दक्षिण अफ्रीका में घुसपैठी प्रजातियों का आतंक

क्षिण अफ्रीका के राष्ट्रीय जैव विविधता संस्थान द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक घुसपैठी जैव प्रजातियों की वजह से देश की अर्थ व्यवस्था पर 45 करोड़ डॉलर का वार्षिक बोझ पड़ रहा है और ये जैव विविधता के ह्यास का एक बड़ा कारण बन गई हैं। इन घुसपैठी प्रजातियों में वनस्पतियों के अलावा कीट और मछलियां भी शामिल हैं। यह अपने किस्म की पहली रिपोर्ट है।

दरअसल, 2014 में दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने यह अनिवार्य कर दिया था कि हर तीन साल में घुसपैठी प्रजातियों की समीक्षा की जाएगी। गौरतलब है कि घुसपैठी प्रजातियां ऐसी प्रजातियों को कहते हैं जिन्हें अपने कुदरती आवास के बाहर किसी इकोसिस्टम में प्रविष्ट कराया जाता है या जो स्वयं ही दूरदूर तक फैलकर अन्य इकोसिस्टम्स में घुसने लगती हैं। यह रिपोर्ट उपरोक्त नियम के तहत ही तैयार की गई है और इसके लिए देश भर की प्रयोगशालाओं तथा विभिन्न केंद्रों पर संग्रहित जानकारी का सहारा लिया गया है। रिपोर्ट में घुसपैठी प्रजातियों के प्रभाव,उनसे निपटने के उपायों तथा उनके प्रवेश के रास्तों की भी समीक्षा की गई है।

2015 में 14 राष्ट्रीय संगठनों के 37 शोधकर्ताओं ने राष्ट्रीय जैव विविधता संस्थान तथा स्टेलेनबॉश विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर एक्सलेंस फॉर इन्वेज़न बायोलॉजी के नेतृत्व में इस रिपोर्ट को तैयार किया है।

रिपोर्ट में बताया गया है कि दक्षिण अफ्रीका में प्रति वर्ष 7 नई प्रजातियां प्रविष्ट होती हैं। आज तक कुल 775 घुसपैठी प्रजातियों की पहचान की गई है। इनमें से अधिकांश तो पेड़पौधे हैं। रिपोर्ट के लेखकों का अनुमान है कि इनमें से 107 प्रजातियां देश की जैव विविधता और मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं। उदाहरण के तौर पर, प्रोसोपिस ग्लेंडुलोस (हनी मेस्क्वाइट) है जिसे पूरे अफ्रीका में पशुओं के चारे के रूप में लाया गया था। आज यह चारागाहों को तबाह कर रही है और स्थानीय वनस्पति को बढ़ने से रोकती है। एक रिपोर्ट के मुताबिक यह मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों के फैलने में मददगार है।

इसी तरह से एक कीट सायरेक्स नॉक्टिलो वानिकी को प्रभावित करता है तो एक चींटी लाइनेपिथिमा ह्रूमाइल स्थानीय वनस्पतियों के बीजों के बिखराव को तहसनहस करती है जबकि जलकुंभी ने देश के बांधों और नहरों को पाट दिया है। रिपोर्ट का यह भी कहना है कि कई घुसपैठी प्रजातियां बहुत पानी का उपभोग करती हैं।

इस रिपोर्ट को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर घुसपैठी प्रजातियों के बारे में एक समग्र रिपोर्ट बताया गया है जबकि रिपोर्ट के लेखकों का कहना है कि जानकारी के अभाव के चलते यह रिपोर्ट उतनी विश्वसनीय नहीं बन पाई है। लेकिन इस प्रयास की काफी सराहना की जा रही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विशेष पुताई करके घरों को ठंडा रखें

तेज़ धूप वाले देशों में घरों को सफेद रंग से पोता जाता है ताकि धूप टकराकर लौट जाए। इसी रणनीति को आगे बढ़ाते हुए एक नई शीतलन सामग्री तैयार की जा रही है। इसे किसी भी सतह पर पोता जा सकता है और तापमान लगभग 6 डिग्री सेल्सियस तक कम किया जा सकता है।

वास्तव में धूप में अवरक्त (आईआर) और पराबैंगनी (यूवी) किरणें गर्मी का मुख्य कारण होती हैं। सफेद रंग 80 प्रतिशत दृश्य प्रकाश को परावर्तित करता है लेकिन आईआर और यूवी को नहीं। इस नई सामग्री में अधिकांश आईआर और यूवी को परावर्तित करने की क्षमता है। इसमें उपस्थित बहुलक और अन्य पदार्थों की रासायनिक संरचना के कारण अतिरिक्त गर्मी ऐसी तरंग लंबाइयों पर विकिरित होती है जिन्हें वायुमंडल नहीं रोकता और हवा गर्म नहीं होती।

पहले भी इस क्षेत्र में काफी काम किए जा चुके हैं। सिलिकॉन डाईऑक्साइड और हाफनियम डाईऑक्साइड की परावर्तक सतह तैयार करके तापमान में 5 डिग्री सेल्सियस की कमी प्राप्त की गई। इसी प्रकार से, एयर कंडीशनिंग में पानी को ठंडा करने के लिए एक बहुलक और चांदी की मिलीजुली फिल्म के उपयोग से एयर कंडीशनिंग लागत में 21 प्रतिशत बचत की गई। कांच के महीन मोती जड़ी एक प्लास्टिक फिल्म सतह को 10 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा करने में सक्षम थी। ऑस्ट्रेलिया में, एक ऐसा पॉलिमर तैयार किया गया जो छत को 3-6 डिग्री सेल्सियस ठंडा रख सकता था।

