प्लास्टिक का कचरा और नई प्लास्टिक अर्थव्यवस्था – सोमेश केलकर

दुनिया भर में प्लास्टिक प्रदूषण का खतरा बढ़ता जा रहा है और अब समुद्र भी इससे अछूते नहीं हैं। सार्वजनिक दबाव का नतीजा राष्ट्र-आधारित नियम कायदों और स्वैच्छिक प्रयासों के पैबंदों रूप में ही सामने आया है। लेकिन ये इस व्यापक समस्या को संबोधित करने में प्राय: नाकाम ही रहे हैं। अब कॉर्पोरेशन्स के एक वैश्विक समूह ने राष्ट्र संघ के माध्यम से एक संधि-आधारित, समन्वित चक्रीय रणनीति की पहल की है। सवाल इतना ही है कि क्या यह रणनीति सफल होगी या अतीत के प्रयासों की तरह नाकाम रहेगी।

पहल

नवीन प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था का विचार एलन मैककार्थर फाउंडेशन का है। विचार यह है कि इस अर्थ व्यवस्था में प्लास्टिक कभी भी एक कचरा या प्रदूषक नहीं बनेगा। फाउंडेशन ने तीन सुझाव दिए हैं ताकि एक चक्रीय प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था हासिल की जा सके। फाउंडेशन का दावा है कि समस्यामूलक प्लास्टिक वस्तुओं को हटाकर, यह सुनिश्चित करके कि सारा प्लास्टिक पुन:उपयोग, पुनर्चक्रण और कंपोस्ट-लायक हो, हम एक ऐसी अर्थ व्यवस्था हासिल कर सकते हैं कि सारा प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था में ही बना रहे और पर्यावरण से बाहर रहे।

एलन मैककार्थर फाउंडेशन के ही शब्दों में शून्य प्लास्टिक कचरा उत्पन्न करने वाली अर्थव्यवस्था के कुछ तत्व निम्नानुसार होंगे:

1. रीडिज़ाइनिंग, नवाचार और डीलिवरी के नए मॉडल्स अपनाकर समस्यामूलक तथा अनावश्यक प्लास्टिक पैकेजिंग से मुक्ति पाई जा सकती है।

1क – प्लास्टिक के कई लाभ हैं। लेकिन बाज़ार में कुछ समस्यामूलक वस्तुएं भी हैं जिन्हें हटाना होगा ताकि चक्रीय अर्थ व्यवस्था हासिल की जा सके। कहीं-कहीं तो उपयोगिता से समझौता किए बगैर प्लास्टिक पैकेजिंग को पूरी तरह समाप्त भी किया जा सकता है।

2. जहां संभव और प्रासंगिक हो, पुन:उपयोग के मॉडल को लागू किया जाए, पैकेजिंग में एक बार-उपयोग की ज़रूरत को समाप्त किया जाए।

2क – हालांकि पुन:चक्रण को बेहतर बनाना महत्वपूर्ण है, लेकिन मात्र पुन:चक्रण के दम पर हम प्लास्टिक सम्बंधी वर्तमान मुद्दों को नहीं निपटा सकते।

2ख – जहां भी प्रासंगिक हो, पुन:उपयोग के मॉडल को सामने लाया जाना चाहिए ताकि एकबार-उपयोग वाले पैकेजिंग की ज़रूरत कम से कम हो।

3. सारा प्लास्टिक पैकेजिंग 100 फीसदी पुन:उपयोग, पुनर्चक्रण या कंपोÏस्टग के लायक हो।

3क – इसके लिए बिज़नेस मॉडल्स, पदार्थों, पैकेजिंग और डिज़ाइन तथा पुन:प्रसंस्करण की टेक्नॉलॉजी में रीडिज़ाइन और नवाचार की ज़रूरत होगी।

3ख – कंपोÏस्टग-योग्य प्लास्टिक पैकेजिंग कोई रामबाण समाधान नहीं है बल्कि विशिष्ट अनुप्रयोगों के लिए कारगर होगा।

4. सारे प्लास्टिक पैकेजिंग का पुन:उपयोग, पुनर्चक्रण या कंपोÏस्टग किया जाएगा।

4क – कोई भी प्लास्टिक पर्यावरण, कचरा भराव स्थलों, इंसनरेटरों या कचरे-से-ऊर्जा संयंत्रों में नहीं पहुंचना चाहिए। ये चक्रीय प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था के हिस्से नहीं हैं।

4ख – पैकेजिंग का उत्पादन व बिक्री करने वाले कारोबारियों की ज़िम्मेदारी मात्र उनके पैकेजिंग का डिज़ाइन करने व उपयोग करने तक सीमित नहीं है; उन्हें यह भी ज़िम्मेदारी लेनी होगी कि उस प्लास्टिक का वापिस संग्रह किया जाए, पुन:चक्रण किया जाए या कंपोस्ट किया जाए।

4ग – कारगर संग्रह के लिए अधोरचना बनाने, सम्बंधित आत्म-निर्भर वित्त-पोषण की व्यवस्थाएं बनाने तथा उपयुक्त नियामक व नीतिगत माहौल तैयार करने के लिए सरकारों की भूमिका अनिवार्य है।

5. प्लास्टिक उपयोग को सीमित संसाधनों के उपभोग से पूरी तरह पृथक करना होगा।

5क – इस पृथक्करण का सबसे पहला चरण वर्जिन प्लास्टिक के उपयोग को कम करना होगा (पुन:उपयोग और पुन:चक्रण के माध्यम से)

5ख – पुन:चक्रित पदार्थों का उपयोग ज़रूरी है (जहां तकनीकी व कानूनी रूप से संभव हो) ताकि सीमित संसाधनों से इसे मुक्त किया जा सके और संग्रह व पुन:चक्रण को बढ़ावा दिया जा सके।

5ग – धीरे-धीरे प्लास्टिक का समस्त उत्पादन व पुन:चक्रण नवीकरणीय ऊर्जा से किया जाना चाहिए।

6. सारा प्लास्टिक पैकेजिंग हानिकारक रसायनों से मुक्त हो और सम्बंधित पक्षों के स्वास्थ्य व सुरक्षा अधिकारों का सम्मान किया जाए।

6क – पैकेजिंग, और उसके उत्पादन व पुन:चक्रण की प्रक्रियाओं में हानिकारक रसायनों का उपयोग समाप्त होना चाहिए।

6ख – प्लास्टिक कारोबार के समस्त क्षेत्रों में शामिल सारे लोगों के स्वास्थ्य, सुरक्षा व अधिकारों का सम्मान ज़रूरी है, खास तौर से अनौपचारिक क्षेत्र के कामगारों (कचरा बीनने वालों) के संदर्भ में।

राष्ट्र संघ संधि

दी बिज़नेस केस फॉर दी यूएन ट्रीटी ऑन प्लास्टिक पोल्यूशन (प्लास्टिक प्रदूषण पर राष्ट्र संघ संधि के लिए कारोबार का पक्ष) विश्व प्रकृति निधि (डब्लू.डब्लू.एफ.), एलन मैककार्थर फाउंडेशन तथा बोस्टन कंसÏल्टग ग्रुप द्वारा प्रस्तुत एक रिपोर्ट है। इन संस्थाओं का प्रयास है कि प्लास्टिक प्रदूषण पर एक नई राष्ट्र संघ संधि विकसित हो।

इस रिपोर्ट के आधार पर प्रमुख कंपनियों ने 13 अक्टूबर 2020 को आव्हान किया था कि प्लास्टिक प्रदूषण पर एक राष्ट्र संघ संधि तैयार की जाए ताकि नियमन के टुकड़ा-टुकड़ा ढांचे की समस्या को संबोधित किया जा सके और वर्तमान स्वैच्छिक प्रयासों को व्यवस्थित रूप दिया जा सके।

इस तरह की संधि पर बातचीत शुरू करने के लिए एक प्रस्ताव राष्ट्र संघ पर्यावरण सभा के पांचवे सत्र में फरवरी 2021 में पेश हुआ था। इसमें सभा ने प्लास्टिक प्रदूषण को एक समस्या के रूप में मान्यता दी और 2017 में राष्ट्र संघ पर्यावरण सभा द्वारा निर्धारित छानबीन के उपरांत यह स्वीकार किया कि प्लास्टिक प्रदूषण सम्बंधी वर्तमान कानूनी प्रावधान अपर्याप्त हैं।

क्या यह सफल होगा?

