चमगादड़ों की हज़ारों किलोमीटर की उड़ान

क नए अध्ययन से पता चला है कि उड़न लोमड़ी कहे जाने वाले ऑस्ट्रेलिया के सबसे बड़े चमगादड़ विश्व के सबसे अथक खानाबदोशों में से हैं। ये एक वर्ष में लगभग 6000 किलोमीटर का सफर करते हैं जो किसी भी अन्य थलचर स्तनधारी जीव से अधिक है। इसकी तुलना केवल व्हेल या प्रवासी पक्षियों से ही की जा सकती है।

इन चमगादड़ों का वज़न लगभग 1 किलोग्राम और पंखों का फैलाव 1 मीटर तक होता है। लेकिन अन्य चमगादड़ों की तरह शिकार करने की बजाय वे रात में फूलों के मकरंद, पराग और बीजों की तलाश करते हैं और दिन में पेड़ों पर डटे रहते हैं। पूर्व में शोधकर्ताओं का अनुमान था कि ये चमगादड़ स्थानीय हैं और अपना ठिकाना एक विशेष जगह को ही चुनते हैं लेकिन पूर्वी ऑस्ट्रेलिया की तीन प्रजातियों के 201 चमगादड़ों पर उपग्रह ट्रांसमीटर लगाने पर सभी अनुमान गलत साबित हुए। बीएमसी बायोलॉजी में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार ये चमगादड़ एक वर्ष में 1487 से लेकर 6073 किलोमीटर तक का सफर तय करते हैं।

इन सभी प्रजातियों में से ब्लैक फ्लाइंग फॉक्स (Pteropusalecto) की विचरण सीमा सबसे कम, उसके बाद ग्रे-हेडेड फ्लाइंग फॉक्स (P. poliocephalus) की उससे अधिक और सबसे अधिक लिटिल रेड फ्लाइंग फॉक्स (P. scapulatus) की पाई गई। लिटिल रेड फ्लाइंग फॉक्स प्रति वर्ष औसतन 5000 किलोमीटर का फासला तय करता है। यह दूरी रेनडियर जैसे जांबाज़ स्तनधारी प्रवासियों की तुलना में कहीं अधिक है। रेनडियर प्रति वर्ष 1200 किलोमीटर तक की यात्रा करते हैं और अफ्रीकी बारहसिंघे अपनी प्रत्येक यात्रा में लगभग 2900 किलोमीटर का फासला तय करते हैं।  

गौरतलब है कि फ्लाइंग फॉक्स किसी मौसमी रास्ते का पालन नहीं करते हैं। उदाहरण के लिए, उत्तर से दक्षिण के 1300 किलोमीटर के सफर में वे कई स्थानों पर अपना ठिकाना बनाते हैं और इनकी आबादी में नए प्रवासियों का उतार-चढ़ाव होता रहता है। अध्ययन में पता चला कि कुल मिलाकर चमगादड़ 755 ठिकानों पर रुके जो पिछली जानकारी की तुलना में दो गुना से भी अधिक हैं।

चूंकि ये चमगादड़ बीज फैलाने और परागण के लिए महत्वपूर्ण हैं, इनके विचरण से मानव गतिविधि या आग से खंडित जंगलों को जोड़ने में मदद मिलती है। लेकिन इनके अनिश्चित और दूर-दराज़ के भ्रमण के चलते संरक्षण और रोग प्रबंधन का काम जटिल हो जाता है क्योंकि ये मुद्दे स्थानीय अधिकार क्षेत्र में आते हैं न कि राष्ट्रीय। अब शोधकर्ता इस विचरण के कारणों का पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चींटियां कई जंगली पौधे उगाती हैं

चींटियां कई जंगली पौधों के बीज फैलाती हैं। इस सेवा के बदले में पौधे चींटियों के लिए अपने बीज के आवरण पर एक पोषण-युक्त हिस्सा, इलेयोसम, जोड़ देते हैं। यह न सिर्फ चींटियों के बच्चों के लिए पोषण उपलब्ध कराता है बल्कि इसकी मदद से चींटियों को बीजों को पकड़ने में भी मदद मिलती है। लेकिन इकोलॉजिकल सोयायटी ऑफ अमेरिका की ऑनलाइन वार्षिक बैठक में यह बात सामने आई है कि बीज और चींटियों के बीच रिश्ता इस लेन-देन से अधिक है।

एक तो यह पता चला है कि चींटियां सिर्फ बीजों को ढोकर अपनी बांबी तक ले जाने का काम नहीं करती हैं बल्कि वे कुशल बागवान की तरह इनके उगने में भी मदद करती हैं। यह देखा गया है कि जिन जंगलों में चींटियां कम हो जाती हैं, वहां ये बीज उपयुक्त उपजाऊ मिट्टी तक पहुंच नहीं पाते। यानी यदि चींटियां न रहीं तो ये पौधे भी खतरे में पड़ जाएंगे।

अब तक यही माना जाता था कि ये चींटियां बीज को अपनी बांबी तक ले जाती हैं और वहां उनके बच्चे इनके इलेयोसम को खा डालते हैं और बीज को छोड़ दिया जाता है जहां उगने के लिए अनुकूल परिस्थिति मिल जाती है। लेकिन टेनेसी विश्वविद्यालय के चार्ल्स क्विट को लगा कि शायद बात इतनी ही नहीं है।

यह देखा गया है कि अन्य चींटियों की तरह बीज-वाहक चींटियां भी खुद को और अपनी साथी चींटियों को साफ रखने के लिए सूक्ष्मजीव-रोधी रसायनों का रुााव करती हैं। क्विट के मन में सवाल आया कि ये सूक्ष्मजीवनाशक (विसंक्रामक) रसायन बीजों के सूक्ष्मजीव समुदाय और उनके स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव डालते होंगे? इसका जवाब तलाशने के लिए उनकी टीम ने तीन इस तरह के पौधों – जंगली अदरक, ब्लडरूट और ट्विनलीफ – के बीजों के छिलके पर मौजूद सूक्ष्मजीवों के डीएनए को अलग करके अनुक्रमित किया। इनके बीजों को फैलाने का काम चींटियां करती हैं। उन्होंने देखा कि पहले तो प्रत्येक प्रजाति के बीज में एक जटिल और अनूठा सूक्ष्मजीव संसार था, लेकिन चींटी द्वारा बीज ले जाने के बाद बीजों का सूक्ष्मजीव संसार सीमित हो गया और सभी प्रजातियों के बीजों का सूक्ष्मजीव संसार लगभग एक-जैसा हो गया। शोधकर्ताओं के अनुसार सूक्ष्मजीव संसार में परिवर्तन बीजों के फैलाव के बाद के भक्षण, सुप्तावस्था, जीवनक्षमता, अंकुरण के समय और नए-नवेले पौधों के स्वास्थ्य को प्रभावित करता होगा।

