हाल ही में हुआ अध्ययन बताता है कि जहाज़ों के ईंधन से होने वाले वायु प्रदूषण को कम करने के उद्देश्य से शिपिंग नियम में किए गए बदलावों के कारण जल प्रदूषण बढ़ा है। दरअसल नए नियमों के बाद अधिकांश जहाज़ मालिकों ने जहाज़ में स्क्रबिंग उपकरण लगा लिए हैं जो प्रदूषकों को पानी में रोक लेते हैं। फिर यह पानी समुद्र में फेंक दिया जाता है, जो प्रदूषण का कारण बन रहा है।
अध्ययन के अनुसार स्क्रबर से लैस लगभग 4300 जहाज़ हर साल कम से कम 10 गीगाटन अपशिष्ट
जल समुद्र में,
अक्सर बंदरगाहों और कोरल चट्टानों के पास छोड़ रहे हैं।
लेकिन शिपिंग उद्योग का कहना है कि इस पानी में प्रदूषकों का स्तर राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय सीमा से अधिक नहीं हैं, और इससे नुकसान के भी
कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। लेकिन कुछ शोधकर्ता अपशिष्ट जल इस तरह बहाए जाने से
चिंतित हैं क्योंकि इसमें तांबा जैसी विषैली धातुएं और पॉलीसाइक्लिक एरोमेटिक
हाइड्रोकार्बन जैसे कैंसरजनक यौगिक होते हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक इस तरह की
प्रणालियों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।
दरअसल, अंतर्राष्ट्रीय सामुद्रिक संगठन (आईएमओ) ने वर्ष 2020 में अम्लीय वर्षा और स्मॉग के लिए ज़िम्मेदार प्रदूषकों के उत्सर्जन को कम करने के उद्देश्य से जहाज़ों में अति सल्फर युक्त ईंधन के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया था। अनुमान था कि इससे सल्फर उत्सर्जन में 77 प्रतिशत तक की कमी आएगी, और बंदरगाहों व तटीय इलाकों के नज़दीक रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य को हानि से बचाया जा सकेगा।
लेकिन स्वच्छ ईंधन की लागत सल्फर-युक्त ईंधन से 50 प्रतिशत अधिक है। और नया नियम छूट देता है कि जहाज़ों में स्क्रबर लगा कर सल्फर-युक्त सस्ता ईंधन उपयोग किया जा सकता है। जहाज़रानी उद्योग के अनुसार वर्ष 2015 तक ढाई सौ से भी कम जहाज़ों में स्क्रबर लगे थे और वर्ष 2020 में इनकी संख्या बढ़कर 4300 से भी अधिक हो गई।
स्क्रबर पानी का छिड़काव कर प्रदूषकों को आगे जाने से रोक देता है। सबसे
प्रचलित ओपन लूप स्क्रबर में प्रदूषक युक्त अपशिष्ट जल को बहुत कम उपचारित करके या
बिना कोई उपचार किए वापस समुद्र में छोड़ दिया जाता है। अन्य तरह के स्क्रबर
अपशिष्ट को कीचड़ के रूप में जमा करते जाते हैं और अंतत: भूमि पर फेंक देते हैं।
अपशिष्ट जल की तुलना में इस दलदली अपशिष्ट की मात्रा कम होती है लेकिन इसमें
प्रदूषक अधिक मात्रा में होते हैं।
इंटरनेशनल काउंसिल ऑन क्लीन ट्रांसपोर्टेशन के पर्यावरण नीति शोधकर्ता ब्रायन
कॉमर और उनके दल ने स्क्रबर से लैस लगभग 3600 जहाज़ों का विश्लेषण करके पाया कि एक
वर्ष में 10 गीगाटन से कहीं अधिक अपशिष्ट समुद्र में छोड़ा जा रहा है। यह अनुमान से
बहुत अधिक है क्योंकि एक तो अनुमान से अधिक जहाज़ स्क्रबर लगा रहे हैं, और प्रत्येक जहाज़ का अपशिष्ट भी अनुमान से कहीं अधिक है।
2019 में जहाज़ों के मार्गों के एक अध्ययन में पता चला है कि व्यस्त मार्गों पर
अधिक प्रदूषक अपशिष्ट बहाया जा रहा है, जैसे उत्तरी सागर और
मलक्का जलडमरूमध्य। साथ ही यह प्रदूषण कई देशों के अपने एकाधिकार वाले आर्थिक
मार्गों में भी दिखा।
पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में प्रदूषण मिलना चिंता का विषय है –
जैसे ग्रेट बैरियर रीफ, जिसके नज़दीक से कोयला शिपिंग का मुख्य
मार्ग है और यहां प्रति वर्ष लगभग 3.2 करोड़ टन अपशिष्ट बहाया जा रहा है।
समुद्री मार्गों पर ही नहीं, बंदरगाहों के पास भी काफी
प्रदूषित अपशिष्ट बहाया जाता है, जिसमें सबसे अधिक योगदान
पर्यटन जहाज़ों का है। 10 सबसे अधिक प्रदूषित बंदरगाहों में से सात बंदरगाहों में
लगभग 96 प्रतिशत स्क्रबर-प्रदूषण पर्यटन जहाज़ों के कारण होता है क्योंकि इन जहाज़ों
को किनारे पर भी अपने कैसीनो, गर्म पानी के पूल, एयर कंडीशनिंग और अन्य सुविधाओं को संचालित करने के लिए र्इंधन जलाना पड़ता है।
बंदरगाहों पर पानी उथला होने के कारण समस्या और विकट हो जाती है।
इस पर क्लीन शिपिंग एलायंस 2020 सहित उद्योग संगठनों का कहना है कि अपशिष्ट जल
के आंकड़े भ्रामक हैं। उनका तर्क है कि महत्व इस बात का है कि कचरे की विषाक्तता
कितनी है,
उसकी मात्रा का नहीं।
इस सम्बंध में कुछ शोधकर्ताओं ने स्क्रबर निष्कासित अपशिष्ट जल के समुद्री
जीवन पर प्रभाव का परीक्षण किया। एनवायरमेंटल साइंस एंड टेक्नॉलॉजी में
प्रकाशित अध्ययन बताता है कि उत्तरी सागर में चलने वाले तीन जहाज़ों से निकलने वाले
अपशिष्ट जल ने कोपेपॉड (कैलेनस हेल्गोलैंडिकस) के विकास को नुकसान पहुंचाया है।
कोपेपॉड एक सूक्ष्म क्रस्टेशियन है जो अटलांटिक महासागर के खाद्य जाल का एक
महत्वपूर्ण अंग है। बहुत कम प्रदूषण से भी कोपेपॉड की निर्मोचन प्रक्रिया बाधित
हुई,
और इनकी मृत्यु दर भी जंगली कोपेपॉड से तीन गुना अधिक देखी
गई। ऐसे प्रभाव खाद्य संजाल को बुरी तरह प्रभावित कर सकते हैं।
अब शोधकर्ता स्क्रबर अपशिष्ट का प्रभाव मछलियों के लार्वा पर देखना चाहते हैं, क्योंकि वे कोपेपॉड की तुलना में अधिक संवेदनशील हैं। लेकिन शिपर्स वैज्ञानिकों के साथ नमूने और डैटा साझा करने में झिझक रहे हैं। क्लीन शिपिंग एलायंस 2020 के अध्यक्ष माइक कैज़मारेक का कहना है कि हम नमूने और डैटा उन संगठनों को देने के अनिच्छुक हैं जिनकी पहले से ही एक स्थापित धारणा है। हम सिर्फ उन समूहों के साथ डैटा साझा करेंगे जो तटस्थ रहकर काम करें। समाधान तो यही है कि जहाज़ों में स्वच्छ र्इंधन (मरीन गैस ऑइल) का उपयोग किया जाए। 16 देशों और कुछ क्षेत्रों ने सबसे प्रचलित स्क्रबर्स पर प्रतिबंध लगाया है, जिसके चलते स्क्रबर अपशिष्ट में चार प्रतिशत की कमी आई है। ऐसे कदम वैश्विक स्तर पर उठाने की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/GettyImages-1005980866-1280×720.jpg?itok=bUOYYxyT
