गर्मियों के मौसम में बाहर जाते समय अक्सर हमें डामर से
नव-निर्मित सड़क की गंध महसूस होती है। लेकिन बात सिर्फ गंध तक ही सीमित नहीं है।
हाल ही में किए गए अध्ययन से पता चला है कि ताज़ा डामर भी वायु प्रदूषण का एक
महत्वपूर्ण स्रोत है। गौरतलब है कि पिछले कुछ दशकों में संयुक्त राज्य अमेरिका के
कई हिस्सों में वायु गुणवत्ता में काफी सुधार हुआ है। यह वास्तव में वाहनों और
बिजली संयंत्रों से नियंत्रित और साफ निकासी के कारण संभव हो पाया है। लेकिन इसके
बावजूद वायु प्रदूषण के कारण दमा और ह्रदय सम्बंधी समस्याएं उभर रही हैं।
ऐसे में वैज्ञानिकों ने लॉस एंजेल्स और
उसके आसपास के क्षेत्रों से वायु प्रदूषण के सभी ज्ञात स्रोतों का अध्ययन किया।
सारे स्रोतों से होने वाले प्रदूषण का योग वास्तविक प्रदूषण से मेल नहीं खा रहा
था। अध्ययन में शामिल येल युनिवर्सिटी के पर्यावरण इंजीनियर ड्रयू जेंटनर बताते
हैं कि वे अपने अध्ययन में डामर से होने वाले वायु प्रदूषण को अनदेखा कर रहे थे।
वास्तव में कच्चे तेल या इसी तरह के पदार्थों से बनी चीज़ों में अर्ध-वाष्पशील
कार्बनिक यौगिक होते हैं जो किसी न किसी तरह से वायु प्रदूषण का कारण बनते हैं।
जेंटनर की टीम ने दो तरह के ताज़ा डामर एकत्रित किए और उनको प्रयोगशाला की भट्टी
में गर्म किया। टीम ने छत पर उपयोग किए जाने वाले डामर के पटरों और तरल डामर का भी
परीक्षण किया। उन्होंने पाया कि पुरानी सामग्री की तुलना में नई सामग्री से अधिक
रसायनों का उत्सर्जन होता है। वे यह भी देखना चाहते थे कि समय के साथ इस उत्सर्जन
में कैसे बदलाव आता है।
साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सामान्य डामर की सतह पर
सबसे अधिक अर्ध-वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों का उत्सर्जन 140 डिग्री सेल्सियस तापमान
पर होता है। जैसे-जैसे डामर ठंडा होता है उत्सर्जन में कमी आती है लेकिन 60 डिग्री
सेल्सियस पर यह स्थिर हो जाता है और इसका प्रभाव भी अधिक रहता है। निष्कर्ष बताते
हैं कि डामर लंबे समय तक वायु प्रदूषण का स्रोत हो सकता है।
टीम ने उत्सर्जन के लिए धूप को भी काफी
महत्वपूर्ण माना है। मध्यम प्रकाश में उत्सर्जन में 300 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती
है। यह उत्सर्जन हवा में छोटे कण (एयरोसोल) के रूप में उपस्थित रहता है जो सांस के
ज़रिए शरीर में प्रवेश करने पर काफी हानिकारक हो सकता है। गर्म मौसम में ज़्यादा
प्रदूषण होता है।
शोधकर्ताओं का अनुमान है कि डामर से निकलने वाले छोटे कणों की सालाना मात्रा 1000 से 2500 टन के करीब होती है जबकि पेट्रोल और डीज़ल गाड़ियों से यह 900 से 1400 टन के बीच निकलता है। ऐसे में यह प्रश्न काफी महत्वपूर्ण है कि डामर से होने वाला उत्सर्जन कितने समय तक जारी रहता है। जेंटनर के अनुसार इसका निरंतर मापन ज़रूरी है। हालांकि अभी तक डामर से होने वाले प्रदूषण की जानकारी अधूरी है लेकिन इतना स्पष्ट है कि यह वायु प्रदूषण के प्रमुख स्रोतों में से एक है। यह डैटा वायु प्रदूषण के अध्ययन के मॉडल्स के लिए काफी महत्वपूर्ण है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में कंपनियां डामर के कारण होने वाले उत्सर्जन को कम करने की दिशा में काम करेंगी।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/1034911180-1280×720.jpg?itok=uJFF_TAD
सरकार
ने हाल ही में पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) में बदलाव करने के
लिए एक अधिसूचना जारी की है जिस पर जनता की राय और सार्वजनिक टिप्पणियां मांगी गई
हैं। यदि यह अधिसूचना लागू हो जाती है तो 2006 के बाद की सभी परियोजनाओं के लिए पूर्व में
लागू पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2006 निरस्त हो जाएगी।
भोपाल
गैस त्रासदी के बाद 1986
में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम लागू किया गया था ताकि यह
सुनिश्चित किया जा सके कि जीवन की इतनी बड़ी हानि फिर कभी ना हो। पर्यावरण प्रभाव
आकलन दरअसल पर्यावरण संरक्षण अधिनियम की एक प्रक्रिया है;
सभी प्रस्तावित परियोजनाओं को निर्माण शुरू करने से पहले इस
प्रक्रिया से गुज़रना होता है और उसके बाद ही उन्हें हरी झंडी मिलती है।
पर्यावरण
प्रभाव आकलन में सभी प्रस्तावित परियोजनाओं की उनके संभावित नकारात्मक प्रभावों और
पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों की जांच की जाती है और देखा जाता है कि प्रस्तावित
रूप में परियोजना शुरू की जा सकती है या नहीं। परियोजनाओं का आकलन विशेषज्ञ
मूल्यांकन समिति (EAC) करती है। यह समिति वैज्ञानिकों और परियोजना प्रबंधन विशेषज्ञों
से मिलकर बनी होती है। पर्यावरण प्रभाव आकलन के लिए विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति
द्वारा परियोजना की जांच करके प्रारंभिक रिपोर्ट तैयार की जाती है। समिति इस जांच
के दायरे को भी निर्धारित करती है।
इस
रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद, परियोजना पर
सार्वजनिक विचार-विमर्श
की प्रक्रिया शुरू हो जाती है जिसमें परियोजना से प्रभावित लोगों सहित अन्य लोगों
से आपत्तियां आमंत्रित की जाती हैं। इस प्रक्रिया के पूरी होने पर विशेषज्ञ
मूल्यांकन समिति परियोजना का अंतिम आकलन करती है और रिपोर्ट पर्यावरण और वन
मंत्रालय को सौंप देती है। सामान्यत: नियामक प्राधिकरण समिति द्वारा दिए गए निर्णय को स्वीकार
करने के लिए बाध्य होता है।
पर्यावरण
प्रभाव आकलन के वैश्विक पर्यावरण कानून का मकसद ऐहतियात बरतना है;
ऐहतियात इसलिए क्योंकि पर्यावरणीय नुकसान अक्सर अपरिवर्तनीय
होते हैं। जैसे वनों की कटाई के कारण हुए भू-क्षरण को ठीक नहीं किया जा सकता या वापस
पलटा नहीं जा सकता। आर्थिक और वित्तीय दृष्टि से देखें,
तो भी क्षति ना होने देना, उसे
ठीक करने की तुलना में बेहतर है। यही कारण है कि हम सुरक्षात्मक नीतियों की
अंतर्राष्ट्रीय संधियों और शर्तों और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को मानने के लिए
बाध्य हैं।
चूंकि
सभी पर्यावरणीय नियम पर्यावरण की क्षति और सतत विकास के बीच संतुलन रखने के लिए
हैं, इसलिए निष्पक्ष आकलन अनिवार्य है। यह उन
नौकरियों और इंफ्रास्ट्रक्चर के नुकसान से भी बचाएगा जो तब होगा जब किसी परियोजना को
निर्वहनीय साबित करने से पहले शुरू कर दिया जाएगा। अलबत्ता,
व्यवसाय और उद्योग हमेशा से पर्यावरण प्रभाव आकलन को नई
परियोजना शुरू करने की राह में एक रोड़ा मानते रहे हैं।
ऐसा
कहा जा रहा है कि पर्यावरण प्रभाव आकलन की नई अधिसूचना पर्यावरण प्रभाव आकलन की
प्रक्रिया को सुगम बनाती है और इसे हाल के फैसलों के अनुरूप करती है। यह भी दावा
किया जा रहा है कि इन नए परिवर्तनों से कारोबार करने में आसानी होगी। जबकि
वास्तविकता इससे काफी अलग है। पर्यावरण प्रभाव आकलन प्रक्रिया को सुगम बनाने की आड़
में तैयार नया मसौदा इसे कमज़ोर कर रहा है, इसके
दायरे को कम कर रहा है और इसकी शक्तियां छीन रहा है। अधिसूचना में कई बदलाव
प्रस्तावित हैं, यहां हम उनमें से
कुछ मुख्य संशोधनों पर एक नज़र डालेंगे।
पर्यावरण
