पंजों के जीवाश्म से जैव विकास पर नई रोशनी

हाल ही में ऑस्ट्रेलिया में मिले प्राचीन पंजों (Australia fossil discovery) के निशानों ने वैज्ञानिकों को हैरान कर दिया है। इन निशानों से पता चलता है कि सरीसृप (जैसे छिपकली) (ancient reptile footprints) और उनके निकट सम्बंधी शायद हमारे अनुमान से करोड़ों साल पहले ही धरती पर आ गए थे। नेचर पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, ये निशान एम्नीओट्स (early amniotes) प्राणियों ने बनाए होंगे। इस समूह में सरीसृप, पक्षी और स्तनधारी आते हैं।

एम्नीओट्स की खास बात यह है कि ये ज़मीन पर अंडे (land egg-laying animals) देते हैं या भ्रूण को गर्भ में पालते हैं। इन अंडों के चारों ओर एक झिल्ली (amniotic egg evolution) होती है जो उसे सूखने से बचाती है। इन जीवों का अब तक का सबसे प्राचीन जीवाश्म कनाडा से मिला था, जो करीब 31.9 करोड़ साल पुराना था। लेकिन अब ऑस्ट्रेलिया में मिले इन निशानों से पता चलता है कि ये प्राणी इससे भी कम से कम 35 लाख साल पहले (Carboniferous period) से, यानी 35.5 करोड़ साल पहले से मौजूद थे। यह वही समय है जब कार्बोनिफेरस युग (उभयचर जीवों और सरीसृपों के उद्भव के दौर) की शुरुआत हुई थी।

ये निशान ऑस्ट्रेलिया स्थित विक्टोरिया (paleontology site Victoria) इलाके में ब्रोकन नदी (broken river fossil) के किनारे बलुआ पत्थर की एक चट्टान में मिले हैं। वहां के स्थानीय ताउंगुरंग आदिवासी इस जगह को ‘बेरेपिट’ (Indigenous heritage site) कहते हैं। उसी चट्टान में कुछ पुराने जलीय जीवों के अवशेष भी मिले हैं, जो बताते हैं कि ये निशान वाकई उस दौर के हो सकते हैं।

इस प्रकार के नुकीले और मुड़े हुए पंजे सिर्फ सरीसृपों (distinct claw fossil) में पाए जाते हैं, जबकि उभयचरों (जैसे मेंढकों) के ऐसे पंजे नहीं होते हैं। साथ ही पेट या पूंछ घसीटने के कोई निशान नहीं मिले, जिससे लगता है कि ये जानवर चलने (reptilian locomotion) में अपने शरीर को ऊपर उठा सकते थे। हालांकि, कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि शायद ये जीव उथले पानी (shallow water) में चलते होंगे, न कि पूरी तरह सूखी ज़मीन पर।

बहरहाल, यह खोज जीवन के कालक्रम की समझ को बदलती है और बताती है कि ज़मीन पर अंडे देने वाले प्राणी (land animals origin) हमारी सोच से कहीं पहले अस्तित्व में आ चुके थे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एम्बर में छिपे सुनामी के सुराग

म्बर (amber)(राल) पेड़ों से रिसने वाला एक तरह का तरल (resin) पदार्थ है जो रिसने के बाद ठोस हो जाता है। इसमें प्राय: कीट, पेड़-पौधों के अवशेष, फूल-पत्तियां आदि फंसकर अश्मीभूत (fossilized) हो जाते हैं। और एक हालिया अध्ययन बताता है कि यह अपने में न सिर्फ सजीवों की जानकारी बल्कि अतीत में आई सुनामियों (tsunami records in amber) की निशानियां भी कैद कर सकता है।

जापान के होक्काइडो के पास समुद्र की प्राचीन चट्टानों (ancient rocks) में एक एम्बर मिला है। ऐसा लगता है कि यह पानी के अंदर ही सख्त होता गया (amber formation under sea) और अपने भीतर लाखों साल का इतिहास दर्ज करता गया।

भूमि पर तो एम्बर हवा के संपर्क की वजह से जल्दी सख्त (resin hardening) हो जाता है। लेकिन पानी में अधिक समय तक नरम-लचीला बना रहता है। इसी वजह से पानी के तेज़ थपेड़ों के निशान (underwater fossilization) इसमें दर्ज हो जाते हैं। वैज्ञानिकों ने जब इस एम्बर को पराबैंगनी रोशनी (UV Analysis) में देखा, तो इसके अंदर ऐसी आकृतियां दिखाई दीं (wave pattern in fossils) जो आग की लपटों और गेंद व तकिया जैसी थीं, और तेज़ लहरों का संकेत होती हैं।

चट्टानों के पास अश्मीभूत वनस्पतियों के टुकड़े और बहकर आई लकड़ियों के टुकड़े भी मिले हैं, जिससे लगता है कि लौटती सुनामी की ज़ोरदार लहरों के कारण तटवर्ती जंगल का मलबा(tsunami debris) बहकर समुद्र (costal forest fossil) में आ गया था। पास की तलछट की जांच करने पर मालूम हुआ कि ऐसा कई बार हुआ था और करीब 20 लाख वर्षों की अवधि में इस इलाके में कई बार सुनामी (paleotsunami evidence) आई थी।

यह खोज इसलिए खास है क्योंकि तटों पर अतीत में आई सुनामी के सबूत मिलना(ancient disaster records) मुश्किल होते हैं। हवा और लहरें उनके निशान मिटा देती हैं, और सुनामी से हुई क्षति आम तूफानों (tsunami vs storm) जैसी ही लगती है। लेकिन अब लगता है कि एम्बर इनका गवाह (amber as historical archive) बन सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी की घूर्णन शक्ति से बिजली

क हालिया अध्ययन का दावा है कि पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र (Earth’s magnetic field) में घूर्णन से बिजली उत्पन्न (electricity generation) की जा सकती है। हालांकि अध्ययन में एक विशेष उपकरण से मात्र 17 माइक्रोवोल्ट (17 microvolts) की बेहद कम विद्युत धारा उत्पन्न की गई है, लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि यह प्रभाव वास्तविक है और इसे बड़े पैमाने पर लागू किया जा सकता है, तो यह बिना प्रदूषण के ऊर्जा उत्पादन (pollution-free energy generation) का नया तरीका हो सकता है। खास तौर पर दूरदराज़ के इलाकों (remote areas) और मेडिकल उपकरणों (medical devices) के लिए यह तकनीक बेहद उपयोगी साबित हो सकती है। यह शोध प्रिंसटन यूनिवर्सिटी (Princeton University) के क्रिस्टोफर चायबा (Christopher Chyba) के नेतृत्व में किया गया और फिजिकल रिव्यू रिसर्च (Physical Review Research) में प्रकाशित हुआ है।

आम तौर पर चुंबकीय क्षेत्र (magnetic field) में एक सुचालक (conductor) को घुमा कर बिजली उत्पन्न की जाती है, जैसा कि पावर प्लांट्स (power plants) में होता है। पृथ्वी का भी एक चुंबकीय क्षेत्र (geomagnetic field) होता है, और जब पृथ्वी घूमती है (Earth’s rotation) तो इस चुंबकीय क्षेत्र का एक हिस्सा स्थिर बना रहता है। सैद्धांतिक रूप से (theoretically), यदि कोई चालक (conductor) पृथ्वी की सतह पर रखा जाए तो वह इस चुंबकीय क्षेत्र (magnetic field) से गुज़रकर विद्युत धारा (electric current) उत्पन्न कर सकता है। हालांकि, पृथ्वी के सामान्य चुंबकीय क्षेत्र (Earth’s magnetism) में ऐसा नहीं होता, क्योंकि चालक के अंदर मौजूद आवेश (electrons inside the conductor) खुद को इस तरह व्यवस्थित कर लेते हैं कि बिजली पैदा (electricity production) ही नहीं हो पाती।

