एक नई गैंडा प्रजाति के जीवाश्म

हाल ही में उत्तर-पश्चिमी चीन के गान्सु प्रांत में पाए गए जीवाश्मों से विशाल गैंडा की एक नई प्रजाति पहचानी गई है। यह प्रजाति लगभग 2.65 करोड़ वर्ष पूर्व ओलिगोसीन युग के दौरान पाई जाती थी। नई प्रजाति (पैरासेराथेरियम लिनज़िएंज़) विलुप्त हो चुके सींगरहित गैंडा वंश से सम्बंधित है।

विशाल गैंडे को पृथ्वी के अब तक के सबसे बड़े स्तनधारियों में गिना जाता है। चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंस के प्रोफेसर टाओ डेंग और उनके सहयोगियों के अनुसार इसकी खोपड़ी और पैर अब तक ज्ञात सभी स्तनधारियों की तुलना में लंबे हैं लेकिन इसके पैर की बड़ी हड्डी बहुत विशाल नहीं है।

डेंग आगे बताते हैं कि इस जीव का आकार आर्द्र या शुष्क जलवायु वाले खुले जंगली क्षेत्रों के लिए उपयुक्त था। पूर्वी युरोप, एनाटोलिया और कॉकेशस में पाए गए कुछ अवशेषों को छोड़कर, विशाल गैंडे मुख्य रूप से एशिया में चीन, मंगोलिया, कज़ाकस्तान और पाकिस्तान के क्षेत्रों में रहते थे। गौरतलब है कि मध्य इओसीन युग से ओलिगोसीन युग के अंत तक विशाल गैंडे के सभी छह वंश चीन के उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पश्चिम क्षेत्रों में पाए जाते थे। इनमें पैरासेराथेरियम वंश के गैंडे सबसे अधिक संख्या में थे। इनकी उपस्थिति के अधिकांश प्रमाण पूर्वी और मध्य एशिया के क्षेत्रों में मिले हैं जबकि पूर्वी युरोप और पश्चिमी एशिया में इनके खंडित नमूने प्राप्त हुए हैं। केवल तिब्बती पठार के दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र में पैरासेराथेरियम बगटिएन्स प्रजाति के पर्याप्त और स्पष्ट प्रमाण प्राप्त हुए हैं।

गौरतलब है कि पैरासेराथेरियम लिनज़िएंज़ के जीवाश्मों में एक पूर्ण खोपड़ी, कुछ रीढ़ की हड्डियां और जबड़े की हड्डी प्राप्त हुए हैं। विश्लेषण से पता चला है कि पैरासेराथेरियम लिनज़िएंज़ अपने वंश की सबसे विकसित प्रजाति थी। 

कम्युनिकेशन्स बायोलॉजी में प्रकाशित नतीजों के अनुसार ओलिगोसीन युग की शुरुआत में पैरासेराथेरियम प्रजातियां पश्चिम की ओर कज़ाकस्तान की ओर फैली जबकि इनके वंशजों का विस्तार दक्षिण एशिया में हुआ। इसके बाद ओलिगोसीन युग के आगे के दौर में पैरासेराथेरियम तिब्बती क्षेत्र को पार करते हुए उत्तर की ओर लौटे और पश्चिम में कज़ाकस्तान में पूर्व में लिंज़िया घाटी की ओर उभरे। गौरतलब है कि ओलिगोसीन युग के आखरी दौर की उष्णकटिबंधीय परिस्थितियों ने विशालकाय गैंडे को मध्य एशिया की ओर आकर्षित किया जो इस बात के संकेत देता है कि उस समय तक तिब्बत का क्षेत्र ऊंचे पठार के रूप में विकसित नहीं हुआ था। अनुमान है कि ओलिगोसीन युग के दौरान, विशाल गैंडे शायद तिब्बत को पार करते हुए या टेथिस महासागर के पूर्वी तट के रास्ते मंगोलियाई पठार से दक्षिण एशिया तक फैले थे। इस विशाल गैंडे के तिब्बती क्षेत्र पार करके भारत-पाकिस्तान उपमहाद्वीप तक पहुंचने के अन्य साक्ष्य मौजूद हैं। एक बात तो साफ है कि तिब्बत का पठार उस समय तक इन बड़े स्तनधारी जीवों के विचरण में बाधा नहीं बना था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वायरस का तोहफा है स्तनधारियों में गर्भधारण – स्निग्धा मित्रा

न दिनों कोरोनावायरस सुर्खियों में है। इसने लाखों लोगों को बीमार कर दिया है और कई लाख लोगों की जान ले ली है। लेकिन तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है। वायरसों ने जीव जगत में सहयोग व सहकार की भूमिका भी अदा की है। और सहयोग व सहकार केवल थोड़े समय के लिए नहीं बल्कि हमेशा-हमेशा के लिए। उन्होंने जीवों में घुसपैठ कर उनकी कोशिकाओं में अपने जीन्स छोड़ दिए हैं जिनकी बदौलत उन प्रजातियों के विकास की दिशा बदल गई।

दिलचस्प बात है कि स्तनधारी आज अपने वर्तमान रूप में वायरस की बदौलत ही हैं। अगर वायरस स्तनधारियों में घुसपैठ न करते तो शायद हम आज भी अंडे दे रहे होते। आज के स्तनधारी तो हरगिज नहीं होते जो अपने बच्चे को गर्भ में सहेजकर रखते हैं। गर्भधारण के लिए ज़रूरी बीजांडासन (प्लेसेंटा) वायरस की ही देन है।

हम जानते हैं कि स्तनधारी समूह के एक बड़े वर्ग – चूहे, चमगादड़, व्हेल, हाथी, छछूंदर, कुत्ते, बिल्ली, भेड़, मवेशी, घोड़ा, कपि, बंदर व मनुष्य में प्लेसेंटा पाया जाता है। प्लेसेंटा एक तश्तरीनुमा संरचना है जो एक ओर गर्भाशय से जुड़ा होता है और दूसरी ओर भ्रूण से -एक रस्सीनुमा रचना नाभि-रज्जू (अम्बलिकल कॉर्ड) के माध्यम से।

प्लेसेंटा एक ऐसी व्यवस्था है जो गर्भ में पल रहे बच्चे को वहां एक नियत अवधि तक टिके रहने में अहम भूमिका अदा करती है। मनुष्य में बच्चा लगभग नौ माह तक मां के गर्भ में रहता है। इस दौरान उसे ऑक्सीजन व पोषण चाहिए जो प्लेसेंटा के ज़रिए ही मां से उपलब्ध होता है। गर्भस्थ शिशु के उत्सर्जित पदार्थ भी प्लेसेंटा द्वारा ही हटाए जाते हैं। प्लेसेंटा बच्चे के विकास को प्रेरित करता है। यह बच्चे को कई तरह के संक्रमणों से भी बचाता है। यह दिलचस्प है कि गर्भावस्था के दौरान मां को होने वाली अधिकांश बीमारियों से गर्भ में पल रहा बच्चा सुरक्षित रहता है। प्लेसेंटा कई मायनों में बच्चे व मां के बीच एक अवरोध का भी काम करता है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि प्लेसेंटा की बदौलत ही मां का शरीर भ्रूण को पराया मानकर उस पर हमला नहीं करता। भ्रूण इस मायने में पराया होता है कि उसके आधे जीन तो पिता से आए हैं।

