अमेज़ॉन के जंगलों में बढ़ता पारा प्रदूषण

सुदर्शन सोलंकी

मेज़ॉन के जंगल (Amazon rainforest) 1.7 अरब एकड़ में फैले सर्वाधिक जैव विविधता (biodiversity) वाले उष्णकटिबंधीय वर्षावन (tropical rainforest) हैं। अमेज़ॉन क्षेत्र में नौ देशों के क्षेत्र शामिल हैं, ब्राज़ील (60 प्रतिशत), पेरू (13 प्रतिशत), कोलंबिया (10 प्रतिशत) और वेनेज़ुएला, इक्वाडोर, बोलीविया (6 प्रतिशत), गुयाना, सूरीनाम और फ्रेंच गुयाना के हिस्से हैं।

पेरू के अमेज़ॉन में नदी में खुदाई करके सोने का खनन (gold mining) होता है। खनिक सोनायुक्त तलछट में पारा (mercury) मिलाते हैं, जो सोने के साथ अमलगम (amalgam) बना लेता है। अमलगम को उच्च तापमान पर गर्म किया जाता है; पारा वाष्पित हो जाता है और सोना शेष बच जाता है। इस तरह वाष्पीकृत पारा अमेज़ॉन में पारा प्रदूषण (mercury pollution) का मुख्य कारण है।

2011 में, मात्र सोने के खनन के लिए लगभग 1400 टन पारे का उपयोग किया गया था, जो पारे की वैश्विक खपत का 24 प्रतिशत है। अधिकांश पारे का पुनर्चक्रण नहीं किया जाता है, जिससे सोना खनन पर्यावरण (environment) के लिए पारा प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत बन जाता है।

पारा एक शक्तिशाली तंत्रिका-विष (neurotoxin) है जो लोगों और वन्यजीवों दोनों में तंत्रिका सम्बंधी क्षति का कारण बन सकता है।

वन्यजीवों में मिथाइल मर्करी (methylmercury) की मौजूदगी के संकेत मिले हैं। 12 पक्षी प्रजातियों में कई गुना अधिक पारा पाया गया है। और तो और, 10 में से 7 ब्लैक-स्पॉटेड बेयर आई पक्षियों (black-spotted bare-eye birds) में पारे की मात्रा उनकी प्रजनन क्षमता को प्रभावित करने के स्तर पर पाई गई।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने पारे को सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंता (public health concern) के शीर्ष दस रसायनों में से एक माना है। पारा प्रदूषण वन्यजीवों को खतरे में डाल रहा है, जिससे जगुआर (jaguar) और नदी डॉल्फिन (river dolphin) समेत कई मछलियां खतरे में हैं।

एक नए अध्ययन के अनुसार, वायुमंडल में प्रतिवर्ष मानव निर्मित पारे के उत्सर्जन का लगभग 10 प्रतिशत वैश्विक वनों की कटाई का परिणाम है। वन हवा से विषैले प्रदूषकों को हटाकर सिंक के रूप में कार्य करते हैं। यदि इसी तरह कटाई होती रही तो पारा उत्सर्जन बढ़ेगा।

पारा प्रदूषण एक बड़ी समस्या है क्योंकि यह वाष्पीकृत हो जाता है और हवा के माध्यम से अपने उत्सर्जन स्रोत से बहुत दूर तक जा सकता है, जिससे हवा, पानी और मिट्टी प्रदूषित (air, water, soil pollution) होते हैं। मिट्टी पारे का प्राथमिक भंडार (primary mercury reservoir) है, जिसमें महासागरों में पाए जाने वाले पारे की मात्रा से तीन गुना और वायुमंडल से 150 गुना अधिक पारा संग्रहित होता है। हाल के वर्षों में कोयला दहन (coal combustion) को पीछे छोड़कर सोना खनन दुनिया के सबसे बड़े वायुजनित पारा प्रदूषण स्रोत के रूप में उभरा है। इससे प्रति वर्ष 1000 टन पारा वातावरण में उत्सर्जित होता है।

पारा पक्षियों समेत सभी प्राणियों के लिए एक गंभीर खतरा (environmental threat) है। प्रदूषण को कम करने के लिए कदम उठाना ज़रूरी है। इसके लिए अमेज़ॉन का संरक्षण (Amazon conservation) अत्यंत आवश्यक है क्योंकि अमेज़ॉन वर्षावन पारा सिंक के रूप में विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। ये वैश्विक भूमि सिंक में लगभग 30 प्रतिशत योगदान देते हैं। अमेज़ॉन वनों की कटाई को रोकने से पारा प्रदूषण काफी कम किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मिथेन उत्सर्जन पर नज़र रखने वाला उपग्रह लापता

पांच साल के लिए शुरू किए गए MethaneSAT मिशन को अभी 15 महीने ही हुए थे कि अचानक 20 जून को धरती से इसका संपर्क टूट गया। इस उपग्रह को धरती पर हो रहे मीथेन (methane emissions) उत्सर्जन का पता लगाने के लिए बनाया गया था, लेकिन अब इसके खामोश हो जाने से जलवायु (climate monitoring) पर नज़र रखने की वैश्विक कोशिशों को एक बड़ा झटका लगा है। इस उपग्रह को एनवायरनमेंटल डिफेंस फंड (EDF) नामक गैर-मुनाफा संस्था (non-profit organization) ने 754 करोड़ रुपए की लागत से तैयार किया था।

गौरतलब है कि मीथेन एक ग्रीनहाउस गैस (greenhouse gas) है, जिसका तापमान बढ़ाने वाला असर पिछले 20 वर्षों में बराबर मात्रा की कार्बन डाईऑक्साइड से 80 गुना अधिक पाया गया है। आम तौर पर मीथेन उत्सर्जन के प्रमुख स्रोत दलदली क्षेत्र हैं, लेकिन सबसे अधिक उत्सर्जन तेल और गैस की रिसती पाइपलाइनों (leaking oil and gas pipelines) से होता है। इन रिसन को रोकना ग्लोबल वॉर्मिंग (global warming) को धीमा करने का तेज़ और सस्ता तरीका माना जाता है, और MethaneSAT इन्हीं रिसावों को पहचानने के लिए अंतरिक्ष में भेजा गया था।

आम तौर पर मौजूदा उपग्रह या तो बहुत बड़े इलाके पर मोटी-मोटी नज़र रखते हैं, या फिर केवल बड़े और स्पष्ट गैस रिसाव (major gas leaks) को पकड़ पाते हैं। लेकिन MethaneSAT समस्त तेल और गैस फील्ड को इतनी बारीकी (अच्छे रिज़ॉल्यूशन – high resolution imaging) से स्कैन करने में सक्षम था कि वह बहुत छोटे उत्सर्जन (minor methane leaks) को भी पकड़ सकता था। यह 2 पार्ट प्रति बिलियन जितनी कम मीथेन सांद्रता को भी भांप सकता था।

