सूक्ष्मजीव नई हरित क्रांति ला सकते हैं – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

पौधे अपनी बनावट में काफी सरल जान पड़ते हैं। चाहे छोटी झाड़ियां हों या ऊंचे पेड़ हों – सभी जड़, तना, पत्तियों, फूलों, फलों से मिलकर बनी संरचना दिखाई देते हैं। लेकिन उनकी बनावट जितनी सरल दिखती है उतने सरल वे होते नहीं हैं।

एक ही स्थान पर जमे रहने के लिए कई विशेष लक्षण ज़रूरी होते हैं। सूर्य के प्रकाश और कार्बन डाईऑक्साइड से भोजन बनाने की क्षमता ने उन्हें पृथ्वी पर मौजूद जीवन में एक महत्वपूर्ण मुकाम दिया है। वे दौड़ नहीं सकते, लेकिन अपनी रक्षा कर सकते हैं। अलबत्ता, उनकी क्षमताओं का एक दिलचस्प पहलू, जो हमें दिखाई नहीं देता, वह मिट्टी में छिपा है – जिस मिट्टी में वे अंकुरित होते हैं, और जिससे पानी, तमाम सूक्ष्म पोषक तत्व और कई अन्य लाभ प्राप्त करते हैं।

पुराना साथ

पौधों और कवक (फफूंद) का साथ काफी पुराना है। लगभग 40 करोड़ वर्ष पूर्व के पौधों के जीवाश्मों में जड़ों के पहले सबूत मिलते हैं। और इन जड़ों (राइज़ॉइड्स) के साथ कवक भी सम्बद्ध हैं, जो यह बताते हैं कि जड़ें और कवक साथ-साथ विकसित हुए हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण पेनिसिलियम की एक प्रजाति है; वही कवक जिससे अलेक्ज़ेंडर फ्लेमिंग ने सूक्ष्मजीव-रोधी पेनिसिलिन को पृथक किया था।

कवक और जड़ का साथ, जिन्हें मायकोराइज़ा कहते हैं, पहली नज़र में सरल आपसी सम्बंध लगता है जो दोनों के लिए फायदेमंद होता है। जड़ पर घुसपैठ करने वाले कवक पौधे द्वारा बनाए गए पोषक तत्व लेते हैं, और पौधों को इन सूक्ष्मजीवों से फॉस्फोरस जैसे दुर्लभ खनिज मिलते हैं। लेकिन यह सम्बंध इससे कहीं अधिक गहरा है।

डब्ल्यू.डब्ल्यू.डब्ल्यू.

पैसिफिक नॉर्थवेस्ट के घने जंगलों में काम करने वाली, युनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया की सुज़ाने सिमर्ड ने एक दिलचस्प खोज की। उन्होंने एक पारदर्शी प्लास्टिक थैली में सनोबर और देवदार के नन्हें पौधों के साथ सावधानीपूर्वक नियंत्रित प्रयोग किया। इस थैली में रेडियोधर्मी कार्बन डाईऑक्साइड भरी थी। उन्होंने पाया कि सनोबर के पौधों ने प्रकाश संश्लेषण द्वारा इस रेडियोधर्मी कार्बन डाईऑक्साइड गैस को रेडियोधर्मी शर्करा में बदल दिया था, और दो घंटे के भीतर पास ही लगे देवदार के पौधों की पत्तियों में रेडियोधर्मी शर्करा के कुछ अंश पाए गए। शर्करा का यह आदान-प्रदान मुख्यत: कवक के मायसेलिया (धागे नुमा संरचना) के ज़रिए होता है, और यह संजाल पूरे जंगल में फैला हो सकता है। इस तरह का हस्तांतरण सूखे स्थानों पर लगे छोटे पेड़ों को भोजन प्राप्त करने में मदद कर सकता है। नेचर पत्रिका के एक समीक्षक ने तो इस जाल को वर्ल्ड वाइड वेब की तर्ज़ पर वुड वाइड वेब (डब्ल्यू.डब्ल्यू.डब्ल्यू.) की संज्ञा दी है।

जड़ों से जो बैक्टीरिया जुड़ते हैं उन्हें राइज़ोबैक्टीरिया कहते हैं, और इनमें से कई प्रजातियां पौधों की वृद्धि को बढ़ावा देती हैं। कवक की तरह, इन बैक्टीरिया के साथ भी पौधों का सम्बंध सहजीविता का होता है। शर्करा के बदले बैक्टीरिया पौधों को कई लाभ पहुंचाते हैं। ये पौधों को उन रोगाणुओं से बचाते हैं जो जड़ के रोगों का कारण बन सकते हैं। इसके अलावा, वे पूरे पौधे में रोगजनकों के खिलाफ बहुतंत्रीय प्रतिरोध भी शुरू कर सकते हैं।

संकर ओज

हरित क्रांति ने हमारे देश की कृषि पैदावार में बहुत वृद्धि की। हरित क्रांति की कुंजी है फसल पौधों की संकर किस्में तैयार करना। आज, व्यावसायिक रूप से उगाई जाने वाली अधिकांश फसलें संकर किस्म की हैं। यानी इनमें एक ही प्रजाति के पौधों की दो शुद्ध किस्मों के बीच संकरण किया जाता है। और इससे तैयार प्रथम पीढ़ी के पौधों में ऐसी ओज पैदा हो जाती है जो दोनों में से किसी भी मूल पौधे में नहीं थी। संकर ओज के इस गुण को हेटेरोसिस कहते हैं और इसके बारे में सदियों से मालूम है। लेकिन इसे थोड़ा ही समझा गया है।

