ब्लैक होल विशाल खगोलीय पिंड हैं जो आसपास की हर चीज़ को निगल
जाते हैं। इनका गुरुत्वाकर्षण इतना अधिक होता है कि प्रकाश तक इससे बच नहीं सकता।
ब्लैक होल मूलत: विशाल तारे ही थे जो विस्फोटक अंत के बाद ब्लैक होल में परिवर्तित
हुए हैं, इसलिए इनके अध्ययन से ब्रह्मांड के कामकाज और तारों के जन्म
और मृत्यु की गाथा तैयार करने में मदद मिलती है।
तारों के ऐसे विस्फोटक अंत और पतन के बाद
दो अलग-अलग तरह के पिंड बन सकते हैं। यदि मूल तारा पर्याप्त विशाल था, तो
विस्फोट के बाद वह ब्लैक होल बन जाता है, अन्यथा वह एक छोटे न्यूट्रॉन तारे में
परिवर्तित हो जाता है।
ब्लैक होल जब अपने आसपास के तारों से
पदार्थ चूसते हैं तब एक्स किरणों का उत्सर्जन होता है। इन्हीं एक्स किरणों की मदद
से ब्लैक होल का पता चलता है। दूसरी ओर, दूर की निहारिकाओं में, दो
ब्लैक होल के विलय या न्यूट्रॉन तारों की टक्कर से उत्पन्न होने वाली गुरुत्व
तरंगें इनका सुराग देती हैं।
शोधकर्ताओं के एक समूह ने सोचा कि क्या
अपेक्षाकृत कम द्रव्यमान वाले ब्लैक होल भी हो सकते हैं जो लाक्षणिक एक्स-किरणों
का उत्सर्जन नहीं करेंगे। एक संभावना यह है कि ऐसा कोई (फिलहाल काल्पनिक) ब्लैक
होल किसी अन्य तारे के साथ बाइनरी तंत्र में मौजूद हो। इसमें वह दूसरे तारे से
इतना दूर हो सकता है कि वह उसके पदार्थ को ज़्यादा न निगल सके। ये छोटे ब्लैक होल
इतनी एक्स-किरणों का उत्सर्जन नहीं करेंगे जिन्हें देखा जा सके। तो ये खगोलविदों
की नज़रों से अदृश्य रहेंगे।
थॉमसन की टीम ने ऐसे संभावित ब्लैक होल की
तलाश में बाइनरी सिस्टम के उस दूसरे पिंड में सबूत खोजने की कोशिश की है।
शोधकर्ताओं ने एपोजी दूरबीन में उपलब्ध प्रकाश वर्णक्रम की जानकारी को खंगाला।
यहां आकाशगंगा के 1 लाख से अधिक तारों द्वारा उत्सर्जित विभिन्न तरंग लंबाइयों के
प्रकाश सम्बंधी जानकारी थी।
इस सर्वेक्षण से प्राप्त जानकारी से
प्रत्येक तारे के बदलते वर्णक्रम यानी उनसे निकलने वाले प्रकाश में बदलती तरंग
लंबाइयों का पता चला। यदि शोधकर्ता वर्णक्रम में किसी भी प्रकार का बदलाव देखते
यानी यदि उसकी तरंग लंबाइयां लाल या नीले रंग की ओर खिसकती दिखती तो इसका मतलब यह
होता कि वह तारा एक अनदेखे साथी के साथ परिक्रमा कर रहा है।
इसके बाद,
शोधकर्ताओं ने एक
अन्य सर्वेक्षण आल-स्काई ऑटोमेटेड सर्वे फॉर सुपरनोवा की मदद से उन तारों की चमक
में बदलाव को देखा जिनके बारे में संदेह था कि वे ब्लैक होल की परिक्रमा कर रहे
हैं। उन्होंने उन तारों की खोज की जिनका प्रकाश लाल और नीले की ओर सरकने के
साथ-साथ तेज़-मद्धिम भी हो रहा था।
इस प्रकार शोधकर्ताओं ने पाया कि आकाशगंगा
में 10,000 प्रकाश वर्ष दूर औरिगा तारामंडल के पास एक तारा है जो किसी एक विशाल
अदृश्य पिंड के साथ गुरुत्वाकर्षण से बंधा लगता है। अनुमान है कि उस अदृश्य पिंड
का द्रव्यमान सूर्य से 3.3 गुना अधिक होगा। यह एक न्यूट्रॉन तारे की तुलना में
काफी बड़ा है लेकिन इतना भी बड़ा नहीं कि इसकी तुलना किसी ज्ञात ब्लैक होल से की जा
सके। सबसे बड़े ज्ञात न्यूट्रॉन स्टार का द्रव्यमान सूर्य से 2.1 गुना ज़्यादा है
जबकि सबसे छोटा ज्ञात ब्लैक सूर्य के मुकाबले 5-6 गुना वज़नी है।
ब्रह्मांड विज्ञानी डेजन स्टोकोविक का विचार है कि यह शायद कम द्रव्यमान का ब्लैक होल है। दूसरी ओर थॉमसन का विचार है कि यह संभवत: आज तक ज्ञात सबसे वज़नी न्यूट्रॉन स्टार है। इतना तो तय है कि यह एक आसाधारण तारा है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.technologyreview.com/i/images/307238767079815553563o.jpg?sw=768&cx=0&cy=304&cw=1280&ch=720
टेट्रॉडोटॉक्सिन ज़हर पफरफिश का घातक हथियार है। यह ज़हर ऐसा
खतरनाक तंत्रिका विष है कि एक अकेली पफरफिश में मौजूद इसकी मात्रा दर्जनों
शिकारियों को पंगु कर सकती है और मार सकती है। और यदि कोई मनुष्य पफरफिश का मांस
खा ले तो पंगु हो सकता है। लेकिन टॉक्सिकॉन पत्रिका में प्रकाशित ताज़ा
अध्ययन बताता है कि यह ज़हर स्वयं पफरफिश में सर्वथा अलग उद्देश्य की पूर्ति करता
है: यह पफरफिश को तनाव-मुक्त रखता है।
टेट्रॉडोटॉक्सिन (TTX) दरअसल एक तंत्रिका विष है। टाइगर पफरफिश (Takifugu
rubripes) स्वयं TTX नहीं बनातीं बल्कि अपने आहार में शामिल बैक्टीरिया द्वारा बनाए गए TTX को अपने अंगों और त्वचा में जमा करके रखती है। प्रयोगशाला में देखा गया है कि
जिन पफरफिश के आहार में बदलाव किया गया उन्होंने अपनी विषाक्तता खो दी थी।
विकसित होती पफरफिश को TTX किस तरह प्रभावित करता है यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में एक
महीने तक कुछ युवा पफरफिश के आहार में शुद्ध TTX मिलाया। अध्ययन में
पाया गया कि TTX रहित आहार वाली पफरफिश की तुलना में TTX युक्त आहार वाली
पफरफिश 6 प्रतिशत अधिक लंबी और 24 प्रतिशत अधिक भारी थीं। इसके अलावा वे कम
आक्रामक थीं और एक-दूसरे के पिछले पिच्छ को कम कुतर रहीं थीं।
वृद्धि की दर और आक्रामकता, दोनों
पर तनाव का असर होता है। इसलिए शोधकर्ताओं ने पफरफिश में तनाव सम्बंधी दो हार्मोन
का भी अध्ययन किया: रक्त में कॉर्टिसोल और मस्तिष्क में कॉर्टिकोट्रॉपिन-रीलीज़िंग
हार्मोन। पाया गया कि जिन पफरफिश को TTX नहीं दिया गया था उनमें इन हार्मोन्स का
स्तर अधिक था। यानी वे अधिक तनावग्रस्त थीं।
अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि इन मछलियों में TTX ना सिर्फ शिकारियों से बचने या उन्हें दूर रखने का काम करता है बल्कि युवा पफरफिश के स्वस्थ विकास के लिए भी ज़रूरी होता है। कुछ अन्य अध्ययन बताते हैं कि TTX से रहित युवा पफरफिश घातक और जोखिमपूर्ण निर्णय लेती हैं। फिलहाल यह अस्पष्ट है कि TTX पफरफिश में तनाव कैसे कम करता है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/pufferfish_1280p_0.jpg?itok=oxf2eSuu
अमेरिका ने विगत 4 नवंबर को पेरिस जलवायु समझौते से पीछे
हटने की औपचारिक कार्यवाही शुरू कर दी है। पेरिस समझौता बढ़ते वैश्विक तापमान और
जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयास में साल 2015 में हुआ था और इसमें दुनिया के
