भारत में बिस्कुट को अपनाए जाने की रोचक कथा – प्रियदर्शिनी चैटर्जी

मिट्टी के कुल्हड़ में अदरक और इलाइची वाली मीठी, गाढ़ी, सुनहरी चाय और साथ में बिस्कुट जैसा मज़ा शायद ही कहीं मिलता हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपको कौन-सा बिस्कुट पसंद है: परतदार, मक्खन वाला, क्रस्टी, सादा, ज़ीरे वाला, मीठा, नमकीन, मीठा-नमकीन, क्रीम वाली या चीनी बुरका हुआ। चाय और बिस्कुट की शुद्ध देसी जोड़ी सभी को लुभाती है। लेकिन आज से सौ साल पहले तक ऐसा नहीं था। उस समय बिस्कुट कई भारतीयों के लिए घृणा और यहां तक कि शत्रुता का विषय था।

वैसे तो भारतीय कई सदियों से किसी न किसी रूप में बिस्कुट बनाते और खाते आ रहे हैं। अरब, फारस और युरोप से लोगों के आगमन के साथ इनको बनाने की तकनीक, स्वाद और बनावट में काफी परिवर्तन आया है। अलबत्ता आजकल भारतीय घरों में प्रचलित चाय-बिस्कुट को अंग्रेज़ों ने शुरू किया और लोकप्रिय बनाया। खाद्य इतिहासकार लिज़ी कोलिंगहैम ने अपनी पुस्तक दी बिस्किट: दी हिस्ट्री ऑफ ए वेरी ब्रिटिश इंडल्जेंस में लिखा है कि जिस समय गोवा और पांडिचेरी के बेकर्स ने पुर्तगाली कर्ड टार्ट और फ्रेंच क्रॉइसां बनाना शुरू किया, उसी समय तरह-तरह के अंग्रेज़ी केक और बिस्कुट कलकत्ता, मद्रास और बंबई जैसे प्रेसीडेंसी शहरों की ब्रिटिश बेकरियों में नज़र आने लगे। हंटले एंड पामर्स जैसी मशहूर कंपनियां औद्योगिकीकृत हो रहे ब्रिटेन से भारत में बड़े पैमाने पर बिस्कुट आयात करती थीं हालांकि यहां इनका बाज़ार सीमित था। शुरुआत में तो बिस्कुट श्रमिक वर्गों की पहुंच से दूर विशिष्ट वर्ग का नाश्ता (स्नैक) हुआ करता था। और उच्च जाति के हिंदुओं के लिए यह वर्जित था।

हिंदू समाज में, भोजन को लेकर शुद्ध-अशुद्ध की धारणाओं के आधार पर धार्मिक और नैतिक मूल्य आरोपित किए जाते हैं जो जाति व्यवस्था के लगभग सभी पहलुओं का आधार हैं। इसका मतलब यह है कि भले ही भारतीय भोजन का इतिहास आदान-प्रदान और आत्मसात करने का रहा हो लेकिन नए खाद्य पदार्थों को हमेशा प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है। 19वीं शताब्दी का कोई रूढ़िवादी हिंदू बिस्कुट को स्वाभाविक रूप से संदेह की नज़र से देखता और इसे म्लेच्छों (विदेशियों, बहिष्कृत समाजों और आक्रमणकारियों के लिए समान रूप से इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द) द्वारा खाया जाने वाला एक अपरिचित भोजन मानता। जाति के विचित्र नियमों के अधीन वे ब्रेड, मुर्गी, लेमोनेड (नींबू पानी) और बर्फ जैसी खाद्य वस्तुओं को अशुद्ध मानकर अस्वीकार करते थे। इनके प्रलोभन के आगे झुकने वाले व्यक्ति को जाति से बहिष्कृत तक कर दिया जाता था।

बंगाली स्वतंत्रता सेनानी, लेखक और अध्यापक बिपिन चंद्र पाल ने अपने संस्मरण सत्तर बरस में पूर्वी बंगाल के कछार ज़िले में बिस्कुट को लेकर हिंदुओं के बीच हंगामे के बारे में लिखा है। पाल लिखते हैं कि जब नव अंग्रेज़ी-शिक्षित मध्यम वर्ग ने अपने ड्राइंग रूम में चाय के साथ बिस्कुट का सेवन शुरू किया तो यह खबर कछार से लेकर सिलहट तक फैल गई। इस हंगामे के चलते कठोर प्रायश्चित के बाद ही बागी लोग बहिष्कार से बच सके।

अस्वीकार्य व्यवहार

बिस्कुट इतना कलंकित था कि उच्च जाति के हिंदुओं ने बेकरियों में काम करने से इन्कार कर दिया था। वी. ए. परमार ने मह्यावंशी: दी सक्सेस स्टोरी ऑफ ए शेड्यूल्ड कास्ट में लिखा है कि भरूच, जहां अंग्रेजों ने 1623 में पहली बेकरी स्थापित की थी और सूरत में कोई भी हिंदू सवर्ण इनमें इस आधार पर काम करने के लिए तैयार नहीं था कि यहां ताड़ी और अंडे का इस्तेमाल किया जाता था जिनको वे अशुद्ध मानते थे। आगे चलकर जब मुसलमानों और निचली जाति के हिंदुओं ने यहां नौकरियां स्वीकार कर लीं, तब भी ये बेकरियां ऊंची जातियों के लिए स्वीकार्य नहीं रही। बल्कि अब तो उनके लिए बिस्कुट से परहेज़ करने का एक और कारण मिल गया था क्योंकि जाति के नियमों के अनुसार पदानुक्रम में निचले स्थान के लोगों से भोजन या पेय पदार्थ स्वीकार करना भी वर्जित है। यदि कोई भी इस नियम को तोड़ता तो वह अपनी धार्मिक शुद्धता और जाति का दर्जा खो देता।

उन्हें बेकरी का मालिक बनने की भी अनुमति नहीं थी। परमार ने मूलशंकर वेनीराम व्यास नाम के एक उच्च जाति के व्यक्ति के बारे में बताया है जिसने एक युरोपीय बटलर से बिस्कुट बनाने की कला सीखी और रामजिनी पोल स्थित अपने घर में एक बेकरी की शुरुआत की। इसके नतीजे में उनकी जाति के लोगों ने उनका बहिष्कार करके तुरंत दंडित किया।

19वीं सदी के ब्रिटिश पत्रकार अरनॉल्ड राइट ने लिखा था कि “जातिगत पूर्वाग्रहों के कारण भारत में कई उद्योग बहुत गंभीर रूप से प्रभावित हुए लेकिन इसका सबसे अधिक असर खाद्य पदार्थों के निर्माण या उसकी तैयारी से सम्बंधित उद्योगों पर रहा।” ऐसी तमाम सामाजिक जटिलताओं के परिणामस्वरूप, देश की अधिकांश बेकरियां युरोपीय या पारसी समुदाय के स्वामित्व में थीं।

जैसा कि अक्सर होता है, जब रूढ़िवादिता उत्पीड़न में बदल जाती है, तो लोग इसके खिलाफ विद्रोह के तरीके ढूंढ लेते हैं। 19वीं सदी के भारत में भी कुछ लोगों ने पश्चिमी विचारों और जीवन शैली को प्रगति और आधुनिकता के रूप में अपनाकर पुरानी व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह किया। उनके लिए, एक अदना-सा बिस्कुट सिर्फ खाद्य सामग्री ही नहीं बल्कि घातक जाति व्यवस्था के विरोध का प्रतीक था। उदाहरण के लिए, बंगाली बुद्धिजीवी राजनारायण बोस ने शेरी (एक किस्म की शराब) और बिस्कुट खाकर ब्रह्म समाज में अपने शामिल होने का जश्न मनाया था।

ये बागी बहादुरी से इस निषिद्ध फल (यानी बिस्कुट) को खाते थे, यह अच्छी तरह से जानते हुए कि उन्हें आलोचकों से सामाजिक फटकार का सामना करना पड़ेगा जो इस भोजन को गैर-हिंदू और उसे विस्तार देते हुए गैर-भारतीय मानते थे। राष्ट्रवादी सोच में बिस्कुट को अंग्रेज़ीयत और औपनिवेशिकता का प्रतीक माना जाता था। बंगाली नाटककार अमृतलाल बसु का नाटक कालापानी या हिंदुमोते समुद्रजात्रा एक गीत के साथ शुरू होता था जिसमें इंगो-बंग या अंग्रेज़ीकृत बंगालियों का वर्णन किया गया था:

हमारे लोगों जैसा कोई भक्त नहीं,

हिंदू नियमों के अनुसार साहिब में बदलते, आमीन।

विदेशी बिस्कुट उन्हें पसंद हैं,

हे भगवान एक निवाला लो

भावपूर्ण दैनिक प्रसाद,

हमारे पवित्र घरों में।

उत्सा रे अपनी किताब कलिनरी कल्चर ऑफ कोलोनियल इंडिया में लिखती हैं कि “दुर्गाचरण रॉय के 19वीं सदी के सामाजिक व्यंग्य देबगनेर मॉर्तये अगोमोन  (देवगणों का मृत्युलोक पर आगमन) में कहा था पृथ्वी की यात्रा पर निकले देवता इस बात से आश्चर्यचकित हैं कि कैसे कलकत्ता के ब्राह्मणों को पवित्र जनेऊ धारण करने के साथ मुस्लिम नानबाइयों द्वारा तैयार किए गए बिस्कुट और ब्रेड खाने में कोई परेशानी नहीं होती थी।” इसका तात्पर्य यह था कि “यह पवित्र धागा बस एक मुखौटा था जो अभी भी समाज की व्यवस्था को कायम रखे था, अन्यथा मध्यम वर्ग पूरी तरह पतित हो चुका था।”

वास्तव में बिस्कुट पर प्रतिबंध ने ही अंतत: इसे लोकप्रिय बना दिया। जैसा कि रे लिखती हैं, “निषिद्ध भोजन का लेबल लगाए जाने के चलते बिस्कुट अत्यधिक आकर्षक हो गया और इसका महत्व बढ़ गया।” युरोपीय लोगों की ज़रूरतें पूरा करने वाली दुकानों में सजे बिस्कुट के डिब्बे भारतीय मध्यम वर्ग की आकांक्षा बन गए। ऑक्सफोर्ड हैंडबुक ऑफ फूड हिस्ट्री में प्रकाशित निबंध फूड एंड एम्पायर में जयिता शर्मा लिखती हैं कि “युवा लोग इस आकर्षक वस्तु की तलाश में काफी रचनात्मक थे। धार्मिक कानूनों से बचने के लिए ऊंची जाति के हिंदू स्कूली बच्चे अपने मुस्लिम सहपाठियों को यह ‘अवैध स्वाद’ लाने के लिए राज़ी कर लिया करते थे।“

19वीं सदी के अंत तक देश भर में स्वदेशी बिस्कुट कारखाने खुलने लगे थे। मिस्र में तैनात ब्रिटिश सैनिकों के लिए बर्मा से दूध, चाय और ब्रेड भेजने वाले व्यवसायी मम्बली बापू ने 1880 में केरल स्थित थालास्सेरी में रॉयल बिस्कुट फैक्ट्री की शुरुआत की। इसके बाद पूर्वी भारत में ब्रिटानिया ने 1892 में कलकत्ता के एक छोटे से कमरे में ‘स्वीट एंड फैंसी बिस्किट्स’ का निर्माण शुरू किया। खाद्य इतिहासकार के. टी. अचया की पुस्तक फूड इंडस्ट्रीज़ ऑफ ब्रिटिश इंडिया के अनुसार प्रथम विश्व युद्ध तक भारत के बड़े शहरों में कम से कम आठ प्रमुख बिस्कुट कारखाने और देश भर में कई छोटी बेकरियां थीं।