यह भी पाया गया कि चींटियां कुछ बीजों को प्राथमिकता देती हैं। शोधकर्ताओं ने जब चींटियों को ट्रिलियम की विभिन्न प्रजातियों के बीज दिए तो चींटियों ने कुछ प्रजातियों के बीजों को चुना जबकि अन्य बीजों को छोड़ दिया।

चींटियां बीजों को किस आधार पर वरीयता देती हैं यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने इलेयोसम का मास स्पेक्ट्रोस्कोपी और अन्य तकनीकों की मदद से विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि चींटियां पौधे द्वारा बनाए गए ओलीक एसिड और अन्य यौगिकों के विशिष्ट संयोजन और सांद्रता के आधार पर बीज चुनती हैं। इस तरह चींटियों का स्वाद या चुनाव पौधों की प्रजातियों के विस्तार को प्रभावित कर सकता है।

शोधकर्ता बताते हैं कि मानव गतिविधियां भी बीज-चींटी साझेदारी को प्रभावित करती हैं। कई लोगों को लगता था कि चींटियां जंगल की सफाई जैसे हस्तक्षेप के बाद पुन: अपने स्थान पर लौट आती हैं। लेकिन होल्डन वृक्ष उद्यान की इकॉलॉजिस्ट केटी स्टबल ने अपने अध्ययन में पाया कि जिन जंगलों को मानव द्वारा कभी साफ नहीं किया गया था उन जंगलों की तुलना में जिन जंगलों को दशकों पहले साफ किया गया था उनमें आक्रामक केंचुए अधिक थे और और बीज-वाहक चींटियों की संख्या कम थी। इससे पता चलता है पूर्व में हुए हस्तक्षेप के प्रभाव काफी लंबे समय तक बने रहते हैं। इन प्रभावों से यह समझा जा सकता है कि क्यों द्वितीयक वन कम घने होते हैं और वहां वे पेड़-पौधे दुर्लभ होते हैं जिनके बीजों की वाहक चींटियां होती हैं।

इसी तरह, उत्तर-पूर्वी उत्तर अमेरिका के एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि कभी साफ ना किए गए जंगलों की तुलना में द्वितीयक वनों में बीज-वाहक चींटियों की संख्या कम थी।

यदि चींटियां विलुप्त हो गईं तो मुमकिन है कि इन चीटियों पर निर्भर पौधे और उन पौधों पर निर्भर जीवों की प्रजातियां भी नष्ट हो जाएंगी। यदि पेड़-पौधों को बहाल करना है तो हमें इनके बीजों को फैलाने वाली प्रजातियों को भी बहाल करने के बारे में सोचना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

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डायनासौर भी कैंसर का शिकार होते थे

डायनासौर पर अध्ययन करते हुए जीवाश्म वैज्ञानिकों को डायनासौर की एक विकृत हड्डी का जीवाश्म मिला था। यह हड्डी एक सींग वाले शाकाहारी सेंट्रोसौरस के पैर के निचले हिस्से की फिबुला हड्डी थी। यह जीव लगभग 7.6 करोड़ वर्ष पहले वर्तमान के दक्षिणी अल्बर्टा (कनाडा) में पाया जाता था। इस स्थान पर आजकल एक डायनासौर पार्क है।

पहले तो पुराजीव वैज्ञानिकों को लगा कि हड्डी का विचित्र आकार फ्रेक्चर के बाद हड्डी के ठीक से ना जुड़ पाने के कारण बना है लेकिन दी लैंसेंट ऑन्कोलॉजी में प्रकाशित एक नए अध्ययन में इस जीवाश्म की आंतरिक संरचना की तुलना एक मनुष्य के अस्थि ट्यूमर से की गई है। अध्ययन में पाया गया कि यह डायनासौर एक विशेष किस्म के कैंसर (ऑस्टियोसरकोमा) से पीड़ित था। इस प्रकार का कैंसर मनुष्यों में मुख्य रूप से किशोरों और युवाओं पर हमला करता है। इससे कमज़ोर हड्डियों के अपरिपक्व ऊतकों के ट्यूमर विकसित होते हैं जो अक्सर पैर की लंबी हड्डी में पाए जाते हैं।

गौरतलब है कि इससे पहले भी वैज्ञानिकों को जीवाश्मों में कैंसर के प्रमाण मिले हैं। टायरेनोसॉरस रेक्स के जीवाश्म में ट्यूमर, डक-बिल्ड डैड्रोसौर के जीवाश्म में गठिया रोग और 24 करोड़ वर्ष पुराने कछुए के जीवाश्म में ऑस्टियोसरकोमा की पहचान की गई है। लेकिन यह पहली बार है कि कोशिकीय स्तर पर डायनासौर में कैंसर के निदान की पुष्टि हुई है।    

इसके लिए वैज्ञानिकों ने उच्च-रेज़ोल्यूशन कंप्यूटरीकृत टोमोग्राफी (सीटी) स्कैन की मदद से पूरे जीवाश्म की जांच की और इसकी पतली कटानों का माइक्रोस्कोप से अध्ययन किया ताकि कोशिकाओं की संरचना को ठीक तरह से समझा जा सके। निष्कर्ष के तौर पर उन्होंने पाया कि यह ट्यूमर काफी विकसित हो चुका था जो मनुष्यों के समान उस जीव के लिए काफी घातक रहा होगा। क्योंकि यह जीवाश्म सेंट्रोसौरस के अन्य नमूनों के साथ मिला था इसलिए ऐसी संभावना है कि इसकी मृत्यु कैंसर से नहीं बल्कि अपने अन्य साथियों के साथ बाढ़ में डूबने की वजह से हुई होगी। बहरहाल शोधकर्ताओं को लगता है कि इस खोज के बाद आधुनिक तकनीकों से असामान्य जीवाश्मों की जांच पर ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि जैव विकास में कैंसर की उत्पत्ति को समझा जा सके।(स्रोत फीचर्स)

