दा विंची द्वारा डिज़ाइन किया गया सबसे लंबा पुल

लियोनार्डो दा विंची बहुज्ञानी व्यक्ति थे जिन्होंने अपने समय के पर्यवेक्षकों को कई विषयों में फैले अपने जटिल डिज़ाइनों से प्रभावित किया था। वैसे तो दा विंची मोनालिसा और लास्ट सपर जैसी प्रसिद्ध पेंटिंग्स के लिए जाने जाते हैं, लेकिन उनका एक काम ऐसा भी है जिससे काफी कम लोग परिचित हैं। 16वीं सदी में दा विंची ने ओटोमान साम्राज्य के लिए उस समय के सबसे लंबे पुल का डिज़ाइन तैयार किया था।        

1502 में सुल्तान बेज़िद द्वितीय ने कॉन्स्टेनटिनोपल (आजकल का इस्तांबुल) से गलाटा तक पुल तैयार करने के प्रस्ताव आमंत्रित किए थे। एक प्रस्ताव दा विंची का भी था लेकिन जाने-माने कलाकार और आविष्कारक होने के बाद भी उनके डिज़ाइन को स्वीकार नहीं किया गया। हाल ही में एमआईटी के शोधकर्ताओं ने यह परखने की कोशिश की है कि यदि इस पुल का निर्माण होता तो यह कितना मज़बूत होता। 

शोधकर्ताओं ने 500 वर्ष पहले उपलब्ध निर्माण सामग्री और औज़ारों तथा उस इलाके की भूवैज्ञानिक स्थितियों पर विचार करते हुए पुल का प्रतिरूप तैयार किया। इस अध्ययन में शामिल एमआईटी की छात्र कार्ली बास्ट के अनुसार उस समय पत्थर ही एक ऐसा विकल्प था जिसके उपयोग से पुल को मज़बूती मिल सकती थी। शोधकर्ताओं ने यह भी माना कि पुल बिना किसी गारे के केवल पत्थरों की मदद से खड़ा रहने के लिए डिज़ाइन किया गया था।   

पुल की मज़बूती को जांचने के लिए, टीम ने 126 3-डी ब्लाक तैयार किए जो पुल के हज़ारों पत्थरों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका मॉडल दा विंची की डिज़ाइन से 500 गुना छोटा था, जो लगभग 280 मीटर लंबा रहा होगा। हालांकि यह आधुनिक पुलों की तुलना में बहुत छोटा होता लेकिन यह अपने समय का सबसे लंबा पुल होता।

टीम ने बताया कि उस समय बनाए जाने वाले अधिकांश पुल अर्ध-वृत्ताकार मेहराब के रूप में तैयार किए जाते थे जिनमें 10 या उससे अधिक खम्बों की आवश्यकता होती थी। लेकिन दा विंची का डिज़ाइन एक ही मेहराब से बना था जिसे ऊपर से सपाट किया गया था। इसके नीचे से पाल वाली नावें आसानी से गुज़र सकती थी। टीम ने पुल का निर्माण करते समय मचान का सहारा दिया था लेकिन आखिरी पत्थर रखते ही मचान को हटा दिया गया। दिलचस्प बात यह रही कि पुल खड़ा रहा। शोधकर्ताओं के अनुसार यह अपने ही वज़न के दबाव से खड़ा है। दा विंची जानते थे कि इस क्षेत्र में भूकंप का भी खतरा है, इसलिए डिज़ाइन में ऐसी संरचनाएं (एबटमेंट्स) बनाई थीं जो इसके किनारों पर किसी भी प्रकार की हरकत होने पर पुल को स्थिर रखें।

इस परीक्षण पर ध्यान दिया जाए तो यह बात स्पष्ट है कि दा विंची ने इस विषय में काफी सोचने-समझने के बाद यह डिज़ाइन तैयार किया होगा। 

टीम ने अपने परिणामों को बार्सिलोना, स्पेन में आयोजित इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर शेल एंड स्पेशियल स्ट्रक्चर्स सम्मेलन में प्रस्तुत किया है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सबसे ज्यादा चांद बृहस्पति नहीं शनि के पास हैं – प्रदीप

हाल ही में खगोल विज्ञानियों ने हमारे सौर मंडल में शनि ग्रह के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते 20 नए चंद्रमाओं (प्राकृतिक उपग्रहों) की खोज की है। इन नए चंद्रमाओं को मिलाकर अब शनि के पास कुल 82 चांद हो गए हैं। इसके पहले तक सबसे ज़्यादा 79 चांद होने का तमगा सौर मंडल के सबसे बड़े ग्रह बृहस्पति के पास था। अब नए चंद्रमाओं के साथ शनि ने प्राकृतिक उपग्रहों के मामले में बृहस्पति से बाज़ी मार ली है। और इसी के साथ हमारे सौरमंडल में विभिन्न ग्रहों के चंद्रमाओं की कुल संख्या 210 हो गई है।

अमेरिका के कार्नेगी इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज़ के अंतरिक्ष विज्ञानी स्कॉट एस. शेफर्ड के नेतृत्व में खगोल विज्ञानियों की एक टीम ने शनि के नए उपग्रहों की खोज हवाई द्वीप में स्थित सुबारू टेलीस्कोप की मदद से की है। शनि के चारों ओर चक्कर लगाने वाले इन नए चंद्रमाओं का व्यास तकरीबन 5-5 किलोमीटर है। इनमें से तीन चांद शनि की परिक्रमा उसी दिशा में कर रहे हैं जिस दिशा में शनि स्वयं अपने अक्ष पर घूर्णन करता है। इसे प्रोग्रेड परिक्रमा कहते हैं। अन्य 17 चांद उसकी विपरीत दिशा में (रेट्रोग्रेड) चक्कर लगा रहे हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक तीन चांद जो शनि की दिशा में ही उसकी परिक्रमा कर रहे हैं, उनमें से दो चांद तीसरे की तुलना में इस ग्रह के नजदीक हैं। इन दो चंद्रमाओं को शनि की परिक्रमा करने में दो साल का समय लगता है, जबकि तीसरे को बहुत ज़्यादा दूर होने की वजह से तीन साल का समय लगता है। शनि की विपरीत दिशा में चक्कर लगा रहे बाकी 17 चंद्रमाओं को भी शनि की परिक्रमा पूरी करने में तीन-तीन साल का वक्त लगता है।  इस खोज का खुलासा इंटरनेशनल एस्ट्रॉनॉमिकल यूनियन के माइनर प्लैनेट सेंटर द्वारा किया गया है।

इस खोज के लिए साल 2004 से 2007 के बीच जटिल आंकड़ों के विश्लेषण के लिए सशक्त कंप्यूटर प्रणाली का उपयोग किया गया, जिसमें सुबारू टेलिस्कोप की भी सहायता ली गई। संभावित चंद्रमाओं की पहचान के लिए नए डैटा का पुराने डैटा के साथ मिलान किया गया और तब जाकर एस. शेफर्ड और उनकी टीम ने 20 नए चंद्रमाओं की कक्षाओं को सुनिश्चित करने में सफलता प्राप्त की।

एस. शेफर्ड के मुताबिक “यह पता करना बेहद मज़ेदार था कि शनि चांद की संख्या के मामले में सौर मंडल का सरताज बन गया है।” वे मज़ाकिया लहजे में कहते हैं कि “बृहस्पति एक मामले में खुद को सांत्वना दे सकता है कि उसके पास अभी भी सौर मंडल के सभी ग्रहों में सबसे बड़ा चांद है।” बृहस्पति ग्रह का चांद गैनिमेड आकार में तकरीबन पृथ्वी से आधा है। खगोल विज्ञानियों ने शनि का चक्कर लगाने वाले 5 किलोमीटर व्यास वाले और बृहस्पति का चक्कर लगाने वाले 1.6 किलोमीटर व्यास वाले छोटे चांदों का पता लगा लिया है। भविष्य में इनसे छोटे खगोलीय पिंडों के बारे में पता लगाने के लिए और बड़ी दूरबीनों की ज़रूरत होगी। वैज्ञानिक कह रहे हैं कि शनि के चारों ओर चक्कर लगाने वाले छोटे-छोटे चांदों की संख्या 100 से भी अधिक हो सकती है, जिनकी खोज अभी जारी है।