वर्ष 2020 में संयुक्त राज्य अमेरिका में स्नेक नदी को यहां
की सबसे अधिक संकटग्रस्त नदी घोषित किया गया। इसकी मुख्य वजह यह बताई गई है कि चार
बांध बनने से इस नदी से जुड़े समस्त जीव संकटग्रस्त हो गए हैं।
इस नदी के इकोसिस्टम के केंद्र में साल्मन मछली है व इसके साथ 130 अन्य जीवों
का जीवन जुड़ा है। आज से लगभग 100 वर्ष पहले इस नदी में साल्मन मछली की संख्या आज
से लगभग 40-50 गुना अधिक थी। इसका जीवन-चक्र बहुत खूबसूरत व रोचक था। अंडों से
मछली निकलने का स्थान पहाड़ों की सहायक नदियों के अधिक ठंडे व साफ क्षेत्र में तय
रहा है। वहां से साल्मन की शिशु मछली तेज़ी से नीचे की ओर तैर कर मुख्य स्नेक नदी
में आती है और फिर आगे बढ़ते हुए समुद्र में जाती रही है। मीठे पानी से खारे पानी
में जाना इस मछली की वृद्धि से जुड़ा है। समुद्र में भरपूर जीवन बिताने के बाद लगभग
1500 किलोमीटर के इसी मार्ग से मछली पहले स्नेक नदी में व फिर उसी पर्वतीय ठंडे
पानी वाली सहायक नदी में पहुंचती है जहां उसका जन्म हुआ था। यहां अंडे देने के बाद
नया जीवन-चक्र शुरू होता है। कुछ समय बाद वह मछली मर जाती है।
लेकिन वर्ष 1955-75 के दो दशकों के दौरान स्नेक नदी के निचले हिस्से में चार
बांध बना दिए गए जिनसे साल्मन मछली का यह मार्ग व इस पर आधारित जीवन-चक्र बुरी तरह
प्रभावित हो गया। मार्ग अवरुद्ध कर रहे बांधों में फंसकर नदी से समुद्र की ओर जाने
वाले लाखों साल्मन शिशु मरने लगे। वर्ष-दर-वर्ष यह जारी रहने से साल्मन की अनेक
प्रजातियां बुरी तरह संकटग्रस्त हो गर्इं व इनके साथ इस इकोसिस्टम के अन्य जीव भी
संकटग्रस्त हो गए।
कुछ समय पहले यहां के मूल निवासियों ने सबसे पहले साल्मन की रक्षा व इकोसिस्टम
संरक्षण की मांग अधिक संजीदगी से उठानी आरंभ की व इसके लिए चारों बांधों को हटाने
की मांग रखी। इन मूल निवासियों ने कहा कि उनका अपना जीवन भी नदी व इस मछली की
रक्षा से जुड़ा है।
इस मांग को कुछ पर्यावरण संगठनों व स्थानीय नेताओं का समर्थन भी मिला तो इसने
ज़ोर पकड़ा। इससे पहले इसी देश की एलव्हा नदी पर साल्मन व नदी की इकोसिस्टम की रक्षा
के लिए दो बांध हटाए गए थे व इसी आधार पर स्नेक नदी से भी चारों बांध हटाने की
मांग रखी गई।
दूसरी ओर कुछ लोगों ने कहा है कि उनके लिए बांधों से मिलने वाली बिजली अधिक
ज़रूरी है। इसके जवाब में बांध हटाने की मांग रखने वालों ने ऊर्जा व कृषि विकास की
वैकल्पिक राह सुझाई है।
आगे व्यापक सवाल यह है कि नदियों के इकोसिस्टम, उनमें रहने वाले जीवों की रक्षा के लिए पहले से बने बांधों को हटाने की मांग विश्व के अन्य देशों में कितना आगे बढ़ सकती है। कई वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों का मानना है कि यदि बांध से गंभीर क्षति होती है तो इसे हटाना उचित है। पर अभी अधिकांश सरकारें इस पर समुचित ध्यान नहीं दे रही है। उम्मीद है कि भविष्य में इस प्रश्न पर अधिक खुले माहौल में विचार हो सकेगा व जिस तरह के प्रयास आज स्नेक नदी के संदर्भ में हो रहे हैं उनसे ऐसा खुला माहौल बनाने में मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://assets.change.org/photos/7/ll/vz/VGllVzqqymXsTyh-800×450-noPad.jpg?1530193888
प्लास्टिक माउंट एवरेस्ट से लेकर अंटार्कटिका तक पहुंच चुका है।
हर वर्ष,
लाखों टन प्लास्टिक कचरा समुद्र में बहा दिया जाता है।
इनमें से कुछ बड़े टुकड़े तो समुद्र में तैरते रहते हैं, कुछ
छोटे कण समुद्र के पेंदे में पहुंच जाते हैं तो कुछ का ठिकाना समुद्र की गहरी
खाइयों के क्रस्टेशियन जीवों तक में होता है।
पिछले कुछ वर्षों में समुद्री प्लास्टिक पर प्रकाशित शोध पत्रों की संख्या में
काफी वृद्धि हुई है। राष्ट्र संघ की विज्ञान की स्थिति सम्बंधी एक रिपोर्ट के
अनुसार वर्ष 2011 में यह संख्या 46 थी जो 2019 में बढ़कर 853 हो गई।
युनिवर्सिटी ऑफ काडिज़ के कारमेन मोराल्स कहते हैं कि धातुओं या कार्बन यौगिकों
जैसे प्रदूषकों की तुलना में प्लास्टिक ज़्यादा नज़र आता है जिसके चलते यह जनता और
नीति निर्माताओं का अधिक ध्यान आकर्षित करता है। वैज्ञानिक यह पता लगाने का प्रयास
कर रहे हैं कि यह प्लास्टिक कहां से आता है, कहां
जाता है और पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य को कैसे प्रभावित करता है।
इन शोध प्रकाशनों में अभी भी ज़्यादा ध्यान समुद्र तटों, समुद्र के पेंदे या जंतुओं में प्लास्टिक की उपस्थिति पर दिया जा रहा है जबकि
प्लास्टिक के रुाोतों और समाधानों पर काफी कम शोध पत्र प्रकाशित हो रहे हैं। हाल
ही में मोराल्स और उनकी टीम ने विभिन्न अध्ययनों के डैटा के आधार पर कचरे से 1.2
करोड़ वस्तुओं की सूची तैयार की है जिनका आकार दो सेंटीमीटर से अधिक है। भोजन और
पेय पदार्थों के पैकिंग में उपयोग होने वाली बोतलें, कंटेनर, रैपर और बैग्स कुल पर्यावरणीय कचरे का लगभग 44 प्रतिशत है।
प्लास्टिक प्रदूषण के पारिस्थितिकी प्रभाव को समझने के प्रयास भी चल रहे हैं।
प्लास्टिक स्वयं तो अक्रिय पदार्थ हैं लेकिन इनमें अग्निरोधी पदार्थों और रंजकों
के अलावा इन्हें लचीला और टिकाऊ बनाने के लिए योजक मिलाए जाते हैं। यही चिंता का
कारण हैं। हानिकारक पॉलीसाइक्लिक एरोमेटिक हाइड्रोकार्बन भी बहते प्लास्टिक से
चिपककर पर्यावरण में प्रवेश कर सकते हैं।
इसके अलावा,
माइक्रोप्लास्टिक कण प्लवकों के आकार के होते हैं जिन्हें
समुद्री जंतु भोजन समझकर निगल लेते हैं। छोटे नैनोप्लास्टिक तो और अधिक हानिकारक
हो सकते हैं जो ऊतकों में प्रवेश कर जाते हैं और सूजन का कारण बन सकते हैं। अभी तक
प्लास्टिक के विषैले प्रभावों को ठीक तरह से समझा नहीं जा सका है और पर्यावरण में
पाए जाने वाले प्लास्टिक जैसा सम्मिश्रण प्रयोगशाला में बनाना कठिन कार्य है।
एक समाधान के तौर पर 2018 से लेकर अब तक 127 देशों ने प्लास्टिक बैग का उपयोग
नियंत्रित करने के लिए कानून पारित किए हैं। लेकिन कुछ रिपोर्ट के अनुसार
