विभिन्न प्रकार के ईंधन और रासायनिक उत्पादों की रीढ़ मानी जाने वाली तेल रिफाइनरियां(Oil Refineries), आज भी वर्षों पुरानी पद्धति पर काम करती हैं। इसमें कच्चे तेल (Crude Oil) का प्रभाजी आसवन करके उसके घटक अलग-अलग प्राप्त किए जाते हैं। ऊष्मा आधारित इस विधि में भारी मात्रा में ऊर्जा की खपत होती है और यह पर्यावरण के लिए भी हानिकारक (Environmental Pollution) है।
अब इसे बदलने की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया गया है। साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में बेहद पतली प्लास्टिक फिल्म (झिल्ली) (Membrane Technology) का उपयोग सुझाया गया है। इस झिल्ली की मदद से बहुत कम तापमान पर कच्चे तेल में से हल्के ईंधन घटक अलग किए जा सकते हैं। इससे तेल शोधन में ऊर्जा की खपत और प्रदूषण को काफी हद तक कम किया जा सकता है(Sustainable Refining)।
हालांकि प्लास्टिक की ये झिल्लियां वैसे ही काम करती हैं जैसे समुद्री पानी को पीने लायक बनाने वाले संयंत्रों (Desalination Membranes) में। फिर भी इस तकनीक को तेल उद्योग के अनुकूल बनाने में समस्याएं तो थीं। पूर्व में, कच्चे तेल के संपर्क में आने पर ये झिल्लियां फूल जाती थीं या खराब हो जाती थीं, जिससे इनके छानने की क्षमता कम हो जाती थी।
इस समस्या को दूर करने के लिए एमआईटी के वैज्ञानिकों ने झिल्ली में दो तरह के पॉलीमर का इस्तेमाल किया। एक में कांटेदार संरचना होती है जो तेल में भी झिल्ली की आकृति और उसके सूक्ष्म छिद्रों को टिकाए रखती है।
दूसरा, वैज्ञानिकों ने झिल्ली में ऐसे रासायनिक बंधों का इस्तेमाल किया जो तेल के साथ बेहतर काम करते हैं। इससे हल्के ईंधन अणु तो आसानी से पार हो जाते हैं, जबकि भारी अणु रोक दिए जाते हैं। नतीजतन, यह नई झिल्ली हल्के हाइड्रोकार्बन (Light Hydrocarbons) को छानने में पूर्व मॉडल्स से चार गुना ज़्यादा असरदार है।
एक और खास बात। साधारणत: पानी छानने की झिल्ली में दो तरह के मोनोमर को जोड़कर पोलीमर झिल्ली बनाई जाती है। इनमें से एक मोनोमर को पानी में और दूसरे को तेल में घोलकर जब आपस मिलाया जाता है तो मोनोमर तेल व पानी की संपर्क सतह पर क्रिया करके एक झिल्ली बना लेते हैं।
लेकिन पानी में घुलनशील मोनोमर तेल के पृथक्करण (Oil Separation) में काम नहीं करते। वैज्ञानिकों ने दोनों मोनोमर को तेल में घोला और फिर उसमें पानी तथा एक उत्प्रेरक मिलाया। उत्प्रेरक ने पानी-तेल की संपर्क सतह पर दोनों मोनोमर से क्रिया करके एक उम्दा झिल्ली बना दी।
तेल रिफाइनरियां पुराने तरीके को तुरंत तो नहीं छोड़ेंगी, लेकिन यह नई तकनीक भविष्य में रिफाइनिंग (Future of Oil Refining) का मुख्य तरीका बन सकती है।(स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://unescoalfozanprize.org/wp-content/uploads/2025/06/environmental-pollution-factory-exterior.jpg
पेड़ और जंगल वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करते हैं (carbon sequestration by forests) और उसे अपने तने, शाखा, पत्तियों वगैरह की सामग्री के रूप में समो लेते हैं। इसलिए यह जानना बहुत ज़रूरी है कि धरती पर कितना जैविक पदार्थ (बायोमास) (forest biomass estimation) मौजूद है और समय के साथ कैसे बदल रहा है। बायोमास का मतलब है पेड़ों के तने, शाखाओं, पत्तियों और जड़ों में सारे ठोस वनस्पति पदार्थ का कुल वज़न। अभी तक बायोमास का अनुमान लगाने के लिए केवल ज़मीनी सर्वेक्षण (ground survey methods) या साधारण उपग्रह तस्वीरों (basic satellite imagery) का सहारा लिया जाता था, जो सटीक नहीं था।
पृथ्वी पर मौजूद पेड़ों और जंगलों के जैविक द्रव्यमान को मापने के लिए युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने ‘बायोमास’ नामक एक उपग्रह (ESA Biomass Satellite) लॉन्च किया है। मिशन अवधि लगभग 5 साल (2030 तक) है। यूके, फ्रांस, इटली और जर्मनी जैसे युरोप के कई देश इस मिशन में प्रमुख भागीदार हैं। इसका मुख्य उद्देश्य यह जानना है कि धरती पर कितनी मात्रा में कार्बन पेड़ों में जमा है (carbon stock in trees) और यह जलवायु परिवर्तन को किस तरह प्रभावित (climate change impact) करता है।
इस उपग्रह से 1.5 ट्रिलियन पेड़ों का बायोमास मापना संभव हो सकेगा। इसका डैटा यह समझने में मदद करेगा कि कितनी मात्रा में कार्बन वातावरण से अवशोषित किया गया है, कौन से क्षेत्र कार्बन स्रोत (उत्सर्जक) (carbon source regions) और कौन से कार्बन सिंक (शोषक) (carbon sink regions) हैं। उदाहरण के लिए अगर अमेज़न के जंगल कट रहे हैं, तो वहां का बायोमास कम होगा और वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड बढ़ेगी। इससे हम जलवायु परिवर्तन (global climate change) और ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों को बेहतर समझ पाएंगे। वैश्विक बायोमास डैटा हर 6 महीने में अपडेट (biomass satellite data update) किया जाएगा।
यह डैटा काफी महत्वपूर्ण होगा: इसका उपयोग पेड़ों के कुल वज़न और मात्रा के आकलन, संग्रहित कार्बन भंडार के मूल्यांकन (carbon storage assessment), वनों की कटाई के वास्तविक प्रभाव, जलवायु मॉडलिंग में सुधार (climate modeling improvement), कार्बन सिंक के रूप में चिंहित क्षेत्रों के लिए पर्यावरण संरक्षण नीति बनाने (environmental policy planning), वैश्विक कार्बन चक्र को समझने और ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने की रणनीति बनाने में किया जा सकेगा। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन मॉडल्स को अधिक सटीक बनाने और वनों की कटाई और पुनर्वनीकरण की निगरानी (deforestation and reforestation monitoring) करने में भी यह उपयोगी होगा। इससे पर्यावरण संरक्षण योजनाओं को मज़बूत बनाने, विकासशील देशों को वनों के प्रबंधन में मदद करने और कार्बन ट्रेडिंग (carbon trading) और जलवायु वित्त (climate finance) में सटीक डैटा प्रदान करने में मदद मिलेगी।
उपग्रहकीविशेषताएं
1. कक्षीयडिज़ाइन: यह बायोमास उपग्रह पृथ्वी से लगभग 660 कि.मी. की ऊंचाई पर सूर्य-समकालिक ध्रुवीय कक्षा (sun-synchronous polar orbit) में चक्कर लगाएगा। यह कक्षा सुनिश्चित करती है कि उपग्रह नियमित अंतराल पर उत्तरी व दक्षिणी गोलार्धों पर पृथ्वी के सभी क्षेत्रों को कवर करेगा, जिसमें उष्णकटिबंधीय, समशीतोष्ण, और बोरीयल वन (tropical, temperate, and boreal forests) शामिल हैं। उपग्रह का पुनरावृत्ति चक्र ऐसा है कि यह हर 25 दिनों में एक ही क्षेत्र को दोबारा स्कैन करेगा, जिससे समय के साथ परिवर्तन की निगरानी संभव होगी।