सवाल यह है कि मादा स्तनधारी में अंडे के निषेचन के बाद प्लेसेंटा के निर्माण के लिए कौन-से जीन्स ज़िम्मेदार हैं? इस सवाल का जवाब वे वायरस देते हैं जिन्होंने लाखों साल पहले स्तनधारियों के किसी पूर्वज को संक्रमित किया था। उन वायरसों ने संक्रमित जंतुओं की जान नहीं ली, बल्कि उनकी कोशिकाओं में जाकर बैठ गए। मज़े की बात यह है कि वायरस मेज़बान की कोशिका के जीनोम का हिस्सा बन गए व मेज़बान ने उनका फायदा उठाया।

बात 6.5 करोड़ बरस पहले की है। एक छोटा, मुलायम, छछूंदर जैसा निशाचर जीव था। यह आधुनिक स्तनधारी जैसा ही दिखता था। अलबत्ता, उसमें प्लेसेंटा नहीं था। आधुनिक स्तनधारियों का प्लेसेंटा उस छछूंदरनुमा जीव के साथ एक रेट्रोवायरस की मुठभेड़ का नतीजा है।

वायरस की खासियत होती है कि यह किसी सजीव कोशिका में पहुंचकर उसके केंद्रक में अपना न्यूक्लिक अम्ल (यानी जेनेटिक पदार्थ) डाल देता है। वायरस का न्यूक्लिक अम्ल मेज़बान कोशिका के जेनेटिक पदार्थ डीएनए को निष्क्रिय कर देता है और खुद कोशिका पर नियंत्रण कर लेता है। अब उस जीव की कोशिका पर वायरस की ही सल्तनत होती है। वायरस उस कोशिका में अपनी प्रतिलिपियां बनाने लगता है।

रेट्रोवायरस एक प्रकार के वायरस हैं जो आनुवंशिक सामग्री के रूप में आरएनए का इस्तेमाल करते हैं। कोशिका को संक्रमित करने के बाद रेट्रोवायरस अपने आरएनए को डीएनए में बदलने के लिए रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेज़ नामक एंज़ाइम का इस्तेमाल करते हैं। रेट्रोवायरस तब अपने वायरल डीएनए को मेज़बान कोशिका के डीएनए में एकीकृत कर देता है। एड्स वायरस रेट्रोवायरस ही है।

आज के स्तनधारियों के पूर्वज के शुक्राणु या अंडाणुओं में वायरस के जीन्स पहुंच गए और फिर हर पीढ़ी में पहुंचने में कामयाब हो गए। इस तरह से वायरस पूरी तरह से मेज़बान के जीनोम का हिस्सा बन गए। जीनोम अध्ययन से पता चलता है कि मानव के जीनोम में वायरसों के लगभग एक लाख ज्ञात अंश हैं जो हमारे कुल डीएनए के आठ फीसदी से अधिक है। यानी हम आठ फीसदी वायरस से बने हुए हैं।

जब कोई वायरस अपने जीनोम को मेज़बान के साथ एकीकृत करता है तो नए संकर जीनोम बनते हैं तथा वह कोशिका मर जाती है। लेकिन कभी-कभी अनहोनी घट सकती है। मसलन अगर शुक्राणु या अंडाणु वायरस से संक्रमित होकर निषेचित हो जाएं तो अगली पीढ़ियों में वायरल जीनोम की एक प्रति होगी। इसे वैज्ञानिक अंतर्जात रेट्रोवायरस कहते हैं।

प्रारंभिक स्तनधारियों में वायरस के उन कबाड़ में पड़े हुए जीन्स का इस्तेमाल प्लेसेंटा बनाने में किया जाने लगा जो आज भी जारी है। सिंसिटिन जीन जो रेट्रोवायरस के जीनोम का हिस्सा था वह लाखों बरस पहले स्तनधारी के पूर्वजों में घुसपैठ कर चुका है। यह स्तनधारियों में गर्भधारण के लिए बेहद अहम है।

मूल रूप से सिंसिटिन नामक प्रोटीन वायरस को मेज़बान कोशिका के साथ जुड़ने में मदद करता है। बेशक, सिंसिटिन प्राचीन वायरस की देन है जो गर्भावस्था के दौरान प्लेसेंटा की कोशिकाओं में अभिव्यक्त होता है। सिंसिटिन मात्र वही कोशिकाएं बनाती हैं जो भ्रूण और गर्भाशय की संपर्क सतह पर होती हैं। ये आपस में जुड़कर एक-कोशिकीय परत बना लेती हैं व भ्रूण अपनी मां से इसके ज़रिए आवश्यक पोषण प्राप्त करता है। वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि इस जुड़ाव के लिए सिंसिटिन का बनना अनिवार्य है। सिंसिटिन का जीन मूलत: वायरस का जीन है।

यह दिलचस्प है कि सिंसिटिन प्रोटीन का जीन विकासक्रम में स्तनधारियों के जीनोम में बना रहा। सिंसिटिन तब प्रकट होता है जब कोई पराई चीज़ आक्रमण करे। स्वाभाविक है कि अंडाणु को निषेचित करने वाला नर का शुक्राणु मादा के लिए पराया होता है। जब निषेचित अंडा गर्भाशय में आता है, तब सिंसिटिन प्रोटीन का निर्माण ब्लास्टोसिस्ट की बाहरी परत की कोशिकाएं करती हैं व भ्रूण को गर्भाशय की दीवार से चिपकने का रास्ता आसान बनाती है।

स्तनधारियों में सिंसिटिन का निर्माण करने वाले जीन आम तौर पर सुप्तावस्था में पड़े रहते हैं। जब गर्भधारण की स्थिति बनती है तब ये जागते हैं और सिंसिटिन के निर्माण का सिलसिला शुरू होता है। सिंसिटिन प्रोटीन प्लेसेंटा व मातृ कोशिका के बीच सीमाओं को निर्धारित करता है। अंड कोशिका के निषेचन के लगभग एक सप्ताह बाद भ्रूण एक गोल खोखली गेंदनुमा रचना (ब्लास्टोसिस्ट) में विकसित हो जाता है व गर्भाशय में रोपित होकर प्लेसेंटा के निर्माण को उकसाता है। यही प्लेसेंटा भ्रूण को ऑक्सीजन और पोषण उपलब्ध कराता है। ब्लोस्टोसिस्ट की बाहरी परत की कोशिकाएं प्लेसेंटा की बाहरी परत का निर्माण करती हैं और जो कोशिकाएं गर्भाशय से सीधे संपर्क में होती हैं वे सिंसिटिन प्रोटीन का निर्माण करती हैं।