जिव्हा का आनंद

अलबत्ता, उच्च जाति के हिंदुओं के लिए बिस्कुट को स्वीकार्य बनाना अभी भी आसान नहीं था। ज़ाहिर है, उन धार्मिक नियमों की उपेक्षा नहीं की जा सकती थी जिसने उनके और उनके पूर्वजों के जीवन को निर्धारित किया है। अंतत: इस समस्या का समाधान लाला राधा मोहन ने किया।

मोहन ने 1898 में दिल्ली में हिंदू बिस्कुट कंपनी की शुरुआत की। दो दशकों के भीतर इस बेकरी में कैंटीन, केबिन, इंपीरियल, कोरोनेशन जैसे नामों के 55 प्रकार के बिस्कुट और 30 से अधिक प्रकार के केक का उत्पादन होने लगा। मोहन के उत्पादों ने कई पुरस्कार जीते और कलकत्ता के विल्सन होटल (बाद में दी ग्रेट ईस्टर्न होटल) के साथ उनकी कंपनी प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सैनिकों को सैन्य-ग्रेड बिस्कुट प्रदान करने वाली मुख्य कंपनी बन गई।

सैनिकों के लिए आपूर्ति के अलावा, हिंदू बिस्कुट कंपनी की योजना जाति-जागरूक हिंदुओं के बीच बिस्कुट को लोकप्रिय बनाने की थी। इसके लिए कंपनी ने केवल ब्राह्मणों और उच्च जाति के हिंदुओं को नियुक्त किया ताकि उसके उत्पाद रूढ़िवादी हिंदुओं की नज़र में असंदूषित और स्वीकार्य हों। 1898 में प्रकाशित कंपनी के एक विज्ञापन में घोषणा की गई थी कि बिस्कुट के निर्माण से लेकर पैकेजिंग की पूरी प्रक्रिया के दौरान बिस्कुट को केवल उच्च जाति के हिंदू ही छूते हैं तथा इसे केवल दूध से तैयार किया जाता है और पानी का उपयोग नहीं किया जाता।

हिंदू बिस्कुट कंपनी की बढ़ती लोकप्रियता ने कई अन्य भारतीय कारखानों को हिंदू बिस्कुट के जेनेरिक नाम के साथ अपने उत्पाद बेचने के लिए प्रेरित किया। उनका विचार खरीदार को भ्रमित करना था और उनका यह तरीका काम भी कर गया। राइट की रिपोर्ट के अनुसार कई लोगों ने इस धारणा के साथ बिस्कुट खरीदे कि वे हिंदू बिस्कुट कंपनी द्वारा निर्मित किए गए हैं। आखिरकार त्रस्त होकर प्रबंधन को अपनी कंपनी का नाम बदलकर दिल्ली बिस्कुट कंपनी करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसको एक अवसर के रूप में देखते हुए ब्रिटानिया (उस समय गुप्ता एंड कंपनी) ने भी पश्चिमी शैली के बिस्कुट बनाने की ओर रुख किया जिसे उन्होंने हिंदू बिस्कुट के रूप में बेचा। आखिरकार, 1951 में दिल्ली बिस्कुट कंपनी का ब्रिटानिया में विलय हो गया और  दिल्ली बिस्कुट कंपनी ब्रिटानिया की दिल्ली फैक्ट्री बन गई।

इस अवधि में, हिंदू बिस्कुट का नुस्खा दूर-दूर तक फैल गया। 1917 में अमेरिकी साप्ताहिक पत्रिका कोलियर में प्रकाशित एक लेख में, फ्रांसीसी शहर फ़्लर्स डी ल’ऑर्न की मैडम लुईस बोके ने हिंदू बिस्कुट का एक नुस्खा साझा किया था, जिसे उन्होंने एक हिंदू अधिकारी से प्राप्त किया था (इस नुस्खे में एक-एक आउंस आटा, मक्खन और बारीक पनीर की ज़रूरत होती थी)। हिंदू बिस्कुट के प्रसार को एक लोक सेवक अतुल चंद्र चटर्जी ने अपनी 1908 की पुस्तक नोट्स ऑन दी इंडस्ट्रीज़ ऑफ दी युनाइटेड प्रोविंसेज़ में कुछ इस तरह बयान किया है: “मैंने पश्चिमी ज़िलों के रेलवे प्लेटफार्मों और बड़े-बड़े बाज़ारों में भी दिल्ली बिस्कुट बिकते देखे। भारतीयों में बिस्कुट का शौक बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है। मुसलमानों को इससे कोई आपत्ति नहीं है और मेरे ख्याल से हिंदुओं का एक बड़ा हिस्सा भी ‘हिंदू’ बिस्कुट खा रहा है। यह रेल यात्रा में काफी सुविधाजनक है और बच्चों व अक्षम लोगों में भी इसकी काफी मांग है।”

अचया के अनुसार इस बदलाव का कारण 1905 का स्वदेशी आंदोलन था जिसमें स्वदेशी उत्पादों के अधिक उपयोग के आग्रह के चलते बिस्कुट उद्योग को काफी प्रोत्साहन मिला और चाय की दुकानों ने स्वदेशी बिस्कुट स्टॉक करना और परोसना शुरू कर दिया। आत्मनिर्भर बनने का प्रयास करने वाले लोगों के लिए बिस्कुट कारखाने महत्वपूर्ण एजेंसियां बन गए: उन्होंने रोज़गार पैदा किए, स्वदेशी उत्पाद बनाए और उन्हें सस्ती कीमतों पर बेचा। इससे नज़रिया तेज़ी से बदला और आख्यान में भी परिवर्तन होने लगा। जेबी मंघाराम बिस्कुट फैक्ट्री 1919 में सुक्कुर (वर्तमान पाकिस्तान में) में खोली गई थी, और बाद में पारले ने अपने ग्लूकोज़ बिस्कुट को बच्चों, जो देश का भविष्य हैं, के लिए शक्तिवर्धक ऊर्जावान भोजन के रूप में पेश किया। वर्षों की अस्वीकृति के बाद, बिस्कुट कंपनियां नव स्वतंत्र भारत में राष्ट्र-निर्माण में हितधारकों के रूप में उभरीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://scroll.in/magazine/1055346/the-story-of-how-hindus-stopped-distrusting-biscuits-and-began-eating-them?utm_source=pocket-newtab-en-intl

डैटा विज्ञान: अतीत व भविष्य – संजीव श्री

हम इंटरनेट युग में जी रहे हैं जहां पूरी दुनिया डैटा से घिरी हुई है। यह डैटा और कुछ नहीं बल्कि हमारी यादें, अनुभव, सूझ-बूझ, दुख-दर्द के क्षण और कभी-कभी सांसारिक गतिविधियों के बारे में है। जैसे, कोई विगत यात्रा या महीने और वर्ष में दिन के किसी विशेष घंटे में क्या खाया या फिर दैनिक जीवन के सामान्य घटनाक्रम का लेखा-जोखा।

क्या ऐसा पहले नहीं था? ऐसे तथ्यात्मक, भावनात्मक, आनुभविक और व्यवहारिक क्षणों को संग्रहित और संरक्षित करना हमेशा से एक मानवीय प्रवृत्ति रही है। अंतर केवल इतना है कि हमारे पूर्वज डैटा को अपनी स्मृतियों में या गुफाओं, पत्थरों या कागजों पर उकेरी गई छवियों के माध्यम से संग्रहित करते थे, जबकि आज हम प्रौद्योगिकी एवं उपकरणों की मदद से ऐसा करते हैं!

अतीत में, बातों को मानव स्मृति में संग्रहित करने के साथ-साथ पत्थर पर नक्काशी करना, पत्तों पर और बाद में कागज़ो पर ग्रंथ लिखना काफी श्रमसाध्य था। यह संग्रहण कुछ समय तक ही रह पाता था। समय के साथ, जलवायु के प्रहार पत्थरों, कागज़ों को नष्ट कर डैटा को भी विलोपित कर देते थे। मानव स्मृति की भी डैटा संग्रहण की एक निर्धारित क्षमता होती है। दूसरे शब्दों में, प्राचीन काल से चली आ रही डैटा संग्रहण की मानवीय प्रवृत्ति, वर्तमान युग की वैज्ञानिक तकनीकों एवं साधनों की आसान उपलब्धता से डैटा विज्ञान का उदय हुआ है।

डैटा विज्ञान: शुरुआती वर्ष

शब्द ‘डैटा विज्ञान’ 1960 के दशक में एक नए पेशे का वर्णन करने के लिए गढ़ा गया था, जो उस समय भारी मात्रा में एकत्रित होने वाले डैटा को समझने और उसका विश्लेषण करने में सहायक सिद्ध हुआ। वैसे संरचनात्मक रूप से इसने 2000 की शुरुआत में ही अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।

यह एक ऐसा विषय है जो सार्थक भविष्यवाणियां करने और विभिन्न उद्योगों में सूझ-बूझ प्राप्त करने के लिए कंप्यूटर विज्ञान और सांख्यिकीय पद्धतियों का उपयोग करता है। इसका उपयोग न केवल सामाजिक जीवन, खगोल विज्ञान और चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में बल्कि व्यापार में भी बेहतर निर्णय लेने के लिए किया जाता है।

1962 में अमेरिकी गणितज्ञ जॉन डब्ल्यू. टुकी ने सबसे पहले डैटा विज्ञान के सपने को स्पष्ट किया। अपने प्रसिद्ध लेख ‘दी फ्यूचर ऑफ डैटा एनालिसिस’ में उन्होंने पहले पर्सनल कंप्यूटर (पीसी) से लगभग दो दशक पहले इस नए क्षेत्र के उद्गम की भविष्यवाणी की थी।

एक अन्य प्रारंभिक व्यक्ति डेनिश कंप्यूटर इंजीनियर पीटर नॉर थे, जिनकी पुस्तक कॉन्साइस सर्वे ऑफ कंप्यूटर मेथड्स डैटा विज्ञान की सबसे पहली परिभाषाओं में से एक प्रस्तुत करती है।

1990 और 2000 के दशक की शुरुआत में हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि डैटा विज्ञान एक मान्यता प्राप्त और विशिष्ट क्षेत्र के रूप में उभरा। कई डैटा विज्ञान अकादमिक पत्रिकाएं प्रकाशित होने लगीं, और जेफ वू और विलियम एस. क्लीवलैंड आदि ने डैटा विज्ञान की आवश्यकता और क्षमता को विकसित करने और समझने में मदद करना जारी रखा।

पिछले 15 वर्षों में, पूरे विषय को व्यापक उपकरणों, प्रौद्योगिकियों और प्रक्रिया के द्वारा परिभाषित और लागू करने के साथ एक भलीभांति स्थापित पहचान मिली है।

डैटा विज्ञान और जीवन

पिछले 100 वर्षों में मानव जीवन शैली में बहुत कुछ बदला है और विज्ञान और प्रौद्योगिकी से 20 वर्षों में तो बदलावों का सैलाब-सा ही आ गया है। अलबत्ता, जो चीज़ समय के साथ नहीं बदली, वह है मूल मानव व्यवहार और अपने क्षणों और अनुभवों को संग्रहित करने की उसकी प्रवृत्ति।

मानवीय अनुभव और क्षण (डैटा!), जो मानव स्मृति, नक्काशी और चित्रों में रहते थे, उन्हें प्रौद्योगिकी के ज़रिए एक नया शक्तिशाली भंडारण मिला है।  अब मानव डैटा छोटे/बड़े बाहरी ड्राइव्स, क्लाउड स्टोरेज जैसे विशाल डैटा भंडारण उपकरणों में संग्रहित किए जा रहे हैं। मज़ेदार बात यह है कि अब डैटा को, पहले के विपरीत, बिना किसी बाधा के, जितना चाहें उतना और जब तक चाहें तब तक संग्रहित रखा जा सकता है।

