कैंसर
की बढ़िया से बढ़िया दवाइयां भी कैंसर के गंभीर मरीज़ों को जीने की ज़्यादा मोहलत नहीं
दे पातीं। लेकिन कुछ अपवाद मरीज़ों के ट्यूमर इन्हीं दवाइयों से कम या खत्म हुए, और वे कई वर्षों तक तंदुरुस्त रहे हैं।
शोधकर्ता लंबे समय से इन अपवाद मरीज़ों को नज़रअंदाज़ करते आए थे। लेकिन अब इन मरीज़ों
पर व्यवस्थित अध्ययन करके जो जानकारी मिल रही है वह कैंसर उपचार को बेहतर बना सकती
है।
ऐसे
एक प्रयास में, अमेरिका के
राष्ट्रीय कैंसर संस्थान के लुईस स्टॉड की अगुवाई में कैंसर के 111 अपवाद मरीज़ों के
ट्यूमर, और ट्यूमर के भीतर
और उसके आसपास की प्रतिरक्षा कोशिकाओं के डीएनए का अध्ययन किया गया। शोधकर्ताओं को
26 मरीज़ों
के ट्यूमर या प्रतिरक्षा कोशिकाओं में जीनोमिक परिवर्तन दिखे। इन परिवर्तनों से
पता लगाया जा सकता है कि क्यों जो औषधियां इन मरीज़ों पर कारगर रहीं वे अधिकतर
लोगों पर असरदार नहीं रहतीं।
अध्ययन
के लिए ऐसे 111 मरीज़ों
के ट्यूमर और प्रतिरक्षा कोशिकाओं के डीएनए का डैटा चुना गया जिनके ट्यूमर ऐसी दवा
के असर से कम या खत्म हो गए थे जिस दवा ने परीक्षण में 10 प्रतिशत से भी कम मरीज़ों पर असर किया था, या उन मरीज़ों को चुना गया जिनमें दवा का
असर सामान्य की तुलना में तीन गुना अधिक समय तक रहा।
शोधकर्ता
26 मरीज़ों
की उपचार के प्रति प्रतिक्रिया की व्याख्या कर पाए। उदाहरण के लिए मस्तिष्क कैंसर
से पीड़ित मरीज़, जो टेमोज़ोलोमाइड
नामक औषधि से उपचार के बाद 10 साल से अधिक जीवित रहा था,
उसके ट्यूमर में ऐसे जीनोमिक परिवर्तन दिखे जो ट्यूमर
कोशिकाओं के डीएनए की मरम्मत की दो कार्यप्रणालियों को बाधित करते हैं।
टेमोज़ोलोमाइड डीएनए को क्षतिग्रस्त करके कैंसर कोशिकाओं को मारती है।
कोलोन
कैंसर से पीड़ित मरीज़ में टेमोज़ोलोमाइड उपचार के 4 वर्ष बाद दो जीनोमिक परिवर्तन हुए जो डीएनए
मरम्मत के दो मार्ग अवरुद्ध करते हैं। उसी मरीज़ को दी गई एक अन्य दवा ने डीएनए
मरम्मत के तीसरे मार्ग को अवरुद्ध कर दिया था। कैंसर सेल पत्रिका में
प्रकाशित इन परिणामों से लगता है कि डीएनए की मरम्मत करने वाले विभिन्न मार्गों को
अवरुद्ध करने वाली औषधियों के मिले-जुले उपयोग से उपचार को बेहतर किया जा सकता है।
इसके
अलावा, गुदा कैंसर और पित्त
वाहिनी के कैंसर से पीड़ित दो मरीज़ों के ट्यूमर के बीआरसीए जीन्स, जो स्तन कैंसर के लिए ज़िम्मेदार हैं, में उत्परिवर्तन दिखा। इस उत्परिवर्तन ने
भी कीमोथेरेपी में ट्यूमर को असुरक्षित कर दिया था। अन्य मामलों में, मरीज़ों को जब ट्यूमर कोशिकाओं की वृद्धि के
लिए ज़िम्मेदार प्रोटीन को बाधित करने वाली औषधि दी गई तो दवा इन मरीज़ों पर कारगर
रही। कुछ मामलों में कुछ प्रतिरक्षा कोशिकाएं मरीज़ों के ट्यूमर में प्रवेश कर
गर्इं थी। इससे लगता है कि इन मरीज़ों की प्रतिरक्षा कोशिकाएं तैयार बैठी थीं कि
दवा ट्यूमर में प्रवेश करे और पीछे-पीछे वे भी घुस जाएं।
नतीजों का तकाज़ा है कि सामान्यत: कैंसर ट्यूमर का जीनोमिक परीक्षण किया जाना चाहिए ताकि उपचार के लिए उपयुक्त औषधि का चयन किया जा सके। वैसे अभी भी कई परिणामों की व्याख्या करना मुश्किल है, क्योंकि कई मामलों में ट्यूमर में उत्परिवर्तन और प्रतिरक्षा कोशिका में परिवर्तन के विभिन्न सम्मिश्रण दिखे हैं। टीम ने अपने सारे आंकड़े ऑनलाइन कर दिए हैं ताकि अन्य अनुसंधान समूह इस काम को आगे बढ़ा पाएं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/braincancer_1280_0.jpg?itok=0UHKsJDd
कोई भी घातक महामारी हमेशा टिकी नहीं रहती। उदाहरण के लिए 1918 में फैले
इन्फ्लूएंज़ा ने तब दुनिया के लाखों लोगों की जान ले ली थी लेकिन अब इसका वायरस
बहुत कम घातक हो गया है। अब यह साधारण मौसमी फ्लू का कारण बनता है। अतीत की कुछ
महामारियां लंबे समय भी चली थीं। जैसे 1346 में फैला ब्यूबोनिक प्लेग (ब्लैक डेथ)।
इसने युरोप और एशिया के कुछ हिस्सों के लगभग एक तिहाई लोगों की जान ली थी। प्लेग
के बैक्टीरिया की घातकता में कमी नहीं आई थी। सात साल बाद इस महामारी का अंत
संभवत: इसलिए हुआ था क्योंकि बहुत से लोग मर गए थे या उनमें इसके खिलाफ प्रतिरक्षा
विकसित हो गई थी। इन्फ्लूएंज़ा की तरह 2009 में फैले H1N1 का रोगजनक सूक्ष्मजीव भी कम घातक हो गया था। तो क्या
सार्स-कोव-2 वायरस भी इसी रास्ते चलेगा?
कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि अब यह वायरस
इस तरह से विकसित हो चुका है कि यह लोगों में आसानी से फैल सके। हालांकि यह कहना
अभी जल्दबाज़ी होगी लेकिन मुमकिन है कि यह कम घातक होता जाएगा। शायद अतीत में
झांकने पर इसके बारे में कुछ कहा जा सके।
यह विचार काफी पुराना है कि समय के साथ
धीरे-धीरे संक्रमण फैलाने वाले रोगजनक कम घातक हो जाते हैं। 19वीं सदी के चिकित्सक
थियोबाल्ड स्मिथ ने पहली बार बताया था कि परजीवी और मेज़बान के बीच ‘नाज़ुक संतुलन’
होता है; समय के साथ रोगजनकों की घातकता में कमी आनी चाहिए क्योंकि
अपने मेज़बान को मारना किसी भी सूक्ष्मजीव के लिए हितकर नहीं होगा।
1980 के दशक में शोधकर्ताओं ने इस विचार को
चुनौती दी। गणितीय जीव विज्ञानी रॉय एंडरसन और रॉबर्ट मे ने बताया कि रोगाणु अन्य
लोगों में तब सबसे अच्छे से फैलते हैं जब उनका मेज़बान बहुत सारे रोगाणु बिखराता या
छोड़ता है। यह स्थिति अधिकतर तब बनती है जब मेज़बान अच्छे से बीमार पड़ जाए। इसलिए
रोगजनक की घातकता और फैलने की क्षमता एक संतुलन में रहती है। यदि रोगजनक इतना घातक
हो जाए कि वह बहुत जल्द अपने मेज़बान की जान ले ले तो आगे फैल नहीं पाएगा। इसे
‘प्रसार-घातकता संतुलन’ कहते हैं।
दूसरा सिद्धांत विकासवादी महामारी विशेषज्ञ
पॉल इवाल्ड द्वारा दिया गया था जिसे ‘घातकता का सिद्धांत’ कहते हैं। इसके अनुसार, कोई
रोगजनक जितना अधिक घातक होगा उसके फैलने की संभावना उतनी ही कम होगी। क्योंकि यदि
व्यक्ति संक्रमित होकर जल्द ही बिस्तर पकड़ लेगा (जैसे इबोला में होता है) तो अन्य
लोगों में संक्रमण आसानी से नहीं फैल सकेगा। इस हिसाब से किसी भी रोगजनक को फैलने
के लिए चलता-फिरता मेज़बान चाहिए, यानी रोजगनक कम घातक होते जाना चाहिए।
लेकिन सिद्धांत यह भी कहता है कि प्रत्येक रोगाणु के फैलने की अपनी रणनीति होती है, कुछ
रोगाणु उच्च घातकता और उच्च प्रसार क्षमता,
दोनों बनाए रख सकते
हैं।
इनमें से एक रणनीति है टिकाऊपन। जैसे चेचक
का वायरस शरीर से बाहर बहुत लंबे समय तक टिका रह सकता है। ऐसे टिकाऊ रोगाणु को
इवाल्ड ‘बैठकर प्रतीक्षा करो’ रोगजनक कहते हैं। कुछ घातक संक्रमण अत्यंत गंभीर
मरीज़ों से पिस्सू, जूं, मच्छर सरीखे वाहक जंतुओं के माध्यम से
फैलते हैं। हैज़ा जैसे कुछ संक्रमण पानी से फैलते हैं। और कुछ संक्रमण बीमार या
मरणासन्न लोगों की देखभाल से फैलते हैं, जैसे स्टेफिलोकोकस बैक्टीरिया संक्रमण।
इवाल्ड के अनुसार ये सभी रणनीतियां रोगाणु को कम घातक होने से रोक सकती हैं।