2. अनूठीरडारतकनीक: सामान्य उपग्रह प्रकाशीय कैमरे या एल-बैंड (आवृत्ति 1000-2000 मेगाहर्ट्ज) रडार का उपयोग करते हैं। लेकिन बायोमास उपग्रह में पी-बैंड रडार (P-band radar technology) का इस्तेमाल हो रहा है, जो एक कम आवृत्ति माइक्रोवेव (300-1000 मेगाहर्ट्ज़) सिग्नल प्रेषित करता है, जिससे मिट्टी और घने जंगलों के अंदर तक पैठ बना सकती है। इसका मतलब, यह पेड़ की केवल ऊपरी नहीं बल्कि अंदर तक जानकारी जुटाता है, जैसे पेड़ की ऊंचाई, तने की मोटाई और घनत्व वगैरह।
यह तकनीक दिन-रात और मौसम से बेफिक्र डैटा संग्रह करने में सक्षम है, क्योंकि रडार बादलों और बारिश से अप्रभावित रहता है। यह पहला मौका है जब कोई उपग्रह इतनी कम आवृत्ति पर काम करेगा। गौरतलब है कि पी-बैंड रडार तकनीक को लेकर सुरक्षा सम्बंधी नियम भी हैं क्योंकि इसका उपयोग रक्षा और संचार में भी होता है। लेकिन पृथ्वी को बचाने के लिए यह डैटा इकट्ठा करने हेतु युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी को पी-बैंड के उपयोग की विशेष अनुमति दी गई है (forest density mapping, tree height detection, forest structure analysis)।
3. पोलेरिमेट्रिकऔरइंटरफेरोमेट्रिकडैटा: इन तकनीकों का मदद से वन की संरचना (जैसे, पत्तियां, तने, ज़मीन) को अलग-अलग पहचाना जा सकता है। इंटरफेरोमेट्रिक तकनीक से सतह की ऊंचाई और 3-डी संरचना मापी जाती है। टोमोग्राफिक एसएआर से वन की ऊर्ध्वाधर परतों (चंदवे, तनों, ज़मीन) का 3डी मॉडल बनाया जाता है।
4. वैश्विककवरेज: उपग्रह हर 6 महीने में पूरी पृथ्वी को स्कैन करेगा। लक्ष्य यह है कि धरती के लगभग 30 करोड़ वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र को कवर किया जाए। सरल शब्दों में कहा जाए तो बायोमास उपग्रह धरती के पेड़ों का एक्स-रे स्कैन करेगा, ताकि हम जान सकें कि पृथ्वी पर कितने पेड़ हैं, उनमें कितना कार्बन है और जंगल किस गति से घट-बढ़ रहे हैं। यह उपग्रह इतनी बारीकी से स्कैन कर सकता है कि 20-20 वर्ग मीटर तक के छोटे इलाके में भी पेड़ के बायोमास का पता चल सकेगा। यह मिशन हमारे ग्रह को बचाने के बड़े अभियानों का एक अहम हिस्सा है।
कवरेज की बात करें तो बायोमास उपग्रह उष्णकटिबंधीय वर्षावनों (अमेज़ॉन, कांगो), समशीतोष्ण वनों (उत्तरी अमेरिका और युरोप के जंगल) और बोरीयल वनों (साइबेरिया और कनाडा के टैगा) को कवर करेगा। यद्यपि उपग्रह का प्राथमिक लक्ष्य वन हैं, यह मिट्टी और सतह की जानकारी (जैसे रेगिस्तान या बर्फीले क्षेत्र) भी एकत्र कर सकता है, लेकिन इन क्षेत्रों में इसकी उपयोगिता सीमित है।
जैव पदार्थ सम्बंधी डैटा कार्बन चक्र को समझने और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने की रणनीतियों में मदद करता है। उपग्रह अवैध कटाई, वन क्षरण, और पुनर्जनन की वैश्विक निगरानी करेगा, जो नीति निर्माण और संरक्षण प्रयासों के लिए महत्वपूर्ण है। वैश्विक डैटा पारिस्थितिकी, जैव-विविधता, और भू-विज्ञान के अध्ययन में उपयोगी है और अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के लिए आधार प्रदान करेगा। कुल मिलाकर यह मिशन धरती के जंगलों के एक्स-रे निरीक्षण (x-ray monitoring) जैसा है, जिससे हम जान पाएंगे कि पृथ्वी कैसे सांस ले रही है! (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/f/fa/ESA_Biomass_Satellite_seeing_wood_through_trees.png/1024px-ESA_Biomass_Satellite_seeing_wood_through_trees.png
एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि 1990 के बाद से बढ़ी वैश्विक तपन (global warming) के दो-तिहाई हिस्से के लिए दुनिया के सबसे अमीर 10 प्रतिशत लोग ज़िम्मेदार हैं, जिससे पता चलता है कि जलवायु संकट (climate crisis) के संदर्भ में कैसी असमानता है। हालांकि वैज्ञानिकों को यह तो पता था कि अमीर लोग अधिक कार्बन उत्सर्जन (carbon emissions) करते हैं, लेकिन इस अध्ययन ने आंकड़ों के ज़रिए बताया है कि कौन-कौन कितना कार्बन उत्सर्जन करते हैं और जलवायु परिवर्तन (climate change) के लिए कितना ज़िम्मेदार हैं। ये नतीजे नेचरक्लाइमेटचेंज पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।
शोधकर्ताओं ने जलवायु मॉडल (climate model) का उपयोग किया और यह पता लगाया कि अगर सबसे अमीर लोगों – शीर्ष 10 प्रतिशत, 1 प्रतिशत, और 0.1 प्रतिशत – द्वारा किया जाने वाला उत्सर्जन हटा दिया जाए तो वैश्विक तापमान में कितना बदलाव आएगा। निष्कर्ष चौंकाने वाले थे: 2020 में, वैश्विक तापमान 1990 के मुकाबले 0.61 डिग्री सेल्सियस अधिक था। इस वृद्धि का 65 प्रतिशत हिस्सा शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों (सालाना आय लगभग 41 लाख रुपए प्रति व्यक्ति से अधिक) द्वारा किए जाने वाले उत्सर्जन से जुड़ा था। शीर्ष 1 प्रतिशत लोग, (सालाना आय 1.4 करोड़ रुपए प्रति व्यक्ति से अधिक) तापमान वृद्धि के 20 प्रतिशत हिस्से के लिए ज़िम्मेदार थे। और शीर्ष 0.1 प्रतिशत (लगभग 8,00,000 लोग, वार्षिक आय 5.13 करोड़ रुपए प्रति व्यक्ति से अधिक) तापमान वृद्धि के 8 प्रतिशत हिस्से के लिए ज़िम्मेदार थे।
औसत की तुलना में शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों ने वैश्विक तपन में 6.5 गुना अधिक, शीर्ष 1 प्रतिशत लोगों ने 20 गुना अधिक और शीर्ष 0.1 प्रतिशत लोगों ने 76 गुना अधिक योगदान दिया।
इस अध्ययन के सह-लेखक कार्ल-फ्रेडरिक श्लेसनर के अनुसार यदि सभी ने दुनिया की सबसे गरीब 50 प्रतिशत आबादी की तरह उत्सर्जन किया होता तो 1990 के बाद हमें बहुत अधिक गर्मी नहीं महसूस होती। दूसरी ओर, अगर सभी लोगों ने शीर्ष 10 प्रतिशत की तरह उत्सर्जन किया होता तो दुनिया पहले ही 2.9 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म हो चुकी होती।
अध्ययन की मुख्य लेखक सारा शॉन्गार्ट का कहना है कि मामला सिर्फ आंकड़ों का नहीं है। अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि जलवायु सम्बंधी चरम घटनाएं (climate disasters) केवल वैश्विक उत्सर्जन से नहीं बल्कि व्यक्तियों की विशिष्ट क्रियाओं और संपत्ति से भी होती हैं। यह शोध अमीरों पर जलवायु कर (carbon tax on rich) और विकासशील देशों के लिए अधिक जलवायु निधि (climate finance for developing countries) की आवश्यकता को मज़बूत करता है।