197 देश शामिल हैं। वैसे साल 2017 से ही अमेरिका का इरादा इस समझौते से बाहर
निकलने का था। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के अनुसार पेरिस जलवायु
समझौते में बने रहने से देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचेगा।
पेरिस जलवायु समझौते पर अमेरिका के निर्णय
की घोषणा करते हुए अमेरिकी विदेश मंत्री माइकल पोम्पियो ने कहा कि साल 2005 से
2017 के बीच अमेरिका की अर्थव्यस्था में 19 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि
ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में 13 प्रतिशत की कमी आई थी।
वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों ने अमेरिका
द्वारा लिए गए इस फैसले की अलोचना की है। कैम्ब्रिज के यूनियन ऑफ कंसर्न्ड
साइंटिस्ट समूह के एल्डन मेयर का कहना है कि राष्ट्रपति ट्रम्प का पेरिस समझौते से
बाहर निकलने का फैसला गैर-ज़िम्मेदाराना और अदूरदर्शी है। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट
के एंड्रयू लाइट का कहना है कि पेरिस जलवायु समझौते से पीछे हटने पर अमेरिका के
राजनैतिक और आर्थिक रुतबे पर असर पड़ेगा, क्योंकि अन्य देश कम कार्बन उत्सर्जन करने
वाली अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं।
पेरिस समझौते के नियमानुसार 4 नवंबर 2019
इस समझौते से बाहर निकलने के लिए आवेदन करने की सबसे पहली तारीख थी। और आवेदन के
बाद भी वह देश एक साल तक सदस्य बना रहेगा। अर्थात अमेरिका इस समझौते से औपचारिक
तौर पर 4 नवंबर 2020 को बाहर निकल सकेगा।
वैसे अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी के
उम्मीदवार जलवायु परिवर्तन की समस्या को संजीदगी से ले रहे हैं। तो यदि इनमें से
कोई उम्मीदवार अगला चुनाव जीतता है तो आशा है कि जनवरी 2021 में पदभार संभालने के
बाद वे वापस इस निर्णय पर पुनर्विचार करेंगे। पेरिस जलवायु समझौता छोड़ चुके देश, पुन:
शामिल होने के अपने इरादे के बारे में राष्ट्र संघ जलवायु परिवर्तन संधि कार्यालय
को सूचित करने के 30 दिन बाद इस समझौते में पुन: शामिल हो सकते हैं।
यदि ट्रम्प दोबारा नहीं चुने गए तो सरकार द्वारा यह फैसला बदलने की उम्मीद है। और यदि ट्रम्प वापस आते हैं तो वहां के शहरों, राज्यों और कारोबारियों पर निर्भर है कि वे जलवायु परिवर्तन के मामले में अपना रुख तय करें। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.graytvinc.com/images/810*456/PARIS+CLIMATE.jpg
हाल ही में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर)
द्वारा एक परियोजना के तहत भारत के एक हज़ार ग्रामीण युवाओं के जीनोम की
सिक्वेंसिंग (अनुक्रमण) की योजना तैयार की गई है। इसके अंतर्गत लगभग दस हज़ार
भारतीय लोगों के जीनोम को अनुक्रमित करने का लक्ष्य है। यह पहला मौका होगा जब भारत
में इतने बड़े स्तर पर जीनोम के गहन अध्ययन के लिए खून के नमूने एकत्रित किए
जाएंगे।
हम जीव विज्ञान की सदी में रह रहे हैं। अगर
20वीं सदी भौतिक विज्ञान की सदी थी तो 21वीं सदी निश्चित तौर पर जैव-प्रौद्योगिकी
(बायोटेक्नॉलॉजी) की सदी होगी। पिछले दो-तीन दशकों में जैव-प्रौद्योगिकी में, विशेषकर
आणविक जीव विज्ञान और जीन विज्ञान के क्षेत्र में,
चमत्कृत कर देने वाले
नए अनुसंधान तेज़ी से बढ़े हैं।
मात्र दो अक्षरों का शब्द ‘जीन’ आज मानव
इतिहास की दशा और दिशा बदलने में समर्थ है। जीन सजीवों में सूचना की बुनियादी इकाई
और डीएनए का एक हिस्सा होता है। जीन माता-पिता और पूर्वजों के गुण और रूप-रंग
संतान में पहुंचाते हैं। डीएनए के उलट-पलट जाने से जीन्स में विकार पैदा होता है
और इससे आनुवंशिक बीमारियां उत्पन्न होती हैं,
जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती
रहती हैं।
जीन्स के पूरे समूह को ‘जीनोम’ नाम से जाना
जाता है। जीनोम के अध्ययन को जीनोमिक्स कहा जाता है। वैज्ञानिक लंबे समय से अन्य
जीवों के अलावा मनुष्य के जीनोम को पढ़ने में जुटे हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार मानव
शरीर में जीन्स की कुल संख्या अस्सी हज़ार से एक लाख तक होती है।
1988 में अमेरिकी सरकार ने अपनी
महत्वाकांक्षी परियोजना ‘ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट’ की शुरुआत की जिसे 2003 में पूरा
किया गया। वैज्ञानिकों ने इस प्रोजेक्ट के ज़रिए इंसान के पूरे जीनोम को पढ़ा। इस
परियोजना में अमेरिका के साथ ब्रिटेन, फ्रांस,
ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, जापान
और चीन ने भाग लिया था। इस परियोजना का लक्ष्य जीनोम सिक्वेंसिंग के जरिए
बीमारियों को बेहतर समझने, दवाओं के शरीर पर प्रभाव की सटीक
भविष्यवाणी, अपराध विज्ञान में उन्नति और मानव विकास को समझने में मदद
करना था। उस समय भारत का इस परियोजना से अपने को अलग रखना हमारे नीति निर्धारकों
की अदूरदर्शिता का परिणाम कहा जा सकता है। अब सीएसआईआर द्वारा दस हज़ार ग्रामीण
युवाओं के जीनोम की सिक्वेंसिंग की योजना ने जीनोमिक्स के क्षेत्र में भारत के
प्रवेश की भूमिका तैयार कर दी है जिससे चिकित्सा विज्ञान में नई संभावनाओं के
द्वार खुलेंगे।
सीएसआईआर की इस परियोजना के अंतर्गत सेंटर
फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी, हैदराबाद और इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड
इंटीग्रेटेड बायोलॉजी, नई दिल्ली संयुक्त रूप से काम करेंगे। जीनोम की सिक्वेंसिंग
खून के नमूने के आधार पर की जाएगी। प्रत्येक व्यक्ति के डीएनए में मौजूद चार
क्षारों (एडेनीन, गुआनीन, साइटोसीन और थायमीन) के क्रम का पता लगाया
जाएगा।
डीएनए सीक्वेंसिंग से लोगों की बीमारियों
का पता लगाकर समय रहते इलाज किया जा सकता है और साथ ही भावी पीढ़ी को रोगमुक्त करना
संभव होगा। इस परियोजना में भाग लेने वाले युवा छात्रों को बताया जाएगा कि क्या
उनमे परिवर्तित जीन हैं जो उन्हें कुछ दवाओं के प्रति कम संवेदनशील बनाते हैं।
दुनिया के कई देश अब अपने नागरिकों की जीनोम मैपिंग करके उनके अनूठे जेनेटिक