लेकिन क्रिस्टोफर चायबा (Christopher Chyba) और उनकी टीम का दावा है कि उन्होंने इस समस्या का हल खोज लिया है। खास आकार में बना एक खोखला बेलन (hollow cylindrical conductor) पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र से बिजली उत्पन्न (electricity generation from Earth’s magnetic field) कर सकता है।

इस परिकल्पना को जांचने के लिए वैज्ञानिकों ने मैंगनीज़ (manganese), ज़िंक (zinc), और आयरन (iron) वाले चुंबकीय पदार्थ (magnetic material) से एक विशेष उपकरण बनाया। उन्होंने 17 माइक्रोवोल्ट (17 microvolts of electric current) की बहुत हल्की विद्युत धारा दर्ज की, जो पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के सापेक्ष उपकरण की स्थिति बदलने पर भी बदल रही थी। लेकिन जब उन्होंने खोखले सिलेंडर (hollow cylinder) की जगह ठोस सिलेंडर (solid cylinder) का उपयोग किया तो बिजली पैदा (electricity production) नहीं हुई।

विस्कॉन्सिन-यूक्लेयर विश्वविद्यालय (University of Wisconsin-Eau Claire) के पॉल थॉमस (Paul Thomas) जैसे कुछ वैज्ञानिक इस प्रयोग को विश्वसनीय मानते हैं, लेकिन फ्री यूनिवर्सिटी ऑफ एम्स्टर्डम (Free University of Amsterdam) के रिंके विजनगार्डन (Rinke Wijngaarden) जैसे अन्य वैज्ञानिकों को संदेह है। विजनगार्डन ने 2018 में इसी तरह का प्रयोग करने की कोशिश की थी, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली थी। उनका मानना है कि चायबा (Chyba) की परिकल्पना सही नहीं हो सकती। उनके मुताबिक चायबा (Chyba) के दल ने काफी सावधानी बरती है, लेकिन यह भी संभव है कि दर्ज किया गया वोल्टेज (voltage measurement) तापमान में बदलाव (temperature variation) जैसी अन्य वजहों से आया हो।

फिलहाल, यह अध्ययन वैज्ञानिक समुदाय (scientific community) में बहस का विषय बन गया है। अगर आगे के प्रयोग इन नतीजों की पुष्टि कर पाते हैं तो यह बिजली उत्पादन (electricity generation technology) के नए रास्ते खोल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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चंद्रमा की उम्र लगभग पृथ्वी के बराबर है!

हाल में प्रस्तुत एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि पृथ्वी (Earth) के अस्तित्व में आने के थोड़े समय बाद से ही चंद्रमा (Moon) उसका साथी रहा है। यह नया शोध बताता है कि चंद्रमा का जन्म सौर मंडल (Solar System) बनने के महज 6.5 करोड़ साल बाद ही हो गया था। यानी चंद्रमा की उम्र करीब 4.5 अरब साल है, जो पहले के अनुमानों से अधिक है।

ल्यूनर एंड प्लैनेटरी साइंस कॉन्फ्रेंस (LPSC) में प्रस्तुत इस शोध में बताया गया है कि चंद्रमा का निर्माण पृथ्वी के बनने के तुरंत बाद हुआ था, जब मंगल ग्रह (Mars) के साइज़ जितना एक प्रोटो-प्लैनेट (Proto-planet) ‘थीया’ (Theia) पृथ्वी से टकराया था।

गौरतलब है कि सौर मंडल (Solar System) का निर्माण लगभग 4.56 अरब वर्ष पहले शुरू हुआ, और इसके 2-3 करोड़ साल बाद पृथ्वी आकार लेने लगी। उस समय अंतरिक्ष (Space) में भारी हलचल थी और बड़े-बड़े खगोलीय पिंडों की टक्कर एक आम बात थी। इन्हीं में से एक टक्कर युवा पृथ्वी से थीया नामक पिंड के टकराने की थी। यह टक्कर इतनी भीषण थी कि पृथ्वी से भारी मात्रा में पिघली हुई चट्टान और मलबा अंतरिक्ष में उछला, जो बाद में संघनित होकर चंद्रमा बना।

यह घटना पृथ्वी के विकास में भी महत्वपूर्ण रही। इस टक्कर से पृथ्वी की सतह पिघलकर खौलते मैग्मा के महासागर में बदल गई और इसने पृथ्वी के घूर्णन और झुकाव को स्थिर करने में मदद की। इसलिए चंद्रमा के निर्माण का सटीक समय जानकर वैज्ञानिक यह समझ सकते हैं कि पृथ्वी अपने वर्तमान रूप में कब आई।

चंद्रमा की उम्र कैसे तय की?

कई वर्षों से वैज्ञानिक अपोलो मिशनों (Apollo Missions) द्वारा लाई गईं चंद्रमा की चट्टानों (Lunar Rocks) का अध्ययन करते आ रहे हैं। पूर्व में, जब वैज्ञानिकों ने चट्टानों का अध्ययन किया था तो पता चला था कि चंद्रमा की सतह से प्राप्त चट्टानें लगभग 4.35 अरब साल पुरानी थीं और ये चट्टानें चांद के अपने मैग्मा (Lunar Magma) से बनी थीं। तो माना गया कि चांद की उम्र लगभग उतनी ही है। लेकिन इतना युवा चंद्रमा बाकी प्रमाणों से मेल नहीं खाता।

इस पहेली को सुलझाने में बड़ी सफलता तब मिली जब वैज्ञानिकों ने चंद्रमा से मिले ज़िरकॉन क्रिस्टलों (Zircon Crystals) का अध्ययन किया। इन क्रिस्टल के रेडियोधर्मी तत्वों के विघटन से उनकी सही उम्र का पता लगाया जा सकता है। 2017 में, भू-रसायन वैज्ञानिक मेलानी बारबोनी ने आठ ज़िरकॉन रवों का विश्लेषण करके यह देखा कि इनमें मौजूद युरेनियम (Uranium) के विघटन से कितना लेड (Lead) बन चुका है। इस मापन के आधार पर बारबोनी ने निष्कर्ष निकाला कि चंद्रमा 4.51 अरब साल पुराना है।

2019 में, वैज्ञानिकों को चंद्रमा की चट्टानों में टंगस्टन (Tungsten) के हल्के आइसोटोप मिले। उस अध्ययन के मुखिया मैक्सवेल थीमेन्स ने अनुमान लगाया कि ये आइसोटोप तत्व हाफ्नियम (Hafnium) के अब विलुप्त हो चुके आइसोटोप से बने होंगे। और हाफ्नियम का यह आइसोटोप सौर मंडल के शुरू के 6 करोड़ वर्षों में ही उपस्थित था। इस खोज ने बारबोनी के निष्कर्षों को मज़बूती दी। यानी चंद्रमा उन वर्षों में बना होगा।

