सामाजिक कार्यकर्ता शिवाजी दादा – भाग 2

निधि सोलंकी

दो लेखों की शृंखला के पहले लेख में आपने पढ़ा कि शिवाजी दादा ने अपना संपूर्ण जीवन सामाजिक भलाई के कामों में लगाया। शृंखला के दूसरे भाग में उनके व्यक्तित्व के कुछ और पहलू उजागर होंगे।

गांव के लोगों की समस्या ने दादा को इस कदर प्रभावित किया कि उन्होंने अपना सब कुछ सामाजिक काम में लगा दिया। ऐसे कामों में कई बार हमें बदलाव दिखते हैं, और कई बार इतने साफ दिखते हैं कि वह हमें प्रेरित कर जाते हैं, विश्वास जगाते हैं। कुछ ऐसा ही बदलाव देखने को मिला जब दादा ने वॉटरशेड (watershed management) के काम का ज़िम्मा उठाया।

बंबार्गे, कटनभवी, निंगेन्हट्टी और गोरामठी गांवों का समूह, जो बेलगाम तालुका के उत्तर में स्थित हैं, 1995 से पहले जल संकट (water scarcity) का सामना कर रहा था, क्योंकि इस क्षेत्र में कोई प्राकृतिक जल स्रोत (natural water source) नहीं था। गांववासियों का जीवनस्तर केवल सीमित वर्षा पर निर्भर था। वर्षा कम होने और पेड़ों की कमी के कारण यह क्षेत्र सूखा और बंजर दिखता था। बचे-खुचे पेड़ों को भी गांववाले अपने घरेलू उपयोगों, जैसे खाना पकाने और अन्य कार्यों के लिए काट देते थे, जिसके कारण वर्षा का पानी किसी काम का नहीं रह जाता था और भूमि में समाहित नहीं हो पाता था।

एक रात दादा ने देखा कि एक महिला रात को लैंप लेकर कुएं से पानी निकाल रही थी। इस गांव में पानी की कमी के कारण दिन में कुएं में पानी खत्म हो जाता था, और फिर किसी को अगर पानी चाहिए होता था तो रात को ही आकर लेना पड़ता था। इस दृश्य ने दादा को झंझोरा।

उन्होंने गांववालों को इकट्ठा किया और डीसी ऑफिस पहुंचे। कई बार चक्कर लगाने पर भी जब कुछ नहीं हुआ, तब उन्होंने फादर से बात की। फादर मान गए और दादा को एक प्रस्ताव तैयार करने को कहा। फादर कई विदेश यात्राओं (foreign fundraising trips) पर जाते थे। अपनी अगली यात्रा पर उन्होंने चर्च में लोगों के सामने यह प्रस्ताव साझा किया और फंड की ज़रूरत बताई। वहां मौजूद एक जर्मन व्यक्ति ने कहा कि वे मदद करना चाहेंगे। दादा को जब फादर ने यह बात बताई तो उन्हें पैसे लेने में हिचकिचाहट हुई; तब उस व्यक्ति ने टेलीग्राम भेजकर कहा कि यह पैसा तो आपके देश का ही है जो युरोपीय देशों ने आपके जैसे देशों को उपनिवेश (colonial exploitation)  बनाकर बटोरा है। दादा ने पैसे का काम येलियप्पा को सौंप दिया। इस पर भी कई लोगों ने आपत्ति जताई कि आपने यह ज़िम्मेदारी किसी बड़ी शख्सियत को न देकर एक मामूली व्यक्ति को क्यों सौंप दी।

फंडिंग से पहले भी एक ज़रूरी सवाल था कि किया क्या जाए? दादा ने विद्या ताई (अक्षरनंदन स्कूल पुणे की संस्थापक) को अपनी समस्या बताते हुए लिखा, तो विद्या ताई ने अन्ना हजारे के बारे में बताया कि कैसे उन्होंने वॉटरशेड के विचार को इस्तेमाल करके पानी की समस्या से निजात पायी। दादा तुरंत ही कुछ और लोगों के साथ रालेगण सिद्धी (अहमदनगर) पहुंच गए और वहां जाकर वॉटरशेड के बारे में देखा और सीखा। वॉटरशेड में वर्षा का पानी (rainwater harvesting) रोकना, उसे भूमि में समाहित होने देना (पर्कोलेट करना) (percolation techniques) और पेड़ लगाना शामिल है।

वॉटरशेड प्रबंधन (watershed development) के लिए ज़मीन की आवश्यकता थी, और लोगों को इस परियोजना के महत्व को समझाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। उन्हें यह समझाना सरल नहीं था कि यह काम केवल उनके लिए नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी फायदेमंद होगा। शुरुआत में दादा के कार्यों को जानने वाले लोग ही राजी हुए, और उनके माध्यम से अन्य गांववाले भी इस परियोजना से जुड़ने के लिए प्रेरित हुए। अंततः अधिकांश लोग इस प्रयास का समर्थन करने के लिए तैयार हो गए। यह कार्य केवल ज़मीन देने तक सीमित नहीं था; इसमें समुदाय का सक्रिय सहयोग (community participation) भी आवश्यक था।

पहाड़ों पर ट्रेंच बना कर पेड़ लगाए। जब ट्रेंच के साथ पेड़ लगाए गए तो पानी को ज़मीन में समाहित करने की क्षमता बढ़ी। पेड़ की जड़ों ने मिट्टी को बहने से रोका और पानी को सोखने में मदद की, जिससे भूमिगत जलस्तर (groundwater recharge) में वृद्धि हुई।

बंबार्गे गांव में स्थानीय लोगों की भागीदारी से एक छोटा बांध (check dam) बनाया गया, जिससे निचले इलाकों में सिंचाई की सुविधा मिली और कुओं का जलस्तर बढ़ गया। कटनभवी क्षेत्र में भी तालाब और कुएं खुदवाए गए। यहां एक कुआं हमेशा आठ फीट पानी से भरा रहता है। इससे न केवल लोगों को फायदा हुआ बल्कि जानवरों और पक्षियों के लिए भी पानी की उपलब्धता सुनिश्चित हुई। निंगेन्हट्टी और गोरामठी गांवों में भी छोटे तालाब बनाए गए, साथ ही कुएं खोदे गए, जिससे गांव को पीने का पानी (drinking water supply) मिल पाया। इसके साथ-साथ, गांव के चारों ओर फलदार पेड़ लगाए गए, जिनसे आज गांववाले आय प्राप्त कर रहे हैं। इन सभी प्रयासों से जलस्तर बढ़ा, कुएं पानी से भर गए, और कृषि कार्य में वृद्धि हुई। लोग अब दुधारू जानवर पाल रहे हैं, जिससे क्षेत्र हरा-भरा हो गया है और पानी की समस्या हल हो गई है।

कुछ और बातें

शिवाजी दादा के साथ वक्त बिताने के इरादे से मैं बेलगावी में रुक गई। जिस मीटिंग के लिए मैं गई थी उसमें दादा भी शामिल थे। मीटिंग के अंतिम दिन दादा ने मुझे बताया कि वे अगले दिन डीएम ऑफिस जाने वाले हैं। उन्होंने अपने झोले से एक प्रचार पत्र निकाला और उसे मेरे साथ बैठी एक महिला को दे दिया जो मराठी पढ़ना-लिखना जानती थीं। उस प्रचार पत्र में लिखा था कि सरकारी अस्पताल (government hospital) की हालत खराब है, जो दवाइयां आ रही हैं वे किसी बड़ी फैक्ट्री से बनकर आ रही हैं और वे ठीक नहीं हैं। और इसके लिए वे एक शहर से दूसरे शहर तक समूह यात्रा (public awareness campaign) करने वाले हैं। चूंकि यात्रा का रास्ता बेलगावी से गुज़र कर नहीं जा रहा था उन्होंने डीएम ऑफिस के बाहर लोगों को इकट्ठा करके डीएम को यह बताने का फैसला किया कि डीएम ठीक दवाइयां उपलब्ध कराएं।

दादा ने मुझे कहा कि हम अगले दिन सुबह 10 बजे निकल जाएंगे। अगले दिन दादा अपने झोले के साथ घर आ गए। मैंने उन्हें ग्रीन टी ऑफर की तो उन्होंने हामी भर दी। चाय के वक्त हमारी बातचीत सर्वोदय आंदोलन (sarvodaya movement ), गांधी, नेहरू, टैगोर और पता नहीं कहां-कहां पहुंच गई। उसके बाद हम निकल गए। ऑटो में बैठ कर दादा से मैंने पूछ ही लिया कि वे मोबाइल क्यों नहीं रखते; उन्होंने कहा कि ज़रूरत नहीं पड़ती। रास्ते में मैंने दादा से एक और सवाल पूछ ही लिया कि वे अपना गुज़र-बसर कैसे करते हैं। दादा ने कहा कि उनका खर्चा सिर्फ यात्राओं और दवाई का है। खाना और रहना गांव में हो जाता है। और रहे चाय के शौकीन दादा तो उनके चाहने वाले उन्हें चाय का बड़ा गिलास पिलाते हैं। उन्होंने बताया कि उनके कुछ दोस्त हैं जो उन्हें पैसे भेजते हैं: “कई बार उन्हें मना करना पड़ता है कि अब मेरे पास पैसे हैं, और नहीं चाहिए।”

हम डीएम ऑफिस पहुंचे और दादा ने मेरे फोन से येलियप्पा को फोन लगाया तो पता चला कि वे 10 मिनट में आ रहे हैं। फिर उनका फोन आया कि आज प्रदर्शन नहीं हो रहा है। दादा के चेहरे पर इस बात से मायूसी आ गई। उन्होंने कुछ देर सोचने के बाद पूछा कि आप मेरे दोस्त के यहां चलोगे? मुझे तो उनकी हर बात पर जैसे हां ही कहना था। हम बस स्टॉप पहुंचे तो पता चला कि बस 2 घंटे बाद की है। हम कुछ देर बस स्टॉप पर ही बैठे रहे। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या आप मेरे गांव जाना चाहेंगी। हम तुरंत ही एक बस पकड़कर उनके गांव के लिए रवाना हो गए। उनके गांव करोड़ी पहुंचते ही मैंने देखा कि वहां लोग उन्हें नमस्कार करते हुए जा रहे थे। कुछ रुककर बातचीत भी कर रहे थे। हम उनके भाई के घर कुछ देर रुके जहां उन्होंने चाय पी और मैंने छास। फिर उन्होंने एक और फोन लगाया और कुछ देर बाद उनके एक मित्र ने अपनी गाड़ी से हमें मंज़िल तक छोड़ दिया। और इस तरह हम गंगाराम जी के घर पहुंच गए। गंगाराम उनके विद्यार्थी रह चुके थे और उन्हें सर कहकर बुलाते थे। वे ऑर्गेनिक फॉर्मिंग दादा से सीख रहे थे और कर रहे थे। इस काम में उनका बेटा शेखर भी उनकी मदद कर रहा था।

शिवाजी दादा के लिए चिंता का विषय है मिट्टी। वे कहते हैं कि मिट्टी की उर्वरता जा रही है और मिट्टी खराब हो रही है और अगर मिट्टी खराब होगी तो फसल को प्रभावित करेगी। इसलिए उनका मानना था कि मिट्टी की उर्वरता को सुधारना चाहिए। और इसके लिए दादा के अनुसार जैविक खेती (organic farming, natural farming) ही एक मात्र तरीका है। गंगाराम ने अपने खेत में इस वक्त गन्ने लगाए हुए हैं। वे रासायनिक उर्वरकों (chemical fertilizers) की जगह खाद, गुड़, गोबर और कुछ चीज़ों के मिश्रण का इस्तेमाल करते हैं। दादा हर हफ्ते उनके खेत देखने आते हैं और उन्हें सुझाव देते हैं। जब हम गए तो उन्होंने शेखर को बताया कि उन्होंने गन्ने बहुत पास-पास लगा दिए हैं जिससे जब वो बड़े होंगे तो एक की छांव दूसरे पर आएगी और उससे सबको धूप नहीं मिलेगी। दादा के दोस्त जीवन भोंसले जैविक खाद (organic manure) खरीदते हैं या बनाते हैं और उन्होंने वेजिटेबल गार्डन (home vegetable garden) बनाने का भी प्लान किया है। साथ ही साथ खेत के कोनों पर पपीते के पेड़ लगे हैं। मुझे जाते वक्त उन्होंने गन्ने और पपीते दिए।

इसके अलावा गंगाराम ने मधुमक्खी पालन ([beekeeping], [honey production])  भी किया है। यह शहद उत्पादन के साथ परागण (pollination) में भी मदद करता है। दादा चाहते हैं कि बाज़ार पर निर्भरता बिलकुल खत्म हो जाए और ज़रूरत का सारा सामान खुद ही उगाया (self-sustainable farming) जाए। दादा का प्लान खेतों के आसपास और स्कूल बाउंड्री पर पेड़ लगाना है। उन्होंने अब तक 15,00,00,00 पेड़ लगाए हैं। उन्होंने गांव में Gliricidia के कई पेड़ लगाए हैं जिसमे गुलाबी रंग के बहुत खूबसूरत फूल आते हैं। इसके अलावा उनकी योजना है कि स्कूलों (fruit tree plantation in schools) में बच्चे मिलकर आम, काजू और आंवला के पेड़ लगाएं।

जब आप इस तरह का काम करते हैं जहां आप आम लोगों के हक के लिए लड़ते हैं, सवाल करते हैं तो आपको नापसंद करने वाले लोग भी होते हैं। एक बार दादा ने कुछ शिक्षकों के क्लास में समय पर ना आने पर डीएम से बात की। कुछ दिनों बाद दादा बस में गांव जा रहे थे और तब उस शिक्षक ने उन्हें बस से उतरने को कहा। उतरने पर वह कहने लगे कि शिकायत क्यों की और उन्हें खाई में धक्का दे दिया। इत्तेफाकन खेत में काम कर रहे लोग समय पर आ गए और उन्हें बचा लिया। दादा कहते हैं कि उन्हें प्यार करने वालों का आंकड़ा, नापसंद करने वालों के मुकाबले कहीं अधिक अधिक है।  इतना कि जब हम गांव देखने जाने के पहले बेलगावी बस अड्डे पर नाश्ता करने के लिए गए तो रेस्टोरेंट वाले ने बहुत इसरार करने पर भी हमसे पैसे नहीं लिए।

