एक झींगे की तेज़ गति वाली आंखें

क मामूली माचिस की तीली जितने बड़े स्नैपिंग झींगे (Alpheus heterochaelis) अपने जबड़ों को झटके से बंद करके ऊंची आवाज़ निकालने के लिए मशहूर हैं। इस आवाज़ के कंपन से उनका शिकार या शत्रु भौंचक्का रह जाता है। इन्हें पिस्तौल झींगा भी कहते हैं। और अब शोधकर्ताओं ने जबड़ों की इस रफ्तार से मेल खाती उनकी दृष्टि की भी खोज की है।

इस नए अध्ययन में वैज्ञानिकों ने एक जीवित मगर ठंड से अचेत झींगे की आंख में एक पतला विद्युत चालक तार चिपकाया और झिलमिलाते प्रकाश के जवाब में आंखों से उत्पन्न होने वाले विद्युत आवेगों को रिकॉर्ड किया। बायोलॉजी लैटर्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार स्नैपिंग झींगा अपनी आंखों में दृश्य को एक सेकंड में 160 बार तरोताज़ा करता है।

पानी में रहने वाले जीवों में यह अब तक देखी गई सबसे अधिक दृश्य-नवीनीकरण दर है। कबूतरों में यह प्रति सेकंड 143 है और मनुष्यों में केवल 60 प्रति सेकंड। इस मामले में मात्र दिन में उड़ने वाले कीट ही स्नैपिंग झींगे को टक्कर दे सकते हैं। दृश्य-नवीनीकरण का मतलब होता है रेटिना पर से एक छवि को मिटाकर दूसरी छवि का बनना।

अर्थात जो वस्तु हमें और अन्य कशेरुकी जीवों को धुंधली नज़र आती है वे स्नैपिंग झींगे को अलग-अलग छवियों के रूप में नज़र आती है। कारण यह है कि हमारी आंखों पर यदि बहुत तेज़ गति से छवियां बदलें, तो एक के मिटने से पहले ही दूसरी बनने लगती है, जिसके परिणामस्वरूप वे एक-दूसरे में व्यवधान पैदा करती हैं।

हाल तक शोधकर्ताओं का मानना था कि स्नैपिंग झींगे को अच्छे से दिखाई नहीं देता होगा क्योंकि उनके ऊपर कठोर हुड होता है जो उनकी आंखों को ढंके रहता है। यह हुड पारभासी होता है लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि यह प्रकाश को कितनी अच्छी तरह से पार जाने देता है। अब इस अध्ययन से यह पता चला है कि एक तेज़ शिकार पर हमला करना या फिर खुद शिकार होने से बचना इस झींगे के लिए कोई मुश्किल काम नहीं है। यह उनके लिए काफी महत्वपूर्ण भी है क्योंकि वे मटमैले पानी में रहते हैं जहां शिकारी का पता लगाना काफी मुश्किल होता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बहु-कोशिकीय जीवों का एक-कोशिकीय पूर्वज – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पृथ्वी पर जीवन के शुरुआती रूप की चर्चा करते हुए अमेरिका का स्मिथसोनियन संस्थान बताता है कि ऑक्सीजन रहित और मीथेन की अधिकता वाला वातावरण जंतुओं के जीवन के लिए उपयुक्त नहीं था। फिर भी इस वातावरण में ऐसे सूक्ष्मजीव रह सकते थे जो सूर्य के प्रकाश का सामना कर, इसकी मदद से जीवित रहने के लिए ऊर्जा उत्पन्न करने में सक्षम थे।

पृथ्वी पर ऐसा वातावरण आज से लगभग 3.4 अरब साल पहले और पृथ्वी के अस्तित्व में आने के लगभग एक अरब साल बाद था। अपने भोजन बनाने की प्रक्रिया में सूक्ष्मजीवों ने ऑक्सीजन नामक गैसीय गौण उत्पाद बनाया। इस ‘महान ऑक्सीकरण घटना’ की बदौलत इसके लगभग 2 अरब साल बाद ऑक्सीजन पृथ्वी की सतह का एक महत्वपूर्ण घटक बन गई और पृथ्वी जीवों के जीवन के अनुकूल हो गई।

इस ऑक्सीजन का बाहरी ऊर्जा के रूप में उपयोग करके जंतु कोशिकाएं अपने शारीरिक विकास और संख्या वृद्धि के लिए भोजन बना सकती हैं। लेकिन इसके लिए उनकी शारीरिक रचना और जीव विज्ञान में तबदीली की ज़रूरत थी (बहु-कोशिकता के उद्भव और उसकी ज़रूरत पर एक उत्कृष्ट सारांश टी. केवेलियर-स्मिथ द्वारा रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित किया गया है, इसे आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं: https://doi.org/10.1098/rstb.2015.0476)। वे यह भी बताते है कि क्यों एक एक-कोशिकीय जीव (कोएनोफ्लैजिलेट) का उपयोग मनुष्य जैसे बहु-कोशिकीय जीवों के जैव विकास और विविधीकरण का अध्ययन करने के लिए एक मॉडल के रूप में किया जा सकता है। कोएनोफ्लैजिलेट जंतुओं के ऐसे सबसे करीबी जीवित रिश्तेदार हैं जो लगभग एक अरब साल पहले अस्तित्व में आए थे। कोएनोफ्लैजिलेट जंतुओं के सबसे करीबी रिश्तेदार माने जाते हैं। इनके अंडाकार शरीर पर एक चाबुक जैसा उपांग (कशाभ) होता है जिसके आधार पर एक कीप जैसी कॉलर होती है। इसलिए इन्हें कीप-कशाभिक भी कहते हैं। ये अकेले भी रहते हैं और कॉलोनियों में भी।

पिछले कुछ समय में हुए जीनोम अनुक्रमण के प्रयासों की बदौलत यह पता चला है कि कोएनोफ्लैजिलेट में भी कुछ ऐसी प्रक्रियाएं होती हैं जिनके बारे में अब तक ऐसा लगता था कि ये सिर्फ बहुकोशिकीय जीवों में ही होती हैं। इनमें कोशिकाओं के बीच संदेशों का आदान-प्रदान, कोशिका से कोशिका के चिपकने की प्रवृत्ति वगैरह शामिल हैं।

