लगभग साढ़े चार हज़ार साल पुरानी जर्मन कब्रगाहों के अवशेष और
उनमें मिले सामानों पर किए गए हालिया अध्ययन के नतीजों ने अध्ययनकर्ताओं को हैरत
में डाल दिया है। साइंस पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन के नतीजों के
मुताबिक इन पुरानी जर्मन कब्रगाहों में वयस्क बेटियों के शव नदारद हैं।
ये अवशेष तकरीबन 20 साल पहले दक्षिण
ऑग्सबर्ग में लेक नदी के किनारे आवास निर्माण के लिए चल रही खुदाई में मिले थे।
हार्वर्ड मेडिकल स्कूल की एलिसा मिटनिक और उनके साथी खुदाई में मिले करीब 104 शवों
के डीएनए, शवों के साथ मिली वस्तुओं के विश्लेषण, रेडियोकार्बन
डेटिंग और दांतो में मौजूद स्ट्रॉन्टियम आइसोटोप की मात्रा के आधार पर उनके
सामाजिक ढांचे का अध्ययन कर रहे थे। अध्ययन में उन्होंने पाया कि इन कब्रगाहों में
वयस्क बेटियों का एक भी शव नहीं था। इसके विपरीत बेटों को पिता की ज़मीन पर दफनाया
गया था और उनके साथ उनकी संपत्ति भी रखी गई थी।
रोडियोकार्बन डेटिंग में उन्होंने पाया कि
ये लोग वहां 4750 से 3300 वर्ष पूर्व रहते थे। 200 वर्ष की इस अवधि में चार से
पांच पीढ़ियों का जीवन रहा। शवों के साथ मिली वस्तुओं और बर्तनों के आकार के आधार
पर अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि शुरुआती पीढ़ी नव-पाषाण संस्कृति की थी। इसके बाद
की पीढ़ियों के लोग कांस्ययुग के थे, जिनके साथ उनकी कब्र में कांसे और तांबे के
खंजर, कुल्हाड़ी और छैनी मिली थी और इनमें पूर्व के लोगों के डीएनए
बरकरार थे। इनकी कब्र में दफन चीज़ों को देखकर पता चलता है कि ये उच्च श्रेणी के
लोग थे और धनवान थे। इनके वंशज आज भी युरोप में मौजूद हैं। इसके विपरीत कुछ लोगों
की कब्र में शव के साथ कोई सामान नहीं मिला है जिससे लगता है कि ये निम्न श्रेणी
के लोग थे। और इनके वाय गुणसूत्र उच्च श्रेणी के लोगों से भिन्न थे जिससे पता चलता
है कि वे अलग वंश के थे।
इसके अलावा एक तिहाई से भी अधिक महिलाएं
बहुत अधिक संपत्ति के साथ दफन की गई थीं। उनके डीएनए के विश्लेषण और स्ट्रॉन्टियम
आइसोटोप के विश्लेषण से पता चलता है कि ये महिलाएं मूलत: इस जगह की नहीं थी, किशोरावस्था
तक वे लेक नदी से दूर किसी अन्य स्थान पर रहती थीं। इन कब्रगाहों में इन महिलाओं
की बेटियों के कोई प्रमाण या निशान नहीं मिले हैं जिससे लगता है कि शादी के बाद वे
अपना घर छोड़ देती होंगी। इस जगह जिन भी स्थानीय स्त्रियों के शव मिले हैं वे या तो
15-17 वर्ष से कम उम्र की थीं या गरीब स्त्रियां थीं। तीन पुरुषों के दांतों में
मिले स्ट्रॉन्टियम की मात्रा से पता चलता है कि वे किशोरावस्था में उस जगह से कहीं
और चले गए थे और वयस्क होने पर लौट आए। जिससे पुरुषों की जीवन शैली का अंदाज़ा लग
सकता है।
इस समय सामाजिक स्तर पर तो असमानता दिखती
है लेकिन राजसी पुरुषों की कब्र में लगभग एक जैसी चीज़े थीं, जिससे
अंदाजा लगता है कि संपत्ति सिर्फ बड़े बेटे को नहीं बल्कि सभी बेटों को बराबर मिलती
थी।
ये नतीजे एक ही जगह और एक ही समय के हैं। ज़्यादा सामान्य नतीजे पर पहुंचने के लिए इसी तरह के विश्लेषण अलग-अलग समयों और जगहों पर करना होगा। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/TB_Brons_migration1_F2_online.jpg?itok=TJwG85ds
“सत्य को झूठ से अलग करने के लिए वैज्ञानिक मिज़ाज की ज़रूरत होती है। विज्ञान के सिद्धान्त चौकस दिमाग का निर्माण करते हैं और तथ्य को भ्रामक जानकारियों से अलग समझने में मदद करते हैं।” – नोबेल विजेता वैज्ञानिक सर्ज हैरोशे ff
आदिम मनुष्य बादल, आसमान,
सागर, तूफान
नदी, पहाड़, तरह-तरह के पेड़ पौधों, जीव-जंतुओं
के बीच अपने आपको असुरक्षित, असहाय और असमर्थ महसूस करता था। वह भय, कौतुहल
और जिज्ञासा से व्याकुल हो जाता था।
उसका जीवित रह पाना उसके अपने परिवेश की
जानकारी और अवलोकन पर निर्भर था, इसलिए अपने देखे-अनदेखे दृश्यों से उसने
अनेकों पौराणिक कथाओं की रचना की। इन कथाओं के ज़रिए मनुष्य, विभिन्न
जानवरों और पेड़-पौधों की उत्पत्ति की कल्पना तथा व्याख्या की गई। इन कथाओं में
जानवर और पौधे मनुष्य की भाषा समझते और बोलते थे। वे एक-दूसरे का रूप धारण किया
करते थे। इन कथाओं में ईश्वररूपी सृष्टा की बात कही गई। मनुष्य की चेतना ने सृष्टि
के संचालक, नियन्ता, करुणामय ईश्वर का आविष्कार किया। आत्मा तथा
परमात्मा की अनुभूति की उसने। वह प्रकृति के साथ एकात्मकता महसूस करने लगा। उसे
सुरक्षा का आश्वासन मिला।
समय के साथ विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में
जानकारियां इकठ्ठी होती रहीं। समाज, संस्कृतियों का विकास होता गया। हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, कनफ्यूशियसवाद, इस्लाम
इत्यादि ज्ञान की परंपराएं विकसित और स्थापित हुर्इं। इन सभी परंपराओं की स्थापना
है कि इस संसार में जो भी जानने लायक महत्वपूर्ण बातें हैं उन्हें जाना जा चुका
है। ईश्वर ने ब्राहृांड की सृष्टि की, मनुष्य और अन्य जीवों का निर्माण किया।
माना गया कि प्राचीन ऋषिगण, पैगंबर और धर्मप्रवर्तक व्यापक ज्ञान से
युक्त थे और यह ज्ञान धर्मग्रंथों तथा मौखिक परंपराओं में हमें उपलब्ध है। हम इन
ग्रंथों तथा परंपराओं के सम्यक अध्ययन से ही ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। मनीषियों
