जंतु प्रजातियां अभूतपूर्व खतरे के दौर में – भरत डोगरा

विश्व में रीढ़धारी जीवों की संख्या में वर्ष 1970 और 2014 के बीच के 44 वर्षों में 60 प्रतिशत की कमी हो गई। यह जानकारी देते हुए हाल ही में जारी लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट (2018) में बताया गया है कि कई शताब्दी पहले की दुनिया से तुलना करें तो विभिन्न जीवों की प्रजातियों के लुप्त होने की दर 100 से 1000 गुना बढ़ गई है।

हारवर्ड के जीव वैज्ञानिक एडवर्ड विल्सन ने कुछ समय पहले विभिन्न अध्ययनों के निचोड़ के आधार पर बताया था कि मनुष्य के आगमन से पहले की स्थिति से तुलना करें तो विश्व में ज़मीन पर रहने वाले जीवों के लुप्त होने की गति 100 गुना बढ़ गई है। इस तरह अनेक वैज्ञानिकों के अलगअलग अध्ययनों का परिणाम यही है कि विभिन्न प्रजातियों के लुप्त होने की गति बहुत बढ़ गई है और यह काफी हद तक मानवनिर्मित कारणों से हुआ है।

जीवन का आधार खिसकने की चेतावनी देने वाले अनुसंधान केंद्रों में स्टाकहोम रेसिलिएंस सेंटर का नाम बहुत चर्चित है। यहां के निदेशक जोहन रॉकस्ट्रॉम की टीम ने एक अनुसंधान पत्र लिखा है जिसमें धरती के लिए सुरक्षित सीमा रेखाएं निर्धारित करने का प्रयास किया गया है। इसके अनुसार धरती की 25 प्रतिशत प्रजातियों पर लुप्त होने का संकट है। कुछ वर्ष पहले तक अधिकतर प्रजातियां केवल समुद्रों के बीच के टापुओं पर लुप्त हो रही थीं, पर बीसतीस वर्ष पहले से मुख्य भूमि पर बहुत प्रजातियां लुप्त हो रही हैं। इसका मुख्य कारण है जलवायु बदलाव, भूमि उपयोग में बड़े बदलाव (जैसे वन कटान) तथा बाहरी या नई प्रजातियों का प्रवेश। अनुसंधान पत्र में यह बताया गया है कि विभिन्न प्रजातियों के लुप्त होने का प्रतिकूल असर धरती की अन्य जीवनदायी प्रक्रियाओं पर भी पड़ता है।

डॉ. गैरार्डो सेबेलोस, डॉ. पॉल एहलरिच व अन्य शीर्ष वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन में कहा गया है कि यदि 100 वर्ष में प्रति 10,000 प्रजातियों में से दो प्रजातियां लुप्त हो जाएं तो इसे सामान्य स्थिति माना जा सकता है। पर यदि वर्ष 1900 के बाद की वास्तविक स्थिति को देखें तो इस दौरान सामान्य स्थिति की अपेक्षा रीढ़धारी प्रजातियों के लुप्त होने की गति 100 गुना तक बढ़ गई। इस तरह जलवायु बदलाव, वन विनाश व प्रदूषण बहुत बढ़ जाने से प्रजातियों का लुप्त होना असहनीय हद तक बढ़ गया है।

अध्ययन में बताया गया है कि यह अनुमान वास्तविकता से कम ही हो सकता है। दूसरे शब्दों में, वास्तविक स्थिति इससे भी अधिक गंभीर हो सकती है। मात्र एक प्रजाति के लुप्त होने से ऐसी द्यांृखलाबद्ध प्रक्रियाएं शुरू हो सकती हैं जिससे आगे कई प्रजातियां खतरे में पड़ जाएं। कई प्रजातियां लुप्त होने से मनुष्य के अपने जीवन की तमाम कठिनाइयां अप्रत्याशित ढंग से बढ़ सकती हैं क्योंकि सब तरह के जीवन एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।

जीवजंतुओं की रक्षा के लिए अधिक व्यापक स्तर पर पर्यावरण की रक्षा बहुत ज़रूरी है। नदियों व वनों की रक्षा होगी तभी यहां रहने वाले जीव भी बचेंगे। समुद्रों के जीवन की रक्षा के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अधिक व्यापक प्रयास ज़रूरी हैं। हमारे देश में समुद्रों और तटीय क्षेत्रों के पर्यावरण पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है, जबकि इनकी रक्षा बहुत ज़रूरी है। विभिन्न जीवजंतुओं की रक्षा के लिए स्कूल व परिवार के स्तर पर संवेदनाओं को मजबूत करना भी ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कैंसर को चुनौती के नए आयाम – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कैंसर, आनुवंशिक या किसी बाहरी कारक (जैसे धूम्रपान, हानिकारक विकिरण वगैरह) के कारण क्षतिग्रस्त हुई कोशिकाओं की अनियंत्रित वृद्धि और विभाजन है। समान्यतः कोशिकाएं एक निश्चित संख्या तक विभाजित होती हैं और वृद्धि करती हैं। किंतु कैंसर कोशिकाएं, जिनका डीएनए किन्हीं कारणों से क्षतिग्रस्त होकर परिवर्तित हो गया है, वे लगातार वृद्धि करती रहती हैं। जिसके कारण गठान (ट्यूमर) बन जाती है, जो शरीर कमज़ोर करती है और मौत तक हो सकती है।

कैंसर का उपचार और उसे ठीक करना एक बड़ी चुनौती रही है। कैंसर चिकित्सा विज्ञानी और लेखक सिद्धार्थ मुखर्जी ने इसे एकदम सही उपमा दी है बिमारियों का शहंशाह।

बीमारियों के शहंशाह कैंसर पर विजय पाने के कई तरीके रहे हैं। एक तरीका है कैंसर गठानों को सर्जरी करके निकाल देना। मगर इस तरीके में कैंसर के दोबारा होने की सम्भावना रहती है क्योंकि सर्जरी में इस बात की गारंटी नहीं रहती कि सभी कैंसर कोशिकाएं निकाल दी गई हैं। यदि चंद कैंसर कोशिकाएं भी छूट जाएं तो कैंसर दोबारा सिर उठा सकता है। यदि कैंसर होने के असल कारण से नहीं निपटा जाए, तो भी कैंसर दोबारा उभर सकता है। इसके अलावा अति शक्तिशाली गामा किरणों की रेडिएशन थेरपी से भी उपचार में सीमित सफलता ही मिली है।

सिसप्लेटिन या कार्बोप्लेटिन,5-फ्लोरोयूरेसिल, डॉक्सीरोबिसिन जैसी कई कैंसररोधी दवाएं भी उपयोग की गई हैं। कई चिकित्सकों ने दवा के साथ गामा रेडिएशन से उपचार का तरीका भी अपनाया, मगर इस उपचार के साथ मुश्किल यह है कि इसे लंबे समय तक जारी रखना होता है।

प्रतिरक्षा का तरीका

इसी संदर्भ में कुछ तरह के कैंसर का उपचार प्रतिरक्षा के तरीके से करने की कोशिश हुई है। इसमें शरीर प्रतिरक्षा तंत्र की मदद ली जाती है। इस तरीके में मुख्य भूमिका श्वेत रक्त कोशिकाओं की होती है। श्वेत रक्त कोशिकाओं का एक प्रकार होता है बीकोशिकाएं। ये बीकोशिकाएं हमलावर कोशिकाओं (चाहे वह किसी सूक्ष्मजीव की कोशिका हो या कैंसर कोशिका) की बाहरी सतह पर उपस्थित कुछ उभारों की आकृति (जिन्हें बॉयोमैट्रिक आईडी कह सकते हैं) की पहचान करती हैं, और इम्यूनोग्लोबुलिन नामक प्रोटीन संश्लेषित करती हैं जो हमलावर कोशिकाओं की सतह पर फिट हो जाता है और इस तरह हमलावर कोशिकाओं को हटाती हैं। खास बात यह है कि हमलावरों की आकृति को पहचान कर यादरखा जाता है ताकि यदि वही हमलावर दोबारा हमला करे तो बीकोशिकाएं उससे निपटने के लिए तैयार रहें। आत्मरक्षा का यही तरीका बचपन में किए जाने वाले टीकाकरण का आधार भी है।

सतह की पहचान से सम्बंधित टैगएंटीजन कहलाता है और उससे लड़ने वाला प्रोटीन एंटीबॉडी। कैंसर कोशिकाओं की भी बॉयोमैट्रिक आईडी (पहचान) होती है, जिसे नियोएंटीजन कहते हैं। कैंसररोधी वैक्सीन इन नियोएंटीजन के खिलाफ तैयार की गई एंटीबॉडीज़ के सिद्धांत पर आधारित है। कैंसर के खिलाफ कुछ जानीमानी दवाएं जैसे बिवेसिज़ुमेब और रिटक्सीमेब व अन्य एंटीबॉडीज़ काफी इस्तेमाल की जाती हैं। (इन दवाओं के नाम के अंत में मेब का मतलब है मोनोक्लोनल एंटीबॉडी।)