इस उपग्रह की एक और खास बात यह थी कि यह सरकारी या निजी कंपनी की बजाय एक गैर-मुनाफा संस्था (NGO) (EDF) द्वारा संचालित किया जा रहा था। वैज्ञानिकों ने इसे जनहित में अंतरिक्ष विज्ञान (space-based climate tracking) का एक नया मॉडल बताया था। हालांकि यह उपग्रह कम समय में बंद हो गया लेकिन इसके पहले वर्ष के डैटा (satellite data analysis) का विश्लेषण अभी जारी है और इससे नए उत्सर्जन सामने आने की संभावना है, जिन पर पहले ध्यान नहीं गया था।

सबसे अहम बात यह है कि MethaneSAT से मिले डैटा को समझने के लिए विकसित उपकरण और एल्गोरिद्म (AI-based detection tools) भविष्य के मिशनों में काम आ सकते हैं। जैसे कि जापान का नया उपग्रह GOSAT-GW, जिसे हाल ही में लॉन्च किया गया है, इन तकनीकों का फायदा उठा सकता है। इसी तरह, कार्बन मैपर (Carbon Mapper satellite) जैसी संस्थाएं भी मीथेन पर निगरानी (methane surveillance) के काम को आगे बढ़ा रही हैं, हालांकि उनके उपग्रहों में MethaneSAT जैसी बड़ी रेंज की क्षमता नहीं है।

फिलहाल EDF टीम थोड़ा समय लेकर दोबारा ऐसा मिशन शुरू करने की योजना पर विचार कर रही है। बहरहाल, MethaneSAT एक प्रेरणा का स्रोत (inspirational satellite mission) है और उसके द्वारा उपलब्ध कराई गई सूचनाएं अब भी अंतरिक्ष से जलवायु निगरानी (space climate observation) के भविष्य को दिशा दे सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्लास्टिक प्रदूषण संधि की चुनौतियां

दुनिया प्लास्टिक कचरे (plastic waste) में डूबती जा रही है। वर्ष 2000 के बाद निर्मित प्लास्टिक की मात्रा अब तक बनाए गए कुल प्लास्टिक की आधी से भी अधिक है, और 2050 तक इसकी मात्रा दुगनी होने की आशंका है। 10 प्रतिशत से भी कम प्लास्टिक का पुनर्चक्रण (plastic recycling) हो पाता है, जबकि ज़्यादातर प्लास्टिक एक बार उपयोग (single-use plastic) के बाद फेंक दिया जाता है। हर जगह तेज़ी से बढ़ते प्लास्टिक प्रदूषण (plastic pollution)  के परिणाम तो सर्वविदित हैं।

इस गंभीर संकट के बीच, आगामी अगस्त में संयुक्त राष्ट्र (UN plastic treaty) की एक अहम बैठक होने जा रही है। दुनिया भर के प्रतिनिधि इसमें प्लास्टिक प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए एक वैश्विक संधि उकेरने की कोशिश करेंगे। लेकिन इस पर एकमत होना आसान नहीं है। कुछ देश – जैसे सऊदी अरब, ईरान, रूस और चीन चाहते हैं कि संधि सिर्फ प्लास्टिक की खपत और पुनर्चक्रण तक सीमित रहे, और वे प्लास्टिक उत्पादन (plastic production) या खतरनाक रसायनों (toxic chemicals) पर कोई नियंत्रण लगाने के खिलाफ हैं।

वैज्ञानिक शोध (scientific studies) से पता चलता है कि सिर्फ प्लास्टिक की खपत और पुनर्चक्रण तक सीमित रहना काफी नहीं है। हाल ही में नेचर पत्रिका में प्रकाशित दो बड़े अध्ययनों ने स्थिति की गंभीरता को उजागर किया है।

पहले अध्ययन में, नेदरलैंड स्थित यूट्रेक्ट युनिवर्सिटी की सोफी टेन हिएटब्रिंक और उनकी टीम ने अटलांटिक महासागर के गहरे और दूर-दराज़ इलाकों से लिए गए हर सैंपल में नैनोप्लास्टिक कण (जो एक माइक्रोमीटर से भी छोटे होते हैं) (nanoplastics in ocean) पाए। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सिर्फ उत्तर अटलांटिक के ऊपरी हिस्से में ही करीब 2.7 करोड़ टन नैनोप्लास्टिक हो सकता है — जो सभी महासागरों में मौजूद प्लास्टिक के पूर्व में लगाए गए कुल अनुमान से भी अधिक है।

दूसरे अध्ययन में, नॉर्वे स्थित युनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी की लॉरा मॉन्कलुस और उनकी टीम ने प्लास्टिक निर्माण और उपयोग से जुड़े 16,000 से ज़्यादा रसायनों की पहचान की, जिनमें से 4,200 से अधिक को ‘चिंताजनक रसायन’ (hazardous plastic chemicals) माना गया है — ये या तो इंसानों और जीवों के लिए ज़हरीले हैं या फिर प्रकृति में नष्ट (non-biodegradable) नहीं होते।

ये दोनों शोध इस बात पर ज़ोर देते हैं कि अगर हमें प्लास्टिक संकट (global plastic crisis) से सचमुच निपटना है, तो सिर्फ कचरा प्रबंधन नहीं, बल्कि प्लास्टिक के अंधाधुंध उत्पादन और खतरनाक रसायनों के उपयोग को भी रोकना होगा।

दुनिया के कई देश इस व्यापक दृष्टिकोण के पक्ष में हैं। भले ही पिछली बैठक बिना किसी ठोस नतीजे के खत्म हुई थी, लेकिन 70 से अधिक देशों के एक उच्च महत्वाकांक्षी गठबंधन – जिसमें युरोपीय संघ, ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं – ने एक सशक्त वैश्विक संधि (strong global plastics agreement) का समर्थन किया है। इस संधि में प्लास्टिक उत्पादन को घटाने और खतरनाक रसायनों पर नियंत्रण लगाने का आह्वान किया गया है।

हालांकि अमेरिका ने शुरू में प्लास्टिक उत्पादन पर नियंत्रण और खतरनाक रसायनों के उपयोग को रोकने जैसे कड़े उपायों का समर्थन किया था, लेकिन 2024 के अंत में बाइडेन सरकार ने अपने रुख से पीछे हटते हुए स्थिति को अस्पष्ट (US plastic policy reversal) बना दिया है।

इस बीच, कुछ देश और क्षेत्र वैश्विक सहमति से अलग काम कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, युरोपीय संघ ने 2019 में एक-बार उपयोग वाले प्लास्टिक पर कड़ा निर्देश (EU plastic directive) पारित किया था, जिसके तहत 2029 तक 90 प्रतिशत प्लास्टिक बोतलों का पुनर्चक्रण ज़रूरी होगा और इस साल से PET बोतलों में कम से कम 25 प्रतिशत पुनर्चक्रित प्लास्टिक इस्तेमाल करना होगा। कनाडा और ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स राज्य ने भी एक-बार उपयोग वाले कुछ प्लास्टिक उत्पादों पर प्रतिबंध (plastic ban in Australia) लगाया है।