खोजे गए सभी चांद उन चीज़ों के अवशेष से निर्मित हैं जिनसे स्वयं ग्रहों का निर्माण हुआ था। ऐसे में इनका अध्ययन करने से खगोल विज्ञानियों को ग्रहों के निर्माण के बारे में नई जानकारियां मिल सकती हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक, हो सकता है कि ये छोटे-छोटे चांद किसी बड़े चांद के टूटने से बने हों। एस. शेफर्ड के मुताबिक, ये छोटे चांद अपने मुख्य चांद से टूट कर भी शनि की परिक्रमा करने में सक्षम हैं, जो कि बहुत महत्वपूर्ण बात है। शोधकर्ताओं ने अध्ययन से यह भी पता लगाया है कि शनि की उल्टी दिशा में परिक्रमा कर रहे चांद अपने अक्ष पर उतना ही झुके हुए हैं, जितना इनसे पहले खोजे गए चांद हैं। इससे इस संभावना को और बल मिलता है कि ये सभी चांद एक बड़े चांद के टूटने से बने हैं। शेफर्ड कहते हैं, इस तरह के बाहरी चंद्रमाओं का समूह बृहस्पति के आसपास भी दिखाई देता है। इससे लगता है कि इनका निर्माण शनि तंत्र में चंद्रमाओं के बीच या बाहरी चीज़ों (क्षुद्रग्रहों या धूमकेतुओं) के साथ टकराव के चलते हुआ होगा।

बहरहाल, कार्नेगी इंस्टीट्यूट ने इन नए चंद्रमाओं को नाम देने के लिए एक ऑनलाइन कॉन्टेस्ट (प्रतियोगिता) का आयोजन किया है। इनके नाम उनके वर्गीकरण के आधार पर तय किए जाने हैं। वैज्ञानिक यह भी जानने में लगे हैं कि क्या सौरमंडल से बाहर के किसी अन्य ग्रह के इर्द-गिर्द परिक्रमारत इससे भी अधिक चांद हैं। फिलहाल चांद के मामले में हमारे सौरमंडल का सरताज शनि ही है! (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पौधों के सूखे से निपटने में मददगार रसायन

पानी की कमी या सूखा पड़ने जैसी समस्याएं फसल बर्बाद कर देती हैं। लेकिन साइंस पत्रिका में प्रकाशित ताज़ा अध्ययन के अनुसार ओपाबैक्टिन नामक रसायन इस समस्या से निपटने में मदद कर सकता है। ओपाबैक्टिन, पौधों द्वारा तनाव की स्थिति में छोड़े जाने वाले हार्मोन एब्सिसिक एसिड (एबीए) के ग्राही को लक्ष्य कर पानी के वाष्पन को कम करता है और पौधों में सूखे से निपटने की क्षमता बढ़ाता है।

युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के पादप जीव वैज्ञानिक सीन कटरल और उनके साथियों ने 10 साल पहले पौधों में उन ग्राहियों का पता लगाया था जो एबीए से जुड़कर ठंड और पानी की कमी जैसी परिस्थितियों से निपटने में मदद करते हैं। लेकिन पौधों पर बाहर से एबीए का छिड़काव करना बहुत महंगा था और लंबे समय तक इसका असर भी नहीं रहता था। इसके बाद कटलर और उनके साथियों ने साल 2013 में क्विनबैक्टिन नामक ऐसे रसायन का पता लगाया था जो एरेबिडोप्सिस और सोयाबीन के पौधों में एबीए के ग्राहियों के साथ जुड़कर उनमें सूखे को सहने की क्षमता बढ़ाता है। लेकिन क्विनबैक्टिन के साथ भी दिक्कत यह थी कि वह कुछ फसलों में तो कारगर था लेकिन गेहूं और टमाटर जैसी प्रमुख फसलों पर कोई असर नहीं करता था। इसलिए शोधकर्ता क्विनबैक्टिन के विकल्प ढूंढने के लिए प्रयासरत थे।

इस प्रक्रिया में पहले तो उन्होंने कंप्यूटर सॉफ्टवेयर की मदद से लाखों रसायनों से लगभग 10,000 ऐसे रसायनों को छांटा जो एबीए ग्राहियों से उसी तरह जुड़ते हैं जिस तरह स्वयं एबीए हार्मोन जुड़ता है। इसके बाद पौधों पर इन रसायनों का छिड़काव करके देखा। और जो रसायन सबसे अधिक सक्रिय मिले उनके प्रभाव को जांचा।

पौधों पर ओपाबैक्टिन व अन्य रसायनों का छिड़काव करने पर उन्होंने पाया कि क्विनबैक्टिन और एबीए हार्मोन की तुलना में ओपाबैक्टिन से छिड़काव करने पर तनों और पत्तियों से पानी की हानि कम हुई और इसका प्रभाव 5 दिनों तक रहा। जबकि एबीए से छिड़काव का प्रभाव दो से तीन दिन ही रहा और सबसे खराब प्रदर्शन क्विनबैक्टिन का रहा जिसने टमाटर पर तो कोई असर नहीं किया और गेहूं पर इसका असर सिर्फ 48 घंटे ही रहा।

प्रयोगशाला में मिले इन नतीजों की पुष्टि खेतों में या व्यापक पैमाने पर करना बाकी है। इसके अलावा इसके इस्तेमाल से पड़ने वाले पर्यावरणीय प्रभाव और विषैलेपन की जांच भी करना होगी।

कटलर का कहना है कि पौधों में हस्तक्षेप कर उनकी वृद्धि या उपज बढ़ाने के लिए छोटे अणु विकसित करना, खासकर कवकनाशक, कीटनाशक और खरपतवारनाशक बनाने के लिए, अनुसंधान का एक नया क्षेत्र हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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मोनार्क तितली ज़हर को कैसे पचाती है

काले-नारंगी पंखों वाली मोनार्क तितली देखने में काफी सुंदर लगती है। एक ज़हरीले पौधे (मिल्कवीड) का सेवन करके यह तितली ज़हरीली हो जाती है और अपने रंग-रूप से संभावित शिकारियों को आगाह कर देती है कि वह ज़हरीली है। लेकिन एक ज़हरीले आहार के प्रति प्रतिरक्षा विकसित करना काफी हैरानी की बात है। बात जीन्स पर टिकी है। इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं की दो स्वतंत्र टीमों ने एक फल मक्खी (ड्रॉसोफिला) में तीन प्रकार के आनुवंशिक परिवर्तन करके इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश की है।

वास्तव में मिल्कवीड पौधा कार्डिएक ग्लाइकोसाइड नामक यौगिक का उत्पादन करता है, जो कोशिकाओं के अंदर और बाहर आयनों के उचित प्रवाह को नियंत्रित करने वाले आणविक पंपों को बाधित करता है। इस पौधे का सेवन करने वाली मोनार्क तितली और अन्य जीवों में इन पंपों का ऐसा संस्करण विकसित हुआ है कि इन जीवों पर इस रसायन का गलत असर नहीं पड़ता।

मिल्कवीड खाने वाले विभिन्न जीवों में क्या समानता है, इसे समझने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के जीव विज्ञानी नोहा वाइटमन और उनके सहयोगियों ने मोनार्क तितली समेत 21 कीटों के आणविक पंप के जीन का मिलान किया। शोधकर्ताओं को तीन उत्परिवर्तन मिले जो इस प्रोटीन पंप के तीन एमीनो एसिड्स को बदल देते हैं। कीट परिवार में इन परिवर्तनों को देखकर टीम ने यह अनुमान लगाया कि ये एमीनो एसिड परिवर्तन किस क्रम में हुए थे। यह क्रम महत्वपूर्ण लगता है। उन्होंने जीन-संपादन तकनीक की मदद से उन परिवर्तनों को क्रमबद्ध ढंग से फल मक्खियों में करने की कोशिश की।

