असली यानी जैविक पिता का सवाल

डॉ. सुशील जोशी

पको कैसा लगेगा यदि अचानक आपको पता चले कि आप जिस व्यक्ति को अपना पिता मानते आए हैं, वह जैविक रूप से आपका पिता (biological father) नहीं है। छोटे समय की बात छोड़िए, लेकिन यदि आपको अपनी कई पीढ़ियों की वंशावली में यह देखने को मिले कि उसमें किसी पीढ़ी में किसी संतान का पिता वह नहीं था, जिसे सामाजिक या कानूनी रूप (family history, genetic ancestry) से पिता माना गया था। इसी के साथ यह बात भी जुड़ जाती है कि कोई भाई-भाई, बहन-बहन या भाई-बहन (siblings DNA test) वास्तव में सहोदर हैं या नहीं।

पितृत्व (जैविक तथा सामाजिक) का यह सवाल कई संस्कृतियों-समाजों में बहुत अहमियत रखता है। तो बेल्जियम स्थित केयू ल्यूवेन विश्वविद्यालय के जेनेटिक विज्ञानी मार्टेन लारमूसौ (Maarten Larmuseau) ने इस विषय की जांच-पड़ताल करने का विचार किया। सवाल था: कितने मामलों में महिला उन पुरुषों के साथ बच्चे पैदा करती हैं, जिनकी वे संगिनी (infidelity, paternity) नहीं हैं?

अधिकांश समाजों में सहोदर सम्बंध काफी हद तक सामाजिक रूप (kinship, social) से निर्मित होते हैं। इनमें दत्तक संतान या सौतेले परिवार भी शामिल होते हैं। लेकिन जैविक पिता के सवाल सहस्राब्दियों से परिवारों को तहस-नहस करते रहे हैं और सांस्कृतिक चिंताओं का कारण बनते रहे हैं। पारिवारिक-सामाजिक मुद्दों के अलावा बच्चे के जैविक पिता के बारे में जानना कभी-कभी अपराध विज्ञान (forensic science) या चिकित्सा (medical science) दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हो जाता है।

यह संभव है कि किसी बच्चे के पिता को लेकर संशय महिला द्वारा इरादतन किसी अन्य पुरुष से सम्बंध का परिणाम हो, लेकिन इस संदर्भ में यौन हिंसा अथवा दबाव के तहत यौन सम्बंधों को भी नकारा नहीं जा सकता। कभी-कभी ऐसा भी देखा गया है कि कानूनी पिता को मालूम होता है कि वह जैविक पिता नहीं है। ऐसे सारे प्रकरणों के लिए लारमूसौ जिस शब्द का इस्तेमाल करते हैं, वह है दम्पती-इतर पितृत्व (extra-pair paternity)। इसमें वे दत्तक अथवा विवाहेतर जन्मों को शामिल नहीं करते हैं, जहां पिता की जैविक पहचान ज्ञात होती है। उन्होंने यह जानने के लिए एक तकनीक विकसित की है कि दम्पती-इतर पितृत्व कितना सामान्य है।

सामाजिक रूप से संवेदनशील होने के कारण आम तौर पर जीव वैज्ञानिक मनुष्यों के संदर्भ में इस विषय को टाल देते हैं, हालांकि पशु-पक्षियों में यह अनुसंधान का एक प्रमुख विषय रहा है।

तो लारमूसौ ने क्या विधि अपनाई थी दम्पती-इतर पितृत्व के आकलन के लिए? इस खोजबीन का एक मज़ेदार अध्याय मशहूर पाश्चात्य संगीतकार बीथोवन से जुड़ गया था।

दरअसल, पीएचडी छात्र के रूप में लारमूसौ ने बाल्टिक और भूमध्यसागर में पाई जाने वाली एक मछली प्रजाति पर शोध किया था – सैण्ड गोबी (Pomatoschistus minutus)। गोबी के नर संतानोत्पत्ति में काफी योगदान देते हैं – वे घोंसला बनाते हैं और निषेचित अंडों की देखभाल करते हैं। दूसरी ओर, मादा तो अंडे देकर निकल जाती है। हां, यह ज़रूर है कि नर गोबी कभी-कभार अन्य नरों द्वारा बनाए गए घोसलों में घुसकर अंडों को निषेचित करके नौ-दो-ग्यारह हो जाता है। नतीजतन उस घोंसले का निर्माता नर किसी अन्य की संतानों की परवरिश करता है। इसके चलते सैण्ड गोबी दम्पती-इतर पितृत्व के अध्ययन के लिए उम्दा जंतु माना जाता है।

एक अपराध विज्ञान प्रयोगशाला में काम करते हुए लारमूसौ के मन में विचार आया कि मनुष्यों में इसी तरह का व्यवहार हो तो उसके चलते डीएनए विश्लेषण की मदद से लाशों की पहचान तथा अपराधों के अन्वेषण में मुश्किलें पैदा हो सकती हैं। लेकिन उस विषय में बात करना बहुत कठिन था। पशु-पक्षियों के बारे में तो दम्पती-इतर पितृत्व को लेकर काफी साहित्य उपलब्ध है, लेकिन इन्सानों के बारे में हम ज़्यादा नहीं जानते।

प्रामाणिक आंकड़ों के अभाव में वैज्ञानिक अटकलों का सहारा लेते थे। जैसे जीव वैज्ञानिक जेरेड डायमंड ने अपनी पुस्तक दी थर्ड चिम्पैंज़ी: दी इवॉल्यूशन एंड फ्यूचर ऑफ ह्युमैन एनिमल में दावा किया था कि इन्सानों में सामाजिक रूप से मान्य सम्बंधों के बाहर यौन सम्बंध लगभग 5 से 30 प्रतिशत होते हैं। इसी प्रकार से, रीडिंग विश्वविद्यालय के जीव वैज्ञानिक मार्क पेजल ने कहा था कि जन्म के समय मानव शिशुओं के बीच भेद करने में मुश्किल जैव विकास के दौरान विकसित हुई है ताकि उनकी वास्तविक वल्दियत उजागर न हो।  

अंतत: एक आम सहमति उभरी जो मूलत: जेनेटिक पितृत्व निर्धारण के शुरुआती प्रयासों पर आधारित थी। दी लैंसेट में प्रकाशित एक लेख में सैली मैकिन्टायर और एनी सूमैन ने बताया था कि लगभग 10 प्रतिशत बच्चे विवाहेतर सम्बंधों के परिणाम होते हैं। हालांकि इस आंकड़े के सत्यापन अथवा खंडन के लिए ठोस आंकड़े नहीं थे लेकिन पत्रकार और शोधकर्ता इसे बार-बार दोहराते रहे और यह स्थापित ‘तथ्य’ बन गया।

लेकिन यदि 10 प्रतिशत विवाहेतर संतानों का आंकड़ा सही है, तो कई वंशावलियां बेकार हो जाएंगी। रोचक बात यह रही कि स्वयं लारमूसौ के पर-काका अपने परिवार का इतिहास जानने को उत्सुक थे लेकिन 10 प्रतिशत की बात सुनकर उनका उत्साह जाता रहा था। अलबत्ता, लारमूसौ लगे रहे। पहले उन्होंने अपने ही परिवार का इतिहास खंगाला। अंतत: उन्होंने अपनी सोलह से अधिक पीढ़ियों के हज़ारों पूर्वजों का एक चार्ट बना लिया। वे सोचने लगे कि कहीं जेरेड डायमंड और अन्य शोधकर्ता सही तो नहीं हैं? और इनमें से कितने सामाजिक व कानूनी पूर्वज उनके जैविक पूर्वज भी हैं।

इस संदर्भ में मौजूदा प्रमाण विवादास्पद हैं। पितृत्व जांच पर आधारित अनुमान पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं, क्योंकि जो लोग पैसा खर्च करके ऐसे परीक्षण करवाते हैं, उनके मन में पहले से ही दम्पती-इतर संतान होने की शंका रहती है। अस्थि मज्जा दानदाताओं के सैम्पल्स तथा अन्य स्रोतों से पता चलता था कि आधुनिक आबादियों में दम्पती-इतर संतानोत्पत्ति की दर कम है, लेकिन वह शायद यौन-सम्बंधों को लेकर व्यवहार में परिवर्तन की वजह से नहीं बल्कि आधुनिक गर्भनिरोधकों की उपलब्धता के कारण भी हो सकता है। और सड़क चलते लोगों से उनके यौन व्यवहार के बारे में पूछना ‘आ बैल सींग मार’ जैसी स्थिति पैदा कर सकता है। यानी वर्तमान का अध्ययन करना कठिन है और लारमुसौ ने अतीत का रुख किया।

उन्होंने 2009 में स्थानीय स्तर पर 1400 के दशक से शुरू करके वंशावलियां एकत्रित कीं। इसमें उन्हें बेल्जियन व डच वंशावली तथा विरासत को लेकर उत्साहित लोगों की मदद मिली। फिर उन्होंने स्वतंत्र रूप से इन वंशावलियों का सत्यापन किया। जब शौकिया लोगों के पास जानकारी नहीं थी, तो उन्होंने जनगणना के आर्काइव्स को खंगाला और फ्लेमिश व डच गिरजाघरों में विवाह तथा बप्तिज़्मा के रिकॉर्डों को खंगाला।

पुराने दस्तावेज़ों से शुरू करके लारमूसौ ने आज जीवित ऐसे हज़ारों पुरुषों को ढूंढ निकाला जो वंशावली रिकॉर्ड के मुताबिक अपने पिता की ओर से दूर के रिश्तेदार होना चाहिए। अगला कदम यह था कि उनके डीएनए प्राप्त करके इस अधिकारिक विरासत की जांच की जाए।

इसके लिए ज़रूरी था कि उन व्यक्तियों से संपर्क हो पाए। इस काम में स्थानीय इतिहास समितियों ने उनकी मदद की। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि लारमूसौ ने उन व्यक्तियों को फोन कर दिया या सीधे उनके घर का दरवाज़ा खटखटाया। साथ में वे डीएनए सैम्पल लेने के लिए ज़रूरी सामान और सम्मति पत्र भी लेकर पहुंचे। कभी-कभी तो गांव में एक ही सरनेम वाले व्यक्तियों से कहा कि वे अपने डीएनए परीक्षण करवा लें। एक ही सरनेम से वे मानकर चले थे कि वे सारे व्यक्ति पिता की ओर से पारिवारिक सम्बंधी होंगे। एक साल में उन्होंने 300 परिवारों से संपर्क किया और पुरुषों को बता दिया कि वे उनके पूर्वजों में दम्पती-इतर सम्बंधों की तलाश कर रहे हैं। यदि थोड़ी भी हिचक दिखी तो उस परिवार को अध्ययन में शामिल नहीं किया।

मुंह से लिए गए स्वाब में वाय गुणसूत्र मिला। गौरतलब है कि वाय गुणसूत्र पिता से पुत्र को मिलता है। और यह प्रक्रिया पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। एक पीढ़ी से अगली को हस्तांतरित होते समय इस वाय गुणसूत्र में कोई परिवर्तन नहीं आता। नतीजतन, यदि दो व्यक्ति ऐसे मिलते हैं, जिनके वाय गुणसूत्र मेल खाते हैं तो उनका कोई दादा, पर-दादा, पर-पर-दादा एक ही होगा, भले ही उन दोनों व्यक्तियों को इसकी भनक तक न लगी हो।

लेकिन इसका उलट भी होता था। किन्हीं दो व्यक्तियों की वंशावली तो बताती थी कि उनमें वाय गुणसूत्र का मिलान होना चाहिए लेकिन होता नहीं था। यदि वाय गुणसूत्र मेल नहीं खाते थे, तो इसका मतलब है कि बीच में कभी तो कोई ‘अन्य’ पुरुष शामिल था। लारमूसौ के लिए यह इस बात का प्रमाण होता था कि उस वंशवृक्ष में कम से कम एक मामला दम्पती-इतर पितृत्व का रहा होगा। फिर उन्होंने सांख्यिकीय मॉडल की मदद से यह निर्धारण करने का प्रयास किया कि यह घटना कितनी पीढ़ियों पूर्व हुई होगी। 2013 में एक प्रारंभिक अनुमान प्रकाशित करने के बाद भी वे आंकड़े एकत्रित करते रहे। 2019 में उन्होंने करंट बायोलॉजी (current biology) में एक शोध पत्र प्रकाशित किया। यह शोधपत्र दूर के रिश्तेदार 513 पुरुष जोड़ियों के वाय गुणसूत्र (chromosome, DNA) की जांच पर आधारित था। इसमें लारमूसौ ने अनुमान व्यक्त किया था कि बेल्जियम और नेदरलैंड में पिछले 500 वर्षों में दम्पती-इतर पितृत्व की दर लगभग 1.5 प्रतिशत रही।

युरोप में अन्यत्र किए गए अध्ययनों के आधार पर लारमूसौ और अन्य शोधकर्ताओं ने लगभग ऐसे ही नतीजे प्राप्त किए हैं: मध्य युगीन युरोप में किसी बच्चे के रिकॉर्डेड पिता जेनेटिक पिता न हों, इसकी संभावना 1 प्रतिशत या उससे भी कम (medieval records) है।

अब बात लौटती है मशहूर संगीतज्ञ लुडविग बीथोवन (1770-1827) (Beethoven) पर। एक सेलेब्रिटी होने के नाते यह प्रकरण काफी सनसनीखेज था। अलबत्ता, लारमूसौ और उनके शौकिया वंशावलीविद साथी वाल्टर स्लूइट्स का मकसद थोड़ा अलग था (celebrity, heritage)। जो बीथोवन जीवित थे, उनके वाय गुणसूत्र का मिलान मशहूर संगीतकार लुडविग बीथोवन के संरक्षित रखे बालों से मिले डीएनए से करके देखना। बालों का यह गुच्छा लुडविग बीथोवन के मित्रों ने स्मृति के रूप में सहेजकर रखा था।

2019 में शोधकर्ताओं ने वर्नर बीथोवन और उनके कुछ दूर के रिश्तेदारों से संपर्क करके पूछा कि क्या वे अपना डीएनए देंगे। इसके चार साल बाद लारमूसौ ने वर्नर तथा चार अन्य जीवित बीथोवन्स को नतीजे सुनाए: मशहूर संगीतकार (लुडविग बीथोवन) का वाय गुणसूत्र चार जीवित बीथोवन के किसी साझा पूर्वज से नहीं आया था, बल्कि किसी अज्ञात पुरुष से आया था। हो सकता है कि यह विषमता लुडविग के जन्म से पहले किसी पीढ़ी में विवाहेतर सम्बंध का परिणाम थी। वर्नर बीथोवन का तो दिल ही टूट गया – सबसे मशहूर बीथोवन तो बीथोवन ही नहीं था!