अध्ययन याद दिलाता है कि सबसे अधिक प्रभावित लोग अक्सर जलवायु आपदाओं का कारण नहीं होते। इसलिए कोई भी प्रभावी जलवायु नीति (climate policy) इस असंतुलन को ध्यान में रखते हुए न्यायपूर्ण होनी चाहिए। सबसे अमीर लोगों के कार्बन पदचिह्न (carbon footprint) को कम करना भावी नुकसान को कम करने का सबसे शक्तिशाली साधन होगा।(स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.guim.co.uk/img/media/de83a47049a1976fc72a0688838f465567c7f6a8/125_0_3750_3000/master/3750.jpg?width=1200&quality=85&auto=format&fit=max&s=1d5fa262f1e1f55370f10183c8259630
चीन के वैज्ञानिकों ने हाल ही में धान से जुड़ी एक बड़ी खोज की है। उन्होंने धान में एक ऐसा प्राकृतिक जीन पाया है जो दिन-ब-दिन गर्मा रही जलवायु (climate change impact on rice) में भी फसल की गुणवत्ता और पैदावार को बढ़िया बनाए रख सकता है। इस जीन से गेहूं और मक्का जैसी अन्य फसलों (heat-tolerant crops) को भी फायदा हो सकता है।
गौरतलब है कि धान की फसल को गर्माहट तो चाहिए होती है लेकिन अगर रातें ज़्यादा गर्म हो जाएं, खासकर धान फूलने के समय(flowering stage in rice), तो फसल को नुकसान होता है। गर्म रातों के कारण धान के दाने ‘चॉक’ जैसे सफेद और भुरभुरे हो जाते हैं, कुटाई के वक्त ये दाने टूट जाते हैं, और पकने पर चिपचिपे स्वादहीन लगते हैं। यह समस्या अब ज़्यादा बढ़ रही है क्योंकि जलवायु परिवर्तन की वजह से रात का तापमान दिन की तुलना में दोगुनी रफ्तार से बढ़ रहा है, खासकर एशिया और अफ्रीका के उन इलाकों में जहां धान उगाया जाता है (rice cultivation in Asia and Africa)।
2004 की एक रिपोर्ट के अनुसार यदि रात का औसत तापमान एक डिग्री सेल्सियस बढ़ता है तो धान की पैदावार 10 प्रतिशत तक घट सकती है (rice yield temperature effect)।
इसके समाधान के लिए 2012 में चीन की हुआझोंग एग्रीकल्चरल युनिवर्सिटी (Huazhong Agricultural University) के वनस्पति वैज्ञानिक यीबो ली और उनकी टीम ने धान की ऐसी किस्में खोजनी शुरू कीं जो अधिक गर्म रातें झेल सकें। उन्होंने चीन के चार गर्म इलाकों में धान 533 की किस्मों का परीक्षण किया। इनमें से दो किस्मों, Chenghui448 और OM1723, की गुणवत्ता और उपज गर्मी में भी अच्छी रही। फिर, इन दोनों किस्मों से संकर धान तैयार किया। इसके जीन विश्लेषण (gene analysis in rice) में क्रोमोसोम 12 पर उन्हें एक खास जीन मिला, जिसे QT12 नाम दिया गया है।
सामान्य स्थिति में तीन कारक QT12 जीन का नियमन करते हैं, और मिलकर इसे संतुलित रूप से काम करने देते हैं। लेकिन जब तापमान बढ़ता है तो इन तीनों में से एक नियामक अलग हो जाता है और QT12 ज़्यादा सक्रिय हो जाता है (heat-responsive genes in crops)। इससे धान की कोशिकाओं में एंडोप्लाज़्मिक रेटिकुलम प्रभावित होता है। यह कोशिका का वह हिस्सा है जो प्रोटीन को तह करने और उन्हें सही जगह पहुंचाने का काम करता है।
जब तापमान के कारण यह प्रक्रिया गड़बड़ा जाती है तो दाने के भ्रूणपोष में प्रोटीन कम और स्टार्च ज़्यादा जमा होने लगता है। यही असंतुलन दानों को ‘भुरभुरा’ (grain chalkiness due to heat) बनाता है।
वैज्ञानिकों ने QT12 की भूमिका को साबित करने के लिए एक ताप-संवेदी धान की किस्म में इस जीन को शांत कर दिया। नतीजे चौंकाने वाले थे: संशोधित धान ने गर्मी में भी सामान्य मात्रा में पैदावार दी, जबकि असंशोधित धान ने 58 प्रतिशत कम पैदावार दी। इसका मतलब है कि QT12 केवल दानों की गुणवत्ता नहीं, बल्कि उपज को भी प्रभावित करता है।
एक दिलचस्प बात यह है कि जीन एडिटिंग की तकनीक के बिना, पारंपरिक ब्रीडिंग (traditional breeding techniques) से भी काम चल सकता है। वैज्ञानिकों ने धान की कुछ किस्मों में QT12 के ऐसे प्राकृतिक रूप पाए हैं जो गर्मी में सक्रिय नहीं होते। जब उन्होंने इन्हें चीन की लोकप्रिय हाइब्रिड किस्म हुआझेन में जोड़ा, तो नतीजे आशाजनक मिले। गर्मी-सह्य इस नई हुआझेन किस्म ने 31-78 प्रतिशत तक अधिक पैदावार दी। सफेद और भुरभुरे दाने भी कम थे।
QT12 के ऐसे रूप ज़्यादातर गर्म इलाकों में उगाई जाने वाली इंडिका किस्मों (indica rice variety) में पाए जाते हैं, जबकि जेपोनिका किस्मों में ये जीन पूरी तरह अनुपस्थित हैं, जो ठंडे इलाकों (जैसे जापान, चीन के पहाड़ी क्षेत्र और अमेरिका) (temperate climate rice) में उगाई जाती हैं। QT12 जीन को जेपोनिका किस्मों में भी डाल कर इन क्षेत्रों की फसलों को भी गर्मी से बचाया जा सकेगा।
दिलचस्प बात यह है कि QT12 जीन सिर्फ धान में ही नहीं बल्कि गेहूं और मक्का जैसी दूसरी महत्वपूर्ण फसलों में भी ऐसे जीन मौजूद हैं(QT12 gene in wheat and maize)। वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि इस खोज की मदद से अब इन फसलों की भी गर्मी-सह्य किस्में तैयार की जा सकेंगी, जो खाद्य सुरक्षा को मज़बूती देगी(climate-resilient crops for food security)। हालांकि विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि अकेले QT12 बहुत ज़्यादा गर्मी से सभी धान की किस्मों को नहीं बचा सकता, खासकर जब रात का तापमान 30 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला जाए। इसलिए वैज्ञानिक अभी भी अन्य जीन और किस्मों पर शोध कर रहे हैं ताकि जलवायु संकट से लड़ने के और उपाय मिल सकें (genes for climate change adaptation in crops)। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zf0nylw/full/_20250501_nid_rice-1746039260693.jpg
सिंधु नदी (indus river) भारत की प्रमुख नदियों में से एक है, और दक्षिण एशिया (south asia) की सबसे महत्वपूर्ण नदियों में गिनी जाती है। यह तिब्बत की मानसरोवर झील के पास कैलाश पर्वत से निकलती है और जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश व पंजाब से होकर पाकिस्तान में प्रवेश करती है, जहां यह अरब सागर में मिलती है। इसकी कुल लंबाई लगभग 3180 किलोमीटर है।
1960 में भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु नदी के पानी के बंटवारे के लिए एक समझौता (Indus Water Treaty) हुआ था, जिसके तहत भारत को तीन पूर्वी नदियों (सतलुज, ब्यास, रावी) और पाकिस्तान को तीन पश्चिमी नदियों (सिंधु, चिनाब, झेलम) के पानी का अधिकांश उपयोग करने का अधिकार मिला। भारत ने 23 अप्रैल, 2025 को सिंधु जल समझौते को निलंबित करने की घोषणा की है, जिसके तहत सिंधु और इसकी सहायक नदियों (झेलम, चिनाब) के पानी को पाकिस्तान की ओर बहने पर नियंत्रण करने की योजना बनाई गई है। कारण है पिछले दिनों हुआ पहलगाम आतंकी हमला(Pahalgam terror attack)।