प्लास्टिक पुनर्चक्रण की धीमी गति को देखते हुए ऐसे प्रतिबंध लगाना पर्याप्त नहीं
है। इसके लिए जैव-विघटनशील विकल्प ज़रूरी हैं।
ऐसे में वनस्पति-आधारित हाइड्रोकार्बन से प्राप्त सामग्री पर अनुसंधान में
काफी तेज़ी आई है। लेकिन इसकी रफ्तार अभी भी समस्या की विकरालता के सामने काफी धीमी
है। प्लास्टिक के पर्यावरण विकल्पों पर प्रकाशन 2011 में 404 से बढ़कर 2019 में 1111
हो गए हैं। युनिवर्सिटी ऑफ साओ पाउलो के रासायनिक इंजीनियर इन दिनों कसावा स्टार्च
से बायोडीग्रेडेबल प्लास्टिक विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं।
कुछ वैज्ञानिक प्लास्टिक प्रदूषण और परमाणु कचरे की समस्या में समानता देखते हैं। कहा जाता था कि विज्ञान के विकास के साथ नाभिकीय अपशिष्ट निपटान की तकनीकें विकसित होती जाएंगी। लेकिन आज भी परमाणु कचरे के निपटान की तकनीकें समस्या से काफी पीछे ही हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/microplastics_1280x720.jpg?itok=GbajQIot
लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व युरोपीय खोजकर्ताओं ने न केवल
कैरेबिया के मूल निवासियों के जीवन को तहस-नहस किया बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र
को भी काफी नुकसान पहुंचाया था। एक नए अध्ययन से पता चला है कि इस द्वीप पर रहने
वाले लगभग 70 प्रतिशत सांप और छिपकलियां खत्म हो चुके हैं। इसके पीछे उपनिवेशकों
के साथ आए बिल्ली, चूहों और रैकून को ज़िम्मेदार बताया जा रहा
है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार कमज़ोर प्रजातियों के लिए समस्याएं मनुष्यों के कारण
नहीं बल्कि मनुष्यों की पर्यावरण से परस्पर क्रिया से उत्पन्न हुई हैं।
गौरतलब है कि पांडा जैसे लोकप्रिय जीवों की तुलना में छिपकली, सांप और अन्य सरिसृपों और उनके इतिहास के बारे में हम कम ही जानते हैं। फिर भी
ऐसा माना जाता है कि ये प्रजातियां पारिस्थितिकी तंत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका
निभाती हैं। ये जीव पौधों का परागण करते हैं, बीजों
को फैलाते हैं,
छोटे जीवों को खाते हैं और स्वयं भी बड़े जीवों द्वारा खाए
जाते हैं। इनमें से कुछ तो धरती के नीचे बिलों में रहते हुए पूरे भूपटल को ही बदल
देते हैं।
ऐसे में मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर साइंस ऑफ ह्यूमन हिस्ट्री के पुराजंतु
वैज्ञानिक कोरंतन बुशातों ने कैरेबिया की संवेदनशील जैव विविधता के अध्ययन हेतु
अपने सहयोगियों के साथ पूर्वी कैरेबिया स्थित गुआदेलूप के छह द्वीपों पर पहले से
खुदाई की गई गुफाओं का अध्ययन किया। ये छह द्वीप पूर्व में फ्रांस के अधीन थे। टीम
ने गुफाओं के फर्श की विभिन्न परतों को हटाते हुए हड्डियों के हज़ारों टुकड़े
एकत्रित किए जिनमें से कुछ तो तीन मिलीमीटर से भी छोटे थे।
खोजे गए 43,000 जीवाश्मों में से शोधकर्ताओं ने 16 विभिन्न प्रकार की छिपकलियों
और सांपों की पहचान की। जीवाश्मों को चार समूहों में विभाजित किया गया: 32,000 से
11,000 वर्ष पुराने, 11,650 से 2540 वर्ष पुराने, 2450 से 458 वर्ष पुराने (वह अवधि जब मूल निवासी बस चुके थे लेकिन युरोपीय
नहीं पहुंचे थे) और 458 से वर्तमान समय तक।
साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एक द्वीप
पर 11,000 वर्ष पूर्व चार प्रकार के सांप और पांच प्रकार की छिपकलियां पाई जाती
थीं जो अब नहीं पाई जातीं। इनकी जगह छिपकलियों की चार अन्य प्रजातियों ने ली, जिनमें से दो प्रजातियां लगभग 2000 वर्ष पूर्व प्रकट हुई थीं जबकि अन्य दो
युरोपियों के आगमन के बाद। संभावना है कि ये कैरेबिया के अन्य हिस्सों से आई हैं।
बुशातों और उनकी टीम ने गुआदेलूप में छिपकलियों और सांपों के 40,000 वर्ष के जैव
विकास इतिहास पर ध्यान दिया। उन्होंने पाया कि 1493 में क्रिस्टोफर कोलंबस के आने
से पूर्व कैरेबिया में 13 सरिसृप प्रजातियां उपस्थित थीं। जलवायु परिवर्तन और मूल
निवासियों की उपस्थिति उनके लिए कोई समस्या नहीं रही।
लेकिन इनकी लगभग आधी आबादी युरोपीय लोगों के आने के बाद गायब हो गई, जिनमें सांप की तीन और छिपकलियों की पांच प्रजातियां थीं। कुछ द्वीपों पर तो
70 प्रतिशत तक सरिसृप प्रजातियां खत्म हो गर्इं। ऐसी आशंका है कि छिपकलियां या तो
युरोपीय लोगों द्वारा लाए गए आक्रामक जीवों का शिकार हो गर्इं या फिर गन्ने की
खेती के कारण उन्होंने अपना प्राकृतवास खो दिया।
हालांकि, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि इस तरह की क्षति का पारिस्थितिकी तंत्र पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। इस निष्कर्ष से वैज्ञानिकों के बीच प्रचलित एक आम सिद्धांत को बल मिलता है कि जब तक देशज लोगों ने अपनी पारंपरिक प्रथाओं के साथ भूमि प्रबंधन किया है, तब तक जैव विविधता भी मनुष्यों के साथ-साथ सहजता से उपस्थित रह सकी है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Iguana_Guadalupe_1280x720.jpg?itok=cYa__1km
हाल ही में हुए एक अध्ययन के अनुसार लगभग पांच दशक पूर्व किए
परमाणु बम परीक्षणों के अवशेष आज भी दिखाई दे रहे हैं। शोधकर्ताओं ने शहद में
रेडियोधर्मी तत्व मौजूद पाया है। हालांकि शहद में रेडियोधर्मी तत्व का स्तर खतरनाक
नहीं है,
लेकिन अंदाज़ है कि 1970-80 के दशक में यह स्तर काफी अधिक
रहा होगा।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका, पूर्व सोवियत संघ और अन्य कई देशों ने सैकड़ों परमाणु बम परीक्षण धरती की सतह
पर किए थे। इन बमों से रेडियोधर्मी सीज़ियम निकला और ऊपरी वायुमंडल में पहुंचा।
हवाओं ने इसे दुनिया भर में फैलाया, हालांकि हर जगह यह एक समान
मात्रा में नहीं फैला था। उदाहरण के लिए, क्षेत्रीय हवाओं और
वर्षा के पैटर्न के कारण अमेरिका के पूर्वी तट पर बहुत अधिक रेडियोधर्मी कण
पहुंचे।
रेडियोधर्मी सीज़ियम पानी में घुलनशील है, और
चूंकि इसके रासायनिक गुण पोटेशियम के समान हैं इसलिए पौधे इसे पोटेशियम मानकर
उपयोग कर लेते हैं। यह देखने के लिए कि क्या अब भी पौधों में यह परमाणु संदूषण