त्रुटिसुधार

समय के साथ जंतु कोशिकाएं क्रियाशील ऑक्सीजन मूलक (आरओएस) नामक अणु अधिक मात्रा में बनाने के लिए विकसित हुर्इं, ये अणु कई आवश्यक कोशिकीय गतिविधियों के लिए ज़रूरी होते हैं लेकिन इनका उच्च स्तर विषाक्तता पैदा करता है। आरओएस प्रतिरक्षा, तनाव प्रतिक्रिया और परिवर्धन जैसी प्रक्रियाओं में संकेतक अणु की एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसके अलावा अधिक जटिलता के लिए ज़रूरी होता है कि जंतु के जीनोम के आकार में भी पर्याप्त वृद्धि हो। इसके साथ कोशिका में सभी कार्यों में भी वृद्धि होती है, जैसे डीएनए (विभिन्न अंगों की कोशिकाओं में मौजूद आनुवंशिक सामग्री), उसको संदेशवाहक आरएनए (mRNA) के रूप में लिप्यांतरित करना, और फिर tRNA की मदद से इन्हें कोशिकाओं में विशिष्ट प्रोटीन बनाने वाले अमीनो एसिड अनुक्रम में बदलना। tRNA की इस बढ़ी हुई संख्या (किसी सामान्य सूक्ष्मजीव में लगभग 50 से लेकर जंतुओं में सैकड़ों) का मतलब यह हुआ इन्हें कम से कम गलतियों के साथ सावधानीपूर्वक चुना जाना ज़रूरी है।

यदि प्रोटीन के स्तर पर आनुवंशिक कोड की गलत व्याख्या हो जाए तो यह गलती कार्यात्मक विकार और रोगों को जन्म देगी। (उदाहरण के लिए, सही अमीनो एसिड के स्थान पर, एक ‘गलत’ अमीनो एसिड आ जाने से प्रोटीन की आकृति, आकार या घुलनशीलता बदल सकती है जिसके कारण लायनस पौलिंग के शब्दों में ‘आणविक रोग’ हो सकते हैं। यदि हीमोग्लोबिन में एक एमिनो एसिड बदल जाए तो एनीमिया हो सकता है। और यदि आंख के लेंस के प्रोटीन में एक गलत एमीनो एसिड आ जाए तो मोतियाबिंद हो सकता है।) गलत अमीनो एसिड वाला प्रोटीन बनने से रोकने के लिए कोशिकाओं में ऐसे एंज़ाइम होते हैं जो गलत अमीनो एसिड को हटाने में मदद करते हैं। हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी के राजन शंकरनारायणन और उनके साथियों का हालिया शोध, जंतु कोशिकाओं में एंज़ाइम की मदद से प्रूफ-रीडिंग के इसी पहलू पर केंद्रित है। यह शोध ईलाइफ पत्रिका के 28 मई, 2020 के अंक में प्रकाशित हुआ है। (जीनोमिक नवाचार ATD जीव जगत में बहुकोशिकता में होने वाले गलत रूपांतरणों को कम करता है, DOI: https: // doi. org / 10.7554 / eLife.58118)।

इस शोध के दिलचस्प शीर्षक ने मुझे डॉ. शंकरनारायणन से बात करने को उकसाया। उन्होंने मुझे जो समझाया वही यहां बता रहा हूं। उनके समूह को ATD नामक एक ऐसा जंतु विशिष्ट प्रूफ-रीडिंग एंज़ाइम मिला था जो थ्रेओनिन (T) नामक एमिनो एसिड के वाहक tRNA से (गलत) एमिनो एसिड एलेनिन (A) को हटा देता है। इस तरह सही प्रोटीन संश्लेषण बहाल होता है और कोशिका सामान्य तरीके से कार्य करती रहती है। वे आगे बताते हैं कि जंतु कोशिकाओं में ThrRS नामक एक अन्य एंज़ाइम भी होता है जो ATD की तरह ही कार्य करता है, लेकिन कोशिकाओं में उच्च आरओएस स्तर होने पर यह एंजाइम अपनी क्षमता खो देता है। जबकि ATD एंज़ाइम कोशिकाओं में आरओएस का उच्च स्तर होने पर भी सक्रिय बना रहता है।

शोधकर्ताओं द्वारा प्रयोगशाला में, मानव गुर्दे की कोशिकाओं और चूहों के भ्रूणीय स्टेम कोशिकाओं पर इन परिणामों की पुष्टि की गई थी। नई जीनोम एडिटिंग तकनीक, CRISPR-Cas9, का उपयोग करके कोशिकाओं से यह जीन हटाया गया, जिससे समूचा प्रोटीन गलत संश्लेषित हुआ और परिणामस्वरूप कोशिका की मृत्यु हो गई। और खास बात यह रही कि वे उपरोक्त परिघटना के पीछे के आणविक कारण को भी पहचान सके।

वे बताते हैं कि वास्तव में कि ATD रहित कोशिकाओं में थ्रेओनिन के स्थान पर कई जगह एलेनिन रख कर प्रोटीन बनाने की गलती हुई थी। शोधकर्ता अब आरओएस के उच्च स्तर वाले ऊतकों, जैसे वृषण और अंडाशय में ATD की विशिष्ट भूमिका की जांच करना चाहते हैं। शोधकर्ता बताते हैं कि जंतुओं में प्रोटीन के गलत संश्लेषण की समस्या के लिए ज़िम्मेदार tRNA के विशेष समूह की बढ़ी हुई संख्या से एक संभावना यह बनती है कि इनमें प्रोटीन संश्लेषण के अलावा अन्य कोई कार्य करने क्षमता भी विकसित हो सकती है। जैसे एपिजेनेटिक्स, प्रोग्राम्ड सेल डेथ (एपोप्टोसिस) और प्रजनन क्षमता भी। इनका विस्तार से परीक्षण करना उपयोगी हो सकता है।

विकास को आकार देना

अंत में एक सवाल यह उठता है कि क्या कोएनोफ्लैजिलेट जंतु मॉडल में प्रूफ-रीडर ATD मौजूद होता है और क्या यह इसी तरह काम करता है? इसका जवाब हां है, जैसा कि कुंचा और उनके साथी लिखते हैं: ‘एटीडी एक ऐसा एंज़ाइम है जो केवल जंतुओं में पाया जाता है। … आगे के अध्ययन में यह पता चला है कि ATD की उत्पत्ति लगभग 90 करोड़ साल पहले, कोएनोफ्लैजिलेट्स और जंतुओं के विकास के अलग-अलग दिशा में आगे बढ़ने के पहले, हुई थी। इससे लगता है कि इस एंज़ाइम ने जंतुओं के विकास को आकार देने में मदद की होगी।’ दूसरे शब्दों में कहें तो, ये स्पंज सरीखे एक-कोशिकीय जीव पृथ्वी के सभी जंतुओं के पूर्वज हैं, जिनमें हम मनुष्य भी शामिल हैं। कितना सादगीभरा विचार है!