सवाल यह उठता है कि क्या सिंधु नदी के पानी को रोका जा सकता है? भारत से पाकिस्तान जाने वाली सिंधु नदी के पानी को पूरी तरह रोकना तकनीकी(engineering challenges), कानूनी(legal complications), और भौगोलिक दृष्टिकोण (geopolitical limitations) से बेहद जटिल है और वर्तमान में पूरी तरह संभव नहीं है। हालांकि, भारत की घोषणा के बाद पानी के प्रवाह को नियंत्रित करने की संभावनाएं बढ़ी हैं। लेकिन हमें इसकी तकनीकी और बुनियादी ढांचे की सीमाओं को भी समझना होगा। साथ ही यदि ऐसा किया गया तो इससे पड़ने वाले पर्यावरणीय प्रभावों का भी आकलन करना होगा।
सिंधु नदी और इसकी सहायक नदियों (झेलम, चिनाब) पर भारत के मौजूदा बांध, जैसे सलाल, बगलिहार, और किशनगंगा, अधिकतर ‘रन-ऑफ-दी-रिवर’ जलविद्युत परियोजनाएं (hydropower projects) हैं। इनकी भंडारण क्षमता बहुत कम (लगभग 3.6 अरब घन मीटर) है, जिससे पानी को लंबे समय तक रोकना मुश्किल है। उदाहरण के लिए, विशेषज्ञों के अनुसार, भारत अधिकतम 9 दिन तक पानी रोक सकता है। मतलब भारत के पास बड़े बांधों की कमी एक बाधा है।
पानी को पूरी तरह रोकने या मोड़ने के लिए बड़े पैमाने पर बांध, जलाशय, और नहरों की आवश्यकता होगी। ऐसी परियोजनाओं को पूरा होने में 10 से 20 साल लग सकते हैं, क्योंकि यह भूकंप संवेदनशील क्षेत्रों और दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में हैं। एक विशेष बात और, सिंधु नदी का भारी जल प्रवाह(monsoon river flow), खासकर मानसून के दौरान, रोकना असंभव है। बिना पर्याप्त बुनियादी ढांचे के पानी का अतिप्रवाह भारत में ही जलभराव या बाढ़ का कारण बन सकता है।
सिंधु जल समझौता (1960) (Indus Water Treaty 1960) के तहत भारत की पश्चिमी नदियां (सिंधु, झेलम, चिनाब) मुख्य रूप से पाकिस्तान को आवंटित हैं। भारत इनका गैर-खर्चीला उपयोग (जैसे जलविद्युत) कर सकता है, लेकिन प्रवाह को रोकने की अनुमति नहीं थी। अप्रैल 2025 में समझौते के निलंबन के बाद, भारत को कानूनी रूप से बांध बनाने या पानी रोकने की छूट मिल गई है, लेकिन यह निलंबन अंतर्राष्ट्रीय दबाव (global diplomatic pressure) का विषय हो सकता है। विश्व बैंक, जो समझौते का मध्यस्थ है, एवं अन्य वैश्विक मंच इस निलंबन पर सवाल उठा सकते हैं। पाकिस्तान ने पानी रोकने को ‘युद्ध का कृत्य’ करार दिया है, जिससे क्षेत्रीय तनाव बढ़ सकता है।
सिंधु नदी का पानी रोकने में चीन एक बड़ी समस्या बन सकता है। पानी रोकने से भारत-पाकिस्तान तनाव बढ़ेगा, और चीन ब्रह्मपुत्र नदी (Brahmaputra River) पर पानी रोक सकता है (क्योंकि सिंधु का उद्गम तिब्बत में है), जिससे भारत की 30 प्रतिशत ताज़ा पानी और 44 प्रतिशत जलविद्युत क्षमता प्रभावित हो सकती है। साथ ही हिमालयी क्षेत्र की नाज़ुक पारिस्थितिकी (fragile Himalayan ecology) को और भी नुकसान हो सकता है।
इस दिशा में भारत की वर्तमान रणनीति की बात करें तो भारत ने समझौते को निलंबित करने के बाद त्रिस्तरीय योजना (अल्पकालिक, मध्यकालिक, दीर्घकालिक) (short-term, mid-term, long-term strategy) बनाई है, जिसमें शामिल हैं – मौजूदा बांधों की भंडारण क्षमता बढ़ाना, जल प्रवाह डैटा साझा करना और सिल्ट (गाद) (glaical silt management) को बिना चेतावनी के छोड़ना, जो पाकिस्तान में नुकसान कर सकता है। जम्मू-कश्मीर में नई जलविद्युत परियोजनाओं (जैसे रातले, किशनगंगा) को तेज़ करना, जिन्हें पहले पाकिस्तान ने रोका था। बड़े बांध और नहरें बनाकर पानी को मोड़ना, जैसे मरुसुदर परियोजना, लेकिन यह लंबा समय लेगा। यदि देखा जाए तो भारत ने पहले ही रावी नदी का पानी शाहपुर-कांडी बैराज के माध्यम से रोक लिया है, जो समझौते के तहत उसका अधिकार था। यह पानी अब जम्मू-कश्मीर और पंजाब में उपयोग हो रहा है।
भारत से पाकिस्तान जाने वाली सिंधु नदी के पानी को रोकने की कोशिश से कई गंभीर पर्यावरणीय जोखिम (environmental risks) उत्पन्न हो सकते हैं, जो भारत, पाकिस्तान और क्षेत्रीय पारिस्थितिकी तंत्र पर व्यापक प्रभाव डाल सकते हैं। सबसे पहले बात करते हैं नदी के प्राकृतिक प्रवाह में व्यवधान की। बड़े बांध या जलाशय बनाकर पानी रोकने से सिंधु और इसकी सहायक नदियों (झेलम, चिनाब) का प्राकृतिक प्रवाह बाधित होगा। इसका दुष्प्रभाव यह होगा कि मछलियों (जैसे महसीर, हिल्सा) और अन्य जलीय प्रजातियों का प्रवास रुक सकता है, जिससे उनकी आबादी घटेगी। पाकिस्तान का सिंधु डेल्टा और भारत के जम्मू-कश्मीर, पंजाब की नदी पर निर्भर आर्द्रभूमि और डेल्टा क्षेत्र सूख सकते हैं, जिससे जैव-विविधता नष्ट (biodiversity loss) हो सकती है।
दूसरा सबसे बड़ा खतरा है भारत में जलभराव और बाढ़ का। भारत के पास पानी भंडारण की सीमित क्षमता है। पानी रोकने से मानसून के दौरान जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में जलभराव या बाढ़ हो सकती है, जिससे कृषि भूमि, बस्तियों, और बुनियादी ढांचे को बड़ा नुकसान हो सकता है। वहीं, मिट्टी का कटाव और गाद जमा होने से बांधों की दक्षता कम हो सकती है। यहां एक बड़ा खतरा जैव-विविधता के नुकसान का है, क्योंकि पानी का प्रवाह कम होने से नदी पर निर्भर प्रजातियां और उनके आवास नष्ट हो सकते हैं, जिससे इंडस रिवर डॉल्फिन (Indus River Dolphin – endangered species) (पाकिस्तान में लुप्तप्राय) और अन्य जलीय जीव विलुप्त हो सकते हैं। इसके साथ प्रवासी पक्षी (जैसे साइबेरियन क्रेन) और नदी किनारे की वनस्पतियां प्रभावित हो सकती हैं।
इस कृत्य से मिट्टी और जल की गुणवत्ता पर असर पड़ सकता है, जिससे पानी रोकने से जलाशयों में गाद जमा होगी और नदी में प्रदूषण की सांद्रता बढ़ेगी। गाद जमा होने से भारत के जलाशयों की क्षमता और जल की गुणवत्ता कम होगी। वहीं, पाकिस्तान में कम पानी के कारण प्रदूषक (औद्योगिक और घरेलू) अधिक सघन होंगे, जिससे सिंचाई और पेयजल की गुणवत्ता प्रभावित होगी। यह समस्या मिट्टी की उर्वरता में कमी तक सीमित नहीं रहेगी बल्कि इससे अनेक स्वास्थ्य समस्याएं जन्म लेंगी। सिंधु नदी पर पाकिस्तान की 80 प्रतिशत कृषि और 90 प्रतिशत खाद्य उत्पादन निर्भर है। पानी कम होने से सूखा (drought) और मरुस्थलीकरण बढ़ेगा। सिंधु डेल्टा के सूखने के साथ समुद्र के खारे पानी का अतिक्रमण (saltwater intrusion) होगा, जिससे तटीय पारिस्थितिकी नष्ट होने की कगार पर पहुंच सकती है। इसके दीर्घकालिक जोखिम के चलते बड़े क्षेत्र बंजर हो सकते हैं।