ऐसी किसी योजना की सफलता की संभावना कुछ वर्षों पूर्व नगण्य ही होती। अलबत्ता, हाल ही में जैविक विकल्पों में हुई तरक्की ने एक ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संधि के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर दी है जो व्यावसायिक नवाचारों को बढ़ावा दे।

कोका कोला इस मामले में नवीन टेक्नॉलॉजी को अपनाने में आगे आया है और उसने 2009 में अमरीका के कुछ प्रांतों में ‘प्लांटबॉटल’ (‘PlantBottel’) लॉन्च की है।

इसके अलावा, पेट्रोकेमिकल पुन:चक्रण की अगली पीढ़ी की टेक्नॉलॉजी के विकास ने यह संभावना पैदा कर दी है कि फोम, पोलीस्टायरीन, पोलीथीन जैसे मुश्किल से पुन:चक्रित प्लास्टिक्स और मिश्रित कचरे का पुन:चक्रण किया जा सके।

यूएस के नीति निर्माताओं ने इस क्षेत्र में आर्थिक विकास की संभावना को पहचाना है। हाल ही में यूएस के ऊर्जा विभाग ने डेलावेयर विश्वविद्यालय को उसके नए सेंटर फॉर प्लास्टिक इनोवेशन के लिए 1.16 करोड़ डॉलर का वित्तीय समर्थन दिया है। ऐसा माना जा रहा है कि यह अनुसंधान एकबार-उपयोग वाले प्लास्टिक पैकेजिंग के क्षेत्र में और अन्य क्षेत्रों में भी 100 फीसदी पुन:चक्रण योग्य उत्पाद बनाने के प्रयासों में मददगार होगा। एडिडास द्वारा 100 प्रतिशत पुन:चक्रण योग्य जूतों का विकास इसी का एक उदाहरण है।

सन 2020 में यूएस के ऊर्जा विभाग ने 12 नए प्रोजेक्ट्स के लिए 2.7 करोड़ डॉलर की सहायता का वचन दिया है। इनमें जैविक उत्पादों के विकास के प्रोजेक्ट्स शामिल हैं।

इसके अलावा, यूएस में कुछ एकबारी उपयोग वाले प्लास्टिक पैकेजिंग उपयोगकर्ता अब प्लास्टिक संसाधनों के विकास के लिए अपने आपूर्तिकर्ताओं पर निर्भर नहीं हैं। वे स्वयं ऐसे अनुसंधान को वित्तीय सहायता दे रहे हैं जो ज़्यादा टिकाऊ उत्पाद व कच्चा माल तैयार करने में मददगार हो। इसका एक उदाहरण लोरियाल है जिसने पीईटी बोतलों के विकास के लिए फ्रांसीसी जैव-औद्योगिक अनुसंधान कंपनी कार्बिओस के साथ आणविक-स्तर की पुन:चक्रण टेक्नॉलॉजी पर काम शुरू किया है।

बिज़नेस की दृष्टि

यूएस की कंपनियों के उपरोक्त प्रयासों के अलावा, हाई-टेक पुन:चक्रण के क्षेत्र नवीन आर्थिक गतिविधियों का एक संकेत पेनसिल्वेनिया की प्रांतीय सीनेट में पारित एक विधेयक से भी मिलता है। इस विधेयक के तहत पुन:चक्रण को एक अलग क्षेत्र मानने की बजाय निर्माण उद्योग का ही अंग माना जाएगा। इस कदम से पता चलता है कि पारंपरिक कचरे-से-ऊर्जा की दहन टेक्नॉलॉजी और आधुनिक पायरोलिसिस टेक्नॉलॉजी में कितना अंतर है।

दहन के विपरीत पायरोलिसिस एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें प्लास्टिक को पिघलाकर पुन: उपयोग के काबिल कच्चे माल में परिवर्तित किया जाता है और इसमें गैसों का उत्सर्जन भी बहुत कम होता है। पायरोलिसिस का इस्तेमाल प्लास्टिक से तरल र्इंधन प्राप्त करने में भी किया जा सकता है। अलबत्ता, इस प्रक्रिया के लिए जो ऊर्जा लगती है, उसके लिए पर्यावरण-अनुकूल मार्ग खोजने की ज़रूरत है और पेनसिल्वेनिया में यही कोशिश चल रही है। सौर ऊर्जा के उपयोग पर काम चल रहा है।

पेनसिल्वेनिया में चल रहे प्लास्टिक पुन:चक्रण के अगली पीढ़ी के इन प्रयासों की खास बात यह है कि इनमें सरकार एक भागीदार है और यह ऊर्जा विभाग की एक वर्तमान योजना का हिस्सा है। यह एक और उदाहरण है कि प्लास्टिक पुन:चक्रण की उपलब्ध टेक्नॉलॉजी को व्यवहार में उतारने की ज़रूरत है।

उपभोक्ता की दृष्टि

प्लास्टिक में कमी लाने के सारे प्रयासों के लिए सबसे महत्वपूर्ण घटक उपभोक्ताओं का समर्थन है और इसका अभाव भी सबसे ज़्यादा है। निजी आदतों को बदलना मुश्किल होता है और दुनिया के कई हिस्सों में पुन:चक्रण के क्षेत्र में धीमी प्रगति इसका प्रमाण है। भारत में भी यदि हम अपने घरों के बाहर नज़र डालें तो देख सकते हैं कि हममें से कितने लोग कचरे का पृथक्करण करते हैं और उसे कचरा गाड़ियों में सही जगह पर डालते हैं। लेकिन एकल-उपयोग प्लास्टिक की बजाय पुन:उपयोगी पैकेजिंग के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए उपभोक्ताओं की भागीदारी ज़रूरी है और इस बात के प्रमाण मिल रहे हैं कि प्लास्टिक प्रदूषण की रोकथाम की जागरूकता बढ़ रही है। विश्व प्रकृति निधि व अन्य संस्थाओं के प्रयासों से प्लास्टिक प्रदूषण का संकट मुख्यधारा के विमर्श का हिस्सा बन गया है।

बिज़नेस केस फॉर ए यूएन ट्रीटी में कहा गया है, “दुनिया भर में प्लास्टिक प्रदूषण को नंबर तीन का पर्यावरणीय संकट माना गया है।” रिपोर्ट में 2017 को एक निर्णायक मोड़ का बिंदु भी कहा गया है। यूएस में एक अध्ययन में पाया गया कि “प्लास्टिक को उपभोक्ता वस्तुओं में सबसे नकारात्मक पदार्थ माना जाता है। और अध्ययन में शामिल किए गए 65 प्रतिशत उपभोक्ताओं ने माना था इसका सम्बंध समुद्री प्रदूषण से है और 75 प्रतिशत ने इसे पर्यावरण के लिए हानिकारक माना था।”

भारत में क्रियांवयन

पूर्व के अध्ययनों के लिए उदाहरण यूएस से लिए गए थे क्योंकि वहां प्लास्टिक की एक चक्राकार अर्थ व्यवस्था सम्बंधी छिटपुट प्रयास शुरू हो चुके हैं। अब भारत पर एक नज़र डालते हैं। कुछ मायनों में भारत एक अनूठा देश है। इसलिए यहां ऐसी चक्राकार अर्थ व्यवस्था के विकास के समक्ष कुछ विशिष्ट चुनौतियां उपस्थित होंगी। उदाहरण के लिए, सड़कों-गलियों में कचरा फेंकना हमारे यहां बहुत बुरी बात नहीं माना जाता। इसलिए इस बात पर अमल करना थोड़ा मुश्किल होगा कि कोई प्लास्टिक पर्यावरण में न पहुंचे।

चक्राकार प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था के लिए जो भी कारोबारी मॉडल अपनाया जाए, वह सरकार व बिज़नेस दोनों के लिए लाभदायक होना चाहिए। बिज़नेस को अपने उत्पादन के तौर-तरीकों में बदलाव करने होंगे ताकि प्लास्टिक कचरे को कम करने के नए तरीकों का समावेश किया जा सके। आम तौर पर सरकार के पास ऐसा कोई कदम उठाने का प्रलोभन नहीं होता जिससे वोट का सम्बंध न हो। देश में शिक्षा की अल्प अवस्था को देखते हुए शायद अधिकांश लोगों ने नई प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था के बारे में सुना तक न होगा। यदि इस नए मॉडल को लागू करने से उद्योगों का मुनाफा कम होता है, तो वे शायद ऐसी नवीन चक्राकार प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था के विरुद्ध मुहिम शुरू कर दें। और आम लोगों को ऐसे मॉडल को अपनाने के लिए प्रेरित करने के कोई तरीके भी नहीं हैं। लोगों को पुन:चक्रण के लिए तैयार करने के लिए कुछ तो नगद प्रलोभन देना होगा। लेकिन प्राय: देखा गया है कि ऐसे प्रलोभन गलत व्यवहार को बढ़ावा देने लगते हैं।

निष्कर्ष

यह सही है कि नई प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था के लिए राष्ट्र संघ संधि सही दिशा में एक कदम है, लेकिन किसी इकलौते मॉडल को सब जगह लागू करना मुश्किल है क्योंकि हर देश की अपनी विशिष्ट चुनौतियां हैं। अभी निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि जहां अन्य मॉडल्स नाकाम रहे हैं, वहां यह नया मॉडल किस हद तक सफल होगा। ज़रूरत यह है कि मात्र पुन:चक्रण, कंपोस्टिग और पुन:उपयोग से आगे बढ़कर कोई ऐसी चीज़ आज़माई जाए जो बदलाव पैदा कर दे।