कोशिकाओं में काफी कबाड़ डीएनए होता है और एक कबाड़ डीएनए में ज़्यादातर हिस्सा सहजीवी वायरसों का है। एक तरह से डीएनए के ये टुकड़े मानव और वायरस के बीच की सीमा को धुंधला करते हैं। इस नज़रिए से मनुष्य आंशिक रूप वायरस की ही देन हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एकाकी उदबिलाव बहुत ‘वाचाल’ हैं

वैसे तो मध्य और दक्षिण अमेरिका में पाए जाने वाले उदबिलाव एकाकी होते हैं लेकिन हाल ही के अध्ययन में पता चला है कि वे खूब बड़बड़ाते रहते हैं। वे विभिन्न तरह से किंकियाकर और गुर्राकर आश्चर्य से लेकर प्रसन्नता तक व्यक्त करते हैं। इन नतीजों से यह पता लगाने में मदद मिल सकती है कि उदबिलावों में संवाद-संचार कैसे विकसित हुआ। इसके अलावा यह अध्ययन इन लुप्तप्राय जानवरों के संरक्षण में भी मदद कर सकता है।

सभी उदबिलाव गुर्राकर और चिंचियाकर संवाद करते हैं। कुछ सामाजिक उदबिलाव, जैसे अमेज़न के विशाल उदबिलाव (Pteronura brasiliensis), 22 अलग-अलग तरह की आवाज़ें निकालते हैं। दूसरी ओर, नॉर्थ अमेरिकी नदीवासी उदबिलावों (Lontra canadensis) जैसे कुछ एकाकी प्रवृत्ति के उदबिलावों में संवाद के केवल चार तरीके ज्ञात हैं। लेकिन नियोट्रॉपिकल नदीवासी उदबिलावों (L. longicaudis) में संवाद का अध्ययन मुश्किल रहा है, क्योंकि ये वर्ष में एक बार ही प्रजनन के लिए साथ आते हैं।

इसलिए इन उदबिलावों में संचार-संवाद का अध्ययन करने के लिए विएना विश्वविद्यालय की जैव ध्वनिकीविद सबरीना बेटोनी ने तीन जोड़ी नियोट्रॉपिकल नदीवासी उदबिलावों का साल भर अध्ययन किया। ये उदबिलाव ब्राज़ील तट के निकट कैटरिना टापू पर एक शरण-स्थल में नर-मादा जोड़ियों के रूप में रखे गए थे। बेटोनी ने उनके द्वारा निकाली गई हर आवाज़ को रिकॉर्ड किया, और उनकी ध्वनि तरंगों का विश्लेषण करके उनका वर्गीकरण किया। इसके अलावा उन्होंने तीन महीने तक इन उदबिलावों पर नज़र भी रखी ताकि यह समझ सकें कि वे किन परिस्थितियों में किस तरह की आवाज़ निकालते हैं।

प्लॉस वन पत्रिका में उन्होंने बताया है कि वे विभिन्न व्यवहारों के लिए छह तरह की आवाज़ें निकालते हैं। जब वे मनुष्यों या अन्य जानवरों का ध्यान अपनी ओर खींचना चाहते हैं तो वे हल्का से चिंचियाते हैं। भोजन या दुलार की विनती करने के लिए वे धीमे से कुड़कुड़ाते हैं। खेलने के दौरान वे किंकियाते हैं। जब कुछ नया होते देखते हैं (जैसे भोजन लेकर आता व्यक्ति) तो वे अपने पिछले पैरों पर खड़े होकर सांस छोड़ने जैसी ‘हाह’ की आवाज़ निकालते हैं। इसके अलावा, लड़ाई के समय या अपने भोजन की सुरक्षा में वे गुर्राते हैं।

नियोट्रॉपिकल नदीवासी उदबिलाव की ये आवाज़ें सिर्फ उनकी ही प्रजाति तक सीमित नहीं हैं। इनमें से कुछ तरह की आवाज़ें, जैसे हाह या चिंचियाने की, पूरी तरह से भिन्न वातावरण में रहने वाले और भिन्न आनुवंशिक विशेषताओं वाले उदबिलावों में भी हैं। विभिन्न प्रजातियों में ध्वनियों की समानता देख कर लगता है कि ये ध्वनियां इनके साझा पूर्वज में मौजूद थीं। शोधकर्ता आगे जानना चाहते हैं कि वाणि-उत्पादन कैसे विकसित हुआ होगा। अन्य शोधकर्ता चेताते हैं कि संभवत: जंगली उदबिलाव कैद में रखे उदबिलावों जैसी ध्वनि न निकालते हों।

बहरहाल, उम्मीद है कि इस काम से उदबिलावों के संरक्षण में मदद मिलेगी। इस प्रजाति को लुप्तप्राय घोषित किया गया है। आवाज़ों की मदद से इन्हें एक जगह बुलाकर गिनती की जा सकेगी। और वैसे भी यह अध्ययन लोगों को इनके प्रति आकर्षित तो करेगा ही। (स्रोत फीचर्स)

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निएंडरथल की विरासत – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

स्सी पार के मेरे जैसे लोग तो कलाई पर घड़ी सिर्फ समय देखने के लिए बांधते हैं, लेकिन आज के ‘फैशनपरस्त’ युवा आम तौर पर करीने से फटी हुई जींस और कई सुविधाओं से लैस घड़ी पहनते हैं, जो न केवल समय बताती है बल्कि उनके लिए सही ट्वीट्स, फिल्में और आज का संगीत भी सुनाती हैं। उनकी तुलना में मेरे जैसे लोग म्यूज़ियम में रखे जाने लायक नमूने हैं। लेकिन जब मैं उनमें से कुछ अधिक ‘ज्ञानियों’ से यह पूछता हूं कि यह तकनीकी प्रगति कितने पहले शुरू हुई थी, तो वे गर्व से बताते हैं कि दिल्ली में स्थित कुतुब मीनार और उसका लौह स्तंभ, दोनों ही लौह युग के हैं।

आधुनिक मनुष्य

‘आधुनिक’ मनुष्य अपने अन्य होमिनिन पूर्वजों के साथ लौह युग के बहुत पहले, लगभग तीन लाख साल पहले, से पृथ्वी पर रह रहे हैं। लेकिन ये ‘अन्य’ लोग कौन थे? इनमें से एक ‘अन्य’ मानव पूर्वज है ‘निएंडरथल’, जिनकी हड्डियां सबसे पहले जर्मनी के डसेलडोर्फ के पूर्व में स्थित निएंडर घाटी में मिली थीं। इसलिए इन्हें ‘निएंडरथल’ कहा गया। ये होमिनिन लगभग 4,30,000 साल पहले पृथ्वी पर अस्तित्व में आए थे, लेकिन होमो सेपियन्स के विपरीत इनका विकास (या फैलाव) अफ्रीका में नहीं हुआ। प्रारंभिक मनुष्यों से पहली बार इनका सामना तब हुआ जब मनुष्य अफ्रीका से बाहर निकले।