प्रभाव आकलन के संशोधन में सबसे विनाशकारी संशोधन एक्स-पोस्ट-फेक्टो क्लीयरेंस (यानी कार्य पूर्ण हो जाने के बाद मंज़ूरी) का विकल्प देना है।
यानी इस संशोधन से उन परियोजनाओं को भी मंज़ूरी प्राप्त करने का मौका मिलेगा जो
पर्यावरण नियमों का उल्लंघन करती हैं। ऐसी स्थिति में यदि परियोजनाओं द्वारा
शुरुआत में पर्यावरण प्रभाव आकलन की मंजूरी नहीं मांगी गई और परियोजना शुरु कर दी
गई तो भी परियोजना अधिकारी बाद में आकलन प्रक्रिया करवा सकते हैं। इस उल्लंघन के
लिए कुछ हर्जाना भरकर, परियोजना के लिए
मंज़ूरी ली जा सकती है।
पहले
भी परियोजनाओं को इस तरह एक्स-पोस्ट-फेक्टो मंज़ूरियां दी जा रही थीं लेकिन अवैध होने के कारण
अदालतों ने उन पर शिकंजा कस दिया था। अब नई अधिसूचना में प्रस्तावित संशोधन अदालत
के इन फैसलों को दरकिनार करता है, हालांकि यह देखना
बाकी है कि दरकिनार करने का हथकंडा वैध है या नहीं।
यह
संशोधन नई परियोजना शुरु करने वालों को यह विकल्प देता है कि वे या तो परियोजना शुरू
करने के पहले पर्यावरण प्रभाव आकलन की प्रक्रिया से गुज़रें या पहले परियोजना शुरू
कर लें और फिर बाद में जुर्माना अदा कर अपनी परियोजना को मान्यता दिलवा लें। वे
कौन-सा
विकल्प चुनते हैं, यह इस बात पर निर्भर
करेगा कि दोनों में से कौन-सा विकल्प व्यवसाय या परियोजना के लिए वित्तीय रूप से बेहतर
है। यानी यदि विकल्पों का यह नियम बन जाता है, पर्यावरण
प्रभाव आकलन का उद्देश्य ही पराजित हो जाएगा।
परियोजना
की निगरानी की व्यवस्था में भी कुछ ढील दी गई है। पर्यावरण प्रभाव आकलन के नवीन
मसौदे में वार्षिक रिपोर्ट देने की बजाए द्विवार्षिक रिपोर्ट देने की छूट दी गई
है। और खनन जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों के लिए एक बार मिली मंज़ूरी की वैधता की अवधि
को बढ़ा दिया गया है। ये कदम ना केवल पर्यावरण को होने वाले नुकसान को बढ़ाएंगे,
बल्कि ऐसे मामलों में पर्यावरण प्रभाव आकलन की पहुंच को भी
बाधित करने का काम करेंगे।
पर्यावरण
प्रभाव आकलन के अन्य महत्वपूर्ण संशोधनों में से एक संशोधन श्रेणी-बी की परियोजनाओं के
सम्बंध में किया गया है। चूंकि पर्यावरण प्रभाव आकलन की अनिवार्यता की सीमा को बी-2 श्रेणी की
परियोजनाओं के नीचे ले आया गया है, इसलिए ये परियोजनाएं
अब पूरी तरह से पर्यावरण प्रभाव आकलन और सार्वजनिक परामर्श प्रक्रिया से मुक्त
होंगी। इसका मतलब है कि 25 मेगावॉट
से कम की सभी पनबिजली परियोजनाओं और 2,000-10,000 हैक्टर के बीच सिंचित क्षेत्र वाली सभी सिंचाई परियोजनाओं
को मंज़ूरी के लिए पर्यावरण प्रभाव आकलन करवाने या सार्वजनिक विमर्श की आवश्यकता
नहीं रहेगी।
पर्यावरण
प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2006 और वर्तमान में प्रस्तावित मसौदे में एक
अन्य महत्वपूर्ण अंतर है। 2006 की अधिसूचना में यदि श्रेणी-बी की किसी परियोजना का कुछ हिस्सा या पूरी
परियोजना संरक्षित क्षेत्र की सीमा, या
गंभीर रूप से प्रदूषित क्षेत्र, या पर्यावरण की
दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र या अंतर-राज्य और अंतर्राष्ट्रीय सीमा के 10 किलोमीटर के दायरे में स्थित होती थी तो
ऐसी श्रेणी-बी
की परियोजना को श्रेणी-ए
की परियोजना की तरह देखा जाता था। नए मसौदे में संशोधन किया गया है कि उपरोक्त
शर्तों को पूरा करने वाली सभी बी-1 श्रेणी की परियोजनाओं का विशेषज्ञ आकलन समिति द्वारा आकलन
तो किया जाएगा लेकिन अब उन्हें श्रेणी-ए की परियोजनाओं के रूप में नहीं देखा जाएगा। नए मसौदे के
इस स्पष्टीकरण से लगता है कि इन परियोजनाओं की आकलन प्रक्रिया उतनी गहन नहीं
रहेगी।
यह
मसौदा परियोजना पर जनता की टिप्पणी या प्रतिक्रिया देने की समयावधि को भी कम करता
है। परियोजना प्रभावित अधिकतर लोग या तो जंगलों में रहते हैं या टेक्नॉलॉजी या
जानकारी तक उनकी पहुंच मुश्किल होती है। यह संशोधन उनके प्रतिनिधित्व को कम करता
है।
पर्यावरण
प्रभाव आकलन के दायरे में कमी की वजह से वह अपने उद्देश्य से इतना भटक गया है कि
शायद अप्रासंगिक ही हो जाए। वे उद्योग जो पहले संपूर्ण आकलन की आवश्यकता वाली
श्रेणी में आते थे, अब उस श्रेणी में
नहीं रहे। इसका सबसे बड़ा लाभ निर्माण उद्योग को होगा जहां केवल बहुत बड़ी
परियोजनाओं की ही पूरी जांच की जाएगी। रक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा की परियाजनाओं
को तो हमेशा ही पर्यावरण प्रभाव आकलन से छूट रही है लेकिन अब परियोजनाओं की एक नई
श्रेणी प्रकट हुई है: ‘जिनमें
अन्य रणनीतिक आधार शामिल हों’। यह भी पर्यावरण प्रभाव आकलन से मुक्त होगी। तो सवाल यह
उठता है कि क्या परमाणु संयंत्र या पनबिजली परियोजनाएं ऐसी परियोजनाओं के अंतर्गत
आएंगे?
कुछ
लोग पर्यावरण प्रभाव आकलन के निशक्तीकरण को लोकतंत्र-विरोधी भी मान रहे हैं क्योंकि इससे
प्रभावित कुछ समुदायों के स्थानीय पर्यावरण में विनाशकारी बदलाव उनकी आजीविका को
नुकसान पहुंचा सकते हैं। सार्वजनिक विचार अस्तित्व-सम्बंधी खतरों पर एक जनमत संग्रह है।
सार्वजनिक विमर्श प्रक्रिया को कम या सीमित करना उसी तरह है जिस तरह उन लोगों की
आवाज़ को शांत करना जिनके पास बोलने के मौके पहले ही कम हैं।
सरकार
यह तर्क दे सकती है कि कोविड-19 महामारी के कारण अर्थव्यवस्था को नुकसान हुआ है और यह
अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने की दिशा में एक आवश्यक कदम है। लेकिन उसके कार्यों
से तो लगता है कि वह पर्यावरण नियमों को कारोबार करने की सुगमता में बाधा मानती
है। लॉकडाउन के दौरान, पर्यावरण और वन
मंत्रालय ने तेज़ी से परियोजनाओं को हरी झंडी देने का काम किया है। जब पर्यावरण व
वन मंत्री और भारी उद्योग मंत्री एक ही व्यक्ति हो तो हितों का टकराव होना तय है।
दो मंत्रालय जो सामान्यत: दूसरे
के विरोध में काम करते हैं, वे एक ही व्यक्ति के
पास हैं।
इस
ढिलाई के साथ और उदार तरीके से परियोजनाओं को मंज़ूरी देने का एक उदाहरण हाल ही में
देखने को मिला है। ऑयल इंडिया लिमिटेड के तेल के कुएं संरक्षित जंगलों से केवल कुछ
किलोमीटर की ही दूरी पर स्थित थे। पिछले दिनों जब इन तेल के कुओं से आग की लपटें उठीं,
तो नए सिरे से पर्यावरणीय मंजूरी की बजाय बहानेबाज़ी और
फेरबदल की नई प्रक्रियाएं शुरू कर दी गर्इं।
मंज़ूरी
ना लेने का एक अन्य उदाहरण विशाखापट्टनम स्थित एलजी पॉलीमर संयंत्र से घातक गैस
रिसाव के रूप में सामने आया, जिसमें बारह लोगों
की मौत हो गई और सैकड़ों लोगों को नुकसान पहुंचा। इस त्रासदी के बाद पता चला कि यह
संयंत्र एक दशक से भी अधिक समय से बिना पर्यावरणीय मंज़ूरी के काम कर रहा था।
यह स्पष्ट है कि पर्यावरणीय विनियमन एक संतुलन अधिनियम है जिसका उद्देश्य पर्यावरणीय और सामाजिक क्षति को कम करते हुए टिकाऊ वृद्धि और विकास की अनुमति देना है। लेकिन क्या लॉकडाउन के बाद अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के इरादे ने सरकार में औद्योगिक विकास का पक्ष लेने की आतुरता पैदा की, वह भी कारोबार को आसान बनाने के ढोंग और विदेशी निवेश आकर्षित करने के दावों के आधार पर? एक अन्य सवाल जो परेशान करता है कि जब तक पर्यावरण क्षति के परिणाम नज़र आने शुरू होंगे, तब तक क्या पर्यावरणीय क्षति को कम करने के हमारे प्रयासों में बहुत देरी नहीं हो जाएगी और क्या वे बहुत नाकाफी साबित नहीं होंगे?(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.indianexpress.com/2020/06/eia.jpg
