भोजन की सुरक्षा के लिए बढ़ईगिरी

म अनाज को सड़ने से बचाने या चूहों या अन्य किसी के हाथ लगने से सुरक्षित रखने के लिए कई तरह के उपाय अपनाते हैं। ऐसा ही काम कुछ गिलहरियां भी करती पाई गई हैं।

जब शोधकर्ता दक्षिणी चीन के वर्षावनों में पेड़-पौधों की विविधता का सर्वेक्षण कर रहे थे तब उन्हें पौधों पर उन जगहों पर फलों की गिरियां मिलीं जहां शाखाएं दो भागों में बंट रही थीं। शाख पर बनाए गए खांचों में ये गिरियां इतनी मज़बूती से फंसी थीं कि पेड़ को ज़ोर से हिलाने पर भी वे नहीं गिरीं। लेकिन इस बात का कोई सुराग नहीं था कि ये गिरियां वहां पहुंची कैसे। खुलासा तो तब हुआ जब वहां मोशन कैमरे लगाए गए। पता चला कि यह करतूत गिलहरियों की थी।

रिकॉर्डिंग्स में शोधकर्ताओं को दो प्रजातियों की उड़न गिलहरियां नज़र आईं। ये छोटी, निशाचर होती हैं और प्राकृतिक परिस्थिति में इनका अध्ययन मुश्किल होता है। रिकॉर्डिंग में दिखा कि ये उन गिरियों को निकालकर खा रही हैं और अपने दांतों की मदद से गिरियों को शाखाओं में फंसाने के लिए कुंडलीदार खांचे बना रही थीं। कुछ उस्ताद गिलहरियां तो वापस आकर अपने द्वारा फंसाई गई गिरियों को और मज़बूती देने का काम करती हैं। इस तरह इन गिलहरियों की गिरियां अन्य प्रतिस्पर्धी गिलहरियों की पहुंच से दूर रहती हैं, और संभवत: वर्षावन की नम भूमि में गिरकर मिट्टी में सड़कर गल जाने से भी बची रहती हैं।

गिलहरियों के भोजन को सुरक्षित रखने के अलावा उनका यह व्यवहार वर्षावन को आकार देने में मदद कर सकता है। हो सकता है पेड़ फंसी गिरियां कभी पौधों के लिए बीज का काम भी कर देती हों। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सीपियों की विष्ठा सूक्ष्म प्लास्टिक कणों को हटा सकती है

माइक्रोप्लास्टिक एक बड़ी पर्यावरणीय समस्या बन गए हैं। प्लास्टिक के ये सूक्ष्म कण समुद्री जीवों के शरीर में पहुंच कर उनके ऊतकों को नष्ट कर सकते हैं और उनकी जान के लिए खतरा हो सकते हैं। ये कण इतने छोटे होते हैं कि पर्यावरण से इनको हटाना मुश्किल होता है।

अब, प्लायमाउथ मरीन लेबोरेटरी की पारिस्थितिकी विज्ञानी पेनलोप लिंडिकी को एक ऐसे समुद्री जीव – नीले घोंघे (मायटिलस एडुलिस) – के बारे में पता चला है जो न सिर्फ माइक्रोप्लास्टिक्स से अप्रभावित रहते हैं बल्कि उन्हें पर्यावरण से हटाने में मदद कर सकते हैं। काली-नीली खोल वाली ये सीपियां भोजन के साथ माइक्रोप्लास्टिक भी निगल लेती हैं और अपनी विष्ठा के साथ इसे शरीर से बाहर निकाल देती हैं।

शोधकर्ता जानते थे कि नीली सीपियां ठहरे हुए पानी में से माइक्रोप्लास्टिक्स को छान सकती हैं। लिहाज़ा वे कुदरती परिस्थितियों में इस बात को जांचना चाह रहे थे।

उन्होंने सीपियों को एक स्टील की टंकी में रखा और उसमें माइक्रोप्लास्टिक युक्त पानी में भर दिया। जैसी कि उम्मीद थी सीपियों ने टंकी का लगभग दो-तिहाई माइक्रोप्लास्टिक्स निगला और उसे अपने मल के साथ त्याग दिया।

यही परीक्षण उन्होंने वास्तविक परिस्थितियों में भी दोहराया। उन्होंने तकरीबन 300 सीपियों को टोकरियों में भरकर पास के समंदर में डाल दिया। विष्ठा इकट्ठा करने के लिए उन्होंने हर टोकरी के नीचे एक जाली लगाई।