के उपदेशों और वाणियों से हमें इस गूढ़ ज्ञान की उपलब्धि हो सकती है। इस स्थापना
में यह अकल्पनीय है कि वेद, बाइबल या कुरान में ब्राहृांड के किसी
महत्वपूर्ण रहस्य की जानकारी न हो जिसे कोई हाड़-मांस का जीव उद्घाटित कर सके।
सोलहवीं सदी से ज्ञान की एक अनोखी परंपरा
का विकास हुआ। यह परंपरा विज्ञान की परंपरा है। इसकी बुनियाद में यह स्वीकृति है
कि ब्राहृांड के सारे महत्वपूर्ण सवालों के जवाब हमें नहीं मालूम, उनकी
तलाश करनी है।
वह महान आविष्कार जिसने वैज्ञानिक क्रांति
का आगाज़ किया, वह इसी बात का आविष्कार था कि मनुष्य अपने सबसे अधिक
महत्वपूर्ण सवालों के जवाब नहीं जानता। वैसे तो हर काल में, सर्वाधिक
धार्मिक और कट्टर समय में भी, ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने कहा कि ऐसी कई
महत्वपूर्ण बातें हैं, जिनकी जानकारी पूरी परंपरा को नहीं है। ये लोग हाशिए पर कर
दिए गए या सज़ा के भागी हुए अथवा ऐसा हुआ कि उन्होंने अपना नया मत प्रतिपादित किया
और कालांतर में यह मत कहने लगा कि उसके पास सारे सवालों के जवाब हैं।
सन 1543 में निकोलस कॉपर्निकस की पुस्तक De revolutionibus orbium का प्रकाशन हुआ। यह मानव सभ्यता के विकास
में एक क्रांति की सूचना थी। इस क्रांति का नाम वैज्ञानिक क्रांति है। इस पुस्तक
ने स्पष्ट तौर पर घोषणा की कि आकाशीय पिंडों का केंद्र धरती नहीं, सूरज
है। यह घोषणा उस समय के स्वीकृत ज्ञान को नकारती थी,
जिसके अनुसार धरती
ब्राहृांड का केंद्र है। यह बात आज साधारण लगती है,
पर कॉपर्निकस के समय
(1473 -1543) यह कहना धर्मविरोधी माना जाता था। उस समय चर्च समाजपति की भूमिका में
था। चर्च की मान्यता थी कि धरती ईश्वर के आकाश का केंद्र है। कॉपर्निकस को विश्वास
था कि धर्म-न्यायाधिकरण उसे और उसके सिद्धांत दोनों को ही नष्ट कर डालेगा। इसलिए
उसने इसके प्रकाशन के लिए मृत्युशय्या पर जाने की प्रतीक्षा की। अपनी सुरक्षा के
लिए कॉपर्निकस की चिंता पूरी तरह सही थी। सत्तावन साल बाद जियार्डेनो ब्रूनो ने
खुले तौर पर कॉपर्निकस के सिद्धांत के पक्ष में वक्तव्य देने की ‘धृष्टता’ की तो
उन्हें इस ‘कुकर्म’ के लिए ज़िंदा जला दिया गया था।
गैलीलियो(1564-1642) ने प्रतिपादित किया कि
प्रकृति की किताब गणित की भाषा में लिखी गई है। इस कथन ने प्राकृतिक दर्शन को
मौखिक गुणात्मक विवरण से गणितीय विवरण में बदल दिया। इसमें प्राकृतिक तथ्यों की
खोज के लिए प्रयोग आयोजित करना स्वीकृत एवं मान्य पद्धति हो गई। अंत में उनके
टेलीस्कोप ने खगोल विज्ञान में क्रांतिकारी प्रभाव डाला और कॉपर्निकस की सूर्य
केंद्रित ब्राहृांड की अवधारणा के मान्य होने का रास्ता साफ किया। लेकिन इस सिस्टम की वकालत करने के कारण उन्हें धर्म-न्यायाधिकरण
का सामना करना पड़ा था।
एक सदी बाद,
फ्रांसीसी गणितज्ञ और
दार्शनिक रेने देकार्ते ने सारे स्थापित सत्य की वैधता का परीक्षण करने के लिए एक
सर्वथा नई पद्धति की वकालत की। आध्यात्मिक संसार के अदृश्य सत्य का इस पद्धति से
विश्लेषण नहीं किया जा सकता था। आधुनिक काल में वैज्ञानिक प्राकृतिक संसार के
अध्ययन के लिए प्रवृत्त हुए। आध्यात्मिक सत्य का अध्ययन सम्मानित नहीं रहा।
क्योंकि उसके सत्य की समीक्षा विज्ञान के विश्लेषणात्मक तरीकों से नहीं की जा
सकती। जीवन और ब्राहृांड के महत्वपूर्ण तथ्य तर्क-संगत वैज्ञानिकों की गवेषणा के
क्षेत्र हो गए। देकार्ते ने ईश्वर की जगह मनुष्य को सत्य का अंतिम दायित्व दिया, जबकि
पारंपरिक अवधारणा में एक बाहरी शक्ति सत्य को परिभाषित करती है। देकार्ते के
मुताबिक सत्य व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करता है। विज्ञान मौलिकता को महान
उपलब्धि का निशान मानता है। मौलिकता स्वाधीनता का परिणाम होती है, प्रदत्त
ज्ञान से असहमति है।
सन 1859 में चार्ल्स डार्विन के जैव
विकासवाद के सिद्धान्त के प्रकाशन के साथ विज्ञान और आत्मा के रिश्ते के तार-तार
होने की बुनियाद एकदम पक्की हो गई।
आधुनिक विज्ञान इस मायने में अनोखा है कि
यह खुले तौर पर सामूहिक अज्ञान की घोषणा करता है। डार्विन ने नहीं कहा कि उन्होंने
जीवन की पहेली का अंतिम समाधान कर दिया है और इसके आगे कोई और बात नहीं हो सकती।
सदियों के व्यापक वैज्ञानिक शोध के बाद भी जीव वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि वे
नहीं जानते कि मस्तिष्क में चेतना कैसे उत्पन्न होती है। पदार्थ वैज्ञानिक स्वीकार
करते हैं कि उन्हें नहीं मालूम कि बिग बैंग कैसे हुआ या सामान्य सापेक्षता के
सिद्धांत और क्वांटम मेकेनिक्स के बीच सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाए।
वैज्ञानिक क्रांति के पहले अधिकतर
संस्कृतियों में विकास और प्रगति की अवधारणा नहीं थी। समझ यह थी कि सृष्टि का
स्वर्णिम काल अतीत में था। मानवीय बुद्धि से रोज़मर्रा ज़िंदगी के कुछ पहलुओं में
यदा-कदा कुछ उन्नति हो सकती है लेकिन संसार का संचालन ईश्वरीय विधान करता है।
प्राचीन काल की प्रज्ञा का अनुपालन करने से हम सृष्टि और समाज को संकटग्रस्त होने
से रोक सकते हैं। लेकिन मानव समाज की मौलिक समस्याओं से उबरना नामुमकिन माना जाता
था। जब सर्वज्ञाता ऋषि, ईसा, मोहम्मद और कन्फ्यूशियस अकाल, रोग, गरीबी, युद्ध
का नाश नहीं कर पाए तो हम साधारण मनुष्य किस खेत की मूली हैं?