तो पेड़-पौधों के बारे में क्या कहेंगे? वह एक अलग कहानी है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हमारा शरीर है सूक्ष्मजीवों का बगीचा – कालू राम शर्मा

ब हम स्वच्छता की बात करते हैं तो यही कहा जाता है कि हाथों की उंगलियों, नाखूनों व हाथों की लकीरों में सूक्ष्मजीव होते हैं। स्वच्छता का पैमाना मात्र इन सूक्ष्मजीवों से छुटकारा पाने का होता है। लोगों को लगता है कि सभी सूक्ष्मजीव रोग फैलाते हैं। लेकिन यह पूरी तौर पर सही नहीं है। हमारे आसपास और हमारे शरीर के अंदर व त्वचा पर कईं सूक्ष्मजीव ऐसे होते हैं जो हमारे लिए बेहद ज़रूरी है। बल्कि यह कहा जाए कि हमारी अच्छी सेहत के लिए इनका साथ होना ज़रूरी है, तो गलत न होगा।

हमारे शरीर में बड़ी तादाद में सूक्ष्मजीव बसते हैं। एक अनुमान के मुताबिक इन सूक्ष्मजीवों की संख्या हमारे शरीर की कुल कोशिकाओं से सवा गुना अधिक है। यह दिलचस्प है कि हमारे शरीर में कुल कोशिकाओं में से आधी से ज़्यादा बैक्टीरिया कोशिकाएं हैं।

यह देखा गया है कि 500 से अधिक प्रजातियों के बैक्टीरिया हमारी आंत में पाए जाते हैं। सोचा जा सकता है कि विविधता केवल बाहरी वातावरण में ही नहीं, हमारी आहार नाल में भी है। विभिन्न प्रजातियों के सूक्ष्मजीव जो हमारी आंत में पाए जाते हैं उनके समूह को माइक्रोबायोम कहा जाता है। दिलचस्प यह भी है कि हम जिस भोजन का सेवन करते हैं वह भी हमारी आहार नाल के माइक्रोबायोम को प्रभावित करता है।

विकास के दौरान सूक्ष्मजीवों ने सहभोजी रिश्ता कायम किया। बिना सूक्ष्मजीवों के मानव का अस्तित्व संकट में हो सकता है। इस कहानी में जीवाणुओं ने भी अहम भूमिका अदा की। बायफिडोबैक्टीरिया इनमें से एक है।

जन्म के बाद शिशु जब मां का दूध पीता है तो उसे पचाने वाले बायफिडोबैक्टीरिया आहार नाल में पनपने लगते हैं। ये शर्कराओं को पचाने का लाभदायक काम करते हैं जो शरीर की वृद्धि में सहायक होता है। जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, कुछ बैक्टीरिया भोजन में वनस्पति रेशों को पचाने में भूमिका अदा करते हैं जो हमारी आंत के लिए अहम होते हैं। रेशे हमें अधिक वज़नी होने से बचाते हैं। साथ ही मधुमेह, दिल की बीमारी व कैंसर के खतरों से भी बचाते हैं।

आहार नाल का माइक्रोबायोम रोगों से लड़ने की क्षमता को बढ़ाता है। इतना ही नहीं, नए अध्ययनों में यह बात भी सामने आई है कि आहार नाल का माइक्रोबायोम केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को भी नियंत्रित करता है।

जन्म के पूर्व शिशु की आहार नाल सूक्ष्मजीवों से रहित होती है। सामान्य प्रसव के दौरान शिशु योनि मार्ग से गुज़रते हुए सूक्ष्मजीवों के संपर्क में आता है और मुंह के रास्ते ये उसकी आंत में प्रवेश कर जाते हैं। हालिया शोध बताते हैं कि सिज़ेरियन प्रसव से जन्मे शिशुओं की आहार नाल में सूक्ष्मजीव विविधता सामान्य जन्म लेने वाले शिशुओं से कम होती है। जो बच्चे सामान्य प्रसव (योनि मार्ग से प्रसव) से जन्म लेते हैं उन शिशुओं की आंत में लैक्टोबेसिलस, प्रेवोटेला, बायफिडोबैक्टीरियम, बैक्टेरॉइड्स और एटोपोबियम पाए जाते हैं। ये सूक्ष्मजीव सिज़ेरियन प्रसव से जन्मे शिशुओं में नहीं पाए जाते। सिज़ेरियन प्रसव से जन्मे शिशुओं में मुख्य रूप से क्लॉस्ट्रीडियम डिफिसाइल, .कोलीस्ट्रोप्टोकोकाई जैसे बैक्टीरिया पाए जाते हैं। जैसे-जैसे शिशु बड़ा होने लगता है उसकी आहार नाल के माइक्रोबायोम की विविधता बढ़ती जाती है। यह देखा गया है कि जिनकी आहार नाल में माइक्रोबायोम की विविधता अधिक होती है, वे अधिक स्वस्थ रहते हैं।

बायफिडोबैक्टीरियम अचल किस्म के ग्राम-पाज़िटिव बैक्टीरिया हैं, जिनमें अनॉक्सी श्वसन होता है। सन 1900 के दौरान हेनरी टिसियर ने नजवात शिशु के मल में बायफिडोबैक्टीरिया देखा था। इसके ठीक बाद टिसियर के साथी मेचनीकोव का ध्यान टिसियर द्वारा खोजे गए बैक्टीरिया की ओर गया। मेचनीकोव तब किण्वित दूध पर काम कर रहे थे। मेचनीकोव पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बताया कि दही, छांछ जैसी चीज़ें हमारी सेहत के लिए काफी फायदेमंद हैं। मेचनीकोव ने किण्वित दूध को प्रोबायोटिक कहा। इसका अर्थ है ऐसे खाद्य पदार्थ जिसमें कुछ सूक्ष्मजीव होते हैं जो हमारे शरीर को भोजन पचाने में मदद करते हैं, तंत्रिका तंत्र को मजबूत करते हैं और हमें तंदुरुस्त व दीर्घायु बनाते हैं। इसी शोध के लिए मेचनीकोव को 1908 में नोबल पुरस्कार मिला था।

स्तनपान करने वाले शिशुओं में बायफिडोबैक्टीरिया की किण्वक व अम्लीय प्रकृति और मानव पोषण और पेट के स्वास्थ्य के बीच लाभदायक सम्बंध को काफी पहले पहचान लिया गया था और यह प्रचारित भी खूब हो रहा था। प्रोबायाटिक आहार का जितना महत्व आज है उतना ही तब भी हुआ करता था। हालांकि बायफिडोबैक्टीरिया के साथ ही अन्य स्ट्रेप्टोकोकस, एंटरोकोकस, यीस्ट और अन्य सूक्ष्मजीवों ने भी प्रोबायोटिक के इस्तेमाल की ओर ध्यान खींचा। इसके बाद इस पर व्यापक अध्ययन हुए। न केवल मनुष्यों में बल्कि इसके बेहतर प्रभावों को पालतू पशुओं में भी पहचाना गया और प्रोबायोटिक संस्कृति को अपनाया जाने लगा।