पहुंच रहा है,
विलियम एंड मैरी कॉलेज के भूविज्ञानी जेम्स कास्ट ने
विभिन्न स्थानों के स्थानीय खाद्य पदार्थों में रेडियोधर्मी सीज़ियम की जांच की।
उत्तरी कैरोलिना से लिए गए शहद के नमूनों के परिणाम आश्चर्यजनक थे। उन्हें इस
शहद में रेडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर अन्य खाद्य पदार्थों की तुलना में 100 गुना
अधिक मिला। यह जानने के लिए कि क्या पूर्वी यूएस में मधुमक्खियां पौधों से मकरंद
लेकर शहद बना रही हैं, और सीज़ियम का सांद्रण कर रही हैं, उनकी टीम ने पूर्वी यूएस के विभिन्न स्थानों से शहद के 122 नमूने एकत्रित किए
और उनमें रेडियोधर्मी सीज़ियम का मापन किया। उन्हें 68 नमूनों में प्रति किलोग्राम
0.03 बेकरेल से अधिक रेडियोधर्मी सीज़ियम मिला (यानी लगभग एक चम्मच शहद में
8,70,000 रेडियोधर्मी सीज़ियम परमाणु)। सबसे अधिक (19.1 बेकरेल प्रति किलोग्राम)
रेडियोधर्मी सीज़ियम फ्लोरिडा से प्राप्त नमूने में मिला।
नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित शोध पत्र के
मुताबिक परमाणु बम परीक्षण स्थल से हज़ारों किलोमीटर दूर और बम परीक्षण के 50 साल
बाद तक रेडियोधर्मी तत्व पौधों और जानवरों के माध्यम से पर्यावरण में घूम रहा है।
हालांकि अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने स्पष्ट किया है यह स्तर चिंताजनक नहीं
है। यह सुरक्षित स्तर (1200 बेकरेल प्रति किलोग्राम) से बहुत कम है।
समय के साथ रेडियोधर्मी तत्वों की मात्रा कम होती जाती है। इसलिए भले ही वर्तमान में रेडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर कम है, लेकिन पूर्व में यह स्तर काफी अधिक रहा होगा। पूर्व में यह मात्रा कितनी होगी यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने दूध के नमूनों में सीज़ियम का स्तर मापा, और संग्रहालय में रखे पौधों के नमूनों का विश्लेषण किया। शोधकर्ताओं ने पाया कि 1960 के दशक के बाद से दोनों तरह के नमूनों में रेडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर बहुत कम हुआ है, और कमी आने की यही प्रवृत्ति शहद में भी रही होगी। अनुमान है कि 1970 के दशक में शहद में सीज़ियम का स्तर मौजूदा स्तर से 10 गुना अधिक रहा होगा। सवाल उठता है कि पिछले 50 सालों में रेडियोधर्मी सीज़ियम ने मधुमक्खियों को किस तरह प्रभावित किया होगा? कीटनाशकों के अलावा अन्य मानव जनित प्रभाव भी इनके अस्तित्व को खतरे में डाल सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.dailymail.co.uk/1s/2021/04/21/22/42053826-0-image-a-8_1619038949972.jpg
हाल ही में विभिन्न कुलों के सूक्ष्मजीवों के आनुवंशिक
विश्लेषण से पता चला है कि ऑक्सीजन में सांस लेने वाले या कम से कम इसका उपयोग
करने वाले सबसे पहले जीव 3.1 अरब साल पहले अस्तित्व में आए थे। यह खोज इसलिए
चौंकाती है क्योंकि पृथ्वी को ऑक्सीजनमय करने वाली महान ऑक्सीकरण घटना तो इसके
लगभग 50 करोड़ वर्ष बाद शुरू हुई थी।
ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले प्रोटीनों का अस्तित्व में आना, ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले सूक्ष्मजीवों के उद्भव में एक महत्वपूर्ण कदम था।
और अनॉक्सी जीवों से लदी पृथ्वी का अधिकांशत: ऑक्सी जीवों वाली पृथ्वी में परिवर्तित
होना जीवन का एक अहम नवाचार था।
वैज्ञानिक इस बात से तो सहमत हैं कि पृथ्वी का प्रारंभिक वायुमंडल और महासागर
ऑक्सीजन रहित थे। लेकिन ऐसे संकेत मिले हैं जो बताते हैं कि इस समय भी पृथ्वी पर
कुछ मात्रा में तो ऑक्सीजन मौजूद थी। जैसे वैज्ञानिकों ने लगभग 3 अरब साल पहले के
ऐसे खनिज भंडार खोजे हैं जो सिर्फ ऑक्सीजन की उपस्थिति में बन सकते थे। इसके अलावा
कुछ साक्ष्य बताते हैं कि अपशिष्ट उत्पाद के रूप में ऑक्सीजन छोड़ने वाले सबसे पहले
प्रकाश संश्लेषक जीव, सायनोबैक्टीरिया, भी 3.5
अरब साल पहले अस्तित्व में आए थे। वे इस ऑक्सीजन का उपयोग नहीं करते थे।
लेकिन इस पर आपत्ति यह है कि यदि ऑक्सीजन उत्पादक और उपयोगकर्ता इतनी जल्दी आए
होते तो वे पूरी पृथ्वी पर तेज़ी से फैल गए होते, क्योंकि
ऑक्सीजन का उपयोग भोजन से अधिक ऊर्जा प्राप्त करने में मदद करता है। लेकिन महान
ऑक्सीकरण की घटना 2.4 अरब साल पूर्व से पहले शुरू नहीं हुई थी।
ताज़ा अध्ययन में वाइज़मैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के जैव-रसायनज्ञ डैन तौफीक और
उनके साथियों ने केंद्रक-पूर्व जीवों के 130 कुलों के जीनोम का विश्लेषण किया।
उन्होंने एक वंश वृक्ष बनाया जो लगभग 700 ऑक्सीजन निर्माता या उपयोगकर्ता एंज़ाइम्स
पर आधारित था। इससे उन्होंने प्रोटीन में उत्परिवर्तन दर पता की और इसकी मदद से एक
आणविक घड़ी तैयार की ताकि यह देखा जा सके कि प्रत्येक एंज़ाइम कब विकसित हुआ था। 130
कुलों में से सिर्फ 36 कुलों के विकसित होने का समय निर्धारित किया जा सका।
नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन में शोधकर्ता बताते हैं कि 3
अरब से 3.1 अरब साल पहले ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले सूक्ष्मजीव कुलों में अचानक
उछाल आया था। इस समय 36 कुल में से 22 कुल के सूक्ष्मजीव विकसित हुए जबकि 12 कुल
के सूक्ष्मजीव इसके बाद और दो कुल के सूक्ष्मजीव इसके पहले अस्तित्व में आए थे। और
इन्हीं सूक्ष्मजीवों से ऐसे सूक्ष्मजीव विकसित हुए जो ऑक्सीजन का उपयोग कर भोजन से
अधिक ऊर्जा हासिल करने में सक्षम थे।
यदि यह बदलाव लगभग 3 अरब साल पहले आया था तो स्पष्ट है कि ऑक्सीजन का उपयोग
करने वाले जीव तुरंत ही पूरी पृथ्वी पर नहीं फैले थे, बल्कि
ऑक्सीजन के उपयोग की क्षमता छोटे-छोटे इलाकों में विकसित हुई थी जो धीरे-धीरे
करोड़ों सालों के दरम्यान फैलती गई।
फिर भी कुछ लोगों का कहना है कि आणविक घड़ी से काल निर्धारण का विज्ञान अभी विकसित ही हो रहा है इसलिए घटनाओं का क्रम शायद सही हो सकता है, लेकिन घटनाओं का वास्तविक समय भिन्न हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.ucsfhealth.org/-/media/project/ucsf/ucsf-health/medical-tests/hero/aerobic-bacteria-2x.jpg
