बहुमूल्य डायनासौर जीवाश्म की घर वापसी

गभग दो वर्ष लंबी बातचीत के बाद एक जीवाश्म घर लौटने को है। 11 करोड़ वर्ष पुराना यह जीवाश्म दक्षिण अमेरिका में पाए गए पंख जैसी संरचनाओं वाले पहले गैर-पक्षी डायनासौर का है और फिलहाल जर्मनी स्थित स्टेट म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री में है। संभवत: जून तक यह वापस ब्राज़ील आ जाएगा।

दिसंबर 2020 में जर्मनी, मेक्सिको और यू.के. के जीवाश्म-विज्ञानियों ने क्रेटेशियस रिसर्च नामक जर्नल में इस डायनासौर (उबिराजारा जुबैटस) का वर्णन किया था। तब से यह जीवाश्म ब्राज़ील और जर्मन अधिकारियों के बीच विवाद का विषय बन गया। 1990 के दशक में जीवाश्म को ब्राज़ील के अरारीप बेसिन से जर्मनी लाया गया था।    

1942 में पारित कानून के अनुसार ब्राज़ील में पाया गया हर जीवाश्म राष्ट्रीय संपत्ति है जिसे बिना अनुमति देश की सीमा से बाहर नहीं ले जाया जा सकता। वैसे शोधकर्ताओं का दावा है कि ब्राज़ील के एक खनन अधिकारी से उन्हें परमिट प्राप्त हुआ था। लेकिन ब्राज़ील के सरकारी वकील राफेल रयोल के अनुसार इस परमिट में जीवाश्म को दान करने की कोई स्पष्ट अनुमति नहीं दी गई थी। संभव है कि उबिराजारा का जीवाश्म किसी बक्से में था और उचित कानूनी प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया था।

क्रेटेशियस रिसर्च में प्रकाशन के बाद उपनिवेशवादी मानसिकता का हवाला देते हुए एक ऑनलाइन अभियान (#UbirajaraBelongsToBrazil) के माध्यम से नमूने की वापसी का सफर शुरू हुआ। ऐसा कई बार हुआ है जब धनी देशों के वैज्ञानिकों द्वारा निम्न और मध्यम आय वाले देशों के जीवाश्मों पर कब्ज़ा किया गया है। यह जीवाश्म किसी नई प्रजाति का वर्णन करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली कसौटी है। ऐसे जीवाश्म को होलोटाइप कहते हैं और इनके निर्यात पर प्रतिबंध है। विवाद के चलते क्रेटेशियस रिसर्च ने इस पेपर को वापस ले लिया है।

सितंबर 2021 में जर्मन संग्रहालय द्वारा जीवाश्म लौटाने से मना करने के बाद ब्राज़ील ने आधिकारिक अनुरोध प्रस्तुत किया जिसे ठुकरा दिया गया। अंतत: जुलाई 2022 जीवाश्म को वापस करने का फैसला लिया गया। इसे संभवत: जून में ब्राज़ील के रियो डी जेनेरो स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय को सौंप दिया जाएगा।

ब्राज़ील के वैज्ञानिक समुदाय को उम्मीद है कि इस मामले के बाद जीवाश्म विज्ञान के क्षेत्र में एक नया अध्याय शुरू होगा। जीवाश्म का ब्राज़ील वापस आना एक महत्वपूर्ण संदेश है और इससे भविष्य में जीवाश्मों को अपने मूल देशों में वापस लाने का रास्ता खुल जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पहला उभयचर परागणकर्ता

मिल्क ट्री के मलाईदार फल और मकरंद से भरपूर फूल ब्राज़ील के मूल निवासी मेंढक ज़िनोहायला ट्रंकेटा (Xenohyla truncata) के प्रिय हैं। गर्म रातों में, इनके फलों को खाने और मकरंद के लिए भूरे रंग के ये मेंढक बड़ी संख्या में इन पौधों पर टूट पड़ते हैं। फूलों का मकरंद पीते हुए ये एकदम फूल के अंदर चले जाते हैं, सिर्फ इनके पिछले पैरों वाला हिस्सा बाहर से दिखाई देता है। इस दौरान चिपचिपे परागकण इनके शरीर से चिपक जाते हैं।

फूड वेब्स पत्रिका में शोधकर्ताओं ने संभावना जताई है कि इस तरह ये मेंढक जाने-अनजाने इन पौधों को परागित भी कर देते होंगे। युनिवर्सिटी ऑफ कैम्पिनास के लुईस फिलिप टोलेडो और उनके साथियों ने बताया है कि पहली बार किसी मेंढक को, या यू कहें कि किसी उभयचर को, किसी पौधे का परागण करते देखा गया है। आम तौर पर केवल कीटों और पक्षियों को ही परागणकर्ता के रूप में देखा जाता था। लेकिन पिछले कुछ अध्ययनों में कुछ सरीसृप और स्तनधारी भी यह काम करते देखे गए हैं। और अब इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने परागणकर्ता के रूप में उभयचर की संभावना जताई है। इसकी पुष्टि के लिए अधिक शोध की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एलीफैंट सील गोता लगाने के दौरान झपकी लेते हैं