तब होमो सेपियन्स और इनके बीच प्रतिस्पर्धा हुई या उनके बीच सहयोग का सम्बंध बना? एशिया और युरोप के जिन स्थानों पर इन दो प्रजातियों का आमना-समाना हुआ वहां के लोगों की आनुवंशिकी का अध्ययन कर इन सवालों के जवाब पता लगे हैं। इस तरह के विश्लेषण करने की तकनीकें अब तेज़ी से उन्नत होती जा रही हैं – इसके लिए अब ज़रूरत होती है सिर्फ हड्डी के एक टुकड़े की, और दांत मिल जाए तो और भी अच्छा। विश्लेषण में, हड्डी या दांत में छेद करके कुछ मिलीग्राम पाउडर निकाला जाता है और उस जंतु का डीएनए प्राप्त किया जाता है। फिर उसे अनुक्रमित किया जाता है। कभी-कभी तो इन टुकड़ों की भी आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि प्राचीन मनुष्यों के आवास स्थलों – जैसे गुफाओं – की तलछट में ही विश्लेषण योग्य डीएनए मिल जाते हैं! आनुवंशिकी की सभी तकनीकी और बौद्धिक प्रगति के पीछे स्वीडिश आनुवंशिकीविद स्वांते पाबो और जैव रसायनज्ञ जोहानेस क्राउस का उल्लेखनीय योगदान है।

‘आधुनिक’ मनुष्य इन क्षेत्रों के स्थानीय लोगों के साथ अंतर-जनन करते थे। साइंस पत्रिका के 9 अप्रैल के अंक में प्रकाशित लेख, निएंडरथल से आधुनिक मनुष्य कब संपर्क में आए, में डॉ. एन गिब्स बताती हैं कि हाल ही में इस अंतर-जनन से जन्मी संकर संतान की जांघ की हड्डी प्राप्त हुई है। प्राप्त नमूनों के हालिया आनुवंशिक विश्लेषण से पता चला है कि बुल्गारिया की बाचो किरो गुफा में निएंडरथल पहले आए थे (50,000 साल से भी पहले) और वहां वे अपने पत्थरों के औजार छोड़ गए थे। इसके बाद आधुनिक मानव दो अलग-अलग समयों पर, लगभग 45,000 पहले और 36,000 साल पहले, वहां आकर रहे, और गुफा में मनके और पत्थर छोड़ गए। 45,000 साल पूर्व इस गुफा में रहने वाले तीन मानव नरों के जीनोम डैटा से पता चलता है कि तीनों की कुछ ही पीढ़ियों पूर्व निएंडरथल इनकी वंशावली में शामिल थे। इससे स्पष्ट रूप से पता चलता है कि इस क्षेत्र में आधुनिक मनुष्य ने वहां के स्थानीय लोगों के साथ अंतर-जनन किया था, और निएंडरथल और आधुनिक मनुष्य का एक संकर समूह बना था। इस संकर समूह में निएंडरथल की विरासत 3.4 प्रतिशत से 3.8 प्रतिशत के बीच थी, (आधुनिक गैर-अफ्रीकियों में यह विरासत लगभग 2 प्रतिशत है)। यह विरासत गुणसूत्र खंड के लंबे-लंबे टुकड़ों के रूप में है, जो प्रत्येक अगली पीढ़ी में छोटे होते जाते हैं। इन टुकड़ों की लंबाई को मापकर यह अनुमान लगाया गया कि निएंडरथल 6-7 पीढ़ी पहले उक्त तीनों के पूर्वज रहे होंगे।

एक अन्य अध्ययन में चेक गणराज्य में ज़्लेटी कुन पहाड़ी से लगभग साबुत मिली एक स्त्री की खोपड़ी, जो लगभग उतनी ही पुरानी है जितनी बाचो किरो से मिले तीन व्यक्तियों के अवशेष, के विश्लेषण में पता चलता है कि लगभग 70 पीढ़ियों (2000 साल) पूर्व निएंडरथल उसके पूर्वज थे।

इन चारों की आनुवंशिक वंशावली का अध्ययन थोड़ा अचंभित करता है कि वर्तमान युरोपीय लोगों में उनके कोई चिंह नहीं मिलते। हालांकि वे वर्तमान के पूर्वी-एशियाई लोगों और मूल अमरीकियों के सम्बंधी हैं। इन युरेशियन गुफा वासियों के वंशज पूर्व की ओर पलायन कर गए, हिम-युगीन बेरिंग जलडमरूमध्य को पार करने की कठिनाई झेली और अमेरिका की वीज़ा-मुक्त यात्रा का आनंद लिया।

इसके बाद आगे के अध्ययनों में निएंडरथल के जीनोम की आधुनिक मनुष्य के साथ तुलना की गई, जिसमें दोनों के डीएनए अनुक्रमों में आनुवंशिक परिवर्तन दिखे। आधुनिक मनुष्य में निएंडरथल से विरासत में मिले गुणसूत्र के खंड घटकर दो प्रतिशत रह गए, लेकिन विरासत में मिले इन नए जींस ने मनुष्यों को क्या लाभ पहुंचाए? इस विरासत की वजह से मनुष्य 4 लाख साल पूर्व ठंडे क्षेत्रों में रहने के लिए अनुकूलित हुआ। निएंडरथल ने हमें अफ्रीकी मनुष्यों से हटकर ठंड के अनुकूल त्वचा और बालों के रंग में भिन्नताएं दीं। इसके साथ ही, अनुकूली चयापचय और प्रतिरक्षा भी दी जिसने नए खाद्य स्रोतों और रोगजनकों के साथ बेहतर तालमेल बैठाने में मदद दी। (स्रोत फीचर्स)

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चांद पर पहुंचे टार्डिग्रेड शायद मर चुके होंगे

ह तो सब जानते हैं कि सख्तजान टार्डिग्रेड्स बहुत अधिक ठंड और गर्मी दोनों बर्दाश्त कर सकते हैं। वे निर्वात में जीवित रह सकते हैं और हानिकारक विकिरण भी झेल जाते हैं। और अब, शोधकर्ताओं ने पाया है कि टार्डिग्रेड्स ज़ोरदार टक्कर भी झेल लेते हैं, लेकिन एक सीमा तक। यह अध्ययन टार्डिग्रेड द्वारा अंतरिक्ष की टक्करों को झेल कर जीवित बच निकलने की उनकी क्षमता और अन्य ग्रहों पर जीवन के स्थानांतरण में उनकी भूमिका की सीमाएं दर्शाता है।

2019 में इस्राइली चंद्र मिशन, बेरेशीट, दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। इस इस्राइली यान के साथ गुपचुप तरीके से चांद पर सूक्ष्मजीव टार्डिग्रेड्स (जलीय भालू, साइज़ करीब 1.5 मि.मी.) भेजे गए थे। लेकिन चांद पर उतरते वक्त लैंडर और साथ में उसकी सारी सवारियां दुर्घटनाग्रस्त हो गर्इं। टार्डिग्रेड्स चांद पर यहां-वहां बिखरे और यह चिंता पैदा हो गई कि वे वहां के वातावरण में फैल गए होंगे। इसलिए क्वीन मेरी युनिवर्सिटी की अलेजांड्रा ट्रेस्पस जानना चाहती थीं कि क्या टार्डिग्रेड्स इतनी ज़ोरदार टक्कर झेल कर जीवित बचे होंगे?