नेचर में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार मोनार्क तितली के पूर्वजों में उत्पन्न एक उत्परिवर्तन जब फल मक्खियों में किया गया तो वह मिल्कवीड के प्रति थोड़ी प्रतिरोधी हुई। लेकिन जब उसमें एक और उत्परिवर्तन किया गया तो फल मक्खी और अधिक सुरक्षित हो गई। इसके बाद तीसरा उत्परिवर्तन करने पर तो फल मक्खी मोनार्क तितली की तरह मिल्कवीड पर बखूबी पनपने लगी। और तो और, मोनार्क तितली की तरह फल मक्खियों ने खुद के शरीर में भी कुछ विष संचित रखा जो तितली को शिकारियों से बचाता है। (स्रोत फीचर्स)

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प्लेनेट नाइन एक ब्लैक होल हो सकता है! – प्रदीप

गोल विज्ञानियों को ऐसा लगता है कि हमारे सौरमंडल में नेप्च्यून से परे एक और ग्रह सूर्य की परिक्रमा कर रहा है। इस ग्रह को कोई भी देख नहीं पाया है इसलिए हाल ही में खगोल विज्ञानियों ने यह सुझाव दिया है कि यह बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल वगैरह की तरह पारंपरिक ग्रह न हो कर शायद कुछ और हो! इससे पहले कुछ इसे प्लेनेट नाइन तो कुछ प्लेनेट एक्स कह रहे थे।

हाल ही में खगोल विज्ञानियों ने यह दावा किया है एक कारण यह भी हो सकता है कि इस नौवें ग्रह को अब तक की सबसे उन्नत दूरबीन से भी इसलिए नहीं देखा जा सका है, क्योंकि यह ग्रह न होकर एक ब्लैक होल है। दरअसल ब्लैक होल अत्यधिक घनत्व तथा द्रव्यमान वाले ऐसे पिंड होते हैं, जो आकार में तो बहुत छोटे होते हैं मगर इनके अंदर गुरुत्वाकर्षण बल इतना ज़्यादा होता है कि इनके चंगुल से प्रकाश की किरणों का भी बच निकलना नामुमकिन होता है। चूंकि यह प्रकाश की किरणों को भी अवशोषित कर लेता है, इसलिए यह हमारे लिए अदृश्य बना रहता है।

खगोल विज्ञानियों को एक अरसे से ऐसा लगता रहा है कि सौरमंडल के बिलकुल बाहरी किनारे पर, जहां से हमारी आकाशगंगा शुरू होती कही जा सकती है, एक ऐसा विशाल पिंड होना चाहिए, जिसका द्रव्यमान हमारी पृथ्वी से 5 से 10 गुना ज़्यादा है। उसे अभी देखा नहीं गया है, लेकिन खगोलीय गणनाएं यही इशारा करती हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि हमारे सौरमंडल की बाहरी सीमा से परे ऊर्ट-बादल से हो कर गुज़र रहे धूमकेतु (कॉमेट) जिस तरह सौरमंडल की सीमा के भीतर खिंच जाते हैं, उससे यही लगता है कि वहां हमारी पृथ्वी से भी शक्तिशाली कोई विशाल पिंड है। वह अपने गुरुत्वाकर्षण बल से इन धूमकेतुओं को अपने रास्ते से विचलित कर सकता है। एक डच वैज्ञानिक यान हेंड्रिक ऊर्ट ने 1950 में इस बादल के होने की संभावना जताई थी। हिसाब लगाया गया है कि यह बादल सौरमंडल की बाहरी सीमा से परे 1.6 प्रकाश वर्ष की दूरी तक फैला हुआ है।

इंग्लैंड के डरहम युनिवर्सिटी के जैकब शोल्ट्ज़ और शिकागो के इलिनॉय युनिवर्सिटी के जेम्स अनविन ने हाल ही में यह नया सिद्धांत प्रस्तावित किया है कि प्लेनेट नाइन या प्लेनेट एक्स एक आदिम ब्लैक होल है। सूर्य से लगभग 10 गुना अधिक द्रव्यमान वाले तारों का  हाइड्रोजन और हीलियम रूपी र्इंधन खत्म हो जाता है, तब उन्हें फैलाकर रखने वाली ऊर्जा भी खत्म जाती है और वे अत्यधिक गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़कर अत्यधिक सघन पिंड यानी ब्लैक होल बन जाते हैं। हम आम तौर पर ब्लैक होल शब्द का इस्तेमाल इन्हीं भारी-भरकम खगोलीय पिंडों के लिए करते हैं। मगर, आदिम ब्लैक होल के बारे में वैज्ञानिकों की मान्यता है कि इनका निर्माण ब्राहृांड की उत्पत्ति यानी बिग बैंग के समय हुआ होगा। और ये ब्लैक होल आकार में बहुत छोटे होते हैं। स्टीफन हॉकिंग का ऐसा मानना था कि इन ब्लैक होल्स के अध्ययन से ब्राहृांड की शुरुआती अवस्थाओं के बारे में पता लगाया जा सकता है।

हालिया शोध के मुताबिक इस आदिम ब्लैक होल ने सौरमंडल के बड़े ग्रहों की कक्षाओं को सूर्य के सापेक्ष 6 डिग्री तक झुका दिया है। इस ब्लैक होल की कक्षा काफी चपटी है। यह वर्तमान में अपनी कक्षा में सूर्य से अधिकतम दूरी के आसपास है। इसका परिभ्रमण काल 20 हज़ार वर्ष होना चाहिए। वैज्ञानिकों ने आकाश में 20 डिग्री गुना 20 डिग्री अर्थात 400 वर्ग डिग्री का एक क्षेत्र चिंहित किया है जिसके भीतर यह मौजूद हो सकता है। कंप्यूटर गणनाओं से यह भी पता चला है कि यह ब्लैक होल हमारे सूर्य की परिक्रमा करते हुए हर तीन करोड़ वर्षों पर धूमकेतुओं से भरे ऊर्ट बादल में उथल-पुथल मचाता है।

बहरहाल, अगर प्लेनेट नाइन वास्तव में एक ब्लैक होल है तो इसे खोजना किसी ग्रह को खोजने से बड़ी चुनौती होगी। मगर ध्यान देने वाली ज़रूरी बात यह है कि ब्लैक होल के आसपास का प्रभामंडल उच्च ऊर्जा फोटॉन प्रसारित करेगा और यह एक्स-रे और गामा किरणों के रूप में दिखाई देगा, जिससे इसकी मौजूदगी की पुष्टि की जा सकेगी। अगर हमारे सौर मंडल में ब्लैक होल की मौजूदगी साफ हो जाएगी, तो इससे सौर मंडल के मौजूदा मॉडल में बड़े बदलाव की ज़रूरत होगी! (स्रोत फीचर्स)
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रबर बैंड से बना फ्रिज

ह सुनने में तो थोड़ा अजीब लगता है लेकिन रबर बैंड से भी रेफ्रीजरेटर बनाया जा सकता है। इसका एक छोटा-सा अनुभव आप भी कर सकते हैं। रबर बैंड को खींचते हुए अपने होंठों के पास लाइए, आप थोड़ी थोड़ी गर्माहट महसूस करेंगे। वापस छोड़ने पर यह ठंडा भी हो जाता है। इसे इलास्टोकैलोरिक प्रभाव कहते हैं जो ठीक उसी तरह गर्मी को स्थानांतरित करता है जिस तरह रेफ्रीजरेटर या एयर कंडीशनर में तरल को दबाकर और फिर फैलाकर किया जाता है। वैज्ञानिकों ने इसका एक ऐसा संस्करण भी तैयार किया है जिसमें रबर बैंड को खींचने के अलावा मरोड़ा या ऐंठा भी जाता है।    

इस मरोड़ने की तकनीक पर आधारित फ्रिज पर अध्ययन करते हुए चीन स्थित नंकाई युनिवर्सिटी, तियांजिन के इंजीनियरिंग स्नातक रन वांग और उनके सहयोगियों ने रबर फाइबर, नायलॉन, पॉलीएथिलीन के तार और निकल-टाइटेनियम तारों की शीतलन शक्ति की तुलना की। प्रत्येक सामग्री के 3 सेंटीमीटर लचीले फाइबर को रोटरी उपकरण की मदद से मरोड़ा गया। ऐसा करने पर ऐंठन की वजह से कुंडलियां बनीं और कुंडलियों से सुपर-कुंडलियां बन गर्इं। ऐसा करने पर विभिन्न फाइबर 15 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हुए और ढीला छोड़ने पर उतने ही ठंडे भी हो गए।