डॉयाक्सीन
अत्यंत विषैले रसायनों का समूह है। इन्हें उन खतरनाक मानव निर्मित रसायनों में
शामिल किया गया है जिनकी सक्रियता रेडियो सक्रिय पदार्थ के बाद दूसरे नंबर पर आती
है।
डॉयाक्सीन
पर हमारा ध्यान इटली के सेवासो कस्बे में 10 जुलाई 1976 को एक कारखाने में हुए विस्फोट ने आकर्षित
किया था। इससे डॉयाक्सीन आसपास के वातावरण में फैल गया था। इसके विषैले प्रभाव से
हज़ारों पशु-पक्षी
मारे गए थे। मनुष्यों में भी एक चर्म रोग फैला था जो लंबे समय तक उपचार के बाद ठीक
हुआ। बाद में कैंसर एवं ह्रदय रोग के भी कई प्रकरण सामने आए। प्रारंभ में गर्भवती
महिलाओं एवं बच्चों पर कोई विशेष प्रभाव तो नहीं देखा गया था परंतु बाद में नर
बच्चों की जन्म दर काफी घट गई थी। अमरीका की पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी ने वहां की
ज़्यादातर जनता को डॉयाक्सीन से प्रभावित बताया था। डॉयाक्सीन के प्रभावों में
कैंसर, चर्म रोग,
प्रतिरोध क्षमता में कमी, तंत्रिका
तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव एवं मृत शिशुओं का जन्म प्रमुख हैं।
रासायनिक
दृष्टि से डॉयाक्सीन क्लोरीन युक्त हाइड्रोकार्बन हैं जो काफी टिकाऊ होते हैं तथा
कीटनाशी डीडीटी के समान वसा में घुलनशील होते हैं। इस घुलनशीलता के कारण ये भोजन शृंखला
में प्रवेश कर वसायुक्त अंगों में एकत्र होते रहते हैं।
अभी
तक इनकी कोई सुरक्षित सीमा निर्धारित नहीं है परंतु स्वास्थ्य पर इनका प्रभाव चंद
अंश प्रति ट्रिलियन (यानी
10 खरब
अंशों में एक अंश) सांद्रता
पर ही देखा गया है। हमारे वायुमंडल में 95 प्रतिशत डॉयाक्सीन उन भस्मकों (इंसीनरेटर्स) से आते हैं जिनमें
क्लोरीन युक्त कचरा जलाया जाता है। कागज़ के उन कारखानों से भी इनका प्रसार होता है
जो ब्लीचिंग कार्य में क्लोरीन का उपयोग करते हैं। कई शहरों में सफाई के नाम पर
अवैध रूप से कचरा जलाने में भी डॉयाक्सीन पैदा होते हैं,
क्योंकि कचरे में प्लास्टिक एवं पीवीसी के अपशिष्ट भी होते
हैं।
पिछले
50 वर्षों
में क्लोरीन युक्त रसायनों व प्लास्टिक का निर्माण एवं उपयोग काफी बढ़ा है। रसायनों
में कीटनाशी व शाकनाशी तथा प्लास्टिक में पीवीसी की वस्तुएं प्रमुख हैं। वाहनों के
सीटकवर, टेलीफोन-बिजली के तार,
शैम्पू की बॉटल, बैग,
पर्स, सेनेटरी पाइप,
वॉलपेपर एवं कई अन्य वस्तुएं पीवीसी से ही बनती हैं। इन सभी
के निर्माण के समय एवं उपयोग के बाद कचरा जलाने से डॉयाक्सीन का ज़हर फैलता है।
जलने
के दौरान पैदा डॉयाक्सीन वायुमंडल में उपस्थित महीन कणीय पदार्थों के साथ सैकड़ों
किलोमीटर दूर तक फैल जाते हैं। फसलों एवं अन्य पौधों की पत्तियों तथा भूमि पर जमा
होकर फिर ये शाकाहारी एवं मांसाहारी प्राणियों से होते हुए अंत में मानव शरीर में
एकत्र होने लगते हैं। मानव शरीर में ज़्यादातर डॉयाक्सीन दूध,
मांस व अन्य डेयरी पदार्थों के ज़रिए पहुंचते हैं।
जापान
के स्वास्थ्य व कल्याण मंत्रालय ने कुछ वर्ष पूर्व महिलाओं के दूध का अध्ययन कर
बतलाया था कि महिलाएं जैसे-जैसे दूध व अन्य डेयरी पदार्थों का उपयोग बढ़ाती हैं वैसे-वैसे उनके दूध में
डॉयाक्सीन की मात्रा बढ़ती जाती है। भस्मकों के आसपास के क्षेत्र में रहने वाली
महिलाओं में इनकी मात्रा ज़्यादा आंकी गई। ब्रिटिश जर्नल ऑफ कैंसर में
प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार नगरीय निकायों का कचरा जलाने वाले भस्मकों के आसपास
सात किलोमीटर के क्षेत्र में बसे रहवासियों में डॉयाक्सीन के कारण कई प्रकार के
कैंसर होने की संभावना बढ़ जाती है। भस्मकों की चिमनी से निकले धुंए में कैंसरजन्य
रसायनों के साथ भारी धातुएं, अम्लीय गैसें,
अधजले कार्बनिक पदार्थ, पॉलीसायक्लिक
हाइड्रोकार्बन्स तथा फ्यूरॉन एवं डॉयाक्सीन की उपस्थिति भी वैज्ञानिकों ने दर्ज की
है। दुनिया में कई स्थानों पर, डॉयाक्सीन की मात्रा
बढ़ने से गांव व शहर खाली भी कराए गए हैं। इनमें लवकेनाल (नियाग्रा फॉल),टाइम्स बीच (मिसोरी), पैंसाकोला
(फ्लोरिडा) व मिडलैंड शहर
प्रमुख हैं।
वर्ष
2002 में
एंवायरमेंटल साइंस एंड टेक्नॉलॉजी पत्रिका में
प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया था कि डॉयाक्सीन का प्रदूषण भारत में भी बहुत है।
मनुष्य, डॉल्फिन,
मुर्गा, मछली,
बकरी एवं मांसाहारी पशुओं में इसकी उपस्थिति आंकी गई थी।
पक्षियों में सर्वाधिक 1800
तथा गंगा की डॉल्फिन में 20-120 पीपीजी (पिकोग्राम प्रति ग्राम) का आकलन किया गया था।
पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के तत्कालीन सचिव ने भी इसे स्वीकारते हुए कहा था कि देश
में डॉयाक्सीन की व्यापकता अनुमान से अधिक है। कम्यूनिटी एंवायरमेंटल मॉनीटरिंग ने
स्मोक स्कैन नाम से एक रिपोर्ट लगभग 15 वर्ष पूर्व जारी की थी। इसमें देश के 13 स्थानों पर हवा के नमूनों में 45 ज़हरीले रसायनों की
उपस्थिति बतलाई थी। केरल के एक औद्योगिक क्षेत्र में एक रसायन हेक्साक्लोरो
ब्यूटाडाइन की पहचान की गई थी जो डॉयाक्सीन का निर्माण करता है।
देश
में डॉयाक्सीन की मात्रा पश्चिमी देशों द्वारा दिए गए घटिया तकनीक के भस्मकों तथा
क्लोरीन आधारित उद्योगों के कारण बढ़ी है जिनमें पीवीसी,
पल्प व कागज़ तथा कीटनाशी कारखाने प्रमुख हैं। खुलेआम
प्लास्टिक युक्त कचरा जलाना भी इसकी मात्रा बढ़ा रहा है। डॉयाक्सीन से पैदा प्रदूषण
पर ध्यान दिया जाना ज़रूरी है, अन्यथा यह स्वास्थ्य
का नया संकट पैदा करेगा। केंद्र सरकार ने 2009 में कई प्रदूषणकारी पदार्थों की मात्रा व
स्तर में संशोधन कर कुछ नए प्रदूषणकारी पदार्थं शामिल किए हैं परंतु इसमें
डॉयाक्सीन नहीं हैं।
भस्मकों में कचरा जलाए जाने से पैदा डॉयाक्सीन के प्रदूषण के कारण अब दुनिया के कई देशों में इसके विरुद्ध ना केवल आवाज़ उठाई जा रही है अपितु ये बंद भी किए जा रहे हैं। वर्ष 2002 में ज़्यादा डॉयाक्सीन उत्सर्जन के कारण जापान में लगभग 500 भस्मक बंद किए गए थे। यू.के में 28 में से 23 भस्मक बंद किए गए एवं यू.एस.ए. में 1985 से 1994 के मध्य 250 भस्मकों की प्रस्तावित योजनाएं निरस्त की गर्इं। फिलीपाइंस में भस्मक लगाना प्रतिबंधित किया गया है। हमारे देश में भी इस संदर्भ में ध्यान देकर सावधानी बरतना ज़रूरी है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.itrcweb.org/Team/GetLogoImage?teamID=81
साल 2002 में औसत बारिश में
कमी या सूखे का पूर्वानुमान भारत या विदेश का कोई भी संस्थान नहीं लगा पाया था।
इसे मौजूदा मॉडल में पूरे विश्व में चुनौती माना गया। सवाल यह है कि गर्मी की
शुरुआत में आज से 35-40 साल
पहले भी आंधी-तूफान
आते रहे हैं, जिसे पूर्वी भारत
में काल बैसाखी कहते हैं। लेकिन पहले तूफान से तबाही नहीं मचती थी। फिर अब ऐसा
क्या होता है कि एक दिन के तूफान से ही तबाही मच जाती है?