इसी खोजबीन से एक और मज़ेदार व आश्चर्यजनक बात पता चली थी – जब मातृवंश का विश्लेषण माइटोकॉण्ड्रिया के आधार पर किया गया तो लुडविग बीथोवन का जेनेटिक सम्बंध जेम्स वॉटसन के साथ दिखा; वही जेम्स वॉटसन जिन्हें डीएनए की संरचना का खुलासा करने के लिए संयुक्त रूप से नोबेल पुरस्कार मिला था। गौरतलब है कि सारी संतानों को माइटोकॉण्ड्रिया मां से मिलता है, और इसमें पिता का कोई योगदान नहीं होता।

लेकिन ज़रूरी नहीं है कि लुडविग के पितृत्व में यह पेंच इरादतन बेवफाई या दगाबाज़ी का नतीजा हो। मसलन, साहित्य में इस बात का ज़िक्र कई मर्तबा आता है कि वंध्या पुरुष संतान प्राप्ति के लिए अपनी पत्नी को किसी अन्य पुरुष के साथ सम्बंध बनाने को प्रोत्साहित करते हैं। कुछ मामले यौन हिंसा अथवा दबाव के कारण भी हो सकते हैं।

इसके रूबरू गैर-युरोपीय समाजों के आंकड़ों में जैविक पितृत्व और सांस्कृतिक मर्यादाओं के प्रति ज़्यादा जुनून नज़र आता है। जैसे 2012 में मिशिगन विश्वविद्यालय के वैकासिक मानव वैज्ञानिक बेवरली स्ट्रासमैन ने माली के डोगन समाज में दम्पती-इतर पितृत्व का विश्लेषण किया था। पारंपरिक डोगन धर्म के अनुयायियों में गर्भनिरोध अपनाना बहुत कम होता है और परिणामस्वरूप महिलाएं अधिकांश समय या तो गर्भवती होती हैं या स्तनपान कराती होती हैं। बीच-बीच में जो छोटा-सा अंतराल होता है, जब महिलाएं माहवारी से होती हैं, उस दौरान वे घर के बाहर एक झोंप़ड़ी में रहती हैं। माहवारी झोंपड़ी (menstrual hut) में जाने का मतलब होता है कि वह जल्दी ही गर्भवती हो सकेगी। इस प्रथा के चलते पिता की पहचान छिपाना मुश्किल होता है और दम्पती-इतर पितृत्व की दर कम हो जाती है।

स्ट्रासमैन के मुताबिक इस तरह से स्त्री की यौनिकता की निगरानी और उस पर नियंत्रण कई समाजों (gender norms) में देखा जाता है। यह इस सोच का परिणाम है कि पुरुष पालनहार है (male parenting) और वह क्यों किसी अन्य के बच्चों की परवरिश करे। वाय गुणसूत्र डैटा के आधार पर स्ट्रासमैन का अनुमान है कि डोगन समुदाय (African statistics) में दम्पती-इतर पितृत्व की दर करीब 2 प्रतिशत है। वैसे डोगन-ईसाई माहवारी झोंपड़ी प्रथा का पालन नहीं करते उनमें यह दर पारंपरिक धर्मावलंबियों से लगभग दुगनी है।

ऐसा भी नहीं है कि जैविक पितृत्व का जुनून पूरे विश्व में एक समान हो। दक्षिण अमरीकी कबीलों (जैसे यानोमामी) में धारणा है कि एक ही महिला के साथ यौन सम्बंध बनाकर कई पुरुष बच्चों के पितृत्व में योगदान दे सकते हैं। नेपाल के न्यिम्बा समुदाय में एक महिला के एकाधिक पति हो सकते हैं। ये सभी उस महिला के बच्चों के पिता की भूमिका निभाते हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां पत्नी की बेवफाई की धारणा को मान्यता नहीं दी जाती है।

इसका सबसे अच्छा दस्तावेज़ीकरण नामीबिया के हिम्बा समुदाय का हुआ है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, लॉस एंजेल्स की ब्रुक स्केल्ज़ा यह देखकर चकित रह गई थीं कि हिम्बा गांवों में महिलाएं विवाहेतर साथियों द्वारा पैदा बच्चों के बारे में कितना खुलकर बात करती हैं। चकित होकर स्केल्ज़ा ने हिम्बा समुदाय में पितृत्व जांच का फैसला किया; पता चला कि इस समुदाय में दम्पती-इतर पितृत्व की दर 48 प्रतिशत है। और तो और, पिताओं को प्राय: पता होता था कि वे उनमें से किन बच्चों के जैविक पिता है लेकिन वे स्वयं को अपनी पत्नी के सारे बच्चों का कानूनी व सामाजिक पिता ही मानते थे। बेवफाई या धोखाधड़ी जैसी कोई बात नहीं है।

दम्पती-इतर पितृत्व की दर पर सामाजिक हालात का असर पड़ता है। इतिहासकारों के साथ काम करके, लारमूसौ ने बेल्जियम और नेदरलैंड्स में इन दरों का सम्बंध आमदनी, धर्म, सामाजिक वर्ग जैसे सामाजिक-आर्थिक कारकों के अलावा पिछले 500 वर्षों में हुए शहरीकरण से भी करके देखा। पाया गया कि दम्पती-इतर पितृत्व की दर में सबसे ज़्यादा वृद्धि उन्नीसवीं सदी में हुई थी, जब पूरे युरोप में शहर विकसित हो रहे थे और लोग कारखानों में नौकरी के लिए गांव छोड़-छोड़कर शहरों में बस रहे थे। लारमूसौ का अनुमान है कि बेल्जियम व नेदरलैंड्स के शहरों में दम्पती-इतर पितृत्व की दर 6 गुना बढ़कर 6 प्रतिशत हो गई थी। गांवों में तो हर स्त्री-पुरुष संपर्क पर निगाह होती है, जिसके चलते पति के अलावा किसी अन्य पुरुष के पिता होने की संभावना बहुत कम होती है। 

लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि दम्पती-इतर पितृत्व दर में वृद्धि का कारण यह था कि शहरों में महिलाओं को विवाहेतर साथी ढूंढने की ज़्यादा छूट मिल गई थी। लारमूसौ का मत है कि इसे ज़ोर-ज़बर्दस्ती और हिंसा के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए, जो सामाजिक उथल-पुथल के दौरान बढ़ रहे थे।

युरोप में भी सौतेले बच्चों, दत्तक संतानों की देखभाल करना वगैरह फैसले सोच-समझकर लिए जाते हैं और वे ऐसे बच्चों पर संसाधन निवेश करने को तैयार होते हैं, जो जैविक रूप से उनसे सम्बंधित नहीं हैं। तो कई वैज्ञानिकों का मत है कि गोबी मछली तथा अन्य जंतुओं की तरह मनुष्यों पर वही सिद्धांत लागू करना उचित नहीं होगा।

एक तथ्य यह है कि दुनिया भर में लोग अपनी वंशावली की छानबीन करने और दस्तावेज़ीकरण पर सालाना 5 अरब डॉलर खर्च करते हैं। लारमूसौ के मुताबिक बेल्जियम में 10 में से 7 लोगों की रुचि अपने पारिवारिक इतिहास में है। और तो और, वहां की सरकार भी ऐसे कामों के लिए फंड देती है।

किस्से में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब लारमूसौ ने वाय गुणसूत्र को छोड़कर माइटोकॉण्ड्रिया पर ध्यान केंद्रित किया। माइटोकॉण्ड्रिया के मिलान से मातृ-पूर्वज का वंशवृक्ष बनाया जा सकता है। दरअसल, माइटोकॉण्ड्रिया विश्लेषण की मदद से यह पता लगाने की कोशिश थी कि अज्ञात पिता होने की वजह यह तो नहीं कि दो मांओं के बीच बच्चों की अदला-बदली हो गई है। यानी यदि मातृ-वंश में कोई गड़बड़ी नज़र आती है, तो यह पता चल जाएगा पितृ-वंश में दिख रही गड़बड़ी दम्पती-इतर पितृत्व का मामला नहीं है।

लेकिन मातृवंश का निर्धारण आसान काम नहीं है – शादी के बाद प्राय: महिलाओं के सरनेम बदल जाते हैं और महिलाएं मायका छोड़कर ससुराल चली जाती हैं। इस पृष्ठभूमि में लारमूसौ ने वर्ष 2020 में वालंटियर्स को आव्हान किया और हज़ारों लोग आगे आए। महामारी के दौरान कई लोगों ने डिजिटल पैरिश जन्म व विवाह पंजीयन, नोटरी दस्तावेज़ों और संपत्ति के कागज़ातों के आधार पर अपनी मातृ-वंशावलियों का निर्माण किया। वाय गुणसूत्र के काम की तर्ज़ पर लारमूसौ और साथियों ने दूर-दूर की रिश्तेदार महिलाओं, जिनके साझा मातृ-पूर्वज होने चाहिए थे, के डीएनए सैम्पल लिए और देखा कि क्या उनकी कानूनी वंशावली जैविक वंशावली से मेल खाती है।

सैकड़ों लोगों की वंशावलियों की तुलना जब उनके माइटोकॉण्ड्रिया डीएनए से की गई तो कोई आश्चर्यजनक बात सामने नहीं आई। इससे लारमूसौ को यकीन हो गया कि पिता-आधारित वंशावलियों में जो दिक्कतें थी वे दम्पती-इतर पितृत्व की वजह से ही थीं, शिशुओं की अदला-बदली या गुपचुप दत्तक लेने के कारण नहीं।

इन अध्ययनों से जो निष्कर्ष मिले हैं, उनका ऐतिहासिक महत्व (history research) तो है ही, लेकिन अन्य कई प्रकरणों में भी ये उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। जैसे किसी दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा के मृतकों की पहचान के लिए डीएनए विश्लेषण का सहारा (disaster analysis) लिया जाता है। इसी प्रकार से दुर्लभ बीमारियों, जेनेटिक परामर्श और खानदानी रोगों के संदर्भ में भी सटीक वंशावली काम आती हैं (disease counseling)। लेकिन यदि दम्पती-इतर पितृत्व की दर 30 प्रतिशत या 10 प्रतिशत भी हो तो ये सारी कवायदें फिज़ूल साबित होंगी। यह सुखद समाचार है कि अधिकांश समाजों में यह दर 1 प्रतिशत से कम है। लेकिन संख्या के रूप में देखें तो यह काफी बड़ी संख्या है – दुनिया की आबादी 8 अरब मानें तो दम्पती-इतर संतानों की संख्या 8 करोड़ होगी। बताते हैं कि हर वर्ष करीब 3 करोड़ लोग घर बैठे डीएनए परीक्षण करवाते हैं। लारमूसौ कहेंगे कि इनमें से करीब 3 लाख लोग परिणाम देखकर भौंचक्के रह गए होंगे। हालांकि हो सकता है कि जो  गड़बड़ी नज़र आ रही है वह सैकड़ों साल पहले हुई हो। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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संक्रमण सुप्त कैंसर कोशिकाओं को जगा सकते हैं

चूहों पर हुए एक अध्ययन के अनुसार कोविड-19 (covid-19 infection) और फ्लू (flu infection) जैसे संक्रमण ‘सुप्त’ कैंसर कोशिकाओं को सक्रिय कर सकते हैं। नेचर (Nature journal study) में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक, ऐसे संक्रमण कुछ मरीज़ों में कैंसर से मौत का खतरा (cancer risk) लगभग दुगना कर सकते हैं।

दरअसल, कैंसर के इलाज (cancer treatment) में मुख्य ट्यूमर हटा देने के बाद भी कुछ कैंसर कोशिकाएं अस्थिमज्जा या फेफड़ों जैसी जगहों में छिपी रह सकती हैं। इन्हें सुप्त कैंसर कोशिकाएं (dormant cancer cells) कहते हैं, जो सालों तक निष्क्रिय रहती हैं लेकिन मौका मिलने पर मेटास्टेसिस (cancer metastasis) यानी कैंसर फैलने की वजह बन सकती हैं।