सिंधु नदी हिमालयी ग्लेशियरों (Himalayan glaciers) पर निर्भर है, जो जलवायु परिवर्तन (climate change impact) के कारण तेज़ी से पिघल रहे हैं। अनुमान है कि 1900 से अब तक हिमालय के ग्लेशियर 30-50 प्रतिशत सिकुड़ चुके हैं, और 2100 तक 66 प्रतिशत तक गायब हो सकते हैं। पानी रोकने से जल प्रवाह और भी अनिश्चित हो जाएगा। बड़े बांध और जलाशय स्थानीय जलवायु को प्रभावित कर सकते हैं, जिससे हिमालयी क्षेत्र में तापमान बढ़ सकता है। इससे ग्लेशियर और तेज़ी से पिघलेंगे, जिससे दीर्घकालिक जल संकट उत्पन्न हो सकता है, क्योंकि ग्लेशियरों का जल भंडार समाप्त हो जाएगा। जलाशयों में जैविक पदार्थों के सड़ने से मीथेन (एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस) (methane emission) का उत्सर्जन बढ़ेगा, जो जलवायु परिवर्तन को और तेज़ करेगा। इससे वैश्विक तापमान और हिमालयी पारिस्थितिकी पर दबाव में वृद्धि होगी।
सिंधु नदी का पानी रोकने के लिए बनाए जाने वाले बड़े-बड़े बांधों से भूकंपीय जोखिम पैदा हो सकता है; वैसे भी जम्मू-काश्मीर जैसे भूकंप संवेदनशील क्षेत्रों में बड़े बांध बनाना खतरनाक सिद्ध हो सकता है। भूकंप से बांध टूटने का खतरा बना रहेगा, जिससे बाढ़ और तबाही हो सकती है। जलाशयों का वज़न ‘प्रेरित भूकंप’ को ट्रिगर कर सकता है। यदि देखा जाए तो हिमालयी क्षेत्र में पहले से ही भूकंपीय गतिविधियां उच्च हैं। सारतः सिंधु नदी का पानी रोकना भारत और पकिस्तान, दोनों के लिए पर्यावरणीय और सामाजिक जोखिम (environmental and geopolitical risks) भरा सिद्ध हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/businesstoday/images/story/202504/68091441ebf8f-80-of-pakistans-cultivated-landabout-16-million-hectaresrelies-on-water-from-the-indus-system-23242820-16×9.jpg?size=948:533
वृक्ष हमारे जीवन के लिए अत्यावश्यक हैं, इस बात पर दृढ़ विश्वास रखने वाले प्रसिद्ध वृक्ष प्रेमी और वृक्ष योद्धा श्री ‘वनजीवी’ रमैया (vanjeevi ramaiah) का पिछले महीने निधन हो गया। पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित इस शख्सियत ने तेलंगाना में एक करोड़ से अधिक पौध-रोप लगायीं (tree plantation in Telangana), ताकि हम प्रकृति के साथ सामंजस्य में रह सकें। लेकिन कांचा गच्चीबावली क्षेत्र को लेकर तेलंगाना राज्य सरकार और हैदराबाद विश्वविद्यालय के बीच मौजूदा विवाद ने रमैया को निराश ही किया होगा। विश्वविद्यालय चाहता है कि यह क्षेत्र एक हरे-भरे वन क्षेत्र (urban green space) के रूप में बना रहे, जिसमें निसर्ग की उपहार रूपी 700 किस्म की वनस्पतियां, 200 तरह के पक्षी और 10-20 स्तनधारी प्रजातियां संरक्षित रहें। लेकिन राज्य सरकार चाहती है कि इसमें क्षेत्र प्रौद्योगिकी पार्क (technology park development) और ऐसे ही अन्य निर्माण किए जाएं। ज़मीन की यह ‘लड़ाई’ सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court case) तक पहुंच गई है, और हम न्यायलय के फैसले के मुंतज़िर हैं।
दुर्भाग्य से, भारत के कई अन्य राज्यों में भी यही हालात हैं। राज्य ऐसी वन भूमि पर हाई-टेक शहर (hi-tech city projects), फार्माश्युटिकल क्षेत्र, राजमार्ग, तेज़ रफ्तार ट्रेन ट्रैक और हवाई अड्डे निर्माण किए जा रहे हैं। हालांकि ये सभी निर्माण सार्वजनिक ज़रूरत के लिए ज़रूरी हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या इन ज़रूरतों की पूर्ति हरियाली, फूलदार पौधों (biodiversity loss) और इन पर निर्भर रहने वाले आदिवासी लोगों के विनाश की कीमत पर होना चाहिए? ऐसा करना क्या वनजीवी रमैया के कामों और विचारों के साथ विश्वासघात नहीं माना जाएगा?
हमने यहां ‘विश्वासघात’ शब्द प्रोफेसर पंकज सेकसरिया के नज़रिए से उपयोग किया है। पंकज सेकसरिया समाज, पर्यावरण (environmental justice), विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बीच के जटिल सम्बंधों के साथ-साथ पर्यावरण और वन्यजीव संरक्षण को जानने-समझने का काम करते हैं, इस परिप्रेक्ष्य में उन्होंने निकोबार द्वीप समूह पर तीन दशकों से अधिक समय तक काम किया है। उन्होंने दी ग्रेट निकोबार बिट्रेयल नामक एक पुस्तक संकलित की है। इस पुस्तक में बताया गया है कि केंद्र सरकार ने प्रस्ताव दिया है कि वह किस तरह निकोबार द्वीप समूह का उपयोग कई उद्देश्यों के लिए करेगी: मालवाहक जहाज़ के लिए गैलाथिया खाड़ी में एक ट्रांस-शिपमेंट सुविधा (transshipment port project) बनेगी, एक अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा (international airport construction) बनेगा और बिजली के लिए एक बिजली संयंत्र लगेगा। इसके अलावा, छुट्टियां बिताने और उपरोक्त परियोजनाओं के संचालन के लिए मुख्य भारत भूमि से लोगों को यहां बुलाया और बसाया जाएगा, जिससे यहां की आबादी 8000 (मूल निवासियों) से बढ़कर लगभग 3.5 लाख तक हो जाएगी। इस आबादी को बसाने के लिए एक ग्रीनफील्ड टाउनशिप (greenfield township) बनाने की योजना भी है।
पुस्तक में पारिस्थितिक भव्यता से सम्बंधित कई महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए गए हैं, जो निकोबार द्वीप समूह की 2000 से अधिक जंतु प्रजातियों और 811 वनस्पति प्रजातियों के भविष्य और यहां के मूल निवासियों के भविष्य की चिंता से सम्बंधित हैं। ये सभी केंद्र सरकार द्वारा नियोजित ‘विकास’ से प्रभावित होंगे। इसके अलावा, मूल निकोबारी जनजातियों की आजीविका जंगलों पर निर्भर है, जंगल उनके लिए अनिवार्य हैं। लेकिन ‘विकास’ के चलते जैसे-जैसे वनों की कटाई के लिए भूमि का अधिग्रहण किया जाएगा, मूल निकोबारी जनजातियां – खासकर असुरक्षित आदिवासी समुदाय शोम्पेन (Shompen tribe displacement) – इससे प्रभावित होंगी। फिर, विकास के लिए समुद्र तट भी हथियाया जाएगा, इसके चलते समुद्र तट पर हर मौसम में पाए जाने वाले विशालकाय लेदरबैक कछुओं (leatherback turtles endangered) पर भी खतरा मंडराने लगेगा। आदिवासी कल्याण मंत्रालय ने इन चिंताओं पर अब तक कोई जवाब नहीं दिया है।
लेकिन, जनवरी 2023 में पूर्व लोक सेवकों के एक समूह ने भारत के राष्ट्रपति को पत्र लिखकर बताया था कि कैसे भारत सरकार विभिन्न दुर्लभ और देशज प्रजातियों के प्राचीन प्राकृतिक आवास को नष्ट करने पर उतारू है। आगे वे कहते हैं कि कैसे सरकार निकोबार से 2600 किलोमीटर दूर हरियाणा में जंगल लगाकर इस नुकसान की ‘क्षतिपूर्ति’ (forest offset policy) करेगी!