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (एनआईएच) द्वारा 2007 में ह्यूमन माइक्रोबायोम प्रोजेक्ट (एचएमपी) की स्थापना मानव कल्याण के लिए माइक्रोबायोम के प्रभाव का अध्ययन करने और विशेषज्ञता को बढ़ावा देने के मकसद से की गई थी ताकि विशिष्ट बीमारियों में इनकी भूमिका को रेखांकित किया जा सके। परियोजना के पहले चरण में सूक्ष्मजीवों के प्रकार (बैक्टीरिया, फफूंद और वायरस) के संदर्भ में डैटाबेस तैयार किया गया जो शरीर के पांच विशिष्ट हिस्सों पर केंद्रित था – त्वचा, मुखगुहा, श्वसन मार्ग, आहार नाल व मूत्र-जनन मार्ग। परियोजना का लक्ष्य यह समझना था कि शरीर को नुकसान पहुंचाने वाले सूक्ष्मजीवों की जेनेटिक संरचना में बदलाव करके इन्हें कैसे लाभदायक सूक्ष्मजीवों में बदला जा सकता है।

उल्लेखनीय है कि इस परियोजना को भारत में भी प्रारंभ किया जा चुका है। भारतीय लोगों के शरीर के विभिन्न अंगों जैसे त्वचा, लार, रक्त व मल में सूक्ष्मजीवों के वास का अध्ययन किया जा रहा है। यह देशव्यापी अध्ययन है जिसमें केंद्र सरकार ने 150 करोड़ रुपए का निवेश किया है। इस अध्ययन में भारत की 32 जनजातियों को भी शामिल किया गया है। 

इस परियोजना में सूक्ष्मजीव संसार का विश्लेषण करने के लिए मानव जीनोम परियोजना द्वारा विकसित डीएनए सिक्वेंसिंग का इस्तेमाल किया गया है।

दरअसल, मानव एक जीव ही नहीं है बल्कि वह एक पारिस्थितिकी तंत्र भी है। इसमें इन सारे सूक्ष्मजीवों के जीनोम मौजूद हैं जिसे माइक्रोबायोम कहते हैं। ऐसे अनेक काम हैं जो हमारे जीनोम में अंकित नहीं है। इन कार्यों को हम माइक्रोबायोम की मदद से करते हैं। हर सूक्ष्मजीव अपना-अपना काम करता है और पूरे इकोसिस्टम में योगदान देता है। वैसे यह दिलचस्प है कि जो सूक्ष्मजीव हमारी आहार नाल में बसते हैं वे हमारे जीनोम से कुछ जीनों का इस्तेमाल अपनी कार्यप्रणाली के लिए करते हैं। दरअसल, सूक्ष्मजीवों व मानव के बीच का यह रिश्ता साझेदारी व सहयोग का है। दोनों पक्ष एक-दूसरे को लाभ पहुंचाते हैं। जैसे हमारे द्वारा जिस कार्बोहाइड्रेट का पाचन नहीं हो पाता है उन्हें ये सूक्ष्मजीव पचाते हैं या विटामीन बी का संश्लेषण हमारी आंत के बैक्टीरिया ही करते हैं। और आंत में जिस भोजन का पाचन होता है उसका फायदा ये सूक्ष्मजीव भी उठाते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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लड़ते-लड़ते मछलियां जीन्स में तालमेल बैठाती हैं

मुक्केबाज़ी का मुकाबला देखते हुए किसी के मन में यह ख्याल नहीं आता कि इस वक्त लड़ाकों के दिमाग के जीन्स में क्या हो रहा है। लेकिन लड़ाकू मछलियों पर हुए ताज़ा अध्ययन से पता चला है कि मछलियों की कुश्ती के वक्त उनके मस्तिष्क के जीन्स तालमेल से काम करना शुरू और बंद करते हैं। हालांकि यह अभी स्पष्ट नहीं है कि ये जीन करते क्या हैं या वे लड़ाई को कैसे प्रभावित करते हैं, लेकिन संभावना है कि मनुष्यों में भी इसी तरह के बदलाव होते होंगे।

मोबब्बत हो या जंग, मनुष्यों सहित सभी जानवरों को हर परिस्थिति में अच्छा प्रदर्शन करना होता है लेकिन वे ऐसा कैसे कर पाते हैं इसका आणविक कारण अब तक एक रहस्य बना हुआ है। जापान के कितासातो विश्वविद्यालय के आणविक जीव विज्ञानी नोरिहिरो ओकाडा को टीवी पर सियामीज़ लड़ाकू मछलियों (बेट्टा स्प्लेंडेंस) की लड़ाई देखकर लगा कि ये मछलियां इस रहस्य को सुलझाने में मदद कर सकती हैं। मूलत: थाईलैंड में पाई जाने वाली, गोल्ड फिश के आकार की इन मछलियां के पंख और पूंछ बहुत बड़े और चटख रंग के होते हैं। इन्हें खासकर एक्वेरियम में रखने के लिए पाला जाता है लेकिन इनके लड़ाकू स्वभाव के कारण एक्वेरियम में इन्हें अलग-अलग रखने की सलाह दी जाती है। ये मछलियां अपना इलाका बनाती हैं, और इनकी लड़ाई 1 घंटे से भी अधिक समय तक चल सकती है जिसमें ये एक-दूसरे पर वार करती हैं, काटती हैं और पीछा करती हैं। यहां तक कि हमारे पंजा लड़ाने की तरह ये जबड़ा लड़ाती हैं।

ओकाडा की टीम ने मछलियों की 17 विभिन्न कुश्तियों के लगभग 12 घंटे के वीडियो बनाकर विश्लेषण किया कि हर लड़ाई में क्या-क्या हुआ और कब हुआ। प्लॉस जेनेटिक्स पत्रिका में वे बताते हैं कि लड़ाई जितनी अधिक लंबी होती है, मछलियों के व्यवहार में आपस में उतना ही अधिक तालमेल होता जाता है – उनके घूमने, वार करने और काटते समय भी। तालमेल की हद देखिए कि लगभग 80 मिनट की लड़ाई में हर दांव के बीच उन्होंने ‘परस्पर सहमति से’ विराम लिया। जब मछलियां एक-दूसरे से जबड़ा लड़ाती हैं तब मुकाबला 5 से 10 मिनट के लिए गहराता है, इस दांव में सांस रोकना पड़ता है और इसी से तय होता है कि कौन लंबे समय तक जबड़े का दांव जारी रख सकता है। 5-10 मिनट बाद ये मछलियां सांस लेने के लिए एक-दूसरे से अलग होती हैं और फिर भिड़ जाती हैं।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि व्यवहार में यह तालमेल आणविक स्तर पर भी होता है। शोधकर्ताओं ने 20 मिनट और 60 मिनट में पूरी होने वाली 5-5 कुश्तियों में, लड़ाई के पहले और बाद में देखा कि उस वक्त मछलियों के मस्तिष्क के कौन से जीन्स सक्रिय थे। टीम ने पाया कि 20 मिनट वाली लड़ाई में हर मछली में कुछ समान जीन्स, ‘इंटरमीडिएट एर्ली जीन’ ने काम करना शुरू किया था। ये जीन्स अन्य जीन्स को सक्रिय करने का काम करते हैं। 60 मिनट वाली लड़ाई में इन जीन्स के अलावा सैकड़ों अन्य जीन्स में समन्वय देखा गया। मछली के हर जोड़े में प्रत्येक जीन के सक्रिय होने का एक खास समय था जिससे लगता है कि मछली का परस्पर संपर्क इन परिवर्तनों का समन्वय करता है। अन्य अध्ययनों के अनुसार स्तनधारियों का परस्पर संपर्क मस्तिष्क गतिविधि में तालमेल बैठाता है। यह शोध इस बात को एक नया आयाम देता है।(स्रोत फीचर्स)