लेकिन सवाल है कि क्या यह कोरोनावायरस कभी
कम घातक होगा? साल 2002-03 में फैले सार्स को देखें। यह संक्रमण एक से
दूसरे व्यक्ति में तभी फैलता है जब रोगी में संक्रमण गंभीर रूप धारण कर चुका हो।
इससे फायदा यह होता था कि संक्रमित रोगी की पहचान कर उसे अलग-थलग करके वायरस के
प्रसार को थामा जा सकता था। लेकिन सार्स-कोव-2 संक्रमण की शुरुआती अवस्था से ही
अन्य लोगों में फैलने लगता है। इसलिए यहां वायरस के फैलने की क्षमता और उसकी
घातकता के बीच सम्बंध ज़रूरी नहीं है। लक्षण-विहीन संक्रमित व्यक्ति भी काफी वायरस
बिखराते रहते हैं। इसलिए ज़रूरी नहीं कि मात्र गंभीर बीमार हो चुके व्यक्ति के
संपर्क में आने पर ही जोखिम हो।
इसलिए सार्स-कोव-2 वायरस में प्रसार-घातकता
संतुलन मॉडल शायद न दिखे। लेकिन इवाल्ड इसके टिकाऊपन को देखते हैं। सार्स-कोव-2
वायरस के संक्रामक कण विभिन्न सतहों पर कुछ घंटों और दिनों तक टिके रह सकते हैं।
यानी यह इन्फ्लूएंज़ा वायरस के बराबर ही टिकाऊ है। अत:,
उनका तर्क है कि
सार्स-कोव-2 मौसमी इन्फ्लूएंज़ा के समान घातकता विकसित करेगा, जिसकी
मृत्यु दर 0.1 प्रतिशत है।
लेकिन अब भी निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा
सकता कि सार्स-कोव-2 किस ओर जाएगा। वैज्ञानिकों ने वायरस के वैकासिक परिवर्तनों का
अवलोकन किया है जो दर्शाते हैं कि सार्स-कोव-2 का प्रसार बढ़ा है, लेकिन
घातकता के बारे में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। लॉस एलामोस नेशनल
लेबोरेटरी की कंप्यूटेशनल जीव विज्ञानी बेट्टे कोरबर द्वारा जुलाई माह की सेल
पत्रिका में प्रकाशित पेपर बताता है कि अब वुहान में मिले मूल वायरस की जगह उसका D614G उत्परिवर्तित
संस्करण ले रहा है। संवर्धित कोशिकाओं पर किए गए अध्ययन के आधार पर कोरबर का कहना
है कि उत्परिवर्तित वायरस में मूल वायरस की अपेक्षा फैलने की क्षमता अधिक है।
बहरहाल, कई शोधकर्ताओं का कहना है कि ज़रूरी नहीं कि संवर्धित कोशिकाओं
पर किए गए प्रयोगों के परिणाम वास्तविक परिस्थिति में लागू हों।
कई लोगों का कहना है कि सार्स-कोव-2 वायरस
कम घातक हो रहा है। लेकिन अब तक इसके कोई साक्ष्य नहीं हैं। सामाजिक दूरी, परीक्षण, और
उपचार बेहतर होने के कारण प्रमाण मिलना मुश्किल भी है। क्योंकि अब सार्स-कोव-2 का
परीक्षण सुलभ होने से मरीज़ों को इलाज जल्द मिल जाता है,
जो जीवित बचने का
अवसर देता है। इसके अलावा परीक्षणाधीन उपचार मरीज़ों के लिए मददगार साबित हो सकते
हैं। और जोखिमग्रस्त या कमज़ोर लोगों को अलग-थलग कर उन्हें संक्रमण के संपर्क से
बचाया जा सकता है।
सार्स-कोव-2 वायरस शुरुआत में व्यक्ति को
बहुत बीमार नहीं करता। इसके चलते संक्रमित व्यक्ति घूमता-फिरता रहता है और बीमार
महसूस करने के पहले भी संक्रमण फैलाता रहता है। इस कारण सार्स-कोव-2 के कम घातक
होने की दिशा में विकास की संभावना कम है।
कोलंबिया युनिवर्सिटी के विंसेंट रेकेनिएलो
का कहना है कि वायरस में होने वाले परिवर्तनों के कारण ना सही, लेकिन
सार्स-कोव-2 कम घातक हो जाएगा, क्योंकि एक समय ऐसा आएगा जब बहुत कम लोग
ऐसे बचेंगे जिनमें इसके खिलाफ प्रतिरक्षा ना हो। रेकेनिएलो बताते हैं कि चार ऐसे
कोरोनावायरस अभी मौजूद हैं जो अब सिर्फ सामान्य ज़ुकाम के ज़िम्मेदार बनते हैं जबकि
वे शुरू में काफी घातक रहे होंगे।
इन्फ्लूएंज़ा वायरस से तुलना करें तो
कोरोनावायरस थोड़ा अधिक टिकाऊ है और इस बात की संभावना कम है कि यह इंसानों में
पहले से मौजूद प्रतिरक्षा के खिलाफ विकसित होगा। इसलिए कई विशेषज्ञों का कहना है
कि कोविड-19 से बचने का सुरक्षित और प्रभावी तरीका है टीका। टीकों के बूस्टर
नियमित रूप से लेने की ज़रूरत होगी; इसलिए नहीं कि वायरस तेज़ी से विकसित हो रहा
है बल्कि इसलिए कि मानव प्रतिरक्षा क्षीण पड़ने लग सकती है।
बहरहाल, विशेषज्ञों के मुताबिक हमेशा के लिए ना सही, तो कुछ सालों तक तो वायरस के कुछ संस्करण बने रहेंगे।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.thewire.in/wp-content/uploads/2020/11/13082636/49680384281_2605248bc8_k-1600×1321.jpg
अब तक, श्यून्गनू लोगों के बारे में जो भी लिखित
जानकारी मिलती है वह उनके शत्रुओं द्वारा किए गए वर्णन से मिलती है। चीन के 2200
साल पुराने रिकॉर्ड बताते हैं कि कैसे मैदानों (वर्तमान के मंगोलिया) से आकर
घुड़सवार-तीरंदाज़ श्यून्गनू लोगों ने चीन की उत्तर-पश्चिमी सीमा से प्रवेश कर
आक्रमण किया।
श्यून्गनू साम्राज्य ने अपने बारे में कोई
लिखित रिकार्ड नहीं छोड़े हैं। लेकिन जीव विज्ञान अब श्यून्गनू साम्राज्य की और
अन्य मध्य एशियाई संस्कृति की कहानी बयां कर रहा है।
हाल ही में हुए दो अध्ययनों ने मध्य एशिया
में मनुष्यों के फैलाव और इसमें घुड़सवारी की भूमिका की पड़ताल की है। इनमें से एक
अध्ययन 6000 साल की अवधि के 200 से अधिक मनुष्यों के डीएनए का व्यापक सर्वेक्षण
है। दूसरा अध्ययन श्यून्गनू साम्राज्य के उदय के ठीक पहले के घोड़ों के कंकालों का
विश्लेषण है।
ये अध्ययन बताते हैं कि घोड़ों ने मनुष्यों
के आवागमन के पैटर्न को नए आयाम दिए और लोगों को कम समय में लंबी दूरी तय करने में
सक्षम बनाया।
संभवत: वर्तमान के कज़ाकस्तान के पास बोटाई
संस्कृति ने लगभग 3500 ईसा पूर्व घोड़ों को पालतू बनाया था। शुरुआत में इन्हें
मुख्यत: मांस और दूध के लिए पाला जाता था,
और बाद में इनका
इस्तेमाल घोड़ा-गाड़ी में किया जाने लगा।
पहला अध्ययन सेल पत्रिका में
प्रकाशित हुआ है। सियोल नेशनल युनिवर्सिटी के चून्गवॉन जिओंग और उनकी टीम ने पूरे
मध्य एशिया में मानव प्रवास को समझने के लिए मंगोलिया से प्राप्त मानव अवशेषों के
डीएनए नमूनों का अनुक्रमण किया। नमूने 5000 ईसा पूर्व से लेकर चंगेज़ खान के मंगोल
साम्राज्य की घुड़सवार संस्कृति के उदय तक यानी 1000 ईस्वीं तक के हैं।
पश्चिमी युरोपीय लोगों के आनुवंशिक अध्ययन
से पता चल चुका है कि लगभग 3000 ईसा पूर्व यामन्या संस्कृति के चरवाहों ने मैदानों
से आज के रूस और यूक्रेन की ओर प्रवास किया था और युरोप में एक बड़े आनुवंशिक बदलाव
की शुरुआत की थी। कांस्य युगीन मंगोलियन कंकालों से मालूम पड़ता है कि यामन्या लोगों
ने पूर्व का रुख भी किया था और वहां अपनी पशुपालक जीवनशैली की स्थापना की थी।
लेकिन ताज़ा अध्ययन बताता है कि उन्होंने मंगोलिया में अपनी कोई स्थायी आनुवंशिक
छाप नहीं छोड़ी।
जबकि इसके लगभग हज़ार साल बाद घास के
मैदानों (स्टेपीस) की एक अन्य संस्कृति, सिंतश्ता,
ने वहां अपनी स्थायी
छाप छोड़ी। पूर्व में किए गए पुरातात्विक अध्ययनों से पता चला था कि वे मंगोलिया
में दूरगामी सांस्कृतिक परिवर्तन लाए थे। 1200 ईसा पूर्व में घोड़ों से सम्बंधित कई
नवाचार दिखे। जैसे घोड़ों के अच्छे डील-डौल और क्षमता के लिए चयनात्मक प्रजनन, नियंत्रण