भी स्तनधारी प्राणियों के लिए पर्याप्त नींद स्वास्थ्य और विकास के लिए आवश्यक है। कई जीव तो दिन में 20 घंटे तक सोते हैं। अलबत्ता, अफ्रीकी हाथी के लिए केवल दो घंटे की नींद पर्याप्त है। लेकिन अब इस थलीय प्राणि को एक समुद्री स्तनधारी ने टक्कर दी है। साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार उत्तरी एलीफैंट सील के लिए भी दो घंटे की नींद पर्याप्त है। भूमि की तुलना में ये समुद्र में बहुत कम समय के लिए सोते हैं और इस दौरान वे सैकड़ों फीट की गहराई तक पहुंच जाते हैं।

अमेरिका के पश्चिमी तट पर पाए जाने वाले एलीफैंट सील गोता लगाने में माहिर होते हैं और 2500 फीट गहरा गोता लगाकर लगभग दो घंटे तक वहां रह भी सकते हैं। इनका वज़न एक कार जितना होता है और लंबाई लगभग 13 फीट होती है। अपने भारी-भरकम शरीर को बनाए रखने के लिए ये हर साल लगभग 7 महीने समुद्र में शिकार करते हैं। इनका मुख्य आहार मछली और स्क्विड हैं।

इन गहरे समुद्रों में आम तौर पर व्हाइट शार्क और किलर व्हेल शिकारी की भूमिका में होते हैं। इनसे बचने के लिए डॉल्फिन और फर सील जैसे कई स्तनधारी समुद्री जीव एक समय में अपने आधे मस्तिष्क को आराम देते हैं और उनका आधा मस्तिष्क सक्रिय रहता है। इस तरह की निद्रा को एकल-गोलार्ध निद्रा कहा जाता है जिसमें जंतु की एक आंख खुली रहती है। इसके उलट, एलीफैंट सील बिलकुल मनुष्य के समान सोते हैं और उनका मस्तिष्क पूरी तरह आराम कर रहा होता है।

सैन डिएगो स्थित स्क्रिप्स इंस्टीट्यूट ऑफ ओशियनोग्राफी की जेसिका कैंडल-बार ने उत्तरी एलीफैंट सील की निद्रा, शिकार और शिकार होने से बचाव के पैटर्न को समझने का प्रयास किया। कैंडल-बार और उनके सहयोगियों ने एक ऐसा उपकरण तैयार किया जो सील की मस्तिष्क तरंगों, हृदय गति, गोते की गहराई और गतियों की निगरानी कर सके। उपकरण एक टोपी की तरह सील के सिर के ऊपर आसानी से फिट हो जाता है। इन उपकरणों को कई एलीफैंट सील के सिर पर लगाकर पांच दिनों तक उनकी दिनचर्या का अध्ययन किया गया।

शोधकर्ताओं ने पाया कि गोता लगाने के बाद वे तैरना बंद कर देते हैं और ग्लाइड करने लगते है। जैसे-जैसे वे गहराई में जाते हैं उनके मस्तिष्क की गतिविधि मंद पड़ने लगती है। जल्द ही वे गहरी नींद में सो जाते हैं और उलटे होकर एक गिरती हुई पत्ती के समान लहराते हुए समुद्र के पेंदे की ओर जाने लगते हैं। लगभग 10 मिनट लंबी नींद के बाद वे अचानक जाग जाते हैं और सतह पर वापस आ जाते हैं। इस दौरान कुछ सील 1000 फीट से भी अधिक गहराई तक चले जाते हैं और कभी-कभी तो वे समुद्र के पेंदे तक पहुंच जाते हैं।

एलीफैंट सील दिन में कई बार इस तरह के गोते लगाते हैं जिससे उन्हें लगभग दो घंटे की नींद मिलती है। सील जब भूमि पर प्रजनन करने के लिए आते हैं तो दिन में 10 घंटे से अधिक सोते हैं। इस दौरान वे कुछ खाते नहीं हैं जिससे अतिरिक्त नींद की आवश्यकता समझ आती है।

इस अध्ययन के आधार पर कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि एलीफैंट सील अधिकतम भोजन करने के लिए समुद्र में सोने का समय तो सीमित करते ही हैं साथ ही खुद के शिकार होने के समय को भी कम करते हैं।