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वायरस व ततैया की जुगलबंदी में एक इल्ली की शामत – कालू राम शर्मा

सार्स-कोव-2 के कहर के चलते मार्च से जून के लंबे व सतत लॉकडाउन में वीडियो व टेलीफोन कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए काम करने के दौरान आसपास ततैया को उड़ते देखना मेरे लिए आम बात थी। इसी दौरान एक बावली (क्रेज़ी) ततैया दीवार पर मिट्टी के लौंदे ला-लाकर घरौंदा बनाने के मिशन में जुटी दिखी। इस ततैया पर मेरा ध्यान टिक गया। जब घरौंदा बन गया तो फिर वह बाहर जाती और मुंह और टांगों में देसी मटर की फली जैसी इल्लियों को दबाकर लाती और घरौंदे के अंदर दफन कर देती। इन इल्लियों को अपने डंक से बेहोश कर उसके शरीर में मादा ततैया अंडे देती है। अंडों से निकले बच्चे बेहोश इल्ली को नोंच-नोंचकर खाते हैं। 

इस पर एक मामूली से सवाल ने मुझे बैचेन कर दिया। सवाल यह कि ततैया जिस इल्ली को पकड़कर दफन करती है वह ततैया के अंडों व उनसे निकलने वाली इल्लियों की खिलाफत क्यों नहीं करती? इल्ली का प्रतिरक्षा तंत्र ततैया के अंडों व परिवर्धित हो रही इल्ली व प्यूपा के विरुद्ध प्रतिक्रिया क्यों नहीं करता? जाहिर है कि दुनिया के समस्त जीवों में प्रतिरक्षा प्रणाली होती है जो शरीर में किसी भी बाहरी आक्रमण या संक्रमण के प्रति सजग होती है और उसके खिलाफ प्रतिक्रिया व्यक्त करती है। तो उस दफन इल्ली और ततैया की संतान के मामले में राज़ क्या है?

1967 के दौरान वैज्ञानिकों को पता चला कि मादा ततैया जब बेहोश की गई तितली के शरीर में ओविपोज़िटर के रास्ते से अंडे देती है तो वे अंडों के साथ कुछ छोटे कणों को भी इंजेक्ट करती है। यह समझने में लगभग एक दशक का वक्त लगा कि दरअसल मादा ततैया अंडों के साथ जो इंजेक्ट करती है वे वायरस हैं जिन्हें पोलीड्नावायरस (पीडीवी) कहा जाता है। यह देखा गया है कि ततैया की प्रत्येक प्रजाति में एक खास तरह का पोलीड्नावायरस होता है। इन वायरसों का काम एक ही है – ये भक्षण की शिकार इल्ली की प्रतिरक्षा प्रणाली को कमज़ोर बना देते हैं ताकि उस पर पनप रहे ततैया के अंडे व अंडों से निकली इल्लियां व प्यूपा सुरक्षित रहते हुए वयस्क में कायांतरित हो सकें।

अगर ये वायरस न हों तो इल्ली का प्रतिरक्षा तंत्र ततैया के बच्चों के खिलाफ प्रतिक्रिया व्यक्त करेगा और उन्हें पनपने से रोकेगा। तो, एक ओर जो पोलीड्नावायरस बेहोश मेज़बान इल्ली की प्रतिरक्षा प्रणाली को ध्वस्त करता है वही ततैया और वायरस के बीच सहजीविता की एक मिसाल है।

पोलीड्नावायरस डबल डीएनए वायरस का एक परिवार है जो खास तौर पर ततैया से ताल्लुक रखता है। ये पोलीड्नाविरिडी कुल के सदस्य हैं। इस परिवार में वायरस की 53 प्रजातियां हैं जो शिकारी परजीवी ततैयाओं में ही पाई जाती हैं।

ये वायरस एक अनोखे जैविक तंत्र का हिस्सा हैं जिसमें एक अंत:परजीवी (यानी ततैया की इल्ली), एक मेज़बान (इल्ली) व वायरस शामिल हैं। वायरस का संपूर्ण जीनोम अंतर्जात होता है जो मादा ततैया के अंडाशय में अपनी प्रतिलिपियां बनाता हैं। जब मादा अंडे देती है तो अंडों के साथ यह वायरस मेज़बान इल्ली में इंजेक्ट करती है जो इल्ली को संक्रमित कर कमज़ोर कर देते हैं। खास बात यह है कि पोलीड्नावायरस मेज़बान इल्ली में अपनी प्रतिलिपियां नहीं बना पाता है बल्कि मादा ततैया द्वारा इंजेक्ट किए गए वायरस ही उसे संक्रमित करते हैं। पोलीड्नावायरस की प्रतिलिपियां मात्र ततैया के प्रजनन तंत्र के अंडाशय की विशेषीकृत कोशिकाओं (कैलिक्स) के केंद्रक में ही बनना संभव है। ऐसा इसलिए कि ततैया के जीनोम में पोलीड्नावायरस के ऊपर प्रोटीन का खोल चढ़ाने वाले जीन मौजूद होते हैं। ये जीन इल्ली के जीनोम में अनुपस्थित रहते हैं। इसलिए पोलीड्नावायरस इल्लियों के शरीर में प्रजनन करके अपनी प्रतिलिपियां बनाने में असमर्थ होता है।  इस प्रकार मेज़बान इल्ली पर ततैया का जीवन चक्र पूरा हो पाता है।