हालांकि ये प्रयास अच्छे लगते हैं, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि ये काफी नहीं हैं। जो लोग कड़ी संधि के खिलाफ हैं, वे कहते हैं कि इससे नौकरियों और अर्थव्यवस्था को नुकसान हो सकता है। लेकिन कठोर संधि के समर्थकों की नज़र में यह तर्क सही नहीं है। प्लास्टिक के उत्पादन पर प्रतिबंध से नए उद्योग और रोज़गार के अवसर (green jobs from plastic alternatives) भी बन सकते हैं। लेकिन इस तरह से किसी चीज़ पर सीधा प्रतिबंध लगाना उचित नहीं। यदि प्लास्टिक का विकल्प (eco-friendly plastic alternatives) बाज़ार में लाया जाए तो प्लास्टिक का उपयोग कम हो सकता है। फिर भी अभी ठोस कदम नहीं उठाए, तो आने वाली पीढ़ियों को ज़हरीला और प्रदूषित पर्यावरण झेलना पड़ेगा।

यदि जेनेवा वार्ता विफल रहती है तो कुछ वैज्ञानिक और नीति-निर्माता प्लान बी पर विचार कर रहे हैं – संयुक्त राष्ट्र की प्रक्रिया से अलग एक सशक्त संधि, जिसे उच्च महत्वाकांक्षी गठबंधन (High Ambition Coalition treaty) के देश बना सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रासायनिक उद्योगों का हरितीकरण

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

पृथ्वी के गर्माने को लेकर बढ़ती चिंताओं ने ‘हरित’ और ‘टिकाऊ’ जैसे शब्दों को प्रचलित कर दिया है। ‘हरित होने’ से मतलब है पर्यावरण-हितैषी तौर-तरीके (eco-friendly practices) अपनाकर पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम करने के प्रयास। टिकाऊ से तात्पर्य है ऐसे बदलाव लाना जो पर्यावरण और अर्थव्यवस्था (green economy) के बीच संतुलन बनाए रखे।

शब्द चाहे जो हो, पर्यावरणीय खतरों को कम या खत्म करने का साझा लक्ष्य हमें हरित रसायन विज्ञान (green chemistry) की ओर ले जाता है। और यह सोच हमें विषाक्तता और प्रदूषण (chemical pollution) से दूर ले जाता है। 1998 में पॉल एनेस्टस और जॉन वार्नर द्वारा प्रस्तुत हरित रसायन विज्ञान के 12 सिद्धांत बुनियादी बातों पर केंद्रित हैं; जैसे रासायनिक प्रक्रियाओं में सुरक्षित विलायकों और अभिकर्मकों को अपनाना; ऊर्जा-कुशल तरीके (energy-efficient chemical processes) विकसित करना जिनसे सुरक्षित रसायन प्राप्त हों जो यथासंभव गैर-विषाक्त हों और पर्यावरण में ज़्यादा देर तक मौजूद न रहे; और अपशिष्ट बनने (waste prevention) से रोकना (ताकि बाद में साफ-सफाई न करना पड़े)।

हरित रसायन विज्ञान कैसे इस्तेमाल में लाया जा सकता है, इसका एक उदाहरण है बायोडीज़ल (biodiesel production) का उत्पादन। इंडियन ऑयल कार्पोरेशन हरित ईंधन मिशन (green fuel initiative) के तहत रतनजोत (जैट्रोफा) जैसे गैर-खाद्य बीजों से बायोडीज़ल का उत्पादन करता है। इन बीजों में 30 प्रतिशत से अधिक तेल होता है, और इसके पेड़ कम वर्षा वाले इलाकों और कम उपजाऊ मिट्टी में भी उग जाते हैं। बायोडीज़ल का उत्पादन ट्रांसएस्टरीफिकेशन अभिक्रिया (transesterification process) से होता है, जिसमें बीज के तेल की मेथनॉल के साथ अभिक्रिया करके बायोडीज़ल बनाता है। इससे उप-उत्पाद के रूप में ग्लिसरॉल भी प्राप्त होता है; यह भी व्यावसायिक रूप से उपयोगी है। कार्बन फुटप्रिंट कम (carbon footprint reduction) करने के लिए मेथनॉल बायोमास से प्राप्त किया जाना चाहिए।

उत्प्रेरक ऐसे पदार्थ होते हैं जो रासायनिक अभिक्रियाओं को तेज़ करते हैं। बायोडीज़ल उत्पादन को एक क्षार (alkaline catalyst) द्वारा सुगम बनाया जाता है। क्षार के तौर पर अक्सर सोडियम हाइड्रॉक्साइड का उपयोग (sodium hydroxide in biodiesel) किया जाता है, लेकिन उत्पादन उपरांत इसे बहा देने से पानी संदूषित हो जाता है, जिसे पर्यावरण में छोड़ने से पहले उपचारित करना पड़ता है। कैल्शियम ऑक्साइड इसका एक हरित विकल्प (green alternative to NaOH) है, क्योंकि यह एक ठोस पदार्थ है और प्रत्येक उत्पादन चक्र के बाद इसका 95 प्रतिशत हिस्सा पुन: प्राप्त किया जा सकता है।

औषधीय उत्पादों (दवा वगैरह) (pharmaceutical manufacturing) के निर्माण में भी अत्यधिक विषैले पदार्थों का उपयोग किया जाता है। ऐसे कुछ कारखानों के आसपास की हवा में एक तीखी गंध आती है जो नाखून पॉलिश जैसी होती है। यह गंध विलायक टॉलुइन की होती है, जिसका व्यापक रूप से उपयोग पैरासिटामोल और कई अन्य दवाओं के संश्लेषण (drug synthesis solvents) या निष्कर्षण में किया जाता है। यह एक तंत्रिका विष (neurotoxic chemical) है। हरित प्रयासों (green alternatives in pharma) के तहत धीरे-धीरे ऐसे वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों के स्थान पर ऐसे विकल्पों का उपयोग होने लगा है जो कम विषाक्त हैं, जैव-विघटनशील (biodegradable solvents) हैं, और गन्ने जैसे बायोमास स्रोतों से प्राप्त किए जा सकते हैं।

हरित रसायन विज्ञान का एक और सिद्धांत जिस पर रसायनज्ञ काम करना पसंद करते हैं, वह है परमाणु किफायत (atom economy principle)। इसका उद्देश्य होता है कि अभिकारकों में मौजूद अधिक से अधिक परमाणुओं से वांछित उत्पाद हासिल कर लिए जाएं। ऊपर वर्णित बायोडीज़ल उत्पादन प्रक्रिया में हरित रसायन विज्ञान की बदौलत 100 प्रतिशत तो नहीं लेकिन 90 प्रतिशत परमाणु किफायत प्राप्त हो पाती है क्योंकि कुछ परमाणु उप-उत्पाद ग्लिसरॉल के निर्माण में खप जाते हैं। लेकिन ग्लिसरॉल का उपयोग अन्य उपयोगी उत्पाद (glycerol as byproduct) बनाने में हो जाता है।

परमाणु किफायत पर ध्यान देना उन उद्योगों में और भी अधिक महत्वपूर्ण है जहां उप-उत्पाद बहुत विषाक्त होते हैं। हरित रसायन विज्ञान की उत्कृष्टता (green chemistry success stories) का एक बेहतरीन उदाहरण बिरला विज्ञान संस्थान, पिलानी के हैदराबाद कैम्पस के रसायनज्ञों ने प्रस्तुत किया है। तन्मय चटर्जी और उनके साथियों की हरित विधि ने कैंसर-रोधी दवा टैमॉक्सीफेन (tamoxifen synthesis) और अन्य औषधियों के उत्पादन में 100 प्रतिशत परमाणु किफायत हासिल की है। यह विधि लागत-क्षम (cost-effective green method) भी है और इससे बड़े पैमाने पर उत्पादन भी संभव है। ऐसी विधियां हमारे पर्यावरण को कम नुकसान पहुंचाने की उम्मीद जगाती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन से आल्प्स क्षेत्र में भूकंप का खतरा