लक्षणों को समझने में लगे हैं ताकि किसी बीमारी विशेष के प्रति उनकी संवेदनशीलता
के मद्देनजर व्यक्ति-आधारित दवाइयां तैयार करने में मदद मिल सके।
2003 में मानव जीनोम के अनुक्रमण के बाद
प्रत्येक व्यक्ति की अद्वितीय आनुवंशिक संरचना तथा रोग के बीच सम्बंध को लेकर
वैज्ञानिकों को एक नई संभावना दिख रही है। जीनोम अनुक्रम को जान लेने से यह पता लग
जाएगा कि कुछ लोग कैंसर, कुछ मधुमेह और कुछ अल्ज़ाइमर या अन्य
बीमारियों से ग्रस्त क्यों होते हैं। जीनोम मैपिंग के ज़रिए हम यह जान सकते हैं कि
किसको कौन सी बीमारी हो सकती है और उसके क्या लक्षण हो सकते हैं। जीनोम मैपिंग से
बीमारी होने का इंतजार किए बगैर व्यक्ति के जीनोम को देखते हुए उसका इलाज पहले से
शुरू किया जा सकेगा। इसके माध्यम से पहले से ही पता लगाया जा सकेगा कि भविष्य में
कौन-सी बीमारी हो सकती है। वह बीमारी न होने पाए तथा इसके नुकसान से कैसे बचा जाए
इसकी तैयारी आज से ही शुरू की जा सकती है। सिस्टिक फाइब्रोसिस, थैलेसीमिया
जैसी लगभग दस हज़ार बीमारियां हैं जिनके लिए एकल जीन में खराबी को ज़िम्मेदार माना
जाता है। जीनोम उपचार के ज़रिए दोषपूर्ण जीन को निकाल कर स्वस्थ जीन जोड़ना संभव हो
सकेगा।
अब समय आ गया है कि भारत अपनी खुद की जीनोमिक्स क्रांति की शुरुआत करे। तकनीकी समझ और इसे सफलतापूर्वक लॉन्च करने की क्षमता हमारे देश के वैज्ञानिकों तथा औषधि उद्योग में मौजूद है। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक दृष्टि तथा कुशल नेतृत्व की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://img.etimg.com/thumb/msid-70323123,width-1200,height-900,imgsize-737725,overlay-economictimes/photo.jpg
हाल ही में इस बात का अध्ययन किया गया कि चूहे डर पर कैसे
काबू पाते हैं और इस अध्ययन ने उनकी आंत और दिमाग के बीच के रहस्यमय सम्बंध पर नई
रोशनी डाली है।
इस शोध के लिए एक पारंपरिक पावलोवियन
परीक्षण का उपयोग किया गया। इस परीक्षण में चूहे के पैर में बिजली झटका देते हुए
उन्हें एक आवाज़ सुनाई जाती है। जल्द ही वे इस आवाज़ का सम्बंध दर्द से जोड़ना सीख
जाते हैं। बाद में ऐसा शोर सुनते ही वे झटके से बचने की कोशिश करते हैं। लेकिन यह
ज़्यादा समय तक नहीं चलता। यदि कई बार वह आवाज़ सुनाने के बाद झटका नहीं लगता तो वे
इस सम्बंध को भूल जाते हैं। भूलने की यह प्रक्रिया इंसानों में भी महत्वपूर्ण होती
है लेकिन सतत दुश्चिंता या हादसा-उपरांत तनाव समस्या से ग्रस्त व्यक्तियों में यह
प्रक्रिया गड़बड़ा जाती है।
वील कॉर्नेल मेडिसिन के सूक्ष्मजीव
वैज्ञानिक डेविड आर्टिस ने सोचा कि कहीं सीखने और भूलने की इस प्रक्रिया में आंत
के बैक्टीरिया की कोई भूमिका तो नहीं है। उनकी टीम ने कुछ चूहों को एंटीबायोटिक
देकर आंत का सूक्ष्मजीव संसार (माइक्रोबायोम) पूरी तरह नष्ट कर दिया। इसके बाद
उन्होंने कई बार शोर के साथ झटके दिए। नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार
सभी चूहों ने शोर को दर्द से जोड़ना सीख लिया। वे सिर्फ वह शोर सुनकर सहम जाते थे।
लेकिन यह जुड़ाव सदा के लिए नहीं रहा। सामान्य माइक्रोबायोम वाले चूहे अंतत: शोर और
बिजली के झटके का सम्बंध भूल गए। तीन दिन के बाद ऐसे अधिकांश चूहों ने उस शोर पर
कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। दूसरी ओर, एंटीबायोटिक से उपचारित चूहे प्रतिक्रिया
देते रहे। अर्थात सूक्ष्मजीव संसार से मुक्त चूहे उस शोर और बिजली के झटके के
सम्बंध को भुला नहीं पाए थे।
इसके आगे के प्रयोगों में वैज्ञानिकों ने
चूहों का विच्छेदन करके उनके मस्तिष्क की एक-एक कोशिका में जीन गतिविधि और कोशिका
के आकार का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि सामान्य और एंटीबायोटिक उपचारित चूहों
के मस्तिष्क के मीडियल प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स नामक हिस्से में अंतर हैं। इस भाग का
सीखने और याद रखने वाला क्षेत्र इसमें महत्वपूर्ण पाया गया। शोधकर्ताओं की रिपोर्ट
के अनुसार सीखने-भूलने की प्रक्रिया में प्रमुख भूमिका उत्तेजक तंत्रिकाओं की है।
आंत के सूक्ष्मजीवों की अनुपस्थिति में ये तंत्रिकाएं सतह पर कांटे बनाने और वापिस
सोखने में विफल रहीं। इन कांटों का बनना और सोखा जाना सीखने और भूलने की क्रिया की
बुनियाद है।
इसके अलावा टीम ने सूक्ष्मजीवों द्वारा उत्पादित चार ऐसे रसायनों की मात्रा में भी पर्याप्त बदलाव देखा जो मस्तिष्क के भय को भुलाने वाले हिस्से को सलामत रखते हैं। सूक्ष्मजीव रहित चूहों ने कम मात्रा में ये रसायन बनाए। डेविड के अनुसार इन चार में से दो रसायन तंत्रिका-मनोरोगों से जुड़े हैं। इससे लगता है कि इन रोगों का सम्बंध आंतों के सूक्ष्मजीवों से हो सकता है। अगला कदम यह सिद्ध करने का होगा कि वास्तव में ये रसायन चूहों के मस्तिष्क में बदलाव लाते हैं। यह देखना भी उपयोगी होगा कि इनमें से कौन से सूक्ष्मजीव इस समस्या के मूल में हैं। (स्रोत फीचर्स)
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यदि हम 3-डी प्रिंटिंग तकनीक से ऊतक और अंग बना सकें तो इनका
उपयोग अंग-प्रत्यारोपण के अलावा औषधि परीक्षण और प्रयोगशाला में मॉडल के रूप में
किया जा सकेगा। लेकिन 3-डी प्रिंटिंग की मदद से जटिल अंग जैसे आहार नाल, श्वासनली, रक्त
वाहिनियों की प्रतिकृति बनाना एक बड़ी चुनौती है। ऐसा इसलिए क्योंकि 3-डी प्रिंटिंग
के पारंपरिक तरीके में परत-दर-परत ठोस अंग तो बनाए जा सकते हैं लेकिन जटिल ऊतक
बनाने के लिए पहले एक सहायक ढांचा बनाना होगा जिसे बाद में हटाना शायद नामुमकिन
हो।
इसका एक संभावित हल यह हो सकता है कि यह
सहायक ढांचा ठोस की जगह किसी तरल पदार्थ से बनाया जाए। यानी एक खास तरह से डिज़ाइन
की गई तरल मेट्रिक्स हो जिसमें अंग बनाने वाली इंक (जीवित कोशिका से बना पदार्थ)
के तरल डिज़ाइन को ढाला जाए और अंग के सेट होने के बाद सहायक तरल मेट्रिक्स को हटा
दिया जाए। लेकिन इस दिशा में अब तक की गई सारी कोशिशें नाकाम रहीं थी, क्योंकि