हाल ही में हुए अध्ययन में संकर ओज का एक नया और आकर्षक पहलू देखा गया है – सूक्ष्मजीवों के समृद्ध समूह राइज़ोमाइक्रोबायोम में जो हरेक पौधे की जड़ों के इर्द-गिर्द पाया जाता है। कैंसास विश्वविद्यालय की मैगी वैगनर ने हेटेरोसिस को पौधों और जड़ से सम्बद्ध सूक्ष्मजीवों के परस्पर संपर्क के नज़रिए देखा। (कैंसास दुनिया के विपुल मकई उत्पादक क्षेत्रों में से एक है।) मक्के को मॉडल फसल के रूप में उपयोग करके उनके समूह ने दर्शाया है कि संकर मक्का की जड़ों का भरपूर जैव पदार्थ और अन्य सकारात्मक लक्षण, मिट्टी के उपयुक्त सूक्ष्मजीवों पर निर्भर करते हैं। यह अध्ययन पीएनएएस में 27 जुलाई 2021 को प्रकाशित हुआ है। प्रयोगशाला की पूरी तरह से सूक्ष्मजीव रहित मिट्टी में शुद्ध किस्म के पौधे और उनके संकरण से उपजे पौधे, दोनों एक जैसी गुणवत्ता से विकसित हुए और संकर ओज कहीं नज़र नहीं आई। उसके बाद शोधकर्ताओं ने मिट्टी का पर्यावरण ‘बदलना’ शुरू किया, जिसके लिए उन्होंने मिट्टी में एक-एक करके बैक्टीरिया जोड़े।

सूक्ष्मजीव रहित मिट्टी में बैक्टीरिया की सिर्फ सात प्रजातियां जोड़ने पर शुद्ध किस्म के पौधों और उनकी संकर संतानों में संकर ओज का अंतर दिखने लगा। यह प्रयोग खेतों में करके भी देखा गया: एक प्रायोगिक भूखंड की मिट्टी को धुंआ देने या भाप देने से उसमें हेटेरोसिस कम हो गया था, क्योंकि मिट्टी में सूक्ष्मजीवों की कमी हो गई थी।

कृषि विशेषज्ञों का अनुमान है कि मिट्टी की उर्वरता के आधार पर, संकर मक्का की प्रति हैक्टर नौ टन उपज के लिए 180-225 किलोग्राम कृत्रिम उर्वरक की ज़रूरत होती है। इन उर्वरकों का उत्पादन काफी ऊर्जा मांगता है। चूंकि हमारा देश टिकाऊ कृषि के ऊंचे लक्ष्य पाने का प्रयास कर रहा है, फसल की गुणवत्ता (और मात्रा) बढ़ाने के लिए सरल सूक्ष्मजीवी तरीकों का उपयोग करना इस दिशा में एक छोटा मगर सही कदम होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आदिम समुद्री शिकारी एक विशाल ‘तैरता सिर’ था

दो साल पहले वैज्ञानिकों ने ‘मिलेनियम फाल्कन’ को पृथ्वी के पहले समुद्री शिकारी की उपाधि से नवाज़ा था। उसके दो साल बाद उन्हीं शोधकर्ताओं को कनाडा के बर्जेस शेल के उसी स्थान पर एक बड़े अंतरिक्ष यान जैसे जीव का जीवाश्म मिला। युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के जीवाश्म विज्ञानी जोसेफ मोयसियक के अनुसार आधा मीटर लंबा यह आर्थोपॉड (सन्धिपाद) मूलत: एक विशाल ‘तैरता सिर’ था, जो 50 करोड़ साल पहले कैम्ब्रियन समुद्र में रहता था।

टाइटेनोकोरिस गेनेसी का सिर उसके शरीर की लगभग आधी लंबाई के बराबर था, और वह एक गुंबदनुमा, नुकीले सिरे वाले कवच से ढंका हुआ था। इसी विशेषता के कारण इसे लैटिन नाम मिला जिसका अर्थ है ‘टाइटन का हेलमेट’। यह जीव समुद्र के पेंदे से सटकर तैरता था, और अपने कांटेनुमा उपांगों से कीचड़ से अपना शिकार खोदता था। संभवत: इसका नुकीला हेलमेट इस खुदाई में मदद करता था।

इसकी आंखें खोल के पीछे की तरफ ऊपर की ओर थीं जो शिकार खोजने के काम में मददगार तो नहीं रही होंगी बल्कि शिकारियों को भांपने के लिए होंगी।

टाइटेनोकोरिस आर्थोपोड्स के एक विविध समूह (रेडियोडोन्ट्स) से सम्बंधित है, जो लगभग 52 करोड़ वर्ष पहले हुए कैम्ब्रियन विस्फोट के तुरंत बाद मकड़ियों, कीड़ों और हॉर्सशू केकड़ों के पूर्वजों से अलग हो गए थे। इस समय जब कशेरुकी जीव छिंगली बराबर मछली से थोड़े ही बड़े थे, तब रेडियोडोन्ट्स का कैम्ब्रियन समुद्र पर दबदबा था।

सभी रेडियोडोन्ट्स की तीन विशेषताएं होती हैं: इनका मुंह गोलाकार होता है जो एक अनानास की खड़ी काट की तरह दिखता है और इनमें मांस को फाड़ने वाले पैने दांत होते हैं, मुंह के सामने एक जोड़ी कांटेदार उपांग होते हैं और बड़ी संयुक्त आंखें होती हैं। इस नई जीवाश्म प्रजाति में ये सभी लक्षण दिखते हैं।

