वितरण कंपनियों, उपकरण निर्माताओं और अन्य प्रौद्योगिकी प्रदाताओं को सेवाएं मुहैया कराने में मदद कर सकता है जो घरों में ऊर्जा उपयोग के तरीकों को बदल सकता है।

परिवार के स्तर का पानी का पंप भी काफी अधिक उपयोग किया जाने वाला उपकरण है, खासकर उत्तर प्रदेश में। उत्तर प्रदेश में 28 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 6 प्रतिशत परिवार सप्ताह में कम से कम एक बार पानी के पंप का उपयोग करते हैं – औसतन आधे या एक घंटे प्रतिदिन। आम तौर पर ये पंप 1 हॉर्सपावर (746 वॉट) की खपत करते हैं। पानी के पंप का दैनिक उपयोग, बिजली की खपत में काफी इज़ाफा कर सकता है। बीईई के एस-एंड-एल कार्यक्रम में पंप शामिल नहीं हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://ichef.bbci.co.uk/news/624/media/images/80531000/jpg/_80531285_sanjoyimg_1527.jpg

वातानुकूलन: गर्मी से निपटने के उपाय – आदित्य चुनेकर, श्वेता कुलकर्णी

प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019में एक सर्वेक्षण किया था। यहां उस सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाश व्यवस्था के बदलते परिदृश्य की चर्चा की गई है। इस शृंखला में आगे बिजली के अन्य उपयोगों पर चर्चा की जाएगी।

भारत की जलवायु, अलग-अलग क्षेत्रों और अलग-अलग मौसमों में बहुत अलग-अलग होती है। अलबत्ता, अधिकांश देश गर्म ग्रीष्मकाल का अनुभव करता है जो और अधिक गर्म हो रहा है। भारत में हर साल लगभग 50 करोड़ पंखे, 8 करोड़ एयर-कूलर और 45 लाख एयर कंडीशनर खरीदे जाते हैं। इनकी बिक्री पिछले कुछ वर्षों में लगातार बढ़ी है और आगे भी वृद्धि की उम्मीद है। फिर भी, भारत में एयर कंडीशनर और कूलर का घरेलू स्वामित्व अभी भी अपेक्षाकृत कम है। भारत उन चुनिंदा देशों में से है जहां कूलिंग एक्शन प्लान तैयार किया गया है। इसका उद्देश्य है कि पर्यावरणीय और सामजिक-आर्थिक लाभ को सुरक्षित करते हुए सभी के लिए निर्वहनीय ठंडक एवं ऊष्मीय राहत प्रदान की जा सके। सर्वेक्षण में यह समझने की कोशिश की गई कि सर्वेक्षित परिवार किस तरह गर्मी से राहत पाने की कोशिश करते हैं और इसमें ठंडक के लिए ऊर्जा-मांग सम्बंधी कार्यक्रमों के लिए क्या समझ मिल सकती है?

आमतौर पर, महाराष्ट्र की तुलना में उत्तर प्रदेश अधिक गर्म रहता है। 2018 में, सर्वेक्षित ज़िलों में महाराष्ट्र की तुलना में उत्तर प्रदेश में 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान वाले दिनों की संख्या ज़्यादा रही। हालांकि, खास तौर से उत्तर प्रदेश में, सर्दियों का मौसम काफी ठंडा रहा, फिर भी बिजली से चलने वाले रूम हीटरों का स्वामित्व दोनों ही राज्यों में नगण्य है। इसलिए, हम केवल गर्मी से राहत पाने के लिए घरों में बिजली के उपयोग पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।

छत का पंखा सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला उपकरण है। उत्तर प्रदेश के लगभग 94 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 95 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में छत के पंखे हैं। प्रति परिवार छत के पंखों की संख्या उत्तर प्रदेश में 2.4 और महाराष्ट्र में 1.6 है। यह भी देखा गया है कि महाराष्ट्र (औसतन 2.4 कमरे प्रति घर) की तुलना में उत्तर प्रदेश में घर बड़े (औसतन 3.8 कमरे प्रति घर) हैं। अगला लोकप्रिय उपकरण कूलर है – उत्तर प्रदेश में 40 प्रतिशत परिवारों और महाराष्ट्र में 23 प्रतिशत परिवारों के पास कूलर है। हालांकि, उच्च आय वाले परिवारों में इनका स्वामित्व अधिक है, लेकिन कुछ निम्न और मध्यम आय वाले परिवारों में भी कूलर थे। इससे स्थानीय स्तर पर निर्मित सस्ते कूलर की उपलब्धता का पता चलता है। दूसरी ओर एयर कंडीशनर का स्वामित्व दोनों राज्यों में काफी कम (3.5 प्रतिशत) है, जो अधिकतर उच्च आय वर्ग में होंगे। अधिकांश वातानुकूलन उपकरण (ए.सी.) स्प्लिट प्रकार के हैं; उत्तर प्रदेश में 84 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 70 प्रतिशत। प्रत्येक श्रेणी में सबसे अधिक उपयोग किए जाने वाले उपकरण की औसत आयु उत्तर प्रदेश में छत के पंखे की 7 साल, कूलर की 4 साल और एयर कंडीशनर की 2.5 साल है जबकि महाराष्ट्र में क्रमश: 7, 5 और 3 साल थी।