वैज्ञानिक क्रांति के फलस्वरूप एक नई
संस्कृति की शुरुआत हुई। उसके केंद्र में यह विचार है कि वैज्ञानिक आविष्कार हमें
नई क्षमताओं से लैस कर सकते हैं। जैसे-जैसे विज्ञान एक के बाद एक जटिल समस्याओं का
समाधान देने लगा, लोगों को विश्वास होने लगा कि नई जानकारियां हासिल करके और
इनका उपयोग कर हम अपनी समस्याओं को सुलझा सकते हैं। दरिद्रता, रोग, युद्ध, अकाल, बुढ़ापा, मृत्यु
विधि का विधान नहीं है। ये बस हमारे अज्ञान का नतीजा हैं।
विज्ञान का कोई पूर्व-निर्धारित मत/सिद्धांत नहीं है, अलबत्ता, इसकी गवेषणा की कुछ सामान्य विधियां हैं। सभी अवलोकनों पर आधारित हैं। हम अपनी ज्ञानेंद्रियों के जरिए ये अवलोकन करते हैं और गणितीय औज़ारों की मदद से इनका विश्लेषण करते हैं। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://familytimescny.com/wp-content/uploads/2016/09/STEM.jpg
हाल मानव मस्तिष्क को अपने हर एक भाग को नए कार्यों के लिए
आवंटित करना बखूबी आता है। दृष्टि जैसी अनुभूति के अभाव में मस्तिष्क दृष्टि से
सम्बंधित क्षेत्र को ध्वनि या स्पर्श जैसे नए इनपुट संभालने के लिए अनुकूलित कर
लेता है। कई दृष्टिहीन लोग मुंह से कुछ आवाज़ें निकालते हैं और उनकी प्रतिध्वनियों
की मदद से वस्तुओं की स्थिति का अंदाज़ लगाते हैं। ऐसे व्यक्तियों पर हाल ही में
किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि मस्तिष्क में बेकार पड़े हिस्सों का उपयोग काफी
उच्च स्तर पर किया जाता है। पता चला है कि प्रारंभिक रूप से दृश्य प्रसंस्करण के
लिए समर्पित मस्तिष्क क्षेत्र उन्हीं सिद्धांतों का उपयोग करके प्रतिध्वनियों की
व्याख्या कर लेता है जैसे आंखों से मिले संकेतों की व्याख्या की जाती है।
दृष्टि वाले लोगों में, रेटिना
(दृष्टिपटल) के संदेशों को मस्तिष्क के पीछे वाले क्षेत्र (प्राइमरी विज़ुअल
कॉर्टेक्स) में भेजा जाता है। हम जानते हैं कि मस्तिष्क के इस क्षेत्र की जमावट
हमारे चारों ओर के वास्तविक स्थान की जमावट से मेल खाती है। हमारे पर्यावरण में
पास-पास के दो बिंदुओं की छवि हमारे रेटिना पर पास-पास के बिंदुओं पर बनती है और
इसके संदेश प्राइमरी विज़ुअल कॉर्टेक्स के भी पास-पास के बिंदुओं को सक्रिय करते
हैं। शोधकर्ता यह जानना चाहते थे कि क्या दृष्टिहीन लोग प्राइमरी विज़ुअल कॉर्टेक्स
में दृष्टि-आधारित स्थान मानचित्रण की तर्ज़ पर ही प्रतिध्वनियों का प्रोसेसिंग
करते हैं।
इसके लिए शोधकर्ताओं ने दृष्टिहीन और
दृष्टि वाले लोगों से कुछ रिकॉर्डिंग सुनने को कहा। यह रिकॉर्डेड आवाज़ें दरअसल
कमरे के अलग-अलग स्थानों पर रखी वस्तुओं से टकराकर आ रही थी। इस दौरान मस्तिष्क की
गतिविधि को समझने के लिए उन लोगों को मैग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग (एमआरआई) स्कैनर
में रखा गया था। शोधकर्ताओं ने प्रतिध्वनि का उपयोग करने वाले लोगों के प्राइमरी
विज़ुअल कॉर्टेक्स में उसी प्रकार की सक्रियता देखी जैसी दृष्टि वाले लोगों में
दृश्य संकेतों से होती है।
प्रोसीडिंग ऑफ द रॉयल सोसाइटी-बी की रिपोर्ट से लगता है कि विज़ुअल कॉर्टेक्स की स्थान मानचित्रण क्षमता का उपयोग एक अलग अनुभूति के लिए किया जा सकता है। किसी व्यक्ति में सुनने और स्थान मानचित्रण की इस मस्तिष्क क्रिया के बीच जितनी अधिक समरूपता रही, वस्तुओं की स्थिति के अनुमान में भी उतनी ही सटीकता दिखी। इस शोध से तंत्रिका लचीलेपन का खुलासा हुआ है जिससे मस्तिष्क को स्थान सम्बंधी जानकारी का उपयोग करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है भले ही वह आंखों के माध्यम से प्राप्त न हुई हो। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.gzn.jp/img/2019/10/16/blind-people-using-adapted-visual-cortex/rspb20191910f04.jpg
आम तौर पर पीले रंग को खुशी और उमंग जैसी भावनाओं के साथ
जोड़कर देखा जाता है। लेकिन जर्नल ऑफ एनवॉयरमेंटलसाइकोलॉजी में
प्रकाशित ताज़ा अध्ययन बताता है कि सभी लोग पीले रंग को सुखद एहसास या अनुभूति के
साथ जोड़कर नहीं देखते।
दरअसल शोधकर्ता यह जानना चाहते थे कि रंगों
के साथ भावनाओं के जुड़ाव में कौन से कारक भूमिका निभाते हैं। यह जानने के लिए
उन्होंने एक नई परिकल्पना को जांचा कि क्या किसी खास रंग से उमड़ने वाली भावनाओं को
आसपास का भौतिक परिवेश प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए क्या ठंडे या बरसाती इलाके
फिनलैंड में रहने वाले व्यक्ति में पीले रंग से जो भावनाएं उमड़ती हैं, वे
सहारा रेगिस्तान में रहने वाले व्यक्ति से अलग होंगी?