एक नज़रिया तो यह है कि भरपूर उपयोग करके फिर कचरे को ठिकाने लगाने के बारे में सोचने की बजाय गैर-ज़रूरी उपयोग को कम किया जाए। अधिक उपभोग ही प्लास्टिक कचरे के पर्यावरण में जमा होने का प्रमुख कारण है। शायद चक्राकार अर्थ व्यवस्था में इस बात पर काफी ध्यान दिया जाना चाहिए कि हम मात्र ज़रूरी कार्यों में प्लास्टिक का उपयोग करें और जहां संभव हो वहां पुन:उपयोग करें। बहरहाल, नवीन प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था एक अनोखा मॉडल है जो रोचक है और इस बात को लेकर एक ताज़ातरीन नज़रिया देता है कि हम कचरे के साथ कैसे व्यवहार करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्षुद्रग्रहों की रिकॉर्ड संख्या

त 6 मार्च को एक 340 मीटर चौड़ा क्षुद्रग्रह एपोफिस पृथ्वी के निकट से सुरक्षित निकल गया। अगली बार 2029 में यह पृथ्वी से मात्र 40,000 किलोमीटर दूर से गुज़रेगा। यह उस क्षेत्र के ठीक ऊपर से गुज़रेगा जहां उच्च-कक्षा वाले उपग्रह चक्कर लगाते हैं। पहली बार खगोलविद इतने बड़े क्षुद्रग्रह को पृथ्वी के पास से गुज़रते हुए देखेंगे। इस घटना ने वैज्ञानिकों को ग्रह रक्षा प्रणाली का आकलन करने का मौका दिया है। इसके अंतर्गत खगोलविद क्षुद्रग्रहों के मार्ग का आकलन करते हुए पृथ्वी से टकराने की संभावना का पता लगाते हैं। एरिज़ोना विश्वविद्यालय के प्लेनेटरी वैज्ञानिक विष्णु रेड्डी ने इस अवलोकन अभियान का समन्वय किया है। एपोफिस ने इस बात को रेखांकित किया है कि खगोलविद नज़दीक से गुज़रने वाले क्षुद्रग्रहों के बारे में कितना कुछ जानते हैं और क्या जानना बाकी है।

नासा द्वारा 1998 में क्षुद्रग्रह की खोज की व्यवस्थित शुरुआत से लेकर अब तक वैज्ञानिकों ने 25,000 से अधिक नज़दीकी क्षुद्रग्रहों का पता लगाया है। वर्ष 2020 में क्षुद्रग्रह देखने की रिकॉर्ड घटनाएं दर्ज की गई हैं। कोविड-19 महामारी के दौरान कई सर्वेक्षण कार्यक्रम बाधित होने के बाद भी खगोलविदों ने 2020 में अब तक अज्ञात 2958 क्षुद्रग्रह सूचीबद्ध किए हैं।

इनमें से बड़ी संख्या का पता एरिज़ोना स्थित तीन दूरबीनों की मदद से कैटलिना हवाई सर्वे द्वारा लगाया गया है। हालांकि पिछले वर्ष वसंत के मौसम में महामारी और जून में जंगलों की आग के कारण कुछ समय के लिए संचालन बंद होने के बाद भी पृथ्वी के निकट 1548 पिंडों का पता लगाया गया। इसमें 2020 सीडी3 नामक एक दुर्लभ क्षुद्रग्रह भी देखा गया। यह ‘मिनीचंद्रमा’ लगभग तीन मीटर व्यास वाला एक छोटा क्षुद्रग्रह है। यह पास से गुज़रते हुए अस्थायी रूप से पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की गिरफ्त में आ गया था। फिर पिछले वर्ष अप्रैल में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण को भेदकर बाहर निकल गया।

इसके अलावा, पिछले वर्ष हवाई स्थित Pan-STARS सर्वे टेलिस्कोप द्वारा 1152 क्षुद्रग्रहों का पता लगाया गया। इस खोज में 2020 एसओ नामक पिंड भी शामिल है जिसे गलती से क्षुद्रग्रह मान लिया गया था। यह वास्तव में 1966 में नासा के चंद्रमा मिशन के रॉकेट बूस्टर का शेष भाग था जो तभी से अंतरिक्ष में चक्कर काट रहा था।

गौरतलब है कि पिछले वर्ष खोजे गए क्षुद्रग्रहों में से लगभग 107 ऐसे थे जो चंद्रमा से भी कम दूरी से गुज़रे हैं। इनमें से एक छोटा क्षुद्रग्रह, 2020 क्यूजी, अगस्त में हिंद महासागर से लगभग 2950 किलोमीटर ऊपर से गुज़रा था। इसने सबसे नज़दीक से गुज़रने का रिकॉर्ड बनाया था। लेकिन इसके तीन महीने बाद ही 2020 वीटी4 नामक एक छोटा क्षुद्रग्रह 400 किलोमीटर से भी कम दूरी से गुज़रा। हैरानी की बात है कि गुज़र जाने के बाद 15 घंटे तक इसे देखा नहीं गया।

इन सभी खोजों से खगोलविद सौर मंडल की कैरम-नुमा प्रवृत्ति के प्रति अधिक जागरूक हो गए हैं। रेड्डी के अनुसार एपोफिस के हालिया अवलोकन इस बात के संकेत देते हैं कि कैसे विश्व भर के खगोलविद एक साथ काम करते हुए क्षुद्रग्रह से होने वाले खतरों का आकलन कर सकते हैं। ऐसी उम्मीद है कि आठ वर्ष बाद जब एपोफिस लौटकर आएगा तब तक वैज्ञानिकों के पास खतरनाक क्षुद्रग्रहों के बारे में अधिक विस्तृत जानकारी होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अतीत में पृथ्वी एक जलीय ग्रह था

पृथ्वी के समुद्रों का स्तर तापमान के अनुसार हमेशा घटता-बढ़ता रहा है लेकिन इसकी सतह पर पानी की कुल मात्रा हमेशा से ही स्थिर मानी जाती रही है। लेकिन हालिया साक्ष्यों से पता चला है कि लगभग 3 से 4 अरब वर्ष पूर्व पृथ्वी के समुद्रों में आज की तुलना में दोगुना पानी था। यानी पृथ्वी पर इतना पानी था कि सारे महाद्वीप माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई तक जलमग्न हो जाएं। इस व्यापक बाढ़ ने टेक्टोनिक प्लेट्स की गतिविधि को बढ़ा दिया होगा जिससे ज़मीन पर जीवन की शुरुआत अधिक मुश्किल हो गई होगी।

ऐसा माना जाता है कि भूपर्पटी के नीचे मेंटल की चट्टानों में एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें काफी मात्रा में पानी है। यह पानी तरल रूप में नहीं है बल्कि खनिजों में पाया जाता है। लेकिन पृथ्वी के इतिहास की शुरुआत में रेडियोधर्मिता के कारण मेंटल आज की तुलना में चार गुना अधिक गर्म था। हाइड्रोलिक प्रेस की मदद से किए गए हालिया अध्ययन से पता चला है कि इतने अधिक तापमान और दबाव पर कई खनिज इतनी मात्रा में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को जमा रखने में सक्षम नहीं रहे होंगे। एजीयू एडवांसेज़ में प्रकाशित हारवर्ड युनिवर्सिटी के मिनरल फिज़िक्स के छात्र जुंजी डोंग के शोध पत्र के अनुसार काफी संभावना है कि यह पानी सतह पर रहा होगा।

मेंटल की गहराई में पाए जाने वाले दो खनिजों, वाडस्लेआइट और रिंगवुडाइट, में काफी मात्रा में पानी भंडारित पाया गया है। इन खनिजों से बनी चट्टानें ग्रह के कुल द्रव्यमान का 7 प्रतिशत हैं। हालांकि इनमें पानी का वज़न केवल 2 प्रतिशत है, लेकिन नार्थवेस्टर्न युनिवर्सिटी के प्रायोगिक खनिज विज्ञानी स्टीवन जैकबसेन के अनुसार बूंद-बूंद से घट भरे की तर्ज़ पर यह 2 प्रतिशत भी काफी है।

जैकबसेन और उनके साथियों ने चट्टानों के चूरे पर उच्च दबाव और तापमान आरोपित करके इन खनिजों का निर्माण किया। डोंग की टीम ने विभिन्न प्रयोगों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर बताया कि वाडस्लेआइट और रिंगवुडाइट उच्च तापमान पर काफी कम मात्रा में पानी सहेज पाते हैं। जैसे-जैसे मेंटल ठंडा होता गया, ये खनिज प्रचुर मात्रा में पाए जाने लगे जिससे पृथ्वी की आयु बढ़ने के साथ-साथ उनकी पानी सोखने की क्षमता भी बढ़ती रही।

इसके अलावा कुछ अन्य साक्ष्य भी हैं जो पृथ्वी के जल-प्लावित होने के संकेत देते हैं। पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के 4 अरब वर्ष पुराने ज़िरकॉन क्रिस्टल में टाइटेनियम सांद्रता से पता चलता है कि ये पानी में निर्मित हुए हैं। इसके अलावा, ऑस्ट्रेलिया और ग्रीनलैंड में पाई गई पृथ्वी की सबसे पुरानी (3 अरब वर्ष पुरानी) बैसाल्ट, बलबस चट्टानें तभी बनती हैं जब मैग्मा पानी के संपर्क में आकर ठंडा होता है।

