सिंथेटिक जीव विज्ञानियों ने हाल ही में जेनेटिक इंजीनियरिंग
की मदद से एक ऐसा जीवाणु तैयार किया है जो पेड़-पौधों की तरह हवा से कार्बन
डाईऑक्साइड लेकर अपनी कोशिकाओं का निर्माण करता है। इसके आधार ऐसे सूक्ष्मजीव
तैयार किए जा सकते हैं जो कार्बन डाईऑक्साइड का उपयोग करके दवाइयों और अन्य उपयोगी
यौगिकों का निर्माण कर सकेंगे। जीव वैज्ञानिकों के अनुसार सभी जीवों को दो
श्रेणियों में बांटा जा सकता है: स्वपोषी, जो
प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए अपनी कोशिकाओं का निर्माण करते हैं और परपोषी, जो बाहर से मिलने वाले भोजन के भरोसे रहते हैं।
सिंथेटिक जीव विज्ञानी लंबे समय से ऐसे पौधे और स्वपोषी बैक्टीरिया बनाने की
कोशिश कर रहे हैं जो पानी और कार्बन डाईऑक्साइड की मदद से मूल्यवान रसायन और
र्इंधन का उत्पादन सकें। अन्य तरीकों की अपेक्षा यह तरीका सस्ता है। अभी तक हमारी
आंत में पाए जाने वाले परपोषी बैक्टीरिया ई.कोली को ही एथेनॉल और अन्य
वांछित उत्पाद बनाने के लिए तैयार किया जा सका है। लेकिन इन्हें शर्करा की खुराक
चाहिए।
इस्राइल स्थित वाइज़मैन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस के सिंथेटिक जीव विज्ञानी रॉन
मिलो और उनके सहयोगियों ने ई. कोली को स्वपोषी में बदलने के लिए इस
बैक्टीरिया के चयापचय के दो हिस्सों को फिर से तैयार किया: उसकी ऊर्जा प्राप्त
करने की विधि और उसका कार्बन का स्रोत।
शोधकर्ता सूक्ष्मजीव को प्रकाश संश्लेषण की क्षमता तो प्रदान नहीं कर पाए
लेकिन वे एक ऐसे एंज़ाइम का जीन डालने में कामयाब रहे जिससे बैक्टीरिया सबसे सरल
कार्बन यौगिक फॉर्मेट को पचाने में सक्षम हो गया। यह सूक्ष्मजीव इसके बाद फॉर्मेट
को ATP में बदल देता है जो कोशिकाओं के लिए ऊर्जा का काम करता है। ऊर्जा के इस स्रोत
के साथ सूक्ष्मजीव में तीन नए एंज़ाइम जोड़े जा सके जो कार्बन डाईऑक्साइड को शर्करा
और अन्य कार्बनिक अणुओं का उत्पादन करने में समर्थ बनाते हैं। शोधकर्ताओं ने
चयापचय में भूमिका निभाने वाले कई अन्य एंजाइम को नष्ट कर दिया ताकि बैक्टीरिया इस
नए तरीके पर ही निर्भर हो जाए।
हालांकि,
ये परिवर्तन शुरू में कारगर नहीं रहे क्योंकि शायद
बैक्टीरिया पोषक पदार्थों को अपने पुराने ढंग से इस्तेमाल कर रहा था। इसके लिए
शोधकर्ताओं ने परिवर्तित ई.कोली को नियंत्रित आहार पर रखा जिसमें ज़ायलोज़
नामक शर्करा के साथ फॉर्मेट और कार्बन डाईऑक्साइड थे। इससे सूक्ष्मजीवों को कम से
कम जीवित रहने और प्रजनन करने की गुंजाइश मिली।
इससे विकास की प्रक्रिया शुरू हुई। जो बैक्टीरिया कम ज़ायलोज़ में जीवित रह पाते, वे ज़्यादा विभाजन करते। शोधकर्ताओं ने ज़ायलोज़ की मात्रा में लगातार कमी की।
300 दिन और सैकड़ों पीढ़ियों के बाद ज़ायलोज़ को बिलकुल ही खत्म कर दिया गया। केवल वही
बैक्टीरिया बच गए जो स्वपोषी में तबदील हुए थे। सेल में प्रकाशित रिपोर्ट
के अनुसार इन बैक्टीरिया ने 11 नए आनुवांशिक परिवर्तन हासिल किए जिन्होंने उन्हें
स्वपोषी जीवन अपनाने में समर्थ बनाया। इससे पता चलता है कि जैव विकास कितना कारगर
हो सकता है।
पूर्व में वैज्ञानिकों ने ई.कोली को दवा वगैरह विभिन्न उपयोगी पदार्थ का उत्पादन करने में सक्षम बनाया है। यदि यही काम स्वपोषी ई.कोली से करवाया जा सके तो वे हवा और सौर उर्जा से निर्मित फॉर्मेट से एथेनॉल, दवाइयां, र्इंधन वगैरह बनाने में मदद कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcS8wNfsMIPPV_LOJJNQqVgo4hjkXYyC_ljhucwBhaTK2TRc0nl3
हाल ही में मिस्र के शहर शर्म अल शेख में आयोजित विश्व रेडियो
संचार सम्मेलन में 5जी सेवाओं से उत्सर्जित इलेक्ट्रॉनिक शोर के लिए मानक
निर्धारित कर दिए गए हैं। लेकिन मौसम विज्ञानियों का कहना है कि निर्धारित मानक के
बावजूद यह शोर मौसम सम्बंधी अवलोकनों को प्रभावित करेगा।
दरअसल मार्च 2019 में अमरीका के फेडरल कम्युनिकेशन कमीशन (FCC) ने 5जी सेवाओं के लिए स्पेक्ट्रम आवंटन किया था, जिसके
अनुसार वायरलेस कंपनियां 24 गीगा हर्टज़ पर अपनी सेवाएं देना शुरू कर सकती थीं।
लेकिन इस पर मौसम विज्ञानियों की चिंता थी कि 5जी सेवाओं के लिए इस स्पेक्ट्रम पर
होने वाले प्रसारण मौसम पूर्वानुमान के काम को प्रभावित करेंगे क्योंकि आवंटित
स्पेक्ट्रम मौसम सम्बंधी अवलोकन करने वाले सेंसर्स के स्पेक्ट्रम (23.6 गीगा हर्टज़)
के करीब ही है और प्रसारण से होने वाला शोर सेंसर्स को प्रभावित करेगा।
उपरोक्त राष्ट्र संघ विश्व रेडियो-संचार सम्मेलन में 5जी सेवाओं के लिए
प्रस्तावित 24 गीगाहर्टज़ पर होने वाले प्रसारण से उत्पन्न शोर को -33 डेसिबल वॉट
(dBW) तक सीमित रखना तय किया गया है। और यह मानते हुए कि 8 साल बाद 5जी सेवाएं
इतने व्यापक स्तर पर नहीं रहेगीं, 8 साल बाद प्रसारण से उत्पन्न
ध्वनि को -39 dBW तक सीमित कर दिया जाएगा।
वैसे विश्व मौसम संगठन की मांग प्रसारण से उत्पन्न शोर को -55 dBW पर सीमित रखने की थी ताकि वातावरण में उपस्थित जलवाष्प स्तर सम्बंधी अवलोकन प्रभावित ना हो। लेकिन तय मानक इससे कम हैं, हालांकि ये युरोपीय सिफारिशों के अनुरूप हैं और पूर्व में FCC द्वारा तय मानक (-20 dBW) से अधिक सख्त हैं। विश्व मौसम संगठन के अध्यक्ष एरिक एलेक्स का कहना है कि जब 5जी सेवाएं पूरी तरह शुरू हो जाएंगी तो जलवाष्प संकेतों को थोड़ा कमज़ोर तो करेंगी ही (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQNAxMLneX0xpIJqkPQkT5j_ZSfnZirRkFVbPPeEKOr-nPBkU7R
विष्ठा प्रत्यारोपण यानी किसी स्वस्थ व्यक्ति की विष्ठा में
उपस्थित सूक्ष्मजीव किसी ऐसे व्यक्ति की आंतों में प्रविष्ट कराए जाते हैं जो
आंतों में सूक्ष्मजीव संसार के अभाव के कारण रोगग्रस्त है। फिलहाल विष्ठा
प्रत्यारोपण जैसे उपचार का सहारा उन मामलों में लिया जा रहा है जहां कोई व्यक्ति क्लॉस्ट्रिडियम
डिफिसाइल के संक्रमण से त्रस्त हो, जो जानलेवा भी साबित हो
सकता है। अब विष्ठा प्रत्यारोपण को सामान्य रूप से ऐसी तकलीफों के लिए भी आज़माया
जा रहा है जो क्लॉस्ट्रिडियम डिफिसाइल के कारण उत्पन्न न हुई हों।
पहले किसी स्वस्थ व्यक्ति की विष्ठा में से सूक्ष्मजीवों को पृथक किया जाता है
और फिर इनकी गोली/कैप्सूल बनाकर या एनिमा के माध्यम से रोगी व्यक्ति की आंतों में
पहुंचाया जाता है। इस उपचार के क्लीनिकल परीक्षण के दौरान काफी सावधानी की