शोधकर्ताओं को जब इसका जीवाश्म मिला तब पहले तो उन्होंने सोचा कि यह जीवाश्म केवल एक विशाल कैम्ब्रोरेस्टर है, क्योंकि कैम्ब्रोरेस्टर उस स्थान पर बहुतायत में पाए जाते थे। लेकिन जब उन्होंने 11 सम्बंधित नमूनों से इस जीवाश्म की तुलना की तो इसे बहुत अलग पाया। रॉयल सोसाइटी ओपन एक्सेस में शोधकर्ता बताते हैं कि यह कुछ नया था। और उनके अनुसार टाइटेनोकोरिस को नया जीनस मिलना चाहिए था।

कैम्ब्रोरेस्टर के स्थान पर टाइटेनोकोरिस का मिलना कैम्ब्रियन पारिस्थितिक तंत्र की विविधता को रेखांकित करता है – यहां शिकारी जीव बहुतायत में हैं। पृथ्वी पर शुरुआत में समुद्रों में प्रचुर मात्रा में शिकार उपलब्ध रहा होगा जिससे एक ही स्थान पर एक साथ कई शिकारी जीवों को पर्याप्त भोजन मिल जाता होगा।

बहरहाल, शोधकर्ता अगली गर्मियों में उस स्थान पर जाकर अधिक संपूर्ण टाइटेनोकोरिस जीवाश्म खोजने के लिए जाएंगे। हो सकता है कि उन्हें चट्टानों में छिपी कोई नई प्रजाति भी मिल जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या कोविड का बूस्टर शॉट अनिवार्य है?

हाल ही में अमेरिकी सरकार ने mRNA आधारित टीकों की दूसरी खुराक के आठ महीने बाद अधिकांश लोगों को बूस्टर शॉट देने का निर्णय लिया है। टीका सलाहकार समिति की स्वीकृति के बाद 20 सितंबर से बूस्टर शॉट देना शुरू किए जाएंगे। इसमें स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं और नर्सिंग होम कर्मियों को प्राथमिकता दी जाएगी।

वैज्ञानिक समुदाय में बूस्टर शॉट देने पर काफी पहले से बहस चल रही है कि यह किन लोगों को और कब दिया जाना चाहिए। दुर्बल प्रतिरक्षा वाले लोगों में दो खुराक पर्याप्त नहीं हैं इसलिए सीडीसी ने ऐसे लोगों को बूस्टर शॉट देने का सुझाव दिया था। वर्तमान घोषणा इस्राइल, टीका निर्माताओं और अमेरिका में किए गए विभिन्न अध्ययनों से प्राप्त डैटा के आधार पर लिया गया है। इन अध्ययनों के अनुसार कोविड के विरुद्ध टीकों से मिलने वाली प्रतिरक्षा 6 माह में कम हो सकती है और डेल्टा संस्करण को रोकने में कम प्रभावी होगी।

कई विशेषज्ञ स्वस्थ लोगों को बूस्टर शॉट देने के पक्ष में नहीं हैं। जब कई देशों में लोगों को एक खुराक भी नहीं मिली है तब उच्च आय वाले देशों द्वारा बूस्टर शॉट देने को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अनैतिक बताया है। लेकिन अमेरिकी सरकार अपने नागरिकों की सुरक्षा पर अधिक ज़ोर दे रही है। कुछ विशेषज्ञों का मत है कि बूस्टर शॉट की बजाय अधिक से अधिक लोगों के टीकाकरण पर ध्यान देना अधिक प्रभावी होगा।

इस विषय में साइंटिफिक अमेरिकन ने ला जोला इंस्टिट्यूट फॉर इम्यूनोलॉजी के वायरोलॉजिस्ट और प्रोफेसर शेन क्रोटी और बाइडेन-हैरिस ट्रांज़ीशन कोविड-19 एडवाइज़री बोर्ड की सदस्य सेलिन गाउंडर से बूस्टर शॉट के सम्बंध में कुछ सवाल किए हैं।

क्या बूस्टर शॉट आवश्यक है? और किसके लिए?

सेलिन गाउंडर: डैटा के अनुसार टीके गंभीर रूप से बीमार होने, अस्पताल में भर्ती होने और मृत्यु से सुरक्षा प्रदान करते हैं। यह सुरक्षा डेल्टा संस्करण के विरुद्ध भी देखने को मिली है। हालांकि, हमें डेल्टा संस्करण के विरुद्ध कम प्रतिरक्षा देखने को मिली है। यहां जिन समूहों को बूस्टर शॉट देने की बात की जा रही है वे अत्यधिक दुर्बल प्रतिरक्षा वाले लोग हैं जिनमें टीकाकरण से कम प्रतिक्रिया देखने को मिली है। इनमें से सभी तो नहीं लेकिन कुछ लोगों में अतिरिक्त खुराक से प्रतिक्रिया अवश्य विकसित होगी। इसके अलावा नर्सिंग होम जैसे स्थान, जहां ब्रेकथ्रू संक्रमण का खतरा है, वहां भी अतिरिक्त खुराक देना समझदारी का निर्णय है। इससे आगे बढ़कर, आम जनता को अतिरिक्त खुराक देने के लिए कोई स्पष्ट डैटा अभी उपलब्ध नहीं है। 

शेन क्रोटी: डेल्टा संस्करण के बारे में अनिश्चितता और इसके विरुद्ध सुरक्षा को लेकर अस्पष्टता के कारण सरकार ने बूस्टर शॉट देने का निर्णय लिया होगा। निश्चित रूप से दुर्बल प्रतिरक्षा वाले लोगों को बूस्टर शॉट दिया जाना चाहिए। मई, जून और जुलाई के डैटा से पता चला है कि दुर्बल प्रतिरक्षा वाले लोगों को दो खुराक मिलने पर अच्छी प्रतिक्रिया तो नहीं मिली लेकिन तीसरी खुराक से बेहतर प्रतिक्रिया प्राप्त हुई है। यह स्पष्ट हुआ है कि दुर्बल प्रतिरक्षा वाले कुछ लोगों को तीसरी खुराक से फायदा हुआ है। 80 से अधिक आयु के लोगों को बूस्टर देने की बात भी उचित लगती है। लेकिन 70, 60, 50 वर्ष की आयु वर्ग के लिए निर्णय मुश्किल है।

टीकों द्वारा उत्पन्न प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया कितनी प्रभावी है?