अपने जीवन में मैंने पहली बार किसी इंसान की ताकत को देखा, ऐसी ताकत जो दूसरों को दबाती नहीं, उठाती है (grassroots leadership); जिसमें ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं, सहयोग के साथ आगे बढ़ना होता है; जिसमें नफरत की जगह प्रेम और अन्याय की जगह न्याय की भावना ([social justice], [non-violent activism]) है। मेरे लिए तो दादा वह मशाल हैं जो न जाने कितनों के जीवन रोशन कर चुके हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सामाजिक कार्यकर्ता शिवाजी दादा – भाग 1

निधि सोलंकी

गांधीवादी विचारों वाले शिवाजी दादा ने अपना संपूर्ण जीवन सामाजिक भलाई के कामों में लगाया। उन्होंने लोगों की अनेक समस्याओं के समाधान दिए एवं उनके बेहतर भविष्य के लिए नींव रखी। अपने कार्यों के लिए पुरस्कारों से सम्मानित शिवाजी दादा से मेरी मुलाकात मेरी एक फील्ड यात्रा के दौरान हुई और मैं उनसे प्रभावित हुए बिना न रह सकी। उनकी सादगी और कार्यों ने मुझे उनके बारे में लिखने के लिए प्रेरित किया। प्रस्तुत है यहां दो लेखों की शृंखला में उनके कार्यों और जीवन का परिचय।

म तौर पर हम सभी रोटी, कपड़ा, मकान, और जाने किस-किस चीज़ के पीछे पूरी ज़िंदगी भागते रहते हैं। लेकिन कुछ समय पहले एक शख्सियत से मेरा परिचय इन शब्दों में कराया गया था: “इनका कोई घर नहीं है और पूरा गांव ही इनका घर है।” और वह शख्सियत थे शिवाजी दादा।

शिवाजी दादा ने गांववासियों की अनगिनत समस्याओं के लिए न केवल संघर्ष किया, बल्कि उनके समाधान के लिए ठोस कदम भी उठाए। पानी की समस्या के लिए उन्होंने गांववासियों के साथ मिलकर वॉटरशेड (watershed development), कुएं और तालाब बनवाए और लगभग 1.50 लाख पेड़ लगवाए। बच्चों के लिए नाइट स्कूल (night schools in rural India) शुरू किए, बालवाड़ी शुरू की, इत्यादि। और अभी वे आर्गेनिक फॉर्मिंग (organic farming) के काम में ज़ोर-शोर से लगे हुए हैं।

शिवाजी दादा न केवल गांधी की बातों को मानते हैं, बल्कि उन्हें जीते भी हैं। व्यक्तित्व के सरल शिवाजी दादा का पहनावा भी उतना ही साधारण है। वैसे उनका पूरा नाम शिवाजी कागनीकर है, लेकिन प्रेम से सभी उन्हें ‘शिवाजी दादा’ कहकर बुलाते हैं। उनका जन्म बेलगांव शहर के पास करोड़ी नामक गांव में हुआ था। अपनी मातृभाषा मराठी के अलावा वे कन्नड़, हिंदी और अंग्रेज़ी भी जानते हैं। मुश्किल हालातों एवं गरीबी में बड़े हुए शिवाजी ने कॉलेज के दूसरे वर्ष में ही पढ़ाई छोड़ दी थी ताकि वे लोगों के लिए कुछ कर सकें। अपने जीवन में उन्होंने जातिगत भेदभाव (caste discrimination in India) झेला। इसके बाद भी जब दादा को अपना भविष्य बनाने का मौका मिला, ऐसा मौका जिससे उनके जीवन की सारी मुश्किलें दूर हो जाती, तो उन्होंने वह मौका हाथ से जाने दिया जिसके कारण लोग उन्हें पागल भी कहते थे। दादा पढ़ाई छोड़ने के ठीक बाद ही विनोबा भावे द्वारा शुरू किए सर्वोदय आंदोलन (Sarvodaya Movement) में शामिल हो गए थे।

इसके बाद उन्होंने सामाजिक कार्यकर्ता श्रीरंग कामत और बाद में उनके बेटे दिलीप कामत के साथ मिलकर कामगारों के हक के लिए कई प्रोटेस्ट किए। उसी दौरान उनकी मुलाकात वसंत पल्शीकर से हुई, जो उनके मार्गदर्शक बने। शिवाजी दादा मज़दूरों का समर्थन करते थे, लेकिन मालिकों से घृणा नहीं करते थे। वे कहते थे कि मज़दूरों के हक के लिए लड़ना ज़रूरी है, लेकिन मालिकों से नफरत का रास्ता अपनाना ठीक नहीं। और इस वजह से लोग उन्हें एंटी कम्युनिस्ट (anti-communist views) कहते थे। शिवाजी दादा ने उस काम को छोड़ देना ही ठीक समझा।

इसके बाद वे एक पादरी से मिले, जो चर्च में प्रार्थना करने की बजाय लोगों के लिए कुछ करने में यकीन करते थे। शिवाजी दादा ने उनके साथ मिलकर ‘जन जागरण’ नामक एक संस्था की शुरुआत की। इसके अंतर्गत उन्होंने स्व-सहायता समूह, वॉटरशेड, वृक्षारोपण जैसे काम किए। लेकिन बाद में उन्होंने देखा कि स्व-सहायता समूहों (self-help groups) में भी भ्रष्टाचार होने लगा है। उन्होंने ऐसे कई काम सालों तक करने के बाद छोड़ दिए क्योंकि वे ऐसी संस्थाओं का हिस्सा नहीं बनना चाहते थे, जो लोगों के लिए शुरू की गई थीं लेकिन आगे चलकर लोगों के लिए नहीं रहीं। जन जागरण के लिए इतना काम करने के बाद भी उनका ज़िक्र वेबसाइट या संस्था के वेबपेज (NGO website recognition) पर नहीं है। पूछने पर उन्होंने कहा “मुझे फर्क नहीं पड़ता कि मेरा नाम हो या नहीं, मैं बस काम करते रहना चाहता हूं।”

60 वर्ष की उम्र तक वे साइकिल से ही गांव आया-जाया करते थे। लेकिन डायबिटीज़ (diabetes) और ब्लड प्रेशर (blood pressure) के बाद से उन्होंने साइकिल चलाना छोड़कर बस से ही आना-जाना शुरू किया। वे अपना एक छोटा सा झोला, जिसमें किताबें, कागज़ और उनकी दवाइयां होती हैं, उठाए इधर-उधर काम करने में लगे रहते हैं। वे जहां भी जाते हैं, लोगों को काम करने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। उन्होंने मेरे सामने अपने एक पुराने स्टूडेंट को कॉल किया, जो अभी किसी इंटरनेशनल स्कूल (international school construction) की बिल्डिंग बनाने में काम कर रहा है, और कहा, “हमें जल्दी ही कलिका केंद्र फिर से शुरू करना है क्योंकि निधि ताई आई हैं, खास उनके लिए।” अब आप सोच रहे होंगे कि ये कलिका केंद्र क्या है?

दरअसल, बेलगाम और उसके आसपास के गांव में एक समस्या शिक्षा की थी। बहुत से गांवों में स्कूल नहीं थे। जहां स्कूल थे, वहां बच्चे स्कूल नहीं जा रहे थे। ऐसे में रात में स्कूल शुरू करने का विचार आया। इसे ही कलिका केंद्र कहा गया। कलिका केंद्र बच्चों के लिए शिक्षा पाने का एक अवसर तो था ही, महिलाओं के लिए अपनी समस्याएं साझा करने का माध्यम भी था।

कई दशकों तक काम करने के बाद, 2019 में कर्नाटक राज्य ने शिवाजी दादा को राज्य के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान, यानी राज्योत्सव पुरस्कार (Rajyotsava award Karnataka) से सम्मानित किया। उस वक्त एक संस्था द्वारा दिए गए फंड से गांवों में नाइट स्कूल चल रहे थे। फंड की कमी के कारण नाइट स्कूल के कार्यकर्ताओं को पर्याप्त पैसा नहीं मिल रहा था।

किसी ने इसी बात को मुद्दा बनाकर कहा कि शिवाजी दादा तो पुरस्कार बटोर रहे हैं, लेकिन तुम्हें इतना कम पैसा दिलवा रहे हैं। और इसी कारण लोगों ने काम बंद कर दिया। दादा के बहुत समझाने पर भी वे नहीं माने। इस बात से दादा को बहुत ठेस पहुंची क्योंकि वे नाइट स्कूल के महत्व को न केवल समझते थे, बल्कि इतने सालों में उन्होंने इसके प्रभाव को भी देखा था।

शिवाजी दादा के लिए यह चिंता का विषय था, और एक दिन उनकी मुलाकात उनके पुराने विद्यार्थी से हुई। बातचीत में उस विद्यार्थी ने दादा को बताया कि कैसे नाइट स्कूल ने उसकी मदद की और कहा: “आपने मुझे तो लिखना-पढ़ना सिखा दिया, लेकिन मेरे बच्चों का क्या होगा?” यह सुनते ही दादा ने पुनः स्कूल शुरू करने का निर्णय लिया।

उनकी इसी लगन के चलते कुछ लोग दादा को बेलगाम का अन्ना (Belgaum Anna) भी कहते हैं। (स्रोत फीचर्स)

शिवाजी दादा के बारे में कुछ और बातें अगली कड़ी में

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सराहनीय व्यक्तित्व अन्ना मणि

संकलन: आभा सूर

न्ना मणि दक्षिण भारत की एक पूर्व रियासत, त्रावणकोर रियासत, के एक समृद्ध परिवार में पली-बढ़ीं। यह रियासत अब केरल का हिस्सा है। 1918 में जन्मी अन्ना मणि आठ भाई-बहनों में सातवीं थीं। उनके पिता एक सिविल इंजीनियर थे, और उनके इलायची के बड़े बागान थे। उनका परिवार प्राचीन सीरियाई ईसाई चर्च से सम्बंधित था; हालांकि उनके पिता ताउम्र अनिश्वरवादी रहे।

मणि का परिवार ठेठ उच्च-वर्गीय पेशेवर परिवार था, जहां बचपन से ही लड़कों की तर्बियत बेहतरीन करियर बनाने के हिसाब से की जाती थी, जबकि बेटियों को शादी के लिए तैयार किया जाता था। लेकिन अन्ना मणि ने इसकी कोई परवाह नहीं की। उनके जीवन के शुरुआती साल किताबों में डूबे हुए बीते। आठ साल की उम्र तक उन्होंने स्थानीय सार्वजनिक लाइब्रेरी में उपलब्ध लगभग सभी मलयालम किताबें पढ़ ली थीं और बारह साल की उम्र तक उन्होंने लगभग सभी अंग्रेज़ी किताबें पढ़ ली थीं। जब उनके आठवें जन्मदिन पर उनके परिवार ने उन्हें पारंपरिक उपहार स्वरूप हीरे की बालियां दीं तो उन्होंने यह उपहार लेने से इन्कार कर दिया और इसके बदले एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका (Encyclopaedia Britannica) को चुना। किताबों ने उन्हें नए विचारों से परिचित कराया और उनमें सामाजिक न्याय (social justice) की गहरी भावना भर दी, जिसने उनके जीवन को प्रभावित किया और आकार दिया।

1925 में, वाइकोम सत्याग्रह (Vaikom Satyagraha) अपने चरम पर था। दरअसल वाइकोम शहर के एक मंदिर के पुजारियों ने मंदिर के बगल वाली सड़क से दलितों के आने-जाने पर रोक लगाई थी। पुजारियों के इस निर्णय के विरोध में त्रावणकोर के सभी जाति और धर्म के लोग इकट्ठा हुए थे। महात्मा गांधी लोगों के इस सविनय अवज्ञा आंदोलन (वाइकोम सत्याग्रह – civil disobedience movement) को अपना समर्थन देने के लिए वाइकोम आए थे। सत्याग्रह का आदर्श वाक्य, ‘एक जाति, एक धर्म और एक ईश्वर’ प्रगतिवादियों का नारा बन गया था। उनकी मांग थी कि सभी हिंदुओं को, चाहे वे किसी भी जाति के हों, राज्य के मंदिरों में प्रवेश दिया जाए। इस सत्याग्रह ने, और विशेष रूप से गांधीजी की शामिलियत ने, युवा और आदर्शवादी अन्ना को बहुत प्रभावित किया।

बाद के सालों में, जब राष्ट्रवादी आंदोलन ने गति पकड़ी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता (complete independence) को अपना लक्ष्य बनाया तो अन्ना मणि धीरे-धीरे राष्ट्रवादी राजनीति से आकर्षित हुईं। हालांकि वे किसी विशेष आंदोलन में शामिल नहीं हुईं, लेकिन उन्होंने अपनी राष्ट्रवादी सहानुभूति के प्रतीक के रूप में खादी पहनना शुरू कर दिया। राष्ट्रवाद की सशक्त भावना ने उनमें अपनी स्वछंदता के लिए लड़ने की तीव्र इच्छा को भी मजबूत किया। जब उन्होंने अपनी बहनों के नक्श-ए-कदम, जिनकी शादी किशोरावस्था में ही हो गई थी, पर चलने के बजाय उच्च शिक्षा (higher education) हासिल करने की ठानी तो उनके परिवार ने न तो कोई कड़ा विरोध किया और न ही कोई हौसला दिया।

अन्ना मणि चिकित्सा की पढ़ाई करना चाहती थीं, लेकिन जब यह संभव नहीं हुआ तो उन्होंने भौतिकी (physics) पढ़ने का विकल्प चुना क्योंकि वे इस विषय में अच्छी थीं। अन्ना मणि ने मद्रास (अब चेन्नई) के प्रेसीडेंसी कॉलेज (Presidency College, Chennai) में भौतिकी ऑनर्स प्रोग्राम में दाखिला लिया। 1940 में, कॉलेज की पढ़ाई समाप्त करने के एक साल बाद अन्ना मणि को भारतीय विज्ञान संस्थान (Indian Institute of Science, IISc) में भौतिकी में शोध करने के लिए छात्रवृत्ति मिली और उन्हें सी. वी. रमन की प्रयोगशाला में स्नातक छात्र के रूप में लिया गया। रमन की प्रयोगशाला में, अन्ना मणि ने हीरे और माणिक की स्पेक्ट्रोस्कोपी (spectroscopy of diamonds and rubies) पर काम किया। उस समय रमन की प्रयोगशाला हीरे के अध्ययन में लगी हुई थी क्योंकि उस समय रमन का विवाद चल रहा था – मैक्स बोर्न के साथ क्रिस्टल डायनेमिक्स (crystal dynamics) के सिद्धांत पर और कैथलीन लोन्सडेल के साथ हीरे की संरचना पर। रमन के पास भारत और अफ्रीका के तीन सौ हीरे थे और उनके सभी शोधार्थी हीरे के किसी न किसी पहलू पर काम कर रहे थे।

