यह तो सभी अविभावक जानते हैं कि बच्चे ऊर्जा से भरे होते
हैं। अब एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने मानव के पूरे जीवन काल के दौरान खर्च होने
वाली ऊर्जा की दर की गणना की है। निष्कर्ष यह है कि 9 से 15 महीने की उम्र के शिशु
वयस्कों की तुलना में एक दिन में 50 प्रतिशत अधिक ऊर्जा खर्च करते हैं। ऊर्जा खपत
की दर को शरीर के डील-डौल के हिसाब से समायोजित किया गया था। यह भी पता चला कि
किशोरों और गर्भवती महिलाओं की तुलना में भी शिशु अधिक तेज़ी से ऊर्जा खर्च और
उपयोग करते हैं। यह संभवत: उनके ऊर्जा के लिहाज़ से महंगे मस्तिष्क और अंगों की
ज़रूरत पूरी करता है।
लेकिन बच्चे भी जल्दी थक (या चुक) जाते हैं। यदि उन्हें ज़रूरत के हिसाब से
कैलोरी न मिले तो उनकी उच्च चयापचय दर उनकी वृद्धि को बाधित करती है और उन्हें
बीमारियों के प्रति संवेदनशील बनाती है। इसके अलावा वयस्कों की तुलना में शिशुओं
की कोशिकाएं औषधियों को भी अधिक तेज़ी से पचा डालती हैं। जिसका अर्थ है कि उन्हें
बार-बार खुराक देने की ज़रूरत हो सकती है। वहीं दूसरी ओर, 60
वर्ष से अधिक आयु के व्यक्ति युवाओं की तुलना में प्रतिदिन कम ऊर्जा खर्च करते
हैं। यानी उन्हें कम भोजन की या औषधियों की कम खुराक की आवश्यकता हो सकती है। 90
से ऊपर के लोग मध्यम आयु के लोगों की अपेक्षा 26 प्रतिशत कम ऊर्जा का उपयोग करते
हैं।
हम अपने पूरे जीवन में कितनी ऊर्जा खर्च करते हैं, इस
बारे में वैज्ञानिक बहुत कम जानते हैं। क्योंकि यह पता करने का दोहरे चिंहाकित
पानी (डबली लेबल्ड वाटर) वाला तरीका काफी मंहगा है। इस तरीके में प्रतिभागियों को
हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के विशिष्ट समस्थानिक युक्त ‘भारी’ पानी एक हफ्ते या उससे
अधिक समय तक पिलाया जाता है। इस दौरान हर 24 घंटे के अंतराल में उनके मूत्र, रक्त और लार में इन ‘समस्थानिकों’ की मात्रा को मापकर पता लगाया जाता है कि एक
दिन में किसी व्यक्ति ने औसतन कितनी ऊर्जा खर्च की।
हालिया अध्ययन में ड्यूक युनिवर्सिटी के वैकासिक जीव विज्ञानी हरमन पोंटज़र और
उनके साथियों ने 29 देशों में 6421 लोगों पर हुए दोहरे चिंहाकित पानी अध्ययनों के
परिणामों का एक डैटाबेस तैयार किया। ये अध्ययन 8 दिन की उम्र के शिशु से लेकर 95
साल के व्यक्तियों पर किए गए थे। फिर उन्होंने इस डैटा से प्रत्येक व्यक्ति के लिए
दैनिक चयापचय दर की गणना की, और फिर इसे शरीर के आकार व
द्रव्यमान और अंग के आकार के हिसाब से समायोजित किया। अंगों के महीन ऊतक वसा ऊतकों
की तुलना में अधिक ऊर्जा का उपयोग करते हैं, और
वयस्कों की तुलना में बच्चों के अंगों का द्रव्यमान उनके बाकी शरीर के द्रव्यमान
की तुलना में अधिक होता है।
शोधकर्ताओं ने पाया कि जन्म के समय तो शिशुओं की चयापचय दर उनकी माताओं की
चयापचय दर के समान होती है। लेकिन 9 से 15 महीने के बीच शिशुओं की कोशिकाओं में
बदलाव होते हैं जिनके चलते वे तेज़ी से ऊर्जा खर्च करने लगती हैं।
साइंस पत्रिका में प्रकाशित नतीजों के अनुसार पांच वर्ष की आयु तक बच्चों की
चयापचय दर उच्च रहती है, फिर 20 वर्ष की आयु तक इसमें
धीरे-धीरे कमी आती है और फिर यह स्थिर हो जाती है। यह स्थिर दर 60 वर्ष की आयु तक
बनी रहती है और इसके बाद फिर से यह घटने लगती है। देखा गया कि 90 से अधिक उम्र के
व्यक्ति प्रतिदिन लगभग 26 प्रतिशत कम ऊर्जा उपयोग करते हैं।
यह तो जानी-मानी बात है कि गर्भवती महिलाएं अधिक कैलोरी खर्च करती हैं। लेकिन
अध्ययन में पाया गया कि गर्भवती महिलाओं की चयापचय दर अन्य वयस्कों से अधिक नहीं
होती। गर्भवती महिलाएं अधिक ऊर्जा और कैलोरी खपाती हैं क्योंकि उनके शरीर का आकार
बढ़ जाता है। इसी तरह बढ़ते किशोरों की भी चयापचय दर नहीं बढ़ती, जबकि ऐसा लगता था कि बच्चे किशोरावस्था में अधिक कैलोरी खर्च करते हैं। 30-40
की उम्र में लोग अक्सर सुस्ती महसूस करते हैं; और रजोनिवृत्ति
के समय तो महिलाओं को और अधिक सुस्ती लगती है। लेकिन इस समय भी चयापचय दर नहीं
बदलती। हारमोन्स में परिवर्तन, तनाव, बीमारी, वृद्धि और गतिविधि के स्तर में बदलाव भूख, ऊर्जा
और शरीर के वज़न को प्रभावित करते हैं।
शोधकर्ता है बताते हैं कि शिशुओं में चयापचय दर अधिक होती है क्योंकि संभवत:
उनके मस्तिष्क,
अन्य अंग या प्रतिरक्षा प्रणाली के विकास में बहुत अधिक
ऊर्जा खर्च होती है। और वृद्ध लोगों में यह कम हो जाती है क्योंकि उनके अंग सिकुड़
जाते हैं और उनके मस्तिष्क का ग्रे मैटर कम होने लगता है।
बच्चों का बढ़ता दिमाग बहुत ऊर्जा खपाता है। इस तर्क को मजबूती 2014 में हुआ एक
अन्य अध्ययन देता है, जिसमें पाया गया था कि छोटे बच्चों में
पूरे शरीर द्वारा उपयोग की जाने वाली कुल ऊर्जा में से लगभग 43 प्रतिशत ऊर्जा का
उपभोग मस्तिष्क करता है।
यह अध्ययन सार्वजनिक स्वास्थ्य की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है: इस तरह के आंकड़ों से यह पता लगाया जा सकता है कि शिशुओं, गर्भवती महिलाओं और वृद्ध जनों को कितनी कैलोरी की ज़रूरत है, और उन्हें दवा की कितनी खुराकें दी जाएं। इसके अलावा, हो सकता है कि कुपोषित बच्चों को हमारे पूर्वानुमान की तुलना में अधिक भोजन की आवश्यकता हो। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://laughsandlove.com/wp-content/uploads/2012/12/kids-running.png
हाल ही में हुए एक अध्ययन में पाया गया है कि महिला
शोधकर्ताओं द्वारा शीर्ष चिकित्सा जर्नल्स में प्रकाशित किए गए काम को पुरुष
शोधकर्ता द्वारा प्रकाशित किए गए उसी गुणवत्ता के काम की तुलना में काफी कम उल्लेख
मिलते हैं।
JAMA नेटवर्क ओपन में प्रकाशित इस अध्ययन के नतीजे शीर्ष चिकित्सा पत्रिकाओं में वर्ष 2015 और
2018 के बीच प्रकाशित 5,500 से अधिक शोधपत्रों के उल्लेख डैटा के विश्लेषण के आधार
पर निकाले गए हैं। ‘उल्लेख’ से आशय है कि किसी शोध पत्र का उल्लेख कितने अन्य
शोधपत्रों में किया गया।
पूर्व अध्ययनों में देखा गया था कि अन्य विषयों में पुरुष लेखकों के आलेखों को
महिला लेखकों के आलेखों की तुलना में अधिक उल्लेख मिलते हैं। कुछ लोगों का तर्क
रहा है कि इसका कारण है कि पुरुष शोधकर्ताओं का काम अधिक गुणवत्तापूर्ण और अधिक
प्रभावी होता है। पेनसिलवेनिया विश्वविद्यालय की पाउला चटर्जी इसे परखना चाहती
थीं। उन्होंने देखा था कि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के बावजूद भी
महिलाओं के काम को पुरुषों के समतुल्य काम की तुलना में कम उल्लेख मिले थे। इसलिए
चटर्जी और उनके साथियों ने 6 जर्नल्स में प्रकाशित 5554 लेखों का विश्लेषण किया – एनल्स
ऑफ इंटरनल मेडिसिन, ब्रिटिश मेडिकल जर्नल, जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन, जर्नल
ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन-इंटर्नल मेडिसिन और दी
न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन। उन्होंने एक ऑनलाइन डैटाबेस की मदद से
प्रत्येक शोधपत्र के प्रथम और वरिष्ठ लेखकों के लिंग की पहचान की। उन्होंने पाया
कि इन शोधपत्रों में सिर्फ 36 प्रतिशत प्रथम लेखक महिला और 26 प्रतिशत वरिष्ठ लेखक
महिला थीं।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने प्रत्येक शोधपत्र को मिले उल्लेखों की संख्या का
विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि जिन शोधपत्रों की प्रथम लेखक महिला थी उन
शोधपत्रों को पुरुष प्रथम लेखक वाले शोधपत्रों की तुलना में एक तिहाई कम उल्लेख
मिले थे;
जिन शोधपत्रों की वरिष्ठ लेखक महिला थी उन शोधपत्रों को
पुरुष वरिष्ठ लेखक वाले शोधपत्रों की तुलना में एक-चौथाई कम उल्लेख मिले थे। और तो
और,
जिन शोधपत्रों में प्राथमिक और वरिष्ठ दोनों लेखक महिलाए
थीं,
उन्हें दोनों लेखक पुरुष वाले शोधपत्रों की तुलना में आधे
ही उल्लेख मिले थे।
ये निष्कर्ष महिला शोधकर्ताओं की करियर प्रगति पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालते
हैं। माना जाता है कि किसी शोधपत्र को जितने अधिक उल्लेख मिलते हैं वह उतना ही
महत्वपूर्ण है। विश्वविद्यालय और वित्तदाता अक्सर शोध के लिए वित्त या अनुदान देते
समय,
या नियुक्ति और प्रमोशन के समय भी उल्लेखों को महत्व देते
हैं।
चटर्जी को लगता है कि ये पूर्वाग्रह इरादतन हैं। और इस असमानता का सबसे
संभावित कारण है कि चिकित्सा क्षेत्र में पुरुष और महिलाएं असमान रूप से नज़र आते
हैं। जैसे,
वैज्ञानिक और चिकित्सा सम्मेलनों में वक्ता के तौर पर पुरुष
शोधकर्ताओं को समकक्ष महिला शोधकर्ताओं की तुलना में अधिक आमंत्रित जाता है। सोशल
मीडिया पर पुरुष शोधकर्ता समकक्ष महिला शोधकर्ता की तुलना में खुद के काम को अधिक
बढ़ावा देते हैं। इसके अलावा, महिला शोधकर्ताओं का पुरुषों
की तुलना में पेशेवर सामाजिक नेटवर्क छोटा होता है। नतीजतन, जब उल्लेख की बारी आती है तो पुरुष लेखकों काम याद रहने या सामने आने की
संभावना बढ़ जाती है।
अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि इसमें और भी कई कारक भूमिका निभाते हैं। जैसे, महिलाओं की तुलना में पुरुष शोधकर्ता स्वयं के शोधपत्रों का हवाला अधिक देते