जर्नल ऑफ हेज़ार्डस मटेरियल्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस व्यवस्था में सीपियों ने प्रतिदिन लगभग 240 माइक्रोप्लास्टिक कण फिल्टर किए। प्रयोगशाला का काम बताता है कि पानी में अत्यधिक माइक्रोप्लास्टिक्स होने पर सीपियां प्रति घंटे लगभग एक लाख कण तक हटा सकती हैं। माइक्रोप्लास्टिक युक्त विष्ठा समुद्री जल में गहराई में बैठ जाती है जहां ये समुद्री जीवन के लिए कम हानिकारक होती हैं। और तली में बैठे प्लास्टिक कणों को उठाना आसान हो जाता है।

लेकिन इकट्ठा करने के बाद इसके निस्तारण की समस्या उभरती है। शोधकर्ता यह संभावना तलाशना चाहती हैं कि क्या माइक्रोप्लास्टिक युक्त विष्ठा से उपयोगी बायोफिल्म बनाई जा सकती है?

लेकिन उल्लखेनीय प्रभाव देखने के लिए बहुत अधिक संख्या में नीली सीपियों की ज़रूरत होगी। सिर्फ न्यू जर्सी खाड़ी के पानी को ‘माइक्रोप्लास्टि रहित’ बनाने के लिए हर रोज़ करीबन 20 लाख से अधिक नीली सीपियों को लगातार 24 घंटे प्रति फिल्टर करने का काम करना पड़ेगा।

बहरहाल यह समाधान बड़े पैमाने पर कुछ माइक्रोप्लास्टिक्स कम करने में तो मदद करेगा लेकिन मूल समस्या को पूरी तरह हल नहीं करेगा। इतनी सीपियां छोड़ने के अपने पारिस्थितिक असर भी होंगे। इसके अलावा, ये सीपियां एक विशेष आकार के कणों का उपभोग करती हैं। इसलिए शोधकर्ताओं का भी ज़ोर है कि वास्तविक समाधान तो प्लास्टिक उपयोग को कम करना ही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चूहों को गंध से भटकाकर फसलों की सुरक्षा

ह तो सब जानते हैं कि चूहे घर के सामान का कितना नुकसान करते हैं। चूहों जैसे कृंतकों के कारण हर साल लगभग 7 करोड़ टन अनाज की भी बर्बादी होती है। वे खेतों में बोए बीजों को खोद-खोदकर खा जाते हैं और फसल बर्बाद कर देते हैं।

चूहों से निजात के लिए खेतों में बिल्लियां छोड़ने से लेकर ज़हर देने तक के कई तरीके आज़माए गए हैं। लेकिन ये सब महंगे हैं। ज़हर या कीटनाशक का छिड़काव सिर्फ एक बार करने से काम नहीं बनता। ऊपर से ये ज़हर चूहों के अलावा अन्य जीवों को भी मार देते हैं।

इसलिए शोधकर्ता कुछ ऐसे विकल्प की तलाश में थे जो जेब पर भारी न पड़े, अन्य जीवों को नुकसान न पहुंचाए और चूहों से होने वाला नुकसान कम से कम हो जाए। पूर्व अध्ययन में देखा गया था कि पक्षियों की गंध का ‘छद्मावरण’ देने से शिकारी भटक जाते हैं। शोधकर्ताओं ने पक्षियों की गंध को कुछ ऐसी जगहों पर बिखेर दिया जहां ये पक्षी वास्तव में कभी नहीं जाते थे। शुरू-शुरू में बिल्ली व इनके अन्य शिकारी जीव गंध का पीछा करते हुए अपने शिकार को ढूंढने उन जगहों पर पहुंचे थे, लेकिन कुछ दिनों बाद उन्होंने इस गंध को ‘धोखा’ मान लिया और गंध का पीछा करना छोड़ा दिया। फिर जब घोंसला बनाने के मौसम में ये पक्षी वास्तव में वहां आए तो गंध को छलावा मानकर इनके शिकारियों ने इन तक पहुंचने की चेष्टा नहीं की।