के लिए लगाम या नकेल, घुड़सवारी की पोशाक और काठी (जीन)।
प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ
साइंसेज में प्रकाशित दूसरा
अध्ययन इस बात की पुष्टि करता है कि इस समय मंगोलियाई लोग घुड़सवारी करने लगे थे।
वर्तमान चीन के शिनजियांग प्रांत के तिआनशान पहाड़ों में मिले लगभग 350 ईसा पूर्व
के ज़माने के घोड़े के कंकालों में घुड़सवारी के कारण होने वाले विकार दिखे। घुड़सवार
के वज़न के कारण घोड़े की रीढ़ की हड्डी में चोट पहुंचती है और लगाम कसने और नकेल के
कारण मुंह की हड्डियों का आकार बदल जाता है।
इसके थोड़े समय बाद ही श्यून्गनू साम्राज्य
उभरा। उन्होंने अपने घुड़सवारी के कौशल का युद्ध में उपयोग किया और दूर-दूर तक अपना
साम्राज्य फैलाया। लगभग 200 ईसा पूर्व श्यून्गनू लोगों ने युरेशिया की एक घुमंतू
जनजाति को दुर्जेय सेना में तब्दील कर दिया,
जिसने घास के मैदानों
को पड़ोसी चीन का मुख्य प्रतिद्वंदी बना दिया।
श्यून्गनू साम्राज्य की 300 साल की अवधि के
60 मानव कंकालों के डीएनए अध्ययन से पता चलता है कि कैसे यह क्षेत्र एक बहुजातीय
साम्राज्य बना। जब मंगोलिया के मैदानों में तीन घुड़सवार संस्कृतियां पास-पास रहती
थी तब लगभग 200 ईसा पूर्व तेज़ी से आनुवंशिक विविधता बढ़ी। पश्चिमी और पूर्वी
मंगोलियाई लोगों का आपस में मेल हुआ और वे अपने जीन्स दूर-दूर तक ले गए, वर्तमान
ईरान और मध्य एशिया तक भी। जिओंग का कहना है कि इसके पहले तक इतने बड़े स्तर पर
लोगों में मेल-जोल नहीं हुआ था। श्यून्गनू लोगों में पूरी युरेशियन आनुवंशिक
प्रोफाइल दिखती है।
इन परिणामों से पता चलता है कि घोड़ों ने
मध्य एशिया के मैदान तक पहुंच संभव बनाई। श्यून्गनू के उच्च वर्ग के लोगों की
कब्रों से मिली पुरातात्विक सामग्री – जैसे रोमन ग्लास,
फारसी वस्त्र और
यूनानी चांदी के सिक्के – बताती हैं कि उनकी पहुंच दूर-दूर तक थी। लेकिन आनुवंशिक
साक्ष्य बताते हैं कि बात सिर्फ व्यापार तक सीमित नहीं थी बल्कि इससे अधिक थी।
श्यून्गनू काल के ग्यारह कंकालों के अध्ययन से पता चला है कि इनकी आनुवंशिक छाप उन
सरमेशियाई घुमंतू योद्धाओं जैसी है जिन्होंने काले सागर के उत्तर में राज किया था।
शोधकर्ता अब जीनोम विश्लेषण की मदद से पता लगाना चाहते हैं कि इस खानाबदोश साम्राज्य ने किस तरह काम किया।(स्रोत फीचर्स)
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कुछ समय पहले डेनमार्क के स्वास्थ्य अधिकारियों ने कहा था कि
मिंक और लोगों में सार्स-कोव-2 के उत्परिवर्तनों के चलते कोविड-19 टीकों की
प्रभावशीलता खतरे में पड़ सकती है। इस खबर के मद्देनज़र डेनमार्क के प्रधानमंत्री ने
4 नवंबर को घोषणा की कि मिंक-पालन समाप्त किया जाए और डेढ़ करोड़ से भी अधिक मिंक को
मौत के घाट उतार दिया जाए। इस घोषणा से बहस छिड़ गई और वैज्ञानिकों द्वारा डैटा
विश्लेषण किए जाने तक इस फैसले को स्थगित कर दिया गया। गौरतलब है कि मिंक एक
प्रकार का उदबिलाव होता है जिसे विर्सक भी कहते हैं।
अब,
डैटा की समीक्षा में
युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड की एस्ट्रिड इवर्सन का कहना है कि ये उत्परिवर्तन अपने
आप में चिंताजनक नहीं हैं क्योंकि इस बात के बहुत कम सबूत हैं कि मिंक में हुए ये
उत्परिवर्तन सार्स-कोव-2 वायरस को लोगों में आसानी से फैलने में मदद करते हैं,या वायरस को अधिक
घातक बनाते हैं या चिकित्सा और टीकों की प्रभाविता को कम करते हैं।
लेकिन फिर भी कुछ वैज्ञानिकों को लगता है
कि मिंक को मारना शायद आवश्यक है क्योंकि जून के बाद से 200 से अधिक मिंक फार्म
में यह वायरस तेज़ी से और अनियंत्रित तरीके से फैला है। इसके चलते ये वायरस के स्रोत
हो गए हैं जहां से वह लोगों को आसानी से संक्रमित कर सकता है। डेनमार्क में मिंक
की संख्या वहां की लोगों की आबादी की तीन गुना है,
और देखा गया है कि
जिन फार्म के मिंक संक्रमित हुए हैं उन इलाकों के लोगों में कोविड-19 के मामले बढ़े
हैं। अंतत: 10 नवंबर को डेनमार्क सरकार ने किसानों से मिंक का खात्मा करने का
आग्रह किया।
40 मिंक फार्म से लिए गए नमूनों में वायरस
के 170 संस्करण दिखे। और डेनमार्क के कुल कोविड-19 मामलों के 20 प्रतिशत मामलों
में लगभग 300 संस्करण दिखे, ये संस्करण मिंक में भी देखे गए। अत: माना
जा रहा है कि ये उत्परिवर्तन पहले मिंक में उभरे थे।
मिंक और लोगों के सार्स-कोव-2 के स्पाइक प्रोटीन में भी कई उत्परिवर्तन देखे गए थे। यह वायरस स्पाइक प्रोटीन के ज़रिए ही कोशिकाओं में प्रवेश करता है। स्पाइक प्रोटीन में परिवर्तन प्रतिरक्षा प्रणाली की संक्रमण को पहचानने की क्षमता को प्रभावित कर सकता है। कई टीके प्रतिरक्षा प्रणाली को स्पाइक प्रोटीन की पहचान करवाकर उसे अवरुद्ध करने पर आधारित हैं। विशेष रूप से स्पाइक प्रोटीन का क्लस्टर-5 नामक उत्परिवर्तन अधिक चिंता का विषय है। इसमें तीन एमिनो एसिड में बदलाव और दो स्पाइक प्रोटीन में दो एमिनो एसिड का विलोपन देखा गया। प्रारंभिक प्रयोगों में, कोविड-19 से उबर चुके लोगों की एंटीबॉडीज़ के लिए अन्य उत्परिवर्तित वायरस के मुकाबले क्लस्टर-5 उत्परिवर्तन वाले वायरस की पहचान करना ज़्यादा मुश्किल था। इससे लगता है कि इस संस्करण पर एंटीबॉडी उपचार या टीकों का कम असर पड़ेगा। और इसलिए मिंक को मारने की सलाह दी गई। मिंक में हुआ एक अन्य उत्परिवर्तन (Y453F) 300 से अधिक लोगों में दिखा था। इस संस्करण के भी स्पाइक प्रोटीन के एमिनो एसिड परिवर्तन में परिवर्तन हुआ है। और यह भी मोनोक्लोनल एंटीबॉडी से बच निकलता है। समीक्षकों का कहना है कि ये दावे संदेहास्पद हैं क्योंकि क्लस्टर-5 संस्करण बहुत कम मामलों में दिखा है – 5 मिंक फार्म और 12 लोगों में। जो संक्रमित लोग मिले हैं उनमें से कई मिंक फार्म पर काम करते थे और सितंबर के बाद से यह संस्करण दिखा भी नहीं है। लिहाज़ा टीकों और उपचार की प्रभाविता को लेकर कोई भी निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगी। अलबत्ता, मिंकों की बलि तो चढ़ाई ही जाएगी।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-020-03218-z/d41586-020-03218-z_18579560.jpg
पश्चिमी निमाड़ (मध्य प्रदेश) के एक गांव के स्कूल के गेट के निकट
सर्प देवता के छोटे-छोटे मंदिरों की कतार ध्यान खींचती है। वैसे तो सर्प देवता के
मंदिर निमाड़ अंचल में पग-पग पर दिखाई देंगे लेकिन यहां एक साथ इतने मंदिर देखकर
आश्चर्य होता है। गांव के एक बुज़ुर्ग ने बताया कि ये सर्पदंश से मृतकों की
समाधियां हैं।
अन्य गांवों की तरह यह गांव भी खेतों, खलिहानों
व झाड़-झंखाड़ से घिरा है। गांव में प्रवेश करते ही खुली नालियां गांव के घरों से
सटी हुई उफनती दिखती हैं। मकानों की छतों,
आंगन व ज़मीन पर अनाज
सुखाया व भंडारित किया जाता है। घास-चारा भी घरों के ही एक हिस्से में जमा किया