म अक्सर सुनते हैं कि जलवायु परिवर्तन (climate change) के कारण लू, बाढ़, जंगलों में आग और समुद्र स्तर बढ़ (sea level rise) रहे हैं। लेकिन अब इसका एक और चौंकाने वाला असर पता चला है – आल्प्स पर्वतों (Alps mountains) में ग्लेशियरों (glaciers) के पिघलने से भूकंप (earthquake) का खतरा बढ़ सकता है।

ऐसी घटना फ्रांस के मॉन्ट ब्लांक (Mont Blanc) इलाके के एक ऊंचे बर्फ से ढंके पर्वत ग्रांड जोरासेस में घटी है। 2015 में जब इस क्षेत्र में भीषण गर्मी पड़ी तो भारी मात्रा में बर्फ पिघली। इसके तुरंत बाद पहाड़ के नीचे छोटे-छोटे भूकंप (micro earthquakes) महसूस किए गए। कोई नुकसान तो नहीं हुआ, लेकिन विशेषज्ञों के मुताबिक ऐसे छोटे-छोटे भूकंप कभी-कभी बड़े भूकंप की चेतावनी भी होते हैं।

लेकिन बर्फ के पिघलने (ice melt) से भूकंप कैसे आ सकते हैं? जब ग्लेशियर पिघलते हैं तो पानी चट्टानों की दरारों से गहराई तक चला जाता है। वहां यह पानी चट्टानों पर दबाव बनाता है और ज़मीन के अंदर जो फॉल्ट लाइनें (fault lines) होती हैं, उनकी पकड़ कमज़ोर कर देता है। इन फॉल्ट लाइनों के फिसलने से ऊर्जा निकलती है जो भूकंप का कारण बनती है।

ऐसा नहीं है कि यह प्रक्रिया सिर्फ आल्प्स में होती है। वैज्ञानिकों ने ताइवान (Taiwan) जैसे इलाकों में भी देखा है कि बारिश के हिसाब से भूकंप की संख्या बदलती है। इसी तरह, जहां फ्रैंकिंग (तेल और गैस निकालने की प्रक्रिया) (fracking) या जियोथर्मल ऊर्जा (geothermal energy) के लिए ज़मीन के भीतर दबाव के साथ पानी डाला जाता है, वहां भी छोटे भूकंप आ सकते हैं।

ETH ज्यूरिख (ETH Zurich) के वैज्ञानिकों द्वारा मॉन्ट ब्लांक इलाके में छोटे भूकंप को मापने वाले यंत्रों की मदद से 2006 से अब तक दर्ज 12,000 से ज़्यादा छोटे-छोटे भूकंपों के विश्लेषण से पता चला है कि 2015 की गर्मी के बाद इन भूकंपों की संख्या बढ़ी थी। यही पैटर्न अगले साल की ग्रीष्म लहरों (heat waves) के बाद भी दिखे।

दिलचस्प बात यह है कि सतह के पास वाले छोटे भूकंप गर्मी के लगभग एक साल बाद बढ़े, जबकि गहराई (लगभग 7 कि.मी.) में आने वाले भूकंप दो साल बाद बढ़े। इसका कारण यह हो सकता है कि पानी को गहराई तक पहुंचने में समय लगता है।

भूकंप सम्बंधी ऐसे अनुभव पहले भी हुए हैं। 1960 के दशक में जब मॉन्ट ब्लांक टनल (Mont Blanc tunnel)  बनाई जा रही थी तो पहाड़ों के भीतर से अचानक तेज़ी से बहता हुआ बिलकुल ताज़ा पानी मिला। यह पानी इतना ताज़ा था कि उसमें अभी तक चट्टानों के खनिज (minerals) भी नहीं घुल पाए थे।

हालांकि, कुछ वैज्ञानिकों ने इन निष्कर्षों पर थोड़ी सावधानी बरतने की बात कही है। वैज्ञानिक फिलिप वर्नांट (Philippe Vernant) का कहना है कि वैसे तो आंकड़े काफी मज़बूत हैं लेकिन यह भी मुमकिन है कि मॉन्ट ब्लांक सुरंग बनाने के प्रभाव देर से सामने आ रहे हों। इसलिए ज़रूरी है कि इस तरह की घटनाओं पर लंबे समय तक अध्ययन (long-term monitoring) किए जाएं ताकि पता चल सके कि ऐसा पैटर्न केवल आल्प्स में है या दुनिया के अन्य पहाड़ी इलाकों (mountain regions) में भी है।

अभी तक तो आल्प्स में आए इन भूकंपों से मॉन्ट ब्लांक सुरंग या आस-पास के शहरों को कोई खतरा नहीं है। इस क्षेत्र की इमारतें रिक्टर पैमाने (Richter scale) पर 6 स्तर के भूकंप झेलने लायक बनाई गई हैं। लेकिन स्थिति हिमालय (Himalayas) जैसे इलाकों में ज़्यादा गंभीर हो सकती है, जहां ग्लेशियर बहुत तेज़ी से पिघल रहे हैं (rapid glacier melting) और जहां बड़े और खतरनाक भूकंप आने की आशंका भी ज़्यादा है।

जलवायु परिवर्तन बढ़ता जा रहा है (climate crisis) और यह अध्ययन हमें याद दिलाता है कि हमारी धरती पहले से ही एक नाज़ुक हालत में है; ग्लेशियर पिघलने (melting glaciers) जैसे छोटे बदलाव भी इसे और अस्थिर कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सिंगापुर: एक भीड़-भरे शहर में हरियाली की तलाश

सिंगापुर मात्र 730 वर्ग किलोमीटर का द्वीप देश (Singapore island nation) है, आबादी करीब 60 लाख। इसके घनी शहरी बसाहट के बीच कुछ नाज़ुक प्राकृतिक क्षेत्र भी हैं, जिन्हें बचाने की ज़रूरत है। ऐसा ही एक जंतु जोहोरा सिंगापोरेन्सिस (Johora singaporensis) है। यह एक दुर्लभ, निशाचर, मीठे पानी का केकड़ा है (rare freshwater crab) और केवल सिंगापुर के आरक्षित क्षेत्रों में जलधाराओं के आसपास पाया जाता है।

2008 में जब इसकी संख्या तेज़ी से घटने लगी (endangered species Singapore), तब यह पर्यावरणीय चिंता का विषय बन गया। एक छात्र द्वारा इसे ढूंढने के असफल प्रयासों ने सरकार और वैज्ञानिकों को सतर्क किया। इसके बाद सरकार के नेशनल पार्क्स बोर्ड (NParks) ने वैज्ञानिकों और संगठनों के साथ मिलकर इस केकड़े को बचाने के लिए प्रजनन और पुनर्वास कार्यक्रम शुरू (captive breeding and reintroduction) किया। आज भी यह केकड़ा संकटग्रस्त है, लेकिन इन प्रयासों से इसके जीवित रहने की संभावना कुछ बेहतर हुई है।