चूहे भी भोजन ढूंढने के लिए गंध पर निर्भर होते हैं। गेहूं के मामले वे गेहूं के भ्रूण से आने वाली गंध सूंघते हुए पहुंचते हैं। तो युनिवर्सिटी ऑफ सिडनी के जीव वैज्ञानिक पीटर बैंक और उनके दल ने सोचा कि क्या इसी तरह चूहों को भी भटकाया जा सकता है। यह जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने ऑस्ट्रेलिया के ग्रामीण इलाके के गेहूं के एक खेत को 10×10 मीटर के 60 भूखंडों में बांटा। कुछ भूखंडों पर सिर्फ गेहूं के भ्रूण की गंध छिड़की गेहूं नहीं बोए। कुछ भूखंडों में बीज भी बोए और गंध भी छिड़की। और कुछ भूखंडों में सिर्फ बीज बोकर छोड़ दिया।

पूर्व अध्ययन के हिसाब से शोधकर्ताओं को उम्मीद थी कि स्थानीय चूहे खाली खेतों के छलावे से समझ जाएंगे कि गंध के पीछे भागकर बीज ढूंढना ऊर्जा और समय की बर्बादी है, पर ऐसा नहीं हुआ। लेकिन गेहूं बोने के साथ गंध का छिड़काव करने का तरीका काम कर गया। जिन खेतों में गेहूं की बहुत अधिक गंध आ रही थी वहां चूहे यह पता ही नहीं कर पाए कि वास्तव में बीज हैं कहां। नेचर सस्टेनेबिलिटी की रिपोर्ट के मुताबिक गंध रहित बुवाई वाले खेतों की तुलना में गंध सहित बुवाई वाले खेतों में फसल को 74 प्रतिशत कम नुकसान हुआ।

अच्छी बात यह है कि गेहूं की गंध का छिड़काव करने के लिए आम तौर पर किसानी में उपयोग किए जाने वाले उपकरणों से काम चल जाएगा। गंध के लिए गेहूं का तेल मिलों का सह-उत्पाद होता है, इसलिए इसमें कोई अतिरिक्त खर्चा भी नहीं आएगा। तो किसानों के लिए यह उपाय अपनाना अपेक्षाकृत आसान हो सकता है। बहरहाल, यह जानना बाकी है कि कितनी मात्रा में और कितनी बार गंध छिड़काव पर्याप्त होगा, इसे हर साल छिड़कना होगा या मात्र तब छिड़कने से काम चल जाएगा जब चूहे ज़्यादा हों। (स्रोत फीचर्स)

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मां का दूध हृदय को स्वस्थ रखता है

हृदय की मांसपेशियां विशिष्ट कोशिकाओं (हृदयपेशीय कोशिकाओं) से बनी होती है, जिनके सिकुड़ने से दिल धड़कता है। भ्रूण अवस्था में हृदयपेशीय कोशिकाएं अधिकतर ग्लूकोज़ और लैक्टिक एसिड से ऊर्जा प्राप्त करती हैं। लेकिन परिपक्व होने पर ये कोशिकाएं वसा अम्लों से ऊर्जा लेने लगती हैं। अब तक यह बात अनसुलझी थी कि यह परिवर्तन कैसे होता है।

अब, चूहों पर अध्ययन कर वैज्ञानिकों ने बताया है कि मां के दूध में मौजूद एक अणु इस परिवर्तन को अंजाम देता है। देखा गया कि यह परिवर्तन जन्म के 24 घंटों के भीतर हो जाता है।

नेचर पत्रिका में प्रकाशित इन नतीजों तक पहुंचने में स्पैनिश नेशनल सेंटर फॉर कॉर्डियोवेस्कुलर रिसर्च की जीवविज्ञानी मर्सीडीज़ रिकोट और उनके साथियों को सात साल लगे हैं।

पहले उन्होंने कुछ शिशु चूहों की मांओं को वसायुक्त भोजन और कुछ चूहों की मांओं को वसा रहित भोजन खिलाया। उन्होंने देखा कि जिन शिशु चूहों ने वसा रहित आहार पाने वाली मांओं का दूध पिया था उनके हृदय असामान्य थे, और उनमें से अधिकांश शिशु चूहे जन्म के दो दिनों के भीतर मर गए थे।

फिर उन्होंने मां चूहों के दूध के घटकों का विश्लेषण किया ताकि पता चल सके कि कौन-सा अणु इसके लिए ज़िम्मेदार है। उन्होंने पाया कि इसमें गामा-लिनोलेनिक अम्ल नामक वसा अम्ल की भूमिका है; यह अणु इन्सानी मां के दूध में भी पाया जाता है। गौरतलब है कि न तो चूहों का और न ही मनुष्य का शरीर इसे बना सकता है और इसलिए इसका (GLA का) सेवन भोजन के साथ ज़रूरी है।