कोलंबिया विश्वविद्यालय में भौतिकविद युआन यांग और नैनफांग यू के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने प्लास्टिक में वायु रिक्तिकाएं जोड़कर अत्यधिक परावर्तक सामग्री बनाने पर प्रयोग किया। एक बहुलक पर काम करते हुए उन्होंने पाया कि कुछ स्थितियों में, यह सामग्री सूखने के बाद सफेद हो जाती है। सूक्ष्मदर्शी से देखने पर पाया कि सूखी फिल्म में एक दूसरे से जुड़ी वायु रिक्तिकाएं बन गई हैं जो अधिक प्रकाश को परावर्तित कर सकती हैं।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने अन्य बहुलक की मदद से इसको बेहतर बनाने की कोशिश की। आखिरकार, उन्होंने पीवीडीएफएचएफपी नामक एक बहुलक एसीटोन में घोल के रूप में तैयार किया। जब सतह पर पोता गया तो एसीटोन वाष्पित हो गया और बहुलक में पानी की बूंदों का एक जाल बन गया। अंत में, पानी भी वाष्पित हो गया जिससे वायुछिद्रों से भरी एक फिल्म तैयार हो गई। यह 99.6 प्रतिशत प्रकाश को परावर्तित कर सकती है।

साइंस में ऑनलाइन प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार दोपहर के समय में इस फिल्म से पुती सतह 6 डिग्री सेल्सियस तक ठंडी बनी रही। यह नई सामग्री कुछ मौसमों में ठंडा करने की लागत को 15 प्रतिशत तक कम कर सकती है। लेकिन यह पेंट आजकल उपयोग होने वाले एक्रिलिक पेंट की तुलना में पांच गुना अधिक महंगा है। तो सवाल यह है कि क्या यह व्यावसायिक तौर पर उपयोगी होगा या अभी पारंपरिक तरीके ही काम आएंगे। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु परिवर्तन को समझने में मददगार खेलकूद

पिछले कुछ दशकों में हुए जलवायु परिवर्तन और पेड़पौधों पर इसके असर को समझने के लिए एक सर्वथा नया रुाोत सामने आया है खुले में होने वाले खेलकूद के वीडियो।

पारिस्थितिकी विज्ञानी और सायकल रेस प्रेमी पीटर डी फ्रेने टूर्स ऑफ फ्लैंडर्स नामक सायकल रेस के 1980 के दशक के वीडियो देख रहे थे। अचानक रेस ट्रैक के पीछे के नज़ारों ने उनका ध्यान खींचा। उन्होंने देखा कि रेस ट्रैक के पीछे के पेड़ों पर पत्तियां नहीं हैं। जबकि वर्तमान रेसों में ट्रैक के पीछे के पेड़ों पर पत्तियां दिखती थीं। रेस के इन वीडियो का उन्होंने जलवायु परिवर्तन और पेड़पौधों पर होने वाले प्रभाव के बीच सम्बंध को समझने के लिए इस्तेमाल किया।

अब तक इस तरह के अध्ययनों में परंपरागत हर्बेरियम (वनस्पति संग्रह) का उपयोग किया जाता था। लेकिन हर्बेरियम डैटा के साथ मुश्किलें हैं। उत्तरी अमेरिका और युरोप को छोड़कर बाकी जगहों पर हर्बेरियम नमूने बहुत कम हैं। एक विकल्प के तौर पर वैज्ञानिकों ने पर्यावरण के सचित्र विवरण वाले लेखों और किताबों का उपयोग शुरू किया। स्मार्ट फोन की सहज उपलब्धता से लोगों द्वारा यादगार दिनों और स्थलों की खींची गई तस्वीरों को भी अध्ययन के डैटा की तरह उपयोग करने पर विचार किया। किंतु यह डैटा काफी बिखरा हुआ है और इसे इकट्ठा करना मुश्किल है।

टूर्स ऑफ फ्लैंडर्स बेल्जियम की लोकप्रिय सायकल रेस है। 260 कि.मी. लंबी इस रेस की खास बात यह है कि यह हर साल अप्रैल में ही आयोजित होती है। यानी अध्ययन के लिए हर वर्ष का एक ही समय का डैटा आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। साथ ही उन्हीं पेड़पौधों का अलगअलग कोण से अवलोकन जा सकता है।

शोधकर्ताओं ने फ्लेमिश रेडियो एंड टेलीविज़न ब्राॉडकास्टिंग आर्गेनाइज़ेशन के अभिलेखागार से रेस के 200 घंटे के वीडियो लिए। इन वीडियो से उन 46 पेड़ों और झाड़ियों को चिंहित किया जिनका अलगअलग कोण से अवलोकन संभव था। इस तरह 525 चित्र  निकाले। इन चित्रों के विश्लेषण में उन्होंने पाया कि 1980 के दशक में अप्रैल माह के शुरुआत में किसी भी पेड़ या झाड़ी पर फूल नहीं आए थे। और लगभग 26 प्रतिशत पेड़पौधों पर ही पत्तियां थीं। लेकिन साल 2006 के बाद के उन्हीं पेड़ों में से 46 प्रतिशत पर पत्तियां आ चुकी थीं और 67 प्रतिशत पर फूल आ गए थे। शोधकर्ताओं ने जब वहां के स्थानीय जलवायु परिवर्तन के डैटा को देखा तो पाया कि 1980 से अब तक औसत तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है।

गेंट विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञानी लोविस का कहना है कि इस तरह के अध्ययन आम लोगो को जलवायु परिवर्तन के प्रभाव समझाने में महत्वपूर्ण हो सकते हैं। बढ़ते हुए तापमान के आंकड़े बताने या ग्राफ पर दर्शाने से बात वैज्ञानिकों की समझ में तो आ जाती है मगर आम लोग, खासकर राजनेता, इसे इतनी गंभीरता से नहीं देखते। इन प्रभावों के फोटो और वीडियो इसमें मददगार हो सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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आपदाओं की क्षति कम करने की नीतियां – भारत डोगरा

किसी भी आपदा के आने पर उसके नियंत्रण के उपाय उच्च प्राथमिकता के आधार पर किए जाते हैं। पर यदि नीतिगत स्तर पर कुछ सावधानियों व समाधानों पर निरंतरता से कार्य हो तो आपदाओं की संभावना भी कम होगी तथा किसी आपदा से होने वाली क्षति भी कम होगी।