आवश्यकता होती है। यह क्लीनिकल परीक्षण मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल में किया जा रहा
है। दी न्यू इंगलैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक इस
परीक्षण में दो व्यक्ति शामिल थे और दोनों को एक ही व्यक्ति की विष्ठा
प्रत्यारोपित की गई थी। जांच इस बात की हो रही थी कि लीवर के रोग के मामले में
विष्ठा प्रत्यारोपण कितना कारगर हो सकता है।
प्रत्यारोपण के अंतिम चरण के आठ दिन बाद एक 73 वर्षीय मरीज़ को बुखार आ गया और
ठंड लगने लगी। उसकी मानसिक हालत भी बिगड़ गई और पूरे शरीर में ऐसे लक्षण दिखने लगे
जैसे उसका शरीर किसी संक्रमण से लड़ रहा हो। दो दिन बाद उसकी मृत्यु हो गई। उसके
रक्त में दवा-प्रतिरोधी बैक्टीरिया ई. कोली पाया गया।
दूसरा मरीज़ 69 वर्षीय था। वह भी इसी प्रकार की अस्वस्थता का शिकार हुआ और उसके खून में भी दवा-प्रतिरोधी ई. कोली मिला लेकिन उसके संक्रमण को दवाइयों से काबू कर लिया गया। इस क्लीनिकल परीक्षण की सुनवाई करके तय किया जाएगा कि यदि आगे बढ़ना है तो कैसे कदम उठाने होंगे। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQC-sBsA1UlrStv8hvmtsPIK9tuDhsrB_wyQPNkxyeF3zvhzOVd
खसरा एक वायरस-जन्य रोग है जो प्राय: बच्चों में होता है।
बुखार,
सूखी खांसी, नाक बहना, मुंह के अंदर फुंसियां और शरीर पर लाल-लाल चकत्ते इसके प्रमुख लक्षण हैं। एक
अनुमान के मुताबिक प्रति वर्ष लगभग एक लाख बच्चों की मृत्यु खसरा यानी मीज़ल्स के
कारण होती है।
खसरा अपने आप में तो एक घातक रोग है ही, हाल के
एक अध्ययन से पता चला है कि यह शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र को भी तहस-नहस कर देता
है। इसके चलते बच्चे अन्य रोगों के प्रति भी दुर्बल हो जाते हैं। सबसे पहले इस बात
का अंदाज़ ऐसे लगा था कि किसी आबादी में खसरा के प्रकोप के बाद अन्य बीमारियों का
प्रकोप भी बढ़ जाता है। मामले की तह तक जाने के लिए नेदरलैंड के ऐसे बच्चों के समूह
का अध्ययन किया गया जिन्हें कोई टीका नहीं लगा था। यू.के. स्थिति वेलकम सैंगर
इंस्टीट्यूट की वेलिस्लावा पेट्रोवा के समूह और हारवर्ड विश्वविद्यालय के स्टीफन
एलिज के समूह ने इनमें से 77 बच्चों के खून के नमूने लिए। जब इलाके में खसरा फैला
तो उसके बाद फिर से इन बच्चों के खून के नमूनों की जांच की गई। जांच का मकसद यह
देखना था कि उनके खून में सामान्य रोगजनक वायरसों के खिलाफ एंटीबॉडी की क्या
स्थिति थी।
पता चला कि खसरा के प्रकोप से पहले सभी बच्चों में विभिन्न वायरसों के विरुद्ध
एंटीबॉडी मौजूद थीं। अर्थात ये तंदुरुस्त बच्चे थे। लेकिन खसरा संक्रमण के बाद के
नमूनों में एंटीबॉडी खज़ाने में से 20 प्रतिशत नष्ट हो चुका था। कुछ में तो
एंटीबॉडी की क्षति 70 प्रतिशत तक देखी गई। जिन बच्चों (जिन्हें खसरा का टीका नहीं
लगा था) को खसरा संक्रमण नहीं हुआ था उनमें ऐसा नहीं हुआ। जिन बच्चों को टीका लगा
था,
उनमें भी एंटीबॉडी को कोई नुकसान नहीं हुआ था।
इसका मतलब है कि यदि गैर-टीकाकृत बच्चे को खसरा होता है तो उसका प्रतिरक्षा
तंत्र वह सब भूल जाता है जो उसने रोगजनकों से लड़ने के बारे में सीखा था। दूसरे
शब्दों में बच्चा प्रतिरक्षा-विस्मृति का शिकार हो जाता है। जंतुओं पर किए गए
प्रयोगों से भी पता चला है कि खसरा वायरस प्रतिरक्षा तंत्र को कमज़ोर करता है।
अध्ययन का एक ही संदेश है। आज जब खसरा का संक्रमण फिर से बढ़ रहा है तो खसरा से बचाव तथा अन्य रोगों से बचाव के लिए भी खसरा टीकाकरण अनिवार्य है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/escyCS2FtGfiBfLcoSLBBe-320-80.jpg
यह जानी-मानी बात है कि काली चाय (जो हम हिंदुस्तान पीते
हैं) वह एक स्वास्थ्यवर्धक पेय है। हेल्थलाइन के 16 मई 2018 के अंक में डॉ.
ए. एनलो ने एक सारगर्भित समीक्षा में इसके दस फायदे गिनाए हैं। इसी प्रकार से कॉफी
के स्वास्थ्यवर्धक गुणों का विश्लेषण स्पेशलिटी मेडिकल डायलॉग्स नामक शोध
पत्रिका के 28 नवंबर 2019 के अंक में प्रकाशित हुआ है। इसमें डॉ. हिना ज़ाहिद लिखती
हैं,
“कॉफी संभवत: हमारे आहार का वह घटक है जिसका सबसे ज़्यादा
अध्ययन किया गया है। इस संदर्भ में मानसिक प्रदर्शन, खेलकूद
में प्रदर्शन,
शरीर में तरल पदार्थों के संतुलन, टाइप-2
मधुमेह,
लीवर के कामकाज, तंत्रिका विघटन विकारों, गर्भावस्था,
कैंसर और ह्रदय-रक्त वाहिनी रोगों पर इसके असर को लेकर काफी
शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं।” एक अनुमान के मुताबिक मेटाबोलिक सिंड्रोम (चयापचय
सम्बंधी लक्षण) दुनिया भर में 1 अरब से ज़्यादा लोगों को प्रभावितकरता है।
(मेटाबोलिक सिंड्रोम कुछ लक्षणों का समूह है जिसमें उच्च रक्तचाप, कमर के आसपास चर्बी जमा होना तथा असामान्य कोलेस्ट्रॉल स्तर शामिल हैं।)
मेटाबोलिक सिंड्रोम होने पर ह्रदय-रक्तवाहिनी रोगों की आशंका बढ़ती है (जिनमें ह्रदयधमनी
रोग तथा स्ट्रोक शामिल हैं)। इंस्टीट्यूट फॉर साइन्टिफिक इन्फॉर्मेशन ऑन कॉफी की
एक रिपोर्ट में मेटोबोलिक सिंड्रोम कम करने में कॉफी की संभावित भूमिका को
रेखांकित करते हुए कहा गया है कि “मेटा-एनालिसिस की ताज़ा रिपोर्ट से लगता है कि
रोज़ाना 1-4 कप कॉफी के सेवन और मेटाबोलिक सिंड्रोम में गिरावट का सम्बंध है।”
मेटा-एनालिसिस का मतलब होता है कि एक ही विषय पर किए गए कई वैज्ञानिक अध्ययनों
के परिणामों का विश्लेषण करके यह देखा जाए कि क्या ये सब एक ही निष्कर्ष पर
पहुंचते हैं और यदि नहीं तो इनके निष्कर्षों में क्या अंतर हैं। इसका फायदा यह
होता है कि निष्कर्ष ज़्यादा भरोसेमंद होते हैं और संदेश स्पष्ट होता है। इटली के
कैटेनिया विश्वविद्यालय के डॉ. गिसेप ग्रॉसो और उनके साथियों का निष्कर्ष है कि
कॉफी के सेवन से टाइप-2 मधुमेह, उच्च रक्तचाप वगैरह की आशंका
कम होती है। नवारो व साथियों द्वारा किए गए एक अन्य मेटा एनालिसिस में पता चला कि
कॉफी का नियमित सेवन उच्च रक्तचाप का खतरा कम करता है।
कॉफी और स्वास्थ्य के बारे में और जानने चाहते हैं, तो http://www.coffeeandhealth.org पर जाएं, जहां कॉफी के स्वास्थ्य
सम्बंधी फायदों की विस्तृत चर्चा की गई है। इन सबसे तो लगता है कि कॉफी एक
स्वास्थ्यवर्धक पेय है। लेकिन थोड़ी मात्रा में (3-5 कप प्रतिदिन)। ज़्यादा पिएंगे
तो यह हानिकारक भी हो सकती है। मेयो क्लीनिक का मत है कि इससे ज़्यादा कॉफी का सेवन