क्रोटी: अभी तक ऐसा प्रतीत होता है कि टीका उच्च-गुणवत्ता वाली प्रतिरक्षा स्मृति उत्पन्न करता है। साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मॉडर्ना टीके की दूसरी खुराक के छ: माह बाद भी एंटीबॉडीज़ में कोई कमी नहीं पाई गई। टीकाकरण के एक से छ: माह के दौरान स्मृति टी-कोशिका में भी लगभग कोई बदलाव नहीं आया। इंग्लैंड का डैटा दर्शाता है कि टीका डेल्टा संस्करण के विरुद्ध बहुत ही अच्छा प्रदर्शन कर रहा है। सर्दियों में आई लहर के दौरान अस्पताल में भर्ती होने और मौतों के बीच भारी अंतर था। मेरे खयाल से अस्पताल में दाखिले और मौतों से बचाव के लिए तो बूस्टर नहीं चाहिए।

इस्राइल के डैटा के बारे में आपका क्या विचार है जो समय के साथ प्रतिरक्षा कम होना दर्शाता है?

क्रोटी: टीके की प्रभाविता कम होने के मामले में इस्राइल का डैटा काफी अच्छा है। लेकिन अभी तक इस्राइली अधिकारियों ने इसे किसी वैज्ञानिक पत्रिका में प्रकाशित नहीं किया है। भ्रमित करने वाले कारक भी काफी अधिक हैं। सबसे पहले इस्राइल को फरवरी और मार्च में टीके की प्रभाविता को लेकर काफी समस्याएं थीं। उसके बाद उन्होंने एक पेपर प्रकशित किया जिसमें टीके को अच्छा बताया गया। अब इस्राइल को लग रहा है कि टीके की प्रभाविता में कमी आ रही है।      

गाउंडर: इस्राइल के डैटा के साथ काफी समस्याएं हैं। उनमें उम्र एवं अन्य कारकों को अलग-अलग नहीं किया गया है। इसके लिए मूल डैटा प्रदान करना होगा। इस्राइल के डैटा के आधार पर कोई निर्णय लेना मुझे उचित नहीं लगता है। इसके अलावा, प्रयोगशाला डैटा से भी समस्याएं उत्पन्न होती हैं। तथाकथित न्यूट्रलाइज़िंग एंटीबॉडी सुरक्षा का सबसे अच्छा मापदंड है। लेकिन यदि उन्हें छ: माह बाद मापा जाए तो यह स्पष्ट नहीं होता है। यदि आपके पास अब तक के हर संक्रमण की एंटीबॉडी होगी तो आपका रक्त वास्तव में एंटीबॉडी से पट जाएगा।

क्या टीकों का मिला-जुला उपयोग किया जा सकता है?

क्रोटी: जिन लोगों को वायरस आधारित (जैसे एस्ट्राज़ेनेका या जॉनसन एंड जॉनसन टीका) टीका मिला है उनके लिए उसी टीके की एक और खुराक की बजाय mRNA टीका लेना बेहतर है। टीकों का क्रम काफी महत्वपूर्ण है।  

गाउंडर: इसके अलावा हमें नाक से दिए जाने वाले टीकों पर भी विचार करना चाहिए। इनसे नाक और ऊपरी श्वसन मार्ग में प्रतिरक्षा विकसित की जा सकती है।

क्या तीसरी खुराक के कुछ दुष्प्रभाव होंगे? यदि हां, तो कितने गंभीर हो सकते हैं?

गाउंडर: लक्षण कमोबेश हल्का बुखार, बदनदर्द, थकान जैसे हो सकते हैं। लेकिन ऐसा ज़रूरी नहीं कि सभी को ऐसे लक्षण हों।

जब विश्व के अधिकांश लोगों को टीका नहीं लगा है तब टीकाकृत लोगों को बूस्टर शॉट देना कितना नैतिक है?

क्रोटी: मुझे लगता है कि यह एक झूठा विवाद है। समय के साथ टीके एक्सपायर हो जाएंगे। ऐसी स्थिति में बेहतर तो यह है कि अमेरिका में जिन लोगों को टीका नहीं लगा है उनको टीकाकृत कर दिया जाए। यह विकल्प बूस्टर शॉट देने से बेहतर होगा। 

गाउंडर: यह तो स्पष्ट है कि लोगों को अतिरिक्त खुराक देने से कुछ खास परिणाम नहीं मिलने वाले हैं। बल्कि बिना टीका लगे लोगों का टीकाकरण करना सामुदायिक रूप से प्रसार को थामने के लिए अधिक प्रभावी हो सकता है।(स्रोत फीचर्स)

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प्रदूषण से विशाल सीप तेज़ी से वृद्धि कर रही है

हाल ही में देखा गया है कि प्रदूषण के कारण विशाल सीप (क्लैम) अपने पूर्वजों की अपेक्षा तेज़ी से वृद्धि करती हैं।

प्रदूषण और समुद्र के बढ़ते तापमान के कारण कोरल रीफ का पारिस्थितिकी तंत्र तबाह हो रहा है। लेकिन कोरल को तबाह करने वाली स्थितियां उत्तरी लाल सागर में पाई जाने वाली विशाल सीप को बढ़ने में मदद कर रही हैं।