शोधकर्ताओं ने 55 देशों के लगभग 6625 लोगों
पर हुए सर्वे के डैटा को देखा। इस सर्वे में लोगों को 12 अलग-अलग रंगों को इस आधार
पर अंक देने को कहा गया था कि वे खुशी, गौरव,
डर और शर्म जैसी
भावनाओं का सम्बंध किस रंग से जोड़ते हैं।
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने सिर्फ पीले रंग
से जुड़े डैटा का इस आधार पर विश्लेषण किया कि विभिन्न कारक जैसे धूप की अवधि, दिन
की रोशनी की अवधि और वर्षा की मात्रा कैसे लोगों द्वारा रंगों के लिए बताई गई
भावनाओं से जुड़ी हैं। लोग पीले रंग के प्रति कैसा अनुभव करते हैं इसका सबसे अधिक
सम्बंध दो बातों से देखा गया: वे जहां रहते हैं वहां सालाना कितनी बारिश होती है
और वह स्थान भूमध्य रेखा से कितनी दूरी पर है। शोधकर्ताओं ने पाया कि पीले रंग को
उमंग से जोड़कर देखने वाले लोगों की संख्या वर्षा वाले इलाकों में अधिक थी और
भूमध्य रेखा के नज़दीक कम। इसके अलावा भूमध्य रेखा से दूर रहने वाले लोगों ने उजले
रंगों की अधिक सराहना की। मिरुा (गर्म स्थान) में सिर्फ 5.7 लोगों ने पीले रंग को
खुशी के साथ जोड़ा जबकि बर्फीले फिनलैंड के 87.7 प्रतिशत लोगों ने पीले रंग को खुशी
से जोड़कर देखा। मध्यम जलवायु वाले यू.एस. में पीले रंग और खुशी का जुड़ाव 60-70
प्रतिशत लोगों ने जोड़ा।
अध्ययन में मौसम परिवर्तन के साथ रंगों में बदलती रुचि पर भी गौर किया गया – क्या किसी इलाके में लोग गर्मियों की बजाय सर्दियों में पीले रंग को ज़्यादा पसंद करते हैं? पाया गया कि रंगों को लेकर लोगों की राय साल भर लगभग एक जैसी ही रहती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/155373600-1280×720.jpg?itok=4aQx0V5F
भारत सितंबर
महीना खत्म होने को है और भारत में सेमीनार और सम्मेलनों के आयोजन का मौसम शुरू हो
गया है। आम तौर पर कॉन्फ्रेंस में एक व्यापक विषयवस्तु पर विविध विषयों के
विशेषज्ञों को आमंत्रित किया जाता है। दूसरी ओर, सेमीनार
में किसी एक खास विषय या उपविषय के विशेषज्ञों को आमंत्रित किया जाता है जो मिलकर
उस विषय पर विचारों का आदान-प्रदान और समीक्षा करते हैं। सम्मेलनों में श्रोता या
प्रतिभागी किसी ऐसे विषय पर तकरीरें सुनते हैं जिससे वे परिचित नहीं हैं। इस तरह
से यह उनके लिए सीखने का एक अवसर होता है। विशेष-थीम पर केंद्रित सेमीनार में प्रतिभागी
सेमीनार में मात्र श्रोता नहीं होते, वे
उस विषय से परिचित होते हैं और विषय की बारीकियां सुनते हैं,
जिसमें से वे कुछ नया सीखते हैं,
सराहते हैं और उससे कुछ ग्रहण करते हैं। इस तरह सम्मेलन और
सेमीनार दोनों उपयोगी होते हैं।
लेकिन
इसका एक नकारात्मक पहलू भी है। प्रस्तुतीकरण या तकरीर के दौरान कुछ या कई श्रोता
सिर हिलाते-हिलाते
ऊंघने लगते हैं और झपकी ले लेते हैं। इसे नॉड ऑफ कहते हैं। इस संदर्भ में 15 साल पहले (दिसंबर 2004 में) केनेडियन मेडिकल
एसोसिएशन जर्नल में के. रॉकवुड और साथियों द्वारा प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया
था कि व्याख्यानों के दौरान श्रोता ऐसा क्यों करते हैं,
कितनी दफा करते हैं और झपकी आने के क्या कारक हैं। इस
हास्यपूर्ण और व्यंग्यात्मक शोधपत्र में उन्होंने बताया था कि कैसे उन्होंने चुपके
से एक ही समूह का लगातार (कोहॉर्ट) अध्ययन किया जिसमें
उन्होंने पता लगाया कि वैज्ञानिक मीटिंग के दौरान श्रोता-चिकित्सक कितनी बार झपकी लेते हैं,
और झपकी आने के पीछे क्या कारक हो सकते हैं।
एक
दो-दिवसीय
व्याख्यान, जिसमें तकरीबन 120 लोग शामिल हुए थे,
के अध्ययन में उन्होंने पाया कि प्रत्येक 100 प्रतिभागी पर प्रति
व्याख्यान झपकी की संख्या (नॉडिंग ऑफ इवेंट पर लेक्चर, एनओईएल) 15-20 मिनट के व्याख्यान
के दौरान 10 रही,
लेकिन व्याख्यान 30-40 मिनट का होने पर बढ़कर तकरीबन 22 हो गई थी। अर्थात
जितना लंबा व्याख्यान उतनी अधिक झपकी संख्या (एनओईएल)।
अध्ययन
में यह भी पता चला कि झपकी-प्रेरित सिर हिलाना और वक्ता की बात से सहमति पर सिर हिलाना
एकदम अलग-अलग
हैं। इनमें सिर हिलाने का तरीका, समय और आवृत्ति अलग-अलग होती है।
ऐसा
क्यों होता है? और किन कारणों से
होता है? इसके कई कारक सामने
आए और ये कारक हैं माहौल (जैसे
मद्धिम रोशनी, कमरे का तापमान,
आरामदायक बैठक व्यवस्था), दृश्य-श्रव्य गड़बड़ी (जैसे खराब स्लाइड,
माइक्रोफोन पर ना बोलना), शरीर की दैनिक लय (सुबह-सुबह के समय,
भोजन के बाद या भारी नाश्ता या लंच के बाद नींद आना) और वक्ता सम्बंधी
कारण (जैसे
नीरस तरीके से बोलना या उबाऊ भाषण)।
आजकल
तो सेमीनार या सम्मेलनों में कई श्रोता मोबाइल, लैपटॉप
वगैरह साथ लेकर जाते हैं। हालांकि आयोजकों की ओर से निर्देश दिए जाते हैं कि
व्याख्यान के दौरान मोबाइल फोन या तो बंद कर दिए जाएं या साइलेंट मोड पर रखे जाएं
लेकिन व्याख्यान उबाऊ लगने पर श्रोता अपने मोबाइल या लैपटॉप में मशगूल हो जाते हैं,