जाता है। तो चूहों की मौजूदगी स्वाभाविक है।
भारत में सर्पदंश से मृत्यु के आंकड़े भयावह
है। आज भी सर्पदंश से पीड़ित मरीज़ अस्पताल की दहलीज तक नहीं पहुंच पाते हैं। वे या
तो जल्द ही काल के गाल में समा जाते हैं या फिर झाड़-फूंक,
टोने-टोटके पर भरोसा
किया जाता है। यह भरोसा तब और पुख्ता हो जाता है जब मरीज़ को विषहीन सर्प ने काटा
हो। या अगर विषैले सर्प ने डसा भी हो तो दंश सूखा हो,
अर्थात विष मरीज़ के
शरीर में पहुंचा ही न हो। ऐसा तब होता है जब विषैले सर्प की विष थैलियों में विष
बचा ही न हो और उसने अपनी जान बचाने के लिए डसा हो। इसलिए मरीज़ मृत्यु से बच जाते
हैं।
सर्पदंश का खतरा अधिकतर ग्रामीण इलाकों व
कृषि जगत से जुड़ा है। दुनिया भर में हर वर्ष सर्पदंश से लगभग एक लाख लोग दम तोड़
देते हैं। इनमें से आधी मौतें अकेले भारत में होती हैं। भारत में मौतों का आंकड़ा
ज़्यादा भी हो सकता है क्योंकि आज भी भारत में सर्पदंश के कई मामले अस्पताल तक नहीं
पहुंच पाते।
निमाड़ ज़िले के एक गांव में सर्पदंश से या अन्य कारणों से अकाल मृत्यु होने पर शव का दाह संस्कार करने की बजाय दफन किया जाता है।
उस गांव में एक शादीशुदा महिला को सांप ने काटा था। वह महिला खलिहान में कपास की काठी लेने को गई थी। जैसे ही महिला कपास के ढेर में से काठियां उठाने लगी कि सांप ने डस लिया। उस परिवार में शादी तीज-त्यौहार के समय उक्त महिला के समाधि स्थल की पुताई की जाती है और पूजा की जाती है।
एक बालक की समाधि भी है। बताया जाता है कि वह खेत में गया था जहां उसे सांप ने डस लिया।
एक और समाधि गोविंद नामक एक अधेड़ व्यक्ति की है। बताते हैं कि गोविंद सांपों के बारे में थोड़ा-बहुत जानते थे। एक बार सांप दिखने पर गोविंद ने उसका मुंह पकड़ लिया। पकड़ थोड़ी ढीली हुई तो उसने हाथ में डस लिया। झाड़-फूंक वगैरह के बाद लगभग 15 किलोमीटर दूर अस्पताल पहुंचते-पहुंचते गोविंद ने दम तोड़ दिया।
गांववासी बताते हैं कि ऐसी समाधियां अन्य गांवों में भी हैं।
आंकड़े बताते हैं कि ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप
में भारत की तुलना में अधिक विषैले सांप हैं;
फिर भी भारत में
सर्पदंश से मृत्यु का आंकड़ा कहीं अधिक है। इसकी प्रमुख वजह यह है कि भारत में
सर्पदंश को लेकर फ्रंटलाइन तैयारी कमज़ोर है। ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक
चिकित्सा की व्यवस्था नहीं होती। दूसरी ओर,
प्राथमिक चिकित्सा
केंद्रों पर एंटी-वेनम सीरम का टीका उपलब्ध नहीं होता। इससे जुड़ी समस्या यह है कि
एंटी-वेनम सीरम का टीका लगाने का अनुभव रखने वाले चिकित्सकों का अभाव है।
सेंटर फॉर ग्लोबल हेल्थ रिसर्च, युनिवर्सिटी
ऑफ टोरंटो के साथ भारत व संयुक्त राज्य अमेरिका के साथियों द्वारा किए गए अध्ययन
से पता चलता है कि 2000 से 2019 के दौरान 12 लाख लोगों की मृत्यु सर्पदंश से हुई
(सालाना लगभग 58,000)।
सन 2009 से विश्व स्वास्थ्य संगठन ने
विषैले सर्पदंश को ‘नेग्लेक्टेड ट्रॉपिकल डिसीज़’ यानी उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोग
की श्रेणी में सूचीबद्ध किया है। सर्पदंश की सबसे अधिक घटनाएं दुनिया के 149
उष्णकटिबंधीय देशों में होती हैं। इससे अरबों डॉलर के नुकसान का आकलन है।
उपरोक्त अध्ययन का मकसद भारत में घातक
सर्पदंश का शिकार होने वाले लोगों की पहचान करना और उनके जीवन पर होने वाले असर को
जानना था। सर्पदंश की वजह से मृत्यु के अलावा लकवा मारना,
रक्तस्राव, किडनी
खराब होना और गैंग्रीन होना आम बात है। यह अध्ययन सिफारिश करता है कि सर्पदंश को
भारत सरकार नोटिफाएबल डिसीज़ के रूप में शामिल करे।
भारत में सांपों की लगभग 3000 प्रजातियां
पाई जाती हैं। इनमें से मात्र 15 प्रजातियों के सांप विषैले होते हैं। इन 15 में
से भी केवल चार प्रजातियां ऐसी हैं जिनके दंश से मरीज़ मौत के मुंह में समा जाते
हैं। इन्हें विषैली चौकड़ी के नाम से जाना जाता है। ये हैं नाग (कोबरा), दुबोइया
(रसेल वाइपर), फुर्सा (सॉ-स्केल्ड वाइपर),
और घोणस (करैत)। भारत
में 20 वर्षों के आंकड़ों का विश्लेषण बताता है कि सर्पदंश से सबसे अधिक मौतें
(लगभग 43.2 प्रतिशत) रसेल वाइपर के काटने से हुई। उसके बाद करैत (17.7 प्रतिशत) व
कोबरा (11.7 प्रतिशत) आते हैं।
भारत में सर्पदंश से होने वाली मौतों में
97 फीसदी मौतें ग्रामीण इलाकों में होती है। सर्पदंश की कुल मौतों में 70 फीसदी
बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश,
ओडिशा, उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश, राजस्थान
और गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में हुई। अध्ययन बताते हैं कि सर्पदंश से मरने
वालों में पुरुष (59 प्रतिशत) अधिक होते हैं। ये घटनाएं जून से सितंबर के बीच अधिक
होती है। अधिकतर सांप मानसून के मौसम में ज़मीन पर आ जाते हैं और यहां-वहां अपने
बचाव में, शिकार की खोज आदि के लिए भटकते हैं। सांप खेतों, जंगलों
या ऐसी जगहों पर मिलते हैं जहां उनका भोजन उपलब्ध होता है।
सर्पदंश की अधिकांश घटनाएं जंगल, खेतों में होती हैं जहां से मरीज़ को
चिकित्सा केंद्र पर लाना भी संभव नहीं होता।
और सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इन मौतों में
से सत्तर फीसदी 20 से 50 बरस की आयु के वे पुरुष होते हैं जो रोज़ी-रोटी का इंतज़ाम
करते हैं।
गांवों में अपर्याप्त बुनियादी सुविधाएं
जैसे प्रकाश की व्यवस्था, सीवेज सिस्टम,
स्वच्छता के अभाव में
चूहों की बढ़ती आबादी सर्पदंश को बढ़ावा देती है।
अध्ययन में यह बात भी सामने आई कि अधिकांश
मज़दूर और किसान खेत में काम करते वक्त जूते नहीं पहनते। लगभग 70 फीसदी सर्पदंश
पैरों में होता है। ज़मीन पर सोना सर्पदंश को आमंत्रण देता है। घर के पास पशुओं को
बांधा जाता है। परिणामस्वरूप चूहे और पीछे-पीछे सांप अधिक आते हैं।
सर्पदंश से पीड़ित मरीज़ पर वित्तीय बोझ भी
पड़ता है। एक ओर जहां मरीज़ों को अस्पताल का भारी खर्च उठाना पड़ता है वहीं वह श्रम
से हाथ धो बैठता है। यह भी देखा गया है कि सर्पदंश से ग्रसित मरीज़ अगर बच भी जाता
है तो वह मनोवैज्ञानिक तनाव से गुज़रता है। खासकर रसेल वाइपर व फुर्सा के दंश के
मामले में मरीज़ बच तो जाते हैं लेकिन उनके दंश वाले अंगों में गैंग्रीन हो जाता है
और उस अंग को काटना पड़ता है।
अध्ययन अनुशंसा करता है कि सांपों व
सर्पदंश के बारे में लोगों को शिक्षित व जागरूक किया जाए। सांपों से बचाव के लिए
खेत-जंगल में काम करने के दौरान जूते व दस्ताने पहनना और रोशनी के लिए टार्च का
इस्तेमाल सर्पदंश के जोखिम को कम कर सकता है। मच्छरदानी का व्यापक वितरण व
इस्तेमाल मच्छरों के साथ ही रात में सांपों से बचा सकता है।
यह अध्ययन इस ओर भी ध्यान दिलाता है कि
समस्या चिकित्सा विज्ञान की प्राथमिकता की भी है। चिकित्सा विज्ञान के पाठ्यक्रम