ओवरडोज़ की श्रेणी में आएगा और कैफीन के उच्च स्तर की वजह से माइग्रेननुमा सिरदर्द, अनिद्रा,
बेचैनी, मांसपेशीय कंपकंपाहट और ह्रदय
गति बढ़ना जैसे लक्षण उभर सकते हैं। लिहाज़ा कपों की संख्या पर नियंत्रण रखने में ही
होशियारी है। गर्भवती स्त्रियों को तो कपों की संख्या पर ज़्यादा नियंत्रण रखना
चाहिए। बच्चों को तो कॉफी दोनी ही नहीं चाहिए।
भारत में आगमन
कॉफी वस्तुत: इथियोपियन मूल की है। इसे जल्दी ही अरब लोगों ने अपना लिया और
पेय पदार्थ के रूप में इससे चिपके रहे ताकि इमाम और अन्य श्रद्धालु लोगों चौकन्ने
रहें (क्योंकि शराब उनके लिए प्रतिबंधित थी)। http://madrascouriers.com के 19 जून 2017 के इनसाइट स्तंभ में बताया गया है कि सोलहवीं सदी के
सूफी संत बाबा बुदन कॉफी के कई सारे बीज अरब एकाधिकार से चोरी-छिपे निकाल लाए थे
और 1670 में उन्हें मैसूर साम्राज्य के चिकमगलूर नामक स्थान पर बोया था। वैसे हो
सकता है कि इससे पहले ही अरब व्यापारी कॉफी को मलाबार तट पर ला चुके थे। इस प्रकार
से कॉफी कर्नाटक,
केरल और तमिलनाडु में उगाई जाने लगी। हाल ही में इसे आंध्र
प्रदेश की अरकू घाटी में उगाया जाने लगा है। इसके अलावा, उत्तर-पूर्वी
भारत के राज्यों में भी कॉफी उगाई जाती है। ऐसा लगता है कि इसी तरह से कॉफी कई
सदियों से प्रायद्वीपीय भारत में एक लोकप्रिय पेय बन गई।
अलबत्ता,
अधिकांश दक्षिण भारतीय लोग शुद्ध कॉफी नहीं पीते, बल्कि कॉफी और चिकरी का मिश्रण पीते हैं। चिकरी एक देशी पौधा है जिसे स्पैन, यूनान और तुर्की के भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में उगाया जाता है। युरोप में यह
कॉफी में मिलाने के लिहाज़ से भी और अपने आप में भी लोकप्रिय हो गया। वेबसाइट Bynemara Tales-Medium के 19
जुलाई 2017 के अंक में बताया गया है कि फ्रांस में 1880 के दशक की शुरुआत में कॉफी
की कमी के चलते चिकरी का उपयोग किया जाने लगा था। उसी समय से कॉफी-चिकरी मिश्रण
लोकप्रिय हो गया। डेविड कॉपरफील्ड और ए टेल ऑफ टू सिटीज़ जैसे उपन्यासों के
लेखक लेखक चार्ल्स डिकेंस ने कहा है, “कॉफी में थोड़ी-सी चिकरी
मिलाने से कॉफी की खुशबू नष्ट नहीं होती बल्कि खुशबू में इज़ाफा होता है, और रंगत में गाढ़ापन आता है जिसके चलते यह कई लोगों के लिए स्वागत-योग्य से भी
बढ़कर हो जाती है।” यह भी एक रोचक तथ्य है कि ब्रिटिश लोगों ने ‘कैम्प कॉफी’ नामक
एक पेय की शुरुआत की थी। यह पानी, शकर, 4
प्रतिशत कैफीन-रहित कॉफी का अर्क और 26 प्रतिशत चिकरी के अर्क से बना एक मिश्रण
होता था। हिंदुस्तानी सिपाहियों और अन्य लोगों को यह पेय खूब भाता था। समय के साथ
दक्षिण भारतीय कॉफी विभिन्न अनुपातों में कॉफी और चिकरी का एक मिश्रण बन गई – 80
प्रतिशत कॉफी-20 प्रतिशत चिकरी से लेकर 60 प्रतिशत कॉफी-40 प्रतिशत चिकरी तक।
चिकरी भारत में भी गुजरात और उत्तर प्रदेश में उगाई जाती है।
दक्षिण भारत के पार
पारंपरिक रूप से दक्षिण भारतीय कॉफी चार दक्षिणी राज्यों तक सीमित रही जबकि
उत्तरी भारत में चाय लोकप्रिय रही और लगभग यही एकमात्र पेय रही। चाय का उत्पादन
आसाम,
पश्चिम बंगाल के अलावा कुछ अन्य उत्तर-पूर्वी राज्यों में
किया जाता था। यहां की जलवायु और मिट्टी इसके लिए उपयुक्त है। अलबत्ता, हाल के वर्षों में ‘दक्षिणियों’ ने भी चाय को अपनाया है – कॉफी के विकल्प के
रूप में नहीं बल्कि एक पूरक के रूप में। दूसरी ओर, ‘उत्तरियों’
ने कॉफी पीना शुरू कर दिया है। इसका कारण मूलत: मार्केटिंग में छिपा है। और कॉफी
के मामले में भी पारंपरिक ‘फिल्टर कॉफी’ के अलावा आजकल कई अन्य कॉफियां मिलती हैं
– एस्प्रेसो,
कैपुचिनो वगैरह। ये सब पाश्चात्य आविष्कार हैं और खास तौर
से शहरों में लोकप्रिय हुए हैं।
एक समय था जब ‘चाय पर चर्चा’ लोकप्रिय थी जहां हर किस्म की बातचीत, बहस, और विचारों का मेलजोल, लेन-देन हो सकता था। नए-नए राजनैतिक विचार चाय की चुस्कियों पर जन्म लिया करते थे, जैसा कि सत्यजीत राय ने अपनी मशहूर फिल्म आगंतुक में दर्शाया है। आजकल इस विचार में कॉफी शॉप (वाई-फाई कनेक्टिविटी समेत) जुड़ गई है, जिनके बारे में विज्ञापन किया जा रहा है कि ‘कॉफी के साथ बहुत कुछ हो सकता है’। लेकिन ये बीते समय के अड्डों जैसे तो कदापि नहीं हैं। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.pressreader.com/india/the-hindu/20191208/282166473057361
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो की कामयाबी की
फेहरिस्त में एक और नई उपलब्धि जुड़ गई है। हाल ही में उसने अंतरिक्ष से धरती की
निगरानी की क्षमता प्रदान करने वाले कार्टोसैट-3 उपग्रह का सफल प्रक्षेपण किया है।
कार्टोसैट-3,
कार्टोसैट शृंखला का नौवां उपग्रह है। यह उपग्रह पूर्ववर्ती
कार्टोसैट-2,
2ए और 2बी के समान है। कार्टोसैट-3 तीसरी पीढ़ी का बेहद
चुस्त और उन्नत उपग्रह है। यह धरती की उच्च गुणवत्ता वाली तस्वीरें लेने के
साथ-साथ उसका मानचित्र तैयार करने की क्षमता रखता है। 44.4 मीटर लंबे स्वदेशी
पीएसएलवी-सी 47 रॉकेट की यह 49वीं उड़ान थी, जिसने
कार्टोसैट-3 के साथ-साथ अमेरिका के 13 वाणिज्यिक नैनो उपग्रहों को भी अंतरिक्ष में
कामयाबी से प्रक्षेपित किया।
इस प्रक्षेपण के साथ ही इसरो अब तक तकरीबन दो दर्जन देशों के 310 उपग्रहों को
अलग-अलग मिशन में सफलतापूर्वक प्रक्षेपित कर चुका है। अंतरिक्ष कार्यक्रम में इस
बेमिसाल कामयाबी के ज़रिए हमारे वैज्ञानिकों ने एक बार फिर अपनी प्रतिभा का
प्रदर्शन किया है।
आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से प्रक्षेपित
कार्टोसैट-3 उपग्रह का वज़न 1625 किलोग्राम है। प्रक्षेपण के 17 मिनट 46 सेकंड बाद
ही पीएसएलवी-सी 47 ने इस उपग्रह को पृथ्वी से 509 किलोमीटर की ऊंचाई पर सूर्य
स्थैतिक कक्षा में स्थापित कर दिया। यह पांच साल तक काम करेगा।
इन उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित करना आसान काम नहीं था। इसरो के सामने इस
बार एक अलग ही किस्म की चुनौती थी, क्योंकि मुख्य उपग्रह
कार्टोसैट-3 को एक अलग कक्षा में स्थापित करना था और बाकी उपग्रहों को अलग कक्षा
में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर स्थापित करना था।
कार्टोसैट-3 संचार और निगरानी का दोहरा काम करेगा। यह हाई रेज़ॉल्यूशन उपग्रह
है जो अंतरिक्ष से पृथ्वी की स्पष्ट तस्वीरें लेने में सक्षम है जिनमें 1 फुट दूर