भारत विश्व के उन 200 देशों में से एक है जिन्होंने जैव विविधता समझौते (biodiversity agreement) पर हस्ताक्षर किए हैं। इसके तहत भारत अधिक पारिस्थितिक समग्रता वाले पारिस्थितिकी तंत्रों सहित उच्च जैव विविधता महत्व वाले क्षेत्रों के ह्रास (विनाश) को लगभग शून्य करने के लिए प्रतिबद्ध है। पूर्व लोक सेवकों का राष्ट्रपति और भारत सरकार से अनुरोध है कि वे ग्रेट निकोबार में शुरू की जा रही विनाशकारी परियोजनाओं को तुरंत रोक दें। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://humansofhyderabad.co.in/wp-content/uploads/2021/06/IMG_20210605_093406_608-970×1076.jpg
हज़ारों सालों से इंसान ज़मीन ने धातुएं निकालकर तरह-तरह के औज़ार और उपकरण बनाते आए हैं – पुराने तांबे-कांसे-लोहे के औज़ारों से लेकर वर्तमान जटिल इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों तक (heavy metals in soil)। लेकिन इस तरक्की की एक भारी कीमत भी चुकानी पड़ी है: मृदा में ज़हरीली धातुओं का संदूषण(soil contamination)। हाल ही में वैज्ञानिकों बताया है कि पृथ्वी की ऊपरी मृदा (टॉप-सॉइल) का एक बड़ा हिस्सा ज़हरीली धातुओं से संदूषित है। यह संदूषण लगभग एक से डेढ़ अरब लोगों के लिए खतरा बन सकता है (toxic metals health risk)।
साइंस पत्रिका में प्रकाशित यह अध्ययन वैश्विक स्तर पर मृदा में मौजूद ज़हरीली धातुओं का पहला व्यापक विश्लेषण (global soil pollution study) है। इसमें दुनिया भर से जुटाए गए लगभग 8 लाख मृदा नमूनों का डैटा इस्तेमाल किया गया है। अध्ययन के अनुसार दक्षिणी युरोप से चीन तक फैले एक बड़े इलाके और अफ्रीका तथा अमेरिका के कई हिस्सों में मृदा खतरनाक स्तर तक संदूषित है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि दुनिया की 14-17 प्रतिशत कृष्य भूमि इससे प्रभावित है, जिससे लोगों की सेहत और खाद्य सुरक्षा दोनों पर असर पड़ेगा (agricultural land contamination)।
गौरतलब है कि आर्सेनिक, कैडमियम, सीसा जैसी ज़हरीली धातुएं इंसानी सेहत के लिए अत्यंत नुकसानदायक होती हैं (arsenic cadmium lead effects)। ये कैंसर, दिल और फेफड़ों की बीमारियों के साथ-साथ बच्चों के मानसिक विकास में रुकावट पैदा कर सकती हैं। थोड़ी मात्रा में तो ये धातुएं मृदा में प्राकृतिक रूप से होती हैं, लेकिन खनन, धातु संगलन जैसी गतिविधियों से इनकी मात्रा बहुत बढ़ जाती है (metal mining pollution)।
वैश्विक स्तर पर इनका प्रसार जानने के लिए ज़िंगहुआ विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डेयी हॉउ के दल ने मृदा में ज़हरीली धातुओं पर हुए 1493 अध्ययनों से डैटा जुटाया। फिर मशीन लर्निंग तकनीक की मदद से उन्होंने उन इलाकों में भी धातुओं की मौजूदगी का अनुमान लगाया, जहां इस तरह के अध्ययन नहीं हुए थे (AI in environmental research)। इस तरह से तैयार विस्तृत वैश्विक नक्शा दर्शाता है कि विश्व के किन-किन हिस्सों में मृदा में खतरनाक मात्रा में ज़हरीली धातुएं हो सकती हैं।
इस अध्ययन में पाया गया कि कैडमियम सबसे व्यापक रूप से फैली संदूषक (cadmium soil levels) है – लगभग 9 प्रतिशत ऊपरी मृदा में इसका स्तर उच्च पाया गया। कैडमियम प्राकृतिक रूप से चट्टानों के अपरदन और इंसानी गतिविधियों, जैसे ज़िंक खनन और बैटरी उत्पादन से आती है। इसका मिट्टी में मिलना खास तौर पर चिंताजनक है क्योंकि यह आसानी से फैलती है और खाद्य शृंखला (food chain contamination) में प्रवेश कर सकती है।
हालांकि मृदा में धातु संदूषण से खतरा इस बात पर निर्भर करता है कि पौधे इन धातुओं को कितनी आसानी से अवशोषित करते हैं। उदाहरण के लिए, क्षारीय या चूनेदार मृदा में, कैडमियम जैसी धातुएं फसलों द्वारा कम अवशोषित होती हैं। फिर भी, वैज्ञानिक अधिक शोध पर ज़ोर देते हैं। वे विशेष रूप से यह समझना चाहते हैं कि ये धातुएं विभिन्न प्रकार की मृदाओं में कैसे व्यवहार (metal uptake in plants) करती हैं।
इस अध्ययन की एक सीमा भी है: इसमें धातुओं के अलग-अलग यौगिकों का विश्लेषण नहीं किया गया जिससे यह निर्धारित किया जा सके कि वे कितनी विषैली हैं। केवल जैविक रूप से उपलब्ध धातुएं, जिन्हें पौधे और जीव अवशोषित कर सकते हैं, ही गंभीर खतरा होती हैं। फिर भी, इन निष्कर्षों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए।
इस अध्ययन में पहचाने गए सबसे अधिक जोखिम वाले क्षेत्र (high risk zones soil pollution) हैं दक्षिणी चीन, उत्तरी भारत, और मध्य पूर्व। सबसे हैरत की बात धातु संदूषण के प्रसार का एक गलियारा है जो दक्षिण युरोप से लेकर पूर्वी एशिया तक फैला है। यह गलियारा विश्व की कुछ सबसे प्राचीन सभ्यताओं से होकर गुज़रता है जहां खनन, उद्योग और बदलते मौसमों का लंबा इतिहास रहा है। यहां की कुछ मृदाएं क्षारीय हैं और विषाक्तता को कम कर सकती हैं। समग्र चित्र दर्शाता है कि यह मानव द्वारा पृथ्वी की सतह पर गहरा प्रभाव डालने का परिणाम है। बहरहाल, दुनिया को बैटरी और सौर पैनलों जैसी हरित प्रौद्योगिकियों (green technology metals demand) के लिए अधिक धातुओं की आवश्यकता है; इससे मृदा संदूषण का जोखिम बढ़ सकता है। अध्ययन के लेखकों ने सरकारों से अनुरोध किया है कि वे मृदा की जांच बढ़ाएं, विशेष रूप से अफ्रीका के उप-सहारा क्षेत्रों जैसी जगहों में जहां अध्ययन कम हुए हैं। कुल मिलाकर यह अध्ययन दर्शाता है कि हमारे पैरों तले की ज़मीन उतनी सुरक्षित नहीं है जितना हम सोचते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zkjwcuq/full/_20250417_on_metalpollution-1744915362080.jpg
हाल ही में भारत के पर्यावरण मंत्रालय और हारवर्ड युनिवर्सिटी द्वारा आयोजित जलवायु सम्मेलन (climate summit india) में एक नक्शा दिखाया गया जिसमें पूरी दुनिया लाल रंग में तापमान वृद्धि दिखा रही थी, लेकिन भारत तुलनात्मक रूप से हल्के रंग में था। यानी नक्शा दिखा रहा था कि दुनिया के ज़्यादातर हिस्सों में तापमान तेज़ी से बढ़ रहा है, लेकिन भारत अपेक्षा से धीरे-धीरे गर्म हो रहा है (global warming map, temperature anomaly India)।
किंतु, हाल के वर्षों के अपने अनुभवों और आंकड़ों को देखें तो भारत में रिकॉर्ड तोड़ गर्मी (record heatwave India) और लू दर्ज की गई है। फिर भी चार्ट बताता है कि 1901 से अब तक भारत का सालाना औसत तापमान 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है, जो कि वैश्विक औसत से लगभग आधा है।
सवाल है कि ऐसा कैसे कि एक तरफ देश में भीषण गर्मी पड़ रही है और दूसरी तरफ दीर्घकालिक तापमान वृद्धि धीमी दिख रही है?
