जैव-विद्युत संदेश और अंगों का पुनर्जनन

ई जीवों में अपने खोए हुए अंगों को पुन: विकसित करने की क्षमता होती है। कुछ जीव ऐसा अपने जीवन के किसी नियत समय में ही करते हैं। इस विषय पर हुए अब तक के अध्ययन बताते हैं कि ज़ीनोपस मेंढक और अन्य उभयचर जीवों में अंग पुनर्जनन में, अंग-विच्छेदन की जगह पर उत्पन्न जैव-विद्युत संदेशों की भूमिका होती है। लेकिन हालिया अध्ययन दर्शाते हैं कि अंग पुनर्जनन में ये जैव-विद्युत संदेश अंग-विच्छेद के स्थान से काफी दूर-दूर तक पहुंचते हैं।

इस बात की पुष्टि करने के लिए शोधकर्ताओं ने मेंढक के टेडपोल का अध्ययन किया। उन्होने टेडपोल को फ्लोरोसेंट रंग में भीगोकर रखा ताकि शरीर में जैव-विद्युत संदेशों पर नज़र रखी जा सके। इसके बाद उन्होंने टेडपोल को बेहोश किया और उसका दायां पिछला पंजा काटकर अलग कर दिया। जैसे ही पंजा शरीर से अलग किया गया वैसे ही विपरीत पैर के पंजे से भी घाव होने के संदेश उत्पन्न हुए। जब सिर्फ पंजा अलग किया गया तो दूसरे पैर के पंजे में संदेश मिले। जब पूरा पैर अलग किया गया तो दूसरे पैर के ऊपरी भाग में संदेश पैदा हुए। लेविन का कहना है कि इन संदेशों को देखकर यह बताया जा सकता है कि कौन-सा अंग काटा गया है।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के आणविक जीव विज्ञानी एन्ड्रयू हैमिल्टन का कहना है कि यह अध्ययन काफी अच्छा है। इसके अगले चरण में, मेंढकों की तंत्रिकाओं को अवरुद्ध करके यह पता करने की कोशिश की जा सकती है कि ये संकेत कैसे फैलते हैं।

शोधकर्ता फिलहाल अंग के पुनर्जनन में क्षति के जैव-विद्युतीय प्रतिबिंब निर्माण की भूमिका को समझना चाहते हैं। इसके लिए वे एक पैर काटेंगे और दूसरे पैर में वोल्टेज में बदलाव करेंगे, और इस बात पर नज़र रखेंगे कि अंग पुनर्निर्माण की प्रक्रिया में कोई बदलाव होता है या नहीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जंतु प्रजातियां अभूतपूर्व खतरे के दौर में – भरत डोगरा

विश्व में रीढ़धारी जीवों की संख्या में वर्ष 1970 और 2014 के बीच के 44 वर्षों में 60 प्रतिशत की कमी हो गई। यह जानकारी देते हुए हाल ही में जारी लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट (2018) में बताया गया है कि कई शताब्दी पहले की दुनिया से तुलना करें तो विभिन्न जीवों की प्रजातियों के लुप्त होने की दर 100 से 1000 गुना बढ़ गई है।

हारवर्ड के जीव वैज्ञानिक एडवर्ड विल्सन ने कुछ समय पहले विभिन्न अध्ययनों के निचोड़ के आधार पर बताया था कि मनुष्य के आगमन से पहले की स्थिति से तुलना करें तो विश्व में ज़मीन पर रहने वाले जीवों के लुप्त होने की गति 100 गुना बढ़ गई है। इस तरह अनेक वैज्ञानिकों के अलगअलग अध्ययनों का परिणाम यही है कि विभिन्न प्रजातियों के लुप्त होने की गति बहुत बढ़ गई है और यह काफी हद तक मानवनिर्मित कारणों से हुआ है।

जीवन का आधार खिसकने की चेतावनी देने वाले अनुसंधान केंद्रों में स्टाकहोम रेसिलिएंस सेंटर का नाम बहुत चर्चित है। यहां के निदेशक जोहन रॉकस्ट्रॉम की टीम ने एक अनुसंधान पत्र लिखा है जिसमें धरती के लिए सुरक्षित सीमा रेखाएं निर्धारित करने का प्रयास किया गया है। इसके अनुसार धरती की 25 प्रतिशत प्रजातियों पर लुप्त होने का संकट है। कुछ वर्ष पहले तक अधिकतर प्रजातियां केवल समुद्रों के बीच के टापुओं पर लुप्त हो रही थीं, पर बीसतीस वर्ष पहले से मुख्य भूमि पर बहुत प्रजातियां लुप्त हो रही हैं। इसका मुख्य कारण है जलवायु बदलाव, भूमि उपयोग में बड़े बदलाव (जैसे वन कटान) तथा बाहरी या नई प्रजातियों का प्रवेश। अनुसंधान पत्र में यह बताया गया है कि विभिन्न प्रजातियों के लुप्त होने का प्रतिकूल असर धरती की अन्य जीवनदायी प्रक्रियाओं पर भी पड़ता है।

डॉ. गैरार्डो सेबेलोस, डॉ. पॉल एहलरिच व अन्य शीर्ष वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन में कहा गया है कि यदि 100 वर्ष में प्रति 10,000 प्रजातियों में से दो प्रजातियां लुप्त हो जाएं तो इसे सामान्य स्थिति माना जा सकता है। पर यदि वर्ष 1900 के बाद की वास्तविक स्थिति को देखें तो इस दौरान सामान्य स्थिति की अपेक्षा रीढ़धारी प्रजातियों के लुप्त होने की गति 100 गुना तक बढ़ गई। इस तरह जलवायु बदलाव, वन विनाश व प्रदूषण बहुत बढ़ जाने से प्रजातियों का लुप्त होना असहनीय हद तक बढ़ गया है।

अध्ययन में बताया गया है कि यह अनुमान वास्तविकता से कम ही हो सकता है। दूसरे शब्दों में, वास्तविक स्थिति इससे भी अधिक गंभीर हो सकती है। मात्र एक प्रजाति के लुप्त होने से ऐसी द्यांृखलाबद्ध प्रक्रियाएं शुरू हो सकती हैं जिससे आगे कई प्रजातियां खतरे में पड़ जाएं। कई प्रजातियां लुप्त होने से मनुष्य के अपने जीवन की तमाम कठिनाइयां अप्रत्याशित ढंग से बढ़ सकती हैं क्योंकि सब तरह के जीवन एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।

जीवजंतुओं की रक्षा के लिए अधिक व्यापक स्तर पर पर्यावरण की रक्षा बहुत ज़रूरी है। नदियों व वनों की रक्षा होगी तभी यहां रहने वाले जीव भी बचेंगे। समुद्रों के जीवन की रक्षा के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अधिक व्यापक प्रयास ज़रूरी हैं। हमारे देश में समुद्रों और तटीय क्षेत्रों के पर्यावरण पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है, जबकि इनकी रक्षा बहुत ज़रूरी है। विभिन्न जीवजंतुओं की रक्षा के लिए स्कूल व परिवार के स्तर पर संवेदनाओं को मजबूत करना भी ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

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ब्लैक विडो मकड़ी – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

वैसे तो मकड़ी नाम ही डराने के लिए काफी है लेकिन अगर मकड़ी ब्लैक विडो हो तो चिंता होना स्वाभाविक है। वास्तव में तो ये बेहद शालीन होती हैं और एक कोने में दुबककर बैठ जाती हैं पर अनजाने में यदि काट लें तो तेज़ दर्द के साथ पेशियों में ऐंठन और घबराहट होती है तथा डायफ्राम के शिथिल होने के कारण सांस लेने में भी परेशानी होने लगती है। फिर भी काटने के अधिकांश मामलों में विशेष चिकित्सकीय उपचार की आवश्यकता नहीं होती।

