जलवायु मॉडल्स के अपने कार्बन पदचिन्ह

न दिनों जलवायु वैज्ञानिक एक पेचीदा मुद्दे पर संतुलन बनाने में जुटे हैं – स्वयं उनके द्वारा किए जा रहे पर्यावरण अध्ययन के प्रयासों के पर्यावरणीय प्रभाव। पिछले कई दशकों में सुपर-कंप्यूटर सिमुलेशन पृथ्वी की जलवायु प्रणाली को और विभिन्न कारणों से उसमें संभावित परिवर्तनों को समझने के अहम साधन रहे हैं। इन सिमुलेशन मॉडल्स में वायुमंडल, महासागरों और भूमि के बीच होने वाली अंतर्क्रिया पर बढ़ती ग्रीनहाउस गैसों के असर को समझने के प्रयास किए जाते हैं।

पिछले कुछ दशकों में पृथ्वी की जलवायु के सुपर-कंप्यूटर सिमुलेशन्स ने हमारी समझ को काफी बढ़ाया है। लेकिन ये मॉडल जटिल से जटिल होते गए हैं और इन्हें चलाने के लिए लगने वाली बिजली की मात्रा इतनी अधिक हो गई है कि वैज्ञानिकों को इनके अपने पर्यावरणीय प्रभावों की चिंता सताने लगी है।

हालांकि, एक-एक मॉडल उतना प्रभाव नहीं डालता, लेकिन ऐसे कई मॉडल्स को लंबे समय के लिए चलाने के लिए बड़े पैमाने पर कम्प्यूटेशनल क्षमता और मेमोरी की आवश्यकता होती है। परिणामस्वरूप सिमुलेशन मॉडल मेगावाट तक बिजली की खपत करते हैं जो अक्सर जीवाश्म ईंधन से प्राप्त होती है।

दुनिया भर के जलवायु सिमुलेशन प्रयासों का समन्वय करने वाले कपल्ड मॉडल इंटरकंपेरिज़न प्रोजेक्ट (सीएमआईपी) के 2022 में समाप्त हुए अंतिम दौर में लगभग 50 मॉडलिंग केंद्रों ने योगदान दिया था। इन सबमें बड़ी मात्रा में डैटा विकसित हुआ और काफी बिजली की खपत हुई। लेकिन सीएमआईपी की सह-अध्यक्ष का कहना है कि इनमें से बहुत थोड़े से केंद्रों ने कंप्यूटिंग क्षमता और ऊर्जा खपत की निगरानी की है।

इस मामले में शोधकर्ता मॉडलिंग के कामकाज में अधिक पारदर्शिता और कार्यकुशलता की वकालत कर रहे हैं जिससे इस समस्या के समाधान प्रयास काफी गति पकड़ रहे हैं। ऊर्जा उपयोग की निगरानी, सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करना, सुव्यवस्थित मॉडलिंग प्रक्रियाओं और वैज्ञानिक निष्ठा से समझौता किए बिना उत्सर्जन को कम करने की रणनीति इसका हिस्सा है। हालांकि, इन परिवर्तनों को लागू करने में चुनौतियां भी है। इसमें मॉडलिंग केंद्रों को उनके वैज्ञानिक लक्ष्यों के साथ-साथ पर्यावरणीय सरोकारों को प्राथमिकता देने के लिए प्रेरित करना शामिल होगा।

वर्तमान में, सीएमआईपी में रणनीति परिवर्तन की प्रक्रिया चल रही है। इसके तहत बहुत सारे मॉडल चलाने की बजाय, संकेंद्रित दृष्टिकोण की आवश्यकता पर ज़ोर दिया जा रहा है। सीएमआईपी का लक्ष्य है कि आवश्यक मॉडल के एक मुख्य सेट का समर्थन करके और सामुदायिक भागीदारी वाले प्रयोगों का समन्वय करके, वैज्ञानिक गुणवत्ता को संरक्षित करते हुए अनावश्यक उत्सर्जन को कम किया जाए।

अलबत्ता, कार्बन अनुशासन का उद्देश्य मॉडलिंग के दायरे से भी परे फैला हुआ है। इसमें कर्मचारियों की यात्रा के पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन करना और अनुसंधान संस्थानों के भीतर उपयुक्त तरीके अपनाने जैसे व्यापक विचार शामिल हैं। वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने के लिए तत्काल कार्रवाई की वकालत करते हैं, ऐसे में मॉडलिंग केंद्रों को मिसाल बनाना एक नैतिक अनिवार्यता है। अपनी कार्यप्रणाली के पर्यावरणीय परिणामों का सामना करते हुए जलवायु वैज्ञानिक न केवल अपने मॉडल को परिष्कृत कर रहे हैं बल्कि अधिक टिकाऊ भविष्य के लिए अपनी प्रतिबद्धता को पुन: परिभाषित भी कर रहे हैं। कार्बन अनुशासन को अपनाकर और पर्यावरणीय विचारों को अपने अनुसंधान कार्य में एकीकृत कर वे एक हरित, अधिक लचीले वैज्ञानिक उद्यम का रास्ता दिखा सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अंतरिक्ष यात्रियों की सेहत के लिए ‘मौत का कुआं’

नुष्यों ने चंद्रमा की धरती पर आखिरी बार कदम सन 1972 में, अपोलो मिशन के तहत रखा था। तब से अब तक चंद्रमा पर कोई अंतरिक्ष यात्री नहीं उतरा है, हालांकि अपने विभिन्न अंतरिक्ष यानों और मिशनों के ज़रिए खगोलविद लगातार चंद्रमा की निगरानी करते आए हैं। लेकिन अब वे फिर से चंद्रमा पर उतरने की तैयारी में है; वर्ष 2026 में नासा अपने आर्टेमिस मिशन के तहत चंद्रमा पर अंतरिक्ष यात्रियों को उतारने वाला है।

चंद्रमा तक पहुंचने और उतरने की कई चुनौतियां हैं जिनसे निपटने के प्रयास जारी हैं। इनमें से एक चुनौती है चंद्रमा के कम गुरुत्वाकर्षण में अंतरिक्ष यात्रियों को कमज़ोर और दुर्बल होने से बचाना।

वास्तव में, अंतरिक्ष यात्रियों का चंद्रमा पर रहना उतना आसान और सहज नहीं है, जितना कि पृथ्वी पर। जैसा कि हम जानते हैं चंद्रमा का न तो वातावरण पृथ्वी जैसा है और न ही गुरुत्वाकर्षण – चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का करीब 1/6 है। मिशन के दौरान यह सुनिश्चित करना होता है कि वहां अंतरिक्ष यात्रियों के लिए पर्याप्त हवा, भोजन और पानी हो, और वे विकिरण से सुरक्षित रहें। साथ ही, उन्हें बदली परिस्थितियों में शारीरिक तकलीफ न हो; सामान्य से कम गुरुत्वाकर्षण पर काम करने से अंतरिक्ष यात्रियों की हड्डियां भुरभुराने लगती हैं, मांसपेशियां शिथिल पड़ जाती हैं, चलने-फिरने या ताल-मेल वाले अन्य किसी काम को करने के लिए ज़रूरी तंत्रिका तंत्र का आवश्यक नियंत्रण नहीं रहता है और ह्रदय और श्वसन तंत्र पर भी प्रभाव पड़ता है।

इससे निपटने के लिए ‘डीकंडीशनिंग’ उपाय यानी कि व्यायाम वगैरह करना पड़ता है ताकि वे स्वस्थ रह सकें। लेकिन मसला यह है कि प्रत्येक संभावित स्वास्थ्य समस्या के लिए अलग-अलग तरह के व्यायाम करने पड़ते हैं। जैसे तेज़ दौड़ना, कूदना, उछलना, जॉगिंग जैसे उपाय दिल और फेफड़ों को तो ठीक-ठाक बनाए रखते हैं लेकिन मांसपेशियों और हड्डियों को उतना दुरूस्त नहीं रख पाते।

रॉयल सोसायटी ओपन साइंस में प्रकाशित हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इसी चुनौती से निपटने का तरीका सुझाया है। उनका सुझाव है कि अंतरिक्ष यात्री चंद्रमा पर यदि सर्कस वाले ‘मौत का कुआं’ में दौड़ लगाएं तो इन सारी समस्याओं से निपटा जा सकता है।

दरअसल, मिलान युनिवर्सिटी के फिज़ियोलॉजिस्ट अल्बर्टो मिनेट्टी और उनके सहयोगियों ने अपनी गणना में पाया था कि भले ही मनुष्य धरती पर ‘मौत के कुएं’ के चारों ओर चल या दौड़ न पाएं लेकिन चंद्रमा के कम गुरुत्वाकर्षण में वे यह करतब बहुत आसानी से कर पाएंगे; उन्हें 12 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ना पर्याप्त होगा।