विशाल सीप पश्चिमी प्रशांत महासागर और हिंद महासागर की उथली चट्टानों में पाई जाती हैं। वृद्धि के दौरान उनकी खोल पर पट्टियां बनती जाती हैं जो उनकी वार्षिक वृद्धि, यहां तक कि दैनिक वृद्धि, को दर्शाती हैं। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के डैनियल किलम और उनके साथियों ने लाल सागर के उत्तरी छोर से एकत्रित विशाल सीप की आधुनिक और जीवाश्मित तीन प्रजातियों (ट्राइडेकना स्क्वामोसा, टी. मैक्सिमा और टी. स्क्वामोसिना) के कवच में विकास पट्टियों का विश्लेषण किया।

पाया गया कि आधुनिक विशाल सीप प्राचीन विशाल सीप की तुलना में तेज़ी से बढ़ती हैं। सीप के कवच के कार्बनिक पदार्थों के विश्लेषण से पता चला कि आधुनिक सीप प्रदूषण कारक नाइट्रेट को खाती है, जो सीप की कोशिकाओं पर रहने वाली सहजीवी शैवाल को भी बढ़ने में मदद करती है जिससे उन्हें अतिरिक्त र्इंधन मिल जाता है। इसके अलावा, ठंड कम होने और मौसमी तूफानों में कमी भी सीप के विकास में मदद करती है। लेकिन सीप की तेज़तर वृद्धि उनके समग्र स्वास्थ्य में सुधार को प्रतिबिंबित नहीं करती है।(स्रोत फीचर्स)

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बर्फ के पिघलने से सरकते महाद्वीप

हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया है कि बर्फ पिघलकर बह जाने से जैसे-जैसे महाद्वीपों पर जमी हुई बर्फ का भार कम होता है, ज़मीन विकृत होती है – न केवल उस स्थान पर जहां की बर्फ पिघली है बल्कि इसका असर दूर-दराज़ हिस्सों तक पड़ता है; असर बर्फ पिघलने के स्थान से 1000 किलोमीटर दूर तक देखा गया है।

बर्फ पिघलने से पृथ्वी के महाद्वीपों पर भार में अत्यधिक कमी आती है, और इस तरह बर्फ के भार से मुक्त हुई ज़मीन हल्की होकर ऊपर उठती है। ज़मीन में होने वाले इस ऊध्र्वाधर बदलाव पर तो काफी अध्ययन हुए हैं, लेकिन हारवर्ड विश्वविद्यालय की सोफी कूल्सन और उनके साथी जानना चाहते थे कि क्या ज़मीन अपने स्थान से खिसकती भी है?

यह जानने के लिए उन्होंने ग्रीनलैंड, अंटार्कटिका, पर्वतीय ग्लेशियरों और आइस केप्स (बर्फ की टोपियों) से पिघलने वाली बर्फ का उपग्रह डैटा एकत्रित किया। फिर इस डैटा को एक ऐसे मॉडल में जोड़ा जो बताता है कि पृथ्वी की भूपर्पटी पर पड़ने वाले भार में बदलाव होने पर वह किस तरह प्रतिक्रिया देती है या खिसकती है।

उन्होंने पाया कि 2003 से 2018 के बीच ग्रीनलैंड और आर्कटिक ग्लेशियरों की बर्फ के पिघलने से ज़मीन उत्तरी गोलार्ध की तरफ काफी खिसक गई है। और कनाडा तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के अधिकांश हिस्सों में ज़मीन प्रति वर्ष 0.3 मिलीमीटर तक खिसक रही है, कुछ क्षेत्र जो बर्फ पिघलने वाले स्थान से काफी दूर हैं वहां पर भी ज़मीन के खिसकने की गति ऊपर उठने की गति से अधिक है।(स्रोत फीचर्स)

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क्या वाकई 20 सेकंड हाथ धोना ज़रूरी है?

टीवी पर हैंडवाश का एक विज्ञापन आता है जिसमें एक बच्चा अच्छी तरह मलकर हाथ धोते दिखता है, तो उसके दोस्त उससे पूछते हैं तेरा साबुन स्लो है क्या और फटाफट अपने हाथ उस हैंडवाश से धोकर निकल जाते हैं जो दावा करता है कि वह 10 सेकंड में कीटाणुओं का सफाया कर डालता है।

लेकिन भौतिकी का सामान्य मॉडल बताता है कि हाथों से वायरस या बैक्टीरिया से छुटकारा पाने का कोई तेज़ तरीका नहीं है। झाग बनने की द्रव गतिकी के विश्लेषण के अनुसार वायरस या बैक्टीरिया को हाथों से हटाने के लिए हाथों को धीमी गति से कम से कम 20 सेकंड तक तो धोना ही चाहिए। हाथ धोने का यह समय सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों द्वारा सुझाए गए समय के बराबर है।

हाथ धोने के सरल से काम में जटिल भौतिकी कार्य करती है। हाथ धोते समय जब हाथ आपस में रगड़ते हैं तो दोनों हाथों के बीच पानी और साबुन की एक पतली परत होती है। इसकी भौतिकी पर प्रकाश डालने के लिए पॉल हैमंड ने द्रव गतिकी के लूब्रिकेशन सिद्धांत का सहारा लिया, जो दो सतहों के बीच द्रव की पतली परत की भौतिकी का वर्णन करता है। हैमंड ने इस सिद्धांत (इसके सूत्र) का उपयोग कर एक सरल मॉडल तैयार किया जो यह अनुमान लगाता है कि हाथ से कीटाणुओं या रोगणुओं को हटाने में कितना समय लगता है। उन्होंने पाया कि हाथों से रोगाणुओं का सफाया करने के लिए कम से कम 20 सेकंड तक हाथ रगड़कर धोना ज़रूरी है।