जल संरक्षण व हरियाली बढ़ाने के छोटेछोटे लाखों कार्यों में सरकार को निवेश बड़ी मात्रा में बढ़ाना चाहिए। साथ ही यह कार्य जन भागीदारी से करने की व्यवस्था करनी चाहिए। जल संरक्षण के साथ नमी संरक्षण की सोच को महत्त्व मिलना चाहिए। हरियाली स्थानीय वनस्पतियों से बढ़नी चाहिए। वृक्षारोपण में जल व मिट्टी संरक्षण के साथ पौष्टिक खाद्य उपलब्धि को भी महत्व देना चाहिए। जिन गांवों में जल संरक्षण व हरियाली की उत्तम व्यवस्था है, वे विभिन्न आपदाओं के प्रकोप को झेलने में अन्य ग्रामीण क्षेत्रों से अधिक सक्षम हैं। कुछ अलग तरह से यह प्राथमिकता शहरी व अर्धशहरी क्षेत्रों में भी अपनानी चाहिए।

विभिन्न संदर्भों में पर्यावरण रक्षा की नीतियों को मज़बूत करने से आपदाओं में होने वाली क्षति को कम करने में सहायता मिलेगी। चाहे खनन नीति हो या वन नीति या कृषि नीति, यदि इनमें पर्यावरण की रक्षा पर समुचित ध्यान दिया जाता है तो इससे आपदाओं की संभावना व क्षति को कम करने में भी मदद मिलेगी।

विभिन्न क्षेत्रों की संभावित आपदा की दृष्टि से मैपिंग करने, पहचान करने व आपदा का सामना करने की तैयारी पर पहले से समुचित ध्यान देना ज़रूरी है। जलवायु बदलाव के इस दौर में केवल सामान्य नहीं अपितु असामान्य स्थितियों की संभावना को भी ध्यान में रखने की ज़रूरत है। इसके लिए बजट बढ़ाने के साथसाथ अनुभवी स्थानीय लोगों के परामर्श को महत्व देना आवश्यक है। अधिक जोखिमग्रस्त स्थानों में रहने वाले लोगों से परामर्श के बाद नए स्थान पर पुनर्वास ज़रूरी समझा जाए तो उसकी व्यवस्था भी करनी चाहिए।

मौसम के पूर्वानुमान की बेहतर व्यवस्था, इसके समुचित प्रसार को सुनिश्चित करना भी आवश्यक है।

देश के ढांचागत या इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास में आपदा पक्ष को भी स्थान मिलना चाहिए। दूसरे शब्दों में, विभिन्न ढांचागत विकास की परियोजनाओं (सड़क, हाईवे, नहर, बांध, बिजलीघर आदि) के नियोजन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह भी होना चाहिए कि उनसे किसी आपदा की संभावना या उससे होने वाली क्षति न बढ़े। उदाहरण के लिए सड़कों में निकासी की उचित व्यवस्था न होने से बाढ़ व जलजमाव की समस्या बहुत बढ़ सकती है। विभिन्न ढांचागत परियोजनाओं में बड़े पैमाने पर पेड़ काटने या डायनामाइट दागने से भूस्खलन की समस्या बहुत बढ़ सकती है। इस बारे में पहले से सावधानी बरती जाए तो अनेक महंगी गलतियों से बचा जा सकता है। इस तरह की सावधानियां विशेषकर उन क्षेत्रों में अपनाना ज़रूरी है जहां बहुत बड़े पैमाने पर ढांचागत विकास होने वाला है। यह स्थिति इस समय देश के अनेक क्षेत्रों की है, जो पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील माने गए हैं। जैसे हिमालय व पश्चिमी घाट क्षेत्र।

बांध प्रबंधन में सुधार की ज़रूरत काफी समय से महसूस की जा रही है। इस बारे में उच्च अधिकारियों व विशेषज्ञों ने वर्तमान समय में कहा है कि बांध प्रबंधन में बाढ़ से रक्षा को अधिक महत्व देना व इसके अनुकूल तैयारी करना महत्वपूर्ण है।

आपदाओं की स्थिति में कैसा व्यवहार करना चाहिए, कैसी तैयारी घरपरिवार व स्कूलकॉलेजों में पहले से रखनी चाहिए, इसके लिए समयसमय पर प्रशिक्षण दिए जाएं व इसकी ड्रिल की जाए तो यह कठिन वक्त में सहायक सिद्ध होंगे।

शौच व्यवस्था या स्वच्छता के क्षेत्र में प्रगति से भी आपदाओं के नियंत्रण में मदद मिलेगी। विशेषकर प्लास्टिक व पोलीथीन के कचरे पर नियंत्रण से बाढ़ व जल जमाव की समस्या को कम करने में सहायता मिलेगी। बाढ़ व जल जमाव से अधिक प्रभावित होने वाले क्षेत्रों में यदि परिस्थितियों के अनुकूल स्वच्छ शौच व्यवस्था हो जाए तो इससे यहां के लोगों को राहत मिलेगी। दूसरी ओर जल्दबाज़ी में की गई व ज़रूरी सावधानियों की अवहेलना करने वाली व्यवस्थाएं यहां के लिए हानिकारक भी हो सकती हैं। ऐसे क्षेत्रों में भूजल स्तर ऊपर होता है। अत: शौचालय बनाते समय यह ध्यान में रखना ज़रूरी होता है कि कहीं इनका डिज़ाइन ऐसा न हो कि उससे भूजल के प्रदूषित होने की संभावना हो।

यदि उचित नीतियां अपनाकर उनके क्रियांवयन में निरंतरता रखते हुए सावधानियों व समाधानों पर ध्यान दिया जाए तो आपदाओं की संभावना व उनसे होने वाली क्षति को काफी कम किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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आज विश्व पर्यटन दिवस(World Tourism Day ) है – ज़ुबैर सिद्दकी

विश्व पर्यटन दिवस समारोह संयुक्त राष्ट्र पर्यटन संगठन (यू.एन.डब्ल्यू.टी..) द्वारा 1980 में शुरु किया गया था और हर वर्ष 27 सितंबर को मनाया जाता है। 1970 में इसी दिन यू.एन.डब्ल्यू.टी.. के कानून प्रभाव में आए थे जिसे विश्व पर्यटन के क्षेत्र में मील का पत्थर माना जाता है। इसका लक्ष्य अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के साथसाथ लोगों को विश्व पर्यटन के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक निहितार्थ के बारे में जागरुक करना है।