यूं तो ब्लैक विडो मकड़ी का वैज्ञानिक नाम लेट्रोडेक्टस है लेकिन इसके अभिलक्षण के आधार पर इसको कई नामों से जाना जाता है। जैसे पीठ पर लाल पट्टी के कारण रेडबैक मकड़ी, बेतरतीब जाले के कारण टेंगल्ड वेब मकड़ी, और कंघेनुमा टांगों के कारण कॉम्ब फूटेड मकड़ी कहा जाता है। कई बार अपने साथी नर को मैथुन के पश्चात खा जाने के कारण इसे आम तौर पर ब्लैक विडो कहा जाता है। लेट्रोडेक्टस मकड़ियां थेरिडिडी कुल से सम्बंधित हैं। इस बड़े कुल में 100 वंशों की लगभग 2200 प्रजातियां सम्मिलित हैं। ये ऊनी रेशम की बजाय चिपचिपे रेशम के द्वारा शिकार को पकड़ती हैं। ब्लैक विडो का विष चिकित्सकीय अध्ययन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इनके द्वारा स्रावित रेशमी धागे की रासायनिक संरचना का अध्ययन और इसकी उपयोगिता भी वैज्ञानिक शोध के आकर्षक क्षेत्र हैं। इनकी लैंगिक स्वजाति भक्षण की प्रवृति भी रहस्यमय है और शोध का आमंत्रण देती है। अत: ब्लैक विडो वैज्ञानिक शोध के लिए प्रयोगशाला के आदर्श जीव हैं।

मेरी प्रयोगशाला में तीन साल पहले कुल 45 वयस्क ब्लैक विडो थीं जिनमें 30 मादा और 15 नर थे। नर की कम संख्या का कारण उनकी आयु कम होना तथा प्रजनन के बाद उनका शहीद हो जाना है। पालने के लिए हमने लैब में प्लास्टिक की पारदर्शी पानी की बोतल में इनका घर बनाया। ढक्कन के ऊपर छोटेछोटे छेद श्वसन के लिए और बोतल में पानी में भीगा रूई का फाहा पानी पीने के लिए रखा जाता है। सभी मकड़ियां परभक्षी होती हैं, इसलिए खुराक में उन्हें तीन दिन में एक बार दो घरेलू मक्खियां या एक टिड्डा दिया जाता है। ब्लैक विडो मकड़ियां जाला बनाकर रहती हैं और वे शिकार करने के लिए पूर्णत: जाले पर ही निर्भर रहती हैं।

बोतल में छोड़ने के बाद ये मकड़ियां सामान्यत: रात में बोतल में उपलब्ध जगह के अनुसार जाला बनाती हैं। कम जगह में छोटा जाला और खुली जगह या प्राकृतिक निवास में बड़ा जाला बनाया जाता है। जाला जितना बड़ा होता है, शिकार की उसमें फंसने की सम्भावनाएं भी उतनी ही अधिक प्रबल होती हैं। दिखने में यह जाला भले ही भद्दा और बेतरतीब हो परंतु शिकार को फांसने में बेजोड़ होता है।

जाले को सतह से जोड़ने के लिए 10-15 आधारतन्तु होते हैं। आधारतन्तु आसपास की जगह जैसे चट्टान, टहनियों आदि से जुड़े रहते हैं। इन तन्तुओं पर ब्लैक विडो मचान बनाती है। मचान से ऊपर एवं नीचे जाने के लिए एक रास्ता भी होता है। मचान के नीचे मकड़ी उल्टी लटकी रहती है। आधारतन्तु के सतह से जुड़ने वाले भाग पर रेशम की अत्यधिक चिपचिपी बूंदें देखी जा सकती हैं। इन्हें गम बूटकहते हैं। रेशमी जाल का प्रत्येक तन्तु प्रोटीन से बनता है। अत: जाल बनाने में सभी मकड़ियों को भारी मात्रा में अपने शरीर का प्रोटीन खर्च करना पड़ता है। मकड़ियों का जाला इस प्रकार से बना होता है कि इस जाले पर आने वाले शिकार की हलचल की तरंगें मकड़ी तक निर्बाध पहुंच सकें और दुश्मनों से बचने में भी मदद मिल सके।

सामान्यत: मकड़ियों में आठ आंखें होती हैं। अधिकांश जाला बनाने वाली मकड़ियों में देखने की क्षमता अल्पविकसित होती है। ब्लैक विडो तथा अन्य जाला बुनने वाली मकड़ियों में आंखें केवल दिन एवं रात का ज्ञान या प्रकाश अवधि का अनुभव करने के लिए विकसित हुई हैं। वे शिकार, प्रजनन व अन्य कार्यों के लिए स्पर्श, स्पंदन एवं रासायनिक अणुओं का उपयोग अधिक करती हैं।

 

शिकार करने का तरीका

जैसे ही शिकार जाले में आता है उससे उत्पन्न तरंगें ब्लैक विडो को सचेत कर देती हैं। विडो तेज़ीसे उस स्थान पर पहुंचकर अपने पिछले सबसे लंबे पैरों के सिरों पर उपस्थित कंघेनुमा बालों की संरचना से रेशम ग्रंथी से निकले धागों को खींच कर शिकार पर लपेटने लगती है। दोनों पैर लगातार एवं एक निश्चित क्रम में इतनी जल्दी लपेटने का कार्य करते हैं कि कुछ ही पलों में शिकार को जकड़ लिया जाता है, वह हिल भी नहीं पाता। विडो तुरन्त शिकार के पास पहुंचकर शिकार के पैरों में ज़हरीले विषदंत चुभा देती है। 

इस मकड़ी का विष लेट्रोटॉक्सिन कहलाता है जो रेटल स्नेक के विष से भी 15 गुना ज़्यादा ज़हरीला होता है। यह मुख्यत: तंत्रिका तंत्र को बुरी तरह प्रभावित करता है और कुछ ही पलों में शिकार के प्राण हर लेता है। ब्लैक विडो शिकार को जगहजगह काट कर अपने पाचक एंज़ाइम युक्त विष को भारी मात्रा में शिकार के शरीर में डाल देती है। इससे शिकार के अंग गलकर चूसने लायक हो जाते हैं। ब्लैक विडो के विष में 75 विभिन्न प्रकार के प्रोटीन पाए जाते हैं। शिकार के शरीर को नष्ट करने के लिए सभी प्रोटीन सम्मिलित रूप से काम करते हैं। विष प्रोटीन में सबसे महत्वपूर्ण 7 लेट्रोटॉक्सिन अणु होते हैं। इनमें से पांच अकशेरुकी प्राणी, जैसे कीट पतंगों पर विशेष रूप से काम करते हैं किंतु शेष दो में से एक अल्फा लेट्रोटॉक्सिन अणु रीढ़धारियों पर भी प्रभावशील होता है। इस अणु पर ही सबसे ज़्यादा अध्ययन किया गया है। लेट्रोटॉक्सिन का एक अणु तो विशेषत: केवल क्रस्टेशियंस (केंकड़े, झींगे आदि) को मारने के लिए ही विकसित हुआ है। लेट्रोटॉक्सिन तंत्रिकाओं के सिरों से न्यूरोट्रांसमीटर और कैल्शियम आयन को बाहर निकाल देता है। इससे तंत्रिकाएं डिपोलेराइज़्ड हो जाती हैं तथा संदेश वहन नहीं कर पातीं। परिणामस्वरूप शिकार तुरंत लकवाग्रस्त हो जाता है।

भोजन

जाला बनाने वाली सभी मकड़ियों को रोज़ शिकार करने की ज़रूरत नहीं होती। एक अच्छा शिकार मिलने पर ये उसका बहुत सारा रस चूस लेती हैं। मकड़ियों का उदर गुब्बारे की तरह खूब फैल सकता है। भरपेट भोजन के बाद ये कई दिनों तक न खाएं तो भी इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। लैब में पाली हुई मकड़ियों को भी हम खाने के लिए टिड्डे, ड्रैगनफ्लाय, डेमसलफ्लाय, फूलगोभी तथा मटर की फलियों से प्राप्त इल्ली, छिपकली के बच्चे, कॉकरोच और मक्खी देते हैं।