उन्होंने अपने इस विचार को जांचा। इसके लिए उन्होंने अपने दो शोधकर्ताओं को 36 मीटर ऊंची क्रेन और नायलोन की इलास्टिक रस्सी की मदद से मौत के कुएं में लटकाया। इस सेट-अप ने उनके शरीर के वज़न को चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण पर महसूस होने वाले वज़न जितना कर दिया, यानी परिस्थिति चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण जैसी बन गई। इस सेटअप के साथ शोधकर्ताओं को दौड़ाया। उन्होंने पाया कि प्रत्येक दिन की शुरुआत और अंत में कुछ मिनट इस तरह दौड़ने से हड्डियों, मांसपेशियों, हृदय और तंत्रिका तंत्र सम्बंधी समस्याओं से निपटा जा सकता है।

नतीजे तो उनको बढ़िया मिले हैं लेकिन सवाल उठता है कि जहां अंतरिक्ष में थोड़ा भी अतिरिक्त वज़न भेजना बहुत खर्चीला होता है वहां इतना बड़ा ‘मौत का कुआं’ भेजना कितना व्यावहारिक होगा? इस पर शोधकर्ताओं का सुझाव है कि वास्तव में चंद्रमा पर ‘मौत का कुआं’ ले जाने की बजाय अंतरिक्ष यात्रियों के रहने वाले कक्ष ही गोलाकार बनाए जा सकते हैं ताकि वे उसकी दीवार के चारों ओर दौड़ सकें।

सवाल वही आ जाता है कि क्या चंद्रमा पर अंतरिक्ष यात्रियों के रहने लिए बनाए जाने वाले कक्ष ऐसा ट्रैक बनाने के लिए पर्याप्त बड़े होंगे। बहरहाल, अन्य दल भी इस पर काम कर रहे हैं। जैसे, एक दल अंगों को सिकोड़ने और रक्त प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए इनफ्लेटैबल कफ पर काम कर रहा है। (स्रोत फीचर्स)

इस प्रयोग को निम्नलिखित साइट्स पर विडियो रूप में देखा जा सकता है

https://www.youtube.com/watch?v=xU3wkAExTgc https://www.theguardian.com/science/2024/may/01/astronauts-could-run-round-wall-of-death-to-keep-fit-on-moon-say-scientists

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जड़ी-बूटियों का उपयोग करता ओरांगुटान

क हालिया अवलोकन में, वैज्ञानिकों ने सुमात्रा में पाए जाने वाले एक जंगली ओरांगुटान को चेहरे के घाव के इलाज के लिए एक औषधीय पौधे के पुल्टिस का लेप करते देखा है। साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित यह खोज किसी जंगली जीव द्वारा उपचार के लिए जड़ी-बूटी के उपयोग का पहला मामला है। इसका विडियो यहां देख सकते हैं: https://www.youtube.com/watch?v=xfYANAdmOrk.

इस औषधि का उपयोग करने वाले राकस नामक ओरांगुटान को सबसे पहले जर्मनी स्थित मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल बिहेवियर के शोधकर्ताओं ने देखा। गौरतलब है कि 2009 में जब राकस इस जंगल में आया था तब वह युवा था और गालों के पैड अविकसित थे। 2021 तक राकस वयस्क हो गया चुका था और उसके गालों पर फ्लैंज दिखाई देने लगे थे। इस जीव के अवलोकन के दौरान वर्ष 2022 में शोधकर्ताओं ने उसके चेहरे पर एक खुला घाव देखा, जो संभवत: अन्य नरों के साथ ‘इलाके’ के झगड़े के दौरान लगा था।

हैरानी की बात यह थी कि घाव लगने के कुछ दिनों बाद राकस को अकर कुनिंग नामक पौधे के तने और पत्तियों का सेवन करते देखा गया। इस पौधे का उपयोग मधुमेह और पेचिश जैसी विभिन्न बीमारियों के इलाज में किया जाता है। आश्चर्य इसलिए भी था क्योंकि इस क्षेत्र में ओरांगुटान शायद ही कभी इस पौधे को खाते हैं। राकस ने न केवल पत्तियों को खाया बल्कि पत्तियों को चबाकर घाव पर लगभग 7 मिनट तक लगाया भी। आठ दिनों के भीतर उसका घाव पूरी तरह ठीक हो गया।

यह व्यवहार पशु बुद्धिमत्ता और आत्म-चेतना की पिछली धारणाओं को चुनौती देता है। हालांकि स्वयं इलाज की प्रवृत्ति विभिन्न प्रजातियों में देखी गई है, लेकिन किसी जीव द्वारा कुछ दिनों तक घाव का इलाज करने के लिए किसी विशिष्ट पौधे का उपयोग करने का यह पहला अवलोकन है।

शोधकर्ताओं को लगता है कि संभवत: मनुष्यों ने जीवों के व्यवहार को देखकर उपचार के बारे में सीखा होगा। इस तरह के ज्ञान का संचार, चाहे मनुष्यों के बीच हो या विभिन्न पशु प्रजातियों के बीच, पीढ़ियों तक बना रह सकता है, और सभी जीवन रूपों के  परस्पर सम्बंध को उजागर करता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महामारी समझौता: कोविड-19 से सबक – सोमेश केलकर, ऋचा पांडे

कोविड-19 महामारी पूरी दुनिया के लिए अप्रत्याशित त्रासदी थी। तालाबंदी के दौरान दुनिया भर के लोगों को पैसे, भोजन, नौकरी, यातायात आदि चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। सरकारों को एक अलग किस्म की चुनौती का सामना करना पड़ा था; अपने आलीशान दफ्तरों में बैठकर उन्हें विपक्ष, पत्रकारों और जनता के सवालों का सामना करना पड़ा था। ऐसे सवाल, जिनका उनके पास कोई जवाब नहीं था: वे अपने नागरिकों का इलाज कैसे करेंगे, महामारी के प्रसार पर अंकुश कैसे लगाएंगे, महामारी के दौरान नागरिकों के लिए आवश्यक सेवाओं का इंतज़ाम कैसे करेंगे?

ऐसी स्थिति से निपटने के लिए कोई पूर्व दिशानिर्देश नहीं थे; न तो स्वास्थ्य कर्मियों के लिए और न ही अधिकतर सरकारों के लिए। परिणामस्वरूप, तालाबंदी और अन्य ऐहतियाती उपाय लागू किए गए जो अलग-अलग स्तर पर सफल भी रहे। जल्द ही टीकों पर काम और टीकाकरण कार्यक्रम भी शुरू हो गया। यहीं से बात बिगड़ने लगीं। कुछ देश खुद अपने यहां टीके बनाने में सक्षम थे, कुछ को टीके आयात करना पड़े। टीकों की मांग भारी थी और आपूर्ति कम। राष्ट्रों द्वारा टीके हासिल करने की होड़ ने समस्या को और गहरा दिया था।

कुछ देशों के पास तो इतने टीके थे कि वे अपनी पूरी आबादी का कई बार टीकाकरण कर सकते थे, जबकि कुछ अन्य देशों के पास अपने सभी फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं के टीकाकरण के लिए भी पर्याप्त टीके नहीं थे। दुनिया के राजनीतिक परिदृश्य में, हमें दिखा कि विकसित देश विकासशील देशों को हाशिए पर धकेल रहे हैं। यदि टीके की जगह कोई अन्य वस्तु होती तो कह सकते थे कि पूरा मामला बाज़ार से संचालित हो रहा है, लेकिन टीके तो सीधे तौर पर जीवन बचाते हैं। ऐसे समय में, कुछ देशों द्वारा ज़रूरत से ज़्यादा टीके खरीदना क्या सिर्फ इसलिए जायज़ ठहराया जा सकता था कि उनके पास अधिक क्रय शक्ति थी? विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की महामारी संधि का उद्देश्य इसी तरह की समस्या से निपटना है। उम्मीद है, भविष्य में यह संधि महामारियों को बेहतर संभालने में मदद करेगी।

महामारी संधि क्या है?