युनिवर्सिटी ऑफ कोलेरेडो के जिओबायोलॉजिस्ट जॉनसन और बोसवेल विंग ने इस विषय में अधिक प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। ऑस्ट्रेलिया से पाए गए 3.2 अरब साल पुरानी महासागरीय पर्पटी के नमूनों में भारी ऑक्सीजन आइसोटोप की मात्रा वर्तमान महासागरों की तुलना में काफी अधिक पाई गई। जब बारिश का पानी महाद्वीपीय पर्पटी के साथ प्रतिक्रिया करके कीचड़ में परिवर्तित होता है तब भारी ऑक्सीजन मुक्त होती है। प्राचीन महासागरों में इसकी प्रचुरता से पता चलता है कि तब शायद ही महाद्वीप उभरे होंगे। इन परिणामों से यह तो पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि महासागर विशाल थे लेकिन बड़े सागरों में जलमग्न महाद्वीप होना आसान है।

हालांकि विशाल महासागरों से महाद्वीपों का उभर पाना मुश्किल रहा होगा लेकिन इससे इस बात की व्याख्या हो जाती है कि क्यों महाद्वीप काफी पहले से चलायमान हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार विशाल महासागरों के कारण दरारों में जल के घुसने से पर्पटी कमज़ोर पड़ गई और टेक्टोनिक प्लेट्स गतिशील होने लगीं। इस प्रक्रिया से धसान क्षेत्रों का निर्माण हुआ जिसमें एक चट्टानी परत दूसरे के नीचे फिसलती गई होगी। जब एक बार चट्टान धंसना शुरू हुई तो मज़बूत मेंटल ने चट्टान को झुकाए रखा होगा, जिससे चट्टान का धंसना जारी रहा।

विशाल महासागरों के साक्ष्य इस बात को चुनौती देते हैं कि पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत कैसे हुई। कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि इसकी शुरुआत महासागरों में मौजूद पोषक तत्वों से समृद्ध हाइड्रोथर्मल वेंट के अंदर हुई जबकि कुछ मानते हैं कि शुरुआत शुष्क भूमि पर उथले तालाबों में हुई जहां रसायनों की सांद्रता बढ़ जाती थी। जलमग्न पृथ्वी का विचार इन दोनों परिकल्पनाओं पर सवाल खड़े कर देता है और कुछ वैज्ञानिक एक तीसरे विकल्प पर विचार कर रहे हैं।

यह प्राचीन पानी इस बात की भी याद दिलाता है कि पृथ्वी का विकास कितना परिस्थितियों के अधीन है। जन्म के समय पृथ्वी सूखी थी जब तक कि पानी से लबालब क्षुद्रग्रह इससे टकराए नहीं। यदि इन क्षुद्रग्रहों ने आज की तुलना में दोगुना पानी जमा कर दिया होता या फिर मेंटल में कम पानी सोखने की क्षमता होती तो ग्रह के जीवन और जलवायु के लिए आवश्यक महाद्वीप कभी उभरे ही नहीं होते। बहुत अधिक जल या बहुत कम जल, दोनों ही से काम बन पाना संभव नहीं था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टीबी ने हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को कैसे बदला

मानव इतिहास में दर्ज सबसे जानलेवा बीमारियों के बारे में सोचें तो ब्लैक डेथ, प्लेग, स्पैनिश फ्लू और कोविड-19 की ओर ध्यान जाता है। इन जानलेवा महामारियों में लाखों लोग मारे गए। लेकिन आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि इन महामारियों की तुलना में टीबी से होने वाली मौतों की संख्या अधिक है। पिछले 2000 सालों में टीबी के कारण एक अरब से अधिक लोग मारे गए हैं, और वर्तमान में हर साल दुनिया भर में लगभग 15 लाख लोग टीबी की वजह से मारे जाते हैं। लेकिन यह रहस्य लंबे समय से बना हुआ है कि टीबी कब और कैसे इतनी घातक हो गई।

हाल ही में शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि किस तरह टीबी ने लौह युगीन युरोप में रहने वाले लोगों की प्रतिरक्षा प्रणाली में बदलाव किया था। दरअसल दो साल पूर्व युनिवर्सिटी ऑफ पेरिस के शोधकर्ता गैसपर्ड कर्नर ने पाया था कि जिन लोगों में TKY2 नामक प्रतिरक्षा जीन के P1104A नामक दुर्लभ संस्करण की दो प्रतियां होती हैं उन लोगों के टीबी से गंभीर रूप से संक्रमित होने की संभावना अधिक होती है। इसके बाद पॉश्चर इंस्टीट्यूट के साथ उन्होंने क्वीन्टाना-मर्सी के नेतृत्व में पिछले 10,000 साल के 1013 युरोपीय लोगों के जीनोम का विश्लेषण कर यह पता लगाया था कि यह दुर्लभ जीन संस्करण कब-कब और कितने अधिक लोगों में उभरा। इस दौरान शोधकर्ताओं को विचार आया कि इसकी मदद से यह भी पता लगाया जा सकता है कि प्रतिरक्षा जीन टीबी के साथ-साथ किस तरह सह-विकसित हुआ है।

टीबी का सबसे पहला प्रमाण कृषि के आविष्कार के तुरंत बाद, लगभग 9000 साल पहले के मध्य-पूर्व क्षेत्र में दफन कंकालों में मिलता है। लेकिन टीबी बैक्टीरिया का मौजूदा संस्करण – माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस – जो लोगों के लिए घातक साबित हो सकता है, वह लगभग 2000 साल पहले उभरा था, जब लोग पालतू जानवरों के साथ घनी बस्तियों में रहा करते थे। ये बस्तियां अक्सर टीबी बैक्टीरिया के भंडार की तरह काम करती थीं।

अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि प्रतिरक्षा जीन का P1104A उत्परिवर्तन प्राचीन है। यह संस्करण लगभग 8500 साल पूर्व एनाटोलिया (आजकल का तुर्की) में रहने वाले एक किसान के डीएनए में पाया गया है और उनकी गणना के मुताबिक यह उत्परिवर्तन कम से कम 30,000 साल पुराना है। जब एनाटोलिया के किसानों और यमनाया चरवाहों ने मध्य युरोप का रुख किया तो उन्होंने जीन के इस संस्करण को फैलाया। अध्ययन में पाया गया कि लगभग 5000 साल पहले तक यह संस्करण लगभग तीन प्रतिशत युरोपीय आबादी में था। फिर कांस्य युग के मध्य, लगभग 3000 साल पहले तक, यह युरोप के लगभग 10 प्रतिशत लोगों में फैल चुका था। लेकिन इसके बाद फिर इसके प्रसार में कमी आई और तब से अब तक यह लगभग 2.9 प्रतिशत युरोपीय आबादी में दिखाई देता है।

प्राचीन डीएनए अध्ययनों के अनुसार, यह कमी उस दौरान आई जब टीबी का मौजूदा घातक संस्करण उभर रहा था। शोधकर्ताओं ने कंप्यूटर सिमुलेशन की मदद से यह भी पता किया कि कैसे आबादी के आकार और लोगों के प्रवास ने जीन के प्रसार की आवृत्ति को प्रभावित किया है। उन्होंने बताया कि जिन लोगों में प्रतिरक्षा जीन के दुर्लभ संस्करण की दो प्रतियां थीं उनमें से लगभग 20 प्रतिशत लोगों की जान टीबी के कारण गई थी या वे इससे गंभीर रूप से बीमार हुए थे। इनमें से कुछ ही लोगों की संतानें कांस्य युग के बाद तक जीवित रह सकी थीं। दी अमेरिकन जर्नल ऑफ ह्यूमन जेनेटिक्स में शोधकर्ता बताते हैं कि नतीजतन, इस घातक जीन को कम करने के लिए प्राकृतिक चयन ने तेज़ी और दृढ़ता से काम किया और इस संस्करण में कमी आई। यदि मनुष्य में इस जीन संस्करण की दो प्रतियां होंगी और साथ ही वहां टीबी फैला होगा तो यह आबादी के लिए जोखिमपूर्ण होगा।

यह अध्ययन तो यह समझने के लिए मात्र शुरुआत है कि हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली विशिष्ट रोगजनकों के साथ किस तरह विकसित होती है। बहरहाल कुछ शोधकर्ता चिंता जताते हैं कि यह जानने की तत्काल आवश्यकता है कि P1104A संस्करण दुनिया में कितना फैला है। टीबी वाले देशों जैसे भारत, इंडोनेशिया, चीन और अफ्रीका के कुछ हिस्सों की आबादी में तो यह संस्करण दुर्लभ है, लेकिन यूके बायोबैंक डैटाबेस के अध्ययन में देखा गया है कि प्रत्येक 600 में से एक ब्रिटिश व्यक्ति में इस संस्करण की दो प्रतियां उपस्थित हैं। यदि वहां टीबी का प्रकोप होगा तो वे गंभीर संक्रमण या मृत्यु के अत्यधिक जोखिम में होंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टीके की प्रभाविता का क्या मतलब है?