अब, वैज्ञानिकों ने रुबिडियम(rubidium) के स्ट्रॉन्शियम(strontium) में विघटन को मापने की एक नई विधि से इस निष्कर्ष  की पुष्टि की है। मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट के थॉर्स्टन क्लाइन और उनकी टीम ने गणना की कि चंद्रमा लगभग 4.5 अरब साल पहले बना था। ये नतीजे पिछले शोधों को पुख्ता करते हैं और चंद्रमा के जन्म की एक सुसंगत समयरेखा देते हैं।

चंद्रमा बनने के बाद भी यह कोई शांत खगोलीय पिंड नहीं था। आरंभ में इसकी पूरी सतह पिघले हुए लावा के महासागर (lava ocean) से ढंकी थी, जो धीरे-धीरे ठंडी होकर ठोस बन गई। लेकिन शोध बताते हैं कि पृथ्वी और सूर्य के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव ने इसकी सतह को दोबारा गर्म कर दिया, ठीक वैसे ही जैसे बृहस्पति (Jupiter) के असर से उसके चंद्रमा ‘आयो’(Io) पर भीषण ज्वालामुखीय गतिविधि देखी जाती है। एक अन्य सिद्धांत के अनुसार, चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव (lunar south pole) पर किसी विशाल उल्कापिंड की टक्कर (asteroid impact) ने इसकी सतह को नया रूप दिया होगा। इनमें से किसी एक वज़ह से चंद्रमा की उम्र का सही अनुमान लगाना जटिल हो गया। अपोलो द्वारा लाए गए नमूनों को इस नए दृष्टिकोण से देखने की ज़रूरत है। हो सकता है कि वे पिघलकर वापिस ठोस बन गए चंद्रमा के होंगे, मूल रूप में निर्मित चंद्रमा के नहीं।

चीन का चांग’ई-6 मिशन (Chang’e 6 Mission), जो चंद्रमा की दूरस्थ सतह से लगभग 2 किलोग्राम चट्टानें लेकर लौटा है, इस रहस्य पर और प्रकाश डाल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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चट्टानों में हवा के बुलबुलों में छिपा पृथ्वी का अतीत

रबों  वर्षों में पृथ्वी के वातावरण (Earth’s atmosphere) में काफी परिवर्तन हुए हैं, जिससे जीवन (life evolution) के विकास की दिशा तय हुई। वैज्ञानिकों (scientists) ने ध्रुवों पर जमा बर्फ की परतों से पिछले 60 लाख वर्षों का वायुमंडलीय डैटा (atmospheric data) निकाला है, लेकिन यह डैटा पृथ्वी (Earth) के 4.5 अरब साल के इतिहास का बहुत छोटा हिस्सा है।

प्राचीन समय में वायु में कौन-से घटक कितनी मात्रा में थे, इसका पता वैज्ञानिक केवल चट्टानों (rocks) और खनिजों (minerals) में छिपे अप्रत्यक्ष प्रमाणों से लगाते आए हैं। लेकिन अब, एक नई तकनीक (new technique) से अधिक सटीक जानकारी मिल रही है – प्राचीन चट्टानों, लवणों और लावा (lava) में फंसे सूक्ष्म वायु बुलबुलों (air bubbles) का विश्लेषण। 

वैज्ञानिक यह जानते हैं कि 4.5 अरब वर्ष पूर्व जब पृथ्वी का निर्माण (Earth formation) हुआ, तब उसकी सतह पिघली हुई चट्टानों (magma) से ढंकी थी। इस मैग्मा से रिसी गैसों, और आगे चलकर ज्वालामुखी विस्फोटों (volcanic eruptions), क्षुद्रग्रहों (asteroids) की बौछार के कारण मुक्त गैसों ने एक प्रारंभिक वातावरण (early atmosphere) बनाया। समय के साथ, नाइट्रोजन (nitrogen) अपनी स्थिरता के कारण मुख्य गैस बन गई, जबकि हाइड्रोजन (hydrogen) और हीलियम (helium) जैसी हल्की गैसें अंतरिक्ष में विलीन हो गईं। ऑक्सीजन (oxygen) लगभग न के बराबर थी, जब तक कि लगभग 3 अरब साल पूर्व प्रकाश-संश्लेषण (photosynthesis) करने वाले सूक्ष्मजीवों ने इसे धीरे-धीरे वातावरण में छोड़ना शुरू नहीं किया।

फिर, वैज्ञानिक यह भी जानते थे कि चट्टानों में प्राचीन वायु (ancient air) कैद हो सकती है, लेकिन इन गैसों को निकालना और विश्लेषण (gas analysis) करना बेहद कठिन था। अब, वैज्ञानिक एक वैक्यूम-सील प्रेस (vacuum-sealed press) में प्राचीन चट्टानों को धीरे-धीरे दाब बढ़ाते हुए कुचलते हैं, जिससे उसमें फंसी हुई गैस निकलती है। इस गैस का विश्लेषण मास स्पेक्ट्रोमीटर (mass spectrometer) से किया जाता है।

सर्वप्रथम भू-रसायनविद (geochemist) बर्नार्ड मार्टी ने 2010 के दशक में पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया (Western Australia) के क्वार्ट्ज़ (quartz) और बैराइट भंडारों में फंसी गैस का विश्लेषण किया था। और पहली बार 3 अरब साल से भी अधिक पुराने वायुमंडलीय नमूने (atmospheric samples) उपलब्ध कराए। उसके बाद से इस तकनीक के इस्तेमाल से कई अध्ययन (research studies) हुए हैं। 

ऑक्सीजन की उपस्थिति : पहले वैज्ञानिक मानते थे कि लगभग 80 करोड़ साल पहले तक पृथ्वी के वातावरण में ऑक्सीजन बहुत कम थी, और तभी इसके स्तर में अचानक वृद्धि हुई, जिससे जंतुओं (animals) का विकास संभव हुआ। लेकिन विभिन्न अध्ययन (scientific studies) अलग-अलग निष्कर्ष देते हैं।

बोरिंग बिलियन: वैज्ञानिक 1.8 अरब से 80 करोड़ साल पहले के कालखंड को “बोरिंग बिलियन” (Boring Billion) कहते हैं, क्योंकि इस दौरान जलवायु (climate), टेक्टोनिक्स (tectonics) और जैव विकास (biological evolution) में कोई खास बदलाव नहीं दिखता था। लेकिन 1.4 अरब साल पुराने लवण (ancient salts) के क्रिस्टलों से पता चला है कि उस समय ऑक्सीजन स्तर अपेक्षा से अधिक था। इससे यह संकेत मिलता है कि जटिल जीवन (complex life) के विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियां उस समय मौजूद रही होंगी।

नोबल गैसें : नोबल गैसें (noble gases), जैसे आर्गन (argon), नीऑन (neon) और ज़ीनॉन (xenon), रासायनिक रूप से अन्य तत्वों के साथ अभिक्रिया नहीं करतीं। इसलिए वे पृथ्वी के वायुमंडलीय परिवर्तनों (atmospheric changes) को समझने में उपयोगी होती हैं।