पिछले 20 वर्षों में, एक और दिलचस्प बदलाव इंटरनेट टेक्नॉलॉजी के आगमन से भी हुआ। इंटरनेट टेक्नॉलॉजी की शुरुआत के साथ, मानव व्यवहार और उसके सामाजिक संपर्क की प्रवृत्ति ने एक बड़ी छलांग लगाई। लोगों ने दिन-प्रतिदिन हज़ारों किलोमीटर दूर विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में अन्य मनुष्यों से जुड़ना शुरू कर दिया और इस तरह विभिन्न तरीकों से बातचीत करने और अभिव्यक्ति की मानवीय क्षमता कई गुना बढ़ गई।

आज छत्तीसगढ़ के घने जंगलों के ग्रामीण इलाके का कोई बच्चा बॉलीवुड की किसी मशहूर हस्ती को सुन सकता है और उससे जुड़ सकता है, वहीं न्यूयॉर्क में रहते हुए एक व्यक्ति उत्तरी अफ्रीका में रह रहे किसी पीड़ित बच्चे की भावनाओं से रूबरू हो सकता है। इंटरनेट क्रांति ने इस पूरी दुनिया को मानो एक बड़े से खेल के मैदान में बदल दिया है जहां हर एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति, विषय या घटना से तत्काल जुड़ सकता है।

इन क्षमताओं के रहते पूरा विश्व नई तरह की संभावनाओं और अभिव्यक्तियों के प्रयोगों से भर गया है। इस तरह की गतिविधियों ने अपनी एक छाप छोड़ी है (जिन्हें हम डैटा कह सकते हैं) और टेक्नॉलॉजी ने इसे असीमित रूप से एकत्रित और संग्रहित करना शुरू कर दिया है।

नई दुनिया के ये परिवर्तन विशाल डैटा (Big Data) के रूप में प्रस्फुटित हुए। अधिकांश लोग (जो इंटरनेट वगैरह तक पहुंच रखते हैं) डैटा (यानी शब्द, आवाज़, चित्र, वीडियो वगैरह के रूप में) के ज़रिए यादों और अनुभवों से सराबोर हैं। ये डैटा न केवल सामाजिक या अंतर-वैयक्तिक स्तर पर, बल्कि आर्थिक मोर्चे पर (जैसे ऑनलाइन भुगतान, ई-बिल, ई-लेनदेन, क्रेडिट कार्ड) और यहां तक कि अस्पतालों के दौरों, नगर पालिका की शिकायतों, यात्रा के अनुभवों, मौसम के परिवर्तन तक में नज़र आते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो संपूर्ण जीवन की गतिविधियां डैटा पैदा कर रही हैं और इसे संग्रहित किया जा रहा है।

आधुनिक जीवनशैली बड़ी मात्रा में डैटा उत्पन्न करती है। डैटा की मात्रा इसलिए भी बढ़ गई है क्योंकि आधुनिक तकनीक ने बड़ी मात्रा में डैटा निर्मित करना और संग्रहित करना आसान बना दिया है। पिछले कुछ वर्षों में, दुनिया में पैदा किया गया 90% से अधिक डैटा संग्रहित कर लिया गया है। उदाहरण के लिए, सोशल मीडिया उपयोगकर्ता हर घंटे 2 करोड़ से अधिक छवियां पोस्ट करते हैं।

डैटा विज्ञान: कार्यपद्धति

मानव मस्तिष्क विभिन्न उपकरणों में संग्रहित विशाल डैटा का समय-समय पर उपयोग करना चाहता है। इस कार्य के लिए एक अलग प्रकार की तकनीकी क्षमता की आवश्यकता थी, जो संग्रहित डैटा को निकालने और निर्णय लेने का काम कर सके। यह मस्तिष्क के संचालन की नकल करने जैसा था। ऐसे जटिल दिमागी ऑपरेशनों को दोहराने के लिए एक कदम-दर-कदम चलने वाले एक समग्र वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है ताकि:

– डैटा इष्टतम तरीके से संग्रहित किया जाए;

– डैटा को कुशलतापूर्वक, शीघ्रता से प्रबंधित, पुनर्प्राप्त, संशोधित, और विलोपित किया जा सके;

– डैटा की व्याख्या आसानी से और शीघ्रता से की जा सके; इससे भविष्य के बारे में निर्णय लेने में मदद मिलती है।

वैसे तो हमारा मस्तिष्क सूक्ष्म और जटिल तरीके से डैटा को आत्मसात करने और निर्णय लेने का काम करता आया है, लेकिन मस्तिष्क की क्षमता सीमित है। डैटा से जुड़ी उक्त प्रक्रियाओं को पूरा करने के लिए, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के मानव मस्तिष्क जैसे एक विशाल स्पेक्ट्रम की आवश्यकता हुई। टेक्नॉलॉजी ने इस प्रक्रिया के लिए डैटा भंडारण (विशाल डैटा सर्वर), पुनर्प्राप्ति के विभिन्न साधनों को सांख्यिकीय/गणितीय जानकारी से युक्त करना शुरू कर दिया। जावा, पायथन, पर्ल जैसी कोडिंग भाषा, विभिन्न मॉडलिंग तकनीकों (जैसे क्लस्टरिंग, रिग्रेशन, भविष्यवाणी और डैटा माइनिंग) के साथ-साथ ऐसी मशीनें विकसित हुईं जो डैटा को बार-बार समझ सकती हैं और स्वयं सीखकर खुद को संशोधित कर सकती हैं (मशीन लर्निंग मॉडल)। मूल रूप से कोशिश यह थी कि प्रौद्योगिकी और विज्ञान के सहारे हम अपने मस्तिष्क जैसी निर्णय लेने की क्षमता मशीन में पैदा कर सकें!

प्रौद्योगिकी द्वारा मानव मस्तिष्क की क्षमताओं के प्रतिरूपण की इस पूरी प्रक्रिया को डैटा विज्ञान का नाम दिया गया है। डैटा विज्ञान एक ऐसा क्षेत्र है जो डैटा से अपेक्षित परिणाम प्राप्त करने के लिए सांख्यिकी, वैज्ञानिक तकनीक, कृत्रिम बुद्धि (एआई) और डैटा विश्लेषण सहित कई विषयों को जोड़ता है। डैटा वैज्ञानिक वे हैं जो वेब, स्मार्टफोन, ग्राहकों और सेंसर सहित विभिन्न स्रोतों से प्राप्त डैटा का विश्लेषण करने के लिए विभिन्न प्रकार की क्षमताओं को एकीकृत करते हैं।

डैटा साइंस का भविष्य

क्या यह डैटा विज्ञान, भारत जैसे देश में अंतिम व्यक्ति के जीवन को छू सकता है या यह केवल थ्रिलर फिल्म या सस्ते दाम में कॉन्टिनेंटल खाने के लिए सर्वश्रेष्ठ रेस्तरां की खोज करने जैसे कुछ मनोरंजक/आनंद/विलास की गतिविधियों तक ही सीमित है? क्या यह हमारे समाज को बेहतर बनाने और वंचितों को कुछ बुनियादी सुविधाएं देने में मदद कर सकता है?

यकीनन। किसी भी अन्य गहन ज्ञान की तरह विज्ञान भी राष्ट्र, पंथ, जाति, रंग या एक वर्ग तक सीमित नहीं है। इरादा हो तो यह सभी के लिए है। संक्षेप में इसका उपयोग भारत में समाज को कई तरीकों से बेहतर बनाने के लिए किया जा सकता है। कुछ उदाहरण देखिए।

चिकित्सा/स्वास्थ्य

यह एक प्राथमिक क्षेत्र हो सकता है जहां डैटा विज्ञान का लाभ उठाया जा सकता है। डैटा के संदर्भ में, वर्तमान अस्पताल प्रणाली अभी भी रोगियों के प्रवेश, निदान और उपचार जैसे सामान्य संदर्भो में ही काम करती है। इस क्षेत्र में जनसांख्यिकी, स्वास्थ्य मापदंडों से लेकर रोगियों के विभिन्न चरणों में किए गए निदान/उपचार जेसे डैटा को संग्रहित करने की आवश्यकता है, जिसे नैदानिक परिणामों और उपचार विकल्पों को एकत्रित, संग्रहित, और व्याख्या के द्वारा व्यापक रूप से चिकित्सा समुदाय में साझा किया जा सके। यह डैटा विज्ञान को भारतीय स्थिति में रोगियों को समझने और सर्वोत्तम संभव उपचार विकल्पों के साथ-साथ रोकथाम के उपायों को समझने में सक्षम करेगा। यह रोगियों/डॉक्टरों का बहुत सारा धन और समय बचा सकता है, त्रुटियों को कम कर सकता है और मानव जीवन को अधिक सुरक्षित और स्वस्थ बना सकता है। आवश्यकता यह है कि सरकारी और निजी अस्पताल डैटा रिकॉर्ड करना और संग्रहित करना शुरू करें ताकि इसका उपयोग अनुसंधान और विकास के लिए किया जा सके। यूएस जैसे विकसित देशों में ऐसी प्रक्रिया से समाज को काफी लाभ मिलता है। डैटा विज्ञान वास्तव में भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र को कई लाभकारी तरीकों से सम्पन्न कर सकता है।

कृषि उत्पादकता

भारत जैसे कृषि प्रधान देश में डैटा विज्ञान तरह-तरह की जानकारी के ज़रिए किसानों को लाभ पहुंचा सकता है:

– मिट्टी किस प्रकार की फसल के लिए अच्छी है;

– मौसम और जलवायु की परिस्थिति में किन पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है;

– फसल के प्रकार के लिए आवश्यक मिट्टी की पानी और नमी की आवश्यकता;

– अप्रत्याशित मौसम की भविष्यवाणी और फसलों की सुरक्षा;

– ऐतिहासिक आंकड़ों के साथ-साथ मौसम के मिज़ाज के आधार पर निश्चित समय में किसी निश्चित क्षेत्र में इष्टतम फसल की पैदावार की भविष्यवाणी करना।

इस तरह के डैटा का सरकार द्वारा समय-समय पर निरीक्षण करना और भौगोलिक सेंसर व अन्य उपकरणों की मदद से डैटा तैयार करने की आवश्यकता है। डैटा विज्ञान फसलों की बहुत बर्बादी को बचा सकता है और हमारी उपज में भारी वृद्धि कर सकता है।

शिक्षा एवं कौशल विकास

अशिक्षा का मुकाबला करने के लिए शैक्षणिक सुविधाओं के अधिक प्रसार की और शिक्षकों की दक्षता, अनुकूलित शिक्षण विधियों के विकास की भी आवश्यकता है। इसके अलावा विभिन्न छात्रों की विविध और व्यक्तिगत सीखने की शैलियों/क्षमताओं के संदर्भ में गहरी समझ की भी आवश्यकता है। डैटा विज्ञान इस संदर्भ में समाधान प्रदान कर सकता है:

– देश भर में छात्रों के साथ-साथ शिक्षकों के विस्तृत प्रोफाइल तैयार करना;

– छात्रों के सीखने और प्रदर्शन के आंकड़े जुटाना;

– प्रतिभाओं के कुशल प्रबंधन के लिए व्यक्तिगत शिक्षण विधियों/शैलियों का विकास

– देश भर में कनेक्टेड डैटा के साथ अकादमिक अनुसंधान को बढ़ाना।

पर्यावरण संरक्षण

– भूमि, जल, वायु/अंतरिक्ष और जीवन के सम्बंध में डैटा एकत्र करना और पृथ्वी ग्रह के स्वास्थ्य को बढ़ाना;

– वनों की कटाई के विभिन्न कारणों जैसे मौसम पैटर्न, मिट्टी या नदियों की स्थलाकृति के बीच सम्बंध का पता लगाना;