लेकिन इनके जागने का कारण क्या है? पूर्व अध्ययनों में पाया गया था कि धूम्रपान (smoking risk), उम्र बढ़ना (aging factor) या कुछ बीमारियों से होने वाला जीर्ण शोथ इसका कारण हो सकते हैं। लेकिन कोलोराडो युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन (Colorado University School of Medicine) के जेम्स डीग्रेगरी और उनकी टीम को लगा कि शायद सांस के संक्रमण (respiratory infection) से होने वाले गंभीर शोथ का भी इसमें हाथ हो सकता है।

इसे परखने के लिए उन्होंने चूहों को इस तरह तैयार किया कि उनमें स्तन कैंसर ट्यूमर बनें और फेफड़ों में सुप्त कैंसर कोशिकाएं मौजूद रहें। फिर इन चूहों को या तो SARS-CoV-2 (कोविड-19 वायरस) या इन्फ्लुएंज़ा (फ्लू) वायरस (Influenza virus)  से संक्रमित किया। नतीजे चौंकाने वाले थे। शोधकर्ताओं ने पाया कि संक्रमण के कुछ ही दिनों में सोई हुई कैंसर कोशिकाएं तेज़ी से बढ़ने लगीं और फेफड़ों में मेटास्टेटिक घाव (metastatic lesions) बनने लगे। इसका कारण सिर्फ वायरस नहीं, बल्कि इंटरल्यूकिन-6 (IL-6 -immune molecule) नाम का एक प्रतिरक्षा अणु था, जो संक्रमण से लड़ने में अहम भूमिका निभाता है।

जब वैज्ञानिकों ने ऐसे चूहों पर प्रयोग किया जिनमें IL-6 नहीं था, तो कैंसर कोशिकाओं की वृद्धि काफी धीमी रही। इससे साबित हुआ कि IL-6 इस प्रक्रिया का मुख्य कारक है। एक और चौंकाने वाली बात यह निकली कि हेल्पर T कोशिकाएं (Helper T cells), जो आम तौर पर बीमारियों से बचाव करती हैं, वे इन कैंसर कोशिकाओं को प्रतिरक्षा प्रणाली (immune system protection) के हमले से बचा रही थीं।

इन निष्कर्षों के बाद वैज्ञानिकों ने यूके बायोबैंक का डैटा (UK Biobank data) देखा और पाया कि जिन लोगों को कोविड-19 हुआ था, उनमें कैंसर से मरने का खतरा (cancer mortality risk) उन लोगों की तुलना में लगभग दुगना था जिन्हें कोविड नहीं हुआ। इसके अलावा यह खतरा संक्रमण के बाद (post-infection risk) शुरुआती कुछ महीनों में सबसे ज़्यादा था।

वैसे तो ये निष्कर्ष शुरुआती (initial research) हैं और अभी और अधिक अनुसंधान की ज़रूरत है। लेकिन चीज़ें और स्पष्ट होने तक संक्रमण (infection prevention) से एहतियात बरतना ही बेहतर होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या लीथियम याददाश्त बचाने में मददगार है?

लीथियम धातु (Lithium metal) का उपयोग फोन और लैपटॉप की बैटरियों में किया जाता है। लेकिन चिकित्सा, खासकर मानसिक स्वास्थ्य (mental health) सम्बंधी चिकित्सा, में भी लीथियम का उपयोग होता है। इसका उपयोग मूडवर्धक के तौर पर सॉफ्ट ड्रिंक तथा बाइपोलर डिसऑर्डर (bipolar disorder) में मूड स्विंग नियंत्रित करने के लिए किया जाता रहा है। और अब नेचर पत्रिका (Nature journal) में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन के अनुसार लीथियम याददाश्त और दिमाग की सेहत के लिए भी अहम हो सकता है।

इस अध्ययन में हारवर्ड (Harvard University) के न्यूरोसाइंटिस्ट ब्रूस यैंकनर और उनकी टीम ने मृत्यु के पश्चात सैकड़ों बुज़ुर्गों के मस्तिष्क का अध्ययन किया। इनमें से कुछ को अल्ज़ाइमर (Alzheimer’s disease) था, कुछ में हल्की स्मृतिभ्रंश (mild dementia) की समस्या थी, और बाकी पूरी तरह स्वस्थ थे। उन्होंने पाया कि अल्ज़ाइमर और मामूली संज्ञानात्मक समस्या (cognitive impairment) वाले लोगों के मस्तिष्क में लीथियम का स्तर स्वस्थ लोगों की तुलना में कम था। और तो और, ऐसे लोगों में जो लीथियम था वह भी ज़्यादातर अल्ज़ाइमर से जुड़े एमिलॉइड प्लाक (amyloid plaques) के बीच फंसा था जिससे दिमाग के सामान्य कार्य के लिए और भी कम लीथियम बचा था।

मस्तिष्क में लीथियम का कम स्तर मिलना सिर्फ पहला कदम था। इसके बाद टीम ने जांचा कि क्या लीथियम का स्तर बढ़ाने से मदद मिल सकती है। उन्होंने लीथियम ओरोटेट (Lithium orotate) नामक यौगिक को उन चूहों पर आज़माया जिन्हें आनुवंशिक रूप से अल्ज़ाइमर जैसे लक्षण विकसित करने के लिए तैयार किया गया था। गौरतलब है कि बाइपोलर डिसऑर्डर की चिकित्सा (bipolar disorder treatment) में लीथियम के एक अन्य लवण लीथियम कार्बोनेट (Lithium carbonate) का इस्तेमाल किया जाता है।

उन्होंने पाया कि जिन चूहों को पीने के पानी में थोड़ी मात्रा में लीथियम ओरोटेट दिया गया, उनमें एमिलॉइड प्लाक्स (amyloid plaques) या टाउ (tau protein) नहीं बना। यहां तक कि जिन वृद्ध चूहों की याददाश्त कमज़ोर हो चुकी थी, वे फिर से चीज़ों को पहचानने और भूल-भुलैया में रास्ता ढूंढने लगे। इसमें सबसे अहम बात यह रही कि इतनी कम मात्रा में लीथियम देने से किडनी (kidney health) या थायरॉयड (thyroid) को वह नुकसान नहीं हुआ जो कभी-कभी लीथियम कार्बोनेट से हो जाता है। दूसरी ओर, जिन चूहों को लीथियम की कमी वाला आहार दिया गया, उनकी याददाश्त कमज़ोर हो गई और उनके मस्तिष्क में और अधिक प्लाक्स बनने लगे।

गौरतलब है कि लीथियम प्राकृतिक रूप से चट्टानों, समुद्री पानी, कुछ सब्ज़ियों (जैसे पत्ता गोभी और टमाटर) और कुछ क्षेत्रों के पीने के पानी में पाया जाता है। फिर भी विशेषज्ञ इस खोज (scientific discovery) को काफी महत्वपूर्ण मानते हैं और एंटी-एमिलॉइड दवाओं (anti-amyloid drugs) में हालिया प्रगति के बावजूद, इसे एक प्रभावी उपचार (effective treatment) के रूप में देखते हैं।

हालांकि ये नतीजे उम्मीद जगाने वाले हैं, लेकिन महज़ इन नतीजों के आधार पर लीथियम सप्लीमेंट (lithium supplements) न लेने लगें। एक तो अभी यह अध्ययन बस चूहों पर हुआ है, दूसरा डॉक्टर की सलाह के बिना इसे न लें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भरपेट संतुलित भोजन कई बीमारियों के लिए टीके से कम नहीं

डॉ. अनुराग भार्गव

हाल ही में डॉ. अनुराग भार्गव ने PLOS Global Public Health के एक आलेख में पर्याप्त संतुलित पोषण और संक्रामक गैरसंक्रामक रोगों से बचाव के इतिहास पर विचार करते हुए बताया है कि भरपेट संतुलित आहार को टीके की संज्ञा देना उचित ही है। प्रस्तुत है उनके उपरोक्त आलेख का रूपांतरित सार।

यह तो जानी-मानी बात है कि जीवित रहने, स्वास्थ्य और बीमारियों के बचाव के लिए पोषण अनिवार्य है। 1970 के दशक में यह तक कहा गया था कि निमोनिया जैसे सांस सम्बंधी रोगों, दस्त (डायरिया) व अन्य आम संक्रमणों (infections) के विरुद्ध पर्याप्त भोजन ही सबसे कारगर टीका है। यह देखा जा चुका था कि कुपोषण की हालत में पूरक पोषण से संक्रमणों के प्रकोप में कमी आती है। हाल ही में झारखंड में एक परीक्षण किया गया था – रैशन्स (RATIONS) यानी रिड्यूसिंग एक्टिवेशन ऑफ ट्यूबरकुलोसिस थ्रू इम्प्रूवमेंट ऑफ न्यूट्रिशनल स्टेटस (अर्थात पोषण की स्थिति में सुधार के ज़रिए सक्रिय टीबी में कमी)। इस परीक्षण ने स्पष्ट रूप से दर्शाया है कि पूरक पोषण परिवारों में टीबी (TB) प्रकोप को 50 प्रतिशत तक कम करता और कुपोषित मरीज़ों में मृत्यु दर को भी 35-50 प्रतिशत तक कम कर सकता है।

टीका भी तो यही करता है कि व्यक्ति को किसी संक्रमण से लड़ने या बीमारी से बचने में मदद करता है और इस लिहाज़ से पोषण की भूमिका टीके की अवधारणा का विस्तार ही है।

1970 के दशक में पोषण विशेषज्ञ और विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) में पोषण निदेशक रहे डॉ. मॉइज़ेस बेहर ने अपने एक लेख में कहा था, एक ओर तो “टीकाकरण या पर्यावरण में सुधार जैसे विशिष्ट उपायों द्वारा संक्रामक रोगों (infectious diseases)  पर नियंत्रण से समुदाय की पोषण की स्थिति बेहतर होती है। दूसरी ओर, पर्याप्त भोजन संक्रामक रोगों के ज़्यादा गंभीर प्रभावों से सुरक्षा देता है; उन रोगों के संदर्भ में भी जिनके लिए हमारे पास सटीक या आसान उपाय उपलब्ध नहीं हैं। फिलहाल तो समुचित भोजन ही दस्त, श्वसन तथा अन्य आम संक्रमणों के विरुद्ध सबसे कारगर ‘टीका’ (vaccine) है।”

यह बात रैशन्स परीक्षण में प्रत्यक्ष रूप में सामने आई ही है, लेकिन इसके कई ऐतिहासिक प्रमाण भी उपलब्ध हैं। ये प्रमाण हमें बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में हुए कुछ ‘कुदरती प्रयोगों’ से मिले हैं।

कुछ अनायास प्रयोग

यू.के. में 1918 में टीबी मरीज़ों की देखभाल और पुनर्वास (rehabilitation) के लिए पैपवर्थ विलेज सेटलमेंट स्थापित किया गया था। इसके पीछे सोच यह थी कि मात्र सेनेटोरियम उपचार पर्याप्त नहीं है, बल्कि टीबी (tuberculosis) के मरीज़ों के लिए रोज़गार व सामुदायिक जीवन जैसे सहारे की भी ज़रूरत होती है। यहां रह रहे सक्रिय टीबी ग्रस्त मरीज़ों के संपर्क में आए परिवारों में टीबी के प्रकोप में जो 84 प्रतिशत की कमी आई थी, उसके लिए समुचित पोषण को मुख्य कारण माना गया था। आश्चर्य की बात यह थी कि उस दौरान टीबी संक्रमण के कुल प्रसार में कोई कमी नहीं आई थी मगर पोषण ने संक्रमण (infection) को बीमारी में परिवर्तित होने से बचा लिया था।

जर्मनी के युद्धबंदी शिविरों (prison camps) में ब्रिटेन तथा रूस के युद्धबंदी सैनिक (POW – पीओडब्ल्यू) एक जैसे हालात में रह रहे थे। देखा गया कि ऐसे एक शिविर में मात्र 1.2 प्रतिशत ब्रिटिश सैनिकों में ही टीबी विकसित हुई थी जबकि 15 प्रतिशत रूसी सैनिक टीबी से ग्रस्त हुए। यानी रूसी सैनिकों के मुकाबले ब्रिटिश सैनिकों में टीबी का प्रकोप 92 प्रतिशत कम रहा। इसका कारण इस तथ्य से जोड़कर देखा गया था कि रेड क्रॉस (red cross) द्वारा दिया जाने वाला अतिरिक्त पोषण पार्सल (1000 किलोकैलोरी तथा 30 ग्राम प्रोटीन) मात्र ब्रिटिश सैनिकों को मिलता था।

ऐसे ही एक अन्य युद्धबंदी शिविर में एक ब्रिटिश डॉक्टर आर्किबाल्ड कोक्रेन ने पाया था कि टीबी का प्रकोप रूसियों में 6 प्रतिशत, फ्रांसिसियों में 0.5 प्रतिशत और ब्रिटिश सैनिकों में शून्य प्रतिशत था। गौरतलब है कि फ्रांसिसियों को भी 1944 के बाद अतिरिक्त फूड पैकेट मिलना बंद हो गया था।