पोलीड्नावायरस ततैया प्रजातियों में आम तौर पर नर व मादा दोनों में पाए जाते हैं। लेकिन ये केवल अंडे देने के दौरान ही मादा द्वारा इंजेक्ट किए जाते हैं। यह देखा गया है कि ततैया के जीवन चक्र की प्यूपा अवस्था में अंडाशय में पोलीड्नावायरस की प्रतिलिपियां बनने की प्रक्रिया शुरू होती है जो वयस्क अवस्था तक जारी रहती है।

पोलीड्नावायरस की दूसरी खासियत यह है कि यह वायरस मेज़बान इल्ली की कोशिकाओं में डीएनए को पहुंचाने का काम करता है ताकि परजीवीता को सफल बना सके। उद्विकास की प्रक्रिया में पोलीड्नावायरस व ततैया के बीच तालमेल हुआ और परजीविता को अंजाम दिया गया।

ततैया के वायरस कैसे इल्ली की प्रतिरक्षा प्रणाली को कमज़ोर बनाते हैं इसका अध्ययन नैन्सी बैकेज के नेतृत्व में किया गया। ततैया कई सारे अंडे इल्ली के शरीर में डालती है। ततैया के अंडों से निकली इल्लियां मेज़बान इल्ली के खून (हीमोलिंफ) से अपना पेट भरती हैं। ततैया जब अंडे देती है तो हिमोलिंफ में मौजूद हिमोसाइट्स का काम प्रभावित होता है। हिमोसाइट्स ततैया द्वारा दिए गए अंडों व उनसे निकली इल्लियों के प्रति संवेदनशून्य हो जाता है। यह भी देखा गया कि इल्ली के शरीर में अगर पोलीड्नावायरस डाले जाएं तो वे वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा ततैया द्वारा अंडों के साथ डालने पर करते हैं। और अगर पोलीड्नावायरस रहित अंडे इल्ली के शरीर में डाले जाएं तो मेज़बान इल्ली का प्रतिरक्षा तंत्र बखूबी काम करता रहता है। ये सारे तथ्य दर्शाते हैं कि पोलीड्नावायरस स्पष्ट तौर पर मेज़बान इल्ली के विकास और प्रतिरक्षा तंत्र दोनों में हेरफेर करके उसे खतरे में डाल देता है जो ततैया के लिए फायदेमंद साबित होता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मेंढक के पेट से ज़िंदा बच निकलता है यह गुबरैला

मेंढक द्वारा ज़िंदा निगल लिए जाने पर अधिकांश कीटों की मौत तो तय ही समझो, लेकिन एक प्रजाति का गुबरैला, रेजिम्बार्टिया एटेनुएटा, पचकर मेंढक का नाश्ता बनने की बजाय गुदा के रास्ते जीवित बाहर निकल जाता है।

जापान के कोबे विश्वविद्यालय के ग्रेजुएट स्कूल ऑफ एग्रीकल्चरल साइंस के एसोसिएट प्रोफेसर शिनजी सुगिउरा को यकीन था कि आर. एटेनुएटा गुबरैलों ने मेंढकों का भोजन बनने से बचने का तरीका विकसित कर लिया है। उनका अनुमान था कि अपने बचाव की प्रक्रिया में गुबरैले मेंढकों द्वारा मुंह से ही बाहर निकाल दिए जाएंगे। जांच के लिए उन्होंने प्रयोगशाला में एक किशोर तालाबी मेंढक, पेलोफाइलैक्स निग्रोमैकुलैटस, को एक वयस्क जलीय गुबरैला (आर. एटेनुएटा) भोजन के लिए दिया जिसे मेंढक ने पूरा का पूरा ज़िंदा निगल लिया। इस घटना के लगभग 105 मिनट बाद शोधकर्ताओं ने देखा कि वह गुबरैला मेंढक के शरीर से जीवित बाहर निकल आया, लेकिन मुंह के रास्ते नहीं बल्कि मल के साथ गुदा के रास्ते। यह देखकर शोधकर्ता हैरान रह गए।

उन्होंने एक दर्जन से अधिक बार इस प्रयोग को दोहराया और पाया कि 93 प्रतिशत गुबरैले मल के साथ बाहर आ गए और हर बार गुबरैलों का सिर पहले बाहर आया। ये नतीजे शोधकर्ताओं ने करंट बायोलॉजी पत्रिका में रिपोर्ट किए हैं। गुबरैले बाहर आने पर मल में धंसे हुए थे लेकिन जल्दी ही उससे बाहर निकल गए और इसके बाद कम से कम दो सप्ताह तक जीवित रहे।

खाए जाने के बाद एक घंटे से छह घंटे के भीतर गुबरैले मेंढक के शरीर से बाहर आ गए थे। सामान्यत: मांसपेशियां गुदा-द्वार को कसकर बंद रखती हैं, ये मांसपेशियां तभी शिथिल होती हैं जब मेंढक मल त्याग करता है। देखा गया है कि आम तौर पर मेंढक भोजन के बाद इतनी जल्दी मल त्याग नहीं करते हैं। उक्त अवलोकनों से तो लगता है कि गुबरैले मेंढकों को विष्ठा त्याग के लिए उकसाते हैं।

एक सोच यह थी कि गुबरैले ऐसा अपने पैरों की मदद से करते हैं। इस बात की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने गुबरैले के पैरों को मोम से चिपका दिया और फिर उन्हें मेंढक को भोजन के रूप में दिया। उन्होंने पाया कि इनमें से एक भी गुबरैला जीवित नहीं बचा।

प्रयोग में अन्य जलीय गुबरैले इतने भाग्यशाली नहीं थे। शोधकर्ताओं ने जब अन्य गुबरैलों (जैसे एनोक्रस जेपोनिकस) मेंढकों को पेश किए तो वे सभी मेंढकों द्वारा निगले जाने के बाद अंदर ही मर गए और निगले जाने के 24 घंटे बाद टुकड़ों में बाहर आए।

हालांकि शिकार के शरीर में पचने से बचने का यह पहला उदाहरण नहीं है। 2018 में सुगिउरा ने पाया था कि बम्बार्डियर गुबरैले (फेरोपोफस जेसेओन्सिस) मेंढक द्वारा निगले जाने पर ऐसा ज़हरीला रसायन छोड़ते हैं कि शिकारी उल्टी कर देता है और वे बाहर आ जाते हैं। लेकिन गुदा के रास्ते मल के साथ बाहर आने का यह पहला उदाहरण है।