छत के पंखों के लिए ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी (बीईई) का मानक और लेबलिंग (एसएंडएल) कार्यक्रम स्वैच्छिक है। भारत में उत्पादित 95 प्रतिशत से अधिक छत के पंखे स्टार रेटेड नहीं हैं। हमारे सर्वेक्षण में, उत्तर प्रदेश में लगभग 6 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 18 प्रतिशत घरों में ही स्टार रेटेड छत के पंखे थे। बीईई ने हाल ही में मानकों को संशोधित किया है जिसके बाद नए 5-स्टार रेटेड छत के पंखे गैर-स्टार रेटेड पंखों की तुलना में आधी बिजली खपत करते हैं। लिहाज़ा, व्यापक पैमाने पर स्टार रेटेड छत के पंखे अपनाए जाएं, इसके लिए जागरूकता और उपलब्धता बढ़ाने तथा कीमतें कम करने की आवश्यकता है। स्टार रेटेड पंखों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए बीईई राष्ट्रीय स्तर पर अभियान चला सकता है। वह छत के पंखों के लिए एसएंडएल कार्यक्रम को भी अनिवार्य बना सकता है ताकि भारत में अक्षम और गैर-स्टार रेटेड पंखे न बेचे जा सकें। एनर्जी एफिशिएंसी सर्विसेज लिमिटेड (ईईएसएल) का उजाला कार्यक्रम 5-स्टार पंखे रियायती मूल्य पर बेचता है। ईईएसएल नए 5-स्टार पंखों को बेचने के लिए कार्यक्रम को अपग्रेड कर सकता है, जो पुराने 5-स्टार पंखों की तुलना में 30 प्रतिशत अधिक कार्यक्षम हैं। बीईई अपने खुद के अत्यंत कुशल उपकरण कार्यक्रम (एसईईपी) के तहत उजाला कार्यक्रम का समर्थन कर सकता है, जिसके तहत निर्माताओं को सामान्य पंखों की बजाय अत्यंत कुशल (नए 5 स्टार पंखे) को बेचने की बढ़ती लागत की क्षतिपूर्ति करने के लिए समयबद्ध वित्त प्रदान किया जाता है। इससे इन पंखों की कीमत में और गिरावट आ सकती है और खरीद बढ़ सकती है। एयर कूलर के लिए भी यही तरीका अपनाया जा सकता है। छत के पंखों के विपरीत, बीईई के पास एयर कूलर के लिए कोई भी स्टार रेटिंग कार्यक्रम नहीं है। इसके लिए पहला कदम यह होगा कि एयर कूलर को भी स्टार रेटेड कार्यक्रम के तहत लाया जाए और फिर एयर कूलर के लिए भी उजाला जैसा कोई कार्यक्रम शुरू करना होगा।

छत के पंखों और एयर कूलर के स्टार रेटिंग कार्यक्रम के समक्ष एक चुनौती स्थानीय निर्माताओं की उपस्थिति हो सकती है। हो सकता है उनमें से कुछ निर्माता सस्ते, गैर-मानक और अत्यधिक अक्षम मॉडल बेचें। तब बीईई के लिए इन उत्पादों में स्टार रेटिंग मानदंडों के अनुपालन की निगरानी करना मुश्किल हो सकता है। यह समस्या एयर कूलर में अधिक स्पष्ट है। दोनों राज्यों में सर्वेक्षित परिवारों में स्थानीय रूप से निर्मित एयर कूलर की हिस्सेदारी स्थानीय पंखों की तुलना में काफी अधिक है। एयर कूलर और पंखों के स्टार रेटिंग कार्यक्रम की सफलता के लिए इस मुद्दे को संबोधित करना ज़रूरी होगा।