युद्धबंदी शिविरों में किए गए इन अवलोकनों के अलावा आम आबादी के आंकड़े भी यही कहानी कहते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2015-2023 के दरम्यान दुनिया भर में टीबी (global TB cases) के प्रकोप में 8.3 प्रतिशत तथा टीबी मृत्यु दर में 23 प्रतिशत की कमी आई है। सवाल यह उठता है कि रासायनिक उपचार और (टीबी के लिए) बीसीजी टीका (BCG vaccine) आने से पहले के दौर में टीबी के प्रकोप और टीबी से होने वाली मौतों की क्या स्थिति थी।

पहली बात तो यह है कि यू.के. जैसे जिन देशों में आज टीबी का बोझ कम है, वहां भी अतीत में टीबी का प्रकोप और टीबी से होने वाली मौतों का आंकड़ा काफी अधिक था। एक अनुमान के मुताबिक 1851 में यू.के. में श्वसन सम्बंधी टीबी (respiratory TB) से प्रति लाख आबादी में 268 मौतें होती थी। और तो और, वहां हर चार में से 1 मौत टीबी के कारण होती थी। गौर करने वाली बात यह है कि यू.के. में टीबी प्रकोप और मृत्यु में गिरावट रासायनिक उपचार (drug treatement of TB) और टीकाकरण जैसे उपाय लागू होने से पहले हो गई थी। 1891 में टीबी से होने वाली मौतों में 50 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी थी और यह मात्र 139 प्रति लाख रह गई थी।

यू.के. में 1913 में टीबी का प्रकोप प्रति एक लाख आबादी में 300 था और मृत्यु दर प्रति लाख आबादी में 100 थी और 1940 में यह इसकी 50 प्रतिशत रह गई थी। गौरतलब है कि टीबी के लिए रासायनिक उपचार 1947 में उपलब्ध हुआ था। रासायनिक उपचार शुरू होने से पहले यू.के. में टीबी प्रकोप 3 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से कम हो रहा था और उपचार उपलब्ध होने के बाद गिरावट की दर 10 प्रतिशत वार्षिक हो गई थी।

1962 में थॉमस मैककिओन का महत्वपूर्ण पर्चा प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने 1850 से 1950 की अवधि में यू.के. में टीबी सम्बंधी मौतों में गिरावट के विभिन्न कारकों का विश्लेषण किया था। उनका निष्कर्ष था कि टीबी प्रकोप में गिरावट का प्रमुख कारक जीवन स्तर (living standards) में सुधार, खासकर पोषण में सुधार रहा था। 1850 के दशक के बाद यू.के. में कामगारों की आमदनी में सुधार हुआ था। यह देखा गया था कि आमदनी में सुधार और श्वसन सम्बंधी टीबी से मृत्यु दर में गिरावट लगभग एक ही दर पर हुए थे। मैककिओन का सुझाव था कि बेहतर पोषण (improved nutrition) से व्यक्तियों में रोग के विरुद्ध प्रतिरोध पैदा होता है और यह मृत्यु दर में गिरावट का कारण बनता है। इसके पक्ष में उन्होंने कुछ परोक्ष प्रमाण भी प्रस्तुत किए थे।

वैसे नोबेल विजेता रॉबर्ट फोगेल ने 1850 से 1950 के बीच यू.के. में कैलोरी के उपभोग में वृद्धि (increase in calorie intake) के प्रत्यक्ष प्रमाण भी प्रस्तुत किए थे। इसी सम्बंध में एक और प्रमाण यह था कि 1870 से 1970 के बीच ब्रिटेन समेत युरोपीय लोगों के कद में औसतन 11 से.मी. (यानी प्रति दशक 1 से.मी.) की वृद्धि हुई थी। कद को किसी भी आबादी के पोषण व जीवन स्तर का एक सूचकांक माना जाता है।

इस बात के और भी प्रमाण प्रस्तुत हुए हैं कि यू.के. में टीबी के प्रकोप व मृत्यु दर में कमी का सम्बंध पोषण में सुधार से रहा है।

पोषण, संक्रमण और प्रतिरक्षा

1968 में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रकाशित एक मोनोग्राफ (monograph) में पोषण व संक्रमण के बीच दो-तरफा सम्बंध की समीक्षा की गई थी। मोनोग्राफ में स्पष्ट किया गया था कि पोषण की स्थिति टीबी समेत कई संक्रमणों (infections) की आवृत्ति, गंभीरता और मृत्यु दर पर असर डालती है और संक्रमण अपने तईं पोषण की स्थिति को बदतर करते हैं। इस परस्पर क्रिया के अनुकूली प्रतिरक्षा सम्बंधी क्रियामार्गों का खुलासा 1960 व 1970 के दशकों में हुआ। इसके बाद यह भी दर्शाया गया था कि कुपोषण (malnutrition) का प्रतिकूल असर शारीरिक अवरोधों, जन्मजात प्रतिरक्षा तथा अनुकूली प्रतिरक्षा के कई पहलुओं पर होता है। यह भी पता चला था कि टी-कोशिकाओं और मैक्रोफेज (macrophage) द्वारा प्रदत्त सुरक्षा टीबी से बचाव में महत्वपूर्ण होती है और कुपोषण टी-कोशिकाओं (T-cells) के कामकाज को कमज़ोर करता है।

टीबी की बीमारी होने के लिए संक्रमण ज़रूरी होता है लेकिन मात्र संक्रमण हो जाए तो टीबी नहीं होती – संक्रमण के बाद मात्र 10 प्रतिशत लोग ही सक्रिय टीबी की हालत में पहुंचते हैं। इसका मतलब है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र 90 प्रतिशत संक्रमणों को बीमारी तक पहुंचने से रोक लेता है। अर्थात सक्रिय टीबी के विकास का कुछ न कुछ सम्बंध तो प्रतिरक्षा तंत्र के कामकाज में गड़बड़ी से है।

यूएस सर्जन जनरल का मत है कि प्रतिरक्षा तंत्र की अर्जित कमज़ोरी (जिसे ठीक किया जा सकता है) का प्रमुख कारण कुपोषण है। जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय (John Hopkins University) के डॉ. विलियम बाइसेल ने इसे न्यूट्रिशनली एक्वायर्ड इम्यूनोडेफिशिएंसी (N-AIDS) यानी ‘कुपोषण की वजह से अर्जित प्रतिरक्षा अभाव’ की संज्ञा दी है। यह N-AIDS दुनिया भर में टीबी के बोझ का प्रमुख कारण है।

2022 में दुनिया भर में पांच साल से कम उम्र के 49 लाख बच्चों की मौत हुई थी (यानी रोज़ाना 13,000 से अधिक) और इनमें से आधी मौतें कुपोषण और संक्रमण के जानलेवा गठबंधन का परिणाम थीं।

1959 से 1964 के बीच ग्वाटेमाला (guatemala) में एक प्रयोग हुआ था। यहां एक गांव में चिकित्सा सुविधा या स्वच्छता व्यवस्था में कोई सुधार न करते हुए मात्र पूरक पोषण (supplementary nutrition) दिया गया था। इस गांव में संक्रमणों का प्रकोप काफी कम हुआ, बनिस्बत उस गांव के जहां उत्कृष्ट चिकित्सा सुविधाएं और साफ-सफाई व्यवस्था उपलब्ध कराई गई थी। गांवों के बीच अंतर उल्लेखनीय था – चार वर्षों की अवधि में पूरक पोषण प्राप्त करने वाले गांव में प्रति बच्चा 6.6 अस्वस्थताएं हुईं जबकि दूसरे गांव में 18.7 अस्वस्थता प्रति बच्चा।

भ्रूणावस्था का कुपोषण

शुरुआती जीवन में कुपोषण के सेहत पर असर नवजात शिशु (newborn) में, शैशवावस्था में, स्कूल-पूर्व उम्र में और जीवन भर देखे जाते हैं। मां का कुपोषण भ्रूण के कुपोषण में दिखता है जो जन्म के समय कम वज़न के रूप में सामने आता है। भ्रूणावस्था में कुपोषण का सम्बंध आगे चलकर गैर-संक्रामक रोगों (जैसे मोटापे(obesity), मधुमेह(diabetes), उच्च रक्तचाप(hypertension), हृदय रोगों (heart diseases) तथा गुर्दों के जीर्ण रोगों) (NCDs) से देखा गया है।

निम्न-मध्यम आमदनी वाले देशों (low-income countries) में गैर-संक्रामक रोगों का प्रकोप तेज़ी से बढ़ रहा है। इन देशों में जन्म के समय कम वज़न आम बात है। पिछले 30 वर्षों में अनुसंधान से प्रमाणित हुआ है कि उच्च रक्तचाप, डायबिटीज़, गुर्दा रोग जैसी बीमारियों की उत्पत्ति का सम्बंध विकसित होते भ्रूण को मिलने वाले पोषण में कमी से हो सकता है। यह इस बात की व्याख्या कर देता है कि क्यों भारत के निम्न आय वर्ग में भी ये रोग काफी व्याप्त हैं। वैसे इसका सम्बंध अस्वस्थ भोजन तथा सुस्त जीवनशैली से भी हो सकता है। अस्वस्थ भोजन का सम्बंध प्राय: खाद्यान्न असुरक्षा (food security) से देखा जाता है। पर्याप्त संतुलित भोजन के अभाव में प्रोसेस्ड भोजन (processed food) का उपभोग बढ़ता है जिसमें अत्यधिक शर्करा, संतृप्त वसाएं, सोडियम होते हैं लेकिन पोषक तत्वों का अभाव होता है। भारत में इसका असर डायबिटीज़ (जल्दी शुरू होने वाले) के बढ़ते प्रकोप में दिख रहा है। भ्रूणावस्था में कुपोषण के बाद यदि बढ़ती उम्र में अधिक ऊर्जा का सेवन किया जाए या प्रोटीन व कैलोरी का अभाव रहे तो डायबिटीज़ का जोखिम बढ़ सकता है।

जन्म के समय कम वज़न (low birth weight) का परिणाम शरीर की वृद्धि कम होने और संज्ञान के विलंबित विकास के रूप में सामने आ सकता है। लिहाज़ा, बच्चों को सबसे पहला टीका तो गर्भावस्था के दौरान महिला को पर्याप्त संतुलित आहार (balanced diet) के रूप में होगा।

जन स्वास्थ्य पर पोषण के असर का प्रथम प्रमाण तो ग्रेट ब्रिटेन द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध के समय अपनाई गई युद्धकालीन खाद्य नीति थी। इस नीति ने सारे नागरिकों के लिए, उनकी आमदनी की परवाह न करते हुए, ज़रूरी खुराक सुनिश्चित की थी। लोगों की खुराक में दूध और सब्ज़ियों के सेवन में क्रमश: 28 प्रतिशत और 34 प्रतिशत वृद्धि देखी गई जबकि मांस की खपत में 21 प्रतिशत की कमी आई। परिणाम यह रहा कि “शिशुओं, नवजात बच्चों और माताओं की मृत्यु दर न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई और एनीमिया का प्रकोप कम हुआ, स्कूली बच्चों की विकास दर तथा दांतों की सेहत बेहतर हुई, और आम आबादी का पोषण स्तर युद्ध-पूर्व की स्थिति से बेहतर हो गया।”

पर्याप्त संतुलित भोजन: एक कारगर टीका

उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है कि पर्याप्त संतुलित भोजन बीमारियों की रोकथाम (disease prevention) में अहम भूमिका निभाता है। एक मायने में यह टीके (vaccine alternative) का काम करता है। पर्याप्त संतुलित भोजन उसे कह सकते हैं जो व्यक्ति की उम्र, वज़न, काम के अनुसार पर्याप्त ऊर्जा व प्रोटीन प्रदान करे और विविध अनाजों, दालों, फलों, सब्ज़ियों, स्वस्थ वसाओं, मेवों, जंतु स्रोतों से प्राप्त भोजन (दूध, पोल्ट्री, मछली) की दृष्टि से संतुलित हो (balanced diet)। यह टीबी पैदा करने वाले एसिड-फास्ट बैसिली के विरुद्ध एक टीके की क्षमता रखता है। इसकी कई खूबियां इसे एक अनोखा टीका बनाती हैं।

पर्याप्त संतुलित भोजन रोग की रोकथाम का उपाय भी है और रोग हो जाने पर मुत्यु से बचाव का तरीका भी है। यह टीबी उपचार के दौरान कुपोषण सम्बंधी जोखिमों से बचाव कर सकता है। ये जोखिम काफी होते हैं। जैसे, रैशन्स परीक्षण में देखा गया था कि शुरुआत में लगभग आधे टीबी मरीज़ काफी कम वज़न वाले थे और अगले दो महीनों में उनका वज़न औसतन 5 प्रतिशत बढ़ा और मृत्यु का खतरा 60 प्रतिशत कम हुआ। इसके विपरीत जिन टीबी मरीज़ों को पोषण का सहारा नहीं दिया गया था, उनका वज़न पहले दो महीनों में या तो स्थिर रहा या कम होता गया। और मृत्यु का जोखिम पांच गुना अधिक रहा।