कैंसर उपचार के एक और नए तरीके में, कैंसर चिकित्सक रोगी के शरीर से कैंसर ऊतक को अलग करके आणविक जैव विश्लेषकों की मदद से कैंसर कोशिका के नियोएंटीजन की पहचान करते हैं। फिर प्रतिरक्षा विज्ञानियों की मदद से इन नियोएंटीजन के लिए एंटीबॉडी तैयार करते हैं, जिसे रोगी के शरीर में प्रवेश कराया जाता है ताकि कैंसर दोबारा ना उभर सके। इस मायने में यह वैक्सीन उपचार के लिए है, ना कि अन्य वैक्सीन (हैपेटाइटिस या खसरा वगैरह) की तरह रोकथाम के लिए। इस तरह के कुछ कैंसर वैक्सीन बाज़ार में उपलब्ध भी हो चुके हैं। जैसे ब्रोस्ट कैंसर के लिए HER-2, कैंसर के लिए रेवेंज और मेलोनेमा के लिए T-VEC

कैंसर उपचार में नोबेल

इस साल का चिकित्सा नोबेल पुरस्कार कैंसर उपचार के लिए मिला है। इस उपचार में जो तरीका अपनाया है वो इन तरीकों से अलग है। इसमें शोधकर्ताओं ने बीलिम्फोसाइट पर ध्यान देने की बजाय टीकोशिकाओं पर ध्यान दिया। टीकोशिकाएं ऐसे रसायन छोड़ती हैं जो हमलावर कोशिकाओं को खुदकुशी के लिए मजबूर करते हैं। इस प्रक्रिया को एपोप्टोसिस कहते हैं। प्रत्येक टीकोशिका की सतह पर पंजानुमा ग्राही होते हैं जो बाहरी या असामान्य एंटीजन के साथ जुड़ जाते हैं। मगर इसके लिए इन्हें एक प्रोटीन द्वारा सक्रिय करने की ज़रूरत होती है। साथ ही कुछ अन्य प्रोटीन भी होते हैं जो टीकोशिकाओं द्वारा सर्वनाश मचाने पर अंकुश रखते हैं। इन प्रोटीन को ब्रेकया चेक पाइंट प्रोटीनकहते हैं।

टेक्सास युनिवर्सिटी के एंडरसन कैंसर सेंटर के एमडी डॉ. जेम्स एलिसन ऐसे एक ब्रोक या चेक पॉइंट, CTLA-4, प्रोटीन पर साल 1990 से काम कर रहे थे। CTLA-4 प्रोटीन टीकोशिकाओं की प्रतिरक्षा प्रक्रिया को नियंत्रित करने का काम करता है। वे ऐसे प्रोटीन का पता लगाना चाहते थे जो CTLA-4 के इस अंकुश को हटा सके। 1994-95 तक उनके साथियों ने antiCTLA4 नामक एक ऐसे रसायन का पता लगा लिया जो कैंसर ग्रस्त चूहों को देने पर  ट्यूमर रोधी गतिविधी शुरू कर देता था और चूहों के कैंसर का इलाज कर देता था। नोबेल समिति के मुताबिक दवा कंपनियों की अनिच्छा के बावजूद, एलिसन ने इस तरीके पर काम जारी रखा। साल 2010 में उम्मीद के मुताबिक नतीजे मिले, जिसमें एक तरह के त्वचा कैंसर, मेलानोमा में रोगी में काफी सुधार दिखा। कई रोगियो में बचेखुचे कैंसर के संकेत भी गायब हो गए। ऐसे रोगियों में इससे पहले कभी इतना सुधार नहीं देखा गया था।

यहीं दूसरे नोबेल विजेता तासुकु होन्जो के काम का पदार्पण होता है। तासुकु होन्जो वर्तमान में क्योतो युनिवर्सिटी जापान में काम कर रहे हैं। उन्होंने एलिसन से भी पहले 1992 में यह पता लगा लिया था कि प्रोटीन पीडी-1, टीकोशिकाओं की सतह पर अभिव्यक्त होता है। लगातार इस पर काम करते रहने पर उन्होंने पाया कि पीडी-1 एक चेकपॉइंट प्रोटीन भी है। यदि हम इसे प्रविष्ट कराएं, तो टीकोशिकाएं ट्यूमररोधी गतिविधी शुरु कर देती हैं। इससे उन्होंने एंटीबॉडी anti-PD1 बनाई जिसे किसी भी तरह के कैंसर से ग्रस्त रोगी के शरीर में देने पर नतीजे काफी नाटकीय मिले। एलिसन और होन्जो, दोनों के ही तरीकों में उन्होंने ऐसे रसायन पहचाने जो ब्रोक या चेकपॉइंट को हटा देते हैं, और कैंसर रोधी गतिविधि को अंजाम देते हैं। उम्मीद के मुताबिक चेकपॉइंट अवरोधकों पर अब कई शोध किए जा रहे हैं। लगभग 1100 से ज़्यादा PD1से सम्बंधित ट्रायल किए जा रहे हैं। ट्यूमर के इलाज में आज इम्यूनोथेरपी काफी चर्चित और लोकप्रिय है। अगले 5 से 10 सालों में इससे कैंसर उपचार किए जाएंगे। एलिसन और होन्जो के काम से लगता है कि बीमारियों के शहंशाह का अंत नज़दीक है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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डेढ़ सौ साल जी सकते हैं मनुष्य – संध्या राय चौधरी

लंबी उम्र सभी चाहते हैं। महात्मा गांधी ने 125 साल तक जीने की कामना की थी। उनकी इस कामना के पीछे उनके अनगिनत उद्देश्य थे, जिन्हें वे जीते जी पूरा करना चाहते थे। अब औसत आयु लगातार बढ़ रही है और वैज्ञानिक भी उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को धीमा करने के प्रयास में जुटे हैं। विज्ञान की एक नई शाखा के तौर पर उभरा है जरा विज्ञान यानी जेरोंटोलॉजी। इसके तहत करोड़ों डॉलर खर्च कर ऐसे जीन तलाशे जा रहे हैं, जो उम्र को नियंत्रित करते हैं।

वैज्ञानिकों ने एज-1, एज-2, क्लोफ-2 जैसे जींस का पता भी लगा लिया है। वैज्ञानिकों ने युवा और अधेड़ लोगों के लाखों जीनोम को स्कैन कर पता लगाने की कोशिश की है कि शरीर पर कब उम्र का असर दिखने लगता है। सेल्फिश जीन किताब के लेखक ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रिचर्ड डॉकिंस कहते हैं कि 2050 तक उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को धीमा करने का सूत्र हमारे पास होगा। स्टेम सेल, दी ह्यूमन बॉडी शॉप और जीन थेरपी के ज़रिए इंसान की उम्र को 150 साल से भी अधिक बढ़ाना संभव होगा। एस्टेलास ग्लोबल रीजनरेटिव मेडिसिन के अमेरिकी वैज्ञानिक रॉबर्ट लेंज़ा भी ऐसा मानने वालों में से हैं।        

अपना देश आयुष्मान भव, चिरंजीवी भव, जीते रहो जैसे आशीर्वादों से भरा पड़ा है। पता नहीं ऐसे आशीर्वादों के कारण या किसी और कारण से औसत आयु लगातार बढ़ रही है। 1990 में दुनिया की औसत आयु 65.33 साल थी जो आज बढ़कर 71.5 साल हो गई है। इस दौरान पुरुषों की औसत आयु 5.8 जबकि महिलाओं की 6.6 साल बढ़ी। जब औसत आयु बढ़ रही है तो  100 पार लोगों की संख्या भी बढ़ रही है। शतायु होना अब अपवाद नहीं है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट की मानें तो भारत में 12 हज़ार से अधिक ऐसे लोग हैं जिनकी उम्र 100 के पार है और 2050 तक ऐसे लोगों की तादाद छह लाख तक हो जाएगी। जापान इस मोर्चे पर दुनिया का सबसे अव्वल देश है। वहां के गांवों में दोचार शतायु लोगों का मिलना आम बात है। जापान के सरकारी स्वास्थ्य विभाग के मुताबिक 2014 में 58,820 लोग 100 से अधिक उम्र वाले थे। ऐसा नहीं कि जापान पहले से ही ऐसे बूढ़ों का देश रहा है। 1963 में जब वहां इस तरह की गणना शुरू हुई थी, केवल 153 लोग ही ऐसे मिले थे।