– ग्रह-स्तरीय डिजिटल मॉडल निरंतर, वास्तविक समय में डैटा कैप्चर करेगा और चरम मौसम की घटनाओं और प्राकृतिक आपदाओं (जैसे, आग, तूफान, सूखा और बाढ़), जलवायु परिवर्तन और पृथ्वी के संसाधनों से सम्बंधित अत्यधिक सटीक पूर्वानुमान प्रदान कर सकता है;

– विलुप्ति की प्रक्रिया का कारण जानने और इसे उलटने के तरीके के लिए वर्षों से एकत्र किए गए आंकड़ों का विश्लेषण;

– विलुप्ति के खतरे से घिरे जीवों को बचाने के लिए कारणों का विश्लेषण। 

ग्रामीण एवं शहरी नियोजन

भारत में नगर पालिकाओं, ग्राम पंचायतों, भू-राजस्व सम्बंधी डैटा अभी भी विशाल कागज़ी फाइलों में संग्रहित किया जाता है, जिससे कुशल निर्णय लेने में देरी होती है। डैटा विज्ञान डैटा को एकीकृत करने में मदद कर सकता है और डैटा साइंस राज्य के प्रबंधन के लिए प्रभावी नीति निर्माण और निर्णय प्रक्रिया में गति ला सकता है।

कुल मिलाकर डैटा विज्ञान के उपयोग के कई लाभ हैं। देश की विशाल प्रतिभा और अपेक्षाकृत कम श्रम लागत की बदौलत भारत तेज़ी से डैटा साइंस का केंद्र बनता जा रहा है। नैसकॉम विश्लेषण का अनुमान है कि भारतीय डैटा एनालिटिक्स बाज़ार 2017 के 2 अरब डॉलर से बढ़कर 2025 में 16 अरब डॉलर का हो जाएगा। यह तीव्र वृद्धि कई कारकों से प्रेरित है, जिसमें डैटा की बढ़ती उपलब्धता, डैटा-संचालित निर्णय-प्रक्रिया, कृत्रिम बुद्धि (एआई) की वृद्धि शामिल हैं। भारत में कई विश्वविद्यालयों में डैटा साइंस के कोर्सेस भी चलाए जा रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या मांस खाना आवश्यक है?

गभग 25 लाख वर्षों से मनुष्य अपने पोषण के लिए मांस पर निर्भर रहे हैं। यह तथ्य जीवों की जीवाश्मित हड्डियों, पत्थर के औज़ारों और प्राचीन दंत अवशेषों के साक्ष्य से अच्छी तरह साबित है। आज भी मनुष्य का मांस खाना जारी है – भारत के आंकड़े बताते हैं कि यहां के लगभग 70 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में मांसाहार करते हैं और आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2023 में विश्व की मांस की खपत 35 करोड़ टन थी। वैसे कई अन्य देशों के मुकाबले भारत का आंकड़ा (सालाना 3.6 किलोग्राम प्रति व्यक्ति) बहुत कम है लेकिन सवाल यह है कि क्या वास्तव में मांस खाना, और इतना मांस खाना ज़रूरी है?

एक प्रचलित सिद्धांत के अनुसार मांस के सेवन ने हमें मनुष्य बनाने में, खास तौर से हमारे दिमाग के विकास में, महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज के समय में भी कई लोग इतिहास और मानव विकास का हवाला देकर मांस के भरपूर आहार को उचित ठहराते हैं। उनका तर्क है कि आग, भाषा के विकास, सामाजिक पदानुक्रम और यहां तक कि संस्कृति की उत्पत्ति मांस की खपत से जुड़ी है। यहां तक कि कुछ लोग तो यह भी मानते हैं कि मांस मनुष्य के लिए एक कुदरती ज़रूरत है, जबकि वे शाकाहार को अप्राकृतिक और संभवत: हानिकारक मानते हैं। विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों ने इन धारणाओं को चुनौती भी दी है।

वास्तव में तो मानव विकास अब भी जारी है, लेकिन साथ ही हमारी आहार सम्बंधी ज़रूरतें भी इसके साथ विकसित हुई हैं। भोजन की उपलब्धता, उसके घटक और तैयार करने की तकनीकों में बदलाव ने महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है। अब हमें भोजन की तलाश में घंटों भटकने की ज़रूरत नहीं होती और आधुनिक कृषि तकनीकों ने वनस्पति-आधारित आहार में काफी सुधार भी किया है। खाना पकाने की विधि ने पोषक तत्व और भी अधिक सुलभ बनाए हैं।

गौरतलब है कि पहले की तुलना में अब मांस आसानी से उपलब्ध है लेकिन इसके उत्पादन में काफी अधिक संसाधनों की खपत होती है। वर्तमान में दुनिया की लगभग 77 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि का उपयोग मांस और दूध उत्पादन के लिए किया जाता है जबकि ये उत्पाद वैश्विक स्तर पर कैलोरी आवश्यकता का केवल 18 प्रतिशत ही प्रदान करते हैं। इससे मांस की उच्च खपत की आवश्यकता पर महत्वपूर्ण सवाल उठता है।

हालिया अध्ययनों ने ‘मांस ने हमें मानव बनाया’ सिद्धांत पर संदेह जताया है। इसके साथ ही मस्तिष्क के आकार और पाचन तंत्र के आकार के बीच कोई स्पष्ट सम्बंध भी नहीं पाया गया जो महंगा-ऊतक परिकल्पना को चुनौती देता है। महंगा-ऊतक परिकल्पना कहती है कि मस्तिष्क बहुत खर्चीला अंग है और इसके विकास के लिए अन्य अंगों की बलि चढ़ जाती है और मांस खाए बिना काम नहीं चल सकता। 2022 में व्यापक स्तर पर किए गए एक अध्ययन में भी पाया गया है कि इस सिद्धांत के पुरातात्विक साक्ष्य उतने मज़बूत नहीं हैं जितना पहले लगता था। इस सम्बंध में हारवर्ड युनिवर्सिटी के प्रायमेटोलॉजिस्ट रिचर्ड रैंगहैम का मानना है कि मानव इतिहास में सच्ची आहार क्रांति मांस खाने से नहीं बल्कि खाना पकाना सीखने से आई है। खाना पकाने से भोजन पहले से थोड़ा पच जाता है जिससे हमारे शरीर के लिए पोषक तत्वों को अवशोषित करना आसान हो जाता है और मस्तिष्क को काफी अधिक ऊर्जा मिलती है।

दुर्भाग्यवश, हमारे आहार विकास ने एक नई समस्या को जन्म दिया है – भोजन की प्रचुरता। आज बहुत से लोग अपनी ज़रूरत से अधिक कैलोरी का उपभोग करते हैं, जिससे मधुमेह, कैंसर और हृदय रोग सहित विभिन्न स्वास्थ्य समस्याएं पैदा होती हैं। इन समस्याओं के कारण मांस की खपत को कम करने का सुझाव दिया जाता है।

ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो मांस हमेशा से अन्य आहार घटकों का पूरक रहा है, इसने किसी अन्य भोजन की जगह नहीं ली है। दरअसल मानव विकास के दौरान मनुष्यों ने जो भी मिला उसका सेवन किया है। ऐसे में यह समझना महत्वपूर्ण है कि मनुष्यों द्वारा मांस के सेवन ने नहीं बल्कि चयापचय में अनुकूलन की क्षमता ने मानव विकास को गति व दिशा दी है। मनुष्य विभिन्न खाद्य स्रोतों से पोषक तत्व प्राप्त करने के लिए विकसित हुए हैं। हमारी मांसपेशियां और मस्तिष्क कार्बोहाइड्रेट और वसा दोनों का उपयोग कर सकते हैं। और तो और, हमारा मस्तिष्क अब चीनी-आधारित आहार और केटोजेनिक विकल्पों के बीच स्विच भी कर सकता है। हम यह भी देख सकते हैं कि उच्च कोटि के एथलीट शाकाहारी या वीगन आहार पर फल-फूल सकते हैं, जिससे पता चलता है कि वनस्पति प्रोटीन मांसपेशियों और मस्तिष्क को बखूबी पर्याप्त पोषण प्रदान कर सकता है।

एक मायने में, अधिक स्थानीय फलों, सब्ज़ियों और कम मांस के मिले-जुले आहार को अपनाना हमारे स्वास्थ्य और ग्रह दोनों के लिए फायदेमंद हो सकता है। दरअसल हमारी अनुकूलनशीलता और मांस की भूख मिलकर अब एक पारिस्थितिकी आपदा बन गई है। यह बात शायद पूरे विश्व पर एक समान रूप से लागू न हो लेकिन अमेरिका जैसे देशों के लिए सही है जहां प्रति व्यक्ति मांस की खपत अत्यधिक है। 

यह सच है कि मांस ने हमारे विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है लेकिन आज की दुनिया में यह आवश्यक आहार नहीं रह गया है। अधिक टिकाऊ, वनस्पति-आधारित आहार को अपनाना हमारे स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिए लाभकारी हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन और असमानता – सोमेश केलकर

मैं पर्यावरण वैज्ञानिकों को एकाउंटेंट के रूप में देखना पसंद करता हूं। जब भी हम अर्थव्यवस्था या अपने जीवन स्तर के विकास के लिए पर्यावरण प्रतिकूल तरीके अपनाते हैं तो हम वास्तव में प्रकृति से कुछ ऋण ले रहे होते हैं। यह ऋण बढ़ता रहता है जब तक कि प्रकृति इसे वसूलने नहीं लगती। जब हम इस प्राकृतिक ऋण का भुगतान करने में असमर्थ होते हैं, तो प्रकृति वैश्विक तापमान में वृद्धि, प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता और आवृत्ति में वृद्धि, समुद्र के स्तर में वृद्धि और हिमनदों के पिघलने जैसे उपाय करना शुरू कर देती है। पर्यावरण वैज्ञानिक कोशिश करते हैं कि इस ऋण का हिसाब रखें क्योंकि प्रकृति हमेशा ध्यान रखती है कि उसे कितनी वसूली करना है। आपको लगेगा कि जलवायु परिवर्तन के बारे में वैज्ञानिकों के विचार जानना लाज़मी है लेकिन हमारे वैश्विक राजनेता ऐसा नहीं सोचते।

जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि राजनेता इसे एक वैश्विक घटना के रूप में देखते हैं और सतही तौर पर देखें तो लगता है कि यह अमीर और गरीब दोनों को समान रूप से प्रभावित करता है। लेकिन ऐसा नहीं है। इस लेख के माध्यम से हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि जलवायु परिवर्तन और असमानता परस्पर सम्बंधित हैं। हम यह भी देखेंगे कि राष्ट्रों ने पृथ्वी को प्रदूषित करने के लिए किस तरह अनैतिक तौर-तरीकों का उपयोग किया है और कार्बन पदचिह्न चर्चाओं में अपना बचाव करने से पीछे भी नही हटे हैं।

जलवायु परिवर्तन व असमानता

कुछ देर के लिए भोपाल गैस त्रासदी वाली रात की कल्पना कीजिए। सैद्धांतिक रूप से देखा जाए तो यूनियन कार्बाइड के कीटनाशक संयंत्र में रखे गैस कंटेनरों से रिसी हानिकारक गैस ने अमीर और गरीब के बीच अंतर नहीं किया होगा। लेकिन जब आप रिसाव के बाद के परिणामों को देखेंगे तो आपको इस आपदा से हताहत होने वाले लोगों की संख्या में एक पैटर्न दिखाई देगा।