एक व्यवस्थित समीक्षा में यह भी देखा गया कि कम वज़न (underweight) का सम्बंध उपचार-उपरांत मृत्यु से भी है। कम वज़न वाले मरीज़ों में यह 14.8 प्रतिशत रही जबकि अन्य मरीज़ों में मात्र 5.6 प्रतिशत। जिन मरीज़ों का वज़न शुरुआत में कम था और परीक्षण के दौरान उनका वज़न पर्याप्त नहीं बढ़ा, उनमें टीबी (TB relapse) के फिर से सिर उठाने का ज़ोखिम लगभग दुगना रहा।

पर्याप्त संतुलित आहार टीके की खूबियां

  1. पर्याप्त संतुलित आहार (suffecient balanced diet) टीबी मरीज़ों के लिए रोकथाम और इलाज दोनों भूमिकाएं निभा सकता है – तत्काल व दीर्घावधि दोनों तरह के प्रतिकूल परिणामों के लिहाज़ से। यह बीमारी के रोकथाम (disease prevention) में तो कारगर है ही, साथ ही यह मृत्यु की रोकथाम तथा बीमारी के वापिस सिर उठाने से रोकथाम में भी कारगर है।
  2. पर्याप्त संतुलित आहार एक ऐसा टीका है जिसे मुंह से लिया जा सकता है और कोल्ड चेन (cold chain) वगैरह की कोई ज़रूरत नहीं होती। वैसे तो मां का दूध पहला संतुलित आहार टीका है जिसके लाभदायक असर जाने-माने हैं।
  3. पर्याप्त संतुलित आहार एक बहुआयामी (पोलीवैलेंट – polyvalent) टीका है यानी यह व्यक्ति के प्रतिरक्षा तंत्र को कई संक्रामक रोगों के खिलाफ मज़बूती देता है। और यह मज़बूती आने वाली पीढ़ियों को भी मिल जाती है। और यह कई गैर-संक्रामक रोगों की भी रोकथाम का काम करता है। कुपोषण की स्थिति में कई संक्रमण बार-बार होते हैं और गंभीर हो जाते हैं। संतुलित आहार इसे कम करता है।
  4. यह बच्चों, बुज़ुर्गों, गर्भवती तथा दूध पिलाती माताओं सबके लिए समान रूप से उपयोगी है। और यह सामान्य स्वास्थ्य को भी बेहतर करता है।
  5. पर्याप्त संतुलित आहार टीका खेतों में उगाकर आसानी से वितरित किया जा सकता है। इसके उत्पादन के लिए किसी उच्च टेक्नॉलॉजी की ज़रूरत नहीं होती और न किसी डॉक्टर की ज़रूरत होती है जो इसे लिखे।
  6. सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसमें पेटेंट(patent), बौद्धिक संपदा अधिकार (intellectual property rights – IPR) वगैरह जैसे झंझट भी नहीं होते। वैसे भी भोजन के अधिकार को मानव अधिकार के सार्वभौमिक घोषणा पत्र तथा आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक अधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय संधि में मान्य किया गया है।
  7. पर्याप्त संतुलित आहार टीके में अनुपालन की गारंटी होती है क्योंकि यह प्राप्तकर्ता को प्रसन्नता का एहसास देता है।
  8. पर्याप्त संतुलित आहार टीके के असर आने वाली पीढ़ियों (future generation) पर भी होते हैं। किसी व्यक्ति को मिलने वाला भोजन कई पीढ़ियों को प्रभावित करता है। कम वज़न वाली स्त्री के बच्चे भी कम वज़नी होने का खतरा होता है और उनके बच्चे भी कम वज़न के होने की संभावना ज़्यादा होती है।
  9. पर्याप्त संतुलित आहार स्वास्थ्य में सुधार लाने के अलावा संज्ञान क्षमता व उत्पादकता को भी बढ़ाता है। ग्वाटेमाला (guatemala) में किए गए अध्ययन से पता चला है कि शुरुआती बचपन में दिए गए पूरक पोषण से बच्चों के शैक्षिक परिणामों (educational outcomes) में सुधार आया और आगे चलकर उनकी आर्थिक उत्पादकता भी बेहतर रही।
  10. पर्याप्त संतुलित आहार टीबी (TB) एवं अन्य रोगों के खिलाफ उपलब्ध टीकों के असर को बढ़ा सकता है। एक समुचित प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया काफी हद तक ज़रूरी पोषक पदार्थों की उपस्थिति पर निर्भर करती है। लिहाज़ा, व्यक्ति में पोषण की स्थिति टीकों के प्रति व्यक्ति की प्रतिक्रिया को प्रभावित करती है।

कुल मिलाकर, पर्याप्त संतुलित आहार को एक ऐसा टीका कहना अनुचित न होगा जो कारगर है, उपाचारात्मक है, रोकथाम करता है, मुंह से दिया जा सकता है, सुरक्षित है, वृद्धि को बढ़ावा देता है, और प्रसन्नता देता है, जिसका उपयोग अन्य टीकों के साथ सहकारी के रूप में किया जा सकता है, जिसे पेटेंट वगैरह झंझट के बिना खेतों में उगाया जा सकता और सीधे उपभोक्ता को दिया जा सकता है। कुछ लोगों को शायद यह बात अतिरंजित लगे लेकिन निम्न-मध्यम आमदनी वाले देशों (low-medium income countries) में आबादी में व्याप्त कुपोषण – जो टीबी प्रकोप का एक प्रमुख चालक है – को नज़रअंदाज़ करना हमें कभी टीबी मुक्त दुनिया की ओर नहीं ले जा सकता। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अनावश्यक गर्भाशय निकालने के विरुद्ध अभियान ज़रूरी

भारत डोगरा

दिसंबर 2023 में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court of India) ने अपने एक निर्णय में निर्देश दिए थे कि बिना चिकित्सीय आवश्यकता के गर्भाशय हटा देने का ऑपरेशन (हिस्टरेक्टोमी – hysterectomy surgery) करने की हानिकारक प्रवृत्ति को रोकना चाहिए एवं इसकी रोकथाम के लिए केंद्र, राज्य, ज़िला एवं क्षेत्रीय स्तर पर व्यवस्था स्थापित की जानी चाहिए।

चिकित्सा विज्ञान (medical science) में यह मान्य है कि कुछ गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं के चलते गर्भाशय को ऑपरेशन कर हटाया जा सकता है। परंतु यदि ये स्वास्थ्य समस्याएं दवाइयों या अन्य इलाज से ठीक हो जाएं तो बेहतर है, क्योंकि गर्भाशय हटा देने से कई अन्य स्वास्थ्य समस्याएं भी पैदा हो सकती हैं। अत: गर्भाशय हटाने का ऑपरेशन अंतिम विकल्प (last resort) होना चाहिए।

दूसरी ओर, हाल के वर्षों में यह देखा गया है कि चिकित्सीय आवश्यकता न होने पर भी गर्भाशय हटाने के ऑपरेशन (uterus removal surgery) किए जा रहे हैं। कई बार ऐसे ऑपरेशन अतिरिक्त धन अर्जन या मुनाफे के लिए किए जाते हैं। यह भी देखा गया कि कुछ बीमा योजनाओं (health insurance schemes) के अंतर्गत ऐसे बहुत से ऑपरेशन कर दिए गए जिनकी चिकित्सीय आवश्यकता नहीं थी।

वर्ष 2010 के आसपास ऐसी प्रवृत्तियां अनेक स्थानों पर दिखाई दीं। इसमें दौसा (राजस्थान) में बड़े स्तर पर होने वाले ऐसे ऑपरेशनों पर गहरी चिंता व्यक्त की गई थी। ऐसी शिकायतों की जांच की गई व इसके आधार पर राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श (national discussion) भी हुआ। इसी दौरान डॉ. नरेन्द्र गुप्ता ने सर्वोच्च न्यायालय में अनावश्यक गर्भाशय हटाने के ऑपरेशनों की बढ़ती प्रवृत्ति पर रोक लगाने की अपील (public interest litigation) की।

इस अपील का दायरा वैसे तो राष्ट्रीय स्तर का था, किंतु इसमें राजस्थान, बिहार व छत्तीसगढ़ राज्यों का उल्लेख विशेष तौर पर था। अत: सुप्रीम कोर्ट ने इन राज्यों को नोटिस (legal notice) जारी किए तथा वहां के अधिकारियों ने जांच आरंभ की। इस जांच के आधार पर बिहार की सरकार ने पाया कि इस तरह की हानिकारक प्रवृत्ति अनेक स्थानों पर मौजूद है। वर्ष 2022 में स्वास्थ्य मंत्रालय (Ministry of Health) ने इस सम्बंध में दिशानिर्देश जारी किए ताकि इस चिंताजनक प्रवृत्ति पर रोक लग सके।

वर्ष 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने इन दिशानिर्देशों को और स्पष्ट रूप से अपने आदेश (court order) में जारी किया। दुर्भाग्यवश, इसके बाद भी इन दिशानिर्देशों को सही भावना में कार्यान्वित नहीं किया जा सका है। उचित क्रियान्वयन के अभाव में आज भी अनावश्यक रूप से गर्भाशय हटाने के गंभीर समाचार मिल रहे हैं।

इस सिलसिले में महाराष्ट्र से गन्ने की कटाई में लगी महिला मज़दूरों (female laborers) के गर्भाशय हटाने का ऑपरेशन किए जाने के जो समाचार मिले हैं, वे विशेष तौर पर चिंताजनक हैं।

अब समय आ गया है कि इस गंभीर विषय (serious issue) पर अधिक सक्रियता दिखाई जाए व इस समस्या को कम करने के जो दिशानिर्देश पहले ही जारी हो चुके हैं, उन्हें कारगर ढंग से लागू किया जाए।

इस समस्या का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि अनुचित ढंग के गर्भाशय निकालने के ऑपरेशन (unnecessary hysterectomy) अधिकतम निर्धन व कम शिक्षित महिलाओं (poor and uneducated women) के हो रहे हैं। उनकी कम जानकारी (lack of awareness) का लाभ उठाकर या उन्हें गलत जानकारी देते हुए यह ऑपरेशन कर दिया जाता है। फिर वर्षों तक महिलाएं इससे जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं (health complications) को झेलती रहती हैं। मेहनतकश महिलाओं (working women) को दैनिक जीवन में वैसे भी स्वास्थ्य समस्याएं अधिक होती हैं, गर्भाशय हटाए जाने से ये और बढ़ जाती हैं।

अनावश्यक गर्भाशय हटाने के ऑपरेशन को रोकना महिला स्वास्थ्य (women’s health) के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)

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मलेरिया रोकथाम के दो नए प्रयास

लेरिया रोकथाम (malaria prevention) के दो नए उपाय सामने आए हैं। एक उपाय में इंसानी खून को मच्छरों के लिए ज़हरीला बनाने का प्रयास किया गया है ताकि काटते ही मच्छर मर जाएं। दूसरे उपाय में कोशिश यह है कि मच्छरों को मलेरिया परजीवी (malaria parasite) के लिए अनुपयुक्त बना दिया जाए।

पहले उपाय में आइवरमेक्टिन (ivermectin drug) नामक एक दवा का उपयोग शामिल है। यह दवा न केवल कृमियों को मारती है बल्कि जूं (lice) जैसे कीटों का भी खात्मा करती है। इसके अलावा जब कोई व्यक्ति इसे गोली के रूप में लेता है, तो उसका खून पीने वाले कीट भी मर जाते हैं।

विचार यह आया कि यदि मच्छर ऐसे व्यक्ति को काटें जिसने हाल ही में आइवरमेक्टिन ली हो, तो क्या वे भी मर जाएंगे? और अगर एक साथ पूरा समुदाय यह दवा ले ले, तो क्या मच्छरों की संख्या घट सकती है?