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डायनासौर के अंडों का रहस्य सुलझा

पंद्रह साल पहले अमेरिकी प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय के जीवाश्म विज्ञानी मार्क नॉरेल को दक्षिणी मंगोलिया में प्रोटोसेराटॉप्स डायनासौर के कम से कम एक दर्जन भ्रूण फ्रोज़न अवस्था में मिले थे। लेकिन उनमें कुछ तो अजीब बात थी। ऐसा लगता था जैसे नन्हे डायनासौर अदृश्य अंडे के अंदर गुड़ी-मुड़ी होकर पड़े हैं। हर नन्हे डायनासौर के कंकाल के आसपास की चट्टान पर एक रहस्यमयी सफेद वलय थी। अब इतने समय के बाद नॉरेल और उनके साथियों ने इन वलय के रहस्य को सुलझा लिया है। ये वलय डायनासौर के अंडों की मुलायम खोल थीं।

इस रहस्य को सुलझाने के लिए नॉरेल और येल विश्वविद्यालय की आणविक पुराजीव विज्ञानी जैस्मिना वीमन ने मंगोलिया से प्राप्त 7.5 करोड़ साल पुराने प्रोटोसेराटॉप्स डायनासौर के जीवाश्मित अंडों के दो समूहों और 21.5 करोड़ वर्ष पुराने मुसासौरस के अंडों के एक समूह का एक नई तकनीक की मदद से विश्लेषण किया। उन्होंने अंडों को लेज़र प्रकाश में रखा और देखा कि लेज़र प्रकाश अंडों की सतह से टकराने पर कैसे बदलता है। इससे अंडों के खोल की रासायनिक संरचना के बारे में पता चला। यह तो हम जानते हैं कि आधुनिक मुलायम खोल वाले अंडों की आणविक संरचना सख्त खोल वाले अंडों की आणविक संरचना से अलग होती हैं। विश्लेषण में पता चला कि प्रोटोसेराटॉप्स और मुसासौरस, दोनों के अंडे के चारों ओर की वलय की संरचना मुलायम खोल वाले अंडों के समान थी।

डायनासौर के अस्तित्व के शुरुआती दौर में मुसासौरस रहते थे इसलिए शोधकर्ताओं का अनुमान है कि शुरुआती डायनासौर मुलायम खोल वाले अंडे देते होंगे। लेकिन डायनासौर के अस्तित्व के अंतिम दौर यानी 6.6 करोड़ वर्ष पूर्व जीवित रहे प्रोटोसेराटॉप्स के घोंसले से पता चलता है कि इस समय तक भी कुछ प्रजातियां मुलायम खोल वाले अंडे देती थीं, जबकि डायनासौर की अन्य प्रजातियां सख्त खोल वाले अंडे देने के लिए विकसित हो चुकी थीं।

संभवत: मुलायम खोल वाले अंडे देने वाले डायनासौर अंडों को ज़मीन में गाड़ते होंगे ताकि जब भारी-भरकम मां इन नाज़ुक अंडों पर बैठें तो वे दब कर टूट ना जाएं। ज़मीन में गाड़ने से अंडे सूखने से भी बचेंगे। अंडों को मादा डायनासौर द्वारा जमीन में गाड़ने से अंडों को कम गर्मी मिलती होगी जिससे उनका विकास धीमी गति से होता होगा। इसके चलते अंडों से निकलने वाले बच्चे ज़्यादा विकसित अवस्था में होते होंगे। अत: पालकों को नवजात की कम देखभाल करना पड़ती होगी। पूर्व में हुए अध्ययन बताते हैं कि डायनासौर के करीबी पंखों वाले सरीसृप टेरोसौर के शिशु अंडों से निकलने के तुरंत बाद उड़ने में सक्षम होते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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बकरियों का पालतू गुण

करियां सख्तजान होती हैं। इन्होंने कोलंबस के साथ अटलांटिक महासागर की लंबी यात्राएं कीं और मेफ्लावर तीर्थ यात्रियों के साथ रहीं – इस दौरान सूखे और परजीवियों का सामना किया। हाल ही में एक शोध ने इनकी सहनशीलता की उत्पत्ति का खुलासा किया है। प्राचीन समय में कुछ हेराफेरी के ज़रिए इस पालतू प्रजाति (Capra aegagrushircus) में जंगली बकरी से एक जीन आया जो इसे कृमि संक्रमण से बचाता है। अन्य जीन्स के साथ जुड़कर इस जीन ने बकरी को सबसे पहला पालतू जानवर बनाने में मदद की। स्मिथसोनियन संस्थान के प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय में मानव विज्ञानी पुरातत्वविद मेलिंडा ज़ेडर का कहना है कि इस खोज से पालतूकरण के शुरुआती दिनों में जंगली प्रजातियों के साथ परस्पर प्रजनन का महत्व स्पष्ट होता है।

कई शोधकर्ता मानते हैं कि बकरियां प्रथम पालतू पशु हैं। इन्हें लगभग 11 हज़ार साल पहले फर्टाइल क्रीसेंट में पालतू बनाया गया था। माना जाता है कि तुर्की और ईरान में मनुष्य ने सबसे पहले पालतू बकरियों के जंगली वंशज बेजोर को बाड़ों में पालना शुरू किया था। लेकिन तब से लेकर अब तक क्या हुआ यह एक रहस्य ही रहा है।

नॉर्थवेस्ट ए एंड एफ युनिवर्सिटी के पशु आनुवंशिकीविद ज़ियांग यू और एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने दुनिया भर की 88 पालतू बकरियों, 6 जंगली बकरी प्रजातियों और 4 बकरी जीवाश्मों के जीनोम की तुलना 131 अन्य पालतू, जंगली और प्राचीन बकरियों की पहले से उपलब्ध जीनोमिक जानकारी के साथ की। वे यह देखना चाहते थे जीनोम के कौन-से महत्वपूर्ण हिस्से से बकरी का पालतू बनना तय हुआ था।

ज़ियांग और उनके साथियों ने साइंस एडवांसेस में बताया है कि विशेष रूप से एक जीन MU6 महत्वपूर्ण है। आज लगभग हर पालतू बकरी में इस जीन का संस्करण मौजूद है। यह वेस्ट कॉकेशियन टुर नामक जंगली बकरी से आया है। संभवत: यह जीन संस्करण संभवत: परस्पर प्रजनन के ज़रिए 7200 साल पहले पालतू बकरी में पहुंचा था।