दुनिया भर में बढ़ रही औसत आयु और 100 पार के बूढ़ों की तादाद साफसाफ इशारा करती है कि जीवन प्रत्याशा के मोर्चे पर हम आगे बढ़ रहे हैं। इसका सर्वाधिक श्रेय जाता है स्वास्थ्य़ सुविधाओं में बढ़ोतरी और सेहत के प्रति लोगों की बढ़ती जागरूकता को। अभी अपने देश में पुरुषों की औसत उम्र 64 और महिलाओं की 68 वर्ष है। पिछले 40 सालों में पुरुषों और महिलाओं की औसत उम्र क्रमश: 15 18 साल बढ़ी है। जीवन प्रत्याशा को लेकर गौरतलब बात है कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं ज़्यादा साल तक जीती हैं। यह रुझान बना रहा तो 2050 तक 100 के पार जीने वालों में महिलापुरुष अनुपात 54:46 का होगा। यकीनन जीने के मोर्चे पर महिलाओं की जैविक क्षमता पुरुषों से अधिक है।

ढलती उम्र में सक्रियता

रिटायरमेंट की उम्र के बाद ज़्यादातर लोगों की शारीरिक क्षमता का ग्राफ तेज़ी से नीचे गिरता है। वैसे अब देखने को मिल रहा है कि रिटायरमेंट के बाद लोगों ने नए सिरे से खुद को किसी काम से जोड़ा। दरअसल रिटायर होने के बाद भी करीब 20-25 साल का जीवन लोगों के पास होता है। इस दौरान खुद को काम से जोड़े रखना जीवन के प्रति न्याय ही है। ऑस्ट्रेलिया जैसे देश ने तो बढ़ती उम्र की सक्रियता को समझकर मई 2014 में एक कानून पारित कर दिया जिसके मुताबिक 2035 से रिटायरमेंट की उम्र 70 साल हो जाएगी। वहां की सरकार बुज़ुर्गों को काम पर रखने के लिए प्रोत्साहन और आर्थिक लाभ देती है। भारत और चीन जैसे देश को अभी से इस दिशा में सोचना होगा, क्योंकि आज ये युवाओं के देश हैं, लेकिन 20-25 साल के बाद ये बूढ़ों के देश होंगे।

कुछ अनुमानित नुस्खे

उम्र को बढ़ाने वाले खाद्य पदार्थ पर अगर सबसे ज्यादा गंभीरता से रिसर्च हो रहा है तो वह है गेटो नामक पौधा। जापान के ओकिनावा क्षेत्र में सबसे ज़्यादा शतकवीर रहते हैं। यही इस रिसर्च का आधार बना है। ओकिनावा के रियूक्यूस विश्वविद्यालय में कृषि विज्ञान के प्रोफेसर शिंकिची तवाडा ने दक्षिणी जापान के लोगों की अधिक उम्र का राज़ एक खास पौधे गेटो (AlphiniaZerumbet) को बताया है। गहरे पीलेभूरे रंग के इस पौधे के अर्क से इंसान की उम्र 20 प्रतिशत तक बढ़ सकती है। तवाडा पिछले 20 साल से अदरक वंश के इस पौधे पर अध्ययन कर रहे हैं। तवाडा ने कीड़ों पर एक प्रयोग में पाया कि गेटो के अर्क की खुराक से उनकी उम्र 22 प्रतिशत बढ़ गई। बड़ी हरी पत्तियों, लाल फलों और सफेद फूलों वाला गेटो का पौधा सदियों से ओकिनावा के लोगों के भोजन का आधार रहा है। अन्य एंटी ऑक्सीडेंट की तुलना में गेटो ज़्यादा प्रभावी पाया गया। अब यह जानने की कोशिश की जा रही है कि क्या गेटो का प्रयोग दुनिया के अन्य हिस्सों के भिन्न परिस्थितियों के लोगों पर करने पर भी इसका परिणाम पहले जैसा रहेगा।

कहां सबसे अधिक बुज़ुर्ग

चीन के हैनान प्रांत के चेंगमाई गांव में दुनिया के सबसे ज्यादा बुज़ुर्ग रहते हैं। यहां 200 लोग ऐसे हैं जो उम्र का शतक लगा चुके हैं। यहां संतरों की खेती खूब होती है। गांव सामान्य गांवों से बड़ा है। यहां की 5,60,00 की आबादी में 200 लोगों ने पूरी सदी देखी है। यहां तीन सुपर बुज़ुर्ग भी हैं। सुपर बुज़ुर्ग यानी 110 वर्ष से अधिक उम्र वाले। दुनिया भर में ऐसे सिर्फ 400 लोग हैं। ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय मूल के पतिपत्नी ने अपनी शादी की 90वीं सालगिरह मनाई है। उनके आठ बच्चे, 27 पोतेपोतियां और 23 परपोतेपोतियां हैं। यह बुज़ुर्ग जोड़ा अपने सबसे छोटे बेटे पाल व उसकी पत्नी के साथ रहता है। पाल की मानें तो उनकी इतनी लंबी उम्र का प्रमुख राज़ तनाव मुक्त रहना है। वे कहते हैं कि मैंने उन्हें कभी बहस करते हुए नहीं देखा है। गौर करने वाली बात है कि वे दोनों खानेपीने की बंदिशों पर ज़्यादा ध्यान नहीं देते। वे हर चीज खाते हैं। बस मात्रा थोड़ी कम होती है। रेड वाइन पतिपत्नी ज़रूर रोज़ाना पीते हैं।

औसत उम्र के मामले में सबसे अव्वल देश के तौर पर जेहन में जापान का नाम आता है। लेकिन इससे भी आगे है मोनैको। यहां की औसत आयु 89.63 साल है। यहां के लोगों की सबसे खास बात यह है कि वे खानपान के प्रति लापरवाह नहीं होते और तनाव बिलकुल नहीं पालते। हरी सब्ज़ी, सूखे मेवे और रेड वाइन का सेवन यहां सबसे ज़्यादा होता है।

जापान में युवा से अधिक बुज़ुर्ग हैं। यहां की औसत आयु 85 के आसपास है। यहां मछली और खास तरह के कंद का सेवन बहुत ही आम है। तेल का प्रयोग बहुत कम है। स्टीम्ड फूड प्रचलन में है। ग्रीन टी के बिना जापानियों की सुबह नहीं होती। रेड मीट, मक्खन, डेयरी उत्पाद के सेवन से बचते हैं।

सिंगापुर दुनिया के सबसे बड़े पर्यटन स्थलों में से है। पर्यटक वहां की चमक दमक देख दंग रह जाते हैं। वहां का खानपान और ज़िंदादिली और पर्यावरणीय चिंता भी ध्यान देने लायक है। वहां के लोग स्वच्छ और स्वस्थ रहने में विश्वास करते हैं। तनावमुक्त जीवन और अच्छे खानपान के कारण ही यहां के लोगों की औसत आयु 84.07 साल है।

फ्रांस के लोग बहुत तंदुरुस्त होते हैं, औसत आयु 81.56 साल है। यहां के लोग कम मात्रा में रेड वाइन का सेवन करते हैं जो कथित रूप से दिल के लिए अच्छी होती है। साथ ही यहां के लोग नियमित रूप से पैदल चलते हैं और तनाव से दूर रहते हैं। इस फैशनपरस्त देश के लोगों की ज़िंदादिली भी मशहूर है। इटली की तरह यहां के आहार में भी ऑलिव ऑयल का भरपूर प्रयोग होता है। (स्रोत फीचर्स)

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ब्लैक विडो मकड़ी – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

वैसे तो मकड़ी नाम ही डराने के लिए काफी है लेकिन अगर मकड़ी ब्लैक विडो हो तो चिंता होना स्वाभाविक है। वास्तव में तो ये बेहद शालीन होती हैं और एक कोने में दुबककर बैठ जाती हैं पर अनजाने में यदि काट लें तो तेज़ दर्द के साथ पेशियों में ऐंठन और घबराहट होती है तथा डायफ्राम के शिथिल होने के कारण सांस लेने में भी परेशानी होने लगती है। फिर भी काटने के अधिकांश मामलों में विशेष चिकित्सकीय उपचार की आवश्यकता नहीं होती।

यूं तो ब्लैक विडो मकड़ी का वैज्ञानिक नाम लेट्रोडेक्टस है लेकिन इसके अभिलक्षण के आधार पर इसको कई नामों से जाना जाता है। जैसे पीठ पर लाल पट्टी के कारण रेडबैक मकड़ी, बेतरतीब जाले के कारण टेंगल्ड वेब मकड़ी, और कंघेनुमा टांगों के कारण कॉम्ब फूटेड मकड़ी कहा जाता है। कई बार अपने साथी नर को मैथुन के पश्चात खा जाने के कारण इसे आम तौर पर ब्लैक विडो कहा जाता है। लेट्रोडेक्टस मकड़ियां थेरिडिडी कुल से सम्बंधित हैं। इस बड़े कुल में 100 वंशों की लगभग 2200 प्रजातियां सम्मिलित हैं। ये ऊनी रेशम की बजाय चिपचिपे रेशम के द्वारा शिकार को पकड़ती हैं। ब्लैक विडो का विष चिकित्सकीय अध्ययन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इनके द्वारा स्रावित रेशमी धागे की रासायनिक संरचना का अध्ययन और इसकी उपयोगिता भी वैज्ञानिक शोध के आकर्षक क्षेत्र हैं। इनकी लैंगिक स्वजाति भक्षण की प्रवृति भी रहस्यमय है और शोध का आमंत्रण देती है। अत: ब्लैक विडो वैज्ञानिक शोध के लिए प्रयोगशाला के आदर्श जीव हैं।