प्लास्टिक एक बड़ी पर्यावरण समस्या है। सामान्य प्लास्टिक बनाने
में एथीलीन और कार्बन मोनोऑक्साइड जैसे जिन शुरुआती पदार्थों का उपयोग होता है
उन्हें बनाने में जीवाश्म र्इंधन की काफी खपत होती है और काफी मात्रा में कार्बन
डाईऑक्साइड का उत्सर्जन भी होता है। हालिया वर्षों में रसायनज्ञों ने ऐसे विद्युत
रासायनिक सेल तैयार किए हैं जो नवीकरणीय बिजली का उपयोग करते हुए पानी और औद्योगिक
प्रक्रियाओं से प्राप्त अपशिष्ट कार्बन डाईऑक्साइड से प्लास्टिक के लिए कच्चा माल
प्रदान कर सकते हैं। लेकिन इसे पर्यावरण अनुकूल बनाने में अभी भी काफी समस्याएं
हैं। आम तौर पर ये सेल काफी मात्रा में क्षारीय पदार्थों की खपत करते हैं जिन्हें
बनाने में काफी उर्जा खर्च होती है।
इसके लिए युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के रसायनज्ञ पायडोंग यैंग की टीम और एक
अन्य समूह ने इस क्षारीय बाधा को हल करने के प्रयास किए। एक टीम ने दो विद्युत
रासायनिक सेल को जोड़कर समस्या को हल किया है, वहीं
दूसरे समूह ने क्षारों के बिना वांछित रसायन प्राप्त करने के लिए एंज़ाइमनुमा
उत्प्रेरक प्रयुक्त किया है।
वर्तमान में कंपनियां पेट्रोलियम के बड़े हाइड्रोकार्बन से उच्च दाब में अत्यधिक
गर्म भाप का उपयोग करके मीठी-महक वाली एथीलीन गैस का उत्पादन करती हैं। इस
प्रक्रिया का उपयोग कई दशकों से किया जा रहा है जिससे एथीलीन का उत्पादन लगभग
72,000 रुपए प्रति टन के हिसाब से होता है। लेकिन इससे प्रति वर्ष 20 करोड़ टन
कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन भी होता है जो वैश्विक उत्सर्जन का लगभग 0.6
प्रतिशत है। विद्युत-रासायनिक सेल अधिक पर्यावरण अनुकूल विकल्प प्रदान करते हैं।
ये उत्प्रेरकों को बिजली प्रदान करते हैं जो वांछित रसायनों का निर्माण करते हैं।
दोनों सेल में दो इलेक्ट्रोड और उनके बीच इलेक्ट्रोलाइट भरा होता है जो आवेशित
आयनों को एक से दूसरे इलेक्ट्रोड तक पहुंचाता है। विद्युत-रासायनिक सेल में कार्बन
डाईऑक्साइड और पानी कैथोड पर प्रतिक्रिया करके एथीलीन और अन्य हाइड्रोकार्बन बनाते
हैं। सेल के इलेक्ट्रोलाइट में पोटेशियम हाइड्रॉक्साइड मिलाया जाता है ताकि कम
वोल्टेज पर ही रसायनिक परिवर्तन हो सके और ऊर्जा दक्षता बढ़ सके। इससे अधिकांश
बिजली का उपयोग हाइड्रोकार्बन निर्माण में हो पाता है।
लेकिन स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी के इलेक्ट्रोकेमिस्ट मैथ्यू कानन ने पोटेशियम
हाइड्रॉक्साइड के उपयोग को लेकर एक समस्या की ओर ध्यान खींचा है। वास्तव में कैथोड
पर हाइड्रॉक्साइड आयन कार्बन डाईऑक्साइड के साथ क्रिया करके कार्बोनेट का निर्माण
करता है। यह कार्बोनेट ठोस पदार्थ के रूप में जमा होता रहता है। इस कारण
हाइड्रॉक्साइड की निरंतर पूर्ति करना पड़ती है। दिक्कत यह है कि हाइड्रॉक्साइड के
निर्माण में काफी उर्जा खर्च होती है।
इसके समाधान के लिए कानन और उनके सहयोगियों ने कार्बन डाईऑक्साइड की जगह
कार्बन मोनोऑक्साइड का उपयोग किया जो हाइड्रॉक्साइड से क्रिया करके कार्बोनेट में
परिवर्तित नहीं होती है। उन्होंने इस सेल को अधिक कुशल पाया। इसमें उत्प्रेरक को
प्रदत्त 75 प्रतिशत इलेक्ट्रॉन ने एक कार्बनिक यौगिक एसीटेट का निर्माण किया जिसे
औद्योगिक सूक्ष्मजीवों के आहार के रूप में उपयोग किया जा सकता है। इसमें बस एक
समस्या है कि कार्बन मोनोऑक्साइड के लिए जीवाश्म र्इंधन की आवश्यकता होती है जो
पर्यावरण के लिए हानिकारक है।
इसके बाद युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के रसायनयज्ञ और उनकी टीम ने कुछ प्रयास किए
हैं। उन्होंने बाज़ार में उपलब्ध ठोस ऑक्साइड विद्युत-रासायनिक सेल का उपयोग किया
जो उच्च तापमान पर कार्बन डाईऑक्साइड को कार्बन मोनोऑक्साइड में परिवर्तित करती है
और नवीकरणीय बिजली का उपयोग करती है। इस प्रक्रिया में विद्युत-रासायनिक सेल के
उत्प्रेरक को इस तरह तैयार किया जाता है कि वे कार्बन मोनोऑक्साइड के संपर्क में
आने पर एथीलीन का निर्माण करें। यह एसीटेट से अधिक उपयोगी रसायन है। जूल
में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह सेल हाइड्रॉक्साइड का उपयोग नहीं करती और
एथीलीन का निर्माण होता है।
इसके अलावा यैंग और उनके सहयोगियों ने क्षारीयता की समस्या को सुलझाने का एक
और तरीका खोजा है। उन्होंने क्षारीय विद्युत-रासायनिक सेल के उत्प्रेरक को इस तरह
से डिज़ाइन किया है कि पानी और हाइड्रॉक्साइड कार्बन डाईऑक्साइड के टूटने के स्थान
पर नहीं पहुंच पाते। तो कार्बोनेट भी नहीं बनता। लेकिन ये सेल अभी भी कार्बन
मोनोऑक्साइड और पानी से प्राप्त हाइड्रोजन को एथीलीन व अन्य हाइड्रोकार्बन में
परिवर्तित नहीं करती।
लेकिन इस शोध का पूरा दारोमदार सिर्फ विद्युत रासायनिक सेल पर नहीं है। जैसे-जैसे पवन/सौर उर्जा का उत्पादन बढ़ रहा है, नवीकरणीय ऊर्जा सस्ती होती जा रही है। सस्ती ऊर्जा से विद्युत रासायनिक सेल की दक्षता में सुधार होगा और यह एथीलीन उत्पादन के मामले में जीवाश्म र्इंधन के समकक्ष आ जाएगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_0226NID_Polyethylene_Production_online.jpg?itok=Rq4_L0n4
लीडेन युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययन से पता
चला है कि पीपीई कचरा दुनिया भर में जीव-जंतुओं की जान ले रहा है। यह अध्ययन एनिमल
बायोलॉजी में प्रकाशित हुआ है। कोविड-19 से बचने के लिए सामाजिक दूरी रखना और
बड़े पैमाने पर दस्ताने व मास्क जैसे व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों (पीपीई) का उपयोग
एक मजबूरी है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि दुनिया भर में कोरोना से बचने के लिए
मेडिकल स्टाफ को हर महीने करीब 8 करोड़ दस्ताने, 16 लाख
