जैव विकास और मनुष्यों की विलुप्त पूंछ – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

जापान की कियो युनिवर्सिटी के बायोइंजीनियर्स के एक दल ने हाल ही में इंसानों के लिए एक रोबोटिक पूंछ बनाई है। पहली नज़र में यह खबर थोड़ी हास्यापद लगती है लेकिन विस्तार से पढ़ने पर पता चलता है कि उन्होंने ज़रूरतमंद लोगों के लिए एक ऐसी रोबोटिक पूंछ बनाई है जिसे पहना जा सकता है। लेकिन फिर भी यह विचार तो आता ही है मनुष्यों को पूंछ की क्या ज़रूरत है!

इस पूंछ का नाम आक्र्यू है जो बुज़ुर्गों को चलने में, उन्हें गिरने से बचाने, सीढ़ी चढ़ने के दौरान संतुलन बनाने आदि में सहायक है। इसके बारे में और भी विस्तार से आप टेकएक्सप्लोर के 7 अगस्त के अंक में प्रकाशित नैन्सी कोहेन का लेख में पढ़ सकते हैं या यू-ट्यूब की इस लिंक https://www.youtube.com/watch?v=Tr1-IhEhXYQ पर जाकर देख सकते हैं कि कैसे यह कृत्रिम पूंछ मनुष्य के लिए उपयोगी हो सकती है। ज़रूरतमंद बुज़ुर्गों के अलावा आक्र्यू बोझा ढोने वाले मज़दूरों, खड़ी ऊंचाई पर चढ़ने वाले पर्वतारोहियों के लिए भी मददगार है।

जब हममें से कुछ लोगों को उम्र बढ़ने पर चलने-फिरने में दिक्कत होती है तब यदि आक्र्यू जैसी कृत्रिम पूंछ मददगार है तो फिर प्रकृति ने  पूंछ को मनुष्य (और हमारे करीबी रिश्तेदार चिम्पैंज़ी, गोरिल्ला या बोनोबो) में क्यों बनाए नहीं रखा। भूमि व पानी में रहने वाले अधिकतर जीवों की पूंछ होती है (चाहे छोटी हो या बड़ी) और कई महत्वपूर्ण कार्य करती है। युनिवर्सिटी ऑफ मेलबोर्न के डॉ. डेविड यंग के मुताबिक जानवरों में पूंछ मक्खियां या कीट उड़ाने के अलावा भी कई कार्य करती है। पानी में मछली मुड़ने के लिए अपनी पूंछ की मदद लेती है, मगरमच्छ अपनी पूंछ में अतिरिक्त वसा संग्रहित करके रखते हैं जो आड़े वक्त ऊर्जा प्रदान करती है, और स्तनधारियों में पूंछ दौड़ते वक्त सिर के वज़न का संतुलन बनाने में मददगार होती है। तेज़ दौड़ने वाले जानवरों की पूंछ लंबी होती है। पेड़ पर चढ़ने वाले बंदरों की भी पूंछ लंबी होती है जो उनका संतुलन बनाए रखती है।

तो क्यों खोई?

जैसे ही हमने चार पैरों की जगह दो पैरों पर चलना शुरू किया, पूंछ से सहूलियत मिलने की बजाए असुविधा होने लगी। हैना ऐशवर्थ ने बीबीसी साइंस फोकस मैग्ज़ीन (sciencefocus.com) में बताया है कि पूंछ का जब कोई उपयोग ना हो तो वह महज़ ऐसा अंग होती है जिसे बढ़ने के लिए ऊर्जा चाहिए और वह शिकारियों को झपटने के लिए एक और चीज़ बन जाती है। छिपकली के लिए पूंछ सुरक्षा का एक साधन है – हमले या खतरे का आभास होने पर वह अपनी पूंछ गिरा देती है, जो बाद में फिर से उग जाती है। हम दोपाए मनुष्य सीधे चलते हैं, और शरीर के गुरुत्व केंद्र को ज़मीन से जोड़ने वाली रेखा हमारी रीढ़ की हड्डी से होती हुई पैरों तक जाती है। इसलिए हमें संतुलन बनाने के लिए पूंछ जैसे किसी अतिरिक्त अंग की ज़रूरत नहीं होती। ऐशवर्थ  आगे बताती हैं कि जंगल से घास के मैदानों (सवाना) की ओर प्रवास के समय  प्राकृतिक चयन ने हमारे उन पूर्वजों को वरीयता दी जिनकी पूंछ छोटी थी।