इसे ठीक से समझने के लिए तीन बातों पर गौर करना होगा।
कोई
भी आंधी-तूफान
दो चीज़ों से ऊर्जा लेती हैं – गर्मी व हवा की नमी की मात्रा। ये दोनों चीजें जितनी ज़्यादा
होंगी, तूफान की मारक
क्षमता उतनी ही बढ़ेगी। पहले मई माह के बाद ही तेज़ गर्मी पड़ती थी। पर अब मार्च-अप्रैल महीने में ही
उत्तर, पश्चिम और दक्षिण
भारत के काफी बड़े हिस्से में तापमान 40 डिग्री सेल्सियस या इससे ऊपर पहुंच जाता है। इससे हवा की
गति बढ़ जाती है। साथ ही पश्चिमी विक्षोभ भी मौजूद रहता है और बंगाल की खाड़ी से नमी
लेकर हवा भी आ पहुंचती है। इन सबकी वजह से तूफान आने की स्थिति बनती है।
पिछले
तीन-चार
दशक से तापमान लगातार बढ़ रहा है। यह हवा की गति को भी बढ़ा रहा है। 1979-2013 की अवधि में मौसम
उपग्रह के रिकार्ड से पता चला कि धरती का ऊष्मा इंजन अब पहले से ज़्यादा सक्रिय हो
चुका है। परिणामस्वरूप तूफान-बवंडर ज़्यादा शक्तिशाली बन रहे हैं। आज ज़रूरत है इनको समय
से पूर्व जानकर देश की जनता और शासन-प्रशासन को सावधान करने की।
मौसम
का पूर्वानुमान तभी सफल हो पाता है जब उसे स्थान और काल की बारीकी से बताया जा
सके। भारतीय मौसम विभाग अभी इस काम को करने में पूरी तरह से परिपक्व नहीं हो सका
है। मानसून के बारे में मौसम विभाग का अनुमान हमारे किसी काम का नहीं होता क्योंकि
वह सिर्फ औसत बताता है। औसत तो तब भी बरकरार रहेगा जब किसी इलाके में सूखा पड़े और
किसी में अतिवृष्टि हो जाए। लेकिन दोनों स्थितियों में नुकसान तो हो ही जाएगा।
उन्हें स्थानीय स्तर पर जल्दी-जल्दी पूर्वानुमान बताना चाहिए ताकि तैयारी करने का समय मिल
सके।
मौसम
के पूर्वानुमान के लिए अलग-अलग मॉडल पर आधारित 5 तरह के पूर्वानुमान का इस्तेमाल कृषि,
यातायात, जल प्रबंधन आदि के
लिए किया जाता है। सही मायने में 5 दिन का पूर्वानुमान 60 फीसदी तक सही हो पाता है। ये पांच तरह के
हैं –
1. तात्कालिक (नाउकास्ट ) – अगले 24 घंटे का आकलन
2. लघु अवधि – 3 दिनों का
पूर्वानुमान
3. मध्यम अवधि – 3-10 दिनों का
पूर्वानुमान
4. विस्तारित अवधि – 10-30 दिनों का
पूर्वानुमान
5. दीर्घ अवधि – मानसून का
पूर्वानुमान
इस
संदर्भ में मराठवाड़ा में कुछ किसानों ने पुलिस केस दर्ज कराया है। उनका कहना है कि
मौसम विभाग द्वारा महाराष्ट्र या मराठवाड़ा (8 ज़िला क्षेत्र) के अनुमान से भी उन्हें लाभ नहीं होता,
क्योंकि एक ज़िले में भी बारिश कभी एक समान नहीं होती। इसलिए
कृषि के लिए ब्लॉक आधारित सूचना की ज़रूरत है। विशेषज्ञों के अनुसार मौसम विभाग को
पूरे देश को छोटे-छोटे
ज़ोन में बांटना चाहिए और हर ज़ोन के लिए दीर्घावधि पूर्वानुमान जारी करने चाहिए।
मौसम
विभाग ज़िला आधारित पूर्वानुमान जारी करता है। हालांकि इनमें भी सफलता दर कम है।
अगर मौसम विभाग पूर्वानुमान जारी करते हुए बताता है कि किसी ज़िले में अलग-अलग क्षेत्रों में
बारिश होगी तो इसका अर्थ होता है कि उस जिले के 26-50 फीसदी हिस्से में बारिश होगी। इसमें भी उन
क्षेत्रों की पहचान नहीं की जाती। मौसम विभाग तापमान,
आद्र्रता, हवा की गति और वर्षण
आदि के आंकड़े इकट्ठे करता है। देश में 679 स्वचालित मौसम केंद्र,
550 भू
वेधशालाएं, 43 रेडियोसोंड (मौसमी गुब्बारे), 24 राडार और 3 सेटेलाइट हैं,
जो दूसरे देश के सेटेलाइट आंकड़े भी जुटाते रहते हैं।
अति
आधुनिक गतिशील मॉडल (डायनैमिक
मॉडल) पर
आधारित पूर्वानुमान भी भारत में गलत हो जाते हैं। ब्लॉक स्तर तक के मौसम
पूर्वानुमान के लिए ज़रूरी है कि ब्लॉक स्तर तक के आंकड़े जुटाए जाएं। संसाधन काफी
कम हैं। धूल, एरोसॉल,
मिट्टी की आर्द्रता और समुद्र से जुड़े डैटा में भारी अंतर
हैं। वर्षापात के आंकड़े जुटाने के लिए देश में कम से कम 20 और राडार चाहिए ताकि व्यापक आंकड़े जुटाए जा
सकें।
मौसम
पूर्वानुमान के मॉडल की विफलता के बड़े कारण घटिया यंत्र भी हैं। एक मौसम विज्ञानी
के अनुसार पैसे बचाने के लिए कई स्वचालित मौसम केंद्र घटिया स्तर के खरीदे गए थे।
दूसरा मौजूदा मॉडल के उचित रखरखाव में कमी भी बड़ी समस्या है। इन्हें थोड़े-थोड़े अंतराल पर साफ
करके स्केल से मिलाना होता है। पर वास्तव में ऐसा हो नहीं पाता। इससे कई डैटा गलत
आते हैं। पूर्वानुमान के लिए इस्तेमाल किए जा रहे अधिकतर मॉडल विदेशों में विकसित
किए गए हैं जिनमें स्थानीय ज़रूरत के अनुसार बदलाव करके उपयोग किया जा रहा है।
ऊष्ण
कटिबंधीय वातावरण बहुत तेज़ी से बदलता रहता है। यह कभी स्थिर नहीं रहता। दरअसल ऊष्ण
कटिबंधीय मौसम के व्यवहार का अभी उचित अध्ययन हो ही नहीं सका है।
पर्याप्त
संख्या में मौसम विज्ञानी नहीं हैं। एकमात्र आईआईएससी के स्नातक ही मौसम केंद्र से
जुड़ते हैं। मौजूदा मॉडल और मौसम विज्ञानियों की उपलब्धता के आधार पर देखें तो एक
दिन के पूर्वानुमान की गणना करने में 10 वर्षों का समय लग सकता है।
आमतौर
पर माना जाता है कि मानसून के अप्रत्याशित व्यवहार के पीछे बढ़ता वैश्विक तापमान
है। लेकिन इसके वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं मिले हैं।
तमाम
आलोचनाओं के बीच मौसम विभाग द्वारा जारी आंकड़ों में सुधार आए हैं। पहले की तुलना
में बेहतर तकनीक और नए मॉडलों का प्रभाव, धीरे-धीरे ही सही,
दिखने लगा है। दीर्घावधि औसत में 2003-15 के दौरान मौसम के पूर्वानुमान में 5.92 प्रतिशत की अशुद्धता
दर्ज की गई थी, जो 1990-2012 के बीच 7.94 प्रतिशत थी। 1988-2008 के बीच पूर्वानुमान 90 प्रतिशत सही रहा।
यानी 20 में
से 19 वर्षों
में।
बढ़ते मौसमी खतरे को देखते हुए हमें अपने पूर्वानुमान की सूक्ष्मता को बढ़ाना होगा। तूफान और बवंडर के लिए डॉप्लर राडार ज़्यादा उपयोगी है। अफसोस इस बात का है कि इनकी देश में कमी है। 2013 की उत्तराखंड आपदा में भी इनकी कमी सामने आई। यदि डॉप्लर राडार होता तो ज़्यादा बारीकी से तूफान का पता लगाकर चेतावनी दी जा सकती थी। अगर आने वाले खतरे को नजरअंदाज करते रहेंगे तो भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.downtoearth.org.in/library/large/2017-08-10/0.71962100_1502365925_32-1-20170815-english.jpg
तालाबंदी
के इन दिनों में हमने भारत के कई हिस्सों के नगरों, कस्बों
और शहरी इलाकों की तरफ ‘जंगली’ जानवर आने की खबर
सुनी। खबर मिली कि उत्तराखंड के हरिद्वार में एक हाथी हरि की पौड़ी के काफी नज़दीक आ
गया था। अल्मोड़ा में एक तेंदुआ देखा गया था। कर्नाटक में हाथी,
चीतल और सांभर जंगलों से निकलकर शहरों में आ गए थे,
जबकि महाराष्ट्र में लोगों को काफी संख्या में कस्तूरी
बिलाव, नेवला और साही झुंड
में दिखे। सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व
में, जहां भी तालाबंदी हुई और रोज़मर्रा की मानव
गतिविधियों पर अंकुश लगा, वहां जानवरों का ‘सीमा लांघकर’ शहरी बस्तियों में
आगमन देखा गया। जब यह तालाबंदी हट जाएगी तब उम्मीद होगी कि ये जानवर अपने जंगली
परिवेश में वापस लौट जाएंगे – चाहे वह कहीं भी हो और कितना भी सीमित क्यों ना हो।
मामले
को परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए यह देखिए कि दुनिया का कुल भूक्षेत्र लगभग 51 करोड़ वर्ग किलोमीटर
है; इसका लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा मरुस्थल है और 24 प्रतिशत हिस्सा
पहाड़ी है; शेष लगभग 45-50 प्रतिशत भूक्षेत्र
पर हम मनुष्यों का कब्जा है जिस पर हमने लगभग 17,000 साल पहले समुदायों के रूप में रहना शुरू
किया। (इसके
पहले तक मनुष्य जंगलों में जानवरों और पेड़-पौधों के साथ शिकारी-संग्रहकर्ता के रूप में रहते थे)। इतनी सहस्राब्दियों
में, खासकर पिछली कुछ सदियों में,
हमने नगर और शहरी इलाके बसाए और ‘जंगली’ भूमि को ‘सभ्य’ भूमि में तबदील कर दिया। (ध्यान दें कि आज भी