जीव जगत में एलीफैंट सील की नींद की अवधि में एक अनोखा लचीलापन दिखता है। लगभग 200 से अधिक दिनों के लिए दिन में दो घंटे की नींद से लेकर बाकी दिनों में 10.8 घंटे प्रतिदिन की नींद का पैटर्न किसी अन्य स्तनधारी में नहीं देखा गया है। शोधकर्ताओं के मुताबिक समुद्री स्तनधारी जीवों के नींद के पैटर्न के बारे में अधिक जानकारी उनके प्राकृतवास प्रबंधन को सुधारने में मदद करेगी। (स्रोत फीचर्स)

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भालुओं में शीतनिद्रा में भी रक्त के थक्के क्यों नहीं जमते

लंबे समय की निष्क्रियता पैर की शिराओं और फेफड़ों में रक्त के थक्के जमा सकती है। लेकिन यह परेशानी महीनों लंबी शीतनिद्रा में सोए भालुओं में पेश नहीं आती। साइंस पत्रिका में बताया गया है कि इसका कारण है कि शीतनिद्रा में सोए भालू एक प्रोटीन (HSP47) कम बनाते हैं जो रक्त का थक्का जमाने में भूमिका निभाता है।

रक्त के थक्के मनुष्यों के लिए काफी घातक हो सकते हैं। अमूमन ये थक्के पैर की शिराओं में बनते हैं। स्थिति तब घातक हो जाती है जब ये रक्त प्रवाह के साथ फेफड़ों तक पहुंच जाते हैं और वहां रक्त संचार को अवरुद्ध कर देते हैं। इसका वर्तमान उपचार है रक्त को पतला करना, लेकिन वह ज़्यादा प्रभावी नहीं है और इसके कारण अनियंत्रित रक्तस्राव हो सकता है।

यह समझने के लिए कि शीतनिद्रा के दौरान भालुओं में रक्त के थक्के क्यों नहीं बनते, लुडविग मैक्सिमिलियन विश्वविद्यालय के एक दल ने शीतनिद्रामग्न भूरे भालुओं पर अध्ययन किया। शोधकर्ताओं ने जाड़ों में शीतनिद्रामग्नेे (13) भूरे भालुओं को खोजा और उनके रक्त के नमूने लिए। इसके बाद उन्होंने गर्मी के मौसम में भी इन्हीं भालुओं के रक्त के नमूने लिए। शोधकर्ताओं ने पाया कि गर्मियों में भालुओं के रक्त में HSP47 नामक प्रोटीन प्रचुर मात्रा में था, जबकि जाड़ों में यह लगभग नदारद था।

चूहों पर हुए पूर्व अध्ययनों में यह देखा गया था कि अन्य कार्यों के अलावा HSP47 प्रोटीन की भूमिका रक्त के थक्के बनाने में भी है। HSP47 प्रोटीन रक्त प्लेटलेट्स की सतह पर बैठ जाता है और संक्रमण से लड़ने वाली सफेद रक्त कोशिकाओं (न्यूट्रोफिल) को आकर्षित करता है और प्लेटलेट्स से जोड़ता जाता है। इससे बने ‘जाल’ में प्रोटीन, रोगजनक और कोशिकाएं वगैरह फंस जाते हैं। नतीजतन, रक्त का थक्का बनता है। देखा गया है कि जिन चूहों में इस प्रोटीन की कमी थी उनकी प्लेटलेट्स ने न्यूट्रोफिल को कम आकर्षित किया और रक्त का थक्का बनने की संभावना कम रही। अब चूंकि शीतनिद्रा में भालुओं में HSP47 कम बनता है, इसलिए उक्त प्रक्रिया द्वारा थक्का निर्माण की संभावना भी कम होती है।

शोधकर्ताओं ने उन लोगों में HSP47 का स्तर देखा जो रीढ़ की हड्डी में चोट की वजह से चल-फिर नहीं पा रहे थे लेकिन उनमें रक्त के थक्के नहीं बन रहे थे। पाया गया कि इन लोगों में HSP47 का स्तर अपेक्षाकृत कम था। इससे लग रहा था कि चलना-फिरना बंद हो जाने पर शरीर HSP47 प्रोटीन कम बनाने लगता है। जांच के लिए शोधकर्ताओं ने 10 स्वस्थ व्यक्तियों को 27 दिन तक बेडरेस्ट कराया। जैसी कि उम्मीद थी धीरे-धीरे उनमें HSP47 का स्तर कम होने लगा था।

लगता है कि जिन लोगों ने अचानक बिस्तर पकड़ लिया है उनमें स्वाभाविक रूप से HSP47 का स्तर घटना शुरू होने से पहले HSP47 का स्तर घटा कर थक्का बनने के जोखिम को कम किया जा सकता है। लेकिन अभी और अध्ययन की ज़रूरत है।

बहरहाल, भालुओं और मनुष्यों दोनों में HSP47 की एक जैसी भूमिका से लगता है कि स्तनधारियों में थक्का बनने का तंत्र काफी पुराना है। (स्रोत फीचर्स)

