एक नए विषय का निर्माण

जयश्री रामदास

मेरा जन्म 1954 में मुंबई (mumbai) में हुआ और सबसे पहले दिल्ली के सेंट थॉमस स्कूल(St. Thomas School) में पढ़ी। मेरी सबसे प्यारी याद वह है जब मॉन्टेसरी स्कूल (montessori school) में चमचमाते सुनहरे मोतियों ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। ये मोती तार पर पिरोए गए थे जो दस-दस मोतियों की पंक्तियों, दस-दस की पंक्तियों से बने सौ के एक वर्ग, और हज़ार मोतियों के एक चमकते हुए घन के रूप में थे। यह मेरा सौभाग्य था क्योंकि भारतीय स्कूलों (Indian Schools) में हाथ से खोजबीन करने के अनुभव बहुत दुर्लभ होते हैं। हो सकता है नफासत से तैयार किए गए उपकरण काफी महंगे होते हैं  लेकिन स्थानीय स्तर पर सरल संसाधनों तक को छोड़कर रट्टा लगाने (rote learning) पर ज़ोर दिया जाता था।

मेरी दूसरी खुशनुमा याद अंग्रेज़ी (English) की हमारी अध्यापिका मिस विल्सन की है, जो हमें कविताएं (rhymes) और तुकबंदियां (limericks) लिखने को प्रेरित करती थीं। हमारी वार्षिक परीक्षा में एक लिमरिक तैयार करना था, जो मुझे बहुत मज़ेदार लगा। घर पर हम मराठी बोलते थे, और मेरी मां ने मुझे बोलचाल की भाषा और मज़ेदार मुहावरों से प्रेम विरासत में दिया था। ये सारी बातें बाद में मुझे प्राथमिक विज्ञान शिक्षण (Primary science education) में बहुत काम आईं।

सातवीं कक्षा मैंने बगदाद(bagdad) के अमेरिकन स्कूल(American school) से की। मेरे पिता, जो एक दूरसंचार इंजीनियर (telecommunication engineer) थे, को यू.एन. के असाइनमेंट पर नियुक्त किया गया था। मेरे माता-पिता का मानना था कि इस स्कूल ने पढ़ाई में मेरी रुचि जगाई, लेकिन मुझे यह साल किशोरावस्था (Adolescence) के गहरे तनाव और चिंता से भरा लगा। वहां शारीरिक रूप से मज़बूत, यौन सचेत (sexually aware) और नस्लीय रूप से आत्मविश्वासी (racially confident) बच्चों के बीच, मुझे केवल साप्ताहिक मेंटल मैथ (mental maths) प्रतियोगिता के दौरान अच्छा महसूस होता था, जब सभी छात्र-छात्राएं मुझे अपनी टीम में शामिल करना चाहते थे। हमारे विज्ञान और गणित के शिक्षक, मिस्टर बर्न्ट, हमसे कई प्रोजेक्ट कार्य (project work) करवाते थे, जिनका मैंने खूब आनंद लिया।

छह-दिवसीय अरब-इस्राइल युद्ध (Six-day Arab Israel war) के बाद जब अमेरिकन स्कूल बंद हो गया, तब मेरी मां मुझे वापस लाईं और पुणे के सेंट हेलेना बोर्डिंग स्कूल (St. Helena boarding school) में दाखिला दिलाया। यहां मुझे विज्ञान और गणित के अच्छे शिक्षक के रूप में मिस जोसेफ और मिस्टर जोग मिले, और मिली ग्रेगरी, धोंड और इंगले द्वारा लिखित भौतिकी की एक दिलचस्प किताब। यहां सीखने का तरीका केवल एक पाठ्यपुस्तक पढ़ने पर आधारित था, कुछ दुर्लभ प्रदर्शनों (rare demonstrations) को छोड़कर। मुझे एक अद्भुत डेमो याद है, जिसमें थोड़े से पानी को दस-लीटर के एक खाली कैरोसीन कैन (kerosene) में उबालने के बाद, ढक्कन लगाकर ठंडा किया गया, और वह ज़ोरदार आवाज़ के साथ सिकुड़कर ढेर हो गया।

मुझे भौतिकी (Physics) बहुत पसंद था ही, साथ ही मनोविज्ञान ने भी मुझे काफी आकर्षित किया। इसका एक कारण मेरी बुआ थीं, जो सामाजिक कार्य (social work) में लगी थीं। स्कूल पूरा करने के बाद मैंने विज्ञान (science) और कला(arts) दोनों में से किसी एक को चुनने पर विचार किया और अंत में मैंने पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज (Fergusson College) में विज्ञान को चुना। हालांकि जीव विज्ञान (biology) मेरे लिए त्रासदायक रहा, लेकिन मिस्टर इनामदार द्वारा पढ़ाई गई सॉलिड ज्यामिति (solid geometry) का मैंने खूब आनंद लिया। मिस्टर इनामदार काफी अस्त-व्यस्त थे लेकिन रैंगलर महाजनी द्वारा लिखित किताब से उनका पढ़ाना काफी मज़ेदार था। रसायनशास्त्र के शिक्षक मिस्टर पाठक ने एक बार यादगार होमवर्क दिया था, जिसमें कुछ लीनियर हाइड्रोकार्बन (linear hydrocarbons) की रचनाएं बनानी थीं, और उन्होंने उस सूची में C6H6 का सूत्र घुसा दिया था। मुझे एरोमेटिक यौगिकों के बारे में जानकारी नहीं थी, लेकिन बेंज़ीन की संरचना (benzene structure) का अनुमान लगाने में जो खुशी मिली, वह वर्षों तक याद रही।

आईआईटी कानपुर (IIT Kanpur) में प्रोफेसर ए. पी. शुक्ला, एच. एस. मणि और अन्य शिक्षकों ने हमें बेहतरीन ढंग से भौतिकी पढ़ाई, लेकिन उस दौरान मुझे लगा कि मैं अपनी क्षमता से भी अधिक तेज़ी से आगे बढ़ रही हूं। एम.एससी. के बाद की गर्मियों में मैंने बर्कले सीरीज़ की पर्सेल लिखित ऑन इलेक्ट्रिसिटी एंड मैग्नेटिज़्म (Electricity and Magnetism) को आराम से पढ़कर इस कमी को पूरा किया। कॉलेज में मैं पाठ्यपुस्तकों को आलोचनात्मक दृष्टि (critical analysis) से देखती और अपने दोस्तों से कहती कि एक दिन मैं इससे बेहतर किताबें लिखूंगी। मेरी विज्ञान, मनोविज्ञान और शिक्षण पद्धति में रुचि तब पूरी तरह एक साथ जुड़ीं जब 1976 में मैंने होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन, टी.आई.एफ.आर.(TIFR) जॉइन किया।

चूंकि मेरा शोध प्रबंध (थीसिस) संभवतः भारत में विज्ञान शिक्षा में सबसे पहला था, इसलिए मुझे इस क्षेत्र को परिभाषित करने की धीमी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा। यह कार्य मुझे उपलब्ध मुद्रित सामग्री के आधार पर ही करना पड़ा। लेकिन मैं खुद को सौभाग्यशाली महसूस करती हूं कि मैं टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में चल रहे अनुसंधानों से घिरे होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन (H.B.C.S.E.) में रही जहां ऐसे संसाधनों तक पहुंच मिली जो देश के अन्य स्थानों पर मिलना मुश्किल था। अंतर्राष्ट्रीय शोध प्रवृत्तियों से अलग रहने के कारण मैं अपनी स्वयं की रुचियों के अनुसार काम करने के लिए स्वतंत्र थी।

H.B.C.S.E. ने मुझे स्कूल विज्ञान (school science) को दो तरह से देखने का मौका दिया – एक ऊपर से राज्य-स्तरीय सर्वेक्षण (state level survey) के माध्यम से स्कूलों और शिक्षकों का अध्ययन करके और दूसरा धरातल से महाराष्ट्र (maharashtra) के जलगांव ज़िले के ग्रामीण स्कूलों में सैकड़ों विज्ञान अध्यायों का विश्लेषण करके और सप्ताहांत में मुंबई की झुग्गियों में पढ़ाकर भी। आगे चलकर, पुणे के भारतीय शिक्षा संस्थान (Indian Institute of Education) के औपचारिकेतर शिक्षा कार्यक्रम में काम करते हुए मुझे एहसास हुआ कि अपने प्राकृतिक परिवेश में ग्रामीण बच्चों के अनुभव कितने समृद्ध थे, और किस तरह से वे अनुभव स्कूल और पाठ्यक्रम (curriculum) की औपचारिक संरचना के कारण बेकार जा रहे थे। H.B.C.S.E. के संस्थापक निदेशक प्रो. वी. जी. कुलकर्णी अक्सर विज्ञान शिक्षण में भाषा की भूमिका पर ज़ोर देते थे। बहुत बाद में मैंने उनकी इन बातों का महत्व समझा। विचार और भाषा एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते, और हमारी स्कूल प्रणाली में रटंत पद्धति के कारण हम बुनियादी साक्षरता और गणना क्षमता विकसित करने में विफल हो रहे हैं।

एक संघर्षरत स्नातक छात्र के रूप में, जब मुझे होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन में टीचर-एजूकेटर की भूमिका में रखा गया तो मैंने वैज्ञानिक अवधारणाओं के बारे में विद्यार्थियों के विचारों में रुचि लेना शुरू किया। मुझे लगा कि मैं शिक्षकों को कुछ ऐसा सिखा सकती थी, जिसे वे सीधे अपनी कक्षा में लागू कर सकें। उसी समय, अन्य स्थानों पर भी ऐसे शोध हो रहे थे, जिनके परिणामों को ‘विद्यार्थियों की वैकल्पिक धारणाएं’ नाम दिया गया। इस क्षेत्र के बारे में मैने पोस्ट-डॉक्टरल काम के दौरान लीड्स की प्रोफेसर रोज़लिंड ड्राइवर और चेल्सी कॉलेज के प्रोफेसर पॉल ब्लैक से सीखा।

कुछ साल बाद, मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी (MIT) के मीडिया लैब के प्रोफेसर सीमोर पेपर्ट द्वारा युवा इंजीनियरों, कंप्यूटर वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों, कलाकारों और डिज़ाइनरों के साथ जो बौद्धिक वातावरण बनाया गया था, उसने मुझे उत्साहित किया। ब्रिटेन और अमेरिका में, मैंने ग्रामीण और इनर-सिटी स्कूलों में काम किया, जिनमें से एक स्कूल के प्रवेश द्वार पर मेटल-डिटेक्टर लगा था। यह एक अनोखा अनुभव था। बच्चों की संकल्पनाओं और उनके द्वारा रेखाचित्रों को समझने के मामले में मेरी रुचि को इन अनुभवों से नया जीवन मिला।

भारत और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक समकक्ष समूह की कमी थी। यही मेरे लिए विज्ञान शिक्षा में शोध करने की सबसे बड़ी चुनौती थी। एक न्यूनतम संख्या के अभाव के कारण, कई वर्षों तक H.B.C.S.E. में शोध कार्य प्राथमिकता में नहीं रहा। 1990 के दशक में, निदेशक प्रोफेसर अरविंद कुमार ने मुझे पाठ्यक्रम विकास का काम करने की सलाह दी, और इस निर्णय का मुझे कभी पछतावा नहीं हुआ। यह एक अनोखा अवसर था, जहां मैं शोध और फील्डवर्क पर आधारित एक पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम की सीमाओं से मुक्त, विकसित कर सकती थी। शिक्षकों और अभिभावकों से मिली गर्मजोश सराहना से इस प्रयास को काफी मज़बूती मिली।