जिससे व्याख्यान के दौरान झपकी की संख्या (एनओईएल) में कमी दिखती है।
जब आयोजकों ने व्याख्यान के दौरान मोबाइल या लैपटॉप का इस्तेमाल ना करने पर सख्ती
दिखाई तो व्याख्यान के दौरान झपकी की संख्या में वृद्धि भी देखी गई।
अध्ययन
में आगे अध्ययनकर्ताओं ने झपकी लेने वालों को टोका और अदब के साथ उनसे पूछा कि
उन्हें झपकी क्यों आई। पहले तो जब उन्हें यह बताया गया कि इस व्याख्यान के दौरान
सिर्फ उन्हें ही नहीं अन्य लोगों को भी झपकी आई तो उनमें से कई लोगों को इस बात की
तसल्ली हुई कि यह उनका दोष नहीं था। जब उनसे यह पूछा गया कि इस तरह के व्याख्यान
में क्या वे आगे भी शामिल होंगे तो कुछ ने लोगों ने हां में जवाब दिया और कहा कि
उन्हें हमेशा एक झपकी की ज़रूरत रहती है, कुछ
ने कहा कि यदि इसके लिए उन्हें भुगतान किया जाएगा तो वे शामिल होंगे और कुछ ने जवाब
में दांत दिखा दिए। जब उनसे यह पूछा गया कि झपकी आने के पीछे गलती किसकी थी तो
अधिकतर लोगों ने कहा कि पूरी गलती वक्ता की थी जबकि सिर्फ कुछ ही लोगों ने कहा कि
गलती उनकी थी।
वक्ताओं
को इस अध्ययन से क्या सीखना चाहिए? कैसे वे व्याख्यान
में श्रोताओं की रुचि बनाए रखें? स्लाइड,
पीपीटी या वीडियो दिखाते समय हॉल की मद्धिम रोशनी जैसे
कारकों को तो हटाया नहीं जा सकता। लेकिन हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट इस सम्बंध
में काफी उपयोगी सलाह देती है। इसके अनुसार एक आदर्श वक्तव्य में 37 प्रतिशत टेक्स्ट,
29 प्रतिशत
चित्र और 33
प्रतिशत वीडियो होना चाहिए। व्याख्यान के इस तरह के बंटवारे को अमल में लाना
फायदेमंद हो सकता है और देखा जा सकता है कि यह कैसे काम करता है। व्याख्यान में
पीपीटी के चित्र या टेक्स्ट की ऊंचाई-चौड़ाई का अनुपात सही हो (5 × 3), बड़े अक्षर उपयोग किए
जाएं ताकि आसानी से पढ़े जा सकें, टेक्स्ट और
पृष्ठभूमि के रंग में साफ अंतर हो (काला या नीला पटल होने पर उस पर स्पष्ट दिखते किसी अन्य रंग
से लिखा टेक्स्ट)।
इसके अलावा वक्ता आहिस्ता, स्पष्ट और माइक पर
बोलें। आप कुछ उपयोगी सुझाव इस लिंक पर पढ़ सकते हैं: http://www.med-ed-online.org)
और
अब इन झपकियों के पीछे के मस्तिष्क-विज्ञान को बेहतर समझ लिया गया है। चीनी और जापानी
वैज्ञानिकों द्वारा हाल ही में प्रकाशित एक पेपर के अनुसार मस्तिष्क में
न्यूक्लियस एक्यूम्बेंस नामक हिस्से में यह क्षमता होती है कि वह अणुओं के एक समूह
(A2A रिसेप्टर) को सक्रिय कर झपकी प्रेरित कर सकता है। नेचर
कम्युनिकेशन में प्रकाशित इस शोध पत्र के मुताबिक मुख्य अणु एडिनोसीन है जो A2A रिसेप्टर को सक्रिय कर देता है और नींद आने लगती है।
एडिनोसीन के अलावा अन्य नींद-प्रेरक अणु भी A2A
रिसेप्टर पर कार्य करते हैं। नींद की प्रचलित दवाइयां भी A2A रिसेप्टर को सक्रिय करती हैं और नींद लाती हैं। इसके
विपरीत कॉफी और चाय में मौजूद कैफीन इस रिसेप्टर को अवरुद्ध करते हैं और आपको जगाए
रखते हैं।
तो अगली बार व्याख्यान सुनने जाएं तो एक प्याला कॉफी पीकर जाएं और जागे रहें। और यदि आप व्याख्याता हैं तो उपरोक्त लिंक पर दिए गए सुझावों का लाभ लें। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/k06dhy/article29542979.ece/alternates/FREE_660/29TH-SCILECTURE
एड्रीनेलिन, यह उस मशहूर हारमोन का नाम है जो अचानक आए किसी
खतरे या डर की स्थिति से निपटने या पलायन करने के लिए हमारे शरीर को तैयार करता
है। लेकिन हालिया अध्ययन बताते हैं कि तनाव की स्थिति में होने वाली प्रतिक्रिया
के लिए एड्रीनेलिन की अपेक्षा हड्डियों में बनने वाला एक अन्य हार्मोन ज़्यादा
ज़िम्मेदार होता है।
कोलंबिया विश्वविद्यालय के जेनेटिक्स वैज्ञानिक गैरार्ड
कारसेन्टी का कहना है कि कंकाल शरीर के लिए हड्डियों का कठोर ढांचा भर नहीं है।
हमारी हड्डियां ऑस्टियोकैल्सिन नामक प्रोटीन का स्राव करती हैं जो कंकाल का
पुनर्निर्माण करता है। 2007 में
कारसेन्टी और उनके साथियों ने इस बात का पता लगाया था कि ऑस्टियोकैल्सिन नामक यह
प्रोटीन एक हार्मोन की तरह काम करता है, जो रक्त शर्करा स्तर
को नियंत्रित रखता है और चर्बी कम करता है। इसके अलावा यह प्रोटीन मस्तिष्क
गतिविधि को बनाए रखने, शरीर को चुस्त बनाए रखने, वृद्ध चूहों में स्मृति फिर से सहेजने और चूहों और लोगों में व्यायाम के
दौरान बेहतर प्रदर्शन करने के लिए भी ज़िम्मेदार होता है। इस आधार पर कारसेन्टी का
मानना था कि जानवरों में कंकाल का विकास खतरों से बचने या खतरे के समय भागने के
लिए हुआ होगा।
अपने अनुमान की पुष्टि के लिए उन्होंने चूहों को कुछ
तनाव-कारकों का सामना कराया। जैसे उनके पंजों में हल्का बिजली का झटका दिया और
लोमड़ी के पेशाब की गंध छोड़ी, जिससे
चूहे डरते हैं। इसके बाद उन्होंने चूहों के रक्त में ऑस्टियोकैल्सिन का स्तर