इसके बाद जब शोधकर्ताओं ने वसा-विहीन आहार वाली मां चूहों को GLA दिया और फिर उनका दूध शिशुओं को पिलाया तो वे ठीक होने लगे। और इन शिशु चूहों में वसा से ऊर्जा बनाने में शामिल जीन्स की गतिविधि में भी वृद्धि देखी गई।

उन्होंने वह रिसेप्टर, RXR, भी खोज लिया है जिससे हृदयपेशीय कोशिकाओं में GLA जुड़ता है। जीएलए और RXR के बीच का सम्बंध ही इन कोशिकाओं को ग्लूकोज़ की जगह वसा अम्लों से ऊर्जा बनाने की क्षमता देता है। टीम ने उन जीन्स को भी पहचाना है जो रिसेप्टर (RXR) के GLA से जुड़ने के बाद सक्रिय हो जाते हैं।

अभी यह स्पष्ट नहीं कहा जा सकता कि यही प्रक्रिया मनुष्यों में भी होती होगी या क्या इस परिवर्तन में GLA के अलावा विटामिन ‘ए’ जैसे किसी अन्य अणु की भी भूमिका हो सकती है।

शोधकर्ताओं ने RXR रिसेप्टर रहित चूहे भी विकसित किए हैं। ये चूहे अन्य शोध समूहों को हृदय रोग सम्बंधी अध्ययन करने में मदद कर सकते हैं। बहरहाल, शोधकर्ता नवजात चूहों के साथ काम करना चाहते हैं, लेकिन वह थोड़ा मुश्किल है क्योंकि एक तो वे साइज़ में बहुत छोटे होते हैं, दूसरा उनके जन्म का समय अनिश्चित होता है। (स्रोत फीचर्स)

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मिज़ोरम में मिली छिपकली की एक नई प्रजाति

त्तर-पूर्वी भारत के राज्य मिज़ोरम में खोजी गई एक नवीन छिपकली प्रजाति की विशेषता है कि यह पैराशूट जैसी रचना की मदद से हवा में तैरती है। इसे गेको मिज़ोरमेंसिस नाम दिया गया है। इसे मई 2022 में मिज़ोरम के लौंगत्लाई कस्बे में खोजा गया है। यह देखा गया कि ये पैराशूट छिपकलियां ज़मीन से करीब डेढ़ से साढ़े तीन मीटर की ऊंचाई पर उतराती रहती हैं। दरअसल यह पैराशूट उनकी चमड़ी से बना पल्ला होता है और उनकी भुजाओं, शरीर और पूंछ पर फैला होता है। ये गोधूली में सक्रियता से कीड़े-मकोड़ों का शिकार करती हैं जो रोशनी से आकर्षित होकर बाहर निकलते हैं।

इस खोज का विवरण सैलामैण्ड्रा – जर्मन जर्नल ऑफ हर्पेटोलॉजी में हुआ है ओर इससे पता चलता है कि भारत और खासकर इस इलाके के जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के बारे में जानकारी अभी भी बहुत कम है। (स्रोत फीचर्स)

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गर्म रहने के लिए अपनी सांस रोकती शार्क

पने पसंदीदा स्क्विड जैसे भोजन के लिए स्कैलोप्ड हैमरहेड शार्क (Sphyrna lewini) समुद्र में 800 मीटर से भी अधिक गहराई तक गोता लगाती हैं। ऊष्णकटिबंध क्षेत्र में रहने वाली इस असमतापी शार्क के लिए 5 डिग्री सेल्सियस ठंडे पानी में गोता लगाना काफी जोखिम भरा हो सकता है। फिर भी ये बिना किसी समस्या के रात में कई बार ठंडे समुद्र गोता लगाती हैं।

साइंस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार शार्क अपनी सांस थामकर इस जोखिम भरे काम को अंजाम देती हैं। टीम का अनुमान है कि यह शार्क गोता लगाते हुए अपने गलफड़ों और मुंह को बंद कर लेती है। ऐसा करते हुए ऑक्सीजन की आपूर्ति तो रुक जाती है लेकिन शरीर की गर्मी समुद्र में जाने से भी बच जाती है।