मरोड़ने पर गर्म होने की प्रक्रिया को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने प्रत्येक फाइबर की आणविक संरचना को देखने के लिए एक्स-रे का उपयोग किया। मरोड़ने के बल ने अणुओं को अधिक व्यवस्थित कर दिया। चूंकि कुल व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आता है, इसलिए आणविक कंपन में वृद्धि हुई और तापमान बढ़ा।  

इस प्रक्रिया की ठंडा करने की क्षमता देखने के लिए शोधकर्ताओं ने मरोड़ने और खोलने की प्रक्रिया को पानी में करके देखा। रबर फाइबर में उन्होंने लगभग 20 जूल प्रति ग्राम ऊष्मा विनिमय दर्ज किया। यह माप मरोड़ने वाले उपकरण द्वारा खर्च की गई ऊर्जा की तुलना में आठ गुना अधिक था। अन्य फाइबरों का प्रदर्शन भी ऐसा ही रहा। साइंस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इनकी दक्षता का स्तर मानक शीतलकों से तुलनीय है और बिना मरोड़े केवल खींचने से दो गुना अधिक।    

यह डिज़ाइन उन शीतलन तरलों की ज़रूरत को कम कर सकती है जो ग्लोबल वार्मिंग में योगदान देते हैं। हालांकि शीतलन उपकरणों में ओज़ोन को क्षति पहुंचाने वाले क्लोरोफ्लोरोकार्बन को तो खत्म किया जा चुका है लेकिन उसकी जगह इस्तेमाल किए जाने वाले अन्य रसायन ग्रीनहाउस गैसों की श्रेणी में आते हैं जो कार्बन डाईऑक्साइड से अधिक घातक हैं।  

इस शोधपत्र के लेखक और युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास, डलास के भौतिक विज्ञानी रे बॉगमैन और उनकी टीम ने नमूने के तौर पर निकल टाइटेनियम तारों की मदद से बॉल पॉइंट पेन के आकार का एक छोटा फ्रिज तैयार किया है। इस ट्विस्टोकैलोरिक विधि की मदद से उन्होंने चंद सेकंड में पानी की थोड़ी-सी मात्रा को 8 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा कर दिया। (स्रोत फीचर्स)
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टायफॉइड मुक्त विश्व की ओर एक कदम – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

विश्व चेचक मुक्त हो चुका है। और यह संभव हुआ है विश्व भर में चेचक के खिलाफ चले टीकाकरण अभियान से। बहुत जल्द हमें पोलियो से भी मुक्ति मिल जाएगी और ऐसी उम्मीद है कि पोलियो अब कभी हमें परेशान नहीं करेगा। और अब जल्द ही टायफॉइड भी बीते समय की बीमारी कहलाएगी। यह उम्मीद बनी है हैदराबाद स्थित एक भारतीय टीका निर्माता कंपनी – भारत बॉयोटेक – द्वारा टायफॉइड के खिलाफ विकसित किए गए एक नए टीके की बदौलत। इस टीके को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मंज़ूरी दे दी है। नेचर मेडिसिन पत्रिका के अनुसार यह “2018 की सुर्खियों में छाने वाले उपचारों” में से एक है। नेचर मेडिसिन पत्रिका ने अपने 24 दिसंबर 2018 से अंक में लिखा है (जिस पर हम गर्व कर सकते हैं) कि “विश्व स्वास्थ्य संगठन ने टायफॉइड बुखार के खिलाफ टायफॉइड कॉन्जुगेट वैक्सीन, संक्षेप में टाइपबार TCV, नामक टीके को मंज़ूरी दी है। और यह एकमात्र ऐसा टीका है जिसे 6 माह की उम्र से ही शिशुओं के लिए सुरक्षित माना गया है। यह टीका प्रति वर्ष करीब 2 करोड़ लोगों को प्रभावित करने वाले बैक्टीरिया-जनित रोग टायफॉइड के खिलाफ पहला संयुग्म टीका (conjugate vaccine) है।” इसमें एक बैक्टीरिया-जनित रोग (टायफॉइड) के दुर्बल एंटीजन को एक शक्तिशाली एंटीजन (टिटेनस के रोगाणु) के साथ जोड़ा गया है ताकि शरीर उसके खिलाफ एंटीबॉडी बनाने लगे।

भारत बायोटेक द्वारा टाइपबार TCV टीके के निर्माण और उसके परीक्षण को सबसे पहले 2013 में क्लीनिकल इंफेक्शियस डीसीज़ जर्नल में प्रकाशित किया गया था। इस टीके का परीक्षण ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के समूह द्वारा इंसानी चुनौती मॉडल पर किया गया था। इंसानी चुनौती मॉडल का मतलब यह होता है कि कुछ व्यक्तियों को जानबूझकर किसी बैक्टीरिया की चुनौती दी जाए और फिर उन पर विभिन्न उपचारों का परीक्षण किया जाए। परीक्षण में इस टीके को अन्य टीकों (जैसे फ्रांस के सेनोफी पाश्चर द्वारा निर्मित टीके) से बेहतर पाया गया। इस आधार पर इस टीके को अफ्रीका और एशिया के राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल करने की मंज़ूरी मिल गई।

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि भारत में ही कई लोगों को यह मालूम नहीं है कि विश्व के एक तिहाई से अधिक टीके भारत की मुट्ठी भर बॉयोटेक कंपनियों द्वारा बनाए जाते हैं और पूरे भारतीय उपमहाद्वीप, अफ्रीका और एशिया में उपलब्ध कराए जाते हैं। और ऐसा पिछले 30 वर्षों में संभव हुआ है। तब तक हम विदेशों में बने टीके मंगवाते थे और लायसेंस लेकर यहां ठीक उसी प्रक्रिया से उनका निर्माण करते थे। वह तो जब से बायोटेक कंपनियों ने बैक्टीरिया और वायरस के स्थानीय प्रकारों की खोज शुरू की तब से आधुनिक जीव विज्ञान की विधियों का उपयोग करके स्वदेशी टीकों का निर्माण शुरू हुआ। इस संदर्भ में डॉ. चंद्रकांत लहरिया ने इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च के अप्रैल 2014 के अंक में जानकारी से भरपूर एक पर्चे में भारत में टीकों और टीकाकरण के इतिहास का विवरण प्रस्तुत किया है। इसे आप ऑनलाइन (PMID: 24927336) पढ़ सकते हैं।

इसके पहले तक निर्मित टायफॉइड के टीके में टायफॉइड के जीवित किंतु बहुत ही कमज़ोर जीवाणु को मानव शरीर में प्रविष्ट कराया जाता था, जिससे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली इसके खिलाफ एंटीबॉडी बनाने के लिए तैयार हो जाती थी। इसके बाद वैज्ञानिकों को इस बात का अहसास हुआ कि जीवित अवस्था में जीवाणु का उपयोग करना उचित नहीं है क्योंकि इसके कुछ अनचाहे दुष्परिणाम भी हो सकते हैं। इसलिए उन्होंने टीके में जीवाणु के बाहरी आवरण पर उपस्थित एक बहुलक का उपयोग करना शुरू किया। मेज़बान यानी हमारे शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र इसके खिलाफ वही एंटीबॉडी बनाता था जो शरीर में स्वयं जीवाणु के प्रवेश करने पर बनती है। हालांकि यह उपचार उतना प्रभावशाली या प्रबल नहीं था जितनी हमारी इच्छा थी। काश किसी तरह से मेज़बान की प्रतिरक्षा शक्ति को बढ़ाया सकता! इसके अलावा, टायफॉइड जीवाणु के आवरण के बहुलक को वाहक प्रोटीन के साथ जोड़कर भी टीका बनाने की कोशिश की गई थी। इस तरह के कई प्रोटीन-आधारित टायफॉइड टीकों का निर्माण हुआ जो आज भी बाज़ारों में उपलब्ध हैं। हाल ही मे इंफेक्शियस डिसीसेज़ में प्रकाशित एस. सहरुाबुद्धे और टी. सलूजा का शोधपत्र बताता है कि क्लीनिकल परीक्षण