जांचा।
उन्होंने पाया कि तनाव से सामना करने के 2-3 मिनट के बाद चूहों के शरीर में
ऑस्टियोकैल्सिन का स्तर चौगुना हो गया। इसी तरह के नतीजे उन्हें मनुष्यों के साथ
भी मिले। जब शोधकर्ताओं ने वालन्टियर्स को लोगों के सामने मंच पर कुछ बोलने को कहा
तब उनमें भी ऑस्टियोकैल्सिन का स्तर अधिक पाया गया। उनका यह शोध सेल
मेटाबॉलिज़्म पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
शोधकर्ताओं ने चूहों के मस्तिष्क और कंकाल के बीच के तंत्रिका
सम्बंध की पड़ताल करने पर पाया कि कैसे ऑस्टियोकैल्सिन आपात स्थिति में ‘लड़ो या
भागो’ प्रतिक्रिया शुरू करता है। इस प्रतिक्रिया में नब्ज़ का तेज़ होना, तेज़ सांस चलना और रक्त में शर्करा की मात्रा
में वृद्धि शामिल होते हैं। कुल मिलाकर इसके चलते शरीर को भागने या लड़ने के लिए
अतिरिक्त ऊर्जा मिल जाती है। जब मस्तिष्क के एक हिस्से, एमिग्डेला,
को खतरे का आभास होता है तो वह ऑस्टियोब्लास्ट नामक अस्थि कोशिकाओं
को ऑस्टियोकैल्सिन का स्राव करने का संदेश देता है। ऑस्टियोकैल्सिन
पैरासिम्पैथेटिक तंत्रिका तंत्र की उस क्रिया को धीमा कर देता है जो दिल की धड़कन
और सांस को धीमा करने का काम करती है। इसके चलते सिम्पैथेटिक तंत्रिका तंत्र पर
लगा अंकुश हट जाता है और वह एड्रीनेलिन स्राव सहित शरीर की तनाव-प्रतिक्रिया शुरू
कर देता है।
इस शोध के मुताबिक एड्रीनेलिन नहीं बल्कि ऑस्टियोकैल्सिन इस बात का ख्याल रखता है कि शरीर कब ‘लड़ो या भागो’ की स्थिति में आएगा। यह भी स्पष्ट होता है कि कैसे एड्रीनल ग्रंथि रहित चूहे या वे लोग भी मुसीबत के समय तीव्र शारीरिक प्रतिक्रिया देते हैं जिनका शरीर किसी कारणवश एड्रीनेलिन नहीं बना सकता। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/SS2625479-1280×720.jpg?itok=TeAzX-y7
लंदन के नेशनल आर्ट म्यूज़ियम
में रखी लियोनार्डो दा विंची की बेजोड़ पेंटिंग – दी वर्जिन ऑफ दी रॉक्स – के पीछे
एक और तस्वीर छिपी है। हाल ही में उस ओझल तस्वीर के बारे में नई जानकारी सामने आई
है। इस पेंटिंग में वर्जिन मैरी, शिशु जीसस और शिशु सेंट जॉन और एक फरिश्ता हैं।
दरअसल 2005 में नेशनल आर्ट
गैलरी ने दी वर्जिन ऑफ दी रॉक्स पेंटिंग की इंफ्रारेड रिफ्लेक्टोग्राफी की मदद से
इमेंज़िंग की थी जिसमें उन्हें पता चला था कि एक अन्य चित्र इस पेंटिंग के पीछे
छिपा हुआ है जिसमें मैरी की आंखे बिलकुल अलग जगह पर बनी हुई थीं जिसे बाद में बनाए
गए चित्र के रंगों से पूरा ढंक दिया गया था।
और अब पेंटिंग के पीछे ढंके
चित्र के बारे में तफसील से जानने के लिए नेशनल आर्ट गैलरी ने तीन तकनीकों –
इंफ्रारेड रेफ्लेक्टोग्राफी, एक्स-रे फ्लोरोसेंस स्केनिंग और हायपर स्पेक्ट्रल इमेंजिंग – की मदद ली है।
इंफ्रारेड रेफ्लेक्टोग्राफी में
डाले गए इंफ्रारेड प्रकाश में ऊपरी रंगों के पीछे छिपे वे सभी ब्रश स्ट्रोक भी दिखाई
देते हैं जो सामान्य प्रकाश में दिखाई नहीं देते। इनसे पता चलता है कि इस पेंटिंग
में कलाकार ने पहले मैरी को बार्इं ओर बनाया था जो शिशु जीसस की ओर देख रही थी,
और फरिश्ता दार्इं ओर था। चित्रों से लगता है कि दा विंची
ने अंतत: जो पेंटिंग बनाई उसकी दिशा शुरुआती पेंटिंग से एकदम विपरीत है।
इसके अलावा एक्स-रे फ्लोरोसेंस
करने पर पता चला कि पीछे छिपे चित्र के रंगो में ज़िंक था। दरअसल ज़िंक के कण
एक्स-रे प्रकाश डालने पर चमकने लगते हैं। हायपर स्पेक्ट्रल इमेंजिंग में किसी चीज़
से आने वाली विद्युत-चुम्बकीय ऊर्जा का पता लगता है।
हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि दा विंची ने नीचे वाले चित्र को नई पेंटिंग से क्यों ढंका? वैसे यह पेंटिंग मूल पेंटिंग का दूसरा संस्करण है। उन्होंने अपनी मूल पेंटिंग चर्च के लिए बनाई थी जो किसी विवाद के बाद उन्होंने पेरिस में रहने वाले एक ग्राहक को बेच दी थी। उन्होंने दूसरी पेंटिंग हू-ब-हू पहली पेंटिंग की तरह बनाने की बजाय उसमें थोड़े बदलाव किए थे। जैसे दूसरी पेंटिंग में रंगों से उन्होंने अलग प्रकाश प्रभाव दिया है। चित्र में मौजूद लोगों की मुद्राएं भी थोड़ी अलग हैं। इमेंज़िंग से प्राप्त चित्रों का प्रदर्शन नवंबर से जनवरी के बीच किया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://news.artnet.com/app/news-upload/2019/08/leonardo-da-vinci-the-virgin-of-the-rock-underdrawing-594×1024.jpg
जापान की कियो युनिवर्सिटी के
बायोइंजीनियर्स के एक दल ने हाल ही में इंसानों के लिए एक रोबोटिक पूंछ बनाई है।
पहली नज़र में यह खबर थोड़ी हास्यापद लगती है लेकिन विस्तार से पढ़ने पर पता चलता है
कि उन्होंने ज़रूरतमंद लोगों के लिए एक ऐसी रोबोटिक पूंछ बनाई है जिसे पहना जा सकता
है। लेकिन फिर भी यह विचार तो आता ही है मनुष्यों को पूंछ की क्या ज़रूरत है!