बहरहाल, यह विस्तार से देखने की ज़रूरत है कि गुबरैले बाहर निकलने के लिए मांसपेशियों को शिथिल होने के लिए कैसे प्रेरित करते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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क्या ध्रुवीय भालू विलुप्त हो जाएंगे? – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

नियंत्रित जलवायु परिवर्तन के प्रकोप हम सभी झेल रहे हैं। हाल ही में एक अध्ययन में वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि आर्कटिक में समुद्री बर्फ सिकुड़ने के कारण ध्रुवीय भालू सदी के अंत तक शायद विलुप्त ही हो जाएंगे।

अलास्का में ब्यूफोर्ट सागर से लेकर साइबेरियाई आर्कटिक तक ध्रुवीय भालू की आबादी वाले 19 क्षेत्रों में लगभग 25 हज़ार ध्रुवीय भालू पाए जाते हैं। यह हिस्सा नवंबर से मार्च तक बर्फ से ढंका रहता है। यहां दिन का तापमान ऋण 15 से ऋण 1 डिग्री सेल्सियस होता है। मांसाहारी ध्रुवीय भालू शिकार के लिए पूरी तरह समुद्री बर्फ पर निर्भर होते हैं और सील का शिकार करते हैं। किंतु प्रति वर्ष वैश्विक तापमान बढ़ने से समुद्री बर्फ में कमी उनकी भोजन आपूर्ति में बाधा डालती है और वे प्रति वर्ष भूखे रह जाते हैं।

टोरोन्टो विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ. पिटर मोलनर ने हाल ही में नेचर क्लाइमेट चेंज में छपे शोध में कहा है कि बर्फ की कमी के कारण शिकार खोजने के लिए भालुओं को लंबी दूरी तक जाना पड़ता है और लगातार भोजन की कमी उनका अंत कर देगी।

आर्कटिक समुद्र पर जमी बर्फ में सील की खुशबू खोजते-खोजते ये उन स्थानों पर पहुंच जाते हैं जहां बर्फ के मैदानों में छेद होते हैं। भालू को देखते ही सील छेदों से समुद्र के अंदर चली जाती है परंतु कुछ समय पश्चात उन्हें सांस लेने के लिए सतह पर आना ही होता है। सील के शिकार के लिए छेद के मुहाने पर बैठे भालू को इसी पल का इंतज़ार रहता है और वे सील का शिकार कर भोजन प्राप्त करते हैं। बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण अब लंबे समय तक बर्फ नहीं जमती और सील के शिकार के लिए भालू को खूब भटकना पड़ता है जिससे वे भूखे और कमज़ोर हो जाते हैं और समुद्री किनारों पर भोजन खोजने लगते हैं। सील के शिकार से भालुओं को अत्यधिक वसा मिलती है जो उन्हें वर्ष के बाकी समय भूखा रहने पर भी बचा लेती है।

आर्कटिक में हाल के दशकों में तापमान बढ़ा है। 1981 की तुलना में 2010 में गर्मियों के दौरान बर्फ 13 प्रतिशत कम रही। आर्कटिक के वे स्थान जहां पहले गर्मियों में भी बर्फ पाई जाती थी, वहां बर्फ गायब है। डॉ. मोलनर और सहयोगियों ने ध्रुवीय भालू की 13 उप-आबादियों, जो कुल ध्रुवीय भालू की आबादी का 80 प्रतिशत है, पर अध्ययन करके भालुओं की ऊर्जा आवश्यकता पता की। जैसे, मादा भालू अकेले रहने या बच्चे पालने के दौरान कितने दिनों तक भूखा रह सकती है?

वैश्विक गरमाहट की इसी दर और बर्फ न जमने वाले दिनों को जोड़कर वर्ष 2100 के जलवायु-मॉडल अनुमानों को एक साथ देखने पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि 2100 में भालूओं को लंबे समय तक भूखा रहना पड़ेगा जो उनकी बर्दाश्त के बाहर होगा। भालुओं के लिए एक समय ऐसा भी आएगा जब भुखमरी के कारण वे ऊर्जा विहीन हो जाएंगे। ऐसे में भोजन खोजना तथा प्रजनन के लिए साथी खोजना और कठिन हो जाएगा एवं अनेक उप-आबादियां खत्म हो जाएगी। पिछले कुछ सालों में भालू वैकल्पिक खाद्य स्रोत के रूप में व्हेल को भोजन बनाकर ऊर्जा प्राप्त कर रहे हैं किंतु वैश्विक गरमाहट के कारण व्हेल भी मिलना बंद हो जाएगी। स्थिति इतनी गंभीर है कि अगर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का स्तर सामान्य रहा तो भी ध्रुवीय भालुओं का बचना असंभव है।(स्रोत फीचर्स)

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हरे वृक्ष मेंढकों के हरे रंग की पहेली

वृक्ष मेंढक चटख हरे होते हैं। लेकिन उन्हें हरा बनाता कौन है? ताज़ा शोध बताता है कि उनकी चमड़ी के नीचे उपस्थित नीला पदार्थ उन्हें हरा बनाता है। यह हरा रंग उन्हें अपने आसपास के परिवेश में घुल-मिलकर ओझल होने में मदद करता है। लेकिन यह एक पहेली रही है कि कैसे ये मेंढक यह हरा रंग अपनी चमड़ी के नीचे जमा करके रखते हैं जबकि यह अत्यंत विषैला होता है।

दरअसल, शोधकर्ता यही समझने की कोशिश कर रहे थे कि वृक्ष मेंढकों की सैकड़ों प्रजातियां कैसे इस विषैले हरे रंजक बिलिवर्डिन को इतनी भारी मात्रा में जमा करके रख पाती हैं। अधिकांश प्राणियों के लिए बिलिवर्डिन इतना विषैला होता है कि इसे तत्काल नष्ट कर दिया जाता है अथवा उत्सर्जित कर दिया जाता है। उदाहरण के लिए, मनुष्यों में जब लाल रक्त कोशिकाएं नष्ट होती हैं तो बिलिवर्डिन बनता है। कभी-कभी खरोचों पर जो हरापन दिखता है वह इसी के कारण होता है।