हर वर्ष इस दिवस के कार्यक्रम किसी विषय या थीम पर केंद्रित रहते हैं। 2013 में इसकी थीम थी पर्यटन और पानी: हमारे साझे भविष्य की रक्षा और 2014 में पर्यटन और सामुदायिक विकास2015 का विषय लाखों पर्यटक, लाखों अवसर था। 2016 का विषय सभी के लिए पर्यटन विश्वव्यापी पहुंच को बढ़ावा था।

इस वर्ष का विषय पर्यटन और सांस्कृतिक संरक्षण है। हर वर्ष यू.एन.डब्ल्यू.टी.. के महासचिव आम जनता के लिए एक संदेश प्रसारित करते हैं। विभिन्न पर्यटन संस्थान, संगठन, सरकारी एजेंसियां आदि इस दिन को मनाने में बढ़चढ़कर हिस्सा लेते हैं। इस दिन विभिन्न प्रकार की प्रतियोगिताएं जैसे पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये फोटो प्रतियोगिता, पर्यटन पुरस्कार प्रस्तुतियां, आम जनता के लिये छूट/विशेष प्रस्ताव आदि आयोजित किए जाते हैं।

पर्यटकों के लिए विभिन्न आकर्षक और नए स्थलों की वजह से पर्यटन दुनिया भर में लगातार बढ़ने वाला और विकासशील आर्थिक उद्यम बन गया है। कई विकासशील देशों के लिए यह आय का मुख्य स्रोत भी साबित होने लगा है।

हर वर्ष यह सितंबर माह के अंत में किसी देश की राजधानी में इसका समारोह आयोजित किया जाता है। चूंकि इस वर्ष कंबोडिया को सबसे बेहतरीन पर्यटक देश का खिताब मिला है इसलिए आधिकारिक समारोह कंबोडिया की राजधानी नॉम पेन्ह में आयोजित किया गया।

लेकिन पर्यटन के साथसाथ हमें एक और महत्वपूर्ण समस्या की ओर सोचना चाहिए। एक ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक स्तर पर पर्यटन उद्योग इतना तेज़ी से आगे बढ़ा है कि आज यह कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में लगभग 8 प्रतिशत के लिए जवाबदेह है। ग्रीनहाउस गैसें उन गैसों को कहते हैं जो वायुमंडल में उपस्थित हों तो धरती का तापमान बढ़ाने में मददगार होती हैं। इनमें कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन प्रमुख हैं।

ऑस्ट्रेलिया के सिडनी विश्वविद्यालय की अरुणिमा मलिक और उनके साथियों ने 160 देशों में पर्यटन की वजह से होने वाले सालाना ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की गणना की है। उनका कहना है कि यह उद्योग हर साल जितनी अलगअलग ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करता है वे 4.5 गिगाटन कार्बन डाईऑक्साइड के बराबर हैं। पूर्व के अनुमान थे कि पर्यटन उद्योग का सालाना ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 1-2 गिगाटन प्रति वर्ष होता है।

मलिक की टीम ने जो हिसाब लगाया है उसमें उन्होंने सीधेसीधे हवाई यात्राओं की वजह से होने वाले उत्सर्जन के अलावा अप्रत्यक्ष उत्सर्जन की भी गणना की है। अप्रत्यक्ष उत्सर्जन में पर्यटकों के लिए भोजन पकाने (सैलानी काफी डटकर खाते हैं), होटलों के रखरखाव, तथा सैलानियों द्वारा खरीदे जाने वाले तोहफों/यादगार चीज़ों (सुवेनिर) के निर्माण के दौरान होने वाले उत्सर्जन को शामिल किया गया है।

टीम का कहना है कि पर्यटन के कार्बन पदचिंह में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है। कार्बन पदचिंह से मतलब है कि कोई गतिविधि कितनी कार्बन डाई ऑक्साइड वायुमंडल में छोड़ती है। जहां 2009 में पर्यटन का कार्बन पदचिंह 3.9 गिगाटन था वहीं 2013 में बढ़कर 4.4 गिगाटन हो गया। टीम का अनुमान है कि 2025 में यह आंकड़ा 6.5 गिगाटन हो जाएगा।

समृद्धि बढ़ने के साथ पर्यटन बढ़ता है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि यूएसए सबसे बड़ा पर्यटनकार्बन उत्सर्जक है न सिर्फ अमरीकी नागरिक बहुत सैरसपाटा करते हैं बल्कि कई सारे देशों के लोग यूएसए पहुंचते हैं। किंतु मलिक का कहना है कि कई अन्य देश तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं। चीन, ब्राज़ील और भारत जैसे देशों के लोग आजकल दूरदूर तक पर्यटन यात्राएं करते हैं। राष्ट्र संघ के विश्व पर्यटन संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2017 में चीनी लोगों ने पर्यटन पर 258 अरब डॉलर खर्च किए थे।

नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित रिपोर्ट में टीम की सबसे पहली सिफारिश है कि पर्यटन के लिए हवाई यात्राओं को न्यूनतम किया जाए। किंतु मलिक मानती हैं कि पर्यटकों में दूरदराज इलाकों में पहुंचने की इच्छा बढ़ती जा रही है और संभावना यही है कि मैन्यूफैक्चर, विनिर्माण और सेवा प्रदाय के मुकाबले पर्यटनसम्बंधी खर्च कार्बन उत्सर्जन का प्रमुख कारण होगा। (स्रोत फीचर्स)

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पेड़-पौधे भी संवाद करते हैं

यह तो हम सब जानते हैं कि पौधों में मस्तिष्क नहीं होता लेकिन उनके पास किसी प्रकार का तंत्रिका तंत्र ज़रूर होता है। हाल ही में जीव वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि जब पेड़ का एक पत्ता खाया जाता है, तो अन्य पत्तियों को चेतावनी मिलती है और यह चेतावनी लगभग जंतुओं जैसे संकेतों के रूप में होती है। इस जानकारी ने इस गुत्थी को सुलझाना शुरू किया है कि पौधे के विभिन्न हिस्से एकदूसरे के साथ कैसे संवाद करते हैं।