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ऑक्टोपस के फिंगरप्रिंट

पिग्मी ज़ेब्रा ऑक्टोपस प्रशांत महासागर के अमेरिकी तटीय क्षेत्र के मूल निवासी हैं। जैसा कि इनके नाम, पिग्मी ज़ेब्रा ऑक्टोपस, से झलकता है इनके शरीर पर ज़ेब्रा के समान धारियां होती हैं। अब, इन पर हुआ हालिया अध्ययन बताता है कि इनमें से प्रत्येक नन्हें सेफेलोपोड की ये धारियां अद्वितीय होती हैं, और संभवत: ये एक-दूसरे को पहचानने में मदद करती हैं।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में 25 नवजात पिग्मी ज़ेब्रा ऑक्टोपस (ऑक्टोपस चिरेचिए) की हर हफ्ते तस्वीरें लीं। फिर एडोब इलस्ट्रेटर की मदद से हरेक के शरीर की धारियों और धब्बों के पैटर्न देखे। प्लॉस वन में उन्होंने बताया है कि अंडे से निकलने के पांच दिन बाद ही उनमें धारियों के अद्वितीय पैटर्न दिखने लगते हैं और ये पैटर्न ताउम्र बने रहते हैं, भले ही उनकी त्वचा का रंग और बनावट बदल जाएं। हो सकता है कि ये ऑक्टोपस एक-दूसरे को इन धारियों से पहचानते हों।

मानव प्रतिभागी ऑक्टोपस के बीच उनकी धारियों की मदद से लगभग 85 प्रतिशत बार सही अंतर कर पाए। इससे लगता है कि जंतु अध्ययनों में टैटू या टैग लगाने की ज़रूरत नहीं होगी; इन धारियों की मदद से उनकी पहचान हो सकेगी। (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी के शिखर पर सूक्ष्मजीव – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

डॉ. एन. बी. ड्रेगोन और उनके साथियों द्वारा आर्कटिक, अंटार्कटिक और एल्पाइन नामक पत्रिका में एक अध्ययन प्रकाशित किया गया है : समुद्रतल से 7900 मीटर की ऊंचाई पर सागरमाथा (माउंट एवरेस्ट) के साउथ कोल पर फ्रोज़न सूक्ष्मजीव संसार का विश्लेषण। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने माउंट एवरेस्ट के दुर्गम ढलानों पर मनुष्यों के सूक्ष्मजीव संसार का विश्लेषण किया है।

उन्होंने माउंट एवरेस्ट के दक्षिणी कोल में (समुद्र तल से 7900 मीटर ऊंचाई पर) पर्वतारोहियों द्वारा छोड़े गए सूक्ष्मजीवों को वहां की तलछट से निकाला।

साउथ कोल वह चोटी है जो माउंट एवरेस्ट को ल्होत्से से अलग करती है – ल्होत्से पृथ्वी का चौथा सबसे ऊंचा पर्वत है। इन दोनों चोटियों के बीच की दूरी केवल तीन किलोमीटर है। समुद्रतल से 7900 मीटर की ऊंचाई पर, दक्षिण कोल जीवन के लिए दूभर स्थान है – जुलाई 2022 में लू (हीट वेव) के दौरान यहां का सबसे अधिक तापमान ऋण 1.4 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया था।

इंसानों को हटा दें तो यहां जीवन का नामोंनिशान नहीं दिखाई देता। जीवन का आखिरी निशान काफी नीचे, समुद्रतल से 6700 मीटर की ऊंचाई, पर दिखता है – जिसमें काई की कुछ प्रजातियां है और एक कूदने वाली मकड़ी है जो हवा में उड़कर आए फ्रोज़न कीड़ों को खाती है।

अधिक ऊंचाई पर, ऑक्सीजन कम होती है (समुद्र तल पर 20.9 प्रतिशत के मुकाबले 7.8 प्रतिशत), तेज़ हवाएं चलती हैं, तापमान आम तौर पर ऋण 15 डिग्री सेल्सियस रहता है और पराबैंगनी विकिरण का उच्च स्तर होता है। ये सभी चीज़ें जीवन को और मुश्किल बना देती हैं। चूंकि सभी पारिस्थितिक तंत्रों में सभी प्रजातियों-जीवों के बीच परस्पर निर्भरता है, यहां सूक्ष्मजीव भी जीवित नहीं रह सकते।

हवा और इंसान

लेकिन यहां सूक्ष्म जीव आते तो रहते हैं – पशु-पक्षियों या हवाओं के साथ। समुद्र तल से लगभग 6000 मीटर की ऊंचाई पर 20 माइक्रोमीटर से कम साइज़ के धूल के कण हवाओं के साथ उड़कर आ जाते हैं। इस धूल का कुछ हिस्सा मूलत: सहारा रेगिस्तान से आता है। इससे समझ में आता है कि इतनी ऊंचाई पर भी सूक्ष्मजीव संसार में इतनी विविधता कैसे है। 7000 मीटर की ऊंचाई पर मुख्यत: हवाएं और मनुष्य ही इनके वाहक का कार्य करते हैं।