प्रयोगशाला परीक्षण (laboratory trials) के नतीजे काफी उत्साहजनक रहे। एक दिन पहले आइवरमेक्टिन लेने वाले लोगों के खून पर पले 73 प्रतिशत मच्छर दो दिन में मर गए, जबकि नियंत्रण समूह में केवल 31 प्रतिशत। लेकिन असली चुनौती वास्तविक दुनिया में इसके असर को साबित करना था।

अक्टूबर 2023 में दक्षिण केन्या के क्वाले काउंटी में एक बड़ा परीक्षण बरसात के मौसम की शुरुआत में हुआ, जब मच्छरों की संख्या तेज़ी से बढ़ती है। अध्ययन में 84 बस्तियों को शामिल किया गया था। आधी बस्तियों के लोगों को तीन महीने तक, हर महीने आइवरमेक्टिन दी गई। और बाकी आधों को परजीवी नाशी दवा अल्बेंडेज़ोल (albendazole) दी गई, जो मच्छरों पर कोई असर नहीं करती। अगले छह महीनों में आइवरमेक्टिनसमूह में बच्चों में मलेरिया के नए मामलों में 26 प्रतिशत की कमी आई।

हालांकि कई वैज्ञानिक इस नतीजे से सहमत नहीं है। एक तो, 26 प्रतिशत की कमी व्यापक इस्तेमाल के लिए पर्याप्त नहीं है। दूसरा, यह दवा गर्भवती महिलाओं (pregnant women) और शिशुओं को नहीं दी जा सकती। इसके अलावा बुर्किना फासो के दो परीक्षणों और गिनी-बिसाऊ (Guinea-Bissau trial 2024) के एक परीक्षण में कोई खास फायदा नहीं दिखा था।

हालांकि, केन्या परीक्षण थोड़ा अलग था – दवा बरसात की शुरुआत में ही दे दी गई थी, जब मच्छर तेज़ी से बढ़ते हैं, और कई बार दी गई। एक अतिरिक्त फायदा यह हुआ कि खुजली और जुओं का भी सफाया हो गया।

फिर भी इसकी कई चुनौतियां हैं। गर्भवती महिलाओं और छोटे बच्चों के लिए यह दवा सुरक्षित नहीं है। हर खुराक के बाद दवा खून में कुछ ही दिनों तक प्रभावी रहती है। लंबे समय तक असर करने वाले संस्करणों पर फिलहाल शोध चल रहा है। मलेरिया के मामलों में महज़ 26 प्रतिशत कमी लागत और मेहनत के हिसाब से पर्याप्त नहीं है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का नियम है कि जब तक कम से कम दो बड़े और उच्च-गुणवत्ता वाले परीक्षणों में मज़बूत सुरक्षा न दिखे, किसी तरीके को बड़े पैमाने पर अपनाने की सिफारिश नहीं की जा सकती। शोधकर्ता भी उपरोक्त शंकाओं को दूर करने की दिशा में और शोध कार्य करने की योजना बना रहे हैं।

दूसरा तरीका मच्छरों को ही मलेरिया के खिलाफ हथियार बनाने का है। नेचर पत्रिका (Nature journal) में प्रकाशित एक नए अध्ययन में मच्छरों के जीन में बदलाव (mosquito gene editing) करके उन्हें मलेरिया परजीवी (प्लाज़्मोडियम – Plasmodium parasite) का वाहक बनने से रोकने का प्रयास किया गया है। आगे, जीन ड्राइव नामक तकनीक (gene drive technology) से इस गुण को तेज़ी से मच्छरों की आबादी में फैलाया जा सकता है।

आम तौर पर मच्छर अपने जीन का आधा हिस्सा ही अगली पीढ़ी को देते हैं। लेकिन जीन ड्राइव एक खास आनुवंशिक तकनीक है, जो इस नियम को बदल देती है। यह चुने हुए जीन को लगभग सभी संतानों में पहुंचाती है, जिससे वह तेज़ी से पूरी आबादी में फैल जाता है।

यह तरीका कारगर तो है, लेकिन विवादास्पद (controversial genetic modification) भी है, क्योंकि इससे किसी प्रजाति में स्थायी और बड़े पैमाने पर बदलाव हो सकते हैं, जिनके पर्यावरण पर अनजाने असर पड़ सकते हैं।

इसलिए नए शोध में वैज्ञानिकों ने कृत्रिम जीन बनाने की बजाय, मच्छरों में पहले से प्राकृतिक रूप से मौजूद एक उत्परिवर्तन (mutation) का सहारा लिया। इस उत्परिवर्तन के चलते कुछ एनॉफिलीज़ गैंबिया (Anopheles gambiae) मच्छरों में एक प्रोटीन का थोड़ा बदला हुआ रूप पाया जाता है। यह बदला हुआ प्रोटीन मलेरिया परजीवी को मच्छर के शरीर में अपना जीवन-चक्र पूरा करने में मुश्किल पैदा करता है।

पहले, FREP1 नामक परजीवी-रोधी जीन को एनॉफिलीज़ स्टीफेन्सी मच्छरों में डाला गया।

परिवर्तित मच्छरों ने सामान्य मच्छरों के साथ भोजन और संभोग-साथी पाने के लिए बराबरी से प्रतिस्पर्धा की। यानी यह बदलाव मच्छरों को कमज़ोर तो नहीं बनाता।

जब इन मच्छरों ने सबसे घातक मलेरिया परजीवी प्लाज़्मोडियम फाल्सीपेरम युक्त वाला मानव रक्त पीया, तो उनके शरीर और लार ग्रंथियों में सामान्य मच्छरों की तुलना में बहुत कम परजीवी पाए गए।

दूसरे चरण में, परिवर्तित जीन तेज़ी से फैलाने के लिए वैज्ञानिकों ने मच्छरों में सामान्य जीन को काटकर उसकी जगह प्रतिरोधी संस्करण (resistant gene variant) डाल दिया। नियंत्रित माहौल (controlled environment) में, केवल 10 पीढ़ियों में यह जीन 94 प्रतिशत से अधिक मच्छरों में फैल गया।

वैज्ञानिक उक्त तकनीकों को लेकर उत्साहित हैं, लेकिन सतर्क भी हैं। ये सफल रहे तो भी इनका उपयोग मच्छरदानी (mosquito nets), दवाइयों और कीटनाशकों (insecticides) जैसी अन्य रोकथाम विधियों के साथ मिलाकर ही करना होगा।

और, कुछ सवाल अभी अनुत्तरित हैं। जैसे, क्या मच्छर या मलेरिया परजीवी इस तरह की सुरक्षा के प्रतिरोधी हो जाएंगे? ऐसे मच्छर प्रकृति में छोड़े गए, तो पर्यावरण व पारिस्थितिकी पर दीर्घकालिक (environmental impact) असर क्या होंगे? अनचाहे परिणामों से बचाव कैसे किया जाएगा? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक नया रक्त समूह खोजा गया

हाल ही में एक नया रक्त समूह (new blood group) खोजा गया है। अब तक कुल 47 रक्त समूह (blood types)  ज्ञात थे और यह 48वां रक्त समूह इतना दुर्लभ (rare blood group) है कि फिलहाल दुनिया में मात्र एक इंसान में पाया गया है।

दरअसल, फ्रांस में एक महिला के लिए उपयुक्त रक्तदाता (blood donor) खोजने के लिए सामान्य रक्त परीक्षण (blood test) किया जा रहा था। लेकिन महिला की रक्त प्लाज़्मा हरेक संभावित दानदाता के रक्त के विरुद्ध प्रतिक्रिया दे रही थी। और तो और, उसके सगे भाई-बहनों का रक्त भी मैच नहीं किया। यानी उसके लिए कोई दानदाता खोजना नामुमकिन हो गया था।

आम तौर पर हम जानते हैं कि रक्त समूह चार होते हैं – ए, बी, एबी तथा ओ (A, B, AB, O blood groups) । साथ ही इनमें आरएच धनात्मक और आरएच ऋणात्मक (Rh positive, Rh negative) हो सकते हैं। लेकिन तथ्य यह है कि ये रक्त समूह दर्जनों रक्त समूह प्रणालियों में से मात्र दो का प्रतिनिधित्व करते हैं। अन्य रक्त वर्गीकरण प्रणालियों (blood classification systems) का असर भी खून लेने-देने पर होता है। रक्त समूह वर्गीकरण की तमाम प्रणालियों में लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) की सतह पर पाई जाने वाली शर्कराओं और प्रोटीन में बारीक अंतरों को आधार बनाया गया है। इसके आधार पर विभिन्न व्यक्तियों में रक्त का लेन-देन संभव या असंभव होता है।

फ्रांस के ग्वाडेलूप में खोजे गए इस रक्त समूह को ‘ग्वाडा ऋणात्मक’ (Gwada negative) नाम दिया गया है। इसकी गुत्थी को सुलझाने के लिए वैज्ञानिकों ने आधुनिक संपूर्ण एक्सोम अनुक्रमण (whole exome sequencing) नामक तकनीक की मदद ली। इस तकनीक में मनुष्यों में पाए जाने 20,000 से ज़्यादा जीन्स (human genes) की जांच की जाती है। इस विश्लेषण से पता चला कि उस महिला के एक जीन PIGZ में उत्परिवर्तन (gene mutation) हुआ है।

यह जीन एक ऐसा एंज़ाइम बनाता है जो कोशिका झिल्ली के एक महत्वपूर्ण अणु पर एक खास शर्करा को जोड़ता है। वह शर्करा न हो तो लाल रक्त कोशिकाओं पर एक अणु की रचना बदल जाती है। इस परिवर्तन की वजह से एक नया एंटीजन बन जाता है। विशिष्ट एंटीजन की उपस्थिति ही रक्त समूह का निर्धारण करती है – इस मामले में एक सर्वथा नया वर्गीकरण उभरा है – ग्वाडा धनात्मक (जब एंटीजन उपस्थित हो) (Gwada positive) और ग्वाडा ऋणात्मक (जब एंटीजन नदारद हो।

जीन संपादन की तकनीक (gene editing) से शोधकर्ताओं ने जब वह उत्परिवर्तन प्रयोगशाला में भी किया, तो पता चला कि सारे दानदाताओं का रक्त ग्वाडा धनात्मक था जबकि वह महिला दुनिया की एकमात्र महिला थी जिसका रक्त ग्वाडा ऋणात्मक था।

रक्त समूह के बारे में मान्यता है कि वे मात्र खून के लेन-देन को प्रभावित करते हैं। लेकिन इस मामले में देखा गया है कि वह महिला थोड़ी बौद्धिक विकलांगता (intellectual disability) से पीड़ित है, प्रसव के दौरान दो बच्चे गंवा चुकी है। वैज्ञानिकों को लगता है कि ये उसके उत्परिवर्तन से सम्बंधित हो सकते हैं।

बहरहाल, सबसे महत्वपूर्ण सवाल तो यह है कि इस महिला के लिए खून की व्यवस्था (blood availability) कैसे की जाए। वैसे कई वैज्ञानिक प्रयोगशाला में स्टेम कोशिकाओं से लाल रक्त कोशिकाएं विकसित करने पर काम कर रहे हैं जिन्हें जेनेटिक इंजीनियरिंग (genetic engineering) के उपरांत ग्वाडा ऋणात्मक जैसे दुर्लभ प्रकरणों (lab-grown blood cells for rare blood types) में इस्तेमाल किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कैंसर ट्यूमर की मदद करती तंत्रिकाएं

हाल में किए गए एक अध्ययन से उजागर हुआ है कि कुछ कैंसर कोशिकाएं अपनी पड़ोसी स्वस्थ कोशिकाओं की मदद से अधिक विनाशकारी शक्ति हासिल कर लेती हैं। एक अनुसंधान दल ने पाया है कि तंत्रिकाएं अपनी पड़ोस की मैलिग्नेंट (दुर्दम) कोशिकाओं को अपना माइटोकॉण्ड्रिया दान (mitochondria donation in cancer) दे देती हैं। गौरतलब है कि माइटोकॉण्ड्रिया कोशिकाओं का एक उपांग होता है जो कोशिकाओं के कामकाज के लिए ज़रूरी ऊर्जा उपलब्ध कराता है। यह अवलोकन इस बात की व्याख्या कर देता है कि क्यों तंत्रिकाओं की उपस्थिति में ट्यूमर ज़्यादा तेज़ी से बढ़ते हैं। और तो और, कैंसर कोशिकाओं को अतिरिक्त माइटोकॉण्ड्रिया मिल जाने पर उनकी शरीर के अन्य हिस्सों में फैलने (मेटास्टेसिस) की क्षमता (cancer metastasis) भी बढ़ जाती है।

पहले माना जाता था कि कोशिकाएं अपने माइटोकॉण्ड्रिया सहेजकर रखती हैं। लेकिन पिछले 20 वर्षों में हुए अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि कोशिकाएं इन उपांगों का खूब लेन-देन (cellular mitochondria exchange, mitochondria sharing between cells) करती हैं। कैंसर कोशिकाएं दाता भी हो सकती हैं और प्राप्तकर्ता भी।

जैसे, हाल ही में जापान के शोधकर्ताओं ने बताया था कि कैंसर कोशिकाएं और प्रतिरक्षा टी-कोशिकाएं कभी-कभी माइटोकॉण्ड्रिया का विनिमय (mitochondria and immune cells, T-cells energy hijack by cancer) करती हैं। इस दौरान, कैंसर कोशिकाएं अपने दोषपूर्ण उपांग टी-कोशिकाओं को देकर उन्हें कमज़ोर भी कर सकती हैं।

कुछ सर्वथा अलग तरह के अध्ययनों में पता चला है कि तंत्रिकाएं अपने आसपास के ट्यूमर्स की वृद्धि को बढ़ावा देती हैं (nerves in tumor growth, nerve-cancer interaction)। उदाहरण के लिए टेक्सास हेल्थ साइन्स सेंटर के गुस्तावो आयला की टीम ने देखा था कि जब प्रयोगशाला के जंतुओं की प्रोस्टेट ग्रंथि को पहुंचने वाली तंत्रिकाओं को काट दिया गया (nerve block in cancer treatment) या बोटॉक्स इंजेक्शन देकर खामोश कर दिया गया, तो प्रोस्टेट कैंसर (prostate cancer) सिकुड़ गया। ट्यूमर-ग्रस्त मनुष्यों में भी बोटॉक्स इंजेक्शन (botox injection) देने पर कैंसर कोशिकाओं की मृत्यु दर बढ़ गई थी।