अन्ना मणि ने तीस से अधिक विविध हीरों के प्रतिदीप्ति (fluorescence) वर्णक्रम, अवशोषण वर्णक्रम और रमन वर्णक्रम रिकॉर्ड करके विश्लेषण किया। साथ ही उन्होंने हीरों के वर्णक्रम पर तापमान के प्रभाव और ध्रुवीकरण प्रभावों को भी देखा। प्रयोग लंबे और श्रमसाध्य थे: (हीरे) क्रिस्टल को तरल हवा के तापमान (-196 डिग्री सेल्सियस) पर रखा जाता था, और कुछ हीरों की दुर्बल चमक के वर्णक्रम को फोटोग्राफिक प्लेट पर रिकॉर्ड करने के लिए पंद्रह से बीस घंटे इस तापमान पर रखना पड़ता था। अन्ना मणि ने प्रयोगशाला में कई घंटों तक काम किया, कभी-कभी तो उन्होंने रात-रात भर काम किया।

1942 से 1945 के बीच उन्होंने हीरे और माणिक की कांति पर पांच शोधपत्र (research papers) प्रकाशित किए। इन शोधपत्रों का कोई सह-लेखक नहीं था, सभी अकेले उन्होंने लिखे थे। अगस्त 1945 में उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय में अपना पीएचडी शोध प्रबंध प्रस्तुत किया, और उन्हें इंग्लैंड में इंटर्नशिप के लिए सरकारी छात्रवृत्ति दी गई। हालांकि, अन्ना मणि को कभी भी पीएचडी की उपाधि नहीं दी गई जिसकी वे हकदार थीं। मद्रास विश्वविद्यालय, जो उस समय औपचारिक रूप से भारतीय विज्ञान संस्थान में किए गए कार्य के लिए डिग्री प्रदान किया करता था, का कहना था कि अन्ना मणि के पास एमएससी की डिग्री नहीं है और इसलिए उन्हें पीएचडी उपाधि नहीं दी जा सकती। मद्रास विश्वविद्यालय ने इस बात को नज़रअंदाज किया कि अन्ना मणि ने भौतिकी ऑनर्स और रसायन विज्ञान ऑनर्स (chemistry honours) में ग्रेजुएट किया है, और अपनी अंडर-ग्रेजुएट की डिग्री के आधार पर भारतीय विज्ञान संस्थान में ग्रेजुएट अध्ययन के लिए छात्रवृत्ति हासिल की है। उनका संपूर्ण पीएचडी शोध प्रबंध आज तक रमन शोध संस्थान (Raman Research Institute Museum) के संग्रहालय में अन्य जिल्दबंद शोध प्रबंधों के साथ रखा हुआ है, बिना इस भेद के कि अन्ना मणि को इस शोधकार्य के बावजूद पीएचडी डिग्री नहीं मिली। हालांकि, अन्ना मणि ने इस अन्याय के खिलाफ कोई गिला-शिकवा नहीं पाला, और ज़ोर देकर यही कहा कि पीएचडी डिग्री न होने से उनके काम/जीवन पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता।

रमन प्रयोगशाला में अपना शोध कार्य पूरा करने के तुरंत बाद वे इंग्लैंड चली गईं। हालांकि उनका मन भौतिकी में अनुसंधान कार्य करने का था, लेकिन उन्होंने मौसम सम्बंधी उपकरणों (meteorological instruments) में विशेषज्ञता हासिल की क्योंकि उस समय उनके लिए यही एकमात्र छात्रवृत्ति उपलब्ध थी।

अन्ना मणि 1948 में स्वतंत्र भारत लौट आईं और पुणे के भारतीय मौसम विभाग (India Meteorological Department, IMD) में शामिल हो गईं। विभाग में वे विकिरण उपकरणों के निर्माण की प्रभारी थीं। लगभग 30 साल के अपने करियर में उन्होंने वायुमंडलीय ओज़ोन (atmospheric ozone) से लेकर अंतर्राष्ट्रीय उपकरणों की तुलना की आवश्यकता, और मौसम सम्बंधी उपकरणों के राष्ट्रीय मानकीकरण जैसे विषयों पर कई शोधपत्र प्रकाशित किए। 1976 में वे भारतीय मौसम विभाग के उप महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुईं। इसके बाद वे रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट में तीन साल के लिए विज़िटिंग प्रोफेसर रहीं।

उन्होंने दो पुस्तकें भी लिखी हैं: दी हैंडबुक फॉर सोलर रेडिएशन डैटा फॉर इंडिया (1980) और सोलर रेडिएशन ओवर इंडिया (1981)। उन्होंने भारत में पवन ऊर्जा (wind energy in India) के दोहन के लिए कई परियोजनाओं पर काम किया। बाद में, अन्ना मणि ने बैंगलोर के औद्योगिक उपनगर में एक छोटी-सी कंपनी शुरू की जो पवन गति और सौर ऊर्जा को मापने के उपकरण बनाती थी। अन्ना मणि का मानना था कि भारत में पवन और सौर ऊर्जा (solar energy) के विकास के लिए विभिन्न क्षेत्रों में आपतित सौर ऊर्जा और पवन पैटर्न की विस्तृत जानकारी की ज़रूरत है। और उन्हें उम्मीद थी कि उनके कारखाने में बने उपकरण इस संदर्भ में काफी उपयोगी होंगे।

पर्यावरण के मुद्दों में रुचि और भागीदारी होने बावजूद अन्ना मणि ने खुद को कभी पर्यावरणवादी (environmentalist) के रूप में नहीं देखा। वे ऐसे लोगों को ‘कारपेट बैगर्स’ कहा करती थीं, जो हमेशा यहां से वहां और वहां से यहां डोलते रहते थे। वे एक स्थान पर टिके रहना पसंद करती थीं।

अपने जीवन और उपलब्धियों के बारे में अन्ना मणि का नज़रिया बहुत ही तटस्थ था। उन्होंने उस ज़माने में भौतिकी पढ़ने को कोई बड़ी बात नहीं माना, जिस ज़माने में भारत में गिनी-चुनी महिला भौतिकविद (women physicists) थीं। उन्होंने एक महिला वैज्ञानिक के रूप में अपने सामने आने वाली कठिनाइयों और भेदभाव को दिल पर नहीं लिया और ‘बेचारेपन’ की राजनीति से दूर ही रहीं, उससे घृणा ही की। लेकिन महिलाओं की क्षमता को सीमित करने वाली एवं महिला और पुरुषों की बौद्धिक क्षमताओं में अंतर बताने वाली, थोपी गई लैंगिक पहचान (gender bias) का उन्होंने लगातार सक्रियता से विरोध किया।

इसमें कोई दो राय नहीं कि अन्ना मणि सफलता के ऐसे पड़ाव पर पहुंचीं जिसकी आकांक्षा चंद महिलाएं (या पुरुष) कर सकते हैं। वे उपलब्ध सीमित सांस्कृतिक दायरों से आगे गईं, और न केवल अपने लिए जगह बनाई और अपनी प्रयोगशाला बनाई, बल्कि अपनी एक वर्कशॉप, एक फैक्ट्री बनाई। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रकृति के रहस्यों की खोज

सत्यवती एम. सिरसाट

सत्यवती एम. सिरसाट
(अक्टूबर 1925 – जुलाई 2010)

पने बारे में लिखने बैठें, तो बचपन से जुड़े अनुभव और यादें उभर ही आती हैं। मेरा जन्म कराची में हुआ था, और मेरे पिता के शिपिंग व्यवसाय के कारण हम कई देशों में भटक ते रहे। मेरे माता-पिता कट्टर थियोसॉफिस्ट (theosophist) थे इसलिए उन्होंने मुझे बेसेंट मेमोरियल स्कूल में भेजा, जिसे डॉ. जॉर्ज और रुक्मणी अरुंडेल चलाते थे। रुक्मणी ने कलाक्षेत्र में रहते हुए प्राचीन भारतीय कला (ancient indian art) और संगीत का पुनर्जागरण किया था। किशोरावस्था में मैंने पॉल डी क्रुइफ की किताब दी माइक्रोब हंटर्स पढ़ी, जिसने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला। औपचारिक शिक्षा के साथ मुझे सांस्कृतिक धरोहर का भी लाभ मिला। मैंने मुंबई के सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज से माइक्रोबायोलॉजी (Microbiology Degree) में डिग्री प्राप्त की। पहली बार जब मैंने प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी (Light Microscope) से ग्राम पॉज़िटिव व ग्राम नेगेटिव जीवाणुओं (Gram Positive and Gram Negative Bacteria) की मिली-जुली स्लाइड देखी तो मुझे ऐसा जज़बाती रोमांच हुआ जिसे मैं कभी भूल नहीं सकती।

डिग्री प्राप्त करने के अगले ही दिन मैं बिना सोचे-समझे प्रयोगशाला के अध्यक्ष और टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल (Tata Memorial Hospital) के प्रमुख पैथोलॉजिस्ट (कैंसर और सम्बंधित रोग) (Pathologist for Cancer)  डॉ. वी. आर. खानोलकर के कार्यालय के बाहर खड़ी थी। न कोई फोन कॉल, न कोई अपॉइंटमेंट – मैं तो बस उनसे मुलाकात के इंतज़ार में खड़ी रही। करीब दो घंटे बाद उन्होंने मुझे अंदर बुलाया और लंबी बातचीत की। मुझे नहीं पता था कि यह उनका युवाओं का साक्षात्कार लेने का तरीका था। अंत में उन्होंने मुझसे पूछा कि अभी जिस बारे में बातचीत हुई है, क्या मैं वह सब संभाल पाऊंगी। मैंने युवा अक्खड़पन के साथ कहा, “बिलकुल!” और इस तरह मेरे विज्ञान के जीवन की शुरुआत हुई!

डॉ. खानोलकर बहुआयामी व्यक्तित्व थे। वे एक चिकित्सक थे जिनमें वैज्ञानिक सोच (Scientific Temperament)  तो स्वाभाविक रूप से थी। साथ ही वे कला प्रेमी, भाषाविद और कई भाषाओं के साहित्य के विद्वान भी थे। मैंने उनसे व्यापक वैज्ञानिक और कलात्मक दृष्टिकोण सीखा।

1948 में, भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने टाटा मेमोरियल के पैथोलॉजी विभाग को एक पूर्ण कैंसर अनुसंधान संस्थान (Cancer Research Institute)  बनाने का निर्णय लिया। एक वरिष्ठ शोध छात्र से ऊपर उठकर मैं इस नए शोध केंद्र की संस्थापक सदस्य बनी। हम तीन लोगों को विदेश भेजा गया ताकि हम जैव-चिकित्सा अनुसंधान (Biomedical Research) में उपयोगी नई तकनीकों जैसे जेनेटिक्स (Genetics), टिशू कल्चर (Tissue Culture) और इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी (Electron Microscopy) सीखकर लौटें। विज्ञान के दिग्गजों – हैंसस सेलिये, अल्बर्ट ज़ेंट-गेओरगी, लायनस पॉलिंग, एलेक्स हैडो, चार्ल्स ओबरलिंग और विलियम ऐस्टबरी – की प्रयोगशालाओं में काम करके विज्ञान की विधियों के साथ-साथ, मैंने वह वैज्ञानिक तहजीब भी सीखी जो आधुनिक जैव-चिकित्सा अनुसंधान के लिए आवश्यक है।

लौटकर मैंने अल्ट्रास्ट्रक्चरल सायटोलॉजी और डायग्नोस्टिक मॉलिक्यूलर पैथोलॉजी (Molecular Pathology) में भारत की पहली बायोमेडिकल प्रयोगशाला स्थापित की। इस केंद्र में विद्यार्थियों की भीड़ जुटने लगी, और यह अपने काम के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हो गया। इस प्रयोगशाला में हमने कोशिका झिल्ली के सामान्य से असामान्य में परिवर्तित होने, कैंसर, जंक्शनल कॉम्प्लेक्स और कैंसर के फैलाव, वायरस, रक्त, स्तन और नाक के कैंसर पर अध्ययन किए। हमारा मुख्य ध्यान मुंह के कैंसर (Oral Cancer from Tobacco) की कैंसर-पूर्व स्थितियों (Oral Pre-Cancer), जैसे ल्यूकोप्लाकिया (Leukoplakia) और ओरल सबम्यूकस फाइब्रोसिस (Oral Submucous Fibrosis) तथा, सच कहूं तो, भारत में पान और तंबाकू के सेवन से फैलने वाले मुंह के कैंसर पर था। प्रयोगशाला में प्रशिक्षित शोधार्थियों को औपचारिक वैज्ञानिक प्रशिक्षण के साथ-साथ और भी बहुत कुछ सीखने को मिला। जब बॉम्बे युनिवर्सिटी ने लाइफ साइंसेज़ में स्नातक और स्नातकोत्तर कार्यक्रम शुरू किए तो यह एक वरदान था।

मैं हमेशा अस्पताल के गलियारों में पीड़ित मानवता के प्रति जागरूक रही। हम अपने काम के वैज्ञानिक पहलुओं (जैसे इलेक्ट्रॉन हिस्टोकेमिस्ट्री, इम्यून इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी, इलेक्ट्रॉन ऑटोरेडियोग्राफी, क्रायोइलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी) के साथ-साथ मानवीय पक्ष को लेकर भी सचेत थे। कैंसर रोगियों के जीवन और उनकी मृत्यु की निकटता ने मुझे शांति अवेदना आश्रम – भारत का पहला हॉस्पाइस (India’s First Hospice) (मरणासन्न रोगियों का आश्रय) – शुरू करने के लिए प्रेरित किया। मैं इस संस्थान की संस्थापक ट्रस्टी और काउंसलर रही।

मैं यह बता चुकी हूं कि कैसे युवावस्था में रोमांस और यथार्थ ने मेरे मन पर गहरा प्रभाव डाला और मुझे इस रास्ते पर धकेल दिया। जहां तक मार्गदर्शकों की बात है, मेरे पहले गुरु मेरे पिता थे। वे स्वभाव से एक अध्येता थे जिन्होंने शुरुआत सेंट ज़ेवियर कॉलेज में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर के रूप में की थी, लेकिन बाद में शिपिंग के क्षेत्र में चले गए। वे खूब पढ़ते थे और संस्कृत के विद्वान थे। ये गुण उन्होंने अपने बच्चों को भी दिए। वे लेखक भी थे।