मेरी प्रयोगशाला में तीन साल पहले कुल 45 वयस्क ब्लैक विडो थीं जिनमें 30 मादा और 15 नर थे। नर की कम संख्या का कारण उनकी आयु कम होना तथा प्रजनन के बाद उनका शहीद हो जाना है। पालने के लिए हमने लैब में प्लास्टिक की पारदर्शी पानी की बोतल में इनका घर बनाया। ढक्कन के ऊपर छोटेछोटे छेद श्वसन के लिए और बोतल में पानी में भीगा रूई का फाहा पानी पीने के लिए रखा जाता है। सभी मकड़ियां परभक्षी होती हैं, इसलिए खुराक में उन्हें तीन दिन में एक बार दो घरेलू मक्खियां या एक टिड्डा दिया जाता है। ब्लैक विडो मकड़ियां जाला बनाकर रहती हैं और वे शिकार करने के लिए पूर्णत: जाले पर ही निर्भर रहती हैं।

बोतल में छोड़ने के बाद ये मकड़ियां सामान्यत: रात में बोतल में उपलब्ध जगह के अनुसार जाला बनाती हैं। कम जगह में छोटा जाला और खुली जगह या प्राकृतिक निवास में बड़ा जाला बनाया जाता है। जाला जितना बड़ा होता है, शिकार की उसमें फंसने की सम्भावनाएं भी उतनी ही अधिक प्रबल होती हैं। दिखने में यह जाला भले ही भद्दा और बेतरतीब हो परंतु शिकार को फांसने में बेजोड़ होता है।

जाले को सतह से जोड़ने के लिए 10-15 आधारतन्तु होते हैं। आधारतन्तु आसपास की जगह जैसे चट्टान, टहनियों आदि से जुड़े रहते हैं। इन तन्तुओं पर ब्लैक विडो मचान बनाती है। मचान से ऊपर एवं नीचे जाने के लिए एक रास्ता भी होता है। मचान के नीचे मकड़ी उल्टी लटकी रहती है। आधारतन्तु के सतह से जुड़ने वाले भाग पर रेशम की अत्यधिक चिपचिपी बूंदें देखी जा सकती हैं। इन्हें गम बूटकहते हैं। रेशमी जाल का प्रत्येक तन्तु प्रोटीन से बनता है। अत: जाल बनाने में सभी मकड़ियों को भारी मात्रा में अपने शरीर का प्रोटीन खर्च करना पड़ता है। मकड़ियों का जाला इस प्रकार से बना होता है कि इस जाले पर आने वाले शिकार की हलचल की तरंगें मकड़ी तक निर्बाध पहुंच सकें और दुश्मनों से बचने में भी मदद मिल सके।

सामान्यत: मकड़ियों में आठ आंखें होती हैं। अधिकांश जाला बनाने वाली मकड़ियों में देखने की क्षमता अल्पविकसित होती है। ब्लैक विडो तथा अन्य जाला बुनने वाली मकड़ियों में आंखें केवल दिन एवं रात का ज्ञान या प्रकाश अवधि का अनुभव करने के लिए विकसित हुई हैं। वे शिकार, प्रजनन व अन्य कार्यों के लिए स्पर्श, स्पंदन एवं रासायनिक अणुओं का उपयोग अधिक करती हैं।

 

शिकार करने का तरीका

जैसे ही शिकार जाले में आता है उससे उत्पन्न तरंगें ब्लैक विडो को सचेत कर देती हैं। विडो तेज़ीसे उस स्थान पर पहुंचकर अपने पिछले सबसे लंबे पैरों के सिरों पर उपस्थित कंघेनुमा बालों की संरचना से रेशम ग्रंथी से निकले धागों को खींच कर शिकार पर लपेटने लगती है। दोनों पैर लगातार एवं एक निश्चित क्रम में इतनी जल्दी लपेटने का कार्य करते हैं कि कुछ ही पलों में शिकार को जकड़ लिया जाता है, वह हिल भी नहीं पाता। विडो तुरन्त शिकार के पास पहुंचकर शिकार के पैरों में ज़हरीले विषदंत चुभा देती है। 

इस मकड़ी का विष लेट्रोटॉक्सिन कहलाता है जो रेटल स्नेक के विष से भी 15 गुना ज़्यादा ज़हरीला होता है। यह मुख्यत: तंत्रिका तंत्र को बुरी तरह प्रभावित करता है और कुछ ही पलों में शिकार के प्राण हर लेता है। ब्लैक विडो शिकार को जगहजगह काट कर अपने पाचक एंज़ाइम युक्त विष को भारी मात्रा में शिकार के शरीर में डाल देती है। इससे शिकार के अंग गलकर चूसने लायक हो जाते हैं। ब्लैक विडो के विष में 75 विभिन्न प्रकार के प्रोटीन पाए जाते हैं। शिकार के शरीर को नष्ट करने के लिए सभी प्रोटीन सम्मिलित रूप से काम करते हैं। विष प्रोटीन में सबसे महत्वपूर्ण 7 लेट्रोटॉक्सिन अणु होते हैं। इनमें से पांच अकशेरुकी प्राणी, जैसे कीट पतंगों पर विशेष रूप से काम करते हैं किंतु शेष दो में से एक अल्फा लेट्रोटॉक्सिन अणु रीढ़धारियों पर भी प्रभावशील होता है। इस अणु पर ही सबसे ज़्यादा अध्ययन किया गया है। लेट्रोटॉक्सिन का एक अणु तो विशेषत: केवल क्रस्टेशियंस (केंकड़े, झींगे आदि) को मारने के लिए ही विकसित हुआ है। लेट्रोटॉक्सिन तंत्रिकाओं के सिरों से न्यूरोट्रांसमीटर और कैल्शियम आयन को बाहर निकाल देता है। इससे तंत्रिकाएं डिपोलेराइज़्ड हो जाती हैं तथा संदेश वहन नहीं कर पातीं। परिणामस्वरूप शिकार तुरंत लकवाग्रस्त हो जाता है।

भोजन

जाला बनाने वाली सभी मकड़ियों को रोज़ शिकार करने की ज़रूरत नहीं होती। एक अच्छा शिकार मिलने पर ये उसका बहुत सारा रस चूस लेती हैं। मकड़ियों का उदर गुब्बारे की तरह खूब फैल सकता है। भरपेट भोजन के बाद ये कई दिनों तक न खाएं तो भी इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। लैब में पाली हुई मकड़ियों को भी हम खाने के लिए टिड्डे, ड्रैगनफ्लाय, डेमसलफ्लाय, फूलगोभी तथा मटर की फलियों से प्राप्त इल्ली, छिपकली के बच्चे, कॉकरोच और मक्खी देते हैं।

एगसेक से निकले ढेर सारे नवजात बच्चों को खाना खिलाना थोड़ा मुश्किल काम है क्योंकि एक एगसेक से एक बार में लगभग 200 बच्चे निकलते हैं। एगसेक से बच्चे निकलने के दो दिन पहले एगसेक को एक बड़ी बोतल में अलग से रख देते हैं। बेहद छोटे स्पाइडरलिंग (नवजात शिशु) को खिलाने के लिए विशेष तौर पर ड्रॉसोफिला यानी फ्रूटफ्लाई को कल्चर किया जाता। इन्हें पालना मुश्किल नहीं है। जैसे ही स्पाइडरलिंग को खिलाने के लिए ड्रॉसोफिला को बॉटल में छोड़ते हैं, वह जाले में फंसकर छटपटाती है। जाले में शिकार से उत्पन्न तरंगों से ब्लैक विडो के बच्चे ड्रॉसोफिला को घेर कर शिकार करते हैं। कुछ बच्चे इस प्रक्रिया में फंसकर अन्य बच्चों का शिकार भी बनते हैं। लगभग एक महीने बाद 30 प्रतिशत बच्चे ही जीवित बचते हैं। जब ये स्वयं शिकार करने लायक हो जाते हैं तब उन्हें अलगअलग बोतलों में पाला जाता है।

प्रजनन

स्पाइडरलिंग जैसेजैसे बड़े होते हैं, अपनी पुरानी त्वचा को छोड़ देते हैं। यह सांप की केंचुली निकालने जैसा ही है। पुरानी त्वचा त्यागते समय कुछ देर के लिए स्पाइडरलिंग अपंग हो जाते हैं। इस समय शिकारी के आक्रमण करने पर ये बचाव में असमर्थ होते हैं। वयस्क होने तक नर ब्लैक विडो 7 बार एवं मादा 9 बार अपनी पुरानी त्वचा बदलते हैं। अंतिम बार त्वचा त्यागने के बाद ही नर में, मादा जननांग में वीर्य डालने के लिए फूले हुए पेडीपेल्प विकसित होते हैं। नर मादा से आकार में छोटे और वज़न में हल्के होते हैं। नर का शरीर पूर्णत: काला होने की बजाय सफेद एवं काले रंग की धारियों वाला होता है। इस प्रकार से नर एवं मादा ब्लैक विडो में स्पष्ट लैंगिक द्विरूपता दिखाई देती है। नर तीन महीनों में वयस्क हो जाते हैं किंतु मादा को वयस्क होने में छ: महीने लगते हैं।  