इस विरोधाभास की एक बड़ी वजह वायु प्रदूषण (air pollution India) माना जा रहा है। खासकर उत्तर भारत में गंगा का मैदानी इलाका दुनिया के सबसे प्रदूषित क्षेत्रों (most polluted region) में से एक है। यहां उद्योगों, गाड़ियों, खाना पकाने, पराली जलाने और धूल के कारण हवा में सूक्ष्म कणों से भरपूर एरोसोल छा जाते हैं। ये सूरज की रोशनी को वापस अंतरिक्ष में परावर्तित कर देते हैं (aerosol effect on climate) और हवा को ठंडा कर देते हैं। यह प्रदूषण कभी-कभी ग्रीनहाउस गैसों के असर को दबा देता है।
लेकिन यह तर्क पूरी तरह मज़बूत नहीं है। सभी एरोसोल ठंडक नहीं पहुंचाते – जैसे काला धुआं (कालिख) (black carbon pollution) गर्मी को सोखता है और वातावरण को गर्म करता है। मुंबई के वैज्ञानिक रघु मूर्तुगुड़े कहते हैं कि भारत में सबसे ज़्यादा प्रदूषण सर्दियों में होता है, और सबसे तेज़ तापमान वृद्धि भी उन्हीं महीनों में देखी गई है। इसका मतलब है कि सिर्फ एरोसोल इस पैटर्न की व्याख्या नहीं कर सकता।
एक और कारण बदलता पवन चक्र (changing wind patterns) हो सकता है। रघु मूर्तुगुड़े और उनके साथियों ने पाया है कि मध्य एशिया में तेज़ गर्मी के कारण मानसूनी हवाओं की दिशा बदल रही है। अब ये हवाएं थोड़ा उत्तर की ओर खिसक रही हैं, जिससे पाकिस्तान और उत्तर-पश्चिम भारत के सूखे इलाकों में ज़्यादा बारिश हो रही है। अब वैज्ञानिक यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या बाकी मौसमों में भी पवन चक्र में ऐसे ही बदलाव भारत में तापमान को अपेक्षाकृत ठंडा बनाए हुए हैं।
एक तीसरी वजह भारत में बड़े पैमाने पर सिंचाई (large-scale irrigation India) हो सकती है, खासकर उत्तर भारत में। जब खेतों और पौधों से पानी भाप बनकर उड़ता है, तो वह हवा से गर्मी खींचता है, जिससे ठंडक महसूस होती है (evapotranspiration cooling effect)। ऐसा असर अमेरिका के मिडवेस्ट इलाके में भी अत्यधिक खेती की वजह से देखा गया है।
कुछ शोध बताते हैं कि 20वीं सदी में पूरे दक्षिण एशिया में बड़े स्तर पर हुई सिंचाई ने तापमान वृद्धि की रफ्तार (agriculture and climate interaction) को धीमा कर दिया। लेकिन इस पर भी सवाल उठाए गए हैं। कुछ भारतीय वैज्ञानिकों का मानना है कि उपग्रहों से मिले आंकड़े गर्मियों में सिंचाई की मात्रा को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाते हैं। गर्मियों में ही सिंचाई सबसे कम होती है, और उसी समय तापमान वृद्धि में कमी सबसे ज़्यादा दिखाई देती है।
वहीं, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस के गोविंदसामी बाला का मानना है कि भारत नम-उष्णकटिबंधीय क्षेत्र (humid tropical climate) में स्थित है और यहां का प्राकृतिक मौसम चक्र खुद ही इस धीमी तापमान वृद्धि का कारण हो सकता है। उनके अनुसार, प्रदूषण और सिंचाई का असर स्थानीय स्तर पर हो सकता है, लेकिन पूरे देश के तापमान पर इसका खास असर नहीं पड़ता।
बहरहाल, उपरोक्त संभावित कारकों के अलावा एक और बात ध्यान में रखने की है। इस सम्मेलन का आयोजक स्वयं जलवायु मंत्रालय था, जो जलवायु परिवर्तन (climate change India) और बढ़ते तापमान को थामने के लिए ज़िम्मेदार है। फिर, भारत में आंकड़ों की हालत बहुत अच्छी नहीं है। उपरोक्त सारे आंकड़े उपग्रहों से प्राप्त हुए हैं और इनकी पुष्टि मैदानी आंकड़ों से करना ज़रूरी है। और, आंकड़े वही बयान करते हैं जो उनसे बयान करवाया जाता है।
कारण चाहे जो भी हो एक बात साफ है कि इस पर गहराई से अध्ययन (climate data analysis) और जांच-पड़ताल की ज़रूरत है। अधिक काम ही स्थिति को स्पष्ट कर पाएगा। और एक बात, भारत में औसत तापमान धीरे-धीरे बढ़े या तेज़ी से, लेकिन ग्रीष्म लहरें तो बढ़ रही हैं (heatwaves India 2023)। 2023 भारत के इतिहास का सबसे गर्म साल रहा, जिसमें भीषण ग्रीष्म लहरों ने 700 से ज़्यादा लोगों की जान ली। विशेषज्ञों का मत है कि आगामी सालों में गर्मियां और भी घातक हो सकती हैं। इसलिए बढ़ते तापमान को थामने और बदलती जलवायु को रोकने के प्रयास करने में ही भलाई है(climate action India)। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/content/article/india-global-warming-hole-scientists-arent-sure#:~:text=India%27s%20slower%20warming%2C%20he%20said,could%20also%20be%20just%20noise.%E2%80%9D
माइक्रोप्लास्टिक (microplastics pollution) हर जगह पहुंच गया है – गहरे समुद्र से लेकर मानव मस्तिष्क (microplastics in human brain) तक। प्लास्टिक के 5 मिलीमीटर से छोटे-छोटे टुकड़ों के लिए माइक्रोप्लास्टिक शब्द वैज्ञानिकों ने 2000 के दशक में गढ़ा था, लेकिन इस समस्या ने अपने पांव पसारना उसके बहुत पहले ही शुरू कर दिया था। साइंस ऑफ दी टोटल एनवायरनमेंट जर्नल (Science of the Total Environment journal) में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि कुछ कीटों की इल्लियां शिकारियों से बचाने वाले अपने खोल में 1970 के दशक से ही प्लास्टिक शामिल करने लगी थीं।
दरअसल वैज्ञानिक यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि जीव-जंतुओं के दैनिक जीवन में मानव अपशिष्ट (human waste impact on wildlife) कैसे शामिल हो रहे हैं। कई अध्ययनों की अपनी इस शृंखला में वे पहले कई खुलासे कर चुके हैं। और अपने इस हालिया अध्ययन में उन्होंने ने कैडिसफ्लाय (ट्राइकोप्टेरा) (Trichoptera insects) की इल्ली के बारे में बताया है।
दरअसल, कैडिसफ्लाय पंखदार कीटों का एक समूह है, जिसकी इल्लियां तो पानी में पलती हैं लेकिन वयस्क कीट भूमि (aquatic to terrestrial insect life cycle) (थल) पर रहते हैं। जब ये इल्लियां पानी में रहती हैं तो वे कंकड़-पत्थर या पत्तियों जैसी सामग्री से अपना सुरक्षा कवच बनाती हैं। वयस्क होने पर यह कवच पानी में ही छोड़कर वयस्क कीट भूमि पर आ जाते हैं।
शोधकर्ताओं ने नेदरलैंड के एक प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय (Netherlands natural history museum) में दशकों की अवधि में सहेजे गए 549 खोलों के संग्रह का विश्लेषण किया। 1986 के कुछ कवचों में उपस्थित चमकीले नीले कणों ने शोधकर्ताओं का ध्यान खींचा। फिर, 1971 के एक कवच में उन्हें पीले रंग के कण मिले। आगे अध्ययन में उन्हें कवच में टाइटेनियम, जस्ता और सीसा जैसे सामान्य प्लास्टिक योजक (plastic additives in insects) होने के प्रमाण मिले। कवचों में प्लास्टिक की इस उपस्थिति पर वैज्ञानिकों का कहना है कि रंगीन माइक्रोप्लास्टिक इल्ली को शिकारियों की नज़रों में अधिक दिखने योग्य बना देगा, जिससे वे मछलियों, पक्षियों और अपने अन्य शिकारियों के कारण खतरे में पड़ सकती हैं(predation risk due to microplastics)। साथ ही यदि कैडिसफ्लाय पिछले 50 वर्षों से माइक्रोप्लास्टिक से प्रभावित है तो निश्चित रूप से मीठे पानी का पूरा पारिस्थितिकी तंत्र (freshwater ecosystem pollution) प्रभावित होगा। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zhlvqx6/full/_20250411_on_microplastics-1744384152787.jpg
अपनी चाहतों के चलते हमारी ऊर्जा ज़रूरतें (energy demands) दिनों दिन बढ़ती जा रही हैं। इनकी पूर्ति के लिए हम नए-नए ऊर्जा स्रोत (energy sources) खोजते रहते हैं, अपने देशों में न मिलें तो बाहर से मंगवाते हैं। लेकिन ज़रा नहीं सोचते कि इन बढ़ती ख्वाहिशों की पूर्ति के लिए चल रहे क्रियाकलापों (industrial activities) से जीव-जंतुओं, उनके प्राकृतवासों और पारिस्थितिकी (ecosystem balance) पर कैसे प्रतिकूल असर पड़ेंगे?