इस दौरान, H.B.C.S.E. में एक सशक्त शोध समूह उभरा। मुझे विश्वास है कि शोध, पाठ्यक्रम और कामकाज के बीच स्वस्थ सम्बंध इस समूह को आगे बढ़ने में मदद करेगा। विद्यार्थियों के चित्रों और आरेखों से सम्बंधित मेरी शुरुआती रिसर्च, विज्ञान को समझने के दृश्य-स्थानिक मॉडल सम्बंधी वर्तमान शोध से जुड़ती है — चाहे वह विकासात्मक मनोविज्ञान हो, संज्ञानात्मक विज्ञान हो, या विज्ञान का इतिहास हो। मैं इस क्षेत्र में और अधिक शोध कार्य की उम्मीद करती हूं। H.B.C.S.E. द्वारा शुरू की गई epiSTEME कॉन्फ्रेंस शृंखला ने देश और विदेश में कड़ियां जोड़ने में मदद की है। H.B.C.S.E. का प्राथमिक विज्ञान पाठ्यक्रम भारत और विदेशों में जाना और उद्धरित किया जाता है। मेरी व्यक्तिगत जद्दोज़हद इस संस्थान के संघर्ष और एक नए शोध क्षेत्र के विकास के संघर्ष से गहराई से जुड़ी रही है।

मैं यह काम दो अन्य महिलाओं के योगदान के बिना नहीं कर पाती। पहली श्रीमती बापट हैं, जो स्वयं एक वैज्ञानिक की पत्नी थीं और स्नेहपूर्वक हमारे दो बच्चों की देखभाल करती थीं। और दूसरी हैं कला, जो एक अत्यंत सक्षम महिला थीं। उन्होंने अपनी बचपन की लालसाओं को त्यागकर T.I.F.R. कॉलोनी में घरेलू कामकाज किया। और हां, मेरे पति और बच्चों ने भी बेशक मेरे करियर में मेरा साथ दिया।

क्या अब मुझे लगता है कि काश मैंने कुछ अलग ढंग से किया होता? सबसे पहले, स्कूल और कॉलेज के छात्र के रूप में जो किताबें मुझे दी गई थीं उनकी बजाय मुझे अच्छी किताबों की तलाश खुद करना चाहिए थी। दूसरा, शुरुआत में मैं अपने विचारों को स्पष्ट रूप से कहना सीखने का प्रयास कर सकती थी – यह एक ऐसी चीज़ है जो विज्ञान के छात्रों को अक्सर नहीं सिखाई जाती। तीसरा, एक जूनियर शोधकर्ता के रूप में मैं अपने वरिष्ठ सहकर्मियों के साथ अधिक सामंजस्यपूर्ण सम्बंध बनाने का प्रयास कर सकती थी। हालांकि, मैं यह समझती हूं कि व्यक्तित्व के कुछ पहलूओं को बदलना मुश्किल होता है। चौथा, मुझे बाल श्रम जैसी अमानवीय प्रथा के खिलाफ सक्रिय रूप से काम करना चाहिए था, जो एक निर्मम प्रथा है और आज भी हमारे अधिकांश बच्चों को उनकी संभावनाएं साकार करने से रोकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महिलाओं, चींटी जैसे काम करो, पुरुषों जैसे व्यवहार करो लेकिन महिला बनी रहो!

सुलभा के. कुलकर्णी

क महिला के लिए वैज्ञानिक बनने का मतलब है एक चुनौतीपूर्ण जीवन शैली को अपनाना! सफलता के लिए हर क्षेत्र – पेशेवर (professional), व्यक्तिगत (personal) या सामाजिक (social) – में उसे कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। यहां तक कि मात्र एक वैज्ञानिक माने जाने के लिए उसे अपने पुरुष सहकर्मियों से कहीं ज़्यादा काम करना पड़ता है। और एक पुरुष प्रधान समाज में इतना भर पर्याप्त नहीं होता। वास्तव, उसे चींटी की तरह काम करना पड़ता है, पुरुष की तरह व्यवहार करना पड़ता है और महिला बने रहना पड़ता है! एक महिला में बहुत अधिक आंतरिक शक्ति होती है, लेकिन उसे पहचानने की ज़रूरत होती है। इसके अलावा, एक महिला वैज्ञानिक (woman scientist) को अपने पति, बच्चों और रिश्तेदारों से निरंतर समर्थन और बेहतर समझ की आवश्यकता होती है। एक वैज्ञानिक के रूप में उसे पूरी तरह से शोध में तल्लीन होना पड़ता है। यह चौबीस घंटे का काम है! मैं खुद को भाग्यशाली मानती हूं कि मुझे बिना ना-नुकर के यह सब मिला।

आज जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूं तो कह सकती हूं कि सीखने की मेरी इच्छा और दृढ़ता के कारण मैं अपने करियर (career) में चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना कर सकी, जिसके बीज बचपन में ही मेरे अंदर बो दिए गए थे। मुझे मुश्किल समस्याओं से जूझना पसंद था और उन्हें हल करने के लिए कड़ी मेहनत करना मुझे अच्छा लगता था।

वाई (महाराष्ट्र) के जिस स्कूल में मैं पढ़ी थी वह अच्छा स्कूल था लेकिन वहां भाषा और सामाजिक विज्ञान (social sciences) पर अधिक ज़ोर दिया जाता था। भौतिक विज्ञानों (physical sciences) को उबाऊ और नीरस तरीके से पढ़ाया जाता था, लेकिन मेरा गणित (mathematics)  के प्रति प्रेम पनप गया (श्री डब्ल्यू. एल. बापट और श्री पी. के. गुणे जैसे शिक्षकों का धन्यवाद, जिन्होंने मुझे प्रेरित किया।) इसलिए, मैंने आगे गणित की पढ़ाई करने के लिए पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में प्रवेश लिया। उसके बाद, मैंने भौतिकी विषय को चुना क्योंकि इसमें गणित का पर्याप्त दखल होता है।

आगे विज्ञान (science) की पढ़ाई करने की असली प्रेरणा एम. आर. भिड़े (पुणे विश्वविद्यालय में भौतिकी विभाग के तत्कालीन प्रमुख) से मिली, जिन्होंने हमें ‘स्वयं विज्ञान करने’ को प्रेरित किया। उस समय उच्च शिक्षा (higher education) और खासकर भौतिकी में उच्च शिक्षा हासिल करने वाली लड़कियों की संख्या बहुत कम थी। आश्चर्य की बात यह है कि वहां मात्र एक महिला शिक्षक थी, जो हमें शोध करने से निरुत्साहित किया करती थीं!

अपने पीएचडी (Ph.D.)  कार्य के हिस्से के रूप में मैंने एक स्वचालित स्कैनिंग एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (X-ray spectrometer) डिज़ाइन और उसका निर्माण किया था। 1972 में हमारे यहां ऐसा करना आसान नहीं था! मैंने एक डिस्माउंटेबल एक्स-रे ट्यूब, उसके लिए एक उच्च वोल्टेज बिजली की आपूर्ति और स्कैनिंग स्पेक्ट्रोमीटर के लिए इलेक्ट्रॉनिक्स की व्यवस्था जमाई, और इसमें सर्किट बोर्ड को पेंट करने से लेकर डिज़ाइन उकेरने और विभिन्न पुर्ज़ों और इकाइयों को जोड़ने तक का काम किया! वर्तमान संदर्भ में शायद यह कोई बड़ी बात न लगे। लेकिन एक्स-रे जनरेटर को सचमुच काम करते हुए देखना और स्पेक्ट्रोमीटर को एक्स-रे की बारीक संरचना को रिकॉर्ड करते हुए देखना (जिस तरह से किताबों में बताया गया था) मेरे लिए एक अद्भुत अनुभव था। इससे मुझे इससे मुझे भविष्य में कुछ अत्यंत जटिल और अत्याधुनिक उपकरणों (advanced instruments) पर काम करने का हौसला मिला।

प्रो. भिड़े और मेरे शोध पर्यवेक्षक प्रो. ए. एस. निगवेकर ने मुझे जर्मनी (Germany) में पोस्ट डॉक्टरेट (postdoc) करने के लिए प्रोत्साहित किया। यह एक ऐसा अवसर था जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मेरे पति नहीं चाहते थे कि मैं लंबे समय के लिए इतनी दूर जाऊं लेकिन सतह विज्ञान (surface science) के एक नए, उभरते क्षेत्र में प्रवेश करने की अपनी प्रबल इच्छा का वास्ता देकर किसी तरह मैंने उन्हें मना लिया। मैंने उन्हें बताया कि कैसे पोस्टडॉक का अनुभव हमारे अपने विभाग में एक नई प्रयोगशाला स्थापित करने में मेरी मदद करेगा।

1977 में म्यूनिख की टेक्निकल युनिवर्सिटी (Technical University of Munich) में प्रो. मेंज़ेल की प्रयोगशाला में, लगभग 25 छात्रों और पोस्टडॉक के एक बड़े समूह में एक भी महिला छात्र (female student), शिक्षक या पोस्टडॉक नहीं थी। यहां तक कि आज भी, बहुत कम महिलाएं हैं जो विज्ञान के क्षेत्र में काम करती हैं और उनमें से भी बहुत कम ही हैं जो सर्वोच्च पदों (leadership roles) तक पहुंच पाती हैं।

1978 में मैं एक फैकल्टी सदस्य के रूप में पुणे विश्वविद्यालय में लौटी। सतह विज्ञान (सर्फेस साइंस) प्रयोगशाला स्थापित करने में मैंने अपना काफी समय लगाया। यह आसान नहीं था। तब ईमेल और यहां तक कि फैक्स जैसी सुविधाएं न होने के चलते संवाद करना काफी मुश्किल था। यह मेरे करियर का सबसे महत्वपूर्ण दौर था और प्रयोगशाला शुरू करने में अप्रत्याशित रूप से लम्बा समय लग गया। अंततः हमने अपने शोधकार्यों का प्रकाशन उच्च प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं (international journals) में शुरू किया।

उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, कभी-कभी सब ठीक चलता है, तो कभी-कभी आपके प्रयासों के बावजूद कुछ भी काम नहीं करता है। लेकिन आपको कभी भी हार नहीं माननी चाहिए।

मेरे विभाग का माहौल अच्छा रहा है। हर जगह की तरह यहां भी ईर्ष्या और प्रतिद्वंद्विता जैसी चीज़ें रहीं, लेकिन वे मेरी प्रगति में कभी बाधा नहीं बनी! प्रो. भिड़े द्वारा स्थापित प्रगतिशील माहौल अब भी कायम है। और इस माहौल ने कई छात्राओं को विभाग में शामिल होने और शोध के लिए मेरे समूह में शामिल होने के लिए आकर्षित किया है। मैंने उन्हें विज्ञान में करियर बनाने के लिए भी प्रोत्साहित किया है।

विज्ञान की रचनात्मकता और चुनौती ने मुझे हमेशा रोमांचित किया है। मुझे तसल्ली है कि मैं सतह और पदार्थ विज्ञान की एक सुसज्जित प्रयोगशाला कम लागत में बना सकी हूं। जो लोग मुझे अच्छी तरह से नहीं जानते, वे सोचते होंगे कि मैं यह कैसे कर सकती हूं! क्या मेरा कोई परिवार नहीं है? वास्तव में एक महिला को अपने परिवार को पर्याप्त समय देना पड़ता है, खासकर, जब उसके बच्चे छोटे हों। लेकिन अगर वह काम की योजना ठीक से बनाती है, तो मुझे लगता है कि उसके पास हर चीज़ के लिए पर्याप्त समय होता है।