यह भी पता चला है कि जिन कैंसर कोशिकाओं से तंत्रिकाएं नदारद होती हैं, उनकी सामान्य प्रक्रियाएं गड़बड़ हो जाती हैं। साउथ अलाबामा विश्वविद्यालय के साइमन ग्रेलेट ने सोचा कि कहीं उधार के माइटोकॉण्ड्रिया का स्रोत कट जाने का तो यह परिणाम नहीं है। ग्रेलेट, आयला और उनके दल ने देखा कि तश्तरियों में रखने पर स्तन कैंसर की कोशिकाओं और तंत्रिका कोशिकाओं के बीच सेतु (neuron to cancer cell bridge) बनने लगते हैं। जब उन्होंने तंत्रिकाओं के माइटोकॉण्ड्रिया को एक हरे प्रोटीन की मदद से शिनाख्त योग्य बना दिया तो देखा गया कि ये उपांग सेतुओं के ज़रिए कैंसर कोशिकाओं में जा रहे हैं।

शोधकर्ताओं ने यह भी दर्शाया कि यदि माइटोकॉण्ड्रिया रहित कैंसर कोशिकाएं (mitochondria-depleted cancer cells) तैयार करके उन्हें यह उपांग बाहर से दिया जाए तो कैंसर कोशिकाओं को बढ़ावा मिलता है। ऐसी माइटोकॉण्ट्रिया रहित कोशिकाएं विभाजित नहीं होतीं और उनकी ऑक्सीजन खपत भी कम रहती है। लेकिन जब इन्हें तंत्रिका कोशिकाओं के साथ रखा गया, तो 5 दिन में इनकी चयापचय क्रियाएं बहाल (restoring cancer cell metabolism)हो गईं और इनमें विभाजन भी होने लगा। शायद पड़ोसियों से मिले माइटोकॉण्ड्रिया के दम पर। इसी प्रयोग को आगे करने पर पता चला कि यह असर लंबे समय के लिए होता है।

शोधकर्ताओं ने यह जांच भी की कि क्या ऐसी पुन: सक्रिय हुई कैंसर कोशिकाओं के अन्य स्थानों/अंगों में फैलने (मेटास्टेसिस) की संभावना (cancer spread after mitochondrial gain) भी ज़्यादा होती है। इसकी जांच करने के लिए उन्होंने चूहों की तंत्रिका व कैंसर कोशिकाओं को साथ-साथ रखकर विकसित किया और फिर उन्हें मादा चूहे के उदर की वसा में डाल दिया। देखा गया पेट में ट्यूमर बना और जल्दी ही वह फेफड़ों तथा मस्तिष्क में फैल गया। यह भी देखा गया कि मूल ट्यूमर में तो मात्र 5 प्रतिशत कोशिकाओं ने तंत्रिकाओं से माइटोकॉण्ड्रिया हासिल किए थे लेकिन फेफड़े में पहुंची 27 प्रतिशत तथा मस्तिष्क में पहुंची 46 प्रतिशत कैंसर कोशिकाओं में आयातित माइट्कॉण्ड्रिया थे। अर्थात आयातित माइटोकॉण्ड्रिया मेटास्टेसिस (metastatic potential and mitochondria) को बढ़ावा देते हैं। जब प्रोस्टेट कैंसर से पीड़ित व्यक्तियों के ट्यूमर की कोशिकाओं का विश्लेषण किया गया तो पता चला कि तंत्रिकाओं के नज़दीक की कोशिकाओं में ज़्यादा माइटोकॉण्ड्रिया (tumor proximity to neurons) थे।

यह अनुसंधान कैंसर से निपटने का एक सर्वथा नया रास्ता सुझाता है। शोधकर्ता कहते हैं कि कैंसर से निपटने के लिए उसके आसपास की तंत्रिकाओं (targeting nerves in cancer) पर ध्यान देना उपयोगी होगा। आगे अनुसंधान का एक विषय यह भी होना चाहिए कि माइटोकॉण्ड्रिया के घातक लेन-देन को कैसे रोका जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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निजी अस्पतालों में आकस्मिक चिकित्सा पर पुनर्विचार ज़रूरी

संदीप चवाण

जब सिर्फ पैसों के कारण आपात स्थिति में इलाज नहीं दिया जाता, तो कई बार जान चली जाती है। यह लेख ऐसे ही कुछ बेहद ज़रूरी मामलों को सामने लाता है और सख्त नियमों और उन्हें सही तरीके से लागू करने की मांग करता है, ताकि संकट के समय किसी को भी इलाज से वंचित किया जाए।

कुछ ही महीने पहले पुणे में एक बहुत दुखद घटना घटी। एक गर्भवती महिला, जिसे पहले से ही गंभीर स्थिति में माना गया था और जो समय से पहले जुड़वां बच्चों को जन्म देने वाली थी, उसे पुणे के जाने-माने दीनानाथ मंगेशकर अस्पताल लाया गया। लेकिन इलाज (emergency treatment) शुरू करने के लिए अस्पताल ने 10 लाख रुपए एडवांस जमा करने की मांग की।

परिवार ने इलाज के लिए गुहार लगाई और भरोसा दिलाया कि थोड़ी देर में पैसों का इंतज़ाम हो जाएगा, लेकिन अस्पताल (private hospital) ने पैसे के बिना इलाज शुरू करने से मना कर दिया। इससे कीमती समय बर्बाद हुआ और महिला को दूसरे अस्पताल ले जाना पड़ा। वहां उसने जुड़वां लड़कियों को जन्म तो दिया, लेकिन उसकी खुद की जान नहीं बच सकी।

बेवजह देरी

जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में जब मातृत्व मृत्यु रोकने की बात होती है, तो अक्सर ‘थ्री डिले मॉडल’ (तीन देरियों) (three delay model) का ज़िक्र होता है। इस मॉडल से यह समझने में मदद मिलती है कि इलाज में किस-किस स्तर पर होने वाली देरी मां की जान ले सकती है।

सबसे पहली देरी होती है घर में – जब परिवार यह तय करने में समय लगाता है कि इलाज करवाना (medical attention)  है या नहीं। दूसरी देरी होती है अस्पताल तक पहुंचने में – जब रास्ते की दूरी, खराब सड़कें या परिवहन की समस्या आड़े आती है। तीसरी देरी तब होती है जब मरीज़ अस्पताल पहुंच तो जाता है, लेकिन वहां स्टाफ की कमी, ज़रूरी साधनों के अभाव या तंत्र की लापरवाही के कारण समय पर इलाज (initial emergency care) नहीं मिल पाता।

हालांकि यह मॉडल आम तौर पर गर्भवती महिलाओं (maternal health) के इलाज के संदर्भ में लागू किया जाता है, लेकिन इसे हर उस आपात स्थिति पर लागू किया जा सकता है जहां समय पर इलाज (urgent care) न मिलने से मरीज़ की जान जा सकती है।

हमारे देश में तीसरे प्रकार की देरी से होने वाली मौतें ज़्यादातर ग्रामीण इलाकों में देखी जाती हैं, जहां न तो अस्पताल होते हैं और न ही स्टाफ। लेकिन यह मामला एक चौंकाने वाला शहरी उदाहरण है, जहां देरी का कारण सुविधाओं की कमी नहीं, बल्कि निजी अस्पतालों की कॉर्पोरेट सख्ती था।

यह जानते हुए भी कि महिला की हालत बेहद गंभीर थी, अस्पताल ने सिर्फ पैसों की वजह से इलाज करने से मना कर दिया। इसलिए यह ज़रूरी है कि हम इस बात को सामने लाएं कि जो बड़े निजी अस्पताल (corporate hospital) सरकारी छूट और सुविधाएं लेते हैं, वे आपात स्थिति (emergency situation) में ज़रूरतमंद मरीज़ों के साथ कैसे व्यवहार करते हैं। कैसे कई बार वित्तीय हित मरीज़ की देखभाल और सुरक्षा से ज़्यादा अहम हो जाते हैं।

मेरा निजी अनुभव

उपरोक्त खबर को पढ़ने के बाद मुझे भी अपना एक हालिया अनुभव साझा करने की ज़रूरत महसूस हो रही है, जो यह दिखाता है कि निजी अस्पतालों में नीतियों (hospital policies) में बदलाव और जवाबदेही कितनी ज़रूरी है।

मेरी पत्नी को एक्टोपिक प्रेग्नेंसी (ectopic pregnancy) (जिसमें गर्भधारण गर्भाशय की बजाय किसी अन्य स्थान पर हो जाता है और यह एक गंभीर मेडिकल इमरजेंसी होती है) की स्थिति में तुरंत अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। हमारे पास स्वास्थ्य बीमा (health insurance) था, इसलिए कैशलेस (cashless facility) इलाज की सुविधा उपलब्ध थी। मैंने सारे ज़रूरी दस्तावेज़ तुरंत जमा कर दिए। बताया गया कि बीमा क्लेम (insurance claim) की प्रक्रिया शुरू हो गई है और मंज़ूरी में लगभग तीन घंटे लगेंगे। लेकिन साथ ही यह भी कहा गया कि जब तक 25,000 रुपए एडवांस (advance payment) में नहीं दिए जाते, सर्जरी (surgery) शुरू नहीं होगी।

मेरे लिए पैसा देना मुश्किल नहीं था, फिर भी मैंने पूछा कि जब कैशलेस सुविधा है तो क्या पैसे मिलने के लिए तीन घंटे का इंतज़ार नहीं किया जा सकता? जवाब मिला कि सर्जरी तभी शुरू होगी जब कैशलेस क्लेम मंज़ूर हो जाएगा। मैंने बार-बार समझाया कि यह इमरजेंसी है, लेकिन बिलिंग विभाग (billing department) ने कोई नरमी नहीं (denial) दिखाई। आखिरकार मैंने एडवांस राशि दी, सर्जरी हुई और जैसा अनुमान था, क्लेम भी मंज़ूर हो गया। पत्नी की छुट्टी के बाद जमा की गई राशि लौटा दी गई। लेकिन इस अनुभव ने मेरे ज़ेहन में कई सवाल छोड़ दिए।

यदि उस समय मेरे पास 25,000 रुपए न होते तो क्या मेरी पत्नी की सर्जरी (operation) टल जाती, जबकि मैंने कैशलेस इलाज के लिए सारे ज़रूरी दस्तावेज़ जमा कर दिए थे? और यदि देरी से उनकी सेहत को नुकसान होता, तो उसका ज़िम्मेदार कौन होता?

आपात स्थिति में इन प्रक्रियाओं की बजाय अस्पताल इलाज को प्राथमिकता क्यों नहीं देते? जब मरीज़ को सर्जरी या गंभीर इलाज की ज़रूरत है और वह 2–3 दिन अस्पताल में रहने वाला है, और 25,000 रुपए की एडवांस राशि बहुत बड़ी नहीं है, खासकर तब जब अस्पताल कैशलेस सुविधा वाला है और बीमा से पैसा मिलने ही वाला है। फिर भी इलाज शुरू करने से पहले इतनी बेरहमी से एडवांस की मांग क्यों? इलाज में देरी जान ले सकती है। क्या ऐसी स्थिति में इंसानियत और सहयोग की भावना ज़रूरी नहीं है?

आपात समय में मरीज़ के परिवारजन घबराए होते हैं और कभी-कभी आर्थिक स्थिति भी कमज़ोर होती है। ऐसे मौके पर क्या अस्पताल को थोड़ी नरमी नहीं दिखानी चाहिए? मरीज़ की जान से जुड़ी स्थिति में अस्पताल इतनी कठोर नीति क्यों अपनाते हैं? और आखिर किसने निजी अस्पतालों को यह हक दिया कि वे मरीज़ की जान को इस तरह जोखिम में डालें?

वैसे कैशलेस क्लेम को मंज़ूरी मिल गई थी, और जो पैसे मैंने एडवांस में दिए थे, वो पैसे मुझे तुरंत नहीं मिले थे। यहां मुझसे एक ग्राहक के तौर पर उम्मीद की गई थी कि मैं अस्पताल की आंतरिक प्रक्रिया के साथ सहयोग करूं। लेकिन क्या अस्पतालों द्वारा एडवांस राशि तुरंत जमा करवाने के नियम में ढील नही दी जानी चाहिए, खासकर इमर्जेंसी की स्थिति में? क्या मरीज़ (patients) के परिजनों की यह उम्मीद (expectation) गलत है कि ऐसी स्थिति में अस्पताल थोड़ा लचीलापन (flexibility) दिखाए?