सर्वेक्षित परिवारों में एयर कंडीशनर का स्वामित्व दोनों राज्यों में काफी कम है। हालांकि उनके उपयोग के बारे में कुछ टिप्पणियां की जा सकती हैं। बीईई के पास एयर कंडीशनर के लिए अनिवार्य एसएंडएल कार्यक्रम है। दोनों राज्यों में एयर कंडीशनर वाले 34 प्रतिशत घरों में ऊर्जाक्षम 4 और 5 स्टार रेटेड मॉडल हैं। उत्तर प्रदेश के लगभग 49 प्रतिशत और महाराष्ट्र के लगभग 32 प्रतिशत परिवार या तो स्टार-लेबल के बारे में जानते नहीं हैं या किसी गैर-स्टार रेटेड मॉडल का उपयोग कर रहे हैं। इससे पता चलता है कि एयर कंडीशनर तक के बारे में इस कार्यक्रम को लेकर जागरूकता कम है। उत्तर प्रदेश के परिवार 21 डिग्री सेल्सियस और महाराष्ट्र के परिवार 22 डिग्री सेल्सियस की औसत तापमान सेटिंग पर एसी का इस्तेमाल करते हैं। यह दर्शाता है कि बीईई द्वारा हाल में अनुशंसित 24 डिग्री की डिफॉल्ट सेटिंग उपभोक्ताओं को तापमान अधिक सेट करने और बिजली बचाने के लिए प्रेरित कर सकती है। दूसरी ओर, एयर कंडीशनर का उपयोग काफी कम है। सामान्य गर्मी के दिन में एयर कंडीशनर का प्रतिदिन औसत उपयोग उत्तर प्रदेश में 3.8 घंटे और महाराष्ट्र में 4.5 घंटे  है। इससे तो लगता है कि शायद लोग एयर कंडीशनर का तापमान कम सेट करते हैं और कमरा ठंडा होने के बाद इसे बंद कर देते हैं। इससे एक आशंका यह पैदा होती है कि उपभोक्ता अधिक ऊर्जाक्षम एसी होने पर उसका उपयोग लंबी अवधि के लिए करने लगेंगे और तब ज़्यादा ऊर्जा खर्च होगी। इसकी और जांच करने की आवश्यकता है।

हमने परिवारों से यह भी पूछा था कि क्या वे उनके पास उपलब्ध उपकरणों के उपयोग के बाद भी गर्मियों के मौसम में किसी तरह की असुविधा का सामना करते हैं। सर्वेक्षण में उत्तर प्रदेश के लगभग 59 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 34 प्रतिशत परिवारों ने बताया कि वे गर्मी के कई या अधिकांश दिनों में असुविधा का सामना करते हैं। हमने अनुकूलन उपकरणों के स्वामित्व के आधार पर परिवारों का समूहीकरण किया और उनके असुविधा के स्तर को दर्ज किया। इन आंकड़ों से लगता है परिवारों में कई श्रेणी के उपकरण हो सकते हैं। जिन घरों में एयर कंडीशनर है वहां एयर कूलर, छत का पंखा, टेबल फैन, आदि में से कोई एक या सभी उपस्थित हो सकते हैं। देखा गया कि उत्तर प्रदेश में टेबलफैन वाले परिवारों से एयर कंडीशनर वाले परिवारों की ओर बढ़ें, तो असुविधा भी कम होती जाती है। हालांकि, यह रुझान महाराष्ट्र में इतना स्पष्ट नहीं है। इसका एक संभावित कारण उत्तर प्रदेश में ग्रीष्मकाल की तीव्रता हो सकता है। दिलचस्प बात यह है कि दोनों राज्यों में लगभग 10 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जो एयर कंडीशनर का उपयोग करते हैं लेकिन फिर भी गर्मियों के अधिकतर दिनों में असुविधा का सामना करते हैं। ऐसा एयर कंडीशनर के सीमित उपयोग की वजह से हो सकता है। इसका कारण उच्च बिजली बिल, पॉवर कट या दोनों ही हो सकते हैं। यह एयर कंडीशनर के अनुचित आकार के कारण भी हो सकता है जिसके परिणामस्वरूप अपर्याप्त शीतलन होता है।

तापमान में वृद्धि के रुझान के साथ घरों में असुविधा का उच्च स्तर सभी वातानुकूलन उपकरणों के लिए एक संभावित मांग का संकेत देता है। इसके मद्दे नज़र ऐसे हस्तक्षेपों की आवश्यकता है जिनसे यह सुनिश्चित हो सके कि ये उपकरण ऊर्जा-क्षम हों ताकि वे एक निर्वहनीय और सस्ते तरीके से शीतलन की ज़रूरतों को पूरा कर सकें। मानक और लेबलिंग (एसएंडएल) जैसी नीतियां और अत्यंत कुशल उपकरण कार्यक्रम (एसईईपी) द्वारा समर्थित उजाला जैसे कार्यक्रम इस लक्ष्य को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://e360.yale.edu/assets/site/_1500x1500_fit_center-center_80/buildings-455239_1920.jpg

लोग एलईडी प्रकाश अपना रहे हैं – आदित्य चुनेकर, श्वेता कुलकर्णी

प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019में एक सर्वेक्षण किया था। यहां उस सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाश व्यवस्था के बदलते परिदृश्य की चर्चा की गई है। इस शृंखला में आगे बिजली के अन्य उपयोगों पर चर्चा की जाएगी।