जंतुओं में तंत्रिका कोशिकाएं ग्लूटामेट नामक अमीनो अम्ल की सहायता से एकदूसरे से बात करती हैं। किसी उत्तेजित तंत्रिका कोशिका द्वारा मुक्त किए जाने के बाद ग्लूटामेट पास की कोशिकाओं में कैल्शियम आयनों की तरंग पैदा करता है। ये तरंगें अगली तंत्रिका कोशिका तक जाती हैं, जो लाइन में अगली कोशिका को संकेत देती हैं और इस प्रकार लंबी दूरी का संचार संभव हो पाता है।

वैज्ञानिक यह समझने की कोशिश कर रहे थे कि पौधे गुरुत्वाकर्षण के प्रति कैसे प्रतिक्रिया देते हैं। इसी दौरान यह खोज सामने आई। उन्होंने एक आणविक सेंसर विकसित किया जो कैल्शियम में बढ़ोतरी का पता लगा सकता था। उन्होंने यह सेंसर एरेबिडॉप्सिस नामक पौधे में जोड़ दिया। सेंसर कैल्शियम के स्तर में वृद्धि होने पर चमकता है। फिर उन्होंने कैल्शियम गतिविधि का पता लगाने के लिए पौधे की एक पत्ती को तोड़ा।

साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार वैज्ञानिकों ने घाव वाले स्थान के करीब चमक को बढ़ते और फिर कम होते देखा। धीरेधीरे इसी तरह की चमक थोड़ी दूरी पर भी देखी गई और यह कैल्शियम की लहर अन्य पत्तियों तक भी पहुंच गई। आगे के अध्ययन से मालूम चला कि कैल्शियम तरंग की शुरुआत ग्लूटामेट के कारण हुई थी।

हालांकि, जीव विज्ञानियों को यह तो पहले से मालूम था कि पौधे के एक हिस्से में होने वाला परिवर्तन दूसरे हिस्सों द्वारा महसूस किया जाता है लेकिन इस प्रसारण की क्रियाविधि को वे नहीं जानते थे। अब जब उन्होंने कैल्शियम तरंग और ग्लूटामेट की भूमिका देख ली है, तो शोधकर्ता इसकी बेहतर निगरानी कर सकेंगे और शायद एक दिन पौधे के आंतरिक संचार में फेरबदल भी कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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औद्योगिक कृषि से वन विनाश

विश्व स्तर पर जंगली क्षेत्र में हो रही लगातार कमी का मुख्य कारण औद्योगिक कृषि को बताया जा रहा है। प्रति वर्ष 50 लाख हैक्टर क्षेत्र औद्योगिक कृषि के लिए परिवर्तित हो रहा है। बड़ीबड़ी कंपनियों द्वारा वनों की कटाई ना करने की प्रतिज्ञा के बावजूद, ताड़ एवं अन्य फसलें उगाई जा रही हैं जिसके चलते पिछले 15 वर्षों में जंगली क्षेत्र का सफाया होने में किसी भी प्रकार की कमी नहीं आई है।

इस विश्लेषण से यह तो साफ है कि केवल कॉर्पोरेट वचन से जंगलों को नहीं बचाया जा सकता है। 2013 में, मैरीलैंड विश्वविद्यालय, कॉलेज पार्क में रिमोट सेंसिंग विशेषज्ञ मैथ्यू हैन्सन और उनके समूह ने उपग्रह तस्वीरों से 2000 और 2012 के बीच वन परिवर्तन के मानचित्र प्रकाशित किए थे। लेकिन इन नक्शों से वनों की कटाई और स्थायी हानि की कोई पुख्ता जानकारी नहीं मिल पाई थी।

एक नए प्रकार के विश्लेषण के लिए सस्टेनेबिलिटी कंसॉर्शियम के साथ काम कर रहे भूस्थानिक विश्लेषक फिलिप कर्टिस ने उपग्रह तस्वीरों की मदद से जंगलों को नुकसान पहुंचाने वाले पांच कारणों को पहचानने के लिए एक कंप्यूटर प्रोग्राम तैयार किया है। ये कारण हैं जंगलों की आग (दावानल), प्लांटेशन की कटाई, बड़े पैमाने पर खेती, छोटे पैमाने पर खेती और शहरीकरण। सॉफ्टवेयर को इनके बीच भेद करना सिखाने के लिए कर्टिस ने ज्ञात कारणों से जंगलों की कटाई वाली हज़ारों तस्वीरों का अध्ययन किया।

यह प्रोग्राम तस्वीर के गणितीय गुणों के आधार पर छोटेछोटे क्षेत्रों में अनियमित खेती और विशाल औद्योगिक कृषि के बीच भेद करता है। साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार 2001 से लेकर 2015 के बीच कुल क्षति का लगभग 27 प्रतिशत बड़े पैमाने पर खेती और पशुपालन के कारण था। इस तरह की खेती में ताड़ की खेती शामिल है जिसका तेल अधिकतर जैव र्इंधन एवं भोजन, सौंदर्य प्रसाधन, और अन्य उत्पादों में एक प्रमुख घटक के तौर पर उपयोग किया जाता है। इन प्लांटेशन्स के लिए जंगली क्षेत्र हमेशा के लिए साफ हो गए जबकि छोटे पैमाने पर खेती के लिए साफ किए गए क्षेत्रों में जंगल वापस बहाल हो गए।

कमोडिटी संचालित खेती से वनों की कटाई 2001 से 2015 के बीच स्थिर रही। लेकिन हर क्षेत्र में भिन्न रुझान देखने को मिले। ब्राज़ील में 2004 से 2009 के बीच वनों की कटाई की दर आधी हो गई। मुख्य रूप से इसके कारण पर्यावरण कानूनों को लागू किया जाना और सोयाबीन के खरीदारों का दबाव रहे। लेकिन मलेशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में, वनों की कटाई के खिलाफ कानूनों की कमी या लागू करने में कोताही के कारण ताड़ बागानों के लिए अधिक से अधिक जंगल काटा जाता रहा। इसी कारण निर्वनीकरण ब्राज़ील में तो कम हुआ लेकिन दक्षिण पूर्व एशिया में काफी बढ़ोतरी देखी गई।

