नरों को युद्ध करने पर मज़बूर करती मादाएं – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

ब बेन्डेड नेवलों की दो सेनाएं आमने-सामने आती हैं तो उनके बीच वैसा ही युद्ध होता है जैसा मानव प्रतिद्वंद्वियों के बीच होता है। अक्सर विजेता समूह हारने वाले समूह के अड़ियल नेवलों को घेरकर खून से लथपथ कर देते हैं। जब नर युद्धरत होते हैं, एक मादा नेवला चुपके से अपने बच्चों के जीन में विविधता तथा जीवित रहने की संभावना बढ़ाने के लिए दुश्मन गुट में से अपना प्रजनन साथी तलाश लेती है।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस में प्रकाशित शोधपत्र के मुताबिक अफ्रीकी बेन्डेड नेवलों (मंगोस मंगो) के गुटों में आपसी संघर्ष आम घटना है। परंतु आश्चर्यजनक बात तो यह है कि इन लड़ाइयों के पीछे एक मादा नेवला होती है। नेवलों के इस झगड़े में हमेशा मादा के दोनों हाथों में लड्डू होते हैं। एक तो नरों के कत्लेआम के चलते उनकी आबादी संतुलित रहती है। दूसरा, मादा को दुश्मन गुट के बहादुर नरों से प्रजनन करके बेहतर जीन्स प्राप्ति का फायदा मिलता है।

उपरोक्त नतीजे युगांडा के क्वीन एलिज़ाबेथ नेशनल पार्क में 20 वर्षों के अध्ययन से मिले हैं। सवाना में पाए जाने वाले बेन्डेड नेवले औसतन 20-20 सदस्यों के समूहों में रहते हैं जिनमें नर, मादा एवं बच्चे सम्मिलित होते हैं। इनका आवास भूमिगत सुरंगों में होता है जिसके बहुत से द्वार होते हैं। ये अपने मूल गुट में बने रहते हैं। निष्कासन अथवा सदस्यों की अधिक संख्या के कारण समूह के कुछ सदस्य नए गुट बनाते हैं। मूल गुट के साथ बने रहने से सदस्यों की सुरक्षा तो होती है किंतु एक ही समूह में प्रजनन होने के कारण आनुवंशिक विविधता की हानि होती है। ऐसे में गुट की मादाएं प्रजनन के लिए दूसरे गुटों के नरों की ओर आकर्षित होती हैं। अपनी प्रजाति और संतति के अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिए मादा अक्सर प्रतिद्वंद्वी समूहों के उपयुक्त नरों से प्रजनन करने के लिए अपने समूह के नरों को दूसरों के इलाके में ले जाकर युद्ध शुरू करवा देती है।

जब कोई मादा नेवला प्रजननशील होती है तो गुट के चौकीदार उसकी चौबीसों घंटे सुरक्षा करते हैं और गुट का प्रमुख नर ही उससे प्रजनन करता है। चौकीदारों की उपस्थिति में मादा का बाहरी गुट के नरों से प्रजनन करना असंभव होता है। ऐसी परिस्थितियों में चौकीदार नरों को दुश्मन गुट के इलाके में ले जाकर मादा उन्हें युद्ध में झोंक देती है। वैज्ञानिकों ने पाया कि प्रजननशील मादाएं गुट के फैसलों को नरों की तुलना में अधिक प्रभावित करती हैं। मादा के नरों के साथ इस अनुचित व्यवहार को वैज्ञानिक ‘शोषणमूलक नेतृत्व’ कहते हैं, जहां मादा को शायद ही कभी नुकसान होता है और कई बार बहुत सारे नर मारे जाते हैं। वयस्क नरों में से 10 प्रतिशत की मृत्यु अक्सर इसी प्रकार होती है। जैव विकास के नज़रिए से मादा की करतूत उचित लगती है। वैज्ञानिकों का आकलन है कि गुट के बाहर के नरों से उत्पन्न बच्चों के जीवित रहने की संभावना समूह के नरों से उत्पन्न बच्चों से अधिक होती है। अन्य किसी सामाजिक स्तनधारी में ऐसी घटना नहीं देखी गई है। प्लिस्टोसिन तथा होलोसिन युग के प्रारंभ में मानव की शिकारी आबादी में भी ‘शोषणमूलक नेतृत्व’ के कारण गुटीय युद्धों के दौरान 14-18 प्रतिशत नर मारे जाते थे। क्या अफ्रीकी बेन्डेड नेवले के समान मनुष्यों में भी शीर्ष नेतृत्व, बाकी समुदाय को युद्ध में भेजकर खुद सुरक्षित व फायदे में नहीं बना रहता?(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या व्हेल नौकाओं पर हमला करती हैं?

पिछले दिनों स्पेन और पुर्तगाल के तटों पर किलर व्हेल द्वारा नौकाओं पर हमले की लगभग 40 घटनाएं रिपोर्ट हुई हैं। एक घटना में पुर्तगाल तट से 30 कि.मी. दूर नाविकों की शुरुआती जिज्ञासा तब डर में बदल गई जब किलर व्हेल लगभग 2 घंटों तक उनकी 45 फीट लंबी नौका के पेंदे में ज़ोरदार टक्कर मारती रहीं। किशोर व्हेल सबसे अधिक सक्रिय थीं। और लगता था कि वे जान-बूझकर नौकाओं पर हमला कर रही हैं। 

इस वर्ष जुलाई से अक्टूबर के दौरान स्पेन और पुर्तगाल के तटों पर इन जीवों द्वारा नौकाओं पर हमला करने के कई मामले सामने आए हैं। फॉरेंसिक समुद्र वैज्ञानिक अभी भी इन जटिल, बुद्धिमान और अत्यधिक सामाजिक समुद्री स्तनधारियों (तथाकथित ‘दुष्ट किलर व्हेल’) के इस व्यवहार को समझने की कोशिश कर रहे हैं।

अटलांटिक में किलर व्हेल का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। ये हज़ारों वर्षों से पुर्तगाल और स्पेन से सैकड़ों किलोमीटर के तट पर प्रवास करती ब्लूफिन ट्यूना मछलियों का शिकार करती हैं। लेकिन जब से मनुष्यों ने ब्लूफिन ट्यूना का शिकार करना शुरू किया है तब से किलर व्हेल्स के साथ हमारे सम्बंध काफी तनावपूर्ण हो गए हैं। स्पैनिश संरक्षण संगठन के अनुसार मनुष्यों द्वारा ब्लूफिन ट्यूना के शिकार के कारण 2011 में किलर व्हेल की संख्या घटकर 39 रह गई थी। लेकिन 2010 में अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण के बाद से वार्षिक कैच में कमी के बाद से जैसे ही ब्लूफिन ट्यूना की संख्या में वृद्धि हुई वैसे ही किलर व्हेल की संख्या भी बढ़कर 60 हो गई। फिर भी यह विलुप्तप्राय प्रजाति की श्रेणी में है।

सितंबर माह से शोधकर्ताओं ने कुछ तथ्य जुटाने का प्रयास शुरू किया। उन्होंने इन जीवों की पहचान करने के लिए संरक्षण संगठन द्वारा ली गई तस्वीरों का उपयोग किया। गौरतलब है कि प्रत्येक किलर व्हेल के पृष्ठीय पंख के पीछे एक विशिष्ट मटमैला पैच होता है जो फिंगरप्रिंट के रूप में काम करता है। इन तस्वीरों और वीडियो से अधिकांश घटनाओं में तीन युवा किलर व्हेल – ब्लैक ग्लैडिस, वाइट ग्लैडिस और ग्रे ग्लैडिस – को अधिक सक्रिय पाया गया। आम तौर पर किलर व्हेल (Orcinus orca) अपने परिवार के साथ काफी निकटता से जुड़े होते हैं। ये परिवार मातृ-प्रधान होते हैं और कई की अपनी बोली होती है। हालांकि अब तक के अध्ययन से शोधकर्ता यह नहीं बता पाए हैं कि ये तीन किस परिवार से सम्बंधित हैं। शोधकर्ताओं ने यह भी देखा है कि वाइट ग्लैडिस के सिर पर गंभीर चोट है जो शायद नौका की पतवारों को टक्कर मारने के कारण हो सकती है। ऐसी खबरें आते ही सोशल मीडिया पर कहा जाने लगा कि ये किलर व्हेल ‘बदले की कार्रवाई’ कर रही हैं। अलबत्ता, वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि यह किलर व्हेल्स का एक खेल है जिसमें वे नौकाओं को टक्कर मारती हैं।