मेरे शोध करियर में हमेशा सब कुछ अच्छा नहीं रहा। ऐसे भी कई मौके आए जब मुझे चुनौतीपूर्ण ज़िम्मेदारियां दी गईं और मैंने उन्हें सफलतापूर्वक पूरा किया, लेकिन पुरस्कारों के समय पुरुष सहकर्मियों को प्राथमिकता दी गई! मैं सोचती हूं कि क्या यह एक महिला वैज्ञानिक होने की कीमत थी! कहावत है ना, “यही विधि का विधान था (यानी जो हुआ उसे स्वीकार लो, भले ही कुछ बुरा हुआ हो)।” आदर्श रूप से, विज्ञान में जेंडर जैसी कोई चीज़ नहीं होनी चाहिए और मैंने उस भावना के साथ ही काम करने की पूरी कोशिश की है।

अपने अनुभव से, मैं कह सकती हूं कि महिलाएं कुशलतापूर्वक और रचनात्मक रूप से काम कर सकती हैं। न सिर्फ वे पुरुषों के बराबर अच्छा काम कर सकती हैं बल्कि पुरुषों से भी बेहतर कर सकती हैं। अगर महिलाओं को कम अवसर दिए जाते हैं तो उन्हें निराश नहीं होना चाहिए। अगर एक दरवाज़ा बंद होता है तो दूसरा खुल जाता है। उन्हें काम करते रहना चाहिए क्योंकि सही दिशा में लगातार मेहनत करने से ही पुरस्कार और संतुष्टि मिलती है। (स्रोत फीचर्स)

सुलभा के. कुलकर्णी का यह जीवन परिचय लीलावती डॉटर्स पुस्तक में उनके द्वारा लिखी गई अपनी एक संक्षिप्त जीवनी से लिया गया है।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आनंदीबाई जोशी: चुनौतियां और संघर्ष – संकलन : पूजा ठकर

आनंदीबाई जोशी
मार्च 1865 – फरवरी 1887

न्यूयॉर्क के पॉकीप्सी ग्रामीण कब्रिस्तान के ‘लॉट 216-ए’ में, अमरीकियों की कई कब्रों के बीच डॉ. आनंदीबाई जोशी की कब्र है। उनकी आयताकार कब्र पर लगा कुतबा (संग-ए-कब्र) बयां करता है कि आनंदी जोशी एक हिंदू ब्राह्मण लड़की थीं, जो विदेश जाकर शिक्षा प्राप्त करने और चिकित्सा (मेडिकल) की डिग्री हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला थीं। उन्होंने यह कैसे हासिल किया? उन्हें किन बाधाओं का सामना करना पड़ा? इन सवालों के आनंदी बाई के जो जवाब होते, उन्हें यहां मैं अपने अंदाज़ में देने का प्रयास कर रही हूं; ये जवाब मैंने आनंदीबाई के बारे में और उनके समय के बारे में पढ़कर जुटाई गई जानकारी के आधार पर लिखे हैं। – पूजा ठकर

मेरा जन्म 31 मार्च, 1865 को मुंबई के पास एक छोटे से कस्बे कल्याण में यमुना जोशी के रूप में हुआ था। मेरा परिवार कल्याण में ज़मींदार हुआ करता था, लेकिन तब तक उनकी जागीर समाप्त हो चुकी थी। 9 साल की उम्र में मेरी शादी हुई और मेरा नाम बदलकर आनंदी रख दिया गया।

शादी के पहले मैं मराठी पढ़ लेती थी; उस समय लड़कियों का पढ़ाई करना आम बात नहीं थी। लेकिन मेरे पति गोपालराव विधवा पुनर्विवाह और महिलाओं की शिक्षा (women education in India)  के प्रबल समर्थक थे। वास्तव में, उन्होंने इसी शर्त पर मुझसे विवाह किया था कि उन्हें मुझे पढ़ाने की इजाज़त होगी। हमारी शादी के बाद उन्होंने मुझे पढ़ाना शुरू किया। यह बहुत मुश्किल था; उन दिनों, दूसरों के सामने कोई पति अपनी पत्नी से सीधे बात नहीं कर सकता था। शुरुआत में, मेरे पति ने मुझे मिशनरी स्कूलों (missionary schools in India) में दाखिला दिलाने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनाी। हमें कल्याण से अलीबाग, अलीबाग से कोल्हापुर और फिर कोल्हापुर से कलकत्ता जाना पड़ा। लेकिन एक बार जब मैंने सीखना-पढ़ना शुरू कर दिया तो मैं जल्द ही संस्कृत पढ़ने लगी और अंग्रेज़ी (English education for women)  पढ़ने और बोलने लगी।

अपने पति से सीखना कोई आसान बात नहीं थी। वे मुझे संटियों से मारते थे; गुस्से में मुझ पर कुर्सियां और किताबें फेंकते थे। मुझे याद है कि जब मैं 12 साल की थी, तब उन्होंने मुझे छोड़ने की धमकी दी थी। सालों बाद, जब मैंने उन्हें अमेरिका से पत्र लिखा तब मैंने उनसे पूछा था कि क्या यह सही था? मैं हमेशा सोचती हूं कि क्या मेरे प्रति उनका यह व्यवहार ठीक था? मान लो, यदि मैंने उन्हें तब छोड़ दिया होता तो क्या होता? मैंने पत्र में उन्हें समझाया था कि उन्होंने मेरे लिए जो कुछ किया है, उसके लिए मैं हमेशा उनकी आभारी रहूंगी। लेकिन उसी पल मुझे यह ख्याल भी कचोटता कि कैसे एक हिंदू महिला (Hindu women in 19th century) के पास अपने पति को उसकी मनमानी करने देने के अलावा कोई और विकल्प नहीं होता है।

मेरी द्रुत प्रगति के चलते मेरे पति की यह ज़िद थी कि मुझे उच्च शिक्षा (higher education for women in India)  प्राप्त करनी चाहिए। मुझे एहसास हुआ कि हमारे देश में अधिकतर महिलाओं के लिए कोई महिला डॉक्टर (female doctor in India) नहीं है, और जो महिलाएं पुरुष डॉक्टर के पास जाने में शर्माती हैं या पुरुष डॉक्टर के पास जाना नहीं चाहती हैं, उन्हें इसके नतीजे में बहुत तकलीफ झेलनी पड़ती है। मैंने खुद 14 साल की उम्र में अपने नवजात बेटे को खो दिया था। इसलिए मैंने तय किया कि मैं डॉक्टर बनूंगी। यहां तक कि बाद में मैंने अपनी थीसिस के लिए जो विषय चुना, वह था “आर्य हिंदुओं में प्रसूति विज्ञान”।

मेरे पति ने मुझे अमेरिका के किसी विश्वविद्यालय (university in USA for Indian women) में दाखिला दिलाने की बहुत कोशिश की। उन्होंने इसके लिए मिशनरी बनने का दिखावा भी किया, लेकिन इससे सिर्फ उपहास ही हुआ। संयोग से, न्यू जर्सी के रोसेल की श्रीमती कारपेंटर को यह कहानी पता चली और मिशनरी रिव्यू में पत्राचार से द्रवित होकर उन्होंने मुझे एक पत्र लिखा। उन्होंने मुझे होस्ट करने का प्रस्ताव दिया और जल्द ही श्रीमती कारपेंटर और मैं एक-दूसरे को बहुत पत्र लिखने लगे। वे मुझे बहुत अपनी लगने लगीं थीं और मैं उन्हें ‘मवशी’ (मौसी) कहकर बुलाने लगी थी। इन पत्रों में, हमने विभिन्न मुद्दों पर चर्चा की; मैं उन मामलों/मुद्दों पर अपनी चिंताएं उन्हें लिख सकती थी, जिनको मुझे नहीं लगता कि मैं सार्वजनिक रूप से व्यक्त कर सकती थी। हमने बाल विवाह और महिलाओं के स्वास्थ्य पर उसके प्रभाव की चर्चा की। मुझे याद है, एक पत्र मैं मैंने उन्हें लिखा था कि सती प्रथा की तरह बाल विवाह पर प्रतिबंध का भी कानून होना चाहिए। इसी तरह हमने समाज में महिलाओं की स्थिति पर चर्चा की।

चूंकि गोपालराव को वहां नौकरी नहीं मिली, इसलिए हमने तय किया कि मुझे अकेले ही अमेरिका चले जाना चाहिए। हमें बहुत विरोध और आलोचना का सामना करना पड़ा, यहां तक कि लोगों ने हम पर पत्थर और गोबर फेंके। आखिरकार, कई आज़माइशों और क्लेशों के बाद, जून 1883 में मैं अमेरिकी मिशनरी महिलाओं के साथ अमेरिका पहुंच गई, और मेरी मुलाकात कारपेंटर मौसी से हुई।

अमेरिका में ऐसी कई चीजें थीं जो मुझे अजीब लगती थीं और कई ऐसी चीजें थीं जो कारपेंटर परिवार को मेरे बारे में अजीब लगती थीं। लेकिन कारपेंटर मौसी ने मेरा ऐसे ख्याल रखा जैसे मैं उनकी बेटी हूं। जब वे मुझे फिलाडेल्फिया (Philadelphia for medical studies) के महिला कॉलेज में छोड़ कर आ रही थीं तो वे एक बच्चे की तरह रोईं।

कॉलेज के अधीक्षक और सचिव बहुत दयालु थे और वे इस बात से प्रभावित थे कि मैं इतनी दूर से पढ़ने आई हूं। उन्होंने मुझे वहां तीन साल के लिए 600 डॉलर की छात्रवृत्ति भी दी।

अमेरिका में मेरे सामने पहली समस्या जाड़ों के लिबास की थी। पारंपरिक महाराष्ट्रीयन नौ गज़ की साड़ी जो मैं पहनती थी, उससे मेरी कमर और पिंडलियां खुली रहती थीं। पश्चिमी पोशाक, जो ठंड से निपटने का उम्दा तरीका था, पहनने में मैं पूरी तरह से सहज नहीं थी। उसी समय, मुझे भगवद गीता का पढ़ा हुआ एक श्लोक याद आया, जिसमें कहा गया था कि शरीर मात्र आत्मा को ढंकता है, आत्मा को अपवित्र नहीं किया जा सकता। तब मुझे अहसास हुआ कि यह बात सही है कि मेरे पश्चिमी पोशाक पहनने से मेरी आत्मा कैसे भ्रष्ट या अपवित्र या नष्ट हो सकती है। कई सवाल-जवाब से जूझते हुए और बहुत सोच-विचार के बाद मैंने गुजराती महिलाओं की तरह साड़ी पहनना तय किया; इस तरीके से साड़ी पहनकर मैं अपनी अपनी कमर और पिंडलियों को ढंके रख सकती थी और अंदर पेटीकोट भी पहन सकती थी। मैंने तय किया कि इस बारे में अभी गोपालराव को नहीं बताऊंगी।

कॉलेज में मुझे जो कमरा दिया गया था उसमें फायरप्लेस (अलाव) की ठीक व्यवस्था नहीं थी। अलाव जलाने पर कमरे में बहुत अधिक धुआं भर जाता था। तो मेरे पास दो ही विकल्प थे, या तो धुआं बर्दाश्त करो या ठंड! वहां रहने से मेरा स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हुआ। अमेरिका में लगभग दो साल रहने के बाद, मुझे अचानक बेहोशी और तेज़ बुखार के दौरे पड़ने लगे। खांसी ने मुझे लगातार जकड़े रखा। तीसरे साल के अंत तक, मेरी हालत बहुत खराब हो गई थी। खैर, जैसे-तैसे मैं आखिरी परीक्षा में पास हो गई थी।

दीक्षांत समारोह, जिसमें मेरे पति और पंडिता रमाबाई मौजूद थे, में यह घोषणा की गई कि मैं भारत की पहली महिला डॉक्टर हूं और इसके लिए सबने खड़े होकर तालियां बजाईं! वह लम्हा मेरी ज़िंदगी के सबसे अनमोल लम्हों में से एक था। मेरा स्वास्थ्य दिन-ब-दिन खराब होता गया। मेरे पति ने मुझे फिलाडेल्फिया के महिला अस्पताल में भर्ती कराया और मुझे टीबी होने का पता चला। लेकिन टीबी तब तक मेरे फेफड़ों तक नहीं पहुंची थी। डॉक्टरों ने मुझे भारत वापस जाने की सलाह दी। मैंने भारत लौटकर कोल्हापुर में लेडी डॉक्टर के पद का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