यह जानने के लिए उनकी टीम ने लगभग 20 टार्डिग्रेड्स को अच्छे से खिला-पिलाकर फ्रीज़ करके शीतनिद्रा की अवस्था में पहुंचा दिया, जिसमें उनकी चयापचय गतिविधि की दर महज़ 0.1 प्रतिशत रह गई।

फिर, उन्होंने नायलॉन की एक खोखली बुलेट में एक बार में दो से चार टार्डिग्रेड भरे और गैस गन से उन्हें कुछ मीटर दूरी पर स्थित एक रेतीले लक्ष्य पर दागा। यह गन पारंपरिक बंदूकों की तुलना में कहीं अधिक वेग से गोली दाग सकती है। एस्ट्रोबायोलॉजी में प्रकाशित नतीजों के अनुसार टार्डिग्रेड लगभग 900 मीटर प्रति सेकंड (लगभग 3000 किलोमीटर प्रति घंटे) तक की टक्कर के बाद जीवित रह सके, और 1.14 गीगापास्कल तक की ज़ोरदार टक्कर सहन कर गए। इससे तेज़ टक्कर होने पर उनका कचूमर निकल गया था।

तो बेरेशीट के दुर्घटनाग्रस्त होने पर टार्डिग्रेड्स जीवित नहीं बचे होंगे। हालांकि लैंडर कुछ सैकड़ा मीटर प्रति सेकंड की रफ्तार पर टकराया था, लेकिन टक्कर इतनी ज़ोरदार थी कि इससे 1.14 गीगापास्कल से कहीं अधिक तेज़ झटका पैदा हुआ होगा, जो कि टार्डिग्रेड की सहनशक्ति से अधिक रहा होगा।

ये नतीजे पैनस्पर्मिया सिद्धांत को भी सीमित करते हैं, जो कहता है कि किसी उल्कापिंड या क्षुद्रग्रह की टक्कर के साथ जीवन किसी अन्य ग्रह पर पहुंच सकता है। ऐसी टक्कर से उल्का पिंड में उपस्थित जीवन भी प्रभावित या नष्ट होगा। यानी किसी उल्कापिंड के साथ पृथ्वी पर जीवन आने (पैनस्पर्मिया) की संभावना कम है। कम से कम जटिल बहु-कोशिकीय जीवों का इस तरह स्थानांतरण आसानी से संभव नहीं है।

वैसे ट्रैस्पस का कहना है कि स्थानांतरण भले ‘मुश्किल’ हो, लेकिन असंभव भी नहीं है। पृथ्वी से उल्कापिंड आम तौर पर 11 किलोमीटर प्रति सेकंड से अधिक की रफ्तार से टकराते हैं; मंगल पर 8 किलोमीटर प्रति सेकंड की रफ्तार से। ये टार्डिग्रेड्स की सहनशक्ति से कहीं अधिक हैं। लेकिन पृथ्वी या मंगल पर कहीं-कहीं उल्कापिंड की टक्कर कम वेग से भी होती है, जिसे टार्डिग्रेड बर्दाश्त कर सकते हैं।

इसके अलावा, पृथ्वी से टक्कर के बाद चट्टानों के जो छोटे टुकड़े चंद्रमा की तरफ उछलते हैं, उनमें से लगभग 40 प्रतिशत की रफ्तार इतनी धीमी होती है कि टार्डिग्रेड जीवित रह सकें। यानी सैद्धांतिक रूप से यह संभव है कि पृथ्वी से चंद्रमा पर जीवन सुरक्षित पहुंच सकता है। कुछ सूक्ष्मजीव 5000 मीटर प्रति सेकंड का वेग झेल सकते हैं। उनके जीवित रहने की संभावना और भी अधिक है। (स्रोत फीचर्स)

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स्तनधारी अपनी आंतों से सांस ले सकते हैं

म तौर पर हमारी आंत भोजन से पोषण लेने का काम करती है और गुदा मल को बाहर निकालने का। लेकिन कृंतकों और सूअरों पर हुए ताज़ा अध्ययन में देखा गया है कि स्तनधारियों की आंत ऑक्सीजन का भी अवशोषण कर सकती है, जो श्वसन संकट की स्थिति से उबरने में मदद कर सकता है। कहा जा रहा है कि भविष्य में इस तरीके से मनुष्यों को ऑक्सीजन की कमी से बचाया जा सकेगा, खासकर उन जगहों पर जहां ऑक्सीजन देने की अन्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं।

अधिकांश स्तनधारी जीव अपने मुंह और नाक से सांस लेते हैं, और फेफड़े के ज़रिए पूरे शरीर में ऑक्सीजन भेजते हैं। यह तो ज्ञात था कि समुद्री कुकंबर और कैटफिश जैसे जलीय जीव आंत से सांस लेते हैं। स्तनधारी जीव आंतों से दवाइयों का अवशोषण तो कर लेते हैं लेकिन यह मालूम नहीं था कि क्या वे श्वसन भी कर सकते हैं।

यही पता लगाने के लिए सिनसिनाटी चिल्ड्रन हॉस्पिटल के गैस्ट्रोएंटरोलॉजिस्ट ताकानोरी ताकबे और उनके साथियों ने चूहों और सूअरों पर कई परीक्षण किए। पहले 11 चूहे लिए। इनमें से चार चूहों की आंतों के अस्तर को रगड़ कर पतला किया ताकि ऑक्सीजन अच्छी तरह अवशोषित हो सके, और फिर इन चूहों के मलाशय से शुद्ध, दाबयुक्त ऑक्सीजन प्रवेश कराई। शेष 7 चूहों की आंत के अस्तर को पतला नहीं किया गया था। उनमें से 4 की आंत में ऑक्सीजन प्रवेश कराई। और शेष तीन चूहों की न तो आंतों की सफाई की और न उन्हें ऑक्सीजन दी। इसके बाद सभी चूहों के शरीर में ऑक्सीजन की कमी पैदा कर दी (वे ‘हाइपॉक्सिक’ हो गए)।

मेड पत्रिका में प्रकाशित नतीजों के अनुसार जिन चूहों की आंत की सफाई नहीं की गई थी और ऑक्सीजन भी नहीं दी गई थी वे औसतन 11 मिनट जीए। जिन्हें आंत साफ किए बिना गुदा के माध्यम से ऑक्सीजन दी गई थी वे 18 मिनट तक जीए। और जिन्हें आंत साफ कर ऑक्सीजन दी गई थी वे चूहे लगभग एक घंटा जीवित रहे।