व्हेल सैंक्चुअरी प्रोजेक्ट की प्रमुख और तंत्रिका वैज्ञानिक लोरी मरीनो और उनके सहयोगियों ने वर्ष 2004 में एक मृत किलर व्हेल के मस्तिष्क का अध्ययन किया था। लोरी बताती हैं कि हम अक्सर प्रजातियों के व्यवहार को अच्छे या बुरे, आक्रामक या चंचल जैसी सरल श्रेणियों में रखने का प्रयास करते हैं जो उनको समझने का गलत तरीका है। हम इन घटनाओं का विवरण देने के लिए जिस भाषा का इस्तेमाल करते हैं वही घटना को रंगत देती है। लोरी और उनकी टीम इन घटनाओं को हमला नहीं बल्कि अंतर्क्रिया का नाम देते हैं।

समुद्र वैज्ञानिक रेनॉड स्टेफैनिस कुछ अलग तरह के व्यवहारों का संकेत देते हैं। अपनी नौका में जाते समय वे बताते हैं कि एक किशोर किलर व्हेल उनकी नौका का ऐसे पीछा कर रहा था जैसे वह उसे अपने जैसा कोई जीव समझ रहा हो। ऐसा करते हुए वो अपने चेहरे को नौका के प्रोपेलर में धकेल रहा था। ऐसे व्यवहार का कारण जो भी हो लेकिन यह चिंता का विषय तो है क्योंकि यह स्वयं किलर व्हेल्स के लिए और मछुआरों के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। रेनॉड का एक अंदाज़ा यह भी है कि ऐसी घटनाओं से इन जीवों का मछुआरों से सीधे संघर्ष भी हो सकता है क्योंकि मछुआरों को ये अपनी रोज़ी-रोटी और जान दोनों के लिए खतरा नज़र आएंगे। यह स्थिति वास्तव में ऐसी कई जगहों पर देखी जा सकती है जहां मनुष्य तेंदुओं, बाघों या भेड़ियों जैसे जीवों को अपने करीब होने पर मार देते हैं। यदि इस तरह की घटनाएं होती रहीं तो मनुष्य किलर व्हेल को भी अपने लिए जानलेवा मानते हुए उनकी जान ले सकते हैं।

अंत में यह एक ऐसी जैविक पहेली है जिसको हल करना काफी महत्वपूर्ण है। रेनॉड अभी भी किलर व्हेल द्वारा बदला लेने की भावना के आम विचार को खारिज करते हैं। वे दशकों के अनुसंधान का हवाला देते हुए कहते हैं की यह एक सांस्कृतिक बदलाव का हिस्सा हो सकता है जो वास्तव में जीवों को जीवित रहने में मदद करता है। उदाहरण के रूप में वे बताते हैं कि एक समय पर कुछ किलर व्हेल्स ने नौकाओं से ट्यूना चुराने का हुनर हासिल कर लिया था और ऐसे किलर व्हेल परिवारों की संख्या काफी बढ़ गई थी। उनके पास कोई प्रमाण तो नहीं है, लेकिन हो सकता है कि उक्त ग्लैडिस उसी कुल के सदस्य हों।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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तंबाकू उद्योग की राह पर वैपिंग उद्योग

धूम्रपान से होने वाले नुकसान तो आज जगज़ाहिर हैं। भले ही अब टीवी-अखबारों या अन्यत्र आपको कहीं धूम्रपान को बढ़ावा देने वाले विज्ञापन देखने ना मिलें, लेकिन एक समय था जब सिगरेट कंपनियों और तंबाकू उद्योग ने सिगरेट का खूब प्रचार किया। विज्ञापनों में सिगरेट पीने वाले को खुशमिज़ाज, बहादुर और स्वस्थ व्यक्ति की तरह पेश किया गया और धूम्रपान को बढ़ावा दिया गया। और अब, इसी राह पर वैपिंग उद्योग चल रहा है। वैपिंग उद्योग की रणनीति को समझने के लिए हमें तंबाकू उद्योग का इतिहास समझने की ज़रूरत है।

वैपिंग या ई-सिगरेट एक बैटरी-चालित उपकरण है, जिसमें निकोटिन या अन्य रसायनयुक्त तरल (ई-लिक्विड या ई-जूस) भरा जाता है। बैटरी इस तरल को गर्म करती है जिससे एरोसोल बनता है। यह एरोसोल सिगरेट के धुएं की तरह पीया जाता है। बाज़ार में ई-सिगरेट के कई स्वाद और विभिन्न तरल रसायनों के विकल्प उपलब्ध हैं।

1950 के दशक में बड़े तंबाकू उद्योग का काफी बोलबाला था। उस समय तंबाकू उद्योग ने सिगरेट को ना सिर्फ मौज-मस्ती के लिए पी जाने वाली वस्तु बनाकर पेश किया बल्कि इसे विज्ञान की वैधता देने की भी कोशिश की। धीरे-धीरे शोध में यह सामने आने लगा कि धूम्रपान सेहत के लिए हानिकारक है। यह फेफड़ों के कैंसर, ह्रदय सम्बंधी तकलीफों व कई अन्य समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार है।

लेकिन तंबाकू उद्योग ने स्वास्थ्य सम्बंधी इन खतरों को नकारना शुरू कर दिया। तंबाकू उद्योग ने इन अनुसंधानों को ही कटघरे में खड़ा कर दिया और कहा कि सिगरेट को हानिकारक बताने वाले कोई साक्ष्य मौजूद नहीं हैं। इससे भी एक कदम आगे जाकर तंबाकू उद्योग ने अनुसंधानों के लिए पैसा देना शुरू कर दिया, और ऐसे अनुसंधानो को बढ़ावा दिया जो धूम्रपान के हानिकारक असर को लेकर अनिश्चितता बनाए रखते थे। शोध में यह भी दर्शाया गया कि धूम्रपान स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालता। उद्योग के इस रवैये से धूम्रपान के नियमन में देरी हुई। नतीजा एक महामारी के रूप में हमारे सामने है।

और अब ई-सिगरेट विज्ञान के लिए चुनौती बना हुआ है। कई सालों से ई-सिगरेट को सिगरेट छोड़ने में मददगार और सुरक्षित कहकर, सिगरेट के विकल्प की तरह पेश किया जा रहा है। धीरे-धीरे वैपिंग उद्योग ई-सिगरेट को मज़े, फैशन और स्टाइल का प्रतीक बनाता जा रहा है और इसके उपयोग को बढ़ावा दे रहा है। अमेरिका व कई अन्य देशों में सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों से वैपिंग किशोरों और यहां तक कि मिडिल स्कूल के बच्चों के बीच लोकप्रिय होती जा रही है। वैपिंग उद्योग दो तरह से फैल रहा है: एक तो किशोर उम्र के बच्चे इसके आदी होते जा रहे हैं, और दूसरा, जिन लोगों ने सिगरेट छोड़ दी थी वे अब ई-सिगरेट लेने लगे हैं।

शोध बताते हैं कि ई-सिगरेट के स्वास्थ्य पर लगभग वैसे ही दुष्प्रभाव होते हैं जैसे सिगरेट के होते हैं। अधिकतर ई-सिगरेट में निकोटिन होता है जो ह्रदय सम्बंधी समस्याओं को तो जन्म देता ही है, साथ ही किशोरों के मस्तिष्क विकास को भी प्रभावित करता है। इसके अलावा ई-सिगरेट के अन्य दुष्प्रभाव भी हैं। जैसे कुछ ब्रांड इसमें फार्मेल्डिहाइड का उपयोग करते हैं जो एक कैंसरकारी रसायन है, यानी फेफड़ों के कैंसर की संभावना भी बनी हुई है। वहीं एक शोध में पता चला है कि सिगरेट की लत छोड़ने से भी अधिक मुश्किल ई-सिगरेट की लत छोड़ना है। और, हाल ही में हुए एक शोध में संभावना जताई गई है कि ई-सिगरेट पीने वालों में फेफड़ों की क्षति के चलते कोविड-19 अधिक गंभीर रूप ले सकता है।

लेकिन वैपिंग उद्योग तंबाकू उद्योग के ही नक्श-ए-कदम पर चल रहा है। यह इन दुष्प्रभावों को झुठलाने की कोशिश कर रहा है। इसी प्रयास में इसने अपना एक शोध संस्थान भी स्थापित कर लिया है। वैपिंग उद्योग शोधकर्ताओं को अपने यहां शोध करने का आमंत्रण देकर अपने उत्पाद को वैध साबित करना चाहते हैं। और ई-सिगरेट पीने वालों में आलम यह है कि वे वैपिंग के दुष्प्रभाव बताने वाले शोधों के खिलाफ और वैपिंग के पक्ष में प्रदर्शन करते हैं।

युनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलिना में हेल्थ बिहेवियर के एसोसिएट प्रोफेसर समीर सोनेजी कहते हैं कि चिंता का विषय यह है कि फायदे-नुकसान की इस बेमतलब बहस में ई-सिगरेट के नियमन में देरी हो रही है और इस देरी के आगे गंभीर परिणाम हो सकते हैं। बहरहाल, भारत समेत कुछ देशों ने इसके उपयोग और व्यापार पर कुछ प्रतिबंध तो लगाया है।(स्रोत फीचर्स)

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क्यों कुछ सब्ज़ियां गले में खुजली पैदा करती हैं? – जितेश शेल्के एवं कालू राम शर्मा

ठंड के साथ ही मालवा में गराड़ू (Dioscoreaalata) मिलने लगते हैं। गराड़ू बहुत स्वादिष्ट होता है। इसका छिलका निकालकर तेल में तलकर, बस थोड़ा-सा नींबू निचोड़ो और नमक व मसाला बुरबुराओ। तैयार हो गई डिश! लेकिन गराड़ू को तलने के पहले छीलना व काटना एक झंझट भरा काम होता है। गराड़ू काटते हैं तो हाथों में खुजली होती है। लगता है मानो कुछ चुभन सी हो रही हो। मामला हाथों तक ही सीमित नहीं! अगर तलने में कच्चा रह जाए तो गराड़ू गले में भी खुजली मचाता है। कच्चा खाने का तो सवाल ही नहीं उठता।

सिर्फ गराड़ू ही नहीं अरबी के पत्ते व इसके कंद की सब्जी भी अगर कच्ची रह जाए तो गले में चुभती है। तो आखिर इनमें वह क्या चीज़ है जो चुभन व खुजली पैदा करती है।

इस सवाल का जवाब खोजने के लिए हमने अरबी के पत्ते के एक टुकड़े को अच्छे से मसलकर उसके रस को स्लाइड पर फैलाकर सूक्ष्मदर्शी में देखा। स्लाइड में सुई जैसी रचनाएं स्पष्ट दिखाई दीं। ये महीन सुइयां कोशिकाओं में गट्ठर के रूप में जमी होती हैं। चुभन का एहसास इन्हीं की वजह से होता है।

जब हम गराड़ू काटते हैं या उसका छिलका उतारते हैं तो ये सूक्ष्म सुइयां हमें चुभ जाती है और खुजली मचाती है। वैसे गराड़ू को काटने के पहले कई लोग हाथों में तेल लगा लेते हैं। ऐसा ही कुछ अरबी के मामले में भी होता है।

सूक्ष्मदर्शी में कुछ ऐसीं दिखती हैं सुइया यानी रैफाइड्स

मालवा के लोग इस बात से परिचित हैं कि गराड़ू और नींबू का चोली दामन का साथ है। नींबू जहां अपने खट्टेपन से स्वाद को बढ़ाता है वहीं चुभन व जलन से भी निजात दिलाता है। तो फिर से सवाल उठता है कि क्या नींबू मिलाने से वे सुइयां गायब हो जाती हैं? इस सवाल पर हम आगे बात करेंगे। लेकिन पहले हम यह समझ लेते हैं कि आखिर ये सुइयां क्या है?

ये सुइयां कैल्शियम ऑक्ज़लेट की बनी होती हैं। ये सुइयां जिन कोशिकाओं के अंदर होती है उन्हें इडियोब्लास्ट कोशिकाएं कहा जाता है। यह तो हम जानते हैं कि कोशिकाओं में कोशिकांग होते हैं। कोशिकाएं अपने सामान्य कामकाज के दौरान कई पदार्थों का निर्माण करती हैं। ये पदार्थ कोशिकाओं में एक खास आकृति में जमा हो जाते हैं। इन पदार्थों को कोशिका समावेशन (सेल इंक्लूज़न) कहा जाता है। यानी कोशिका में निर्जीव पदार्थों का समावेशन। जैसे आलू में स्टार्च के कण, नागफनी और अकाव में सितारे के आकार के कैल्शियम ऑक्ज़लेट के कण इत्यादि।

यह बताना प्रासंगिक होगा कि पौधों में कैल्शियम ऑक्ज़लेट के क्रिस्टल कई आकृतियों में पाए जाते हैं। जैसे, सुई के आकार में (रैफाइड), घनाकार (स्टायलॉइड्स), प्रिज़्म के आकार में, गदा के आकार में।

रैफाइड कैल्शियम ऑक्ज़लेट के सुई के आकार के क्रिस्टल होते हैं जो कुछ वनस्पति प्रजातियों के पत्तों, जड़ों, अंकुरों, फलों के ऊतकों में मौजूद होते हैं। ये किवी फ्रूट, अनानास, यैम या जिमीकंद और अंगूर सहित कई प्रजातियों के पौधों में पाए जाते हैं। यह देखा गया है कि रैफाइड आम तौर पर एकबीजपत्री वनस्पति कुलों में पाए जाते हैं और कुछेक द्विबीजपत्री कुलों में देखे गए हैं।

रैफाइड के व्यापक वितरण व विशिष्ट मौजूदगी के बावजूद इनकी प्राथमिक भूमिका को लंबे वक्त तक नहीं समझा गया था। कैल्शियम के नियमन, पौधों की शाकाहारियों से सुरक्षा जैसी बातें कही गई हैं। शाकाहारी जंतुओं से सुरक्षा के मामले में एक पुराना अवलोकन है। पहली बार एक जर्मन वैज्ञानिक अर्न्स्ट स्टॉल ने देखा था कि घोंघे उन पौधों को अपना आहार नहीं बनाते जिनमें रैफाइड होते हैं। उन्होंने यह भी देखा कि अगर उन पौधों की पत्तियों को मसलकर उसमें थोड़ा अम्ल डाल दिया जाए तो फिर घोंघे उसे अच्छे से खाते हैं। इसका अर्थ यह है कि अम्ल की कैल्शियम ऑक्ज़लेट से रासायनिक क्रिया से सुइयां गल जाती है। अब स्पष्ट हो गया होगा कि नींबू क्या करता है।

दरअसल, रैफाइड शाकाहारी जीव के खिलाफ पौधों की रक्षात्मक रणनीति है। पौधे अपने को बचाने के लिए कई तरीके अपनाते हैं। कहीं कांटे तो कहीं द्वितीयक उपापचय पदार्थ होते हैं। रैफाइड ऊतकों और कोशिका झिल्लियों में छेद करने का काम करते हैं। इसे सुई प्रभाव (निडिल इफेक्ट) कहा जाता है। यह देखा गया है कि जिन पौधों में रैफाइड मिलते हैं उनमें प्रोटीएज़ एंज़ाइम पाए जाते हैं। इन प्रोटीएज़ व रैफाइड की जुगलबंदी का ही कमाल है कि इनको काटने व खाने के दौरान चुभन व जलन होती है।

एक शोध में रैफाइड व प्रोटीएज़ के प्रभाव को देखने की कोशिश की गई। वैज्ञानिकों ने रैफाइड वाले किवी फ्रूट (एक्टिनिडिया डेलिसिओसा) से रैफाइड प्राप्त किए। सबसे पहले केवल रैफाइड का लेपन अरंडी की पत्ती पर किया और उस पर लार्वा को छोड़ा। इस स्थिति में लार्वा पर कोई प्रभाव नहीं दिखा और सभी लार्वा ज़िंदा रहे। जब रैफाइड सुइयों को अरंडी की पत्ती पर अधिक सांद्रता के साथ लेपन किया गया तो भी लार्वा पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं देखा गया। इसका अर्थ यह है कि केवल रैफाइड सुई की कोई भूमिका नहीं है।

फिर जब अरंडी की पत्ती पर केवल सिस्टाइन प्रोटीएज़ का लेपन किया गया तब भी लार्वा पर कोई असर नहीं हुआ। लेकिन जब अरंडी की पत्ती पर रैफाइड और सिस्टाइन प्रोटीएज़ दोनों का लेपन किया तो 69 फीसदी लार्वा का शरीर काला पड़ गया व लगभग दो घंटे में मर गए। नतीजों में यह भी पाया गया कि जब बहुत थोड़े रैफाइड के साथ सिस्टाइन प्रोटीएज़ की मात्रा को बढ़ाया गया तो विषाक्तता 16-32 गुना बढ़ गई।

बेशक, रैफाइड सुई का काम कोशिकाओं को पंचर करने का होता है। जब कैल्शियम ऑक्ज़लेट की सुइयों की बजाय अक्रिस्टलीय कैल्शियम ऑक्ज़लेट व साथ में सिस्टाइन प्रोटीएज़ का लेपन किया गया, तो भी लार्वा पर कोई असर नहीं हुआ। इससे साबित होता है कि कैल्शियम ऑक्ज़लेट से बनी सुई की भूमिका अहम है, न कि कैल्शियम ऑक्ज़लेट की। यह भी देखा गया है कि काइटिन पचाने वाले प्रोटीएज़ एंज़ाइम के साथ भी रैफाइड इसी प्रकार का व्यवहार प्रदर्शित करते हैं।