गौरतलब है कि ट्यूना और लैमनिड शार्क जैसे गहराई में रहने वाले समुद्री जंतु कुछ हद तक शरीर का तापमान संतुलित रख सकते हैं। ये बर्फीले तापमान में ऊष्मा को शरीर के विशिष्ट अंगों की ओर भेज देते हैं। लेकिन स्कैलोप्ड हैमरहेड शार्क में ऐसी कोई विशेषता नहीं है। जिस गहराई में ये गोता लगाती हैं वहां का तापमान मात्र 5 डिग्री सेल्सियस होता है। तापमान में इतनी गिरावट से उनकी दृष्टि और मस्तिष्क के कार्य प्रभावित हो सकते हैं। मांसपेशियों में जकड़न के चलते तैरने और पानी को गलफड़ों में खींचने में परेशानी हो सकती है और मृत्यु तक हो सकती है।

शार्क की इस अनोखी विशेषता का पता लगाने के लिए मनोआ स्थित हवाई विश्वविद्यालय के जीवविज्ञानी मार्क रॉयर और उनके दल ने हवाई द्वीप ओहू के तट पर इन जीवों पर कई सेंसर लगाए। इनमें एक त्वरणमापी था जो उनकी गति, पूंछ के हिलने की गति और शरीर की स्थिति की निगरानी करता है। इन सेंसरों ने गहराई और वहां पानी के तापमान के साथ-साथ शार्क के शरीर के आंतरिक तापमान को भी दर्ज किया। लगभग 23 दिन बाद आंकड़े काफी चौंकाने वाले थे। गोता लगाने के बाद शार्क ने पूरे समय शरीर के तापमान को सामान्य से 0.1 डिग्री सेल्सियस के भीतर बनाए रखा। ऊपर लौटते समय अंतिम 300 मीटर में शार्क के शरीर के तापमान में लगभग 2 डिग्री सेल्सियस की गिरावट आई। टीम के अनुसार सबसे सशक्त व्याख्या यह है कि नीचे जाते समय शार्क मुक्त रूप से गिरी होगी और अपने गलफड़े और मुंह दोनों ही बंद रखे होंगे। इस तकनीक से वे खुद को गर्म रख पाई होंगी। ऊपर पहुंचने के अंतिम चरण के दौरान तापमान में गिरावट का कारण शार्क द्वारा अपने गलफड़ों को फिर से सांस लेने के लिए खोलना रहा होगा। शार्क ने प्रति गोता औसतन 17 मिनट अपनी सांस रोके रखी।

गहरी गोताखोरी के दौरान अपनी सांस रोककर रखने का यह प्रथम उदाहरण है। हालांकि कुछ अन्य वैज्ञानिक इन निष्कर्षों से पूरी तरह सहमत नहीं है। गोता लगाने के दौरान शार्क के वीडियो फुटेज में गलफड़ों और मुंह बंद होने के प्रमाण देखना ज़रूरी है। फिलहाल शोधकर्ता शार्क के चयापचय की जांच करना चाहते हैं ताकि गहरी गोताखोरी को और बेहतर ढंग से समझा जा सके। (स्रोत फीचर्स)

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बहुमूल्य डायनासौर जीवाश्म की घर वापसी

गभग दो वर्ष लंबी बातचीत के बाद एक जीवाश्म घर लौटने को है। 11 करोड़ वर्ष पुराना यह जीवाश्म दक्षिण अमेरिका में पाए गए पंख जैसी संरचनाओं वाले पहले गैर-पक्षी डायनासौर का है और फिलहाल जर्मनी स्थित स्टेट म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री में है। संभवत: जून तक यह वापस ब्राज़ील आ जाएगा।

दिसंबर 2020 में जर्मनी, मेक्सिको और यू.के. के जीवाश्म-विज्ञानियों ने क्रेटेशियस रिसर्च नामक जर्नल में इस डायनासौर (उबिराजारा जुबैटस) का वर्णन किया था। तब से यह जीवाश्म ब्राज़ील और जर्मन अधिकारियों के बीच विवाद का विषय बन गया। 1990 के दशक में जीवाश्म को ब्राज़ील के अरारीप बेसिन से जर्मनी लाया गया था।    