एगसेक से निकले ढेर सारे नवजात बच्चों को खाना खिलाना थोड़ा मुश्किल काम है क्योंकि एक एगसेक से एक बार में लगभग 200 बच्चे निकलते हैं। एगसेक से बच्चे निकलने के दो दिन पहले एगसेक को एक बड़ी बोतल में अलग से रख देते हैं। बेहद छोटे स्पाइडरलिंग (नवजात शिशु) को खिलाने के लिए विशेष तौर पर ड्रॉसोफिला यानी फ्रूटफ्लाई को कल्चर किया जाता। इन्हें पालना मुश्किल नहीं है। जैसे ही स्पाइडरलिंग को खिलाने के लिए ड्रॉसोफिला को बॉटल में छोड़ते हैं, वह जाले में फंसकर छटपटाती है। जाले में शिकार से उत्पन्न तरंगों से ब्लैक विडो के बच्चे ड्रॉसोफिला को घेर कर शिकार करते हैं। कुछ बच्चे इस प्रक्रिया में फंसकर अन्य बच्चों का शिकार भी बनते हैं। लगभग एक महीने बाद 30 प्रतिशत बच्चे ही जीवित बचते हैं। जब ये स्वयं शिकार करने लायक हो जाते हैं तब उन्हें अलगअलग बोतलों में पाला जाता है।

प्रजनन

स्पाइडरलिंग जैसेजैसे बड़े होते हैं, अपनी पुरानी त्वचा को छोड़ देते हैं। यह सांप की केंचुली निकालने जैसा ही है। पुरानी त्वचा त्यागते समय कुछ देर के लिए स्पाइडरलिंग अपंग हो जाते हैं। इस समय शिकारी के आक्रमण करने पर ये बचाव में असमर्थ होते हैं। वयस्क होने तक नर ब्लैक विडो 7 बार एवं मादा 9 बार अपनी पुरानी त्वचा बदलते हैं। अंतिम बार त्वचा त्यागने के बाद ही नर में, मादा जननांग में वीर्य डालने के लिए फूले हुए पेडीपेल्प विकसित होते हैं। नर मादा से आकार में छोटे और वज़न में हल्के होते हैं। नर का शरीर पूर्णत: काला होने की बजाय सफेद एवं काले रंग की धारियों वाला होता है। इस प्रकार से नर एवं मादा ब्लैक विडो में स्पष्ट लैंगिक द्विरूपता दिखाई देती है। नर तीन महीनों में वयस्क हो जाते हैं किंतु मादा को वयस्क होने में छ: महीने लगते हैं।  

मादा ब्लैक विडो को पृथक करने के लिए बड़ी बॉटल में स्थानांतरित करने के तीन दिन बाद नर को उस बॉटल में छोड़ा जाता है। तीन दिनों में मादा पहले से बोतल में रखी एक सूखी लकड़ी के साथ रात को जाला बना लेती है। जैसे ही नर को बोतल में छोड़ा जाता है, नर को तुरंत पता चल जाता है कि उसे किसी वर्जिन मादा के जाल में छोड़ा गया है। मादा ब्लैक विडो अनभिज्ञ दिखती है तथा चुपचाप बैठी रहती है परंतु वह जानती है कि जाल में शिकार नहीं, नर आया है। स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से पता लगाया जा सकता है कि रेशमी धागे को पकड़ने वाले उसके पैरों के टारसस (पैर का सबसे निचला भाग) वाले भाग में पाए जाने वाले बाल वास्तव में धागों पर उपस्थित रसायनों को पहचानने वाले संवेदना ग्राही होते हैं।

नर ब्लैक विडो भी जाले में मादा की उपस्थिति को भांपकर जाले के धागों को गिटार के समान बजाने लगता है। इन कंपनों को केवल उसकी प्रजाति की मादाएं ही समझ सकती हैं। नर पेट को लगातार दोनों तरफ हिलाता है तथा मादा के समीप पहुंचने के लिए कुछ धागों को तोड़ता है। इससे मादा जाले में एक ही जगह तक सीमित हो जाती है। इस तरह मादा द्वारा नर को खाए जाने के जोखिम को कम किया जाता है। नर मादा के ऊपर भी अपने रेशमी धागों को लपेटकर उसे कैद कर लेते हैं। रेशमी धागों में लगे रसायन मादा को शांत रखते हैं तथा नर को मादा के आक्रमण से बचाए रखने का उपाय भी हैं। इस दौरान नर एक भी गलती करे, तो मादा उसे शिकार समझती है और नर को मौत की सज़ा मिलती है।

स्वजातिभक्षण

जाला बनाने वाली मकड़ियों में समागम भी अनोखे प्रकार का होता है। नर अपने जननांग से वीर्य की एक बूंद जाल के धागे पर डाल देता है और अपने पिचकारी के समान काम करने वाले पेडीपेल्प में वीर्य को भरकर मादा जननांगों में छोड़ देता है। पेडीपेल्प में किरेटिन से बनी कुण्डलित नली मादा के जननांग में वीर्य को पहुंचाने में इस्तेमाल होती है। पूरी प्रक्रिया में नर उल्टी लटकी हुई मादा के पेट पर लेटकर एक पेडीपेल्प का उपयोग करता है। आधे घण्टे बाद यही प्रक्रिया दूसरे पेडीपेल्प से की जाती है। कुण्डलित नली को मादा जननांग से निकालते समय नर 180 डिग्री की कलाबाज़ी करके पलटता है। इस समय नर का उदर मादा के मुंह के समीप आ जाता है। समागम के समय नर का हिलता हुआ उदर मादा को उसे खाने के लिए उकसाता है। इस प्रकार 30 प्रतिशत समागम के मामलों में मादा नर को खा जाती है तथा विधवा बन जाती है। इसलिए इन मादाओं को ब्लैक विडो नाम दिया गया है।

प्राणि जगत में कई प्रजातियों में प्रजनन के बाद नर को खाने का स्वभाव देखा गया है। मादा को अधिक पोषण प्राप्त हो सके, यह इसका एक कारण हो सकता है। परन्तु पेट भरी हुई ब्लैक विडो भी यह कृत्य करती है। इसलिए कुछ वैज्ञानिक नर के इस व्यवहार को  प्रकृति प्रदत्त तथा जानबूझकर किया बलिदान का कार्य बताते हैं। वे कहते हैं कि इसके लिए नर में उदर की खांच का विकसित होना एक अनुकूली लक्षण है। पर मुझे ऐसा नहीं लगता। आपको क्या लगता है?

ब्लैक विडो को आप भी पालें और इन रहस्यों से पर्दा उठाएं। महाराष्ट्र, गुजरात एवं मध्यप्रदेश की सरहद के बहुतसे बीहड़ों और जंगलों में ब्लैक विडो मिलती हैं। मुझे भी इन्हीं इलाकों में ऐसे ही मिली थीं।(स्रोत फीचर्स)

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मकड़ी का रेशम स्टील से 5 गुना मज़बूत

क्सर मकड़ी का जाला देखकर या उससे टकराने पर भी हमें उसकी ताकत का अंदाज़ा नहीं लगता। लेकिन मकड़ी का जाला मानव के बराबर हो तो वह एक हवाई जहाज़ को जकड़ने की क्षमता रखता है। हाल ही में वैज्ञानिकों ने इन रेशमी तारों की मज़बूती का कारण पता लगाया है।

मकड़ी के रेशम की स्टील से भी अधिक मज़बूती का पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों ने परमाणु बल सूक्ष्मदर्शी की मदद से विषैली ब्राउन मकड़ियों के रेशम का विश्लेषण किया। इस रेशम का उपयोग वे ज़मीन पर अपना जाला बनाने और अपने अंडों को संभाल कर रखने के लिए करती हैं। एसीएस मैक्रो लेटर्स में प्रकाशित रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने बताया है कि जाले का प्रत्येक तार मानव बाल से 1000 गुना पतला है और हज़ारों नैनो तंतुओं से मिलकर बना है। और प्रत्येक तार का व्यास मिलीमीटर के 2 करोड़वें भाग के बराबर है। एक छोटे से केबल की तरह, प्रत्येक रेशम फाइबर पूरी तरह से समांतर नैनो तंतुओं से बना होता है। इस फाइबर की लंबाई करीब 1 माइक्रॉन होती है। यह बहुत लंबा मालूम नहीं होता लेकिन नैनोस्केल पर देखा जाए तो यह फाइबर के व्यास का कम से कम 50 गुना है। शोधकर्ताओं का ऐसा मानना है कि वे इसे और अधिक खींच सकते हैं।