घर वापसी की यात्रा ने आनंदीबाई (Anandi Gopal Joshi) के स्वास्थ्य पर और अधिक प्रभाव डाला क्योंकि जहाज़ पर मौजूद डॉक्टरों ने एक अश्वेत महिला का इलाज करने से इन्कार कर दिया था। भारत पहुंचने पर वे एक प्रसिद्ध आयुर्वेदिक वैद्य से इलाज कराने के लिए पुणे में अपने कज़िन के घर रुकीं, लेकिन उन वैद्य ने भी उनका इलाज करने से इन्कार कर दिया क्योंकि उनके अनुसार आनंनदीबाई ने समाज की मर्यादा लांघी थीं। अंतत: बीमारी के कारण 26 फरवरी, 1887 को 22 वर्ष की आयु में आनंदीबाई की मृत्यु हो गई। पूरे भारत में उनके लिए शोक मनाया गया। उनकी अस्थियां श्रीमती कारपेंटर को भेज दी गईं। उन्होंने अस्थियों को पॉकीप्सी में अपने पारिवारिक कब्रिस्तान में दफनाया।

यह गज़ब की बात है कि महज़ 15 वर्षीय आनंदीबाई अपने समय के समाज को कितना समझ पाई थीं। श्रीमती कारपेंटर को लिखे उनके पत्रों से पता चलता है कि उन्होंने उन मुद्दों पर अपनी राय बना ली थी जिन्हें आज नारीवादी माना जाता। ताराबाई शिंदे की ‘स्त्री पुरुष तुलना’, पंडिता रमाबाई की ‘स्त्री धर्म नीति’ और रख्माबाई के ‘दी हिंदू लेडी’ नाम से टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखे गए पत्र जैसे नारीवादी लेखन भी इसी दौर के हैं। यह कमाल की बात है कि आनंदीबाई महज़ 15 साल की थीं जब उन्होंने इसी तरह के नारीवादी विचार व्यक्त किए थे।

हालाकि, आनंदीबाई के प्रयास व्यर्थ नहीं गए। आज भी, वे सभी क्षेत्रों में भारतीय लड़कियों को प्रेरित करती हैं और यह विश्वास दिलाती हैं कि परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों, सपनों को साकार करना नामुमकिन नहीं हैं और हममें से हर किसी में सपने साकार करने की, चाहतों को पूरा करने की क्षमता होती है। महाराष्ट्र सरकार ने महिला स्वास्थ्य (women’s health)पर काम करने वाली युवा महिलाओं के लिए उनके नाम पर एक फेलोशिप शुरू की है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पुरुष प्रधान माहौल में एक महिला वैज्ञानिक

बिमला बूटी

ज जब पीछे मुड़कर देखती हूं, तो यह समझना काफी मुश्किल लगता है कि मैंने भौतिकी को अपने करियर के रूप में क्यों चुना था, क्योंकि तब तक मेरे परिवार में किसी ने भी शुद्ध विज्ञान की पढ़ाई नहीं की थी।

भारत के विभाजन के समय जब हम लाहौर से दिल्ली आए, तो मुझे एक सरकारी स्कूल में दाखिला मिला, लेकिन वहां विज्ञान का विकल्प नहीं था। इसलिए मैंने हाई स्कूल में कला को चुना जबकि गणित मेरा पसंदीदा विषय था। मेरे पिता पंजाब विश्वविद्यालय से गणित में स्वर्ण पदक विजेता थे, लेकिन बाद में उन्होंने वकालत को चुना। चूंकि मैंने मैट्रिक की परीक्षा दी थी, न कि हायर सेकेंडरी की, इसलिए बी.एससी. (ऑनर्स) में दाखिला लेने से पहले मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय में एक साल का कोर्स करना पड़ा। इस समय मैंने जीव विज्ञान की बजाय भौतिकी, रसायन और गणित को चुना। कारण सीधा-सा था कि मुझे मेंढक काटने से डर लगता था शायद इसलिए कि मैं शाकाहारी थी। मेरे डॉक्टर जीजा ने मुझे मेडिकल की पढ़ाई के लिए राज़ी करने का प्रयास किया लेकिन पिताजी ने मुझे अपनी पसंद का करियर चुनने के लिए प्रोत्साहित किया। मुझे रसायन शास्त्र पसंद नहीं था, लेकिन भौतिकी अच्छा लगता था, शायद इसलिए कि मुझे एप्लाइड (अनुप्रयुक्त) गणित में दिलचस्पी थी। मैंने इंजीनियरिंग करने के बारे में भी विचार किया, लेकिन इसके लिए मुझे दिल्ली से बाहर जाना पड़ता, जो मुझे और मेरे परिवार को पसंद नहीं था। शायद यही कारण था कि मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय में भौतिकी (ऑनर्स) को चुना।

दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.एससी. (ऑनर्स) और भौतिकी में एम.एससी. करने के बाद, मैं पीएच.डी. के लिए शिकागो विश्वविद्यालय चली गई। यहां मुझे नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर एस. चंद्रशेखर के साथ काम करने का सौभाग्य मिला। मेरे शुरुआती जीवन में मेरे पिता ने मुझे जिस तरह से प्रेरित किया था, उसी तरह मेरे गुरू चंद्रा (प्रो. चंद्रशेखर को उनके विद्यार्थी, सहयोगी और मित्र ‘चंद्रा’ कहकर बुलाते थे) का भी मेरे पेशेवर जीवन पर गहरा असर पड़ा। आत्मनिर्भरता, मुश्किलों का सामना करने का आत्मविश्वास और अन्याय के समक्ष न झुकने जैसे गुण मुझमें बचपन से रोप दिए गए थे, जो चंद्रा के साथ जुड़ने के बाद और भी मज़बूत हो गए। मैं हमेशा बेधड़क होकर अपनी बात कहती थी, जो मेरे कई वरिष्ठ सहयोगियों को पसंद नहीं था। इस कारण और लैंगिक भेदभाव के चलते मुझे पेशेवर स्तर पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन मुझे इसका कोई पछतावा नहीं है।

अपने पेशे की खातिर मैंने शुरू से ही शादी न करने का फैसला किया था। मैंने यह फैसला इसलिए लिया था क्योंकि मुझे अपने काम के साथ पूरी तरह न्याय करने और हर काम को मेहनत से पूरा करने की आदत थी। शादी करने पर न तो मैं अपने परिवार और न ही अपने पेशे से पूरा न्याय कर पाती। अविवाहित रहकर मैं अपने पेशेवर दायित्वों पर पूरी तरह ध्यान केंद्रित कर सकती थी। 

प्रो. चंद्रशेखर ने विविध क्षेत्रों में काम किया था। वे एक क्षेत्र में गहराई से काम करते, उस पर एक किताब लिखते, और फिर किसी नए क्षेत्र में चले जाते। जब मैंने उनके साथ काम करना शुरू किया, तब उनकी रुचि मैग्नेटो-हाइड्रोडायनेमिक्स और प्लाज़्मा भौतिकी में थी। मैंने प्लाज़्मा भौतिकी में विशेषज्ञता हासिल की थी। अपनी थीसिस के लिए मैंने रिलेटिविस्टिक प्लाज़्मा पर काम किया। काम करने का ममेरा तरीका यह रहा है कि पहले एक सामान्य मॉडल तैयार करती हूं और फिर उसे अंतरिक्ष, खगोल भौतिकी और प्रयोगशाला प्लाज़्मा से जुड़े रुचि के मुद्दों पर लागू करती हूं। मैंने गैर-रैखिक (nonlinear) डायनेमिक्स तकनीकों का उपयोग करके कई अवलोकनों की व्याख्या गैर-रैखिक, अशांत (turbulent) और बेतरतीब (chaotic) प्लाज़्मा प्रक्रियाओं के रूप में की है।

शिकागो से पीएच.डी. करने के बाद, मैं भारत लौटी और दो साल तक अपने पुराने संस्थान, दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षण कार्य किया। इसके बाद मैंने अमेरिका वापस जाने का फैसला किया, जहां मुझे नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में नासा के गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर में रेसिडेंट रिसर्च एसोसिएट के रूप में काम करने का मौका मिला। वहां मैं सैद्धांतिक विभाग से जुड़ी, जिसका नेतृत्व प्रतिभाशाली प्लाज़्मा भौतिकविद टी. जी. नॉर्थरॉप कर रहे थे। वहां का जीवन शिकागो के मेरे छात्र जीवन से बिल्कुल अलग था, लेकिन वहां बिताया गया दो से अधिक वर्षों का समय बहुत ही फलदायी और आनंददायक रहा।

इसके बाद, मैंने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT), दिल्ली के भौतिकी विभाग में वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी के रूप में काम किया। इसी दौरान, चंद्रा (प्रो. चंद्रशेखर) को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नेहरू स्मृति व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया था। व्याख्यान के बाद श्रीमती गांधी ने चंद्रा के सम्मान में रात्रिभोज का आयोजन किया था, और चंद्रा की छात्र के रूप में मुझे भी इसमें आमंत्रित किया गया। इस समारोह में विक्रम साराभाई, डी. एस. कोठारी और भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (INSA) के अध्यक्ष जैसे विशिष्ट व्यक्ति मौजूद थे, और मैं उनके बीच एक नगण्य उपस्थिति थी। वहीं पहली बार मेरी मुलाकात प्रो. साराभाई से हुई। उन्होंने उसी वक्त मुझे भौतिकी अनुसंधान प्रयोगशाला (PRL), जिसके वे निदेशक थे, में काम करने के लिए आमंत्रित किया। इस तरह मैं PRL से जुड़ी और वहां 23 साल तक एसोसिएट प्रोफेसर, प्रोफेसर, सीनियर प्रोफेसर और डीन के रूप में काम किया।

PRL का शोध वातावरण IIT और दिल्ली विश्वविद्यालय से बहुत अलग था। साराभाई ऊंच-नीच के पदानुक्रम में विश्वास नहीं रखते थे और उन्होंने वैज्ञानिकों को पूरी आज़ादी और ज़िम्मेदारियां दी थीं। हमने PRL में सैद्धांतिक और प्रायोगिक दोनों स्तरों पर प्लाज़्मा भौतिकी का एक सशक्त समूह स्थापित किया। मैंने भारत में प्लाज़्मा साइंस सोसायटी की स्थापना की, जिसका पंजीकृत कार्यालय आज भी PRL में है। मुझे गर्व है कि मेरे सभी विद्यार्थी, जो भारत और अमेरिका में बस गए हैं, पेशेवर रूप से और अन्यथा बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं।

PRL में काम करते हुए मुझे NASA के अन्य केंद्रों, जैसे कैलिफोर्निया स्थित एम्स रिसर्च सेंटर और जेट प्रपल्शन लेबोरेटरी (JPL) में अपेक्षाकृत लंबे समय तक काम करने का और दौरे करने का अवसर मिला। इसके अलावा, 1986 से 1987 तक मैंने लॉस एंजेल्स स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में भी काम किया। 1985 से 2003 के दौरान, इटली के ट्रीएस्ट स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर थ्योरिटिकल फिजिक्स (ICTP) में प्लाज़्मा भौतिकी के निदेशक के रूप में मुझे कई विकासशील और विकसित देशों के वैज्ञानिकों के साथ काम करने का मौका मिला। मुझे हर दूसरे साल वहां विकासशील देशों के प्रतिभागियों के लिए प्लाज़्मा भौतिकी अध्ययन शाला के आयोजन में काफी समय देना पड़ता था। लेकिन मुझे लगता है कि यह मेहनत सार्थक थी, क्योंकि इन अध्ययन शालाओं के प्रतिभागियों को प्रमुख प्लाज़्मा भौतिकविदों का मार्गदर्शन मिलता था जो वहां व्याख्यान देने के लिए आते थे।