हालांकि विश्लेषण में हाथ धोने के लिए इस्तेमाल किए गए रसायन और जीव वैज्ञानिक पहलुओं को ध्यान में नहीं रखा गया, लेकिन यह परिणाम आगे के अध्ययनों के लिए रास्ता खोलते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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सबसे चमकदार ततैया के छत्ते

हालिया अध्ययन बताता है कि जीव-जगत में सबसे चमकदार हरी चमक जुगनू की नहीं होती, बल्कि एशिया में पाई जानी वाली पेपर ततैया के छत्ते हरे रंग में सबसे तेज़ चमकते हैं। जर्नल ऑफ दी रॉयल सोसाइटी इंटरफेस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह प्रकाश ततैया के लार्वा (जीनस पॉलिस्टेस) द्वारा ककून में बुने रेशम प्रोटीन से निकलता है। इस चमक को पराबैंगनी रोशनी में 20 मीटर दूर से देखा जा सकता है।

शोधकर्ताओं को लगता है कि छत्ते की यह चमक संध्या के समय ततैया को घर वापसी में मदद करती है – जब शाम गहराने लगती है लेकिन हल्की पराबैंगनी रोशनी होती है। पोलिस्टेस 540 नैनोमीटर तरंग दैर्घ्य तक का प्रकाश देख सकते हैं, और ककून से निकलने वाला हरा प्रकाश इसी तंरग दैर्घ्य का होता है।

यह भी संभावना है कि यह फ्लोरेसेंट प्रोटीन सूर्य के पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित कर लेता है और विकसित होते लार्वा को इस हानिकारक विकिरण से बचाता है। संभवत: फ्लोरेसेंस लार्वा की वृद्धि में भी मदद करता है: शोधकर्ता बताते हैं कि कई पोलिस्टेस प्रजातियों की वृद्धि जंगल में बरसात के मौसम के दौरान होती हैं, जब अक्सर धुंध या बादल छाए रहते हैं। तब यह ककून लैम्प धुंध में ततैयों को सूर्य का अंदाज़ा देता है; ककून की हरी रोशनी ततैयों द्वारा दिन-रात चक्र का तालमेल बनाए रखने में उपयोग की जाती होगी, जो उनके उचित विकास में महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)

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बच्चों में ‘लॉकडाउन मायोपिया’

गभग डेढ़ साल से बच्चे घर पर हैं। और तब से उनकी शिक्षा और मनोरंजन डिजिटल स्क्रीन में सिमट गए हैं। इसका मतलब है कि वे अधिक समय तक मोबाइल फोन देख रहे हैं। नेत्र रोग विशेषज्ञों का कहना है कि कोविड-19 महामारी के फैलने के बाद से 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में मायोपिया (निकट दृष्टिता) के मामले बढ़े हैं। यह आंखों का ऐसा विकार है जिसमें दूर की चीज़ें देखने में कठिनाई होती है।

अग्रवाल आई हॉस्पिटल के विशेषज्ञ चिकित्सकों का कहना है कि बच्चों में ‘भेंगेपन’ के मामले भी अधिक देखे जा रहे हैं। एक निजी अस्पताल में सलाहकार नेत्र रोग विशेषज्ञ पलक मकवाना के अनुसार, ‘हमारे आंकड़े बताते हैं कि इस महामारी दौरान 5-15 वर्ष की उम्र के बच्चों में मायोपिया के मामलों में 100 प्रतिशत वृद्धि और भेंगापन के मामलों में पांच गुना वृद्धि हुई है।’

डॉ. मकवाना बताती हैं कि लॉकडाउन के दौरान कंप्यूटर, लैपटॉप, और मोबाइल फोन या टैबलेट के माध्यम से काम हुआ, और इस दौरान बार-बार ब्रेक भी नहीं लिए गए। शैक्षणिक व अन्य उद्देश्यों से स्क्रीन को घूरने के समय में काफी वृद्धि हुई है। आंखों पर पड़ने वाला यह तनाव भेंगेपन का कारण हो सकता है और मायोपिया को बढ़ावा देता है।

सलाहकार नेत्र रोग विशेषज्ञ टी. श्रीनिवास ने बताते हैं कि कोविड-19 महामारी की वजह से इस समस्या में तेज़ी आई है। चूंकि खुद को और परिवार को सुरक्षित रखना ही लोगों की सर्वोच्च प्राथमिकता थी इसलिए लोग नेत्र रोग विशेषज्ञों सहित अन्य चिकित्सकों से भी मुलाकात से बचते रहे। वे आगे बताते हैं, ‘बच्चों का नेत्र रोग विशेषज्ञ के पास जाना नहीं हो पाने की वजह से कई बच्चे नामुनासिब पॉवर का चश्मा पहनते रहे, जिससे उनकी आंखों पर ज़ोर पड़ा। इससे उनकी नज़र और भी कमज़ोर हुई। बिना ब्रेक लिए लगातार डिजिटल स्क्रीन पर काम ने इस समस्या को और बढ़ाया। अक्सर 21 वर्ष की आयु तक नेत्रगोलक की साइज़ बदलती है। आम तौर पर बढ़ती उम्र में चश्मे का नंबर बदलता है। गलत नंबर वाले चश्मों का उपयोग और अधिक समय डिजिटल स्क्रीन पर बिताने से दृष्टि और भी कमज़ोर हो सकती है।’

मौजूदा हालात में, ऑनलाइन कक्षाओं से बचा नहीं जा सकता है। इसलिए डॉ. मकवाना का सुझाव है कि बच्चे कक्षा में शामिल होने के लिए मोबाइल फोन की बजाय लैपटॉप या डेस्कटॉप का उपयोग करें क्योंकि बड़ी स्क्रीन और आंखों के बीच की दूरी अधिक होती है। इसके अलावा, स्वस्थ और संतुलित आहार के साथ-साथ मैदानी खेल खेलने और दिन में एक से दो घंटे धूप में रहने की सलाह दी जाती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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डेल्टा संस्करण अधिक संक्रामक क्यों?