इस तरह बनाई गई पूरी संरचना की सतह सिकुड़ जाती है और बेकार लोंदों का रूप ले लेती
है।
इसलिए चीन के शोधकर्ताओं ने जलस्नेही यानी हाइड्रोफिलिक तरल पॉलीमर्स का उपयोग किया जो अपने हाइड्रोजन बंधनों के आकर्षण की वजह से संपर्क सतह पर टिकाऊ झिल्ली बनाते हैं। इस तरीके से अंग निर्माण में कई अलग-अलग पॉलीमर की जोड़ियां कारगर हो सकती हैं लेकिन उन्होंने पोलीएथलीन ऑक्साइड मेट्रिक्स और डेक्सट्रान नामक कार्बोहाइड्रेट से बनी स्याही का उपयोग किया। पोलीएथलीन ऑक्साइड मेट्रिक्स में डेक्सट्रान को इंजेक्ट करके जो आकृति बनी वह 10 दिनों तक टिकी रही। इसके अलावा इस तकनीक की खासियत यह भी है कि तरल मेट्रिक्स में इंक इंजेक्ट करते समय यदि कोई गड़बड़ी हो जाए तो इंजेक्शन की नोज़ल इसे मिटा सकती है और दोबारा बना सकती है। एक बार प्रिंटिंग पूरी हो जाने पर उसकी आकृति वाले हिस्से पर पोलीविनाइल अल्कोहल डालकर उसे फिक्स कर दिया जाता है। शोध पत्रिका एडवांस्ड मटेलियल में प्रकाशित इस नई तकनीक की मदद से शोधकर्ताओं ने कई जटिल रचनाएं प्रिंट की हैं: बवंडर की भंवरें, सिंगल और डबल कुंडलियां, शाखित वृक्ष और गोल्डफिश जैसी आकृति। वैज्ञानिकों के अनुसार जल्द ही स्याही में जीवित कोशिकाओं को डालकर इस तकनीक की मदद से जटिल ऊतक बनाए जा सकेंगे। (स्रोत फीचर्स)
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ब्रिस्टल विश्वविद्यालय,
ब्रिटेन की जूली डन
के नेतृत्व में युरोप के पुरातत्वविदों की
एक टीम ने काफी दिलचस्प रिपोर्ट प्रस्तुत की है। “Milk
of ruminants in ceramic baby bottles from prehistoric child graves” (बच्चों की
प्रागैतिहासिक कब्रों में सिरेमिक बोतलों पर जुगाली करने वाले जानवरों के दूध के
अवशेष) शीर्षक से यह रिपोर्ट नेचर पत्रिका के 10 अक्टूबर के अंक में
प्रकाशित हुई है। इस टीम को बच्चों की प्राचीन कब्रों में शिशुओं की कुछ बोतलें
मिली है जिनमें कुछ अंडाकार और हैंडल वाली हैं और कुछ बोतलों में टोंटी जैसी रचना
है जिसके माध्यम से तरल पदार्थ को ढाला या चूसा जा सकता था। सबसे पुरानी बोतल
युरोपीय नवपाषाण युग (लगभग 10,000 वर्ष पहले) की है जबकि अन्य बोतलें कांस्य और
लौह युग (4000-1200 ईसा पूर्व) स्थलों से पाई गई हैं।
नेचर की इस रिपोर्ट में एक दिलचस्प बात और है। सिरेमिक से बनी
शिशु बोतलों के अंदरूनी हिस्से पर कुछ कार्बनिक रसायन के अवशेष चिपके मिले जिनका
विश्लेषण संभव था। टीम ने उन अवशेषों को अलग करके नवीनतम रासायनिक और
वर्णक्रमदर्शी विधियों की मदद से उनमें उपस्थित अणुओं का विश्लेषण किया। सभी
अवशेषों में वसा अम्ल (जैसे पामिटिक और स्टीयरिक अम्ल) पाए गए जो आम तौर पर
गाय-भैंस, भेड़ या अन्य पालतू जानवरों के दूध में तो पाए जाते हैं
लेकिन मानव दूध में नहीं। इस आधार पर टीम का निष्कर्ष है कि “रासायनिक प्रमाण और
बच्चों की कब्रों में पाए गए विशेष रूप से बने तीन पात्र दर्शाते हैं कि इनका
उपयोग शिशुओं और पूरक आहार के तौर पर बच्चों को (मानव दूध की बजाय) पशुओं का दूध
पिलाने के लिए किया जाता था।”
पशु दूध की शुरुआत
उपरोक्त शोध पत्र में राशेल हॉउक्रॉफ्ट और
स्टॉकहोम युनिवर्सिटी, स्वीडन की पुरातात्विक अनुसंधान प्रयोगशाला के अन्य लोगों
द्वारा पूर्व में प्रस्तुत एक दिलचस्प रिपोर्ट “The Milky Way: The
implications of using animal milk products in infant feeding” (दुग्धगंगा: शिशु आहार में जंतु दुग्ध उत्पादों के उपयोग
के निहितार्थ) का उल्लेख किया गया है। यह रिपोर्ट एंथ्रोपोज़ूओलॉजिका जर्नल
में प्रकाशित हुई है [47-31-43 (2012)], जो नेट से फ्री डाउनलोड की जा सकती है।
मेरी सलाह है कि इस विषय में रुचि रखने वाले इसे ज़रूर पढ़ें। प्रसंगवश बताया जा
सकता है कि एंथ्रोपोज़ूओलॉजिका का अर्थ होता है मनुष्यों और अन्य जंतुओं के
बीच अंतरक्रिया का अध्ययन।
मानव शिशुओं को पशुओं का दूध पिलाने की
प्रथा जानवरों के पालतूकरण के बाद ही शुरू हुई होगी। पालतूकरण की शुरुआत तब हुई
होगी जब मनुष्यों ने समुदाय में बसना शुरू किया तथा कृषि एवं अन्य कामों के लिए
पशुओं का उपयोग करना शुरू किया। ऐसा माना जाता है कि इसकी शुरुआत लगभग 12,000 वर्ष
पहले नव-पाषाण युग में हुई थी; सबसे पहले मध्य-पूर्व में और उसके बाद
पश्चिमी और मध्य एशिया तथा युरोप के कुछ हिस्सों में। सामुदायिक जीवन, कृषि
और खेती की शुरुआत के बाद से कुत्ते, मवेशियों,
बकरियों, ऊंटों
(बाद में घोड़ों) को पालतू बनाकर उनको मानवीय ज़रूरतों के लिए उपयोग में लाया गया।
उस समय मनुष्य शिकारी-संग्रहकर्ता हुआ करते थे और शिशुओं को दो वर्ष की आयु तक
सिर्फ मां का दूध ही पिलाया जाता था।
नव-पाषाण युग ने मानव व्यवहार को बदल डाला।
संतानों की संख्या में वृद्धि हुई, महिलाओं के कार्य करने के तरीकों में बदलाव
आए तथा शिशुओं में मां का दूध छुड़ाने की प्रक्रिया भी जल्दी होने लगी। जैसा
हॉउक्रॉफ्ट और उनके सहकर्मियों का तर्क है,
इसका अर्थ यह हुआ कि
इस समय तक मानव शिशुओं को पूरक भोजन के रूप में पशु का दूध दिया जाने लगा था। इसने
माताओं को अपनी प्रजनन रणनीति को बदलने में भी समर्थ बनाया (कितने बच्चे, कितने
समय में पैदा करें और कितनी जल्दी दूध छुड़ाएं)।
हमने कुत्तों को लगभग 10,000-4400 ईसा
पूर्व के आसपास, गाय और भेड़ों को लगभग 11,000-9000 ईसा पूर्व, ऊंटों
तथा घोड़ों को लगभग 3000 ईसा पूर्व में पालतू बनाया। हालांकि ऊपर बताए गए जीवों में
से हम केवल गायों, बकरियों और भेड़ों के दूध का उपयोग करते हैं लेकिन
अफ्रीकियों द्वारा ऊंटनी के दूध का भी उपयोग किया जाता था। दूध के लिए जुगाली करने
वाले जीवों को पसंद करना वास्तव में आज़माइश और उपयुक्तता के अनुभव से आया है।
जुगाली करने वाले प्राणियों में गाय-भैंस,
भेड़, बकरी
और ऊंट आते हैं। इनका पेट अलग-अलग भागों में बंटा होता है,
जिसमें भोजन जल्दी से
निगल लिया जाता है और बाद में जुगाली के बाद प्रथम आमाशय में जाता है जो इन जीवों
का मुख्य पाचन अंग है। ध्यान देने वाली बात यह है कि हमने कभी कुत्तों या घोड़ों के
दूध का उपयोग नहीं किया है – पता नहीं क्यों?