MU6 जीन आंत के अस्तर के एक प्रोटीन का कोड है। अन्य जंतुओं में यह प्रतिरक्षा तंत्र का हिस्सा है। यह देखने के लिए कि यह परजीवियों से रक्षा कर सकता है या नहीं, शोधकर्ताओं ने जंगली टुर के जीन संस्करण वाली और इसके अन्य संस्करणों वाली पालतू बकरियों के मल का विश्लेषण किया। देखा गया कि टुर संस्करण वाली बकरियों के मल में कृमियों के अंडों की संख्या बहुत कम थी। अर्थात जीन का टुर संस्करण कुछ सुरक्षा प्रदान करता है।

ज़ियांग कहते हैं कि यह बात समझ में आती है क्योंकि टुर काले समुद्र के तट पर रहती थी जहां का मौसम उमस वाला था, यहां परजीवियों के संक्रमण का खतरा अन्य जगहों की बकरियों से ज़्यादा था। आजकल की बकरियों का मूल स्थान दक्षिण-पश्चिम एशिया का सूखा क्षेत्र था।

कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि पालतू बनाने के लिए सबसे मूल्यवान कारक दूध का उत्पादन या शारीरिक बनावट होते हैं। लेकिन इस अध्ययन में यह पता चलता है कि शायद ज़्यादा महत्वपूर्ण यह था कि पालतू जानवर भीड़भाड़ वाली जगहों में जीवित रह सकें जहां पर संक्रमण का खतरा ज़्यादा होता है। ज़ियांग का कहना है कि स्वस्थ मवेशी पाने की इच्छा और टुर के इस जीन संस्करण के फायदों के चलते यह 1000 वर्षों में ही 60 प्रतिशत पालतू बकरियों में फैल गया।

टीम को पालतू बकरियों में कई और जीन्स मिले हैं जिनका सम्बंध शायद बकरियों के दब्बू व्यवहार से हो लेकिन और शोध के बगैर कुछ कहा नहीं जा सकता।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सांपों की धींगामुश्ती: प्रणय या युद्ध – कालू राम शर्मा

स गर्मी का मौसम जब उतार पर होता है तब अक्सर दो सांपों का आपस में लिपटना हर किसी का ध्यान आकर्षित करता है। लगता है, दोनों लिपटते हुए नृत्य कर रहे हों।

सांपों द्वारा निर्मित ये दृश्य अक्सर अखबारों की सुर्खियां भी बनते हैं। एक अखबार के ब्यूरो चीफ ने मुझसे सांपों के बीच चलने वाली इस दिलचस्प लीला के बारे जानना चाहा। उन्होंने यह भी पूछा कि क्या यह सच है कि नर और मादा सांपों के बीच यह प्रणय लीला है? उनके पास आपस में लिपटे हुए दो विशाल सांपों का चित्र छपने के लिए आया था। वे उस चित्र का चंद पंक्तियों में कैप्शन देना चाह रहे थे। आम तौर पर इस घटना को नर और मादा का समागम समझा जाता है जो वाकई में मिथ्या है। यह तो दो प्रतिद्वंदी नर सांपों के बीच युद्ध है। दरअसल, धामन नामक सांप की प्रजाति (Ptyas mucosa) के नर सदस्यों के बीच यह दृश्य देखा जाना आम बात है।

धामन आम तौर पर खेतों, जंगलों, झाड़ियों में बहुतायत से पाया जाता है और चूहे खाता है। इसकी अधिकतम लंबाई 8 फीट तक हो सकती है। यह एक अत्यंत सक्रिय सांप है और प्रजनन काल में इसकी सक्रियता का बढ़ना स्वाभाविक ही है।

इस प्रकार के दृश्य अक्सर गर्मी के उतार और मानसून की बौछार के साथ शहरों व कस्बों के खुले मैदानों में अधिक दिखने लगते हैं। इसमें दो सांप रस्सी में एंठन की तरह लिपट जाते हैं। दोनों का सिर वाला हिस्सा ऊपर की ओर उठा होता है। दोनों एक दूसरे को पटखनी देने की जी-तोड़ कोशिश करते हैं। इस युद्ध में वे एक दूसरे से लिपटते हैं और अपने थूथन से एक दूसरे पर वार करते हैं। युद्ध लगभग घंटे भर तक चलता रहता है जब तक कि एक नर दूसरे को पटखनी न दे दे। इस युद्ध में जो सांप पस्त होकर ज़मीन पर गिर जाता है वह समझो हार चुका होता है। युद्ध में जीतने वाला नर सांप फिर आसपास मौजूद मादा के साथ समागम करता है। इसके बाद मादा धामन किसी सुरक्षित जगह पर 6 से 15 की संख्या में अंडे देती है।

सांपों में इस युद्ध को लेकर अधिक अध्ययन नहीं हुए हैं। अमेरिका में सांपों की कई प्रजातियों में यह व्यवहार देखने को मिलता है जिनमें इंडिगो स्नेक, रेटल स्नेक, और कॉटनमाउथ सांप प्रमुख हैं। इन प्रजातियों में मादाओं की तुलना में नर बड़े होते हैं। दो नरों की लड़ाई में वे ज़मीन के लंबवत खड़े होते हैं। इस दौरान सांप एक दूसरे को काटते नहीं।

त्रुटिवश धामन सांप में इस घटना को नर और मादा के समागम के रूप में समझा जाता है। लेकिन समागम की प्रक्रिया में नर और मादा इस तरह से आपस में खड़े होकर लिपटते नहीं हैं। नर सांप मादा के शरीर पर रेंगता है। कभी-कभी नर सांप मादा के सिर को दांतों से काटता है। माना जाता है कि यह काटना महज़ मादा के प्रति प्यार दर्शाना हो सकता है। सर्प विज्ञानी युद्ध और प्रणय की इन दोनों घटनाओं की बारीकियों को समझने की कोशिश कर रहे हैं।

प्रजनन काल में नर सांपों के बीच शक्ति प्रदर्शन के लिए होने वाला युद्ध सर्प के दो परिवारों बोइडी व कोल्यूब्राोइडी की लगभग 70 प्रजातियों में देखा गया है। शोधकर्ताओं को क्रिटेशियस काल के बोइडी व कोल्यूब्राोइडी के साझा पूर्वजों में ऐसे व्यवहार के प्रमाण मिले हैं। हालांकि इस दिशा में अभी और सुराग हाथ लगना बाकी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चमगादड़ हमारे दुश्मन नहीं हैं