ति-संक्रामक डेल्टा संस्करण का प्रकोप बढ़ने के मद्देनज़र वैज्ञानिक इसके तेज़तर प्रसार का जैविक आधार समझने का प्रयास कर रहे हैं। कई अध्ययनों से पता चला है कि डेल्टा संस्करण में उपस्थित एक अमीनो अम्ल में परिवर्तन से वायरस का प्रसार तेज़तर हुआ है। यूके में किए गए अध्ययन से पता चला है कि अल्फा संस्करण की तुलना में डेल्टा संस्करण 40 प्रतिशत अधिक प्रसारशील है।

युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास मेडिकल ब्रांच के वायरोलॉजिस्ट पी-यौंग शी के अनुसार डेल्टा संस्करण की मुख्य पहचान ही संक्रामकता है जो नई ऊंचाइयों को छू रही है। शी की टीम और अन्य समूहों ने सार्स-कोव-2 के स्पाइक प्रोटीन में एक अमीनो अम्ल में परिवर्तन की पहचान की है। यह वायरल अणु कोशिकाओं की पहचान करने और उनमें घुसपैठ करने के लिए ज़िम्मेदार है। P681R नामक यह परिवर्तनएक अमीनो अम्ल प्रोलीन को आर्जिनीन में बदल देता है, जो स्पाइक प्रोटीन की फ्यूरिन क्लीवेज साइट में होता है।

जब चीन में पहली बार सार्स-कोव-2 की पहचान की गई थी तब अमीनो अम्ल की इस छोटे खंड की उपस्थिति ने खतरे के संकेत दिए थे। ऐसा इसलिए क्योंकि यह परिवर्तन इन्फ्लुएंज़ा जैसे वायरसों में बढ़ी हुई संक्रामकता से जुड़ा पाया गया है। लेकिन सर्बेकोवायरस कुल में पहले कभी नहीं पाया गया था। सर्बेकोवायरस वायरसों का वह समूह है जिसमें सार्स-कोव-2 सहित कोरोनावायरस शामिल हैं। यह मामूली सा खंड एक बड़े खतरे का द्योतक था।

गौरतलब है कि कोशिकाओं में प्रवेश करने के लिए ज़रूरी होता है कि मेज़बान कोशिका का प्रोटीन सार्स-कोव-2 प्रोटीन को दो बार काटे। सार्स-कोव-1 में दोनों बार काटने की प्रक्रिया वायरस के कोशिका से जुड़ने के बाद होती हैं। लेकिन सार्स-कोव-2 में फ्यूरिन क्लीवेज साइट होने का मतलब है कि काटने की पहली प्रक्रिया संक्रमित कोशिका से निकलने वाले नए वायरस में ही हो जाती है। ये पूर्व-सक्रिय वायरस कोशिकाओं को अधिक कुशलता से संक्रमित कर सकते हैं।

देखा जाए तो डेल्टा ऐसा पहला संस्करण नहीं है जिसमें फ्यूरिन क्लीवेज साइट को बदलने वाला उत्परिवर्तन होता है। अल्फा संस्करण में भी इसी स्थान पर एक अलग अमीनो अम्ल का परिवर्तन पाया जाता है। लेकिन डेल्टा में हुए उत्परिवर्तन का प्रभाव अधिक होता है।

शी की टीम ने यह भी पाया है कि डेल्टा संस्करण में स्पाइक प्रोटीन अल्फा संस्करण की तुलना में अधिक प्रभावी तौर से काटा जाता है। इम्पीरियल कॉलेज लंदन की वायरोलॉजिस्ट वेंडी बारक्ले और उनकी टीम को भी इसी तरह के परिणाम मिले थे। दोनों समूहों द्वारा किए गए आगे के प्रयोगों से पता चला है कि स्पाइक प्रोटीन के इतनी कुशलता से कटने के पीछे P681R परिवर्तन काफी हद तक ज़िम्मेदार है।

वर्तमान में शोधकर्ता P681R और डेल्टा की संक्रामकता के बीच सम्बंध स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। शी की टीम ने मनुष्य के श्वसन मार्ग की संवर्धित उपकला कोशिकाओं को समान संख्या में अल्फा और डेल्टा के वायरस से संक्रमित किया और पाया कि डेल्टा संस्करण ने काफी तेज़ी से अल्फा को संख्या में पीछे छोड़ दिया। यही पैटर्न हकीकत में भी दिखाई दे रहा है। जब शोधकर्ताओं ने P681R परिवर्तन को हटा दिया तो डेल्टा संस्करण को मिलने वाला लाभ खत्म हो गया। शोधकर्ताओं का मानना है कि इस उत्परिवर्तन से एक कोशिका से दूसरी कोशिका में वायरस का प्रसार भी अधिक हुआ है।