जुगाली पशुओं का दूध
हॉउक्रॉफ्ट और उनकी टीम ने अपने पेपर में
मानव और जुगाली करने वाले जीवों के दूध के संघटन की तुलना की है। मानव की तुलना
में भेड़ के दूध में उच्च ठोस घटक होता है: कम पानी,
कम कार्बोहाइड्रेट, अधिक
प्रोटीन तथा लिपिड और भरपूर उर्जा। जहां उच्च प्रोटीन युक्त दूध बोतल से दूध पीने
वाले शिशुओं में तेज़ विकास में मदद कर सकता है,
वहीं यह एसिडिटी और
अतिसार का कारण भी बन सकता है। भेड़ की तुलना में गाय के दूध में प्रोटीन और वसा की
मात्रा थोड़ी कम होती है (हालांकि, मानव दूध की तुलना में तीन गुना अधिक होती
है), फिर भी यह भेड़ के दूध के समान लक्षण पैदा कर सकता है। इसके
साथ ही जुगाली करने वाले जीवों के दूध में कुछ ऐसे एंज़ाइम की कमी होती है जो मानव
दूध में पाए जाते हैं। ये एंज़ाइम संक्रमण से लड़ने और ज़रूरी खनिज पदार्थों को
अवशोषित करने में मदद करते हैं। कुछ सुरक्षात्मक और हानिकारक अंतरों के साथ, मानव
दूध के स्थान पर पूरी तरह जुगाली-जीवों के दूध का उपयोग करने की बजाय इनका उपयोग
पूरक के तौर पर करना बेहतर है। इसी चीज़ को शुरुआती मनुष्यों ने कर-करके सीखा होगा।
इसी के आधार पर उन्होंने ‘फीडिंग बोतल’ और चीनी मिट्टी के पात्र बनाने तथा उपयोग
करना शुरू किया होगा।
शोधकर्ता आगे बताते हैं कि दूध से दही
बनाकर इसे संरक्षित किया जा सकता है। यह लैक्टोज़ की मात्रा कम करता है और पाचन में
मदद करता है। इसके पीछे एंज़ाइम लैक्टेज़ की भूमिका है। उनका निष्कर्ष है कि
“प्रागैतिहासिक शिशुओं के लिए यह दुग्धगंगा शायद इतनी अच्छी न रही हो, लेकिन दही उनके लिए और लैक्टेज़ एंज़ाइम के
प्रसार के लिए अच्छा रहा होगा।”
गौरतलब है कि वसंत शिंदे और पुणे के कुछ सहयोगियों ने भारत में हड़प्पा सभ्यता के स्थानों का व्यापक सर्वेक्षण किया था। उन्होंने 2500 ईसा पूर्व के कालीबंगन के हड़प्पा स्थल से सिरेमिक फीडिंग बोतल के ठोस सबूत पाए थे। हड़प्पावासियों ने भी अपने बच्चों को जानवरों के दूध का सेवन करवाया था। लेकिन वह पशु कौन-सा था? यदि हम इन बोतलों से कोई अवशेष प्राप्त करके अपनी प्रयोगशालाओं में विश्लेषण करने में कामयाब होते हैं तो यह काफी रोमांचक होगा। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/edqphy/article29807337.ece/alternates/FREE_660/27TH-SCIBabyfeeding-HelenaSeididaFonsecajpg
वर्षों कुछ समय पूर्व हबल नामक अंतरिक्ष दूरबीन से ब्राहृांड
में स्थित 15 नवनिर्मित तारों के चारों ओर घूमते हुए गैस तथा धूल कणों से निर्मित
तश्तरियों के चित्र खींचे गए हैं। खगोल वैज्ञानिकों के अनुसार ये चित्र इस बात के
स्पष्ट तथा सशक्त प्रमाण हैं कि हमारे सौर परिवार के बाहर भी ग्रहों का अस्तित्व
है। सूर्य के अतिरिक्त अन्य तारों के चारों ओर ग्रहों के अस्तित्व की जानकारी
मिलने से वैज्ञानिकों के इस अनुमान को भी सशक्त आधार प्राप्त होता है कि जीवन का
अस्तित्व ब्रह्माण्ड में पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य तारों के ग्रहों पर भी सम्भव है।
खगोलविदों के अनुसार हबल दूरबीन से प्राप्त
चित्रों को देख कर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि लगभग चार अरब वर्ष पूर्व सूय
के इर्द-गिर्द ग्रहों का निर्माण किस प्रकार हुआ होगा। हबल से प्राप्त चित्र कुछ
वैज्ञानिकों द्वारा ग्रहों की उत्पत्ति के सम्बंध में प्रस्तुत परिकल्पनाओं की
पुष्टि करते हैं। ये चित्र इस बात का संकेत देते हैं कि किसी नवजात तारे के चारों
ओर मौजूद धूल कण इतनी तेज़ी से घूमते रहते हैं कि नवजात तारे का आकर्षण उन्हें अपनी
ओर खींच नहीं पाता है। इसकी बजाय वे नवजात तारे के चारों ओर तश्तरी की आकृति में
फैलते जाते हैं। यही कण समय के साथ विभिन्न ग्रहों के रूप में परिणित होकर उस
नवजात तारे का चक्कर लगाने लगते हैं।
उपरोक्त तथ्य का पता ह्रूस्टन स्थित राइस
विश्वविद्यालय के खगोल वैज्ञानिक रॉबर्ट ओ’डेल द्वारा लगाया गया तथा प्राप्त इसकी
घोषणा नासा द्वारा की गई। रॉबर्ट ओ’डेल ने उपरोक्त तथ्य का पता हबल द्वारा प्राप्त
ओरायन नेबुला के चित्रों के अध्ययन के आधार पर लगाया। हमसे लगभग 1500 प्रकाश वर्ष
की दूरी पर स्थित यह नेबुला हमारे सौर मंडल का निकटतम पड़ोसी है। इन चित्रों से पता
चलता है कि धूल कणों से निर्मित उपरोक्त तश्तरियां लगभग 15 नवजात तारों के चारों
ओर उपस्थित हैं। इनमें से प्रत्येक नवजात तारा दस लाख वर्ष से कम उम्र का है। इन
तारों के चारों ओर उपस्थित धूल कणों का आकार बालू के कणों के समान है। इन तश्तरियों
में से कुछ तो इतनी चमकदार हैं कि उन्हें सीधे देखा जा सकता है। इन तश्तरियों के
चित्रों के अध्ययन से पता चलता है कि उपरोक्त 15 नवजात तारों के चारों ओर अभी
ग्रणों का निर्माण प्रारम्भ नहीं हुआ है परन्तु ग्रह निर्माण की परिस्थितियां
तैयार हो रही हैं। तश्तरियों की आकृति वाले उपरोक्त सभी नेबुला हमारे सौर मंडल से
अधिक मोटे तथा इससे बड़े व्यास वाले हैं। ओ’डेल का विचार है कि उपरोक्त सभी नेबुला
में धूल कणों की मात्रा इतनी है कि उनसे हमारे सौर मंडल के ग्रहों के समान ग्रह बन
सकते हैं।
ओरायन तारामंडल के अध्ययन से पता चलता है
कि इसमें लगभग 40 प्रतिशत तारे ऐसे हैं जिनके इर्द-गिर्द तश्तरी के रूप में बिखरे
धूल कण एवं गैस के बादल मौजूद हैं। एमहर्स्ट स्थित मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय के