वैज्ञानिक जीवन में मेरे पहले मार्गदर्शक डॉ. खानोलकर थे, और दूसरे मेरे पति, डॉ. एम. वी. सिरसाट, जिन्होंने मेरे जीवन में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हमारे बीच उम्र का काफी अंतर था, लेकिन वे मेरे दोस्त, दार्शनिक और मार्गदर्शक थे। वे एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जाने-माने ऑन्को-पैथोलॉजिस्ट (कैंसर-निदान विशेषज्ञ) (Onco-Pathologist)  थे, जो सामान्य से रोगग्रस्त अवस्था की ओर संक्रमण, विशेषकर नियोप्लेसिया और दुर्दम्यता (मैलिगनेंसी) के संदर्भ में गहन जानकारी रखते थे। वे नौजवान पैथोलॉजिस्ट्स के बीच बेहद लोकप्रिय शिक्षक थे। जब भी मुझे इस भयावह बीमारी (Cancer Diagnosis) की जटिलताओं से जूझना पड़ता, वे इसे धैर्य और स्नेह से हल कर देते। हमारा यह साथ काफी अद्भुत था। उन्होंने मेरे शोध को हर संभव समर्थन दिया और मेरी पेशेवर उपलब्धियों पर गर्व महसूस किया।

क्या मैंने कभी अपना करियर बदलने पर विचार किया? नहीं, कभी नहीं! मैं कभी भी अपने पेशे को बदलने के बारे में सोच नहीं सकी। यह सिर्फ एक नौकरी नहीं थी, यह टाटा मेमोरियल सेंटर और पूरी दुनिया की प्रयोगशालाओं में मेरी साधना और तपस्या थी। यह मेरे काम के साथ एक “प्रेम कहानी” (Passion for Science Career) थी, जिसमें मैंने जो ज्ञान अर्जित किया, उसे भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के सैकड़ों विद्यार्थियों तक पहुंचाया।

सेवानिवृत्त के बाद भी मैं टाटा मेमोरियल सेंटर की मेडिकल एथिक्स कमेटी (Medical Ethics Committee)  के अध्यक्ष के रूप में काम करती रही। मैंने 17 साल तक भारतीय विद्या भवन आयुर्वेदिक केंद्र में ‘प्राचीन ज्ञान और आधुनिक खोज’ पर काम किया। इस कार्य में संस्कृत के ज्ञान ने मेरी काफी मदद की। मैंने वृद्धात्रयी – चरक, सुश्रुत और वाग्भट में कैंसर वर्गीकरण (Cancer Classification in Ayurveda)  के एक प्रोजेक्ट पर काम किया। यह देखकर हैरानी होती है कि इन प्राचीन विद्वानों के विवरण आधुनिक विज्ञान से कितनी अच्छी तरह मेल खाते हैं। उन्हें विभिन्न ऊतकों (टिश्यू) के ट्यूमर और उनके जैविक व्यवहार, सौम्य और घातक (Benign and Malignant Tumors) (बेनाइन और मैलिग्नेंट) कैंसर तथा हड्डी और रक्त कैंसर (Bone and Blood Cancer) के बारे में गहरी जानकारी थी। उनके पास तो केवल मानव शरीर, मृत व्यक्ति का बारीकी से निरीक्षण तथा उनका अंतर्ज्ञान ही एकमात्र साधन था।

आखिर में युवा वैज्ञानिकों के लिए कुछ बातें: क्या आप एक सम्मानित वैज्ञानिक कहलाना चाहते हैं? जीवन के सिद्धांत सख्त होते हैं! अपने काम के प्रति ईमानदार रहें और खुद से सच्चे रहें। अनुशासन बनाए रखें। अपने साथी वैज्ञानिकों के काम का कभी अपमान न करें। सतर्क रहें – अपनी लॉगबुक या रिकॉर्ड में किसी पहले से तय सिद्धांत के अनुसार कभी हेरा-फेरी न करें। सबसे ज़रूरी, जीवन सीखने के लिए है – तो सीखते रहिए, सीखते रहिए और सीखते रहिए! आप बहुत रोमांचक यात्रा पर हैं – वह यात्रा है प्रकृति के रहस्यों की खोजबीन की यात्रा! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कमला सोहोनी एक वैज्ञानिक महिला

संकलन : वासुमती धुरू

कमला सोहोनी
(जून 1911 – जून 1998)

मला सोहोनी (Kamala Sohonie) एक शांत, सहज और मितभाषी महिला थीं। उन्हें देखकर लगता था कि उनका जीवन भी शांत और सरल रहा होगा। लेकिन ऐसा नहीं था। एक महिला (woman scientist) के रूप में विज्ञान (science) में अपनी पहचान बनाने के लिए उन्हें कई अड़चनों का सामना करना पड़ा था, कई भंवर पार करने पड़े थे। वह भी तब जब उनके परिवार का पूरा समर्थन उनके साथ था। 

नन्हीं कमला (भागवत) बहुत मोटी थीं। उनके एक चाचा प्रतिष्ठित रसायनशास्त्री (chemist) थे और वे भी मोटे थे। तो नन्हीं, मोटी लड़की ने सोच लिया कि उसकी नियति भी एक प्रसिद्ध रसायनशास्त्री (biochemist) बनना है। उनके पिता नारायणराव भागवत और चाचा माधवराव भी जाने-माने रसायनशास्त्री थे और टाटा विज्ञान संस्थान (Tata Institute of Science) (अब भारतीय विज्ञान संस्थान) (Indian Institute of Science, IISc), बैंगलोर के पहले-पहले स्नातकों में से थे। लिहाज़ा, बंबई विश्वविद्यालय (University of Bombay) से भौतिकी (physics) और रसायन विज्ञान (chemistry) में बी.एससी. (B.Sc.) प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद कमला ने सोचा कि उसी संस्थान में शोध करना लाज़मी है। लेकिन जब उन्होंने वहां प्रवेश के लिए आवेदन किया, तो इन्कार मिलने में देर नहीं लगी। कारण यह बताया गया था कि वे महिला हैं। संस्थान के निदेशक और नोबेल पुरस्कार विजेता सर सी.वी. रमन (C.V. Raman, Nobel Laureate) का मत था कि महिलाएं वैज्ञानिक शोध (scientific research) के लिए नहीं बनी होतीं।

कमला ने इस लैंगिक भेदभाव (gender discrimination) आधारित अस्वीकृति को मानने से इन्कार कर दिया। महात्मा गांधी पर दृढ़ विश्वास के चलते, उन्होंने प्रवेश मिलने तक सर सी.वी. रमन के कार्यालय में सत्याग्रह (protest) करने का फैसला किया। प्रोफेसर रमन ने अंततः उन्हें एक शर्त पर प्रवेश दिया कि वे एक साल तक परिवीक्षा (probation) पर रहेंगी। इसका मतलब यह था कि वे काम तो कर सकती थीं, लेकिन उनका काम तभी मान्य होगा जब निदेशक काम की गुणवत्ता से संतुष्ट होंगे। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उनकी (कमला की) उपस्थिति पुरुष शोधकर्ताओं (male researchers) का ध्यान न भटकाए। कमला ने इन शर्तों को स्वीकार कर लिया लेकिन ऐसा करते हुए उनके आक्रोश को शायद ही कोई महसूस कर सकता है। इस तरह, 1933 में विज्ञान में उनके सफर की पहली बाधा पार हुई।

भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलोर में कमला ने अपने शिक्षक श्री श्रीनिवासय्या के मार्गदर्शन में कड़ी मेहनत की। वे बहुत सख्त और बहुत अधिक अपेक्षा करने वाले थे, लेकिन योग्य छात्रों को ज्ञान देने में उतने ही उत्सुक रहते थे। एक साल तक कमला की लगन और अनुशासन को देखकर रमन संतुष्ट हो गए। उन्हें जैव-रसायन (biochemistry) में नियमित शोध करने की अनुमति दी गई। रमन उनके काम से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इसके बाद महिला छात्रों (women in science) को भी संस्थान में प्रवेश देना शुरू कर दिया। यह कमला की एक और जीत थी, जिसने उनके माध्यम से अन्य भारतीय महिला वैज्ञानिकों (Indian women scientists) का मार्ग भी सुगम किया।

इंस्टीट्यूट ऑफ साइन्स, बैंगलोर में कमला ने दूध (milk), दालों (pulses) और फलियों (legumes) में प्रोटीन (protein) पर काम किया, जिसका भारत में पोषण सम्बंधी (nutrition research) प्रथाओं से महत्वपूर्ण सम्बंध था। 1936 में, वे दालों के प्रोटीन पर शोध (protein research in pulses) करने वाली पहली व्यक्ति थीं, जबकि उस समय कमला सिर्फ एक स्नातक छात्र थीं। उन्होंने अपना शोध बॉम्बे युनिवर्सिटी (University of Bombay) को प्रस्तुत किया और एम.एससी. (M.Sc.) की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद, वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय (University of Cambridge) गईं और सबसे पहले डॉ. डेरेक रिक्टर (Dr. Derek Richter) की प्रयोगशाला में काम किया। डॉ. रिक्टर ने उन्हें दिन में काम करने के लिए एक टेबल दी, जिसका उपयोग वे रात में कमला के जाने के बाद खुद किया करते थे।

जब डॉ. रिक्टर काम करने के लिए कहीं और चले गए, तब कमला ने अपना काम डॉ. रॉबिन हिल (Dr. Robin Hill) के मार्गदर्शन में जारी रखा, जो पौधों के ऊतकों (plant tissue research) पर उसी तरह का काम कर रहे थे। यहां आलू (potato) पर काम करते हुए कमला ने पाया कि पौधों की हर कोशिका में ‘साइटोक्रोम सी’ (Cytochrome C) नामक एंज़ाइम (enzyme) होता है, जो सभी पौधों की कोशिकाओं में ऑक्सीकरण (oxidation process) की प्रक्रिया में शामिल होता है। यह एक मौलिक खोज (fundamental discovery) थी, जिसका सम्बंध पूरे वनस्पति जगत (botanical research) से था।

कमला ने पादप ऊतकों के श्वसन (plant respiration) में साइटोक्रोम सी की भूमिका पर आधारित एक लघु शोध प्रबंध (thesis) पीएच.डी. (Ph.D.) डिग्री के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय को भेजा। उनकी पीएच.डी. डिग्री कई मायनों में उल्लेखनीय थी। कैम्ब्रिज पहुंचने के बाद सिर्फ 14 महीनों में उन्होंने अपना शोध और थीसिस लेखन कार्य पूरा किया। यह थीसिस टाइप किए गए केवल 40 पन्नों की थी, जबकि कई अन्य की लोगों थीसिस हज़ारों पन्नों की होती थीं। कमला पहली भारतीय महिला (first Indian woman scientist) थीं, जिन्हें पीएच.डी. उपाधि (Ph.D. degree) से नवाज़ा गया था।

कमला भारत लौटने के लिए उत्सुक थीं और 1939 में नई दिल्ली के लेडी हार्डिन्ग कॉलेज (Lady Hardinge College, Delhi) में प्रोफेसर और नवगठित बायो-केमिस्ट्री विभाग के प्रमुख के रूप में काम शुरू किया। इसके बाद वे कुन्नूर की न्यूट्रिशन रिसर्च लैब (Nutrition Research Lab, Coonoor) की असिस्टेंट डायरेक्टर बनीं, जहां उन्होंने विटामिन (vitamin research) के प्रभाव पर महत्वपूर्ण शोध कार्य किया। लेकिन करियर में प्रगति के स्पष्ट अवसरों की कमी (जिसका दोष लिंग भेदभाव को नहीं दिया जा सकता, हालांकि एक संभावना वह भी है) के कारण, उन्होंने इस्तीफा देने का विचार किया। इसी समय उन्हें श्री एम.वी. सोहोनी से विवाह का प्रस्ताव मिला, जो पेशे से एक एक्चुअरी (बीमा सांख्यिकीविद) थे। उन्होंने यह प्रस्ताव स्वीकार किया और 1947 में मुंबई आ गईं। 

महाराष्ट्र सरकार ने बॉम्बे के (रॉयल) इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (Royal Institute of Science, Mumbai)  में नए बायो-केमिस्ट्री विभाग के प्रोफेसर पद के लिए आवेदन आमंत्रित किए थे। कमला ने आवेदन किया और चुनी गईं। अपनी सेवा के दौरान, उन्होंने अपने विद्यार्थियों के साथ नीरा (Neera drink- ताड़ वृक्षों से प्राप्त रस), दालों (pulses) और फलियों के प्रोटीन और धान के आटे (rice flour) के पोषण सम्बंधी पहलुओं पर काम किया। उनके शोध के सभी विषय भारतीय समाज की ज़रूरतों से सीधे तौर पर जुड़े हुए थे। दरअसल, नीरा पर उनका काम तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के सुझाव पर शुरू हुआ था।

इसके अलावा, कमला सोहोनी ने आरे मिल्क प्रोजेक्ट (Aarey Milk Project) के प्रशासन को गुणवत्ता सुधारने के लिए सलाह दी। उनके द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थियों में कई प्रतिष्ठित वैज्ञानिक हुए। उनके मार्गदर्शन में विद्यार्थियों द्वारा किए गए शोध कार्य से यह साबित हुआ कि नीरा को कुपोषित आदिवासी किशोर बच्चों और गर्भवती महिलाओं के आहार में शामिल करने से उनके स्वास्थ्य में महत्वपूर्ण सुधार होता है। उन्होंने अपने छात्रों से यह काम देश भर से लिए गए नीरा के नमूनों पर करवाया। यह काम 10-12 वर्षों तक चला और हर बार नतीजे समान रहे। इस अद्वितीय काम के लिए कमला सोहोनी को राष्ट्रपति पुरस्कार (President’s Award) से सम्मानित किया गया।

अलबत्ता, इन्तहा यह थी कि बंबई के इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में भी, चार साल तक उन्हें संस्थान के निदेशक पद, जिसकी वे हकदार थीं, से दूर रखा गया (शायद आंतरिक राजनीति के कारण)। अंततः जब उन्हें यह पद दिया गया, तो कैम्ब्रिज के उनके प्रथम मार्गदर्शक डॉ. रिक्टर ने कहा था, “उन्होंने इतने बड़े विज्ञान संस्थान की पहली महिला निदेशक बनकर इतिहास रच दिया है।”