WHO में इस पर वार्ता जारी है कि भविष्य में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महामारियों से निपटने के तरीके क्या हों। इन्हें मई 2024 तक अंतिम रूप देने का लक्ष्य है। इस नई संधि को संयुक्त राष्ट्र स्वास्थ्य एजेंसी के 194 सदस्य देशों द्वारा अपनाया जाएगा।

वैसे तो इस संदर्भ में WHO के अनिवार्य (या बाध्यकारी) नियम पहले से ही मौजूद हैं जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य विनियमन (IHR) कहा जाता है। लेकिन महामारी रोकथाम, तैयारी और प्रतिक्रिया समझौते (Pandemic Prevention, Preparedness and Response, PPR समझौते) का उद्देश्य पहले से मौजूद नियमों में इज़ाफा करना है ताकि भविष्य की महामारियों से बेहतर तरीके से निपटा जा सके।

कोविड महामारी ने स्पष्ट कर दिया है कि हर राष्ट्र के समस्याओं से अकेले निपटने के दिन लद गए हैं। ͏इस संधि में मज़बूत वैश्विक सहयोग स्थापित करने का प्रयास है। संधि जानकारियां साझा करने के महत्व पर ज़ोर देती है। रोगाणु किसी सरहद को नहीं मानते, और यही बात उनके बारे में हमारे ज्ञान पर भी लागू होना चाहिए। यह समझौता सदस्य राष्ट्रों के बीच डैटा और नमूनों के त्वरित और पारदर्शी आदान-प्रदान करने की बात कहता है। किसी भी नवीन वायरस को जल्दी ताड़ना और पहचानना उससे निपटने की दृष्टि से अहम है। 

PPR समझौते का एक अन्य महत्वपूर्ण बिंदु है संसाधनों तक समान पहुंच। महामारियों के परिणाम राष्ट्रों की समृद्धि-संपदा में भेदभाव नहीं करते, लेकिन अफसोस कि कोविड-19 के मामले में ऐसा हुआ। समझौते का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सभी देशों की, उनकी आर्थिक स्थिति की परवाह किए बिना, महामारी से निपटने के लिए आवश्यक साधन/उपकरणों तक पहुंच हो। इसमें टीके, नैदानिक जांच, उपचार और निजी सुरक्षा साधन (पीपीई किट) शामिल हैं। आदर्श रूप से, यह समझौता इन महत्वपूर्ण संसाधनों के वैश्विक भंडार का आधार तैयार करेगा, जिसे संकट के समय तुरंत इस्तेमाल किया जा सकेगा।

इसका एक अन्य प्रमुख हिस्सा है राष्ट्रीय स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों को मज़बूत करना। महामारी ने पूरी दुनिया की स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे की कमज़ोरियां उजागर कर दी हैं। PPR समझौते का उद्देश्य देशों को सुदृढ़ सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली बनाने के लिए सशक्त करना है जिसमें पर्याप्त स्टाफ, अत्यधिक मरीज़ों को रख पाने क्षमता और रोग निगरानी क्षमताएं हों। इसमें प्रयोगशालाओं के नेटवर्क, महामारी विज्ञान विशेषज्ञता और सामुदायिक स्वास्थ्य आउटरीच कार्यक्रमों में निवेश शामिल है। राष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य तंत्र का मज़बूत आधार समन्वित वैश्विक प्रतिक्रिया में निर्णायक होगा।

कहते हैं, इलाज से बेहतर रोकथाम होती है। यह समझौता महामारी सम्बंधी तैयारियों के लिए रणनीतियों की रूपरेखा तैयार करने पर काम कर रहा है। इसके तहत संभावित महामारी के खिलाफ टीकों और उपचार पर अनुसंधान व विकास पर निवेश शामिल है। इसके अतिरिक्त, संधि वैश्विक महामारी प्रतिक्रिया योजना विकसित करने को बढ़ावा देती है जो संचार, समन्वय प्रोटोकॉल और संसाधन आवंटन तंत्र को स्पष्टता से परिभाषित करे। नियमित पूर्वाभ्यास और सिमुलेशन से इन योजनाओं को परखने में मदद मिलेगी और वास्तविक महामारी उभरने पर बेहतर कदम उठाए जा सकेंगे।

संधि की राह में रोड़े

PPR समझौते पर वार्ता जारी है। यदि सब कुछ योजना के अनुसार हुआ तो भविष्य की महामारियों से लड़ने की हमारी राह उतनी कठिन नहीं होगी जितनी अतीत में रही है। चूंकि सभी देश संधि के सभी हिस्सों पर सहमत नहीं हैं; अंतिम और प्रभावी समझौते का मार्ग चुनौतियों से भरा है।

1. संतुलन: संप्रभुता बनाम सहयोग

संधि की सबसे बड़ी बाधाओं में से एक है राष्ट्रीय संप्रभुता और वैश्विक सहयोग के बीच संतुलन बनाना। अपनी स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों और निर्णय-प्रक्रियाओं पर से नियंत्रण छोड़ने में राष्ट्रों की हिचक स्वाभाविक है। उन्हें WHO या सार्वजनिक स्वास्थ्य के संचालक अन्य राष्ट्रपारी निकायों द्वारा सार्वजनिक स्वास्थ्य सम्बंधी उपायों में दखलअंदाज़ी का डर है जो उनकी अर्थव्यवस्था या सामाजिक ताने-बाने को अस्त-व्यस्त कर सकती है।

अलबत्ता, संधि की प्रभाविता के लिए एक स्तर का अंतर्राष्ट्रीय सहयोग ज़रूरी है। जल्दी नियंत्रण के लिए महामारी के बारे में शीघ्रातिशीघ्र और पारदर्शिता से जानकारी साझा करना अहम है। इसके लिए परस्पर विश्वास और वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा को तात्कालिक राष्ट्रीय हितों के ऊपर रखने की इच्छाशक्ति ज़रूरी है।

संभावित समाधान

  • R͏ समझौता निर्णय लेने की एक स्तरबद्ध प्रणाली स्थापित कर सकता है, जिसमें समन्वित प्रतिक्रिया की ज़रूरत वाली आपातकालीन स्थितियों के सम्बंध में स्पष्ट दिशानिर्देश हों। वहीं, गैर-आपातकालीन स्थितियों में राष्ट्रीय स्वायत्तता का सम्मान किया जाए।
  • WHO को सशक्त किया जा सकता है, और साथ ही सदस्य राष्ट्रों का अपनी सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्रवाइयों के निर्णय का अंतिम अधिकार होना चाहिए।

2. समता बनाम लाभ: संसाधन द्वंद्व

एक और बड़ी चुनौती है महामारी के दौरान संसाधनों तक समतामूलक पहुंच सुनिश्चित करना। पिछली महामारी में विकसित और विकासशील देशों के बीच संसाधनों तक पहुंच में भारी असमानता देखी गई थी जिसके चलते गरीब देश जूझते रहे। PPR͏ समझौते का लक्ष्य सुरक्षित टीकों, उपचारों और नैदानिक सुविधाओं जैसे ज़रूरी साधनों तक सभी की उचित और किफायती पहुंच सुलभ करने वाला तंत्र स्थापित करना है।

गौरतलब है कि इस लक्ष्य को प्राप्त करने में दवा कंपनियों का मुनाफा कमाने का उद्देश्य आड़े आएगा। ये कंपनियां अनुसंधान और विकास पर भारी धन निवेश करती हैं। ज़ाहिर है वे अपने निवेश पर मुनाफा भी चाहेंगी। इस संदर्भ में बौद्धिक संपदा का अधिकार एक प्रमुख समस्या के रूप में सामने आता है।

संभावित समाधान

  • समझौता अनिवार्य लाइसेंसिंग जैसे तरीके आज़मा सकता है, जिसके तहत देशों को महामारी के दौरान पेटेंट दवाओं के जेनेरिक संस्करण उत्पादन की अनुमति मिल जाए। नवाचार और बौद्धिक संपदा पर अधिकार सम्बंधी चिंताओं को दूर करने के लिए समझदारी से बातचीत करने की आवश्यकता है।
  • , निदान और उपचार का एक वैश्विक भंडार बनाया जा सकता है, जो अमीर देशों द्वारा वित्त पोषित हो और महामारी के दौरान सभी देशों के लिए सुलभ हो।

3. लचीलेपन के बिल्डिंग ब्लॉक: स्वास्थ्य तंत्र का सशक्तिकरण

महामारी ने दुनिया भर की स्वास्थ्य प्रणालियों की कमज़ोरियों को उजागर किया है। PPR͏ समझौते का उद्देश्य देशों को सुदृढ़ सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली बनाने के लिए सशक्त करना है जिसमें पर्याप्त स्टाफ, अत्यधिक मरीज़ों को संभालने की क्षमता और रोग निगरानी क्षमताएं हों। इसमें प्रयोगशाला के नेटवर्क, महामारी विज्ञान विशेषज्ञता और सामुदायिक स्वास्थ्य आउटरीच कार्यक्रमों में निवेश शामिल है।

हालांकि यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि सीमित वित्तीय संसाधनों से जूझ रहे विकासशील देशों के लिए इतना बड़ा निवेश करना मुश्किल हो सकता है। इसके अलावा, राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणालियों के सुदृढ़ीकरण में समय लगता है, और अक्सर महामारी इसका इंतज़ार नहीं करती।

संभावित समाधान

  • , विकासशील देशों की स्वास्थ्य प्रणालियों को मज़बूत करने के लिए एक समर्पित वित्तपोषण तंत्र स्थापित किया जा सकता है। जिसमें समृद्ध राष्ट्र तयशुदा मानदंडों के आधार पर योगदान दें।
  • , प्रयोगशाला नेटवर्क स्थापित करना और रोगों पर नज़र रखने के सर्वोत्तम तरीके साझा करना शामिल हो सकता है।
  • , जो पहले से ही जारी किए जा सकते हैं ताकि आवश्यक तैयारियों के लिए धन जुटाया जा सके।