स्थित वस्तुएं अलग-अलग दिखाई देंगी। एडॉप्टिव ऑप्टिक्स तकनीक की मौजूदगी फोटो को
धुंधला होने से रोकेगी। अपनी इस खूबी के चलते यह सैन्य कार्यों के लिए बहुत उपयोगी
होगा। सेना इसकी मदद से दुश्मनों पर पैनी नज़र रखेगी। यही नहीं इसकी वजह से शहरी
क्षेत्रों में नियोजन, ग्रामीण क्षेत्रों में ढांचागत विकास और
संसाधनों का मानचित्रण, तटवर्ती क्षेत्रों में भू-उपयोग इत्यादि
कामों में मदद मिलेगी। इन्हीं विशेषताओं को देखते हुए कार्टोसैट-3 को अंतरिक्ष में
भारत की आंख कहा जा रहा है।
बीते एक दशक में विज्ञान प्रौद्योगिकी व अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में
इसरो की कामयाबियों से भारत का सिर ऊपर उठा है। अत्याधुनिक अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी
में तो इसरो ने अब महारत हासिल कर ली है। चंद्रमा पर मानवरहित यान चंद्रयान-1 के
सफल प्रक्षेपण,
खुद का नेविगेशन सैटेलाइट सिस्टम, एस्ट्रोसैट, स्वदेश में बने अंतरिक्ष यान रीयूज़ेबल लॉन्च व्हीकल-टेक्नॉलॉजी डेमॉनस्ट्रेटर
(आरएलवी-टीडी) से लेकर मंगलयान का सफल प्रक्षेपण इन कामयाबियों की बानगी है। संचार
सेवाओं के अतिरिक्त धरती के अवलोकन एवं मौसम पूर्वानुमान समेत देश के अधिकांश
मंत्रालयों एवं विभागों को अंतरिक्ष तकनीक उपलब्ध कराने के लिए अंतरिक्ष में इसरो
के अनेक उपग्रह सक्रिय हैं। इसरो अपने पोलर सेटेलाइट लांच वेहिकल (पीएसएलवी-सी 47)
से अब तक सिंगापुर, ब्रिटेन और अमेरिका जैसे विकसित देशों समेत
कई देशों के दर्जनों उपग्रहों का प्रक्षेपण कर चुका है। इस काम से इसरो को अब
आमदनी भी होने लगी है। यह सिलसिला अभी थमा नहीं है। आने वाले सालों में यह रफ्तार
और भी बढ़ेगी। अंतरिक्ष अनुसंधान और उपग्रह प्रक्षेपण के क्षेत्र में इसरो फिलहाल
कई योजनाओं पर एक साथ काम कर रहा है। अगले साल नवंबर तक चंद्रमा पर दोबारा सॉफ्ट
लैंडिंग के अलावा कई उन्नत उपग्रह प्रक्षेपित किए जाएंगे। इसरो की वाणिज्यिक शाखा
एंट्रिक्स कार्पोरेशन ने कई देशों के उपग्रह छोड़ने के लिए समझौता किया हुआ है।
मार्च 2020 तक इसरो 13 मिशन पूरे करेगा। इनमें छह प्रक्षेपण यान और सात उपग्रह
मिशन शामिल हैं। आदित्य एल-1 सौर मिशन, छोटा उपग्रह प्रक्षेपण
यान (एसएसएलवी) के साथ ही 200 टन के सेमीक्रायो इंजन पर काम शुरू होने वाला है। यही
नहीं मानव को अंतरिक्ष में भेजने के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम पर भी गंभीरता से काम
चल रहा है।
अंतरिक्ष के क्षेत्र में इसरो ने जिस तरह से कुछ सालों में बड़ी-बड़ी उपलब्धियां
हासिल की हैं,
उससे देश की क्षमता बढ़ी है। 2013 से पहले व्यावसायिक संचार
उपग्रहों का प्रक्षेपण करने में रूस, अमेरिका आदि का ही दबदबा
था,
लेकिन इसरो ने अब इन देशों के दबदबे को तोड़ा है। अमेरिका और
रूस की अंतरिक्ष कार्यक्रमों से जुड़ी एजेंसियों नासा और रॉसकॉसमोस को लगने लगा है
कि यदि भारत इसी तरह नित नई कामयाबी हासिल करता रहा, तो
उनके अंतरिक्ष कारोबार पर असर पड़ेगा। जहां दूसरे देशों का उपग्रह प्रक्षेपण में
भारी खर्च आता है, वहीं भारत अपने सस्ते लांच वेहिकल
पीएसएलवी-सी 24 और पीएसएलवी-सी 47 के जरिए कम खर्च में ही उपग्रह प्रक्षेपित करने
में सक्षम है। बाकी अंतरिक्ष एजेंसियों के मुकाबले वह 60 फीसदी कम पैसे लेता है।
एक महत्वपूर्ण बात इसरो के हक में जाती है कि उसने अभी तक जितने भी विदेशी
उपग्रहों का प्रक्षेपण किया है, वे सब सफल रहे हैं। यही वजह है
कि 20 देशों की 57 से ज़्यादा अंतरिक्ष एजेंसियां साल 1999 से ही उपग्रह प्रक्षेपण
में इसरो की मदद ले रही हैं। मार्स ऑर्बाइटर जैसे बड़े मिशन को महज 450 करोड़ रुपए
में पूरा करने वाले इसरो से अब अमेरिका भी अपने संचार उपग्रहों का प्रक्षेपण करने
में सहायता ले रहा है। एक दर्जन से ज़्यादा उपग्रहों को सफलतापूर्वक प्रक्षेपित
करके इसरो ने अमेरिका, रूस की अंतरिक्ष एजेंसियों को बड़ी चुनौती
दी है।
दुनिया में फिलवक्त तीन अरब डॉलर का अंतरिक्ष बाज़ार है, वह दिन दूर नहीं जब इसके बड़े हिस्से पर इसरो का कब्ज़ा होगा। इसरो की सफलता के पीछे यकीनन हमारे देश के वैज्ञानिकों एवं इंजीनियरों की विशेष दक्षता, कड़ी मेहनत और प्रतिबद्धता शामिल हैं। अंतरिक्ष के क्षेत्र में भारतीय वैज्ञानिकों की इस कामयाबी को देखते हुए, सरकार को भी इस क्षेत्र में अब ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcR5JwVcdG057WqLbLn8XJDJEVmDOaxM0azXuP5_mID66vyd8Rjn
युनिसेफ की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार निमोनिया विश्व स्तर पर एक
घातक बीमारी के रूप में उभर रही है। वर्ष 2018 में दुनिया भर में हर 39 सेकंड में
एक बच्चे की निमोनिया से मौत हुई है। युनिसेफ के अनुसार 2018 में 8 लाख बच्चों की
मौत निमोनिया से हुई। इस मामले में प्रथम स्थान पर नाइजीरिया (1,62,000 मृत्यु) के
बाद दूसरे स्थान पर भारत (1,27,000 मत्यु) और तीसरे स्थान पर पाकिस्तान (58,000
मृत्यु) है। यहां बच्चों से आशय पांच साल से कम उम्र के बच्चों से है। निमोनिया से
पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चे सबसे ज़्यादा ग्रस्त हुए हैं। वर्ष 2018 में वैश्विक
स्तर पर जन्म के पहले महीने में 1,53,000 बच्चों की मृत्यु हुई।
इतनी बड़ी संख्या में बच्चों की असमय मौत चिंता का विषय है। भारत सरकार द्वारा
स्वास्थ्य जागरूकता के कार्यक्रम चलाने तथा संसाधन उपलब्ध कराने के बावजूद, सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं के क्रियान्वयन में कहीं न कहीं बड़ी समस्या है जिसे
जल्द से जल्द दूर करना ज़रूरी है।
युनिसेफ की उक्त रिपोर्ट में एक महत्वपूर्ण बात यह सामने आई है कि इतने भयावह
आंकड़ों के बाद भी संक्रामक रोग अनुसंधान पर विभिन्न देश केवल तीन प्रतिशत ही खर्च
करते हैं।
निमोनिया एक सांस सम्बंधी बीमारी है जो फेफड़ों को प्रभावित करती है। इसमें
फेफड़ों के अल्वियोली (फेफड़ों में उपस्थित वायु प्रकोष्ठ) में मवाद व पानी भर जाता
है जिससे सांस लेने में कठिनाई होने लगती है जो ऑक्सीजन की कमी का कारण बन जाती
है।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार कुछ कारण ऐसे हैं जिनकी पूर्ति न होने पर
निमोनिया जैसी घातक बीमारी का प्रभाव बढ़ता जाता है:
साफ पेयजल का अभाव