भारत में 2 अरब साल पुराने उल्कापिंड टकराव स्थल (meteorite impact site) के अध्ययन से पता चला है कि उस समय ज्वालामुखीय गतिविधि (volcanic activity) कई करोड़ वर्षों तक धीमी हो गई थी, जिससे पृथ्वी के आंतरिक भाग से गैसों का उत्सर्जन (gas emissions) भी कम हुआ। इसी प्रकार, ग्रीनलैंड (Greenland) की 3 अरब साल पुरानी चट्टानों में फंसी गैसों के अध्ययन से यह संकेत मिला कि ये गैसें प्राचीन पृथ्वी के मेंटल (Earth’s mantle) और समुद्री जल (ocean water) से आई थीं। ये खोजें (discoveries) हमें यह समझने में मदद करती हैं कि पृथ्वी का वायुमंडल (Earth’s atmosphere) कैसे बना और विकसित हुआ। इन खोजों के बावजूद, वैज्ञानिकों ने अभी केवल सतह को ही कुरेदा है। भविष्य की संभावनाएं (future possibilities) कई हैं। वे और भी प्राचीन चट्टानों के नमूने (ancient rock samples) इकट्ठा करेंगे, गैस निकालने की तकनीकों (gas extraction techniques) में सुधार करेंगे और यह पता लगाने की कोशिश करेंगे कि क्या ये वायुमंडलीय सुराग (atmospheric clues) जीवन की उत्पत्ति (origin of life) को समझने में मदद कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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समुद्र की अतल गहराइयों में छिपी अद्भुत दुनिया

प्रशांत महासागर (Pacific Ocean) की अथाह गहराइयों में एक रहस्यमयी दुनिया छिपी हुई है। मैरियाना ट्रेंच (Mariana Trench) पृथ्वी के महासागरों की सबसे गहरी जगह है। यहां गहराई लगभग 11,000 मीटर तक है। इतनी गहराई पर दाब (pressure) बहुत अधिक, ठंड (temperature) अकल्पनीय और अंधकार (darkness) भी घटाटोप होता है। ये परिस्थितियां इस जगह को पृथ्वी की सबसे प्रतिकूल और दूभर परिस्थितियों में शुमार करती हैं। लेकिन हाल ही में किए गए अध्ययनों से पता चला है कि इन परिस्थितियों में भी जीवन (deep-sea life)  की हैरतअंगेज़ विविधता मौजूद है। यह विविधता गहरे समुद्र की पारिस्थितिकी (deep ocean ecosystem) के बारे में हमारी वर्तमान समझ को ललकारती है।

हाल ही में, चीन के वैज्ञानिकों ने फेंडोज़े पनडुब्बी (Fendouzhe Submarine) के ज़रिए मैरियाना ट्रेंच की गहराइयों में गोता लगाया है। जैसे-जैसे वे नीचे उतरे, उन्होंने अंधकार में दीप्ति बिखेरने वाले जीव (bioluminescent organisms) देखे; जो हरी, पीली और नारंगी चमक बिखेर रहे थे। समुद्र के पेंदे (ocean floor) पर पहुंचने पर टीम ने जब रोशनी चालू की, तो उन्हें एक विस्मयकारी नीली दुनिया दिखाई दी, जहां प्लवकों (plankton) की भरमार थी।

यह खोज मैरियाना ट्रेंच पर्यावरण और पारिस्थितिकी अनुसंधान (MEER – Mariana Trench Ecology and Environment Research) परियोजना का हिस्सा है, जिसके तहत किए गए अध्ययन सेल पत्रिका (cell journal) में प्रकाशित हुए हैं। इस शोध की सबसे चौंकाने वाली खोज 7000 से अधिक नए सूक्ष्मजीवों (new microbes, deep-sea bacteria) की पहचान है, जिनमें से 89 प्रतिशत विज्ञान के लिए पूरी तरह नए हैं। ये सूक्ष्मजीव हैडल ज़ोन (hadal zone – 6000 से 11,000 मीटर की गहराई) की कठोर परिस्थितियों में जीवित रहने के लिए विकसित हैं।

गौरतलब है कि कुछ सूक्ष्मजीवों (microorganisms) के जीनोम (genome sequencing) बहुत कुशल होते हैं, जो सीमित कार्यों के लिए अनुकूलित होते हैं। जबकि कुछ अन्य के जीन (genes) अधिक जटिल होते हैं, जिससे वे बदलते पर्यावरण के अनुसार खुद को ढाल सकते हैं। हैरानी की बात यह है कि इनमें से कुछ सूक्ष्मजीव कार्बन मोनोऑक्साइड (carbon monoxide metabolism) जैसी गैसों को अपना भोजन बनाते हैं। यह क्षमता उन्हें पोषक तत्वों की कमी (nutrient-poor environment) वाले समुद्री वातावरण में जीवित रहने में मदद करती है।

आगे के इस अध्ययन में एम्फिपॉड्स (amphipods – छोटे झींगे जैसे जीव) पर ध्यान दिया गया, जो समुद्री खाइयों (deep-sea trench) में बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। वैज्ञानिकों (scientists) ने पाया कि ये जीव गहरे समुद्र में रहने वाले बैक्टीरिया (deep sea symbiotic bacteria) के साथ सहजीवी सम्बंध रखते हैं। उनकी आंतों में सायक्रोमोनास (Psychromonas bacteria) नामक बैक्टीरिया काफी संख्या में मिले, जो ट्राइमेथिइलएमाइन एन-ऑक्साइड (TMAO – Trimethylamine N-oxide) नामक एक यौगिक का निर्माण करने में मदद करते हैं। TMAO गहरे समुद्र के अत्यधिक दाब (extreme pressure adaptation)से जीवों की रक्षा करने में अहम भूमिका निभाता है।

शोध के तीसरे चरण में यह समझने की कोशिश की गई कि गहरे समुद्र की मछलियां (deep-sea fish) अत्यधिक दाब और ठंडे तापमान में कैसे जीवित रहती हैं। जेनेटिक विश्लेषण (genetic analysis) से पता चला कि 3000 मीटर से अधिक गहराई में रहने वाली मछलियों में एक विशेष जेनेटिक परिवर्तन (genetic mutation) होता है, जो उनकी कोशिकाओं को अधिक कुशलता से प्रोटीन बनाने (protein synthesis) में मदद करता है। यह अनुकूलन उन्हें समुद्री दाब से बचने में सहायता करता है।

शोध से यह भी पता चला कि विभिन्न जीवों ने गहरे समुद्र में कब शरण (deep-sea migration) ली होगी। मसलन, ईल मछलियां (eel fish)  शायद लगभग 10 करोड़ साल (100 million years ago) पहले गहरे समुद्र में चली गई होंगी जिसकी वजह से वे डायनासौर विलुप्ति (dinosaur extinction) वाली घटना से बच गई होंगी। इसी तरह स्नेलफिश (Snailfish) लगभग 2 करोड़ साल पहले (20 million years ago) समुद्र की गहरी खाइयों में पहुंच गई होगीं। यह वह समय था जब पृथ्वी पर टेक्टोनिक हलचल (tectonic activity) सबसे अधिक थी यानी धरती के भूखंड तेज़ी से इधर-उधर भटक रहे थे। 

ये निष्कर्ष इस बात को नुमाया करते हैं कि गहरा समुद्र (deep sea) लंबे समय से जलवायु परिवर्तन और ऑक्सीजन के उतार-चढ़ाव के दौरान कई जीवों को पनाह देता रहा है। 