मादा ब्लैक विडो को पृथक करने के लिए बड़ी बॉटल में स्थानांतरित करने के तीन दिन बाद नर को उस बॉटल में छोड़ा जाता है। तीन दिनों में मादा पहले से बोतल में रखी एक सूखी लकड़ी के साथ रात को जाला बना लेती है। जैसे ही नर को बोतल में छोड़ा जाता है, नर को तुरंत पता चल जाता है कि उसे किसी वर्जिन मादा के जाल में छोड़ा गया है। मादा ब्लैक विडो अनभिज्ञ दिखती है तथा चुपचाप बैठी रहती है परंतु वह जानती है कि जाल में शिकार नहीं, नर आया है। स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से पता लगाया जा सकता है कि रेशमी धागे को पकड़ने वाले उसके पैरों के टारसस (पैर का सबसे निचला भाग) वाले भाग में पाए जाने वाले बाल वास्तव में धागों पर उपस्थित रसायनों को पहचानने वाले संवेदना ग्राही होते हैं।

नर ब्लैक विडो भी जाले में मादा की उपस्थिति को भांपकर जाले के धागों को गिटार के समान बजाने लगता है। इन कंपनों को केवल उसकी प्रजाति की मादाएं ही समझ सकती हैं। नर पेट को लगातार दोनों तरफ हिलाता है तथा मादा के समीप पहुंचने के लिए कुछ धागों को तोड़ता है। इससे मादा जाले में एक ही जगह तक सीमित हो जाती है। इस तरह मादा द्वारा नर को खाए जाने के जोखिम को कम किया जाता है। नर मादा के ऊपर भी अपने रेशमी धागों को लपेटकर उसे कैद कर लेते हैं। रेशमी धागों में लगे रसायन मादा को शांत रखते हैं तथा नर को मादा के आक्रमण से बचाए रखने का उपाय भी हैं। इस दौरान नर एक भी गलती करे, तो मादा उसे शिकार समझती है और नर को मौत की सज़ा मिलती है।

स्वजातिभक्षण

जाला बनाने वाली मकड़ियों में समागम भी अनोखे प्रकार का होता है। नर अपने जननांग से वीर्य की एक बूंद जाल के धागे पर डाल देता है और अपने पिचकारी के समान काम करने वाले पेडीपेल्प में वीर्य को भरकर मादा जननांगों में छोड़ देता है। पेडीपेल्प में किरेटिन से बनी कुण्डलित नली मादा के जननांग में वीर्य को पहुंचाने में इस्तेमाल होती है। पूरी प्रक्रिया में नर उल्टी लटकी हुई मादा के पेट पर लेटकर एक पेडीपेल्प का उपयोग करता है। आधे घण्टे बाद यही प्रक्रिया दूसरे पेडीपेल्प से की जाती है। कुण्डलित नली को मादा जननांग से निकालते समय नर 180 डिग्री की कलाबाज़ी करके पलटता है। इस समय नर का उदर मादा के मुंह के समीप आ जाता है। समागम के समय नर का हिलता हुआ उदर मादा को उसे खाने के लिए उकसाता है। इस प्रकार 30 प्रतिशत समागम के मामलों में मादा नर को खा जाती है तथा विधवा बन जाती है। इसलिए इन मादाओं को ब्लैक विडो नाम दिया गया है।

प्राणि जगत में कई प्रजातियों में प्रजनन के बाद नर को खाने का स्वभाव देखा गया है। मादा को अधिक पोषण प्राप्त हो सके, यह इसका एक कारण हो सकता है। परन्तु पेट भरी हुई ब्लैक विडो भी यह कृत्य करती है। इसलिए कुछ वैज्ञानिक नर के इस व्यवहार को  प्रकृति प्रदत्त तथा जानबूझकर किया बलिदान का कार्य बताते हैं। वे कहते हैं कि इसके लिए नर में उदर की खांच का विकसित होना एक अनुकूली लक्षण है। पर मुझे ऐसा नहीं लगता। आपको क्या लगता है?

ब्लैक विडो को आप भी पालें और इन रहस्यों से पर्दा उठाएं। महाराष्ट्र, गुजरात एवं मध्यप्रदेश की सरहद के बहुतसे बीहड़ों और जंगलों में ब्लैक विडो मिलती हैं। मुझे भी इन्हीं इलाकों में ऐसे ही मिली थीं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मकड़ी का रेशम स्टील से 5 गुना मज़बूत

क्सर मकड़ी का जाला देखकर या उससे टकराने पर भी हमें उसकी ताकत का अंदाज़ा नहीं लगता। लेकिन मकड़ी का जाला मानव के बराबर हो तो वह एक हवाई जहाज़ को जकड़ने की क्षमता रखता है। हाल ही में वैज्ञानिकों ने इन रेशमी तारों की मज़बूती का कारण पता लगाया है।

मकड़ी के रेशम की स्टील से भी अधिक मज़बूती का पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों ने परमाणु बल सूक्ष्मदर्शी की मदद से विषैली ब्राउन मकड़ियों के रेशम का विश्लेषण किया। इस रेशम का उपयोग वे ज़मीन पर अपना जाला बनाने और अपने अंडों को संभाल कर रखने के लिए करती हैं। एसीएस मैक्रो लेटर्स में प्रकाशित रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने बताया है कि जाले का प्रत्येक तार मानव बाल से 1000 गुना पतला है और हज़ारों नैनो तंतुओं से मिलकर बना है। और प्रत्येक तार का व्यास मिलीमीटर के 2 करोड़वें भाग के बराबर है। एक छोटे से केबल की तरह, प्रत्येक रेशम फाइबर पूरी तरह से समांतर नैनो तंतुओं से बना होता है। इस फाइबर की लंबाई करीब 1 माइक्रॉन होती है। यह बहुत लंबा मालूम नहीं होता लेकिन नैनोस्केल पर देखा जाए तो यह फाइबर के व्यास का कम से कम 50 गुना है। शोधकर्ताओं का ऐसा मानना है कि वे इसे और अधिक खींच सकते हैं।

वैसे पहले भी यह मत आए थे कि मकड़ी का रेशम नैनोफाइबर से बना है, लेकिन अब तक इस बात का कोई सबूत नहीं था। टीम का मुख्य औज़ार था ब्राउन रीक्ल्यूस स्पाइडर का अनूठा रेशम जिसके रेशे बेलनाकार न होकर चपटे रिबन आकार के होते हैं। इस आकार के कारण इसे शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी लेंस के नीचे जांचना काफी आसान हो जाता है।

यह नई खोज पिछले साल की एक खोज पर आधारित है जिसमें यह बताया गया था कि किस प्रकार ब्राउन रीक्ल्यूस स्पाइडर छल्ले बनाने की एक विशेष तकनीक से रेशम तंतुओं को मज़बूत करती है। एक छोटीसी सिलाई मशीन की बदौलत यह मकड़ी रेशम के प्रत्येक मिलीमीटर में लगभग 20 छल्ले बनाती है, जो उनके चिपचिपे स्पूल को अधिक मज़बूती देती है और इसे पिचकने से रोकती है।

शोधकर्ताओं का मत है कि भले चपटे रिबन और छल्ला तकनीक सभी मकड़ियों में नहीं पाई जाती, किंतु रीक्ल्यूस रेशम का अध्ययन अन्य प्रजातियों के रेशों पर शोध का एक रास्ता हो सकता है। ऐसे अध्ययन से मेडिसिन और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में नई सामग्री बनाने के रास्ते बनाए जा सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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अरावली पहाड़ियां बची रहीं, तो पर्यावरण भी बचा रहेगा – जाहिद खान

शीर्ष अदालत ने हाल ही में दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु प्रदूषण से उत्पन्न स्थिति से सम्बंधित एक मामले की सुनवाई करते हुए, जिस तरह से राजस्थान सरकार को 48 घंटे के अंदर राज्य के 115.34 हैक्टर क्षेत्र में गैरकानूनी खनन बंद करने का सख्त आदेश दिया है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए। अदालत के इस आदेश से न सिर्फ राजस्थान के पर्यावरण की रक्षा होगी, बल्कि दिल्ली के पर्यावरण में भी सुधार आएगा, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण का स्तर कम होगा। लोगों को प्रदूषण और उससे होने वाले नुकसान से निजात मिलेगी।