में सर्पदंश को हाशिए पर रखा हुआ है। छात्रों को सर्पदंश का पाठ पढ़ाया तो जाता है
लेकिन जो डॉक्टर तैयार होते हैं उन्हें सर्पदंश का मैदानी अनुभव न के बराबर मिल
पाता है। ऐसे में सर्पदंश के लक्षणों के आधार पर पता लगाना कि किस सांप ने काटा है
और एंटी-वेनम की खुराक कितनी देनी है, जैसी बारीकियों के अनुभव से वे वंचित होते
हैं।
अध्ययन एक और बात की ओर इशारा करता है।
वर्तमान में जो एंटी-वेनम सीरम उपलब्ध है वह केवल स्पेक्टेकल्ड कोबरा, कॉमन
करैत, रसेल वाइपर व सॉ-स्केल्ड वाइपर के विष को बेअसर कर पाता है।
12 अन्य विषैली प्रजातियों के खिलाफ यह असरकारक नहीं होता।
वर्तमान में चैन्नई के पास इरूला
को-ऑपरेटिव सोसायटी एंटी-वेनम के निर्माण के लिए सांपों का विष उपलब्ध कराती है।
उल्लेखनीय है कि इरूला जाति के लोग सांपों को पकड़ने में निपुण माने जाते हैं।
रोमुलस व्हिटेकर की पहल पर इरूला को-ऑपरेटिव सोसायटी का गठन किया गया जो सांपों का
विष निकालते हैं और वापस उन्हें जंगल में छोड़ देते हैं। सोसायटी विष प्राप्त करके
एंटी-वेनम सीरम का निर्माण करती है और कुछ दवा कंपनियों को उपलब्ध करवाती है।
लेकिन यह देखने में आया है कि दक्षिण भारत
में पाए जाने वाले स्पेक्टेकल्ड कोबरा या रसेल वाइपर का विष पूर्वी भारत में पाए
जाने वाली उसी प्रजाति के विष से भिन्न होता है। यह फर्क होने से भी कई बार
एंटी-वेनम सीरम कारगर नहीं होता।
निमाड़ ज़िले के एक गांव में सर्पदंश से
या अन्य कारणों से अकाल मृत्यु होने पर शव का दाह संस्कार करने की बजाय दफन
किया जाता है।
उस गांव में एक शादीशुदा महिला को सांप
ने काटा था। वह महिला खलिहान में कपास की काठी लेने को गई थी। जैसे ही महिला
कपास के ढेर में से काठियां उठाने लगी
कि सांप ने डस लिया। उस परिवार में शादी तीज-त्यौहार के समय उक्त महिला के
समाधि स्थल की पुताई की जाती है और पूजा की जाती है।
एक बालक की समाधि भी है। बताया जाता है
कि वह खेत में गया था जहां उसे सांप ने डस लिया।
एक और समाधि गोविंद नामक एक अधेड़
व्यक्ति की है। बताते हैं कि गोविंद सांपों के बारे में थोड़ा-बहुत जानते थे।
एक बार सांप दिखने पर गोविंद ने उसका मुंह पकड़ लिया। पकड़ थोड़ी ढीली हुई तो
उसने हाथ में डस लिया। झाड़-फूंक वगैरह के बाद लगभग 15 किलोमीटर दूर अस्पताल
पहुंचते-पहुंचते गोविंद ने दम तोड़ दिया।
गांववासी बताते हैं कि ऐसी समाधियां
अन्य गांवों में भी हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह लक्ष्य निर्धारित किया है कि वर्ष 2030 तक सर्पदंश को नियंत्रित कर मृत्यु दर को आधा कर लिया जाएगा। सर्पदंश के खिलाफ तभी प्रभावी नियंत्रण किया जा सकता है जब सार्वजनिक चिकित्सा का दृष्टिकोण सकारात्मक हो। सर्पदंश के मामले में हस्तक्षेप स्थानीय स्तर पर ही किया जाना चाहिए। तभी मरीज़ों को मृत्यु से बचाया जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
साल 2018-19 में पर्यावरण के हितैषी अंतर्राष्ट्रीय समुदायों
के बीच खासा उत्साह का माहौल था। दरअसल, संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट से यह
पता चला था कि साल 2000 से ओज़ोन परत में 2 फीसदी की दर से सुधार हो रहा है।
संयुक्त राष्ट्र संघ की इस रिपोर्ट से यहां तक कयास लगाए जा रहे थे कि सदी के मध्य
तक ओज़ोन परत पूरी तरह दुरुस्त हो जाएगी।
मगर हाल में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा
और अमेरिका के ही नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एन.ओ.ए.ए.) ने
अवलोकनों के आधार पर बताया है कि इस साल अंटार्कटिका का ओज़ोन सुराख अपने वार्षिक
आकार के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है। इसका आकार 20 सितंबर को 2.48 करोड़ वर्ग
किलोमीटर हो गया था। इसने आशावादियों को थोड़ा चिंतित कर दिया है। ‘थोड़ा’ इसलिए
क्योंकि वैज्ञानिकों का कहना है कि लगातार ठंडे तापमान और तेज़ ध्रुवीय हवाओं की
वजह से अंटार्कटिका के ऊपर ओज़ोन की परत में गहरा सुराख हुआ है। यह सुराख सर्दियों
तक बना रहेगा और उसके बाद गर्मियों से ओज़ोन परत में धीरे-धीरे सुधार आने लगेगा।
धरती पर जीवन के लिए ओज़ोन परत का बहुत
महत्व है। पृथ्वी के धरातल से लगभग 25-30 किलोमीटर की ऊंचाई पर वायुमंडल के समताप
मंडल (स्ट्रेटोस्फेयर) में ओज़ोन गैस का एक पतला-सा आवरण है। यह आवरण धरती के लिए
एक सुरक्षा कवच की तरह काम करता है। यह सूर्य से आने वाले पराबैंगनी विकिरण को सोख
लेता है। अगर ये किरणें धरती तक पहुंचें तो कई खतरनाक और जानलेवा बीमारियों का
प्रकोप बढ़ सकता है। इसके अलावा ये पेड़-पौधों और जीवों को भी भारी नुकसान पहुंचाती
हैं।
घरेलू इस्तेमाल के लिए और थोड़ी मात्रा में
खाद्य पदार्थों को ठंडा रखने के लिए साल 1917 से ही रेफ्रिजरेटर या फ्रिज का
व्यावसायिक पैमाने पर निर्माण शुरू हो चुका था। हालांकि तब रेफ्रिजरेशन के लिए
अमोनिया या सल्फर डाईऑक्साइड जैसी विषैली और हानिकारक गैसों का इस्तेमाल किया जाता
था। रेफ्रिजरेटर से इनका रिसाव जान-माल के लिए बेहद घातक था। इसलिए जब जर्मनी और
अमेरिका के वैज्ञानिकों ने रेफ्रिजरेशन के लिए क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) की खोज
की, जो प्रकृति में नहीं पाया जाता,
तो रेफ्रिजरेटर सर्वसाधारण
के इस्तेमाल के लिए सुरक्षित और सुलभ हो गए। इस खोज के बाद क्लोरोफ्लोरोकार्बन का
इस्तेमाल व्यापक पैमाने पर एयर कंडीशनर, एरोसोल कैंस,
स्प्रे पेंट, शैंपू
आदि बनाने में किया जाने लगा, जिससे हर साल अरबों टन सीएफसी वायुमंडल में
घुलने लगा। सीएफसी वायुमंडल की ओज़ोन को नुकसान पहुंचाता है।
ओज़ोन परत को नुकसान से बचाने के लिए 1987
में मॉन्ट्रियल संधि लागू हुई जिसमें कई सीएफसी रसायनों और दूसरे औद्योगिक एयरोसॉल
रसायनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अभी तक विश्व के तकरीबन 197 देश इस संधि पर
हस्ताक्षर कर ओज़ोन परत को नुकसान पहुंचाने वाले रसायनों के इस्तेमाल पर रोक लगाने
के लिए हामी भर चुके हैं।
इस संधि के लागू होने से सीएफसी और अन्य
हानिकारक रसायनों के उत्सर्जन में धीरे-धीरे कमी आई। मगर साल 2019 में नेचर की एक
रिपोर्ट के मुताबिक अब भी चीन जैसे देश पर्यावरण से जुड़े अंतर्राष्ट्रीय समझौतों
का उल्लंघन करते हुए ओज़ोन परत के लिए घातक गैसों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल कर रहे
हैं। चीन का फोम उद्योग अवैध रूप से सीएफसी-11 का उपयोग ब्लोइंग एजेंट के रूप में
करता रहा है। चूंकि अन्य विकल्पों की तुलना में सीएफसी-11 सस्ता है, इसलिए
उद्योग पॉलीयूरेथेन फोम बनाने के लिए इसका उपयोग करते हैं। चीन में सीएफसी की
तस्करी की समस्या भी चिंता का सबब बनी हुई है। देखने वाली बात यह है कि क्या चीनी
सरकार पर्यावरण विरोधी ऐसी गतिविधियों पर लगाम लगा पाएगी या फिर पिछले वैज्ञानिकों