हैं। 2019 में हुए एक अध्ययन में पाया गया था कि पुरुष लेखक अपने काम के लिए
‘नवीन’ और ‘आशाजनक’ जैसे विशेषणों का उपयोग ज़्यादा करते हैं, जिससे अन्य शोधकर्ताओं द्वारा उल्लेख संभावना बढ़ जाती है।
इसके अलावा,
अदृश्य पूर्वाग्रह की भी भूमिका है। जैसे, लोग महिला वक्ता को सुनने के लिए कम जाते हैं, या
उनके काम को कमतर महत्व देते हैं। जिसका मतलब है कि वे अपना शोधपत्र तैयार करते
समय महिलाओं के काम को याद नहीं करते। इसके अलावा, पत्रिकाएं
और संस्थान भी महिला लेखकों के काम को बढ़ावा देने के लिए उतने संसाधन नहीं लगाते।
एक शोध में पाया गया था कि चिकित्सा संगठनों के न्यूज़लेटर्स में महिला वैज्ञानिकों
के काम का उल्लेख कम किया जाता है या उन्हें कम मान्यता दी जाती है। इसी कारण
महिलाएं इन क्षेत्रों में कम दिखती हैं।
अगर महिलाओं के उच्च गुणवत्ता वाले काम का ज़िक्र कम किया जाता है, तो यह लैंगिक असमानता को आगे बढ़ाता है। जिनके काम को बढ़ावा मिलेगा, वे अपने क्षेत्र के अग्रणी बनेंगे यानी उनके काम को अन्य की तुलना में अधिक
उद्धृत किया जाएगा और यह दुष्चक्र ऐसे ही चलता रहेगा।
इस स्थिति से उबरने के लिए चिकित्सा संगठनों द्वारा सम्मेलनों में महिला
वक्ताओं को आमंत्रित किया जा सकता है। इसके अलावा फंडिंग एजेंसियां यह सुनिश्चित
कर सकती हैं कि स्त्री रोग जैसे जिन क्षेत्रों में उल्लेखनीय रूप से महिला
शोधकर्ता अधिक हैं उनमें उतना ही वित्त मिले जितना पुरुषों की अधिकता वाले
क्षेत्रों में मिलता है।
खुशी की बात है कि चिकित्सा प्रकाशन में लैंगिक अंतर कम हो रहा है। 1994-2014 के दरम्यान चिकित्सा पत्रिकाओं में महिला प्रमुख शोध पत्रों का प्रतिशत 27 से बढ़कर 37 हो गया। सम्मेलनों में भी महिला वक्ता अधिक दिखने लगी हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://swaddle-wkwcb6s.stackpathdns.com/wp-content/uploads/2020/01/women-scientists-min.jpg
भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (FSSAI) ने देश में पैकेज्ड खाद्य
तेल,
दूध और अनाज के अनिवार्य फोर्टिफिकेशन की योजना बनाई है।
फोर्टिफिकेशन यानी किसी खाद्य पदार्थ में अतिरिक्त पोषक तत्व मिलाना – सामान्यत:
ऐसे पोषक तत्व जो उस खाद्य में अनुपस्थित होते हैं। केंद्र सरकार ने फोर्टिफिकेशन
को पैकेज्ड खाद्य पदार्थों के लिए किफायती और वहनीय प्रणाली माना है। खाद्य तेल, अनाज और दूध की पहुंच भारत के 99 प्रतिशत घरों तक है। FSSAI का उद्देश्य उपरोक्त खाद्य
पदार्थों को अनिवार्य रूप से फोर्टिफाय करना है ताकि अधिक से अधिक लोगों तक आवश्यक
पौष्टिक तत्व पहुंच सकें। इन उत्पादों की पहचान आसान बनाने के लिए एक लोगो भी जारी
किया जाएगा। कहा जा रहा है कि इस रणनीति से कुपोषण पर अंकुश लगेगा और दैनिक ज़रूरत
(आरडीए) भी पूरी होगी।
गौरतलब है कि पिछले निर्णयों में किसी भी कंपनी को अपने उत्पादों को फोर्टिफाय
करने के लिए बाध्य नहीं किया गया था। राष्ट्रीय स्तर पर अभी तक लगभग 47 प्रतिशत
शोधित (रिफाइंड) पैकेज्ड तेल फोर्टिफाइड हैं। इस रणनीति को लागू करने के लिए विभिन्न
हितधारकों के साथ विचार-विमर्श चल रहा है।
पैकेज्ड खाद्य तेल
FSSAI का दावा है कि खाद्य तेल को
फोर्टिफाय करने की तकनीक आसानी से उपलब्ध है। इसके अलावा, FSSAI मुख्यालय के पास इस बारे में सहायता प्रदान करने के लिए एक
समर्पित टीम भी है। टाटा और ग्लोबल अलायन्स फॉर इम्प्रूव्ड न्यूट्रीशन (GAIN) जैसे कई संगठनों ने तो पहले
से ही खाद्य तेलों के फोर्टिफिकेशन के लिए कार्यक्रम विकसित कर लिए हैं।
FSSAI का यह भी दावा है कि भारत में
आहार के माध्यम से विटामिन डी प्राप्त करने के स्रोत सीमित हैं और भारतीय नागरिक
अपने दैनिक आहार में विविधता लाकर भी विटामिन डी की आवश्यकता को पूरा करने में
असमर्थ हैं। इसके अलावा, भारत में विटामिन ए की कमी भी
काफी व्यापक है। इसलिए तेल का फोर्टिफिकेशन आवश्यक है। भारत के दो राज्यों, राजस्थान और हरियाणा, ने पहले ही तेल का
फोर्टिफिकेशन अनिवार्य कर दिया है।
GAIN की रिपोर्ट बताती है कि भारत
की
– 80 प्रतिशत जनसंख्या दैनिक ज़रूरत का 50 प्रतिशत से कम का उपभोग करती है।
– 50-90 प्रतिशत जनसंख्या विटामिन डी की कमी से पीड़ित है।
– 61.8 प्रतिशत जनसंख्या विटामिन ए की गैर-लाक्षणिक कमी झेलती है।
खाद्य तेलों के फोर्टिफिकेशन का प्रस्ताव कई अन्य देशों में अपनाया जा चुका
है। मोरक्को,
तंज़ानिया, मोज़ांबिक, बोलीविया और नाइजीरिया सहित 27 देशों में फोर्टिफाइड पैकेज्ड खाद्य तेल
अनिवार्य है।
दूध व दुग्ध उत्पाद
दूसरे चरण में FSSAI
अनिवार्य दुग्ध फोर्टिफिकेशन की योजना बना रहा है। इस योजना के तहत विभिन्न दुग्ध
सहकारी समितियों (राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड, अमूल, मदर डेयरी आदि) को फोर्टिफाइड दूध बेचना होगा। फिलहाल अमेरिका, ब्राज़ील,
कनाडा, चीन, फिनलैंड, स्वीडन,
थाईलैंड, कोस्टा रिका और मलेशिया सहित
14 देशों में फोर्टिफाइड दूध अनिवार्य किया गया है।
विटामिन ए और डी
विटामिन ए और विटामिन डी दोनों ही मानव शरीर के लिए अनिवार्य हैं। इसलिए खाद्य
तेल और दूध का फोर्टिफिकेशन पूरी जनसंख्या के लिए फायदेमंद होगा। पूर्व में, FSSAI ने इसके लिए मानक और
दिशानिर्देश जारी किए थे और फोर्टिफाइड उत्पादों की आसानी से पहचान के लिए लोगो भी
जारी किया था।
कई नामी-गिरामी कंपनियां खाद्य (दूध, तेल और अनाज)
फोर्टिफिकेशन तकनीकों को अपनाने और लागू करने के लिए उत्सुक हैं। केंद्र सरकार भी
मध्यान्ह भोजन योजना के माध्यम से फोर्टिफिकेशन के लिए सहायता प्रदान करती है। FSSAI चावल, गेहूं
और नमक जैसे प्रमुख खाद्यों के फोर्टिफिकेशन पर भी विचार कर रहा है।
FSSAI का तर्क
FSSAI की निदेशक इनोशी शर्मा के
अनुसार,
नए FSSAI नियमों के बाद खाद्य पदार्थों में अधिक मात्रा में पोषक मिलाए जा सकेंगे
जिससे दैनिक अनुशंसित मात्रा के 20-50 प्रतिशत के बीच पूर्ति हो सकेगी। यह
अनिवार्यता खाद्य तेल, दूध, चावल
और अन्य अनाजों के क्षेत्र में काम करने वाली सभी खाद्य एवं पेय कंपनियों पर लागू
होगी।
फूड नेविगेटर एशिया ने इनोशी शर्मा से संपर्क करके इस फोर्टिफिकेशन नीति के
बारे में उनके विचार तथा संभावित विरोध को लेकर चर्चा की थी। इनोशी शर्मा का कहना
था कि कई बड़े निर्माता तो पहले से ही फोर्टिफाइड खाद्य पदार्थों का उत्पादन कर रहे
हैं;
रह जाती हैं छोटी कंपनियां। तो ज़्यादा विरोध की संभावना
नहीं है।
उन्होंने यह भी बताया कि वैसे भी FSSAI के पास साझेदारों का एक विस्तृत नेटवर्क और पर्याप्त संसाधन भी उपलब्ध हैं
जिससे इन परिवर्तनों को अपनाने वाली कंपनियों की सहायता की जा सके। इस निर्णय में
उपभोक्ताओं का समर्थन हासिल करने और सप्लाय चेन पर इसके प्रभाव के बारे में शर्मा
का कहना है कि सप्लाय चेन को आसान बनाना महत्वपूर्ण होगा। निर्माता, वितरक और खुदरा विक्रेता फोर्टिफाइड उत्पादों को बाज़ार में उतारेंगे तो
उपभोक्ताओं को तैयार करना करना आसान होगा। उपभोक्ता को जागरूक करना एक मुख्य कार्य
होगा।
फोर्टिफिकेशन के लिए +F
इनोशी शर्मा का यह भी कहना है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से प्रदान
किए जाने वाले चावल, गेहूं और नमक पर पहले से ही फोर्टिफिकेशन
अनिवार्य किया हुआ है। खुले बाज़ार के लिए इसे लागू नहीं किया गया है। जब उनसे
अनाजों के फोर्टिफिकेशन से किसानों पर पड़ने वाले प्रभाव और भविष्य में कृषि
क्षेत्र में FSSAI की योजना के बारे में पूछा
गया तो उन्होंने बताया कि वर्ष 2018 से इन नियमों को सार्वजनिक प्रणालियों में
अनिवार्य कर दिया गया है। आने वाले समय में भी सरकार किसानों तथा उत्पादकों से
चावल और गेहूं की खरीद करेगी और पिसाई एवं प्रसंस्करण के दौरान इनको फोर्टिफाय
किया जाएगा।
हालांकि इस आदेश को खुले बाज़ार में अनिवार्य नहीं किया गया है लेकिन कुछ
फोर्टिफाइड उत्पाद पहले से ही बाज़ार में उपलब्ध हैं। शर्मा के अनुसार इस विषय में
बड़े निर्माताओं को तैयार करने के प्रयास किए जा रहे हैं। कुछ बड़े चावल मिल-मालिकों
से संपर्क किया गया है और गेहूं मिल के मालिकों से भी चर्चा की जाएगी।
FSSAI के द्वारा एक ‘+F’ नामक ब्रांड लेबल भी शुरू करने की योजना
है जिससे उपभोक्ताओं को फोर्टिफाइड उत्पादों की जानकारी मिल सकेगी और वे ऐसे खाद्य
पदार्थों को अपने आहार में शामिल कर सकेंगे। FSSAI अपनी वेबसाइट पर ऐसे उत्पादों के नाम प्रकाशित कर उनकी
सहायता करेगा।
देश में फोर्टिफिकेशन की आवश्यकता और आहार विविधिकरण के माध्यम से पोषण को
सुदृढ़ बनाने के सवाल पर इनोशी शर्मा का मानना है कि देश की वर्तमान परिस्थितियों
में खाद्य पदार्थों का फोर्टिफिकेशन काफी महत्वपूर्ण है। पूर्व में किए गए
अध्ययनों से पता चलता है कि भारत की एक बड़ी आबादी, विशेष
रूप से महिलाओं और पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों, में
खून की कमी है। यानी वे लौह न्यूनता से तो पीड़ित हैं ही, साथ ही
विटामिन की कमी भी निरंतर बढ़ती जा रही है।