इस पूंछ का नाम आक्र्यू है जो
बुज़ुर्गों को चलने में, उन्हें गिरने
से बचाने, सीढ़ी चढ़ने के
दौरान संतुलन बनाने आदि में सहायक है। इसके बारे में और भी विस्तार से आप
टेकएक्सप्लोर के 7 अगस्त के अंक में प्रकाशित नैन्सी कोहेन का लेख में पढ़ सकते हैं
या यू-ट्यूब की इस लिंक https://www.youtube.com/watch?v=Tr1-IhEhXYQ पर जाकर देख सकते हैं कि कैसे यह कृत्रिम पूंछ मनुष्य के लिए उपयोगी हो सकती
है। ज़रूरतमंद बुज़ुर्गों के अलावा आक्र्यू बोझा ढोने वाले मज़दूरों,
खड़ी ऊंचाई पर चढ़ने वाले पर्वतारोहियों के लिए भी मददगार है।
जब हममें से कुछ लोगों को उम्र
बढ़ने पर चलने-फिरने में दिक्कत होती है तब यदि आक्र्यू जैसी कृत्रिम पूंछ मददगार
है तो फिर प्रकृति ने पूंछ को मनुष्य (और
हमारे करीबी रिश्तेदार चिम्पैंज़ी, गोरिल्ला या बोनोबो) में क्यों बनाए नहीं रखा। भूमि व पानी में रहने वाले
अधिकतर जीवों की पूंछ होती है (चाहे छोटी हो या बड़ी) और कई महत्वपूर्ण कार्य करती
है। युनिवर्सिटी ऑफ मेलबोर्न के डॉ. डेविड यंग के मुताबिक जानवरों में पूंछ
मक्खियां या कीट उड़ाने के अलावा भी कई कार्य करती है। पानी में मछली मुड़ने के लिए
अपनी पूंछ की मदद लेती है, मगरमच्छ अपनी पूंछ में अतिरिक्त वसा संग्रहित करके रखते हैं जो आड़े वक्त ऊर्जा
प्रदान करती है, और
स्तनधारियों में पूंछ दौड़ते वक्त सिर के वज़न का संतुलन बनाने में मददगार होती है।
तेज़ दौड़ने वाले जानवरों की पूंछ लंबी होती है। पेड़ पर चढ़ने वाले बंदरों की भी पूंछ
लंबी होती है जो उनका संतुलन बनाए रखती है।
तो क्यों खोई?
जैसे ही हमने चार पैरों की जगह
दो पैरों पर चलना शुरू किया, पूंछ से सहूलियत मिलने की बजाए असुविधा होने लगी। हैना ऐशवर्थ ने बीबीसी साइंस
फोकस मैग्ज़ीन (sciencefocus.com) में बताया
है कि पूंछ का जब कोई उपयोग ना हो तो वह महज़ ऐसा अंग होती है जिसे बढ़ने के लिए
ऊर्जा चाहिए और वह शिकारियों को झपटने के लिए एक और चीज़ बन जाती है। छिपकली के लिए
पूंछ सुरक्षा का एक साधन है – हमले या खतरे का आभास होने पर वह अपनी पूंछ गिरा
देती है, जो बाद में
फिर से उग जाती है। हम दोपाए मनुष्य सीधे चलते हैं, और शरीर के गुरुत्व केंद्र को ज़मीन से जोड़ने वाली रेखा
हमारी रीढ़ की हड्डी से होती हुई पैरों तक जाती है। इसलिए हमें संतुलन बनाने के लिए
पूंछ जैसे किसी अतिरिक्त अंग की ज़रूरत नहीं होती। ऐशवर्थ आगे बताती हैं कि जंगल से घास के मैदानों
(सवाना) की ओर प्रवास के समय प्राकृतिक
चयन ने हमारे उन पूर्वजों को वरीयता दी जिनकी पूंछ छोटी थी।
और अगले कुछ लाख सालों में
धीरे-धीरे यह खत्म हो गई। वैसे मनुष्यों और ऐप्स (वनमानुषों) के बीच और भी कई अंतर
हैं। इंडियाना युनिवर्सिटी के डॉ. केविन हंट को लगता है कि हमारे पूर्वज वृक्षों
की नीचे लटकती डालियों तक पहुंचने के लिए सीधे खड़े होने लगे होंगे। “आज से लगभग 65
लाख साल पहले जब अफ्रीका में सूखा पड़ने लगा तब हमारे पूर्वज पूर्वी इलाकों में
फंसे रह गए। यह इलाका सबसे ज़्यादा सूखा था। जंगल के मुकाबले सूखे इलाकों में पेड़
छोटे और अलग किस्म के होते हैं। इस तरह हमारे पूर्वज अफ्रीका के सूखे और झाड़-झंखाड़
भरे इलाकों में भोजन प्राप्त करने के लिए दो पैरों पर खड़े होने लगे। जबकि जंगलों
में रहने वाले चिम्पैंज़ियों ने ऐसा नहीं किया। वे दोनों तरह से चलते रहे – दो
पैरों पर और ज़रूरत पड़ने पर चार पैरों पर।” इस तरह के प्राकृतवास और दोपाया होने के
कारण हमारी और पूर्वज वानरों की नाक की बनावट में भी अंतर आया – वह थोड़ी उभरी हुई
हो गई। डार्विन ने बताया है कि सीधा खड़े होना या दो पैरों पर खड़े होने की
मामूली-सी घटना के कारण वे सारे बदलाव हुए हैं जो मनुष्य को वानरों से अलग करते
हैं। औज़ारों को ही लें। हंट बताते हैं कि “जैसे ही हमने दो पैरों पर चलना शुरू
किया तो हमें औज़ार साथ रखने के लिए दो हाथ मिल गए। अलबत्ता मनुष्य ने औज़ारों का
उपयोग दोपाया होने के 15 लाख साल बाद करना शुरू किया था।)” चौपाए से दोपाए होने की
प्रक्रिया में इस तरह के जैव-संरचनात्मक, ऊर्जात्मक और कार्यात्मक प्रभाव पड़े।
वास्तव में,
गर्भ के अंदर एकदम शुरुआती चार हफ्तों के जीवन के दौरान
हमारी पूंछ होती है जो बाद में सातवें हफ्ते तक खत्म (अवशोषित) हो जाती है और
हमारी रीढ़ की हड्डी के आधार में सिर्फ कॉक्सीक्स (पुच्छास्थि) बचती है,
जो मांसपेशी के जुड़ाव-स्थल का कार्य करती है। चिम्पैंजी,
गोरिल्ला जैसे वानरों में भी कॉक्सीक्स होती है।
पूरी विलुप्त नहीं हुई
अब सवाल यह है कि यदि भ्रूण में सात हफ्तों बाद भी पूंछ का अवशोषण ना हो और शिशुओं में पूंछ बनने लगे तो क्या होगा? सौभाग्यवश यह स्थिति दुर्लभ है, और अब तक दुनिया भर में इस तरह के सिर्फ 40 मामले रिपोर्ट हुए हैं। भारत में 6 इंच से ज़्यादा लंबी पूंछ किसी मामले में नहीं देखी गई है। शिशुओं में, कमर के नीचे के हिस्से में पूंछ वाले सिर्फ 3 मामले और रीढ़ की हड्डी के अन्य स्थानों पर पूंछ के कुल 8 मामले सामने आए हैं। सबसे हाल का मामला 2017 में सामने आया था। इन सभी नवजात शिशुओं में पूंछ को सफलतापूर्वक हटा दिया गया और सभी स्वस्थ और सामान्य हैं। निकाली गई पूंछ का अध्ययन करने पर पता चला कि ये पूंछ वसा ऊतकों, कोलेजन फाइबर, तंत्रिका फाइबर, रक्त वाहिकाओं और नाड़ी-ग्रंथि कोशिकाओं से बनी थीं जिसमें हड्डी नहीं थी। पूंछ के प्रारंभिक जीन-आधारित विश्लेषण से पता चला है कि पूंछ के विकास को नियंत्रित करने वाला जीन ज़्दद्य कुल का है। इस दुर्लभ विकार के कारणों और समाधान पर अनुसंधान उपयोगी होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/o2pt3j/article29246104.ece/alternates/FREE_660/TH24-COLUMN-TAIL