मैं काफी सौभाग्यशाली रही कि मुझे 1990 में इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी (INSA), नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (NAS), अमेरिकन फिज़िकल सोसाइटी (APS), और दी एकेडमी ऑफ साइंसेज ऑफ दी डेवलपिंग वर्ल्ड (TWAS)  की फेलो चुना गया। उस समय TWAS में कुछ ही भारतीय फेलो थे। मैं TWAS की पहली भारतीय महिला फेलो और INSA की पहली महिला भौतिक विज्ञानी फेलो बनी। मैंने ‘सौभाग्यशाली’ शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया क्योंकि किसी भी सम्मानजनक पुरस्कार या साइंस अकादमी की फेलोशिप के लिए नामांकित होना पड़ता है, और पुरुष-प्रधान क्षेत्र में एक महिला वैज्ञानिक के लिए भटनागर पुरस्कार जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों के लिए नामांकित होना लगभग असंभव था। लैंगिक भेदभाव का एक प्रसंग 1980 के दशक के मध्य में PRL के निदेशक के चयन के समय भी स्पष्ट था। मुझे अक्सर अपने पुरुष सहकर्मियों की ईर्ष्या का सामना करना पड़ा।

यह सुनने में अजीब लग सकता है, लेकिन यह सच है कि किसी वैज्ञानिक के कार्य की सराहना अपने देश से ज़्यादा विदेशों में होती है। भारत में विज्ञान जगत में लैंगिक भेदभाव के बावजूद मुझे 1977 में विक्रम साराभाई पुरस्कार (ग्रह विज्ञान), 1993 में जवाहरलाल नेहरू जन्म शताब्दी व्याख्याता पुरस्कार, 1994 में वेणु बप्पू अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार (खगोल भौतिकी), और 1996 में शिकागो विश्वविद्यालय का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार मिला।

PRL से सेवानिवृत्त होने के बाद, मैंने चार साल फिर से कैलिफोर्निया की जेट प्रपल्शन लैब में बिताए। इसके बाद मैंने दिल्ली में रहकर अपना शोध कार्य जारी रखा और साथ ही 2003 में स्थापित ‘बूटी फाउंडेशन’ (www.butifoundation.org) के माध्यम से सामाजिक कार्य किया। मुझे इस बात का बहुत संतोष है कि फाउंडेशन बहुत अच्छी प्रगति कर रहा है। (स्रोत फीचर्स)

बिमला बूटी का यह जीवन परिचय लीलावती डॉटर्स पुस्तक में उनके द्वारा लिखी गई अपनी एक संक्षिप्त जीवनी से लिया गया है।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बिमला बूटी का यह जीवन परिचय लीलावती डॉटर्स पुस्तक में उनके द्वारा लिखी गई अपनी एक संक्षिप्त जीवनी से लिया गया है।

गेइया परिकल्पना के प्रवर्तक जेम्स लवलॉक का निधन – ज़ुबैर सिद्दिकी

त 26 जुलाई को जेम्स लवलॉक का 103 वर्ष की आयु में निधन हो गया। एक स्वतंत्र वैज्ञानिक और पर्यावरणविद के रूप में लवलॉक ने मानव जाति के वैश्विक प्रभाव पर हमारी समझ और धरती से अन्यत्र जीवन की खोज को व्यापक स्तर पर प्रभावित किया। लेखन और भाषण में उत्कृष्ट क्षमताओं के चलते वे हरित आंदोलन के नायकों में से रहे जबकि वे इसके कट्टर आलोचक भी थे। वे आजीवन नए-नए विचार प्रस्तुत करते रहे। उन्हें मुख्यत: विवादास्पद गेइया परिकल्पना के लिए जाना जाता है।    

लवलॉक ने 20वीं सदी के अंत और 21वीं सदी की शुरुआत की सबसे गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं पर अध्ययन किए। इन अध्ययनों में मुख्य रूप से औद्योगिक प्रदूषकों का जीवजगत में प्रसार, ओज़ोन परत का ह्रास, और वैश्विक तापमान वृद्धि से होने वाले संभावित खतरे शामिल हैं। उन्होंने परमाणु उर्जा और रासायनिक उद्योगों की पैरवी भी की। उनकी चेतावनियां अक्सर विनाश का नज़ारा दिखाती थीं। बढ़ते वैश्विक तापमान पर चिंता जताते हुए लवलॉक ने कहा था कि हम काफी तेज़ी से 5.5 करोड़ वर्ष पूर्व की गर्म अवस्था में पहुंच सकते हैं और यदि ऐसा हुआ तो हम और हमारे अधिकांश वंशज मारे जाएंगे।

26 जुलाई, 1919 को हर्टफोर्डशायर में जन्मे लवलॉक की परवरिश ब्रिक्सटन (दक्षिण लंदन) में हुई। प्रारंभिक शिक्षा के दौरान एक सार्वजनिक पुस्तकालय ने उनमें विज्ञान के प्रति आकर्षण पैदा किया और उन्हें इतना प्रभावित किया कि स्कूल में पढ़ाए जाने वाले विज्ञान के पाठ उन्हें नीरस लगने लगे। पुस्तकालय में उन्होंने खगोल विज्ञान, प्राकृतिक इतिहास, जीव विज्ञान, भौतिकी और रसायन विज्ञान की जानकारियां हासिल कीं। लवलॉक ने अपने इस ज्ञान को व्यावहारिक रूप भी दिया। उन्होंने अपने स्कूल के दिनों में एक पवन-गति सूचक तैयार किया था जिसका इस्तेमाल वे ट्रेन यात्रा के दौरान किया करते थे।

कमज़ोर आर्थिक स्थिति के चलते पढ़ाई के लिए वे एक कंपनी में तकनीशियन का काम करते थे और शाम को बी.एससी. की पढ़ाई के लिए कक्षाओं में जाते थे। 1940 में उन्होंने मिल हिल स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर मेडिकल रिसर्च (एनआईएमआर) में काम करना शुरू किया और 20 अगले वर्ष तक यहीं काम करते रहे।           

एनआईएमआर में काम करते हुए उन्होंने बायोमेडिकल साइंस में पीएच.डी. हासिल की और इलेक्ट्रॉन कैप्चर डिटेक्टर का आविष्कार किया। यह एक माचिस की डिबिया के आकार का उपकरण था जो विषैले रसायनों का पता लगाने और उनका मापन करने में सक्षम था।

लवलॉक के कार्य में एक बड़ा परिवर्तन 1961 में आया जब उन्होंने एनआईएमआर छोड़कर नासा के लिए काम करना शुरू किया। नासा में उन्हें मानव रहित अंतरिक्ष यान ‘सर्वेयर सीरीज़’ के प्रयोगों को डिज़ाइन करने के लिए आमंत्रित किया गया था ताकि मनुष्य के चंद्रमा पर उतरने से पूर्व चंद्रमा की सतह की जांच की जा सके। इस परियोजना के बाद लवलॉक ने मंगल ग्रह पर जीवन की तलाश के लिए जेट प्रपल्शन लेबोरेटरी (जेपीएल) में अंतरग्रही खोजी टीम के साथ काम करना शुरू किया। इस परियोजना में काम करते हुए उन्होंने पाया कि मंगल ग्रह के जैविक पहलुओं पर अध्ययन करने के लिए विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों की ओर से बहुत कम सुझाव आए थे।      

लवलॉक का विचार था कि इसका कारण आणविक जीव विज्ञान और जेनेटिक उद्विकास के प्रति वह जुनून है जो फ्रांसिस क्रिक और जेम्स वाटसन द्वारा डीएनए की रचना की खोज के बाद पैदा हुआ था। वे काफी निराश थे कि जीव विज्ञान में अनुसंधान का फोकस व्यापक तस्वीर की बजाय छोटे-छोटे हिस्सों पर हो गया है – जीवन का अध्ययन सम्पूर्ण जीव की बजाय अणुओं और परमाणुओं के अध्ययन पर अधिक केंद्रित है।

मंगल ग्रह पर जीवन के संकेतों को समझने के लिए लवलॉक के प्रयोग काफी अलग ढंग से डिज़ाइन किए गए थे जिनमें अलग-अलग घटकों की बजाय संपूर्ण जीव पर ध्यान देना निहित था। गेइया परिकल्पना को स्थापित करने में यह दृष्टिकोण काफी महत्वपूर्ण साबित हुआ।      

शुरुआत में नासा ने धरती से परे जीवन का पता लगाने के लिए पृथ्वी के पड़ोसी ग्रह शुक्र और मंगल को चुना था। इन दोनों ग्रहों के वायुमंडल के रासायनिक संघटन के आधार पर लवलॉक का अनुमान था कि दोनों ही जीवन-रहित होंगे।

फिर थोड़ा विचार करने के बाद वे यह सोचने लगे कि किसी बाहरी बुद्धिमान जीव को पृथ्वी कैसी दिखेगी। अपने सहयोगी डियान हिचकॉक के साथ वार्तालाप में उन्होंने यह समझने का प्रयास किया कि पृथ्वी, मंगल और शुक्र ग्रह के वातावरण में इतना अंतर क्यों है। इस विषय पर काम करते हुए विवादास्पद गेइया परिकल्पना का जन्म हुआ। 

नया नज़रिया

तथ्य यह है कि मंगल और शुक्र के वायुमंडलों में 95% कार्बन डाईऑक्साइड और कम मात्रा में नाइट्रोजन, ऑक्सीजन और अन्य गैसें हैं। दूसरी ओर, पृथ्वी के वायुमंडल में 77% नाइट्रोजन, 21% ऑक्सीजन और मामूली मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड व अन्य गैसें हैं। यह समझना ज़रूरी है कि अन्य ग्रहों की तुलना में पृथ्वी इतनी अलग और अद्वितीय क्यों है।

एक विचारणीय बात यह भी है कि पिछले 3.5 अरब वर्षों में सूर्य की ऊर्जा में 30 प्रतिशत की वृद्धि होने के बाद भी पृथ्वी का तापमान स्थिर कैसे बना हुआ है। भौतिकी के अनुसार इस तापमान पर तो हमारे ग्रह की सतह को उबल जाना चाहिए था लेकिन पृथ्वी काफी ठंडी बनी हुई है।

इसका एकमात्र स्पष्टीकरण पृथ्वी का स्व-नियमन तंत्र है जिसने संतुलन बनाए रखने का एक तरीका खोज निकाला है और यहां रहने वाले जीवों ने इसके वातावरण को स्थिर बनाए रखने में योगदान दिया है। लवलॉक के अनुसार पृथ्वी का वायुमंडल जीवित और सांस लेने वाले जीवों के कारण गैसों में लगातार होते परिवर्तन को संतुलित रखे हुए हैं जबकि मंगल ग्रह का वातावरण अचर है।

यही गेइया परिकल्पना है जिसे लवलॉक ने 1960 के दशक में प्रस्तावित किया था और 1970 के दशक में अमेरिकी जीव विज्ञानी लिन मार्गुलिस के साथ विकसित किया था। इस परिकल्पना के अनुसार पृथ्वी केवल एक चट्टान का टुकड़ा नहीं है बल्कि पौधों और जीवों की लाखों प्रजातियों की मेज़बानी करती है जो खुद को इस पर्यावरण के अनुकूल कर पाए हैं। गेइया के अनुसार इन अनगिनत प्रजातियों ने न सिर्फ जद्दोजहद के ज़रिए खुद को अनुकूलित किया बल्कि एक ऐसा वातावरण बनाए रखने में भी सहयोग किया जिससे पृथ्वी पर जीवन को कायम रखा जा सके। सह-विकास इस स्व-नियमन का एक उदाहरण है। लवलॉक का यह सिद्धांत रिचर्ड डॉकिंस जैसे कई विद्वानों को रास नहीं आता था। वे इस सिद्धांत को चार्ल्स डार्विन के प्राकृतिक चयन के सिद्धांत के विरुद्ध मानते थे।   