उनका कहना है कि पश्चिमी देशों के कई खाद्य पदार्थ फोर्टिफाइड होते हैं इसलिए
वहां ऐसी समस्याएं कम होती हैं। भारत में ऐसे खाद्य पदार्थों की उपलब्धता और उन तक
पहुंच के साथ-साथ उपभोक्ता की पसंद का मुद्दा भी काफी महत्वपूर्ण है। इसलिए चावल, गेहूं जैसे खाद्यान्नों को फोर्टिफाय करने पर ध्यान दिया जा रहा है क्योंकि
इनके माध्यम से आवश्यक पोषक तत्व आसानी से लोगों तक पहुंचाए जा सकते हैं।
सवाल भी हैं
अब तक की चर्चा से प्रतीत होता है कि भारत में कुपोषण की समस्या से लड़ने के
लिए खाद्य पदार्थों का अनिवार्य फोर्टिफिकेशन ही एकमात्र उपाय है। लेकिन मामला
उतना भी आसान नहीं है जितना इसको बताया जा रहा है। खाद्य पदार्थों के फोर्टिफिकेशन
से सम्बंधित कई मूलभूत समस्याएं हैं जिनको FSSAI अनदेखा कर रहा है। इसके साथ ही खाद्य पदार्थों का
फोर्टिफिकेशन कई कंपनियों के लिए भारी मुनाफा कमाने का भी ज़रिया है। ऐसा पहले भी
देखा गया है – नमक में आयोडीन मिलाने को अनिवार्य करने पर नमक की कीमतों में भारी
वृद्धि हुई थी। फोर्टिफिकेशन तकनीकों को प्राप्त और लागू करने में सक्षम बड़ी
कंपनियों के पक्ष में लिया गया यह निर्णय शंका पैदा करता है कि जन कल्याण की आड़
में एक बड़ा खेल खेला जा रहा है।
खाद्य तेलों और चावल के अनिवार्य फोर्टिफिकेशन पर विभिन्न खाद्य सुरक्षा
कार्यकर्ताओं ने FSSAI को
पत्र लिखा था जिसमें आम लोगों के स्वास्थ्य और आजीविका के बारे में कई चिंताएं
प्रस्तुत की गई थी। पत्र में निम्नलिखित चिंताओं पर चर्चा की गई थी:
– भारत में संतुलित आहार के अभाव में एक या दो कृत्रिम खनिज पदार्थों का
फोर्टिफिकेशन करना खाद्य पदार्थों को विषाक्त बना सकता है जिससे कुपोषित आबादी पर
प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, आयरन
फोर्टिफिकेशन से कुपोषित बच्चों की आंत में सूजन हो सकती है।
– FSSAI द्वारा कार्यकर्ताओं को
सम्बोधित करते हुए पिछले पत्र में बताया गया था कि प्रमुख खाद्यान्नों में जोड़े गए
सूक्ष्म पोषक तत्वों को 30-50 प्रतिशत दैनिक अनुशंसित ज़रूरत (आरडीए) प्रदान करने
के हिसाब से समायोजित किया गया है। इसके जवाब में कार्यकर्ताओं का कहना है कि
अल्पपोषित आबादी पर लागू करने के लिए आरडीए प्रणाली की कुछ सीमाएं हैं। आरडीए की
गणना तभी की जाती है जब अन्य सभी पोषक तत्वों की आवश्यकता पूरी हो रही हो। ऐसे में, प्रोटीन व कैलोरी की कमी से पीड़ित आबादी के लिए आरडीए लागू नहीं किया जा सकता
है।
– कुपोषित जनसंख्या में सिर्फ एक विशेष पोषक तत्व की कमी नहीं होती बल्कि कई
पोषक तत्वों की मिली-जुली कमी होती है। इसलिए सूक्ष्म पोषक तत्वों को शामिल करने
के लिए आरडीए का हवाला देते हुए अनिवार्य फोर्टिफिकेशन का तब तक कोई मतलब नहीं है
जब तक स्थूल पोषक तत्वों की कमी को ध्यान में नहीं रखा गया हो। उदाहरण के लिए –
हीमोग्लोबिन संश्लेषण के लिए न केवल आयरन बल्कि अच्छी गुणवत्ता वाले प्रोटीन्स और
अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व (जैसे विटामिन ए, सी, ई,
बी2, बी6, बी12, फोलेट,
मैग्नीशियम, सेलेनियम, ज़िंक आदि) की आवश्यकता होती है।
– इन कार्यकर्ताओं द्वारा फोर्टिफिकेशन की प्रभाविता से सम्बंधित एक और तर्क
दिया गया है। उन्होंने आईसीएमआर, एम्स और स्वास्थ्य मंत्रालय के
विशेषज्ञों द्वारा वर्ष 2021 में जर्नल ऑफ न्यूट्रीशन में प्रकाशित एक
अध्ययन का हवाला दिया है। इसमें चावल खाने वाले देशों में किए गए व्यापक विश्लेषण
से पता चला है फोर्टिफिकेशन से जनसंख्या में उस विशिष्ट न्यूनता में कोई विशेष
अंतर देखने को नहीं मिला है।
– पत्र में कार्यकर्ताओं ने भारत में उच्च स्तर की कार्बोहायड्रेट खपत की ओर
ध्यान आकर्षित किया है जो मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग जैसी बीमारियों से सम्बंधित है। ऐसे में अनाजों का अनिवार्य
फोर्टिफिकेशन एक गलत निर्णय सिद्ध हो सकता है क्योंकि यह पोषक तत्वों से भरपूर
अनाजों पर अधिक निर्भरता पैदा करेगा।
कुपोषण से सम्बंधित रिपोर्ट देखें तो अक्सर विरोधाभासी निष्कर्ष मिलते हैं।
इसलिए विटामिन और खनिज तत्वों की अल्पता के बारे में एक आम सहमति का अभाव है। यह
तो स्पष्ट है कि भारत के विभिन्न राज्यों में विटामिन और खनिज पदार्थों की कमी की
स्थिति अलग-अलग है, इसलिए इससे निपटने के लिए देश भर में एकरूप
प्रणाली की बजाय अधिक विविधतापूर्ण और स्थानीय समाधानों की ज़रूरत है। FSSAI के निरूपण से पता चलता है कि वह अवसरवादी ढंग से
विरोधाभासी साक्ष्यों का उपयोग कर रहा है ताकि कुपोषण के मुद्दे को समग्रता से
सम्बोधित करने की बजाय कृषि-कारोबार से निकले टुकड़ा-टुकड़ा समाधानों की आड़ ले
सके।
स्थानीय अर्थव्यवस्था और आजीविका
खाद्य पदार्थों के फोर्टिफिकेशन से कृषि व्यवसाय के अंतर्गत अनौपचारिक क्षेत्र
में काम करने वाले छोटे किसानों और कम आय वाले उपभोक्ताओं पर भी प्रतिकूल प्रभाव
पड़ सकता है।
आम तौर पर किसानों के पास अपनी उपज को फोर्टिफाय करने के लिए आवश्यक साधन और
तकनीकें नहीं होती है। ऐसे में किसान और भारतीय खाद्य निर्माता तो आवश्यक वस्तुओं
के लिए कच्चा माल प्रदान करेंगे जबकि सूक्ष्म-पोषक तत्व और प्रौद्योगिकी तथा
फोर्टिफिकेशन के साधन अंतर्राष्ट्रीय बिज़नेस द्वारा प्रदान किए जाएंगे। हालांकि, इस पूरी प्रक्रिया में सूक्ष्म पोषक तत्वों या अंतिम उत्पाद के मूल्यों को
नियंत्रित करने के लिए न तो मूल्य-नियंत्रण तंत्र की कोई चर्चा की गई है और न ही
छोटे भारतीय उत्पादकों द्वारा मंडियों के बाहर अपना माल बेचने के लिए न्यूनतम
समर्थन मूल्य तय किया गया है।
एक और समस्या है जिस पर FSSAI ने विचार नहीं किया है। इस आदेश से सूक्ष्म पोषक तत्वों के आपूर्तिकर्ताओं को
सामूहिक रूप से कीमतों में वृद्धि करने के लिए अनौपचारिक उत्पादक संघ (कार्टल)
बनाने का प्रोत्साहन मिलेगा जिससे उपभोक्ताओं को परेशानी का सामना करना पड़ेगा। ऐसे
कार्टल बने तो फोर्टिफिकेशन का उद्देश्य विफल हो जाएगा। जिन देशों में इस तरह के
नियम लाए गए हैं,
वहां इस तरह के व्यवहार देखे जा चुके हैं और कुछ देशों में
तो अनुचित बाज़ार प्रथाओं के लिए कंपनियों पर भारी जुर्माना भी लगाया गया है। FSSAI को कोई भी आदेश जारी करने से
पूर्व वस्तुओं के मूल्य विनियमन के सवाल पर गंभीरता से विचार करना होगा।
फोर्टिफिकेशन से बाज़ार में औपचारिक खिलाड़ियों की हिस्सेदारी में वृद्धि हो सकती है
और अनौपचारिक लोगों की हिस्सेदारी में कमी आ सकती है।
कार्यकर्ताओं ने अपने पत्र में यह भी बताया है कि पंजाब और हरियाणा के राइस
मिलर्स एसोसिएशन्स मार्च 2021 से ही चावल के फोर्टिफिकेशन के नए मानदंडों का विरोध
कर रहे हैं और एफसीआई को इन मानदंडों में ढील देने के लिए मजबूर करने में कामयाब
भी रहे हैं।
अध्ययनों की दिक्कतें
FSSAI ने फोर्टिफिकेशन को एक अच्छा
विचार बताने के लिए जिस अध्ययन का हवाला दिया है, वह
नेस्ले न्यूट्रीशन इंस्टिट्यूट द्वारा वित्तपोषित है और ग्लोबल अलायन्स फॉर
इम्प्रूव्ड न्यूट्रीशन (गैन) के सदस्यों द्वारा लिखा गया है। यह काफी चिंताजनक है।
इन दोनों संस्थाओं के निहित स्वार्थ किसी से छिपे नहीं हैं।
इस विषय में अधिक स्वतंत्र अध्ययनों की तत्काल आवश्यकता है।
फोर्टिफिकेशन ज़रूरी है?
ऐसा प्रतीत होता है कि FSSAI अनिवार्य फोर्टिफिकेशन को किफायती और कुपोषण से लड़ने के उपाय के रूप में धकेल
रहा है लेकिन यह काफी दिलचस्प है कि FSSAI उतना ही प्रयास आहार विविधिकरण के लिए नहीं कर रहा है। इसका कारण यह है कि
आहार विविधिकरण से बड़ी कंपनियों को लाभ मिलने की बहुत कम संभावना है।
वास्तव में आहार विविधिकरण फोर्टिफिकेशन की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है
क्योंकि फोर्टिफिकेशन अतिरिक्त पोषक तत्व प्रदान करने का एक कृत्रिम तरीका है जबकि
आहार विविधिकरण से शरीर को प्राकृतिक तरीकों से पोषण प्राप्त करने की अनुमति मिलती
है। लेकिन,
FSSAI का ‘ईट राइट इंडिया’ अभियान
आहार विविधिकरण की बजाय फोर्टिफिकेशन पर अधिक ज़ोर देता लग रहा है।
एक सत्य तो यह भी है कि फोर्टिफिकेशन से अपरिवर्तनीय और हानिकारक परिणाम हो
सकते हैं फिर भी हम अधिक लागतक्षम विकल्प की तलाश नहीं कर पा रहे हैं। FSSAI का दावा है कि फोर्टिफिकेशन
एक लागतक्षम उपाय है लेकिन वास्तव में इसके दीर्घकालिक स्थायी प्रभाव होंगे जिनमें
कॉर्पोरेट शक्ति में वृद्धि भी शामिल है।
फोर्टिफिकेशन का एक और चिंताजनक दीर्घकालिक प्रभाव यह भी है इसकी वजह से
पैकेज्ड खाद्य पदार्थों पर निर्भरता बढ़ेगी और स्थानीय खाद्य पदार्थों, उनकी उत्पादन प्रणाली और खानपान की प्रथाओं से ध्यान हटेगा। पैकेज्ड खाद्य
पदार्थों पर बड़े और विविध समुदायों की निर्भरता का मतलब कॉर्पोरेट खिलाड़ियों के
लिए आय का एक बड़ा स्रोत है जिनकी कीमतों में वृद्धि करने में वे संकोच नहीं
करेंगे। यह पूछने की ज़रूरत है कि क्या सरकार अल्पता की समस्या के समाधान के बाद
फोर्टिफिकेशन और उसके परिणामों को उलटने में सक्षम होगी। क्या सरकार अनाजों पर इस
कृत्रिम निर्भरता को पलट पाएगी?