इन रोमांचक खोजों के साथ-साथ वैज्ञानिकों ने गहरे समुद्र में कुछ चिंताजनक चीज़ें (deep-sea pollution) भी देखीं; उन्हें मैरियाना ट्रेंच (Mariana Trench) और याप ट्रेंच (Yap Trench) में प्लास्टिक बैग(plastic pollution), बीयर की बोतलें (beer bottles), सोडा कैन (soda can) और एक टोकरी (basket) भी मिली है। यह दर्शाता है कि मानव गतिविधियों का असर (human activities impact) दूरस्थ और दुगर्म क्षेत्रों तक पहुंच चुका है। 

हालांकि, वैज्ञानिकों ने पाया कि कुछ बैक्टीरिया (bacteria) इन प्रदूषकों (pollutants) का इस्तेमाल ऊर्जा स्रोत (energy source) के रूप में करने में सक्षम हैं। इससे लगता है कि भविष्य में समुद्री बैक्टीरिया (marine bacteria) पर्यावरण प्रदूषण को कम करने में मदद कर सकते हैं।

बहरहाल, समुद्र की अधिकांश गहराइयां अब भी अनदेखी हैं। संभव है कि वहां भी असंख्य अनजाने जीव (undiscovered species) हैं। MEER की योजना आगे भी ऐसे अध्ययन जारी रखने की है। (स्रोत फीचर्स)

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गाज़ा: तबाही के साये में शोध कार्य

युद्ध (war), तबाही (destruction) और अनिश्चितता (uncertainty) के बावजूद, गाज़ा (Gaza) के वैज्ञानिक (scientists) अपने शोध (research) कार्य जारी रख रहे हैं। वे इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि शोध (scientific research) न केवल विनाश (documentation of destruction) के दस्तावेज़ीकरण और पुनर्निर्माण (reconstruction efforts) प्रयासों में मदद करता है, बल्कि मानवीय संकटों (humanitarian crisis) के समाधान के लिए भी आवश्यक है। 19 जनवरी को हमास (Hamas) और इस्राइल (Israel) के बीच अस्थायी संघर्ष विराम (ceasefire) से वैज्ञानिकों को स्थिति का आकलन करने का अवसर मिला है।

न्यूरोसाइंटिस्ट (neuroscientist) खमीस एलसी, जो वर्तमान में घायलों का इलाज कर रहे हैं, युद्ध के प्रभावों को दर्ज करने और प्रकाशित करने की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। इसी तरह, जलवाहित रोगों (waterborne diseases) के विशेषज्ञ सामर अबूज़र सुधार व पुनर्निर्माण में शोध (scientific studies) की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हैं। इन कठिन परिस्थितियों के बावजूद, विज्ञान (science) और शिक्षा (education) के प्रति अटूट प्रतिबद्धता के चलते वैज्ञानिकों (Gaza scientists) ने अपना काम जारी रखा है।

युद्ध (conflict) के कारण गाज़ा की 22 लाख आबादी में से 90 प्रतिशत बेघर (homeless) हो गई है। भोजन (food crisis), पानी (water shortage), स्वास्थ्य सेवाएं (healthcare services) और शिक्षा (education crisis) जैसी बुनियादी सुविधाएं या तो नष्ट हो गई हैं या अत्यधिक सीमित रह गई हैं। बमबारी (airstrikes) से तबाह इलाकों से मलबा हटाना एक बड़ी चुनौती है। गाज़ा (Palestine conflict) के प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र में करीब 100 किलोग्राम मलबा जमा है जिसमें खतरनाक पदार्थ (hazardous materials) भी मौजूद हैं।

गाज़ा में पानी (clean water crisis) की स्थिति भी गंभीर है। यहां 97 प्रतिशत पानी भूजल स्रोतों (groundwater contamination) से आता है, जो अत्यधिक असुरक्षित हैं और इनके दूषित होने का खतरा भी है। युद्ध (war damage) से पहले भी महज 10 प्रतिशत लोगों को साफ पानी (safe drinking water) मिलता था, लेकिन अब मात्र 4 प्रतिशत लोगों को ही मिल रहा है। टूटी-फूटी सीवेज लाइन (damaged sewage system) के कारण गंदा पानी सड़कों पर बह रहा है, जिससे डायरिया (diarrhea) और हेपेटाइटिस (hepatitis outbreak) जैसी जलवाहित बीमारियों (waterborne infections) का खतरा बढ़ गया है।

युद्ध (war crisis) के कारण गाज़ा (Gaza universities) के 21 उच्च शिक्षण संस्थानों में से 15 बुरी तरह क्षतिग्रस्त या नष्ट हो चुके हैं। अस्पतालों (hospitals in Gaza) की स्थिति भी गंभीर है – लगभग आधे पूरी तरह बंद हैं, जबकि बाकी सीमित संसाधनों के साथ काम कर रहे हैं। कैंसर सहित अन्य गंभीर बीमारियों (chronic diseases) से जूझ रहे 11,000 मरीज़ों को न तो इलाज मिल रहा है और न ही उनके पास विदेश में उपचार का कोई अवसर है।

शोधकर्ताओं का सुझाव है कि सबसे पहले आवास (housing rehabilitation), सीवेज मरम्मत (sewage repair) और स्वास्थ्य सेवाओं (health services restoration) को बहाल करना ज़रूरी है। ऑनलाइन-लर्निंग विशेषज्ञ (online education expert) आया अलमशहरावी अस्थायी शिविर (temporary shelters) और घरों के पुनर्निर्माण (home reconstruction) के लिए तुरंत कदम उठाने की अपील कर रही हैं। वे खुद एक बमबारी (bombing survivor) में बचीं, जिसमें उनके अपार्टमेंट में 30 लोगों की जान चली गई, और अब वे एक शरणार्थी शिविर (refugee camp) में रह रही हैं।

भारी विनाश (mass destruction) के बावजूद, गाज़ा (Gaza research community) के वैज्ञानिक समुदाय का संकल्प अटूट है। वे इस संकट (ongoing crisis) का दस्तावेज़ीकरण कर रहे हैं और भविष्य के पुनर्निर्माण (future rebuilding) में योगदान देने के लिए प्रतिबद्ध हैं। यह साबित करता है कि युद्ध (war-torn regions) के कठिन समय में भी ज्ञान (knowledge) और शोध (scientific progress) को आगे बढ़ते रहना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गाज़ा: बच्चों पर युद्ध का मनोवैज्ञानिक असर

हालिया अध्ययन ने गाज़ा के बच्चों पर युद्ध के विनाशकारी मनोवैज्ञानिक प्रभावों (psychological Impacts) का एक दिल दहला देने वाला खुलासा किया है। पता चला है कि 96 प्रतिशत बच्चों का मानना है कि उनकी मृत्यु अवश्यंभावी है। वॉर चाइल्ड एलायंस (Child war alliance) के सहयोग से गाज़ा स्थित एक एनजीओ (NGO) द्वारा किए गए इस सर्वेक्षण में बच्चों के गहरे भावनात्मक और मानसिक संकट को उजागर किया गया है। इस अध्ययन में शामिल लगभग आधे बच्चों ने अपने ऊपर होने वाले भारी आघात के कारण मरने की इच्छा व्यक्त की है। 