लेकिन वृक्ष मेंढक इतनी भारी मात्रा में बिलिवर्डिन जमा करते हैं तो उन्हें कोई नुकसान क्यों नहीं होता? होता यह है कि इन मेंढकों में बिलिवर्डिन छुट्टा नहीं छोड़ा जाता। शोधकर्ताओं ने आठ प्रजातियों में से यह रंजक प्राप्त किया और पाया कि यह काफी टिकाऊ भी था और हानिरहित भी। टीम ने प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ में बताया है कि इन मेंढकों में बिलिवर्डिन एक अन्य प्रोटीन सर्पिन के साथ जुड़कर एक संकुल बना लेता है। यह संकुल उन्हें लसिका ग्रंथियों, मांसपेशियों और त्वचा जैसे सारे अंगों में मिला। मज़ेदार बात है कि यह संकुल नीला होता है। और मेंढक हरे इसलिए दिखते हैं कि उनकी त्वचा थोड़ी पीली होती है और नीला व पीला मिलकर हरा बना देते हैं। इसीलिए जिन हिस्सों की त्वचा में पीलापन नहीं होता, वहां मेंढक नीला ही नज़र आता है। जैसे मेंढक के पेट वाला हिस्सा।

और तो और, नीले-पीले का यह मिश्रण दिन भर एक-सा नहीं रहता। दिन के समय नीला रंजक पूरे शरीर में फैल जाता है, जिससे मेंढक परिवेश में नज़र नहीं आता और मज़े से सो सकता है। दूसरी ओर, रात के समय यह प्रोटीन-संकुल मेंढक की टांगों और आंतों में इकट्ठा हो जाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अपने पुराने सिर को टोपी बनाए कैटरपिलर

क पतंगे का कैटरपिलर है जिसका सिर थोड़ा अजीब सा दिखता है – लगता है कि उसने हैट पहनी है। इसी वजह से इसका नाम पड़ा है पगला हैटरपिलर। और यह हैट बनी होती है उसके पुराने सिरों से।

दरअसल, उरबा लुगेन्स (Urabalugens) की इल्ली यानी कैटरपिलर जब वृद्धि करता है तो अन्य कीटों के समान यह भी अपनी त्वचा का प्रमोचन करता है और साथ में अपने बाह्य कंकाल का भी। ऐसा यह 13 बार तक करता है और अंत में प्यूपा में तबदील हो जाता है। फिर प्यूपा वयस्क कीट में कायांतरित हो जाता है।

चौथी बार के प्रमोचन के बाद यह अपने सिर की त्वचा व कंकाल अलग तो करता है लेकिन उसे छोड़ता नहीं। हर प्रमोचन के बाद पहले वाला सिर वहीं का वहीं बना रहता है और धीरे-धीरे सिरों की एक मीनार बन जाती है।

यह पतंगा मुख्य रूप से ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में पाया जाता है। इसका एक नाम गम लीफ स्केलेटनाइज़र भी है। कारण यह है कि यह कैटरपिलर युकेलिप्टस की पत्तियों को इस तरह कुतरता है कि अंत में उनकी शिराओं का कंकाल ही बच जाता है।

क्वींसलैंड के अकशेरुकी संसाधन केंद्र मिनीबेस्ट वाइल्डलाइफ के एलन हेंडरसन का कहना है कि यह मीनारनुमा रचना सिर्फ सजावट की वस्तु नहीं है। यह मीनार कैटरपिलर की रक्षा भी करती है। कैटरपिलर इसकी मदद से शिकारियों को खदेड़ने का काम करता है।(स्रोत फीचर्स)

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चातक के अंडों-चूज़ों की परवरिश करते हैं बैब्लर – कालू राम शर्मा

क्षी जगत बड़ी विचित्रताओं से लबरेज है। जहां अधिकतर पक्षी घोंसला बनाने, अंडों को सेने व चूज़ों की परवरिश का ज़िम्मा स्वयं उठाते हैं, वहीं ऐसे भी पक्षी हैं जो यह काम दूसरे पक्षियों को सौंप देते हैं। ऐसे पक्षियों को घोंसला परजीवी कहते हैं। घोंसला परजीवियों में कोयल और पपीहे के अलावा चातक भी हैं।

चातक के बारे में किंवदंती है कि यह मानसून में स्वाति नक्षत्र का ही पानी पीता है। यह किंवदंती क्यों पड़ी होगी? मानसून के दौरान चातक का प्रजनन काल होता है। इस दौरान यह जोड़ा बांधता है। नर चातक मादा को लुभाने के लिए हवा में अठखेलियां करता है। हवा में उड़ते हुए यह पिहु-पिहु की आवाज़ निकालता है। इस दौरान इसकी चोंच आसमान की ओर खुली हुई होती है। ऐसा लगता है मानो यह बरसात की बूंदों को चोंच में ग्रहण कर रहा हो।

परजीवीपन का यह उदाहरण दुनिया भर की लगभग 80 पक्षी प्रजातियों में देखा गया है। इनमें से तीन पक्षी भारत में देखे गए हैं – कोयल, चातक (क्लैमेटर जर्कोबिनस) व पपीहा। चातक कोयल परिवार (cuculinae) का सदस्य है जो जो पेसेराइन (passerine) प्रजातियों के घोंसलों में अंडे देते हैं। चातक बैब्लर पक्षी यानी ‘सात भाई’ (Turdoidesaffinis) के घोंसलों में अंडे देता है। चातक के अंडों का रूप-रंग सात भाई पक्षियों के अंडों से काफी मेल खाता है।

चातक सामान्य मैना के आकार का पक्षी है जबकि पूंछ मैना की पूंछ से लंबी होती है। इसकी पीठ व पंख काले और पेट, छाती व गर्दन वाला हिस्सा सफेद होता है। सिर पर चोटी निकली होती है। काले पंखों में ऊपर की ओर एक अंडाकार सफेद पट्टा-सा होता है जो उड़ते वक्त साफ देखा जा सकता है। नर और मादा एक समान ही होते हैं।