राइबोसोमल आरएनए अनुक्रमण की परिष्कृत तकनीकों का उपयोग करके सूक्ष्मजीव विशेषज्ञों ने दक्षिण कोल पर पाए जाने वाले बैक्टीरिया और अन्य सूक्ष्मजीवों की पहचान कर ली है। यहां से एकत्रित किए गए सूक्ष्मजीवों में सर्वदेशीय मनुष्यों की छाप देखी गई है। इसके अलावा, यहां मॉडेस्टोबैक्टर अल्टिट्यूडिनिस और नागानिशिया फफूंद भी पाए गए हैं। इन्हें पराबैंगनी-प्रतिरोधी संस्करणों के रूप में जाना जाता है।

माउंट एवरेस्ट को ‘सागरमाथा’ नाम किसने दिया? नेपाल के विख्यात इतिहासकार स्वर्गीय बाबूराम आचार्य ने 1960 के दशक में इसे नेपाली नाम सागरमाथा दिया था।

कंचनजंगा चोटी

1847 में, भारत के ब्रिटिश महासर्वेक्षक एंड्रयू वॉग ने हिमालय के पूर्वी छोर में एक चोटी की खोज की थी जो कंचनजंगा से भी ऊंची थी – कंचनजंगा को उस समय दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माना जाता था। उनके पूर्वाधिकारी, सर जॉर्ज एवरेस्ट, ऊंची पर्वत-चोटियों में रुचि रखते थे और उन्होंने वॉग को नियुक्त किया था। सच्ची औपनिवेशिक भावना दर्शाते हुए वॉग ने इस चोटी को माउंट एवरेस्ट का नाम दिया था।

भारतीय गणितज्ञ और सर्वेक्षक, राधानाथ सिकदर, एक काबिल गणितज्ञ थे। वे यह दर्शाने वाले पहले व्यक्ति थे कि माउंट एवरेस्ट (तब यह चोटी-XV के नाम से जानी जाती थी) दुनिया की सबसे ऊंची चोटी है। जॉर्ज एवरेस्ट ने सिकदर को 1831 में सर्वे ऑफ इंडिया में ‘गणक’ के पद पर नियुक्त किया था।

सिकदर ने सन 1852 में एक विशेष उपकरण की मदद से ‘चोटी XV’ की ऊंचाई 8839 मीटर दर्ज की थी। हालांकि, इसकी ऊंचाई की आधिकारिक घोषणा मार्च, 1856 में की गई थी। (स्रोत फीचर्स)

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रतौंधी और शार्क की दृष्टि

व्हेल शार्क एक अति विशाल जीव है – लंबाई लगभग 18 मीटर और वज़न 2 हाथियों के बराबर। और यह भारी-भरकम जीव समुद्र में गहरे गोते लगाता है – सतह से लेकर 2 किलोमीटर की गहराई तक। इसमें समस्या यह है कि समुद्र सतह पर तो खूब रोशनी होती है लेकिन 2 किलोमीटर की गहराई पर घुप्प अंधेरा। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि व्हेल शार्क इतने गहरे गोते क्यों लगाता है लेकिन यह सवाल तो वाजिब है कि वह रोशन सतह और अंधकारमय गहराई दोनों जगह देखता कैसे है।

ऐसे तो कई प्राणि हैं जो निहायत कम रोशनी में देख सकते हैं। लेकिन व्हेल शार्क की विशेषता यह है कि वे दोनों परिस्थितियों में ठीक-ठाक देख लेते हैं।

तो जापान के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ जेनेटिक्स के शिगेहिरो कुराकु और उनके साथियों ने पूरे मामले को जेनेटिक्स की दृष्टि से देखा। उन्होंने व्हेल शार्क और उसके एक निकट सम्बंधी ज़ेब्रा शार्क की जेनेटिक सूचना की तुलना की। पता चला कि व्हेल शार्क में डीएनए के दो स्थानों (क्रमांक 94 और 178) पर उत्परिवर्तन हुए हैं जिनकी वजह से रोडोप्सिन नामक प्रोटीन में अमीनो अम्लों का संघटन बदल गया है। गौरतलब है कि रोडोप्सिन एक प्रकाश संवेदी प्रोटीन है जो कम प्रकाश में भी रोशनी की उपस्थिति को भांप सकता है। यही वह प्रोटीन है जो मनुष्यों को भी कम रोशनी में देखने में मदद करता है।