में टाइपबार-टीवीसी टीके के नतीजे सबसे बेहतर मिले हैं, और इसलिए विश्व स्वास्थ संगठन ने इसे मंज़ूरी दे दी है और युनिसेफ द्वारा इसे खरीदने का रास्ता खोल दिया है।

इसी कड़ी में यह जानना और भी बेहतर होगा कि जस्टिन चकमा के नेतृत्व में कनाडा के एक समूह ने भारतीय टीका उद्योग के बारे में क्या लिखा है। यह समूह बताता है कि कैसे हैदराबाद स्थित एक अन्य टीका निर्माता कंपनी, शांता बायोटेक्नीक्स, ने हेपेटाइटिस-बी का एक सफल टीका विश्व को वहनीय कीमत पर उपलब्ध कराया है। उन्होंने इस सफलता के चार मुख्य बिंदु चिन्हित किए हैं – चिकित्सा के क्षेत्र और मांग की मात्रा की पहचान, निवेश और साझेदारी, वैज्ञानिकों और चिकित्सालयों के साथ मिलकर नवाचार, और राष्ट्रीय और वैश्विक एजेंसियों के साथ जुड़ाव और इन सबके अलावा अच्छी उत्पादन प्रक्रिया स्थापित करना।

भारत बॉयोटेक इन सभी बिंदुओं पर खरी उतरी है। वास्तव में उसके द्वारा रोटावायरस के खिलाफ सफलता पूर्वक निर्मित टीका ‘टीम साइंस मॉडल’ का उदाहरण है जिसमें चिकित्सकों, वैज्ञानिकों, राष्ट्रीय और वैश्विक सहयोग समूहों और सरकार को शामिल किया गया था। ‘टीम साइंस’ का एक और उदाहरण जापानी दिमागी बुखार के खिलाफ विकसित जेनवेक टीका है।

और एक अंतिम बात – भारत सरकार द्वारा 1970 में लाए गए प्रक्रिया पेटेंट कानून की अहम भूमिका रही। इसके कारण विश्व भर में कम कीमत पर अच्छी गुणवत्ता वाली दवा उपलब्ध कराने वाली निजी दवा निर्माता कंपनियों का विकास हुआ (जैसे सिप्ला कंपनी के गांधीवादी डॉ. युसुफ हामिद जिन्होंने अफ्रीका में कम दाम पर एड्स-रोधी दवाइयां उपलब्ध कराई और बाइकॉन कंपनी के किरन मजूमदार शॉ जिन्होंने 7 रुपए प्रतिदिन की कीमत पर इंसुलिन उपलब्ध करवाया)। इसके अलावा, विज्ञान व प्रौद्योगिकी विभाग और बॉयोटेक्नॉलॉजी विभाग द्वारा मान्यता, अनुदान और ऋण तथा भारत सरकार द्वारा दिए गए अनुसंधान अनुदान की भूमिका उत्प्रेरक और प्रशंसनीय रही है। इनकी वजह से ही हमारी टीका कंपनियां विश्व स्तर पर वैश्विक गुणवत्ता वाले टीके बहुत कम दामों पर उपलब्ध करा पाती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पर्यावरण बचाने के लिए एक छात्रा की मुहिम – जाहिद खान

16 साल की स्वीडिश पर्यावरण एक्टिविस्ट ग्रेटा अर्नमैन थनबर्ग का नाम आजकल पूरी दुनिया में चर्चा में है। वजह पर्यावरण को लेकर उसकी विश्वव्यापी मुहिम है। अच्छी बात यह है कि जलवायु परिवर्तन और उसके दुष्प्रभावों के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए ग्रेटा ने जो आंदोलन छेड़ रखा है, उसे अब व्यापक जनसमर्थन मिल रहा है। पर्यावरण बचाने के इस आंदोलन में लोग जुड़ते जा रहे हैं। खास तौर से यह आंदोलन बच्चों और नौजवानों को खूब आकर्षित कर रहा है।

बीते 20 सितंबर को शुक्रवार के दिन दुनिया भर में लाखों स्कूली बच्चों ने जलवायु संकट की चुनौतियों से निपटने के कदम उठाने का आह्वान करते हुए प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन में उनके साथ बड़े लोग भी शामिल हुए। ग्रेटा की इस मुहिम का असर दुनिया भर में इतना हुआ है कि अमेरिका में न्यूयार्क के स्कूलों ने अपने यहां के 11 लाख बच्चों को खुद ही शुक्रवार की छुट्टी दे दी ताकि वे ‘वैश्विक जलवायु हड़ताल’ में शामिल हो सकें। ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न शहर में करीब 1 लाख लोग इस मुहिम से जुड़े। भारत में भी कई बड़े शहरों के अलावा राजधानी दिल्ली में स्कूली बच्चों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने जंतर-मंतर पर प्रदर्शन कर लोगों का ध्यान इस समस्या की ओर दिलाया।

पर्यावरण के प्रति ग्रेटा थनबर्ग में संवेदनशीलता और प्यार शुरू से ही था। महज नौ साल की उम्र में, जब वह तीसरी क्लास में पढ़ रही थी, उसने जलवायु सम्बंधी गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। लेकिन ग्रेटा की ओर सबका ध्यान उस वक्त गया, जब उसने पिछले साल अगस्त में अकेले ही स्वीडिश संसद के बाहर पर्यावरण को बचाने के लिए हड़ताल का आगाज़ किया। ग्रेटा की मांग थी कि स्वीडन सरकार पेरिस समझौते के मुताबिक अपने हिस्से का कार्बन उत्सर्जन कम करे। ग्रेटा ने अपने दोस्तों और स्कूल वालों से भी इस हड़ताल में शामिल होने की अपील की, लेकिन सभी ने इन्कार कर दिया। यहां तक कि ग्रेटा के माता-पिता भी पहले इस मुहिम के लिए मानसिक तौर पर तैयार नहीं थे। उन्होंने अपनी तरफ से ग्रेटा को रोकने की कोशिश भी की, लेकिन वह नहीं रुकी। ग्रेटा ने पहले ‘स्कूल स्ट्राइक फॉर क्लाइमेट मूवमेंट’ की स्थापना की। खुद अपने हाथ से बैनर पैंट किया और स्वीडन की सड़कों पर घूमने लगी। उसके बुलंद हौसले का ही नतीजा था कि लोग जुड़ते गए, कारवां बनता गया।

ग्रेटा थनबर्ग का यह आंदोलन बच्चों में इतना कामयाब रहा कि आज आलम यह है कि पर्यावरण बचाने के इस महान आंदोलन में लाखों विद्यार्थी शामिल हो गए हैं। इसी साल 15 मार्च के दिन, दुनिया के कई शहरों में विद्यार्थियों ने एक साथ पर्यावरण सम्बंधी प्रदर्शनों में भाग लिया और भविष्य में भी प्रत्येक शुक्रवार को ऐसा करने का फैसला किया है। अपने इस अभियान को उसने ‘फ्राइडेज़ फॉर फ्यूचर’ (भविष्य के लिए शुक्रवार) नाम दिया है। शुक्रवार के दिन बच्चे स्कूल जाने की बजाय सड़कों पर उतरकर अपना विरोध दर्ज करते हैं ताकि दुनिया भर के नेताओं, नीति निर्माताओं का ध्यान पर्यावरणीय संकट की तरफ जाए, वे इसके प्रति संजीदा हों और पर्यावरण बचाने के लिए अपने-अपने यहां व्यापक कदम उठाएं। ज़ाहिर है, यह एक ऐसी मुहिम है जिसका सभी को समर्थन करना चाहिए। क्योंकि यदि दुनिया नहीं बचेगी, तो लोग भी नहीं बचेंगे। अपनी इस मुहिम से ग्रेटा ने जो सवाल उठाए हैं और वे जिस अंदाज़ में बात करती हैं, उसका लोगों पर काफी असर होता है। वे अपने भाषणों में बड़ी-बड़ी बातें नहीं कहतीं, छोटी-छोटी बातों और मिसालों से उन्हें समझाती हैं। मसलन “हमारे पास कोई प्लेनेट-बी यानी दूसरा ग्रह नहीं है, जहां जाकर इंसान बस जाएं। लिहाज़ा हमें हर हाल में धरती को बचाना होगा।’’