जस्टिस मदन बी. लोकुर और जस्टिस दीपक गुप्ता की पीठ का इस बारे में कहना था कि यद्यपि राजस्थान को अरावली में खनन गतिविधियों से करीब पांच हज़ार करोड़ रुपए की रॉयल्टी मिलती है, लेकिन वह दिल्ली में रहने वाले लाखों लोगों की ज़िंदगी ख़तरे में नहीं डाल सकती। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण का स्तर बढ़ने की एक बड़ी वजह अरावली पहाड़ियों का गायब होना भी हो सकता है। अदालत ने यह आदेश सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति की उस रिपोर्ट के आधार पर दिया है, जिसमें कहा गया है कि पिछले 50 सालों में अरावली पर्वत शृंखला की 128 पहाड़ियों में से 31 पहाड़ियां गायब हो गई हैं।

केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति के वकील ने सर्वोच्च न्यायालय से अनुरोध किया था कि अरावली क्षेत्र में गैरकानूनी खनन गतिविधियां रोकने के लिए कठोर से कठोर कदम उठाने चाहिए, क्योंकि राज्य सरकार इन गतिविधियों के खिलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं कर रही है। सुनवाई के दौरान जब अदालत ने राजस्थान सरकार से इस बारे में पूछा कि अरावली क्षेत्र में अवैध खनन रोकने के लिए उसने क्या कदम उठाए हैं, तो सरकार की दलील थी कि उनके यहां के सभी विभाग गैरकानूनी खनन रोकने के लिए अपनाअपना कामकर रहे हैं। सरकार ने इस सम्बंध में कारण बताओ नोटिस जारी करने के अलावा कई प्राथमिकी भी दर्ज की हैं। लेकिन अदालत सरकार की इन दलीलों से संतुष्ट नहीं हुई। पीठ ने नाराज होते हुए कहा कि वह राज्य सरकार की स्टेटस रिपोर्ट से बिल्कुल भी इत्तेफाक नहीं रखती, क्योंकि अधिकांश ब्यौरे में सारा दोष भारतीय वन सर्वेक्षण यानी एफएसआई पर मढ़ दिया गया है। सरकार अरावली पहाड़ियों को गैरकानूनी खनन से बचाने में पूरी तरह से नाकाम रही है। उसने इस मामले को बेहद हल्के में लिया है। जिसके चलते समस्या बढ़ती जा रही है। अदालत ने इसके साथ ही राजस्थान के मुख्य सचिव को अपने आदेशों की पूर्ति के संदर्भ में एक हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया। बहरहाल अब इस मामले में अगली सुनवाई 29 अक्टूबर को होगी।

राजस्थान, हरियाणा, गुजरात और दिल्ली में फैली अरावली पर्वत शृंखला सैकड़ों सालों से गंगा के मैदान के ऊपरी हिस्से की आबोहवा तय करती आई है, जिसमें वर्षा, तापमान, भूजल रिचार्ज से लेकर भूसंरक्षण तक शामिल है। ये पहाड़ियां दिल्ली, हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश को धूल, आंधी, तूफान और बाढ़ से बचाती रही हैं। लेकिन हाल का एक अध्ययन बतलाता है कि अरावली में जारी खनन से थार रेगिस्तान की रेत दिल्ली की ओर लगातार खिसकती जा रही है। राजस्थान से लेकर हरियाणा तक एक विशाल इलाके में अवैध खनन से ज़मीन की उर्वरता खत्म हो रही है। इससे हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सूखा और राजस्थान के रेतीले इलाके में बाढ़ के हालात बनने लगे हैं। प्रदूषण से मानसून का पैटर्न बदला है। मानसून के इस असंतुलन से इन इलाकों के रहवासियों को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने साल 2002 में इस क्षेत्र के पर्यावरण को बचाने के लिए खनन पर पाबंदी लगा दी थी। बावजूद इसके खनन नहीं रुका है। सरकार की आंखों के सामने गैरकानूनी तरीके से खनन होता रहता है और वह तमाशा देखती रहती है। राजस्थान सरकार ने खुद अदालत में यह बात मानी है कि उसकी लाख कोशिशों के बाद भी राज्य में अवैध खनन जारी है।आज हालत यह है कि राज्य के 15 ज़िलों में सबसे ज़्यादा अवैध खनन हो रहा है। अवैध खनन की वजह इस इलाके में कॉपर, लेड, ज़िंक, सिल्वर, आयरन, ग्रेनाइट, लाइम स्टोन, मार्बल, चुनाई पत्थर जैसे खनिज पाए जाना है। प्रदेश के कुल खनिजों में से 90 फीसदी खनिज अरावली पर्वत शृंखला और उसके आसपास हैं। नियमों के मुताबिक अरावली पर्वत शृंखला की एक कि.मी. परिधि में खनन नहीं हो सकता, लेकिन वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने नियमों में संशोधन कर राजस्थान के कई ऐसे भूभाग शामिल कर लिए हैं, जो इनके नज़दीक है।

तमाम अदालती आदेशों के बाद भी अवैध खनन के खिलाफ न तो राजस्थान सरकार और प्रशासन ने कोई प्रभावी कार्रवाई की है और न ही केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय इस पर लगाम लगा पाया है। सरकार की लापरवाही और उदासीनता का ही नतीजा है कि खनन माफिया बेखौफ होकर अरावली की पहाड़ियों को खोखला कर रहा है। लेखा परीक्षक और नियंत्रक की एक रिपोर्ट कहती है कि राजस्थान के अंदर अरावली पर्वत शृंखला क्षेत्र में नियमों को ताक में रखकर खनन के खूब पट्टे जारी किए गए, उनका नवीनीकरण किया गया या उन्हें आगे बढ़ाया गया। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने भी इसके लिए अपनी मंज़ूरियां दीं। नतीजा यह है कि अरावली पर्वत शृंखला की पहाड़ियां एक के बाद एक गायब होती जा रही हैं। कुछ लोगों के स्वार्थ के चलते लाखों लोगों को नुकसान उठाना पड़ रहा है। यदि सरकार अब भी इसे बचाने के लिए नहीं जागी, तो इस क्षेत्र का पूरा पर्यावरण खतरे में पड़ जाएगा। अरावली पर्वत शृंखला बची रहेगी, तो इस क्षेत्र का पर्यावरण भी बचा रहेगा। (स्रोत फीचर्स)

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बिना इंजन के विमान ने भरी उड़ान

वैज्ञानिकों ने एक ऐसा हवाई जहाज़ तैयार किया है जिसमें कोई भी हिस्सा हिलताडुलता या घूमता नहीं है। आम तौर पर हवाई जहाज़ों में या तो पंखे घूमते हैं या जेट इंजिन की मोटर घूमती है। यह नए किस्म का हवाई जहाज़ जिस तकनीक से उड़ेगा उसे इलेक्ट्रोएयरोडाएनेमिक्स (ईएडी) कहते हैं।

वैसे तो इंजीनियर काफी समय से आश्वस्त थे कि ईएडी की मदद से हवाई जहाज़ उड़ाए जा सकते हैं किंतु किसी ने इसका कामकाजी मॉडल तैयार नहीं किया था। वैसे नासा अपने अंतरिक्ष यानों में इस तकनीक का उपयोग करता रहा है।

ईएडी तकनीक में किया यह जाता है कि ज़ोरदार वोल्टेज लगाकर गैस को आयन में परिवर्तित किया जाता है। इन आयनों में काफी गतिज ऊर्जा होती है और ये आसपास की हवा को पीछे की ओर धकेलते हैं। हवा की इस गति के प्रतिक्रियास्वरूप हवाई जहाज़ आगे बढ़ता है।

पूरे सात साल के प्रयासों के बाद कैम्ब्रिज स्थित मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के इंजीनियर स्टीवन बैरेट की टीम इस तकनीक से हवाई जहाज़ को उड़ाने में सफल हुई है। वैसे यह हवाई जहाज़ बहुत छोटा सा था और इसे तकनीक का प्रदर्शन मात्र माना जा सकता है किंतु कई टेक्नॉलॉजीविदों का मत है कि यह भविष्य की दिशा तय कर सकता है।

बैरेट की टीम ने जो हवाई जहाज़ बनाया वह मात्र 2.45 कि.ग्रा. का है। इसके डैने करीब 5 मीटर के हैं। डैनों के ऊपर इलेक्ट्रोड लगे हैं जिनके बीच वायु के अणुओं का आयनीकरण होता है। इलेक्ट्रोड्स के बीच वोल्टेज का मान 40,000 वोल्ट होता है। टीम ने इस हवाई जहाज़ का परीक्षण अपने संस्थान के जिम्नेशियम में किया। कई बार की कोशिशों के बाद अंतत: उनका हवाई जहाज़ ज़मीन से आधा मीटर ऊपर 6 मीटर प्रति सेकंड की रफ्तार से 60 मीटर तक उड़ा।