रों में बिजली का सबसे बुनियादी उपयोग प्रकाश व्यवस्था के लिए किया जाता है। कई कम आय वाले और नए विद्युतीकृत घरों में तो बिजली का प्रमुख या एकमात्र उपयोग इसी के लिए किया जाता है। प्रकाश व्यवस्था की ज़रूरत शाम के समय बिजली के सर्वाधिक उपयोग के समय से भी मेल खाती है। पूर्व में कई सरकारी कार्यक्रमों/कंपनियों ने फिलामेंट बल्ब को अत्यधिक कुशल सीएफएल और एलईडी बल्बों से बदलने का लक्ष्य रखा था। इनमें से सबसे नया और सबसे सफल कार्यक्रम उजाला कार्यक्रम रहा, जो अभी भी जारी है। उजाला के तहत, एलईडी बल्ब थोक मूल्य में खरीदकर अनुबंधित विक्रेताओं के माध्यम से उपभोक्ताओं को रियायती मूल्य पर उपलब्ध कराए जा रहे हैं। इसके तहत अब तक 35 करोड़ से अधिक एलईडी बल्ब बेचे जा चुके हैं।

2018 में भारत में लगभग 1.4 अरब बल्ब और ट्यूब लाइट्स का उत्पादन किया गया। इनमें से लगभग 46 प्रतिशत एलईडी, 43 प्रतिशत फिलामेंट बल्ब और शेष सीएफएल और फ्लोरोसेंट ट्यूब लाइट का था। एलईडी की मांग बढ़ती गई है जबकि हाल के वर्षों में सीएफएल की बिक्री में गिरावट आई है। फिलामेंट बल्बों की बिक्री भी कम हो रही है, लेकिन सीएफएल की तुलना में इसमें गिरावट की दर बहुत कम है।

हमने अपने सर्वेक्षण में उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र दोनों में एलईडी को अपनाने का काफी उच्च स्तर देखा। उत्तर प्रदेश में सर्वेक्षित परिवारों में 80 प्रतिशत से अधिक प्रकाश उपकरण एलईडी बल्ब या ट्यूब लाइट हैं। सभी आय वर्गों में लगभग यही स्थिति थी। लगभग 68 प्रतिशत घरों में प्रकाश के लिए केवल एलईडी बल्ब का उपयोग किया जाता है। अधिकांश परिवारों ने बताया कि वे एलईडी के प्रदर्शन से संतुष्ट हैं और उनका उपयोग जारी रखेंगे। महाराष्ट्र में, सर्वेक्षित परिवारों में 54 प्रतिशत से अधिक प्रकाश उपकरण एलईडी हैं, हालांकि विभिन्न आय वर्गों में छिटपुट अंतर हैं। सीएफएल दूसरा सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाले प्रकाश विकल्प है (लगभग 27-28 प्रतिशत)।

महाराष्ट्र के घरों में एलईडी बल्बों को कम अपनाने का एक संभावित कारण यह लगता है कि महाराष्ट्र में परिवार पहले फिलामेंट बल्ब छोड़कर सीएफएल का उपयोग करने लगे थे। ऐसा सरकार के बचत लैंप योजना (बीएलवाय) के तहत सीएफएल को दिए गए प्रोत्साहन के कारण हुआ था। हालांकि महाराष्ट्र के अधिकांश सर्वेक्षित परिवारों ने भविष्य में एलईडी बल्ब खरीदने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन संभवत: पूरे स्टॉक को एलईडी में बदलने में काफी समय लगेगा। दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश के परिवारों ने फिलामेंट बल्ब या प्रकाश व्यवस्था के सर्वथा अभाव से सीधे एलईडी की ओर लंबी छलांग लगाई है।