और तो और, व्हेल शार्क का रोडोप्सिन नीली रोशनी के प्रति ज़्यादा संवेदनशील होता है। आप समझ ही सकते हैं कि समुद्र की गहराई में कम प्रकाश पहुंचता है और वह भी अधिकांशत: नीला प्रकाश। तो रोडोप्सिन व्हेल शार्क को अपेक्षाकृत अंधकार और नीले प्रकाश की परिस्थिति में देखने में मदद करता है।

लेकिन एक दिक्कत है – यही रोडोप्सिन उथले पानी में भी नीले रंग के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होगा और बाकी रंगों को देखने में बाधा बन जाएगा।

शोधकर्ताओं का मत है कि यहीं पर दूसरा उत्परिवर्तन (स्थान 178) काम आता है। उन्होंने पाया है कि व्हेल और ज़ेब्रा शार्क दोनों का रोडोप्सिन तापमान के प्रति संवेदनशील होता है। तापमान बढ़ने पर उनका रोडोप्सिन निष्क्रिय होने लगता है। जैसे ही शार्क व्हेल सतह पर आते हैं, उनका सामना वहां के अपेक्षाकृत उच्च तापमान से होता है और रोडोप्सिन निष्क्रिय हो जाता है। तब वह अन्य प्रकाश संवेदनाओं में बाधा नहीं डालता। समुद्र की गहराई में तापमान बहुत कम होता है जहां रोडोप्सिन सक्रिय होकर अंधेरे में देखने में मदद करता है। यही बात शोधकर्ताओं को दिलचस्प लगती है। यह एक ऐसा उत्परिवर्तन है जो प्रकाश-संवेदी रंजक को ठप करता है। जब मनुष्यों में यह रंजक काम करना बंद कर देता है रतौंधी की वजह बन जाता है। तो एक ऐसा उत्परिवर्तन आखिर बना क्यों रहेगा? (स्रोत फीचर्स)

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मानव मस्तिष्क ऑर्गेनॉइड का चूहों में प्रत्यारोपण

जकल ऑर्गेनॉइड्स (अंगाभ) अनुसंधान की एक प्रमुख धारा है। ऑर्गेनॉइड का मतलब होता है ऊतकों का कृत्रिम रूप से तैयार किया गया एक ऐसा पिंड जो किसी अंग की तरह काम करे। विभिन्न प्रयोगशालाओं में विभिन्न अंगों के अंगाभ बनाने के प्रयास चल रहे हैं। इन्हीं में से एक है मस्तिष्क अंगाभ।

सेल स्टेम सेल नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने मानव मस्तिष्क अंगाभ को चूहे के क्षतिग्रस्त मस्तिष्क में सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित कर दिया है। और तो और, अंगाभ ने शेष मस्तिष्क के साथ कड़ियां भी जोड़ लीं और प्रकाश उद्दीपन पर प्रतिक्रिया भी दी।

शोध समुदाय में इसे एक महत्वपूर्ण अपलब्धि माना जा रहा है क्योंकि अन्य अंगों की तुलना में मस्तिष्क कहीं अधिक जटिल अंग है जिसमें तमाम कड़ियां जुड़ी होती हैं। इससे पहले मस्तिष्क अंगाभ को शिशु चूहों में ही प्रत्यारोपित किया गया था; मनुष्यों की बात तो दूर, वयस्क चूहों पर भी प्रयोग नहीं हुए थे। 

वर्तमान प्रयोग में पेनसिल्वेनिया की टीम ने कुछ वयस्क चूहों के मस्तिष्क के विज़ुअल कॉर्टेक्स नामक हिस्से का एक छोटा सा भाग निकाल दिया। फिर इस खाली जगह में मानव मस्तिष्क कोशिकाओं से बना अंगाभ डाल दिया। यह अंगाभ रेत के एक दाने के आकार का था। अगले तीन महीनों तक इन चूहों के मस्तिष्क की जांच की गई।

जैसी कि उम्मीद थी प्रत्यारोपित अंगाभों में 82 प्रतिशत पूरे प्रयोग की अवधि में जीवित रहे। पहले महीने में ही स्पष्ट हो गया था कि चूहों के मस्तिष्कों में इन अंगाभों को रक्त संचार में जोड़ लिया गया था और जीवित अंगाभ चूहों के दृष्टि तंत्र में एकाकार हो गए थे। यह भी देखा गया कि अंगाभों की तंत्रिका कोशिकाओं और चूहों की आंखों के बीच कनेक्शन भी बन गए थे। यानी कम से कम संरचना के लिहाज़ से तो अंगाभ काम करने लगे थे। इससे भी आगे बढ़कर, जब शोधकर्ताओं ने इन चूहों की आंखों पर रोशनी चमकाई तो अंगाभ की तंत्रिकाओं में सक्रियता देखी गई। अर्थात अंगाभ कार्य की दृष्टि से भी सफल रहा था। लेकिन फिलहाल पूरा मामला मनुष्यों में परीक्षण से बहुत दूर है हालांकि यह सफलता आगे के लिए आशा जगाती है। (स्रोत फीचर्स)