निष्कर्ष और समाधान
यह तो स्पष्ट है कि फोर्टिफिकेशन वास्तव में बड़ी कंपनियों को लाभान्वित करने
की एक योजना है जो वर्तमान पारंपरिक कृषि व्यवसाय की कम कीमतों के साथ प्रतिस्पर्धा
करने में असमर्थ हैं। फोर्टिफिकेशन के आदेश का मुख्य उद्देश्य वास्तव में बड़ी
बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मौके प्रदान करना है।
भारत में कुपोषण से लड़ने के बहुत सारे समाधान हैं जिनमें आहार का स्थानीयकरण
पोषण प्रदान करने के हिसाब से पहला सबसे महत्वपूर्ण कदम होना चाहिए। देश भर में
एकरूप अनाज को बढ़ावा देने की बजाय, विभिन्न क्षेत्रों में भोजन की
ऐसी उपयुक्त किस्मों को बढ़ावा दिया जाए तो अधिक प्रभावी होगा जो प्राकृतिक रूप से
विटामिन और खाद्य खनिजों से भरपूर होते हैं। उदाहरण के तौर पर हमारे पास आयरन से
भरपूर (20-300 पीपीएम) चावल की 68 देसी किस्में हैं, ऐसे
में पॉलिश किए गए चावलों को फोर्टिफाय करने की बजाय देसी किस्मों को बढ़ावा देना
बेहतर होगा।
इससे भी अधिक महत्वपूर्ण पोषक तत्वों से भरपूर पशु खाद्य पदार्थ जैसे अंडे, मांस,
डेयरी, मछली और यहां तक कि कीड़े हैं
जिनको भारत के कई भागों में भोजन के तौर पर खाया जाता है। इन्हें बढ़ावा देने की
बजाय सरकार फोर्टिफिकेशन को बढ़ावा दे रही है जो स्पष्ट रूप से कॉर्पोरेट-हितैषी
है।
एक अन्य उपाय के तहत पॉलिशिंग, प्रसंस्करण और परिष्करण को कम
करके,
विशेष रूप से चावल और तेल में, पोषण
तत्वों में वृद्धि की जा सकती है। सरकार को फोर्टिफिकेशन को बढ़ावा देने की बजाय इन
उपायों के प्रति भेदभाव रहित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
सरकार को ऐसा रास्ता अपनाना चाहिए जिससे स्थानीय खाद्य प्रणालियों जैसे पशु खाद्य स्रोत, दालों, बाजरा, सब्ज़ियों, फलियों आदि में निवेश को बढ़ावा मिले और स्थानीय खाद्य उत्पादन के साथ-साथ स्थानीय आजीविका में भी सुधार हो सके। इसकी बजाय प्रस्तावित नीति विरोधाभासी साक्ष्यों और हितों के टकराव में विश्वास रखती है। ऐसी नीतियां पोषण की समस्या को सिर्फ कुछ कृत्रिम तत्व जोड़कर विराम दे देती हैं जबकि ज़रूरत समग्रता से पोषण पर विचार करने की है और फोर्टिफिकेशन इसका उपाय नहीं है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://miro.medium.com/max/1200/1*ikTh8GRumLpHRy6a7w4OWg.png
वीनस फ्लाई ट्रैप जैसे अधिकांश मांसाहारी पौधे वर्ष भर शिकार
करते हैं। अब शोधकर्ताओं ने एक ऐसा मांसाहारी पौधा ढूंढा है जो सिर्फ पुष्पन के
दौरान ही मांसाहार करता है।
मांसाहारी पौधों की लगभग 800 प्रजातियां हैं। कुछ मांसाहारी प्रजातियों के
पौधों में शिकार के लिए विशेष संरचनाएं होती हैं, कुछ
प्रजातियों के पौधों में चिपचिपी सतह होती है जिस पर कीट चिपक जाते हैं और फिसलकर
पाचक रस से भरे कलश में गिर जाते हैं। ब्राज़ील में एक ऐसा मांसाहारी पौधा मिला था, जो भूमिगत पत्तियों की मदद से छोटे कृमि पकड़ता है।
हालिया अध्ययन में मिली प्रजाति ट्राइएंथा ऑक्सिडेंटलिस (एक तरह का
एस्फोडेल) है। इस पौधे में जहां फूल लगते हैं उस डंठल का ऊपरी भाग छोटे-छोटे लाल
रंग के रोएं से ढंका होता है, जिनसे चमकदार और चिपचिपा
पदार्थ रिसता रहता है। रोएं से रिसती इन बूंदों में अक्सर मक्खियां और छोटे भृंग
फंस जाते हैं।
ब्रिटिश कोलंबिया युनिवर्सिटी की ग्रेगरी रॉस ने जीनोमिक अध्ययन के दौरान देखा
कि टी. ऑक्सिडेंटलिस में प्रकाश संश्लेषण को नियंत्रित करने वाले वही जीन
नदारद हैं जो अन्य मांसाहारी पौधों में भी नदारद रहते हैं। इससे लगता था कि यह
मांसाहारी पौधा है।
ब्रिटिश कोलंबिया युनिवर्सिटी के ही कियान्शी लिन जांचना चाहते थे कि क्या
वाकई ट्राइएंथा मांसाहारी है। पहले उन्होंने कुछ फल मक्खियों को नाइट्रोजन
का एक दुर्लभ समस्थानिक खिलाया। फिर वैंकूवर के पास के दलदल में लगे 10 अलग-अलग ट्राइएंथा
पौधों में इन फल मक्खियों को चिपकाया। साथ ही उसी तरह के शाकाहारी पौधों में भी
ऐसी फल मक्खियों को चिपकाया गया।
एक-दो सप्ताह बाद जांच पड़ताल के दौरान ट्राइएंथा के तनों, पत्तियों व फलों में नाइट्रोजन का वह समस्थानिक मिला, लेकिन
शाकाहारी पौधों में नहीं। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में
शोधकर्ता बताते हैं कि ट्राइएंथा ने आधे से अधिक नाइट्रोजन अपने शिकार से
प्राप्त की थी। यानी ट्राइएंथा मांसाहारी पौधा है। इसके अलावा यह भी देखा
गया कि ट्राइएंथा के रोएं वही एंजाइम, फॉस्फेटेज़, बनाते हैं जिसकी मदद से अन्य मांसाहारी पौधे शिकार से पोषण लेते हैं।
कई मांसाहारी पौधे मक्खियों और छोटे भृंगों को फंसाने के लिए चिपचिपे रोएं का
उपयोग करते हैं लेकिन ये रोएं फूलों से दूर होते हैं, ताकि
परागण करने वाले कीट न फंसे। ट्राइएंथा में चिपचिपे रोएं उस मुख्य तने पर
ही होते हैं जिस पर फूल लगते हैं। शोधकर्ताओं को लगता है कि ट्राइएंथा के
रोएं छोटे कीटों को आकर्षित करते हैं, मधुमक्खियां या अन्य
परागणकर्ता नहीं चिपक पाते।
लेकिन कुछ शोधकर्ता इस बात से सहमत नहीं हैं कि ट्राइएंथा वाकई
मांसाहारी है। हो सकता है कि ट्राइएंथा के रोएं महज उन कीड़ों को मारने के
लिए हों जो बिना परागण किए उनसे पराग या मकरंद चुराने आते हैं। यह एक निष्क्रिय
शिकारी लगता है,
क्योंकि इसमें शिकार को फंसाने के लिए कोई विशेष बदलाव नहीं
हुए हैं।
यह खोज दर्शाती है कि प्रकृति में इस तरह के और भी मांसाहारी पौधे हो सकते हैं, जो अब तक अनदेखे रहे हैं; शोधकर्ताओं को संग्रहालय में रखे कुछ फूलों के डंठल से चिपके छोटे कीट मिले हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि संभवत: ट्राइएंथा एक अंशकालिक मांसाहारी पौधा है। ट्राइएंथा की एक खासियत है कि यह एकबीजपत्री है और एकबीजपत्री मांसाहारी पौधे बहुत दुर्लभ हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/_20210809_on_carnivorousplant_1280x720.jpg?itok=C0Vq3sqw
इन दिनों सोशल मीडिया और समाचार में कोविड-19 टीके से
टीकाकृत लोगों में ‘ब्रेकथ्रू संक्रमण’ की खबर सुर्खियों में है। ऐसे में टीके
द्वारा प्रदान की जाने वाली सुरक्षा को लेकर आम जनता के बीच एक गलत धारणा विकसित
हो रही है और लोग टीका लगवाने में संकोच कर रहे हैं। ब्रेकथ्रू संक्रमण का मतलब
होता है कि एक बार संक्रमित हो जाने या टीकाकरण के बाद फिर से संक्रमित हो जाना।
इन्फ्लुएंज़ा,
खसरा और कई अन्य बीमारियों में भी ब्रेकथ्रू संक्रमण देखे
गए हैं।
देखा जाए तो कोई भी टीका शत प्रतिशत प्रभावी नहीं होता है। हां, कुछ टीके अन्य की तुलना में अधिक प्रभावी हो सकते हैं लेकिन अधिकांश टीकों में
ब्रेकथ्रू संक्रमण होते हैं। वास्तव में ‘ब्रेकथ्रू संक्रमण’ का मतलब है कि किसी
टीकाकृत व्यक्ति में रोगकारक उपस्थित है, यह नहीं कि वह बीमार
पड़ेगा या संक्रमण फैलाएगा। टीकाकृत लोग संक्रमित होते हैं तो अधिकांश में बीमारी
के कोई लक्षण नहीं होते हैं, और यदि होते भी हैं तो वे
गंभीर रूप से बीमार नहीं पड़ते। यहां तक कि डेल्टा संस्करण के विरुद्ध भी टीका
गंभीर बीमारी या मौत के जोखिम के खिलाफ पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करता है।
उदाहरण के लिए, अमेरिका में लगभग आधी आबादी का टीकाकरण हो
चुका है। फिर भी,
कोविड-19 के कारण अस्पताल में भर्ती होने वाले 97 प्रतिशत
मामले उन लोगों के हैं जिनका टीकाकरण नहीं हुआ है। यानी टीका न लगवाने वाले अधिक
संख्या में बीमार हुए हैं।
ब्रेकथ्रू संक्रमण के मामले में एक चिंता यह व्यक्त हुई है कि ऐसे लोग दूसरों
को वायरस फैलाएंगे। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि टीकाकृत लोगों द्वारा वायरस
फैलाने की संभावना कम होती है, यहां तक कि लक्षण विहीन लोगों
द्वारा भी। यानी यदि आप टीकाकृत हैं तो आपके संक्रमित होने की संभावना तो काफी कम
है ही,
और यदि आप संक्रमित हो भी जाते हैं तो आपके द्वारा वायरस
प्रसार का जोखिम काफी कम होगा। एक कारण यह है कि ऐसे संक्रमणों में वायरस की मात्रा
ही कम होती है।
गौरतलब है कि ब्रेकथ्रू के मामले टीके के अप्रभावी होने से नहीं होते हैं। समय
के साथ प्रतिरक्षा कम होना, या किसी विशेष रोगजनक के प्रति
टीके का अप्रभावी होना इसके कारण हो सकते हैं। जॉन्स हॉपकिंस ब्लूमबर्ग स्कूल ऑफ
पब्लिक हेल्थ में डिपार्टमेंट ऑफ इंटरनेशनल हेल्थ की एसोसिएट प्रोफेसर कौसर तलात
बताती हैं कि एमएमआर (मीज़ल्स-मम्स-रूबेला) का टीका एक ऐसा ही उदाहरण है। इसमें
खसरा के विरुद्ध तो मज़बूत सुरक्षा प्राप्त होती है लेकिन मम्स के विरुद्ध
प्रतिरक्षा क्षमता कम मिलती है। लेकिन खसरा के भी ब्रेकथ्रू संक्रमण देखे गए हैं।
इसी वजह से 1980 के दशक में खसरा के व्यापक प्रकोप के बाद से नीति में परिवर्तन
किया गया और एक के बजाय एमएमआर की दो खुराकें दी जाने लगीं।
इन्फ्लुएंज़ा टीके से तो सबसे अधिक ब्रेकथ्रू संक्रमण जुड़े हैं।
विशेषज्ञों के अनुसार यदि इन मामलों को बारीकी से ट्रैक किया जाने लगे तो
सार्स-कोव-2 से भी अधिक ब्रेकथ्रू मामले देखने को मिल जाएंगे। बल्कि वास्तविकता तो
यह है कि कोविड टीके इन्फ्लुएंज़ा टीकों से बेहतर प्रदर्शन करते प्रतीत हो रहे हैं।