तेज़ विकास के दबाव के बीच सिंगापुर की हरियाली को बचाने की कोशिश काबिल-ए-तारीफ है (urban greenery Singapore)। 1819 में जब यह एक ब्रिटिश व्यापारिक केंद्र बना था, तब से अब तक देश के ज़्यादातर मूल वर्षावन खत्म हो चुके हैं। अब केवल थोड़ा-सा हिस्सा बचा है, जिसे सेंट्रल कैचमेंट नेचर रिज़र्व (Central Catchment Nature Reserve) में संरक्षित किया गया है।

सिंगापुर के सामने एक बड़ी चुनौती बढ़ती आबादी और तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ-साथ अपनी प्राकृतिक धरोहर को बचाए (sustainable urban development) रखना भी है। भले ही देश में जन्म दर घट रही है, लेकिन विदेश से आने वाले मज़दूरों और छात्रों के कारण आबादी लगातार बढ़ रही है। यहां की एक-तिहाई आबादी प्रवासी है। लगभग 80 प्रतिशत लोग सरकार द्वारा बनाए गए बहुमंज़िला मकानों में रहते हैं। 2025 तक करीब 1 लाख नए मकान बनाने की योजना है, जिनमें से कुछ वन्य क्षेत्रों (housing projects in forest areas) में बनेंगे।

तेज़ी से हो रहे विकास को लेकर पर्यावरणविदों में चिंता (environmental concerns Singapore) बढ़ रही है। सरकार भले ही एक करोड़ पेड़ लगाने और एक लाख कोरल ट्रांसप्लांट (one million trees plan, coral transplantation) करने जैसे दीर्घकालिक उपायों का वादा कर रही है, लेकिन आलोचकों का मानना है कि ये कोशिशें शायद काफी नहीं हैं। इस स्थिति में कई सवाल उठते हैं – इन परियोजनाओं के दौरान कितने पेड़ काटे जा रहे हैं? क्या सैकड़ों साल पुराने जंगल आधुनिक घरों के लिए खत्म किए जा रहे हैं? और क्या इतने बड़े पैमाने पर कोरल ट्रांसप्लांट करना वास्तव में मुमकिन है?

पर्यावरण से जुड़े कई लोग इस बात से भी नाराज़ हैं कि सरकार की योजना से जुड़ा डैटा आसानी से नहीं मिलता, जिससे आपसी सहयोग में बाधा (lack of environmental data transparency) आती है। भले ही एनपार्क्स कहता है कि ज़्यादातर योजनाएं साझेदारी से चलती हैं, लेकिन आंकड़े साझा न किए जाने को लेकर असहमति बनी हुई है। कई बार सरकार लुप्तप्राय प्रजातियों की जानकारी इसलिए नहीं देती कि कहीं उनका शिकार न होने लगे लेकिन पारदर्शिता (endangered species secrecy) की कमी लोगों के बीच अविश्वास पैदा करती है।

2024 में विशेषज्ञों और गैर-सरकारी संगठनों द्वारा मिलकर तैयार किए गए सिंगापुर टेरेस्ट्रियल कंज़र्वेशन प्लान (Singapore Terrestrial Conservation Plan) में सुझाव है कि पर्यावरण से जुड़ी योजनाओं में बेहतर संवाद और आम लोगों की अधिक भागीदारी (public participation in conservation) होनी चाहिए। लेकिन कुछ कार्यकर्ता अब भी संदेह में हैं। उनका कहना है कि जब तक किसी जंगल को काटे जाने की योजना की खबर आम जनता तक पहुंचती है, तब तक फैसला लिया जा चुका होता है।

इन चुनौतियों के बावजूद, शहरी हरियाली (urban nature Singapore global model) को लेकर सिंगापुर की कोशिशें दुनिया भर में सराही जाती हैं। यहां पेड़ों की छांव (ट्री-कैनपी) का घनत्व दुनिया में सबसे ज़्यादा (highest tree canopy density) है। कारण है कड़े नियम, जिनके तहत नई इमारतों में पर्यावरण के अनुकूल डिज़ाइन अनिवार्य हैं. जैसे हरित छतें और पेड़ों से सजे पैदल पुल।

एक शानदार उदाहरण है बिशन-आंग मो किओ पार्क, जो न सिर्फ सैर-सपाटे के लिए मशहूर है, बल्कि जलवायु लाभ भी देता है। 62 हैक्टर में फैला यह पार्क आसपास की ऊंची इमारतों वाले इलाकों की तुलना में लगभग 3 डिग्री सेल्सियस ठंडा रहता है और लोगों को राहत पहुंचाता है। हरित क्षेत्र बारिश का पानी सोखने, शोर कम करने और मानसिक स्वास्थ्य (green spaces and mental health) को बेहतर बनाने में भी मदद करते हैं।

सिंगापुर की सरकार अपनी पर्यावरण नीति को ‘प्रकृति में बसा शहर’ (city in nature Singapore) कहती है। यह एक महत्वाकांक्षी सोच को ज़ाहिर करता है जिसमें शहर के हर पहलू में प्रकृति को शामिल करने की कोशिश है। इस घनी आबादी वाले शहर में प्रकृति को केवल बचाया नहीं गया है, बल्कि उसे रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बना दिया गया है। सिंगापुर का अनुभव दुनिया भर के शहरों के लिए एक मिसाल है: पर्यावरण संरक्षण का मतलब प्रगति को रोकना नहीं है (environment and progress coexistence) बल्कि इसके लिए समझदारी से फैसले लेने तथा खुली बातचीत और दूरदृष्टि की ज़रूरत होती है। उम्मीद है आगे भी सिंगापुर बाकी दुनिया के लिए मिसाल बना रहेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्लास्टिक फिल्म: तेल शोधन का भविष्य

विभिन्न प्रकार के ईंधन और रासायनिक उत्पादों की रीढ़ मानी जाने वाली तेल रिफाइनरियां(Oil Refineries), आज भी वर्षों पुरानी पद्धति पर काम करती हैं। इसमें कच्चे तेल (Crude Oil)  का प्रभाजी आसवन करके उसके घटक अलग-अलग प्राप्त किए जाते हैं। ऊष्मा आधारित इस विधि में भारी मात्रा में ऊर्जा की खपत होती है और यह पर्यावरण के लिए भी हानिकारक (Environmental Pollution) है।

अब इसे बदलने की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया गया है। साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में बेहद पतली प्लास्टिक फिल्म (झिल्ली) (Membrane Technology) का उपयोग सुझाया गया है। इस झिल्ली की मदद से बहुत कम तापमान पर कच्चे तेल में से हल्के ईंधन घटक अलग किए जा सकते हैं। इससे तेल शोधन में ऊर्जा की खपत और प्रदूषण को काफी हद तक कम किया जा सकता है(Sustainable Refining)।