हालांकि, इस बात के प्रमाण बढ़ रहे हैं कि P681R परिवर्तन डेल्टा का एक अहम गुण है लेकिन शोधकर्ता यह नहीं मानते कि यही एकमात्र उत्परिवर्तन है जो डेल्टा को लाभ प्रदान करता है। डेल्टा के स्पाइक प्रोटीन और अन्य प्रोटीन्स में भी कई अन्य प्रकार के महत्वपूर्ण उत्परिवर्तन हो सकते हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार डेल्टा संस्करण के तेज़ी से बढ़ने के पीछे अन्य कारक भी महत्वपूर्ण हो सकते हैं। डेल्टा के निकट सम्बंधी, कैपा नामक संस्करण में भी P681R सहित इसी प्रकार के उत्परिवर्तन थे लेकिन वह डेल्टा के समान विनाशकारी नहीं रहा। हारवर्ड मेडिकल स्कूल के जीव विज्ञानी बिंग चेंग के अनुसार कैपा का स्पाइक प्रोटीन काफी कम कटता है और डेल्टा की तुलना में कोशिका की झिल्ली से कम कुशलता से जुड़ता है। शोधकर्ताओं के अनुसार इस खोज से P681R की भूमिका पर काफी सवाल उठते हैं।

युगांडा के शोधकर्ताओं ने 2021 की शुरुआत में व्यापक रूप से फैले संस्करण में P681R परिवर्तन की पहचान की थी लेकिन यह डेल्टा के समान नहीं फैला जबकि इसने प्रयोगशाला अध्ययनों में वैसे गुण प्रदर्शित किए थे। वैज्ञानिकों की टीम ने महामारी की शुरुआत में वुहान में फैल रहे कोरोनावायरस में P681R परिवर्तन किया लेकिन इससे उसकी संक्रामकता में कोई वृद्धि देखने को नहीं मिली। इससे लगता है कि एक से अधिक उत्परिवर्तन की भूमिका हो सकती है। कई वैज्ञानिकों का मानना है कि डेल्टा में P681R की भूमिका के बावजूद फ्यूरिन क्लीवेज साइट पर परिवर्तन का महत्व रेखांकित हुआ है। और ऐसा परिवर्तऩ कई तरह से संभव है।(स्रोत फीचर्स)

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कोविड के स्रोत पर अभी भी अनिश्चितता

हाल ही में अमेरिकी खुफिया समुदाय ने राष्ट्रपति बाइडेन के आग्रह पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत की है। इस दो-पृष्ठों की सार्वजनिक रिपोर्ट में टीम ने सभी उपलब्ध खुफिया रिपोर्टिंग और अन्य जानकारियों की जांच के बाद कुछ मुख्य परिणाम जारी किए हैं।

खुफिया समुदाय के अनुसार उसके पास सार्स-कोव-2 के स्रोत का पता लगाने के लिए पर्याप्त जानकारी ही नहीं है जिससे यह बताया जा सके कि यह जीवों से मनुष्यों में आया या फिर प्रयोगशाला से दुर्घटनावश निकला है। महत्वपूर्ण बात यह है कि खुफिया समुदाय के अंदर ही कोविड के संभावित स्रोत को लेकर सहमति नहीं है और दोनों परिकल्पनाओं के समर्थक मौजूद हैं।

फिर भी वे अपने मूल्यांकन के कुछ बिंदुओं पर एकमत हुए हैं। जैसे, दिसंबर 2019 में चीन के वुहान प्रांत में वायरस प्रकोप से पूर्व चीनी अधिकारियों को सार्स-कोव-2 की जानकारी नहीं थी। उनका अनुमान है कि सार्स-कोव-2 नवंबर 2019 के पहले ही उभरा था। एजेंसियों का यह भी मत है कि वायरस को जैविक हथियार के रूप में विकसित नहीं किया गया था।

इस दौरान बाइडेन ने चीनी सरकार से वुहान की ऐसी प्रयोगशालाओं के स्वतंत्र ऑडिट की अनुमति देने का आग्रह किया था जहां कोरोनावायरस पर अध्ययन किया जाता है। चीनी अधिकारियों ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। खुफिया समुदाय का भी ऐसा मानना है कि कोविड-19 की उत्पत्ति के निर्णायक आकलन के लिए चीन के सहयोग की आवश्यकता होगी।

फ्रेड हचिंसन कैंसर रिसर्च सेंटर के जीव विज्ञानी जेसी ब्लूम ने खुफिया समुदाय के इन निष्कर्षों का समर्थन किया है। ब्लूम व 17 अन्य वैज्ञानिकों ने एक पत्र जारी करके वायरस उत्पत्ति की परिकल्पनाओं पर संतुलित विचार करने का आह्वान किया है।

हारवर्ड युनिवर्सिटी के जीव विज्ञानी विलियम हैनेज इस मूल्यांकन को काफी संतुलित मानते हैं और उनके अनुसार खुफिया समुदाय का निष्कर्ष प्राकृतिक उत्पत्ति की ओर अधिक झुका प्रतीत होता है। उनका यह भी कहना है कि किसी भी स्थिति में शुरुआती मनुष्यों के मामलों या वायरस-वाहक जीवों के सबूतों के बिना एक स्पष्ट निष्कर्ष पर पहुंच पाना काफी मुश्किल होगा।

कुछ अन्य शोधकर्ताओं के अनुसार बाइडेन सरकार को इस महामारी की शुरुआत को समझने और इससे सम्बंधित सवालों का जवाब तलाशने के लिए ‘दुगने प्रयास’ की आवश्यकता होगी। हालांकि, अभी कोई ठोस जवाब तो हमारे नहीं है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि भविष्य में भी ऐसी ही अनिश्चितिता बनी रहेगी। वर्तमान में अमेरिकी सरकार भी समान विचारधारा वाले सहयोगियों के साथ मिलकर चीन सरकार पर दबाव बना रही है ताकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के नेतृत्व में सभी प्रासंगिक डैटा और साक्ष्यों की जांच करने की अनुमति मिल सके।(स्रोत फीचर्स)

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