पर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल का अभाव
घरेलू और बाह्य वायु प्रदूषण
कुपोषण
भारत के एक एनजीओ सेव दी चिल्ड्रन के अनुसार भारत में हर 4 मिनट में एक बच्चे
की मौत निमोनिया की वजह से होती है। इसमें कुपोषण और प्रदूषण की बड़ी भूमिका है।
बच्चों की निमोनिया से मौत में घर के अंदर के प्रदूषण की 22 प्रतिशत और बाह्य
प्रदूषण की 27 प्रतिशत भूमिका है। इसलिए भारत में विविध राष्ट्रीय अभियान(जैसे –
एमएए,
यूआईपी, आईसीडीएस) के माध्यम से
सामुदायिक कार्यकर्ता आशा/एएनएम/आंगनवाड़ी के द्वारा निमोनिया से बचाव, रोकथाम और उपचार को लेकर जागरूकता लाई जाती है।
कई बार बच्चों में नाक या गले में पाया जाने वाला वायरस सांस लेने के दौरान
फेफड़ों में पहुंच जाता है। इससे निमोनिया होने की संभावना बढ़ जाती है। छींक या
खांसी के साथ निकली बूंदों के माध्यम से भी यह रोग फैलता है। इसलिए इस रोग के
मामले में बेहद सावधानी बरतने की आवश्यकता है। मौसम बदलने, फेफड़ों
में चोट लगने से भी इस रोग की आशंका बढ़ जाती है। बच्चों में निमोनिया होने के
संभावित लक्षण होते हैं कि उन्हें बुखार होने के साथ सांस लेने में कठिनाई महसूस
होती है,
वे ठीक से खाते-पीते नहीं है, उनमें
बेहोशी और अकड़न महसूस होती है।
ग्लोबल एक्शन प्लान के अंतर्गत कुछ उपाय सुझाए गए हैं जिनका पालन कर इस रोग से
बच्चों को बचा जा सकता है।
छह माह तक स्तनपान
पोषक आहार
स्वच्छ पेयजल
घरेलू वायु प्रदूषण न हो
हाथ साबुन से धोना
निमोनिया का टीका 2 साल से कम उम्र के बच्चों और 65 साल से ज़्यादा उम्र के
बुज़ुर्गों को अवश्य लगवाना चाहिए। 2 साल से कम उम्र के बच्चों में निमोनिया की
रोकथाम के लिए PCV13 टीका लगाया जाता है। यह करीब 13 तरह के निमोनिया से बचाता है और तीन साल तक
असरदार होता है। वहीं अगर 2 साल से ज़्यादा उम्र के बच्चों में टीका लगाया जाता है
तो PPSV23 लगता है। यह 23 तरह के निमोनिया से रक्षा करता है। 2 साल से बड़े बच्चों में
सिर्फ खास परिस्थितियों में ही यह टीका लगाया जाता है। जैसे अगर बच्चे को कैंसर हो
या लीवर या दिल की बीमारी वगैरह हो।
युनिसेफ ने रिपोर्ट में कहा है कि देश यह भूल गए हैं कि निमोनिया एक महामारी
है। इसलिए युनिसेफ के साथ अन्य स्वास्थ्य और बाल संगठनों ने इस बीमारी के प्रति
जागरूकता लाने के लिए वैश्विक कार्रवाई की अपील की है। सन 2020 के जनवरी माह में
स्पेन में ‘ग्लोबल फोरम ऑन चाइल्डहुड निमोनिया’ विषय पर मंथन होगा, जिसमें दुनिया भर के प्रतिनिधि शामिल होंगे।
निमोनिया की रोकथाम और इसके प्रति जन जागरूकता लाने के लिए हर वर्ष 12 नवंबर को विश्व निमोनिया दिवस मनाया जाता है। वैश्विक संगठन, सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाएं तथा रिसर्च अकादमियों ने मिलकर इस दिन को विश्व निमोनिया दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत सन 2009 में की थी। इसमें यह लक्ष्य रखा गया था कि हर देश में इस दिन निमोनिया को लेकर जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। लोगों को इसके उपचार और रोकथाम के उपाए बताए जाएंगे। सन 2013 में वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइज़ेशन और युनिसेफ ने संयुक्त रूप से एक ग्लोबल एक्शन प्लान तैयार किया था जिसका लक्ष्य है कि सन 2025 तक प्रत्येक 1000 बच्चे के जन्म होने पर इस बीमारी से मरने वाले बच्चों की संख्या तीन से कम की जा सके। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://thumbs.dreamstime.com/z/pneumonia-infographic-vector-male-character-symptoms-treatment-medical-infographics-poster-138809780.jpg
हम मनुष्यों ने अपने शरीर
की जैविक विशेषताओं और उनकी कार्य-प्रणाली को समझने के लिए कई जंतुओं को मॉडल के
तौर पर उपयोग किया है। जैसे फल मक्खी (ड्रॉसोफिला) का अध्ययन कई जीन्स की पहचान
करने और यह जानने के लिए किया गया है कि उनमें होने वाले उत्परिवर्तनों के शारीरिक
और जैव-रासायनिक प्रभाव क्या होते हैं। सेनोरेब्डाइटिस एलेगेन्स नामक एक पारदर्शी
कृमि के कई जीन मनुष्यों के जीन की तरह कार्य करते हैं। चूहा, मूषक और खरगोश इनसे थोड़े उच्च स्तर के जानवर
हैं, जिन पर अध्ययन करके शरीर
की कार्य-प्रणाली को और बेहतर समझने मदद मिलती है। प्रयोगशाला में इन जानवरों को
पालना भी आसान होता है। इसके अलावा एक फायदा यह होता है कि इनका जीवनकाल छोटा होता
है जिसके चलते जन्म से लेकर युवावस्था, वृद्धावस्था और मृत्यु तक प्रत्येक चरण का अवलोकन छोटी-सी अवधि में किया जा
सकता है।
लेकिन जब मस्तिष्क या
तंत्रिका सम्बंधी कुछ कार्यों के बारे में जानने की बात आती है तब उपरोक्त मॉडल
जंतु उतने बेहतर साबित नहीं होते। जैसे – हम कैसे बोलते हैं, गाते हैं या अन्य भाषाओं और शब्दों को बोलते और
उनकी नकल करते हैं। कुछ वैज्ञानिकों ने इन बातों को समझने के लिए हमारे करीबी
चिम्पैंज़ी पर अध्ययन किए लेकिन ज़्यादा सफलता नहीं मिली। इसी तरह के एक अध्ययन में
दो मनोवैज्ञानिकों सी. हेस और के. हेस ने एक मादा शिशु चिम्पैंज़ी (विकी) को गोद
लिया और अपने बच्चे की तरह पाला और उसे इंसानी भाषा बोलना सिखाने की कोशिश की।
लेकिन अफसोस कि विकी ‘मम्मा’, ‘पापा’, ‘अप’ और ‘कप’ बोलने की कोशिश करने के अलावा और
कुछ नहीं बोल पाई। इस कोशिश के दौरान धीरे-धीरे जबड़ों और होंठों को आकार देकर
बोलने की लाख कोशिश के बाद भी विकी इन शब्दों के अलावा और कुछ नहीं बोल पाई। इससे
लगता है कि विकी अपने तंत्रिका तंत्र और शारीरिक संरचना के दम पर सिर्फ
चिम्पैंज़ियों की ही आवाज़ निकाल सकती है, मनुष्य के बोलने की नकल नहीं कर सकती।
इसी तरह, एक अन्य वैज्ञानिक द्वय, गार्डनर दंपत्ति ने वाशो नामक चिम्पैंज़ी को अपने घर पर
पाला। वाशो का प्रदर्शन विकी से इस मायने में थोड़ा बेहतर रहा कि वह एक विदेशी भाषा
सीख सकी। यह विदेशी भाषा बोली जाने वाली भाषा नहीं बल्कि एक सांकेतिक भाषा थी –
अमेरिकन साइन लैंग्वेज (ASL)। वाशो ने अधिकतम 250 ASL संकेत सीखे और इसी सांकेतिक भाषा में कुछ सवालों के
जवाब भी दिए। इससे लगता है कि चिम्पैंज़ियों में बोलने सम्बंधी आवश्यक
शारीरिक-संरचनात्मक ‘हार्डवेयर’ तो अनुपस्थित है लेकिन भाषा सीखने सम्बंधी
‘सॉफ्टवेयर’ कुछ हद तक मौजूद है। और हम मनुष्यों में इसके लिए उपयुक्त ‘हार्डवेयर’
और ‘सॉफ्टवेयर’ दोनों हैं।