न दिनों अमेरिकी कंपनी जॉनसन एंड जॉनसन के टीके को यूएस के खाद्य व औषधि प्रशासन ने आपात उपयोग की स्वीकृति दे दी है। स्वीकृति के निर्णय के पीछे कंपनी द्वारा टीके की प्रभाविता सम्बंधी आंकड़े महत्वपूर्ण रहे। समय-समय पर विभिन्न टीकों की प्रभाविता सम्बंधी आंकड़े प्रकाशित होते रहे हैं।

देखा जाए तो टीके के परीक्षणों में प्रभाविता का पता लगाना महत्वपूर्ण है लेकिन पेचीदा भी है। यदि किसी टीके की प्रभाविता 95 प्रतिशत है तो इसका मतलब यह नहीं कि टीका प्राप्त पांच प्रतिशत लोग कोविड-19 से बीमार हो जाएंगे। यह भी ज़रूरी नहीं कि परीक्षण के दौरान किसी टीके की अधिक प्रभाविता के कारण उसे अन्य टीकों की तुलना में बेहतर माना जाए।

वास्तव में प्रभाविता यह दर्शाती है कि एक टीका किस हद तक बीमार पड़ने के जोखिम को कम कर सकता है। उदाहरण के लिए, जॉनसन एंड जॉनसन कंपनी ने सबसे पहले यह देखा कि कितने लोग कोविड-19 टीका लगने के बावजूद बीमार हुए हैं। इसके बाद उन्होंने प्लेसिबो प्राप्त कोविड-19 से ग्रसित लोगों से इसकी तुलना की। इसके बाद जोखिम के अंतर की गणना प्रतिशत में की गई। यदि यह अंतर शून्य प्रतिशत हो तो इसका मतलब है टीकाकृत लोग उतने ही जोखिम में हैं जितना प्लेसिबो प्राप्त लोग। दूसरी ओर, यदि अंतर 100 प्रतिशत हो तो इसका मतलब होगा कि टीके द्वारा जोखिम को पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया है। अमेरिका के परीक्षण स्थल पर जॉनसन एंड जॉनसन ने 72 प्रतिशत प्रभाविता पाई है।             

गौरतलब है कि प्रभाविता परीक्षण पर परीक्षण के स्थान जैसे कई कारकों का असर पड़ता है। जॉनसन एंड जॉनसन ने अमेरिका, लैटिन अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका में परीक्षण किया है। इसमें तीनों स्थानों की समग्र प्रभाविता अमेरिका में अनुमानित प्रभाविता से कम पाई गई। इसका संभावित कारण यह हो सकता है दक्षिण अफ्रीका परीक्षण में नए (बी.1.351) संस्करण के आने के बाद किया गया था। इस संस्करण में कुछ ऐसे उत्परिवर्तन पाए गए हैं जो टीकाकरण से प्राप्त एंटीबॉडी से बच निकलने में सक्षम थे। हालांकि इससे टीका पूरी तरह असरहीन नहीं हुआ और दक्षिण अफ्रीका में भी प्रभाविता 64 प्रतिशत दर्ज की गई।

इसके अलावा, प्रभाविता का आंकड़ा इस बात पर भी निर्भर करता है कि किस परिणाम में अंतर को देखा जा रहा है। उदाहरण के लिए, जॉनसन एंड जॉनसन के टीके ने कोविड-19 के गंभीर मामलों के खिलाफ 85 प्रतिशत प्रभविता दर्शाई। यानी इस टीके से अस्पताल में भर्ती लोगों की संख्या और मौतों को कम किया जा सकता है।

पिछले वर्ष एफडीए ने कोरोनावायरस टीके के परीक्षण के लिए मापदंड निर्धारित किए थे। इसमें प्रत्येक टीका निर्माता को 50 प्रतिशत प्रभाविता और 30 प्रतिशत विश्वसनीयता प्रदर्शित करना अनिवार्य था। 30 प्रतिशत विश्वसनीयता या कॉन्फिडेन्स इंटरवल से पता चलता है कि वास्तविक मान किन आंकड़ों के बीच रहने की संभावना 30 प्रतिशत है। अभी तक फाइज़र एवं बायोएनटेक, मॉडर्ना और जॉनसन एंड जॉनसन द्वारा निर्मित तीन टीके एफडीए के निर्धारित लक्ष्यों को पूरा कर पाए हैं। इसके अलावा, एस्ट्राज़ेनेका और नोवावैक्स तथा स्पुतनिक वी ने अन्य देशों में किए गए प्रभाविता अध्ययन के परिणाम प्रकाशित किए हैं।    

कई कारणों से इन सभी टीकों के बीच सटीक तुलना करना संभव नहीं है। ऐसा संभव है कि एक टीके का पॉइंट एस्टीमेट दूसरे टीके की तुलना में अधिक हो लेकिन उनके विश्वसनीयता के परास एक समान हो सकते हैं। ऐसे में उनके परिणामों की तुलना नहीं की जा सकती। इसके अलावा टीकों का परीक्षण महामारी के विभिन्न चरणों में विभिन्न लोगों पर किया गया है। प्रभाविता को भी अलग-अलग तरीकों से मापा गया है। उदाहरण के लिए जॉनसन एंड जॉनसन ने टीके की पहली खुराक के 28 दिन बाद प्रभाविता का मापन किया जबकि मॉडर्ना ने दूसरी खुराक के 14 दिन बाद मापा था। अलबत्ता, ये तीनों टीके कोविड-19 के जोखिम को काफी हद तक कम करते हैं।     

सभी टीकों ने अस्पताल में भर्ती होने की ज़रूरत और मृत्यु की रोकथाम में उच्च प्रभाविता दर्शाई है। उदाहरण के लिए जॉनसन एंड जॉनसन का टीका पाने वाले एक भी व्यक्ति को टीका लगने के 28 दिनों और उससे अधिक समय बाद भी कोविड-19 संक्रमण के कारण अस्पताल में भर्ती नहीं होना पड़ा था दूसरी ओर, प्लेसिबो प्राप्त 16 लोगों को भर्ती होना पड़ा था। यानी प्रभाविता 100 प्रतिशत है जिसमें 74.3 प्रतिशत से 100 प्रतिशत तक का कॉन्फिडेन्स इंटरवल पाया गया।  

गौरतलब है कि नैदानिक परीक्षण वास्तव में टीकों पर शोध की शुरुआत भर है। इनके व्यापक उपयोग के बाद प्रभाविता की बजाय प्रभावशीलता को मापा जाता है। इससे यह पता लगाया जा सकता है कि वास्तविक परिस्थिति में कोई टीका किस हद तक बीमारी के जोखिम से बचा सकता है। हालांकि शुरुआती अध्ययन से कोरोनावायरस टीकों द्वारा मज़बूत सुरक्षा मिलने की पुष्टि हुई है, लेकिन आने वाले समय में शोधकर्ताओं की नज़र टीके की प्रभावशीलता पर रहेगी। कुछ भी बदलाव होने पर नए टीकों का निर्माण किया जाएगा और टीका निर्माता प्रभाविता के नए आंकड़े प्रस्तुत करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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गुबरैला बताएगा स्थानीय निवासियों की पहचान

दि जीवविज्ञानी यह जानना चाहते हैं कि किसी स्थान के निवासी जीव कौन-से हैं, तो इसके लिए जल्द ही शमल गुबरैले इसमें सहायक हो सकते हैं। इन गुबरैलों की विशेषता है कि ये अपना पोषण काफी हद तक अन्य जंतुओं की विष्ठा से प्राप्त करते हैं। हाल ही में हुए अध्ययन में इन गुबरैलों की आंत में स्तनधारी जीवों के डीएनए पाए गए हैं, जो जैव-विविधता को सूचीबद्ध करने में मदद कर सकते हैं।

पर्यावरणीय डीएनए (eDNA) से किसी क्षेत्र की जैव-विविधता पता करने का विचार कुछ ही दशक पुराना है। इसमें वैज्ञानिक धूल, मिट्टी और विशेषकर पानी में जीवों के शरीर की त्वचा के अवशेष, म्यूकस और शरीर के अन्य तरल पदार्थ खोजते हैं। फिर इन नमूनों में वे पहचानने योग्य डीएनए ढूंढते हैं ताकि पता किया जा सके कि उस क्षेत्र में कौन-से जंतु रहते हैं।

समुद्री वैज्ञानिकों ने eDNA तकनीक का अधिक उपयोग किया है क्योंकि डीएनए पानी में कई दिनों तक बना रह सकता है और धूल या मिट्टी की तुलना में पानी से डीएनए आसानी से और अधिक मात्रा में निकाला जा सकता है। लेकिन भूमि पर eDNA तकनीक (या डीएनए बारकोडिंग) का उपयोग कम ही हो पाता है। वैसे कुछ वैज्ञानिक जोंक और मच्छरों की आंतों के रक्त से उनके मेज़बान जीवों का डीएनए पता करने की कोशिश करते हैं। दिक्कत यह है कि जोंक का इलाका बहुत सीमित होता है और मच्छरों को पकड़ना अक्सर मुश्किल होता है।

लंदन की क्वीन मैरी युनिवर्सिटी की आणविक जीव विज्ञानी रोज़ी ड्रिंकवाटर ने डीएनए-समृद्ध शमल गुबरैलों के साथ परीक्षण करने का विचार बनाया। स्कारेबैडी कुल के ये अकशेरुकी जीव अन्य जानवरों के मल पर निर्भर होते हैं। शमल गुबरैले अंटार्कटिका को छोड़कर हर महाद्वीप पर पाए जाते हैं और ये रेगिस्तान से लेकर जंगलों जैसी हर जगह पर रह सकते हैं।