लवलॉक के सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी के इस नियामक तंत्र की शुरुआत तब हुई जब प्राचीन महासागरों में शुरुआती जीवन ने वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड को सोखकर ऑक्सीजन मुक्त करना शुरू किया। कई अरब वर्षों तक जारी इस प्रक्रिया से पृथ्वी के वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड में कमी होती गई और वातावरण ऑक्सीजन पर निर्भर जीवों के पक्ष में होता गया। लवलॉक और उनके सहयोगियों का मत था कि पृथ्वी के जैव-मंडल को एक स्व-विकास और स्व-नियमन करने वाला तंत्र माना जा सकता है जो स्वयं के लाभ के लिए वायुमंडल, पानी और चट्टानों में परिवर्तन करता है।

गेइया परिकल्पना के उदाहरण के रूप में लवलॉक ने डेज़ीवर्ल्ड मॉडल विकसित किया। डेज़ीवर्ल्ड में काले और सफेद डेज़ी फूलों का एक खेत है। यदि तापमान में वृद्धि होती है तो सफेद फूल की तुलना में काले फूल अधिक गर्मी को अवशोषित करते हैं और मुरझा जाते हैं जबकि सफेद डेज़ी अच्छे से पनपते हैं। अंततः सफेद डेज़ी अधिक गर्मी को अंतरिक्ष में परावर्तित करते हैं और ग्रह को फिर से ठंडा करते हैं ताकि काले डेज़ी एक बार फिर से पनप सकें। 

गेइया सिद्धांत ने हरित आंदोलन को काफी प्रभावित किया लेकिन लवलॉक कभी भी पूर्ण रूप से पर्यावरणवाद के समर्थक नहीं रहे। यहां तक कि कई पर्यावरणविदों के विपरीत वे हमेशा परमाणु ऊर्जा के समर्थक रहे। गेइया परिकल्पना को वैज्ञानिक समुदाय में मान्यता मिलने में काफी समय लगा। 1988 में सैन डिएगो में आयोजित अमेरिकन जियोफिज़िकल यूनियन की एक बैठक में गेइया के साक्ष्यों पर प्रमुख जीव विज्ञानियों, भौतिकविदों और जलवायु विज्ञानियों को विचार-विमर्श के लिए आमंत्रित किया गया। अंतत: वर्ष 2001 में 1000 से अधिक वैज्ञानिकों ने यह माना कि हमारा ग्रह भौतिक, रासायनिक, जैविक और मानव घटकों से युक्त एकीकृत स्व-नियमन तंत्र के रूप में व्यवहार करता है। हालांकि, इसकी बारीकियों पर चर्चा अभी भी बाकी थी लेकिन इस सिद्धांत को मोटे तौर पर स्वीकार कर लिया गया था।       

गेइया सिद्धांत से हटकर लवलॉक ने अपने शुरुआती कार्यकाल में कई नई-नई तकनीकों का भी आविष्कार किया। उन्होंने कोशिका ऊतकों और यहां तक कि हैमस्टर जैसे पूरे जीव को फ्रीज़ करने और उसे पुन: जीवित करने की तकनीक भी विकसित की। 1954 में उन्होंने सिर्फ मज़े के लिए मैग्नेट्रान से निकले माइक्रोवेव विकिरण से आलू पकाया। 

उन्होंने लियो मैककर्न और जोन ग्रीनवुड जैसे अभिनेताओं के साथ भी हाथ आज़माया।

लवलॉक ने ऐसे असाधारण संवेदी उपकरण बनाए जो गैसों में मानव निर्मित रसायनों की छोटी से छोटी मात्रा का पता लगा सकते थे। जब इन उपकरणों का उपयोग वायुमंडल के रासायनिक संघटन के अध्ययन में किया गया तो क्लोरोफ्लोरोकार्बन की उपस्थिति उजागर हुई जो ओज़ोन के ह्रास के लिए ज़िम्मेदार है। इसी तरह उन्होंने सभी प्राणियों के ऊतकों से लेकर युरोप एवं अमेरिका में स्त्रियों के दूध में कीटनाशकों की उपस्थिति का खुलासा किया। लंदन स्थित विज्ञान संग्रहालय के निदेशक रहते हुए उन्होंने एक ऐसी तकनीक का प्रस्ताव दिया जिसके द्वारा महासागरों में शैवाल के विकास के लिए योजना तैयार की जा सकती है, वायुमंडल से अतिरिक्त कार्बन डाईऑक्साइड को हटाया जा सकता है और साथ ही सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करने वाले बादलों के निर्माण को बढ़ावा दिया जा सकता है ताकि वैश्विक तापमान को कम किया जा सके।       

उन्होंने 40 पेटेंट दायर किए, 200 से अधिक शोध पत्र लिखे और गेइया सिद्धांत पर कई किताबें लिखीं। उन्हें कई वैज्ञानिक पदकों से सम्मानित किया गया और ब्रिटिश एवं अन्य विश्वविद्यालयों से कई अंतरराष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार और मानद डॉक्टरेट से नवाज़ा गया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कैंसर वैज्ञानिक डॉ. कमल रणदिवे – नवनीत कुमार गुप्ता

बायोमेडिकल शोधकर्ता के रूप में मशहूर डॉ. कमल जयसिंह रणदिवे को कैंसर पर शोध के लिए जाना जाता है। उन्होंने कैंसर और वायरसों के सम्बंधों का अध्ययन किया था। 8 नवंबर 1917 को पुणे में जन्मीं कमल रणदिवे आज भी भारतीयों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं।

उनके पिता दिनेश दत्तात्रेय समर्थ पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में जीव विज्ञान के प्रोफेसर थे और चाहते थे कि घर के सभी बच्चों, खासकर बेटियों को अच्छी से अच्छी शिक्षा मिले। कमल ने हर परीक्षा अच्छे अंकों से पास की। कमल के पिता चाहते थे कि वे चिकित्सा के क्षेत्र में शिक्षा प्राप्त करे और उनकी शादी किसी डॉक्टर से हो। लेकिन कमल की जीव विज्ञान के प्रति अधिक रुचि थी। माता शांताबाई भी हमेशा उनको प्रोत्साहित करती थीं।

कमल ने फर्ग्यूसन कॉलेज से जीव विज्ञान में बीएससी डिस्टिंक्शन के साथ पूरी की। पुणे के कृषि कॉलेज से स्नातकोत्तर शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने 1939 में गणितज्ञ जे. टी. रणदिवे से विवाह किया। जे. टी. रणदिवे ने उनकी पोस्ट ग्रोजुएशन की पढ़ाई में बहुत मदद की थी। उच्च अध्ययन के लिए वे विदेश भी गईं। उन्हें बाल्टीमोर, मैरीलैंड, यूएसए में जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय में फेलोशिप मिली थी।

फेलोशिप के बाद, वे मुंबई और भारतीय कैंसर अनुसंधान केंद्र (आईसीआरसी) लौट आईं, जहां उन्होंने देश की पहली टिशू कल्चर लैब की स्थापना की। 1949 में, आईसीआरसी में एक शोधकर्ता के रूप में काम करते हुए, उन्होंने कोशिका विज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। बाद में आईसीआरसी की निदेशक और कैंसर के लिए एनिमल मॉडलिंग की अग्रणी के तौर पर डॉ. रणदिवे ने कई शोध किए। उन्होंने कार्सिनोजेनेसिस, सेल बायोलॉजी और इम्यूनोलॉजी में नई शोध इकाइयों की स्थापना में अहम भूमिका निभाई।

डॉ. रणदिवे की शोध उपलब्धियों में जानवरों के माध्यम से कैंसर की पैथोफिज़ियोलॉजी पर शोध शामिल है, जिससे ल्यूकेमिया, स्तन कैंसर और ग्रसनी कैंसर जैसी बीमारियों के कारणों को जानने का प्रयास किया। उनकी सर्वाधिक उल्लेखनीय उपलब्धि कैंसर, हार्मोन और ट्यूमर वायरस के बीच सम्बंध स्थापित करना था। स्तन कैंसर और जेनेटिक्स के बीच सम्बंध का प्रस्ताव रखने वाली वे पहली वैज्ञानिक थीं। कुष्ठ जैसी असाध्य मानी जाने वाली बीमारी का टीका भी डॉ. रणदिवे के शोध की बदौलत ही संभव हुआ।

उनका मानना था कि जो वैज्ञानिक पोस्ट-डॉक्टरल कार्य के लिए विदेश जाते हैं, उन्हें भारत लौटकर अपने क्षेत्र से सम्बंधित प्रयोगशालाओं में अनुसंधान के नए आयामों का विकास करना चाहिए। उनके प्रयासों से उनके कई साथी भारत लौटे, जिससे आईसीआरसी कैंसर अनुसंधान का एक प्रसिद्ध केंद्र बन गया।

डॉ. रणदिवे भारतीय महिला वैज्ञानिक संघ (IWSA) की प्रमुख संस्थापक सदस्य भी थीं। भारतीय महिला वैज्ञानिक संघ विज्ञान में महिलाओं के लिए छात्रवृत्ति और चाइल्डकेयर सम्बंधी सुविधाओं के लिए प्रयासरत संस्थान है। वर्ष 2011 में गूगल ने उनके 104वें जन्मदिन के अवसर पर उन पर डूडल बनाया था। 1982 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। अपने उल्लेखनीय कैंसर अनुसंधान के अलावा, रणदिवे को विज्ञान और शिक्षा के माध्यम से अधिक समतामूलक समाज बनाने के लिए समर्पण के लिए जाना जाता है। 11 अप्रैल 2001 को उन्होंने अंतिम सांस ली। उनके पति जे. टी. रणदिवे ने मृत्यु तक उनके कार्यों में उनका सहयोग किया। उन दोनों का जीवन शोध कार्यों में एक-दूसरे को प्रोत्साहित करने वाला रहा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दीपक धर: बोल्ट्ज़मैन पदक से सम्मानित प्रथम भारतीय – नवनीत कुमार गुप्ता

हाल ही में, प्रसिद्ध भौतिकीविद् एवं भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (आईआईएसईआर),  पुणे के विज़िटिंग प्रोफेसर दीपक धर को वर्ष 2022 के प्रतिष्ठित बोल्ट्ज़मैन पदक के लिए चुना गया है। प्रोफेसर दीपक धर के अलावा  प्रिंसटन युनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉन होपफील्ड को भी सम्मानित किया गया है।

इंटरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर एंड एप्लाइड फिज़िक्स (आईयूपीएपी) के सांख्यिकीय भौतिकी पर सी3 (C3) आयोग द्वारा स्थापित बोल्ट्ज़मैन पदक सांख्यिकीय भौतिकी में उत्कृष्ट उपलब्धियों के लिए 3 साल में एक बार दिया जाता है।

प्रोफेसर धर का जन्म 30 अक्टूबर 1951 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में हुआ था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय और आईआईटी कानपुर के पूर्व छात्र प्रोफेसर धर ने सांख्यिकीय भौतिकी और स्टोकेस्टिक प्रक्रियाओं पर अनुसंधान में एक लंबा सफर तय किया है। उनके शोध कार्य का आरंभ 1978 में कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में पीएचडी के साथ हुआ था। पीएचडी की उपाधि प्राप्त करने के बाद प्रोफेसर धर ने भारत लौटकर टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान (टीआईएफआर) में एक रिसर्च फेलो के रूप में अपना करियर शुरू किया। दो साल के शोध के बाद 1980 में वे पूर्णकालिक फेलो बन गए और 1986 में उन्हें रीडर के रूप में पदोन्नत किया गया था। प्रोफेसर धर ने संस्थान में विभिन्न पदों पर सेवाएं दीं।