लेकिन शोधकर्ता आंत साफ करने की मुश्किल और जोखिमपूर्ण प्रक्रिया हटाना चाहते थे। इसलिए अगले अध्ययन में उन्होंने दाबयुक्त ऑक्सीजन की जगह परफ्लोरोकार्बन का उपयोग किया, जो ऑक्सीजन अधिक मात्रा में संग्रह करता है और अक्सर सर्जरी के दौरान रक्त के विकल्प के रूप में इसका उपयोग किया जाता है। उन्होंने तीन हाइपॉक्सिक चूहों और सात हाइपॉक्सिक सूअरों की आंत में ऑक्सीजन युक्त परफ्लोरोकार्बन प्रवेश कराया। नियंत्रण समूह के दो हाइपॉक्सिक चूहों और पांच हाइपॉक्सिक सूअरों की आंत में सलाइन प्रवेश कराई।

नियंत्रण समूह के चूहों और सूअरों में ऑक्सीजन का स्तर घट गया। लेकिन जिन चूहों में ऑक्सीजन प्रवेश कराई गई थी उनमें ऑक्सीजन का स्तर सामान्य रहा व सूअरों में ऑक्सीजन में लगभग 15 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई जिससे वे हाइपॉक्सिया के लक्षणों से उबर पाए। कुछ ही देर में उनकी त्वचा की रंगत और गर्माहट भी लौट आई थी।

दोनों अध्ययन के आधार पर शोधकर्ताओं का कहना है कि स्तनधारी अपनी आंतों के माध्यम से ऑक्सीजन को अवशोषित कर सकते हैं, और ऑक्सीजन देने का यह नया तरीका सुरक्षित है। हालांकि मनुष्यों में इसके प्रभावों और सुरक्षा को देखा जाना अभी बाकी है लेकिन उम्मीद है कि यह तरीका ऑक्सीजन की कमी से जूझ रहे लोगों को बचाने में कारगर साबित हो सकता है। अन्य विशेषज्ञों का कहना है कि पारंपरिक श्वसन उपचारों से इसकी तुलना करके देखना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कार्बन चोर सूक्ष्मजीव

दुनिया पृथ्वी की सतह के नीचे भी सूक्ष्मजीवों का एक संसार बसता है। हाल ही में हुआ एक अध्ययन बताता है कि इनमें से कुछ सूक्ष्मजीव पृथ्वी के अंदर जाकर ज़ब्त होने वाले कार्बन में से काफी मात्रा में कार्बन चुरा लेते हैं और नीचे के प्रकाश-विहीन पर्यावरण में र्इंधन के रूप में उपयोग करते हैं। सूक्ष्मजीवों की इस करतूत का परिणाम काफी नकारात्मक हो सकता है। जो कार्बन पृथ्वी की गहराई में समा जाने वाला था और कभी वापस लौटकर वायुमंडल में नहीं आता, वह इन सूक्ष्मजीवों की वजह से कम गहराई पर ही बना रह जाता है। यह भविष्य में वायुमंडल में वापस आ सकता है और पृथ्वी का तापमान बढ़ा सकता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि पृथ्वी की गहराई में चल रहे कार्बन चक्र को समझने में अब तक इन सूक्ष्मजीवों की भूमिका अनदेखी रही थी।

वैसे तो मानव-जनित कार्बन डाईऑक्साइड पृथ्वी के भावी तापमान में निर्णायक भूमिका निभाएगी लेकिन पृथ्वी में एक गहरा कार्बन चक्र भी है जिसकी अवधि करोड़ों साल की होती है। दरअसल, धंसान क्षेत्र में पृथ्वी की एक प्लेट दूसरी प्लेट के नीचे धंसती हैं और पृथ्वी के मेंटल में पहुंचती हैं। धंसती हुई प्लेट अपने साथ-साथ कार्बन भी पृथ्वी के अंदर ले जाती हैं। यह लंबे समय तक मैंटल में जमा रहता है। इसमें से कुछ कार्बन ज्वालामुखी विस्फोट के साथ वापस वायुमंडल में आ जाता है। लेकिन पृथ्वी के नीचे पहुंचने वाला अधिकतर कार्बन वापस नहीं आता, और क्यों वापस नहीं आता यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं था।

2017 में कोस्टा रिका के 20 विभिन्न गर्म सोतों से निकलने वाली गैसों और तरल का अध्ययन करते समय युनिवर्सिटी ऑफ टेनेसी की सूक्ष्मजीव विज्ञानी केरेन लॉयड और उनके साथियों ने पाया था कि पृथ्वी के नीचे जाने वाली कुछ कार्बन डाईऑक्साइड चट्टानों में बदल जाती है, जो मैंटल की गहराई तक कभी नहीं पहुंचती और वापस वायुमंडल में भी नहीं आती। ये सोते उस धंसान क्षेत्र से 40 से 120 किलोमीटर ऊपर स्थित है जहां कोकोस प्लेट सेंट्रल अमेरिका के नीचे धंस रही है। इसके अलावा उन्हें यह भी संकेत मिले थे कि जितनी कार्बन डाईऑक्साइड चट्टान में बदल रही है उससे अधिक कार्बन डाईऑक्साइड कहीं और रिस रही है।

नमूनों का बारीकी से विश्लेषण करने पर शोधकर्ताओं ने ऐसी रासायनिक अभिक्रियाओं के संकेत पाए हैं जिन्हें केवल सजीव ही अंजाम देते हैं। उन्हें नमूनों में कई ऐसे बैक्टीरिया मिले हैं जिनमें इन रासायनिक अभिक्रियाओं को अंजाम देने वाले आवश्यक जीन मौजूद हैं। नमूनों से प्राप्त कार्बन समस्थानिकों के अनुपात से पता चलता है कि सूक्ष्मजीव इन धंसती प्लेटों से कार्बन डाईऑक्साइड चुरा लेते हैं और इसे कार्बनिक कार्बन में बदलकर इसका उपयोग करके फलते-फूलते हैं।

नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ कोस्टा रिका के नीचे रहने वाले सूक्ष्मजीव हज़ारों ब्लू व्हेल के द्रव्यमान के बराबर कार्बन प्रति वर्ष चुरा लेते हैं, जो कभी न कभी वापस वायुमंडल में पहुंच जाएगा और पृथ्वी का तापमान बढ़ाएगा। हालांकि अभी इन नतीजों की पुष्टि होना बाकी है, लेकिन यह अध्ययन भविष्य में पृथ्वी के तापमान में होने वाली वृद्धि में सूक्ष्मजीवों की भूमिका को उजागर करता है और ध्यान दिलाता है कि यह पृथ्वी के तापमान सम्बंधी अनुमानों को प्रभावित कर सकती है।

इसके अलावा शोधकर्ताओं को वे सूक्ष्मजीव भी मिले हैं जो कार्बन चुराने वाले बैक्टीरिया के मलबे पर निर्भर करते हैं। शोधकर्ता यह भी संभावना जताते हैं कि कोस्टा रिका के अलावा इस तरह की गतिविधियां अन्य धंसान क्षेत्रों के नीचे भी चल रही होंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अमेरिकी शहद में परमाणु बमों के अवशेष