अभी तक तो कोविड टीके नए संस्करणों के विरुद्ध काफी प्रभावी रहे हैं। यहां तक कि
कोविड प्रतिरक्षा पर उतना हावी नहीं हो पाता जितना इन्फ्लुएंज़ा होता है। कई बार कम
प्रभावी टीके के चलते कुछ मौसमों में बड़ी संख्या में ब्रेकथ्रू मामले होते हैं।
ब्रेकथ्रू दर का सम्बंध टीकाकृत जनसंख्या पर निर्भर करता है। यदि टीकाकृत
लोगों की संख्या कम है तो समुदाय में ब्रेकथ्रू की दर अधिक होगी। दूसरी ओर, उच्च टीकाकरण का मतलब होगा कि अधिकांश मामले टीकाकृत लोगों के होंगे।
ब्रेकथ्रू संक्रमण में टीकाकृत लोगों की बड़ी संख्या का एक अन्य कारक उनकी आयु, स्वास्थ्य स्थिति भी है, जिनका सम्बंध कमज़ोर प्रतिरक्षा
तंत्र से देखा गया है। ऐसे लोगों में टीकों के प्रति प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया थोड़ी
कमज़ोर होती है और वे अधिक जोखिम में होते हैं। ऐसे लोगों को कोविड के बूस्टर शॉट
की आवश्यकता हो सकती है। अंग प्रत्यारोपण किए गए रोगियों में टीके की तीसरी खुराक
से अच्छे परिणाम देखने को मिले हैं। फ्रांस और इस्राइल ने कमज़ोर प्रतिरक्षा वाले
लोगों में पहले से ही तीसरी खुराक देने का निर्णय लिया है और यूके भी इस पर विचार
कर रहा है। सीडीसी ने भी बूस्टर शॉट से सम्बंधित डैटा की समीक्षा के बाद विशेष
आबादी के लिए सहमति दी है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि जब तक हमारे पास बूस्टर शॉट से सम्बंधित स्पष्ट और ठोस परिणाम नहीं है तब तक सबका टीकाकरण ही सबसे बेहतर उपाय है क्योंकि ऐसा करके आम लोगों के अलावा कमज़ोर प्रतिरक्षा वाले लोगों को भी सुरक्षा प्रदान की जा सकेगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://img.assets-d.propublica.org/v5/images/20210413-breakthrough-infections.jpg?crop=focalpoint&fit=crop&fp-x=0.2471&fp-y=0.4025&h=533&q=80&w=800&s=ef5b63d1cdd9ef2381765f97e7e82bed
गर्भस्थ शिशु को पोषण की ज़रूरत होती है, और इसकी पूर्ति सुनिश्चित करने के लिए गर्भावस्था के दौरान मां की शरीर क्रिया
में व्यापक परिवर्तन होते हैं। इनमें से एक परिवर्तन है इंसुलिन के प्रति
संवेदनशीलता में कमी है; यानी कोशिकाएं रक्त से ग्लूकोज़
लेने का संकेत देने वाले इंसुलिन संकेतों के प्रति कम संवेदी हो जाती हैं। पांच से
नौ प्रतिशत गर्भवती महिलाओं में कोशिकाएं इतनी इंसुलिन प्रतिरोधी हो जाती हैं कि
रक्त में शर्करा का स्तर नियंत्रित नहीं रह पाता। इसे गर्भकालीन मधुमेह (जीडीएम)
कहते हैं। अस्थायी होने के बावजूद यह गर्भवतियों और उनके बच्चे में भविष्य में
टाइप-2 मधुमेह और अन्य बीमारियां का खतरा बढ़ा देता है।
पूर्व में,
मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय की रेज़ील रोजास-रॉड्रिग्ज़ ने
जीडीएम से ग्रस्त और जीडीएम से मुक्त गर्भवतियों के वसा ऊतक में अंतर पाया था।
वैसे तो गर्भावस्था के दौरान गर्भवतियों में वसा की मात्रा में वृद्धि सामान्य बात
है,
लेकिन जीडीएम-पीड़ित गर्भवतियों में बड़ी-बड़ी वसा कोशिकाएं
अंगों के आसपास जमा हो जाती हैं। यह भी देखा गया था कि जीडीएम रहित गर्भवतियों की
तुलना में जीडीएम-पीड़ित गर्भवतियों के वसा ऊतकों में इंसुलिन संकेत से सम्बंधित
कुछ जीन्स की अभिव्यक्ति कम होती है। शोधकर्ता जानना चाहते थे कि क्या गर्भावस्था
के दौरान वसा ऊतकों के पुनर्गठन और इंसुलिन प्रतिरोध विकसित होने के बीच कोई
सम्बंध है?
यह जानने के लिए उन्होंने गर्भावस्था से जुड़े प्लाज़्मा प्रोटीन-ए (PAPPA) का अध्ययन किया। PAPPA मुख्य रूप से प्लेसेंटा
द्वारा बनाया जाता है, यह इंसुलिन संकेतों का नियंत्रण करता है और
गर्भावस्था के दौरान रक्त में इन संकेतों को बढ़ाता है। परखनली अध्ययन में पाया गया
कि PAPPA मानव वसा ऊतक के पुनर्गठन में
भूमिका निभाता है और रक्त वाहिनियों के विकास को बढ़ावा देता है। गर्भवती जंगली
चूहों पर अध्ययन में पाया गया कि PAPPA की कमी वाली चुहियाओं में उनके यकृत के आसपास अधिक वसा जमा थी, और उनमें इंसुलिन संवेदनशीलता भी कम पाई गई थी।
शोधकर्ताओं ने 6361 गर्भवती महिलाओं की प्रथम तिमाही में PAPPA परीक्षण और तीसरी तिमाही में
ग्लूकोज़ परीक्षण के डैटा का अध्ययन भी किया। टीम ने पाया कि PAPPA में कमी जीडीएम होने की
संभावना बढ़ाती है। इससे लगता है कि PAPPA जीडीएम की स्थिति बनने से रोक सकता है।
अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि PAPPA के स्तर और जीडीएम के बीच सम्बंध स्पष्ट नहीं है क्योंकि संभावना है कि किसी
व्यक्ति में जीडीएम किन्हीं अन्य वजहों से होता हो। और जिन चूहों में PAPPA प्रोटीन खामोश कर दिया गया था
वे चूहे मानव गर्भावस्था की सभी विशेषताएं भी नहीं दर्शाते। मसलन, भले ही PAPPA विहीन चूहों में अन्य की
तुलना में इंसुलिन के प्रति संवेदनशीलता कम हो गई थी, लेकिन उनमें
ग्लूकोज़ के प्रति सहनशीलता बढ़ी हुई थी। शोधदल का कहना है कि ऐसा इसलिए हो सकता है
क्योंकि इन चूहों की मांसपेशियां सामान्य से अधिक मात्रा में ग्लूकोज़ खर्च करती
हैं – शायद अधिक दौड़-भाग के कारण।
शोधकर्ता अब पूरी गर्भावस्था के दौरान PAPPA प्रोटीन को मापना चाहती हैं। वे बताती हैं कि इस प्रोटीन का उपयोग जीडीएम के बायोमार्कर की तरह किया जा सकता है और संभवत: गर्भकालीन मधुमेह के निदान के लिए उपयोग किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.the-scientist.com/assets/articleNo/69020/iImg/43045/Medilit-August2021-Infographic.jpg
वर्ष 1951 की जनगणना में भारत की जनसंख्या 36.1 करोड़ थी।
वर्ष 2011 में हम 1.21 अरब लोगों की शक्ति बन गए। भारत की जनसंख्या में तथाकथित
‘जनसंख्या विस्फोट’ से कई समस्याएं बढ़ीं – जैसे बेरोज़गारी जो कई पंचवर्षीय योजनाओं
के बाद भी हमारे साथ है, गरीबी, संसाधनों
की कमी और स्वास्थ्य सुविधाओं व उनकी उपलब्धता में कमी।
हालांकि,
कुछ राहत देने वाली खबर भी है। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र
जनसंख्या कोश द्वारा जारी एक रिपोर्ट बताती है कि 2010-2019 के दौरान भारत की
जनसंख्या वृद्धि दर काफी धीमी पड़ी है। रिपोर्ट के अनुसार, 2001-2011
के दशक की तुलना में 2010-2019 के दशक में भारत की जनसंख्या वृद्धि 0.4 अंक कम
होने की संभावना है। 2011 की जनगणना के अनुसार 2001-2011 के बीच औसत वार्षिक
वृद्धि दर 1.64 प्रतिशत थी।
रिपोर्ट आगे बताती है कि अब अधिक भारतीय महिलाएं जन्म नियंत्रण के लिए गर्भ
निरोधक उपयोग कर रही हैं और परिवार नियोजन के आधुनिक तरीके अपना रही हैं, जो इस बात का संकेत भी देता है कि पिछले दशक में महिलाओं की अपने शरीर पर
स्वायत्तता बढ़ी है और महिलाओं द्वारा अपने प्रजनन अधिकार हासिल करने में वृद्धि
हुई है। हालांकि,
बाल विवाह की समस्या अब भी बनी हुई है और ऐसे विवाहों की
संख्या बढ़ी है।
2011 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 1.21 अरब थी और 2036 तक इसमें 31.1
करोड़ का इजाफा हो जाएगा। अर्थात 2031 में चीन को पीछे छोड़ते हुए भारत दुनिया का
सबसे अधिक आबादी वाला देश हो जाएगा। यह पड़ाव संयुक्त राष्ट्र के पूर्व अनुमान
(वर्ष 2022) की तुलना में लगभग एक दशक देर से आएगा।
तेज़ गिरावट
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि कई प्रांतों की जनसंख्या वृद्धि दर
प्रतिस्थापन-स्तर तक पहुंच गई है, हालांकि कुछ उत्तरी प्रांत
अपवाद हैं। प्रतिस्थापन-स्तर से तात्पर्य है कि जन्म दर इतनी हो कि वह मृतकों की
क्षतिपूर्ति कर दे।
जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट पहले लगाए गए अनुमानों की तुलना में अधिक तेज़ी
से हो रही है। जनांकिकीविदों और अर्थशास्त्रियों का कहना है कि जनसंख्या वृद्धि अब
योजनाकारों के लिए कोई गंभीर समस्या नहीं रह गई है। हालांकि, भारत के संदर्भ में बात इतनी सीधी नहीं है। उत्तर और दक्षिण में जनसंख्या
वृद्धि दर में असमान कमी आई है। यदि यही रुझान जारी रहा तो कुछ जगहों पर श्रमिकों
की कमी हो सकती है और इस कमी की भरपाई के लिए अन्य जगहों से प्रवासन हो सकता है।
विषमता
उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों के
सरकारी आंकड़ों को देखें तो इन राज्यों की औसत प्रजनन दर 3 से अधिक है, जो दर्शाती है कि सरकार के सामने यह अब भी एक चुनौती है। पूरे देश की तुलना
में इन राज्यों में स्थिति काफी चिंताजनक है – देश की औसत प्रजनन दर लगभग 2.3 है जो
आदर्श प्रतिस्थापन दर (2.1) के लगभग बराबर है।
संयुक्त राष्ट्र की पिछली रिपोर्ट में महाराष्ट्र, पश्चिम
बंगाल,
केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना,
कर्नाटक और आंध्र प्रदेश वे राज्य हैं जिनकी प्रजनन दर
आदर्श प्रतिस्थापन प्रजनन दर से बहुत कम हो चुकी है।
विकास अर्थशास्त्री ए. के. शिव कुमार बताते हैं कि विषम आंकड़ों वाले राज्यों
में भी प्रजनन दर में कमी आ रही है, हालांकि इसके कम होने की
रफ्तार उतनी अधिक नहीं है। इसका कारण है कि इन राज्यों में महिलाओं को पर्याप्त
प्रजनन अधिकार और अपने शरीर पर स्वायत्तता हासिल नहीं हुई है। महिलाओं पर संभवत:
समाज,
माता-पिता, ससुराल और जीवन साथी की ओर से
बच्चे पैदा करने का दबाव भी पड़ता है।
रिपोर्ट यह भी बताती है कि भारत की दो-तिहाई से अधिक आबादी कामकाजी आयु वर्ग