4. विज्ञान बनाम राजनीति: साक्ष्य-आधारित निर्णयों की चुनौती

महामारी के प्रति प्रभावी कार्रवाई पुख्ता वैज्ञानिक साक्ष्यों पर निर्भर करती है। लेकिन, राजनीति अक्सर इस पर पानी फेर देती है। डिजिटल युग में अफवाहें और गलत-जानकारियां आसानी और तेज़ी से फैलती हैं, और कभी-कभी राजनीतिक एजेंडे देश के रोग नियंत्रण के तरीकों को प्रभावित कर सकते हैं।

उदाहरण के लिए, राजनेता आर्थिक उथल-पुथल की समस्या से बचने के लिए प्रकोप की गंभीरता को कम बता सकते हैं या वे साक्ष्य-आधारित सार्वजनिक स्वास्थ्य उपायों की बजाय अंतर्राष्ट्रीय यात्राओं पर रोक लगाने को प्राथमिकता दे सकते हैं। PPR͏ समझौते के तहत साक्ष्य-आधारित निर्णय प्रक्रिया के लिए ऐसा स्पष्ट तंत्र बनाने की आवश्यकता है।

संभावित समाधान

  • ͏ समझौते के तहत, प्रकोप के दौरान सदस्य राष्ट्रों को निष्पक्ष मार्गदर्शन देने के लिए एक स्वतंत्र वैज्ञानिक सलाहकार निकाय बनाया जा सकता है।
  • , और वैज्ञानिक निष्कर्षों को सभी के साथ साझा करना महत्वपूर्ण होगा।

5. अज्ञात की बातचीत: लचीलेपन की चुनौती

महामारियों की प्रकृति है कि वे अक्सर अनुमानों से परे होती हैं। नए वायरस में ऐसी विशेषताएं हो सकती है जो पहले कभी किसी में न रही हों, जिससे विभिन्न नियंत्रण उपायों की प्रभावशीलता बदल सकती है। इसलिए संधि में कुछ हद तक लचीलापन आवश्यक है।

लेकिन जैसा कि हम भली-भांति जानते हैं, जटिल बारीकियों वाले दस्तावेज़ पर चर्चा कर हल निकालना एक धीमी और बोझिल प्रक्रिया हो सकती है। लचीलेपन पर संतुलन बनाना और कार्रवाई के लिए एक स्पष्ट रूपरेखा बनाना महत्वपूर्ण साबित होगा।

संभावित समाधान

  • ͏ समझौता महामारी के दौरान शीघ्र निर्णय लेने के लिए एक रूपरेखा दे सकता है, ताकि प्रत्येक प्रकोप की विशेषताओं के आधार पर अनुकूलन की गुंजाइश रहे। इसके अंतर्गत एक केंद्रीय समन्वय निकाय को अस्थायी सिफारिशें जारी करने के लिए समर्थ बनाना शामिल हो सकता है।
  • , संभवत: हर पांच साल में, नए वैज्ञानिक ज्ञान और पिछले प्रकोपों से सीखे गए सबक के आधार पर अपडेट करने में मदद करेगी। इससे उभरते खतरों के लिए संधि प्रासंगिक और प्रभावी बनी रहेगी।
  • , प्रकोप का सिमुलेशन और कार्रवाई योजनाओं का परीक्षण करने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है। इन प्रयासों से कमज़ोरियां और सुधार के बिंदु पहचानने में मदद मिलेगी।

निष्कर्ष

कोविड-19 महामारी ने हमारी कमज़ोरियों को उजागर किया, और सरहदों के बंधनों से स्वतंत्र वायरस का विनाशकारी रूप दिखाया है। इसके मद्देनजर, प्रस्तावित PPR͏ समझौता आशा की किरण जगाता है। हालांकि संधि को अंतिम स्वरूप में आने के लिए कई चुनौतियों से निपटना है। उपरोक्त चिंताओं और चुनौतियों को संबोधित करती वार्ता संधि को एक वैश्विक सुरक्षा कवच का रूप दे सकती है, ताकि महामारी आने पर कोई भी देश पीछे न छूटे, वंचित न रहे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीवन अलग रंग भी दर्शा सकता है

म जब भी अन्य ग्रहों पर जीवन के बारे में सोचते हैं तो हमारे मन में अधिकतर अपने आसपास दिखने वाले या वर्तमान में हावी जीवन रूपों की ही कल्पना उभरती है। लेकिन यदि वैज्ञानिक इस गफलत में रहते हुए अन्य ग्रहों पर जीवन या जीवन परिस्थितियां खोजने की कोशिश करेंगे तो संभव है कि कहीं पर जीवन होते हुए भी हम उसे देख न पाएं और तलाश के सारे प्रयास निरर्थक हो जाएं।

तलाश में ऐसा ही कोई जीवन रूप खगोलविदों की नज़र से न चूके इसके लिए कॉर्नेल विश्वविद्यालय के खगोलविद हर संभव जीवन रूप का डैटाबेस तैयार कर रहे हैं। इसी प्रयास में उन्होंने लैवेंडर रंग के बैक्टीरिया की रासायनिक संरचना की पड़ताल की। पाया कि हमसे दूर स्थित और हमारे सूर्य से छोटे, लाल मंद तारों के चक्कर लगाने वाले पृथ्वी सरीखे ग्रहों पर जीवन जामुनी रंग का हो सकता है। दरअसल ये बैक्टीरिया सरल प्रकाश संश्लेषण प्रणाली की मदद से लाल या अवरक्त प्रकाश अवशोषित करते हैं, और उससे ऊर्जा प्राप्त करते हैं लेकिन ऑक्सीजन नहीं बनाते। आरंभ में, जब हमारी पृथ्वी पर वनस्पति की वर्तमान प्रकाश संश्लेषण प्रणाली विकसित नहीं हुई थी तब, इन्हीं सूक्ष्मजीवों का बोलबाला रहा होगा। ये बैक्टीरिया इतनी विविध परिस्थितियों में जीवित रह सकते हैं और पनप सकते हैं कि यह लगना लाज़िम है कि कई अलग-अलग ग्रहों पर जीवन जामुनी रंग का हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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क्या यादों को मिटने से टाला जा सकता है

मारी याददाश्त एकदम पक्की हो, यह तो हम सभी की इच्छा होती है। लेकिन फिर भी हमारे दिमाग से कई बातें बिसर जाती हैं। बिसरना, स्मृति का दूसरा पहलू है जो जीवों को बदलते पर्यावरण के अनुरूप ढलने में मदद करता है। इसलिए स्मृति को पूरी तरह से समझने के लिए उनके बनने के साथ-साथ उनके बिसरने को भी समझने की ज़रूरत है, जिसके प्रयास वैज्ञानिक करते आए हैं।

ऐसे ही एक प्रयास में, तेल अवीव युनिवर्सिटी के अनुवांशिकीविद ओदेद रेचावी और उनकी एक छात्रा डैना लैंडशाफ्ट बर्लिनर ने गोलकृमि (Caenorhabditis elegans) की अल्पकालिक याददाश्त बढ़ाने का प्रयास किया। दरअसल, C. elegans कोई भी नई जानकारी सीखने के दो-तीन घंटे बाद ही उसे भूल जाते हैं।

तो, पहले तो शोधकर्ताओं ने कृमियों को उनकी एक पसंदीदा गंध को नापसंद करने के लिए प्रशिक्षित किया। इसके लिए उन्होंने इस गंध को कृमियों को तब सुंघाया जब वे बहुत देर के भूखे थे। गंध नापसंद करना सीखने के दो घंटे बाद कृमि गंध के साथ बने इस नकारात्मक सम्बंध को भूल जाते थे और गंध की ओर फिर खिंचे चले जाते थे। यानी यदि वे गंध की ओर जाने लगें तो माना गया कि वे नापसंदगी को भूल गए हैं।

फिर शोधकर्ताओं ने कृमियों को बर्फ में रखा। पाया कि कम से कम 16 घंटे तक ठंडे में रखने पर कृमियों की गंध सम्बंधी स्मृति बनी रहीं। लेकिन, जैसे ही उन्हें बर्फ से हटाया गया तो उनके स्मृति लोप की घड़ी चालू हो गई और तीन घंटे बाद वे गंध के प्रति अपनी घृणा को भूल गए।

एक अन्य प्रयोग में शोधकर्ताओं ने कृमियों को पहले रात भर बर्फ में रखा ताकि वे ठंडे वातावरण के प्रति अनुकूलित हो जाएं और फिर उन्हें गंध प्रशिक्षण दिया। और इसके बाद उनकी स्मृति बने रहने का समय मापा। वे हमेशा की तरह जल्दी ही गंध को भूल गए थे।

एक और प्रयोग में उन्होंने कृमियों के एक समूह को लीथियम औषधि (दरअसल लीथियम का लवण) दी और एक को कंट्रोल के तौर पर रखा। फिर उन्होंने कृमियों में गंध से नापसंद का सम्बंध बैठाया। उन्होंने पाया कि लीथियम ने सामान्य तापमान पर भी उनकी स्मृति 5 घंटे बरकरार रखी थी। लेकिन ठंडे वातावरण के प्रति अनुकूलित कृमियों में लीथियम देने से उनकी स्मृति पर कोई असर नहीं पड़ा था; उनकी स्मृति उसी रफ्तार से मिटी जितनी रफ्तार से गैर-लीथियम समूह की मिटी थी।