एक अनुभव और। घर के आंगन में डफनबेकिया का एक सजावटी पौधा गमले में लगा था। गमले में गुलाब, चांदनी जैसे और भी पौधे थे। अगर घर का गेट खुला रह जाता तो गमले के पौधों को बकरियां चट कर जाती। लेकिन वे डफनबेकिया के पौधे को नहीं खाती थीं। खोजबीन करने पर पता चला कि डफनबेकिया के पौधे की पत्तियों में भी रैफाइड सुइयां होती हैं।

कुल मिलाकर रैफाइड और प्रोटीएज़ की जुगलबंदी कुछ पौधों की रक्षा प्रणाली है। इसकी प्रबल संभावनाएं हैं कि रैफाइड और रक्षात्मक प्रोटीएज़ के बीच तालमेल से फसलों की कीट-प्रतिरोधी किस्मों के विकास में मदद मिल सकती है।(स्रोत फीचर्स)

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हरित पटाखे, पर्यावरण और स्वास्थ्य – सुदर्शन सोलंकी

दिवाली आई और निकल गई। कुछ राज्यों में पटाखों पर प्रतिबंध लगाए गए थे लेकिन कुछ राज्यों में समय-सीमा के अलावा और कोई रोक नहीं थी। वैसे तो इस बार दिवाली पर पटाखों का शोर पिछले सालों की अपेक्षा कम था और कुछ लोग शायद खुद को शाबाशी दे रहे होंगे कि उन्होंने हरित पटाखे जलाकर अपना पर्यावरणीय कर्तव्य पूरा किया। यह आलेख हरित पटाखों समेत पूरे मामले की पड़ताल करता है।

रित पटाखे राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) की खोज हैं, जो वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंघान परिषद (सीएसआईआर) के अंतर्गत आता है। हरित पटाखे दिखने, जलाने और आवाज़ में सामान्य पटाखों की तरह ही होते हैं पर इनके जलने से प्रदूषण कम होता है। इनमें विभिन्न रासायनिक तत्वों की मौजूदगी और हानिकारक गैसों वाले धुएं का कम उत्सर्जन करने वाले तत्वों का इस्तेमाल किया गया है। इनको जलाने से हवा दूषित करने वाले महीन कणों (पीएम) की मात्रा में 25 से 30 प्रतिशत और पोटेशियम तत्वों के उत्सर्जन में 50 प्रतिशत तक की कमी का अनुमान है।

परंतु पर्यावरणविदों ने इन पटाखों के अधिक उपयोग को भी खतरनाक माना है। लोगों में हरित पटाखों को लेकर कई भ्रम हैं। लोग समझते हैं कि ये पूरी तरह प्रदूषण मुक्त हैं। इसलिए लोगों को जागरूक करने की आवश्यकता है क्योंकि अगर लोग इन्हें हरित समझकर अधिक जलाते हैं तो निश्चित ही त्यौहारों के बाद में प्रदूषण का स्तर बढ़ेगा।

प्रदूषण कम करने, विषैले रसायन और ध्वनि प्रदूषण को कम करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने हरित पटाखों के इस्तेमाल के निर्देश दिए थे। अब शिवकाशी ने खुद को ऐसे पटाखों के लिए तैयार कर लिया है। जिस केमिकल को प्रतिबंधित किया गया है, उसका हरित विकल्प पोटेशियम परआयोडेट 400 गुना महंगा है। इसी वजह से हरित पटाखे काफी महंगे होते हैं।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के अनुसार सरकार को सभी परिवारों के पटाखे खरीदने की एक सीमा निर्धारित करनी चाहिए, जिससे लोग एक तय सीमा से अधिक इन पटाखों का इस्तेमाल ना कर सकें। लोग समूहों में पटाखे जलाएं जिससे कम से कम पटाखों में सबका जश्न हो सके। अधिकांश त्यौहारों में पटाखे जलाकर जश्न मनाया जाता है किंतु बढ़ते प्रदूषण स्तर के चलते इनके उपयोग को सीमित रखना बेहद आवश्यक है।

बड़े त्यौहारों पर व्यापक आतिशबाज़ी से बड़ी मात्रा में हानिकारक गैसें और विषाक्त पदार्थ वायुमंडल में पहुंचते हैं। परिणामस्वरूप, वायु प्रदूषित हो जाती है जो हमारे स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक है। हाल ही के अध्ययन में दिल्ली और गुवाहाटी के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों के शोधकर्ताओं ने दीपावली के दौरान पटाखों से होने वाले अत्यधिक वायु और ध्वनि प्रदूषण और स्वास्थ्य पर उनके प्रभाव का अध्ययन जर्नल ऑफ हेल्थ एंड पॉल्युशन में प्रकाशित किया है।

शोधकर्ताओं ने वर्ष 2015 में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गुवाहाटी परिसर में दीपावली के त्यौहार के दौरान हवा की गुणवत्ता और शोर के स्तर का अध्ययन किया था। उन्होंने 10 माइक्रोमीटर या व्यास में उससे छोटे, हवा में तैरते कणों (पीएम-10) के घनत्व को मापा और शोर के स्तर को भी। उन्होंने दीपावली में 10 दिनों की अवधि के दौरान पीएम-10 में मौजूद धातुओं (जैसे कैडमियम, कोबाल्ट, लोहा, जस्ता और निकल) तथा आयनों (जैसे कैल्शियम, अमोनियम, सोडियम, पोटेशियम, क्लोराइड, नाइट्रेट और सल्फेट) की सांद्रता को नापा।

स्वास्थ्य पर इनके प्रभाव का अनुमान लगाने के लिए, शोधकर्ताओं ने उस अवधि के दौरान संस्थान के अस्पताल में जाने वाले रोगियों के स्वास्थ्य का सर्वेक्षण भी किया। इस अध्ययन में प्रदूषकों के स्तर में वृद्धि देखी गई। शोधकर्ताओं के अनुसार दीपावली के दौरान पीएम-10 की सांद्रता अन्य समय की तुलना में 81 प्रतिशत अधिक थी, और धातुओं एवं आयनों की सांद्रता में भी 65 प्रतिशत की वृद्धि पाई गई। शोर का स्तर भी अधिक था। हालांकि शोधकर्ताओं ने पाया कि अन्य दिनों की तुलना में दीपावली के दौरान पीएम-10 में बैक्टीरिया की सांद्रता 39 प्रतिशत कम थी। सीसा, लोहा, जस्ता जैसी भारी धातुओं की उपस्थिति इसका कारण हो सकती है।

डब्लूएचओ ने सिफारिश की है कि पीएम-2.5 का वार्षिक औसत घनत्व 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से कम होना चाहिए, लेकिन भारत और चीन के शहरी क्षेत्रों में इसका स्तर छह गुना ज़्यादा (क्रमश: 66 और 59 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट से पता चला है कि वायु की गुणवत्ता के मामले में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में भारत और चीन हैं। पीएम-2.5 घनत्व में बीजिंग और नई दिल्ली दोनों ही शहर शामिल है। किंतु बीजिंग ने इसमें सुधार किया है।

वायु में अन्य गैसें और बगैर जले कार्बन कण मिश्रित होकर स्वास्थ्य के लिए अत्यंत घातक बन जाते हैं। सूक्ष्म कण (पीएम-2.5) मानव स्वास्थ्य के लिए अत्यंत खतरनाक माने जाते हैं क्योंकि ये फेफड़ों में काफी अंदर तक चले जाते हैं, और इनसे फेफड़ों का कैंसर भी हो सकता है। वर्ष 2015 में पीएम-2.5 के कारण विश्व भर में 42 लाख से भी अधिक लोगों की मृत्यु हुई थी। इनमें से 58 प्रतिशत मौतें भारत और चीन में हुर्इं। ग्लोबल बर्डन ऑफ डिसीज़ेस नामक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 1990 से लेकर अब तक चीन में पीएम-2.5 के कारण असमय मौतों में 17 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। भारत में यह आंकड़ा तीन गुना अधिक है। पटाखों के अत्यधिक उपयोग से छोटी-सी अवधि में ही हवा की गुणवत्ता खराब हो जाती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक बच्चा-चोर जंतु: नैकेड मोल रैट – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

पूर्वी अफ्रीका के शुष्क घास के मैदानों के नीचे भूल-भूलैया जैसी सुरंगों में एक प्रकार की बदसूरत छछूंदर, नैकेड मोल रैट(Heterocephalusglaber) पाई जाती है। त्वचा पर बाल नहीं होते, इसलिए इन्हें नग्न मोल रैट कहते हैं। अधिकांश कृंतकों के विपरीत ये सामाजिक होती हैं। इनके समूहों में सदस्यों की संख्या 300 तक हो जाती है। पूरे समुदाय में केवल एक प्रजननशील जोड़ा रहता है और शेष सभी मज़दूर होते हैं।