(15-64 वर्ष) की है। एक चौथाई से अधिक आबादी 0-14 आयु वर्ग की है और लगभग 6
प्रतिशत आबादी 65 से अधिक उम्र के लोगों की है। अर्थशास्त्रियों का मत है कि यदि
भारत इस जनांकिक वितरण का लाभ उठाना चाहता है तो उसे अभी से ही शिक्षा और
स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में बहुत कुछ करना होगा।
जनसंख्या अनुमान रिपोर्ट
राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग द्वारा प्रकाशित जनसंख्या अनुमान रिपोर्ट बताती है कि
वर्ष 2011-2036 के दौरान भारत की जनसंख्या 2011 की जनसंख्या
से 25 प्रतिशत बढ़ने की उम्मीद है, यानी 36.1 करोड़ की वृद्धि के
साथ यह लगभग 1.6 अरब होने की संभावना है
भारत की जनसंख्या वृद्धि दर 2011-2021 के दशक में सबसे कम
(12.5 प्रतिशत प्रति दशक) रहने की उम्मीद है। रिपोर्ट के अनुसार 2021-2031 के दशक
में भी यह गिरावट जारी रहेगी और जनसंख्या वृद्धि दर 8.4 प्रतिशत प्रति दशक रह
जाएगी।
इन अनुमानों के हिसाब से भारत दुनिया के सबसे अधिक आबादी
वाले देश चीन से आगे निकल जाएगा। यदि इन अनुमानों की मानें तो यह स्थिति संयुक्त
राष्ट्र के अनुमानित वर्ष 2022 के लगभग एक दशक बाद बनेगी।
शहरी आबादी में वृद्धि
जनसंख्या अनुमान रिपोर्ट में भारत की शहरी आबादी में वृद्धि का दावा भी किया गया
है। जबकि वास्तविकता कुछ और ही है, और यह इससे स्पष्ट होती है कि
हम शहरी आबादी किसे कहते हैं। जिस तरह दुनिया भर की सरकारें गरीबी में कमी दिखाने
के लिए गरीबी कम करने के उपाय अपनाने की बजाय परिभाषाओं में हेरफेर का सहारा लेती
रही हैं,
यहां भी ऐसा ही कुछ मामला लगता है।
रिपोर्ट का अनुमान है कि लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या वृद्धि ग्रामीण क्षेत्रों
में होगी। 2036 में भारत की शहरी आबादी 37.7 करोड़ से बढ़कर 59.4 करोड़ हो जाएगी।
यानी 2011 में जो शहरी आबादी 31 प्रतिशत थी, 2036
में वह बढ़कर 39 प्रतिशत हो जाएगी। ग्रामीण से शहरी आबादी में बदलाव सबसे नाटकीय
ढंग से केरल में दिखेगा। वर्ष 2036 तक यहां 92 प्रतिशत आबादी शहरों में रह रही
होगी। जबकि 2011-2015 में यह सिर्फ 52 प्रतिशत थी।
तकनीकी समूह के सदस्य और वर्तमान में नई दिल्ली में विकासशील देशों के लिए
अनुसंधान और सूचना प्रणाली से जुड़े अमिताभ कुंडु के अनुसार केरल में यह बदलाव
वास्तव में अनुमान लगाने के लिए उपयोग किए गए तरीकों के कारण दिखेगा।
2001 से 2011 के बीच केरल में हुए ग्रामीण क्षेत्रों के शहरी क्षेत्र में
पुन:वर्गीकरण के चलते केरल में कस्बों की संख्या 159 से बढ़कर 520 हो गई। इस तरह
वर्ष 2001 में केरल का 26 प्रतिशत शहरी क्षेत्र, 2011
में बढ़कर 48 प्रतिशत हो गया। यानी केरल में 2001-2011 के बीच शहरी आबादी में
वृद्धि दर में बदलाव नए तरह से वर्गीकरण के कारण दिखा, ना कि
ज़बरदस्त विकास के कारण। इन्हीं नई परिभाषाओं का उपयोग वर्ष 2036 के लिए जनसंख्या
वृद्धि का अनुमान लगाने में किया गया है, जो इस रिपोर्ट के
निष्कर्षों पर सवाल उठाता है। रिपोर्ट मानकर चलती है कि भारत के सभी राज्य
जनसंख्या गणना के लिए वर्तमान परिभाषा और वर्गीकरण का उपयोग करेंगे। लेकिन ऐसा
करेंगे या नहीं यह कहना मुश्किल है क्योंकि यह पक्के तौर पर नहीं बताया जा सकता कि
भविष्य में पुन:वर्गीकरण या पुन:परिभाषित किया जाएगा या नहीं। यदि पुन:वर्गीकरण या
पुन:परिभाषित किया गया तो जनसंख्या के आंकड़े और इसे मापने के हमारे तरीके बदल
जाएंगे।
प्रवासन की भूमिका
भारत के जनसांख्यिकीय परिवर्तन में प्रवासन की भी भूमिका है। अनुमान लगाने में
उपयोग किए गए कोहोर्ट कंपोनेंट मॉडल में प्रजनन दर, मृत्यु
दर और प्रवासन दर को शामिल किया गया है। जबकि ‘अंतर्राष्ट्रीय प्रवासन’ को नगण्य
मानते हुए शामिल नहीं किया गया है। अनुमान के लिए 2001-2011 के दशक का
अंतर्राज्यीय प्रवासन डैटा लिया गया है और माना गया है कि अनुमानित वर्ष के लिए
राज्यों के बीच प्रवासन दर अपरिवर्तित रहेगी।
इस अवधि में,
उत्तर प्रदेश और बिहार से लोगों का प्रवासन सर्वाधिक हुआ, जबकि महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा
और दिल्ली में प्रवास करके लोग आए।
जनसंख्या वृद्धि में अंतर
यदि उत्तर प्रदेश एक स्वतंत्र देश होता तो यह विश्व का आठवां सबसे अधिक आबादी
वाला देश होता। 2011 में उत्तर प्रदेश की जनसंख्या 19.9 करोड़ थी जो वर्ष 2036 में
बढ़कर 25.8 करोड़ से भी अधिक हो जाएगी – यानी आबादी में लगभग 30 प्रतिशत की वृद्धि
होगी।
बिहार की जनसंख्या को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। बिहार जनसंख्या वृद्धि
दर के मामले में उत्तर प्रदेश को भी पछाड़ सकता है। 2011 में बिहार की जनसंख्या
10.4 करोड़ थी,
और अनुमान है कि लगभग 42 प्रतिशत की बढ़ोतरी के बाद वर्ष
2036 में यह 14.8 करोड़ हो जाएगी। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि 2011-2036 के
बीच भारत की जनसंख्या वृद्धि में 54 प्रतिशत योगदान पांच राज्यों – उत्तर प्रदेश, बिहार,
महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश
का होगा। वहीं दूसरी ओर, पांच दक्षिणी राज्य – केरल, कर्नाटक,
आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु का
कुल जनसंख्या वृद्धि में योगदान केवल नौ प्रतिशत होगा। उपरोक्त सभी दक्षिणी
राज्यों की कुल जनसंख्या वृद्धि 2.9 करोड़ होगी जो सिर्फ उत्तर प्रदेश की जनसंख्या
वृद्धि की आधी है।
घटती प्रजनन दर
उत्तर प्रदेश और बिहार सर्वाधिक कुल प्रजनन दर वाले राज्य हैं। कुल प्रजनन दर
यानी प्रत्येक महिला से पैदा हुए बच्चों की औसत संख्या। 2011 में उत्तर प्रदेश और
बिहार की कुल प्रजनन दर क्रमश: 3.5 और 3.7 थी। ये भारत की कुल प्रजनन दर 2.5 से
काफी अधिक थीं। जबकि कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, पंजाब,
हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों की कुल प्रजनन दर 2 से कम थी।
यदि वर्तमान रफ्तार से कुल प्रजनन दर कम होती रही तो अनुमान है कि 2011-2036 के
दशक में भारत की कुल प्रजनन दर 1.73 हो जाएगी। और, 2035
तक बिहार ऐसा एकमात्र राज्य होगा जिसकी कुल प्रजनन दर 2 से अधिक (2.38) होगी।
वर्ष 2011 में मध्यमान आयु 24.9 वर्ष थी। प्रजनन दर में गिरावट के कारण वर्ष
2036 तक यह बढ़कर 35.5 वर्ष हो जाएगी। भारत में, जन्म
के समय जीवन प्रत्याशा लड़कों के लिए 66 और लड़कियों के लिए 69 वर्ष थी, जो बढ़कर क्रमश: 71 और 74 वर्ष होने की उम्मीद है। इस मामले में भी केरल के शीर्ष
पर होने की उम्मीद है। यह जन्म के समय लड़कियों की 80 से अधिक और लड़कों की 74 वर्ष
से अधिक जीवन प्रत्याशा वाला एकमात्र भारतीय राज्य होगा। 2011 की तुलना में 2036
में स्त्री-पुरुष अनुपात में भी सुधार होने की संभावना है। 2036 तक यह वर्तमान
प्रति 1000 पुरुष पर 943 महिलाओं से बढ़कर 952 हो जाएगा। 2036 तक कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में अधिक
होने की संभावना है।
श्रम शक्ति पर प्रभाव
दोनों रिपोर्ट देखकर यह स्पष्ट होता है कि जैसे-जैसे देश की औसत आयु बढ़ेगी, वैसे-वैसे देश चलाने वाले लोगों की ज़रूरतें भी बढ़ेंगी। चूंकि अधिकांश श्रमिक
आबादी 30-40 वर्ष की आयु वर्ग की होगी इसलिए संघर्षण दर (एट्रीशन रेट) में गिरावट
देखी जा सकती है;
यह उम्र आम तौर पर ऐसी उम्र होती है जब लोगों पर पारिवारिक
दायित्व होते हैं और इसलिए वे जिस नौकरी में हैं उसी में बने रहना चाहते हैं और
जीवन में स्थिरता चाहते हैं। उनकी स्वास्थ्य सम्बंधी ज़रूरतों में भी देश में बदलाव
दिखने की संभावना है।
जनसंख्या में असमान वृद्धि के कारण श्रमिकों की अधिकता वाले राज्यों से
श्रमिकों का प्रवासन श्रमिकों की कमी वाले राज्यों की ओर होने की संभावना है। यदि
राज्य अभी से स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा पर अपना खर्च बढ़ा दें तो राज्यों के पास
नवजात बच्चों के लिए एक सुदृढ़ सरकारी बुनियादी ढांचा होगा, जो
भविष्य में इन्हें कुशल कामगार बना सकता है और राज्य अपने मानव संसाधन का अधिक से
अधिक लाभ उठा सकते हैं। अकुशल श्रमिक की तुलना में एक कुशल श्रमिक का अर्थव्यवस्था
में बहुत अधिक योगदान होता है।
स्वास्थ्य सुविधाओं पर प्रभाव
अगर अनुमानों की मानें तो देश में वरिष्ठ नागरिकों की संख्या में वृद्धि भी
देश की स्वास्थ्य सम्बंधी प्राथमिकताओं को प्रभावित कर सकती है और उसे बदल भी सकती
है। जब किसी देश में प्रजनन दर में कमी के साथ-साथ जीवन प्रत्याशा बढ़ती है, तो जनसांख्यिकीय औसत आयु बढ़ती है। यानी देश की स्वास्थ्य सम्बंधी प्राथमिकताएं
तेज़ी से बदलेंगी। वरिष्ठ नागरिकों की संख्या बढ़ने के चलते बुज़ुर्गों के लिए
सार्वजनिक व्यय बढ़ाने की ज़रूरत पड़ भी सकती है और नहीं भी। यह इस बात पर निर्भर
होगा कि देश की सार्वजनिक पूंजी और सामाजिक कल्याण, और
समाज के लिए इनकी उपलब्धता और पहुंच की स्थिति क्या है।
आज़ादी के समय से ही भारत में असमान आय, स्वास्थ्य
देखभाल की उपलब्धता और पहुंच की कमी जैसी समस्याएं बनी हुई हैं, भविष्य में भी ये चुनौतियां बढ़ेंगी। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए सरकार