शोधकर्ताओं का कहना है कि इसमें डायएसाइलग्लिसरॉल नामक एक संकेतक अणु की भूमिका लगती है। C. elegans में यह अणु स्मृति और सीखने से सम्बंधित कोशिकीय प्रक्रिया को घटाने-बढ़ाने का काम करता है, और गंध-स्मृति के लिए अहम होता है। उनके इस निष्कर्ष का आधार यह है कि जब बर्फ एवं लीथियम से स्मृति लंबे समय तक बनी रही थी, तब उनमें डायएसाइलग्लिसरॉल के स्तर में कमी देखी गई थी। यह इसलिए भी उचित लगता है कि लीथियम उस एंज़ाइम को बाधित करने के लिए जाना जाता है जो डायएसाइलग्लिसरॉल का जनक है। बायपोलर समस्या-ग्रस्त व्यक्तियों में लीथियम की उपयोगिता का आधार शायद यही प्रक्रिया है।

यह भी दिखा कि स्मृति का बने रहना कोशिका झिल्ली की कठोरता से भी जुड़ा है, जो ठंड के कारण बढ़ जाती है। जिन कृमियों की कोशिका झिल्ली सामान्य कृमियों की कोशिका झिल्ली से अधिक सख्त थी, उनकी भूलने की दर सामान्य कृमियों की तुलना में धीमी थी, यहां तक कि सामान्य तापमान पर भी। इससे लगता है कि झिल्ली का सख्त होना भूलने को टालता है।

ये नतीजे बायोआर्काइव प्रीप्रिंट में प्रकाशित हुए हैं और समकक्ष समीक्षा के मुंतज़िर है। स्मृति बनने-बिगड़ने के महत्व के मद्देनज़र शोधकर्ता अन्य जीवों पर भी प्रयोग कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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डायनासौर की चोंच ने एक पारिस्थितिक नियम तोड़ा

न 1847 में जर्मन जीवविज्ञानी कार्ल बर्गमैन ने प्राणि विज्ञान की एक प्रवृत्ति को एक नियम के रूप में व्यक्त किया था: ‘किसी भी प्रजाति में, अपेक्षाकृत बड़ी साइज़ के जानवर तुलनात्मक रूप से ठंडे वातावरण में पाए जाते हैं, जबकि गर्म क्षेत्रों में तुलनात्मक रूप से छोटे कद-काठी के जानवर पाए जाते हैं।’ यह नियम अक्सर पक्षियों और स्तनधारियों पर लागू किया जाता है।

मसलन, सबसे बड़े पेंगुइन अंटार्कटिका में पाए जाते हैं। उत्तर की ओर (यानी भूमध्य रेखा की ओर) थोड़ा बढ़ें तो वहां औसत साइज़ के पेंगुइन मिलते हैं, जैसे मैगेलैनिक पेंगुइन। और लगभग भूमध्य रेखा पर सबसे छोटे पेंगुइन, गैलापागोस पेंगुइन, मिलते हैं। ऐसी ही प्रवृत्ति मनुष्यों में भी देखी जा सकती है। ऊंचे कद के लोग उच्च अक्षांशों वाले स्थानों, जैसे स्कैंडिनेविया और उत्तरी युरोप, में पाए जाते हैं।

लेकिन नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित एक हालिया पेपर कहता है कि यह नियम हमेशा लागू नहीं होता है। अपने विश्लेषण में शोधकर्ताओं ने इस नियम को केवल समतापी जानवरों (जो अपने शरीर का तापमान स्थिर बनाए रखते हैं) के एक उपसमूह पर ही लागू होता पाया है, और वह भी तब जब अन्य कारकों को शामिल न कर सिर्फ तापमान पर विचार किया गया हो। इससे लगता है कि बर्गमैन का ‘नियम’ वास्तव में नियम की बजाय अपवाद ही है।

अलास्का फेयरबैंक्स विश्वविद्यालय के लॉरेन विल्सन देखना चाहते थे कि क्या बर्गमैन का नियम डायनासौर पर भी लागू होता है। यह देखने के लिए उन्होंने मीसोज़ोइक युग (साढ़े 25 करोड़ से साढ़े 6 करोड़ वर्ष पूर्व) में विभिन्न जलवायु परिस्थितयों में रहने वाले डायनासौर और स्तनधारियों का डैटा एक मॉडल में डाला – इसमें सबसे उत्तरी स्थल, प्रिंस क्रीक फॉर्मेशन, के डायनासौर फॉसिल का डैटा भी था। विश्लेषण में अक्षांश और जंतुओं की साइज़ के बीच कोई सम्बंध नहीं दिखा।

जब यही विश्लेषण आधुनिक स्तनधारियों और पक्षियों के लिए किया गया तो परिणाम काफी हद तक वैसे ही थे, हालांकि आधुनिक पक्षियों में कुछ हद तक बर्गमैन का नियम लागू होता दिखा।

बहरहाल यह अध्ययन पारिस्थितिकी सिद्धांतों को समझने में जीवाश्मों के महत्व को रेखांकित करता है और बताता है कि जैविक नियम प्राचीन प्राणियों पर उसी तरह लागू होने चाहिए जैसे वे वर्तमान में जीवित प्राणियों पर लागू होते हैं। यदि हम आधुनिक पारिस्थितिकी प्रणालियों की वैकासिक उत्पत्ति को नज़रअंदाज करेंगे तो हम उन्हें समझ नहीं सकते हैं। मामले को और स्पष्ट करने के लिए और विस्तृत तथा विभिन्न जंतुओं पर अध्ययन की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विज्ञान शिक्षा में विज्ञान के इतिहास और दर्शन की ज़रूरत – अनंतनारायणन रमन

कॉलेज स्तरीय विज्ञान शिक्षा का एक निर्विवाद उद्देश्य शिक्षार्थियों को आलोचनात्मक चिंतकों के रूप में तैयार करना है। विज्ञान शिक्षण का यह दायित्व है कि शिक्षार्थियों में तर्कसंगत सोच विकसित करके उन्हें सशक्त बनाए। लेकिन भारतीय कॉलेज और विश्वविद्यालयीन विज्ञान शिक्षा इस मुहावरे पर टिकी है कि विज्ञान को रटकर सीखा जा सकता है जिसमें दुर्भाग्य से तर्कसंगत सोच का तत्व नदारद होता है।

इस समस्या पर मीडिया और सरकारी रिपोर्टों में और उच्च शिक्षा से सम्बंधित कई पुस्तकों और जर्नलों में भी इसका ज़िक्र किया गया है। इन सभी अध्ययनों में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि भारत के कॉलेज और विश्वविद्यालय गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के उद्देश्यों से हटकर ऐसे परिसरों में बदल गए हैं जो वर्ष के अंत में होने वाली अप्रासंगिक परीक्षाओं के लिए शिक्षार्थियों की कोचिंग करते हैं (सिखाते नहीं हैं)। यहां यह याद रखना भी लाज़मी है कि experiment (प्रयोग) और experience (अनुभव) शब्द लैटिन शब्द experīrī से आए हैं, जिसका अर्थ है ‘किसी चीज़ को पूरी तरह और गहनता से करने का प्रयास करना।’ प्रयोग करना और अनुभव करना सत्य की खोज, वैज्ञानिक सत्य की खोज से जुड़ा है। वैज्ञानिक सत्य को दिमाग से ग्रहण करना होता है और दिमाग के करीब रखना होता है। यह बात एरिस्टोकल्स प्लेटो (लगभग 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व) के समय से ऐसी ही रही है।

सोच-विचार मनुष्यों की एक अनोखी क्षमता है। चूंकि विज्ञान ज्ञान-प्राप्ति का एक प्रयास है, इसलिए इसमें सोच-विचार की आवश्यकता होती है। इसका अभ्यास एथेंस के सुकरात (लगभग 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व) द्वारा किया गया था जिसे सुकराती पद्धति कहा जाता है। जब शिक्षकों और विद्यार्थियों द्वारा तर्कसंगत चुनौतियों और प्रति-चुनौतियों के आधार पर विज्ञान सीखा-सिखाया जाता है तब यह पद्धति सुगमता और त्वरित स्पष्टता प्रदान करती है। यह पद्धति सिर्फ प्राचीन यूनान के लिए विशेष नहीं थी, बल्कि प्राचीन भारत में भी यह एक प्रचलित पद्धति थी जिसका प्रमाण प्रश्नोपनिषद (पहली शताब्दी ईसा पूर्व) में मिलता है। लेकिन हमने ज्ञान की खोज और उसके निर्माण में प्रश्नोत्तर (द्वंद्वात्मक, संवादात्मक) पद्धति को अनदेखा कर दिया है।

शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच सार्थक चुनौतियां और तर्कपूर्ण प्रति-चुनौतियां दोनों की धारणाओं को उजागर करती हैं। यह पद्धति किसी समस्या या मुद्दे को पहचानने व वैध ठहराने में वस्तुनिष्ठता का समर्थन करती है और वस्तुनिष्ठता समझ को संभव बनाती है। संक्षेप में कहें तो तर्कसंगत सोच ‘मनन’ करने की क्षमता है जिसमें व्यक्ति किसी मुद्दे पर तार्किक, स्पष्ट और व्यवस्थित तरीके से सावधानीपूर्वक और गहराई से सोच-विचार करता है। आलोचनात्मक विचारक स्वयं अपने एहसासों पर विचार करते हैं, अपनी धारणाओं को चुनौती देते हैं, और उत्तर तथा समाधान तलाशते हैं। इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि वे अनुमान लगाते हैं कि भविष्य में उनके उत्तर और समाधान दूसरों के लिए अर्थपूर्ण होंगे या नहीं। एक आलोचनात्मक विचारक ज्ञात को विभेदित करता है और इसी के माध्यम से वह अज्ञात को जानने का प्रयास करता है। यह क्षमता शिक्षार्थियों को नए प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए प्रेरित करती है।

ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय कॉलेजी विज्ञान शिक्षार्थियों में आलोचनात्मक सोच की क्षमता पैदा करने और विश्लेषणात्मक कौशल विकसित करने के लिए अपर्याप्त है। इस अपर्याप्तता का एक आम कारण है कि व्याख्याता ‘तथ्यों’ (सूचनाओं) पर ज़ोर देते हैं और स्मृति-आधारित परीक्षाओं के लिए तैयार करते हैं; वे विज्ञान के तार्किक विकास को समझाने तथा यह समझाने का प्रयास नहीं करते कि कैसे तथ्यों और अवधारणाओं का विकास तर्क और तर्कसंगत वितर्कों के माध्यम से होता है। मौखिक और लिखित दोनों रूपों में संवाद विधा के साथ दैनिक जीवन से जुड़े उदाहरणों को सीखने की प्रक्रिया में शामिल करने से सक्रिय सीखने में मदद मिलती है, और इसे भारतीय कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के विज्ञान शिक्षण में शामिल करने की आवश्यकता है।

आलोचनात्मक सोच में प्रशिक्षण के लिए ऐसे विज्ञान कार्यक्रमों की महती ज़रूरत है जो विचारों के तार्किक विकास को तथा क्रमिक रूप से स्थापित प्रमाणों को सामने रखें। आज तार्किक सोच वाले नागरिकों को तैयार करने के लिए चल रहे समन्वित प्रयास और कक्षाओं में उपयोग की जाने वाली शिक्षण विधियों के बीच एक बड़ी खाई है।

इसे एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं कि जीव विज्ञान की स्नातक कक्षा में प्रकाश संश्लेषण का आकर्षक विषय कैसे पढ़ाया जाता है। बहुत थोड़े से शिक्षक अपने विद्यार्थियों को प्रेरित करते होंगे कि वे पिछले 200 वर्षों में प्रकाश संश्लेषण की विकसित होती समझ को चरण-दर-चरण पढ़ें, चर्चा करें और लिखें। क्या कभी 1779 में प्रकाशित यान इंगेनहौज़ (1730-1799) के क्लासिक प्रकाशन की बात की जाती है जिसमें प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया में प्रकाश की भूमिका पर ज़ोर दिया गया था? कितने शिक्षक हैं जो जीव विज्ञान के नए विद्यार्थियों को इंगेनहौज़ के मोनोग्राफ पर हॉवर्ड स्प्रैग रीड (1876‒1950) की टिप्पणी को पढ़ने, उस पर चर्चा करने और उसका मूल्यांकन करने के लिए कहते हैं? हममें से कितने शिक्षक इंगेनहौज़ के मोनोग्राफ (1779) में विकसित दलीलों के तार्किक क्रम को स्पष्ट करते हैं जो यान बैप्टिस्टा फान हेलमॉन्ट (1580-1644) और जोसेफ प्रिस्टले (1733-1904) के कामों पर विकसित हुआ था।

कहना न होगा कि कैसे इंगेनहौज़ द्वारा दी गई प्रकाश संश्लेषण की व्याख्या ने निकोलस-थियोडोर सोश्योर (1767-1845), जूलियस रॉबर्ट फॉन मेयर (1814-1878), जूलियस फॉन सैक्स (1832-1897) और कॉर्नेलिस फान नील (1897-1985) को प्रेरित किया था और इन वैज्ञानिकों ने समझ को आगे बढ़ाया था। आज हम बड़ी उदारता से 6CO2 + 6H2O + प्रकाश ऊर्जा → C6H12O6 + 6O2 समीकरण का उपयोग करते हैं, और कॉर्नेलिस फान नील (1897-1985) का ज़िक्र तक नहीं करते। जबकि नील ने ही सबसे पहले इस समीकरण को CO2 + 2H2A + प्रकाश ऊर्जा → [CH2O] + 2A + H2O के रूप में प्रतिपादित किया था।

यह समीकरण 1931 में आर्काइव्स ऑफ माइक्रोबायोलॉजी एंड रिक्यूइल डेस ट्रैवॉक्स बोटेनिक्स नेरलैंडेस में प्रकाशित हुआ था। पिछले कुछ दशकों में प्रकाश-निर्भर और प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रियाओं तथा प्रकाश संश्लेषण के केल्विन चक्र के आणविक चरणों को स्पष्ट करने के लिए बहुत कुछ जोड़ा गया है। यहां इस बात पर ज़ोर देना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि ये सभी मील के पत्थर हैं जो तर्क और तार्किक चिंतन के तत्वों को उजागर करते हैं और वैज्ञानिक समझ के हर सूक्ष्म चरण से जुड़े हैं। प्रकाश संश्लेषण के विषय में ज्ञान की प्रगति इसका एक उदाहरण है। अब सवाल यह है कि क्या हम विज्ञान की उस भावना, उत्साह और आनंद को अपने शिक्षार्थियों तक उत्साहपूर्वक पहुंचा रहे हैं।

प्रकाश संश्लेषण के उदाहरण से स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के विज्ञान शिक्षण के संदर्भ में विज्ञान के इतिहास और दर्शन का ज्ञान तथा उसकी समझ अनिवार्य है। प्रकाश संश्लेषण का उदाहरण दशकों तक चले विज्ञान के क्रमिक और तार्किक विकास का संक्षिप्त प्रस्तुतिकरण है। जब इसे विश्वसनीय ढंग से शिक्षार्थियों को समझाया जाता है, तो यह उन्हें बताता है और समर्थ बनाता है कि हम साथ मिलकर एक बौद्धिक कवायद में शामिल हैं जो हमें प्रकृति, विधियों और सूचनाओं के सोपानों में गहराई से गोता लगाने को प्रेरित करती है। सही तरीके से संप्रेषित करने पर यह विधि शिक्षार्थियों के मन में सवाल पैदा करती है और जब इन सवालों को सही तरह से सम्बोधित किया जाता है तो सत्य के नए-नए आयाम खुलते जाते हैं। इस तरह से एक विचारशील शिक्षार्थी के विकास को बढ़ावा मिलता है। रचनात्मक रूप से शिक्षार्थियों को अग्रणी नवाचारों (जैसे टीके, ‘गति-दूरी-समय’ के बीच सम्बंध, गुरुत्वाकर्षण तरंगें, आवर्त सारणी), संसाधनों की खोज (उदाहरण के लिए नैनोकण), और नवीन डिज़ाइनों के विकास (उदाहरण के लिए कैल्कुलस आधारित संरचनात्मक इंजीनियरिंग) में प्रयासों को पुन: जीने का मौका देकर एक प्रवीण शिक्षक बेहतरीन परिणाम प्राप्त कर सकता है। इसके साथ-साथ कोई रचनात्मक शिक्षक मध्यवर्ती कदमों को भी स्पष्ट करता चलेगा जो आगमनात्मक या निगमनात्मक सोच और आनुभविक या तर्कवादी सोच से आगे बढ़ते हैं। कोई भी प्रतिबद्ध शिक्षक कक्षा में चल रहे संवाद में मिथ्याकरण यानी फाल्सीफिकेशन के सिद्धांत की व्याख्या करेगा – इस लिहाज़ से कि यह उपलब्ध सिद्धांतों व अवधारणाओं की सत्यपरकता का आकलन करने का एक चरण होता है। वह यह भी बात करेगा कि कैसे पैराडाइम परिवर्तनों ने हमारी समझ को प्रभावित किया है जबकि उस समझ को कभी सही और सत्य माना जा रहा था। एक अच्छे अकादमिक व्यक्ति का अपने शिक्षार्थियों के लिए एक संक्षिप्त संदेश यही होगा कि वैज्ञानिक ज्ञान क्रांतिकारी परिवर्तनों के माध्यम से नई व्याख्याओं के साथ आगे बढ़ता है जो पूर्ववर्ती व्याख्याओं का स्थान ले लेती हैं।