वैसे पहले भी यह मत आए थे कि मकड़ी का रेशम नैनोफाइबर से बना है, लेकिन अब तक इस बात का कोई सबूत नहीं था। टीम का मुख्य औज़ार था ब्राउन रीक्ल्यूस स्पाइडर का अनूठा रेशम जिसके रेशे बेलनाकार न होकर चपटे रिबन आकार के होते हैं। इस आकार के कारण इसे शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी लेंस के नीचे जांचना काफी आसान हो जाता है।

यह नई खोज पिछले साल की एक खोज पर आधारित है जिसमें यह बताया गया था कि किस प्रकार ब्राउन रीक्ल्यूस स्पाइडर छल्ले बनाने की एक विशेष तकनीक से रेशम तंतुओं को मज़बूत करती है। एक छोटीसी सिलाई मशीन की बदौलत यह मकड़ी रेशम के प्रत्येक मिलीमीटर में लगभग 20 छल्ले बनाती है, जो उनके चिपचिपे स्पूल को अधिक मज़बूती देती है और इसे पिचकने से रोकती है।

शोधकर्ताओं का मत है कि भले चपटे रिबन और छल्ला तकनीक सभी मकड़ियों में नहीं पाई जाती, किंतु रीक्ल्यूस रेशम का अध्ययन अन्य प्रजातियों के रेशों पर शोध का एक रास्ता हो सकता है। ऐसे अध्ययन से मेडिसिन और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में नई सामग्री बनाने के रास्ते बनाए जा सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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ओरांगुटान अतीत के बारे में बात करते हैं

ह तो जानी-मानी बात है कि कई स्तनधारी व पक्षी किसी शिकारी या खतरे को देखकर चेतावनी की आवाज़ें निकालते हैं जिससे अन्य जानवरों और पक्षियों को सिर पर मंडराते खतरे की सूचना मिल जाती है और वे खुद को सुरक्षित कर लेते हैं। मगर ओरांगुटान में एक नई क्षमता की खोज हुई है।

ओरांगुटान एक विकसित बंदर है जो जीव वैज्ञानिकों के अनुसार वनमानुषों की श्रेणी में आता है। वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि जब ओरांगुटान किसी शिकारी को देखते हैं तो वे चुंबन जैसी आवाज़ निकालते हैं। इससे शेर या अन्य शिकारी को यह सूचना मिल जाती है ओरांगुटान ने उन्हें देख लिया है। साथ ही अन्य ओरांगुटान को पता चल जाता है कि खतरा आसपास ही है।

सेन्ट एंड्रयूज़ विश्वविद्यालय के एक पोस्ट-डॉक्टरल छात्र एड्रियानो राइस ई लेमीरा ओरांगुटान की इन्हीं चेतावनी पुकारों का अध्ययन सुमात्रा के घने केटांबे जंगल में कर रहे थे। उन्होंने एक आसान-सा प्रयोग किया। एक वैज्ञानिक को बाघ जैसी धारियों, धब्बेदार या सपाट पोशाक पहनकर किसी चौपाए की तरह चलकर एक पेड़ के नीचे से गुज़रना था। इस पेड़ पर 5-20 मीटर की ऊंचाई पर मादा ओरांगुटानें बैठी हुई थीं। जब पता चल जाता कि उसे देख लिया गया है तो वह वैज्ञानिक 2 मिनट और वहां रुकता और फिर गायब हो जाता था। इतनी देर में ओरांगुटान को चेतावनी की पुकार उत्पन्न कर देना चाहिए थी।

पहला परीक्षण एक उम्रदराज़ मादा ओरांगुटान के साथ किया गया। उसके पास एक 9-वर्षीय पिल्ला भी था। मगर इस परीक्षण में ओरांगुटान ने कोई आवाज़ नहीं की। वह जो कुछ भी कर रही थी, उसे रोककर अपने बच्चे को उठाया, टट्टी की (जो बेचैनी का एक लक्षण है) और पेड़ पर और ऊपर चली गई। पूरे दौरान वह एकदम खामोश रही। लेमीरा और उनके सहायक बैठे-बैठे इन्तज़ार करते रहे। पूरे 20 मिनट बाद उसने पुकार लगाई। और एक बार चीखकर चुप नहीं हुई, पूरे एक घंटे तक चीखती रही।

बहरहाल, औसतन ओरांगुटान को चेतावनी पुकार लगाने में 7 मिनट का विलंब हुआ। ऐसा नहीं था वे सहम गए थे। वे बचाव की शेष क्रियाएं भलीभांति करते रहे – बच्चों को समेटा, पेड़ पर ऊपर चढ़े वगैरह। लेमीरा का ख्याल है कि ये मादाएं खामोश रहीं ताकि उनके बच्चे सुरक्षित रहें क्योंकि उन्हें लगता है कि शिकारी से सबसे ज़्यादा खतरा बच्चों के लिए होता है। जब शिकारी नज़रों से ओझल हो गया और वहां से चला गया तभी उन्होंने आवाज़ लगाई। लेमीरा का मत है कि चेतावनी पुकार को वास्तविक खतरा टल जाने के बाद निकालना अतीत के बारे में बताने जैसा है। उनके मुताबिक यह भाषा का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है कि आप अतीत और भविष्य के बारे में बोलते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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मनुष्य का शिशु असहाय क्यों? – गंगानंद झा

कुछ ऐसे सवाल हमारे अवचेतन में बने रहते हैं, जिनके जवाब हमें नहीं मालूम। फिर भी हम परेशान नहीं रहते। कोई किताब पढ़ते वक्त या लोगों की बात सुनते वक्त जब इन सवालों के जवाब उभर आते हैं तो हम चमत्कृत हो उठते हैं।

करीब 30 साल पहले छात्रों के साथ विकासवाद और प्राकृतिक वरण की चर्चा के दौरान एक सवाल उठा। सारे स्तनधारियों के शिशु मां का दूध पीना छोड़ने के बाद जल्दी ही अपने भोजन के लिए खुदमुख्तार हो जाते हैं, लेकिन मनुष्य के शिशु मां का दूध छोड़ने के बाद भी कई सालों तक भोजन तथा सुरक्षा के लिए मां-बाप पर निर्भर बने रहते हैं। इस अवधि में उनकी परवरिश न हो तो उनके जीवित रहने की संभावना बहुत ही कम रहती है। मानव शिशु अपने हाथ पांव पर नियंत्रण हासिल करने में ही साल भर से अधिक वक्त लगाता है। उसके बाद भी उसे देखभाल, प्रशिक्षण, शिक्षा और परवरिश के लिए दो दशकों से अधिक की अवधि की दरकार होती है। देखा जाए, तो मानव शिशु असहाय होता है।

क्या यह अटपटा नहीं लगता? इसको कैसे समझा जा सकता है? अपने विद्यार्थियों, साथियों और सहकर्मियों से पूछा पर कोई सुराग नहीं मिला। अनेक सवालों की तरह यह भी खो गया।

मानव जीवन का एक और प्रमुख लक्षण है: लगभग सभी जीवों की आयु उनकी प्रजनन-आयु के समाप्त होने के साथ ही समाप्त हो जाती है, किंतु मनुष्य इसके बाद भी काफी समय तक जीवित रहता है।

अगली पीढ़ी में अपने जीन्स का स्थानांतरण किसी भी जीव की अभिप्रेरणा होती है। अगली पीढ़ी में अपने जीन्स का संचरण प्रजनन सफलता कहलाती है। माता-पिता द्वारा संतान की सघन परवरिश अगली पीढ़ी में उन संतानों के जीन्स के स्थानांतरण और सुरक्षा को सुनिश्चित करती है। ऐसी परवरिश अतिरिक्त उत्तरजीविता संभव बनाती है। मनुष्य ने यह गुण प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया में पाया है।

कई साल बीत गए। मैं सेवानिवृत्त हो गया। फिर एक किताब पढ़ने को मिली – जेरेड डायमंड लिखित दी थर्ड चिम्पैंज़ी (The Third Chimpanzee)। इस किताब में और मुद्दों के साथ-साथ इस सवाल पर भी चर्चा की गई है। इसमें एक सुझाव दिया गया है कि मानव शिशु की असहायता ने मानव परिवार और समाज की उत्पति एवं विकास की बुनियाद रखी।