एक दिलचस्प बात यह है कि उत्तर प्रदेश के मात्र 12 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 17 प्रतिशत सर्वेक्षित परिवारों ने ही बताया कि उन्होंने एलईडी बल्ब उजाला कार्यक्रम के तहत खरीदा है। फिर भी, बड़े पैमाने पर एलईडी को अपनाए जाने का श्रेय उजाला कर्यक्रम को दिया जा सकता है क्योंकि कार्यक्रम ने प्रकाश उद्योग पर व्यापक असर डाला है। उजाला के तहत बड़े पैमाने की खरीदी के चलते कार्यक्रम के बाहर बेचे जाने वाले एलईडी बल्बों की कीमत में भी भारी कमी हुई है। इसके अलावा, एलईडी बल्बों की बढ़ी हुई मांग ने एक बड़े लघु उद्योग को भी जन्म दिया है। भारत में लगभग 250 पंजीकृत एलईडी बल्ब उत्पादन इकाइयां हैं, जो 2014 में मुट्ठी भर थीं। इसलिए, बाज़ारों में सस्ते एलईडी बल्बों की बहुतायत है। हालांकि, इससे उनकी गुणवत्ता को लेकर भी चिंता बढ़ गई है। भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) का निर्देश है कि भारत में बिकने वाले सारे एलईडी उपकरण सुरक्षा और प्रदर्शन मानकों के अनुरूप होना चाहिए। इसके अलावा, ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी (बीईई) ने एलईडी लैंप की रेटिंग के लिए एक अनिवार्य स्टार लेबलिंग योजना शुरू की है। इसके तहत सभी एलईडी उपकरणों को 1 स्टार (न्यूनतम कुशल) से 5 स्टार (सबसे कुशल) तक अंकित किया जाता है। अलबत्ता, इन नियमों का अनुपालन ढीला है। 8 शहरों में 400 खुदरा विक्रेताओं के एक हालिया सर्वेक्षण में पाया गया है कि बाज़ार में उपलब्ध एलईडी बल्ब ब्रांडों में से आधे सुरक्षा और प्रदर्शन के बीआईएस मानकों के अनुरूप नहीं हैं। हमारे सर्वेक्षण में, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र दोनों में केवल 2-3 प्रतिशत परिवारों को एलईडी बल्ब के लिए स्टार-लेबलिंग कार्यक्रम के बारे में पता था। इसके अलावा, दोनों राज्यों के अधिकांश परिवारों ने एलईडी बल्बों के प्रदर्शन को खरीद का कारण बताया। चंद परिवारों ने ही कहा कि वे एलईडी बल्बों का उपयोग कम कीमत और बिजली बिल में कमी के कारण कर रहे हैं। इसलिए, बाज़ार में एलईडी की ओर झुकाव को बनाए रखने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले एलईडी बल्ब की उपलब्धता सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है। इसके लिए एलईडी बल्बों के लिए स्टार रेटिंग कार्यक्रम के बारे में उपभोक्ताओं को जागरूक बनाना और नियमों के सख्ती से अनुपालन की आवश्यकता होगी।

यह सर्वेक्षण इस बात को भी रेखांकित करता है कि परिवार के व्यवहार पर बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता का प्रभाव होता है। उत्तर प्रदेश में लगभग 45 प्रतिशत ग्रामीण परिवार अभी भी प्रकाश व्यवस्था के लिए विकल्प के रूप में केरोसिन चिमनी का उपयोग करते हैं जो घर के अंदर प्रदूषण और दुर्घटनाओं का कारण बन सकती है। अर्ध-शहरी और ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों में बैटरी और सौर लैंप के साथ एकीकृत एलईडी बल्बों का स्वामित्व 11-14 प्रतिशत है। ये विकल्प नियमित एलईडी बल्बों की तुलना में महंगे हैं, लेकिन कम आय वाले परिवार तक यही विकल्प चुन रहे हैं। दूसरी ओर महाराष्ट्र में, अपेक्षाकृत कम परिवार वैकल्पिक प्रकाश स्रोतों का उपयोग करते हैं।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि दोनों राज्यों के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्र के विभिन्न आय वर्गों के परिवारों में एलईडी को व्यापक रूप से अपनाया गया है। उत्तर प्रदेश के परिवारों ने फिलामेंट बल्बों या प्रकाश व्यवस्था के सर्वथा अभाव से सीधे एलईडी को अपनाया है, जबकि महाराष्ट्र के लोग धीरे-धीरे सीएफएल से एलईडी की ओर बढ़ रहे हैं। सर्वेक्षण का एक निष्कर्ष यह है कि सरकार और अन्य सम्बंधित किरदारों के लिए यह ज़रूरी है कि वे बाज़ार में एलईडी की ओर हो रहे परिवर्तन को बनाए रखने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले एलईडी बल्बों की उपलब्धता सुनिश्चित करें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.unenvironment.org/sites/default/files/2018-09/GEF_LED-CM_INDIA_EESL-27.jpg

बिजली आपूर्ति में गुणवत्ता की समस्या – आदित्य चुनेकर और श्वेता कुलकर्णी

प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000 घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019 में एक सर्वेक्षण किया था। यहां उस सर्वेक्षण के आधार पर बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता पर परिवारों की समझ और उनके बिजली के उपयोग पर इसके प्रभाव पर चर्चा की गई है। इसी श्रंखला के आगामी लेखों में ऊर्जा से सम्बंधित अन्य मुद्दों, जैसे वातानुकूलन, खाना पकाना, प्रकाश व्यवस्था आदि की चर्चा की जाएगी।

वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) द्वारा बिजली की आपूर्ति व सेवा की गुणवत्ता घरेलू उपकरणों के उपयोग को काफी प्रभावित करती है; ये वे उपकरण हैं जो परिवार के जीवन स्तर में सुधार ला सकते हैं। बिजली आपूर्ति की घटिया क्वालिटी (जैसे बार-बार बिजली जाना और वोल्टेज में उतार-चढ़ाव) उपकरणों को नुकसान पहुंचा सकती है या उनकी आयु कम कर सकती है। घटिया क्वालिटी का एक परिणाम यह होता है कि कई घरों में सौर लैंप, इनवर्टर या वोल्टेज स्टेबलाइज़र्स वगैरह में निवेश किया जाता है। अन्य परिवार या तो उपकरणों का उपयोग कम कर देते हैं या फिर खरीदते ही नहीं।

भारत में ग्रामीण विद्युतीकरण कार्यक्रमों के ज़रिए लगभग सभी घरों में बिजली पहुंचाने में सफलता मिल चुकी है। जैसा कि विद्युत मंत्रालय के आगामी वितरण योजना के प्रारूप में परिलक्षित होता है, अब चर्चा विश्वसनीय और अच्छी गुणवत्ता की आपूर्ति प्रदान करने की दिशा में हो रही है ताकि सभी को चौबीसों घंटे बिजली उपलब्ध कराई जा सके। हमारा सर्वेक्षण बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता को लेकर परिवारों के एहसास पर केंद्रित है क्योंकि इसका असर उपकरणों की खरीद और उपयोग के निर्णयों पर होता है। हम 2015 से अपने विद्युत आपूर्ति निगरानी कार्यक्रम (ESMI) के तहत भारत भर में लगभग 400 स्थानों पर वास्तविक बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता की निगरानी भी करते रहे हैं। सभी स्थानों से प्राप्त मिनट-वार डैटा और उनके विश्लेषण के आधार पर तैयार रिपोर्ट सार्वजनिक रूप से www.watchyourpower.org पर उपलब्ध है।

महाराष्ट्र सभी घरों तक बिजली पहुंचाने में पहुंचाने में अग्रणी रहा है, जबकि उत्तर प्रदेश हाल ही में इस श्रेणी में शामिल हुआ है। 2011 की जनगणना के अनुसार, महाराष्ट्र में लगभग 84 प्रतिशत परिवार प्रकाश के प्राथमिक रुाोत के रूप में बिजली का उपयोग करते थे, जबकि उत्तर प्रदेश में मात्र 37 प्रतिशत। लगभग यही स्थिति हमारे नमूना सर्वेक्षण में भी सामने आई। महाराष्ट्र में हमारे द्वारा चयनित परिवारों के विद्युतीकरण का औसत वर्ष 1994 है जबकि उत्तर प्रदेश में 2006 है। उत्तर प्रदेश में लगभग 45 प्रतिशत सर्वेक्षित परिवारों को 2011 के बाद विद्युतीकृत किया गया है।

आपूर्ति के घंटे प्रदाय की गुणवत्ता का एक प्रमुख मापदंड है। सर्वेक्षित घरों में आपूर्ति के घंटे उत्तर प्रदेश की तुलना में महाराष्ट्र में अधिक थे। महाराष्ट्र में औसत दैनिक आपूर्ति लगभग 22 घंटे और उत्तर प्रदेश में 15 घंटे रही। वैसे इस संदर्भ में विभिन्न परिवारों के बीच काफी विविधता भी देखी गई (तालिका देखें)। महाराष्ट्र में अर्ध शहरी क्षेत्र के परिवारों को ग्रामीण परिवारों की तुलना में लगभग 40 मिनट अधिक आपूर्ति मिलती है, जबकि उत्तर प्रदेश में यह अंतर लगभग 2 घंटे का है।

बिजली आपूर्ति की कुल अवधि के बराबर महत्व बिजली कटौती की प्रकृति का भी होता है। बार-बार बिजली जाए, तो लाइटिंग उपकरणों और मोटरों को नुकसान पहुंच सकता है, जिनमें आजकल काफी इलेक्ट्रॉनिक पुर्ज़े लगे होते हैं। उत्तर प्रदेश में लगभग 42-47 प्रतिशत परिवारों ने बताया बिजली कई मर्तबा जाती है और अप्रत्याशित ढंग से जाती है, जबकि महाराष्ट्र में यह संख्या लगभग 26-28 प्रतिशत थी। बिजली गुल होने की अप्रत्याशित प्रकृति से परिवार के लिए उपकरणों के उपयोग की योजना बनाना मुश्किल हो जाता है।