साफ-सफाई का ध्यान रखना शरीर के लिए काफी महत्वपूर्ण है, लेकिन
एक महिला की कान साफ करने की दैनिक आदत ने उसकी खोपड़ी में जानलेवा संक्रमण पैदा
कर दिया।
एक 37 वर्षीय ऑस्ट्रेलियाई महिला जैस्मिन
को रोज़ रात को रूई के फोहे से अपने कान साफ करने की आदत थी। इसी आदत के चलते उसके
बाएं कान से सुनने में काफी परेशानी होने लगी। शुरुआत में डॉक्टर को लगा कि कान
में संक्रमण है जिसके लिए एंटीबायोटिक औषधि दी गई। लेकिन सुनने की समस्या बनी रही।
कुछ ही दिनों बाद कानों को साफ करने के बाद रूई के फोहे में खून नज़र आने
लगा।
तब कान,
नाक और गले के
विशेषज्ञ ने सीटी स्कैन सुझाव दिया जिसमें एक भयावह स्थिति सामने आई। जैस्मिन को
एक जीवाणु संक्रमण था जो उसके कान के पीछे उसकी खोपड़ी की हड्डी को खा रहा था।
विशेषज्ञ ने सर्जरी का सुझाव दिया।
आखिरकार जैस्मिन के संक्रमित ऊतकों को
हटाने और उसकी कर्ण नलिका को फिर से बनाने में 5 घंटे का समय लगा। चिकित्सकों ने
बताया कि उसके कान में रूई के रेशे जमा हो गए थे और संक्रमित हो गए थे।
आम तौर पर लोग मानते हैं कि रूई से कान साफ
करना सुरक्षित है लेकिन अमेरिकन एकेडमी ऑफ ओटोलैंरिगोलॉजी के अनुसार अपने कानों
में चीज़ों को डालने से बचना चाहिए। कान को रूई के फोहे से साफ करना वास्तव में एक
गलत तरीका है। इससे कान साफ होने के बजाय मैल कान में और अंदर चला जाता है। रूई या
कोई अन्य उपकरण कान में जलन पैदा कर सकते हैं,
कान के पर्दे को
नुकसान पहुंचा सकते हैं।
इसी वर्ष मार्च में, इंग्लैंड के एक व्यक्ति की कर्ण नलिका में भी रूई फंसने के बाद उसकी खोपड़ी में संक्रमण विकसित हो गया। सर्जरी के बाद जैस्मिन के संक्रमण का इलाज तो हो गया लेकिन उसकी सुनने की क्षमता सदा के लिए जाती रही। जैस्मिन अब रूई से कान साफ करने के खतरों से सभी को सचेत करती हैं। हमारा कान शरीर का एक नाज़ुक और संवेदनशील अंग हैं जिसकी देखभाल करना काफी आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQQTaFjs5of88n8rhdnzikdnxEFp0BFkbLv3IIMvabwgLV7D_97
अंग प्रत्यारोपण के लिए अंगों का इंतज़ार करने वालों की कतार
बढ़ती ही जा रही है। इस समस्या से निपटने के लिए कुछ कंपनियां कोशिश कर रही हैं कि
सूअरों को जेनेटिक इंजीनियरिंग के ज़रिए इस तरह बदल दिया जाए उनके अंग मनुष्यों के
काम आ सकें। अलबत्ता, कुछ वैज्ञानिक एक सर्वथा नए तरीके पर
प्रयोग कर रहे हैं।
वैसे यह विचार तकनीकी रूप से अत्यंत कठिन है और नैतिकता के सवालों से घिरा हुआ
है लेकिन फिर भी वैज्ञानिक यह कोशिश कर रहे हैं कि एक प्रजाति की स्टेम कोशिकाएं
किसी दूसरी प्रजाति के भ्रूण में पनप सकें, फल-फूल
सकें। हाल ही में यूएस के एक समूह ने रिपोर्ट किया था कि उन्हें चिम्पैंज़ी की
स्टेम कोशिकाओं को बंदर के भ्रूण में पनपाने में सफलता मिली है। और तो और, जापान में नियम-कायदों में मिली छूट के चलते कुछ शोधकर्ताओं ने अनुमति चाही है
कि मानव स्टेम कोशिकाओं को चूहों जैसे कृंतक जीवों और सूअरों में पनपाएं। कई
शोधकर्ताओं का मत है कि चिम्पैंज़ी-बंदर शिमेरा का निर्माण करना अंग प्रत्यारोपण के
लिए अंगों की उपलब्धता बढ़ाने की दिशा में एक कदम है। गौरतलब है कि शिमेरा उन
जंतुओं को कहते हैं जिनमें एक जीव के शरीर में दूसरे की कोशिकाएं मौजूद होती हैं।
अंतत: विचार यह है कि किसी व्यक्ति की कोशिकाओं को उनके विकास की शुरुआती
अवस्था में लाया जाए, जो लगभग किसी भी ऊतक में विकसित हो सकती
हैं। इन कोशिकाओं (जिन्हें बहु-सक्षम स्टेम कोशिकाएं कहते हैं) को किसी अन्य
प्रजाति के भ्रूण में रोप दिया जाएगा और उस भ्रूण को किसी अन्य जीव की कोख में
विकसित होने दिया जाएगा। इस भ्रूण के अंग बाद में प्रत्यारोपण के लिए तैयार
मिलेंगे। सबसे अच्छा तो यही होगा कि जिस व्यक्ति को अंग लगाया जाना है उसी की
स्टेम कोशिकाओं का उपयोग किया जाए।
फिलहाल यह शोध मात्र कृंतक जीवों पर किया गया है। वर्ष 2010 में टोक्यो विश्वविद्यालय के हिरोमित्सु नाकाउची के दल ने रिपोर्ट किया था कि वे एक चूहे के पैंक्रियास को एक माउस में विकसित करने में सफल रहे थे। इस पैंक्रियास को चूहे में प्रत्यारोपित करके उसे डायबिटीज़ से मुक्ति दिलाई गई थी। दूसरी ओर, 2017 में कोशिका जीव वैज्ञानिक जुन वू और उनके साथियों ने रिपोर्ट किया कि जब उन्होंने मानव स्टेम कोशिकाएं एक सूअर के भ्रूण में इंजेक्ट की तो आधे से ज़्यादा भ्रूण विकसित नहीं हो पाए थे किंतु जो भ्रूण विकसित हुए उनमें मानव कोशिकाएं जीवित थीं। वू यह देखने का भी प्रयास कर रहे हैं कि मानव स्टेम कोशिकाएं प्रयोगशाला में अन्य प्रायमेट जंतुओं की स्टेम कोशिकाओं के साथ पनप पाती हैं या नहीं। ज़ाहिर है कि इन सारे प्रयोगों के साथ नैतिकता के सवाल जुड़े हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://assetsds.cdnedge.bluemix.net/sites/default/files/styles/big_2/public/feature/images/organ.jpg?itok=1X_VsCx6