और पर्यावरणविदों की 30 सालों की मेहनत पर पानी फिर जाएगा।
बहरहाल,
नासा और एन.ओ.ए.ए. के
हालिया अध्ययनों में दक्षिणी ध्रुव के ऊपर समताप मंडल में चार मील ऊंचे स्तंभ में
ओजोन की पूर्ण गैर-मौजूदगी दर्ज की गई है। वैज्ञानिकों का कहना है कि पिछले 40 साल
के रिकॉर्ड के अनुसार साल 2020 में ओज़ोन सुराख का यह 12वां सबसे बड़ा क्षेत्रफल है।
वहीं गुब्बारों पर लगे यंत्रों से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार यह पिछले 33 सालों में
14वीं न्यूनतम ओज़ोन की मात्रा है। नासा के गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर में अर्थ
साइंसेज़ के प्रमुख वैज्ञानिक पॉल न्यूमैन के मुताबिक साल 2000 के उच्चतम स्तर से
समताप मंडल में क्लोरीन और ब्रोमीन का स्तर सामान्य स्तर से 16 प्रतिशत गिरा है।
क्लोरीन और ब्रोमीन के अणु ही ओज़ोन अणुओं को ऑक्सीजन के अणुओं में बदलते हैं।
सर्दियों के मौसम में समताप मंडल के बादलों
में ठंडी परतें बन जाती है। ये परतें ओज़ोन अणुओं का क्षय करती हैं। गर्मी के मौसम
में समताप मंडल में बादल कम बनते हैं और अगर वे बनते भी हैं तो लंबे वक्त तक नहीं
टिकते, जिससे ओज़ोन के खत्म होने की प्रक्रिया धीमी हो जाती है।
सर्दियों में तेज़ हवाओं और बेहद ठंडे वातावरण की वजह से क्लोरीन के अणु ओज़ोन परत
के पास इकट्ठे हो जाते हैं। क्लोरीन के ये अणु सूर्य की पराबैंगनी किरणों के
संपर्क में आने पर परमाणुओं में टूट जाते हैं। क्लोरीन परमाणु ओज़ोन अणुओं से टकरा
कर उसे ऑक्सीजन में तोड़ देते हैं।
हम अपने दैनिक जीवन में बहुत से ऐसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं जिनमें से ज़्यादातर में से किसी न किसी गैस का रिसाव ज़रूर होता है। इनमें मुख्य रूप से एयर कंडीशनर हैं जिनमें ओज़ोन परत के लिए घातक फ्रियान-11, फ्रियान-12 गैसों का उपयोग होता है। दरअसल इन गैसों का एक अणु ओज़ोन के लाखों अणुओं को नष्ट करने में समर्थ होता है! बहरहाल, ओज़ोन संरक्षण के लिए सशक्त कदम उठाने की आवश्यकता है। ओज़ोन परत को बचाने के लिए हमें अपनी जीवन शैली में आमूल-चूल परिवर्तन लाना होगा।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.theconversation.com/files/215462/original/file-20180418-163998-h02rtb.jpg?ixlib=rb-1.1.0&q=45&auto=format&w=1000&fit=clip
इस वर्ष का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार ब्लैक होल के लिए दिया
गया है। ब्लैक होल भौतिकी की एक रोमांचक गुत्थी रही है और आज भी यह कई सवालों को
जन्म देती है। इस वर्ष के पुरस्कार ने एक बार फिर विज्ञान की मूलभूत प्रकृति को
उजागर किया है। इसमें एक ओर तो सैद्धांतिक परिकल्पनाएं और सिद्धांत विकसित करना
तथा दूसरी ओर उन परिकल्पनाओं/सिद्धांतों को यथार्थ के धरातल पर परखना शामिल है।
इस वर्ष के पुरस्कार का आधा हिस्सा 92
वर्षीय रॉजर पेनरोज़ को दिया गया है और शेष आधा हिस्सा राइनहार्ड गेंज़ेल तथा
एंड्रिया गेज़ के बीच बंटा है।
सबसे पहले तो यह समझ लें कि ब्लैक होल
(कृष्ण विवर) होते क्या हैं। ये अत्यंत भारी और सघन पिंड होते हैं। इनका
गुरुत्वाकर्षण इतना अधिक होता है कि कोई भी चीज़ इन्हें छोड़कर जा नहीं पाती। और तो
और, प्रकाश जैसी द्रुतगामी चीज़ भी ब्लैक होल के गुरुत्वाकर्षण
में फंसकर रह जाती है।
अल्बर्ट आइंस्टाइन ने 1915 में सामान्य
सापेक्षता का सिद्धांत प्रस्तुत किया था। इस सिद्धांत ने गुरुत्वाकर्षण की ज़्यादा
संतोषजनक व्याख्या की और बताया कि कैसे वज़नदार पिंड अपने आसपास के स्थान और समय को
तोड़ते-मरोड़ते हैं। इस सिद्धांत ने सूर्य के आसपास ग्रहों के परिक्रमा पथों की
व्याख्या की, आकाशगंगा के केंद्र के इर्द-गिर्द सूर्य की परिक्रमा की
व्याख्या की। कोई भी भारी पिंड स्थान को विकृत करता है और समय की चाल को धीमा कर
देता है। और अत्यंत भारी हो तो वह स्थान के एक टुकड़े को इस तरह अपने में समा लेता
है कि वह बाहर से अदृश्य हो जाता है। ऐसे भारी सघन पिंड को ब्लैक होल कहते हैं।
आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत
का एक तकाज़ा यह था कि ब्लैक होल का अस्तित्व होना चाहिए। पेनरोज़ ने निहायत जटिल
एवं नवाचारी गणनाओं के द्वारा यह दर्शाया था कि ब्लैक होल वास्तव में हो सकते हैं।
वैसे सिद्धांत के प्रकाशन के चंद हफ्तों बाद ही जर्मन भौतिक शास्त्री कार्ल श्वार्ज़चाइल्ड
ने ब्लैक होल सम्बंधी भविष्यवाणी प्रस्तुत की थी। आगे अध्ययनों से पता चला था कि
जब कोई ब्लैक होल बनता है तो उसके आसपास एक सीमा होती है जिसे इवेंट होराइज़न कहते
हैं। इवेंट होराइज़न वह सतह है जिसके अंदर जाने के बाद कुछ भी वापिस बाहर नहीं
निकलता। जितना अधिक द्रव्यमान होगा इवेंट होराइज़न उतना ही विशाल होगा। यदि हम यह
सोचें कि सूर्य के बराबर द्रव्यमान वाला ब्लैक होल बनेगा तो उसका इवेंट होराइज़न
लगभग तीन किलोमीटर व्यास का होगा और यदि पृथ्वी ब्लैक होल में परिवर्तित हुई तो
उसके इवेंट होराइज़न का व्यास मात्र 9 मि.मी. होगा।
ब्लैक होल जो भी हो, लेकिन
भौतिक शास्त्रियों के लिए ये विशालकाय तारों के जीवन चक्र के अंतिम पड़ाव होते हैं।
विशालकाय तारों के नाटकीय रूप से ढहने की सबसे पहली गणना रॉबर्ट ओपनहाइमर ने की
थी। उन्होंने बताया था कि जब सूर्य से कई गुना भारी तारे में नाभिकीय र्इंधन चुक
जाता है तो वह अचानक फैलता है और सुपरनोवा बन जाता है। फिर फैलने के लिए और ऊर्जा
न बचने पर वह अपने गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़ता है और अत्यंत सघन पिंड बन जाता
है – यही ब्लैक होल है।
लेकिन 1960 तक यह सिर्फ सैद्धांतिक गणना
थी। इसमें भारतीय वैज्ञानिक चंद्रशेखर ने गणना करके बताया था कि किसी तारे की ऐसी
स्थिति तब हो सकती है जब उसका द्रव्यमान सूर्य से डेढ़ गुना से अधिक हो, जिसे
चंद्रशेखर सीमा कहते हैं।
ब्लैक होल के अस्तित्व का मुद्दा एक बार
फिर 1963 में सुर्खियों में आया जब क्वासर की खोज हुई। खगोल शास्त्री इस अवलोकन को
लेकर चक्कर में थे कि ब्रह्मांड में रेडियो किरणों के रहस्यमय स्रोत हैं। जैसे, कन्या
तारामंडल में ऐसा ही एक स्रोत खोजा गया था – 3क्273 – जो हमसे इतना दूर है कि वहां
से चले प्रकाश को हम तक पहुंचने में अरबों साल लगते हैं। कयास लगाया गया कि यदि यह
स्रोत इतना दूर है तो अवश्य ही यह अत्यंत दैदीप्यमान – कई सैकड़ों निहारिकाओं के
बराबर चमकदार – होगा क्योंकि तभी तो उसका प्रकाश हम तक पहुंच पाएगा। इसे क्वासर
नाम दिया गया था। यह भी स्पष्ट था कि जो प्रकाश आज हम तक पहुंच रहा है वह तब
उत्पन्न हुआ होगा जब ब्रह्मांड अपने शैशव में था। क्वासर के प्रकाश का स्रोत यह
होना चाहिए कि बाहरी पदार्थ किसी ब्लैक होल में समा रहा है।
अंतत: रॉजर पेनरोज़ ने गणना करके बताया कि
किन परिस्थितियों में ब्लैक होल का निर्माण हो सकता है। उन्होंने इस गुत्थी को