इस पैमाने पर तकनीक को लागू कर लेने के बाद सवाल आएगा इसे बड़े हवाई जहाज़ों के साथ कर पाने का। सभी लोग सहमत हैं कि वह एक बड़ी समस्या होने वाली है क्योंकि जैसेजैसे यान का आकार बढ़ेगा, उसका वज़न भी बढ़ेगा और उसे हवा में ऊपर उठाने तथा आगे बढ़ाने के लिए जितनी शक्ति लगेगी उसके लिए इलेक्ट्रोड तथा बिजली की व्यवस्था आसान नहीं होगी। फिलहाल बैरेट और उनकी टीम इस तकनीक का इस्तेमाल ड्रोन जैसे छोटे यानों में करने पर विचार कर रही है किंतु उन्हें उम्मीद है कि एक दिन वे इसका उपयोग यातायात के क्षेत्र में कर पाएंगे। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसमें शोर बिलकुल नहीं होता। किंतु यह भी सोचने का विषय होगा कि इतने बड़े पैमाने पर वायु का आयनीकरण करना पर्यावरण को कैसे प्रभावित करेगा। (स्रोत फीचर्स)

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कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य पूरा नहीं कर पा रहे राष्ट्र

यूएन एनवायरनमेंट प्रोग्राम द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ग्रुप ऑफ 20 के देशों ने पेरिस समझौते में निर्धारित किए गए लक्ष्यों को पूरा करने के लिए पर्याप्त उपाय नहीं किए हैं। रिपोर्ट में पाया गया है कि तीन साल की स्थिरता के बाद  वैश्विक कार्बन उत्सर्जन निरंतर बढ़ रहा है। इस वृद्धि के कारण जलवायु परिवर्तन के खतरनाक स्तर को रोकने के लिए निर्धारित लक्ष्य और वास्तविक स्थिति के बीच उत्सर्जन अंतरपैदा हुआ है।  यह 2030 में अनुमानित उत्सर्जन स्तर और ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री से 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के अंतर को दर्शाता है।

वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के लिए समय ज़्यादा नहीं बचा है। अगर उत्सर्जन अंतर 2030 तक खत्म नहीं होता है, तो वैश्विक तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा बढ़ जाएगा।

वर्तमान हालत को देखते हुए रिपोर्ट ने ग्रुप ऑफ 20 देशों से आग्रह किया है कि 2 डिग्री की दहलीज़ तक सीमित रखने के लिए पेरिस समझौते के लक्ष्यों के अनुसार उत्सर्जन तीन गुना कम करना होगा। और यदि यह लक्ष्य 1.5 डिग्री निर्धारित किया जाए तो उत्सर्जन पांच गुना कम करना होगा।

वर्ष 2017 में उत्सर्जन का रिकॉर्ड स्तर 53.5 अरब टन दर्ज किया गया। इसको कम करने के लिए शहर, राज्य, निजी क्षेत्र और अन्य गैरसंघीय संस्थाएं जलवायु परिवर्तन पर मज़बूत कदम उठाने के लिए सबसे उपयुक्त हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, 2030 तक वैश्विक तापमान के अंतर को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन को 19 अरब टन तक कम करने की आवश्यकता है।

वैसे तो सभी देशों को इस क्षेत्र में काम करने की आवश्यकता है लेकिन इसमें भी विश्व के 4 सबसे बड़े उत्सर्जक चीन, अमरीका, युरोपीय संघ और भारत को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इन चार देशों ने पिछले दशक में विश्व भर में होने वाले ग्रीनहाउस उत्सर्जन में 56 प्रतिशत का योगदान दिया है। 

चीन अभी भी 27 प्रतिशत के साथ अकेला सबसे बड़ा योगदानकर्ता है। दूसरी तरफ, संयुक्त राज्य अमेरिका और युरोपीय संघ वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के पांचवें भाग से अधिक के लिए ज़िम्मेदार हैं। रिपोर्ट में आशंका जताई गई है कि अगर हम अभी भी तेज़ी से कार्य करते हैं तो क्या पेरिस समझौते के 1.5 डिग्री सेल्सियस वृद्धि के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को पूरा करना पाना संभव है।

यूएस संसद से सम्बंद्ध हाउस एनर्जी एंड कॉमर्स कमेटी के शीर्ष डेमोक्रेट फ्रैंक पेलोन के अनुसार अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का प्रशासन जलवायु परिवर्तन से निपटने और कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए अमेरिकी प्रयासों को कमज़ोर कर रहा है। पेलोन का स्पष्ट मत है कि अगर हम ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को नियंत्रण में नहीं लाते हैं, तो आने वाले समय में और भी घातक जलवायु परिवर्तन तथा वैश्विक तपन जैसे परिणामों के लिए तैयार रहें। (स्रोत फीचर्स)

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हंसने से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है – नरेंद्र देवांगन

नुष्य को जब किसी चीज की ज़रूरत होती है तो उसे प्राप्त करने के लिए तनाव पैदा होता है और उस वस्तु को प्राप्त करने की दिशा में काम करने से वह तनाव घटता है। इसे इस तरह समझ लीजिए कि बच्चा जब भूखा होता है तो वह रोता है। यह बच्चे का तनाव है। मां जब बच्चे को दूध पिला देती है तो उसका तनाव घट जाता है।

हमारा व्यवहार अधिकतर हमारी आंतरिक ज़रूरतों पर आधारित रहता है। शरीर में जब रोग पैदा होते हैं तो उनसे लड़ने की ज़रूरत पड़ती है। इसके लिए जब तक शरीर को हंसी का टॉनिक नहीं दिया जाएगा तब तक वह तनावरहित स्थिति में होकर संघर्ष करने की मनोस्थिति नहीं बना पाएगा। इसलिए सदा हंसते रहिए, डॉक्टरी सलाह पर ही सही।

न्यूयार्क के एक बाल चिकित्सालय में बच्चों को खुश रखने के लिए टमाटर जैसी नाक लगाए एक मसखरा सर्कस के जोकर की तरह अपने करतब दिखाता रहता है। बच्चों को अपने रोग से लड़ने की शक्ति प्रदान करने का यह एक मनोवैज्ञानिक तरीका है। इससे उनके निरोग होने के अलावा उनकी शारीरिक दशाओं पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है। लेखक नार्मिन कज़िंस को जब गठिया रोग ने जकड़ा तो उन्होंने विटामिन सी की खुराकों के साथ गुदगुदाने वाले साहित्य का अनुशीलन भी किया और उनका मंचन भी जी भरकर देखा। कज़िंस के अधिकतर हास्य साहित्य की रचना भी उसी कालावधि की बताई जाती है।

इस मान्यता ने कि शरीर की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली को मस्तिष्क प्रभावित कर सकता है, चिकित्सा जगत के उस भारीभरकम नाम वाले विज्ञान को जन्म दिया है जिसे साइकोन्यूरोइम्यूनोलॉजीकहते हैं। हिंदी में इसे मनोतंत्रिकारोध क्षमता विज्ञानके उतने ही विशालकाय नाम से जानते हैं।

इस क्षेत्र में हुए अधिकतर अनुसंधान ने न्यूरोट्रांसमीटर्स की कार्यप्रणाली को अपना केंद्र बनाया है। मस्तिष्क, इम्यून सिस्टम और कुछ तंत्रिका कोशिकाओं से स्रावित रसायन शरीर के अंदर संदेशों को इधर से उधर पहुंचाते हैं। इन्हें न्यूरोट्रांसमीटर या तंत्रिका संदेशवाहक कहते हैं। इसमें हंसी ने अपना दखल कहां जमाया है, इसे समझना कोई मुश्किल काम नहीं।

अगर किसी बात से हंसतेहंसते आपके पेट में बल पड़ जाएं तो वह हंसी मस्तिष्क को ऐसे पदार्थ न बनाने देने के लिए प्रोत्साहित करती है जो रोग प्रतिरोधक प्रणाली को शिथिल करते हैं जैसे कॉर्टिसोन। तो हंसी ऐसा पदार्थ बनाने के लिए प्रेरित करती होगी, जिससे रोग प्रतिरक्षा प्रणाली को ताकत मिलती है। शक्ति प्रदान करने वाले इस पदार्थ को बीटाएन्डॉर्फिन कहते हैं।

यह एक परिकल्पना है लेकिन इसे समर्थन देने वाले अधिक आंकड़े या आधार सामग्री अभी नहीं मिली है। इसके लिए हंसी का मायावी स्वभाव भी उतना ही ज़िम्मेदार है जितनी कि रोग प्रतिरक्षा तंत्र की जटिलता। इसके साथ ही एक बात यह भी है कि रोग प्रतिरक्षा कोशिकाओं में होने वाले क्षणिक और अस्थायी परिवर्तनों को पहचानना मुश्किल है। अब तक इस बात का पता नहीं लग पाया है कि थोड़े समय के लिए, कभीकभी होने वाले रोग प्रतिरक्षात्मक परिवर्तनों से कोई स्थायी स्वास्थ्य लाभ होता है।