प्रासंगिक कहानियों और उदाहरणों के साथ पढ़ाया जाने वाला विज्ञान का इतिहास और दर्शन छात्रों को एक व्यापक समझ देगा। यह उनकी बनी-बनाई समझ को हटाकर नए विचारों के बीज बोएगा। दार्शनिक बुनियादों – जैसे फ्रांसिस बेकन के प्रत्यक्षवाद से लेकर रेने देकार्ते के तार्किक अंतर्ज्ञान तक, कार्ल पॉपर के मिथ्याकरण से लेकर थॉमस कुन के पैराडाइम परिवर्तन तक – को जब कारगर ढंग से तथ्यों और सिद्धांतों से जोड़ा जाएगा और कलात्मक ढंग से पेश किया जाएगा तो वे विज्ञान के विद्यार्थियों में अवलोकनों, तर्क और स्पष्टता के बीच गतिशील सम्बंध उजागर करेंगे। शिक्षकों के ऐसे प्रयास निश्चित रूप से विद्यार्थियों को आगे और दूर तक सोचने की ओर ले जाएंगे। इन कारणों से कॉलेज और विश्वविद्यालयों के विज्ञान शिक्षण में विज्ञान के इतिहास व दर्शन को कल्पनाशील ढंग से और तथ्यामक विज्ञान के ताने-बाने में पिरोकर शामिल किया जाना चाहिए। इसके लिए सांस्कृतिक जानकारी या विशिष्ट मानव हितों की बात की जा सकती है। इस प्रकार गठित जानकारी को एक ऐसे संदर्भ में रखा जा सकता है जो शिक्षार्थियों को अपने निजी दायरे से प्रतिक्रिया देने और अपने दृष्टिकोण को लागू करने के अवसर पैदा करे।

मुख्यधारा विज्ञान शिक्षण में विज्ञान के दर्शन व इतिहास को शामिल करने का प्रमुख मकसद यह होगा कि विद्यार्थी प्रमाणों की वैकल्पिक व्याख्याओं पर विचार करने, उनकी तुलना व उनके बीच अंतर देखने की क्षमता विकसित कर सकें, तराश सकें। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षक जब विज्ञान के इतिहास और दर्शन पर चर्चा करें, तब वे शिक्षार्थियों को ऐसे सवाल पूछने को प्रोत्साहित करें – ‘हमें यह कैसे पता चला?’ और ‘ऐसा कहने के पीछे प्रमाण क्या है?’ ये सवाल वे स्वयं से या सार्वजनिक रूप से पूछ सकते हैं। ये सवाल प्रभावी रूप से ज्ञानमीमांसा से जुड़े हैं। यह शिक्षार्थियों को अपने पिछले ज्ञान को पहचानने और महत्व देने में सक्षम बनाने के अवसर प्रदान करता है जो निर्मितिवाद यानी कंस्ट्रक्टिविज़्म की ओर एक कदम है। निर्मितिवाद इस बात पर ज़ोर देता है कि शिक्षार्थियों को इस तरह से सशक्त बनाया जाए कि वे जो कुछ भी करते हैं, उसका अर्थ निकाल सकें ताकि सीखना सर्वोत्तम हो।

मेरी निम्नलिखित टिप्पणी पर अलिप्त भाव से विचार करने की आवश्यकता है। क्या हम पूरे विश्वास और संतुष्टि से कह सकते हैं कि कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में दी जाने वाली विज्ञान शिक्षा हमारे शिक्षार्थियों में रचनात्मक सोच को प्रोत्साहित करने की अनिवार्य आवश्यकता को पूरा करती है? हालांकि इसमें अपवाद अवश्य हो सकते हैं और इस टिप्पणी को सामान्यीकृत नहीं किया जा सकता, लेकिन यह भी सत्य है कि जैव-भौतिक दुनिया से सम्बंधित कुछ प्रयोगों को सीखना और उन्हें परीक्षा हॉल में पूरी ईमानदारी से दोहरा देने के कौशल का निर्माण निश्चित रूप से न तो विज्ञान सीखना है और न ही विज्ञान शिक्षण है। विज्ञान को सीखने-सिखाने के लिए व्यावहारिक तथा अनुभवात्मक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है जो कक्षा से परे कौशल, योग्यता और क्षमता के विकास को बढ़ावा देता है। यह दृष्टिकोण शिक्षार्थियों को ज्ञानमीमांसीय खुलेपन के आधार पर ज्ञान का निर्माण करने में सक्षम बनाता है, जिससे उन्हें न केवल विज्ञान के बारे में जानने का मौका मिलता है बल्कि वे इसे सही मायनों में समझ भी पाते हैं। क्या हम शिक्षार्थियों को सशक्त बनाने और वैज्ञानिक ज्ञान को सबसे प्रभावी ढंग से प्राप्त करने की सुविधा प्रदान करने के लिए अपनी रचनात्मक बुद्धि का लाभ उठा रहे हैं? यदि इसका उत्तर ‘हां’ है, तो मुझे खुशी है। (स्रोत फीचर्स)

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मौसम को कृत्रिम रूप से बदलने के खतरे – भारत डोगरा

हाल ही में दुबई में मात्र 1 दिन में 18 महीने की वर्षा हो गई और अति आधुनिक ढंग से निर्मित यह शहर पानी में डूब गया। कुछ दूरी पर स्थित ओमान में तो 18 लोग बाढ़ में बह गए, जिनमें कुछ स्कूली बच्चे भी थे।

इस बाढ़ के अनेक कारण बताए गए। इनमें प्रमुख यह है कि जलवायु बदलाव के चलते अरब सागर भी गर्म हो रहा है व पिछले चार दशकों में ही इसकी सतह के तापमान में 1.2 से 1.4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। इसके कारण वाष्पीकरण बढ़ रहा है और समुद्र के ऊपर के वातावरण में नमी बढ़ रही है।

दूसरी ओर गर्मी बढ़ने के कारण आसपास के भूमि-क्षेत्र के वायुमंडल में नमी धारण करने की क्षमता बढ़ जाती है। समुद्र सतह गर्म होने से समुद्री तूफानों की सक्रियता भी बढ़ती है। अत: पास के क्षेत्र में कम समय में अधिक वर्षा होने की संभावना बढ़ गई है।

तिस पर चूंकि यह शुष्क क्षेत्र है, तो यहां नए शहरों का तेज़ी से निर्माण करते हुए जल-निकासी पर उतना ध्यान नहीं दिया गया जितनी ज़रूरत थी। इस कारण भी बाढ़ की संभावना बढ़ गई।

इसके अतिरिक्त एक अन्य कारण भी चर्चा का विषय बना। वह यह है कि यूएई में काफी आम बात है कि बादलों पर ऐसा छिड़काव किया जाता है जिससे कृत्रिम वर्षा की संभावना बढ़ती है। जब मौसम वैसे ही तूफानी था तो इस तरह का छिड़काव बादलों पर नहीं करना चाहिए था। इस कारण भी वर्षा व बाढ़ के विकट होने की संभावना बढ़ गई।

यह तकनीक काफी समय से प्रचलित है कि वायुमंडल में कहीं सिल्वर आयोडाइड तो कहीं नमक का छिड़काव करके कृत्रिम वर्षा की स्थिति बनाई जाती है। इसके लिए विशेष वायुयानों का उपयोग किया जाता है। अनेक कंपनियां इस कार्य से जुड़ी रही हैं। यह तकनीक तभी संभव है जब वायुमंडल में पहले से यथोचित नमी हो। इस छिड़काव से ऐसे कण बनाने का प्रयास किया जाता है जिन पर नमी का संघनन हो और यह वर्षा या बर्फबारी के रूप में धरती पर गिरे।

इस प्रयास में कई बार यह संभावना रहती है कि तमाम चेष्टा करने पर भी वर्षा न हो, या कई बार यह संभावना बन जाती है कि अचानक इतनी अधिक वर्षा हो जाती है कि संभाली न जा सके व भीषण बाढ़ का रूप ले ले।

1952 में इंगलैंड में डेवान क्षेत्र में कृत्रिम वर्षा के प्रयोगों के बाद एक गांव बुरी तरह तहस-नहस हो गया था व 36 लोग बाढ़ में बह गए थे। इसी प्रकार, ल स्ट्रीट जर्नल में जे. डीन की रिपोर्ट (नवंबर 16, 2009) के अनुसार चीन में एक भयंकर बर्फीला तूफान इसी कारण घातक बन गया था।

हाल के एक विवाद की बात करें तो शारजाह में करवाई गई कृत्रिम वर्षा के संदर्भ में एक अध्ययन हुआ था। यह अध्ययन खलीद अल्महीरि, रेबी रुस्तम व अन्य अध्ययनकर्ताओं ने किया था जो वॉटर जर्नल में 27 नवंबर 2021 को प्रकाशित हुआ था। इसमें यह बताया गया कि कृत्रिम वर्षा से बाढ़ की संभावना बढ़ी है।