यदि अभी से ही स्वास्थ्य देखभाल पर व्यय और निवेश में वृद्धि नहीं करती तो आने
वाले दशकों में स्वास्थ्य सेवा पर सार्वजनिक खर्च सरकार के लिए बोझ बन सकता है। और
भविष्य में हमें अधिक प्रवासन झेलना पड़ेगा, सेवानिवृत्ति
की आयु में बहुत अधिक वृद्धि होगी और बुज़ुर्गों की देखभाल में लगने वाले सार्वजनिक
खर्च जुटाने के उपाय खोजने पड़ेंगे।
जनसंख्या नियंत्रण नीतियां
पिछले कुछ समय में जनसंख्या नियंत्रण जैसी बातें भी सामने आई हैं। इसमें असम
और उत्तर प्रदेश सबसे आगे हैं। उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग ने दो बच्चों की नीति
को बढ़ावा देने वाले प्रस्तावित जनसंख्या नियंत्रण विधेयक का एक मसौदा जारी किया
है। इसका उल्लंघन करने का मतलब होगा कि उल्लंघनकर्ता स्थानीय चुनाव लड़ने, सरकारी नौकरियों में आवेदन करने या किसी भी तरह की सरकारी सब्सिडी प्राप्त
करने से वंचित कर दिया जाएगा। असम में यह कानून पहले से ही लागू है और उत्तर
प्रदेश यह कानून लागू करने वाला दूसरा राज्य होगा।
ये प्रावधान ‘उत्तर प्रदेश जनसंख्या (नियंत्रण, स्थिरीकरण
और कल्याण) विधेयक, 2021’ नामक मसौदे का हिस्सा हैं। विधेयक का
उद्देश्य न केवल लोगों को दो से अधिक बच्चे पैदा करने के लिए दंडित करना है, बल्कि निरोध (कंडोम) और गर्भ निरोधकों के मुफ्त वितरण के माध्यम से परिवार
नियोजन के बारे में जागरूकता बढ़ाना और गैर-सरकारी संगठनों की मदद से छोटे परिवार
के महत्व और लाभ समझाना भी है।
सरकार सभी माध्यमिक विद्यालयों में जनसंख्या नियंत्रण सम्बंधी विषय अनिवार्य
रूप से शामिल करना चाहती है। दो बच्चों का नियम लागू कर सरकार जनसंख्या नियंत्रण
के प्रयासों को फिर गति देना चाहती है और इसे नियंत्रित और स्थिर करना चाहती है।
दो बच्चों के नियम को मानने वाले वाले लोक सेवकों को प्रोत्साहित भी किया
जाएगा। मसौदा विधेयक के अनुसार दो बच्चे के मानदंड को मानने वाले लोक सेवकों को
पूरी सेवा में दो अतिरिक्त वेतन वृद्धि मिलेगी, पूर्ण
वेतन और भत्तों के साथ 12 महीनों का मातृत्व या पितृत्व अवकाश दिया जाएगा, और राष्ट्रीय पेंशन योजना के तहत नियोक्ता अंशदान निधि में तीन प्रतिशत की
वृद्धि की जाएगी।
कागज़ों में तो यह अधिनियम ठीक ही नज़र आता है, लेकिन
वास्तव में इसमें कई समस्याएं हैं। विशेषज्ञों का दावा है कि ये जबरन की नीतियां
लाने से जन्म दर कम करने पर वांछित प्रभाव नहीं पड़ेगा।
चीन ने हाल ही में अपनी दो बच्चों की नीति में संशोधन किया है। और पॉपुलेशन
फाउंडेशन ऑफ इंडिया ने एक बयान जारी कर कहा है कि भारत को चीन की इस जबरन की नीति
की विफलता से सबक लेना चाहिए। धर्म प्रजनन स्तर में बहुत कम बदलाव लाएगा। वास्तविक
बदलाव तो ‘शिक्षा, रोज़गार के अवसर और गर्भ निरोधकों की
उपलब्धता और उन तक पहुंच’ से निर्धारित होगा।
जनसंख्या नियंत्रण नीति की कुछ अंतर्निहित समस्याएं भी हैं। यह तो सब जानते
हैं कि भारत में लड़का पैदा करने पर ज़ोर रहता है। लड़के की उम्मीद में कभी-कभी कई
लड़कियां होती जाती हैं। लोग इस तथ्य को पूरी तरह नज़अंदाज़ कर देते हैं कि प्रत्येक
अतिरिक्त बच्चा घर का खर्चा बढ़ाता है। दो बच्चों की नीति से लिंग चयन और अवैध
गर्भपात में वृद्धि हो सकती है, जिससे महिला-पुरुष अनुपात और
कम हो सकता है।
विधेयक में बलात्कार या अनाचार से, या शादी के बिना, या किशोरावस्था में हुए गर्भधारण से पैदा हुए बच्चों के लिए कोई जगह नहीं है।
कई बार या तो बलात्कार के कारण, या किसी एक या दोनों पक्षों की
लापरवाही के कारण, या नादानी में गर्भ ठहर जाता है। इस नियम
के अनुसार दो से अधिक बच्चों वाली महिला सरकारी नौकरी से या स्थानीय चुनाव लड़ने के
अवसर से वंचित कर दी जाएगी, जो कि अनुचित है क्योंकि काफी
संभावना है कि उसके साथ बलात्कार हुआ हो और इस कारण तीसरा बच्चा हुआ हो।
इस तरह के विधेयक के साथ एक वैचारिक समस्या भी है। क्या सरकार उसे सत्ता में
लाने वाली अपनी जनता पर यह नियंत्रण रखना चाहती है कि वे कितने बच्चे पैदा कर सकते
हैं?
स्वतंत्रता के बाद से भारत में, एक
परिवार में बच्चों की औसत संख्या में लगातार कमी आई है। इसमें कमी लाने के लिए
हमें किसी जनसंख्या नियंत्रण कानून की आवश्यकता नहीं है। विकास, परिवार नियोजन की जागरूकता और एक प्रेरक जनसंख्या नियंत्रण नीति ने अब तक काम
किया है,
न कि तानाशाही नीति ने। रिपोर्ट दर्शाती है कि भारत में
2011 से 2021 के दौरान प्रजनन दर में कमी आई है, और यह
कमी तब आई है जब हमारे पास सिर्फ प्रेरक जनसंख्या नियंत्रण नीतियां थीं। हमें अपने
आप से यह सवाल करने की ज़रूरत है कि उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग द्वारा
प्रस्तावित सख्त सत्तावादी नीति की क्या वास्तव में हमें आवश्यकता है? भले ही हमें गुमराह करने का प्रयास हमारी धार्मिक पहचान के आधार पर किया गया
हो – जैसे ‘बिल का उद्देश्य विभिन्न समुदायों की आबादी के बीच संतुलन स्थापित करना
है’ – हमें इस तरह के कानून की उपयोगिता पर ध्यान देना चाहिए और देखना चाहिए कि
क्या वास्तव में यह जनसंख्या को नियंत्रित करने में मदद करेगा, न कि हमारी धार्मिक पहचान को हमारे तर्कसंगत निर्णय पर हावी होने देना चाहिए।
निष्कर्ष
विभिन्न जनसंख्या रिपोर्ट से यह स्पष्ट है कि हमारी जनसंख्या वृद्धि दर में काफी कमी आई है, जीवन प्रत्याशा बढ़ रही है, आबादी में बुज़ुर्गों की संख्या बढ़ने वाली है और राज्य स्तर पर श्रमिकों का प्रवासन हो सकता है। एक राष्ट्र के रूप में हमें भविष्य के लिए एक सुदृढ़ स्वास्थ्य ढांचे के साथ तैयार रहना चाहिए। बेहतर शिक्षा उपलब्ध करवाकर नवजात शिशु को भविष्य के कुशल मानव संसाधन बनाने के लिए तैयार रहना चाहिए। हमें अगले दशक के लिए यह सुनिश्चित करने वाली एक व्यापक और विस्तृत योजना बनानी चाहिए कि प्रजनन दर प्रतिस्थापन दर तक पहुंच जाए और उसी स्तर पर बनी रहे। विकास, परिवार नियोजन पर जागरूकता बढ़ाने, राष्ट्र की औसत साक्षरता दर बढ़ाने, स्वास्थ्य सेवा को वहनीय, सुलभ बनाने व उपलब्ध कराने, और बेरोज़गारी कम करने के लिए भी निवेश योजना की आवश्यकता है। ये सभी कारक जनसंख्या नियंत्रण में सीधे-सीधे योगदान देते हैं। लेकिन, जिस तरह की स्थितियां बनी हुई हैं उससे इस कानून के लागू होने की संभावना लगती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.researchgate.net/profile/K-James/publication/51530364/figure/fig1/AS:601631074832400@1520451434538/Population-size-and-its-annual-growth-rate-in-India-for-1951-2100-The-19512011-data-are.png
वायरस की मदद से परजीवी ततैया पर पतंगों और तितलियों के दो
बड़े दुश्मन हैं – परजीवी ततैया और वायरस। ये एक दूसरे से संघर्ष भी करते हैं। एक
हालिया अध्ययन से पता चला है कि कुछ वायरस संक्रमण के बाद पतंगों और तितलियों में
अपने जीन्स स्थानांतरित करते हैं जिससे वे परजीवी का सफाया करने वाले प्रोटीन
बनाने लगते हैं।
गौरतलब है कि ततैया और मक्खियों की कई प्रजातियां अन्य कीड़ों के अंदर अपने
अंडे देती हैं जिससे उनकी संतानों को भोजन का स्रोत और विकास के लिए एक सुरक्षित
स्थान मिल जाता है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में मेज़बान जीव की जान चली जाती है।
लेकिन आर्मीवर्म,
कटवर्म और कैबेज बटरफ्लाई जैसी कुछ प्रजातियों में कुछ
ततैया के प्रति प्रतिरोध देखा गया है।
मामले की छानबीन के लिए टोकियो युनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर एंड टेक्नॉलॉजी की
कीटविज्ञानी मडोका नकाई और उनकी टीम ने पहले नॉर्थ आर्मीवर्म लार्वा को सामान्य
पॉक्स वायरस से संक्रमित किया और फिर विभिन्न परजीवी ततैया प्रजातियों से संपर्क
करवाया। असंक्रमित लार्वा परजीवियों के शिकार हो गए, जबकि
वायरस-संक्रमित लार्वा और उनके प्लाज़्मा ने मीटियोरस पल्चीकॉर्निस के अलावा, लगभग सभी परजीवियों को खत्म कर दिया। शोधकर्ताओं ने संक्रमित आर्मीवर्म में दो
प्रोटीन्स की भी पहचान की, जिसे उन्होंने पैरासीटॉइड
किलिंग फैक्टर (PKF) नाम दिया। उन्हें लगता है कि
यह परजीवी के लिए विषैला हो सकता है।
इसके बाद युनिवर्सिटी ऑफ वालेंसिया के कीट विज्ञानी साल्वेडोर हेरेरो और
सहयोगियों ने कीट-संक्रामक वायरस और पतंगे व तितली दोनों में वे जीन्स खोज निकाले
जो PKF का निर्माण कर सकते हैं।
विश्लेषण से पता चलता है कि PKF जीन कई बार वायरस से इन कीटों में स्थानांतरित हुआ है। यानी वायरस से
संक्रमित होने के बाद भी कोई कीट जीवित रहे तो उसे ऐसा जीन मिल जाता है जो परजीवी
से रक्षा करता है।
PKF प्रोटीन की भूमिका की बात
सुनिश्चित करने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया के आणविक जीवविज्ञानी
डेविड थीलमन और उनके सहयोगियों ने आर्मीवर्म्स को दो वायरसों से संक्रमित किया।
उन्होंने पाया कि संक्रमित आर्मीवर्म्स ततैया लार्वा को रोकने में सफल रहे। इसके
अलावा,
बीट आर्मीवर्म जिनके स्वयं के जीन PKF का निर्माण करते हैं, भी
परजीवियों को मारने में सक्षम थे। जब PKF बनाने वाले जीन को खामोश कर दिया, तो कई परजीवी जीवित रहे।
अर्थात परजीवियों को मारने में PKF की भूमिका है। रिपोर्ट साइंस में प्रकाशित हुई है।