यह रिपोर्ट गाज़ा में जीवन की जो तस्वीर पेश करती है, उसमें बच्चे लगातार डर(Fear), चिंता(Anxiety) और क्षति से जूझ रहे हैं। लगभग 79 प्रतिशत बच्चे दुस्वप्न (Nightmares) देखते हैं, 73 प्रतिशत में आक्रामकता(Aggression) के लक्षण दिखाई देते हैं, और 92 प्रतिशत को अपने वर्तमान हालात को स्वीकार करने में कठिनाई महसूस होती है। ये लक्षण उस गहरे मनोवैज्ञानिक प्रभाव के संकेत हैं, जो बमबारियां(Bombardments) देखने, अपनों को खोने और घर से बेघर होने जैसी त्रासदियों का सामना करने से पड़े हैं।

इस सर्वे में 504 बच्चों के देखभालकर्ताओं से जानकारी जुटाई गई। इनमें से कई परिवारों में विकलांग, घायल या अकेले रह रहे बच्चे हैं। यह गाज़ा में 19 लाख से अधिक विस्थापित फिलिस्तीनियों(Palestinians) के मानवीय संकट को उजागर करता है, जिनमें से आधे बच्चे हैं। इनमें से कई बच्चों को बार-बार अपने मोहल्लों से भागने पर मजबूर होना पड़ा है, और अनुमान है कि लगभग 17,000 बच्चे अब अपने माता-पिता (Parents) से बिछड़ चुके हैं। 

विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि इन अनुभवों के गहरे और स्थायी प्रभाव हो सकते हैं। बुरे सपने देखना, सामाजिक रूप से अलग-थलग होना, एकाग्रता में कठिनाई और यहां तक कि शारीरिक दर्द जैसी समस्याएं आम हैं। रिपोर्ट में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि ऐसी मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं (mental health problems) लंबे समय तक भावनात्मक और व्यवहारिक बदलाव ला सकती हैं, जिससे सदमा पीढ़ियों तक बना रह सकता है।

यह अच्छी बात है कि राहत पहुंचाने के प्रयास शुरू हो चुके हैं, जिसमें वॉर चाइल्ड (war child) और उसके साझेदारों ने 17,000 बच्चों को मानसिक स्वास्थ्य सहायता (mental health support) दी है। लेकिन संकट का पैमाना बहुत बड़ा है, और संगठन का लक्ष्य अगले तीन दशकों में अपनी सबसे बड़ी मानवीय प्रतिक्रिया के तहत 10 लाख बच्चों की मदद करना है। 

वॉर चाइल्ड यूके (war child UK) की सीईओ हेलेन पैटिन्सन ने मौजूदा मानसिक स्वास्थ्य आपदा को पीढ़ी-दर-पीढ़ी संकट में बदलने से रोकने के लिए तुरंत अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई का आह्वान किया। उन्होंने गाज़ा के बच्चों पर पड़े अदृश्य घावों के साथ-साथ घरों, अस्पतालों और स्कूलों के विनाश को दूर करने के लिए वैश्विक हस्तक्षेप की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर दिया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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त्रासदी के 40 साल बाद भी भारत में ढीले कानून – विवेक मिश्रा

भोपाल गैस त्रासदी (Bhopal Gas Tragedy) के चालीस साल हो गए हैं, और इन चालीस सालों में भारत दुनिया का छठवां सबसे बड़ा रसायन उत्पादक देश बन गया है। तेज़ी से बढ़ते रसायन उद्योग के साथ भारत में रासायनिक दुर्घटनाएं (chemical accidents) भी बढ़ रही हैं। सवाल है कि ऐसा क्यों है?

कोविड-19 महामारी (2020-2023) के दौरान भारत में 29 रासायनिक दुर्घटनाएं हुईं। इन दुर्घटनाओं में 118 मौतें हुईं और लगभग 257 लोग घायल हुए। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने इन दुर्घटनाओं का कारण प्लांट की खराबी, रासायनिक रिसाव (chemical leakage), विस्फोट (explosion) और फैक्ट्री में आग लगना पाया है।

वैज्ञानिकों के एक समूह साइंटिस्ट फॉर पीपल (scientist for people) ने 2021 में एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें कहा गया था कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भोपाल गैस त्रासदी के 40 साल बाद भी रासायनिक प्रक्रियाओं के लिए सुरक्षा सम्बंधी नियम-कायदों में कोई सुधार नहीं हुआ है।

भारत का फलता-फूलता औद्योगिक क्षेत्र लगातार ट्रेड सीक्रेट संरक्षण कानून (Trade secret protection law) की मांग कर रहा है। ऐसे कानून कंपनियों को बौद्धिक संपदा की आड़ में महत्वपूर्ण जानकारी गोपनीय रखने की अनुमति देते हैं। एक ओर जहां ट्रेड सीक्रेट को गोपनीय रखना किसी कंपनी को प्रतिस्पर्धात्मक फायदा दे सकता है, वहीं दूसरी ओर, पर्यावरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य सम्बंधी जोखिम पैदा करने वाली कंपनियां अक्सर इस गोपनीयता का दुरुपयोग करती हैं। ट्रेड सीक्रेट संरक्षण कानून की अनुपस्थिति में, कंपनियां फिलहाल व्यावसायिक प्रक्रियाओं की जानकारी उजागर होने से रोकने के लिए गैर-प्रकटीकरण (नॉन-डिसक्लोज़र) समझौतों पर निर्भर हैं।

पश्चिम बंगाल नेशनल युनिवर्सिटी ऑफ ज्यूरिडिकल साइंसेज़ (west Bengal national university of juridical sciences) के प्रोफेसर अनिरबन मजूमदार कहते हैं, “कंपनियां खुद को बचाने के लिए गैर-प्रकटीकरण समझौतों का उपयोग करती हैं, और भारत में ट्रेड सीक्रेट को लेकर कोई विशिष्ट कानून नहीं है। सूचना का अधिकार अधिनियम(RTI), 2005  की धारा 8(i) के तहत सार्वजनिक हित के उद्देश्य से बौद्धिक संपदा और ट्रेड सीक्रेट से सम्बंधित जानकारी मांगने की अनुमति देता है, लेकिन यह अधिनियम निजी कंपनियों पर लागू नहीं होता है।“

मजूमदार एक उदाहरण के तौर पर भोपाल गैस त्रासदी का हवाला देते हैं। “डॉऊ केमिकल्स(Dow Chemicals), जिसने 2001 में यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन (Union Carbide Corporation) का अधिग्रहण किया था, ने रिसी हुई गैस के रासायनिक संघटन (chemical composition) का खुलासा करने से इन्कार कर दिया था। यदि संघटन उजागर कर दिया जाता तो उसके आधार पर पीड़ितों का प्रभावी ढंग से इलाज किया जा सकता था। यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन 1950 के दशक से ही ट्रेड सीक्रेट संरक्षण का उपयोग कर रहा है।

मिक का उपयोग जारी है 

यहां भोपाल गैस त्रासदी एक प्रासंगिक उदाहरण होगा क्योंकि भारत में मिथाइल आइसोसाइनेट (mic) का उपयोग अब तक जारी है। मिक को खतरनाक रसायनों के निर्माण, भंडारण और आयात नियम, 1989 (अनुसूची 1) के तहत एक खतरनाक रसायन के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

डाउन टू अर्थ द्वारा सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत मिक के उपयोग की मात्रा और स्थानों के बारे में सवाल के जवाब में रसायन और पेट्रोकेमिकल्स विभाग ने जानकारी नहीं दी। मजूमदार बताते हैं कि कुछ रिपोर्टें इस बात की पुष्टि करती हैं कि डाऊ केमिकल्स सिंगापुर स्थित कंपनी मेगा वीसा के माध्यम से भारत में यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन के उत्पादों का व्यापार जारी रखे हुए है।