पर्यावरण बचाने की ग्रेटा थनबर्ग की यह बेमिसाल मुहिम अब स्कूल की चारदीवारी, बल्कि देश की सरहदों से भी बाहर फैल चुकी है। स्टॉकहोम, हेलसिंकी, ब्रसेल्स और लंदन समेत दुनिया के कई देशों में जाकर ग्रेटा ने अलग-अलग मंचों पर जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए आवाज़ उठाई है। दावोस में विश्व आर्थिक मंच के एक सत्र को भी ग्रेटा ने संबोधित किया। यही नहीं, पिछले साल दिसंबर में पोलैंड के काटोवाइस में आयोजित, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन की 24वीं बैठक में उसने पर्यावरण पर ज़बर्दस्त भाषण दिया था।

इस मुहिम का असर आहिस्ता-आहिस्ता ही सही, दिखने लगा है। आम लोगों से लेकर सियासी लीडर तक ग्रेटा की इन चिंताओं में शरीक होने लगे हैं। ग्रेटा से ही प्रभावित होकर दुनिया भर के तकरीबन 2000 स्थानों पर पर्यावरण को बचाने के लिए प्रदर्शन हो रहे हैं। अपना कामकाज छोड़कर, लोग सड़कों पर निकल रहे हैं। ब्रिटेन में पिछले दिनों लाखों लोगों ने ग्रेटा थनबर्ग के साथ सड़कों पर इस मांग के साथ प्रदर्शन किया कि देश में जलवायु आपात काल लगाया जाए। इस प्रदर्शन का नतीजा यह रहा कि ब्रिटेन की संसद को देश में जलवायु आपात काल घोषित करने का फैसला करना पड़ा। ब्रिटेन ऐसा अनूठा और ऐतिहासिक कदम उठाने वाला पहला देश बन गया।

ग्रेटा अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए सिर्फ उनके बीच ही नहीं जाती, बल्कि ट्विटर जैसे सोशल मीडिया का भी जमकर इस्तेमाल करती है। उसे मालूम है कि आज का युवा अपना सबसे ज़्यादा वक्त इस माध्यम पर बिताता है।

ग्रेटा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी एक वीडियो संदेश भेजा था। इसमें गुज़ारिश की थी कि वे पर्यावरण बचाने और जलवायु परिवर्तन के संकटों से उबरने के लिए अपने देश में गंभीर कदम उठाएं।

पर्यावरण बचाने की अपनी इस मुहिम से ग्रेटा थनबर्ग का नाता सिर्फ सैद्धांतिक नहीं है, बल्कि वह अपने व्यवहार से कोशिश करती हैं कि खुद भी इस पर अमल करें। संयुक्त राष्ट्र की जलवायु शिखर वार्ता में प्रमुख वक्ता के रूप में शामिल होने के लिए स्वीडन से न्यूयॉर्क की लंबी यात्रा ग्रेटा ने यॉट (नौका) में सफर कर पूरी की ताकि वह अपने हिस्से का कार्बन उत्सर्जन रोक सकें। ये छोटी-छोटी बातें बतलाती हैं कि यदि हम जागरूक रहेंगे, तो पर्यावरण बचाने में अपना योगदान दे सकते हैं।

ग्लोबल वार्मिंग के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए ग्रेटा थनबर्ग को इतनी कम उम्र में ही कई सम्मानों और पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है। एमनेस्टी इंटरनेशनल के ‘एम्बेसडर ऑफ कॉन्शिएंस अवॉर्ड, 2019’ के अलावा दुनिया की प्रतिष्ठित टाइम मैगज़ीन ने ग्रेटा को साल 2018 के 25 सबसे प्रभावशाली किशोरों की सूची में शामिल किया। यही नहीं, तीन नॉर्वेजियन सांसदों ने पिछले दिनों ग्रेटा को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया था।

इस समय पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन के गंभीर संकट से जूझ रही है। यूएन की एक रिपोर्ट बतलाती है कि दुनिया भर के 10 में से 9 लोग ज़हरीली हवा में सांस लेने को मजबूर हैं। हर साल 70 लाख मौतें वायु प्रदूषण की वजह से होती हैं। इनमें से 40 लाख एशिया के होते हैं। जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाले खराब मौसम की वजह से हमारे देश में हर साल 3660 लोगों की मौत हो जाती है। लैंसेट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन के चलते 153 अरब कामकाजी घंटे बर्बाद हुए हैं जिसके चलते उत्पादकता में भी भारी कमी आई है और पूरी दुनिया को 326 अरब डॉलर का नुकसान पहुंचा है। इसमें 160 अरब डॉलर का नुकसान तो सिर्फ भारत को ही हुआ है।

पर्यावरणविदों का मत है कि अगर समय रहते कार्बन उत्सर्जन कम करने के प्रयास नहीं किए गए, तो पृथ्वी के सभी जीवों का अस्तित्व खतरे में आ जाएगा। ग्लोबल वार्मिंग का खतरा सभी देशों के लिए एक बड़ी चुनौती है। इस गंभीर चुनौती से तभी निपटा जा सकता है, जब सभी, खास तौर से नई पीढ़ी इसके प्रति जागरूक हों और पर्यावरण बचाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम करें। अपनी ज़िम्मेदारियों को खुद समझे और दूसरों को भी समझाए। जलवायु परिवर्तन के संकट से जूझ रही दुनिया के सामने, अपने जागरूकता अभियान से ग्रेटा थनबर्ग ने एक शानदार मिसाल पेश की है। दुनिया को बतलाया है कि अभी भी ज़्यादा वक्त नहीं बीता है, संभल जाएं। वरना पछताने के लिए कोई नहीं बचेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्राचीन जर्मन कब्रगाहों से नदारद वयस्क बेटियों के शव

गभग साढ़े चार हज़ार साल पुरानी जर्मन कब्रगाहों के अवशेष और उनमें मिले सामानों पर किए गए हालिया अध्ययन के नतीजों ने अध्ययनकर्ताओं को हैरत में डाल दिया है। साइंस पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन के नतीजों के मुताबिक इन पुरानी जर्मन कब्रगाहों में वयस्क बेटियों के शव नदारद हैं।

ये अवशेष तकरीबन 20 साल पहले दक्षिण ऑग्सबर्ग में लेक नदी के किनारे आवास निर्माण के लिए चल रही खुदाई में मिले थे। हार्वर्ड मेडिकल स्कूल की एलिसा मिटनिक और उनके साथी खुदाई में मिले करीब 104 शवों के डीएनए, शवों के साथ मिली वस्तुओं के विश्लेषण, रेडियोकार्बन डेटिंग और दांतो में मौजूद स्ट्रॉन्टियम आइसोटोप की मात्रा के आधार पर उनके सामाजिक ढांचे का अध्ययन कर रहे थे। अध्ययन में उन्होंने पाया कि इन कब्रगाहों में वयस्क बेटियों का एक भी शव नहीं था। इसके विपरीत बेटों को पिता की ज़मीन पर दफनाया गया था और उनके साथ उनकी संपत्ति भी रखी गई थी। 

रोडियोकार्बन डेटिंग में उन्होंने पाया कि ये लोग वहां 4750 से 3300 वर्ष पूर्व रहते थे। 200 वर्ष की इस अवधि में चार से पांच पीढ़ियों का जीवन रहा। शवों के साथ मिली वस्तुओं और बर्तनों के आकार के आधार पर अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि शुरुआती पीढ़ी नव-पाषाण संस्कृति की थी। इसके बाद की पीढ़ियों के लोग कांस्ययुग के थे, जिनके साथ उनकी कब्र में कांसे और तांबे के खंजर, कुल्हाड़ी और छैनी मिली थी और इनमें पूर्व के लोगों के डीएनए बरकरार थे। इनकी कब्र में दफन चीज़ों को देखकर पता चलता है कि ये उच्च श्रेणी के लोग थे और धनवान थे। इनके वंशज आज भी युरोप में मौजूद हैं। इसके विपरीत कुछ लोगों की कब्र में शव के साथ कोई सामान नहीं मिला है जिससे लगता है कि ये निम्न श्रेणी के लोग थे। और इनके वाय गुणसूत्र उच्च श्रेणी के लोगों से भिन्न थे जिससे पता चलता है कि वे अलग वंश के थे।