रावनी फिल्मों से लेकर सांस्कृतिक चित्रणों में चमगादड़ को हमेशा से एक निराधार भय से जोड़कर दिखाया गया है। और अब कोविड-19 महामारी का मुख्य रुाोत होने के कारण चमगादड़ और भी बदनाम हुए हैं। ऐसे में हो सकता है कि चमगादड़ों को खत्म करने के प्रयास किए जाएं। तब चमगादड़ों का संरक्षण करना कठिन हो जाएगा, साथ ही उनसे मिलने वाले महत्वपूर्ण लाभों की रक्षा करना भी मुश्किल हो जाएगा। संभावना तो यह भी है कि चमगादड़ों के खात्मे से नई परेशानियों खड़ी हो जाएं।

वास्तव में चमगादड़ों की कुछ रोगाणुओं के प्रति बहुत आक्रामक प्रतिरक्षा प्रणाली होती है, जिसकी वजह से वायरस और भी घातक रूप में विकसित हो जाते हैं। ऐसे में मनुष्यों में यदि इस तरह का कोई वायरस प्रवेश कर जाता है तो यह जानलेवा बन सकता है।

लेकिन यहां चमगादड़ों से मिलने वाले लाभों पर बात करना भी आवश्यक है। चमगादड़ हमारे जंगलों को पुनर्जीवित करते हैं और उर्वरक प्रदान करते हैं। ये 300 से अधिक प्रजातियों की फसलों का परागण करते हैं। ककाओ, कपास, मकई और अन्य पौधों को कीटों से बचाते हैं। कम विकसित देशों में कीटों का सफाया करते हैं। जब अमेरिका के कृषि क्षेत्रों में कीटों का सफाया करने वाले चमगादड़ों की संख्या में कमी हुई थी तब कृषि क्षेत्रों में वाइट-नोज़ सिंड्रोम से शिशु रुग्णता और मृत्यु दर में तेज़ी से वृद्धि हुई थी क्योंकि कीटों से निपटने के लिए हानिकारक कीटनाशकों का छिड़काव बढ़ा था। चमगादड़ मलेरिया फैलाने वाले कीटनाशक प्रतिरोधी मच्छरों का भी भक्षण करते हैं।

भविष्य में सार्स और एबोला के जोखिम को कम करने के लिए चमगादड़ों को नुकसान पहुंचने से रोगों का खतरा बढ़ सकता है। पूर्व में इस तरह के असफल प्रयास पेरू, युगांडा, मिस्र, ऑस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया में किए जा चुके हैं।          

लेकिन अभी भी यह सवाल बना हुआ है कि आने वाली महामारियों को कैसे रोका जा सकता है। चमगादड़ों के संरक्षण की आवश्यकता है, साथ ही उनके क्षेत्रों में मानव गतिविधियों को कम करके संक्रमण से बचा जा सकता है। उदाहरण के लिए जंगलों के कम होने से फलभक्षी चमगादड़ों का प्रवास बांग्लादेश के खजूर के पेड़ों पर हुआ और देखते ही देखते वहां निपाह वायरस का संक्रमण शुरू हो गया। लेकिन अपने मूल निवास में रहते हुए चमगादड़ों द्वारा पालतू जानवरों में वायरस के फैलने की संभावना न के बराबर है।

ऐसे में बड़े पैमाने पर उनके प्राकृतिक वास की बहाली से हम चमगादड़ों का संपर्क मनुष्यों और पालतू जानवरों से कम कर सकते हैं। इसके अलावा हम कृत्रिम आवास और देशी फलों के वृक्षों को विशेष रूप से उनके लिए लगा सकते हैं। इसके साथ ही सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके व्यापार को सीमित या समाप्त करने पर विचार करना चाहिए। यह मनुष्यों से चमगादड़ों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संपर्क को रोकने का सबसे आसान तरीका है। 

सौभाग्य से हमारे पास इस तरह के वायरसों से निपटने के कुछ नए तरीके सामने आ रहे हैं। आधुनिक जीनोम अनुक्रमण विधियों से चमगादड़-वायरस सम्बंध के रहस्यमयी क्षेत्र में कुछ रास्ता साफ हुआ। हालांकि टीकों और आधुनिक तकनीकों पर काम करने के साथ यह भी आवश्यक है कि हम चमगादड़ों को संरक्षित करने, उनकी उपस्थिति को स्वीकार करने और उनसे मिलने वाले लाभों के संदेश को लोगों तक पहुंचाएं ताकि स्वास्थ्यप्रद भविष्य संभव हो सके।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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समय से पहले फूल खिला देते हैं भूखे भंवरे

फास्ट फूड हमारी भूख शांत करने में मदद करता है। ऐसा ही जुगाड़ भंवरे भी करते हैं। जब मादा भंवरे शीतनिद्रा (हाइबरनेशन) से जागते हैं तो उन्हें अपनी नई कॉलोनी बनाने के लिए ढेर सारे पराग और मकरंद की ज़रूरत होती है। यदि भंवरे समय से पूर्व शीतनिद्रा से जाग जाते हैं तो पर्याप्त मात्रा में पराग जमा करने के लिए आसपास पर्याप्त फूल नहीं खिले होते हैं। साइंस पत्रिका में प्रकाशित शोध बताता है कि भंवरों ने इस समस्या का विचित्र समाधान खोजा है – वे फूलों को जल्दी खिलाने के लिए पौधों की पत्तियों में छेद कर देते हैं और फूल वास्तव में निर्धारित समय से कुछ सप्ताह पहले ही खिल उठते हैं।

ईटीएच ज़्यूरिच के शोधकर्ताओं ने भंवरों में पौधों की गंध के प्रति प्रतिक्रिया सम्बंधी एक अध्ययन के दौरान गौर किया था कि भंवरे पौधों की पत्तियों पर अर्ध-चंद्राकार छेद कर रहे हैं। पहले तो शोधकर्ताओं को लगा कि वे पत्तियों का रस चूस रहे हैं। लेकिन भंवरे पत्तियों पर इतनी देर नहीं ठहरे कि पर्याप्त रस ले सकें और ना ही वे पत्तियों का कोई हिस्सा अपनी कॉलोनी में ले गए।

विचित्र अवलोकन यह था कि जिन भंवरों की कॉलोनियों में कम भोजन उपलब्ध था उन्होंने पत्तियों में अधिक छेद किए थे। इसके आधार पर शोधकर्ता सोचने लगे कि कहीं ये छेद फूलों को जल्दी खिलाने के लिए तो नहीं किए जा रहे? यह तो पहले से पता है कि कुछ पौधों में क्षति या तनाव के चलते फूल जल्दी खिलते हैं। लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा था कोई परागणकर्ता इस तरह से क्षति पहुंचाएगा।