चातक हमारे यहां का बारहमासी पक्षी नहीं है। यह अफ्रीका से भारत में मई के अंत में या जून के पहले सप्ताह में प्रवास करके आता है। इस दौरान यह यहां पर प्रजनन करता है।

चातक का जीव वैज्ञानिक नाम क्लैमेटर जर्कोबिनस है। प्रजनन विस्तार के अनुसार इसकी तीन उप प्रजातियां देखी गई है: क्लैमेटर जर्कोबिनस सेरेटस दक्षिण अफ्रिका व दक्षिणी ज़ांबिया में, क्लैमेटेर जर्कोबिनस पाइका सहारा के दक्षिण में उत्तर ज़ांबिया और मलावी, उत्तर-पश्चिम भारत से नेपाल और म्यांमार तक तथा क्लैमेटर जर्कोबिनस जैकोबिनस दक्षिण भारत, श्रीलंका, दक्षिण म्यांमार में प्रजनन करती हैं। चातक पक्षी की दो उप-प्रजातियां भारत में मिलती हैं। हमारे यहां जो चातक मानसून में दिखाई देता है वह क्लैमेटर जर्कोबिनस सेरेटस है। यह उप-प्रजाति मानसून में अफ्रीका से भारत में प्रजनन के लिए आती है। दूसरी छोटे आकार की जैकोबिनस श्रीलंका व दक्षिण भारत की स्थानीय उप-प्रजाति है।

चातक संपूर्ण भारत समेत पाकिस्तान, बांग्लादेश श्रीलंका तथा बर्मा में पाया जाता है। हिमालय में 8000 फीट की ऊंचाई तक देखा गया है। चातक अधिकतर घने वृक्षों व खुले जंगलों, कस्बों व गांवों की सीमा के भीतर बाग-बगीचों में दिखता है। इसे शहरों में पेड़ों पर भी देखा गया है। इनकी मौजूदगी एक से दूसरे पेड़ पर नर और मादा के बीच पकड़ा-पकड़ी के रूप में देखने को मिलती है। इस दौरान ये पिहू, पिहू… की आवाज़ करते हैं। इनकी आवाज़ को मैंने रात में भी सुना है। ये पूरी तरह से वृक्षवासी हैं जो झाड़ियों व ज़मीन पर कीड़ों को चुगने के लिए चंद पल के लिए उतरते हैं और फिर से उड़कर वृक्ष पर चले जाते हैं। चातक आम तौर पर कीटों व इल्लियों व बेरी फलों को खाते हैं।

चातक का प्रजनन काल जून से अगस्त के दौरान होता है। यह दिलचस्प है कि परजीवी चातक ने अपने अंडों-चूज़ों की परवरिश का ज़िम्मा बैब्लर पक्षी को सौंप दिया है। बैब्लर को हिंदी में सात भाई व अंग्रेज़ी में सेवन सिस्टर्स के नाम से जाना जाता है। आपने अपने आसपास सात भाई पक्षी को ज़रूर देखा होगा। सात भाई छह या अधिक के झुंड में रहते हैं। बैब्लर असम को छोड़कर पूरे भारत में पाए जाते हैं। ये सूखे खुले देहाती क्षेत्रों और कंटीले झाड़-झंखाड़ वाली जगहों में रहना पसंद करते हैं। ये झाड़ियों, बाग-बगीचों में भी देखने को मिलते हैं। आम तौर पर सात भाई ज़मीन पर ही फुदकते दिखते हैं। खतरा होने पर ही ये अपने झुंड के साथ थोड़ी दूरी की उड़ान भरते हैं। इनकी आवाज व्हिच, व्हिच, व्हिक, रि-रि-रि जैसी होती है। सात भाई झाड़ियों में घास-फूस का प्यालेनुमा घोंेसला बनाते हैं। इनके घोंसलों में चातक के अलावा भारतीय मूल का स्थाई निवासी पपीहा भी अंडे देता है।

घोंसला परजीविता प्रजनन की एक रणनीति है। घोंसला परजीवी पक्षी दूसरे के घोंसले में अंडे देकर परवरिश के झंझट से मुक्त हो जाते हैं। घोंसला बनाने, अंडों को सेहने व चूज़ों की देखभाल में काफी ऊर्जा खर्च होती है। चातक ने यह ज़िम्मेदारी बैब्लर को सौंप दी। ऐसा नहीं है कि परजीवी प्रजाति का पक्षी किसी भी पक्षी का घोंसला देखे और उसमें अंडे दे दे।

मादा बैब्लर घोंसला बनाकर अंडे देती है। इसी दौरान मादा चातक ताक में होती है और मौका देखकर उसके घोंसले में अंडे दे देती है। रोचक बात यह है कि परजीवी पक्षियों के अंडों का रंग-रूप मेज़बान पक्षी के अंडों से काफी मिलता-जुलता होता है। इतना ही नहीं परजीवी पक्षी का अपने मेज़बान पक्षी के घोंसला बनाने व अंडे देने के वक्त के साथ भी तालमेल दिखता है। जब मेज़बान पक्षी अंडे देगा उसी दौरान परजीवी पक्षी भी अंडे देगा। यह तालमेल जैव विकास की प्रक्रिया में कई पीढ़ियों में पनपा होगा।

मेज़बान पक्षी परजीवी पक्षी के चूज़ों के साथ किस प्रकार का बर्ताव करते हैं, यह शोध का विषय रहा है। चातक के अंडों से चूज़े निकलते हैं तो मेज़बान पक्षी का रवैया सौतेला नहीं होता। उल्टे मेज़बान पक्षी इन पराए चूज़ों का खासा ख्याल रखते हैं। चातक व बैब्लर के अंडों से निकले चूज़ों के अवलोकन से पता चला है कि बैब्लर चातक के चूज़ों की अधिक देखभाल करते हैं।