कई कंपनियों ने हाल ही में वचन दिया है कि वे निर्वनीकरण के ज़रिए पैदा किया गया ताड़ का तेल व अन्य वस्तुएं नहीं खरीदेंगे। लेकिन अब तक ली गई 473 प्रतिज्ञाओं में से केवल 155 ने वास्तव में 2020 तक अपनी आपूर्ति के लिए वनों की शून्य कटाई के लक्ष्य निर्धारित किए हैं। इसमें भी केवल 49 कंपनियों ने अच्छी प्रगति की सूचना दी है।

विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय, मैडिसन की भूगोलविद लिसा रॉश के अनुसार कंपनियों के लिए शून्यकटाई वाले सप्लायर्स को ढूंढना भी एक चुनौती हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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खेल-खेल में जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई

जब कोई ज़िद्दी बच्चा होमवर्क करने से इंकार करता है तो कुछ रचनात्मक मातापिता समाधान के रूप में इसे एक खेल में बदल देते हैं। इसी तकनीक का उपयोग वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन जैसी कठिन चुनौती से निपटने के लिए कर रहे हैं।

वर्ष 2100 तक औसत वैश्विक तापमान 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ने की भविष्यवाणी के साथ, वैज्ञानिक आम जनता को इस मामले में लोगों को कार्रवाई में शामिल करने का सबसे प्रभावी तरीका खोजने का प्रयास कर रहे हैं। अभी तक सार्वजनिक सूचनाओं, अभियानों, बड़े पैमाने पर प्रयासों और चेतावनी के माध्यम से जलवायु परिवर्तन के खतरों के बारे में बताकर लोगों को इसमें शामिल करने की कोशिश की जाती रही है। लेकिन वैज्ञानिकों को को लगता है कि अनुभव और प्रयोग के माध्यम से लोगों को सीखने में सक्षम बनाने से बेहतर परिणाम मिल सकते हैं।

इसलिए, उन्होंने दुनिया भर के हज़ारों लोगों को वल्र्ड क्लाइमेट नामक खेल में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया। यह खेल सहभागियों को संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के प्रतिनिधि के रूप में जलवायु परिवर्तन से दुनिया को बचाने पर विचार करने को प्रेरित करता है। इस खेल में प्रतिनिधियोंको उनके सुझावों/निर्णयों पर तुरंत प्रतिक्रिया मिलती है। उनके निर्णय सीरोड्स नामक एक जलवायु नीति कंप्यूटर मॉडल में दर्ज किए जाते हैं। यह मॉडल बता देता है कि स्वास्थ्य, आर्थिक समृद्धि और प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा पर उनके निर्णय के प्रभाव क्या हो सकते हैं।

शोधकर्ताओं ने खेल के पहले और बाद में 2042 खिलाड़ियों का सर्वेक्षण किया और पाया कि प्रतिभागियों में जलवायु परिवर्तन के कारणों और प्रभावों की समझ में काफी वृद्धि हुई और उनमें इसके हल के लिए तत्परता भी देखने को मिली। प्लॉस वन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इनमे से 81 प्रतिशत ने जलवायु परिवर्तन के बारे में सीखने और अधिक कार्य करने की इच्छा भी व्यक्त की। यह प्रवृत्ति उत्तरी और दक्षिण अमेरिका, युरोप और अफ्रीका में आयोजित 39 खेल सत्रों में एक जैसी थी।

इन परिणामों से यह संकेत भी मिला है कि यह खेल खास तौर पर अमरीकियों तक भी पहुंचने का अच्छा माध्यम हो सकता है जो जलवायु कार्रवाई के समर्थक नहीं हैं और मुक्त बाज़ार पर सरकारी नियंत्रण का खुलकर विरोध करते हैं।

लेकिन क्या यह सदी के अंत से पहले ग्रह को 2 डिग्री सेल्सियस से गर्म होने को रोकने के लिए पर्याप्त हो सकता है? वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके लिए अधिक खिलाड़ियों को जोड़ना होगा, और खेल के प्रति इस उत्साह को वास्तविक दुनिया में स्थानांतरित करना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पेड़ – पवित्र, आध्यात्मिक और धर्म निरपेक्ष – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

जापान के कामाकुरा तीर्थ का 800 साल पुराना पूजनीय गिंको वृक्ष इस वर्ष मार्च में बर्फीली आंधी में गिर गया। तीर्थ के पुजारियों और साध्वियों ने वृक्ष पर पवित्र शराब और नमक डालकर इसका शुद्धिकरण किया। यह गिंको वृक्ष 12 फरवरी 1219 को तानाशाह सानेतोमो की हत्या का साक्षी था। उस दिन वह प्रधान पद के लिए अपने नामांकन का जश्न मनाकर मंदिर से वापस आ रहा था, तभी उसके भतीजे मिनामोतो ने उस पर हमला करके उसे मौत के घाट उतार दिया। इस कृत्य के लिए कुछ ही घंटों बाद उसका भी सिर कलम कर दिया गया। इसके साथ ही साइवा गेंजी शोगुन राजवंश का अंत हो गया।

पेड़ न केवल इतिहास बताते हैं बल्कि लोगों में विस्मय और आध्यात्मिकता भी जगाते हैं। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण गौतम बुद्ध हैं जिन्होंने बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त किया था। इसी कारण बुद्ध का एक नाम बोधिसत्व भी है। 286 ईसा पूर्व में बोधि वृक्ष की एक शाखा को श्रीलंका के अनुराधापुर में लगाया गया था। इस तरह से यह वृक्ष मानव द्वारा लगाया गया सबसे प्राचीन वृक्ष है।

भगवान बुद्ध ने ही कहा था, “पेड़ अद्भुत जीव हैं जो अन्य जीवों को भोजन, आश्रय, ऊष्मा और संरक्षण देते हैं। ये उन लोगों को भी छाया देते हैं जो इन्हें काटने के लिए कुल्हाड़ी उठाते हैं।

कर्नाटक के रामनगरम ज़िले के हुलिकल की रहने वाली 81 वर्षीय सालमारदा तिमक्का बौद्ध विचारों से प्रेरित हैं। जब उन्हें और उनके पति को समझ में आया कि उन्हें बच्चा नहीं हो सकता तो उन्होंने पेड़ लगाने और हर पेड़ की परवरिश अपने बच्चे की तरह करने का निर्णय लिया। इसके बारे में और अधिक गूगल पर पढ़, सुन एवं देख सकते हैं।