माजरे को समझने के लिए वैकासिक जीव विज्ञानी मार्क मेशर और उनके साथियों ने ग्रीनहाउस में प्रयोग किया। पहले उन्होंने 3 तीन दिन से पराग से वंचित भंवरों को राई (ब्रौसिका निग्रा) के दस पौधों पर छोड़ा। उन्होंने पाया कि भवंरों ने हर पौधे में 5-10 छेद किए और इन पौधों में औसतन 17 दिन बाद फूल खिल गए जबकि जो पौधे भंवरों के संपर्क में नहीं आए थे उनमें औसतन 33 दिन बाद फूल खिले। टमाटर के पौधों पर दोहराने पर उनमें फूल सामान्य से 30 दिन पहले खिल गए।

इसी कड़ी के अगले अध्ययन के आधार पर लगता है कि भूख भवरों को पत्तियों में छेद करने को प्रेरित करती है क्योंकि पराग ले चुके भंवरों की तुलना में पराग से वंचित भंवरों ने पत्तियों में चार गुना अधिक छेद किए। और वसंत की शुरुआत में फूलों के खिलने के पहले, भंवरों ने पत्तियों में अधिक छेद किए लेकिन जैसे-जैसे वसंत आगे बढ़ा और अधिक पराग मिलने लगा तो भंवरों ने पत्तियों में कम छेद किए। यह विचित्र व्यवहार भंवरों की दो जंगली प्रजातियों में देखा गया।

क्या पत्तियों को होने वाली क्षति-मात्र ही पौधों को जल्दी पुष्पन के लिए प्रेरित करती है? यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने एक और अध्ययन किया जिसमें उन्होंने पत्तियों में हू-ब-हू वैसे ही छेद बनाए जैसे भंवरे बनाते हैं। उन्होंने पाया कि सामान्य पौधों की तुलना में इन पौधों में जल्दी फूल आ गए, लेकिन भंवरों द्वारा छेद किए गए पौधों की तुलना में देर से फूल आए। इससे लगता है कि भंवरों की लार में ऐसे रसायन होते होंगे जो पौधे को जल्दी पुष्पन के लिए प्रेरित करते हैं।

बहरहाल शोधकर्ता इस बात पर हैरान हैं कि भंवरों में यह व्यवहार कैसे विकसित हुआ होगा। ऐसा लगता नहीं कि भंवरे यह युक्ति सीखते होंगे क्योंकि उनका कुल जीवन बहुत छोटा होता है। और यदि यह जन्मजात है तो समझना मुश्किल है कि उनमें यह शुरू कैसे हुआ। (स्रोत फीचर्स)

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किशोर कुत्तों का व्यवहार मानव किशोर जैसा

कुछ लोगों का अनुभव है कि जब उनके कुत्ते किशोरावस्था में पहुंचते हैं तो वे अचानक उनके हुक्म मानना बंद कर देते हैं। यह भी कहा जाता है कि किशोर उम्र के कुत्तों का व्यवहार शिशु, वयस्क या वृद्ध कुत्तों से भिन्न होता है। और अब बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि मानव किशोरों की तरह कुत्ते भी किशोरावस्था के दौरान अति संवेदनशील होते हैं।

न्यू कासल युनिवर्सिटी की जीव व्यवहार विज्ञानी लुसी एशर बताती हैं कि मनुष्यों के साथ कुत्तों के पिल्लों का लगाव बिल्कुल मानव शिशु जैसा होता है। लेकिन अधिकांश मालिकों को लगता है कि कुत्तों की उम्र 8 महीने की (श्वान-किशोरावस्था) होने पर उनके कुत्तों का व्यवहार बदल जाता है। मानव किशोरों की तरह किशोर कुत्ते भी अपने मालिकों की उपेक्षा और अवज्ञा करने लगते हैं। इस व्यवहार पर मालिक तरह-तरह की प्रतिक्रिया देते हैं: कुछ उन्हें सज़ा देते हैं, कुछ उपेक्षा करते हैं, तो कुछ उन्हें दूर भेज देते हैं।

किशोरावस्था कैसे कुत्तों का व्यवहार बदलती है, यह जानने के लिए एशर और उनकी टीम ने 70 कुत्तों पर नज़र रखी। अध्ययनकर्ताओं ने उनके मालिकों को उनके साथ लगाव और ध्यान खींचने वाले व्यवहार (जैसे मालिक से सटकर बैठना या किसी व्यक्ति के प्रति विशेष लगाव) और उपेक्षित होने पर व्यवहार (जैसे पीछे छूट जाने पर सिहरन या कंपकंपी) के आधार पर अंक देने को कहा। ये दोनों तरह के व्यवहार चिंता और भय के द्योतक हैं।जिन पिल्लों को दोनों में से किसी भी एक पैमाने पर अधिक अंक मिले थे उनकी किशोरावस्था भी जल्दी शुरू हुई (लगभग 5 माह की उम्र में) जबकि कम अंक वाले पिल्लों की किशोरावस्था 8 माह की उम्र यानी देर से शुरू हुई। यह देखा गया है कि जिन लड़कियों के अपने अभिभावकों से रिश्ते अच्छे नहीं होते उनकी किशोरावस्था जल्दी शुरू हो जाती है। मनुष्यों की तरह, जिन कुत्तों के उन्हें पालने वालों के साथ सम्बंध अच्छे नहीं थे उनके प्रजनन चक्र में अंतर आया। यह भी देखा गया कि जो किशोर कुत्ते अपने पालकों के विछोह से दुखी थे उन्होंने अपने पालकों की बात नहीं मानी जबकि अन्य व्यक्ति की बात मानी। यह व्यवहार मानव किशोरों की असुरक्षा की भावना से मेल खाता है।

एक अन्य अध्ययन में अध्ययनकर्ताओं ने अन्य 69 गाइड कुत्तों का 5 महीने और 8 महीने की उम्र के दौरान अध्ययन किया। उन्होंने उनके मालिक और एक अजनबी को उन्हें ‘बैठने’ का आदेश देने को कहा। सभी पिल्ले जब पूर्व-किशोरावस्था में थे, तब वे दोनों व्यक्तियों के आदेश पर तुरंत बैठ गए। लेकिन जब यही पिल्ले किशोरावस्था में पहुंचे तो ‘बार-बार’ उन्होंने अपने पालक का आदेश मानने से इन्कार किया जबकि अनजान व्यक्ति की बात मान ली। जिन कुत्तों का अपने मालिकों से सुरक्षात्मक रूप से लगाव नहीं था उन्होंने अजनबियों के आदेश अधिक माने। यह व्यवहार भी मानव किशोरों की याद दिलाता है।

285 गाइड कुत्तों पर किए गए एक अध्ययन के डैटा के आधार पर शोधकर्ताओं का कहना है कि अन्य उम्र की तुलना में किशोर कुत्तों को ‘प्रशिक्षित’ करना अधिक मुश्किल होता है।

टीम का मानना है कि किशोर कुत्तों और मानव किशोरों के व्यवहार में समानता को देखते हुए मनुष्यों में किशोरावस्था के अध्ययन के लिए कुत्ते अच्छे मॉडल हो सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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