हाल ही में हुए एक अध्ययन के अनुसार लगभग पांच दशक पूर्व किए परमाणु बम परीक्षणों के अवशेष आज भी दिखाई दे रहे हैं। शोधकर्ताओं ने शहद में रेडियोधर्मी तत्व मौजूद पाया है। हालांकि शहद में रेडियोधर्मी तत्व का स्तर खतरनाक नहीं है, लेकिन अंदाज़ है कि 1970-80 के दशक में यह स्तर काफी अधिक रहा होगा।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका, पूर्व सोवियत संघ और अन्य कई देशों ने सैकड़ों परमाणु बम परीक्षण धरती की सतह पर किए थे। इन बमों से रेडियोधर्मी सीज़ियम निकला और ऊपरी वायुमंडल में पहुंचा। हवाओं ने इसे दुनिया भर में फैलाया, हालांकि हर जगह यह एक समान मात्रा में नहीं फैला था। उदाहरण के लिए, क्षेत्रीय हवाओं और वर्षा के पैटर्न के कारण अमेरिका के पूर्वी तट पर बहुत अधिक रेडियोधर्मी कण पहुंचे।

रेडियोधर्मी सीज़ियम पानी में घुलनशील है, और चूंकि इसके रासायनिक गुण पोटेशियम के समान हैं इसलिए पौधे इसे पोटेशियम मानकर उपयोग कर लेते हैं। यह देखने के लिए कि क्या अब भी पौधों में यह परमाणु संदूषण पहुंच रहा है, विलियम एंड मैरी कॉलेज के भूविज्ञानी जेम्स कास्ट ने विभिन्न स्थानों के स्थानीय खाद्य पदार्थों में रेडियोधर्मी सीज़ियम की जांच की।

उत्तरी कैरोलिना से लिए गए शहद के नमूनों के परिणाम आश्चर्यजनक थे। उन्हें इस शहद में रेडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर अन्य खाद्य पदार्थों की तुलना में 100 गुना अधिक मिला। यह जानने के लिए कि क्या पूर्वी यूएस में मधुमक्खियां पौधों से मकरंद लेकर शहद बना रही हैं, और सीज़ियम का सांद्रण कर रही हैं, उनकी टीम ने पूर्वी यूएस के विभिन्न स्थानों से शहद के 122 नमूने एकत्रित किए और उनमें रेडियोधर्मी सीज़ियम का मापन किया। उन्हें 68 नमूनों में प्रति किलोग्राम 0.03 बेकरेल से अधिक रेडियोधर्मी सीज़ियम मिला (यानी लगभग एक चम्मच शहद में 8,70,000 रेडियोधर्मी सीज़ियम परमाणु)। सबसे अधिक (19.1 बेकरेल प्रति किलोग्राम) रेडियोधर्मी सीज़ियम फ्लोरिडा से प्राप्त नमूने में मिला।

नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक परमाणु बम परीक्षण स्थल से हज़ारों किलोमीटर दूर और बम परीक्षण के 50 साल बाद तक रेडियोधर्मी तत्व पौधों और जानवरों के माध्यम से पर्यावरण में घूम रहा है। हालांकि अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने स्पष्ट किया है यह स्तर चिंताजनक नहीं है। यह सुरक्षित स्तर (1200 बेकरेल प्रति किलोग्राम) से बहुत कम है।

समय के साथ रेडियोधर्मी तत्वों की मात्रा कम होती जाती है। इसलिए भले ही वर्तमान में रेडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर कम है, लेकिन पूर्व में यह स्तर काफी अधिक रहा होगा। पूर्व में यह मात्रा कितनी होगी यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने दूध के नमूनों में सीज़ियम का स्तर मापा, और संग्रहालय में रखे पौधों के नमूनों का विश्लेषण किया। शोधकर्ताओं ने पाया कि 1960 के दशक के बाद से दोनों तरह के नमूनों में रेडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर बहुत कम हुआ है, और कमी आने की यही प्रवृत्ति शहद में भी रही होगी। अनुमान है कि 1970 के दशक में शहद में सीज़ियम का स्तर मौजूदा स्तर से 10 गुना अधिक रहा होगा। सवाल उठता है कि पिछले 50 सालों में रेडियोधर्मी सीज़ियम ने मधुमक्खियों को किस तरह प्रभावित किया होगा? कीटनाशकों के अलावा अन्य मानव जनित प्रभाव भी इनके अस्तित्व को खतरे में डाल सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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जैव विविधता संरक्षण में मनुष्यों का योगदान

जैव विविधता को बचाने के लिए 1960 के दशक से ही संरक्षणवादी एक मानक समाधान देते आए हैं – प्राकृतिक क्षेत्रों को मानव दखल से बचाया जाए। लेकिन हाल ही में हुआ अध्ययन संरक्षणवादियों के इस मिथक को तोड़ता है और पिछले 12,000 सालों के दौरान मनुष्यों द्वारा भूमि उपयोग के विश्लेषण के आधार पर बताता है कि मनुष्यों ने नहीं बल्कि संसाधनों के अति दोहन ने जैव विविधता को खतरे में डाला है। अध्ययन के अनुसार 12,000 साल पूर्व भी भूस्थल का मात्र एक चौथाई हिस्सा मनुष्यों से अछूता था जबकि वर्तमान में 19 प्रतिशत है। हज़ारों वर्षों से स्थानीय या देशज लोगों और उनकी कई पारंपरिक प्रथाओं ने जैव विविधता का संरक्षण करने के साथ-साथ उसे बढ़ाने में मदद की है।

यह जानने के लिए कि इन्सानों ने जैव विविधता को कैसे प्रभावित किया है, दुनिया भर के विश्वविद्यालयों के शोधकर्ताओं के दल ने एक मॉडल तैयार कर अतीत के भूमि उपयोग का अंदाज़ा लगाया। मॉडल में उन्होंने वर्तमान भूमि उपयोग के पैटर्न को चित्रित किया – जिसमें उन्होंने जंगली इलाके, कृषि भूमि, शहर और खदानों को दर्शाया। फिर इसमें उन्होंने पूर्व और वर्तमान की जनसंख्या के आंकड़े भी शामिल किए। पिछले 12,000 वर्षों के दौरान 60 विभिन्न समयों पर मनुष्यों द्वारा भूमि उपयोग किस तरह का था, यह पता लगाने के लिए उन्होंने मॉडल में पुरातात्विक डैटा भी जोड़ा। इन जानकारियों के साथ उन्होंने रीढ़धारी जीवों की विविधता, विलुप्तप्राय प्रजातियां और संरक्षित क्षेत्र और सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त देशज निवासी क्षेत्र सम्बंधी वर्तमान आंकड़े रखकर विश्लेषण किया।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में शोधकर्ता बताते हैं कि 12,000 साल पहले पृथ्वी का लगभग एक-चौथाई हिस्सा ही मनुष्यों से अछूता था, यानी अधिकतर उन जगहों पर मनुष्यों का दखल था जिन्हें संरक्षणवादी आज ‘प्राकृतिक’, ‘अछूता’ या ‘जंगली’ भूमि कहते हैं। दस हज़ार साल पहले तक 27 प्रतिशत भूमि मनुष्यों से अछूती थी, और अब 19 प्रतिशत भूमि मनुष्यों से अछूती है। उन्होंने यह भी पाया कि प्राचीन मनुष्यों ने जैव विविधता हॉट-स्पॉट को संरक्षित करने में ही नहीं बल्कि इन हॉट-स्पॉट को बनाने में भी भूमिका निभाई है।