संक्षेप में, कमला सोहोनी ने एक समृद्ध और सफल जीवन (successful scientist) जीया। वे अपने चुने हुए क्षेत्र में बहुत सफल रहीं – एक शोध वैज्ञानिक (research scientist) के रूप में भी और एक शिक्षक (teacher) के रूप में भी। 

उस समय भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद की अध्यक्ष (और पहली महिला महानिदेशक) डॉ. सत्यवती को जब कमला सोहोनी के काम के बारे में पता चला तो उन्होंने कमला को सम्मानित करने का फैसला किया। उन्होंने 87 वर्षीय कमला को नई दिल्ली में एक भव्य समारोह में आमंत्रित किया और उनका सम्मान किया। विडंबना यह है कि इसी समारोह के दौरान कमला सोहोनी का निधन हो गया। वे स्वयं भी शायद इससे बेहतर अंत की कामना न करतीं। (स्रोत फीचर्स)

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पर्यावरण कार्यकर्ता व समाज सुधारक विमला बहुगुणा का निधन – भारत डोगरा

बहुत ही कम उम्र में महात्मा गांधी का मार्ग अपनाकर जीवन जीने वाली विमला बहुगुणा ने 14 फरवरी को देहरादून (Dehradun) स्थित अपने घर पर अंतिम सांस ली। वे 92 वर्ष की थीं। अपने पीछे वे बेटी मधु पाठक और बेटे राजीव व प्रदीप को छोड़ गईं। उनके पति सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद (environmentalist) सुंदरलाल बहुगुणा का 2021 में 94 वर्ष की आयु में निधन हो गया था।

अक्सर लोग विमला बहुगुणा को सुंदरलाल बहुगुणा के साथ मिलकर किए गए कामों के लिए याद करते हैं। लेकिन वे स्वतंत्र रूप में एक महान समाज सुधारक (social reformer), न्याय की पैरोकार और पर्यावरण कार्यकर्ता (environment activist) थीं। उन्होंने स्वयं दूर-दराज़ के जंगलों में चिपको आंदोलन (Chipko Movement) (पेड़ों को बचाने के लिए उनका आलिंगन करना) के साथ-साथ शराब-विरोधी (anti-liquor movement) और अन्य समाज सुधार आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया।

भूमिहीन लोगों के अधिकारों में दृढ़ विश्वास रखने वाली विमला बहुगुणा ने सरला बहन के मार्गदर्शन में ‘भूदान’ (Bhoodan Movement) कार्यकर्ता के रूप में अपना सामाजिक काम शुरू किया था। वे भूमिहीन लोगों को भूमि दिलाने के लिए दूर-दराज़ के गांवों में जाती थीं।

भूदान आंदोलन के प्रसिद्ध नेता विनोबा भावे (Vinoba Bhave) ने इन शुरुआती दिनों में विमला बहुगुणा के काम करने के तरीके और दूर-दराज़ के गांवों में उनके प्रभाव को करीब से देखा था: दूर-दराज़ के गावों में, और कई बार तो बहुत ही प्रतिकूल परिस्थितियों में, वे पहली बार भूदान का संकल्प दिलाने के लिए जाती थीं। विनोबा भावे के सचिव ने सरला बहन को (विनोबा भावे की भावनाएं व्यक्त करते हुए) लिखा था, “मैंने उसके जैसी लड़की कार्यकर्ता नहीं देखी। वह सिर्फ पहाड़ों की लड़की नहीं है, वह पहाड़ों की देवी है।”

सरला बहन ने इन गांवों से मिली प्रतिक्रिया के आधार पर बताया है कि एक नए क्षेत्र में काम करने के बावजूद, विमला को अक्सर अपने से अनुभवी स्थानीय पुरुष सदस्यों वाले समूह में नेतृत्व (leadership) की भूमिका मिलती थी।

विमला बहुगुणा का दृढ़ विचार था कि महिलाओं को समानता का अधिकार (women empowerment) मिले। उन्होंने सुंदरलाल बहुगुणा, जो उस समय प्रांतीय राजनीति (regional politics) के उभरते सितारे थे, के विवाह प्रस्ताव के समय यह शर्त रखी थी कि यदि सुंदरलाल राजनीतिक पार्टी (political party) की सदस्यता छोड़ने और महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के मार्ग पर चलकर स्वयं लोगों की सेवा करने का मार्ग अपनाने के लिए सहमत होते हैं तभी वे विवाह के लिए राज़ी होंगी।

उन्होंने अपनी राह चुन ली थी और उसी पर चलीं। सुंदरलाल बहुगुणा ने सभी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को त्याग दिया। शादी के तुरंत बाद युवा जोड़े ने टिहरी गढ़वाल (Tehri Garhwal) के एक सुदूर गांव सिलयारा में खुद के लिए एक बहुत ही साधारण-सा आश्रम (ashram) बनाने के लिए कड़ी मेहनत की।

यहां वे सामाजिक कार्यकर्ताओं (social activists) के लिए एक सहारा और प्रेरणादायक शख्सियत बन गईं, जिन्होंने नदियों और जंगलों (rivers and forests) की रक्षा के लिए, दलितों के समान अधिकारों (Dalit rights) के लिए, शराब की बढ़ती समस्याओं के खिलाफ काम किया और कई रचनात्मक गतिविधियों को भी बढ़ावा दिया।

जब भूकंप (earthquake) ने सिलयारा आश्रम के एक बड़े हिस्से को नष्ट कर दिया था, तब विमला बहुगुणा ने आश्रम का पुनर्निर्माण कार्य आरंभ होने तक बड़ी हिम्मत से इस मुश्किल घड़ी का सामना किया।

उनका सबसे कठिन और लंबा संघर्ष टिहरी बांध परियोजना (Tehri Dam Project) के खिलाफ था। इस संघर्ष में सुंदरलाल ने बांध स्थल (dam site) के पास नदी के किनारे एक झोंपड़ी में रहने की प्रतिज्ञा ली थी। उनके इस संघर्ष में वे दूर कैसे रह सकती थीं, तो विमला जी भी वहीं उनके साथ रहीं।

मैं 1977 के आसपास विमला जी से पहली बार मिला था। तब मैं 22 वर्षीय पत्रकार (journalist) के रूप में चिपको आंदोलन (Chipko Andolan) और उससे जुड़े मुद्दों पर लिखने के लिए सिलयारा आश्रम गया था। बहुत जल्द ही वे हमारे परिवार के लिए एक प्रेरणास्रोत (inspiration) बन गईं। उनके अंतिम दिनों तक हम फोन पर बात करते रहे और जब मैं उन्हें अपनी नई किताब (book) भेंट करने गया तो वे बहुत खुश हुईं थीं।

मैं जब-जब उनके घर या आश्रम गया, तब-तब मैं न केवल राष्ट्रीय (national issues) बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मामलों (international affairs) में उनकी गहरी रुचि से प्रभावित हुआ। वे हाल के घटनाक्रमों से अवगत होने के साथ-साथ इन मुद्दों पर मेरी राय जानने में बहुत रुचि रखती थीं, और बेशक इन पर वे अपनी टिप्पणियां और नज़रिया भी साझा करती थीं।

वे एक बेहतर दुनिया (better world) बनाने के लिए प्रतिबद्ध थीं। चाहे कितनी भी बड़ी मुश्किलें आईं, वे कभी अपने मार्ग से विचलित नहीं हुईं।

उनके काम को विस्तार से इन दो किताबों – प्लेनेट इन पेरिल (Planet in Peril) और विमला एंड सुंदरलाल – चिपको मूवमेंट एंड स्ट्रगल अगेंस्ट टिहरी डैम प्रोजेक्ट (Vimla and Sunderlal Bahuguna—Chipko Movement and Struggle against Tehri Dam Project in Garhwal Himalaya) – में पढ़ा जा सकता है। विमला जी सदैव एक प्रेरणा स्रोत रहेंगी। (स्रोत फीचर्स)

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एक नए विषय का निर्माण

जयश्री रामदास

मेरा जन्म 1954 में मुंबई (mumbai) में हुआ और सबसे पहले दिल्ली के सेंट थॉमस स्कूल(St. Thomas School) में पढ़ी। मेरी सबसे प्यारी याद वह है जब मॉन्टेसरी स्कूल (montessori school) में चमचमाते सुनहरे मोतियों ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। ये मोती तार पर पिरोए गए थे जो दस-दस मोतियों की पंक्तियों, दस-दस की पंक्तियों से बने सौ के एक वर्ग, और हज़ार मोतियों के एक चमकते हुए घन के रूप में थे। यह मेरा सौभाग्य था क्योंकि भारतीय स्कूलों (Indian Schools) में हाथ से खोजबीन करने के अनुभव बहुत दुर्लभ होते हैं। हो सकता है नफासत से तैयार किए गए उपकरण काफी महंगे होते हैं  लेकिन स्थानीय स्तर पर सरल संसाधनों तक को छोड़कर रट्टा लगाने (rote learning) पर ज़ोर दिया जाता था।

मेरी दूसरी खुशनुमा याद अंग्रेज़ी (English) की हमारी अध्यापिका मिस विल्सन की है, जो हमें कविताएं (rhymes) और तुकबंदियां (limericks) लिखने को प्रेरित करती थीं। हमारी वार्षिक परीक्षा में एक लिमरिक तैयार करना था, जो मुझे बहुत मज़ेदार लगा। घर पर हम मराठी बोलते थे, और मेरी मां ने मुझे बोलचाल की भाषा और मज़ेदार मुहावरों से प्रेम विरासत में दिया था। ये सारी बातें बाद में मुझे प्राथमिक विज्ञान शिक्षण (Primary science education) में बहुत काम आईं।

सातवीं कक्षा मैंने बगदाद(bagdad) के अमेरिकन स्कूल(American school) से की। मेरे पिता, जो एक दूरसंचार इंजीनियर (telecommunication engineer) थे, को यू.एन. के असाइनमेंट पर नियुक्त किया गया था। मेरे माता-पिता का मानना था कि इस स्कूल ने पढ़ाई में मेरी रुचि जगाई, लेकिन मुझे यह साल किशोरावस्था (Adolescence) के गहरे तनाव और चिंता से भरा लगा। वहां शारीरिक रूप से मज़बूत, यौन सचेत (sexually aware) और नस्लीय रूप से आत्मविश्वासी (racially confident) बच्चों के बीच, मुझे केवल साप्ताहिक मेंटल मैथ (mental maths) प्रतियोगिता के दौरान अच्छा महसूस होता था, जब सभी छात्र-छात्राएं मुझे अपनी टीम में शामिल करना चाहते थे। हमारे विज्ञान और गणित के शिक्षक, मिस्टर बर्न्ट, हमसे कई प्रोजेक्ट कार्य (project work) करवाते थे, जिनका मैंने खूब आनंद लिया।

छह-दिवसीय अरब-इस्राइल युद्ध (Six-day Arab Israel war) के बाद जब अमेरिकन स्कूल बंद हो गया, तब मेरी मां मुझे वापस लाईं और पुणे के सेंट हेलेना बोर्डिंग स्कूल (St. Helena boarding school) में दाखिला दिलाया। यहां मुझे विज्ञान और गणित के अच्छे शिक्षक के रूप में मिस जोसेफ और मिस्टर जोग मिले, और मिली ग्रेगरी, धोंड और इंगले द्वारा लिखित भौतिकी की एक दिलचस्प किताब। यहां सीखने का तरीका केवल एक पाठ्यपुस्तक पढ़ने पर आधारित था, कुछ दुर्लभ प्रदर्शनों (rare demonstrations) को छोड़कर। मुझे एक अद्भुत डेमो याद है, जिसमें थोड़े से पानी को दस-लीटर के एक खाली कैरोसीन कैन (kerosene) में उबालने के बाद, ढक्कन लगाकर ठंडा किया गया, और वह ज़ोरदार आवाज़ के साथ सिकुड़कर ढेर हो गया।

मुझे भौतिकी (Physics) बहुत पसंद था ही, साथ ही मनोविज्ञान ने भी मुझे काफी आकर्षित किया। इसका एक कारण मेरी बुआ थीं, जो सामाजिक कार्य (social work) में लगी थीं। स्कूल पूरा करने के बाद मैंने विज्ञान (science) और कला(arts) दोनों में से किसी एक को चुनने पर विचार किया और अंत में मैंने पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज (Fergusson College) में विज्ञान को चुना। हालांकि जीव विज्ञान (biology) मेरे लिए त्रासदायक रहा, लेकिन मिस्टर इनामदार द्वारा पढ़ाई गई सॉलिड ज्यामिति (solid geometry) का मैंने खूब आनंद लिया। मिस्टर इनामदार काफी अस्त-व्यस्त थे लेकिन रैंगलर महाजनी द्वारा लिखित किताब से उनका पढ़ाना काफी मज़ेदार था। रसायनशास्त्र के शिक्षक मिस्टर पाठक ने एक बार यादगार होमवर्क दिया था, जिसमें कुछ लीनियर हाइड्रोकार्बन (linear hydrocarbons) की रचनाएं बनानी थीं, और उन्होंने उस सूची में C6H6 का सूत्र घुसा दिया था। मुझे एरोमेटिक यौगिकों के बारे में जानकारी नहीं थी, लेकिन बेंज़ीन की संरचना (benzene structure) का अनुमान लगाने में जो खुशी मिली, वह वर्षों तक याद रही।

आईआईटी कानपुर (IIT Kanpur) में प्रोफेसर ए. पी. शुक्ला, एच. एस. मणि और अन्य शिक्षकों ने हमें बेहतरीन ढंग से भौतिकी पढ़ाई, लेकिन उस दौरान मुझे लगा कि मैं अपनी क्षमता से भी अधिक तेज़ी से आगे बढ़ रही हूं। एम.एससी. के बाद की गर्मियों में मैंने बर्कले सीरीज़ की पर्सेल लिखित ऑन इलेक्ट्रिसिटी एंड मैग्नेटिज़्म (Electricity and Magnetism) को आराम से पढ़कर इस कमी को पूरा किया। कॉलेज में मैं पाठ्यपुस्तकों को आलोचनात्मक दृष्टि (critical analysis) से देखती और अपने दोस्तों से कहती कि एक दिन मैं इससे बेहतर किताबें लिखूंगी। मेरी विज्ञान, मनोविज्ञान और शिक्षण पद्धति में रुचि तब पूरी तरह एक साथ जुड़ीं जब 1976 में मैंने होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन, टी.आई.एफ.आर.(TIFR) जॉइन किया।