1942 में पारित कानून के अनुसार ब्राज़ील में पाया गया हर जीवाश्म राष्ट्रीय संपत्ति है जिसे बिना अनुमति देश की सीमा से बाहर नहीं ले जाया जा सकता। वैसे शोधकर्ताओं का दावा है कि ब्राज़ील के एक खनन अधिकारी से उन्हें परमिट प्राप्त हुआ था। लेकिन ब्राज़ील के सरकारी वकील राफेल रयोल के अनुसार इस परमिट में जीवाश्म को दान करने की कोई स्पष्ट अनुमति नहीं दी गई थी। संभव है कि उबिराजारा का जीवाश्म किसी बक्से में था और उचित कानूनी प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया था।

क्रेटेशियस रिसर्च में प्रकाशन के बाद उपनिवेशवादी मानसिकता का हवाला देते हुए एक ऑनलाइन अभियान (#UbirajaraBelongsToBrazil) के माध्यम से नमूने की वापसी का सफर शुरू हुआ। ऐसा कई बार हुआ है जब धनी देशों के वैज्ञानिकों द्वारा निम्न और मध्यम आय वाले देशों के जीवाश्मों पर कब्ज़ा किया गया है। यह जीवाश्म किसी नई प्रजाति का वर्णन करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली कसौटी है। ऐसे जीवाश्म को होलोटाइप कहते हैं और इनके निर्यात पर प्रतिबंध है। विवाद के चलते क्रेटेशियस रिसर्च ने इस पेपर को वापस ले लिया है।

सितंबर 2021 में जर्मन संग्रहालय द्वारा जीवाश्म लौटाने से मना करने के बाद ब्राज़ील ने आधिकारिक अनुरोध प्रस्तुत किया जिसे ठुकरा दिया गया। अंतत: जुलाई 2022 जीवाश्म को वापस करने का फैसला लिया गया। इसे संभवत: जून में ब्राज़ील के रियो डी जेनेरो स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय को सौंप दिया जाएगा।

ब्राज़ील के वैज्ञानिक समुदाय को उम्मीद है कि इस मामले के बाद जीवाश्म विज्ञान के क्षेत्र में एक नया अध्याय शुरू होगा। जीवाश्म का ब्राज़ील वापस आना एक महत्वपूर्ण संदेश है और इससे भविष्य में जीवाश्मों को अपने मूल देशों में वापस लाने का रास्ता खुल जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

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पहला उभयचर परागणकर्ता

मिल्क ट्री के मलाईदार फल और मकरंद से भरपूर फूल ब्राज़ील के मूल निवासी मेंढक ज़िनोहायला ट्रंकेटा (Xenohyla truncata) के प्रिय हैं। गर्म रातों में, इनके फलों को खाने और मकरंद के लिए भूरे रंग के ये मेंढक बड़ी संख्या में इन पौधों पर टूट पड़ते हैं। फूलों का मकरंद पीते हुए ये एकदम फूल के अंदर चले जाते हैं, सिर्फ इनके पिछले पैरों वाला हिस्सा बाहर से दिखाई देता है। इस दौरान चिपचिपे परागकण इनके शरीर से चिपक जाते हैं।

फूड वेब्स पत्रिका में शोधकर्ताओं ने संभावना जताई है कि इस तरह ये मेंढक जाने-अनजाने इन पौधों को परागित भी कर देते होंगे। युनिवर्सिटी ऑफ कैम्पिनास के लुईस फिलिप टोलेडो और उनके साथियों ने बताया है कि पहली बार किसी मेंढक को, या यू कहें कि किसी उभयचर को, किसी पौधे का परागण करते देखा गया है। आम तौर पर केवल कीटों और पक्षियों को ही परागणकर्ता के रूप में देखा जाता था। लेकिन पिछले कुछ अध्ययनों में कुछ सरीसृप और स्तनधारी भी यह काम करते देखे गए हैं। और अब इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने परागणकर्ता के रूप में उभयचर की संभावना जताई है। इसकी पुष्टि के लिए अधिक शोध की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

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एलीफैंट सील गोता लगाने के दौरान झपकी लेते हैं

भी स्तनधारी प्राणियों के लिए पर्याप्त नींद स्वास्थ्य और विकास के लिए आवश्यक है। कई जीव तो दिन में 20 घंटे तक सोते हैं। अलबत्ता, अफ्रीकी हाथी के लिए केवल दो घंटे की नींद पर्याप्त है। लेकिन अब इस थलीय प्राणि को एक समुद्री स्तनधारी ने टक्कर दी है। साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार उत्तरी एलीफैंट सील के लिए भी दो घंटे की नींद पर्याप्त है। भूमि की तुलना में ये समुद्र में बहुत कम समय के लिए सोते हैं और इस दौरान वे सैकड़ों फीट की गहराई तक पहुंच जाते हैं।