मेडिकल गॉगल्स और 9 करोड़ मेडिकल मास्क की ज़रूरत पड़ रही है। आम लोगों द्वारा उपयोग
किए जा रहे मास्क की संख्या तो अरबों में पहुंच चुकी है। एक अन्य शोध से पता चला
है कि वैश्विक स्तर पर हर वर्ष औसतन 12,900 करोड़ फेस मास्क और 6500 करोड़ दस्तानों
का उपयोग किया जा रहा है। हांगकांग के सोको आइलैंड पर सिर्फ 100 मीटर की दूरी में
70 मास्क पाए गए थे, जबकि यह एक निर्जन स्थान है।
उपयोग पश्चात ठीक निपटान न होने व यहां-वहां फेंकने से सड़कों पर फैला यह
मेडिकल कचरा इंसानों के साथ-साथ पशुओं के लिए भी खतरनाक है, और समुद्र में पहुंचकर जलीय जीवों को भी नुकसान पहुंचा रहा है।
सबसे अधिक प्रभावी अधिकांश थ्री-लेयर मास्क पॉलीप्रोपायलीन के और दस्ताने व
पीपीई किट रबर व प्लास्टिक से बने होते हैं। प्लास्टिक की तरह ये पॉलीमर्स भी
सैकड़ों सालों तक पर्यावरण के लिए खतरा बने रहेंगे।
पीपीई किट से महामारी से सुरक्षा तो हो रही है लेकिन इनके बढ़ते कचरे ने एक नई
समस्या को जन्म दिया है। शोध से पता चला है कि यह कचरा ज़मीन पर रहने वाले जीवों के
साथ ही जल में रहने वाले जीवों को भी प्रभावित कर रहा है। जीव इनमें फंस रहे हैं
और उनके द्वारा कई बार इन्हें निगलने के मामले भी सामने आए हैं।
शोधकर्ताओं ने पहली बार लीडेन की नहर में एक मछली को लेटेक्स से बने दस्ताने
में उलझा पाया था। आगे खोजबीन में यूके में लोमड़ी, कनाडा
में पक्षी,
हेजहॉग, सीगल, केंकड़े
और चमगादड़ वगैरह इन मास्क में उलझे पाए गए। मछलियां पानी में तैरते मास्क और
प्लास्टिक कचरे को अपना भोजन समझ रही हैं। विशेषकर डॉल्फिन पर तो बड़ा संकट है
क्योंकि वे तटों के करीब आ जाती हैं।
संस्थान क्लीन-सीज़ की प्रमुख लौरा फॉस्टर का कहना है कि आपको नदियों में बहते
मास्क दिख जाएंगे। कई बार ये मास्क आपस में उलझकर जाल-सा जैसे बना लेते हैं और
जीव-जंतु इसमें फंस जाते हैं। कई बार ये आग लगने का कारण भी बनते हैं। ये सड़ते
नहीं लेकिन टुकड़ों-टुकड़ों में बिखर सकते हैं। ऐसे में समुद्र में माइक्रोप्लास्टिक
और बढ़ जाता है।
कई बार पक्षियों को इस कचरे को घोंसले के लिए भी इस्तेमाल करते हुए पाया गया
है। नीदरलैंड्स में कूट्स पक्षियों को अपने घोंसले के लिए मास्क और ग्लव्स का
उपयोग करते पाया गया था। यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि कई जानवरों में भी
कोविड-19 के लक्षण सामने आए हैं।
पर्यावरणविदों ने चेतावनी दी है कि अगर यह मेडिकल कचरा जंगलों तक पहुंच गया तो परिणाम भीषण और दूरगामी होंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/story/202008/ppe-kits-garbage-pti.jpeg?w6mWtXmeyZATl4ZCieVlUG_Mm73ZaWIe&size=1200:675
गर्मी का मौसम आते ही गन्ने का रस, जलज़ीरा, नींबू पानी जैसे ठंडे पेय की दुकानें सज जाती है। ठंडे पेय लोगों को गर्मी से
राहत देते हैं। किंतु कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि गर्म पेय भी गर्मियों में
ठंडक पहुंचा सकते हैं। अब तक वैज्ञानिकों को इस पर संदेह रहा है क्योंकि गर्म
चीज़ें पीकर तो आप शरीर को ऊष्मा दे रहे हैं। लेकिन हाल ही में हुआ एक अध्ययन बताता
है कि गर्मियों में कुछ विशेष परिस्थितियों में गर्म पेय वाकई आपको ठंडक दे सकते
हैं।
होता यह है कि गर्म पेय पीने से हमारे शरीर की ऊष्मा में इज़ाफा होता है, जिससे हमें पसीना अधिक आता है। जब यह पसीना वाष्पीकृत होता है तो पसीने के साथ
हमारे शरीर की ऊष्मा भी हवा में बिखर जाती है, जिसके
परिणामस्वरूप हमारे शरीर की ऊष्मा में कमी आती है और हमें ठंडक महसूस होती है।
शरीर की ऊष्मा में आई यह कमी उस ऊष्मा से अधिक होती है जितनी गर्म पेय पीने के
कारण बढ़ी थी।
यह हो सकता है कि पसीना आना हमें अच्छा न लगता हो, लेकिन
पसीना शरीर के लिए अच्छी बात है। ठंडक पहुंचाने में अधिक पसीना आना और उसका वाष्पन
महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पसीना जितना अधिक आएगा, उतनी
अधिक ठंडक देगा लेकिन उस पसीने का वाष्पन ज़रूरी है।
यदि हम किसी ऐसी जगह पर हैं जहां नमी या उमस बहुत है, या
किसी ने बहुत सारे कपड़े पहने हैं, या इतना अधिक पसीना आए कि वह
चूने लगे और वाष्पीकृत न हो पाए, तो फिर गर्म पेय पीना घाटे का
सौदा साबित होगा। क्योंकि वास्तव में तो गर्म पेय शरीर में गर्मी बढ़ाते हैं। इसलिए
इन स्थितियों में जहां पसीना वाष्पीकृत न हो पाए, ठंडे
पेय पीना ही राहत देगा।
गर्म पेय का सेवन ठंडक क्यों पहुंचाता है, यह
जानने के लिए ओटावा विश्वविद्यालय के स्कूल फॉर ह्यूमन काइनेटिक्स के ओली जे और
उनके साथियों ने प्रयोगशाला में सायकल चालकों पर अध्ययन किया। प्रत्येक सायकल चालक
की त्वचा पर तापमान संवेदी यंत्र लगाए और शरीर के द्वारा उपयोग की गई ऑक्सीजन और
बनाई गई कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को नापने के लिए एक माउथपीस भी लगाया।
ऑक्सीजन और कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बताती है कि शरीर के चयापचय में कितनी
ऊष्मा बनी। साथ ही उन्होंने हवा के तापमान और आर्द्रता के साथ-साथ अन्य कारकों की
भी बारीकी से जांच की। इस तरह एकत्रित जानकारी की मदद से उन्होंने पता किया कि
प्रत्येक सायकल चालक ने कुल कितनी ऊष्मा पैदा की और पर्यावरण में कितनी ऊष्मा
स्थानांतरित की। देखा गया कि गर्म पानी (लगभग 50 डिग्री सेल्सियस तापमान पर) पीने
वाले सायकल चालकों के शरीर में अन्य के मुकाबले में कम ऊष्मा थी।
वैसे यह अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि गर्म पेय शरीर को अधिक पसीना पैदा
करने के लिए क्यों उकसाते हैं, लेकिन शोधकर्ताओं का अनुमान है
कि ऐसा करने में गले और मुंह में मौजूद ताप संवेदकों की भूमिका होगी। इस पर आगे
अध्ययन की ज़रूरत है।