हाल ही के शोध में पाया गया है कि चींटी और दीमकों के समान ही यह मोल रैट भी भोजन की उपलब्धता और इलाके में विस्तार करने के लिए आसपास मौजूद अन्य मोल रैट कॉलोनियों पर आक्रमण करते हैं और उनके बच्चों को चुराकर अपने समूह के मज़दूरों की संख्या में वृद्धि करते हैं। इनके इस व्यवहार से छोटी एवं कम एकजुटता वाली मोल रैट कॉलोनियां सिकुड़ती हैं और आक्रामक कॉलोनियों का विस्तार होता जाता है।

कीन्या के मेरु राष्ट्रीय उद्यान में शोध टीम को उपरोक्त व्यवहार नैकेड मोल रैट की गतिविधियों के अध्ययन के दौरान संयोगवश देखने को मिला।

एक दशक से चल रहे शोध में शोधकर्ताओं ने इनकी गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए दर्जनों कॉलोनियों से मोल रैट पकड़-पकड़कर उनकी त्वचा के नीचे एक बहुत छोटी रेडियो फ्रिक्वेन्सी ट्रांसपॉन्डर चिप लगा दी थी। नई कॉलोनी के सदस्यों में चिप लगाने के दौरान शोधकर्ताओं को वहां पड़ोसी कालोनी के वे सदस्य दिखाई दिए जिन पर वे पहले ही चिप लगा चुके थे। आगे खोजबीन करने पर ज्ञात हुआ कि नई कॉलोनी की रानी के चेहरे पर युद्ध के दौरान बने घाव थे। शोध से जुड़े सेन्ट लुईस की वाशिंगटन युनिवर्सिटी के स्टेन ब्राउडे के लिए यह बात आश्चर्यजनक और नई थी क्योंकि इनकी कॉलोनियों के बीच प्रतिस्पर्धा की कोई बात ज्ञात ही नहीं थी बल्कि उन्हें तो आपसी सहयोग की भावना से रहने वाले जीव ही माना जाता था। ब्राउडे और उनके साथियों ने शोध के दौरान पाया कि 26 कॉलोनियों ने अपनी सुरंग की सरहदों को विस्तार देकर पड़ोसी कॉलोनियों पर अधिकार जमा लिया है। आक्रमण के आधे मामलों में तो छोटी कॉलोनी के सभी मोल रैट बेदखल कर दिए गए थे तथा आधे मामलों में छोटी कॉलोनी के सदस्यों को सुरंगों के किनारों तक खदेड़ दिया गया था। इसी अध्ययन के दौरान वैज्ञानिकों को ऐसा लगा कि हमले के दौरान छोटी कॉलोनी के बच्चों को भी चुरा लिया गया है। परंतु तब उन्नत जेनेटिक तकनीक के अभाव में वंशावली ज्ञात कर पुख्ता तथ्य परखना कठिन था। लेकिन बाद के वर्षों में ज्ञात हुआ कि अन्य कॉलोनियों के बच्चे मज़दूर बनकर बड़ी कॉलोनी के अंग बन गए थे। वैज्ञानिकों ने इन पर निगाह रखी और इनके जेनेटिक विश्लेषण से ज्ञात हुआ कि ये दूसरी कॉलोनी के चुराए हुए बच्चे थे। इन छछूंदरों के सामाजिक जीवन के अध्ययन से वैज्ञानिक यह जान पाए हैं कि इनके लिए सुरंगें बहुत मूल्यवान होती है। सुरंगों को खोदने के दौरान ही ज़मीन में पाए जाने वाले कंद इनका आहार होते हैं। कॉलोनी में जितने ज़्यादा मज़दूर होंगे सुरंगें उतनी ही बड़ी होंगी और अधिक भोजन उपलब्ध करा पाएंगी। इसलिए ये आस-पड़ोस की कॉलोनियों पर आक्रमण करके वयस्क सदस्यों को बेदखल कर देते हैं और केवल निश्चित उम्र के बच्चों को ही चुरा कर अपने समूह में सम्मिलित कर लेते हैं जो बड़े होकर इनके लिए मज़दूरी कर सकें।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पराली जलाने की समस्या का कारगर समाधान – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

र साल, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में किसान कृषि अपशिष्ट, खासकर गेहूं की कटाई के बाद बची नरवाई (या पराली) जला देते हैं, जो पर्यावरण के लिए संकट बन जाता है। इसके चलते हवा में धुआं और महीन कण फैल जाते हैं और हवा सांस लेने के लिहाज़ से बेहद ज़हरीली हो जाती है। इन इलाकों के लोग ‘स्मॉग’ (धुआं और कोहरा) की समस्या का सामना करते हैं। स्मॉग के कारण हवा की गुणवत्ता सांस लेने के लायक नहीं बचती। दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों का वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) गंभीर स्तर तक, 400 के ऊपर, पहुंच जाता है। प्रसंगवश बता दें कि AQI का आकलन हवा में मौजूद कणीय प्रदूषण की मात्रा के अलावा ओज़ोन, नाइट्रोजन डाईऑक्साइड, सल्फर डाईऑक्साइड और कार्बन मोनोऑक्साइड की मात्रा के आधार पर किया जाता है। इन्हें सांस में लेना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। वायु गुणवत्ता सूचकांक जब 50 इकाई से कम हो तब सबसे अच्छा होता है; यह स्थिति मैसूर, कोच्चि, कोझीकोड और शिलांग में होती है। 51-100 के बीच यह मध्यम होता है जबकि 151-200 के बीच स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह होता है, यह स्तर इन दिनों हैदराबाद का है। 201-300 के बीच का स्तर स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होता है। 300-400 के बीच स्तर खतरनाक होता है और 400 से अधिक स्तर गंभीर स्थिति का द्योतक होता है, जो आजकल दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में है, जहां नरवाई या पराली जलाई जा रही है।

व्यावहारिक समाधान

दिल्ली सरकार ने हाल ही में दिल्ली स्थित पूसा भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के साथ मिलकर नरवाई या कृषि अपशिष्ट जलाने की इस समस्या से निपटने का एक व्यावहारिक समाधान निकाला है, जिसे पूसा डीकंपोज़र कहते हैं। पूसा डीकंपोज़र कुछ कैप्सूल्स हैं जिनमें आठ तरह के सूक्ष्मजीव (फफूंद) होते हैं। इनमें जैव पदार्थ को अपघटित करने के लिए ज़रूरी एंज़ाइम होते हैं। इन कैप्सूल्स को गुड़, बेसन मिले पानी में घोल दिया जाता है। कैप्सूल को पानी में घोलकर, तीन से चार दिनों तक किण्वित किया जाता है। इस तरह तैयार घोल का छिड़काव किसान खेत में बचे अपशिष्ट को विघटित करने के लिए कर सकते हैं। 25 लीटर घोल बनाने के लिए चार कैप्सूल पर्याप्त होते हैं। इतने घोल से एक हैक्टर क्षेत्र के फसल अपशिष्ट को सड़ाया जा सकता है और यह अपशिष्ट बढ़िया खाद बन जाता है।

पूसा डीकंपोज़र इस समस्या को हल करने में सफल रहा है, और देश भर में बड़े पैमाने पर इसके उपयोग का मार्ग प्रशस्त हुआ है। गौरव विवेक भटनागर ने दी वायर में इस समस्या और समाधान का विस्तृत विश्लेषण किया है।

गौरतलब है कि पूसा संस्थान ने कृषि अपशिष्ट के शीघ्र अपघटन के लिए पूसा डीकंपोजर में तकरीबन आठ तरह की फफूंद का उपयोग किया है। डा कोस्टा और उनके साथियों द्वारा मार्च 2018 में एप्लाइड एंड एनवायरनमेंटल माइक्रोबायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट बताती है कि दीमकों में कृषि अपशिष्ट के विघटन में फफूंद की तीन प्रजातियों के एंज़ाइम्स की भूमिका होती है। इसलिए इस कार्य के लिए आवश्यक फंफूद दीमक से प्राप्त की जाती है। दीमक खुद फसलों की भारी बर्बादी करती हैं। तो बेहतर यही होगा कि दीमकों से उन फफूंदों को अलग कर लो जो कृषि अपशिष्ट को विघटित करने के लिए आवश्यक एंज़ाइम बनाती हैं। इसी विचार के आधार पर संस्थान ने पूसा डीकंपोज़र फार्मूला तैयार किया है और इसने बखूबी काम भी किया है।