सुलझाने के लिए जिस अवधारणा का सहारा लिया वह थी बंदी सतह (ट्रैप्ड सर्फेस) की
अवधारणा। बंदी सतह उसे कहते हैं जो सारी किरणों को केंद्र की ओर निर्दिष्ट करती
है। पेनरोज़ यह दर्शाने में सफल रहे थे कि ब्लैक होल अपने अंदर एक सिंगुलेरिटी को
छिपाए रखता है और इसका घनत्व अनंत होता है। गुत्थी को सुलझाने के लिए पेनरोज़ ने
जिन विधियों का विकास किया था, वे आज भी ब्रह्मांड के अध्ययन में उपयोगी
हैं।
ब्लैक होल के अंदर क्या होता है, इसे
जानने का कोई तरीका नहीं है क्योंकि एक बार जो चीज़ अंदर गई वह कभी बाहर नहीं आती।
ब्लैक होल अपने इवेंट होराइज़न के अंदर सारे राज़ दबाए रखते हैं। अलबत्ता, चाहे
हम इन्हें देख न सकें लेकिन इनके शक्तिशाली गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव का अवलोकन
ज़रूर कर सकते हैं। खास तौर से ब्लैक होल के आसपास स्थित तारों की गति में इसकी छाप
नज़र आ जाती है।
राइनहार्ड गेंज़ेल और एंड्रिया गेज़ ने यही
नज़ारा देखने के लिए हमारी अपनी मंदाकिनी ‘आकाशगंगा’ के केंद्र पर नज़रें गड़ार्इं।
आकाशगंगा एक चपटी तश्तरी जैसी है और लगभग 1 लाख प्रकाश वर्ष चौड़ी है। इसमें गैसों
और धूल के अलावा चंद सैकड़ों अरब तारे हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि आकाशगंगा के
केंद्र से जो प्रकाश निकलता है, उसके और हमारे बीच मौजूद गैसें और धूल
उसमें से अधिकांश दृश्य प्रकाश को रोक देती हैं। इंफ्रारेड व रेडियो तरंग दूरबीनें
बनने के बाद ही आकाशगंगा के केंद्र को देख पाना संभव हुआ।
उस क्षेत्र के तारों के परिक्रमा पथों का
इस्तेमाल करते हुए गेंज़ेल और गेज़ ने पहली बार (1990 के दशक में) इस बात का अकाट्य
प्रमाण प्रस्तुत किया कि आकाशगंगा के केंद्र में कोई अति-वज़नी अदृश्य पिंड मौजूद
है। इसके लिए दोनों शोधकर्ताओं ने विशिष्ट उपकरणों और तकनीकों का विकास किया। इनकी
मदद से वे केंद्र में स्थित तारों की गति का बारीकी से अध्ययन कर पाए।
दोनों वैज्ञानिक ने तारों के जमघट के बीच
तीस के आसपास सबसे चमकीले तारों पर ध्यान केंद्रित किया। देखा गया है कि केंद्र से
एक प्रकाश माह की दूरी तक के तारे सबसे तेज़ चलते हैं और लगता है कि मधुमक्खियां
इधर-उधर भाग रही हैं। इसके बाहर स्थित तारे नियमित रूप से अपने-अपने अंडाकार पथों
पर गति करते हैं। ऐसा एक तारा S2 आकाशगंगा के केंद्र
की एक परिक्रमा मात्र 16 साल में पूरी कर लेता है। तुलना के लिए यह देखिए कि हमारे
सूर्य को आकाशगंगा के केंद्र की परिक्रमा में 20 करोड़ साल लगते हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि गेंज़ेल और
गेज़ दोनों की टीमों के मापन में ज़बरदस्त साम्य है। उन दोनों की गणनाओं से निष्कर्ष
यह निकलता है कि आकाशगंगा के केंद्र में स्थित ब्लैक होल का द्रव्यमान हमारे सूर्य
से 40 लाख गुना अधिक है और यह पूरा द्रव्यमान हमारे सौरमंडल की साइज़ में कैद है।
तो कहानी यह है कि आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत से यह सैद्धांतिक भविष्यवाणी सामने आई कि ब्लैक होल हो सकते हैं। रॉजर पेनरोज़ ने जटिल व नवाचारी गणनाओं की मदद से वास्तविक परिस्थितियों में ब्लैक होल के निर्माण की संभावना दर्शाई और गेंज़ेल व गेज़ ने वास्तविक अवलोकनों से इस संभावना का साकार रूप उजागर किया। और अब तो खगोलविदों ने एक ब्लैक होल की तस्वीर भी शाया कर दी है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://timesofindia.indiatimes.com/thumb/msid-78513367,width-400,resizemode-4/78513367.jpg?imglength=251529
अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) की स्थापना आज से दो दशक पूर्व की गई थी। एक एस्ट्रोनॉट और दो कॉस्मोनॉट के साथ यह मनुष्यों के लंबे समय तक अंतरिक्ष में रहने और पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए वैज्ञानिक प्रयोग करने की शुरुआत थी।
हालांकि शुरुआत में इस परियोजना को व्यर्थ
समझा गया था लेकिन आईएसएस में किए गए अध्ययनों से मनुष्य सहित विभिन्न जीवों पर
अंतरिक्ष उड़ान के प्रभावों तथा अंतरिक्ष में विभिन्न पदार्थों के व्यवहार के बारे
में काफी जानकारी प्राप्त हुई है। इन दो दशकों में अंतरिक्ष यात्रियों ने यहां
लगभग 3000 प्रयोगों को अंजाम दिया है। ये प्रयोग मुख्य रूप से मूलभूत भौतिकी, पृथ्वी
पर्यवेक्षण और बायोमेडिकल क्षेत्रों से जुड़े रहे हैं।
आईएसएस में शून्य गुरुत्व के माहौल में
तैरते हुए नासा की जीव विज्ञानी अंतरिक्ष यात्री केट रुबिंस ने संवाददाताओं को
बताया कि वर्तमान में आईएसएस अधुनातन अनुसंधान उपकरणों से लैस है। कॉन्फोकल
माइक्रोस्कोप से लैस यह स्टेशन किसी विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय से कम नहीं है। हाल
ही में रुबिंस ने स्टेशन पर पौधा विकास चैम्बर पर काम किया है। इसके अलावा
माइक्रोग्रैविटी में तरल बूंदों के सतह के साथ संपर्क की प्रक्रिया पर भी अध्ययन
किए हैं।
गौरतलब है कि स्टेशन पर किए जाने वाले
अधिकांश प्रयोगों का उद्देश्य यह जानना रहा है कि विभिन्न क्रियाएं (जैसे
ज्वाला-दहन और कोशिकाओं के विकास की प्रक्रिया) माइक्रोग्रैविटी में कैसे काम करती
हैं। इसके बाद यह प्रयास किया जाता है कि इन प्रयोगों से प्राप्त परिणामों को
पृथ्वी पर नई तकनीकों या दवाइयों के विकास पर लागू किया जाए।
नासा की पूर्व मुख्य वैज्ञानिक एलेन
स्टोफान के अनुसार लोगों को अंदाज़ नहीं है कि आईएसएस में मानव स्वास्थ्य पर भी
काफी प्रयोग किए गए हैं। जैसे, वैज्ञानिकों ने एस्ट्रोनॉट्स के स्वास्थ्य
(मांसपेशियों की क्षति और विकिरण के प्रभाव)। आगे चलकर ये अध्ययन कई अन्य विषयों
में भी फैलते गए। एक प्रयोग में प्रतिरक्षा तंत्र की टी-कोशिकाओं पर गुरुत्वाकर्षण
के प्रभाव पर अध्ययन किया गया। कक्षा में चक्कर काट रहे एस्ट्रोनॉट्स के कमज़ोर
प्रतिरक्षा तंत्र के कारण के बारे में पता कर वैज्ञानिकों को पृथ्वी पर बेहतर
दवाइयां विकसित करने में मदद मिल सकी।
आईएसएस यूएस, रूस, कनाडा, जापान और 11 युरोपीय देशों की भागीदारी से चलाया जा रहा है। पहले इस स्टेशन को वर्ष 2024 तक जारी रखने की योजना थी लेकिन अब 2028 तक जारी रखने के प्रयास किए जा रहे हैं।(स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/0/04/International_Space_Station_after_undocking_of_STS-132.jpg
सार्स-कोव-2 से संक्रमित रोगियों ने कई ऐसी तकलीफों का अनुभव
किया है जिनका सम्बंध तंत्रिका तंत्र से हो सकता है। जैसे सिरदर्द, जोड़ों
और मांसपेशियों में दर्द, थकान,
सोचने-समझने में
परेशानी, गंध/स्वाद महसूस न होना वगैरह। कुछ गंभीर स्थितियों में तो
मस्तिष्क में सूजन और स्ट्रोक के मामले भी सामने आए हैं। स्पष्ट है कि यह वायरस
तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करता है। लेकिन कैसे?