हालांकि प्लास्टिक की ये झिल्लियां वैसे ही काम करती हैं जैसे समुद्री पानी को पीने लायक बनाने वाले संयंत्रों (Desalination Membranes) में। फिर भी इस तकनीक को तेल उद्योग के अनुकूल बनाने में समस्याएं तो थीं। पूर्व में, कच्चे तेल के संपर्क में आने पर ये झिल्लियां फूल जाती थीं या खराब हो जाती थीं, जिससे इनके छानने की क्षमता कम हो जाती थी।

इस समस्या को दूर करने के लिए एमआईटी के वैज्ञानिकों ने झिल्ली में दो तरह के पॉलीमर का इस्तेमाल किया। एक में कांटेदार संरचना होती है जो तेल में भी झिल्ली की आकृति और उसके सूक्ष्म छिद्रों को टिकाए रखती है।

दूसरा, वैज्ञानिकों ने झिल्ली में ऐसे रासायनिक बंधों का इस्तेमाल किया जो तेल के साथ बेहतर काम करते हैं। इससे हल्के ईंधन अणु तो आसानी से पार हो जाते हैं, जबकि भारी अणु रोक दिए जाते हैं। नतीजतन, यह नई झिल्ली हल्के हाइड्रोकार्बन (Light Hydrocarbons) को छानने में पूर्व मॉडल्स से चार गुना ज़्यादा असरदार है।

एक और खास बात। साधारणत: पानी छानने की झिल्ली में दो तरह के मोनोमर को जोड़कर पोलीमर झिल्ली बनाई जाती है। इनमें से एक मोनोमर को पानी में और दूसरे को तेल में घोलकर जब आपस मिलाया जाता है तो मोनोमर तेल व पानी की संपर्क सतह पर क्रिया करके एक झिल्ली बना लेते हैं।

लेकिन पानी में घुलनशील मोनोमर तेल के पृथक्करण (Oil Separation)  में काम नहीं करते। वैज्ञानिकों ने दोनों मोनोमर को तेल में घोला और फिर उसमें पानी तथा एक उत्प्रेरक मिलाया। उत्प्रेरक ने पानी-तेल की संपर्क सतह पर दोनों मोनोमर से क्रिया करके एक उम्दा झिल्ली बना दी।

तेल रिफाइनरियां पुराने तरीके को तुरंत तो नहीं छोड़ेंगी, लेकिन यह नई तकनीक भविष्य में रिफाइनिंग (Future of Oil Refining) का मुख्य तरीका बन सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अब जानेंगे, पृथ्वी कैसे सांस ले रही है!

इरफान ह्यूमन

पेड़ और जंगल वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करते हैं (carbon sequestration by forests) और उसे अपने तने, शाखा, पत्तियों वगैरह की सामग्री के रूप में समो लेते हैं। इसलिए यह जानना बहुत ज़रूरी है कि धरती पर कितना जैविक पदार्थ (बायोमास) (forest biomass estimation) मौजूद है और समय के साथ कैसे बदल रहा है। बायोमास का मतलब है पेड़ों के तने, शाखाओं, पत्तियों और जड़ों में सारे ठोस वनस्पति पदार्थ का कुल वज़न। अभी तक बायोमास का अनुमान लगाने के लिए केवल ज़मीनी सर्वेक्षण (ground survey methods) या साधारण उपग्रह तस्वीरों (basic satellite imagery) का सहारा लिया जाता था, जो सटीक नहीं था।

पृथ्वी पर मौजूद पेड़ों और जंगलों के जैविक द्रव्यमान को मापने के लिए युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने ‘बायोमास’ नामक एक उपग्रह (ESA Biomass Satellite) लॉन्च किया है। मिशन अवधि लगभग 5 साल (2030 तक) है। यूके, फ्रांस, इटली और जर्मनी जैसे युरोप के कई देश इस मिशन में प्रमुख भागीदार हैं। इसका मुख्य उद्देश्य यह जानना है कि धरती पर कितनी मात्रा में कार्बन पेड़ों में जमा है (carbon stock in trees) और यह जलवायु परिवर्तन को किस तरह प्रभावित (climate change impact) करता है।

इस उपग्रह से 1.5 ट्रिलियन पेड़ों का बायोमास मापना संभव हो सकेगा। इसका डैटा यह समझने में मदद करेगा कि कितनी मात्रा में कार्बन वातावरण से अवशोषित किया गया है, कौन से क्षेत्र कार्बन स्रोत (उत्सर्जक) (carbon source regions)  और कौन से कार्बन सिंक (शोषक) (carbon sink regions) हैं। उदाहरण के लिए अगर अमेज़न के जंगल कट रहे हैं, तो वहां का बायोमास कम होगा और वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड बढ़ेगी। इससे हम जलवायु परिवर्तन (global climate change) और ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों को बेहतर समझ पाएंगे। वैश्विक बायोमास डैटा हर 6 महीने में अपडेट (biomass satellite data update) किया जाएगा।

यह डैटा काफी महत्वपूर्ण होगा: इसका उपयोग पेड़ों के कुल वज़न और मात्रा के आकलन, संग्रहित कार्बन भंडार के मूल्यांकन (carbon storage assessment), वनों की कटाई के वास्तविक प्रभाव, जलवायु मॉडलिंग में सुधार (climate modeling improvement), कार्बन सिंक के रूप में चिंहित क्षेत्रों के लिए पर्यावरण संरक्षण नीति बनाने (environmental policy planning), वैश्विक कार्बन चक्र को समझने और ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने की रणनीति बनाने में किया जा सकेगा। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन मॉडल्स को अधिक सटीक बनाने और वनों की कटाई और पुनर्वनीकरण की निगरानी (deforestation and reforestation monitoring)  करने में भी यह उपयोगी होगा। इससे पर्यावरण संरक्षण योजनाओं को मज़बूत बनाने, विकासशील देशों को वनों के प्रबंधन में मदद करने और कार्बन ट्रेडिंग (carbon trading) और जलवायु वित्त (climate finance) में सटीक डैटा प्रदान करने में मदद मिलेगी।

उपग्रह की विशेषताएं

1. कक्षीय डिज़ाइन: यह बायोमास उपग्रह पृथ्वी से लगभग 660 कि.मी. की ऊंचाई पर सूर्य-समकालिक ध्रुवीय कक्षा (sun-synchronous polar orbit) में चक्कर लगाएगा। यह कक्षा सुनिश्चित करती है कि उपग्रह नियमित अंतराल पर उत्तरी व दक्षिणी गोलार्धों पर पृथ्वी के सभी क्षेत्रों को कवर करेगा, जिसमें उष्णकटिबंधीय, समशीतोष्ण, और बोरीयल वन (tropical, temperate, and boreal forests) शामिल हैं। उपग्रह का पुनरावृत्ति चक्र ऐसा है कि यह हर 25 दिनों में एक ही क्षेत्र को दोबारा स्कैन करेगा, जिससे समय के साथ परिवर्तन की निगरानी संभव होगी।

2. अनूठी रडार तकनीक: सामान्य उपग्रह प्रकाशीय कैमरे या एल-बैंड (आवृत्ति 1000-2000 मेगाहर्ट्ज) रडार का उपयोग करते हैं। लेकिन बायोमास उपग्रह में पी-बैंड रडार (P-band radar technology) का इस्तेमाल हो रहा है, जो एक कम आवृत्ति माइक्रोवेव (300-1000 मेगाहर्ट्ज़) सिग्नल प्रेषित करता है, जिससे मिट्टी और घने जंगलों के अंदर तक पैठ बना सकती है। इसका मतलब, यह पेड़ की केवल ऊपरी नहीं बल्कि अंदर तक जानकारी जुटाता है, जैसे पेड़ की ऊंचाई, तने की मोटाई और घनत्व वगैरह।