चूंकि मेरा शोध प्रबंध (थीसिस) संभवतः भारत में विज्ञान शिक्षा में सबसे पहला था, इसलिए मुझे इस क्षेत्र को परिभाषित करने की धीमी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा। यह कार्य मुझे उपलब्ध मुद्रित सामग्री के आधार पर ही करना पड़ा। लेकिन मैं खुद को सौभाग्यशाली महसूस करती हूं कि मैं टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में चल रहे अनुसंधानों से घिरे होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन (H.B.C.S.E.) में रही जहां ऐसे संसाधनों तक पहुंच मिली जो देश के अन्य स्थानों पर मिलना मुश्किल था। अंतर्राष्ट्रीय शोध प्रवृत्तियों से अलग रहने के कारण मैं अपनी स्वयं की रुचियों के अनुसार काम करने के लिए स्वतंत्र थी।

H.B.C.S.E. ने मुझे स्कूल विज्ञान (school science) को दो तरह से देखने का मौका दिया – एक ऊपर से राज्य-स्तरीय सर्वेक्षण (state level survey) के माध्यम से स्कूलों और शिक्षकों का अध्ययन करके और दूसरा धरातल से महाराष्ट्र (maharashtra) के जलगांव ज़िले के ग्रामीण स्कूलों में सैकड़ों विज्ञान अध्यायों का विश्लेषण करके और सप्ताहांत में मुंबई की झुग्गियों में पढ़ाकर भी। आगे चलकर, पुणे के भारतीय शिक्षा संस्थान (Indian Institute of Education) के औपचारिकेतर शिक्षा कार्यक्रम में काम करते हुए मुझे एहसास हुआ कि अपने प्राकृतिक परिवेश में ग्रामीण बच्चों के अनुभव कितने समृद्ध थे, और किस तरह से वे अनुभव स्कूल और पाठ्यक्रम (curriculum) की औपचारिक संरचना के कारण बेकार जा रहे थे। H.B.C.S.E. के संस्थापक निदेशक प्रो. वी. जी. कुलकर्णी अक्सर विज्ञान शिक्षण में भाषा की भूमिका पर ज़ोर देते थे। बहुत बाद में मैंने उनकी इन बातों का महत्व समझा। विचार और भाषा एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते, और हमारी स्कूल प्रणाली में रटंत पद्धति के कारण हम बुनियादी साक्षरता और गणना क्षमता विकसित करने में विफल हो रहे हैं।

एक संघर्षरत स्नातक छात्र के रूप में, जब मुझे होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन में टीचर-एजूकेटर की भूमिका में रखा गया तो मैंने वैज्ञानिक अवधारणाओं के बारे में विद्यार्थियों के विचारों में रुचि लेना शुरू किया। मुझे लगा कि मैं शिक्षकों को कुछ ऐसा सिखा सकती थी, जिसे वे सीधे अपनी कक्षा में लागू कर सकें। उसी समय, अन्य स्थानों पर भी ऐसे शोध हो रहे थे, जिनके परिणामों को ‘विद्यार्थियों की वैकल्पिक धारणाएं’ नाम दिया गया। इस क्षेत्र के बारे में मैने पोस्ट-डॉक्टरल काम के दौरान लीड्स की प्रोफेसर रोज़लिंड ड्राइवर और चेल्सी कॉलेज के प्रोफेसर पॉल ब्लैक से सीखा।

कुछ साल बाद, मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी (MIT) के मीडिया लैब के प्रोफेसर सीमोर पेपर्ट द्वारा युवा इंजीनियरों, कंप्यूटर वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों, कलाकारों और डिज़ाइनरों के साथ जो बौद्धिक वातावरण बनाया गया था, उसने मुझे उत्साहित किया। ब्रिटेन और अमेरिका में, मैंने ग्रामीण और इनर-सिटी स्कूलों में काम किया, जिनमें से एक स्कूल के प्रवेश द्वार पर मेटल-डिटेक्टर लगा था। यह एक अनोखा अनुभव था। बच्चों की संकल्पनाओं और उनके द्वारा रेखाचित्रों को समझने के मामले में मेरी रुचि को इन अनुभवों से नया जीवन मिला।

भारत और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक समकक्ष समूह की कमी थी। यही मेरे लिए विज्ञान शिक्षा में शोध करने की सबसे बड़ी चुनौती थी। एक न्यूनतम संख्या के अभाव के कारण, कई वर्षों तक H.B.C.S.E. में शोध कार्य प्राथमिकता में नहीं रहा। 1990 के दशक में, निदेशक प्रोफेसर अरविंद कुमार ने मुझे पाठ्यक्रम विकास का काम करने की सलाह दी, और इस निर्णय का मुझे कभी पछतावा नहीं हुआ। यह एक अनोखा अवसर था, जहां मैं शोध और फील्डवर्क पर आधारित एक पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम की सीमाओं से मुक्त, विकसित कर सकती थी। शिक्षकों और अभिभावकों से मिली गर्मजोश सराहना से इस प्रयास को काफी मज़बूती मिली।

इस दौरान, H.B.C.S.E. में एक सशक्त शोध समूह उभरा। मुझे विश्वास है कि शोध, पाठ्यक्रम और कामकाज के बीच स्वस्थ सम्बंध इस समूह को आगे बढ़ने में मदद करेगा। विद्यार्थियों के चित्रों और आरेखों से सम्बंधित मेरी शुरुआती रिसर्च, विज्ञान को समझने के दृश्य-स्थानिक मॉडल सम्बंधी वर्तमान शोध से जुड़ती है — चाहे वह विकासात्मक मनोविज्ञान हो, संज्ञानात्मक विज्ञान हो, या विज्ञान का इतिहास हो। मैं इस क्षेत्र में और अधिक शोध कार्य की उम्मीद करती हूं। H.B.C.S.E. द्वारा शुरू की गई epiSTEME कॉन्फ्रेंस शृंखला ने देश और विदेश में कड़ियां जोड़ने में मदद की है। H.B.C.S.E. का प्राथमिक विज्ञान पाठ्यक्रम भारत और विदेशों में जाना और उद्धरित किया जाता है। मेरी व्यक्तिगत जद्दोज़हद इस संस्थान के संघर्ष और एक नए शोध क्षेत्र के विकास के संघर्ष से गहराई से जुड़ी रही है।

मैं यह काम दो अन्य महिलाओं के योगदान के बिना नहीं कर पाती। पहली श्रीमती बापट हैं, जो स्वयं एक वैज्ञानिक की पत्नी थीं और स्नेहपूर्वक हमारे दो बच्चों की देखभाल करती थीं। और दूसरी हैं कला, जो एक अत्यंत सक्षम महिला थीं। उन्होंने अपनी बचपन की लालसाओं को त्यागकर T.I.F.R. कॉलोनी में घरेलू कामकाज किया। और हां, मेरे पति और बच्चों ने भी बेशक मेरे करियर में मेरा साथ दिया।

क्या अब मुझे लगता है कि काश मैंने कुछ अलग ढंग से किया होता? सबसे पहले, स्कूल और कॉलेज के छात्र के रूप में जो किताबें मुझे दी गई थीं उनकी बजाय मुझे अच्छी किताबों की तलाश खुद करना चाहिए थी। दूसरा, शुरुआत में मैं अपने विचारों को स्पष्ट रूप से कहना सीखने का प्रयास कर सकती थी – यह एक ऐसी चीज़ है जो विज्ञान के छात्रों को अक्सर नहीं सिखाई जाती। तीसरा, एक जूनियर शोधकर्ता के रूप में मैं अपने वरिष्ठ सहकर्मियों के साथ अधिक सामंजस्यपूर्ण सम्बंध बनाने का प्रयास कर सकती थी। हालांकि, मैं यह समझती हूं कि व्यक्तित्व के कुछ पहलूओं को बदलना मुश्किल होता है। चौथा, मुझे बाल श्रम जैसी अमानवीय प्रथा के खिलाफ सक्रिय रूप से काम करना चाहिए था, जो एक निर्मम प्रथा है और आज भी हमारे अधिकांश बच्चों को उनकी संभावनाएं साकार करने से रोकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महिलाओं, चींटी जैसे काम करो, पुरुषों जैसे व्यवहार करो लेकिन महिला बनी रहो!

सुलभा के. कुलकर्णी

क महिला के लिए वैज्ञानिक बनने का मतलब है एक चुनौतीपूर्ण जीवन शैली को अपनाना! सफलता के लिए हर क्षेत्र – पेशेवर (professional), व्यक्तिगत (personal) या सामाजिक (social) – में उसे कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। यहां तक कि मात्र एक वैज्ञानिक माने जाने के लिए उसे अपने पुरुष सहकर्मियों से कहीं ज़्यादा काम करना पड़ता है। और एक पुरुष प्रधान समाज में इतना भर पर्याप्त नहीं होता। वास्तव, उसे चींटी की तरह काम करना पड़ता है, पुरुष की तरह व्यवहार करना पड़ता है और महिला बने रहना पड़ता है! एक महिला में बहुत अधिक आंतरिक शक्ति होती है, लेकिन उसे पहचानने की ज़रूरत होती है। इसके अलावा, एक महिला वैज्ञानिक (woman scientist) को अपने पति, बच्चों और रिश्तेदारों से निरंतर समर्थन और बेहतर समझ की आवश्यकता होती है। एक वैज्ञानिक के रूप में उसे पूरी तरह से शोध में तल्लीन होना पड़ता है। यह चौबीस घंटे का काम है! मैं खुद को भाग्यशाली मानती हूं कि मुझे बिना ना-नुकर के यह सब मिला।

आज जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूं तो कह सकती हूं कि सीखने की मेरी इच्छा और दृढ़ता के कारण मैं अपने करियर (career) में चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना कर सकी, जिसके बीज बचपन में ही मेरे अंदर बो दिए गए थे। मुझे मुश्किल समस्याओं से जूझना पसंद था और उन्हें हल करने के लिए कड़ी मेहनत करना मुझे अच्छा लगता था।

वाई (महाराष्ट्र) के जिस स्कूल में मैं पढ़ी थी वह अच्छा स्कूल था लेकिन वहां भाषा और सामाजिक विज्ञान (social sciences) पर अधिक ज़ोर दिया जाता था। भौतिक विज्ञानों (physical sciences) को उबाऊ और नीरस तरीके से पढ़ाया जाता था, लेकिन मेरा गणित (mathematics)  के प्रति प्रेम पनप गया (श्री डब्ल्यू. एल. बापट और श्री पी. के. गुणे जैसे शिक्षकों का धन्यवाद, जिन्होंने मुझे प्रेरित किया।) इसलिए, मैंने आगे गणित की पढ़ाई करने के लिए पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में प्रवेश लिया। उसके बाद, मैंने भौतिकी विषय को चुना क्योंकि इसमें गणित का पर्याप्त दखल होता है।

आगे विज्ञान (science) की पढ़ाई करने की असली प्रेरणा एम. आर. भिड़े (पुणे विश्वविद्यालय में भौतिकी विभाग के तत्कालीन प्रमुख) से मिली, जिन्होंने हमें ‘स्वयं विज्ञान करने’ को प्रेरित किया। उस समय उच्च शिक्षा (higher education) और खासकर भौतिकी में उच्च शिक्षा हासिल करने वाली लड़कियों की संख्या बहुत कम थी। आश्चर्य की बात यह है कि वहां मात्र एक महिला शिक्षक थी, जो हमें शोध करने से निरुत्साहित किया करती थीं!

अपने पीएचडी (Ph.D.)  कार्य के हिस्से के रूप में मैंने एक स्वचालित स्कैनिंग एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (X-ray spectrometer) डिज़ाइन और उसका निर्माण किया था। 1972 में हमारे यहां ऐसा करना आसान नहीं था! मैंने एक डिस्माउंटेबल एक्स-रे ट्यूब, उसके लिए एक उच्च वोल्टेज बिजली की आपूर्ति और स्कैनिंग स्पेक्ट्रोमीटर के लिए इलेक्ट्रॉनिक्स की व्यवस्था जमाई, और इसमें सर्किट बोर्ड को पेंट करने से लेकर डिज़ाइन उकेरने और विभिन्न पुर्ज़ों और इकाइयों को जोड़ने तक का काम किया! वर्तमान संदर्भ में शायद यह कोई बड़ी बात न लगे। लेकिन एक्स-रे जनरेटर को सचमुच काम करते हुए देखना और स्पेक्ट्रोमीटर को एक्स-रे की बारीक संरचना को रिकॉर्ड करते हुए देखना (जिस तरह से किताबों में बताया गया था) मेरे लिए एक अद्भुत अनुभव था। इससे मुझे इससे मुझे भविष्य में कुछ अत्यंत जटिल और अत्याधुनिक उपकरणों (advanced instruments) पर काम करने का हौसला मिला।

प्रो. भिड़े और मेरे शोध पर्यवेक्षक प्रो. ए. एस. निगवेकर ने मुझे जर्मनी (Germany) में पोस्ट डॉक्टरेट (postdoc) करने के लिए प्रोत्साहित किया। यह एक ऐसा अवसर था जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मेरे पति नहीं चाहते थे कि मैं लंबे समय के लिए इतनी दूर जाऊं लेकिन सतह विज्ञान (surface science) के एक नए, उभरते क्षेत्र में प्रवेश करने की अपनी प्रबल इच्छा का वास्ता देकर किसी तरह मैंने उन्हें मना लिया। मैंने उन्हें बताया कि कैसे पोस्टडॉक का अनुभव हमारे अपने विभाग में एक नई प्रयोगशाला स्थापित करने में मेरी मदद करेगा।

1977 में म्यूनिख की टेक्निकल युनिवर्सिटी (Technical University of Munich) में प्रो. मेंज़ेल की प्रयोगशाला में, लगभग 25 छात्रों और पोस्टडॉक के एक बड़े समूह में एक भी महिला छात्र (female student), शिक्षक या पोस्टडॉक नहीं थी। यहां तक कि आज भी, बहुत कम महिलाएं हैं जो विज्ञान के क्षेत्र में काम करती हैं और उनमें से भी बहुत कम ही हैं जो सर्वोच्च पदों (leadership roles) तक पहुंच पाती हैं।