कुछ अनुसंधानकर्ता और मनोवैज्ञानिक इसका समर्थन करते हैं। बोस्टन विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मैकक्लीलैंड के अनुसार हंसी और शरीर को निरोग रखने वाले तत्वों के बीच का सम्बंध बड़ा स्थूल है, क्योंकि आपके रोग प्रतिरक्षा तत्व, मनोवैज्ञानिक तत्व, हार्मोन सम्बंधी तत्व और उसके ऊपर आपकी बीमारी इनको प्रभावित करती रहती है। अमरीका स्थित लोमा लिंडा युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन के प्रोफेसर ली. बर्क ने हंसी के दौरान मनुष्य के हार्मोन तथा श्वेत रक्त कोशिकाओं में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन किया। उन्होंने इस सिद्धांत का समर्थन किया कि मधुर मुस्कान, हल्की हंसी या अट्टहास शरीर के लिए लाभदायक है, क्योंकि इससे रोग प्रतिरक्षा क्रिया को शिथिल करने वाले तत्व (जैसे एपिनेफ्रीन और कॉर्टिसोन) मार खाते हैं। पेनसिल्वेनिया स्थित पाओली स्मारक अस्पताल ने एक उदाहरण पेश किया था। जिसमें बताया गया था कि जिन रोगियों के कमरों की खिड़कियों से वृक्ष और हरीभरी घाटियां दिखाई देती हैं उन्हें पीड़ा कम महसूस होती है। उनके रोग में पेचीदगियां भी उतनी नहीं आतीं और वे चंगे भी जल्दी होते हैं बनिस्बत उनके जो सिर्फ र्इंट और पत्थर के ढांचे देखते रहते हैं।

कुछ कैंसर रोगियों के अनुभवों से भी यही पता चलता है कि जिन लोगों ने अपने रोग से लड़ने की इच्छाशक्ति जाग्रत कर ली, वे अधिक दिन जीवित रहे और बेहतर तरीके से जिए। इस प्रकार के अध्ययनों के परिणाम से कुछ कैंसर अस्पतालों ने अपनी चिकित्सा पद्धति में इस प्रकार की व्यवस्था की है जिससे मरीज़ों में संघर्ष करने का माद्दा पैदा किया जा सके।

स्टैनफर्ड मेडिकल स्कूल के मनोचिकित्सक विलियम फ्राई के अनुसार दिन में 100 से 200 बार हंसना 10 मिनट नाव चलाने के बराबर है। खुलकर हंसने से शरीर में जो हलचल होती है उससे दिल की गति बढ़ती है, रक्तचाप में वृद्धि होती है, श्वसन क्रिया में तेज़ी आती है तथा ऑक्सीजन के उपभोग में बढ़ोतरी होती है। योग की एक क्रिया में मुंह खोलकर ज़ोर से हंसने को भी शामिल किया गया है जिससे चेहरे, कंधों, पेट और नितम्बों की मांसपेशियां हरकत में आती हैं। इसी प्रकार जिसे हंसतेहंसते दोहरा हो जाना कहते हैं, उससे पैरों और हाथों की मांसपेशियों की भी कसरत हो जाती है।

हंसी का दौर जब शांत हो जाता है तो विश्रांति की एक संक्षिप्त अवधि आ जाती है जिसमें सांस तथा दिल की धड़कन की गति धीमी पड़ जाती है। कभीकभी तो सामान्य स्तर से भी नीचे पहुंच जाती हैं। रक्तचाप भी गिर जाता है। फ्राई का कहना है कि हंसी की पर्याप्त मात्रा से दिल के रोग, अवसाद और उससे सम्बंधित अन्य खतरे दूर नहीं तो कम ज़रूर हो जाते हैं।

मनुष्य की तंत्रिकाओं को शांत करने में हंसी का योगदान किस सीमा तक होता है, उसका अध्ययन कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की सबीना वाइट ने किया है। उन्होंने 87 विद्यार्थियों को प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति में रखकर उनको गणित के जटिल सवाल हल करने को दिए। जब इन विद्यार्थियों के मस्तिष्क पर दबाव काफी बढ़ गया तो उन्हें रोमांचकारी और मनोरंजक दृश्य दिखाए गए और टेप सुनाए गए। फिर उन्होंने उनकी मनोदशा में परिवर्तन और चिंता के स्तर के मापन के साथ ही त्वचा के तापमान, त्वचा की चालकता और दिल की धड़कन की गति में हुए परिवर्तनों का भी जायज़ा लिया।

टेप सुनने और मनोरंजक दृश्य देखने से विद्यार्थियों के अवसाद की स्थिति में कमी तो ज़रूर आई लेकिन इससे हर विद्यार्थी को समान लाभ नहीं हुआ। सबीना वाइट के अनुसार तनाव की स्थिति को कम करने के लिए शिथिलन तकनीक का इस्तेमाल कोई भी कर सकता है, लेकिन इसमें हास्य की भूमिका बिलकुल निराली है। कामेडी टेप से जिन लोगों को लाभ हुआ वे वही लोग थे जो ऐसी परिस्थितियों से निपटने के लिए नियमित रूप से हास्य का सहारा लेते हैं।

फुलर्टन स्थित कैलिफोर्निया स्टेट युनिवर्सिटी में नर्सिंग विभाग की पीठासीन अधिकारी वेटा रॉबिंसन हास्य के क्षेत्र में काम करती हैं। वे अपने अध्ययन के आधार पर कहती हैं कि जब आप हंसते हैं तो आप चिंता, भय, संकोच, विद्वैष, और क्रोध से मुक्त हो जाते हैं। वेटा रॉबिंसन ने अपना एक अनुभव बताया कि ऑपरेशन के बाद हास्य से स्वास्थ्य लाभ की गति बेहतर हो जाती हैं।

आंकड़े चाहे जो कहें, लेकिन यह सच है कि ऐसे अस्पतालों की संख्या बढ़ रही है, कम से कम विदेशों में तो निश्चित रूप से ही, जिन्होंने हास्य को अपना व्यवसाय बनाया है। टमाटर जैसी नाक वाले जोकर, हास्य से भरपूर पुस्तकें, बच्चों के लिए चाबी वाले खिलौने तथा विनोद पैदा करने वाले अन्य साज़ोसामान अब अस्पतालों में भरे पड़े हैं।

अपने मन में यह आशा जगा लेना कि आप स्वस्थ हो जाएंगे का मतलब यह नहीं है कि आपकी बीमारी आईगई हो गई। लेकिन इसका मतलब यह ज़रूर है कि आपके स्वस्थ होने की संभावनाएं अब भी हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सितारों की आतिशबाज़ी का अंदेशा

मारी आकाशगंगा में तारों का एक तंत्र शायद निकट भविष्य में आतिशबाज़ी दिखाएगा। वैसे तो सितारों के ऐसे खेल पृथ्वी और उसके जीवन के लिए संकट का सबब बन सकते हैं किंतु वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इस बार किसी संकट की आशंका नहीं है।

तारों का यह तंत्र हमसे करीब 8000 प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित है, जिसका अर्थ है कि वहां जो कुछ होता है उसकी सूचना हमें 8000 वर्षों बाद मिलती है। इस तारातंत्र का नाम मिस्र के एक सर्प देवता के नाम पर एपेप है। इस तंत्र में दो तारे हैं और उनके आसपास सर्पिलाकार धूल का बादल है। इनमें से एक तारा असामान्य रूप से भारीभरकम सूर्य है जिसका नाम है वुल्फरेयत तारा। जब ऐसे भारीभरकम तारों का र्इंधन चुक जाता है तो वे पिचकते हैं, जिसकी वजह अत्यंत तेज़ रोशनी पैदा होती है, जिसे सुपरनोवा विस्फोट कहते हैं। सिद्धांतकारों का मत है कि यदि कोई तारा काफी तेज़ी से घूर्णन कर रहा हो, तो ऐसे सुपरनोवा विस्फोट के समय इसके दोनों ध्रुवों से गामा किरणों का ज़बरदस्त उत्सर्जन होगा।

लगता है एपेप की स्थिति यही है। इस तंत्र के दोनों तारे सौर पवन फेंक रहे हैं। इस पवन और साथ में उत्पन्न रोशनी का अध्ययन करने पर पता चला है कि पवन की रफ्तार 3400 कि.मी. प्रति सेकंड है जबकि धूल के फव्वारे मात्र 570 कि.मी. प्रति सेकंड की रफ्तार से छूट रहे हैं। नेचर एस्ट्रॉनॉमी नामक शोध पत्रिका में बताया गया है कि ऐसा तभी हो सकता है जब यह तारा तेज़ी से घूर्णन कर रहा हो। तभी ध्रुवों से तेज़ पवन निकलेगी और विषुवत रेखा के आसपास गति धीमी होगी। यदि यह बात सही है कि वुल्फ रेयत तेज़ी से लट्टू की तरह घूम रहा है तो इसमें से गामा किरणों के पुंज निकलेंगे, और यदि पृथ्वी इनके रास्ते में रही तो काफी खतरा हो सकता है। अलबत्ता, गणनाओं से पता चला है कि पृथ्वी इनके रास्ते में नहीं है। वैसे भी खगोल शास्त्री जिसे निकट भविष्य कह रहे हैं, वह चंद हज़ार साल दूर है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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