ड्रिंरकवाटर और उनके साथियों ने बोर्नियो के जंगल से कैथार्सियस जीनस के अंगूठे की साइज़ के 24 शमल गुबरैलों को पकड़ा, और उनकी आंत में मिले डीएनए का अनुक्रमण किया। फिर शोधकर्ताओं ने इसकी तुलना बोर्नियो के जंगली जानवरों के जीनोम से की। बायोआर्काइव प्रीप्रिंट में शोधकर्ताओं ने बताया है कि आंत से प्राप्त डीएनए दढ़ियल सूअर, सांभर, मंटजेक (एक किस्म का हिरन), छोटा कस्तूरी मृग, साही और उस इलाके में पाए जाने वाले अन्य सभी जानवरों के डीएनए से मेल खाते हैं। उन्होंने एक दुर्लभ धारीदार उदबिलाव के डीएनए की भी पहचान की लेकिन इसका अनुक्रमण इतना स्पष्ट नहीं था कि इसकी पुष्टि की जा सके। इसके अलावा उन्हें आंत में प्रचुर मात्रा में मानव डीएनए भी मिले जो ‘चारा’ खिलाने वाले लोगों के नहीं थे; संभवत: ये डीएनए निकट स्थित ताड़ के बागानों में काम करने वाले लोगों के थे। इन परिणामों से लगता है कि शमल गुबरैलों की मदद से eDNA तकनीक का पानी के अलावा अन्यत्र भी इस्तेमाल किया जा सकेगा।

वैसे अभी इस अध्ययन की समकक्ष-समीक्षा की जानी बाकी है, और विभिन्न स्थानों और गुबरैलों के लिए इस तरीके की पुष्टि होना भी बाकी है। फिर भी शमल गुबरैले eDNA तकनीक में मददगार साबित हो सकते हैं।

अन्य शोधकर्ताओं के मुताबिक यह तरीका अच्छा तो है, लेकिन इसके लिए काफी गुबरैलों की अनावश्यक बलि चढ़ानी पड़ेगी। बेहतर होगा कि इसकी बजाय मिट्टी या तलछट आधारित गैर-हिंसक eDNA तकनीकें विकसित की जाएं। (स्रोत फीचर्स)

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सज़ायाफ्ता की रिहाई के लिए वैज्ञानिकों की गुहार

विश्व के लगभग नब्बे वैज्ञानिकों और चिकित्सकों ने मिलकर नए साक्ष्यों के आधार पर बाल हत्याओं की दोषी सज़ायाफ्ता कैथलीन फोलबिग को क्षमा करने के लिए अर्जी दी है। नए वैज्ञानिक साक्ष्य बताते हैं कि उनके बच्चों की मृत्यु प्राकृतिक कारणों से हुई थी।

दरअसल मामला 53 वर्षीय कैथलीन फोलबिग का है जिनके चार बच्चों की मृत्यु वर्ष 1989 से 1999 के दौरान हुई थी। वर्ष 2003 में उन्हें इन मौतों का दोषी ठहराया गया था और 30 साल के कारावास की सज़ा सुनाई गई थी। फोलबिग अब तक 18 वर्ष की सज़ा काट चुकी हैं।

लेकिन फोलबिग को मोटे तौर पर परिस्थितिजन्य साक्ष्यों (उनकी डायरी) के आधार पर दोषी ठहराया गया था। जब लॉरा उनके गर्भ में थी तब 1 जनवरी, 1997 को फोलबिग ने अपनी डायरी में लिखा था: ‘यह साल बीत गया, और नया साल आने वाला है। मुझे बच्चा होने वाला है। इसका मतलब हम दोनों को ज़िंदगी में कई बड़े समझौते करने पड़ेंगे, लेकिन मुझे यकीन है कि सब ठीक ही होगा। इस बार मैंने किसी से मदद मांगी है, इस बार सब कुछ मैं अकेले करने की कोशिश नहीं करूंगी। मुझे पता है कि मेरे सारे तनावों का मुख्य कारण यही है और तनाव के कारण मैं कई बार भयानक कर गुज़रती हूं…।’ डायरी का एक अन्य अंश: ‘मुझे लगता है कि मैं इस धरती पर सबसे बुरी मां हूं। मुझे डर लगता है कि वह भी मुझे सारा की तरह छोड़कर चली जाएगी। मैं जानती हूं कि मुझे गुस्सा बहुत जल्दी आता है। कभी-कभी मैंने उसके साथ बुरा और क्रूर बर्ताव किया, आखिर वह हमको छोड़कर चली गई। थोड़ी मदद के ज़रिए।’

फोलबिग द्वारा बच्चों की मृत्यु के दौरान लिखी यह डायरी पढ़ने के बाद फोलबिग के पति ने उन पर हत्या का आरोप लगाया था। और इन्हीं अंशों के आधार पर उन्हें सज़ा सुनाई गई थी। लेकिन फोलबिग का कहना था कि डायरी में उल्लेखित ‘मदद’ से उनका आशय भगवान या किसी दैवीय शक्ति से था।

इसके बाद इस मामले में महत्वपूर्ण नए चिकित्सा साक्ष्य पता चले जो बताते हैं कि फोलबिग के कम से कम दो बच्चों, सारा और लॉरा, की मृत्यु प्राकृतिक कारण (हृदय गति रुकने) से हुई थी। और अन्य दो बच्चों की मृत्यु में भी आनुवंशिक कारण होने की संभावना दिखाई दे रही है।

सारा और लॉरा के डीएनए का आनुवंशिक अनुक्रमण करने पर पाया गया कि दोनों शिशुओं को अपनी मां से विरासत में एक आनुवंशिक उत्परिवर्तन CALM2 मिला था। यह ज्ञात है कि CALM2 जीन के उत्परिवर्तन के कारण अचानक हृदय गति रुक सकती है और मृत्यु हो सकती है। CALM2 जीन में उत्परिवर्तन शिशुओं और वयस्कों में जागते या सोते समय अचानक मृत्यु के लिए ज़िम्मेदार प्रमुख कारणों में से एक है। यदि इस उत्परिवर्तन के साथ कोई अन्य संक्रमण पनप रहा हो या स्यूडोएफेड्रिन जैसी दवाएं दी जा रही हों तो यह उत्परिवर्तन कार्डिएक एरिद्मिया (असामान्य हृदय गति) की स्थिति पैदा कर सकता है।

इसके अलावा अन्य अध्ययन भी यह संभावना जताते हैं कि फोलबिग के दो बेटों की मृत्यु भी भिन्न आनुवंशिक उत्परिवर्तन के कारण से हुई होगी। इस तरह वैज्ञानिक साक्ष्य फोलबिग के चारों बच्चों की मृत्यु के पीछे प्राकृतिक कारण दर्शाते हैं।

पूर्व में फोलबिग के लिए लड़ने वाली बैरिस्टर रैनी रेगो कहती हैं कि हमारा कानूनी तंत्र न्याय करने में गलतियां भी करता है। जब बच्चों की हत्या जैसे अपराध के लिए गंभीर सज़ा की बात आती है तो चिकित्सकीय साक्ष्यों को परिस्थितिजन्य साक्ष्यों से ऊपर रखना चाहिए। और इसलिए इन्हीं नए वैज्ञानिक साक्ष्यों को प्रकाश में लाने के लिए नोबेल पुरस्कार विजेता पीटर डोहर्टी, नोबेल पुरस्कार विजेता एलिज़ाबेथ ब्लैकबर्न और पूर्व ऑस्ट्रेलियन ऑफ दी ईयर फियोना स्टेनली समेत विश्व के कई जाने-माने वैज्ञानिकों और चिकित्सकों ने याचिका दायर की है। यदि इस याचिका पर गौर नहीं किया जाता है तो यह फोलबिग के मूलभूत मानवाधिकारों का हनन होगा और यह मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्यों की व्यक्तिपरक व्याख्याओं को वरीयता देने और चिकित्सकीय-वैज्ञानिक सबूतों की अनदेखी की मिसाल बन जाएगा।

फोलबिग को क्षमा करने का निर्णय अब वहां के राज्यपाल का है। यदि फोलबिग को माफी मिल भी जाती है, तो भी वह अपने आप अपने बच्चों की हत्या के आरोप से दोषमुक्त नहीं होंगी। इसके लिए उन्हें अदालत में गुहार लगानी ही पड़ेगी। (स्रोत फीचर्स)

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भारतीय बाघों में अंत:जनन के खतरे

ह सही है कि दुनिया भर में बिल्ली कुल की विभिन्न उप-प्रजातियों की अपेक्षा भारतीय बाघ में सबसे अधिक आनुवंशिक विविधता दिखती है, लेकिन नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज़ (एनसीबीएस), बैंगलोर द्वारा हाल ही में किया गया एक अध्ययन बताता है कि इनके सीमित और घटते आवास के कारण इनकी आबादी छोटे-छोटे हिस्सों में बंटती जा रही है। इस वजह से इनमें अंत:जनन की स्थिति बन सकती है और इनकी विविधता में कमी आ सकती है।