2-3 दिसंबर 1984 को हुई भोपाल गैस त्रासदी में कई मौतें हुईं। इसमें मरने वालों की संख्या के बारे में कोई सटीक जानकारी तो नहीं है लेकिन कुछ स्रोतों के अनुसार तत्काल मौतों का अनुमान लगभग 2-3 हज़ार का है। इस घटना का लोगों पर दीर्घकालिक प्रभाव भी पड़ा। कार्बाइड से निकलने वाली ज़हरीली गैस के संपर्क में आने से हज़ारों लोगों में श्वसन सम्बंधी समस्याएं, आंखों की बीमारियां और अन्य चिकित्सीय जटिलताएं विकसित हुईं। इनमें से कुछ भाग्यशाली लोग तो कुछ वर्षों में स्वस्थ हो गए जबकि अन्य के लिए ये चिकित्सीय जटिलताएं उनके जीवन की नई समस्याएं बन गईं। गैस रिसाव के कारण जल स्रोतों और मिट्टी में भी दीर्घकालिक पर्यावरणीय जटिलताएं उत्पन्न हुईं। इससे प्रभावित समुदायों के स्वास्थ्य और आजीविका पर भी दीर्घकालिक प्रभाव पड़ा।

प्रभावितों का एक बड़ा हिस्सा गरीब या हाशिए पर रहने वाले समुदायों से है। त्रासदी के अधिकांश पीड़ित संयंत्र के आसपास की घनी आबादी वाली झुग्गियों में रहने वाले लोग थे। यहां मुख्य रूप से कम आय वाले परिवार रहते थे जिनके पास न तो रहने के लिए पर्याप्त आवास थे और न ही स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच। यही लोग इस त्रासदी से सबसे अधिक प्रभावित हुए। भोपाल गैस त्रासदी पर्यावरणीय अन्याय और हाशिए वाले समुदाय पर इसके असंगत प्रभाव का एक ज्वलंत उदाहरण है।

लेकिन औद्योगिक आपदा का जलवायु परिवर्तन से क्या सम्बंध है? वास्तव में भोपाल गैस त्रासदी (इससे प्रभावित लोगों के लिए) कई मायनों में सड़कों पर वाहनों में वृद्धि के कारण बढ़ते प्रदूषण के समान है। एक बार गतिशील होने पर इन दोनों ही परिस्थितियों को पलटना असंभव होता है। और सिद्धांतत: प्रदूषित हवा और कारखाने से हानिकारक गैस का रिसाव सारे लोगों को लगभग समान रूप से प्रभावित कर सकते हैं।

लेकिन वास्तव में जलवायु परिवर्तन का समूहों और क्षेत्रों पर अनुपातहीन प्रभाव पड़ता है। आम तौर पर निम्न-आय और हाशिए पर रहने वाले समुदायों तथा विकासशील देशों में रहने वाली असुरक्षित आबादी जलवायु परिवर्तन से अधिक गंभीर रूप से प्रभावित होती है। इन समूहों के पास जलवायु परिवर्तन के से तालमेल बनाने और इसके दुष्प्रभावों से बचने के लिए संसाधन सीमित और बुनियादी ढांचा निम्न-स्तर का होता है। गैस त्रासदी के संदर्भ में यह सवाल ज़रूर उठता है कि उद्योग केवल वहीं स्थापित क्यों किए जाते हैं जहां गरीब लोग रहते हैं। क्या धनी लोग अपने आवासीय क्षेत्र में ऐसे उद्योग खोलने की अनुमति देंगे? यदि सही जानकारी हो तो भी क्या गरीबों के पास इसका विरोध करने या याचिका दायर करने के लिए अमीरों के समान ही सामर्थ्य होगी? यही सवाल जलवायु परिवर्तन और अमीर बनाम गरीब देशों तथा उनके निवासियों पर इसके प्रभावों की चर्चा करते समय भी किया जा सकता है।

इसमें एक सवाल संसाधनों तक असमान पहुंच का भी है। आय में असमानता और संसाधनों तक असमान पहुंच के बीच एक गहरा सम्बंध है; आम तौर पर उच्च आय वाले लोगों के पास जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए काफी संसाधन होते हैं। इसमें जलवायु-अनुकूल बुनियादी ढांचे में निवेश, बीमा और स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच भी शामिल हैं। निम्न-आय वाले लोगों और समुदायों के पास इन चुनौतियों से निपटने के लिए पर्याप्त संसाधन न होने के कारण वे सबसे अधिक असुरक्षित हैं।

निम्न-आय समूहों और यहां तक कि बड़े पैमाने पर गरीब राष्ट्रों को पर्यावरणीय अन्याय का सामना करना पड़ता है। वे हमेशा से पर्यावरण प्रदूषण और इससे होने वाले खतरों का अनुपातहीन बोझ उठा रहे हैं। काफी संभावना है कि ऐसे समुदाय पर्यावरण प्रदूषण और औद्योगिक खतरों के करीब रहते हों, जैसा कि भोपाल गैस त्रासदी में स्पष्ट नज़र आया। जलवायु परिवर्तन मौसम की चरम घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि करता है और मौजूदा पर्यावरणीय समस्याओं को बदतर बनाकर पर्यावरणीय अन्याय को भी बढ़ा देता है।

इस लेख में भोपाल गैस त्रासदी के कारण पानी और मिट्टी पर दीर्घकालिक प्रभाव का उल्लेख हुआ है। इस सम्बंध में स्वाभाविक सवाल है कि किसकी आजीविका मिट्टी और पानी की गुणवत्ता पर सबसे अधिक निर्भर करती है, उत्तर ‘निश्चित रूप से किसान!’ है। भारत जैसे देश में अधिकांश किसान छोटे और मझोले हैं। हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं कि पर्यावरण क्षति विभिन्न समूहों को अलग-अलग तरीके से प्रभावित करती है। दरअसल मृदा और जल प्रदूषण का एकमात्र उदाहरण भोपाल गैस त्रासदी नहीं है बल्कि दुनिया भर से निकल रहा औद्योगिक कचरा भी इस तरह की पर्यावरण क्षति करता है। जहां पानी और मिट्टी ज़हरीली हो, वहां के छोटे और मध्यम किसानों के लिए जीवित रहना मुश्किल हो जाता है। कृषि, मत्स्य पालन और अन्य जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन आजीविका को बाधित कर सकता है। इन उद्योगों पर निर्भर निम्न आय वाले लोगों के पास नए और अधिक जलवायु-अनुकूलित नौकरियों की तरफ जाने के अवसर सीमित होते हैं। इसके परिणामस्वरूप नौकरियों की कमी और गरीबी में वृद्धि अवश्यंभावी है।

नवीकरणीय और स्वच्छ स्रोतों से प्राप्त उर्जा तक पहुंच चिंता का एक और विषय है। नवीकरणीय और स्वच्छ स्रोत काफी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनके उपयोग से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी आती है और यह जलवायु परिवर्तन को थामने का काम करता है। यहां भी कई निम्न आय वाले परिवारों के पास किफायती और स्वच्छ ऊर्जा विकल्पों तक पहुंच की कमी है जिसके कारण उन्हें जीवाश्म ईंधन पर निर्भर रहना पड़ता है। इससे जलवायु में परिवर्तन तेज़ होता है। स्वच्छ ऊर्जा तक पहुंच में समता से जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने में मदद मिल सकती है।

जलवायु परिवर्तन में सरकार की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। नियमन, नीति निर्माण और शासन-प्रशासन के उसके अधिकार असमानताओं को कायम रख सकते हैं। यदि नीति निर्माण के समय समता के सिद्धांतों को ध्यान में नहीं रखा गया तो जलवायु नियम-कायदे जाने-अनजाने में अमीरों और गरीबों को भिन्न ढंग से प्रभावित करेंगे। इस संदर्भ में जॉन रॉल्स ने अपनी पुस्तक ‘ए थ्योरी ऑफ जस्टिस’ में कहा है कि “यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि सभी (जलवायु) नीतियों को ऐसे तैयार किया जाए जिससे समाज के सबसे कमज़ोर व्यक्ति को भी लाभ हो।”

देशों द्वारा अपनाए जाने वाले अनैतिक तरीके

विश्व भर के राजनेता इन समाधानों से अच्छी तरह परिचित तो हैं लेकिन इन्हें अपनाने के लिए वे तैयार नहीं हैं। उनके हिसाब से विकास और पर्यावरणीय स्थिरता तराजू के दो विपरीत छोर हैं जिनमें से किसी एक की बलि चढ़ाए बगैर दूसरे को हासिल नहीं किया जा सकता। राजनीति का झुकाव हमेशा से ही दिखावे की ओर रहा है। इसलिए, कुछ राष्ट्र अपनी छवि चमकाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर संदिग्ध और आपत्तिजनक रणनीति का सहारा लेते हैं जबकि ‘विकास’ के अपने दृष्टिकोण से पर्यावरण को प्रदूषित करते चले जाते हैं।

कुछ देश तो ऐसे कार्यों में भी लिप्त हैं जिसे जलवायु कार्यकर्ता ‘ग्रीनवॉशिंग’ कहते हैं। इसका मतलब अपने पर्यावरणीय प्रयासों को बढ़ा-चढ़ाकर बताना या झूठे दावे करना है। कई देश पर्यावरण संरक्षण में कोई ठोस कार्य किए बिना यह धारणा बनाने का प्रयास करते हैं कि वे पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक और ज़िम्मेदार हैं। दुनिया भर की सरकारें ग्रीनवॉशिंग के तहत व्यापक स्तर पर जनसंपर्क अभियान, भ्रामक विज्ञापन जैसे तरीके अपनाती हैं।

कुछ राष्ट्र तो अस्पष्टता और जानकारी देने में देरी का सहारा लेते हैं। इसमें आम तौर वे अपने वास्तविक कार्बन पदचिह्न को ओझल रखने के लिए जटिल रिपोर्टिंग विधियों या नौकरशाही विलंब का सहारा लेते हैं।

अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाले देश कार्बन व्यापार या कार्बन ट्रेडिंग के नाम से मशहूर तरीके का भी इस्तेमाल करते हैं। कार्बन ट्रेडिंग ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करने की एक बाज़ार-आधारित पद्धति है। इसके तहत जिन देशों या संस्थानों के लिए उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं वे ऐसे संस्थानों से उत्सर्जन क्रेडिट खरीद सकते हैं जिन्होंने अपने निर्धारित लक्ष्य को हासिल कर लिया है और उनके पास उत्सर्जन की गुंजाइश बची है। कार्बन ट्रेडिंग के दो तरीके हैं।

1. कैपएंडट्रेड – इस प्रणाली के तहत सरकार एक किस्म के उद्योग के लिए उत्सर्जन की कुल मात्रा निर्धारित करती है। इसके बाद कंपनियों या उद्योगों को उत्सर्जन परमिट आवंटित किए जाते हैं। जो कंपनियां अपने आवंटित परमिट से अधिक उत्सर्जन करती हैं, उन्हें या तो अधिशेष परमिट वाली कंपनियों से अतिरिक्त परमिट खरीदने होंगे या फिर निर्धारित सीमा का अनुपालन करने के लिए उत्सर्जन में कमी करना होगा। इस तरह की व्यवस्था आम तौर पर राष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्तर पर दिखती है।

2. ऑफसेटिंग कार्यक्रम – इसके तहत कंपनियों को अपने उत्सर्जन की भरपाई के लिए अन्य देशों या क्षेत्रों में उत्सर्जन में कमी के कार्यक्रमों में निवेश करने की अनुमति दी जाती है। इन प्रयासों के एवज में उन्हें विकास के नाम पर और अधिक प्रदूषण फैलाने की अनुमति मिलती है। ऑफसेटिंग परियोजनाओं में पुनर्वनीकरण, नवीकरणीय ऊर्जा विकास के प्रयास या लैंडफिल से मीथेन कैप्चर जैसी चीज़ें शामिल हो सकती हैं।

भारत सहित कई देश जीवाश्म ईंधन पर सबसिडी देते रहेंगे और साथ-साथ जलवायु लक्ष्यों के प्रति समर्थन और प्रतिबद्धता के बयान भी। इन देशों का मानना है कि ये उद्योग उनकी आर्थिक स्थिरता के लिए ज़रूरी हैं और वे कोई बड़ा बदलाव न करते हुए इन्हें क्रमश: खत्म करने के प्रयास करेंगे।

कई राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय जलवायु समझौतों में भी भाग लेते हैं जिनमें कानूनी रूप से बाध्यता का अभाव होता है। इससे उन्हें राजनीतिक क्षेत्र में दिखावे के लिए महत्वाकांक्षी लक्ष्य दर्शाने का मौका मिलता है। लेकिन सच तो यह है कि वे इन बड़े-बड़े महत्वाकांक्षी लक्ष्यों के प्रति स्पष्ट प्रतिबद्धता के बिना अपना काम चलाते जाते हैं।

कुल मिलाकर, हमारे पास असल मुद्दे का कोई जवाब नहीं है – हम जलवायु परिवर्तन के बारे में क्या कर रहे हैं, और खासकर जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों में क्या हम सबसे कमज़ोर वर्ग के लिए सामाजिक सुरक्षा प्रदान कर रहे हैं?