1978 में मैं एक फैकल्टी सदस्य के रूप में पुणे विश्वविद्यालय में लौटी। सतह विज्ञान (सर्फेस साइंस) प्रयोगशाला स्थापित करने में मैंने अपना काफी समय लगाया। यह आसान नहीं था। तब ईमेल और यहां तक कि फैक्स जैसी सुविधाएं न होने के चलते संवाद करना काफी मुश्किल था। यह मेरे करियर का सबसे महत्वपूर्ण दौर था और प्रयोगशाला शुरू करने में अप्रत्याशित रूप से लम्बा समय लग गया। अंततः हमने अपने शोधकार्यों का प्रकाशन उच्च प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं (international journals) में शुरू किया।

उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, कभी-कभी सब ठीक चलता है, तो कभी-कभी आपके प्रयासों के बावजूद कुछ भी काम नहीं करता है। लेकिन आपको कभी भी हार नहीं माननी चाहिए।

मेरे विभाग का माहौल अच्छा रहा है। हर जगह की तरह यहां भी ईर्ष्या और प्रतिद्वंद्विता जैसी चीज़ें रहीं, लेकिन वे मेरी प्रगति में कभी बाधा नहीं बनी! प्रो. भिड़े द्वारा स्थापित प्रगतिशील माहौल अब भी कायम है। और इस माहौल ने कई छात्राओं को विभाग में शामिल होने और शोध के लिए मेरे समूह में शामिल होने के लिए आकर्षित किया है। मैंने उन्हें विज्ञान में करियर बनाने के लिए भी प्रोत्साहित किया है।

विज्ञान की रचनात्मकता और चुनौती ने मुझे हमेशा रोमांचित किया है। मुझे तसल्ली है कि मैं सतह और पदार्थ विज्ञान की एक सुसज्जित प्रयोगशाला कम लागत में बना सकी हूं। जो लोग मुझे अच्छी तरह से नहीं जानते, वे सोचते होंगे कि मैं यह कैसे कर सकती हूं! क्या मेरा कोई परिवार नहीं है? वास्तव में एक महिला को अपने परिवार को पर्याप्त समय देना पड़ता है, खासकर, जब उसके बच्चे छोटे हों। लेकिन अगर वह काम की योजना ठीक से बनाती है, तो मुझे लगता है कि उसके पास हर चीज़ के लिए पर्याप्त समय होता है।

मेरे शोध करियर में हमेशा सब कुछ अच्छा नहीं रहा। ऐसे भी कई मौके आए जब मुझे चुनौतीपूर्ण ज़िम्मेदारियां दी गईं और मैंने उन्हें सफलतापूर्वक पूरा किया, लेकिन पुरस्कारों के समय पुरुष सहकर्मियों को प्राथमिकता दी गई! मैं सोचती हूं कि क्या यह एक महिला वैज्ञानिक होने की कीमत थी! कहावत है ना, “यही विधि का विधान था (यानी जो हुआ उसे स्वीकार लो, भले ही कुछ बुरा हुआ हो)।” आदर्श रूप से, विज्ञान में जेंडर जैसी कोई चीज़ नहीं होनी चाहिए और मैंने उस भावना के साथ ही काम करने की पूरी कोशिश की है।

अपने अनुभव से, मैं कह सकती हूं कि महिलाएं कुशलतापूर्वक और रचनात्मक रूप से काम कर सकती हैं। न सिर्फ वे पुरुषों के बराबर अच्छा काम कर सकती हैं बल्कि पुरुषों से भी बेहतर कर सकती हैं। अगर महिलाओं को कम अवसर दिए जाते हैं तो उन्हें निराश नहीं होना चाहिए। अगर एक दरवाज़ा बंद होता है तो दूसरा खुल जाता है। उन्हें काम करते रहना चाहिए क्योंकि सही दिशा में लगातार मेहनत करने से ही पुरस्कार और संतुष्टि मिलती है। (स्रोत फीचर्स)

सुलभा के. कुलकर्णी का यह जीवन परिचय लीलावती डॉटर्स पुस्तक में उनके द्वारा लिखी गई अपनी एक संक्षिप्त जीवनी से लिया गया है।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आनंदीबाई जोशी: चुनौतियां और संघर्ष – संकलन : पूजा ठकर

आनंदीबाई जोशी
मार्च 1865 – फरवरी 1887

न्यूयॉर्क के पॉकीप्सी ग्रामीण कब्रिस्तान के ‘लॉट 216-ए’ में, अमरीकियों की कई कब्रों के बीच डॉ. आनंदीबाई जोशी की कब्र है। उनकी आयताकार कब्र पर लगा कुतबा (संग-ए-कब्र) बयां करता है कि आनंदी जोशी एक हिंदू ब्राह्मण लड़की थीं, जो विदेश जाकर शिक्षा प्राप्त करने और चिकित्सा (मेडिकल) की डिग्री हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला थीं। उन्होंने यह कैसे हासिल किया? उन्हें किन बाधाओं का सामना करना पड़ा? इन सवालों के आनंदी बाई के जो जवाब होते, उन्हें यहां मैं अपने अंदाज़ में देने का प्रयास कर रही हूं; ये जवाब मैंने आनंदीबाई के बारे में और उनके समय के बारे में पढ़कर जुटाई गई जानकारी के आधार पर लिखे हैं। – पूजा ठकर

मेरा जन्म 31 मार्च, 1865 को मुंबई के पास एक छोटे से कस्बे कल्याण में यमुना जोशी के रूप में हुआ था। मेरा परिवार कल्याण में ज़मींदार हुआ करता था, लेकिन तब तक उनकी जागीर समाप्त हो चुकी थी। 9 साल की उम्र में मेरी शादी हुई और मेरा नाम बदलकर आनंदी रख दिया गया।

शादी के पहले मैं मराठी पढ़ लेती थी; उस समय लड़कियों का पढ़ाई करना आम बात नहीं थी। लेकिन मेरे पति गोपालराव विधवा पुनर्विवाह और महिलाओं की शिक्षा (women education in India)  के प्रबल समर्थक थे। वास्तव में, उन्होंने इसी शर्त पर मुझसे विवाह किया था कि उन्हें मुझे पढ़ाने की इजाज़त होगी। हमारी शादी के बाद उन्होंने मुझे पढ़ाना शुरू किया। यह बहुत मुश्किल था; उन दिनों, दूसरों के सामने कोई पति अपनी पत्नी से सीधे बात नहीं कर सकता था। शुरुआत में, मेरे पति ने मुझे मिशनरी स्कूलों (missionary schools in India) में दाखिला दिलाने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनाी। हमें कल्याण से अलीबाग, अलीबाग से कोल्हापुर और फिर कोल्हापुर से कलकत्ता जाना पड़ा। लेकिन एक बार जब मैंने सीखना-पढ़ना शुरू कर दिया तो मैं जल्द ही संस्कृत पढ़ने लगी और अंग्रेज़ी (English education for women)  पढ़ने और बोलने लगी।

अपने पति से सीखना कोई आसान बात नहीं थी। वे मुझे संटियों से मारते थे; गुस्से में मुझ पर कुर्सियां और किताबें फेंकते थे। मुझे याद है कि जब मैं 12 साल की थी, तब उन्होंने मुझे छोड़ने की धमकी दी थी। सालों बाद, जब मैंने उन्हें अमेरिका से पत्र लिखा तब मैंने उनसे पूछा था कि क्या यह सही था? मैं हमेशा सोचती हूं कि क्या मेरे प्रति उनका यह व्यवहार ठीक था? मान लो, यदि मैंने उन्हें तब छोड़ दिया होता तो क्या होता? मैंने पत्र में उन्हें समझाया था कि उन्होंने मेरे लिए जो कुछ किया है, उसके लिए मैं हमेशा उनकी आभारी रहूंगी। लेकिन उसी पल मुझे यह ख्याल भी कचोटता कि कैसे एक हिंदू महिला (Hindu women in 19th century) के पास अपने पति को उसकी मनमानी करने देने के अलावा कोई और विकल्प नहीं होता है।

मेरी द्रुत प्रगति के चलते मेरे पति की यह ज़िद थी कि मुझे उच्च शिक्षा (higher education for women in India)  प्राप्त करनी चाहिए। मुझे एहसास हुआ कि हमारे देश में अधिकतर महिलाओं के लिए कोई महिला डॉक्टर (female doctor in India) नहीं है, और जो महिलाएं पुरुष डॉक्टर के पास जाने में शर्माती हैं या पुरुष डॉक्टर के पास जाना नहीं चाहती हैं, उन्हें इसके नतीजे में बहुत तकलीफ झेलनी पड़ती है। मैंने खुद 14 साल की उम्र में अपने नवजात बेटे को खो दिया था। इसलिए मैंने तय किया कि मैं डॉक्टर बनूंगी। यहां तक कि बाद में मैंने अपनी थीसिस के लिए जो विषय चुना, वह था “आर्य हिंदुओं में प्रसूति विज्ञान”।

मेरे पति ने मुझे अमेरिका के किसी विश्वविद्यालय (university in USA for Indian women) में दाखिला दिलाने की बहुत कोशिश की। उन्होंने इसके लिए मिशनरी बनने का दिखावा भी किया, लेकिन इससे सिर्फ उपहास ही हुआ। संयोग से, न्यू जर्सी के रोसेल की श्रीमती कारपेंटर को यह कहानी पता चली और मिशनरी रिव्यू में पत्राचार से द्रवित होकर उन्होंने मुझे एक पत्र लिखा। उन्होंने मुझे होस्ट करने का प्रस्ताव दिया और जल्द ही श्रीमती कारपेंटर और मैं एक-दूसरे को बहुत पत्र लिखने लगे। वे मुझे बहुत अपनी लगने लगीं थीं और मैं उन्हें ‘मवशी’ (मौसी) कहकर बुलाने लगी थी। इन पत्रों में, हमने विभिन्न मुद्दों पर चर्चा की; मैं उन मामलों/मुद्दों पर अपनी चिंताएं उन्हें लिख सकती थी, जिनको मुझे नहीं लगता कि मैं सार्वजनिक रूप से व्यक्त कर सकती थी। हमने बाल विवाह और महिलाओं के स्वास्थ्य पर उसके प्रभाव की चर्चा की। मुझे याद है, एक पत्र मैं मैंने उन्हें लिखा था कि सती प्रथा की तरह बाल विवाह पर प्रतिबंध का भी कानून होना चाहिए। इसी तरह हमने समाज में महिलाओं की स्थिति पर चर्चा की।

चूंकि गोपालराव को वहां नौकरी नहीं मिली, इसलिए हमने तय किया कि मुझे अकेले ही अमेरिका चले जाना चाहिए। हमें बहुत विरोध और आलोचना का सामना करना पड़ा, यहां तक कि लोगों ने हम पर पत्थर और गोबर फेंके। आखिरकार, कई आज़माइशों और क्लेशों के बाद, जून 1883 में मैं अमेरिकी मिशनरी महिलाओं के साथ अमेरिका पहुंच गई, और मेरी मुलाकात कारपेंटर मौसी से हुई।

अमेरिका में ऐसी कई चीजें थीं जो मुझे अजीब लगती थीं और कई ऐसी चीजें थीं जो कारपेंटर परिवार को मेरे बारे में अजीब लगती थीं। लेकिन कारपेंटर मौसी ने मेरा ऐसे ख्याल रखा जैसे मैं उनकी बेटी हूं। जब वे मुझे फिलाडेल्फिया (Philadelphia for medical studies) के महिला कॉलेज में छोड़ कर आ रही थीं तो वे एक बच्चे की तरह रोईं।

कॉलेज के अधीक्षक और सचिव बहुत दयालु थे और वे इस बात से प्रभावित थे कि मैं इतनी दूर से पढ़ने आई हूं। उन्होंने मुझे वहां तीन साल के लिए 600 डॉलर की छात्रवृत्ति भी दी।

अमेरिका में मेरे सामने पहली समस्या जाड़ों के लिबास की थी। पारंपरिक महाराष्ट्रीयन नौ गज़ की साड़ी जो मैं पहनती थी, उससे मेरी कमर और पिंडलियां खुली रहती थीं। पश्चिमी पोशाक, जो ठंड से निपटने का उम्दा तरीका था, पहनने में मैं पूरी तरह से सहज नहीं थी। उसी समय, मुझे भगवद गीता का पढ़ा हुआ एक श्लोक याद आया, जिसमें कहा गया था कि शरीर मात्र आत्मा को ढंकता है, आत्मा को अपवित्र नहीं किया जा सकता। तब मुझे अहसास हुआ कि यह बात सही है कि मेरे पश्चिमी पोशाक पहनने से मेरी आत्मा कैसे भ्रष्ट या अपवित्र या नष्ट हो सकती है। कई सवाल-जवाब से जूझते हुए और बहुत सोच-विचार के बाद मैंने गुजराती महिलाओं की तरह साड़ी पहनना तय किया; इस तरीके से साड़ी पहनकर मैं अपनी अपनी कमर और पिंडलियों को ढंके रख सकती थी और अंदर पेटीकोट भी पहन सकती थी। मैंने तय किया कि इस बारे में अभी गोपालराव को नहीं बताऊंगी।

कॉलेज में मुझे जो कमरा दिया गया था उसमें फायरप्लेस (अलाव) की ठीक व्यवस्था नहीं थी। अलाव जलाने पर कमरे में बहुत अधिक धुआं भर जाता था। तो मेरे पास दो ही विकल्प थे, या तो धुआं बर्दाश्त करो या ठंड! वहां रहने से मेरा स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हुआ। अमेरिका में लगभग दो साल रहने के बाद, मुझे अचानक बेहोशी और तेज़ बुखार के दौरे पड़ने लगे। खांसी ने मुझे लगातार जकड़े रखा। तीसरे साल के अंत तक, मेरी हालत बहुत खराब हो गई थी। खैर, जैसे-तैसे मैं आखिरी परीक्षा में पास हो गई थी।

दीक्षांत समारोह, जिसमें मेरे पति और पंडिता रमाबाई मौजूद थे, में यह घोषणा की गई कि मैं भारत की पहली महिला डॉक्टर हूं और इसके लिए सबने खड़े होकर तालियां बजाईं! वह लम्हा मेरी ज़िंदगी के सबसे अनमोल लम्हों में से एक था। मेरा स्वास्थ्य दिन-ब-दिन खराब होता गया। मेरे पति ने मुझे फिलाडेल्फिया के महिला अस्पताल में भर्ती कराया और मुझे टीबी होने का पता चला। लेकिन टीबी तब तक मेरे फेफड़ों तक नहीं पहुंची थी। डॉक्टरों ने मुझे भारत वापस जाने की सलाह दी। मैंने भारत लौटकर कोल्हापुर में लेडी डॉक्टर के पद का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