यह तकनीक दिन-रात और मौसम से बेफिक्र डैटा संग्रह करने में सक्षम है, क्योंकि रडार बादलों और बारिश से अप्रभावित रहता है। यह पहला मौका है जब कोई उपग्रह इतनी कम आवृत्ति पर काम करेगा। गौरतलब है कि पी-बैंड रडार तकनीक को लेकर सुरक्षा सम्बंधी नियम भी हैं क्योंकि इसका उपयोग रक्षा और संचार में भी होता है। लेकिन पृथ्वी को बचाने के लिए यह डैटा इकट्ठा करने हेतु युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी को पी-बैंड के उपयोग की विशेष अनुमति दी गई है (forest density mapping, tree height detection, forest structure analysis)।

3. पोलेरिमेट्रिक और इंटरफेरोमेट्रिक डैटा: इन तकनीकों का मदद से वन की संरचना (जैसे, पत्तियां, तने, ज़मीन) को अलग-अलग पहचाना जा सकता है। इंटरफेरोमेट्रिक तकनीक से सतह की ऊंचाई और 3-डी संरचना मापी जाती है। टोमोग्राफिक एसएआर से वन की ऊर्ध्वाधर परतों (चंदवे, तनों, ज़मीन) का 3डी मॉडल बनाया जाता है।

4. वैश्विक कवरेज: उपग्रह हर 6 महीने में पूरी पृथ्वी को स्कैन करेगा। लक्ष्य यह है कि धरती के लगभग 30 करोड़ वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र को कवर किया जाए। सरल शब्दों में कहा जाए तो बायोमास उपग्रह धरती के पेड़ों का एक्स-रे स्कैन करेगा, ताकि हम जान सकें कि पृथ्वी पर कितने पेड़ हैं, उनमें कितना कार्बन है और जंगल किस गति से घट-बढ़ रहे हैं। यह उपग्रह इतनी बारीकी से स्कैन कर सकता है कि 20-20 वर्ग मीटर तक के छोटे इलाके में भी पेड़ के बायोमास का पता चल सकेगा। यह मिशन हमारे ग्रह को बचाने के बड़े अभियानों का एक अहम हिस्सा है।

कवरेज की बात करें तो बायोमास उपग्रह उष्णकटिबंधीय वर्षावनों (अमेज़ॉन, कांगो), समशीतोष्ण वनों (उत्तरी अमेरिका और युरोप के जंगल) और बोरीयल वनों (साइबेरिया और कनाडा के टैगा) को कवर करेगा। यद्यपि उपग्रह का प्राथमिक लक्ष्य वन हैं, यह मिट्टी और सतह की जानकारी (जैसे रेगिस्तान या बर्फीले क्षेत्र) भी एकत्र कर सकता है, लेकिन इन क्षेत्रों में इसकी उपयोगिता सीमित है।

जैव पदार्थ सम्बंधी डैटा कार्बन चक्र को समझने और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने की रणनीतियों में मदद करता है। उपग्रह अवैध कटाई, वन क्षरण, और पुनर्जनन की वैश्विक निगरानी करेगा, जो नीति निर्माण और संरक्षण प्रयासों के लिए महत्वपूर्ण है। वैश्विक डैटा पारिस्थितिकी, जैव-विविधता, और भू-विज्ञान के अध्ययन में उपयोगी है और अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के लिए आधार प्रदान करेगा। कुल मिलाकर यह मिशन धरती के जंगलों के एक्स-रे निरीक्षण (x-ray monitoring) जैसा है, जिससे हम जान पाएंगे कि पृथ्वी कैसे सांस ले रही है! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु संकट के असली ज़िम्मेदार कौन ?

क हालिया अध्ययन से पता चला है कि 1990 के बाद से बढ़ी वैश्विक तपन (global warming) के दो-तिहाई हिस्से के लिए दुनिया के सबसे अमीर 10 प्रतिशत लोग ज़िम्मेदार हैं, जिससे पता चलता है कि जलवायु संकट (climate crisis) के संदर्भ में कैसी असमानता है। हालांकि वैज्ञानिकों को यह तो पता था कि अमीर लोग अधिक कार्बन उत्सर्जन (carbon emissions) करते हैं, लेकिन इस अध्ययन ने आंकड़ों के ज़रिए बताया है कि कौन-कौन कितना कार्बन उत्सर्जन करते हैं और जलवायु परिवर्तन (climate change) के लिए कितना ज़िम्मेदार हैं। ये नतीजे नेचर क्लाइमेट चेंज पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।

शोधकर्ताओं ने जलवायु मॉडल (climate model) का उपयोग किया और यह पता लगाया कि अगर सबसे अमीर लोगों – शीर्ष 10 प्रतिशत, 1 प्रतिशत, और 0.1 प्रतिशत – द्वारा किया जाने वाला उत्सर्जन हटा दिया जाए तो वैश्विक तापमान में कितना बदलाव आएगा। निष्कर्ष चौंकाने वाले थे: 2020 में, वैश्विक तापमान 1990 के मुकाबले 0.61 डिग्री सेल्सियस अधिक था। इस वृद्धि का 65 प्रतिशत हिस्सा शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों (सालाना आय लगभग 41 लाख रुपए प्रति व्यक्ति से अधिक) द्वारा किए जाने वाले उत्सर्जन से जुड़ा था। शीर्ष 1 प्रतिशत लोग, (सालाना आय 1.4 करोड़ रुपए प्रति व्यक्ति से अधिक) तापमान वृद्धि के 20 प्रतिशत हिस्से के लिए ज़िम्मेदार थे। और शीर्ष 0.1 प्रतिशत (लगभग 8,00,000 लोग, वार्षिक आय 5.13 करोड़ रुपए प्रति व्यक्ति से अधिक) तापमान वृद्धि के 8 प्रतिशत हिस्से के लिए ज़िम्मेदार थे।

औसत की तुलना में शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों ने वैश्विक तपन में 6.5 गुना अधिक, शीर्ष 1 प्रतिशत लोगों ने 20 गुना अधिक और शीर्ष 0.1 प्रतिशत लोगों ने 76 गुना अधिक योगदान दिया।

इस अध्ययन के सह-लेखक कार्ल-फ्रेडरिक श्लेसनर के अनुसार यदि सभी ने दुनिया की सबसे गरीब 50 प्रतिशत आबादी की तरह उत्सर्जन किया होता तो 1990 के बाद हमें बहुत अधिक गर्मी नहीं महसूस होती। दूसरी ओर, अगर सभी लोगों ने शीर्ष 10 प्रतिशत की तरह उत्सर्जन किया होता तो दुनिया पहले ही 2.9 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म हो चुकी होती।