आदिवासी और जनजातीय समुदाय जानवरों और पेड़-पौधों के साथ जंगलो में रहते हैं)। भौगोलिक-प्राणीविद तर्क देते
हैं कि वाकई में हम इंसान ही हैं जिन्होंने अपनी हदें पार कीं और धरती माता के
नज़ारे को बदल दिया।
प्रसंगवश,
ऐसा केवल ज़मीन पर ही नहीं बल्कि पानी में भी देखने को मिलता
है। बीबीसी न्यूज़ ने बताया है कि कैसे इस्तांबुल में तालाबंदी के दौरान
बोस्फोरस समुद्री मार्ग के यातायात में आई कमी के चलते शहर के तटों के करीब अधिक
डॉल्फिन देखे गए। इसी तरह, तालाबंदी के दौरान
औद्योगिक और मानव अपशिष्ट में हुई कमी के चलते जब पिछले दिनों गंगा का प्रदूषण कम
हुआ था तब गंगा में गंगा डॉल्फिन और घड़ियाल (मछली खाने वाले मगरमच्छ) बड़ी संख्या में देखे
गए थे। वर्ल्ड
वाइल्डलाइफ फंड के मार्को लैम्बर्टिनी ने चिंता जताई है कि पहाड़ी गोरिल्ला विशेष
रूप से असुरक्षित हैं। उनका 98 प्रतिशत डीएनए मनुष्यों से मेल खाता है,
इसलिए उनमें भी कोविड-19 संक्रमण हो सकता है। अन्य कपियों की तरह
पहाड़ी गोरिल्ला भी अपने प्राकृतवास छिन जाने, अवैध
शिकार और बीमारियों के कारण विलुप्ति की दहलीज़ पर है – मध्य अफ्रीका के पहाड़ों में केवल 900 पहाड़ी गोरिल्ला बचे
हैं।
पांच
कारण
इस
स्थिति के एक बेहतरीन विश्लेषण, खासकर अमेरिका के
विश्लेषण, में बेटेनी ब्रुकशायर
ने sciencenews.org के अपने नियमित
कॉलम में 5 जून
को एक लेख लिखा, जिसका शीर्षक है कोविड-19 महामारी के दौरान
वन्यजीव अधिक दिखाई देने के पांच कारण। ये पांच कारण हैं: (1) रेस्टॉरेंट बंद हैं
और कचरे के ढेर अन्यत्र स्थानांतरित हो गए हैं, इस
मानव जूठन के कारण चूहों और कीटों ने भोजन की तलाश में नई जगहों की तरफ कूच किया;
(2) चूंकि
बहुत सारे मनुष्य और उनके पालतू जानवर आसपास नहीं हैं,
तो हिंसक जानवर और हम जैसे सर्वोच्च शिकारियों का डर नहीं;
जिससे शहरी क्षेत्रों में जंगली जानवरों की संख्या बढ़ी;
(3) आम
पक्षी हमसे नहीं डरते। हम उन्हें चहचहाते और गाते हुए देखते हैं। लॉकडाउन के दौरान
माहौल खुशनुमा और शांत था और तब ऐसा देखा गया कि पक्षियों ने अपने गीतों और उनको
गाने का समय बदला था। (दी
साउंड्स ऑफ दी सिटी नामक चल रहा अध्ययन इस विचार का समर्थन
करता है);
(4) ऋतुएं
भी भूमिका निभाती हैं। अमेरिका में, बसंत
मार्च से मई के बीच होता है, और तब पक्षी प्रवास
करना शुरू कर देते हैं, सांप हाइबरनेशन (शीतनिद्रा) से बाहर आ जाते हैं
और भोजन और साथी की तलाश करते हैं। (भारत में भी, खेती
का मौसम इसी समय के आसपास शुरू होता है) और अंत में (5) हम खुद भी अन्य समय की तुलना में लॉकडाउन
के समय इन सभी विशेषताओं पर अधिक ध्यान दे रहे हैं, और
इन सभी को सोशल मीडिया के माध्यम से साझा भी कर रहे हैं।
वैश्विक
मानव बंदी प्रयोग
हाल ही में, अमांडा बेट्स और उनके साथियों ने बायोलॉजिकल कंज़र्वेशन पत्रिका के 10 जून के अंक में प्रकाशित अपने पेपर (कोविड-19 महामारी और तालाबंदी: जैव संरक्षण की पड़ताल के लिए वैश्विक मानव बंदी का एक प्रयोग) में एक रोमांचक और उल्लेखनीय सुझाव दिया है। यह प्रयोग वन्य क्षेत्रों और संरक्षित क्षेत्रों समेत विभिन्न प्राकृतिक तंत्र के क्षेत्रों में मानव उपस्थिति और गतिविधियों के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों की पड़ताल करने, और जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र का नियमन करने वाली प्रक्रियाओं का अध्ययन करने का एक अनूठा अवसर है। लेखक पारिस्थितिकविदों, पर्यावरण वैज्ञानिकों और संसाधन प्रबंधकों का आव्हान करती हैं कि वे विविध डैटा स्रोत और व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर एक व्यापक वैश्विक समझ बनाने के प्रयास में योगदान दें। वे तर्क देती हैं कि विविध डैटा का संगठित महत्व, व्यक्तिगत डैटा के सीमित महत्व से अधिक होगा और नया दृष्टिकोण देगा। हम इस ‘मानव बंदी प्रयोग’ को प्राकृतिक तंत्र पर मानव प्रभावों का पता लगाने और मौजूदा तंत्र की ताकत और कमज़ोरियों का मूल्यांकन करने के लिए ‘तनाव परीक्षण’ के रूप में देख सकते हैं। ऐसा करने से मौजूदा संरक्षण रणनीतियों के महत्व के प्रमाण मिलेंगे, और विश्व की जैव विविधता संरक्षण को और बेहतर बनाने के नेटवर्क, वेधशालाएं और नीतियां बनेंगी। मेरा सुझाव है कि भारत को भी इस प्रयोग में शामिल होना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/qyo5pe/article31877605.ece/ALTERNATES/FREE_960/21TH-SCIGANGES-DOLPHIN
पिछले
कुछ दिनों में कई समाचार पत्रों में राजस्थान-गुजरात
के रेगिस्तानी इलाकों से आए टिड्डी दल के बारे में कई विश्लेषणात्मक लेख प्रकाशित
हुए हैं, जिनके
उड़ने का रुख अब मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ ओर है। ये टिड्डी दल फसलों को भारी नुकसान
पहुंचाते हैं। लेखों में यह भी बताया गया है कि कैसे सदियों से भारत (और निश्चित ही पाकिस्तान भी) इस
प्रकोप से निपटता आ रहा है। (वास्तव में तो
महाभारत काल से ही: याद कीजिए, पांडव सेना को
चुनौती देते हुए कर्ण कहते हैं, ‘हम आप पर शलभासन – टिड्डियों
के झुंड – की तरह टूट पड़ेंगे’)।
ब्रिटिश
सरकार ने 1900 के दशक की शुरुआत में ही भारत के जोधपुर और
कराची में टिड्डी चेतावनी संगठन (LWO) की स्थापना की थी। आज़ादी के बाद केंद्रीय
कृषि मंत्रालय ने इन संगठनों को बनाए रखा और इनमें सुधार किया। फरीदाबाद स्थित
टिड्डी चेतावनी संगठन प्रशासनिक मामलों और जोधपुर स्थित टिड्डी चेतावनी संगठन इसके
तकनीकी पहलुओं को संभालते हैं और साथ में कई और स्थानीय शाखाएं भी हैं। वे खेतों
में हवाई स्प्रे (आजकल ड्रोन से) और
मैदानी कार्यकर्ताओं की मदद से कीटनाशकों का छिड़काव करते हैं।
टिड्डी
नियंत्रण
कृषि
मंत्रालय की vikaspedia.in
नाम से एक वेबसाइट है जिस पर टिड्डी नियंत्रण और पौधों की सुरक्षा और उनसे निपटने
के वर्तमान तरीकों के बारे में विस्तारपूर्वक बताया गया है। और मंत्रालय के
वनस्पति संरक्षण,
क्वारेंटाइन एवं भंडारण निदेशालय की वेबसाइट (ppqs.gov.in) पर रेगिस्तानी टिड्डों के आक्रमण, प्रकोप और उनके
फैलाव के नियंत्रण की आकस्मिक योजना के बारे में बताया गया है।
टिड्डों
की समस्या सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि अफ्रीका के अधिकांश हिस्सों, पश्चिमी एशिया, ईरान और ऑस्ट्रेलिया
के कुछ हिस्सों में भी है। रोम स्थित संयुक्त राष्ट्र का खाद्य एवं कृषि संगठन इस
प्रकोप का मुकाबला करने के लिए राष्ट्रों को सलाह देता है और वित्तीय रूप से मदद
करता है। खाद्य एवं कृषि संगठन का लोकस्ट एनवायरनमेंटल बुकलेट नामक
सूचनाप्रद दस्तावेज टिड्डी दल की स्थिति और उससे निपटने के तरीकों के बारे में
नवीनतम जानकारी देता है। टिड्डी दल और उसके प्रबंधन की उत्कृष्ट नवीनतम जानकारी
हैदराबाद स्थित अंतर्राष्ट्रीय अर्ध-शुष्क ऊष्णकटिबंधीय
फसल अनुसंधान संस्थान (ICRISAT) के विकास केंद्र (IDC) द्वारा 29 मई
को प्रकाशित की गई है (नेट पर उपलब्ध)।
आम
तौर पर टिड्डी दल से निपटने का तरीका ‘झुंड को ढूंढ-ढूंढकर मारो’ है, जिसका उपयोग दुनिया
के तमाम देश करते हैं। निश्चित तौर पर हमें इस प्रकोप से लड़ने और उससे जीतने के
लिए बेहतर और नए तरीकों की ज़रूरत है।
टिड्डियां
झुंड कैसे बनाती हैं
यहां
महत्वपूर्ण वैज्ञानिक प्रश्न उठता है कि टिड्डियां क्यों और कैसे हज़ारों की संख्या
में एकत्रित होकर झुंड बनाती हैं। काफी समय से कीट विज्ञानी यह जानते हैं कि
टिड्डी स्वभाव से एकाकी प्रवृत्ति की होती है, और आपस में एक-दूसरे
के साथ घुलती-मिलती नहीं हैं। फिर भी जब फसल कटने का
मौसम आता है तो ये एकाकी स्वभाव की टिड्डियां आपस में एकजुट होकर पौधों पर हमला
करने के लिए झुंड रूपी सेना बना लेती हैं। इसका कारण क्या है? वह क्या जैविक