वोल्टेज भी बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता का एक और मापदंड है जिसमें वोल्टेज में उतार-चढ़ाव, असंतुलन, अचानक घटना-बढ़ना जैसे कई मुद्दे शामिल हो सकते हैं। उपभोक्ताओं को वोल्टेज की समस्या का अनुभव प्राय: उतार-चढ़ाव के रूप में होता है। ऐसे उतार-चढ़ाव उपकरणों को गंभीर नुकसान पहुंचा सकते हैं। यूपी में लगभग 50-60 प्रतिशत घरों में वोल्टेज में उतार-चढ़ाव का अनुभव हुआ, जबकि महाराष्ट्र में लगभग 24-26 प्रतिशत। दोनों राज्यों में अर्ध-शहरी और ग्रामीण घरों में वोल्टेज में उतार-चढ़ाव का अनुभव हुआ है।

दोनों राज्यों में ग्रामीण व अर्ध-शहरी दोनों क्षेत्रों में वोल्टेज में उतार-चढ़ाव का अनुभव समान रूप से किया गया है। आपूर्ति की क्वालिटी की समस्या के कारण परिवारों को क्षतिग्रस्त उपकरणों की मरम्मत के अलावा बिजली बैकअप या इसी तरह के वैकल्पिक इंतज़ाम पर पैसा खर्च करना पड़ता है। उत्तर प्रदेश में खराब आपूर्ति का एक प्रमाण यह है कि वहां वैकल्पिक प्रकाश व्यवस्था ज़्यादा घरों में नज़र आती है और उपकरण क्षति के मामले भी ज़्यादा दिखाई देते हैं। लगभग 34 प्रतिशत घरों, जिनमें निम्न आय वर्ग के काफी घऱ हैं, में अभी भी वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में कैरोसीन की चिमनी का उपयोग होता है। ये चिमनियां घरों के अंदर प्रदूषण और दुर्घटनाओं का कारण बन सकती हैं। इसके अलावा, 38 प्रतिशत अन्य परिवार बैटरी युक्त सोलर लैंप या एलईडी बल्ब का उपयोग करते हैं। लगभग 47 प्रतिशत घरों में खराब आपूर्ति के कारण किसी न किसी प्रकार के उपकरण के नुकसान की सूचना है। 28 प्रतिशत घरों (अधिकतर मध्यम व उच्च आय) में उपकरणों की सुरक्षा के लिए वोल्टेज स्टेबलाइज़र्स का उपयोग होता है जबकि लगभग 31 प्रतिशत ने बिजली कटौती की समस्या से निपटने के लिए इनवर्टर खरीदा है। दूसरी ओर, महाराष्ट्र में सर्वेक्षित घरों में इनवर्टर और स्टेबलाइज़र्स 5 प्रतिशत से भी कम परिवारों के पास हैं और मात्र 6 प्रतिशत घरों में खराब आपूर्ति से उपकरणों का नुकसान हुआ है।

विश्वसनीय और अच्छी गुणवत्तापूर्ण आपूर्ति प्रदान करने की डिस्कॉम की क्षमता में योगदान करने वाले कारकों में से एक उपभोक्ताओं से राजस्व की वसूली है, जिसका उपयोग वितरण नेटवर्क को मज़बूत करने और रख-रखाव के लिए किया जा सकता है। सही और समय पर मीटर वाचन और बिल वितरण उपभोक्ताओं में विश्वास बनाने में मदद करता है, तथा चोरी और छेड़छाड़ का पता लगने पर राजस्व में सुधार होता है। ग्रामीण उत्तर प्रदेश में लगभग 24 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में मीटर नहीं है, जबकि अन्य 12 प्रतिशत में गैर-कामकाजी मीटर हैं। अर्ध-शहरी क्षेत्रों में स्थिति बेहतर है जहां लगभग 95 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में कामकाजी मीटर हैं। बिलिंग के मामले में, लगभग 82 प्रतिशत अर्ध-शहरी परिवारों को नियमित बिजली बिल प्राप्त होता है, जबकि ग्रामीण परिवारों के लिए यह संख्या केवल 42 प्रतिशत है। दूसरी ओर महाराष्ट्र में, अर्ध-शहरी और ग्रामीण दोनों घरों में लगभग 98 प्रतिशत में मीटर हैं और उन्हें नियमित रूप से बिल प्राप्त होते हैं।

आपूर्ति की गुणवत्ता डिस्कॉम के प्रति परिवारों की संतुष्टि में झलकती है।  उत्तर प्रदेश के केवल 54 प्रतिशत ग्रामीण और 61 प्रतिशत अर्ध-शहरी परिवार अपने डिस्कॉम से संतुष्ट थे, जबकि महाराष्ट्र में यह संख्या लगभग 80 प्रतिशत है।

हालांकि महाराष्ट्र उत्तर प्रदेश की तुलना में बेहतर है, लेकिन सर्वेक्षण से पता चलता है कि दोनों राज्यों में गुणवत्ता की दिक्कतें मौजूद हैं। घरों में बिजली का अधिक सार्थक उपयोग संभव बनाने के लिए सेवा की गुणवत्ता में सुधार के उपाय आवश्यक हैं।