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फल मक्खियां क्षारीय स्वाद पहचानती हैं

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हाल ही में शोधकर्ताओं ने फल मक्खियों (ड्रॉसोफिला मेलानोगास्टर) में एक नए प्रकार का स्वाद ग्राही खोज निकाला है जिससे वे क्षारीय पदार्थों का पता लगा सकती हैं। इस अद्भुत क्षमता से वे उच्च क्षारीयता वाले ज़हरीले भोजन और सतहों से स्वयं को बचा सकती हैं। इतने भलीभांति अध्ययन किए गए जंतु में एक नए स्वाद ग्राही का पता चलना आश्चर्यजनक है। नेचर मेटाबोलिज़्म में प्रकाशित रिपोर्ट अन्य जीवों में भी क्षारीय स्वाद ग्राही का पता लगाने की संभावना खोलती है।

अधिकांश जीव अम्ल और क्षार के एक संकीर्ण परास में कार्य करते हैं जो उनके अस्तित्व के लिए ज़रूरी है। पिछले कुछ दशकों में खट्टे और अम्लीय स्वाद का पता लगाने वाले ग्राहियों, कोशिकाओं और तंत्रिका मार्गों का विस्तृत अध्ययन किया गया है लेकिन क्षारीय पदार्थों को लेकर समझ उतनी पुख्ता नहीं है।   

इस नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने मक्खियों में उच्च क्षारीयता के लिए विशिष्ट ग्राहियों का पता लगाने का प्रयास किया। अम्लीयता-क्षारीयता को पीएच नामक एक पैमाने पर नापा जाता है – पीएच कम होने से अम्लीयता बढ़ती है और पीएच बढ़ने पर क्षारीयता।

मक्खियों की पसंद को जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने उन्हें पेट्री डिश में मीठा जेल पेश किया। इसमें आधे जेल को उदासीन (पीएच 7) रखा गया जबकि बाकी आधे को क्षारीय (पीएच >7) बनाया गया था। प्रत्येक आधे जेल को लाल या नीले रंग से रंगा गया। पसंदीदा जेल का सेवन करने के बाद मक्खियों का पारभासी पेट लाल, नीला या बैंगनी रंग (यदि दोनों हिस्से खाएं) का हो जाएगा।

शोधकर्ताओं ने पाया कि मक्खियों ने अधिक क्षारीय भोजन से परहेज़ किया। अलबत्ता मक्खियों का एक समूह ऐसा भी था जो दो प्रकार के भोजन के बीच अंतर करने में उतना अच्छा नहीं था। इन मक्खियों का अध्ययन करने से पता चला कि उनके जीन में एक उत्परिवर्तन हुआ था। यह जीन मक्खियों की सूंड के सिरे पर उपस्थित स्वाद तंत्रिकाओं के साथ-साथ उनके पैरों और एंटीना की कोशिकाओं में सक्रिय पाया गया।  

कोशिकाओं का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हुआ कि यह जीन एक ऐसा ग्राही प्रोटीन बनाता है जो क्षारीय घोल से संपर्क में आने पर सक्रिय होकर एक चैनल खोल देता है। इससे मक्खी के मस्तिष्क को तुरंत उस भोजन से बचने का संकेत मिलता है।  

शोधकर्ताओं के अनुसार अधिकांश संवेदना ग्राहियों में चैनल धनायन प्रवाहित करते हैं लेकिन इस मामले में ऋणायनों का प्रवाह देखा गया।

ऑप्टोजेनेटिक्स नामक तकनीक से इस जीन से सम्बंधित कोशिकाओं को सक्रिय करने पर मक्खियों ने सूंड को पीछे खींच लिया यानी वह भोजन बहुत क्षारीय है। 

शोधकर्ताओं के अनुसार इन परिणामों को कशेरुकी जीवों पर लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि उनमें यह जीन उपस्थित नहीं होता है। इस अध्ययन से यह भी समझा जा सकता है कि मक्खियां अंडे देने का स्थान कैसे चुनती हैं या कीट नियंत्रण के उपायों पर किस तरह से प्रतिक्रिया देंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दो पिता की संतान

हिंदी फिल्मों में ‘एक बाप की औलाद’ की बात कई मर्तबा की जाती है और माना जाता है कि वही सच्ची औलाद होती है। लेकिन यहां बात उस संवाद के संदर्भ में नहीं बल्कि वैज्ञानिकों द्वारा नर की कोशिकाओं से अंडे के निर्माण की हो रही है।

लंदन में हाल ही में सम्पन्न तृतीय अंतर्राष्ट्रीय मानव जीनोम संपादन सम्मेलन में यह जानकारी दी गई कि शोधकर्ताओं ने नर चूहों की कोशिकाओं से अंडे बना लिए और जब उन्हें निषेचित करके मादा चूहे के गर्भाशय में रखा गया तो उनसे स्वस्थ संतान पैदा हुई और वे स्वयं संतानोत्पत्ति में सक्षम थीं।