इसके अलावा एक तिहाई से भी अधिक महिलाएं बहुत अधिक संपत्ति के साथ दफन की गई थीं। उनके डीएनए के विश्लेषण और स्ट्रॉन्टियम आइसोटोप के विश्लेषण से पता चलता है कि ये महिलाएं मूलत: इस जगह की नहीं थी, किशोरावस्था तक वे लेक नदी से दूर किसी अन्य स्थान पर रहती थीं। इन कब्रगाहों में इन महिलाओं की बेटियों के कोई प्रमाण या निशान नहीं मिले हैं जिससे लगता है कि शादी के बाद वे अपना घर छोड़ देती होंगी। इस जगह जिन भी स्थानीय स्त्रियों के शव मिले हैं वे या तो 15-17 वर्ष से कम उम्र की थीं या गरीब स्त्रियां थीं। तीन पुरुषों के दांतों में मिले स्ट्रॉन्टियम की मात्रा से पता चलता है कि वे किशोरावस्था में उस जगह से कहीं और चले गए थे और वयस्क होने पर लौट आए। जिससे पुरुषों की जीवन शैली का अंदाज़ा लग सकता है।

इस समय सामाजिक स्तर पर तो असमानता दिखती है लेकिन राजसी पुरुषों की कब्र में लगभग एक जैसी चीज़े थीं, जिससे अंदाजा लगता है कि संपत्ति सिर्फ बड़े बेटे को नहीं बल्कि सभी बेटों को बराबर मिलती थी।

ये नतीजे एक ही जगह और एक ही समय के हैं। ज़्यादा सामान्य नतीजे पर पहुंचने के लिए इसी तरह के विश्लेषण अलग-अलग समयों और जगहों पर करना होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ऊर्जा संकट के 40 साल बाद विश्व ऊर्जा का दृश्य – डॉ. बी.जी. देसाई

1973 के ऊर्जा संकट ने ऊर्जा आपूर्ति और कीमतों को लेकर व्याप्त खुशफहमी को एक झटके में दूर कर दिया था। विश्व ने इसका जवाब ऊर्जा दक्षता में सुधार और तेल के विकल्पों के रूप में दिया। ग्लोबल वार्मिंग की चिंता ऊर्जा दक्षता और नवीकरणीय ऊर्जा के विकास की ओर प्रोत्साहित कर रही है। इस लेख में ऊर्जा संकट के पहले और उसके बाद पूरे विश्व और भारत के परिदृश्य की चर्चा की गई है। उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर आगे की कार्रवाई के लिए कुछ टिप्पणियां की गई हैं।

1973 के अरब-इज़राइल युद्ध ने ऊर्जा संकट को जन्म दिया। इस ऊर्जा संकट ने विश्व को ऊर्जा, विशेष रूप से तेल, की सीमित उपलब्धता और बढ़ते मूल्य के प्रति आगाह किया। विकसित दुनिया ने सुरक्षित ऊर्जा आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए 1974 में अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) का गठन किया। 1973 और ऊर्जा संकट के 40 साल बाद 2014 के विश्व ऊर्जा परिदृश्य को देखना लाभदायक होगा। IEA ने अपना वार्षिक प्रतिवेदन “वल्र्ड एनर्जी स्टेटिस्टिक्स 2016” (विश्व ऊर्जा सांख्यिकी) प्रकाशित कर दिया है। यह सारांश रूप में भी उपलब्ध है। ये प्रकाशन 1973 में (ऊर्जा संकट से पहले) और 2014 में (ऊर्जा संकट के बाद) विश्व ऊर्जा आपूर्ति और खपत के दिलचस्प ऊर्जा रुझान प्रस्तुत करते हैं। यह लेख ऊर्जा संकट के पहले और बाद दुनिया में ऊर्जा आपूर्ति और उपयोग की कुछ विशेषताओं का विश्लेषण करता है। इसमें भारत के लिए भी इसी प्रकार की तुलना की गई है।

प्राथमिक ऊर्जा आपूर्ति

1973 में, विश्व ऊर्जा आपूर्ति 6101 एमटीओई थी। (एमटीओई यानी मिलियन टन तेल के समतुल्य, यह गणना एक कि.ग्रा. तेल = 10000 किलो कैलोरी पर आधारित है।) 2014 में यह 13,099 एमओटीआई हो गई थी। अर्थात 1973 की तुलना में 2014 में ऊर्जा आपूर्ति बढ़कर 2.25 गुना हो गई। तालिका 1 में विभिन्न र्इंधनों का योगदान दर्शाया गया है।

तालिका 1
प्राथमिक ऊर्जा आपूर्ति में विभिन्न ईंधनों की भागीदारी (प्रतिशत में)
ईंधन1973 2014
तेल 46.2 31.3
कोयला 24.5 28.6
प्राकृतिक गैस 16.0 21.2
जैव ईंधन और कचरा 10.5 10.3
पनबिजली 1.8 2.4
नाभिकीय 0.9 4.8
अन्य (सौर, पवन, आदि) 0.1 1.4

तेल की कीमतों में तेज़ी से वृद्धि के चलते इसके विकल्पों की खोज और कुशल उपयोग का मार्ग प्रशस्त हुआ है। 1973 में कुल ऊर्जा आपूर्ति में तेल का हिस्सा 46 प्रतिशत था जबकि 2014 में केवल 31.3 प्रतिशत ऊर्जा आपूर्ति तेल से हुई। कोयले और गैस का उपयोग थोड़ा बढ़ा। जलाऊ लकड़ी और कंडे जैसे जैव र्इंधन, जिनका उपयोग मुख्यत: भारत जैसे विकासशील देशों में होता है, की ऊर्जा आपूर्ति में अभी भी 10 प्रतिशत भागीदारी है। जहां नाभिकीय ऊर्जा के हिस्से में तेज़ वृद्धि देखी गई, वहीं पनबिजली में काफी कम वृद्धि हुई। विभिन्न इलाकों की हिस्सेदारी में भी नाटकीय परिवर्तन हुए हैं। ऊर्जा आपूर्ति में विभिन्न इलाकों की हिस्सेदारी तालिका 2 में दिखाई गई है।

तालिका 2
ऊर्जा आपूर्ति में क्षेत्रीय भागीदारी (प्रतिशत में)
क्षेत्र 1973 2014
ओईसीडी 61.3 38.40
गैर-ओईसीडी, यूरोप (रूस एवं अन्य) 15.5 8.2
चीन 7 22.4
मध्य पूर्व 0.8 5.3
एशिया और अन्य 5.5 12.7
कुल 100 100

ओईसीडी में युरोप, यूएसए, जापान और अन्य शामिल हैं। गैर गैर-ओईसीडी युरोप में रूस और इसके पूर्व सहयोगी युक्रेन, तुर्कमेनिस्तान आदि शामिल हैं। एशिया में भारत, इंडोनेशिया, श्रीलंका और अन्य शामिल हैं। तालिका से पता चलता है कि चीन और मध्य पूर्व में ऊर्जा उत्पादन में प्रभावशाली वृद्धि हुई है और संयुक्त राज्य अमेरिका तथा युरोप में ऊर्जा आपूर्ति में गिरावट आई है। ऊर्जा आपूर्ति में एशिया की भागीदारी भी बढ़ी है।

तालिका 3 में 2014 और 1973 में ऊर्जा के मूल्यों को वास्तविक इकाइयों में दर्शाया गया है और 2014 व 1973 में उनका अनुपात दिया गया है। तालिका से स्पष्ट है कि इस अवधि में तेल में अपेक्षाकृत कमी आई है, जबकि गैस और कोयले के साथ-साथ नाभिकीय बिजली और पनबिजली में भी वृद्धि हुई है। गौरतलब है कि पनबिजली का उत्पादन (3833/2535) नाभिकीय से 31 प्रतिशत अधिक है, लेकिन IEA जिस तरीके से गणना करता है उसके आधार पर पनबिजली (2.4 प्रतिशत) की तुलना में नाभिकीय ऊर्जा का योगदान अधिक है (4.8 प्रतिशत) है।