फिलहाल शोधकर्ताओं की सलाह के अनुसार यदि आप नमी वाले इलाकों में हैं तो गर्मी में गर्म पानी न पिएं। लेकिन सूखे रेगिस्तानी इलाकों के गर्म दिनों में गर्म चाय की चुस्की ठंडक पहुंचा सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://live-production.wcms.abc-cdn.net.au/a3a7be363238b5a0e0b02c428713ac4b?impolicy=wcms_crop_resize&cropH=1080&cropW=1618&xPos=151&yPos=0&width=862&height=575
दुनिया भर में प्लास्टिक प्रदूषण का खतरा बढ़ता जा रहा है और
अब समुद्र भी इससे अछूते नहीं हैं। सार्वजनिक दबाव का नतीजा राष्ट्र-आधारित नियम
कायदों और स्वैच्छिक प्रयासों के पैबंदों रूप में ही सामने आया है। लेकिन ये इस
व्यापक समस्या को संबोधित करने में प्राय: नाकाम ही रहे हैं। अब कॉर्पोरेशन्स के
एक वैश्विक समूह ने राष्ट्र संघ के माध्यम से एक संधि-आधारित, समन्वित चक्रीय रणनीति की पहल की है। सवाल इतना ही है कि क्या यह रणनीति सफल
होगी या अतीत के प्रयासों की तरह नाकाम रहेगी।
पहल
नवीन प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था का विचार एलन मैककार्थर फाउंडेशन का है। विचार
यह है कि इस अर्थ व्यवस्था में प्लास्टिक कभी भी एक कचरा या प्रदूषक नहीं बनेगा।
फाउंडेशन ने तीन सुझाव दिए हैं ताकि एक चक्रीय प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था हासिल की
जा सके। फाउंडेशन का दावा है कि समस्यामूलक प्लास्टिक वस्तुओं को हटाकर, यह सुनिश्चित करके कि सारा प्लास्टिक पुन:उपयोग, पुनर्चक्रण
और कंपोस्ट-लायक हो, हम एक ऐसी अर्थ व्यवस्था हासिल कर सकते हैं
कि सारा प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था में ही बना रहे और पर्यावरण से बाहर रहे।
एलन मैककार्थर फाउंडेशन के ही शब्दों में शून्य प्लास्टिक कचरा उत्पन्न करने
वाली अर्थव्यवस्था के कुछ तत्व निम्नानुसार होंगे:
1. रीडिज़ाइनिंग, नवाचार और डीलिवरी के नए
मॉडल्स अपनाकर समस्यामूलक तथा अनावश्यक प्लास्टिक पैकेजिंग से मुक्ति पाई जा सकती
है।
1क – प्लास्टिक के कई लाभ हैं।
लेकिन बाज़ार में कुछ समस्यामूलक वस्तुएं भी हैं जिन्हें हटाना होगा ताकि चक्रीय
अर्थ व्यवस्था हासिल की जा सके। कहीं-कहीं तो उपयोगिता से समझौता किए बगैर
प्लास्टिक पैकेजिंग को पूरी तरह समाप्त भी किया जा सकता है।
2. जहां संभव और प्रासंगिक हो, पुन:उपयोग के मॉडल को लागू किया जाए, पैकेजिंग में एक बार-उपयोग की ज़रूरत को समाप्त किया जाए।
2क – हालांकि पुन:चक्रण को
बेहतर बनाना महत्वपूर्ण है, लेकिन मात्र पुन:चक्रण के दम
पर हम प्लास्टिक सम्बंधी वर्तमान मुद्दों को नहीं निपटा सकते।
2ख – जहां भी प्रासंगिक हो, पुन:उपयोग के मॉडल को सामने लाया जाना चाहिए ताकि एकबार-उपयोग वाले पैकेजिंग
की ज़रूरत कम से कम हो।
3. सारा प्लास्टिक पैकेजिंग 100 फीसदी पुन:उपयोग, पुनर्चक्रण या कंपोÏस्टग के लायक हो।
3क – इसके लिए बिज़नेस मॉडल्स, पदार्थों,
पैकेजिंग और डिज़ाइन तथा पुन:प्रसंस्करण की टेक्नॉलॉजी में
रीडिज़ाइन और नवाचार की ज़रूरत होगी।
3ख – कंपोÏस्टग-योग्य प्लास्टिक पैकेजिंग कोई रामबाण समाधान नहीं है
बल्कि विशिष्ट अनुप्रयोगों के लिए कारगर होगा।
4. सारे प्लास्टिक पैकेजिंग का पुन:उपयोग, पुनर्चक्रण या कंपोÏस्टग किया जाएगा।
4क – कोई भी प्लास्टिक
पर्यावरण,
कचरा भराव स्थलों, इंसनरेटरों या
कचरे-से-ऊर्जा संयंत्रों में नहीं पहुंचना चाहिए। ये चक्रीय प्लास्टिक अर्थ
व्यवस्था के हिस्से नहीं हैं।
4ख – पैकेजिंग का उत्पादन व
बिक्री करने वाले कारोबारियों की ज़िम्मेदारी मात्र उनके पैकेजिंग का डिज़ाइन करने व
उपयोग करने तक सीमित नहीं है; उन्हें यह भी ज़िम्मेदारी लेनी
होगी कि उस प्लास्टिक का वापिस संग्रह किया जाए, पुन:चक्रण
किया जाए या कंपोस्ट किया जाए।
4ग – कारगर संग्रह के लिए
अधोरचना बनाने,
सम्बंधित आत्म-निर्भर वित्त-पोषण की व्यवस्थाएं बनाने तथा
उपयुक्त नियामक व नीतिगत माहौल तैयार करने के लिए सरकारों की भूमिका अनिवार्य है।
5. प्लास्टिक उपयोग को सीमित संसाधनों के उपभोग से पूरी तरह पृथक करना
होगा।
5क – इस पृथक्करण का सबसे पहला
चरण वर्जिन प्लास्टिक के उपयोग को कम करना होगा (पुन:उपयोग और पुन:चक्रण के माध्यम
से)
5ख – पुन:चक्रित पदार्थों का
उपयोग ज़रूरी है (जहां तकनीकी व कानूनी रूप से संभव हो) ताकि सीमित संसाधनों से इसे
मुक्त किया जा सके और संग्रह व पुन:चक्रण को बढ़ावा दिया जा सके।
5ग – धीरे-धीरे प्लास्टिक का
समस्त उत्पादन व पुन:चक्रण नवीकरणीय ऊर्जा से किया जाना चाहिए।
6. सारा प्लास्टिक पैकेजिंग हानिकारक रसायनों से मुक्त हो और सम्बंधित
पक्षों के स्वास्थ्य व सुरक्षा अधिकारों का सम्मान किया जाए।
6क – पैकेजिंग, और उसके उत्पादन व पुन:चक्रण की प्रक्रियाओं में हानिकारक रसायनों का उपयोग
समाप्त होना चाहिए।
6ख – प्लास्टिक कारोबार के
समस्त क्षेत्रों में शामिल सारे लोगों के स्वास्थ्य, सुरक्षा
व अधिकारों का सम्मान ज़रूरी है, खास तौर से अनौपचारिक क्षेत्र
के कामगारों (कचरा बीनने वालों) के संदर्भ में।
राष्ट्र संघ संधि
दी बिज़नेस केस फॉर दी यूएन ट्रीटी ऑन प्लास्टिक पोल्यूशन (प्लास्टिक प्रदूषण पर राष्ट्र संघ संधि के लिए कारोबार का पक्ष) विश्व
प्रकृति निधि (डब्लू.डब्लू.एफ.), एलन मैककार्थर फाउंडेशन तथा
बोस्टन कंसÏल्टग ग्रुप द्वारा प्रस्तुत एक
रिपोर्ट है। इन संस्थाओं का प्रयास है कि प्लास्टिक प्रदूषण पर एक नई राष्ट्र संघ
संधि विकसित हो।
इस रिपोर्ट के आधार पर प्रमुख कंपनियों ने 13 अक्टूबर 2020 को आव्हान किया था
कि प्लास्टिक प्रदूषण पर एक राष्ट्र संघ संधि तैयार की जाए ताकि नियमन के टुकड़ा-टुकड़ा
ढांचे की समस्या को संबोधित किया जा सके और वर्तमान स्वैच्छिक प्रयासों को
व्यवस्थित रूप दिया जा सके।
इस तरह की संधि पर बातचीत शुरू करने के लिए एक प्रस्ताव राष्ट्र संघ पर्यावरण
सभा के पांचवे सत्र में फरवरी 2021 में पेश हुआ था। इसमें सभा ने प्लास्टिक प्रदूषण
को एक समस्या के रूप में मान्यता दी और 2017 में राष्ट्र संघ पर्यावरण सभा द्वारा
निर्धारित छानबीन के उपरांत यह स्वीकार किया कि प्लास्टिक प्रदूषण सम्बंधी वर्तमान
कानूनी प्रावधान अपर्याप्त हैं।
क्या यह सफल होगा?