अमेरिका के पश्चिमी तट पर पाए जाने वाले एलीफैंट सील गोता लगाने में माहिर होते हैं और 2500 फीट गहरा गोता लगाकर लगभग दो घंटे तक वहां रह भी सकते हैं। इनका वज़न एक कार जितना होता है और लंबाई लगभग 13 फीट होती है। अपने भारी-भरकम शरीर को बनाए रखने के लिए ये हर साल लगभग 7 महीने समुद्र में शिकार करते हैं। इनका मुख्य आहार मछली और स्क्विड हैं।

इन गहरे समुद्रों में आम तौर पर व्हाइट शार्क और किलर व्हेल शिकारी की भूमिका में होते हैं। इनसे बचने के लिए डॉल्फिन और फर सील जैसे कई स्तनधारी समुद्री जीव एक समय में अपने आधे मस्तिष्क को आराम देते हैं और उनका आधा मस्तिष्क सक्रिय रहता है। इस तरह की निद्रा को एकल-गोलार्ध निद्रा कहा जाता है जिसमें जंतु की एक आंख खुली रहती है। इसके उलट, एलीफैंट सील बिलकुल मनुष्य के समान सोते हैं और उनका मस्तिष्क पूरी तरह आराम कर रहा होता है।

सैन डिएगो स्थित स्क्रिप्स इंस्टीट्यूट ऑफ ओशियनोग्राफी की जेसिका कैंडल-बार ने उत्तरी एलीफैंट सील की निद्रा, शिकार और शिकार होने से बचाव के पैटर्न को समझने का प्रयास किया। कैंडल-बार और उनके सहयोगियों ने एक ऐसा उपकरण तैयार किया जो सील की मस्तिष्क तरंगों, हृदय गति, गोते की गहराई और गतियों की निगरानी कर सके। उपकरण एक टोपी की तरह सील के सिर के ऊपर आसानी से फिट हो जाता है। इन उपकरणों को कई एलीफैंट सील के सिर पर लगाकर पांच दिनों तक उनकी दिनचर्या का अध्ययन किया गया।

शोधकर्ताओं ने पाया कि गोता लगाने के बाद वे तैरना बंद कर देते हैं और ग्लाइड करने लगते है। जैसे-जैसे वे गहराई में जाते हैं उनके मस्तिष्क की गतिविधि मंद पड़ने लगती है। जल्द ही वे गहरी नींद में सो जाते हैं और उलटे होकर एक गिरती हुई पत्ती के समान लहराते हुए समुद्र के पेंदे की ओर जाने लगते हैं। लगभग 10 मिनट लंबी नींद के बाद वे अचानक जाग जाते हैं और सतह पर वापस आ जाते हैं। इस दौरान कुछ सील 1000 फीट से भी अधिक गहराई तक चले जाते हैं और कभी-कभी तो वे समुद्र के पेंदे तक पहुंच जाते हैं।

एलीफैंट सील दिन में कई बार इस तरह के गोते लगाते हैं जिससे उन्हें लगभग दो घंटे की नींद मिलती है। सील जब भूमि पर प्रजनन करने के लिए आते हैं तो दिन में 10 घंटे से अधिक सोते हैं। इस दौरान वे कुछ खाते नहीं हैं जिससे अतिरिक्त नींद की आवश्यकता समझ आती है।

इस अध्ययन के आधार पर कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि एलीफैंट सील अधिकतम भोजन करने के लिए समुद्र में सोने का समय तो सीमित करते ही हैं साथ ही खुद के शिकार होने के समय को भी कम करते हैं।

जीव जगत में एलीफैंट सील की नींद की अवधि में एक अनोखा लचीलापन दिखता है। लगभग 200 से अधिक दिनों के लिए दिन में दो घंटे की नींद से लेकर बाकी दिनों में 10.8 घंटे प्रतिदिन की नींद का पैटर्न किसी अन्य स्तनधारी में नहीं देखा गया है। शोधकर्ताओं के मुताबिक समुद्री स्तनधारी जीवों के नींद के पैटर्न के बारे में अधिक जानकारी उनके प्राकृतवास प्रबंधन को सुधारने में मदद करेगी। (स्रोत फीचर्स)

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भालुओं में शीतनिद्रा में भी रक्त के थक्के क्यों नहीं जमते