क्रियाविधि है जिसके कारण उनमें यह सामाजिक परिवर्तन आता है? यदि हम इस
क्रियाविधि को जान पाएं तो उनके उपद्रव को रोकने के नए तरीके भी संभव हो सकते हैं।
कैम्ब्रिज
युनिवर्सिटी के स्टीफन रोजर्स, ये दल क्यों और कैसे बनते हैं, इसके जाने-माने विश्वस्तरीय विशेषज्ञ हैं। साल 2003 में
प्रकाशित अपने एक पेपर में वे बताते हैं कि जब एकाकी टिड्डी भोजन की तलाश में
संयोगवश एक-दूसरे के पास आ जाती हैं और संयोगवश एक-दूसरे को छू लेती हैं तो यह स्पर्श-उद्दीपन
(यहां तक कि पिछले टांग के छोटे-से हिस्से में ज़रा-सा स्पर्श भी) उनके व्यवहार को बदल देता है। यह यांत्रिक उद्दीपन टिड्डी
के शरीर की कुछ तंत्रिकाओं को प्रभावित करता है जिससे उनका व्यवहार बदल जाता है और
वे एक साथ आना शुरू कर देती हैं। और यदि और अधिक टिड्डियां पास आती हैं तो उनका दल
बनना शुरू हो जाता है। और छोटा-सा कीट आकार में बड़ा
हो जाता है, और
उसका रंग-रूप बदल जाता है। अगले पेपर में वे बताते
हैं कि टिड्डी के केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को नियंत्रित करने वाले कुछ रसायनों में
परिवर्तन होता है;
इनमें से सबसे महत्वपूर्ण रसायन है सिरोटोनिन। सिरोटोनिन
मिज़ाज (मूड) और सामाजिक व्यवहार
को नियंत्रित करता है।
इन
सभी बातों को एक साथ रखते हुए रोजर्स और उनके साथियों ने साल 2009 में साइंस पत्रिका में एक पेपर प्रकाशित किया था
जिसमें वे बताते हैं कि वास्तव में सिरोटोनिन दल के गठन के लिए ज़िम्मेदार होता है।
इस अध्ययन में उन्होंने प्रयोगशाला में एक प्रयोग किया जिसमें उन्होंने एक पात्र
में एक-एक करके टिड्डियों को रखा। जब टिड्डियों की
संख्या बढ़ने लगी तो उनके समीप आने ने यांत्रिक (स्पर्श) और न्यूरोकेमिकल (सिरोटोनिन) उद्दीपन को प्रेरित किया, और कुछ ही घंटो में
झुंड बन गया! और जब शोधकर्ताओं ने सिरोटोनिन के उत्पादन
को बाधित करने वाले पदार्थों (जैसे 5HT या
AMTP अणुओं) को जोड़ना शुरू किया तो उनके जमावड़े में काफी कमी आई।
झुंड
बनने से रोकना
अब
हमारे पास इस टिड्डी दल को बनने से रोकने का एक संभावित तरीका है! तो क्या हम जोधपुर और अन्य स्थानों में स्थित टिड्डी
चेतावनी संगठन के साथ मिलकर,
दल बनना शुरू होने पर सिरोटोनिन अवरोधक रसायनों का छिड़काव
कर सकते हैं? रोजर्स
साइंस पत्रिका में प्रकाशित अपने पेपर में पहले ही यह सुझाव दे चुके हैं।
क्या यह एक मुमकिन विचार है या यह एक अव्यावहारिक विचार है? इस बारे में
विशेषज्ञ हमें बताएं। इसे आज़मा कर तो देखना चाहिए।
और अंत में टिड्डी दल पर छिड़काव किए जाने वाले कीटनाशकों (खासकर मेलेथियोन) के दुष्प्रभावों को जांचने की ज़रूरत है हालांकि कई अध्ययन बताते हैं कि यह बहुत हानिकारक नहीं है। फिर भी हमें प्राकृतिक और पशु उत्पादों का उपयोग कर जैविक कीटनाशकों पर काम करने की ज़रूरत है जो पर्यावरण, पशु और मानव स्वास्थ्य के अनुकूल हों।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/jlu1if/article31768086.ece/ALTERNATES/FREE_960/07TH-SCILOCUST-LONE
कार्बन डाइऑक्साइड
के बढ़ते स्तर से बचाव का सबसे अच्छा साधन ऊष्णकटिबंधीय वन हैं। पेड़ वृद्धि के लिए वातावरण
से कार्बन डाईऑक्साइड सोखते हैं। एक अनुमान के मुताबिक ऊष्णकटिबंध के जंगलों में इतना
कार्बन संचित है जितना इंसानों ने पिछले तीस वर्षों में कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस जलाकर वायुमंडल में उंडेला
है। लेकिन साइंस पत्रिका में वैज्ञानिकों ने यह चिंता व्यक्त की है कि बढ़ते तापमान
और सूखे के कारण एक हद के बाद ऊष्णकटिबंधीय वनों की कार्बन-सिंक भूमिका कमज़ोर हो जाएगी
और अंतत: वे बढ़ते वैश्विक तापमान में योगदान देंगे।
ऊष्णकटिबंधीय वन वायुमंडल
से कितना कार्बन सोखेंगे यह कार्बन डाईऑक्साइड बढ़ने से पेड़ों की वृद्धि में तेज़ी और
बढ़ते तापमान व सूखे के कारण पेड़ों के तनाव व मृत्यु के संतुलन पर निर्भर करता है। इसी
संतुलन को आंकने के लिए लीड्स युनिवर्सिटी के ओलिवर फिलिप्स की अगुवाई में 200 से अधिक शोधकर्ताओं ने 24 देशों के 813 वनों के लगभग 5 लाख से अधिक पेड़ों को मापा। प्रत्येक पेड़ की ऊंचाई, मोटाई और प्रजाति के आधार पर गणना की कि अलग-अलग वन अभी कितना
कार्बन संचित किए हुए हैं। भविष्य में कार्बन संचय कैसे बदल सकता है, इसका अनुमान लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने सबसे गर्म
वन को भविष्य के वन माना और विभिन्न जलवायु के वनों को विभिन्न काल के वन मानकर उनके
कार्बन संचय की तुलना की। तुलना के लिए उनके पास 590 दीर्घकालीन निरीक्षण प्लॉट्स के आंकड़े भी थे। वे यह देखना चाहते
थे कि तापमान और बारिश की मात्रा का कार्बन संचय क्षमता पर कैसा प्रभाव होता है।
पूर्व में हुए अध्ययन
बताते हैं कि रात का न्यूनतम तापमान वनों की दीर्घकालीन कार्बन संचय क्षमता पर सबसे
अधिक प्रभाव डालता है क्योंकि गर्म रातें पेड़ों की श्वसन दर बढ़ाती हैं। इसके चलते पेड़
अधिक कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं। लेकिन इस अध्ययन में पाया गया कि दिन का अधिकतम
तापमान पेड़ों की कार्बन संचय क्षमता को सबसे अधिक प्रभावित करता है क्योंकि शायद गर्म
दिनों में पत्तियां पानी के उत्सर्जन को कम रखने के लिए अपने छिद्रों को बंद रखती हैं,
जिसके चलते कार्बन डाईऑक्साइड ग्रहण करने की प्रक्रिया
भी धीमी पड़ जाती है।
अध्ययन में पाया गया
कि कुल मिलाकर वतर्मान में तो वन जितना कार्बन उत्सर्जित करते हैं उससे अधिक सोख रहे
हैं। लेकिन जब साल के सबसे गर्म महीने में दिन का औसत अधिकतम तापमान 32.2 डिग्री सेल्सियस होगा, वनों की दीर्घकालीन कार्बन संचय क्षमता तेज़ी से कम होगी और उनके
द्वारा छोड़े गए कार्बन की मात्रा बढ़ जाएगी। सूखे वनों में कार्बन संचय की क्षमता और
भी कम होगी क्योंकि पानी की कमी पेड़ों को अधिक तनाव और मृत्यु की ओर धकेलेगी।
टीम की गणना बताती
है कि विश्व के अधिकतम तापमान में प्रत्येक 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने पर ऊष्णकटिबंधीय वनों की कार्बन
भंडारण क्षमता में 7 अरब टन की कमी आती
है। यदि वैश्विक तापमान, पूर्व-औद्योगिक स्तर
से 2 डिग्री सेल्सियस अधिक हो
जाता है तो 71 प्रतिशत ऊष्णकटिबंधीय
वन इस हद को पार कर जाएंगे, जिससे पेड़ों द्वारा
कार्बन का उत्सर्जन चार गुना बढ़ जाएगा।
शोधकर्ता इन नतीजों को चेतावनी के रूप में देख रहे हैं। वैश्विक तापमान लगभग 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। जल्दी कुछ करना होगा, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_0522NID_Researchers_Leaves_online.jpg?itok=d0VNJzPi
कोरोनावायरस को थामने
के लिए विश्व भर के लगभग 4 अरब लोग तालाबंदी
में हैं। इस विशाल संख्या को देखते हुए ग्रीनहाउस गैसों में कमी नगण्य जान पड़ रही है।
यदि यह माना जाए कि सकल घरेलू उत्पाद और कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन के बीच समानुपाती
सम्बंध है तो वर्तमान अति-भयानक आर्थिक गिरावट के रूबरू कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन
में जिस कमी का अनुमान लगाया जा रहा है वह कुछ नहीं है।
भविष्यवेत्ताओं अनुसार
वर्ष 2020 में उत्सर्जन में 5 प्रतिशत से अधिक गिरावट की उम्मीद है लेकिन यह
लक्ष्य से काफी कम है। वैज्ञानिकों का मत है कि आने वाले दशक में पृथ्वी के तापमान
में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस
तक सीमित रखने के लिए यह दर कम से कम 7.6 प्रतिशत वार्षिक की होनी चाहिए। तो यह सवाल स्वाभाविक है कि इतिहास की सबसे भयानक
आर्थिक गिरावट के दौरान भी भविष्यवेत्ता कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर में काफी गिरावट
की भविष्यवाणी क्यों नहीं कर रहे हैं?