उन्होंने 1984-85 के दौरान पेरिस विश्वविद्यालय में विज़िटिंग वैज्ञानिक के रूप में एक साल तक कार्य किया। मई 2006 में आइज़ैक न्यूटन इंस्टीट्यूट में रोथ्सचाइल्ड प्रोफेसर के रूप में भी एक महीने उन्होंने कार्य किया। वर्ष 2016 से वे आईआईएसईआर, पुणे में कार्यरत हैं।

प्रोफेसर धर भारत की तीनों प्रमुख भारतीय विज्ञान अकादमियों – इंडियन एकेडमी ऑफ साइंसेज़, इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी और नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ – के अलावा दी वर्ल्ड एकेडमी ऑफ साइंस के निर्वाचित फेलो हैं। 1991 में वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) द्वारा प्रोफेसर धर को भौतिक विज्ञान में उनके योगदान के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के लिए शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। (स्रोत फीचर्स)

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राजेश्वरी चटर्जी: एक प्रेरक व्यक्तित्व – नवनीत कुमार गुप्ता

स्वतंत्रता पूर्व उच्च शिक्षा के लिए महिलाओं का आगे आना एक चुनौती से कम नहीं था। ऐसे विषम समय में भी अनेक भारतीय महिलाओं ने विज्ञान के क्षेत्र में अहम योगदान दिया। ऐसी ही महिलाओं में राजेश्वरी चटर्जी का नाम उल्लेखनीय है जिनका जन्म 24 जनवरी 1922 को कर्नाटक में हुआ था। राजेश्वरी चटर्जी कर्नाटक से पहली महिला इंजीनियर थी।

उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा विशेष अंग्रेज़ी स्कूल में ली। विद्यालय स्तर की शिक्षा के बाद उनका मन इतिहास का अध्ययन करने का था लेकिन आखिरकार उन्होंने भौतिकी और गणित को चुना। उन्होंने सेंट्रल कॉलेज ऑफ बैंगलोर से गणित में बीएससी (ऑनर्स) और एमएससी की डिग्री प्राप्त की। वे मैसूर युनिवर्सिटी में प्रथम स्थान पर रहीं। बीएससी और एमएससी परीक्षाओं में उम्दा प्रदर्शन के लिए उन्हें क्रमशः मम्मदी कृष्णराज वोडेयार पुरस्कार और एम. टी. नारायण अयंगर पुरस्कार और वाल्टर्स मेमोरियल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

एमएससी की डिग्री प्राप्त करने के बाद राजेश्वरी चटर्जी ने 1943 में भारतीय विज्ञान संस्थान में शोध कार्य आरंभ किया। वे भारतीय विज्ञान संस्थान में सर सी. वी. रमन के साथ कार्य करना चाहती थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, ब्रिटिशों से भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित करने के लिए भारत में एक अंतरिम सरकार स्थापित की गई, जिसने प्रतिभाशाली भारतीयों को छात्रवृत्ति की पेशकश की ताकि ऐसे वैज्ञानिक उच्च अध्ययन के लिए विदेश जा सकें। राजेश्वरी चटर्जी को 1946 में इलेक्ट्रॉनिक्स और इसके अनुप्रयोगों के क्षेत्र में चुना गया और मिशिगन विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति प्रदान की गई।

1950 के दशक में भारतीय महिलाओं के लिए उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए विदेश जाना बहुत मुश्किल था। 1947 में वे मिशिगन विश्वविद्यालय में दाखिल हुईं और इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग विभाग से मास्टर डिग्री प्राप्त की। फिर भारत सरकार के साथ अनुबंध का पालन करते हुए, उन्होंने वाशिंगटन डीसी में राष्ट्रीय मानक ब्यूरो में रेडियो फ्रीक्वेंसी मापन विभाग में आठ महीने का प्रायोगिक प्रशिक्षण लिया। 1953 की शुरुआत में उन्होंने प्रोफेसर विलियम गोल्ड डॉव के मार्गदर्शन में पीएचडी की डिग्री हासिल की।

1953 में भारत लौटकर उन्होंने भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलुरु में प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। बाद में यहीं पर वे इलेक्ट्रिकल कम्युनिकेशन इंजीनियरिंग विभाग की अध्यक्ष बनीं। इस क्षेत्र में विशेषज्ञता के चलते उन्हें विद्युत चुंबकीय सिद्धांत, इलेक्ट्रॉन ट्यूब सर्किट और माइक्रोवेव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्य करने का मौका मिला था। उनका प्रमुख योगदान विशेष उद्देश्यों के लिए एंटेना के क्षेत्र में मुख्य रूप से विमान और अंतरिक्ष यान में रहा है। अपने जीवनकाल में, उन्होंने 20 पीएचडी छात्रों का मार्गदर्शन किया। राजेश्वरी चटर्जी ने 100 से अधिक शोध पत्र लिखे और उनकी सात पुस्तकें प्रकाशित हुईं। 1982 में भारतीय विज्ञान संस्थान से सेवानिवृत्ति के बाद, उन्होंने इंडियन एसोसिएशन फॉर वुमेन स्टडीज़ सहित कई सामाजिक कार्यक्रमों में काम किया।

यदि उनके व्यक्तिगत जीवन की बात करें तो उनके पिता नानजंगुद में एक वकील थे। उनकी दादी कमलम्मा दासप्पा, तत्कालीन मैसूर राज्य में पहली महिला स्नातकों में से एक थीं। उनकी दादी शिक्षा के क्षेत्र में, विशेष रूप से विधवाओं और परित्यक्त पत्नियों के लिए, बहुत सक्रिय थीं। राजेश्वरी चटर्जी ने 1953 में भारतीय विज्ञान संस्थान के डॉ. शिशिर कुमार चटर्जी से शादी की। उन्होंने अपने पति के साथ माइक्रोवेव अनुसंधान प्रयोगशाला का निर्माण किया और माइक्रोवेव इंजीनियरिंग के क्षेत्र में शोध शुरू किया, जो भारत में इस तरह का पहला शोध था।

1994 में पति के निधन के बाद भी राजेश्वरी चटर्जी ने सक्रिय जीवन जीना जारी रखा। उनकी बेटी इंद्रा चटर्जी युनिवर्सिटी ऑफ नेवादा में इलेक्ट्रिकल और बायोमेडिकल इंजीनियरिंग में प्रोफेसर और सहायक संकाय अध्यक्ष हैं।

राजेश्वरी चटर्जी को अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया जिनमें इंस्टीट्यूट ऑफ इलेक्ट्रिकल एंड रेडियो इंजीनियरिंग, यूके से सर्वश्रेष्ठ शोध पत्र के लिए माउंटबैटन पुरस्कार, इंस्टीट्यूशन ऑफ इंजीनियर्स से सर्वश्रेष्ठ शोध के लिए जेसी बोस मेमोरियल पुरस्कार और इलेक्ट्रॉनिक एंड टेलीकम्यूनिकेशन्स संस्थान द्वारा सर्वश्रेष्ठ शोध और शिक्षण कार्य के लिए रामलाल वाधवा पुरस्कार शामिल हैं।

राजेश्वरी चटर्जी जैसे वैज्ञानिक एवं शिक्षक लाखों लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं जो विषम परिस्थितियों में भी विज्ञान के द्वारा समाज की सेवा के लिए लगे रहते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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बालासुब्रमण्यम राममूर्ति: भारत में न्यूरोसर्जरी के जनक – नवनीत कुमार गुप्ता

हान वैज्ञानिकों के योगदान ने सदियों से भारत को पूरे विश्व में गौरवान्वित किया है। ऐसे महान लोग सदियों तक जनमानस को प्रेरित करते हैं। प्रोफेसर बालासुब्रमण्यम राममूर्ति ऐसे ही बिरले वैज्ञानिकों में से थे।

प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति को भारत में न्यूरोसर्जरी का जनक भी कहा जाता है। न्यूरोसर्जन के अलावा वे प्रसिद्ध लेखक और संपादक भी थे। उनका शोधकार्य तंत्रिका तंत्र की चोटों, ब्रेन ट्यूमर की सर्जरी, मस्तिष्क के तपेदिक संक्रमण, तंत्रिका-कार्यिकी, स्टीरियोटैक्टिक (त्रिविम स्थान निर्धारण) सर्जरी, चेतना और बायोफीडबैक विषयों पर केंद्रित था। उन्होंने स्टीरियोटैक्टिक सर्जरी के दौरान मस्तिष्क की गहरी संरचनाओं की तंत्रिका-कार्यिकी का अध्ययन किया। इससे मिर्गी सहित मस्तिष्क सम्बंधी विभिन्न बीमारियों को अच्छे से समझा जा सका।

प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति संगीत और मस्तिष्क पर इसके प्रभाव में गहरी रुचि रखते थे। उन्होंने न्यूरोसर्जरी इंडिया की स्थापना की। उनकी आत्मकथा अपहिल ऑल द वे प्रेरणा का एक सतत स्रोत है।

प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति का जन्म 30 जनवरी 1922 सिरकाज़ी में हुआ था। उनके पिता कैप्टन टी. एस. बालासुब्रमण्यम सरकारी अस्पताल में सहायक सर्जन थे। उनके दादा के भाई जी. सुब्रमण्यम अय्यर थे, जो अंग्रेजी दैनिक दी हिंदू के संस्थापकों में से एक थे। बालासुब्रमण्यम राममूर्ति ने त्रिची के ईआर हाई स्कूल में अध्ययन के उपरांत मद्रास मेडिकल कॉलेज से जनरल सर्जरी में एमएस और 1947 में एडिनबरा से एफआरसीएस की उपाधि प्राप्त की।

युवा राममूर्ति को मद्रास सरकार द्वारा न्यूरोसर्जरी में प्रशिक्षण के लिए चुना गया था और वे 2 जनवरी 1949 को न्यूकैसल पहुंचे। न्यूकैसल में उन्होंने जी. एफ. रोबोथम के अधीन प्रशिक्षण प्राप्त किया, और फिर मैनचेस्टर में प्रोफेसर जेफ्री जेफरसन के साथ समय बिताया। उन्होंने युरोप में विभिन्न केंद्रों का दौरा किया। 1950 में डॉ. राममूर्ति मॉन्ट्रियल न्यूरोलॉजिकल इंस्टीट्यूट में चले गए और प्रो. वाइल्डर पेनफील्ड के साथ चार महीने बिताए। प्रशिक्षण पूरा करने के बाद वे अपने साथ न्यूरोसर्जरी की ब्रिटिश, अमेरिकी, कनाडाई और युरोपीय घरानों की परंपराओं को लेकर मद्रास लौट आए।

24 अक्टूबर 1950 को बालासुब्रमण्यम राममूर्ति मद्रास जनरल अस्पताल और मद्रास मेडिकल कॉलेज में न्यूरोसर्जरी में सहायक सर्जन के रूप में शामिल हुए और मद्रास में न्यूरोसर्जरी का आयोजन शुरू किया। 1970 के दशक की शुरुआत में, प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति ने कनाडा में मॉन्ट्रियल न्यूरोलॉजिकल इंस्टीट्यूट की तर्ज पर इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरोलॉजी, मद्रास की स्थापना की, जिसमें न्यूरोसाइंस की सभी शाखाएं एक छत के नीचे थीं। बड़ी बाधाओं और कठिनाइयों के खिलाफ, प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति ने न्यूरोसर्जिकल विभाग का निर्माण और विकास किया, जो बाद में सरकारी जनरल अस्पताल में न्यूरोलॉजी संस्थान के रूप में विकसित हुआ, जहां वे 1978 में अपनी सेवानिवृत्ति तक प्रोफेसर और प्रमुख थे। प्रो. राममूर्ति और उनकी टीम स्टीरियोटैक्टिक सर्जरी करने वाली भारत की सबसे पहली टीम बनी।