सेंटर की आणविक पारिस्थितिकी विज्ञानी डॉ. उमा रामकृष्णन बताती हैं कि जैसे-जैसे मानव आबादी फैली, पृथ्वी पर उसके हस्ताक्षर भी बढ़े। इंसानी गतिविधियों ने बाघ और उनके आवास को प्रभावित किया है, और उनके आवागमन को बाधित किया है। इसके चलते बाघ अपने संरक्षित क्षेत्र में ही सिमट गए हैं और वे केवल अपने ही क्षेत्र के अन्य बाघों के साथ प्रजनन कर पाते हैं, जिससे एक समय ऐसा आएगा जब बाघ अपने ही रिश्तेदारों के साथ प्रजनन कर रहे होंगे।

हम नहीं जानते कि यह अंत:जनन उनके स्वास्थ्य और उनके जीवित रहने की क्षमता को किस तरह प्रभावित करेगा लेकिन यह तो स्पष्ट है कि आबादी में आनुवंशिक विविधता जितनी अधिक होगी भविष्य में जीवित रहने की संभावना भी उतनी बढ़ेगी। अध्ययन के अनुसार बाघ का छोटे-छोटे इलाकों में बंटा होना उनकी आनुवंशिक विविधता में कमी लाकर भविष्य में उन्हें विलुप्ति की कगार पर पहुंचा सकता है।

हालांकि वर्तमान में बाघ के संरक्षण पर बहुत अधिक ध्यान दिया जा रहा है लेकिन फिर भी हमें उनके वैकासिक इतिहास और जीनोमिक विविधता के बारे में बहुत कम जानकारी है। विश्व के 70 प्रतिशत बाघ भारत में पाए जाते हैं। इस दृष्टि से भारतीय बाघ की आनुवंशिक विविधता को समझना दुनिया भर में बाघ संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण है।

एनसीबीएस के इस तीन-वर्षीय अध्ययन में शोधकर्ताओं ने टाइगर की जीनोमिक विविधता और इस विविधता को पैदा करने वाली प्रक्रिया के बारे में समझ प्रस्तुत की है। इसमें उन्होंने 65 बाघों के पूरे जीनोम का अनुक्रमण किया, और आनुवंशिक विविधता में विभाजन का पता लगाया, अंत:जनन के संभावित प्रभाव देखे, जनसांख्यिकीय इतिहास पता किया और स्थानीय अनुकूलन के संभावित चिंहों की जांच की। अध्ययन में पाया गया कि अब कई बाघ आबादियों में विविधता में कमी आई है। और बाघ की अधिक आबादी किन्हीं-किन्हीं जगहों पर सीमित हो गई है जो उनमें अंत:जनन की संभावना बढ़ाती है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि इस स्थिति से निपटने के लिए हमें बाघ के विभिन्न आवासों के बीच सुचारु संपर्क गलियारे बनाने होंगे ताकि उनका आवागमन क्षेत्र बढ़ सके। इसके अलावा उनके लिए उचित संरक्षित आवास बनाने चाहिए – जैसे उनके आवास क्षेत्रों में घनी आबादी वाली बस्तियां या अत्यधिक मानव गतिविधियां ना हों।

उत्तर-पूर्व भारत में पाए जाने वाले बाघ अन्यत्र पाए जाने वाले बाघों से सर्वथा भिन्न हैं। अत: हमें यह भी समझने की ज़रूरत है कि क्यों कुछ बंगाल बाघों में अंत:जनन की स्थिति बनी है। पिछले 20,000 वर्षों में बाघ की उप-प्रजातियों के बीच जो अलगाव पैदा हुए हैं वे बढ़ते मानव प्रभावों और एशिया महाद्वीप में हो रहे जलवायु सम्बंधी परिवर्तनों के कारण हुए हैं।

इसके अलावा शोधकर्ताओं का सुझाव है कि बाघ के जनसंख्या प्रबंधन और संरक्षण नीतियों में आनुवंशिक विविधता की जानकारी भी शामिल होनी चाहिए। उम्मीद है कि इससे भारतीय बाघ के संरक्षण मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

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क्रटज़ेन: ओज़ोन ह्रास की जागरूकता के प्रणेता

त 28 जनवरी को पॉल जे. क्रटज़ेन ने 87 वर्ष की आयु में इस दुनिया से रुखसती ले ली। क्रटज़ेन ने ही हमें इस बात से अवगत कराया था कि वायुमंडल में मौजूद प्रदूषक पृथ्वी की ओज़ोन परत को क्षति पहुंचाते हैं। इस काम के लिए उन्हें 1995 में दो अन्य शोधकर्ताओं के साथ रसायन विज्ञान के नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया था। पृथ्वी पर जैविक, रासायनिक और भूगर्भीय गतिविधियों पर मनुष्य के वर्चस्व के मद्देनज़र इस युग के लिए उन्होंने एक नया शब्द ‘एंथ्रोपोसीन’ गढ़ा था। ।

वर्ष 2000 में मेक्सिको में हुए एक सम्मेलन में क्रटज़ेन ने सबसे पहले एंथ्रोपोसीन शब्द का उपयोग किया था और बताया था कि हम ‘एंथ्रोपोसीन युग’ में रह रहे हैं। इस शब्द को तुरंत ही लोगों ने अपना लिया, और इस शब्द ने कई विषयों में बहस छेड़ दी।

पृथ्वी पर एंथ्रोपोसीन युग (या मानव वर्चस्व का युग) की शुरुआत बीसवीं सदी के मध्य से मानी जाती है, जब से मनुष्यों ने पृथ्वी पर मौजूद संसाधनों का अंधाधुंध दोहन शुरू किया। इस विचार के ज़रिए क्रटज़ेन ने पृथ्वी की जलवायु परिवर्तन की स्थिति और पर्यावरणीय दबावों पर अपनी चिंता जताई थी।

क्रटज़ेन का जन्म 1933 में एम्स्टर्डम में हुआ था। सिविल इंजीनियरिंग की शिक्षा हासिल करने के बाद 1960 के दशक में उन्होंने एक कंप्यूटर प्रोग्रामर के रूप में काम करते हुए स्टॉकहोम विश्वविद्यालय से मौसम विज्ञान का अध्ययन किया। स्नातक शिक्षा के दौरान उन्होंने अपने प्रोग्रामिंग और वैज्ञानिक कौशल दोनों का उपयोग कर समताप मंडल का एक कंप्यूटर मॉडल बनाया था। वायुमंडल में विभिन्न ऊंचाइयों पर ओज़ोन के वितरण समझाते हुए उन्होंने पाया कि नाइट्रोजन के ऑक्साइड्स ओज़ोन को क्षति पहुंचाने वाली अभिक्रियाओं में उत्प्रेरक की भूमिका निभाते हैं। 1970 के दशक की शुरुआत में जब सुपरसोनिक विमानों द्वारा उत्सर्जित नाइट्रोजन ऑक्साइड्स के स्तर पर चर्चा शुरू हुई, तब क्रटज़ेन ने पाया कि मानवजनित उत्सर्जन समताप मंडल में मौजूद ओज़ोन परत को नुकसान पहुंचाता है। उसी समय दो अन्य शोधकर्ता मारियो जे. मोलिना और एफ. शेरवुड रॉलैंड ने पाया था कि प्रणोदक, विलायकों और रेफ्रिजरेंट के रूप में इस्तेमाल किए जाने वाले क्लोरीन युक्त यौगिक भी ओज़ोन परत के ह्रास में योगदान देते हैं। 1985 में वैज्ञानिकों ने अंटार्कटिक के ऊपर ओज़ोन परत में एक ‘सुराख’ पाया था।

क्रटज़ेन 1970-1980 के दशक में ओज़ोन ह्रास पर होने वाली सार्वजनिक बहसों में काफी सक्रिय रहे। 1980 में उन्होंने जर्मनी के मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर केमिस्ट्री में निदेशक का पदभार संभाला। वे पृथ्वी के वायुमंडल की सुरक्षा के लिए निवारक उपायों को ध्यान में रखकर गठित एक जर्मन संसदीय आयोग के सदस्य भी थे। इस आयोग द्वारा वर्ष 1989 में प्रकाशित रिपोर्ट ने वातावरण और जलवायु नीतियों का प्रारूप बनाने को दिशा दी। क्रटज़ेन ने 1987 में मॉन्ट्रियल संधि की नींव रखने में मदद की, जिसके तहत हस्ताक्षरकर्ता देश ओज़ोन-क्षयकारी पदार्थों के इस्तेमाल को धीरे-धारे कम करते हुए खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस संधि के तहत हानिकारक क्लोरीन यौगिकों पर प्रतिबंध लगा, सुपरसोनिक विमान सीमित हुए। नतीजतन, ओज़ोन परत में अब कुछ सुधार दिखाई दे रहे हैं।