शिशु के जीवित रहने में परवरिश की भूमिका निर्णायक होती है। लंबी अवधि तक चौबीस घंटे निगरानी की ज़रूरत के कारण मां-बाप के बीच सहयोग अनिवार्य हो जाता है। परवरिश में मां के साथ भागीदारी के ज़रिए संतान का पिता अपने जीन्स का अगली पीढ़ी में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करता है। मां तो जानती है कि वह अपनी ही संतान की परवरिश कर रही है, लेकिन पिता को अपनी मादा के साथ घनिष्ठ भागीदारी के ज़रिए ही यह आश्वस्ति मिल सकती है। अन्यथा वह किसी अन्य पुरुष के जीन्स की पहरेदारी करता रह जाएगा। इस ज़रूरत ने परिवार नामक संस्था की नींव रखी। संतान की परवरिश में लंबे समय तक पुरुष-स्त्री के बीच भागीदारी ने इनके बीच श्रम विभाजन को ज़रूरी बनाया। परिवार के बाद कबीला, कबीले के बाद समाज के विकास के साथ तब्दीलियों का सिलसिला चलता जा रहा है।

लेकिन अभी भी एक गुत्थी बनी हुई थी। प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया में ऐसा क्यों हुआ? मानव शिशु असहाय क्यों होता है? जवाब नहीं मिल रहा था।

कई सालों के बाद एक किताब देखी – युवाल नोआ हरारी लिखित सैपिएंस  (Sapiens) जिसमें जवाब मिला।

प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया में चौपाया प्राइमेट पूर्वज से दो पांवों पर चलने वाले मनुष्य का विकास हुआ। इन चौपाया पूर्वजों के सिर तुलनात्मक रूप से छोटे हुआ करते थे। इनके लिए दो पांवों पर सीधे खड़ी स्थिति में अनुकूलित होना काफी कठिन चुनौती थी, खासकर तब जबकि धड़ पर अपेक्षाकृत काफी बड़ा सिर ढोना हो।

दो पांवों पर खड़े होने से मनुष्य को अधिक दूर तक देखने और अपने लिए भोजन जुगाड़ करने की सुविधा हासिल हुई लेकिन विकास के इस कदम की कीमत मनुष्य को चुकानी पड़ी है। अकड़ी हुई गर्दन और पीठ में दर्द की संभावना के साथ रहने को बाध्य हुआ है वह।

औरतों को और भी अधिक झेलना पड़ा है। सीधी खड़ी मुद्रा के कारण उनके नितम्ब संकरे हुए। इसके नतीजे में प्रसव मार्ग संकरा हुआ। दूसरी ओर, शिशु के सिर के आकार बढ़ते जा रहे थे। फलस्वरूप प्रसव के दौरान मौत का जोखिम औरतों की नियति हो गई। यदि प्रसव समय से थोड़ा पहले होता,जब बच्चे का सिर छोटा और लचीला रहता है, तो प्रसव के दौरान मृत्यु का खतरा तुलनात्मक रूप से कम होता था। जिसे हम आजकल निर्धारित समय पर प्रसव कहते हैं वह वास्तव में जीव वैज्ञानिक दृष्टि से समय-पूर्व ही है। बच जाने वाली औरतें और बच्चे प्रसव कर पातीं। फलस्वरूप प्राकृतिक वरण में समय पूर्व प्रसव को प्राथमिकता मिली। हकीकत है कि दूसरे जानवरों की तुलना में मनुष्य का जन्म उसके शरीर की अनेक महत्वपूर्ण प्रणालियों के पूर्ण विकसित होने के पहले ही होता है। बछड़ा जन्म के तुरंत बाद उछल-कूद कर सकता है, बिल्ली का बच्चा कुछ ही सप्ताह में मां को छोड़कर अपने भोजन का इंतज़ाम करने निकल पड़ता है। लेकिन मनुष्य का बच्चा भोजन, देखभाल, हिफाज़त और प्रशिक्षण के लिए अपने से बड़ों पर सालों तक निर्भर रहता है। गर्भ से बाहर आने के बाद भी उसे सुरक्षा की ज़रूरत रहती है।

एक शिशु को मनुष्य बनाने में पूरे समाज का सहयोग रहता है। चूंकि मनुष्य जन्म से अविकसित होता है, उसे शिक्षित करना, दूसरे जानवरों की तुलना में अधिक सहज है। उसे सिखाया जा सकता है कि अन्य जीवों के साथ कैसे सम्पर्क बनाया जाए।

यह तथ्य मनुष्य की असामान्य सामाजिक और सांस्कृतिक क्षमता की बुनियाद में है। उसकी अनोखी समस्याओं के लिए भी यही तथ्य ज़िम्मेदार है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ज़िद से नहीं, जज़्बे से बचेंगे एशियाई शेर -जाहिद खान

गुजरात के गिर अभयारण्य में पिछले दिनों एक के बाद एक 23 शेरों की रहस्यमय ढ़ंग से हुई मौत ने वन्य प्राणियों के चाहने वालों को हिलाकर रख दिया है। समझ में नहीं आ रहा है कि क्यों ये शेर एक के बाद एक मर रहे हैं। मरने वाले ज़्यादातर शेर अमरेली ज़िले के गिर फॉरेस्ट नेशनल पार्क के पूर्वी हिस्से डालखानिया रेंज के हैं।

इन शेरों की मौत पर पहले तो राज्य का वन महकमा चुप्पी साधे रहा। लेकिन जब खबर मीडिया के ज़रिए पूरे देश में फैली, तब वन महकमे के आला अफसर नींद से जागे और उन्होंने स्पष्टीकरण देना ज़रूरी समझा। स्पष्टीकरण भी ऐसा जिस पर शायद ही किसी को यकीन हो। प्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक का दावा है कि डालखानिया रेंज में बाहरी शेरों के घुसने से हुई वर्चस्व की लड़ाई में इन शेरों की मौत हुई है। सवाल उठाया जा सकता है कि इतने बड़े जंगल के केवल एक ही हिस्से में इतने बड़े पैमाने पर लड़ाइयां क्यों हो रही है?

इस बीच मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच गया है। शीर्ष अदालत ने हाल ही में सुनवाई करते हुए गुजरात सरकार को इस पूरे मामले की जांच करने का आदेश दिया है। 

जिस तरह से इन शेरों की मौत हुई है, उससे यह शंका जताई जा रही है कि कहीं इन शेरों की मौत केनाइन डिस्टेंपर वायरस (सीडीवी) और विनेशिया प्रोटोज़ोआ वायरस से तो नहीं हुई है। सीडीवी वायरस वही खतरनाक वायरस है जिससे प्रभावित होकर तंजानिया (अफ्रीका) के सेरेंगेटी रिज़र्व फॉरेस्ट में साल 1994 के दौरान एक हज़ार शेर मर गए थे। इस बारे में तमाम वन्य जीव विशेषज्ञ 2011 से लगातार गुजरात के वन महकमे को आगाह कर रहे हैं। पर राज्य के वन महकमे ने इससे निपटने के लिए कोई माकूल बंदोबस्त नहीं किए। यदि वायरस फैला तो गिर में और भी शेरों को नुकसान पहुंच सकता है; सिंहों की यह दुर्लभ प्रजाति विलुप्त तक हो सकती है।

दुनिया भर में एशियाई शेरों का अंतिम रहवास माने जाने वाले गिर के जंगलों में फिलहाल शेरों की संख्या तकरीबन 600 होगी। साल 2015 में हुई पांच वर्षीय सिंहगणना के मुताबिक यहां शेरों की कुल संख्या 523 थी। सौराष्ट्र क्षेत्र के चार ज़िलों गिर सोमनाथ, भावनगर, जूनागढ़ और अमरेली के 1800 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में फैले गिर के जंगलों की आबोहवा एशियाई शेरों को खूब रास आती है। एक समय एशियाई शेर पूरे भारत और एशिया के दीगर देशों में भी पाए जाते थे, लेकिन धीरेधीरे इनकी आबादी घटती गई। आज ये सिर्फ गुजरात के पांच वन स्थलों गिर राष्ट्रीय उद्यान, गिर वन्यजीव अभयारण्य, गिरनार वन्यजीव अभयारण्य, मटियाला अभयारण्य और पनिया अभयारण्य में सीमित रह गए हैं। इस बात को भारत सरकार ने गंभीरता से लिया और साल 1965 में गिर वन क्षेत्र को संरक्षित घोषित कर दिया। इन जंगलों का 259 वर्ग कि.मी. क्षेत्र राष्ट्रीय उद्यान घोषित है जबकि बाकी क्षेत्र संरक्षित अभयारण्य है।

डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ. की एक रिपोर्ट के मुताबिक बीसवीं सदी बाघों के लिए अति खतरनाक रही। वही हालात अब भी जारी हैं। संगठन का कहना है कि बीती सदी में इंडोनेशिया में बाघों की तीन उप प्रजातियां (बाली, कैस्पेन और जावा) पूरी तरह लुप्त हो गर्इं।

वन्य जीवों के लिए खतरे के मामले में पूरी दुनिया में हालात एक समान हैं। दक्षिणी चीनी बाघ प्रजाति भी तेज़ी से विलुप्त होने की ओर बढ़ रही है। संगठन का कहना है कि सरकारी और गैरसरकारी संरक्षण प्रयासों के बावजूद विपरीत परिस्थितियां निरीह प्राणियों की जान ले रही हैं। बाघों और शेरों की जान कई बार अभयारण्यों में बाढ़ का पानी भर जाने से चली जाती है, तो कई बार सुरक्षित स्थानों की ओर भागने के प्रयास में वे वाहनों से कुचले जाते हैं या शिकारियों का निशाना बन जाते हैं।

भारतीय वन्यजीव संस्थान ने आज से तीस साल पहले एक अध्ययन में बताया था कि एशियाई शेरों में अंत:जननके चलते आनुवंशिक बीमारी हो सकती है। अगर ऐसा हुआ, तो इन शेरों की मौत हो जाएगी और उसके चलते एशिया से शेरों का अस्तित्व भी खत्म हो सकता है। बीमारी से आहिस्ताआहिस्ता लेकिन कम समय में ये सभी शेर मारे जा सकते हैं। इसी आशंका के चलते वन्यजीव संस्थान ने सरकार को इन शेरों में से कुछ शेरों को किसी दूसरे जंगल में स्थानांतरित करने की योजना बनाकर दी थी। संस्थान का मानना था कि अंत:जनन के चलते अगर एक जगह किसी बीमारी से शेरों की नस्ल नष्ट हो जाती है, तो दूसरी जगह के शेर अपनी नस्ल और अस्तित्व को बचा लेंगे। गुजरात के एक जीव विज्ञानी रवि चेल्लम ने भी 1993 में कहा था कि दुर्लभ प्रजाति के इन शेरों को सुरक्षित रखने के लिए उन्हें किसी और जगह पर भी बसाना ज़रूरी है।

बहरहाल डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ. की सलाह और एशियाई शेरों पर हुए शोधों के आधार पर भारतीय वन्यजीव संस्थान ने साल 1993-94 में पूरे देश में सर्वेक्षण के बाद कुछ शेरों को मध्य प्रदेश के कूनोपालपुर अभयारण्य में शिफ्ट करने की योजना बनाई। इन शेरों के पुनर्वास के लिए तत्कालीन केंद्र सरकार और भारतीय वन्यजीव संस्थान के सहयोग से मध्य प्रदेश में 1996-97 से एक कार्य योजना प्रारंभ की गई। लेकिन गुजरात सरकार अपने शेर ना देने पर अड़ गई। गुजरात सरकार की दलील है कि कूनोपालपुर का पारिस्थितिकी तंत्र एशियाई शेर के अनुकूल नहीं है और यदि वहां शेर स्थानांतरित किए गए, तो मर जाएंगे। यह आशंका पूरी तरह से निराधार है। कूनोपालपुर अभयारण्य में शेरों की इस प्रजाति के लिए हर तरह का माकूल माहौल है। साल 1981 में स्थापित कूनोपालपुर वनमंडल 1245 वर्ग कि.मी. में फैला हुआ है। इसमें से 344 वर्ग कि.मी. अभयारण्य का क्षेत्र है। इसके अलावा 900 वर्ग कि.मी. क्षेत्र अभयारण्य के बफर ज़ोन में आता है।

गुजरात सरकार की हठधर्मिता का ही नतीजा था कि मध्य प्रदेश सरकार को आखिरकार अदालत का रुख करना पड़ा। इस मामले में राज्य सरकार ने साल 2009 में एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की। जिसमें उसने एशियाई शेरों को कूनोपालपुर अभयारण्य लाने की मांग की। उच्चतम न्यायालय में चली लंबी सुनवाई के बाद फैसला आखिरकार मध्य प्रदेश सरकार के हक में हुआ। अप्रैल, 2013 में अदालत ने गुजरात सरकार की तमाम दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि इस प्रजाति के अस्तित्व पर खतरा है और इनके लिए दूसरे घर की ज़रूरत है। लिहाज़ा एशियाई शेरों को गुजरात से मध्य प्रदेश लाकर बसाया जाए। अदालत ने इस काम के लिए सम्बंधित वन्यजीव अधिकारियों को छह महीने का समय दिया था। लेकिन अफसोस, सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद भी गुजरात सरकार ने अपनी जिद नहीं छोड़ी और मध्य प्रदेश को शेर देने से साफ इंकार कर दिया। इस मामले में गुजरात सरकार ने शीर्ष अदालत में पुनरीक्षण याचिका दायर कर रखी है। दूसरी ओर, हकीकत यह है कि पिछले ढाई साल में 200 से ज़्यादा शेरों की मौत हो चुकी है। इनमें कई मौतें अप्राकृतिक हैं। सरकार का यह दावा पूरी तरह से खोखला निकला है कि गिर के जंगलों में शेर पूरी तरह से महफूज़ है। दुर्लभ एशियाई शेर भारत और दुनिया भर में बचे रहें, इसके लिए समन्वित प्रयास बेहद ज़रूरी हैं। एशियाई शेर ज़िद से नहीं, बल्कि जज़्बे से बचेंगे। जज़्बा यह होना चाहिए कि किसी भी हाल में हमें जंगल के इस बादशाह को बचाना है। गुजरात सरकार अपनी ज़िद छोड़े और इन शेरों में से कुछ शेर तुरंत कूनोपालपुर को स्थानांतरित करे, तभी जाकर शेरों की यह दुर्लभ प्रजाति हमारे देश में बची रहेगी।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खतरे में है ओरांगुटान की नई प्रजाति – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

रांगुटान हमारे करीबी रिश्तेदार हैं क्योंकि इनका जीनोम और मानव जीनोम 96.4 प्रतिशत समान है। ये अपने खास लाल फर के लिए पहचाने जाते हैं तथा पेड़ों पर रहने वाले सबसे बड़े स्तनधारी हैं। ये लंबी तथा शक्तिशाली भुजाओं से एक से दूसरे पेड़ पर छलांग लगाते हैं और इस दौरान हाथ और पैरों से मज़बूत पकड़ बनाए रखते हैं।

ब्रुनेई, इंडोनेशिया, मलेशिया तथा सिंगापुर में बोली जाने वाली मलय भाषा में ओरांगुटान का मतलब होता है जंगल का मानव। ये निचले भूभाग के जंगलों में अकेले रहना पसंद करते हैं। लीची, मैंगोस और अंजीर जैसे जंगली फल इनकी खुराक हैं। रात होने के पूर्व ये वृक्ष की शाखाओं का घोंसला बनाकर सोते हैं। 90 कि.ग्रा. के भारी भरकम नर ओरांगुटान को उनके गालों के गद्दे (फ्लेंज) तथा ज़ोरदार लंबी आवाज लगाने के लिए गले की थैली से आसानी से पहचाना जा सकता है।