लंबे समय की निष्क्रियता पैर की शिराओं और फेफड़ों में रक्त के थक्के जमा सकती है। लेकिन यह परेशानी महीनों लंबी शीतनिद्रा में सोए भालुओं में पेश नहीं आती। साइंस पत्रिका में बताया गया है कि इसका कारण है कि शीतनिद्रा में सोए भालू एक प्रोटीन (HSP47) कम बनाते हैं जो रक्त का थक्का जमाने में भूमिका निभाता है।

रक्त के थक्के मनुष्यों के लिए काफी घातक हो सकते हैं। अमूमन ये थक्के पैर की शिराओं में बनते हैं। स्थिति तब घातक हो जाती है जब ये रक्त प्रवाह के साथ फेफड़ों तक पहुंच जाते हैं और वहां रक्त संचार को अवरुद्ध कर देते हैं। इसका वर्तमान उपचार है रक्त को पतला करना, लेकिन वह ज़्यादा प्रभावी नहीं है और इसके कारण अनियंत्रित रक्तस्राव हो सकता है।

यह समझने के लिए कि शीतनिद्रा के दौरान भालुओं में रक्त के थक्के क्यों नहीं बनते, लुडविग मैक्सिमिलियन विश्वविद्यालय के एक दल ने शीतनिद्रामग्न भूरे भालुओं पर अध्ययन किया। शोधकर्ताओं ने जाड़ों में शीतनिद्रामग्नेे (13) भूरे भालुओं को खोजा और उनके रक्त के नमूने लिए। इसके बाद उन्होंने गर्मी के मौसम में भी इन्हीं भालुओं के रक्त के नमूने लिए। शोधकर्ताओं ने पाया कि गर्मियों में भालुओं के रक्त में HSP47 नामक प्रोटीन प्रचुर मात्रा में था, जबकि जाड़ों में यह लगभग नदारद था।

चूहों पर हुए पूर्व अध्ययनों में यह देखा गया था कि अन्य कार्यों के अलावा HSP47 प्रोटीन की भूमिका रक्त के थक्के बनाने में भी है। HSP47 प्रोटीन रक्त प्लेटलेट्स की सतह पर बैठ जाता है और संक्रमण से लड़ने वाली सफेद रक्त कोशिकाओं (न्यूट्रोफिल) को आकर्षित करता है और प्लेटलेट्स से जोड़ता जाता है। इससे बने ‘जाल’ में प्रोटीन, रोगजनक और कोशिकाएं वगैरह फंस जाते हैं। नतीजतन, रक्त का थक्का बनता है। देखा गया है कि जिन चूहों में इस प्रोटीन की कमी थी उनकी प्लेटलेट्स ने न्यूट्रोफिल को कम आकर्षित किया और रक्त का थक्का बनने की संभावना कम रही। अब चूंकि शीतनिद्रा में भालुओं में HSP47 कम बनता है, इसलिए उक्त प्रक्रिया द्वारा थक्का निर्माण की संभावना भी कम होती है।

शोधकर्ताओं ने उन लोगों में HSP47 का स्तर देखा जो रीढ़ की हड्डी में चोट की वजह से चल-फिर नहीं पा रहे थे लेकिन उनमें रक्त के थक्के नहीं बन रहे थे। पाया गया कि इन लोगों में HSP47 का स्तर अपेक्षाकृत कम था। इससे लग रहा था कि चलना-फिरना बंद हो जाने पर शरीर HSP47 प्रोटीन कम बनाने लगता है। जांच के लिए शोधकर्ताओं ने 10 स्वस्थ व्यक्तियों को 27 दिन तक बेडरेस्ट कराया। जैसी कि उम्मीद थी धीरे-धीरे उनमें HSP47 का स्तर कम होने लगा था।

लगता है कि जिन लोगों ने अचानक बिस्तर पकड़ लिया है उनमें स्वाभाविक रूप से HSP47 का स्तर घटना शुरू होने से पहले HSP47 का स्तर घटा कर थक्का बनने के जोखिम को कम किया जा सकता है। लेकिन अभी और अध्ययन की ज़रूरत है।

बहरहाल, भालुओं और मनुष्यों दोनों में HSP47 की एक जैसी भूमिका से लगता है कि स्तनधारियों में थक्का बनने का तंत्र काफी पुराना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adi2604/full/_20230413_on_hibernating_bears.jpg