इसका उत्तर उत्सर्जन
के पूर्वानुमान लगाने के तरीकों, हमारी ऊर्जा प्रणाली
की संरचना और इस बात में निहित है कि कैसे यह महामारी अन्य मंदियों से अलग ढंग की आर्थिक
गिरावट पैदा कर रही है।
कार्बन ब्राीफ नामक
एक शोध समूह के अनुसार चीन में शुरुआती कामबंदी के 4 हफ्तों के दौरान कार्बन उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की गिरावट आई थी लेकिन दोबारा से सामान्य
जीवन शुरू होने पर यह उत्सर्जन फिर से शुरू हो गया। इसी तरह रोडियम नामक संस्था के
मुताबिक अमेरिका में भी 15 मार्च से 14 अप्रैल 2020 के बीच पिछले वर्ष उसी अवधि की तुलना में उत्सर्जन में 15-20 प्रतिशत की कमी आई थी।
फिर भी वार्षिक अनुमानों
में किसी बड़ी कटौती की उम्मीद व्यक्त नहीं की जा रही है। अधिकांश भविष्यवेत्ताओं का
मानना है कि इस वर्ष के उत्तरार्ध में अर्थव्यवस्था में पुन: उछाल आएगा और उत्सर्जन
बढ़ सकता है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश (आईएमएफ) ने वैश्विक अर्थव्यवस्था में 3 प्रतिशत और अमेरिका के जीडीपी में 6 प्रतिशत की गिरावट की आशंका व्यक्त की है लेकिन
उसके अनुसार भी 2020 की दूसरी छमाही में
सुधार उम्मीद है।
हो सकता है कि यह
आशावादी हो। अनुमान है कि दुनिया के कुछ हिस्सों में तालाबंदी 2020 में पूरे साल जारी रहेगी लेकिन कार्बन डाईऑक्साइड
उत्सर्जन में मार्च-अप्रैल जैसी गिरावट शायद जारी न रहे।
ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट
के अनुसार 2010 से 2018 के बीच वैश्विक उत्सर्जन में औसत 0.9 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि हुई। अमेरिका में,
2005 से अब तक, उत्सर्जन में 0.9 प्रतिशत वार्षिक की कमी हुई है और 2019 में तो 2.1 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई। ऐसे में उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की गिरावट के परिदृश्य में भी तीन-चौथाई
वैश्विक कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन तो एक साल की तालाबंदी में भी जारी रहेगा।
रोडियम समूह के जलवायु
और ऊर्जा अनुसंधान के प्रमुख ट्रेवर हाउसर इस तालाबंदी और आर्थिक मंदी के बीच अंतर
स्पष्ट करते हैं। आम तौर पर आर्थिक मंदी में कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में गिरावट मैन्यूफेक्चरिंग (विनिर्माण) और शिपिंग में
गिरावट के कारण होती है। लेकिन वर्तमान में इसका विपरीत हुआ है। शिपिंग गतिविधियों
में तो कोई कमी नहीं आई और विनिर्माण कार्य काफी धीमा होने में वक्त लगा। तालाबंदी
के दौरान भी चीन में कई स्टील और कोयला संयंत्र कम स्तर पर जारी रहे।
उत्सर्जन में कमी
विशेष तौर पर भूतल परिवहन में रिकॉर्ड गिरावट के कारण आ रही है। यू.के. के यातायात
में 54 प्रतिशत, अमेरिका में 36 प्रतिशत और चीन में 19 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है। इसके साथ ही चीन में कोविड-19 के प्रथम 500 मामले सामने आने के बाद हवाई यात्रा में 40 प्रतिशत की गिरावट आई जबकि युरोप में 10 में से 9 उड़ानों को रोक दिया गया।
इसके परिणामस्वरूप
जेट र्इंधन की मांग में 65 प्रतिशत की गिरावट
आई। डिपार्टमेंट ऑफ एनर्जी स्टेटिस्टिक्स के अनुसार अमेरिका में 4 हफ़्तों में गैसोलीन की मांग में 41 प्रतिशत की गिरावट हुई। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी
के अनुसार अप्रैल माह में प्रतिदिन गैसोलीन की मांग में 1.1 करोड़ बैरल और मई में 1 करोड़ बैरल की कमी आएगी। फिर भी वैश्विक अर्थव्यवस्था काफी अधिक
तेल का उपभोग कर रही है।
एजेंसी के अनुसार
पूरे वि·ा में इस वर्ष की
दूसरी तिमाही में 7.6 करोड़ बैरल प्रतिदिन
का उपयोग किया जाएगा। गैसोलीन और जेट र्इंधन की मांग में कमी के बाद भी अमेरिका की
तेल कंपनियों से पिछले 4 हफ्तों में 55 लाख बैरल तेल बाज़ार पहुंचाया गया। डीज़ल की मांग
में भी कमी आई है लेकिन शिपिंग और मालवाहक जहाज़ों में उपयोग जारी रहने से केवल 7 प्रतिशत की गिरावट ही दर्ज की गई है। पेट्रोकेमिकल
क्षेत्र में भी प्रभाव एकरूप नहीं हैं। ऑटो विनिर्माण में उपयोग होने वाले प्लास्टिक
में तो कमी आई है लेकिन खाद्य सामग्री की पैकेजिंग में इसका उपयोग जारी है। कुल मिलाकर
एजेंसी का मानना है कि ईथेन और नेफ्था जैसे प्लास्टिक फीडस्टॉक की मांग साल के अंत
तक कम हो जाएगी लेकिन गैसोलीन और डीज़ल के समान नहीं। .
ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट
के अनुसार 2019 में उत्सर्जन 0.6 प्रतिशत बढ़कर कुल 36.8 गीगाटन हो गया है। कुल उत्सर्जन में परिवहन का हिस्सा लगभग
20 प्रतिशत था, जिसमें से आधा सड़क परिवहन का है। वैसे यह 20 प्रतिशत काफी बड़ी संख्या है लेकिन बाकी के 80 प्रतिशत में अभी भी कोई भारी कमी नहीं आई है। इससे
पता चलता है कि तेल हमारी अर्थ व्यवस्था में किस कदर गूंथा हुआ है। सारी कारें खड़ी
हो जाएं, फिर भी तेल की खपत होती रहेगी।
इस महामारी में बड़ी
कमी मात्र परिवहन के क्षेत्र में आई है। कोयले के उपयोग में कमी तो आई है लेकिन दुनिया
भर में बिजली उत्पादन इसी पर निर्भर करता है। वैश्विक कार्बन डाईऑक्साइड का 40 प्रतिशत उत्सर्जन कोयले से होता है जो किसी अन्य
र्इंधन की तुलना में सबसे अधिक है। भारत में नेशनल ग्रिड संचालन के दैनिक आंकड़ों से
पता चलता है कि अप्रैल में कोयला-आधारित बिजली उत्पादन प्रतिदिन 1.9 गिगावॉट-घंटे था जबकि 24 मार्च (जिस दिन लॉकडाउन शुरू हुआ) के दिन 2.3 गिगावॉट-घंटे था। तेल की तरह यह भी आर्थिक उत्पादन
में केंद्रीय भूमिका निभाता है।
ब्रोकथ्रू इंस्टिट्यूट में जलवायु और उर्जा निदेशक ज़ेके हॉसफादर के अनुसार यह महामारी विश्व के विकासशील हिस्सों के लिए स्वच्छ उर्जा को सस्ती बनाने की आवश्यकता को रेखांकित करती है। अर्थव्यवस्था को कार्बन-मुक्त करने के लिए टेक्नॉलॉजी की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.assettype.com/bloombergquint/2019-12/465baac6-fc1d-4c49-a46b-0505d08499f1/1.jpg
आज
जलवायु परिवर्तन और बढ़ते वैश्विक तापमान की समस्या और इसके कारणों से हम वाकिफ हैं
और इसे नियंत्रित करने के प्रयास में लगे हैं। अब तक इस समस्या के कारण को समझने
का श्रेय जॉन टिंडल को दिया जाता है। लेकिन युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के
विज्ञान इतिहासकार जॉन पर्लिन का कहना है कि जलवायु परिवर्तन की हमारी समझ की नींव
रखने का श्रेय युनिस फुट को जाता है। फुट ने कार्बन डाईऑक्साइड के ऊष्मीय प्रभाव
का अध्ययन किया था जो वर्ष 1856 में सूर्य की
किरणों की ऊष्मा को प्रभावित करने वाली परिस्थितियां शीर्षक से प्रकाशित हुआ
था। जॉन टिंडल का कार्य तीन वर्ष बाद प्रकाशित हुआ था।
पर्लिन
बताते हैं कि 1856 में न्यूयॉर्क में अमेरिकन एसोसिएशन फॉर
एडवांसमेंट ऑफ साइन्स की 10वीं वार्षिक बैठक
में फुट का पेपर प्रस्तुत किया गया था। तब महिलाओं को अपना काम प्रस्तुत करने की
अनुमति नहीं थी इसलिए उनके पेपर को एक अन्य वैज्ञानिक ने प्रस्तुत किया था। इसे
बैठक की कार्यावाही में नहीं बल्कि अमेरिकन जर्नल ऑफ साइंस एंड आर्ट्स में
एक लघु लेख के रूप में प्रकाशित किया गया था। अपने इस अध्ययन में उन्होंने नम और
शुष्क वायु, और
कार्बन डाईऑक्साइड,
हाइड्रोजन और ऑक्सीजन गैसों पर सूर्य के प्रकाश का प्रभाव
देखा था। अध्ययन में फुट ने पाया कि सूर्य के प्रकाश का सर्वाधिक प्रभाव कार्बोनिक
एसिड गैस पर होता है। उनके अनुसार वायुमंडल में मौजूद इस गैस के कारण हमारी पृथ्वी
के तापमान में वृद्धि हुई होगी।
इस
बारे में 13 सितंबर के साइंटिफिक अमेरिकन के अंक
में वैज्ञानिक महिलाएं – संघनित
गैसों के साथ प्रयोग शीर्षक से एक लेख भी प्रकाशित हुआ था।
इसके एक साल बाद अगस्त 1857 में उन्होंने एक
अन्य अध्ययन प्रकाशित किया जिसमें उन्होंने वायु पर बदलते दाब, ताप और नमी के
प्रभावों का अध्ययन किया और इसे वायुमंडलीय दाब और तापमान में होने वाले
परिवर्तनों से जोड़ा।
उन्होंने
कई आविष्कारों के पेटेंट के लिए आवेदन किए। अमेरिकी महिलाओं के मताधिकार और बंधुआ
मज़दूरी के खिलाफ आंदोलन में भी उनकी सक्रिय भागीदारी रही।
फुट के काम के बारे में पता चलने के बाद एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि क्या लंदन के रॉयल इंस्टीट्यूशन में काम कर रहे टिंडल अपने शोध प्रकाशन के समय फुट के काम से वाकिफ थे? पर्लिन का मत है कि टिंडल वाकिफ थे क्योंकि फुट के शोधपत्र की रिपोर्ट और सारांश कई युरोपीय पत्रिकाओं में पुन: प्रकाशित किए गए थे। रॉयल इंस्टीट्यूशन में अमेरिकन जर्नल ऑफ साइंस एंड आर्ट्स पत्रिका पहुंचती थी और नवंबर 1856 के जिस अंक में फुट का लेख प्रकाशित हुआ था, उसी में वर्णांधता पर टिंडल का भी एक लेख छपा था। दी फिलॉसॉफिकल मैगज़ीन में भी फुट का लेख प्रकाशित हुआ था, जिसके संपादक टिंडल थे। इसके अलावा, फुट के लेख का सार जर्मन भाषा में साल की महत्वपूर्ण खोज के संकलन के रूप में प्रकाशित हुआ था। टिंडल जर्मन भाषा के जानकार थे। पर्लिन का कहना है कि फुट को उनके काम का श्रेय ना मिलने की पहली वजह तो यह हो सकती है कि वे ये प्रयोग शौकिया तौर पर करती थीं; दूसरा, उस वक्त तक अंग्रेज़ अपने को अमरीकियों से श्रेष्ठ मानते थे; और तीसरा, कि वह एक महिला थीं। टिंडल खुद महिलाओं के मताधिकार के विरोधी थे और महिलाओं का बौद्धिक स्तर पुरुषों से कम मानते थे। बहरहाल, पर्लिन का मत है कि फुट को जलवायु परिवर्तन की समझ की जननी के रूप में जाना जाए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://rosslandtelegraph.com/sites/default/files/newsimages/rosslandtelegraphcom/mar/eunice_newton_foote_climatescience.png
पिछले
हाल के समय में हिमालय क्षेत्र में हाईवे निर्माण व हाईवे को चौड़ा करने में हज़ारों
करोड़ रुपए का निवेश हुआ है, पर क्रियान्वयन में
कमियों, उचित नियोजन के अभाव
व आसपास के गांववासियों से पर्याप्त विमर्श न करने के कारण खुशहाली के स्थान पर
गंभीर समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं। अत: बहुत ज़रूरी है कि इन गलतियों को सुधारने के लिए असरदार
कार्रवाई की जाए ताकि विकास-मार्गों को विनाश मार्ग बनने से रोका जा सके।
इस
संदर्भ में दो सबसे चर्चित परियोजनाएं हैं उत्तराखंड की चार धाम परियोजना व हिमाचल
प्रदेश की परवानू-सोलन
हाईवे परियोजना। दोनों परियोजनाओं को मिला कर देखा जाए तो हाल के समय में हिमालय
के पर्यावरणीय दृष्टि से अति संवेदनशील क्षेत्र में लगभग 50,000 पेड़ कट चुके हैं। एक बड़ा पेड़ कटता है तो
उससे आसपास के छोटे पेड़ों को भी क्षति पहुंचती है।
इन
दोनों परियोजनाओं के कारण अनेक नए भूस्खलन क्षेत्र उभरे हैं व पुराने भूस्खलन
क्षेत्र अधिक सक्रिय हो गए हैं। इस कारण यात्रियों को अधिक खतरे व परेशानियां
झेलनी पड़ रही हैं जबकि गांववासियों के लिए अधिक स्थायी संकट उत्पन्न हो गया है।
कुछ गांवों व बस्तियों का तो अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है। परवानू-सोलन हाईवे के
किनारे बसे गांव मंगोती नंदे का थाड़ा गांव के लोगों ने बताया कि हाईवे के कार्य
में पहाड़ों को जिस तरह अस्त-व्यस्त किया है उससे उनका गांव ही संकटग्रस्त हो गया है।
सरकार को चाहिए कि उन्हें कहीं और सुरक्षित व अनुकूल स्थान पर बसा दे।
इसी
हाईवे पर सनवारा, हार्डिग कालोनी व
कुमारहट्टी के पास के कुछ स्थानों की स्थिति भी चिंताजनक हुई है। कुछ किसानों ने
बताया कि हाईवे चौड़ा करने के पहले उनसे जो भूमि ली गई उसका तो मुआवज़ा तो मिल गया
था पर हाईवे कार्य के दौरान जो भयंकर क्षति हुई उसका मुआवज़ा नहीं के बराबर मिला।
अनेक छोटे दुकानदारों को हटा दिया गया है।
इसी
तरह चार धाम परियोजना में भी अनेक किसानों व दुकानदारों की बहुत क्षति हुई है व कई
अन्य इससे आशंकित हैं। इस परियोजना से जुड़ा सबसे बड़ा संकट तो यह है कि इससे किसी
बड़ी आपदा की संभावना बढ़ रही है। इस परियोजना के क्रियान्वयन के दौरान बहुत बड़ी
मात्रा में मलबा नदियों में डाला गया है व इस कारण किसी भीषण बाढ़ की संभावना बढ़ गई
है।
इन
दोनों परियोजनाओं में अनेक सावधानियों की उपेक्षा की गई है। कमज़ोर संरचना के
संवेदनशील पर्वतों में भारी मशीनों से बहुत अनावश्यक छेड़छाड़ की गई। स्थानीय लोग
बताते हैं कि पहाड़ों को ध्वस्त किए बिना ट्रैफिक को सुधारना संभव था,
पर इस बात को अनसुनी करके पहाड़ों को भारी मशीनों से गलत ढंग
से काटा गया। स्थानीय लोगों से विमर्श नहीं हुआ। भू-वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों की सलाह की
उपेक्षा हुई। सड़क को ज़रूरत से अधिक चौड़ी करने की ज़िद से भी काफी क्षति हुई जिससे
बचा जा सकता था। लोगों की आजीविका, खेतों,
वृक्षों की किसी भी क्षति को न्यूनतम रखना है,
इस दृष्टि से योजना बनाई ही नहीं गई थी। मज़दूरों की भलाई व
सुरक्षा पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। योजनाएं तैयार करने में पर्यटन,
तीर्थ व सुरक्षा की दुहाई दी गई,
पर भूस्खलनों व खतरों की संभावना बढ़ने से इन तीनों
उद्देश्यों की भी क्षति ही हुई है।
अत: समय आ गया है कि अब तक हुई गंभीर गलतियों को हर स्तर पर सुधारने के प्रयास शीघ्र से शीघ्र किए जाएं व हिमालय की अन्य सभी हाईवे परियोजनाओं में भी इन सावधानियों को ध्यान में रखा जाए।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.manifestias.com/wp-content/uploads/2019/08/chardham-yatra-road-project.jpg