घर वापसी की यात्रा ने आनंदीबाई (Anandi Gopal Joshi) के स्वास्थ्य पर और अधिक प्रभाव डाला क्योंकि जहाज़ पर मौजूद डॉक्टरों ने एक अश्वेत महिला का इलाज करने से इन्कार कर दिया था। भारत पहुंचने पर वे एक प्रसिद्ध आयुर्वेदिक वैद्य से इलाज कराने के लिए पुणे में अपने कज़िन के घर रुकीं, लेकिन उन वैद्य ने भी उनका इलाज करने से इन्कार कर दिया क्योंकि उनके अनुसार आनंनदीबाई ने समाज की मर्यादा लांघी थीं। अंतत: बीमारी के कारण 26 फरवरी, 1887 को 22 वर्ष की आयु में आनंदीबाई की मृत्यु हो गई। पूरे भारत में उनके लिए शोक मनाया गया। उनकी अस्थियां श्रीमती कारपेंटर को भेज दी गईं। उन्होंने अस्थियों को पॉकीप्सी में अपने पारिवारिक कब्रिस्तान में दफनाया।

यह गज़ब की बात है कि महज़ 15 वर्षीय आनंदीबाई अपने समय के समाज को कितना समझ पाई थीं। श्रीमती कारपेंटर को लिखे उनके पत्रों से पता चलता है कि उन्होंने उन मुद्दों पर अपनी राय बना ली थी जिन्हें आज नारीवादी माना जाता। ताराबाई शिंदे की ‘स्त्री पुरुष तुलना’, पंडिता रमाबाई की ‘स्त्री धर्म नीति’ और रख्माबाई के ‘दी हिंदू लेडी’ नाम से टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखे गए पत्र जैसे नारीवादी लेखन भी इसी दौर के हैं। यह कमाल की बात है कि आनंदीबाई महज़ 15 साल की थीं जब उन्होंने इसी तरह के नारीवादी विचार व्यक्त किए थे।

हालाकि, आनंदीबाई के प्रयास व्यर्थ नहीं गए। आज भी, वे सभी क्षेत्रों में भारतीय लड़कियों को प्रेरित करती हैं और यह विश्वास दिलाती हैं कि परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों, सपनों को साकार करना नामुमकिन नहीं हैं और हममें से हर किसी में सपने साकार करने की, चाहतों को पूरा करने की क्षमता होती है। महाराष्ट्र सरकार ने महिला स्वास्थ्य (women’s health)पर काम करने वाली युवा महिलाओं के लिए उनके नाम पर एक फेलोशिप शुरू की है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पुरुष प्रधान माहौल में एक महिला वैज्ञानिक

बिमला बूटी

ज जब पीछे मुड़कर देखती हूं, तो यह समझना काफी मुश्किल लगता है कि मैंने भौतिकी को अपने करियर के रूप में क्यों चुना था, क्योंकि तब तक मेरे परिवार में किसी ने भी शुद्ध विज्ञान की पढ़ाई नहीं की थी।

भारत के विभाजन के समय जब हम लाहौर से दिल्ली आए, तो मुझे एक सरकारी स्कूल में दाखिला मिला, लेकिन वहां विज्ञान का विकल्प नहीं था। इसलिए मैंने हाई स्कूल में कला को चुना जबकि गणित मेरा पसंदीदा विषय था। मेरे पिता पंजाब विश्वविद्यालय से गणित में स्वर्ण पदक विजेता थे, लेकिन बाद में उन्होंने वकालत को चुना। चूंकि मैंने मैट्रिक की परीक्षा दी थी, न कि हायर सेकेंडरी की, इसलिए बी.एससी. (ऑनर्स) में दाखिला लेने से पहले मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय में एक साल का कोर्स करना पड़ा। इस समय मैंने जीव विज्ञान की बजाय भौतिकी, रसायन और गणित को चुना। कारण सीधा-सा था कि मुझे मेंढक काटने से डर लगता था शायद इसलिए कि मैं शाकाहारी थी। मेरे डॉक्टर जीजा ने मुझे मेडिकल की पढ़ाई के लिए राज़ी करने का प्रयास किया लेकिन पिताजी ने मुझे अपनी पसंद का करियर चुनने के लिए प्रोत्साहित किया। मुझे रसायन शास्त्र पसंद नहीं था, लेकिन भौतिकी अच्छा लगता था, शायद इसलिए कि मुझे एप्लाइड (अनुप्रयुक्त) गणित में दिलचस्पी थी। मैंने इंजीनियरिंग करने के बारे में भी विचार किया, लेकिन इसके लिए मुझे दिल्ली से बाहर जाना पड़ता, जो मुझे और मेरे परिवार को पसंद नहीं था। शायद यही कारण था कि मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय में भौतिकी (ऑनर्स) को चुना।

दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.एससी. (ऑनर्स) और भौतिकी में एम.एससी. करने के बाद, मैं पीएच.डी. के लिए शिकागो विश्वविद्यालय चली गई। यहां मुझे नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर एस. चंद्रशेखर के साथ काम करने का सौभाग्य मिला। मेरे शुरुआती जीवन में मेरे पिता ने मुझे जिस तरह से प्रेरित किया था, उसी तरह मेरे गुरू चंद्रा (प्रो. चंद्रशेखर को उनके विद्यार्थी, सहयोगी और मित्र ‘चंद्रा’ कहकर बुलाते थे) का भी मेरे पेशेवर जीवन पर गहरा असर पड़ा। आत्मनिर्भरता, मुश्किलों का सामना करने का आत्मविश्वास और अन्याय के समक्ष न झुकने जैसे गुण मुझमें बचपन से रोप दिए गए थे, जो चंद्रा के साथ जुड़ने के बाद और भी मज़बूत हो गए। मैं हमेशा बेधड़क होकर अपनी बात कहती थी, जो मेरे कई वरिष्ठ सहयोगियों को पसंद नहीं था। इस कारण और लैंगिक भेदभाव के चलते मुझे पेशेवर स्तर पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन मुझे इसका कोई पछतावा नहीं है।

अपने पेशे की खातिर मैंने शुरू से ही शादी न करने का फैसला किया था। मैंने यह फैसला इसलिए लिया था क्योंकि मुझे अपने काम के साथ पूरी तरह न्याय करने और हर काम को मेहनत से पूरा करने की आदत थी। शादी करने पर न तो मैं अपने परिवार और न ही अपने पेशे से पूरा न्याय कर पाती। अविवाहित रहकर मैं अपने पेशेवर दायित्वों पर पूरी तरह ध्यान केंद्रित कर सकती थी। 

प्रो. चंद्रशेखर ने विविध क्षेत्रों में काम किया था। वे एक क्षेत्र में गहराई से काम करते, उस पर एक किताब लिखते, और फिर किसी नए क्षेत्र में चले जाते। जब मैंने उनके साथ काम करना शुरू किया, तब उनकी रुचि मैग्नेटो-हाइड्रोडायनेमिक्स और प्लाज़्मा भौतिकी में थी। मैंने प्लाज़्मा भौतिकी में विशेषज्ञता हासिल की थी। अपनी थीसिस के लिए मैंने रिलेटिविस्टिक प्लाज़्मा पर काम किया। काम करने का ममेरा तरीका यह रहा है कि पहले एक सामान्य मॉडल तैयार करती हूं और फिर उसे अंतरिक्ष, खगोल भौतिकी और प्रयोगशाला प्लाज़्मा से जुड़े रुचि के मुद्दों पर लागू करती हूं। मैंने गैर-रैखिक (nonlinear) डायनेमिक्स तकनीकों का उपयोग करके कई अवलोकनों की व्याख्या गैर-रैखिक, अशांत (turbulent) और बेतरतीब (chaotic) प्लाज़्मा प्रक्रियाओं के रूप में की है।

शिकागो से पीएच.डी. करने के बाद, मैं भारत लौटी और दो साल तक अपने पुराने संस्थान, दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षण कार्य किया। इसके बाद मैंने अमेरिका वापस जाने का फैसला किया, जहां मुझे नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में नासा के गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर में रेसिडेंट रिसर्च एसोसिएट के रूप में काम करने का मौका मिला। वहां मैं सैद्धांतिक विभाग से जुड़ी, जिसका नेतृत्व प्रतिभाशाली प्लाज़्मा भौतिकविद टी. जी. नॉर्थरॉप कर रहे थे। वहां का जीवन शिकागो के मेरे छात्र जीवन से बिल्कुल अलग था, लेकिन वहां बिताया गया दो से अधिक वर्षों का समय बहुत ही फलदायी और आनंददायक रहा।

इसके बाद, मैंने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT), दिल्ली के भौतिकी विभाग में वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी के रूप में काम किया। इसी दौरान, चंद्रा (प्रो. चंद्रशेखर) को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नेहरू स्मृति व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया था। व्याख्यान के बाद श्रीमती गांधी ने चंद्रा के सम्मान में रात्रिभोज का आयोजन किया था, और चंद्रा की छात्र के रूप में मुझे भी इसमें आमंत्रित किया गया। इस समारोह में विक्रम साराभाई, डी. एस. कोठारी और भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (INSA) के अध्यक्ष जैसे विशिष्ट व्यक्ति मौजूद थे, और मैं उनके बीच एक नगण्य उपस्थिति थी। वहीं पहली बार मेरी मुलाकात प्रो. साराभाई से हुई। उन्होंने उसी वक्त मुझे भौतिकी अनुसंधान प्रयोगशाला (PRL), जिसके वे निदेशक थे, में काम करने के लिए आमंत्रित किया। इस तरह मैं PRL से जुड़ी और वहां 23 साल तक एसोसिएट प्रोफेसर, प्रोफेसर, सीनियर प्रोफेसर और डीन के रूप में काम किया।

PRL का शोध वातावरण IIT और दिल्ली विश्वविद्यालय से बहुत अलग था। साराभाई ऊंच-नीच के पदानुक्रम में विश्वास नहीं रखते थे और उन्होंने वैज्ञानिकों को पूरी आज़ादी और ज़िम्मेदारियां दी थीं। हमने PRL में सैद्धांतिक और प्रायोगिक दोनों स्तरों पर प्लाज़्मा भौतिकी का एक सशक्त समूह स्थापित किया। मैंने भारत में प्लाज़्मा साइंस सोसायटी की स्थापना की, जिसका पंजीकृत कार्यालय आज भी PRL में है। मुझे गर्व है कि मेरे सभी विद्यार्थी, जो भारत और अमेरिका में बस गए हैं, पेशेवर रूप से और अन्यथा बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं।

PRL में काम करते हुए मुझे NASA के अन्य केंद्रों, जैसे कैलिफोर्निया स्थित एम्स रिसर्च सेंटर और जेट प्रपल्शन लेबोरेटरी (JPL) में अपेक्षाकृत लंबे समय तक काम करने का और दौरे करने का अवसर मिला। इसके अलावा, 1986 से 1987 तक मैंने लॉस एंजेल्स स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में भी काम किया। 1985 से 2003 के दौरान, इटली के ट्रीएस्ट स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर थ्योरिटिकल फिजिक्स (ICTP) में प्लाज़्मा भौतिकी के निदेशक के रूप में मुझे कई विकासशील और विकसित देशों के वैज्ञानिकों के साथ काम करने का मौका मिला। मुझे हर दूसरे साल वहां विकासशील देशों के प्रतिभागियों के लिए प्लाज़्मा भौतिकी अध्ययन शाला के आयोजन में काफी समय देना पड़ता था। लेकिन मुझे लगता है कि यह मेहनत सार्थक थी, क्योंकि इन अध्ययन शालाओं के प्रतिभागियों को प्रमुख प्लाज़्मा भौतिकविदों का मार्गदर्शन मिलता था जो वहां व्याख्यान देने के लिए आते थे।

मैं काफी सौभाग्यशाली रही कि मुझे 1990 में इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी (INSA), नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (NAS), अमेरिकन फिज़िकल सोसाइटी (APS), और दी एकेडमी ऑफ साइंसेज ऑफ दी डेवलपिंग वर्ल्ड (TWAS)  की फेलो चुना गया। उस समय TWAS में कुछ ही भारतीय फेलो थे। मैं TWAS की पहली भारतीय महिला फेलो और INSA की पहली महिला भौतिक विज्ञानी फेलो बनी। मैंने ‘सौभाग्यशाली’ शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया क्योंकि किसी भी सम्मानजनक पुरस्कार या साइंस अकादमी की फेलोशिप के लिए नामांकित होना पड़ता है, और पुरुष-प्रधान क्षेत्र में एक महिला वैज्ञानिक के लिए भटनागर पुरस्कार जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों के लिए नामांकित होना लगभग असंभव था। लैंगिक भेदभाव का एक प्रसंग 1980 के दशक के मध्य में PRL के निदेशक के चयन के समय भी स्पष्ट था। मुझे अक्सर अपने पुरुष सहकर्मियों की ईर्ष्या का सामना करना पड़ा।

यह सुनने में अजीब लग सकता है, लेकिन यह सच है कि किसी वैज्ञानिक के कार्य की सराहना अपने देश से ज़्यादा विदेशों में होती है। भारत में विज्ञान जगत में लैंगिक भेदभाव के बावजूद मुझे 1977 में विक्रम साराभाई पुरस्कार (ग्रह विज्ञान), 1993 में जवाहरलाल नेहरू जन्म शताब्दी व्याख्याता पुरस्कार, 1994 में वेणु बप्पू अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार (खगोल भौतिकी), और 1996 में शिकागो विश्वविद्यालय का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार मिला।

PRL से सेवानिवृत्त होने के बाद, मैंने चार साल फिर से कैलिफोर्निया की जेट प्रपल्शन लैब में बिताए। इसके बाद मैंने दिल्ली में रहकर अपना शोध कार्य जारी रखा और साथ ही 2003 में स्थापित ‘बूटी फाउंडेशन’ (www.butifoundation.org) के माध्यम से सामाजिक कार्य किया। मुझे इस बात का बहुत संतोष है कि फाउंडेशन बहुत अच्छी प्रगति कर रहा है। (स्रोत फीचर्स)

बिमला बूटी का यह जीवन परिचय लीलावती डॉटर्स पुस्तक में उनके द्वारा लिखी गई अपनी एक संक्षिप्त जीवनी से लिया गया है।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बिमला बूटी का यह जीवन परिचय लीलावती डॉटर्स पुस्तक में उनके द्वारा लिखी गई अपनी एक संक्षिप्त जीवनी से लिया गया है।