अध्ययन की मुख्य लेखक सारा शॉन्गार्ट का कहना है कि मामला सिर्फ आंकड़ों का नहीं है। अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि जलवायु सम्बंधी चरम घटनाएं (climate disasters) केवल वैश्विक उत्सर्जन से नहीं बल्कि व्यक्तियों की विशिष्ट क्रियाओं और संपत्ति से भी होती हैं। यह शोध अमीरों पर जलवायु कर (carbon tax on rich) और विकासशील देशों के लिए अधिक जलवायु निधि (climate finance for developing countries) की आवश्यकता को मज़बूत करता है।

अध्ययन याद दिलाता है कि सबसे अधिक प्रभावित लोग अक्सर जलवायु आपदाओं का कारण नहीं होते। इसलिए कोई भी प्रभावी जलवायु नीति (climate policy) इस असंतुलन को ध्यान में रखते हुए न्यायपूर्ण होनी चाहिए। सबसे अमीर लोगों के कार्बन पदचिह्न (carbon footprint) को कम करना भावी नुकसान को कम करने का सबसे शक्तिशाली साधन होगा। (स्रोत फीचर्स)

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धान की फसल को बचाएगा एक खास जीन

चीन के वैज्ञानिकों ने हाल ही में धान से जुड़ी एक बड़ी खोज की है। उन्होंने धान में एक ऐसा प्राकृतिक जीन पाया है जो दिन-ब-दिन गर्मा रही जलवायु (climate change impact on rice) में भी फसल की गुणवत्ता और पैदावार को बढ़िया बनाए रख सकता है। इस जीन से गेहूं और मक्का जैसी अन्य फसलों (heat-tolerant crops) को भी फायदा हो सकता है।

गौरतलब है कि धान की फसल को गर्माहट तो चाहिए होती है लेकिन अगर रातें ज़्यादा गर्म हो जाएं, खासकर धान फूलने के समय(flowering stage in rice), तो फसल को नुकसान होता है। गर्म रातों के कारण धान के दाने ‘चॉक’ जैसे सफेद और भुरभुरे हो जाते हैं, कुटाई के वक्त ये दाने टूट जाते हैं, और पकने पर चिपचिपे स्वादहीन लगते हैं। यह समस्या अब ज़्यादा बढ़ रही है क्योंकि जलवायु परिवर्तन की वजह से रात का तापमान दिन की तुलना में दोगुनी रफ्तार से बढ़ रहा है, खासकर एशिया और अफ्रीका के उन इलाकों में जहां धान उगाया जाता है (rice cultivation in Asia and Africa)।

2004 की एक रिपोर्ट के अनुसार यदि रात का औसत तापमान एक डिग्री सेल्सियस बढ़ता है तो धान की पैदावार 10 प्रतिशत तक घट सकती है (rice yield temperature effect)।

इसके समाधान के लिए 2012 में चीन की हुआझोंग एग्रीकल्चरल युनिवर्सिटी (Huazhong Agricultural University) के वनस्पति वैज्ञानिक यीबो ली और उनकी टीम ने धान की ऐसी किस्में खोजनी शुरू कीं जो अधिक गर्म रातें झेल सकें। उन्होंने चीन के चार गर्म इलाकों में धान 533 की किस्मों का परीक्षण किया। इनमें से दो किस्मों, Chenghui448 और OM1723, की गुणवत्ता और उपज गर्मी में भी अच्छी रही। फिर, इन दोनों किस्मों से संकर धान तैयार किया। इसके जीन विश्लेषण (gene analysis in rice) में क्रोमोसोम 12 पर उन्हें एक खास जीन मिला, जिसे QT12 नाम दिया गया है।

सामान्य स्थिति में तीन कारक QT12 जीन का नियमन करते हैं, और मिलकर इसे संतुलित रूप से काम करने देते हैं। लेकिन जब तापमान बढ़ता है तो इन तीनों में से एक नियामक अलग हो जाता है और QT12 ज़्यादा सक्रिय हो जाता है (heat-responsive genes in crops)। इससे धान की कोशिकाओं में एंडोप्लाज़्मिक रेटिकुलम प्रभावित होता है। यह कोशिका का वह हिस्सा है जो प्रोटीन को तह करने और उन्हें सही जगह पहुंचाने का काम करता है।

जब तापमान के कारण यह प्रक्रिया गड़बड़ा जाती है तो दाने के भ्रूणपोष में प्रोटीन कम और स्टार्च ज़्यादा जमा होने लगता है। यही असंतुलन दानों को ‘भुरभुरा’ (grain chalkiness due to heat) बनाता है।

वैज्ञानिकों ने QT12 की भूमिका को साबित करने के लिए एक ताप-संवेदी धान की किस्म में इस जीन को शांत कर दिया। नतीजे चौंकाने वाले थे: संशोधित धान ने गर्मी में भी सामान्य मात्रा में पैदावार दी, जबकि असंशोधित धान ने 58 प्रतिशत कम पैदावार दी। इसका मतलब है कि QT12 केवल दानों की गुणवत्ता नहीं, बल्कि उपज को भी प्रभावित करता है।

एक दिलचस्प बात यह है कि जीन एडिटिंग की तकनीक के बिना, पारंपरिक ब्रीडिंग (traditional breeding techniques) से भी काम चल सकता है। वैज्ञानिकों ने धान की कुछ किस्मों में QT12 के ऐसे प्राकृतिक रूप पाए हैं जो गर्मी में सक्रिय नहीं होते। जब उन्होंने इन्हें चीन की लोकप्रिय हाइब्रिड किस्म हुआझेन में जोड़ा, तो नतीजे आशाजनक मिले। गर्मी-सह्य इस नई हुआझेन किस्म ने 31-78 प्रतिशत तक अधिक पैदावार दी। सफेद और भुरभुरे दाने भी कम थे।

QT12 के ऐसे रूप ज़्यादातर गर्म इलाकों में उगाई जाने वाली इंडिका किस्मों (indica rice variety)  में पाए जाते हैं, जबकि जेपोनिका किस्मों में ये जीन पूरी तरह अनुपस्थित हैं, जो ठंडे इलाकों (जैसे जापान, चीन के पहाड़ी क्षेत्र और अमेरिका) (temperate climate rice) में उगाई जाती हैं। QT12 जीन को जेपोनिका किस्मों में भी डाल कर इन क्षेत्रों की फसलों को भी गर्मी से बचाया जा सकेगा।

दिलचस्प बात यह है कि QT12 जीन सिर्फ धान में ही नहीं बल्कि गेहूं और मक्का जैसी दूसरी महत्वपूर्ण फसलों में भी ऐसे जीन मौजूद हैं(QT12 gene in wheat and maize)। वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि इस खोज की मदद से अब इन फसलों की भी गर्मी-सह्य किस्में तैयार की जा सकेंगी, जो खाद्य सुरक्षा को मज़बूती देगी(climate-resilient crops for food security)। हालांकि विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि अकेले QT12 बहुत ज़्यादा गर्मी से सभी धान की किस्मों को नहीं बचा सकता, खासकर जब रात का तापमान 30 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला जाए। इसलिए वैज्ञानिक अभी भी अन्य जीन और किस्मों पर शोध कर रहे हैं ताकि जलवायु संकट से लड़ने के और उपाय मिल सकें (genes for climate change adaptation in crops)। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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