नाभिकीय जाड़े के बारे में सर्वप्रथम आगाह करने वाले क्रटज़ेन ही थे। 1970 के दशक में वे कोलोरेडो स्थित नेशनल सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक रिसर्च के लिए काम कर रहे थे, तभी उन्होंने यूएस नेशनल ओशेनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के साथ मिलकर समताप मंडलीय अनुसंधान कार्यक्रम की शुरुआत की थी। इसी समय उनकी रुचि निचले वायुमंडल (क्षोभमंडल) और जलवायु परिवर्तन के रसायन विज्ञान को जानने में बनी, और उन्होंने तब वायु प्रदूषण के स्रोतों की पड़ताल की। उन्होंने पाया कि अधिकतर ऊष्णकबंधीय इलाकों में वायु प्रदूषण का स्रोत कृषि और वनों की कटाई से निकलने वाले बायोमास का अत्यधिक उपयोग है। और उन्होंने बताया कि क्षोभमंडल में इस अत्यधिक प्रदूषण का प्रभाव ऊष्णकटिबंधीय इलाकों और दक्षिणी गोलार्ध में अधिक दिखता है, जहां अन्य मानवजनित प्रदूषण (जैसे जीवाश्म र्इंधन का उपयोग) उत्तरी औद्योगिक देशों की तुलना में कम था।

इसने क्रटज़ेन को आग के तूफानों का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया, जो नाभिकीय युद्ध के कारण शुरू हो सकते हैं। ऐसी आग से निकलने वाले धुएं में उपस्थित कार्बन-कण सूर्य के प्रकाश से ऊष्मा अवशोषित करते हैं, और धुएं को ऊपर उठाते हैं। इस तरह यह धुंआ पृथ्वी के ऊपर लंबे समय तक बना रहेगा और पृथ्वी की सतह को ठंडा करेगा। 1982 में उन्होंने जॉन बर्क के साथ लिखे एक लेख ‘ट्वाइलाइट एट नून’ (दोपहर में धुंधलका) में नाभिकीय शीतकाल के बारे में चेताया था। इसी से प्रेरित होकर सोवियत संघ के प्रमुख मिखेल गोर्बाचेव ने 1987 में अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के साथ परमाणु हथियार-नियंत्रण समझौते पर हस्ताक्षर किए थे।

वर्ष 2000 में औपचारिक सेवानिवृत्ति के बाद क्रटज़ेन ने अपना काम जारी रखा। 2006 में उन्होंने जिओइंजीनियरिंग में अनुसंधान का आव्हान किया; उनका कहना था कि यदि उत्सर्जन थामने के प्रयास असफल रहे तो यही एकमात्र विकल्प बचेगा। ऐसे एक विकल्प पर विचार हुआ था: सल्फर डाइऑक्साइड को समताप मंडल में छोड़ा जाए, जो वहां सल्फेट में परिवर्तित हो जाएगी। ये सल्फेट कण पृथ्वी को सूरज से बचाएंगे और ग्रीनहाउस प्रभाव का मुकाबला करेंगे। क्रटज़ेन इस विचार के समर्थक नहीं थे, लेकिन वे इस तरह के प्रयोग करके देखना चाहते थे। आज, कुछ लोग इस विचार पर काम कर रहे हैं, तो कुछ अन्य इसे उत्सर्जन पर नियंत्रण की दिशा से भटकाव मानते हैं।

क्रटज़ेन एक रचनात्मक वैज्ञानिक और जोशीले व्यक्ति थे। कई वैज्ञानिक और सार्वजनिक बहसों में मानवजनित चुनौतियों को वे सामने लाए। कोविड-19 महामारी भी एंथ्रोपोसीन-जनित है। क्रटज़ेन की अपेक्षा होती कि हम विज्ञान, समाज और पृथ्वी को लेकर ज़्यादा ज़िम्मेदारी से काम करें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

जलवायु बदलाव के दौर में कृषि – भारत डोगरा

लवायु बदलाव का संकट तेज़ी से विश्व के सबसे बड़े पर्यावरणीय संकट के रूप में उभरा है। जीवन के विभिन्न महत्त्वपूर्ण पक्षों के संदर्भ में इस संकट को समझना ज़रूरी हो गया है। भारत में आजीविका का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत कृषि व इससे जुड़े विभिन्न कार्य हैं। अत: खेती-किसानी, पशुपालन, वृक्षारोपण आदि के संदर्भ में जलवायु बदलाव के संकट को समझना आवश्यक है।

पहला सवाल है कि खेती-किसानी पर जलवायु बदलाव का क्या असर पड़ सकता है? यह असर बहुत व्यापक व गंभीर हो सकता है। मौसम पहले से कहीं अधिक अप्रत्याशित व प्रतिकूल हो सकता है। प्राकृतिक आपदाएं बढ़ सकती हैं। जल संकट अधिक विकट हो सकता है। मौसम में बदलाव के साथ ऐसी कई समस्याएं पैदा हो सकती हैं जो पहले नहीं थीं। किसानों, पशुपालकों, घुमंतू समुदायों, वन-श्रमिकों आदि के लिए कुछ स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ सकती हैं।

अगला प्रश्न है कि इसके लिए कैसी तैयारी लगेगी? इसके लिए खेती-किसानी के खर्च को तेज़ी से कम किया जाए व किसान-समुदायों की आत्म-निर्भरता को तेज़ी से बढ़ाया जाए। यदि किसान रासायनिक खाद, कीटनाशकों आदि पर निर्भरता कम कर लें और विविधता भरे परंपरागत बीजों को संजो लें तो खर्च बहुत कम हो जाएगा, कर्ज़ घटेगा व विपरीत स्थिति का सामना करने में वे अधिक समर्थ हो जाएंगे। स्थानीय निशुल्क उपलब्ध संसाधनों (जैसे गोबर, पत्ती की खाद, स्थानीय पौधों या नीम जैसी वनस्पतियों से प्राप्त छिड़काव) से आत्म-निर्भरता बढ़ जाएगी। परांपरागत बीज संजोने व संग्रहण करने, उनकी जानकारी बढ़ाने, उन्हें आपस में बांटने से आत्म-निर्भरता आएगी, प्रतिकूल या बदले मौसम के अनुकूल बीज भी परंपरागत विविधता भरे बीजों में से मिल जाएंगे।

आपदा-प्रबंधन व कठिन समय में सहायता के लिए सरकारी बजट बढ़ाना चाहिए। जल व मिट्टी संरक्षण पर अधिक ध्यान देना चाहिए व यह कार्य लोगों की नज़दीकी भागीदारी से होना चाहिए। यह कार्य, हरियाली बढ़ाने व वन-रक्षा के कार्य बड़े पैमाने पर, विशेषकर भूमिहीन परिवारों को रोज़गार देते हुए, होने चाहिए ताकि सभी ग्रामीण परिवारों का आजीविका आधार मज़बूत हो सके। इसके अलावा भूमिहीन परिवारों के लिए न्यूनतम भूमि की व्यवस्था भी ज़रूरी है।

कृषि व सम्बंधित आजीविकाओं की मज़बूती के कार्य में विकेंद्रीकरण बढ़ाना चाहिए व गांव समुदायों, ग्राम सभाओं व ग्राम पंचायतों की क्षमता व संसाधनों में भरपूर वृद्धि होनी चाहिए ताकि उन्हें बाहरी मार्गदर्शन पर निर्भर न होना पड़े व बदलती स्थिति में स्थानीय ज़रूरतों के अनुकूल निर्णय वे स्वयं ले सकें। अति-केंद्रीकृत निर्णय ऊपर से लादने की प्रवृत्ति आज भी कठिनाइयां उत्पन्न करती है व जलवायु बदलाव के दौर में ये कठिनाइयां और बढ़ सकती हैं।

आदिवासी क्षेत्रों में यह और भी महत्त्वपूर्ण हैं। वन-रक्षा के प्रयासों में भी आदिवासियों व वनों के पास के समुदायों की भूमिका को तेज़ी से बढ़ाना चाहिए।

तीसरा सवाल यह है कि जलवायु बदलाव के संकट को कम करने में कृषि का योगदान कैसे व कितना हो सकता है। यह योगदान बहुत महत्वपूर्ण हो सकता है। मज़े की बात तो यह है कि जिन उपायों से कृषि को जलवायु बदलाव का सामना करने में मदद मिलेगी, कमोबेश वही उपाय ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने व इस तरह जलवायु बदलाव का संकट कम करने में भी मददगार हो सकते हैं। रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाइयों पर निर्भरता कम करने से किसानों के खर्च कम होंगे तो साथ में उनके उत्पादन, यातायात व उपयोग से जुड़ी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी कम होगा। यदि छोटे नदी-नालों व नहरों से पानी उठाने के लिए डीज़ल के स्थान पर मंगल टरबाईन का उपयोग होगा, तो इससे किसानों का खर्च भी कम होगा व ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन भी कम होगा। यदि चारागाह बचेंगे व हरियाली बढ़ेगी तथा मिट्टी संरक्षण के उपाय होंगे तो इससे किसानों की आजीविका बढ़ेगी पर साथ में इससे ग्रीनहाउस गैसों को सोखने की क्षमता भी बढ़ेगी।

अत: इस बारे में उचित समझ बनाते हुए परंपरागत ज्ञान व नई वैज्ञानिक जानकारी का समावेश करते हुए हमें ऐसी कृषि की ओर बढ़ना है जो किसान की टिकाऊ आजीविका को मज़बूत करे है, आत्म-निर्भरता को बढ़ाए, खर्च व कर्ज़ कम करे व साथ में ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन भी कम करे या उन्हें सोखने में मदद करे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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