यह अध्ययन इस धारणा को तोड़ता है कि प्रकृति मनुष्यों से मुक्त होनी चाहिए। अध्ययन में देखा गया कि विगत 12,000 वर्षों तक भूमि उपयोग काफी हद तक स्थिर रहा था, लेकिन 1800 से 1950 के दौरान इसमें तेज़ी से परिवर्तन हुए। जैसे सघन कृषि होने लगी, शहरीकरण बढ़ा, बड़े पैमाने पर खनन कार्य हुए, और वनों की अंधाधुंध कटाई होने लगी।

मानव विज्ञानियों और पुरातत्वविदों का कहना है कि हमारे लिए ये नतीजे कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह तो हम पहले से ही जानते हैं कि जंगल जलाकर खेती जैसे कार्य कर मनुष्य सदियों से भूमि प्रबंधन कर रहे हैं। देशज निवासियों के अधिकारों के संरक्षण अभियान, सर्वाइवल इंटरनेशनल, के प्रमुख फियोर लोंगो इन नतीजों पर सहमति जताते हुए कहते हैं कि यह अध्ययन हमारी उस बात की पुष्टि करता है जो हम वर्षों से कहते आए हैं – जंगलों को निर्जन रखे जाने की धारणा एक औपनिवेशिक और नस्लवादी मिथक है जिसके पीछे कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, और इस धारणा का उपयोग अन्य लोग अक्सर इन भूमियों को हड़पने के लिए करते हैं।

लेकिन मानव विज्ञानी कहते हैं कि हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हर मूल निवासी या स्थानीय समूह जैव विविधता कायम नहीं रखता। जैसे कुछ प्राचीन लोगों के कारण ही मैमथ और प्रशांत द्वीप के उड़ान रहित पक्षी विलुप्त हो गए। लेकिन यह बात भी उतनी ही सच है कि अन्य लोगों की तुलना में स्थानीय लोग प्रकृति का बहुत अच्छे से ख्याल रखते हैं और संरक्षक की भूमिका निभाते हैं। यदि स्थानीय लोगों की प्रथाएं जैव विविधता के लिए सकारात्मक या हितकारी हैं, तो विलुप्त होती प्रजातियों को बचाने के लिए हमें उन लोगों को जंगलों से बेदखल करने की ज़रूरत नहीं है। बल्कि हमें उनकी भूमि को संरक्षित करने के लिए इन लोगों को सशक्त बनाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी पर कुल कितने टी. रेक्स हुए?

जुरासिक पार्क फिल्म ने टी. रेक्स को घर-घर में पहुंचा दिया लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि कुल मिलाकर कितने टायरेनोसॉरस रेक्स (टी. रेक्स) पृथ्वी पर हुए होंगे? साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि 20 लाख सालों के अस्तित्व के दौरान कुल मिलाकर तकरीबन ढाई अरब टी. रेक्स इस पृथ्वी पर रहे होंगे।

यह तो हम जानते ही हैं कि टी. रेक्स के जीवाश्म दुर्लभ हैं, लेकिन सवाल था कि कितने दुर्लभ? और यह पता लगाने के लिए यह पता होना ज़रूरी है कि वास्तव में पृथ्वी पर कितने टी. रेक्स जीवित रहे थे।

इसलिए कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के जीवाश्म विज्ञानी चार्ल्स मार्शल और उनके साथियों ने पहले क्रेटेशियस काल के दौरान पृथ्वी रहने वाले टी. रेक्स की संख्या पता लगाई। ऐसा उन्होंने आधुनिक जीवों की गणना के लिए इस्तेमाल की जाने वाली विधि की मदद से किया। इसमें किसी जीव के शरीर के द्रव्यमान और जिस भौगोलिक क्षेत्र में वे रहते हैं उसके फैलाव के आधार पर उनके जनसंख्या घनत्व का अनुमान लगाया जाता है। पारिस्थितिकी के डेमथ के नियम के अनुसार किसी जीव के शरीर का द्रव्यमान जितना अधिक होगा, उस प्रजाति का औसत जनसंख्या घनत्व उतना कम होगा। यानी जितना बड़ा जानवर होगा, कुल संख्या उतनी ही कम होगी। जैसे, किसी एक क्षेत्र में चूहों की तुलना में हाथी कम संख्या में होंगे।

शोधकर्ताओं ने पहले तो वर्तमान उत्तरी अमेरिका में टी. रेक्स के कुल फैलाव क्षेत्र का अनुमान लगाया, फिर इन आंकड़ों को टी. रेक्स के शरीर के द्रव्यमान के साथ रखकर गणना की और पाया कि किसी एक कालखंड में लगभग 20,000 टी. रेक्स पृथ्वी पर जीवित रहे होंगे। यानी उस कालखंड में कैलिफोर्निया के बराबर क्षेत्र में लगभग 3800 टी. रेक्स रहे होंगे, या वाशिंगटन डीसी बराबर क्षेत्र में महज़ दो टी. रेक्स विचरण करते होंगे।

गणना कर उन्होंने पाया कि विलुप्त हो चुके टी. रेक्स की लगभग 1,27,000 पीढ़ियां पृथ्वी पर जीवित रही थीं। इस आधार पर उन्होंने अनुमान लगाया कि पूरे अस्तित्व काल के दौरान पृथ्वी पर लगभग ढाई अरब टी. रेक्स थे। और इनमें से केवल 32 वयस्क टी. रेक्स अश्मीभूत अवस्था में मिले हैं; यानी आठ करोड़ टी. रेक्स में से सिर्फ एक टी. रेक्स जीवाश्म मिला है। इससे पता चलता है कि अश्मीभूत होने की संभावना बहुत कम है, यहां तक कि बड़े मांसाहारी जीवों के लिए भी।

आंकड़े के अनुसार जीवाश्म मिलना दुर्लभ है। जब टी. रेक्स जैसे अधिक संख्या में पाए जाने वाले जीवों के जीवाश्म इतनी कम संख्या में हैं तो वे प्रजातियां जो टी. रेक्स की तुलना में बहुत कम संख्या में रही होंगी वे तो शायद ही संरक्षित हो पाई होंगी। और पूर्व में पृथ्वी पर क्या था उसका एकदम सीधा प्रमाण तो जीवाश्म ही देते हैं।

अन्य शोधकर्ताओं का सुझाव है कि जीवित प्रजातियों पर इस तरह की गणना करके देखना चाहिए कि ये अनुमान कितने सटीक हैं। इसके अलावा, मैमथ, निएंडरथल और खूंखार भेड़ियों जैसी विलुप्त प्रजातियों, जिनके जीवाश्म प्रचुरता से उपलब्ध हैं, उनका तुलनात्मक अध्ययन करके पूर्व के पारिस्थितिक तंत्र को भी बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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