जंतु मॉडल
लिहाज़ा, जंतुओं पर अध्ययन करके मनुष्य कैसे बोलते हैं,
गाते हैं, विदेशी भाषा का उच्चारण करते और सीखते हैं, और इसी तरह की अन्य दिमागी गतिविधियों की
कार्यप्रणाली को समझने के लिए हमें जैव विकास में और पीछे जाना होगा। हमें यह
देखना होगा कि कौन-से अन्य जंतु इसी तरह की गतिविधियां करते हैं, उनके मस्तिष्क का कौन-सा हिस्सा इन गतिविधियों
के लिए ज़िम्मेदार है, और मानव मस्तिष्क
में इन समानताओं को पहचानना होगा। और इसके लिए सबसे बेहतर मॉडल जंतु हैं तोता,
मैना, फिंच, हमिंगबर्ड जैसे गायक
पक्षी (सॉन्गबर्ड)। हममें से कई लोग तोता पालते हैं और देखते हैं कि तोते ना सिर्फ
स्वयं अपनी भाषा में शब्दों का उच्चारण करते, पुकारते या अपनी प्रजाति के गीत गाते हैं बल्कि वे हमारी
भाषा के शब्दों और ध्वनियों की नकल करते हैं, दोहराते हैं और बात करने की भी कोशिश करते हैं। इससे लगता
है कि पक्षियों के मस्तिष्क में एक ऐसा हिस्सा है जो उनमें ना सिर्फ उनकी अपनी
प्रजातिगत भाषा (जो उन्हें अपने माता-पिता से वंशानुगत ढंग से मिलती है)
बोलने-गाने की क्षमता विकसित करने के लिए ज़िम्मेदार है बल्कि अन्य भाषाओं की नकल
करना सीखने के लिए भी ज़िम्मेदार है। इनसे हमें कुछ समझ और समांतर उदाहरण मिले हैं
जो हमारे बोलने, गाना सीखने की
क्षमता वगैरह पर प्रकाश डालते हैं।
इस संदर्भ में अमेरिकन
साइंटिस्ट (1970:58:669-673) में प्रकाशित
पीटर मार्लर का लेख पठनीय है (यह नेट पर उपलब्ध है)। बिल्ली हो या चिम्पैंज़ी,
सभी जानवर अपनी प्रजाति की भाषा (जैसे
घुरघुराना, इशारे) सीखने और सम्बंधित
ध्वनियां उत्पन्न करने की निहित क्षमता रखते हैं, लेकिन सॉन्गबर्ड और मनुष्य अन्य भाषाएं बोलने और सीखने की
क्षमता रखते हैं। सॉन्गबड्र्स लगभग पच्चीस करोड़ साल पहले अस्तित्व में आए थे जबकि
मनुष्यों का पदार्पण 20-30 लाख साल पूर्व
हुआ था।
अन्य जानवरों की तरह,
सॉन्गबर्ड भी अपनी भाषा प्रजाति के बड़े सदस्यों
द्वारा उत्पन्न आवाज़ों की नकल करके सीखते हैं। इसके लिए वे अपनी आवाज़ को इस तरह
परिवर्तित करते जाते हैं कि उनकी आवाज़ उन आवाज़ों से मेल खाए जो उन्होंने याद की
हैं। नवजात सॉन्गबर्ड बड़बड़ाने जैसी आवाज़ें निकालते हैं, जो कुछ हफ्तों के बाद उनकी अपनी प्रजाति की भाषा में तब्दील
हो जाती है। दूसरे शब्दों में, ये पक्षी-उपगीत
आगे चलकर मुकम्मल पक्षी-गीत बन जाते हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह मनुष्य का नवजात
शिशु शुरुआत में कई तरह की आवाज़ें निकालता रहता है, जो आगे चलकर घर में बोली जाने वाली उसकी अपनी भाषा का रूप
ले लेती हैं।
2005 में प्लॉस बायोलॉजी
में एफ. नोटलबोम द्वारा प्रकाशित समीक्षा बताती है कि इसके पीछे मस्तिष्क के
अलग-अलग स्पष्ट हिस्सों, जिन्हें नाभिक
कहते हैं, का एक समूह होता है और
उनको जोड़ने वाले तंत्रिका मार्ग होते हैं। इस पूरी व्यवस्था को गीत-तंत्र या
गीत-नाभिक कहते हैं। हमिंगबर्ड (या तोते जैसे अन्य सॉन्गबर्ड) के मस्तिष्क में 7 अलग-अलग संरचनाएं होती हैं जो गाने के दौरान
सक्रिय होती हैं। इससे पता चलता है कि ये संरचनाएं भौतिक व कार्यात्मक वाणी-नाभिक
हैं। भाषा सीखने में सक्षम पक्षियों में उनके मस्तिष्क का अग्रभाग दो उप-पथों में
बंटा हुआ लगता है: पहला, सीखी हुई आवाज़ें
पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार क्रियाकारी हिस्सा और दूसरा एक लूप जो इन गीतों या
आवाज़ों में परिवर्तन की गुंजाइश पैदा करता है। हमारे मस्तिष्क के अग्रभाग की
संरचना भी इसी तरह की होती है।
इसी कड़ी में जापानी शोधकर्ता होंगदी वांग और उनके साथियों का एक दिलचस्प शोध पत्र प्लॉस बायोलॉजी में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने दो फिंच पक्षी, ज़ेब्राा फिंच (z) और ऑउल फिंच (o), के गीतों के पैटर्न और उनके गीत-नाभिक में अभिव्यक्त होने वाले जीन्स का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि दोनों प्रजातियों (z और o) के जीन के व्यवहार में लगभग 10 प्रतिशत अंतर था, जो उनके भिन्न प्रजाति गीत के लिए ज़िम्मेदार था। इसके बाद उन्होंने दोनों प्रजातियों के बीच प्रजनन करवा कर दो संकर प्रजातियां, zo और oz, विकसित कीं और उनके द्वारा गाए जाने वाले गीतों को रिकार्ड किया। उन्होंने पाया कि zo ने अपने माता-पिता दोनों की प्रजाति, ज़ेब्रा और आउल, के गीत गाए। इसी तरह oz ने भी दोनों प्रजातियों के गीत गाए। ऐसी अन्य प्रजातियों के बीच प्रजनन करवाकर इस बारे में बेहतर समझ बनाने में मदद मिल सकती है। लेकिन, मनुष्यों के साथ इस तरह के अध्ययन नहीं किए जा सकते। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/yqhr3y/article30062679.ece/alternates/FREE_660/24TH-SCIPARAKEET
नोबेल पुरस्कार की एक
खूबी यह है कि उनकी वजह से हम किसी विषय में हो रहे अनुसंधान के प्रति जागरूक हो
जाते हैं। इस वर्ष चिकित्सा/कार्यिकी का नोबेल पुरस्कार इस अनुसंधान के लिए दिया
गया है कि हमारा शरीर कोशिकाओं के स्तर पर ऑक्सीजन के उपयोग का नियमन कैसे करता है।
ऑक्सीजन वह गैस है जो
आजकल के वायुमंडल में लगभग 20 प्रतिशत होती है
और जंतुओं के लिए भोजन से ऊर्जा प्राप्त करने में प्रमुख भूमिका निभाती है। वैसे
इस बात की खोज अपने आप में महत्वपूर्ण थी कि ऑक्सीजन एक तत्व है और दहन व श्वसन में हवा का यही
हिस्सा (ऑक्सीजन) भाग लेता है। श्वसन में ऑक्सीजन की भूमिका और ऑक्सीजन को एक तत्व के रूप में
पहचानने का काम, काफी हिचकोलों के
बाद, आज से करीब 200 साल पहले हुआ था। वह अपने-आप में एक रोचक
कहानी है।
आगे चलकर यह स्पष्ट हुआ
कि कार्बोहाइड्रेट व अन्य पदार्थों के साथ ऑक्सीजन की क्रिया से ऊर्जा उत्पन्न
करने का काम कोशिकाओं में माइटोकॉन्ड्रिया नामक उपांग में होता है। दरअसल
माइटोकॉन्ड्रिया में ग्लूकोज़ के ऑक्सीकरण से एक पदार्थ बनता है – एडीनोसीन
ट्राईफॉस्फेट (एटीपी) और यही एटीपी शरीर के लिए ऊर्जा का स्रोत है। इसके बाद पता
चला था कि ग्लूकोज़ से एटीपी निर्माण की इस क्रिया का नियंत्रण कुछ एंज़ाइमों द्वारा
किया जाता है। इस खोज के लिए 1931 में नोबेल
पुरस्कार दिया गया था।
ऑक्सीजन जीवन के लिए
निर्णायक महत्व रखती है। इसलिए जैव विकास की प्रक्रिया में शरीर में ऐसी व्यवस्था
का निर्माण हुआ है कि शरीर के ऊतकों और कोशिकाओं को पर्याप्त ऑक्सीजन मिलती रहे।