प्रसंगवश यह जानना दिलचस्प होगा कि पूसा डीकंपोज़र से हुई खाद्यान्न उपज जैविक खेती के समान हैं। क्योंकि ना तो इसमें वृद्धि कराने वाले हार्मोन हैं, ना एंटीबायोटिक्स, ना कोई जेनेटिक रूप से परिवर्तित जीव, और ना ही इससे सतह के पानी या भूजल का संदूषण होता है।

जोंग्यू का तरीका

वास्तव में, यदि हम हज़ारों साल पहले के पौधों और खाद्यान्नों की खेती के मूल तरीके और उसके विकास को देखें तो तब से अठारहवीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति आने तक खेती करने का तरीका जैविक था। रसायन विज्ञान की तरक्की से उर्वरकों की खोज हुई और पैदावार बढ़ाने वाले रसायन बने। इस सम्बंध में स्टेफनी हैनेस का 2008 में क्रिश्चियन साइंस मॉनीटर में प्रकाशित लेख पढ़ना दिलचस्प होगा (https: csmonitor.com/Environment/2008/0430/p13s01-sten.html)। वे बताती हैं कि परम्परागत पद्धति झूम खेती (स्लैश एंड बर्न) की रही (जो अभी हम गेहूं की फसल में अपनाते हैं)। लेकिन पूर्वी अफ्रीका के मोज़ाम्बिक में रहने वाला जोंग्यू नाम का किसान अपने मक्के के खेत को जलाता नहीं था, बल्कि कटाई के बाद ठूंठों को सड़ने के लिए छोड़ देता था। खेत के एक हिस्से को जलाने की बजाय वह उसमें सड़ने के लिए टमाटर और मूंगफली डाल देता था। फिर खेतों में चूहे आने देता था ताकि वे सड़ा हुआ अपशिष्ट खा लें, यह अपशिष्ट हटाने का एक प्राकृतिक तरीका था। (यदि चूहों की आबादी बहुत ज़्यादा हो जाती, तो उनके नियंत्रण के लिए वह बिल्लियां छोड़ देता!) उसने इसी तरह ज्वार की फसल भी सफलतापूर्वक उगाई। इसे जैविक खेती कह सकते हैं। बाज़ार में बेचने के लिहाज़ से मक्के और ज्वार की मात्रा और गुणवत्ता दोनों काफी अच्छी थी।

उसकी जैविक खेती चूहों पर निर्भर थी जो कवक या फफूंद जैसे आवश्यक आणविक घटकों के स्रोत थे, इसके अलावा और कुछ नहीं डाला गया। एक तरह से पूसा डीकंपोज़र गुड़, बेसन और स्वाभाविक रूप से पनपने वाली फफूंद के साथ जोंग्यू के तरीके का आधुनिक स्वरूप ही है!

दिल्ली, हरियाणा के खेतों में हुए  परीक्षण में पूसा डीकंपोज़र सफल रहा है। संस्थान को पूसा डीकंपोज़र का परीक्षण पूर्वोत्तर भारत, जैसे त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश और मेघालय में भी करके देखना चाहिए, जहां आज भी स्लैश और बर्न (जिसे स्थानीय भाषा में झूम खेती कहते हैं) खेती की जाती है। यह इन क्षेत्रों के वायु गुणवत्ता के स्तर में भी सुधार करेगा (वर्तमान में त्रिपुरा के अगरतला का वायु गुणवत्ता स्तर मध्यम से अस्वस्थ के बीच है)।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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असाधारण कैंसर रोगियों से कैंसर उपचार में सुधार

कैंसर की बढ़िया से बढ़िया दवाइयां भी कैंसर के गंभीर मरीज़ों को जीने की ज़्यादा मोहलत नहीं दे पातीं। लेकिन कुछ अपवाद मरीज़ों के ट्यूमर इन्हीं दवाइयों से कम या खत्म हुए, और वे कई वर्षों तक तंदुरुस्त रहे हैं। शोधकर्ता लंबे समय से इन अपवाद मरीज़ों को नज़रअंदाज़ करते आए थे। लेकिन अब इन मरीज़ों पर व्यवस्थित अध्ययन करके जो जानकारी मिल रही है वह कैंसर उपचार को बेहतर बना सकती है।

ऐसे एक प्रयास में, अमेरिका के राष्ट्रीय कैंसर संस्थान के लुईस स्टॉड की अगुवाई में कैंसर के 111 अपवाद मरीज़ों के ट्यूमर, और ट्यूमर के भीतर और उसके आसपास की प्रतिरक्षा कोशिकाओं के डीएनए का अध्ययन किया गया। शोधकर्ताओं को 26 मरीज़ों के ट्यूमर या प्रतिरक्षा कोशिकाओं में जीनोमिक परिवर्तन दिखे। इन परिवर्तनों से पता लगाया जा सकता है कि क्यों जो औषधियां इन मरीज़ों पर कारगर रहीं वे अधिकतर लोगों पर असरदार नहीं रहतीं।

अध्ययन के लिए ऐसे 111 मरीज़ों के ट्यूमर और प्रतिरक्षा कोशिकाओं के डीएनए का डैटा चुना गया जिनके ट्यूमर ऐसी दवा के असर से कम या खत्म हो गए थे जिस दवा ने परीक्षण में 10 प्रतिशत से भी कम मरीज़ों पर असर किया था, या उन मरीज़ों को चुना गया जिनमें दवा का असर सामान्य की तुलना में तीन गुना अधिक समय तक रहा।

शोधकर्ता 26 मरीज़ों की उपचार के प्रति प्रतिक्रिया की व्याख्या कर पाए। उदाहरण के लिए मस्तिष्क कैंसर से पीड़ित मरीज़, जो टेमोज़ोलोमाइड नामक औषधि से उपचार के बाद 10 साल से अधिक जीवित रहा था, उसके ट्यूमर में ऐसे जीनोमिक परिवर्तन दिखे जो ट्यूमर कोशिकाओं के डीएनए की मरम्मत की दो कार्यप्रणालियों को बाधित करते हैं। टेमोज़ोलोमाइड डीएनए को क्षतिग्रस्त करके कैंसर कोशिकाओं को मारती है।

कोलोन कैंसर से पीड़ित मरीज़ में टेमोज़ोलोमाइड उपचार के 4 वर्ष बाद दो जीनोमिक परिवर्तन हुए जो डीएनए मरम्मत के दो मार्ग अवरुद्ध करते हैं। उसी मरीज़ को दी गई एक अन्य दवा ने डीएनए मरम्मत के तीसरे मार्ग को अवरुद्ध कर दिया था। कैंसर सेल पत्रिका में प्रकाशित इन परिणामों से लगता है कि डीएनए की मरम्मत करने वाले विभिन्न मार्गों को अवरुद्ध करने वाली औषधियों के मिले-जुले उपयोग से उपचार को बेहतर किया जा सकता है।

इसके अलावा, गुदा कैंसर और पित्त वाहिनी के कैंसर से पीड़ित दो मरीज़ों के ट्यूमर के बीआरसीए जीन्स, जो स्तन कैंसर के लिए ज़िम्मेदार हैं, में उत्परिवर्तन दिखा। इस उत्परिवर्तन ने भी कीमोथेरेपी में ट्यूमर को असुरक्षित कर दिया था। अन्य मामलों में, मरीज़ों को जब ट्यूमर कोशिकाओं की वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार प्रोटीन को बाधित करने वाली औषधि दी गई तो दवा इन मरीज़ों पर कारगर रही। कुछ मामलों में कुछ प्रतिरक्षा कोशिकाएं मरीज़ों के ट्यूमर में प्रवेश कर गर्इं थी। इससे लगता है कि इन मरीज़ों की प्रतिरक्षा कोशिकाएं तैयार बैठी थीं कि दवा ट्यूमर में प्रवेश करे और पीछे-पीछे वे भी घुस जाएं।

नतीजों का तकाज़ा है कि सामान्यत: कैंसर ट्यूमर का जीनोमिक परीक्षण किया जाना चाहिए ताकि उपचार के लिए उपयुक्त औषधि का चयन किया जा सके। वैसे अभी भी कई परिणामों की व्याख्या करना मुश्किल है, क्योंकि कई मामलों में ट्यूमर में उत्परिवर्तन और प्रतिरक्षा कोशिका में परिवर्तन के विभिन्न सम्मिश्रण दिखे हैं। टीम ने अपने सारे आंकड़े ऑनलाइन कर दिए हैं ताकि अन्य अनुसंधान समूह इस काम को आगे बढ़ा पाएं।(स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19 का अंत कैसे होगा?