जलवायु परिवर्तन और असमानता को एक साथ संबोधित करने के लिए ऐसी नीतियां और रणनीतियां लागू करना होगा जो पर्यावरणीय स्थिरता और सामाजिक समता दोनों को समान रूप से प्राथमिकता देती हों। इसमें कमज़ोर समुदायों में जलवायु-अनुकूल बुनियादी ढांचे में निवेश करना, स्वच्छ ऊर्जा, भोजन और पानी तक पहुंच प्रदान करना और स्थायी आजीविका विकल्पों को प्रोत्साहित करना शामिल हो सकता है। इसके लिए पर्यावरण नीति का न्यायसंगत और समावेशी होना भी आवश्यक है। दरअसल, जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई अनिवार्य रूप से एक निष्पक्ष और अधिक न्यायसंगत दुनिया के लिए लड़ाई भी होनी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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ईवीएम: बटन दबाइए, वोट दीजिए – चक्रेश जैन

लेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) में मतदाता बटन दबाकर उम्मीदवार का चुनाव करते हैं। इस पोर्टेबल इलेक्ट्रॉनिक उपकरण ने कागज़ी मतपत्रों की जगह ले ली है। ईवीएम ने आम चुनाव को पारदर्शी बनाने में अहम भूमिका निभाई है।

पहली बार 1982 में केरल के पारूर में ईवीएम का उपयोग किया गया था। बाद में विभिन्न राज्यों के उपचुनावों में भी ईवीएम का इस्तेमाल हुआ था। आरंभ में मशीनी मतदान की विशेषताओं से परिचित न होने के कारण राजनीतिक दलों ने कई शंकाएं जताते हुए इसका विरोध किया था, लेकिन विशेषज्ञों द्वारा समाधान के बाद इन पर विराम लग गया। मतदाताओं ने भी जानकारी के अभाव में ईवीएम को लेकर कल्पानाएं गढ़ ली थीं। आगे चलकर निर्वाचन आयोग ने स्थिति स्पष्ट की। काफी समय से ईवीएम का उपयोग लोकसभा और विधानसभा से लेकर स्थानीय निकाय के चुनावों में हो रहा है।

भारत में ईवीएम का उपयोग करने से पहले दस वर्षों तक रिसर्च हुई और उसके बाद निर्वाचन आयोग के अनुरोध पर भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (बीईएल) और इलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (ईसीआईएल) ने इन मशीनों का निर्माण किया है। ईवीएम की शेल्फ लाइफ 15 वर्ष होती है। इनमें चुनाव परिणामों को कई वर्षों तक सुरक्षित रखा जा सकता है। अनुसंधान के दौरान ईवीएम की कार्यक्षमता पर मौसम, तापमान, धूल, धुएं, पानी आदि का कोई असर नहीं पड़ा है।

ईवीए दो भागों  में बंटी होती है: बैलट युनिट और कंट्रोल युनिट। कंट्रोल युनिट पॉवर सप्लाई, रिकार्डिंग, संग्रहण आदि का काम करती है। बैलट युनिट में वोटिंग पैनल होता है, जिसका उपयोग मतदान करने के लिए किया जाता है। एक कंट्रोल युनिट से अधिकतम चार बैलट युनिट को जोड़ा जा सकता है। एक बैलट युनिट में अधिकतम 16 उम्मीदवारों के वोट दर्ज किए जा सकते हैं। इस प्रकार एक कंट्रोल युनिट 64 उम्मीदवारों के वोट दर्ज करने की क्षमता रखती है।

एक बैलट युनिट में अधिकतम 3840 वोट दर्ज किए जा सकते हैं। आम तौर पर एक मतदान केंद्र पर एक कंट्रोल युनिट और एक या एक से अधिक बैलट युनिट हो सकती हैं। कंट्रोल युनिट में 6 वोल्ट की रिचार्जेबल बैटरियों का इस्तेमाल किया जाता है जिनका जीवनकाल दस वर्ष का होता है। कंट्रोल युनिट में चार बटन होते हैं। पहला बटन दबाने पर मशीन बैलट युनिट को वोट रिकॉर्ड करने का आदेश देती है। दूसरा बटन दबाने से मशीन में संग्रहित पूरी जानकारी खत्म हो जाती है। तीसरा बटन दबाने से मशीन बंद हो जाती है और उसके बाद वह वोट दर्ज नहीं करती। चौथा बटन दबाने पर परिणाम बताती है।

बैलट युनिट के ऊपरी फलक पर उम्मीदवारों के नाम और चुनाव चिन्ह चिपका दिए जाते हैं। प्रत्येक नाम के सामने एक बटन और लाल बत्ती होती है। जिस उम्मीदवार के नाम के आगे बटन दबाया जाता है, उसके खाते में वोट दर्ज हो जाता है। गोपनीयता की दृष्टि से बैलट युनिट को एक अलग स्थान पर रखा जाता है जहां मतदाता के अलावा कोई नहीं रहता है। कंट्रोल युनिट मतदान केंद्र के पीठासीन अधिकारी के पास होती है, जहां पर विभिन्न राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि भी मौजूद रहते हैं।

ईवीएम से वोट डालने का तरीका अलग है। वोट डालने के लिए जाने वाले मतदाता की अंगुली पर अमिट स्याही का निशान लगाकर और उसके हस्ताक्षर लेकर उसे मतदान कक्ष में भेज दिया जाता है। मतदाता के मतदान कक्ष में प्रवेश करते ही मतदान अधिकारी मशीन का स्टार्ट बटन दबा देते हैं और वोटिंग मशीन वोट दर्ज करने के लिए तैयार हो जाती है।

ईवीएम काम कैसे करती है? कंट्रोल युनिट में सबसे पहले क्लीयर का बटन दबाया जाता है। इससे मशीन की मेमोरी में मौजूद हर चीज मिट जाती है। इसके बाद पीठासीन अधिकारी द्वारा स्टार्ट बटन दबाया जाता है। बटन के दबते ही कंट्रोल युनिट में लाल बत्ती और बैलट युनिट में हरी बत्ती जल उठती है। यानी बैलट युनिट बैलट लेने को और कंट्रोल युनिट मत को दर्ज करने के लिए तैयार है। जैसे ही मतदाता द्वारा अपने पसंदीदा उम्मीदवार के सामने वाला बटन दबाया जाएगा, उम्मीदवार के सामने वाली बत्ती जल उठेगी। और कंट्रोल युनिट में ‘बीप’ की आवाज़ भी होगी। इससे मतदाता को पता चल जाएगा कि उसने वोट दे दिया है। इसके बाद बटन दबाने बटन का कोई अर्थ नहीं होगा। यदि दो बटन एक साथ दबा दिए जाएं तो वोट दर्ज नहीं होगा। मतदान समाप्ति पर क्लोज़ का बटन दबाया जाता है।

मतदाताओं का भरोसा बढ़ाने के लिए ईवीएम के साथ अब ‘वीवीपैट’ (वोटर वेरीफाएबल पेपर ऑडिट ट्रेल) जोड़ दिया गया है। यह एक स्वतंत्र प्रिंटर प्रणाली है। इससे मतदाताओं को अपना मतदान बिलकुल सही होने की पुष्टि करने में सहायता मिलती है। ‘वीवीपैट’ का निर्माण भी सार्वजनिक क्षेत्र के उपरोक्त दो प्रतिष्ठानों ने ही किया है। वर्ष 2017-18 के दौरान गोवा, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, नागालैंड, मेघालय, त्रिपुरा और कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में ‘वीवीपैट’ का उपयोग किया गया था।

वैज्ञानिक अध्ययनों और विश्लेषणों में पता चला है कि चुनाव में ईवीएम के इस्तेमाल से लाभ की तुलना में हानि नहीं के बराबर है। ईवीएम के इस्तेमाल से होने वाले लाभ की एक सूची बनाई जा सकती है। यह सूची लगातार लंबी होती जा रही है। ईवीएम के इस्तेमाल से बूथ पर कब्ज़ा करने की घटनाएं खत्म हो गई हैं। वोटिंग में बहुत कम समय लगता है। वोटों की गिनती तीन से छह घंटों में पूरी हो जाती है, जबकि पहले दो दिन तक लगते थे। इन मशीनों में सीलबंद सुरक्षा चिप होती है। ईवीएम के प्रोग्राम में परिवर्तन नहीं किया जा सकता। इससे वोटों की हेरा-फेरी को रोका जा सकता है।

एक मिनट में एक ईवीएम से पांच लोग वोट डाल सकते हैं। ईवीएम बैटरी से चलती है। इसमें डैटा एक दशक तक सुरक्षित रहता है। एक ईवीएम में 64 उम्मीदवार फीड हो सकते हैं। मतपत्रों के ज़माने में बड़ी संख्या में मत अवैध हो जाते थे। कई चुनावों में अवैध मतों की संख्या जीत के अंतर से ज़्यादा हुआ करती थी। अब ईवीएम के उपयोग से कोई वोट अवैध नहीं होता है। (स्रोत फीचर्स)

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एक ठीक-ठाक जीवन के लिए ज़रूरी सामान

हाल ही में एनवायरनमेंट साइंस एंड टेक्नॉलॉजी में प्रकाशित एक अभूतपूर्व अध्ययन में शोधकर्ताओं ने एक महत्वपूर्ण सवाल का जवाब प्रस्तुत किया है: किसी व्यक्ति को अत्यधिक गरीबी से बाहर निकालने के लिए कितने ‘सामान’ की आवश्यकता है। और जवाब है कि किसी व्यक्ति को सालाना लगभग 6 टन सामान लगेगा जिसमें भोजन, ईंधन, कपड़े और कई अन्य आवश्यक चीजें शामिल हैं।

यह अध्ययन ऐसे समय में काफी महत्वपूर्ण है जब संयुक्त राष्ट्र अपने सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने की चुनौती से जूझ रहा है। इन लक्ष्यों में पर्यावरण की सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन से मुकाबले के साथ 2030 तक वैश्विक गरीबी उन्मूलन का लक्ष्य शामिल है। वैसे इन चर्चाओं में जीवाश्म ईंधन हावी रहते हैं लेकिन इस अध्ययन में सीमेंट, धातु, लकड़ी और अनाज जैसे कच्चे माल की भूमिका पर भी प्रकाश डाला गया है। गौरतलब है कि इनके उत्पादन और शोधन से जैव विविधता को 90 प्रतिशत हानि होती है और ये कार्बन उत्सर्जन में 23 प्रतिशत का योगदान देते हैं।

यह अध्ययन 2017 में निर्धारित बुनियादी जीवन मानकों पर आधारित है: रहने के लिए 15 वर्ग मीटर जगह, प्रतिदिन 2100 कैलोरी का सेवन, बुनियादी उपकरण, एक फोन, लैपटॉप और यातायात के साधन वगैरह।