लेकिन जीव विज्ञानियों (biologists), पारिस्थितिकीविदों (ecologists) और पर्यावरण कार्यकर्ताओं (environmental activists) को यह चिंता लगातार सताती रहती है। उनकी ऐसी ही एक चिंता है मेक्सिको की एक सबसे बड़ी ऊर्जा परियोजना (Mexico energy projects) सगुआरो एनर्जिया परियोजना या टर्मिनल जीएनएल डी सोनोरा (TGNLS) परियोजना।
TGNLS टर्मिनल मेक्सिको के प्यूर्टो लिबटार्ड (Puerto Libertad) में स्थापित किया जा रहा है। इस टर्मिनल से टेक्सास (Texas) स्थित प्राकृतिक गैस (natural gas) के कुओं से तरल प्राकृतिक गैस (LNG – Liquified Natural Gas) विदेशी बाज़ारों, खासकर एशियाई देशों, को निर्यात की जाएगी। पर्यावरणविद बताते हैं कि इस परियोजना में LNG निर्यात के लिए बड़े-बड़े जहाज़ी टैंकरों (LNG Tankers) का जो मार्ग निर्धारित किया गया है उसके कारण पहले से ही जोखिमग्रस्त ब्लू व्हेल (endangered blue whales) समेत अन्य समुद्री जीवों (marine animals) के आवास (habitats), प्रजनन (breeding), भोजन (feeding grounds) और प्रवास (migration patterns) प्रभावित होंगे; उनका जीवन और भी जोखिमपूर्ण हो जाएगा।
दरअसल, प्यूर्टो लिबटार्ड कैलिफोर्निया खाड़ी (gulf of california) के शीर्ष के नज़दीक स्थित है। कैलिफोर्निया खाड़ी को नक्शे में देखेंगे तो पाएंगे कि यह संकरी और लंबी (1100 किलोमीटर लंबी) है। यह जगह कई समुद्री स्तनधारियो (व्हेल जैसे सीटेशियन)(marine mammals) का हॉट-स्पॉट (biodiversity hotspot) है। यह स्थल सीटेशियन्स की तकरीबन 36 प्रजातियों का घर है। यह कई प्रजातियां का भोजन और प्रजनन क्षेत्र है। गौरतलब है कि यहां रहने वाली व्हेल की कई प्रजातियां लुप्तप्राय (whale species endangered) की श्रेणी में हैं। अब यदि यह परियोजना बनेगी तो खतरे और बढ़ेंगे।
बीस साल पुरानी इस परियोजना का स्वरूप और उद्देश्य अपने प्रारंभ के समय से बहुत अलग हो गया है। इस टर्मिनल को मूल रूप से मेक्सिको में गैस आयात करने के लिए डिज़ाइन किया गया था। लेकिन आयात टर्मिनल (import terminal) कभी बना ही नहीं। फिर 2018 में, मेक्सिको पैसिफिक नामक एक कंपनी ने इस परियोजना को अपने नियंत्रण ले लिया और इसकी डिजाइन को एक निर्यात टर्मिनल (export terminal) में बदल दिया। नई डिज़ाइन में यह टर्मिनल मूल डिज़ाइन से तीन गुना बड़ा है। इसके तहत 800 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन बिछेगी, और पाइपलाइन एवं बड़े-बड़े जहाज़ी टैंकरों के ज़रिए टेक्सास के कुओं से प्रतिदिन 2.8 अरब क्यूबिक फीट प्राकृतिक गैस मुख्यत: एशिया को भेजी जाएगी। इतने सब तामझाम की लागत 15 अरब डॉलर है।
इन्हीं बदलावों के चलते कंपनी को परियोजना का पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (Environmental Impact Assessment – EIA) नए सिरे से करना था। 2023 में, कंपनी ने मेक्सिको की नियामक एजेंसियों को इस परियोजना के पर्यावरणीय प्रभाव के आकलन और उन प्रभावों को सीमित करने की योजनाओं की रिपोर्ट सौंपी थी। लेकिन इस रिपोर्ट का बारीकी से विश्लेषण करने वाले जीव विज्ञानियों और पर्यावरणविदों का कहना है कि इस ‘पर्यावरण प्रभाव आकलन’ रिपोर्ट में कई त्रुटियां (critical flaws) है, कई चीज़ें छूटी हैं, और कई आंकड़े सही पेश नहीं किए गए हैं। जैसे टैंकरों का एकदम ठीक-ठीक मार्ग (exact LNG tanker route) क्या होगा, व्हेल की कौन सी प्रजातियों की कितनी-कितनी संख्या कहां-कहां है, और टैंकरों के तय मार्ग में कितने जीव इस टकराव (collision risk) को झेलेंगे।
दरअसल कैलफोर्निया खाड़ी से गुज़रने वाला परियोजना का प्रस्तावित मार्ग व्हेल और अन्य कई समुद्री जीवों का प्रमुख आवास है, और कई प्रजातियां अपनी प्रवास यात्रा के लिए यही मार्ग अपनाती हैं। ज़ाहिर है समुद्री जीवों की इन जहाज़ों से टक्कर की संभावना (ship strike risk) है जो उनके लिए जानलेवा साबित हो सकती है। और व्हेल टक्कर से बच भी गईं तो जहाज़ों से होने वाला शोर (ship noise pollution) उनके संवाद को तहस-नहस कर देगा। रिपोर्ट में जहाज़ों द्वारा उत्पन्न ध्वनि प्रदूषण (underwater noise impact) पर भी कोई बात नहीं की गई है। जबकि पूर्व अध्ययनों मे देखा गया है कि जहाज़ का शोर व्हेल के व्यवहार (behavioral change due to noise) को बदल सकता है।
इन सब खामियों के चलते जीव विज्ञानियों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं (scientists and conservationists) ने इन मुद्दों को कानूनी रूप से उठाया है; इस परियोजना के विरोध में पांच मुकदमे (lawsuit against project) दायर किए गए हैं। फिलहाल इन प्रयासों से मेक्सिको की पर्यावरण अनुमति एजेंसी ने इस परियोजना पर वक्ती रोक (temporary suspension) लगा दी है। साथ ही पर्यावरण हितैषियों ने इस मुद्दे पर जागरुकता के लिए ‘व्हेल या गैस’ अभियान (whale vs gas campaign) शुरू किया है। बहरहाल, भले ही यह मुद्दा मेक्सिको (Mexico LNG Project) का है, लेकिन यह दुनिया भर के देशों की पर्यावरणीय चिंताओं (global environmental concerns) की ओर ध्यान आकर्षित करता है। और याद दिलाता है कि यह प्रकृति (planet earth) सिर्फ मनुष्यों की नहीं वरन सभी जीव-जंतुओं की है: हमारी ख्वाहिशों का खामियाजा अन्य जीव-जंतुओं को न भरना पड़े। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zame07s/full/_20250314_on_saguaroproject-1743014356057.jpg