और अगले कुछ लाख सालों में धीरे-धीरे यह खत्म हो गई। वैसे मनुष्यों और ऐप्स (वनमानुषों) के बीच और भी कई अंतर हैं। इंडियाना युनिवर्सिटी के डॉ. केविन हंट को लगता है कि हमारे पूर्वज वृक्षों की नीचे लटकती डालियों तक पहुंचने के लिए सीधे खड़े होने लगे होंगे। “आज से लगभग 65 लाख साल पहले जब अफ्रीका में सूखा पड़ने लगा तब हमारे पूर्वज पूर्वी इलाकों में फंसे रह गए। यह इलाका सबसे ज़्यादा सूखा था। जंगल के मुकाबले सूखे इलाकों में पेड़ छोटे और अलग किस्म के होते हैं। इस तरह हमारे पूर्वज अफ्रीका के सूखे और झाड़-झंखाड़ भरे इलाकों में भोजन प्राप्त करने के लिए दो पैरों पर खड़े होने लगे। जबकि जंगलों में रहने वाले चिम्पैंज़ियों ने ऐसा नहीं किया। वे दोनों तरह से चलते रहे – दो पैरों पर और ज़रूरत पड़ने पर चार पैरों पर।” इस तरह के प्राकृतवास और दोपाया होने के कारण हमारी और पूर्वज वानरों की नाक की बनावट में भी अंतर आया – वह थोड़ी उभरी हुई हो गई। डार्विन ने बताया है कि सीधा खड़े होना या दो पैरों पर खड़े होने की मामूली-सी घटना के कारण वे सारे बदलाव हुए हैं जो मनुष्य को वानरों से अलग करते हैं। औज़ारों को ही लें। हंट बताते हैं कि “जैसे ही हमने दो पैरों पर चलना शुरू किया तो हमें औज़ार साथ रखने के लिए दो हाथ मिल गए। अलबत्ता मनुष्य ने औज़ारों का उपयोग दोपाया होने के 15 लाख साल बाद करना शुरू किया था।)” चौपाए से दोपाए होने की प्रक्रिया में इस तरह के जैव-संरचनात्मक, ऊर्जात्मक और कार्यात्मक प्रभाव पड़े।

वास्तव में, गर्भ के अंदर एकदम शुरुआती चार हफ्तों के जीवन के दौरान हमारी पूंछ होती है जो बाद में सातवें हफ्ते तक खत्म (अवशोषित) हो जाती है और हमारी रीढ़ की हड्डी के आधार में सिर्फ कॉक्सीक्स (पुच्छास्थि) बचती है, जो मांसपेशी के जुड़ाव-स्थल का कार्य करती है। चिम्पैंजी, गोरिल्ला जैसे वानरों में भी कॉक्सीक्स होती है।

पूरी विलुप्त नहीं हुई

अब सवाल यह है कि यदि भ्रूण में सात हफ्तों बाद भी पूंछ का अवशोषण ना हो और शिशुओं में पूंछ बनने लगे तो क्या होगा? सौभाग्यवश यह स्थिति दुर्लभ है, और अब तक दुनिया भर में इस तरह के सिर्फ 40 मामले रिपोर्ट हुए हैं। भारत में 6 इंच से ज़्यादा लंबी पूंछ किसी मामले में नहीं देखी गई है। शिशुओं में, कमर के नीचे के हिस्से में पूंछ वाले सिर्फ 3 मामले और रीढ़ की हड्डी के अन्य स्थानों पर पूंछ के कुल 8 मामले सामने आए हैं। सबसे हाल का मामला 2017 में सामने आया था। इन सभी नवजात शिशुओं में पूंछ को सफलतापूर्वक हटा दिया गया और सभी स्वस्थ और सामान्य हैं। निकाली गई पूंछ का अध्ययन करने पर पता चला कि ये पूंछ वसा ऊतकों, कोलेजन फाइबर, तंत्रिका फाइबर, रक्त वाहिकाओं और नाड़ी-ग्रंथि कोशिकाओं से बनी थीं जिसमें हड्डी नहीं थी। पूंछ के प्रारंभिक जीन-आधारित विश्लेषण से पता चला है कि पूंछ के विकास को नियंत्रित करने वाला जीन ज़्दद्य कुल का है। इस दुर्लभ विकार के कारणों और समाधान पर अनुसंधान उपयोगी होगा। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/o2pt3j/article29246104.ece/alternates/FREE_660/TH24-COLUMN-TAIL

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