पेड़ अत्यंत प्राचीन भी हो सकते हैं। बोधि वृक्ष यदि 2,300 साल पुराना हैतो वहीं कैलिफोर्निया के विशाल सिक्वॉइ पेड़ भी लगभग उतने ही प्राचीन हैं। ये विशाल पेड़ 275 फीट लंबे, 6000 टन भारी हैं और इनका आयतन करीब 1500 घन मीटर है। समुद्र तल से 3300 मीटर की उंचाई पर खड़ा ब्रिास्टलकोन पाइन वृक्ष तो इससे भी पुराना है। तकरीबन 4850 साल प्राचीन इस वृक्ष को मेथुसेला नाम दिया है। लेकिन दुनिया का सबसे प्राचीन वृक्ष तो नॉर्वेस्वीडन की सीमा पर दलामा के एक पेड़ को माना जाता है। यह सदाबहार शंकुधारी फर पेड़ है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इसका तना 600 साल तक जीवित रहता है। इतने वर्षों में इसने अपना क्लोन बना लिया है।

पेड़ों की क्लोनिंग करने की यह क्षमता ही इन्हें जानवरों और हमसे अलग करती है। इसी खासियत के परिणामस्वरूप हमें अनुराधापुर में फलताफूलता क्लोन महाबोधि वृक्ष नज़र आता है, और इसी खासियत के चलते कामकुरा गिंको के उत्तराधिकारी वृक्ष बन जाएंगेऔर दलामा का फर वृक्ष आज भी मौजूद है। और डॉ. जयंत नार्लीकर द्वारा पुणे में लगाया गया सेब का पेड़ भी इसी खासियत का परिणाम है। यह पेड़ इंग्लैण्ड स्थित उस सेब के पेड़ की कलम से लगाया गया था जिसके नीचे कथित रूप से न्यूटन को गुरुत्वाकर्षण का विचार कौंधा था।

इंसानों या जानवरों का जीवनकाल सीमित क्यों होता है? वे मरते क्यों हैं? क्यों जानवर या इंसान पेड़पौधों की तरह अपना क्लोन बनाकर अमर नहीं हो जाते। और तो और, 40 विभाजन के बाद हमारी कोशिकाएं और विभाजित नहीं हो पातीं। गुणसूत्र की आनुवंशिक प्रतिलिपि बनाने की प्रक्रिया को समझ कर इस रुकावट के कारण को समझा जा सकता है।

जब गुणसूत्र विभाजित होकर अपनी प्रतिलिपि बनाता है तो हर बार उसका अंतिम छोर, जिसे टेलोमेयर कहते हैं, थोड़ा छोटा हो जाता है। निश्चित संख्या में प्रतिलिपयां बनाने के बाद टेलोमेयर खत्म हो जाता है। टेलोमेयर के जीव विज्ञान की समझ और क्यों कैंसर कोशिकाएं मरती नहीं (टेलोमरेज़ एंजाइम की बदौलत) इसका कारण समझने में कई लोगों का योगदान है, जिसकी परिणति डॉ. एलिजाबेथ ब्लैकबर्न और कैरोल ग्राइडर के शोध कार्य में हुई थी जिसके लिए वर्ष 2009 में उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था।

यह बात काफी पहले ही स्पष्ट हो गई थी कि पौधों में उम्र बढ़ने का तरीका जंतुओं से अलग है। डॉ. बारबरा मैकलिंटॉक ने इसे गुणसूत्र मरम्मत का नाम दिया था। डॉ. मैकलिंटॉक को यह समझाने के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था कि जीन कैसे फुदकते या स्थानांतरित होते हैं

अब हम बेहतर ढंग से जानते हैं कि उम्र बढ़ना और टेलोमेयर का व्यवहार पेड़पौधों और जंतुओं में अलगअलग तरह से होता है। जब हम किसी जंतु के जीवनकाल की बात करते हैं, तो हम उसके पूरे शरीर के जीवित रहने के बारे में बात करते हैं। किंतु पौधों में तुलनात्मक रूप से एक प्राथमिक शरीर योजना होती है। पौधे अलगअलग हिस्सों जड़, तना, शाखा, पत्ती, फूल जैसे मॉड्यूल्समें वृद्धि करते हैं।

यदि पत्तियां मर या झड़ भी जाती हैं तो बाकी का पेड़ या पौधा नहीं मरता। इसके अलावा पेड़पौधे वृद्धि में वर्धी विभाजी ऊतक (वेजिटेटिव मेरिस्टेम) का उपयोग करते हैं यानी ऐसी अविभाजित कोशिकाएं जो विभाजन करके पूरा पौधा बना सकती हैं। इसी वजह से किसी पेड़ या पौधे की एक शाखा या टहनी से नया पौधा उगाया जा सकता है या उसकी कलम किसी अन्य के साथ लगाकर अतिरिक्त गुणों वाला पौधा तैयार किया जा सकता है।

पेड़पौधों में कोशिका की मृत्यु पूरे पौधे की मृत्यु नहीं होती। इस विषय पर विएना के डॉ. जे. मेथ्यू वॉटसन और डॉ. केरल रिहा द्वारा प्रकाशित पठनीय समीक्षा टेलोमेयर बुढ़ाना और पौधे खरपतवार से मेथुसेला तक, एक लघु समीक्षाआप इंटरनेट पर मुफ्त में पढ़ सकते हैं। यह समीक्षा जेरेंटोलॉजी में अप्रैल 2010 को प्रकाशित हुई थी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विश्व उबलने की राह पर

ज़रा कल्पना कीजिए, आपके शहर का तापमान 50 डिग्री सेल्सियस पहुंच गया है। फुटपाथ खाली पड़े हैं, पार्क शांत हैं और दूर-दूर तक कोई इंसान दिखाई नहीं दे रहा है। दिन की तुलना में लोग रात में घर से बाहर निकलना पसंद कर रहे हैं। खेल के मैदानों में एक अजीब-सी चुप्पी है। दिन के सबसे गर्म समय में बाहर काम करने पर अघोषित प्रतिबंध लग चुका है। केवल वही लोग दिख रहे हैं जो गरीब, बेघर, असंगठित मज़दूर हैं क्योंकि उनके पास एयर कंडीशनिंग की सुविधा नहीं है।