तालिका 3
ईंधनवार ऊर्जा की आपूर्ति (वास्तविक यूनिट)
ईंधन 1973 2014 2014/1973
कच्चा तेल (दस लाख टन, एमटी) 2869 4331 1.509
प्राकृतिक गैस (1 करोड़ घन मीटर-बीसीएम 1224 3590 2.933
कोयला(एमटी) 3074 7709 2.507
नाभिकीय (टेरावॉट घंटा, टीडबल्यूएच) 203 2535 12.48
पनबिजली(टीडबल्यूएच) 1296 3983 3.078
कुलप्राथमिकऊर्जा(एमटीओई) 6106 13,699 2.245
कुल बिजली (टीडबल्यूएच) 6131 23,816 3.88

जनसंख्या, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और ऊर्जा उपयोग की तीव्रता को देखना काफी दिलचस्प हो सकता है (जीडीपी और जनसंख्या के आंकड़े विश्व बैंक की वेबसाइट से लिए गए हैं)। यह देखा जा सकता है कि ऊर्जा आपूर्ति की तुलना में जीडीपी काफी तेज़ी से बढ़ रहा है जिसका श्रेय ऊर्जा दक्षता में वृद्धि और अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन को जाता है।

तालिका 4  
क्षेत्र अनुसार विश्व और ओईसीडी की अंतिम ऊर्जा खपत  
क्षेत्र विश्व 1973
एमटीओई(%)
विश्व2014
एमटीओई(%)
ओईसीडी 1973
एमटीओई(%)
ओईसीडी 1973
एमटीओई(%)
उद्योग 1534.49(32.9) 2751.17(29.19) 958.18(34) 808.49(22.28)
परिवहन 1081.26(23.19) 2627.02(27.87) 695.32(24.6) 1215.16(33.49)
घरेलू और व्यवसायिक सेवाएं, अन्य 1758.88(37.73) 3218.98(34.15) 942.43(33.4) 1262.19(34.78)
गैर-ऊर्जा उपयोग 286.50(6.14) 827.52(8.78) 220.63(7.8) 343.03(9.45)
कुल खपत (एमटीओई) 4661.19 9424.69 2815.6 3828.16

इसके परिणामस्वरूप औद्योगिक ऊर्जा खपत में कमी आती है और परिवहन, आवासीय एवं वाणिज्यिक सेवाओं में ऊर्जा की खपत में वृद्धि होती है। तालिका 4 में 1973 और 2014 में विभिन्न क्षेत्रों द्वारा अंतिम ऊर्जा खपत को दर्शाया गया है। विशेष रूप से ओईसीडी देशों में औद्योगिक ऊर्जा खपत में गिरावट के रुझान तथा परिवहन और आवासीय ऊर्जा खपत में वृद्धि नज़र आती है। मैन्यूफेक्चरिंग ओईसीडी से एशिया की ओर चला गया है। 1973 और 2014 में अंतिम ऊर्जा खपत और कुल ऊर्जा आपूर्ति के अनुपात की ओर ध्यान देना उपयोगी होगा।

1973 में, अंतिम ऊर्जा खपत/ कुल ऊर्जा आपूर्ति = 4661/6101 यानी 76 प्रतिशत थी। 2014 में, अंतिम ऊर्जा खपत/कुल ऊर्जा आपूर्ति = 9424/13,699 यानी 68 प्रतिशत थी।

यह ऊर्जा उपयोग में बिजली के अधिक इस्तेमाल का संकेत देता है। इसके चलते बिजली के उत्पादन के दौरान अधिक नुकसान होता है जिसका परिणाम यह होता है कि आपूर्ति की तुलना में अंतिम उपयोग कम हो जाता है। यह ध्यान देने वाली बात है कि जहां 1973 की तुलना में 2014 में विश्व ऊर्जा की खपत दोगुनी से भी अधिक हो गई, वहीं ओईसीडी की ऊर्जा खपत में केवल 28 प्रतिशत की वृद्धि हुई । भारत में 1973 और 2014 ऊर्जा परिदृश्य पर नज़र डालना भी उपयोगी हो सकता है। देखा जा सकता है कि ऊर्जा आपूर्ति में नाटकीय वृद्धि हुई है और ऊर्जा दक्षता में सुधार हुआ है।

सारांश और टिप्पणियां

विश्व ऊर्जा आपूर्ति 1973 से 2014 के बीच दोगुनी से भी अधिक हो गई है। तेल उत्पादन केवल 50 प्रतिशत बढ़ा है। यह र्इंधन दक्षता और तेल की जगह अन्य र्इंधन के उपयोग में उल्लेखनीय वृद्धि को दर्शाता है। बिजली उत्पादन एवं अन्य उपयोगों के लिए तेल की जगह कोयले और गैस का उपयोग किया जाने लगा है। तेल का उपयोग मुख्य रूप से परिवहन क्षेत्र द्वारा किया जा रहा है।

  • भारत में तेल की मांग में 800 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि विश्व में यह वृद्धि 50 प्रतिशत है।
  • ऊर्जा आपूर्ति दुगनी होने के साथ बिजली उत्पादन में लगभग 4 गुना वृद्धि हुई है। यह एक विद्युत-आधारित विश्व के प्रति रुझान को दर्शाता है। 65 प्रतिशत बिजली का उत्पादन कोयला और गैस द्वारा किया जाता है।
  • ऊर्जा की उत्पादकता (दक्षता) में नाटकीय सुधार हुआ है। विश्व जीडीपी में 17 गुना और ऊर्जा आपूर्ति में मात्र 2.25 गुना वृद्धि हुई है। मुद्रास्फीति को ध्यान में रखें तो जीडीपी में वास्तविक वृद्धि इससे 10 गुना अधिक होगी।
  • भारत ने भी ऊर्जा के सभी रूपों – कोयला, गैस, और बिजली उत्पादन – में प्रभावशाली प्रगति की है। भारत ने ऊर्जा के कुशल उपयोग और संरचनात्मक परिवर्तन की बदौलत ऊर्जा उत्पादकता में काफी सुधार किया है। सेवा क्षेत्र अब जीडीपी का 50 प्रतिशत से अधिक प्रदान कर रहा है जबकि उद्योगों की भागीदारी 70 प्रतिशत से घटकर 25 प्रतिशत हो गई है।
  • भारत में ऊर्जा परिदृश्य की दो प्रमुख समस्याएं हैं तेल की बढ़ती मांग और बायोमास के उपयोग की कमतर दक्षता। कच्चे तेल का उपयोग आठ गुना बढ़ गया है। उचित नीतियों से इसे टाला जा सकता था।
  •  तेल की बढ़ती मांग पर अंकुश लगाने के लिए सड़क की जगह रेल परिवहन को तथा निजी वाहनों की जगह सार्वजनिक वाहनों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इन दोनों उपायों की तत्काल आवश्यकता है।
  • पारंपरिक बायोमास र्इंधन 40 साल पहले 50 प्रतिशत ऊर्जा की आपूर्ति करता था, उसकी तुलना में अभी भी 25 प्रतिशत ऊर्जा इसी से मिलती है। इन र्इंधनों का उपयोग मुख्य रूप से खाना पकाने के लिए किया जाता है। उन्नत चूल्हे उपलब्ध होने के बाद भी खाना पकाने के चूल्हों की दक्षता 8-10 प्रतिशत ही है। एलईडी लैंप और नवीकरणीय ऊर्जा की तर्ज़ पर खाना पकाने के कुशल चूल्हों और सोलर कुकर को बढ़ावा देने के लिए बड़े कार्यक्रमों की आवश्यकता है। ठीक उसी तरह जैसे एक कार्यक्रम के तहत जनवरी 2018 तक 28 करोड़ एलईडी बल्ब वितरित किए जा चुके थे।
  • कोयला बिजली उत्पादन के लिए मुख्य ऊर्जा रुाोत बने रहना चाहिए।
  • हाल में सरकारी कार्यक्रम द्वारा नवीकरणीय ऊर्जा को प्रोत्साहन सही दिशा में एक कदम है। ऊर्जा दक्षता के लिए भी इसी तरह के कार्यक्रमों की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)
    नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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