टॉक्सिक्स वॉच अलाएंस के गोपाल कृष्ण ने उजागर किया है कि कई खतरनाक रसायनों (hazardeous chemicals) को अभी भी ‘खतरनाक’ के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है या ‘दर्ज’ करने योग्य ही नहीं माना गया है। उनका आरोप है कि भोपाल में यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन के अनुसंधान और विकास केंद्र ने अमेरिका में युद्ध हथियार निर्माण के लिए प्रतिबंधित गैसों और रसायनों के साथ प्रयोग किए हैं। त्रासदी के लिए ज़िम्मेदार गैस की सटीक पहचान आज भी अज्ञात है।

यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन का भोपाल संयंत्र कीटनाशक कार्बेरिल (sevin) के निर्माण के लिए मिक का उपयोग एक मध्यवर्ती के रूप में करता था। इसे त्रासदी के लगभग तीन दशक बाद 8 अगस्त, 2018 को भारत में प्रतिबंधित किया गया। प्रतिबंध लगाने में इस देरी का कारण बताया नहीं गया है।

हमारा भोजन

इस बीच, कई खतरनाक कृषि रसायन नियमन/नियंत्रण से बाहर बने हुए हैं। जैसे संश्लेषित कीटनाशक डीडीटी (DDT) (डाइफिनाइलट्राइक्लोरोइथेन), जो मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिए खतरनाक है। वैश्विक स्तर पर चरणबद्ध तरीके से इसे समाप्त किए जाने के निर्णय के बावजूद भारत में, एचआईएल लिमिटेड (HIL Limited) के माध्यम से अफ्रीकी देशों को निर्यात के लिए इसका उत्पादन जारी है। 17वीं लोकसभा की रसायन और उर्वरक स्थायी समिति (2023-24) के अनुसार, सरकार ने डीडीटी को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की बात को दिसंबर 2024 तक के लिए टाल दिया है।

2022 में, पेस्टिसाइड्स एक्शन नेटवर्क इंडिया (PAN India) ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी: भारत में क्लोरपाइरीफॉस, फिप्रोनिल, एट्राज़ीन और पैराक्वाट डाइक्लोराइड की स्थिति। रिपोर्ट में मानव स्वास्थ्य, पर्यावरण और अन्य जीवों पर गंभीर जोखिमों के कारण अत्यधिक विषैले कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगाने की तत्काल आवश्यकता बताई गई है।

केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने अपनी 1989 की अधिसूचना के माध्यम से, खतरनाक रसायन (प्रबंधन और हैंडलिंग) नियमों की अनुसूची 1 के तहत 684 खतरनाक रसायनों को सूचीबद्ध किया है। अलबत्ता, इस सूची से कई खतरनाक रसायन नदारद हैं। गोपाल कृष्ण के अनुसार, यह एक अत्यंत सीमित सूची है। भारत में अब तक एस्बेस्टस जैसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंधित रसायनों का उपयोग हो रहा है।

भारत में अनियंत्रित या अल्प-नियंत्रित संश्लेषित रसायनों का एक और उदाहरण है: पर-एंड-पॉलीफ्लोरोएल्काइल पदार्थ (PFAS), जिन्हें ‘शाश्वत रसायन’ भी कहा जाता है। नॉन-स्टिक बर्तन, खाद्य पैकेजिंग और जल-रोधी उत्पादों में खूब उपयोग किए जाने वाले PFAS पर्यावरण में बने रहने और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव के लिए जाने जाते हैं। युरोपीय रसायन एजेंसी ने युरोप में इन्हें नियंत्रित करने के लिए कदम उठाए हैं, लेकिन इस संदर्भ में भारत में कोई प्रगति नहीं हुई है।

अक्टूबर 2024 में डाउन टू अर्थ ने एक बार फिर सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत मिक और अन्य खतरनाक रसायनों पर जानकारी तलब की थी। रसायन विभाग का जवाब था, “सूचना अधिकारी के पास ऐसी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।” यदि ट्रेड सीक्रेट संरक्षण विधेयक, 2024 पारित हो जाता है तो कंपनियों को, राष्ट्रीय आपात स्थिति या सार्वजनिक हित के मामलों को छोड़कर, महत्वपूर्ण जानकारी रोकने की और अधिक शक्ति मिल जाएगी।

भारत में रसायन उद्योग का विस्तार जारी है। केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय का अनुमान है कि 2040 तक यह 1 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच जाएगा। रासायनिक प्रबंधन और सुरक्षा नियमों का मसौदा अधूरा है: भारत में अमेरिका या युरोपीय संघ के जैसे व्यापक नियमों का अभाव है। इसके अलावा, भारत में न तो कोई रासायनिक सूची है या न ही रासायनिक पंजीकरण अनिवार्य है।

पब्लिक पॉलिसी और PAN India से जुड़े नरसिम्हा रेड्डी दोंती का कहना है, “हमारे पास शस्त्र कानून जैसे मज़बूत कानून का अभाव है। बंदूक रखने पर सात वर्ष के कठोर कारावास की सज़ा हो सकती है, लेकिन खतरनाक रसायनों से भरा डिब्बा खरीदने पर अक्सर कोई परिणाम नहीं भुगतना पड़ता। हमें क्रियान्वयन के लिए सख्त कानून, नियम और संस्थागत तंत्र की आवश्यकता है।”

टॉक्सिक्स लिंक के पीयूष महापात्रा बताते हैं कि मौजूदा नीतियां औद्योगिक हितों को प्राथमिकता देती हैं और रासायनिक प्रबंधन और खतरे के वर्गीकरण को नज़रअंदाज़ करती हैं। अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और समझौतों में शामिल होने के बावजूद नीतियों का कार्यान्वयन बदतर बना हुआ है।

लगभग पांच साल पहले 2019 में, डाउन टू अर्थ ने ई-मेल के माध्यम से बातचीत के एक लंबी शृंखला में देश में मिक के उत्पादन और उपयोग पर सरकार से जानकारी मांगी थी। उत्तर मिला: “रसायन विभाग के संयुक्त सचिव मिक जैसी विषाक्त गैस की अधिसूचना पर काम कर रहे हैं। उनके संपर्क में रहें।” अब तक मंत्रालय की ओर से ऐसी कोई अधिसूचना नहीं आई है। रसायन (प्रबंधन और सुरक्षा) नियमों का मसौदा तैयार है, लेकिन अभी तक इसे अंतिम रूप नहीं दिया गया है।

हालांकि भारत में रासायनिक उद्योग के विभिन्न पहलुओं को नियंत्रित करने वाले 15 कानून और 19 नियम हैं, लेकिन उनमें से कोई भी विशेष रूप से रसायनों के उपयोग, उत्पादन और सुरक्षा को पूरे उद्योग के स्तर पर संबोधित नहीं करता। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पूर्व वैज्ञानिक डीडी बसु ने ज़ोर देकर कहा है, “हमें रासायनिक उपयोग, उत्पादन और सुरक्षा को विनियमित करने के लिए व्यापक कानून की आवश्यकता है।”