दूसरी ओर, यदि कृत्रिम वर्षा से ठीक-ठाक वर्षा हो, तो भी एक अन्य समस्या उत्पन्न हो सकती है – आगे जाकर जहां बादल प्राकृतिक रूप से बरसते वहां वर्षा न हो क्योंकि बादलों को तो पहले ही कृत्रिम ढंग से निचोड़ लिया गया है। इस कारण हो सकता है कि किसी अन्य स्थान से, जो सूखा रह गया है, उन क्षेत्रों का विरोध हो जहां कृत्रिम वर्षा करवाई गई है। यदि ये स्थान दो अलग-अलग देशों में हों, तो टकराव की स्थिति बन सकती है।

जियो-इंजीनियरिग तकनीक के उपयोग भी विवाद का विषय बने हैं। कहने को तो इनका उपयोग इसलिए किया जा रहा है कि इनसे जलवायु बदलाव का खतरा कम किया जा सकता है, पर इनकी उपयोगिता और सुरक्षा पर अनेक सवाल उठते रहे हैं।

इस संदर्भ में कई तरह के प्रयास हुए हैं या प्रस्तावित हैं। जैसे विशालकाय शीशे लगाकर सूर्य की किरणों को वापस परावर्तित करना, अथवा ध्रुवीय बर्फ की चादरों पर हवाई जहाज़ों से बहुत-सा कांच बिखेरकर इससे सूर्य की किरणों को परावर्तित करना (यह सोचे बिना कि पहले से संकटग्रस्त ध्रुवीय जंतुओं पर इसका कितना प्रतिकूल असर पड़ेगा)। इसी तरह से, समताप मंडल (स्ट्रेटोस्फीयर) में गंधक बिखेरना व समुद्र में लौह कण इस सोच से बिखेरना कि इससे ऐसी वनस्पति खूब पनपेगी जो कार्बन को सोख लेगी।

ये उपाय विज्ञान की ऐसी संकीर्ण समझ पर आधारित हैं जो एकपक्षीय है, जो यह नहीं समझती है कि ऐसी किसी कार्रवाई के प्रतिकूल असर भी हो सकते हैं।

फिलहाल सभी पक्षों को देखें तो ऐसी जियो-इंजीनियरिंग के खतरे अधिक हैं व लाभ कम। अत: इन्हें तेज़ी से बढ़ाना तो निश्चय ही उचित नहीं है। पर केवल विभिन्न देशों के स्तर पर ही नहीं, विभिन्न कंपनियों द्वारा अपने निजी लाभ के लिए भी इन्हें बढ़ावा दिया जा रहा है जो गहरी चिंता का विषय है।

चीन में मौसम को कृत्रिम रूप से बदलने का कार्य सबसे बड़े स्तर पर हो रहा है। अमेरिका जैसे कुछ शक्तिशाली देश भी पीछे नहीं हैं। समय रहते इस तरह के प्रयासों पर ज़रूरी नियंत्रण लगाने की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। (स्रोत फीचर्स)

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नारियल के फायदे अनेक – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

र्ष 2014 में उमा आहूजा और उनके साथियों ने एशियन एग्री-हिस्ट्री पत्रिका में प्रकाशित एक शोधपत्र में बताया था कि नारियल के पेड़ों को मलेशिया (Malesia) जैव-भौगोलिक क्षेत्र मूल का माना जाता है। जैव-भौगोलिक क्षेत्र यानी वह क्षेत्र जिसमें वितरित जंतुओं और पादपों के गुणों में समानता होती है। मलेशिया जैव-भौगोलिक क्षेत्र में दक्षिण पूर्व एशिया (विशेष रूप से भारत), इंडोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यू गिनी और प्रशांत महासागर में स्थित कई द्वीप समूह आते हैं। इस पेपर में पुरातात्विक साक्ष्यों, पुरालेखों एवं ऐतिहासिक अभिलेखों, और इसके उपयोग एवं इससे जुड़ी लोककथाओं के माध्यम से नारियल के इतिहास पर बात की गई है।

पुरातात्विक खुदाई के अलावा भारत में नारियल का उल्लेख शिलालेखों तथा धार्मिक, कृषि और आयुर्वेदिक महत्व के ग्रंथों में मिला है। इसके उपयोगों की बहुलता ने इसे जीवन-वृक्ष, समृद्धि-वृक्ष और कल्पवृक्ष (एक वृक्ष जो जीवन की सभी ज़रूरतें पूरी करता है) जैसे विशेषणों से नवाज़ा है। लेखक बताते हैं कि इसके खाद्य महत्व के अलावा इसके स्वास्थ्य, औषधीय और सौंदर्य लाभ भी हैं।

भारत में, नारियल मुख्य रूप से दक्षिणी राज्यों – केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में उगाया जाता है। 90% से अधिक नारियल का उत्पादन इन्हीं राज्यों में होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इन पेड़ों को गर्म और रेतीली मिट्टी की आवश्यकता होती है – ऐसी मिट्टी जिसमें जल निकासी बढ़िया हो और पोषक तत्व भरपूर हों। साथ ही, इन्हें गर्म और आर्द्र जलवायु, और प्रचुर वर्षा की भी ज़रूरत होती है।

उत्तर भारत की जलवायु मुख्यत: समशीतोष्ण है, जिसमें – जाड़े में अच्छी ठंड और गर्मियों में भीषण गर्म पड़ती है। इस क्षेत्र में अलग-अलग मौसम होते हैं और वर्षा भी असमान होती है, जो नारियल के पेड़ों की वृद्धि के लिए अनुकूल नहीं है। हालांकि, पूर्वोत्तर के कुछ राज्य भी उपयुक्त तापमान और वर्षा के चलते नारियल उगाते हैं, लेकिन वहां की मिट्टी चिकनी है जो नारियल के पेड़ों के उगने के लिए आदर्श नहीं है।

नारियल की भूमिका

भगवान को प्रसाद में चढ़ाई जाने वाली कई वस्तुओं में नारियल का एक विशेष और उच्च स्थान है। इसका उपयोग धार्मिक और सामाजिक समारोहों में किया जाता है, वहां भी जहां इसकी खेती नहीं होती। नारियल के पेड़ का रत्ती भर हिस्सा भी बेकार नहीं जाता, सभी हिस्सों को किसी न किसी उपयोग में लिया जाता है। अपनी अनगिनत उपयोगिताओं और खाद्य, चारा एवं पेय के रूप में प्रत्यक्ष उपयोग के ज़रिए नारियल ने विभिन्न समुदायों के लोगों के बीच सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक और भाषाई तौर पर जगह बना ली है।

दक्षिण भारत में नारियल दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्रत्येक मंदिर को नारियल के पेड़ों से सजाया जाता है, इसके (श्री)फल भगवान को चढ़ाए जाते हैं और भक्तों को प्रसाद के रूप में थोड़ा सा खोपरा और नारियल पानी दिया जाता है।

तरावट और स्वास्थ्य के मामले में नारियल पानी का कोई सानी नहीं है; यह तो अमृत ही है! और, मिठाई ‘कोलिक्कतई’ (या ‘मोदक’) का भी कोई सानी नहीं है, जो नारियल की ‘गरी’ से बनाई जाती है! (यह भगवान गणेश की पसंदीदा मिठाई है)। इसके अलावा, तमिलनाडु में पले-बढ़े होने के कारण मुझे (मेरी इच्छा के विपरीत) मेरी दादी हर महीने अरंडी के तेल या नारियल के तेल से स्नान करने के लिए मजबूर किया करती थीं!

स्वास्थ्य लाभ

नारियल के कई फायदे हैं। वेबसाइट Healthline.com इसकी ‘गरी’ में पाए जाने वाले कई पोषक तत्वों को सूचीबद्ध करती है: भरपूर वसा, भरपूर फाइबर, और विटामिन ए, डी, ई और के, जो अधिक खाने को नियंत्रित करते हैं और पेट को स्वस्थ रखने में मदद करते हैं।

इसके तेल की बात करें तो कुछ समूहों का सुझाव है कि नारियल का तेल शरीर की धमनियों और नसों में रक्त प्रवाह को लाभ पहुंचाता है, इस प्रकार यह हमारे हृदय की सेहत के लिए फायदेमंद होता है। कुछ समूह यह भी सुझाव देते हैं कि इससे अल्ज़ाइमर रोग थोड़ा टल सकता है, हालांकि इस सम्बंध में अधिक प्रमाण की आवश्यकता है।

एक वरिष्ठ नागरिक होने के नाते मैं नारियल तेल का उपयोग करता हूं, इस उम्मीद में कि यह मुझे ऐसी स्थितियों से बचाएगा। मैं अक्सर अपने सुबह के नाश्ते में टोस्ट पर मक्खन की जगह नारियल का तेल ही लगाता हूं। मेरी दादी देखतीं, तो प्रसन्न होतीं! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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