उन्होंने 1977-1978 में अडयार में स्वैच्छिक स्वास्थ्य सेवा (वीएचएस) अस्पताल में डॉ. ए. लक्ष्मीपति न्यूरोसर्जिकल सेंटर की शुरुआत की। प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति ने अस्पताल के डीन और मद्रास मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल और मद्रास विश्वविद्यालय के मानद कुलपति के रूप में अपने लंबे और व्यापक वर्षों के दौरान एक शिक्षक, संरक्षक और मार्गदर्शक के रूप में कार्य किया। उन्हें 1987 में वर्ल्ड फेडरेशन ऑफ न्यूरोसर्जिकल सोसाइटीज़ के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था। वे भारत के राष्ट्रीय चिकित्सा परीक्षा बोर्ड के अध्यक्ष भी रहे।

उन्होंने डॉ. राजा सहित कई प्रतिष्ठित न्यूरोसर्जनों को प्रशिक्षित किया, जिन्हें अब कस्तूरबा मेडिकल कॉलेज, मणिपाल में न्यूरोसर्जरी विभाग के संस्थापक के रूप में जाना जाता है। प्रो. राममूर्ति स्वयं कस्तूरबा मेडिकल कॉलेज, मणिपाल में न्यूरोसर्जरी विभाग से जुड़े रहे हैं और उन्होंने अपने छात्र डॉ. राजा को वहां न्यूरोसर्जरी विभाग में शामिल होने के लिए राजी किया, और उन्नत चिकित्सा उपकरणों के उपयोग का उद्घाटन भी किया।

सीखने और लगातार अग्रिम शोध से संपर्क में रहने की उनकी उत्सुकता इस बात में झलकती है कि 1980 के दशक में, माइक्रोसर्जिकल तकनीकों के लाभों को देखते हुए, उन्होंने पहले खुद सीखा, अभ्यास किया और फिर न्यूरोसर्जरी में माइक्रोसर्जरी की पुरज़ोर वकालत की। वे सीटी और एमआरआई स्कैन पढ़ने में उतने ही माहिर थे, जितने एक्स-रे, ईईजी, न्यूमोएन्सेफेलोग्राम, वेंट्रिकुलोग्राम और एंजियोग्राम पढ़ने में थे।

देश में मस्तिष्क अनुसंधान के समन्वय के लिए एक शीर्ष निकाय के रूप में राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केंद्र, मानेसर की स्थापना में उनकी अहम भूमिका रही। इस दिशा में उनके दो दशकों से अधिक समय के प्रयासों का फल तब मिला जब भारत के राष्ट्रपति ने औपचारिक रूप से 16 दिसंबर 2003 को नई दिल्ली के पास मानेसर में राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केंद्र का उद्घाटन किया।

वे नेशनल एकेडमी ऑफ मेडिकल साइंसेज़, एकेडमी ऑफ साइंसेज़, इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी सहित रॉयल सोसाइटी ऑफ मेडिसिन, लंदन के फेलो थे। वे उन बिरले लोगों में से थे जिन्हें भारत की तीनों विज्ञान अकादमियों का फेलो चुना गया था। भारत के सशस्त्र बलों ने उन्हें सेना में ब्रिगेडियर के मानद पद से सम्मानित किया।

उन्हें श्री राजा-लक्ष्मी फाउंडेशन चेन्नई द्वारा 1987 में राजा-लक्ष्मी पुरस्कार के अलावा भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण और प्रतिष्ठित धनवंतरी पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। चेन्नई में राममूर्ति तंत्रिका विज्ञान संग्रहालय का नाम उन्हीं के नाम पर रखा गया है। उन्होंने न्यूरोसर्जन्स की युवा पीढ़ी को अपने पेशेवर और व्यक्तिगत जीवन में उत्कृष्टता हासिल करने के लिए मार्गदर्शन दिया।(स्रोत फीचर्स)

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हरगोविन्द खुराना जन्म शताब्दी – नवनीत कुमार गुप्ता

कोरोना काल में अनेक वैज्ञानिक शब्द समाज में प्रचलित हो गए। उनमें से एक शब्द है जीनोम अनुक्रम। जीनोम अनुक्रम के द्वारा कोरोना वायरस के प्रकारों की पहचान करने में आसानी हुई। यह हम जानते हैं कि विज्ञान में अधिकतर सिद्धांतों और विधियों का विकास अनेक वैज्ञानिकों के योगदान से संभव हो पाता है। आधुनिक विज्ञान जगत में जिन भारतीय वैज्ञानिकों का योगदान अहम रहा है उनमें से प्रोफेसर हरगोविन्द खुराना प्रमुख हैं जिन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

प्रोफेसर खुराना ने कोशिकाओं के अन्दर आनुवंशिक सूचनाओं के प्रोटीन में अनुदित होने की प्रक्रिया को विस्तार से समझाया था। इसी प्रक्रिया के ज़रिए कोशिकाओं में विभिन्न प्रक्रियाएं सम्पन्न होती हैं। खुराना को शरीर क्रिया विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार उनके इसी कार्य के लिए प्रदान किया गया था।

हरगोविन्द खुराना चार भाइयों और एक बहन में सबसे छोटे थे। उस समय उनके गांव में सिर्फ उनका परिवार ही साक्षर था। वर्तमान पश्चिमी पंजाब के मुल्तान (पाकिस्तान) में डी.ए.वी. कॉलेज से हाईस्कूल की पढ़ाई करने के बाद, हरगोविन्द खुराना ने पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से बी.एससी. और एम.एससी. की डिग्री प्राप्त की। वे जीवन भर अपने प्रारम्भिक शिक्षकों में से रतन लाल और महान सिंह को याद करते रहे। अपने शिक्षकों के प्रति उनका सम्मान ताउम्र रहा। 1945 में उन्हें इंग्लैंड में पढ़ाई करने के लिए छात्रवृत्ति मिली। इस प्रकार अपने शोध कार्य के लिए इंग्लैंड के लिवरपूल विश्वविद्यालय चले गए। वहां उन्होंने प्रसिद्ध वैज्ञानिक रॉजर एस. बीअर के निर्देशन में शोध कार्य किया। पोस्ट-डॉक्टरल अनुसंधान के लिए वे स्विट्ज़रलैंड गए। वहां 1948-1949 में उन्होंने प्रोफेसर व्लादिमीर प्रेलॉग के साथ काम किया। एक शोध छात्र के रूप में उन्होंने विज्ञान को काफी बारीकी से समझा, उन्हें विज्ञान के प्रति नया नज़रिया मिला। इसके चलते उन्होंने आजीवन बिना थके लगातार विज्ञान की सेवा की।

सन 1949 में कुछ समय के लिए वे भारत आए और 1950 में वे फिर इंग्लैंड चले गए, जहां उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रो. ए. आर. टॉड के साथ काम किया। यहीं पर उनकी रुचि न्यूक्लिक अम्लों और प्रोटीन्स में उत्पन्न हुई। 1952 में उन्हें काउंसिल ऑफ ब्रिटिश कोलम्बिया, कनाडा से नौकरी का प्रस्ताव आया और वे कनाडा चले आए। 1952 में ही उन्होंने अपने स्विटज़रलैंड के समय की दोस्त एस्थर सिब्लर से विवाह किया। 1960 में उनके जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ आया। इस वर्ष वे शोध कार्य के लिये विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय, अमेरिका आ गए। नोबेल अनुसंधान उन्होंने अमेरिका स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ एंज़ाइम्स रिसर्च में किया था। वे निरंतर शोध कार्य में आगे बढ़ते गए। 1966 में उन्होंने अमेरिकी नागरिकता स्वीकार कर ली। वर्ष 1970 में उन्हें मेसाच्युसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में सम्मानित अल्फ्रेड स्लोअन प्रोफेसर ऑफ केमिस्ट्री एंड बायोलॉजी का पद मिला। इस संस्थान में शोध कार्य करते हुये प्रोफेसर खुराना ने आनुवंशिकी से सम्बंधित कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में कार्य किया। सन 2007 में वे सेवानिवृत्त हो गए। अंतिम वर्षों में वे एम.आई.टी. में एमेरिटस प्रोफेसर थे और अंतिम समय तक विद्यार्थियों से लगातार मिलते रहे।

10 नवंबर 2011 को 89 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ। उस दिन मेसाच्युसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी ने अपनी वेबसाइट पर घोषणा की कि रसायन शास्त्र और शरीर क्रिया विज्ञान के शिखरों में से एक प्रोफेसर हरगोविन्द खुराना हमें हमेशा के लिए छोड़कर चले गए। प्रोफेसर हरगोविन्द खुराना का सफर शून्य से शिखर तक का सफर कहा जा सकता है। उनके काम से कोशिका और उसके अंगों और उपांगों की क्रियाविधि के बारे में समझ विकसित हुई। 1953 में वॉटसन और क्रिक ने डीएनए की दोहरी कुंडली संरचना की खोज की थी जिसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था। अलबत्ता, वॉटसन और क्रिक डीएनए से प्रोटीन निर्माण प्रक्रिया और अन्य आनुवंशिक और शारीरिक क्रियाविधियों में इसकी हिस्सेदारी के बारे में नहीं जानते थे। नीरेनबर्ग और प्रोफेसर हरगोविन्द खुराना ने पहली बार स्पष्ट किया कि कैसे न्यूक्लियोटाइड्स से बनी संरचना अमीनो अम्लों को पहचानती है जो कि प्रोटीन का एक अहम हिस्सा हैं। प्रोफेसर खुराना ने आरएनए में आनुवंशिक कोड की संरचना के बारे में विस्तार से बताया।

नोबेल पुरस्कार मिलने के चार साल बाद प्रोफेसर खुराना को रासायनिक विधियों द्वारा पूर्णतः कृत्रिम जीन का निर्माण करने में सफलता प्राप्त हुई। इसके बाद उन्होंने कई जीन्स का कृत्रिम तरीकों से निर्माण किया जिनमें से दृष्टिदोष से सम्बंधित जीन रोडोस्पिन का संश्लेषण प्रमुख था। इन खोजों ने मूलभूत विज्ञान और औद्योगिक क्षेत्र में क्रान्ति ला दी। उनके कार्यों का उपयोग मूलभूत विज्ञान से लेकर औद्योगिक क्षेत्र में लगातार हो रहा है। प्रोफेसर खुराना एक सफल शिक्षक भी थे, वे हमेशा छात्रों से घिरे रहते थे। उनके एक शोध छात्र माइकल स्मिथ को 1993 में डीएनए में फेरबदल करने की तकनीक खोजने के लिए नोबेल मिला।

ऐसे महान वैज्ञानिकों और उनके कार्यों के बारे में जनमानस में जागरूकता का प्रसार करना आवश्यक है ताकि भावी पीढ़ियां इनसे प्रेरणा प्राप्त कर सके। इसी दिशा में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत विज्ञान प्रसार द्वारा प्रोफेसर खुराना सहित पांच अन्य प्रेरक वैज्ञानिकों की जन्म शताब्दी के उपलक्ष्य में पूरे वर्ष कई कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। इन वैज्ञानिकों में, प्रोफेसर खुराना के अलावा डॉ. जी. एन. रामचंद्रन, डॉ. येलावर्ती नायुदम्मा, प्रोफेसर बालसुब्रमण्यम राममूर्ति, डॉ. जी.एस. लड्ढा और डॉ. राजेश्वरी चटर्जी शामिल हैं। (स्रोत फीचर्स)

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