खगोलविद स्टीफेन ई. स्ट्रॉम के अनुसार, चूंकि यह एक सामान्य निहारिका है, अत:
इसके अधिकांश तारों के इर्द-गिर्द धूल कणों का तश्तरी की आकृति में सजना एक
सामान्य घटना है। ओ’डेल का विश्वास है कि ओरायन निहारिका के अधिकांश तारों के
इर्द-गिर्द ग्रह निर्माण के लिए आवश्यक पदार्थ मौजूद है। अत: किसी दिन इनके चारों
और उसी प्रकार ग्रहों का निर्माण होगा जिस प्रकार हमारे सौर मंडल में हुआ था।
विगत वर्षों में खगोल वैज्ञानिकों को ऐसे
संकेत प्राप्त हुए हैं जिनसे पता चलता है कि ग्रह निर्माण सम्बंधी उनका सिद्धांत
सही है जिसके अनुसार सौर मंडल के ग्रहों का निर्माण उन कणों के आपस में संगठित
होने से हुआ है जो सूर्य के चारों ओर उपस्थित तश्तरीनुमा बादल में मौजूद थे। इस
बादल में उपस्थित गैस एवं कण ग्रहीय घूर्णन के नियम के अनुसार भ्रमण करते थे। इस
प्रकार की तश्तरियों की उपस्थिति के प्रमाण अभी तक सिर्फ चार तारों के इर्द-गिर्द
पाए गए थे। ये चार तारे हैं- 1. बीटा पिक्टोरिस 2. अल्फा लाइरी 3. अल्फा पायसिस
ऑस्ट्रीनी, तथा 4. एप्सिलॉन एरिजनी। ये तारे ओरायन निहारिका में देखे
गए तारों से पुराने हैं। बीटा पिक्टोरिस के चारों ओर उपस्थित पदार्थ के कण
गिट्टियों के आकार के हैं।
हालांकि समय-समय पर कई वैज्ञानिकों ने अन्य
तारों के आसपास ग्रहों की उपस्थिति के सम्बंध में अटकलें लगाई हैं, परन्तु
उनकी पुष्टि नहीं हो पाई थी। अपने सौर मंडल के अतिरिक्त सिर्फ एक ग्रह मंडल की
उपस्थिति के सम्बंध में कुछ स्पष्ट प्रमाण मिले हैं। कुछ समय पूर्व कुछ रेडियो
खगोलविदों ने घोषणा की थी कि एक नष्ट होते हुए तारे से उत्पन्न रेडियो तरंगों के
विचलन के अध्ययन के आधार पर उस तारे के आसपास दो-तीन ग्रहों की उपस्थिति की पुष्टि
होती है। ये ग्रह उपरोक्त नष्टप्राय तारे के अवशेष के चारों ओर चक्कर लगा रहे हैं।
इस प्रकार के अवशिष्ट तारे को न्यूट्रॉन तारा या पल्सर कहा जाता है। यदि ये घूमते
हुए पदार्थ सचमुच ग्रह हैं तो वैज्ञानिकों के अनुसार इन पर जीवन की उपस्थिति की
संभावना बिलकुल नगण्य है।
हबल द्वारा लिए गए चित्रों से पता चलता है
कि जिस आदिम बादल से तारे बन रहे हैं उसमें उच्च शक्ति वाले बड़े-बड़े बवंडर एवं
भंवर मौजूद हैं। कुछ चित्रों से पता चलता है कि कणों की आंधी के कारण गैस पराध्वनि
वेग से परों के गुच्छों की आकृति में खिंचा चला जा रहा है। निकट के गर्म तारे से
प्राप्त विकिरण के कारण तारे की तश्तरी की सतह पर उपस्थित पदार्थ उबलने लगता है।
परन्तु तश्तरी की सतह पर उठने वाली कणों की आंधी के कारण उबला हुआ पदार्थ पुन:
धूमकेतु की पूंछ के समान वापस खिंच जाता है।
ग्रीष्म ऋतु में आकाश गंगा में एक हल्का
नीला तारा दिखाई पड़ता है जिसका नाम है वेगा। यह तारा हमारी आकाश गंगा के दक्षिणी
भाग में स्थित है। कुछ समय पूर्व किए गए अध्ययनों से कुछ महत्वपूर्ण तथ्य प्रकाश
में आए हैं। इन्फ्रारेड खगोलीय उपग्रह द्वारा किए गए अध्ययनों से पता चला है कि
वेगा के चारों ओर एक घेरा मौजूद है। खगोलविदों के अनुसार चट्टानों से निर्मित यह
घेरा लगभग वैसा ही है जैसा हमारा सौर मंडल अपने विकास के प्रारम्भिक काल में था।
कहने का तात्पर्य यह है कि वेगा के आसपास में उन क्रियाओं के संकेत मिले हैं जो
हमारे सौर मंडल के आरम्भिक काल में आज से लगभग साढ़े चार अरब वर्ष पूर्व हुई थी।
इन्हीं क्रियाओं के फलस्वरूप हमारे सौर मंडल का जन्म हुआ था। इन क्रियाओं का महत्व
इसलिए और भी अधिक है क्योंकि ये एक ऐसे तारे में घटित हो रही हैं जो हमसे केवल 27
प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित है।
अध्ययनों से पता चला है कि वेगा सूर्य से लगभग दुगना गर्म और लगभग 60 गुना अधिक प्रकाशमान है। यही कारण है कि खगोल शास्त्री इस तारे को एक मानक के रूप में लेते हैं। सन 1983 में पता चला कि वेगा सामान्य की अपेक्षा अधिक विकिरण उत्सर्जित करता है। शुरू-शुरू में वैज्ञानिकों ने समझा कि ये विकिरण वेगा के पीछे स्थित किसी निहारिका से आ रहे हैं। परंतु कुछ समय बाद अध्ययनों से मालूम हुआ कि वेगा एक घेरे में घिरा हुआ है। इस घेरे का तापमान 150 डिग्री सेल्सियस है और व्यास है 24 अरब किलोमीटर है। हमारे सौर मंडल का व्यास सिर्फ 12 अरब किलोमीटर है। अपने आसपास के धूल कणों को वेगा ने काफी पहले ही अपनी ओर आकर्षित कर लिया था। खगोलविदों द्वारा लगाए गए अनुमान के अनुसार वेगा की आयु अधिक से अधिक एक अरब वर्ष होनी चाहिए। अर्थात् वह एक नया तारा है। इसी कारण खगोलविद मानते हैं कि वेगा के चारों ओर का घेरा एक ग्रहीय प्रणाली है जो अभी विकास के प्रथम चरण में है। संसार भर के खगोल विज्ञानी ब्रह्माण्ड के अध्ययन में निरन्तर लगे हुए हैं। आशा है कि इन अध्ययनों के आधार पर ब्रह्माण्ड के विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे तारों का पता लगाया जाएगा जिनके सूर्य के समान ही अपने-अपने ग्रहमंडल मौजूद हैं। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://qph.fs.quoracdn.net/main-qimg-e9e97ab1f439738118a3180cd8c4bf7a
भारत सरकार, कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व (CSR) की तर्ज़ पर,
विज्ञान के क्षेत्र
में वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व (Scientific Social Responsibility) के लिए एक नई नीति लागू करने जा रही है।