ऐसी किसी योजना की सफलता की संभावना कुछ वर्षों पूर्व नगण्य ही होती। अलबत्ता, हाल ही में जैविक विकल्पों में हुई तरक्की ने एक ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संधि के
लिए पृष्ठभूमि तैयार कर दी है जो व्यावसायिक नवाचारों को बढ़ावा दे।
कोका कोला इस मामले में नवीन टेक्नॉलॉजी को अपनाने में आगे आया है और उसने
2009 में अमरीका के कुछ प्रांतों में ‘प्लांटबॉटल’ (‘PlantBottel’) लॉन्च की है।
इसके अलावा,
पेट्रोकेमिकल पुन:चक्रण की अगली पीढ़ी की टेक्नॉलॉजी के
विकास ने यह संभावना पैदा कर दी है कि फोम, पोलीस्टायरीन, पोलीथीन जैसे मुश्किल से पुन:चक्रित प्लास्टिक्स और मिश्रित कचरे का पुन:चक्रण
किया जा सके।
यूएस के नीति निर्माताओं ने इस क्षेत्र में आर्थिक विकास की संभावना को पहचाना
है। हाल ही में यूएस के ऊर्जा विभाग ने डेलावेयर विश्वविद्यालय को उसके नए सेंटर
फॉर प्लास्टिक इनोवेशन के लिए 1.16 करोड़ डॉलर का वित्तीय समर्थन दिया है। ऐसा माना
जा रहा है कि यह अनुसंधान एकबार-उपयोग वाले प्लास्टिक पैकेजिंग के क्षेत्र में और
अन्य क्षेत्रों में भी 100 फीसदी पुन:चक्रण योग्य उत्पाद बनाने के प्रयासों में
मददगार होगा। एडिडास द्वारा 100 प्रतिशत पुन:चक्रण योग्य जूतों का विकास इसी का एक
उदाहरण है।
सन 2020 में यूएस के ऊर्जा विभाग ने 12 नए प्रोजेक्ट्स के लिए 2.7 करोड़ डॉलर
की सहायता का वचन दिया है। इनमें जैविक उत्पादों के विकास के प्रोजेक्ट्स शामिल
हैं।
इसके अलावा,
यूएस में कुछ एकबारी उपयोग वाले प्लास्टिक पैकेजिंग
उपयोगकर्ता अब प्लास्टिक संसाधनों के विकास के लिए अपने आपूर्तिकर्ताओं पर निर्भर
नहीं हैं। वे स्वयं ऐसे अनुसंधान को वित्तीय सहायता दे रहे हैं जो ज़्यादा टिकाऊ
उत्पाद व कच्चा माल तैयार करने में मददगार हो। इसका एक उदाहरण लोरियाल है जिसने
पीईटी बोतलों के विकास के लिए फ्रांसीसी जैव-औद्योगिक अनुसंधान कंपनी कार्बिओस के
साथ आणविक-स्तर की पुन:चक्रण टेक्नॉलॉजी पर काम शुरू किया है।
बिज़नेस की दृष्टि
यूएस की कंपनियों के उपरोक्त प्रयासों के अलावा, हाई-टेक
पुन:चक्रण के क्षेत्र नवीन आर्थिक गतिविधियों का एक संकेत पेनसिल्वेनिया की
प्रांतीय सीनेट में पारित एक विधेयक से भी मिलता है। इस विधेयक के तहत पुन:चक्रण
को एक अलग क्षेत्र मानने की बजाय निर्माण उद्योग का ही अंग माना जाएगा। इस कदम से
पता चलता है कि पारंपरिक कचरे-से-ऊर्जा की दहन टेक्नॉलॉजी और आधुनिक पायरोलिसिस
टेक्नॉलॉजी में कितना अंतर है।
दहन के विपरीत पायरोलिसिस एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें प्लास्टिक को पिघलाकर
पुन: उपयोग के काबिल कच्चे माल में परिवर्तित किया जाता है और इसमें गैसों का
उत्सर्जन भी बहुत कम होता है। पायरोलिसिस का इस्तेमाल प्लास्टिक से तरल र्इंधन
प्राप्त करने में भी किया जा सकता है। अलबत्ता, इस
प्रक्रिया के लिए जो ऊर्जा लगती है, उसके लिए पर्यावरण-अनुकूल
मार्ग खोजने की ज़रूरत है और पेनसिल्वेनिया में यही कोशिश चल रही है। सौर ऊर्जा के
उपयोग पर काम चल रहा है।
पेनसिल्वेनिया में चल रहे प्लास्टिक पुन:चक्रण के अगली पीढ़ी के इन प्रयासों की
खास बात यह है कि इनमें सरकार एक भागीदार है और यह ऊर्जा विभाग की एक वर्तमान
योजना का हिस्सा है। यह एक और उदाहरण है कि प्लास्टिक पुन:चक्रण की उपलब्ध
टेक्नॉलॉजी को व्यवहार में उतारने की ज़रूरत है।
उपभोक्ता की दृष्टि
प्लास्टिक में कमी लाने के सारे प्रयासों के लिए सबसे महत्वपूर्ण घटक
उपभोक्ताओं का समर्थन है और इसका अभाव भी सबसे ज़्यादा है। निजी आदतों को बदलना
मुश्किल होता है और दुनिया के कई हिस्सों में पुन:चक्रण के क्षेत्र में धीमी
प्रगति इसका प्रमाण है। भारत में भी यदि हम अपने घरों के बाहर नज़र डालें तो देख
सकते हैं कि हममें से कितने लोग कचरे का पृथक्करण करते हैं और उसे कचरा गाड़ियों
में सही जगह पर डालते हैं। लेकिन एकल-उपयोग प्लास्टिक की बजाय पुन:उपयोगी पैकेजिंग
के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए उपभोक्ताओं की भागीदारी ज़रूरी है और इस बात के
प्रमाण मिल रहे हैं कि प्लास्टिक प्रदूषण की रोकथाम की जागरूकता बढ़ रही है। विश्व
प्रकृति निधि व अन्य संस्थाओं के प्रयासों से प्लास्टिक प्रदूषण का संकट मुख्यधारा
के विमर्श का हिस्सा बन गया है।
बिज़नेस केस फॉर ए यूएन ट्रीटी में कहा गया है, “दुनिया भर में प्लास्टिक प्रदूषण को नंबर तीन का पर्यावरणीय संकट माना गया
है।” रिपोर्ट में 2017 को एक निर्णायक मोड़ का बिंदु भी कहा गया है। यूएस में एक
अध्ययन में पाया गया कि “प्लास्टिक को उपभोक्ता वस्तुओं में सबसे नकारात्मक पदार्थ
माना जाता है। और अध्ययन में शामिल किए गए 65 प्रतिशत उपभोक्ताओं ने माना था इसका
सम्बंध समुद्री प्रदूषण से है और 75 प्रतिशत ने इसे पर्यावरण के लिए हानिकारक माना
था।”
भारत में क्रियांवयन
पूर्व के अध्ययनों के लिए उदाहरण यूएस से लिए गए थे क्योंकि वहां प्लास्टिक की
एक चक्राकार अर्थ व्यवस्था सम्बंधी छिटपुट प्रयास शुरू हो चुके हैं। अब भारत पर एक
नज़र डालते हैं। कुछ मायनों में भारत एक अनूठा देश है। इसलिए यहां ऐसी चक्राकार
अर्थ व्यवस्था के विकास के समक्ष कुछ विशिष्ट चुनौतियां उपस्थित होंगी। उदाहरण के
लिए,
सड़कों-गलियों में कचरा फेंकना हमारे यहां बहुत बुरी बात
नहीं माना जाता। इसलिए इस बात पर अमल करना थोड़ा मुश्किल होगा कि कोई प्लास्टिक
पर्यावरण में न पहुंचे।
चक्राकार प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था के लिए जो भी कारोबारी मॉडल अपनाया जाए, वह सरकार व बिज़नेस दोनों के लिए लाभदायक होना चाहिए। बिज़नेस को अपने उत्पादन
के तौर-तरीकों में बदलाव करने होंगे ताकि प्लास्टिक कचरे को कम करने के नए तरीकों
का समावेश किया जा सके। आम तौर पर सरकार के पास ऐसा कोई कदम उठाने का प्रलोभन नहीं
होता जिससे वोट का सम्बंध न हो। देश में शिक्षा की अल्प अवस्था को देखते हुए शायद
अधिकांश लोगों ने नई प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था के बारे में सुना तक न होगा। यदि इस
नए मॉडल को लागू करने से उद्योगों का मुनाफा कम होता है, तो वे
शायद ऐसी नवीन चक्राकार प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था के विरुद्ध मुहिम शुरू कर दें। और
आम लोगों को ऐसे मॉडल को अपनाने के लिए प्रेरित करने के कोई तरीके भी नहीं हैं।
लोगों को पुन:चक्रण के लिए तैयार करने के लिए कुछ तो नगद प्रलोभन देना होगा। लेकिन
प्राय: देखा गया है कि ऐसे प्रलोभन गलत व्यवहार को बढ़ावा देने लगते हैं।
निष्कर्ष
यह सही है कि नई प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था के लिए राष्ट्र संघ संधि सही दिशा
में एक कदम है,
लेकिन किसी इकलौते मॉडल को सब जगह लागू करना मुश्किल है
क्योंकि हर देश की अपनी विशिष्ट चुनौतियां हैं। अभी निश्चित तौर पर नहीं कहा जा
सकता कि जहां अन्य मॉडल्स नाकाम रहे हैं, वहां यह नया मॉडल किस हद
तक सफल होगा। ज़रूरत यह है कि मात्र पुन:चक्रण, कंपोस्टिग
और पुन:उपयोग से आगे बढ़कर कोई ऐसी चीज़ आज़माई जाए जो बदलाव पैदा कर दे।
एक नज़रिया तो यह है कि भरपूर उपयोग करके फिर कचरे को ठिकाने लगाने के बारे में सोचने की बजाय गैर-ज़रूरी उपयोग को कम किया जाए। अधिक उपभोग ही प्लास्टिक कचरे के पर्यावरण में जमा होने का प्रमुख कारण है। शायद चक्राकार अर्थ व्यवस्था में इस बात पर काफी ध्यान दिया जाना चाहिए कि हम मात्र ज़रूरी कार्यों में प्लास्टिक का उपयोग करें और जहां संभव हो वहां पुन:उपयोग करें। बहरहाल, नवीन प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था एक अनोखा मॉडल है जो रोचक है और इस बात को लेकर एक ताज़ातरीन नज़रिया देता है कि हम कचरे के साथ कैसे व्यवहार करते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.ellenmacarthurfoundation.org/assets/images/_bigImage/NPEC-vision-EMFlogo.png