कोई भी घातक महामारी हमेशा टिकी नहीं रहती। उदाहरण के लिए 1918 में फैले इन्फ्लूएंज़ा ने तब दुनिया के लाखों लोगों की जान ले ली थी लेकिन अब इसका वायरस बहुत कम घातक हो गया है। अब यह साधारण मौसमी फ्लू का कारण बनता है। अतीत की कुछ महामारियां लंबे समय भी चली थीं। जैसे 1346 में फैला ब्यूबोनिक प्लेग (ब्लैक डेथ)। इसने युरोप और एशिया के कुछ हिस्सों के लगभग एक तिहाई लोगों की जान ली थी। प्लेग के बैक्टीरिया की घातकता में कमी नहीं आई थी। सात साल बाद इस महामारी का अंत संभवत: इसलिए हुआ था क्योंकि बहुत से लोग मर गए थे या उनमें इसके खिलाफ प्रतिरक्षा विकसित हो गई थी। इन्फ्लूएंज़ा की तरह 2009 में फैले H1N1 का रोगजनक सूक्ष्मजीव भी कम घातक हो गया था। तो क्या सार्स-कोव-2 वायरस भी इसी रास्ते चलेगा?

कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि अब यह वायरस इस तरह से विकसित हो चुका है कि यह लोगों में आसानी से फैल सके। हालांकि यह कहना अभी जल्दबाज़ी होगी लेकिन मुमकिन है कि यह कम घातक होता जाएगा। शायद अतीत में झांकने पर इसके बारे में कुछ कहा जा सके।

यह विचार काफी पुराना है कि समय के साथ धीरे-धीरे संक्रमण फैलाने वाले रोगजनक कम घातक हो जाते हैं। 19वीं सदी के चिकित्सक थियोबाल्ड स्मिथ ने पहली बार बताया था कि परजीवी और मेज़बान के बीच ‘नाज़ुक संतुलन’ होता है; समय के साथ रोगजनकों की घातकता में कमी आनी चाहिए क्योंकि अपने मेज़बान को मारना किसी भी सूक्ष्मजीव के लिए हितकर नहीं होगा।

1980 के दशक में शोधकर्ताओं ने इस विचार को चुनौती दी। गणितीय जीव विज्ञानी रॉय एंडरसन और रॉबर्ट मे ने बताया कि रोगाणु अन्य लोगों में तब सबसे अच्छे से फैलते हैं जब उनका मेज़बान बहुत सारे रोगाणु बिखराता या छोड़ता है। यह स्थिति अधिकतर तब बनती है जब मेज़बान अच्छे से बीमार पड़ जाए। इसलिए रोगजनक की घातकता और फैलने की क्षमता एक संतुलन में रहती है। यदि रोगजनक इतना घातक हो जाए कि वह बहुत जल्द अपने मेज़बान की जान ले ले तो आगे फैल नहीं पाएगा। इसे ‘प्रसार-घातकता संतुलन’ कहते हैं।

दूसरा सिद्धांत विकासवादी महामारी विशेषज्ञ पॉल इवाल्ड द्वारा दिया गया था जिसे ‘घातकता का सिद्धांत’ कहते हैं। इसके अनुसार, कोई रोगजनक जितना अधिक घातक होगा उसके फैलने की संभावना उतनी ही कम होगी। क्योंकि यदि व्यक्ति संक्रमित होकर जल्द ही बिस्तर पकड़ लेगा (जैसे इबोला में होता है) तो अन्य लोगों में संक्रमण आसानी से नहीं फैल सकेगा। इस हिसाब से किसी भी रोगजनक को फैलने के लिए चलता-फिरता मेज़बान चाहिए, यानी रोजगनक कम घातक होते जाना चाहिए। लेकिन सिद्धांत यह भी कहता है कि प्रत्येक रोगाणु के फैलने की अपनी रणनीति होती है, कुछ रोगाणु उच्च घातकता और उच्च प्रसार क्षमता, दोनों बनाए रख सकते हैं।

इनमें से एक रणनीति है टिकाऊपन। जैसे चेचक का वायरस शरीर से बाहर बहुत लंबे समय तक टिका रह सकता है। ऐसे टिकाऊ रोगाणु को इवाल्ड ‘बैठकर प्रतीक्षा करो’ रोगजनक कहते हैं। कुछ घातक संक्रमण अत्यंत गंभीर मरीज़ों से पिस्सू, जूं, मच्छर सरीखे वाहक जंतुओं के माध्यम से फैलते हैं। हैज़ा जैसे कुछ संक्रमण पानी से फैलते हैं। और कुछ संक्रमण बीमार या मरणासन्न लोगों की देखभाल से फैलते हैं, जैसे स्टेफिलोकोकस बैक्टीरिया संक्रमण। इवाल्ड के अनुसार ये सभी रणनीतियां रोगाणु को कम घातक होने से रोक सकती हैं।

लेकिन सवाल है कि क्या यह कोरोनावायरस कभी कम घातक होगा? साल 2002-03 में फैले सार्स को देखें। यह संक्रमण एक से दूसरे व्यक्ति में तभी फैलता है जब रोगी में संक्रमण गंभीर रूप धारण कर चुका हो। इससे फायदा यह होता था कि संक्रमित रोगी की पहचान कर उसे अलग-थलग करके वायरस के प्रसार को थामा जा सकता था। लेकिन सार्स-कोव-2 संक्रमण की शुरुआती अवस्था से ही अन्य लोगों में फैलने लगता है। इसलिए यहां वायरस के फैलने की क्षमता और उसकी घातकता के बीच सम्बंध ज़रूरी नहीं है। लक्षण-विहीन संक्रमित व्यक्ति भी काफी वायरस बिखराते रहते हैं। इसलिए ज़रूरी नहीं कि मात्र गंभीर बीमार हो चुके व्यक्ति के संपर्क में आने पर ही जोखिम हो।

इसलिए सार्स-कोव-2 वायरस में प्रसार-घातकता संतुलन मॉडल शायद न दिखे। लेकिन इवाल्ड इसके टिकाऊपन को देखते हैं। सार्स-कोव-2 वायरस के संक्रामक कण विभिन्न सतहों पर कुछ घंटों और दिनों तक टिके रह सकते हैं। यानी यह इन्फ्लूएंज़ा वायरस के बराबर ही टिकाऊ है। अत:, उनका तर्क है कि सार्स-कोव-2 मौसमी इन्फ्लूएंज़ा के समान घातकता विकसित करेगा, जिसकी मृत्यु दर 0.1 प्रतिशत है।

लेकिन अब भी निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि सार्स-कोव-2 किस ओर जाएगा। वैज्ञानिकों ने वायरस के वैकासिक परिवर्तनों का अवलोकन किया है जो दर्शाते हैं कि सार्स-कोव-2 का प्रसार बढ़ा है, लेकिन घातकता के बारे में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। लॉस एलामोस नेशनल लेबोरेटरी की कंप्यूटेशनल जीव विज्ञानी बेट्टे कोरबर द्वारा जुलाई माह की सेल पत्रिका में प्रकाशित पेपर बताता है कि अब वुहान में मिले मूल वायरस की जगह उसका D614G उत्परिवर्तित संस्करण ले रहा है। संवर्धित कोशिकाओं पर किए गए अध्ययन के आधार पर कोरबर का कहना है कि उत्परिवर्तित वायरस में मूल वायरस की अपेक्षा फैलने की क्षमता अधिक है। बहरहाल, कई शोधकर्ताओं का कहना है कि ज़रूरी नहीं कि संवर्धित कोशिकाओं पर किए गए प्रयोगों के परिणाम वास्तविक परिस्थिति में लागू हों।

कई लोगों का कहना है कि सार्स-कोव-2 वायरस कम घातक हो रहा है। लेकिन अब तक इसके कोई साक्ष्य नहीं हैं। सामाजिक दूरी, परीक्षण, और उपचार बेहतर होने के कारण प्रमाण मिलना मुश्किल भी है। क्योंकि अब सार्स-कोव-2 का परीक्षण सुलभ होने से मरीज़ों को इलाज जल्द मिल जाता है, जो जीवित बचने का अवसर देता है। इसके अलावा परीक्षणाधीन उपचार मरीज़ों के लिए मददगार साबित हो सकते हैं। और जोखिमग्रस्त या कमज़ोर लोगों को अलग-थलग कर उन्हें संक्रमण के संपर्क से बचाया जा सकता है।

सार्स-कोव-2 वायरस शुरुआत में व्यक्ति को बहुत बीमार नहीं करता। इसके चलते संक्रमित व्यक्ति घूमता-फिरता रहता है और बीमार महसूस करने के पहले भी संक्रमण फैलाता रहता है। इस कारण सार्स-कोव-2 के कम घातक होने की दिशा में विकास की संभावना कम है।