इस नई नीति का प्रारूप तैयार कर लिया गया है जिसे विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग
की वेबसाइट (www.dst.gov.in) पर टिप्पणियों के लिए उपलब्ध कराया गया
है।
अगर यह नीति लागू हो जाती है तो विज्ञान के
क्षेत्र में सामाजिक दायित्व के लिए ऐसी नीति बनाने वाला भारत दुनिया का संभवत:
पहला देश होगा।
यह नीति भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी
के क्षेत्र में कार्यरत संस्थानों और वैज्ञानिकों को विज्ञान संचार और प्रसार के
कार्यों में बढ़-चढ़ कर भागीदारी के लिए प्रोत्साहित करेगी। ऐसा होने से वैज्ञानिकों
और समाज के बीच संवाद बढ़ेगा जिससे दोनों के बीच ज्ञान आधारित खाई को भरा जा सकेगा।
इस नीति का मुख्य उद्देश्य भारतीय वैज्ञानिक समुदाय में सुप्त पड़ी क्षमता का भरपूर
उपयोग कर विज्ञान और समाज के बीच सम्बंधों को मज़बूत करना और देश में विज्ञान और
प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करना है जिससे इस
क्षेत्र को नई ऊर्जा मिल सके।
यह नीति वैज्ञानिक ज्ञान और संसाधनों तक
जनमानस की पहुंच को सुनिश्चित करने और आसान बनाने के लिए एक तंत्र विकसित करने, वर्तमान
और भावी सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विज्ञान के लाभों का उपयोग करने, तथा
विचारों और संसाधनों को साझा करने के लिए एक सक्षम वातावरण बनाने, और
सामाजिक समस्याओं को पहचानने एवं इनके हल खोजने के लिए सहयोग को बढ़ावा देने की
दिशा में भी मार्गदर्शन करेगी। इस ड्राफ्ट नीति के अनुसार देश में विज्ञान एवं
प्रौद्योगिकी से सम्बंधित सभी संस्थानों
और व्यक्तिगत रूप से सभी वैज्ञानिकों को उनके वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व के बारे
में जागरूक और प्रेरित करना होगा।
भारत सरकार ने पहले भी विज्ञान से सम्बंधित
कुछ नीतियां बनाई हैं। वैज्ञानिक नीति संकल्प 1958,
प्रौद्योगिकी नीति
वक्तव्य 1983, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी नीति 2003 और विज्ञान, प्रौद्योगिकी
एवं नवाचार नीति 2013 इनमें प्रमुख हैं। वर्तमान वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व नीति
का प्रारूप भी इन नीतियों को आगे बढ़ाता है। हालांकि इस नई नीति में कुछ व्यावहारिक
और प्रासंगिक प्रावधान हैं जिससे विज्ञान व प्रौद्योगिक संस्थानों और वैज्ञानिकों
(यानी ज्ञानकर्मियों) को समाज के प्रति अधिक उत्तरदायी और ज़िम्मेदार बनाया जा सकता
है।
ड्राफ्ट नीति के अनुसार प्रत्येक वैज्ञानिक
को व्यक्तिगत रूप से अपने वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व को पूरा करने के लिए कम से कम
10 दिन प्रति वर्ष अवश्य देने होंगे। इसके अंतर्गत विज्ञान और समाज के बीच
वैज्ञानिक ज्ञान के आदान-प्रदान में योगदान देना होगा। इस दिशा में संस्थागत स्तर
पर और व्यक्तिगत स्तर पर सही प्रयास हो सकें और ऐसे प्रयासों को बढ़ावा देने के लिए
पर्याप्त प्रोत्साहनों के साथ-साथ आवश्यक आर्थिक सहायता प्रदान करने का भी
प्रावधान होगा। वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व के क्षेत्र में जो वैज्ञानिक व्यक्तिगत
प्रयास करेंगे उन्हें उनके वार्षिक प्रदर्शन मूल्यांकन में उचित श्रेय देने का भी
प्रस्ताव किया गया है।
इस नीति का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि
किसी भी संस्थान को अपने वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व से सम्बंधित गतिविधियों और
परियोजनाओं को आउटसोर्स या किसी अन्य को अनुबंधित करने की अनुमति नहीं होगी।
अर्थात सभी संस्थानों को अपनी SSR गतिविधियों और परियोजनाओं को लागू करने के
लिए अंदरूनी क्षमताएं विकसित करना होगा।
जब भारत में लगभग सभी विज्ञान व
प्रौद्योगिक शोध करदाताओं के पैसे से चल रहा है,
तो ऐसे में वैज्ञानिक
संस्थानों का यह एक नैतिक दायित्व है कि वे समाज और अन्य हितधारकों को कुछ वापस भी
दें। यहां पर हमें यह समझना होगा कि SSR न केवल समाज पर वैज्ञानिक प्रभाव के बारे में है,
बल्कि यह विज्ञान पर
सामाजिक प्रभाव के बारे में भी है। इसलिए SSR विज्ञान के क्षेत्र में ज्ञान पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत करेगा और समाज के
लाभ के लिए विज्ञान का उपयोग करने में दक्षता लाएगा।
इस नीति दस्तावेज़ में समझाया गया है कि
विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सभी क्षेत्रों में कार्यरत सभी ज्ञानकर्मियों का समाज
में सभी हितधारकों के साथ ज्ञान और संसाधनों को स्वेच्छा से और सेवा भाव एवं
जागरूक पारस्परिकता की भावना से साझा करने के प्रति नैतिक दायित्व ही वैज्ञानिक
सामाजिक दायित्व (SSR) है। यहां,
ज्ञानकर्मियों से
अभिप्राय हर उस व्यक्ति से है जो ज्ञान अर्थव्यवस्था में मानव, सामाजिक, प्राकृतिक, भौतिक, जैविक, चिकित्सा, गणितीय
और कंप्यूटर/डैटा विज्ञान और इनसे सम्बंधित प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में भाग
लेता है।
ड्राफ्ट नीति के अनुसार देश में SSR गतिविधियों की निगरानी और कार्यान्वयन के लिए DST में एक केंद्रीय और नोडल एजेंसी की स्थापना की जाएगी। इस
नीति के एक बार औपचारिक हो जाने के बाद, केंद्र सरकार के सभी मंत्रालयों, राज्य
सरकारों और S&T संस्थानों को अपने कार्यक्षेत्र के अनुसार
SSR को लागू करने के लिए अपनी योजना बनाने की