गर्दन में जो बड़ी-बड़ी रक्तवाहिनियां होती हैं, उनके नज़दीक एक रचना होती है – कैरोटिड निकाय। इस कैरोटिड
निकाय की कोशिकाओं में रक्त में ऑक्सीजन स्तर को भांपने की क्षमता होती है। इस
निकाय की खोज के साथ ही यह नोबेल सम्मानित खोज भी हुई थी कि ऑक्सीजन स्तर को
भांपकर मस्तिष्क के ज़रिए श्वसन दर का नियमन यही कैरोटिड निकाय करता है। यानी यदि रक्त में
ऑक्सीजन की कमी हो रही है और आपकी सांसें तेज़ चलने लगती हैं तो आपको कैरोटिड निकाय
का शुक्रिया अदा करना चाहिए।
कैरोटिड निकाय तो पल-पल
में होने वाले ऑक्सीजन के उतार-चढ़ाव को संभालता है। लेकिन यह भी देखा गया है कि
यदि लगातार ऑक्सीजन का अभाव बना रहे तो शरीर में कुछ कार्यिकीय परिवर्तन भी होते
हैं जो ज़्यादा दूरगामी असर दिखाते हैं।
ऑक्सीजन की कमी के प्रति
ऐसी ही एक प्रमुख कार्यिकीय प्रतिक्रिया यह होती है कि शरीर में एक हारमोन
एरिथ्रोपोएटीन (संक्षेप में ईपीओ) की मात्रा बढ़ने लगती है। इस हारमोन का उत्पादन
हमारे गुर्दों या किडनी द्वारा किया जाता है। यह आम जानकारी का विषय नहीं रहा है
कि गुर्दे रक्त को छानने के अलावा कई सारे हारमोन्स का उत्पादन भी करते हैं। यदि
गुर्दे ठीक से काम नहीं करते तो एरिथ्रोपोएटीन का उत्पादन भी प्रभावित हो सकता है
जो एक किस्म के एनीमिया को जन्म देता है जिसे रीनल एनीमिया कहते हैं। बढ़े हुए ईपीओ
का असर यह होता कि हमारी अस्थि मज्जा ज़्यादा मात्रा में लाल रक्त कोशिकाएं बनाने
लगती हैं। लाल रक्त कोशिकाएं ही ऑक्सीजन को शरीर की कोशिकाओं तक पहुंचाने का काम
करती हैं। यानी यह पता चल गया कि ऑक्सीजन की कमी होने पर हारमोन के ज़रिए लाल रक्त
कोशिकाओं के निर्माण का नियंत्रण होता है लेकिन यह गुत्थी बनी रही कि ऑक्सीजन इस
प्रक्रिया का नियमन कैसे करती है।
यहीं पर इस साल के नोबेल
विजेताओं की भूमिका शुरू होती है। इस संदर्भ में जॉन्स हॉपकिन्स चिकित्सा विश्वविद्यालय
के ग्रेग सेमेन्ज़ा ने इस बात का अध्ययन किया कि ईपीओ संश्लेषण के लिए ज़िम्मेदार
जीन (ईपीओ जीन) कैसे काम करता है और ऑक्सीजन का स्तर इसके कामकाज को कैसे प्रभावित
करता है। उन्होंने इस अध्ययन के लिए ऐसे चूहों का उपयोग किया जिनके जीन्स में
फेरबदल किया गया था। इन अध्ययनों से पता चला कि ईपीओ जीन के नज़दीक के डीएनए खंड
ऑक्सीजन-अभाव के प्रति संवेदी होते हैं और ईपीओ जीन पर असर इन खंडों के माध्यम से
होता है।
इसी दौरान पीटर रैटक्लिफ
भी ईपीओ जीन की ऑक्सीजन-निर्भरता का अध्ययन कर रहे थे। रैटक्लिफ एक गुर्दा
विशेषज्ञ हैं और अपना अध्ययन उन्होंने ऑक्सफोर्ड के जॉन रैडक्लिफ अस्पताल तथा
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के नफील्ड डिपार्टमेंट ऑफ क्लीनिकल मेडिसिन में किया था।
सेमेन्ज़ा और रैटक्लिफ
दोनों ने पाया कि यह सही है कि सामान्यत: ईपीओ हारमोन गुर्दों में बनता है लेकिन
ऑक्सीजन का स्तर भांपने की क्रियाविधि सिर्फ गुर्दों की कोशिकाओं में नहीं बल्कि
लगभग सारे ऊतकों में पाई जाती है और कोशिकाओं की कई किस्मों में क्रियाशील होती
है।
सेमेन्ज़ा चाहते थे कि यह
समझ पाएं कि ऑक्सीजन के प्रति इस प्रतिक्रिया में कोशिका के कौन-से घटक शामिल हैं।
लिहाज़ा उन्होंने कुछ लीवर कोशिकाओं को प्रयोगशाला में संवर्धित करके अध्ययन किया।
उन्होंने एक प्रोटीन-संकुल खोज निकाला, जो ईपीओ के नज़दीक वाले डीएनए खंड के साथ ऑक्सीजन-निर्भर ढंग से जुड़ता है। यानी
इस प्रोटीन संकुल का डीएनए से जुड़ना इस बात पर निर्भर करता है कि कोशिका में
ऑक्सीजन का स्तर क्या है। सेमेन्ज़ा ने इस प्रोटीन-संकुल को एकदम उपयुक्त नाम दिया
– हायपॉक्सिया-इंडयूसिबल फैक्टर यानी ऑक्सीजन-अभाव से प्रेरित कारक (एच.आई.एफ.)।
सेमेन्ज़ा ने यह भी पता किया कि एच.आई.एफ. दरअसल दो ऐसे प्रोटीन से मिलकर बना है जो
डीएनए से जुड़ते हैं – इनमें से एक को एच.आई.एफ.-1 अल्फा कहा गया जबकि दूसरे का नाम थोड़ा मुश्किल है – एराइल
हाइड्रोकार्बन रिसेप्टर न्यूक्लियर ट्रांसलोकेटर। इसलिए इसका संक्षिप्त नाम ही
मशहूर है – ए.आर.एन.टी.। तो स्पष्ट हुआ कि एच.आई.एफ.-1 अल्फा और ए.आर.एन.टी. का संकुल डीएनए से जुड़कर ईपीओ जीन को
प्रभावित करता है और इस संकुल का डीएनए से जुड़ना ऑक्सीजन के स्तर पर निर्भर होता
है।
इतना कुछ हो जाने के बाद
यह समझने की शुरुआत हुई कि यह गोरखधंधा चलता कैसे है। इस संदर्भ में सबसे पहले तो
यह पता चला कि जब ऑक्सीजन पर्याप्त मात्रा में होती है तो कोशिकाओं में एच.आई.एफ.
की मात्रा बहुत कम होती है। लेकिन जैसे ही ऑक्सीजन की मात्रा घटने लगती है
कोशिकाओं में एच.आई.एफ. की मात्रा बढ़ने लगती है। ऐसा होने पर यह डीएनए के खंड से
जुड़ जाता है और ईपीओ जीन सक्रिय हो जाता है।
कई सारे शोध समूहों ने यह
दर्शाया है कि सामान्य परिस्थिति कोशिकाओं में एच.आई.एफ. का विघटन काफी तेज़ी से
होता है लेकिन ऑक्सीजन का अभाव हो तो किसी तरह से इसकी सुरक्षा की जाती है और यह
कोशिका में काफी मात्रा में इकट्ठा हो जाता है। ऑक्सीजन का स्तर सामान्य हो तो
एच.आई.एफ.-1 अल्फा को नष्ट करने का
काम प्रोटिएसोम नामक मशीनरी द्वारा किया जाता है। होता यह है कि एक छोटा पेप्टाइड
अणु (युबिक्विटीन) एच.आई.एफ.-1 अल्फा से जुड़
जाता है। युबिक्विटीन का काम ही यह है कि किसी प्रोटीन को विघटन के लिए चिंहित
करना। तो प्रमुख सवाल यह हो गया कि युबिक्विटिन कब व कैसे एच.आई.एफ.-1 अल्फा से जुड़कर उसे विघटन के लिए चिंहित करता
है।
इस सवाल का जवाब एक
अनपेक्षित रुाोत से मिला। जहां सेमेन्ज़ा और रैटक्लिफ ईपीओ जीन की क्रिया के
नियंत्रण की क्रियाविधि पर शोध कर रहे थे, वहीं विलियम काएलिन जूनियर एक सर्वथा अलग समस्या पर अनुसंधान में भिड़े थे –
वॉन हिप्पेल-लिंडाओ (वीएचएल) रोग। यह एक आनुवंशिक रोग है जिसमें वीएचएल जीन में
उत्परिवर्तन की वजह से कुछ किस्म के कैंसर का खतरा बहुत बढ़ जाता है। यह रोग
परिवारों में चलता है। काएलिन ने दर्शाया कि सामान्य वीएचएल जीन एक प्रोटीन का कोड
है, और इसके द्वारा बनाया गया
प्रोटीन कैंसर को रोकता है। काएलिन ने यह भी स्पष्ट किया कि जिन लोगों में
क्रियाशील वीएचएल जीन नहीं होता उनमें ऑक्सीजन के अभाव से नियंत्रित जीन्स बहुत
अधिक मात्रा में अभिव्यक्त होते हैं। यानी ये वे जीन्स हैं जिनकी सक्रियता ऑक्सीजन
की कमी होने पर बढ़ती है। उन्होंने यह देखा कि यदि इन कैंसर कोशिकाओं में सामान्य