ब्रुनेई तथा सुमात्रा में पाए जाने वाले ओरांगुटान व्यवहार तथा दिखने में कुछ भिन्न होते हैं। सुमात्रा के ओरांगुटान के परिवार में सदस्यों का एकदूसरे से जुड़ाव ज़्यादा होता है तथा चेहरे के बाल लंबे होते हैं। ब्रुनेई के ओरांगुटान पेड़ों को छोड़कर बेझिझक ज़मीन पर भी आ जाते हैं। हाल ही के वर्षों में दोनों प्रजातियों की आबादी में बेहद ज़्यादा गिरावट देखी गई है। एक शताब्दी पूर्व ही ब्रुनेई तथा सुमात्रा में इनकी संख्या 2,30,000 थी। अब ब्रुनेई में कुल जमा 1,04,700 तथा सुमात्रा में लगभग 7500 ओरांगुटान बचे हैं और इन्हें क्रमश: संकटग्रस्त व लुप्तप्राय श्रेणियों में रखा गया है। 2017 में तपानुली ओरांगुटान के नाम की नई प्रजाति उत्तरी सुमात्रा से खोजी गई है जिनकी संख्या केवल 800 है। यह वनमानुषों में सबसे कम है। नई प्रजाति सुमात्रा के बटांग तोरू के परिस्थितिक तंत्र में 1225 वर्ग कि.मी. के ऊंचाई पर स्थित घने जंगलों में पेड़ों पर मिलती है। ऐसा अनुमान है कि लगभग 10-20 हज़ार साल पहले ही बाकी ओरांगुटान प्रजातियों से अलग होकर तपानुली ओरांगुटान प्रजाति अस्तित्व में आई है। इनके आवास का क्षेत्रफल छोटा, बिखरा हुआ तथा संरक्षण से वंचित रहा है। इनके आवास क्षेत्र के अधिकांश हिस्से कृषि, सड़क या रेल मार्ग, शिकार, पनबिजली परियोजनाओं तथा बाढ़ के कारण सिकुड़ गए हैं।

यद्यपि इक्कीसवीं सदी में वनमानुष की नई प्रजाति खोजना उत्साहजनक है परंतु इनको संरक्षित करने की कार्रवाई तुरंत की जानी चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि नई खोजी गई प्रजाति हमारे सामने ही विलुप्त हो जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विलुप्त होने की कगार पर गिद्ध – डॉ. दीपक कोहली

गिद्धों का हमारे पारिस्थतिकी तंत्र में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। कई धर्मों में भी इसे महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। गिद्ध एक अपमार्जक (सफाई करने वाला) पक्षी है। इनकी कुल 22 प्रजातियां होती हैं। भारत में गिद्ध की पांच प्रजातियां पाई जाती हैं भारतीय गिद्ध (Gyps indicus), लंबी चोंच का गिद्ध (Gyps tenuirostris), लाल सिर वाला गिद्ध (Sarcogyps calvus), बंगाल का गिद्ध (Gyps bengalensis), सफेद गिद्ध (Neophron percnopterus)

गिद्ध की चोंच लंबी एवं अंकुश नुमा होती है जिससे वे मृत जानवर के शव को नोचकर खाने के बाद भी स्वच्छ रहते हैं। गिद्ध भोजन करने के पश्चात तुरंत स्नान करना पसंद करते हैं जिससे भोजन के दौरान शरीर पर लगे रक्त को पानी से धो सकें और ऐसा करके वे कई बीमारियों से अपना बचाव करते हैं।

गिद्ध बड़े कद के पांच से दस किलो वज़न के पक्षी हैं जो गर्म हवा के स्तम्भों पर विसर्पण द्वारा सकुशल उड़ान भरने में दक्ष होते हैं। आसमान की ऊंचाई से उनकी तीक्ष्ण दृष्टि भोजन हेतु जानवरों के शव ढूंढ लेती है। हमारे देश में गिद्ध विशेष रूप से बहुत अधिक संख्या में पाए जाते थे क्योंकि कृषि प्रधान देश में मवेशियों के पर्याप्त शवों की उपलब्धता के कारण गिद्धों के लिए प्रचुर मात्रा में भोजन उपलब्ध रहता था। गिद्धों के सिर व गर्दन पंख विहीन होते हैं। गिद्ध चार से छ: वर्ष की आयु में प्रजनन योग्य वयस्क पक्षी बन जाते हैं एवं 37-40 वर्ष की दीर्घ आयु प्राप्त करते हैं। पक्षीविदों के अनुसार पृथ्वी के सभी भागों में गिद्धों की संख्या स्थिर बनी हुई थी किंतु लगभग 10-15 वर्ष पूर्व से दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में इनकी संख्या में तीव्र गिरावट आनी शुरू हुई। इस पक्षी की कई प्रजातियां आज लुप्त होने की कगार पर  हैं। एक अनुमान के मुताबिक 1952 से आज तक इस पक्षी की संख्या में 99 प्रतिशत कमी हुई है।

कुछ वर्षों पहले तक प्राय: हर स्थान पर, जहां किसी पशु का मृत शरीर पड़ा रहता था, वहां शव भक्षण करते गिद्ध हम सभी ने देखे हैं किंतु अब यह दृश्य दुर्लभ हो गए हैं। पशुओं के मृत शरीर कई दिनों तक लावारिस पड़े रहकर वायुमंडल में दुर्गंध व प्रदूषण फैलाते रहते हैं। इसका मुख्य कारण दिन प्रतिदिन गिद्धों की घटती संख्या है।

सुप्रसिद्ध पक्षीविद डॉक्टर सालिम अली ने अपनी पुस्तक इंडियन बर्ड्स में गिद्धों का वर्णन सफाई की एक कुदरती मशीन के रूप में किया है। गिद्धों का एक समूह एक मृत सांड को मात्र 30 मिनट में साफ कर सकता है। अगर गिद्ध हमारी प्रकृति का हिस्सा न होते तो हमारी धरती हड्डियों और सड़े मांस का ढेर बन जाती। गिद्ध मृत शरीरों का भक्षण कर हमें कई तरह की बीमारियों से बचाते हैं। गिद्धों की तेज़ी से घटती संख्या के साथ हम अपने पर्यावरण की खाद्य कड़ी के एक महत्वपूर्ण जीव को खोते जा रहे हैं, जो हमारी खाद्य शृंखला के लिए घातक है। 

गिद्धों की घटती संख्या के कारण जहां मृत शरीरों के निस्तारण की समस्या जटिल हो गई है वहीं अन्य अपमार्जकों की संख्या में वृद्धि हुई है। आवारा कुत्तों तथा चूहों की संख्या बढ़ी है लेकिन ये गिद्ध जितने कुशल नहीं है। इनकी बढ़ती संख्या के कारण रेबीज़ आदि रोगों के फैलने की समस्या बनी रहती है। कुत्तों की बढ़ती संख्या से वन्य प्राणियों को क्षति पहुंचने की भी आशंका रहती है।

गिद्धों की घटती संख्या का कारण ज्ञात करने के निरंतर प्रयास किए गए हैं। 1950 और 60 के दशक में धारणा थी कि पशुओं के मृत शरीर में डीडीटी का अंश बढ़ने के कारण डीडीटी गिद्धों के शरीर में भी पहुंच रहा है तथा इसके कारण उनके अधिकांश अंडे परिपक्व होने से पूर्व ही टूट जा रहे हैं। यह धारणा कालांतर में त्याग दी गई क्योंकि अन्य पक्षियों में इस तरह का कोई असर नहीं देखा गया। कुछ विशेषज्ञों का मत था कि गिद्धों पर किसी विषाणु का आक्रमण हो गया है जिस कारण वे सुस्त हो जाते हैं। गिद्ध अपने शरीर का तापमान कम करने के लिए ऊंची उड़ान भरते हैं, ऊंचाई में वायुमंडल में ऊपर तापमान कम होता है तथा वहां जाकर गिद्ध ठंडक प्राप्त करते हैं। विषाणु से उत्पन्न सुस्ती के कारण ये उड़ान नहीं भर पाते हैं तथा बढ़ते तापमान के कारण शरीर में पानी की कमी हो जाती है इससे यूरिक एसिड के सफेद कण इनके ह्रदय, लीवर, किडनी में जम जाते हैं और अंतत: इनकी मृत्यु हो जाती है।

आधुनिक व सघन अनुसंधान के उपरांत अकाट्य प्रमाण मिला है कि पशु चिकित्सा में बुखार, सूजन एवं दर्द आदि के लिए उपयोग की जाने वाली डायक्लोफेनेक औषधि गिद्धों की संख्या में कमी के लिए उत्तरदायी है। किसी पालतू पशु का उपचार डायक्लोफेनेक द्वारा करने पर उस पशु के शव गिद्ध द्वारा खाए जाने पर उसके मांस के माध्यम से डायक्लोफेनेक औषधि गिद्ध के शरीर में प्रवेश कर विषैला प्रभाव डालती है। डायक्लोफेनेक गिद्ध के गुर्दे में गाउट नामक रोग उत्पन्न करता है, जो गिद्धों के लिए प्राण घातक होता है।