यह करामात करने के लिए शोधकर्ता बरसों से प्रयास कर रहे थे। मसलन, 2018 में एक टीम ने खबर दी थी कि उन्होंने शुक्राणु या अंडाणु से प्राप्त स्टेम कोशिकाओं से पिल्ले पैदा किए थे जिनके दो पिता या दो मांएं थीं। दो मांओं वाले पिल्ले तो वयस्क अवस्था तक जीवित रहे और प्रजननक्षम थे लेकिन दो पिता वाले पिल्ले कुछ ही दिन जीवित रहे थे।

फिर 2020 में कात्सुहिको हयाशी ने बताया था कि किसी कोशिका को प्रयोगशाला के उपकरणों में परिपक्व अंडे में विकसित होने के लिए किस तरह के जेनेटिक परिवर्तनों की ज़रूरत होती है। इसी टीम ने 2021 में खबर दी कि वह चूहे के अंडाशय की परिस्थितियां निर्मित करके अंडे तैयार करने में सफल रही और इन अंडों ने प्रजननक्षम संतानें भी उत्पन्न कीं।

अब हयाशी और उनके साथियों ने कोशिश शुरू कर दी कि वयस्क नर चूहे की कोशिकाओं से अंडे विकसित किए जाएं। उन्होंने इन कोशिकाओं को इस तरह परिवर्तित किया कि वे प्रेरित बहुसक्षम कोशिकाएं बन गईं। टीम ने इन कोशिकाओं को कल्चर में पनपने दिया जब तक कि उनमें से कुछ कोशिकाओं ने स्वत: अपना वाय गुणसूत्र गंवा नहीं दिया। जैसा कि सब जानते हैं नर चूहों की कोशिकाओं में सामान्यत: एक वाय और एक एक्स गुणसूत्र होता है। इन कोशिकाओं को रेवर्सीन नामक एक रसायन से उपचारित किया गया। यह रसायन कोशिका विभाजन के समय गुणसूत्रों के वितरण में त्रुटियों को बढ़ावा देता है। इसके बाद टीम ने वे कोशिकाएं ढूंढी जिनमें एक्स गुणसूत्र की दो प्रतिलिपियां थी, अर्थात गुणसूत्रों के लिहाज़ से वे मादा कोशिकाएं थीं।

इसके बाद टीम ने प्रेरित बहुसक्षम स्टेम कोशिकाओं को वे जेनेटिक संकेत दिए जो अपरिपक्व अंडा बनाने के लिए ज़रूरी होते हैं। जब अंडा बन गया तो उसका निषेचन शुक्राणु से करवाया गया और निषेचित अंडों को मादा चूहे के गर्भाशय में डाल दिया गया।

हयाशी ने सम्मेलन में बताया कि इन निषेचित अंडों (भ्रूण) की जीवन दर बहुत कम रही – कुल 630 भ्रूण गर्भाशयों में डाले गए और उनमें से मात्र 7 का विकास पिल्लों के रूप में हो पाया। लेकिन ये 7 भलीभांति विकसित हुए और वयस्क होकर प्रजननक्षम रहे।

यह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है, लेकिन हयाशी का कहना है कि अभी इसे एक चिकित्सकीय तकनीक बनने में बहुत समय लगेगा क्योंकि मनुष्य और चूहों में बहुत फर्क होते हैं। अभी यह भी देखना बाकी है कि क्या मूल कोशिका में जो एपिजेनेटिक बदलाव किए गए थे वे नर कोशिका से बने अंडों में सुरक्षित रहते हैं या नहीं। और भी कई तकनीकी अड़चनें आएंगी।

बहरहाल, यदि ये अड़चनें पार कर ली जाएं, तो यह तकनीक संतानहीनता की कुछ परिस्थितियों में कारगर हो सकती है। जैसे टर्नर सिंड्रोम के मामले में जहां स्त्री के दो में से एक एक्स गुणसूत्र नहीं होता या आधा-अधूरा होता है। जापान के होकाइडो विश्वविद्यालय के जैव-नैतिकताविद तेत्सुया इशी का कहना है कि यह तकनीक पुरुष (समलैंगिक विवाहित) दंपतियों को भी संतान पैदा करने का अवसर दे सकती है; हां, उन्हें सरोगेट गर्भाशय की ज़रूरत तो पड़ेगी। इसके अलावा, शायद सूदूर भविष्य में अकेला पुरुष भी अपनी जैविक संतान पैदा कर सकेगा। इस संदर्भ में सिर्फ तकनीकी नहीं बल्कि सामाजिक मुद्दों पर विचार भी ज़रूरी होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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