अध्ययन में भौतिक ज़रूरतों की दो श्रेणियों पर ध्यान दिया गया: पहली श्रेणी में घर, स्कूल और बुनियादी ढांचे के निर्माण को शामिल किया गया जिसमें काफी अधिक प्रारंभिक निवेश की आवश्यकता होती है। कुल मिलाकर, ये बुनियादी संरचनाएं गरीबी में रह रहे प्रति व्यक्ति के लिए लगभग 43 टन या वैश्विक स्तर पर 51.6 अरब टन कच्चे माल की मांग करती हैं।

दूसरी श्रेणी में जीवन यापन के लिए दैनिक आवश्यक चीज़ें शामिल हैं: भोजन, शिक्षा, कामकाज जैसी दैनिक ज़रूरतें। इसकी अधिक विस्तृत गणना में फसल बायोमास, उर्वरक, कीटनाशकों और विभिन्न परिवहन साधनों को शामिल किया गया है। इन सभी डैटा को ध्यान में रखते हुए शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि अत्यंत गरीबी में रहने वाले 1.2 अरब लोगों के लिए सबसे न्यूनतम स्तर की सभ्य जीवन शैली को बनाए रखने के लिए प्रति वर्ष 7.2 अरब टन कच्चे माल की आवश्यकता होती है यानी प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष लगभग 6 टन। अध्ययन की सबसे खास और उत्साहजनक बात यह है कि 6 टन का यह आंकड़ा ग्रह को अपूरणीय क्षति पहुंचाए बिना प्राप्त किया जा सकता है।

हालांकि इसमें अभी भी एक समस्या है। इस अध्ययन में माना गया है कि वैश्विक स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति समान मात्रा में कच्चे माल का उपभोग करेगा। वर्तमान स्थिति को देखा जाए तो यूएस और जर्मनी जैसे समृद्ध देशों में रहने वाले हर व्यक्ति को 70 टन प्रति वर्ष से अधिक कच्चे माल की आवश्यकता होती है। यह दुनिया भर में उचित जीवन स्तर के लिए आवश्यक 8-14 टन प्रति व्यक्ति से कहीं अधिक है। यह बात संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिहाज़ से असमानता को कम करने की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करती है।

इतने बड़े अंतर को कम करने में अधिक कुशल उपकरणों का उपयोग महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। उदाहरण के लिए, मांस की खपत को आधा करने या सार्वजनिक परिवहन का विकल्प चुनने से प्रति व्यक्ति सामग्री उपयोग में 10 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। ये निष्कर्ष पृथ्वी के स्वास्थ्य से समझौता किए बिना गरीबी को समाप्त करने की दिशा में आगे बढ़ने के मार्ग की एक सम्मोहक तस्वीर पेश करते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्राचीन संस्कृति के राज़ उजागर करती माला

स्पैनिश नेशनल रिसर्च काउंसिल की पुरातत्वविद हाला अलाराशी और उनकी टीम को वर्ष 2018 में पेट्रा (जॉर्डन) से उत्तर में कई मील दूर बाजा नामक एक प्राचीन बस्ती में लगभग 9000 साल पुरानी एक छोटी, पत्थर से बनी कब्र के अंदर एक बच्चे का कंकाल भ्रूण जैसी मुद्रा में दफन मिला था। इसी के साथ दफन थी मनकों से बनी एक माला जो इस कंकाल की गर्दन पर पहनाई गई थी। हालांकि यह माला बिखरे हुए मनकों के ढेर के रूप में मिली थी लेकिन वैज्ञानिकों ने इन्हें सावधानी से समेटा और वैसा का वैसा पुनर्निर्मित किया। अब, प्लॉस वन में प्रकाशित विश्लेषण बताता है कि प्राचीन लोग किस तरह अपने मृतकों की परवाह करते थे। इसके अलावा यह खेती और बड़े समाजों में बसने से समुदायों में उस समय उभर रहे कुलीन वर्ग के बारे में भी बताता है। फिलहाल यह माला पेट्रा संग्रहालय में रखी गई है।

शोधकर्ताओं ने इस स्थल पर पाई गई कलाकृतियों की तुलना अन्य नवपाषाण स्थलों पर खोजी गई कलाकृतियों से करके यह पता लगाया था कि यह स्थल कितना पुराना है। फिर ल्यूमिनेसेंस डेटिंग तकनीक से इसके काल की पुष्टि की। ल्यूमिनेसेंस डेटिंग यह मापता है कि कोई तलछट कितने समय पहले आखिरी बार प्रकाश के संपर्क में आई थी। पाया गया कि यह कंकाल लगभग 7000 ईसा पूर्व नवपाषाण काल का था। इसी समय कई संस्कृतियां खेती करना, मवेशी-जानवर पालना और बड़े व जटिल समाजों में बसना शुरू कर रही थीं। इस गांव के निवासी भी गेहूं की खेती करते थे और भेड़-बकरियां पालते थे। हालांकि शोधकर्ता पुख्ता तौर पर माला पहने कंकाल के लिंग का पता तो नहीं कर पाए हैं, लेकिन कुछ हड्डियों के आकार को देखकर अनुमान है कि वह एक लड़की थी। शोधकर्ताओं ने उसका नाम जमीला रखा है, जिसका अर्थ है ‘सुंदर’।

अलाराशी बताती हैं कि हालांकि अन्य भूमध्यसागरीय खुदाई स्थलों पर भी नवपाषाण काल और उससे पूर्व के आभूषण (जैसे पत्थर की अंगूठियां व कंगन) मिलते हैं लेकिन ये आभूषण बाजा में मिली माला जितने बड़े नहीं हैं। अब तक खोजे गए नवपाषाणकालीन आभूषणों में सबसे प्राचीन और सबसे प्रभावशाली आभूषणों में से एक इस माला में 2500 मनके थे जो पत्थर, सीप और अश्मीभूत गोंद (एम्बर) के थे। ये मनके नौ लड़ियों में पिरोए हुए थे जो माला के ऊपरी ओर हेमेटाइट के पेंडल से बंधी थीं। नीचे की ओर, बाहरी सात लड़ियां एक छल्ले जैसे नक्काशीदार पेंडल से जुड़ी थीं और अंदरूनी दो लड़ियां बिना पेंडल के थीं।

वे आगे बताती हैं कि खुदाई से जब माला के सभी हिस्सों को खोदकर निकाल लिया गया तो उसे वापस बनाना एक कठिन काम था। अधिकांश मनके जमीला की गर्दन और कंधों के पास मिले थे, और कुछ मनके लड़ी की तरह कतार में पड़े थे, जिससे लगता था कि वे एक बड़ी माला के हिस्से थे। मनकों की कुछ अक्षुण्ण कतारों की सावधानीपूर्वक जांच करके अलाराशी ने इसके समग्र पैटर्न का अनुमान लगाया। और थोड़ा अपने हिसाब से अंदाज़ा लगाया कि माला कैसी रही होगी: उनका तर्क है कि हेमेटाइट पेंडेंट और छल्ले को माला में प्रमुख स्थान पर रखा गया होगा।

माला के अधिकांश मनके बलुआ पत्थर से बने थे, जो बाजा में आसानी से उपलब्ध थे। लेकिन अन्य मनके जैसे फिरोज़ा और एम्बर दूर से मंगाए गए थे। माला का केन्द्रीय हिस्सा यानी छल्ला एक विशाल मोती सीप से बनाया गया था, जो कई किलोमीटर दूर लाल सागर से आई थी।

अलाराशी का कहना है कि समुदायों के खेती करने और बड़े समाज में बसना शुरू करने से उन समुदायों में विशेष स्थिति वाले लोग उभरे। माला से पता चलता है कि जमीला को उच्च दर्जा प्राप्त था – हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि उसे यह विशेषाधिकार क्यों प्राप्त था। और, उसको दफनाना एक सामुदायिक कार्यक्रम रहा होगा जिसने सामुदायिक बंधनों को मज़बूत किया होगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मानव जेनेटिक्स विज्ञान सभा का माफीनामा

पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट प्रकाशित हुई। रिपोर्ट में अमेरिकन सोसायटी ऑफ ह्यूमैन जेनेटिक्स (एएसएचजी) ने अपने विगत 75 सालों के इतिहास की समीक्षा की है और अपने कुछ प्रमुख वैज्ञानिकों की यूजेनिक्स आंदोलन में भूमिका के लिए क्षमा याचना की है। साथ ही सोसायटी ने इस बात के लिए माफी मांगी है कि समय-समय पर उसने जेनेटिक्स के क्षेत्र में हुए सामाजिक अन्याय और क्षति को अनदेखा किया और विरोध नहीं किया।

एएसएचजी की स्थापना 1926 में हुई थी और आज इसके लगभग 8000 सदस्य हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि स्थापना के समय से लेकर 1972 तक सोसायटी के निदेशक मंडल के कम से कम 9 सदस्य/अध्यक्ष अमेरिकन यूजेनिक्स सोसायटी के सदस्य रहे। रिपोर्ट में जिन अन्यायों की चर्चा की गई है, उनमें एएसएचजी के मुखियाओं द्वारा जबरन नसबंदियों का समर्थन और जेनेटिक्स का उपयोग अश्वेत लोगों के प्रति भेदभाव को जायज़ ठहराने के लिए करने जैसी घटनाएं शामिल हैं।

दरअसल, इस समीक्षा की प्रेरणा यूएस के मिनेसोटा में एक अश्वेत व्यक्ति जॉर्ज फ्लायड की एक पुलिस अधिकारी द्वारा हत्या के जवाब में उभरे नस्लवाद विरोधी आंदोलन से मिली थी।

गौरतलब है कि यूजेनिक्स और उसके समर्थकों की धारणा रही है कि मनुष्यों में जो अंतर नज़र आते हैं वे मूलत: उनकी जेनेटिक बनावट से उपजते हैं। इसलिए ये लोग मानते हैं कि मानव समाज में बेहतरी के लिए ज़रूरी है कि कतिपय लोगों को अधिक से अधिक प्रजनन का मौका मिले और कुछ समुदायों को प्रजनन करने से रोका जाए। और तो और, यूजेनिक्स के समर्थक मानते हैं कि अपराध की प्रवृत्ति, शराबखोरी की लत जैसी सामाजिक बुराइयों की जड़ें भी जेनेटिक्स में हैं।

यूजेनिक्स के आधार पर नस्लों को जायज़ ठहराने के प्रयास हुए हैं। जर्मनी में यहूदियों के संहार को भी इसी आधार पर जायज़ ठहराया गया था कि इससे समाज उन्नत होगा।

रिपोर्ट में ऐसी कई बातों का खुलासा किया गया है जब सोसायटी के प्रमुख सदस्यों ने यूजेनिक्स-प्रेरित कदमों का समर्थन किया। साथ ही यह भी कहा गया है कि कई बार सोसायटी ने यूजेनिक्स की धारणा पर हो रहे शोध का समर्थन तो नहीं किया लेकिन खुलकर विरोध भी नहीं किया। अंतत: 1990 के दशक में सोसायटी ने यूजेनिक्स सिद्धांतों के विरोध में स्पष्ट वक्तव्य प्रकाशित किए।

रिपोर्ट में बताया गया है कि जब 1960 के दशक में जेनेटिक्स का दुरुपयोग सामाजिक भेदभाव को जायज़ ठहराने के लिए किया जा रहा था, तब भी सोसायटी मौन रही। उदाहरण के लिए कुछ वैज्ञानिकों ने यह विचार प्रस्तुत किया कि अश्वेत लोग अपनी जेनेटिक बनावट के चलते बौद्धिक रूप से हीन होते हैं। इसी प्रकार से सिकल सेल रोग की जेनेटिक प्रकृति के बारे में गलतफहमियों को पनपने दिया गया, जिसके चलते अश्वेत लोगों के खिलाफ भेदभाव को बढ़ावा मिला।

रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि सोसायटी ने समय-समय पर जेनेटिक्स के अनैतिक प्रयोगों के प्रति कोई विरोध दर्ज नहीं किया था। इन प्रयोगों में कुछ समुदायों की जेनेटिक सूचनाओं का इस्तेमाल समुदाय की अनुमति/स्वीकृति के बगैर किया गया था। अलबत्ता, यह भी स्पष्ट किया गया है कि आम तौर पर जेनेटिक्स अनुसंधान के क्षेत्र और सोसायटी ने हाल के वर्षों में ऐसे अन्यायों की खुलकर निंदा की है।

दरअसल. कई वैज्ञानिकों का मानना है कि यह रिपोर्ट सोसायटी के इतिहास की समीक्षा तो है ही, लेकिन यह जेनेटिक्स के लगातार फैलते क्षेत्र की भावी चुनौतियों और मुद्दों को भी व्यक्त करती है। इस लिहाज़ से यह एक साहसिक व महत्वपूर्ण रिपोर्ट है। (स्रोत फीचर्स)

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निएंडरथल पके खाने के शौकीन थे

गर आप सोचते हैं कि निएंडरथल मानव कच्चा मांस और फल-बेरियां ही खाते थे, तो हालिया अध्ययन आपको फिर से सोचने को मजबूर कर सकता है। उत्तरी इराक की एक गुफा में विश्व के सबसे प्राचीन पके हुए भोजन के जले हुए अवशेष मिले हैं, जिनके विश्लेषण से लगता है कि निएंडरथल मानव खाने के शौकीन थे।

लीवरपूल जॉन मूर्स युनिवर्सिटी के सांस्कृतिक जीवाश्म विज्ञानी क्रिस हंट का कहना है कि ये नतीजे निएंडरथल मानवों में खाना पकाने के जटिल कार्य और खाद्य संस्कृति का पहला ठोस संकेत हैं।

दरअसल शोधकर्ता बगदाद से आठ सौ किलोमीटर उत्तर में निएंडरथल खुदाई स्थल की एक गुफा शनिदार गुफा की खुदाई कर रहे थे। खुदाई में उन्हें गुफा में बने एक चूल्हे में जले हुए भोजन के अवशेष मिले, जो अब तक पाए गए पके भोजन के अवशेष में से सबसे प्राचीन (लगभग 70,000 साल पुराने) थे।

शोधकर्ताओं ने पास की गुफाओं से इकट्ठा किए गए बीजों से इन व्यंजनों में से एक व्यंजन को प्रयोगशाला में बनाने की कोशिश की। यह रोटी जैसी, पिज़्ज़ा के बेस सरीखी चपटी थी जो वास्तव में बहुत स्वादिष्ट थी।

टीम ने दक्षिणी यूनान में फ्रैंचथी गुफा, जिनमें लगभग 12,000 साल पहले आधुनिक मनुष्य रहते थे, से मिले प्राचीन जले हुए भोजन के अवशेषों का भी स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से विश्लेषण किया।

दोनों जानकारियों को साथ में देखने से पता चलता है कि पाषाणयुगीन आहार में विविधता थी और प्रागैतिहासिक पाक कला काफी जटिल थी, जिसमें खाना पकाने के लिए कई चरण की तैयारियां शामिल होती थीं।

शोधकर्ताओं को पहली बार दोनों स्थलों पर निएंडरथल और शुरुआती आधुनिक मनुष्यों (होमो सेपिएन्स) द्वारा दाल भिगोने और दलहन दलने के साक्ष्य मिले हैं।

शोधकर्ताओं को भोजन में अलग-अलग तरह के बीजों को मिलाकर बनाने के प्रमाण भी मिले हैं। उनका कहना है कि ये लोग कुछ खास पौधों के ज़ायके को प्राथमिकता देते थे।

एंटीक्विटी में प्रकाशित यह शोध बताता है कि शुरुआती आधुनिक मनुष्य और निएंडरथल दोनों ही मांस के अलावा वनस्पतियां भी खाते थे। जंगली फलों और घास को अक्सर मसूर की दाल और जंगली सरसों के साथ पकाया जाता था। और चूंकि निएंडरथल लोगों के पास बर्तन नहीं थे इसलिए अनुमान है कि वे बीजों को किसी जानवर की खाल में बांधकर भिगोते होंगे।

हालांकि, ऐसा लगता है कि आधुनिक रसोइयों के विपरीत निएंडरथल बीजों का बाहरी आवरण नहीं हटाते थे। छिलका हटाने से कड़वापन खत्म हो जाता है। लगता है कि वे कड़वेपन को कम तो करना चाहते थे लेकिन दालों के प्राकृतिक स्वाद को खत्म भी नहीं करना चाहते थे।

अनुमान है कि वे स्थानीय पत्थरों की मदद से बीजों को कूटते या दलते होंगे इसलिए दालों में थोड़ी किरकिरी आ जाती होगी। और शायद इसलिए निएंडरथल मनुयों के दांत इतनी खराब स्थिति में थे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्राचीन शिकारी-संग्रहकर्ता कुम्हार भी थे

त्तरी युरेशिया में मिले लगभग 8000 साल पुराने टूटे और जले हुए भोजन अवशेष लगे मिट्टी के बर्तन चीनी मिट्टी के बर्तनों जैसे तो नहीं लगते लेकिन मांस और तरकारी रखने और पकाने की यह टिकाऊ तकनीक इस क्षेत्र में शिकारी-संग्रहकर्ताओं के लिए एक बड़ा कदम था। और हालिया शोध बताता है कि यह तकनीक उन्होंने खुद विकसित की थी।

दरअसल वैज्ञानिक मानते आए थे कि युरोप में मिट्टी के बर्तनों का आगमन लगभग 9000 साल पहले कृषि और जानवरों के पालतूकरण के प्रसार के साथ हुआ था। उत्तरी युरोप में मिले लगभग इसी काल के बर्तनों के आधार पर माना जाता था कि यह तकनीक शिकारी-संग्रहकर्ताओं ने अपने अधिक प्रगतिशील किसान पड़ोसियों से सीखी था।

लेकिन नेचर ह्यूमन बिहेवियर में प्रकाशित एक अध्ययन बिलकुल अलग कहानी कहता है। लगभग 20,000 साल पहले, सुदूर पूर्वी इलाकों में शिकारी-संग्रहकर्ताओं के समूहों के बीच मिट्टी के बर्तन बनाने और उपयोग करने के ज्ञान का प्रसार हो चुका था। ये बर्तन तब उनके द्वारा उपयोग किए जाने वाले चमड़े के बर्तनों से अधिक टिकाऊ थे, और पकाने में उपयोग किए जाने वाले लकड़ी के बर्तनों की तरह आग में जलते नहीं थे। लगभग 7900 साल पहले तक यूराल पर्वत से लेकर दक्षिणी स्कैंडिनेविया तक मिट्टी के बर्तनों का उपयोग आम हो चुका था।

मिट्टी के बर्तनों का फैलाव देखने के लिए नेशनल युनिवर्सिटी ऑफ ऑयरलैंड के पुरातत्वविद रोवन मैकलॉफ्लिन और उनके साथियों ने बाल्टिक सागर और भूतपूर्व सोवियत संघ के युरोपीय हिस्से के 156 पुरातात्विक स्थलों से इकट्ठा किए गए मिट्टी के बर्तनों के अवशेषों का विश्लेषण किया। इनमें से कई अवशेष वर्तमान रूस और यूक्रेन के संग्रहालयों में संग्रहित थे। बर्तनों में चिपके रह गए जले हुए भोजन का रेडियोकार्बन काल-निर्धारण करके शोधकर्ता इनकी समयरेखा पता कर पाए।

चिपके हुए वसा अवशेषों से पता चला कि वे या तो जुगाली करने वाले जानवरों (जैसे हिरण या मवेशियों) का मांस पकाते थे, या मछली, सूअर या सब्ज़ी-भाजी उबालते थे। इसके अलावा, बर्तनों पर की गई कलाकारी और बर्तनों के आकार की तुलना करके शोधकर्ता पता लगा सके कि मिट्टी के बर्तनों का प्रसार एक से दूसरे समुदाय में कैसे हुआ।

वैसे तो मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए कच्चा माल हर जगह उपलब्ध था, लेकिन उन्हें आकार देने और पकाने जैसा तकनीकी ज्ञान एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को हस्तांतरित हुआ होगा। और साथ ही खाना पकाने की नई तकनीक भी सीखी गई होगी।

सारे डैटा को एक साथ रखने पर टीम ने पाया कि उत्तरी युरेशिया के कुछ हिस्सों में मिट्टी के बर्तन तेज़ी से फैले थे। कुछ ही शताब्दियों में यह तकनीक कैस्पियन सागर से उत्तरी और पश्चिमी हिस्से में फैल गई थी।

जिस तेज़ी से इस क्षेत्र में मिट्टी के बर्तन बनाने का ज्ञान फैला, उससे लगता है कि यह ज्ञान लोगों के प्रवास के साथ आगे नहीं बढ़ा बल्कि एक समूह से दूसरे समूह में हस्तांतरित हुआ। ऐसा लगता है एक जगह से दूसरी जगह तक सफर ज्ञान ने किया, लोगों ने नहीं।

यदि ऐसा है, तो ये नतीजे हाल ही में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन से विपरीत हैं जो बताता है कि एनातोलिया में यह तकनीक किस तरह से फैली। हालिया जेनेटिक साक्ष्य बताते हैं कि लगभग इसी समय एनातोलिया से दक्षिणी युरोप आए किसान अपने साथ मिट्टी के बर्तन बनाने के तरीके और परंपराएं लाए थे।

शोधकर्ताओं का कहना है कि इस पर अधिक शोध यह जानने में मदद कर सकता है कि वास्तव में यह ज्ञान कैसे फैला। जैसे यदि शिकारी-संग्रहकर्ता समाज पितृस्थानिक थे (जहां महिलाएं शादी के बाद ससुराल चली जाती हैं) तो मिट्टी के बर्तन बनाना महिलाओं द्वारा किया जाने वाला कार्य हो सकता है जो विवाह सम्बंधों के माध्यम से एक गांव से दूसरे गांव तक फैला होगा।

बहरहाल, अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि हम जितना समझते थे शिकारी-संग्रहकर्ता उससे कहीं अधिक नवाचारी थे। प्रागैतिहासिक जापान से बाल्टिक सागर के किनारों तक घूमने वाले शिकारी-संग्रहकर्ता लोगों ने अपनी घुमंतु जीवन शैली को छोड़े बिना नई तकनीकों को गढ़ा और अपनाया था: वे किसानों का अनुसरण नहीं कर रहे थे बल्कि सर्वथा अलग रास्ते पर आगे बढ़ रहे थे। इस मायने में देखा जाए तो शिकारी-संग्रहकर्ता समाज आविष्कारी समाज था।

हालांकि रूस के वैज्ञानिक इस बारे में पहले से जानते थे और इसके अधिकतर साक्ष्य रूसी भाषा में प्रकाशित हुए थे। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद युरोप में खिंच गई अदृश्य दीवार के चलते इस जानकारी से बाकी लोग अनभिज्ञ रहे और बर्तनों का उपयोग किसानों और पशुपालकों की तकनीक माना जाता रहा। 1990 से यह अदृश्य दीवार ढहने लगी थी; पश्चिमी युरोप और रूस, यूक्रेन व बाल्टिक क्षेत्र के शोधकर्ता संयुक्त अध्ययनों में शामिल होने लगे थे। हालिया अध्ययन भी इसी सहयोग की मिसाल है। यूक्रेन-रूस युद्ध ने इस दीवार को फिर ऊंचा कर दिया है। (स्रोत फीचर्स)

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