इन्ही एयर कंडीशनिंग उपकरणों से वातावरण और गर्म हो रहा है। बढ़ते तापमान के कारण व्यवहार में और खानपान में भी बदलाव आ रहा है। बढ़ते तापमान से हमारे अंदर अधिक गुस्से की प्रवृत्ति भी उत्पन्न हो सकती है। बाहर लंबा समय गुज़ारना हमारी जान के लिए घातक हो सकता है।

अस्पतालों में गर्मी के कारण पैदा होने वाले तनाव, श्वसन सम्बंधी समस्याओं और उच्च तापमान के कारण मरीज़ों की संख्या ज़्यादा नज़र आ रही है। इस तापमान पर मानव कोशिकाएं झुलसने लगती हैं, रक्त गाढ़ा हो जाता है, फेफड़ों के चारों ओर मांसपेशियों की जकड़न पैदा हो जाती है और मस्तिष्क में ऑक्सीजन की कमी होने लगती है।

50 डिग्री सेल्सियस अब कोई अपवाद नहीं है, यह काफी तेज़ी से कई इलाकों में फैलता जा रहा है। इस वर्ष, पाकिस्तान के नवाबशाह के 11 लाख निवासियों ने 50.2 डिग्री सेल्सियस तापमान झेला। भारत में दो वर्ष पूर्व, फलोदी शहर में 51 डिग्री तामपान दर्ज किया गया था। एक सेहतमंद इंसान के लिए कुछ घंटे उमस भरा 35 डिग्री से अधिक तापमान जानलेवा साबित हो सकता है। वैज्ञानिकों ने यह चेतावनी दी है कि वर्ष 2100 तक विश्व की आधी से ज़्यादा आबादी वर्ष के 20 दिन जानलेवा गर्मी की चपेट में रहेगी।

खाड़ी देश के कई शहर तो ऐसी गर्मी के आदी हो रहे हैं। बसरा (जनसंख्या 21 लाख) में दो वर्ष पूर्व 53.9 डिग्री तापमान दर्ज़ किया जा चुका है। कुवैत और दोहा शहर पिछले दशक में 50 डिग्री या उससे अधिक तापमान झेल चुके हैं। ओमान के तटीय इलाके कुरियत में, गर्मियों में रात का तापमान 42.6 डिग्री से ऊपर रहा, जो कि दुनिया में अब तक का सबसे ज़्यादा ‘न्यूनतम’ तापमान माना जाता है।

आने वाले वर्षों में मक्का शहर में होने वाली तीर्थ यात्रा भी भीषण गर्मियों के मौसम में होगी। इस तीर्थ यात्रा में लगभग 20 लाख यात्रियों का आना होता है। 50 डिग्री से अधिक तापमान के चलते यात्रियों के लिए ठंडा वातावरण तैयार करना एक बड़ी चुनौती होगी। इन परिस्थितियों को देखते हुए वर्ष 2022 में, कतर में होने वाले फुटबॉल विश्व कप के लिए फीफा ने फाइनल मैच गर्मियों की बजाय क्रिसमस से एक सप्ताह पहले स्थानांतरित कर दिया है। जापानी राजनेता अब 2020 टोक्यो ओलंपिक के लिए डे-लाइट सेविंग टाइम शुरू करने की चर्चा कर रहे हैं ताकि मैराथन और रेसवॉक सुबह 5 बजे शुरू करके दोपहर की गर्मी से बचा जा सके।

कई इलाके भीषण गर्मी से जूझ रहे हैं। अहमदाबाद में अस्पतालों ने विशेष वार्ड खोले हैं। ऑस्ट्रेलिया के शहरों ने बेघर लोगों के लिए मुफ्त स्विमिंग पूल उपलब्ध कराए हैं। तापमान 40 डिग्री से ऊपर होने पर स्कूलों को मैदानी खेल का समय रद्द करने के निर्देश दिए जाते हैं। कुवैत में दोपहर 12 बजे से 4 बजे के बीच बाहर काम करने पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है।

वर्तमान में, 354 बड़े शहरों में 35 डिग्री से अधिक औसत ग्रीष्मकालीन तापमान देखा गया है और 2050 तक यह तादाद 970 तक पहुंच जाएगी। अनुमान लगाया गया है कि चरम गर्मी को झेलने वालों की संख्या आठ गुना बढ़कर 1.6 अरब हो जाएगी।

इस साल, लॉस एंजेल्स से 50 कि.मी. दूर चिनो में 48.9 डिग्री तापमान दर्ज़ किया गया। सिडनी में 47, मैड्रिड और लिस्बन में 45 डिग्री के आसपास तापमान रहा। नए अध्ययनों से पता चलता है कि शताब्दी के अंत तक फ्रांस का उच्चतम तापमान काफी आसानी से 50 डिग्री से अधिक हो सकता है, जबकि ऑस्ट्रेलियाई शहर तो उससे भी जल्दी इस बिंदु तक पहुंच जाएंगे। इस बीच कुवैत 60 डिग्री तक पहुंच चुका होगा।

एक तरफ मज़दूर, रिक्शा चलाने वाले और खोमचे-ठेले वाले खुद को सिर से लेकर पैर तक ढांके हुए हैं ताकि इस गर्मी से अपना बचाव कर सकें। दूसरी ओर, अमीरों के लिए बात केवल एक अनुकूल वातावरण से दूसरे अनुकूल वातावरण में जाने की है, जैसे घर, कार्यालय, कार, जिम या शॉपिंग मॉल। इत तरह से, बढ़ती गर्मी ने असमानता का एक नया मुद्दा खड़ा कर दिया है। गौर से देखिए, समाज ठंडे और गर्म दायरों में बंट चुका है।

घनी आबादी वाले क्षेत्रों को कैसे ठंडा रखा जाए, यह अर्बन क्लाइमेट संगोष्ठी का मुख्य एजेंडा है। जल संरक्षण, शेड और गर्मी को कम करने के अन्य उपायों के माध्यम से शहरों को गर्मी से बचाया जा सकता है। दुनिया के कई स्थानों में ऐसे प्रयास शुरू भी हो चुके हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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