कारण चाहे जो भी हो, गिद्धों की संख्या कम होना वास्तव में गंभीर चिंता का विषय है और यदि यह क्रम जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब गिद्ध भी डोडो की तरह केवल पुस्तकों में ही सीमित होकर रह जाएंगे।

गिद्धों का संरक्षण व उनकी संख्या में वृद्धि के प्रयासों में जीवित गिद्धों का वृहद स्तर पर सर्वे, बाड़ों में रखकर प्रजनन व उसकी सहायता से गिद्धों का पुनर्वास एवं सबसे महत्वपूर्ण कदमडायक्लोफेनेक औषधि पर पूर्ण प्रतिबंध जैसे प्रयास शामिल हैं। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी जैसे कुछ संगठनों के अथक प्रयासों से इस दिशा में उल्लेखनीय सफलता भी हासिल हुई है। भारतीय औषधि महानियंत्रक ने सभी राज्यों में पशुचिकित्सा में डायक्लोफेनेक औषधि पर प्रतिबंध के निर्देश दिए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि प्राकृतिक सफाईकर्मी को विलुप्त होने से बचाया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

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पेंगुइंस की घटती आबादी – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

पृथ्वी के दक्षिणी हिस्से में बर्फ से आच्छादित भाग में बहुत कम प्राणी जीवित रह पाते हैं। किंतु दो पैरों पर डोलते हुए चलने वाले, बर्फीले वातावरण के अनुकूल व उड़ने में असमर्थ पक्षी पेंगुइन के लिए यह स्वर्ग है। पेंगुइन का नाम सुनते ही हम कालेसफेद रंग के शरीर वाले छोटे आकार के जंतु की कल्पना करने लगते हैं। वास्तव में ये पक्षी अनेक आकार और रंग वाले भी होते हैं। कलगीदार (क्रेस्टेड) पेंगुइन को ही लीजिए जिनके सर पर नीले रंग के पंख मुकुट जैसे दिखते हैं। एंपरर और किंग पेंगुइन के चेहरे की पार्श्व सतह पर नारंगी और पीले रंग की आभा, काले चेहरे तथा सफेद छाती इन्हें बेहद सुंदर बना देती है। फिओर्डलैंड, स्नेयर, रॉयल तथा रॉकहॉपर पेंगुइंस की सफेद और पीले रंग के लंबे रेशों वाली भौहें इन्हें बाकी पेंगुइंस से अधिक आकर्षक बना देती है। येलो आइड पेंगुइन की आंखें पीले रंग से घिरी रहती है। कुल मिलाकर पेंगुइन की 17 प्रजातियां हैं।

सबसे छोटे आकार की पेंगुइन प्रजाति लिटिल ब्लू लगभग 12 इंच की होती है तथा सबसे लंबी प्रजाति एंपरर पेंगुइन 44 इंच लंबी होती है।

कहां रहते हैं पेंगुइंस?

पेंगुइंस उड़ तो नहीं सकते परंतु चप्पू जैसे रूपांतारित हाथ इन्हें बेहद माहिर तैराक बनाते हैं। ये अपने जीवन का 80 प्रतिशत समय समुद्र में तैरते हुए ही बिताते हैं। सभी पेंगुइन दक्षिणी गोलार्ध में रहते हैं हालांकि यह एक आम मिथक है कि वे सभी अंटार्कटिका में ही रहते हैं। वास्तव में दक्षिणी गोलार्ध में हर महाद्वीप पर पेंगुइन पाए जा सकते है। यह भी एक मिथक है कि पेंगुइन केवल ठंडे इलाकों में पाए जाते हैं। गैलापगोस द्वीपसमूह में पाए जाने वाले पेंगुइन भूमध्य रेखा के उष्णकटिबंधीय समुद्री किनारों पर रहते हैं।

क्या खाते हैं पेंगुइन?

पेंगुइन मांसाहारी हैं। उनका आहार समुद्र में पाए जाने वाले छोटे क्रस्टेशियन जीव, स्क्विड और मछलियां हैं। पेंगुइन बहुत पेटू भी होते हैं। कई बार तो इनके समूह इतना खाते हैं कि इनकी आबादी के आसपास का क्षेत्र भोजन रहित हो जाता है। प्रत्येक दिन कुछ पेंगुइन तो औसत 200 बार गोता लगाकर समुद्र में 120 फीट नीचे तक भोजन की तलाश में चले जाते हैं।

पेंगुइन के बच्चे

पेंगुइन के समूह को कॉलोनी कहते हैं। प्रजनन ऋतु में पेंगुइन समुद्र के किनारों पर आकर बड़े समूहों में एकत्रित हो जाते हैं। इन समूहों को रूकरी कहते हैं। अधिकाश पेंगुइंस मोनोगेमस होते हैं अर्थात प्रत्येक प्रजनन ऋतु में एक नर और एक मादा का जोड़ा बनता है और पूरे जीवनकाल तक साथसाथ रहकर प्रजनन करता है।

लगभग पांच साल की उम्र में मादा पेंगुइन प्रजनन के लिए परिपक्व हो जाती है। ज़्यादातर प्रजातियां वसंत और ग्रीष्म के दौरान प्रजनन करती हैं। आम तौर पर नर पेंगुइन प्रजनन में पहल करते हैं। मादा पेंगुइन को प्रजनन के लिए मनाने के पूर्व ही नर घोंसले के लिए एक अच्छी जगह का चयन कर लेते हैं।

प्रजनन के बाद मादा एंपरर तथा किंग पेंगुइन केवल एक ही अंडा देती है। पेंगुइन की सभी अन्य प्रजातियां दो अंडे देती हैं। एंपरर पेंगुइन को छोड़कर अन्य सभी प्रजातियों में अंडों को सेने का कार्य मातापिता दोनों बारीबारी से करते हैं। इसके लिए वे घोंसले में अंडे को पैरों के बीच रखकर बैठते हैं। एंपरर पेंगुइन में अंडा नर के ज़िम्मे सौंपकर मादा कई सप्ताह के लिए भोजन की तलाश में दूर निकल जाती है। पेंगुइन के बच्चे बड़े होकर जब अंडे से निकलने की तैयारी में होते हैं तो वे अपनी चोंच की सहायता से अंडे को तोड़कर बाहर आते हैं। बच्चों को भोजन देने का कार्य नर एवं मादा दोनों करते हैं। भोजन को चबाकर पुन: मुंह से निकालकर बच्चों को दिया जाता है। बच्चों की आवाज़ से मातापिता उन्हें खोज लेते हैं।

खतरे में पेंगुइन

पेंगुइन की अधिकांश प्रजातियां खतरे में है। अंटार्कटिक साइंस में प्रकाशित हाल ही में किए गए शोध के अनुसार अफ्रीका और अंटार्कटिका के बीच दक्षिणी हिंद महासागर के पिग द्वीप पर पेंगुइंस के बड़े समूह में से 88 प्रतिशत तक पेंगुइन घट गए हैं। विश्व के किंग पेंगुइंस की एक तिहाई जनसंख्या यहीं पाई जाती है। पिछले पांच दशकों से वैज्ञानिकों का एक दल हवाई और उपग्रह तस्वीरों से पेंगुइन की कालोनी के आकार में परिवर्तन पर निगाहें जमाए हुए था। 1980 में विश्व की सबसे अधिक जनसंख्या वाले किंग पेंगुइन के पांच लाख प्रजनन जोड़े घटकर 2018 में केवल 60,000 जोड़े तक सीमित हो गए हैं। वैज्ञानिक शोध से पता चला है कि किंग पेंगुइन की जनसंख्या 1990 से गिरना प्रारंभ हुई थी। यह वही समय था जब अलनीनो प्रभाव हुआ था। भूमध्य रेखा के आसपास के क्षेत्र में प्रशांत महासागर के वातावरण में अलनीनो एक अस्थायी परिवर्तन है। इसके कारण पेंगुइन का भोजन, जैसे मछली तथा अन्य प्राणी उनकी कालोनी से दूर दक्षिण में चले जाते हैं। आसानी से मिलने वाला भोजन अलनीनो प्रभाव के कारण दूभर हो जाता है। (स्रोत फीचर्स)

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