आवश्यकता होगी। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से सम्बंधित सभी संस्थानों को अपने
ज्ञानकर्मियों को समाज के प्रति उनकी नैतिक सामाजिक जिम्मेदारी के बारे में
संवेदनशील बनाने, SSR से सम्बंधित संस्थागत परियोजनाओं और व्यक्तिगत गतिविधियों का आकलन करने के
लिए एक SSR निगरानी प्रणाली बनानी होगी और SSR गतिविधियों पर
आधारित एक वार्षिक रिपोर्ट भी प्रकाशित करनी होगी। संस्थागत और व्यक्तिगत दोनों
स्तरों पर SSR गतिविधियों की निगरानी एवं मूल्यांकन के
लिए उपयुक्त संकेतक विकसित किए जाएंगे जो इन गतिविधियों के प्रभाव को लघु-अवधि, मध्यम-अवधि
और दीर्घ-अवधि के स्तर पर मापेंगे।
नीति को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए, एक
राष्ट्रीय डिजिटल पोर्टल की स्थापना की जाएगी जिस पर ऐसी सामाजिक समस्याओं का
विवरण होगा जिन्हें वैज्ञानिक हस्तक्षेप की आवश्यकता है। यह पोर्टल
कार्यान्वयनकर्ताओं के लिए और SSR गतिविधियों की
रिपोर्टिंग के लिए एक मंच के रूप में भी काम करेगा।
नई नीति के अनुसार सभी फंडिंग एजेंसियों को
SSR का समर्थन करने के लिए:
क) व्यक्तिगत SSR परियोजनाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करनी होगी,
ख) हर प्रोजेक्ट में SSR के लिए वित्तीय सहायता के लिए एक निश्चित प्रतिशत तय करना
होगा,
ग) वित्तीय समर्थन के लिए प्रस्तुत किसी भी
परियोजना के लिए उपयुक्त SSR की आवश्यकता की
सिफारिश करनी होगी।
यदि इसे ठीक से और कुशलतापूर्वक लागू किया जाता है, तो यह नीति विज्ञान संचार के मौजूदा प्रयासों को मज़बूत करते हुए, सामाजिक समस्याओं के लिए वैज्ञानिक और अभिनव समाधान लाने में एक परिवर्तनकारी भूमिका निभाएगी। इस के साथ-साथ, क्षमता निर्माण, कौशल विकास के माध्यम से सभी के जीवन स्तर को ऊपर उठाने, ग्रामीण नवाचारों को प्रोत्साहित करने, महिलाओं और कमज़ोर वर्गों को सशक्त बनाने, उद्योगों और स्टार्ट-अप की मदद करने आदि में यह नीति योगदान दे सकती है। सतत विकास लक्ष्यों, पर्यावरण लक्ष्यों और प्रौद्योगिकी विज़न 2035 की प्राप्ति में भी यह नीति योगदान दे सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i0.wp.com/www.researchstash.com/wp-content/uploads/2019/09/New-Policy-Coming-for-Scientific-Social-Responsibility.jpg?resize=1280,672&ssl=1
हाल ही में वैज्ञानिकों ने दक्षिण युरोप के नीचे एक डूबा हुआ
महाद्वीप खोजा है। ग्रेटर एड्रिया नामक यह महाद्वीप 14 करोड़ वर्ष पहले मौजूद था।
शोधकर्ताओं ने इसका विस्तृत मानचित्र बनाया है।
साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार,
ग्रेटर एड्रिया 24
करोड़ वर्ष पहले गोंडवाना से टूटने के बाद उभरा था। गौरतलब है कि गोंडवाना वास्तव
में अफ्रीका, अंटार्कटिका, दक्षिण अमेरिका,
ऑस्ट्रेलिया और अन्य
प्रमुख भूखंडों से बना एक विशाल महाद्वीप था।
ग्रेटर एड्रिया काफी बड़ा था जो मौजूदा
आल्प्स से लेकर ईरान तक फैला हुआ था। लेकिन यह पूरा पानी के ऊपर नहीं था। उट्रेक्ट
विश्वविद्यालय में डिपार्टमेंट ऑफ अर्थ साइंसेज़ के प्रमुख वैन हिंसबरगेन और उनकी
टीम ने बताया है कि यह छोटे-छोटे द्वीपों के रूप में नज़र आता होगा। उन्होंने लगभग
30 देशों में फैली ग्रेटर एड्रिया की चट्टानों को इकट्ठा कर इस महाद्वीप के
रहस्यों को समझने की कोशिश की।
गौरतलब है कि पृथ्वी कई बड़ी प्लेटों से
ढंकी हुई है जो एक दूसरे के सापेक्ष खिसकती रहती हैं। हिंसबरगेन बताते हैं कि
ग्रेटर एड्रिया का सम्बंध अफ्रीकी प्लेट से था,
लेकिन यह अफ्रीका
महाद्वीप का हिस्सा नहीं थी। यह प्लेट धीरे-धीरे युरेशियन प्लेट के नीचे खिसकते
हुए दक्षिणी युरोप तक आ पहुंची थी।
लगभग 10 से 12 करोड़ वर्ष पहले ग्रेटर
एड्रिया युरोप से टकराया और इसके नीचे धंसने लगा। अलबत्ता कुछ चट्टानें काफी हल्की
थीं और वे पृथ्वी के मेंटल में डूबने की बजाय एक ओर इकठ्ठी होती गर्इं। इसके
फलस्वरूप आल्प्स पर्वत का निर्माण हुआ।
हिंसबरगेन और उनकी टीम ने इन चट्टानों में
आदिम बैक्टीरिया द्वारा निर्मित छोटे चुंबकीय कणों के उन्मुखीकरण को भी देखा।
बैक्टीरिया इन चुंबकीय कणों की मदद से खुद को पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र की सीध
में लाते हैं। बैक्टीरिया तो मर जाते हैं,
लेकिन ये कण तलछट में
बचे रह जाते हैं। समय के साथ यह तलछट चट्टान में परिवर्तित हो जाती और चुंबकीय कण
उसी दिशा में फिक्स हो जाते हैं। टीम ने इस अध्ययन से बताया कि यहां की चट्टानें
काफी घुमाव से गुजरी थीं।
इसके बाद के अध्ययन में टीम ने कई बड़ी-बड़ी
चट्टानों को जोड़कर एक समग्र तस्वीर बनाने के लिए कंप्यूटर की मदद ली ताकि इस
महाद्वीप का विस्तृत नक्शा तैयार किया जा सके और यह पुष्टि की जा सके कि यूरोप से
टकराने से पहले यह थोड़ा मुड़ते हुए उत्तर की ओर बढ़ गया था।
इस खोज के बाद, हिंसबरगेन अब प्रशांत महासागर में लुप्त हुई अन्य प्लेट्स की तलाश कर रहे हैं। अध्ययन की जटिलता को देखते हुए, किसी निष्कर्ष के लिए 5-10 साल की प्रतीक्षा करनी होगी। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://pbs.twimg.com/media/EDdi98LWsAMIxf-?format=jpg&name=900×900 https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/story/201909/1568381818099-screen-shot-2019-770×433.jpeg?iWcNOBzs_fwcJtkFaRc5HxYU2M9zmsE2