वीएचएल जीन प्रविष्ट करा दिया जाए, तो उक्त जीन्स की
अभिव्यक्ति भी सामान्य स्तर पर आ जाती है।
इस खोज से लगा कि शायद
वीएचएल जीन ऑक्सीजन के अभाव के प्रति कोशिकाओं की प्रतिक्रिया में शामिल है। आगे
अन्य समूहों द्वारा किए गए अनुसंधान कार्य से पता चला कि वीएचएल वास्तव में
युबिक्विटिन के साथ एक संकुल का हिस्सा होता है और यह संकुल किसी भी प्रोटीन को विघटन
के लिए चिंहित करने का काम करता है। इस समय रैटक्लिफ ने यह महत्वपूर्ण खोज की कि
वीएचएल वास्तव में एच.आई.एफ.-1 अल्फा के साथ
भौतिक रूप से जुड़ता है और ऑक्सीजन के सामान्य स्तर पर आई.एच.एफ. के विघटन के लिए
ज़रूरी होता है। यानी बात यह बनी कि वीएचएल और एच.आई.एफ. मिलकर काम करते हैं।
ऑक्सीजन का स्तर सामान्य हो तो वीएचएल एच.आई.एफ. का विघटन करवा देता है। तब
एच.आई.एफ.-ए.आर.एन.टी. संकुल डीएनए खंड से जुड़कर ईपीओ जीन को सक्रिय नहीं कर पाता।
अब शेष क्रियाविधि तो
स्पष्ट हो चुकी थी मगर अभी भी यह देखना शेष था कि ऑक्सीजन की मात्रा द्वारा वीएचएल
और एच.आई.एफ.-1 अल्फा की परस्पर
क्रिया का नियंत्रण कैसे किया जाता है।
इस तलाश में मुख्य फोकस
एच.आई.एफ.-1 अल्फा प्रोटीन के एक
विशेष खंड पर रहा। यह खंड वीएचएल के ज़रिए विघटन के लिए ज़रूरी लगता था। रैटक्लिफ और
काएलिन दोनों को लगता था कि ऑक्सीजन का संवेदी हिस्सा इसी प्रोटीन में कहीं है।
उन्होंने पाया कि ऑक्सीजन के सामान्य स्तर पर एच.आई.एफ.-1 अल्फा के दो विशिष्ट स्थानों पर हायड्रॉक्सिल समूह जुड़
जाते हैं। प्रोटीन में इस परिवर्तन का परिणाम यह होता है कि वीएचएल अब एच.आई.एफ.-1 अल्फा को पहचानकर उससे जुड़ जाता है। जब वीएचएल
जुड़ जाता है तो एच.आई.एफ. अणु विघटन के लिए चिंहित हो गया, उसका नष्ट होना अवश्यंभावी है। अर्थात ऑक्सीजन का सामान्य
स्तर एच.आई.एफ. के विघटन के लिए ज़रूरी है। ऑक्सीजन कम हुई और इसका विघटन रुक जाता
है, कोशिका में इसकी मात्रा
बढ़ने लगती है, वह जाकर डीएनए के
उपयुक्त खंडों से जुड़कर ईपीओ जीन को सक्रिय कर देता है।
तो इस तरह खुलासा हुआ कि कोशिकाएं ऑक्सीजन का स्तर भांपकर कैसे ऑक्सीजन के अभाव हेतु खुद को तैयार करती हैं। जैसे कड़ी मेहनत या भारी व्यायाम के समय मांसपेशियों में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है तो वे कुछ समय के लिए अपना ढर्रा बदल देती हैं। यह भी देखा गया है कि यही प्रक्रिया नई रक्त नलिकाओं तथा अतिरिक्त मात्रा में लाल रक्त कोशिकाओं के निर्माण में भी काम आती है। भ्रूण के विकास में भी ऑक्सीजन स्तर भांपने की क्रिया महत्वपूर्ण पाई गई है। कैंसर कोशिकाएं इसी प्रक्रिया का लाभ उठाकर खुद के लिए रक्त नलिकाओं का निर्माण करती हैं। इस विषय में काफी उत्साह से शोध किया जा रहा है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media1.s-nbcnews.com/j/newscms/2019_41/3042036/191007-nobel-medicine-sketch-se-544p_8672b01af8431ae1e28a3b4f7845404f.fit-760w.jpg
आज के समय में, जब किताबों के अलावा अन्य स्रोतों जैसे इंटरनेट,
ऐप्स वगैरह पर पढ़ने के लिए काफी सामग्री उपलब्ध
है तब लोगों के पास पढ़ने के लिए पर्याप्त वक्त ही नहीं है। ऐसे में यदि आपके पढ़ने
की गति बढ़ जाए तो क्या कहने। इसी इच्छा को पूरा करने का दावा कई कोचिंग क्लास,
कोर्स, किताबें और ऐप्स कर रहे हैं। इनका दावा है कि वे आपके पढ़ने की गति बढ़ा सकते
हैं। तेज़ गति से पढ़ने का मतलब है – पढ़ने की सामान्य गति की तुलना में कम से कम तीन
गुना अधिक गति से, सही समझ के साथ
पढ़ना।
लेकिन इस मामले में,
युनिवर्सिटी ऑफ साउथ फ्लोरिडा की संज्ञान
विज्ञानी एलिज़ाबेथ शॉटर का कहना है कि वास्तव में पढ़ने की गति इतनी बढ़ाना संभव
नहीं है। वे बताती हैं कि पढ़ना एक जटिल कार्य है जिसमें मस्तिष्क की कई कार्य-प्रणालियों
के बीच तालमेल की आवश्यकता होती है। पढ़ने के लिए आंखें पहले शब्द देखती हैं;
फिर उस शब्द का अर्थ और उससे जुड़ी अन्य
जानकारियां निकाली जाती हैं; फिर वाक्य के साथ
और व्यापक संदर्भ में उस शब्द का अर्थ जोड़ा जाता है; और इसके बाद तय किया जाता है आंखें अब कहां देखेंगी। पढ़ने
में कभी-कभी पीछे जाकर दोबारा पढ़ने की भी ज़रूरत पड़ती है। यह सब काफी तेज़ गति से
होता है। एक अच्छा पढ़ने वाला व्यक्ति प्रति मिनट 200 से 300 शब्द पढ़ सकता
है।
असल में 1959 में एवलिन वुड्स ने एक रीडिंग डाएनामिक्स
प्रोग्राम शुरू किया था जिसके अनुसार एक बार में पूरा पैराग्राफ को पढ़ने के लिए
स्वयं को प्रशिक्षित कर, पढ़ने की गति को
बढ़ाया जा सकता है। उस वक्त उनका यह प्रोग्राम इतना लोकप्रिय हुआ था कि राष्ट्रपति
कैनेडी, निक्सन और कार्टर ने अपने
स्टाफ को यह कोर्स करने के लिए भेजा था। और तब से अब तक कई किताबें, क्लास, कोर्स, ऐप्स वगैरह अलग-अलग
तरीकों से पढ़ने की गति बढ़ाने की पेशकश करते हैं।
लेकिन कई अध्ययन यह बताते
हैं कि आंखें पूरे दृश्य क्षेत्र के कुछ हिस्से को ही स्पष्ट देखती हैं। जिसके
कारण एक बार में पूरा पैराग्राफ देखना और पढ़ पाना असंभव है। पढ़ने की समझ शब्दों को
पहचानने की क्षमता है, इसलिए आंखों को
तेज़ी से पाठ पर फेरने से पढ़ने की गति बढ़ाने मदद नहीं मिलेगी। इसके अलावा पढ़ने के
लिए शब्दों को एक क्रम में देखने की ज़रूरत होती है इसलिए बेतरतीब देखने से पढ़ने की
गुणवत्ता में कमी ही आएगी।
पढ़ने की गति बढ़ाने के एक
अन्य तरीके में सिखाया जाता है कि पढ़ते समय आने वाली अपनी खुद की आवाज़ को दबा देना
चाहिए ताकि वह आपके पढ़ने की गति को धीमा ना करे। लेकिन शोध कहते हैं कि आवाज़ को
दबाने से जो आप जो पढ़ रहे हैं उसे समझने में मुश्किल होती है।
एक अन्य तरीके में,
एक ऐप की मदद से निश्चित गति से एक के बाद एक
शब्द दिखाए जाते हैं। इससे आंखें एक बार में एक शब्द पर ही केंद्रित होती हैं।
लेकिन इस तरीके के साथ समस्या यह है कि कई बार आपको कोई शब्द या वाक्य दोबारा पढ़ने
की ज़रूरत होती है।
शॉटर का कहना है कि सभी के पढ़ने की गति अलग-अलग होती है। कई कारणों से कुछ लोगों के पढ़ने की गति ज़्यादा तेज़ होती है। मगर पढ़ने की गति तिगुनी करने या प्रति मिनट 15,000 शब्द पढ़ने के दावे संदेहपूर्ण हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : http://www.todayifoundout.com/wp-content/uploads/2015/04/reading.jpg