एक व्याख्या यह थी कि शायद ये प्रतिरक्षा
तंत्र के अति सक्रिय होने के परिणाम हैं। लेकिन ऐसे भी मामले सामने आए जिनमें
रोगियों में थकान और सोचने-समझने की दिक्कतें तो थीं किंतु प्रतिरक्षा प्रणाली
अनियंत्रित नहीं हुई थी। ऐसे में यह स्पष्ट नहीं है कि क्या ऐसे लक्षण प्रतिरक्षा
प्रणाली के अति-सक्रिय होने के कारण हैं या फिर वायरस सीधे तंत्रिका तंत्र पर हमला
करता है। यह भी संभव है कि ये लक्षण वायरस द्वारा उत्पन्न शरीर-व्यापी सूजन के
परिणाम हों।
इस सवाल की खोज करने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ
डैलास के तंत्रिका विज्ञानी थिओडोर प्राइस ने ऐसे कुछ लक्षणों पर ध्यान दिया। इन
लक्षणों में गले में खराश, सिरदर्द,
शरीर-व्यापी दर्द और
गंभीर खांसी शामिल है। खांसी तो तंत्रिकाओं की उत्तेजना से होती है। कुछ मरीज़ों ने
रासायनिक संवेदना की क्षति भी बताई थी और इसकी संवेदना स्वाद तंत्रिकाओं के ज़रिए
नहीं बल्कि दर्द-तंत्रिकाओं द्वारा प्रेषित की जाती है। जब मामूली रोगियों में भी
ऐसे लक्षण दिखें तो लगता है कि संवेदी तंत्रिकाएं सीधे प्रभावित हो रही हैं।
कोशिका पर ACE2 ग्राही की उपस्थिति
से पता चलता है कि कोई कोशिका सार्स-कोव-2 से संक्रमित होगी या नहीं। आरएनए
अनुक्रमण से पता चला कि मेरु-रज्जू के बाहर पाए जाने वाली कुछ तंत्रिका कोशिकाओं
पर ACE2 ग्राही उपस्थित होते हैं।
ऐसे न्यूरॉन्स के सिरे शरीर की सतहों जैसे
त्वचा और फेफड़ों सहित आंतरिक अंगों पर केंद्रित होते हैं। यहां से इनके लिए वायरस
को ग्रहण करना आसान होता है। प्राइस के अनुसार तंत्रिका संक्रमण कोविड के उग्र और
स्थायी लक्षणों में से एक है।
लेकिन टीम का कहना है कि तंत्रिका सम्बंधी
लक्षणों के लिए तंत्रिकाओं का वायरस संक्रमित होना ज़रूरी नहीं है। संक्रमित
रोगियों में काफी मात्रा में साइटोकाइन्स नामक प्रतिरक्षा प्रोटीन्स मिले हैं जो
न्यूरॉन को प्रभावित कर सकते हैं।
एक अन्य अध्ययन में पता चला कि सार्स-कोव-2
का कोशिकाओं में प्रवेश करने का कारण केवल ACE2 ग्राही नहीं बल्कि
एक अन्य प्रोटीन NRP1 भी है। चूहों पर किए गए अध्ययन से मालूम चला है कि NRP1 वायरस के स्पाइक प्रोटीन के संपर्क में आने के बाद उसे कोशिकाओं में प्रवेश
करने में मदद करता है। शायद यह एक सह-कारक के रूप में कार्य करता है।
इसके अलावा एक अन्य परिकल्पना है कि स्पाइक
प्रोटीन NRP1 को प्रभावित करके रोगियों में नोसिसेप्टर्स को शांत कर सकता है जो संक्रमण
की शुरुआत में दर्द-सम्बंधी लक्षणों को दबा देता है। यह प्रोटीन सार्स-कोव-2 से
प्रभावित व्यक्ति में संवेदनाहारी प्रभाव प्रदान करता है जिससे वायरस अधिक आसानी
से फैल सकता है।
अध्ययन से इतना तो स्पष्ट है कि कोविड-19 तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करता है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि तंत्रिका कोशिकाएं संक्रमित होती हैं या नहीं। न्यूरॉन्स को संक्रमित किए बगैर भी यह वायरस कोशिकाओं के लिए घातक सिद्ध हो सकता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/C1B1301E-E578-4B2A-A51AA95EFC2FEB72_source.jpg?w=590&h=800&BCB25E30-B06A-4E81-8FB26A29FC0AF42C
कुछ समय पहले दक्षिणी पेरू में 3925 मीटर की ऊंचाई पर स्थित
विल्माया पटजक्सा नामक पुरातात्विक स्थल पर युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के रैन्डी
हास और उनके साथियों को छ: कब्रगाहों में लगभग 9000 साल पुराने मानव अवशेष मिले
थे। इनमें से दो कब्रों में पत्थर के औज़ार मिले थे जो शिकार में उपयोग किए जाते
थे। लेकिन इनमें से भी एक कब्र काफी दिलचस्प थी;
इसमें पत्थर के 20
फेंककर इस्तेमाल करने वाले औज़ार और ब्लेड शव की जांघ के ऊपरी हिस्से के पास करीने
से रखे हुए थे। ऐसा लगता था जैसे ये कमर पर किसी पाउच में रखे गए हैं। औज़ारों को
देखकर लगता था कि शव किसी प्रमुख शिकारी का होगा। और मान लिया गया कि वह पुरुष ही
रहा होगा।
लेकिन एरिज़ोना विश्वविद्यालय के
जैव-पुरातत्वविद् जिम वाटसन ने गौर किया कि हड्डियां पतली और हल्की हैं, इस
आधार पर उनका अनुमान था यह कोई महिला होगी। और अब हाल ही में हुआ अध्ययन इस अनुमान
की पुष्टि करता है कि वास्तव में यह शव महिला का ही है।
अब तक यह माना जाता रहा है कि प्राचीन
शिकारी-संग्रहकर्ता समूहों में शिकार का काम पुरुष किया करते थे और महिलाएं संग्रह
किया करती थीं। और शायद ही कभी उनकी इस लैंगिक भूमिका में अदला-बदली हुई होगी।
वर्तमान में मौजूद शिकारी-संग्रहकर्ता समूहों पर हुए अध्ययनों ने इस मान्यता को और
भी पुख्ता किया था; जैसे वर्तमान तंजानिया के हदजा समूह और दक्षिणी अफ्रीका के
सैन समूहों में पुरुष बड़े जानवरों का शिकार करते हैं और महिलाएं कंद, फल, मेवे
और बीज इकट्ठा करती हैं। लेकिन साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित यह
अध्ययन इस मान्यता को चुनौती देता और बताता है कि हमेशा से महिलाएं शिकार में
सक्षम थीं और वास्तव में करती भी थीं।
प्राप्त कंकालों के लिंग निर्धारण के लिए
शोधकर्ताओं ने एक नई विधि का उपयोग किया। उन्होंने पता लगाया कि दांत के एनेमल में
एमिलोजेनिन नामक प्रोटीन का नर संस्करण मौजूद है या मादा। पाया गया कि 20 औज़ारों
के साथ दफन शव महिला का था जिसकी उम्र 17-19 वर्ष के बीच होगी, औज़ारों
के साथ मिली दूसरी कब्र पुरुष की थी जिसकी उम्र 25-35 वर्ष के बीच होगी। महिला
कंकाल के दांतों में कार्बन और नाइट्रोजन के समस्थानिकों के अध्ययन से पता चला कि
उसका आहार विशिष्ट शिकारी आहार था।
इन नतीजों से प्रेरित होकर शोधकर्ताओं ने
अमेरिका के अन्य 107 पुरातात्विक स्थलों की 14,000 से 8000 वर्ष पुरानी 429 कब्रों
की पुन: जांच की। शिकार करने वाले औज़ारों के साथ 10 महिलाओं और 16 पुरुषों की कब्र
मिलीं। यह मेटा-विश्लेषण बताता है कि शुरुआत में शिकारी होने का आधार लैंगिक नहीं
था।
लेकिन कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि किसी
व्यक्ति की कब्र में औज़ारों के मिलने का हमेशा यह मतलब नहीं होता कि वे उनका उपयोग
भी करते होंगे, जैसे दो मादा शिशुओं की कब्र में भी औज़ार पाए गए थे। हो
सकता है कि नर शिकारी अपना दुख व्यक्त करने के लिए औज़ार समर्पित करते हों।
बहरहाल, यह शोध जेंडर भूमिकाओं सम्बंधी विमर्श में नया आयाम तो जोड़ता ही है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/hunt_1000p.jpg?itok=mitNxcgF