यहां साफ तौर पर असंतुलन है; जहां मरीज़ से तो उम्मीद की जाती है कि वह अस्पताल की प्रक्रियाओं का सम्मान करे, लेकिन अस्पताल मरीज़ की ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ कर देता है।

बेशक, अस्पताल यह तर्क दे सकते हैं कि कहीं मरीज़ बिना बिल चुकाए भाग न जाए। लेकिन फिर भी, खास तौर पर आपात स्थिति में, अस्पताल को सबसे पहले इलाज को प्राथमिकता देनी चाहिए और वित्तीय औपचारिकताओं को थोड़ी देर के लिए मुल्तवी कर देना चाहिए।

टुकड़ाटुकड़ा सुधार

गर्भवती महिला की मौत के बाद हुए विरोध के चलते, अब पुणे के दीनानाथ मंगेशकर अस्पताल ने यह फैसला लिया है कि इमरजेंसी में आने वाले मरीज़ों से अब एडवांस जमा करने की मांग नहीं की जाएगी और इलाज को प्राथमिकता दी जाएगी।

इसके अलावा, मुख्यमंत्री ने भी घोषणा की है कि ऐसे हादसे दोबारा न हों, इसके लिए वे कुछ ठोस कदम उठाएंगे। पुणे महानगरपालिका (PMC) ने भी अपने अधिकार क्षेत्र के सभी निजी अस्पतालों (private hospitals), नर्सिंग होम्स और मेडिकल संस्थानों को एक पत्र जारी करके उन्हें बॉम्बे नर्सिंग होम्स रजिस्ट्रेशन एक्ट, 1949 और महाराष्ट्र सरकार की 14 जनवरी 2021 की अधिसूचना के नियमों का पालन करने की कानूनी ज़िम्मेदारी याद दिलाई।

भारत में मातृ मृत्यु (maternal mortality) को रोकना एक प्रमुख जन स्वास्थ्य (public health)  मुद्दा है। इसी वजह से यह घटना सुर्खियों में आई और राजनीतिक व प्रशासनिक प्रतिक्रिया भी तेज़ हुई। लेकिन मुमकिन है कि गर्भावस्था से इतर इमरजेंसी (medical emergencies)  मामलों में भी निजी अस्पतालों का रवैया ऐसा ही लापरवाह रहता हो।

कोविड-19 (covid-19) महामारी के दौरान कई घटनाओं से यह पता चला कि मरीज़ों को समय पर इमरजेंसी इलाज नहीं मिला, खासकर निजी अस्पतालों की नीतियों और सीमाओं के कारण।

हालांकि यह बताने के लिए कोई ठोस मेडिकल आंकड़े नहीं हैं कि कितने मरीज़ों को सिर्फ एडवांस जमा न कर पाने की वजह से इलाज से वंचित किया गया, लेकिन अखबारों में बार-बार ऐसी खबरें छपती रही हैं, जिससे साफ है कि यह समस्या देश के कई हिस्सों में देखी जा रही है। ऐसे ही कुछ और मामले हैं – जैसे पुणे में एक मरीज़ को दिल का दौरा पड़ने के बाद भी इलाज नहीं मिला और उत्तर प्रदेश में एक मरीज़ को चार अस्पतालों ने इलाज देने से मना कर दिया, जिससे उसकी रास्ते में ही मौत हो गई।

कानूनी व्यवस्था है लेकिन अमल नहीं

इमरजेंसी इलाज केवल एक स्वास्थ्य ज़रूरत नहीं, बल्कि मरीज़ का संवैधानिक अधिकार (constitutional right) भी है। यदि निजी अस्पताल संवेदनशीलता और सहानुभूति (compassion) नहीं दिखाते, तो सरकार को सख्त नीतियां और कानूनी कदम उठाने चाहिए ताकि ऐसे अस्पतालों में भी इमरजेंसी इलाज सुनिश्चित हो सके।

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि हर सरकारी और निजी अस्पताल की ज़िम्मेदारी है कि वह घायल या इमरजेंसी मरीज़ को ज़रूरी प्राथमिक इलाज दे। यह इलाज बिना किसी एडवांस (advance payment) या भुगतान की मांग के शुरू होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इमरजेंसी इलाज पाना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है।

इसके अलावा, क्लीनिकल एस्टेब्लिशमेंट्स एक्ट 2010 के तहत भी इमरजेंसी सेवा (emergency services) देना अनिवार्य है। नेशनल मेडिकल कमीशन द्वारा जारी किए गए मेडिकल एथिक्स कोड 2002 (संशोधित 2016) के अनुसार भी डॉक्टरों को इमरजेंसी में मरीज़ का इलाज (patient care) करना अनिवार्य है।

कई राज्य सरकारों ने भी अपनी-अपनी नीतियां (state policies) बनाई हैं। असम सरकार ने यह अनिवार्य किया है कि सभी निजी अस्पतालों को किसी भी इमरजेंसी की स्थिति में पहले 24 घंटे तक मरीज़ को मुफ्त इलाज (free treatment) देना होगा। यह सुविधा असम पब्लिक हेल्थ बिल, 2010 का हिस्सा है, जिसे राज्य विधानसभा ने पारित किया था और यह देश में एक अहम कानून माना जाता है। इसी तरह कर्नाटक और पंजाब जैसे राज्यों में भी अच्छी पहल की गई है – यहां कम से कम सड़क दुर्घटनाओं (road accidents) के मामलों में निजी अस्पतालों को निशुल्क इमरजेंसी इलाज (emergency care) देना होता है।

लेकिन दीनानाथ मंगेशकर अस्पताल का हालिया मामला और प्रेस में रिपोर्ट (news reports) हुए कई दूसरे मामले यह दिखाते हैं कि सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस (legal guidelines) और क्लीनिकल एस्टेब्लिशमेंट्स एक्ट (clinical establishments act) का पालन बहुत जगहों पर नहीं हो रहा है।

आंकड़े, रिपोर्टिंग और सुधार

आज की सबसे बड़ी ज़रूरत यह है कि भारत में निजी अस्पतालों द्वारा किसी भी कारण से इमरजेंसी इलाज से इन्कार (denial of emergency care) किए जाने से जुड़े आंकड़े (data) एकत्र करने की एक व्यवस्था बनाई जाए। इसके लिए कई स्तरों पर प्रयास जरूरी होंगे – जैसे सख्त नियम (strict regulations), सामुदायिक रिपोर्टिंग (community reporting) और निगरानी व्यवस्था (monitoring systems)।

इस तरह की रिपोर्टिंग का एक अच्छा उदाहरण क्रोएशिया (Croatia) में देखा गया है; जहां मरीज़ को यदि इमरजेंसी इलाज से वंचित किया गया हो तो वे इसकी शिकायत (complaint) स्वास्थ्य मंत्रालय को कर सकते हैं। 2017 से 2018 के बीच वहां 289 शिकायतें दर्ज हुईं, जो सेकंडरी और टर्शियरी हेल्थकेयर (secondary and tertiary healthcare) संस्थानों में गंभीर समस्याओं की ओर इशारा करती हैं।

इस तरह का डैटा हमें यह समझने में मदद करता है कि सरकारी और निजी अस्पतालों में इलाज से इन्कार (denial of care) किस वजह से होता है और इससे भविष्य में नीति (future policy) और सुधारों के लिए ठोस कदम उठाए जा सकते हैं।

साथ ही, सभी स्वास्थ्यकर्मियों (healthcare workers), चाहे वे डॉक्टर हों या गैर-चिकित्सा कर्मचारी जैसे रिसेप्शनिस्ट, बिलिंग स्टाफ, और सिक्योरिटी गार्ड, को इमरजेंसी इलाज से जुड़ी कानूनी और नैतिक ज़िम्मेदारियों (legal obligations) की ट्रेनिंग (training) अनिवार्य रूप से दी जानी चाहिए, ताकि प्रशासनिक अड़चनों (administrative hurdles) के कारण होने वाली देरी को रोका जा सके।

ऐसे अस्पताल जो इमरजेंसी इलाज के नियमों व दिशानिर्देशों (guidelines) का उल्लंघन करते हैं, उन्हें सख्त सज़ा (penalties) देने का प्रावधान होना चाहिए। सज़ा में जुर्माना, लाइसेंस निलंबन (license suspension), और सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं (public health schemes) से बाहर करना शामिल हो सकता है।

इसके साथ ही, एक तत्काल शिकायत निवारण प्रणाली (grievance redressal) होनी चाहिए, जैसे 24×7 टोल-फ्री हेल्पलाइन और राज्य-स्तरीय ऑनलाइन पोर्टल, जहां मरीज़ या उनके परिजन इमरजेंसी में इलाज से इन्कार या देरी की शिकायत (file complaints) तुरंत कर सकें। इस प्रणाली को ज़िला स्तर पर एक सक्षम मेडिकल अधिकारी (district medical officer) के माध्यम से चलाया जाना चाहिए, जिसे जांच करने और त्वरित कार्रवाई (rapid response) करने का अधिकार हो।

इन सभी प्रयासों से नियमों के पालन की आदत, जनता का भरोसा, और सभी के लिए इमरजेंसी इलाज की उपलब्धता सुनिश्चित हो सकती है।

इंसानियत (humanity) के नाते, संकट (crisis) में फंसे हर व्यक्ति को सहारा मिलना चाहिए। हर अस्पताल – सरकारी  निजी या चैरिटेबल – में हर हाल में इमरजेंसी इलाज (emergency access) तक पहुंच हर व्यक्ति का अधिकार बनना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://nivarana.org/article/life-death-and-deposits-rethinking-emergency-care-in-private-hospitals

Y क्रोमोसोम रहित ट्यूमर अधिक घातक होते हैं

ह बात तो पता है कि पुरुषों में उम्र के साथ कुछ कोशिकाओं से Y क्रोमोसोम (chromosome) नदारद होने लगते हैं, खासकर कैंसर कोशिकाओं (cancer cells) से। लेकिन यह मालूम नहीं था कि Y क्रोमोसोम की अनुपस्थिति से शरीर पर किस तरह के प्रभाव पड़ते हैं। अब, कैंसर विशेषज्ञों ने कैंसर कोशिकाओं के एक ताज़ा अध्ययन में पाया है कि यदि कैंसर ट्यूमर (cancer tumor study) से Y क्रोमोसोम नदारद होता है तो मरीज़ के लिए अधिक घातक हो सकता है।

दरअसल, 2023 में एरिज़ोना विश्वविद्यालय के कैंसर विशेषज्ञ थियोडोरस्क्यू और उनके दल ने पाया था कि Y क्रोमोसोम का नदारद होना मनुष्यों में मूत्राशय के कैंसर (bladder cancer in men) की आक्रामकता को बढ़ाता है। उम्र बढ़ने के साथ प्रतिरक्षा कोशिकाओं से भी Y क्रोमोसोम गायब हो सकते हैं, जिससे कैंसर से मृत्यु (cancer-related mortality) का जोखिम बढ़ जाता है।

हालिया अध्ययन में उपरोक्त शोधदल ने कैंसर-कोशिका जीनोम के विशाल भंडार (cancer genome database) से प्राप्त जानकारी के आधार पर दो समूहों की तुलना की: Y क्रोमोसोम विहीन और Y क्रोमोसोम  सहित। उन्होंने पाया कि पुरुषों में, कई प्रकार के कैंसर में, कैंसर ट्यूमर से Y क्रोमोसोम नदारद हो तो वे उन मरीज़ों की तुलना में जल्दी मर जाते हैं जिनके कैंसर ट्यूमर में Y क्रोमोसोम मौजूद होता है। यह भी पता चला कि Y क्रोमोसोम का लोप कैंसर कोशिकाओं और प्रतिरक्षा कोशिकाओं दोनों में होता है। गौरतलब है कि प्रतिरक्षा कोशिकाएं शरीर की रक्षा के लिए ट्यूमर पर हमला करती हैं। अब, महज़ कैंसर कोशिकाओं से Y क्रोमोसोम का लोप होता है तो उनमें अन्य उत्परिवर्तनों (genetic mutations in cancer) की संख्या और गंभीरता बढ़ती है। साथ ही, कुछ ऐसे परिवर्तन भी हो सकते हैं जिससे ट्यूमर प्रतिरक्षा प्रणाली की नज़र से बच निकले, उसकी पकड़ में न आए (immune evasion by cancer)।Text Box: मनुष्यों में लिंग निर्धारण लैंगिक गुणसूत्रों की जोड़ी से होता है; जहां मादाओं में इस जोड़ी में दो X गुणसूत्र होते हैं, वहीं पुरुषों में इसी जोड़ी में एक X और एक Y गुणसूत्र होता है।

लेकिन यदि Y क्रोमोसोम का लोप प्रतिरक्षा कोशिकाओं में भी हो जाता है तो असर अलग होते हैं: Y क्रोमोसोम का लोप प्रतिरक्षा कोशिकाओं को निष्क्रिय कर देता है और प्रतिरक्षा तंत्र (immune system suppression) को शांत कर देता है, जिससे वे कैंसर से लड़ने के उतनी काबिल नहीं रहतीं। यानी, एक तो ट्यूमर बहुरूपिया, ऊपर से प्रतिरक्षा कोशिकाओं की नज़र कमज़ोर। यह स्थिति मरीज़ के लिए घातक (fatal cancer outcomes) साबित होती है।

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि कैंसर कोशिकाओं में Y क्रोमोसोम के लोप और उसी ट्यूमर के अंदर मौजूद प्रतिरक्षा कोशिकाओं में Y क्रोमोसोम के लोप के बीच एक सहसम्बंध (correlation between tumor and immune cells) भी है; हो सकता है कि विचित्र रासायनिक आकर्षण (कीमोअट्रैक्शन) की वजह से ऐसी प्रतिरक्षा कोशिकाएं रक्त से ट्यूमर में खिंची चली आती होंगी जिनमें Y क्रोमोसोम नदारद होता है। हालांकि अभी इस बात के पुख्ता प्रमाण नहीं हैं।

लेकिन इतना पक्का है कि Y क्रोमोसोम की गैर-मौजूदगी कैंसर कोशिकाओं को अधिक आक्रामक (aggressive cancer) बनाती है, और Y क्रोमोसोम रहित प्रतिरक्षा कोशिकाएं कम प्रभावी (weakened immune defense) होती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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