अन्य देश हानिकारक रसायनों पर नियंत्रण और प्रतिबंध लगाने के प्रयासों को गति दे रहे हैं, लेकिन भारत इसमें अभी भी पिछड़ा है। दोंती का निष्कर्ष है, “भारत को एक मज़बूत नियामक ढांचे की आवश्यकता है जो न केवल ट्रेड सीक्रेट को संबोधित करता हो बल्कि आपूर्ति शृंखलाओं में पारदर्शिता भी सुनिश्चित करता हो। उद्योगों ने ऐसी प्रणालियां बनाई हैं जो उन्हें जांच से बचाती हैं जबकि जनता को नुकसान पहुंचाती हैं।” (स्रोत फीचर्स)

यह लेख मूलत: डाउन टू अर्थ में अंग्रेज़ी में Bhopal Gas Tragedy at 40: Harmful chemicals, including methyl isocyanate, are still used in India due to lax laws; can this change?  शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रकृति में सोने के डले कैसे बनते हैं – माधव केलकर

सोना एक बहुमूल्य धातु है। दुनिया के सभी देश अपनी मुद्राओं की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए निश्चित स्वर्ण भंडार बनाए रखते हैं। लेकिन धरती पर सोने की मौजूदगी बेहद कम है। दुनिया में सोने की खदानों पर एक नज़र डालेंगे तो चीन, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, अमरीका, कनाडा, रूस जैसे देश सोने के प्रमुख उत्पादक देश हैं। भारत में सोने का उत्पादन कर्नाटक व आंध्रप्रदेश में मौजूद खदानों से होता है। कुछ प्रमुख तांबा खदानों में भी सोना मिलता है। वहीं झारखंड की स्वर्णरेखा नदी में बेहद कम मात्रा में रेत के साथ सोने के कण मिलते हैं इन्हें स्थानीय लोग रेत को धोकर-छानकर प्राप्त करते हैं। 

सोना उन धातुओं में शुमार है जो प्रकृति में मुक्त रूप में मिलता है। आम तौर पर तत्वों के अयस्क ऑक्साइड, कार्बोनेट, सल्फेट, क्लोराइड के रूप में मिलते हैं। जैसे हीमेटाइट, मैग्नेटाइट, सिडेराइट, पायराइट, चाल्कोपायराइट आदि। लेकिन सोना, चांदी शुद्ध (Pure Metal) रूप में भी मिलते हैं। साथ ही, अन्य अयस्कों के साथ भी मिल सकते हैं। जैसे सोना तांबे के अयस्क चाल्कोपायराइट के साथ भी मिलता है हालांकि चाल्कोपायराइट में सोने की मात्रा बेहद कम होती है। सोना जिस खनिज के साथ सबसे ज़्यादा मिलता है वह है क्वार्ट्ज़ (Quartz) यानी सिलिका का ऑक्साइड। क्वार्ट्ज़ धरती की सतह से कुछ किलोमीटर नीचे तक चट्टानों के रूप में पाया जाता है। क्वार्ट्ज़ की दरारों में सोने के कण एकत्रित होते जाते हैं। इन दरारों तक कई खनिजों के तरल गरम मिश्रण, जिन्हें हाइड्रोथर्मल तरल (Hydrothermal Fluids) कहा जाता है, के साथ सोना इन क्वार्ट्ज़ दरारों तक आता है और इन दरारों में इकट्ठा होने लगता है। यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है और सोने के बड़े-बड़े डिगले या डले बनते जाते हैं। 

क्वार्ट्ज़ की दरारों में सोने के इस जमाव को लेकर काफी शोध एवं नए विचार सामने आए हैं। हाल में ही नेचर जियोसाइंस (Nature Geoscience) में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चलता है कि धरती पर आने वाले भूकंप क्वार्ट्ज़ में आवेशों को उत्तेजित कर सकते हैं जिससे हाइड्रोथर्मल तरल में तैर रहे मुक्त सोने के कण क्वार्ट्ज़ पर एकत्रित होते जाते हैं। अभी तक इस परिकल्पना की जांच प्रयोगशाला स्तर पर करके देखी गई है। धरती के भूगर्भीय हालात में इसका अध्ययन किया जाना बाकी है। 

सामान्य तौर पर सोने के बड़े डिगले या डले क्वार्ट्ज़ शिराओं या दरारों में पाए जाते हैं। भूवैज्ञानिक काफी पहले से यह जानते थे कि सोने से भरपूर हाइड्रोथर्मल तरल इन दरारों में जमा होते हैं। दरारों के बनने का सिलसिला धरती के भीतर उठने वाले भूकंप (Earthquakes) या विविध बलों की वजह से होता है। सोने के कण इस गरम तरल पदार्थ में घुले हुए नहीं होते बल्कि इसमें तैर रहे होते हैं। ऐसा भी नहीं है कि इस गरम तरल में सोने की सांद्रता बहुत ज़्यादा होती हो। एक अनुमान है कि पांच स्वीमिंग पूल में मौजूद पानी के बराबर गरम तरल में एक किलो सोने की डली बनने लायक सोने के कण हो सकते हैं। 

सवाल यह है कि जब गरम तरल में सोने के कण इतने बिखरे-बिखरे हुए होते हैं तो ये चिपककर इतनी बड़ी डली कैसे बना लेते हैं। मोनाश विश्वविद्यालय (Monash University) के भूविज्ञानी क्रिस्टोफर वोइसी और उनके सहकर्मियों को लगा कि इसका जवाब दाब-विद्युत यानी पीज़ोइलेक्ट्रिक (Piezoelectric Effect) प्रभाव में छुपा हो सकता है। 

क्वार्ट्ज़ एक पीज़ोइलेक्ट्रिक पदार्थ (Piezoelectric Material) है, यानी जब इस पर यांत्रिक तनाव (Mechanical Stress) आरोपित किया जाता है तो इसमें विद्युत आवेश पैदा होता है। यह विद्युत तरल पदार्थ में मौजूद सोने के आयनों को ठोस सोना (Solid Gold) बनाने का कारण बन सकती है। ठोस सोना क्वार्ट्ज़ के विद्युत क्षेत्र में एक कंडक्टर के रूप में कार्य कर सकता है, जिससे घोल में मौजूद अधिक सोने के आयन एक ही स्थान पर आकर्षित होते हैं और अंततः एक साथ चिपक जाते हैं। लेकिन क्या भूकंप क्वार्ट्ज़ में पर्याप्त पीज़ोइलेक्ट्रिक वोल्टेज स्थापित कर सकता है जिससे ऐसा सब घटित हो?  इसका परीक्षण करने के लिए, टीम ने क्वार्ट्ज़ क्रिस्टल को छोटे, स्वतंत्र रूप से तैरते सोने के कणों वाले घोल में डुबोया और भूकंपीय तरंगों की आवृत्ति जितनी सूक्ष्म तरंगों से क्वार्ट्ज़ क्रिस्टल पर तनाव बनाया और हटाया। वोइसी और उनकी टीम ने पाया कि क्वार्ट्ज़ पर मामूली तनाव से भी क्रिस्टल की सतहों पर सोने के कण जमा हो जाते हैं। इस प्रयोग को कई बार दोहराने पर सोने के कणों का ढेर बड़ा होता जाता है। 

वोइसी कहते हैं कि यह भी संभव है कि पीज़ोइलेक्ट्रिक प्रभाव इन सोने की डलियों के बनने का केवल एक कारण हो, अन्य कारण खोजे जाने बाकी हैं। जब तक मनुष्य सोने को महत्व देते रहेंगे, तब तक सोने की डली बनने की खोज जारी रहेगी। (स्रोत फीचर्स)

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