शोधकर्ताओं ने श्रीलंका में बैब्लर व चातक के चूज़ों के कुछ अवलोकन लिए। ज़मीन पर चातक पक्षी के चूज़े को बैब्लर के झुंड द्वारा चुगाते हुए देखा गया। वहां बैब्लर के चूज़े भी थे। यह भी देखा गया कि चातक का चूज़ा ज़्यादा उड़ भी नहीं पा रहा था। बैब्लर के चूज़े अधिक सक्रिय थे। प्रतीत हो रहा था कि चातक के चूज़ों की तुलना में उनकी अधिक वृद्धि हुई है। दिलचस्प अवलोकन यह भी था कि जंगली बैब्लर का झुंड चातक के चूज़े का खतरों से बचाव भी कर रहा था। कुल दस मिनट के अवलोकन में जंगली बैब्लर ने चातक के चूज़े को दो बार चुगाया।

इसी प्रकार का एक और अवलोकन किया गया। यह अवलोकन शाम के वक्त का है। नारियल के बगीचे में वयस्क जंगली बैब्लर के साथ अवयस्क चूज़े देखे गए। इस समूह में दो चूज़े चातक के भी थे। जंगली बैब्लर को उड़ते हुए देख चातक के चूज़े कुलांचे भरने लगे और उड़ने लगे। वे लगातार चुग्गे (भोजन) की मांग कर रहे थे। वे लंबी उड़ान भरकर शाखा पर बैठ नहीं पा रहे थे। इस दौरान भी जंगली बैब्लर्स चातक के चूज़ों का अधिक ख्याल रख रहे थे।(स्रोत फीचर्स)

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एक छोटी-सी चिड़िया जानती है संख्याएं

छोटी से बादामी रंग की फुर्तीली हमिंगबर्ड लंबे प्रवास के लिए जानी जाती है। लेकिन हाल ही में इनकी एक और विशेषता का पता चला है। वे रसदार फूलों को क्रम अनुसार याद रखने की क्षमता भी रखती हैं। यानी वे यह पता लगा सकती हैं कि किस स्थान पर पहले फूल खिलने वाले हैं और कहां उसके बाद। वैसे तो संख्या क्रम की ऐसी समझ काफी सरल लगती है लेकिन यह एक जटिल कौशल है जिसकी मदद से हमिंगबर्ड को भरपूर मकरंद वाले फूलों के बीच आसान रास्ता याद करने में मदद मिलती है। शोधकर्ताओं को पहली बार किसी जंगली कशेरुकी जीव में इस क्षमता का पता चला है।  

प्रयोगशाला में प्रशिक्षित कई जीव, जैसे चूहे, गप्पी और बंदर चीज़ें गिन सकते हैं और यह भी समझ सकते हैं कि किसी क्रम में कोई चीज़ कहां फिट होती है। लेकिन प्राकृतिक स्थिति में इस क्षमता तथा इसके उपयोग के बारे में ज़्यादा कुछ मालूम नहीं था।

इसके लिए युनिवर्सिटी ऑफ सेंट एंड्रयूज़ की जीव विज्ञानी सुज़न हीली और उनके सहयोगियों ने हमिंगबर्ड (Selasphorusrufus) के नर को अध्ययन के लिए चुना। ये सिर्फ 8 सेंटीमीटर लंबे होते हैं और इनके भोजन के क्षेत्र अच्छी तरह से परिभाषित होते हैं और उन्हें अपने इलाके के भूगोल का भी अच्छा ज्ञान होता है। इसके अलावा ये पक्षी एक रसीले फूल से दूसरे तक जाने के लिए कार्यक्षम मार्ग का उपयोग करते हैं।

इस तरह से मार्ग बनाने की क्षमता ने शोधकर्ताओं को काफी प्रभावित किया। क्या वे यूं ही एक लक्ष्य से दूसरे लक्ष्य की ओर जाते हैं या फिर वे यह काम एक क्रम में करते हैं? इसका पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने उत्तरी अमेरिका के पथरीले पहाड़ों में फीडर्स (भोजन के पात्र) रखे जिनमें मकरंद जैसा रस था। यह प्रयोग मई के महीने में किया गया जब हमिंगबर्ड्स उस क्षेत्र में आना शुरू करते हैं। शोधकर्ताओं ने देखा कि भोजन के लिए पक्षी एक विशेष फीडर का ही उपयोग करता है और अन्य पक्षियों से अपने इलाके की रक्षा भी करता है। ऐसे पक्षियों को पकड़कर चिंहित कर दिया गया। ऐसे 9 चिंहित पक्षियों को कृत्रिम फूल से भोजन प्राप्त करने का प्रशिक्षण दिया। कृत्रिम फूल और कुछ नहीं पीले फोम की एक चकती थी जिसके बीच में एक नली में मकरंद भरा था।

पक्षियों में संख्या क्रम की समझ को देखने के लिए शोधकर्ताओं ने 10 एक जैसे कृत्रिम फूलों को पंक्तिबद्ध किया। उन्होंने पहले फूल में रस डाला और देखा कि हमिंगबर्ड किस फूल की ओर जाते हैं। सभी पक्षी समान रूप से पहले फूल की तरफ ही गए। कभी-कभार वे अन्य फूलों को भी देख लेते थे कि कहीं उनमें रस तो नहीं है।

इसके बाद टीम ने फूलों को पुन:व्यवस्थित करना शुरू किया ताकि पक्षियों को न पता लग सके कि किस फूल में रस है। इसके बाद भी पक्षियों ने पंक्ति में पहला फूल चुना जिससे पता चलता है कि उनमें ‘पहले’ की समझ है। इसके बाद जब टीम ने पूरे प्रयोग को फिर से दोहराया और पंक्ति में, उदाहरण के लिए तीसरे फूल, में रस डाला। तब उन्होंने पाया कि सभी पक्षी सीधे तीसरे फूल की ओर जा रहे हैं। इससे पता चलता है कि वे पंक्ति में तीसरे फूल को पहचानते थे।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी बी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस अध्ययन से पता चलता है कि हमिंगबर्ड्स में संख्या क्रम की समझ होती है और वे इसे कुशलता से भोजन की तलाश के लिए उपयोग करते हैं। वैसे यह प्रयोग इस संभावना को निरस्त नहीं करता कि भोजन की तलाश के लिए विभिन्न पक्षी विभिन्न रणनीतियों का उपयोग करते हों।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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