कोलंबिया युनिवर्सिटी के विंसेंट रेकेनिएलो का कहना है कि वायरस में होने वाले परिवर्तनों के कारण ना सही, लेकिन सार्स-कोव-2 कम घातक हो जाएगा, क्योंकि एक समय ऐसा आएगा जब बहुत कम लोग ऐसे बचेंगे जिनमें इसके खिलाफ प्रतिरक्षा ना हो। रेकेनिएलो बताते हैं कि चार ऐसे कोरोनावायरस अभी मौजूद हैं जो अब सिर्फ सामान्य ज़ुकाम के ज़िम्मेदार बनते हैं जबकि वे शुरू में काफी घातक रहे होंगे।

इन्फ्लूएंज़ा वायरस से तुलना करें तो कोरोनावायरस थोड़ा अधिक टिकाऊ है और इस बात की संभावना कम है कि यह इंसानों में पहले से मौजूद प्रतिरक्षा के खिलाफ विकसित होगा। इसलिए कई विशेषज्ञों का कहना है कि कोविड-19 से बचने का सुरक्षित और प्रभावी तरीका है टीका। टीकों के बूस्टर नियमित रूप से लेने की ज़रूरत होगी; इसलिए नहीं कि वायरस तेज़ी से विकसित हो रहा है बल्कि इसलिए कि मानव प्रतिरक्षा क्षीण पड़ने लग सकती है।

बहरहाल, विशेषज्ञों के मुताबिक हमेशा के लिए ना सही, तो कुछ सालों तक तो वायरस के कुछ संस्करण बने रहेंगे।(स्रोत फीचर्स)

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घुड़सवारी ने बनाया बहुजातीय साम्राज्य

ब तक, श्यून्गनू लोगों के बारे में जो भी लिखित जानकारी मिलती है वह उनके शत्रुओं द्वारा किए गए वर्णन से मिलती है। चीन के 2200 साल पुराने रिकॉर्ड बताते हैं कि कैसे मैदानों (वर्तमान के मंगोलिया) से आकर घुड़सवार-तीरंदाज़ श्यून्गनू लोगों ने चीन की उत्तर-पश्चिमी सीमा से प्रवेश कर आक्रमण किया।

श्यून्गनू साम्राज्य ने अपने बारे में कोई लिखित रिकार्ड नहीं छोड़े हैं। लेकिन जीव विज्ञान अब श्यून्गनू साम्राज्य की और अन्य मध्य एशियाई संस्कृति की कहानी बयां कर रहा है।

हाल ही में हुए दो अध्ययनों ने मध्य एशिया में मनुष्यों के फैलाव और इसमें घुड़सवारी की भूमिका की पड़ताल की है। इनमें से एक अध्ययन 6000 साल की अवधि के 200 से अधिक मनुष्यों के डीएनए का व्यापक सर्वेक्षण है। दूसरा अध्ययन श्यून्गनू साम्राज्य के उदय के ठीक पहले के घोड़ों के कंकालों का विश्लेषण है।

ये अध्ययन बताते हैं कि घोड़ों ने मनुष्यों के आवागमन के पैटर्न को नए आयाम दिए और लोगों को कम समय में लंबी दूरी तय करने में सक्षम बनाया।

संभवत: वर्तमान के कज़ाकस्तान के पास बोटाई संस्कृति ने लगभग 3500 ईसा पूर्व घोड़ों को पालतू बनाया था। शुरुआत में इन्हें मुख्यत: मांस और दूध के लिए पाला जाता था, और बाद में इनका इस्तेमाल घोड़ा-गाड़ी में किया जाने लगा।

पहला अध्ययन सेल पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। सियोल नेशनल युनिवर्सिटी के चून्गवॉन जिओंग और उनकी टीम ने पूरे मध्य एशिया में मानव प्रवास को समझने के लिए मंगोलिया से प्राप्त मानव अवशेषों के डीएनए नमूनों का अनुक्रमण किया। नमूने 5000 ईसा पूर्व से लेकर चंगेज़ खान के मंगोल साम्राज्य की घुड़सवार संस्कृति के उदय तक यानी 1000 ईस्वीं तक के हैं।

पश्चिमी युरोपीय लोगों के आनुवंशिक अध्ययन से पता चल चुका है कि लगभग 3000 ईसा पूर्व यामन्या संस्कृति के चरवाहों ने मैदानों से आज के रूस और यूक्रेन की ओर प्रवास किया था और युरोप में एक बड़े आनुवंशिक बदलाव की शुरुआत की थी। कांस्य युगीन मंगोलियन कंकालों से मालूम पड़ता है कि यामन्या लोगों ने पूर्व का रुख भी किया था और वहां अपनी पशुपालक जीवनशैली की स्थापना की थी। लेकिन ताज़ा अध्ययन बताता है कि उन्होंने मंगोलिया में अपनी कोई स्थायी आनुवंशिक छाप नहीं छोड़ी।

जबकि इसके लगभग हज़ार साल बाद घास के मैदानों (स्टेपीस) की एक अन्य संस्कृति, सिंतश्ता, ने वहां अपनी स्थायी छाप छोड़ी। पूर्व में किए गए पुरातात्विक अध्ययनों से पता चला था कि वे मंगोलिया में दूरगामी सांस्कृतिक परिवर्तन लाए थे। 1200 ईसा पूर्व में घोड़ों से सम्बंधित कई नवाचार दिखे। जैसे घोड़ों के अच्छे डील-डौल और क्षमता के लिए चयनात्मक प्रजनन, नियंत्रण के लिए लगाम या नकेल, घुड़सवारी की पोशाक और काठी (जीन)।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित दूसरा अध्ययन इस बात की पुष्टि करता है कि इस समय मंगोलियाई लोग घुड़सवारी करने लगे थे। वर्तमान चीन के शिनजियांग प्रांत के तिआनशान पहाड़ों में मिले लगभग 350 ईसा पूर्व के ज़माने के घोड़े के कंकालों में घुड़सवारी के कारण होने वाले विकार दिखे। घुड़सवार के वज़न के कारण घोड़े की रीढ़ की हड्डी में चोट पहुंचती है और लगाम कसने और नकेल के कारण मुंह की हड्डियों का आकार बदल जाता है।

इसके थोड़े समय बाद ही श्यून्गनू साम्राज्य उभरा। उन्होंने अपने घुड़सवारी के कौशल का युद्ध में उपयोग किया और दूर-दूर तक अपना साम्राज्य फैलाया। लगभग 200 ईसा पूर्व श्यून्गनू लोगों ने युरेशिया की एक घुमंतू जनजाति को दुर्जेय सेना में तब्दील कर दिया, जिसने घास के मैदानों को पड़ोसी चीन का मुख्य प्रतिद्वंदी बना दिया।

श्यून्गनू साम्राज्य की 300 साल की अवधि के 60 मानव कंकालों के डीएनए अध्ययन से पता चलता है कि कैसे यह क्षेत्र एक बहुजातीय साम्राज्य बना। जब मंगोलिया के मैदानों में तीन घुड़सवार संस्कृतियां पास-पास रहती थी तब लगभग 200 ईसा पूर्व तेज़ी से आनुवंशिक विविधता बढ़ी। पश्चिमी और पूर्वी मंगोलियाई लोगों का आपस में मेल हुआ और वे अपने जीन्स दूर-दूर तक ले गए, वर्तमान ईरान और मध्य एशिया तक भी। जिओंग का कहना है कि इसके पहले तक इतने बड़े स्तर पर लोगों में मेल-जोल नहीं हुआ था। श्यून्गनू लोगों में पूरी युरेशियन आनुवंशिक प्रोफाइल दिखती है।

इन परिणामों से पता चलता है कि घोड़ों ने मध्य एशिया के मैदान तक पहुंच संभव बनाई। श्यून्गनू के उच्च वर्ग के लोगों की कब्रों से मिली पुरातात्विक सामग्री – जैसे रोमन ग्लास, फारसी वस्त्र और यूनानी चांदी के सिक्के – बताती हैं कि उनकी पहुंच दूर-दूर तक थी। लेकिन आनुवंशिक साक्ष्य बताते हैं कि बात सिर्फ व्यापार तक सीमित नहीं थी बल्कि इससे अधिक थी। श्यून्गनू काल के ग्यारह कंकालों के अध्ययन से पता चला है कि इनकी आनुवंशिक छाप उन सरमेशियाई घुमंतू योद्धाओं जैसी है जिन्होंने काले सागर के उत्तर में राज किया था।

शोधकर्ता अब जीनोम विश्लेषण की मदद से पता लगाना चाहते हैं कि इस खानाबदोश साम्राज्य ने किस तरह काम किया।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_1106NID_Xiongnu_Grappling_Horses_online.jpg?itok=nl-Jboxb