PKF से परजीवी कैसे मरते हैं यह
पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों ने एक ततैया लार्वा को संक्रमित नार्थ आर्मीवर्म
प्लाज़्मा के संपर्क में रखा। पता चला कि PKF ने प्रभावित कोशिकाओं को तहस-नहस कर दिया था।
इस अध्ययन से शोधकर्ताओं को फसलों और जंगलों में लार्वा-परजीवियों के रूप में उपयोग किए जाने वाले कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोध को समझने में मदद मिल सकती है। हालांकि, इसकी जटिलता को समझने के लिए अभी और अध्ययन की आवश्यकता है। फिर भी, इन नए प्रोटीन्स की पहचान से आगे का रास्ता तो मिला है। शोधकर्ता वायरस-मेज़बान-परजीवी के पारस्परिक प्रभाव को जांचना चाहते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/_20210729_on_parasiticwasp.jpg?itok=CNreSDYU
डीएनए हर जगह पाया जाता है। यह हवा में भी मौजूद होता है, इसी कारण कई लोगों को पराग या बिल्ली के बालों की रूसी से एलर्जी होती है। हाल
ही में दो शोध समूहों ने अलग-अलग काम करते हुए बताया है कि वातावरण में कई जीवों का
डीएनए पाया जाता है जो आसपास के क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति का पता लगाने में काम
आ सकता है।
टेक्सास टेक युनिवर्सिटी के इकॉलॉजिस्ट मैथ्यू बार्नेस इस अध्ययन को काफी महत्वपूर्ण
मानते हैं जिससे हवा के नमूनों की मदद से पारिस्थितिकी तंत्र में कई प्रजातियों का
पता लगाया जा सकता है। इसके लिए शोधकर्ता काफी समय से पानी में बिखरे डीएनए की मदद
से ऐसे जीवों को खोजने का प्रयास कर रहे थे जो आसानी से नज़र नहीं आते। झीलों, नदियों और तटीय क्षेत्रों से प्राप्त पर्यावरणीय डीएनए (ई-डीएनए) से प्राप्त
नमूनों से शोधकर्ताओं को लायनफिश के साथ-साथ ग्रेट क्रेस्टेड न्यूट जैसे दुर्लभ
जीवों का पता लगाने में भी मदद मिली। हाल ही में कुछ वैज्ञानिकों ने तो पत्तियों
की सतह से प्राप्त ई-डीएनए से कीड़ों को ट्रैक किया और मृदा से प्राप्त ई-डीएनए से
कई स्तनधारियों का भी पता लगाया।
अलबत्ता,
हवा में उपस्थित ई-डीएनए पर कम अध्ययन हुए हैं। हालांकि, यह अभी स्पष्ट नहीं है कि जीव कितने ऊतक हवा में छितराते हैं और आनुवंशिक
सामग्री कितने समय तक हवा में बनी रहती है। पूर्व के कुछ अध्ययनों में हवा में
बहुतायत से पाए जाने वाले बैक्टीरिया और कवक सहित अन्य सूक्ष्मजीवों का पता लगाने
के लिए मेटाजीनोमिक अनुक्रमण का उपयोग किया गया है। इस तकनीक में डीएनए के मिश्रण
का विश्लेषण किया जाता है। इसके साथ ही 2015 में वाशिंगटन डीसी में लगाए गए एयर
मॉनीटर्स में कई प्रकार के कशेरुकी और आर्थोपोडा जंतुओं के ई-डीएनए पाए गए थे।
हालांकि इस तकनीक की उपयोगिता के बारे में अभी कुछ स्पष्ट नहीं था और न ही यह पता
था कि स्थलीय जीवों द्वारा त्यागी कोशिकाएं हवा में कैसे बहती हैं।
इस वर्ष की शुरुआत में यॉर्क युनिवर्सिटी की मॉलिक्यूलर इकॉलॉजिस्ट एलिज़ाबेथ
क्लेयर ने पीयर जे में बताया था कि प्रयोगशाला से लिए गए हवा के नमूनों में नेकेड
मोल रैट का डीएनए पहचाना जा सकता है। लेकिन खुले क्षेत्रों में ई-डीएनए के उपयोग
की संभावना का पता लगाने के लिए क्लेयर और उनके सहयोगियों ने चिड़ियाघर का रुख
किया। मुख्य बात यह है कि चिड़ियाघर में प्रजातियां ज्ञात होती हैं और आसपास के
क्षेत्रों में नहीं पार्इं जातीं। यहां टीम हवा में पाए जाने वाले डीएनए के स्रोत
का पता कर सकती थी।
क्लेयर ने चिड़ियाघर की इमारतों के बाहर और अंदर से 72 नमूने एकत्रित किए। बहुत
कम मात्रा में प्राप्त डीएनए को बड़ी मात्रा में प्राप्त करने के लिए पॉलिमरेज़ चेन
रिएक्शन का उपयोग किया गया। ई-डीएनए को अनुक्रमित करने के बाद उन्होंने ज्ञात
अनुक्रमों के एक डैटाबेस से इनका मिलान किया। टीम ने चिड़ियाघर, उसके नज़दीक और आसपास की 17 प्रजातियों (जैसे हेजहॉग और हिरण) की पहचान की।
चिड़ियाघर के कुछ जीवों के ई-डीएनए उनके बाड़ों से लगभग 300 मीटर दूर पाए गए। उन्हें
चिड़ियाघर के जीवों को खिलाए जाने वाले चिकन, सूअर, गाय और घोड़े के मांस के ई-डीएनए भी प्राप्त हुए हैं। टीम ने कुल 25
स्तनधारियों और पक्षियों की पहचान की है। इसी प्रकार का एक अध्ययन डेनमार्क के
शोधकर्ताओं ने कोपेनहेगन चिड़ियाघर में भी किया। यहां कुल 49 प्रजातियों के कशेरुकी
जीवों की पहचान की गई।
कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि इन वायुवाहित डीएनए की मदद से उन जीवों का पता
लगाया जा सकता है जिनको खोज पाना काफी मुश्किल होता है। ये जीव मुख्य रूप से शुष्क
वातावरण,
गड्ढों या गुफाओं में रहते हैं या फिर पक्षियों जैसे ऐसे
वन्यजीव जो कैमरों की नज़र से बच निकलते हैं।
हालांकि,
इस प्रकार से वायुवाहित डीएनए से जीवों की उपस्थिति का पता
लगाना अभी भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि ये ई-डीएनए
हवा में कितनी दूरी तक यात्रा कर सकते हैं। यानी डैटा के आधार पर किसी जीव की
हालिया स्थिति बताना मुश्किल है। डीएनए बहकर कितनी दूर जाएगा यह कई कारकों पर
निर्भर करता है। जैसे ई-डीएनए जंगल की तुलना में घास के मैदानों में ज़्यादा दूरी
तक फैल सकता है। इसमें एक मुख्य सवाल यह भी है कि वास्तव में जीव डीएनए का त्याग
कैसे करते हैं। संभावना है कि वे अपनी त्वचा को खरोंचने, रगड़ने, छींकने या लड़ाई जैसी गतिविधियों के दौरान त्यागते होंगे। इसके अलावा ई-डीएनए
अध्ययन में नमूनों को संदूषण से बचाना भी काफी महत्वपूर्ण होता है।
लेकिन इन अज्ञात पहलुओं के बावजूद बार्नेस को इस अध्ययन से काफी उम्मीदें हैं। आने वाले समय में इस तकनीक की मदद से वैज्ञानिक हवा के नमूनों से कीटों की पहचान करने का भी प्रयास करेंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/eDNA_1280x720.jpg?itok=6n291lDK
मकई और अन्य प्रमुख फसलों का विपुल उत्पादन संकरण तकनीक पर
निर्भर है। जब अलग-अलग अंत:जनित किस्मों का संकरण किया जाता है तो पैदा होने वाली
नस्ल लंबी और मज़बूत होती है तथा अधिक पैदावार देती है। इसे संकर ओज कहते हैं और
इसके कारणों को भलीभांति समझा नहीं गया है। हाल ही में शोधकर्ताओं ने इसके पीछे
मृदा में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीवों की भूमिका की संभावना जताई है, जो शायद पौधे की प्रतिरक्षा प्रणाली के माध्यम से अपना असर दिखाते हैं।
20वीं सदी की शुरुआत में, जीव विज्ञानियों ने संकर बीजों
का निर्माण करके इस प्रभाव को कृषि क्षेत्र में लागू किया था। 1940 के दशक तक, अमेरिका के लगभग सभी किसानों ने संकर मकई लगाना शुरू किया जिसके परिणामस्वरूप
फसल में कई गुना वृद्धि हुई। संकर ओज के बारे में कई सिद्धांत दिए गए हैं लेकिन अब
तक कोई निश्चित व्याख्या नहीं मिल सकी है।
इसे समझने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ कैन्सास की पादप आनुवंशिकीविद मैगी वैगनर और
उनके साथियों ने सोचा कि शायद इसमें सूक्ष्मजीवों की भूमिका होगी। वास्तव में इन
सूक्ष्मजीवों का पौधों पर प्रभाव काफी व्यापक होता है। जैसे लाभदायक बैक्टीरिया और
कवक अक्सर पत्तियों और जड़ों में बसेरा बनाते हैं और पौधे को रोगजनक सूक्ष्मजीवों
से सुरक्षा प्रदान करते हैं। सोयाबीन और अन्य फलियों वाली फसलें ऐसे सूक्ष्मजीवों
की मेज़बानी करती हैं जो नाइट्रोजन उपलब्ध कराते हैं।
पिछले वर्ष वैगनर ने संकर मकई की पत्तियों और जड़ों में ऐसे सूक्ष्मजीव पाए थे
जो मकई की अंत:जनित किस्म से भिन्न थे। वैगनर ने प्रयोगशाला में इस निष्कर्ष को
दोहराने की कोशिश की। उन्होंने मिट्टी जैसे पदार्थ से भरी थैलियों में बीज लगाए।
इस मिट्टी को पूरी तरह सूक्ष्मजीव रहित (स्टेरिलाइज़) कर दिया गया था। फिर कुछ
थैलियों में मृदा बैक्टीरिया का एक सामान्य समूह (मकई की जड़ों में सामान्यत: पाए
जाने वाले सात स्ट्रेन) मिलाया जबकि अन्य बैग्स को स्टेरिलाइज़ ही रहने दिया।
अपेक्षा के अनुरूप, सूक्ष्मजीवों की उपस्थिति में संकर बीज की
पैदावार अधिक हुई – उनकी जड़ें अंत:जनित किस्म की तुलना में 20 प्रतिशत अधिक वज़नी
थीं। प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के
अनुसार आश्चर्यजनक रूप से सूक्ष्मजीव-रहित मिट्टी में संकर और अंत:जनित, दोनों किस्मों का विकास एक जैसा रहा।
वैगनर के अनुसार संभवत: संकर पौधे सूक्ष्मजीवों से अलग प्रकार से अंतर्क्रिया
करते हैं। परिणामों के आधार पर टीम ने मत व्यक्त किया है कि सूक्ष्मजीवों ने संकर
किस्म को बढ़ावा नहीं दिया बल्कि अंत:जनित किस्मों के विकास को धीमा किया।
हो सकता है कि अंत:जनित किस्मों की प्रतिरक्षा प्रणाली लाभदायक सूक्ष्मजीवों के प्रति अधिक प्रतिक्रिया देती है जिसका प्रतिकूल असर उनके विकास पर पड़ता है। दूसरी ओर, संकर पौधे मृदा के कमज़ोर रोगजनकों से बचाव में बेहतर होते हैं। इस विचार पर और अध्ययन की ज़रूरत है। फिर भी कुछ विशेषज्ञों के अनुसार ये परिणाम दर्शाते हैं कि पौध प्रजनकों को फसल की आनुवंशिकी और उस क्षेत्र के मृदा सूक्ष्मजीवों के बीच तालमेल बनाना चाहिए ताकि खेती को अधिक उत्पादक और टिकाऊ बनाया जा सके। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/GettyImages-1248602943-1280×720.jpg?itok=MDMo_9YC