अगले आलेख में, घरों में बिजली के सबसे बुनियादी उपयोग, प्रकाश व्यवस्था की बात करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.iea.org/media/news/2018/181213WEOElectricityCommentary.jpg

सस्ती सौर ऊर्जा जीवाश्म र्इंधन को हटा रही है

लॉस एंजेल्स, कैलिफोर्निया के अधिकारी जल्द ही एक सौदा करने वाले हैं जो सौर ऊर्जा को पहले से कहीं अधिक सस्ता कर देगा और उसकी एक प्रमुख खामी से भी निपटेगा – सौर ऊर्जा तभी उपलब्ध होती है जब सूरज चमक रहा हो। इस सौदे के तहत एक विशाल सौर फार्म स्थापित किया जाएगा जहां दुनिया की एक सबसे बड़ी बैटरी का इस्तेमाल किया जाएगा। 2023 तक यह शहर को 7 प्रतिशत बिजली प्रदान करेगा। इसकी लागत होगी बैटरी के लिए 1.3 सेंट प्रति युनिट और सौर ऊर्जा के लिए 1.997 सेंट प्रति किलोवाट घंटा। यह किसी भी जीवाश्म र्इंधन से उत्पन्न उर्जा से सस्ता है।

स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी, कैलिफोर्निया के वायुमंडलीय वैज्ञानिक मार्क जैकबसन के अनुसार बड़े पैमाने पर उत्पादन के चलते नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन और बैटरियों की कीमतें नीचे आती रहती हैं।

बैटरी भंडारण के मूल्य में तेज़ी से गिरावट के चलते नवीकरण को प्रोत्साहन मिला है। मार्च में ब्लूमबर्ग न्यू एनर्जी फाइनेंस द्वारा 7000 से अधिक वैश्विक भंडारण परियोजनाओं के विश्लेषण से मालूम चला है कि 2012 के बाद से लीथियम बैटरी की लागत में 76 प्रतिशत की कमी आई और पिछले 18 महीनों में 35 प्रतिशत कम होकर 187 डॉलर प्रति मेगावाट-घंटा हो गई। एक अन्य अध्ययन के अनुसार 2030 तक इसकी कीमतें आधी होने का अनुमान है जो 8-मिनट सोलर एनर्जी नामक कंपनी  के अनुमान से भी कम है।

यही कंपनी नवीन सौर-प्लस-स्टोरेज कैलिफोर्निया में तैयार करने जा रही है। इस परियोजना से प्रतिदिन 400 मेगावाट सौर संयंत्रों का जाल बनाया जाएगा, जिससे सालाना लगभग 8,76,000 मेगावॉट घंटे (MWh) बिजली पैदा होगी। यह दिन के समय 65,000 से अधिक घरों के लिए पर्याप्त होगी। इसकी 800 मेगावॉट घंटे की बैटरी सूरज डूबने के बाद बिजली भंडार करके रखेगी, जिससे प्राकृतिक गैस जनरेटर की ज़रूरत कम हो जाएगी।

बड़े पैमाने पर बैटरी भंडारण आम तौर पर लीथियम आयन बैटरी पर निर्भर करता है। लेकिन बैटरी ऊर्जा भंडारण आम तौर पर केवल कुछ घंटों के लिए बिजली प्रदान करते हैं। इसको बादल आच्छादित मौसम या सर्दियों की स्थिति में लंबे समय तक चलने के लिए विकसित करने की आवश्यकता है।

100 प्रतिशत नवीकरणीय वस्तुओं पर जाने के साथ-साथ साथ स्थानीय कंपनियां भी ग्रिड बैटरियों की ओर तेज़ी से बढ़ा रही हैं। जैकबसन के अनुसार, 54 देशों और आठ अमेरिकी राज्यों को 100 प्रतिशत नवीकरणीय बिजली की ओर जाने की आवश्यकता है।

लॉस एंजेल्स परियोजना वैसे तो सस्ती लगती है, लेकिन ग्रिड को पूरी तरह से नवीकरणीय संसाधनों से उर्जा प्रदान करने से लागत बढ़ सकती है। पिछले महीने ऊर्जा अनुसंधान कंपनी वुड मैकेंज़ी ने अनुमान लगाया था कि इसके लिए अकेले यूएस ग्रिड के लिए 4.5 ट्रिलियन डॉलर की लागत होगी, जिसमें से लगभग आधी लागत 900 बिलियन वॉट या 900 गीगावॉट (GW) बैटरी और अन्य ऊर्जा भंडारण प्रौद्योगिकियों के स्थापित करने के लिए उपयोग हो जाएगी।  ( स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://specials-images.forbesimg.com/imageserve/684160330/960×0.jpg?fit=scale